शनिवार, 28 जून 2025

कलियुग के ब्राह्मण पूर्व काल के राक्षस-

अभी कुछ ब्राह्मणहितेषी कह रहे हैं कि 
ब्राह्मण यदि गलत काम करने वाला भी है तो पूजा के योग्य है। ब्राह्मण हितैषी कह रहे हैं कि भगवान कृष्ण ने भागवत पुराण में यह कहा है -  
इस सन्दर्भ में वे निम्नलिखित श्लोकों का हबाला देते हैं-

विप्रं कृतागसमपि नैव द्रुह्यत मामकाः
घ्नन्तं बहु शपन्तं वा नमस्कुरुत नित्यशः।४१।
अनुवाद:-
"इसलिये मेरे आत्मीयो ! यदि ब्राह्मण अपराध करे, तो भी उससे द्वेष मत करो। वह मार ही क्यों न बैठे या बहुत-सी गालियाँ या शाप ही क्यों न दे, उसे तुम लोग सदा उसे नमस्कार ही करो ।
 
यद्यपि यह श्लोक प्रक्षिप्त ही है और इसे बाद में अप्रासंगिक रूप से भागवत पुराण में संलग्न किया गया है।

इसी क्रम में भागवत पुराण में ये निम्नांकित दो श्लोक भी जोड़े गये है। जैसे  जिन्हें कृष्ण पर आरोपित कर कृष्ण पर कह वा य
 गया है-

यथाहं प्रणमे विप्राननुकालं समाहितः
तथा नमत यूयं च योऽन्यथा मे स दण्डभाक् ।४२

ब्राह्मणार्थो ह्यपहृतो हर्तारं पातयत्यधः
अजानन्तमपि ह्येनं नृगं ब्राह्मणगौरिव ।४३।

अनुवाद:-

जिस प्रकार मैं बड़ी सावधानी से तीनों समय ब्राह्मणों को प्रणाम करता हूँ, वैसे ही तुमलोग भी किया करो  जो मेरी इस आज्ञाका उल्लङ्घन करेगा, उसे मैं क्षमा नहीं करूँगा, दण्ड दूंगा॥ 42॥

यदि ब्राह्मण के धन का अपहरण हो जाय तो वह अपहृत धन उस अपहरण करने वाले को – अनजान में उसके द्वारा यह अपराध हुआ हो तो भी- अधःपतनके गड्ढे में डाल देता है।
जैसे ब्राह्मण की गाय ने अनजान में उसे लेने वाले राजा नृग को नरक में डाल दिया था 43॥ 
ये सभी  प्रक्षिप्त श्लोक हैं।
सन्दर्भ:-श्रीमद्भागवतपुराण- स्कन्धः १० उत्तरार्द्ध अध्यायः (६४)


क्योंकि शास्त्री में दो तरह की विरोधी बाते मिलना उनका प्रक्षिप्त होना ही माना जाएगा-
देवीभागवत महापुराण भागवत पुराण के उपर्युक्त श्लोकों के विपरीत  ब्राह्मणों के  विषय में कहता है- इन दोनों में से बात तो एक ही सत्य मानी जाएगी -

देखें ब्राह्मण को विषय में देवीभागवत महापुराण क्या कहता है।

तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य गोभिलस्य महात्मनः।
शापाद्‌भीतो देवदत्तस्तमुवाचातिदुःखितः॥२८॥

कथं क्रुद्धोऽसि विप्रेन्द्र वृथा मयि निरागसि।
अक्रोधना हि मुनयो भवन्ति सुखदाः सदा॥२९॥

स्वल्पेऽपराधे विप्रेन्द्र कथं शप्तस्त्वया ह्यहम्।
अपुत्रोऽहं सुतप्तः प्राक् तापयुक्तः पुनः कृतः॥३०॥

मूर्खपुत्रादपुत्रत्वं वरं वेदविदो विदुः।
तथापि ब्राह्मणो मूर्खः सर्वेषां निन्द्य एव हि॥३१॥

