तदद्य वाचः प्रथमं मसीय येनासुराँ अभि देवा असाम।
ऊर्जाद उत यज्ञियास: पञ्चजना मम होत्रं जुषध्वम् ॥ (ऋग्वेद-१०.५३.४)
(अनुवाद-)- इस ऋचा में देवता सौचीकोऽग्निः कहता है आज उस प्रथम ( ज्ञान) को वाणी द्वारा मेैं उच्चारण करता हूँ। जो हृदयस्थ है। जिसके प्रभाव से देवगणों ने असुरो को अभिभूत (पराजित) किया था। ऊर्जा युक्त अन्नों का सेवन करनेवालो तथा मेरा यज्ञ करने वालों ! पाँच वर्णों के व्यक्तियों ! तुम मेरे हवन को प्रीतिपूर्वक सेवन करो।४।
वेदेषु वर्णिता: पञ्चजना: शब्दपद: पञ्चवर्णानां -प्रतिनिधय: सन्ति। ब्रह्मणरुत्पन्ना ब्राह्मण-क्षत्रिय- वैश्य शूद्रा: च चत्वारो वर्णा- इति।
तथा पञ्चमः वर्णो जातिर्वा शास्त्रेषु वैष्णववर्णस्य नाम्ना विष्णू रोमकूपेभ्यिति निर्मिता: गोपानां जातिरूपेण वा वर्णितम् अस्ति। तस्य विष्णुना सह निकटसम्बन्धोऽस्ति। अत एव ते सर्वे वैष्णावा भवन्ति।
(अनुवाद-)-वेदों में लिखित पञ्चजना विशेषण शब्द पाँच वर्णों के प्रतिनिधि व्यक्तियों का वाचक हैं। चार वर्ण ब्रह्मा से उत्पन्न हुए - चारवर्णों ब्राह्मण- क्षत्रिय- वैश्य और शूद्रों के रूप में वर्णित हैं।
और पाँचवां वर्ण अथवा जाति विष्णु के रोम-कूपों से उत्पन्न गोपों के वैष्णव वर्ण अथवा जाति के रूप में शास्त्रों में वर्णित ही है।
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