पशुवच्छूद्रवच्चैव न योग्यः सर्वकर्मसु ।
किं करोमीह मूर्खेण पुत्रेण द्विजसत्तम॥३२॥

यथा शूद्रस्तथा मूर्खो ब्राह्मणो नात्र संशयः।
न पूजार्हो न दानार्हो निन्द्यश्च सर्वकर्मसु॥३३॥

देशे वै वसमानश्च ब्राह्मणो वेदवर्जितः।
करदः शूद्रवच्चैव मन्तव्यः स च भूभुजा॥३४॥

नासने पितृकार्येषु देवकार्येषु स द्विजः।
मूर्खः समुपवेश्यश्च कार्यश्च फलमिच्छता॥३५॥

राज्ञा शूद्रसमो ज्ञेयो न योज्यः सर्वकर्मसु।
कर्षकस्तु द्विजः कार्यो ब्राह्मणो वेदवर्जितः॥३६॥

विना विप्रेण कर्तव्यं श्राद्धं कुशचटेन वै।
न तु विप्रेण मूर्खेण श्राद्धं कार्यं कदाचन ॥३७॥

आहारादधिकं चान्नं न दातव्यमपण्डिते।
दाता नरकमाप्नोति ग्रहीता तु विशेषतः॥३८॥

धिग्राज्यं तस्य राज्ञो वै यस्य देशेऽबुधा जनाः।
पूज्यन्ते ब्राह्मणा मूर्खा दानमानादिकैरपि॥३९॥

आसने पूजने दाने यत्र भेदो न चाण्वपि।
मूर्खपण्डितयोर्भेदो ज्ञातव्यो विबुधेन वै॥४०॥

मूर्खा यत्र सुगर्विष्ठा दानमानपरिग्रहैः।
तस्मिन्देशे न वस्तव्यं पण्डितेन कथञ्चन॥४१॥

असतामुपकाराय दुर्जनानां विभूतयः।
पिचुमन्दः फलाढ्योऽपि काकैरेवोपभुज्यते॥४२॥

भुक्त्वान्नं वेदविद्विप्रो वेदाभ्यासं करोति वै ।
क्रीडन्ति पूर्वजास्तस्य स्वर्गे प्रमुदिताः किल॥४३॥

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समाधान- देवी भागवत महा पुराण में तृतीय स्कन्ध अध्याय (10) में गोभिल मुनि और देवदत्त के संवाद रूप में वर्णन मिलता है-
जिसमें वैदिक सिद्धान्तों के हवाले से तपस्वी देवदत्त गोभिल मुनि को बताते हैं-  कुपात्र और अज्ञानी ब्राह्मण कभी भी सम्मान और पूजा का पात्र नहीं होता है।

गोभिल का यह वचन सुनकर शाप से आहत देवदत्त ने अत्यन्त दुःखी होकर उनसे कहा- हे विप्रवर ! आप मुझ निर्दोष पर व्यर्थ ही क्यों क्रुद्ध हैं ? मुनिलोग तो सदा क्रोधरहित और सुखदायक होते हैं ॥ 28-29 ॥

हे विप्र थोडे से अपराध पर आपने मुझे शाप क्यों दे दिया ? पुत्रहीन होनेके कारण मैं तो पहले से  ही बहुत दुःखी था, उसपर भी शाप देकर आपने मुझे और भी दुःखी कर दिया। 

देवदत्त वेदों के विद्वानों का हबाला देते हुए कहते है-
"वेद के विद्वानों ने कहा है कि मूर्ख पुत्र की अपेक्षा पुत्रहीन रहना अच्छा है। उस पर भी मूर्ख ब्राह्मण तो सबके लिये निन्दनीय होता है। वह पशु एवं शूद्र के समान सभी कार्यों में अयोग्य माना जाता है। अतः हे विप्रवर ! मूर्ख पुत्र को लेकर मैं क्या करूँगा ? ॥30-32॥

मूर्ख ब्राह्मण शूद्रतुल्य होता है; इसमें सन्देह नहीं है; क्योंकि वह न तो पूजा के योग्य होता है और न दान लेने का पात्र ही होता है। वह सब कार्यों में निन्दनीय भी होता है ॥33॥

किसी देश में रहता हुआ वेदशास्त्रविहीन ब्राह्मण कर(टैक्स) देनेवाले शूद्र की भाँति एक राजा के द्वारा समझा जाना चाहिये॥34॥

फल की इच्छा रखनेवाले पुरुष को चाहिये कि देव तथा पितृकार्यों के अवसरपर उस मूर्ख ब्राह्मण को आसनपर न बैठाये ॥35॥

राजा भी वेदविहीन ब्राह्मण को शूद्र के समान समझे और उसे शुभ कार्यों में नियुक्त न करे, बल्कि उसे कृषि के काम में लगा दे ॥36॥

ब्राह्मण के अभाव में कुश के चट से स्वयं श्राद्धकार्य कर लेना ठीक है, किंतु मूर्ख ब्राह्मण से कभी भी श्राद्धकार्य नहीं कराना चाहिये ।37॥

मूर्ख ब्राह्मण को भोजन से अधिक अन्न नहीं देना चाहिये क्योंकि देनेवाला व्यक्ति नरक में जाता है और लेने वाला तो विशेषरूप से नरकगामी होता ही है ॥38॥

उस राजा के राज्य को धिक्कार है, जिसके राज्य में मूर्खलोग निवास करते हैं और मूर्ख ब्राह्मण भी दान, सम्मान आदि से पूजित होते हैं, साथ ही जहाँ मूर्ख और पण्डित (तत्वज्ञानी समदर्शी)  के बीच आसन, पूजन और दान में रंचमात्र भी भेद नहीं माना जाता। अतः विज्ञ पुरुष को चाहिये कि वह मूर्ख और पण्डित की जानकारी अवश्य कर ले ॥ 39-40 ।।

जहाँ दान, मान तथा परिग्रह से मूर्ख लोग महान् गौरवशाली माने जाते हैं, उस देश में पण्डितजन( तत्वदर्शी विद्वान)  को किसी प्रकार भी नहीं रहना चाहिये।

 दुर्जन व्यक्तियों की सम्पत्तियाँ दुर्जनों के उपकार के लिये ही होती हैं। जैसे अधिक फलों से लदे हुए नीम के वृक्ष का उपभोग  केवल कौए ही करते हैं ।। 41-42 ॥

परन्तु वेद को जानने वाले ब्राह्मण की प्रशंसा करते हुए देवी भागवत महापुराण में देवदत्त नामक तपस्वी कहते हैं-

वेदज्ञ ब्राह्मण जिसका अन्न खाकर वेदाभ्यास करता है, उसके पूर्वज परम प्रसन्न होकर स्वर्ग में विहार करते हैं ।। 43 ।।

जब वेदविहित कर्त्तव्यों का ब्राह्मण त्याग करने वाला हो तो वह कभी भागवतकथा कहने और पाण्डित्य कर्म करने का अधिकारी नहीं हो सकता है।

देवी भागवत महापुराण के बारहवें स्कन्ध में कलियुग के ब्राह्मणों के विषय में वर्णन है।
कि कलियुग मैं ब्राह्मण किस प्रकार के होते है।

पराम्बापूजनासक्ताः सर्वे वर्णाः परे युगे ।
तथा त्रेतायुगे किञ्चिन्न्यूना धर्मस्य संस्थितिः॥ ४१॥

द्वापरे च विशेषेण न्यूना सत्ययुगस्थितिः।
पूर्वं ये राक्षसा राजन् ते कलौ ब्राह्मणाः स्मृताः॥ ४२॥

पाखण्डनिरताः प्रायो भवन्ति जनवञ्चकाः ।
असत्यवादिनः सर्वे वेदधर्मविवर्जिताः ॥ ४३ ॥

सत्ययुग में सभी वर्णों के लोग भगवती पराम्बाके पूजन में आसक्त रहते थे। उसके बाद | 
त्रेतायुगमें धर्म की स्थिति कुछ कम हो गयी। 41।

सत्ययुगमें जो धर्म की स्थिति थी, वह द्वापर युग में विशेष रूप से  और कम हो गयी। हे राजन् !
पूर्वयुगों में जो राक्षस और व्यभिचारी समझे जाते थे, वे ही कलियुग में ब्राह्मण बनकर आते हैं।42।

कलियुग के ब्राह्मण प्राय: पाखण्डी ( दम्भी) और लोगों को ठगने वाले होते हैं। झूँठ बोलने वाले बात को घुमाफिराकर पेश करने वाले होते हैं।43।

स्कन्द पुराण में भी कलियुग के मिश्रण जातियों से उत्पन्न ब्राह्मणों के विषय में वर्णन ब्रह्मखण्ड मिलता है।

भगवान श्रीकृष्ण की चारित्रिक कथोओ ( भागवत ) को कहने का अधिकारी क्या ब्राह्मण है?
जबाब होगा कभी नहीं-
कारण -
______
पद्मऱपुराण उत्तरखण्ड के निम्नलिखित श्लोकों को आपने भागवत कथा कहने की शास्त्रीय पात्रता के सन्दर्भ में उद्धृत किया।

विरक्तो वैष्णवो विप्रो वेदशास्त्रविशुद्धिकृत् ।
दृष्टान्तकुशलो धीरो वक्ता कार्योऽति निःस्पृहः॥२०॥
अनुवाद:-विरक्त वैष्णव और विप्र ये तीनों वेदों और शास्त्रों को पवित्र करते हैं ।
 शास्त्र वक्ता दृष्टान्तों में कुशल, संयमी  होना चाहिए तथा महत्वाकांक्षा से सर्वथा मुक्त होना चाहिए। 20॥

अनेकधर्मविभ्रान्ताः स्त्रैणाः पाखण्डवादिनः ।
शुकशास्त्रकथोच्चारे त्याज्यास्ते यदि ब्राह्मणा:॥२१॥

. जो व्यक्ति स्वयं धर्म के विभिन्न मार्गों से भ्रमित हैं, स्त्रियों में अत्यधिक आसक्त हैं तथा, पाखण्ड को मानते हैं, वे भले ही ब्राह्मण क्यों न हों, भागवत पुराण कहने के  अयोग्य ही हैं। अर्थात वे भागवत कथा नहीं कह सकते हैं।२१।

वक्तुः पार्श्वे सहायार्थमन्यः स्थाप्यस्तथाविधः ।
पण्डितः संशयच्छेत्ता लोकबोधनतत्परः॥२२॥

भागवत के व्याख्याता के साथ तथा उसकी सहायता के लिए , व्याख्याता के समान योग्यता वाला एक अन्य विद्वान , जो (श्रोताओं के) संदेहों का समाधान करने में समर्थ हो तथा लोगों को ज्ञान देने में तत्पर हो, उसको स्थापित करना चाहिए।२२।


पद्मपुराण-यह उत्तरखण्ड के (193) वें अध्याय में श्रीमद्भागवतम् की महिमा( महात्म्य) का वर्णन है.

विशेष:-
उपर्युक्त श्लोक में विप्र शब्द को कुछ ब्राह्मण लोग ब्राह्मण को अर्थ में करके यह प्रचार कर रहे हैं कि ब्राह्मण ही भागवत कथा कहने का अधिकारी है।

परन्तु यह सब झूँठ के अतिरिक्त कुछ नहीं है। शब्दकल्पद्रुम संस्कृत कोश  में  भरत मुनि के  विप्र शब्द की व्युत्पत्ति परिभाषा  को अपने संस्कृत ग्रन्थ प्रायश्चित विवेक नामक ग्रन्थ  करते हैं-

उप्यते धर्म्मबीजमत्र इति वपेर्नाम्नीति रे निपातनादत इत्वम् । इति भरतः ॥ तस्य लक्षणं यथा, -- “ ब्रह्मणा जन्मना ब्राह्मणो ज्ञेयः संस्कारैर्द्विज उच्यते । विद्यया याति विप्रत्वं त्रिभिः श्रोत्रियलक्षणम् ॥” इति प्रायश्चित्तविवेकः ॥

अनुवाद:- धर्मबीज का वपन करने वाला वेदवेत्ता
विप्र कहलाता है।  जैसा कि लक्षण बताया गया है- ब्रह्माजी की सन्तान होने से ब्राह्मण - संस्कारों से दूसरा जन्म होने से द्विज - तथा वेदविद्या जानने से विप्र और इस प्रकार ये तीनों लक्षण होने से कोई श्रोत्रिय ( वैदिक) माना जाएगा-


विरक्तो वैष्णवो विप्रो वेदशास्त्रविशुद्धिकृत।
दृष्टांतकुशलो धीरो वक्ता कार्योऽतिनिःस्पृहः।।
--श्रीमद्भागवतमात्म्य ६/२०
व्यासपीठ पर कथावाचक का लक्षण करते हुए स्वयं महर्षि व्यास जी ही कहते हैं वक्ता विरक्त हो, वैष्णव हो  अर्थात भगवान विष्णु  का भक्त अथवा उनसे सम्बन्धित हो, विप्र अर्थात  वेद का विद्वान हो, वेदशास्त्रविशुद्धिकृत यानि वेद शास्त्र को शुद्ध करने वाला  
 दृष्टान्तकुशल एवं धीर हो जो अत्यन्त निस्पृह हो उसी को कथा कहने का अधिकार है।

केवल ब्राह्मण होने पर ही कोई कथावाचक नहीं हो सकता है जैसी निम्नलिखित श्लोकों में वर्णित है।
अनेकधर्मविभ्रान्ताः स्त्रैणाः पाखण्डवादिनः ।
शुकशास्त्रकथोच्चारे त्याज्यास्ते यदि ब्राह्मणा:॥२१॥
अनुवाद:+ अनेक धर्मों में  भटका हुआ  स्त्रीयों में आसक्त पाखण्डी भागवतपुराण में वक्ता पद से त्यागने योग्य ही है। चाहे वह ब्राह्मण ही क्यों न हो-२१।


श्रीमद्देवीभागवत महापुराण के तृतीय स्कन्ध में अध्याय एकादश ( ग्यारह) में वर्णित निम्नलिखित श्लोक जन्म की अपेक्षा गुण( योग्यता) कर्म और स्वभाव के आधार पर ही व्यक्ति सा मूल्यांकन करते हैं-

यह श्लोक 33 एवं 36, वर्ण-व्यवस्था, और ज्ञान के महत्व पर आधारित हैं।
श्लोक 33
 यथा शूद्रस्तथा मूर्खा ब्राह्मणो नात्र संशयः।  
 न पूजार्हो न दानार्हो निन्द्यश्च सर्वकर्मसु ॥३३।
शब्दार्थ-
- यथा = जैसे
- शूद्रः = शूद्र (वर्ण व्यवस्था में सेवा कार्य करने वाला वर्ण)
- तथा = वैसे ही
- मूर्खा = मूर्ख (अज्ञानी)
- ब्राह्मणो = ब्राह्मण (वर्ण व्यवस्था में विद्या और धर्म का पालन करने वाला वर्ण)
- नात्र संशयः = इसमें कोई संदेह नहीं
- न पूजार्हो = पूजा के योग्य नहीं
- न दानार्हो = दान के योग्य नहीं
- निन्द्यश्च = निंदनीय है
- सर्वकर्मसु = सभी कार्यों में
अनुवाद-
जैसे शूद्र होता है, वैसे ही मूर्ख ब्राह्मण भी होता है, इसमें कोई संदेह नहीं। वह न तो पूजा के योग्य है, न दान के योग्य है, और सभी कार्यों में निंदनीय है।
                         व्याख्या
यह श्लोक वर्ण व्यवस्था में ब्राह्मण के कर्तव्यों और गुणों पर जोर देता है। प्राचीन भारतीय समाज में ब्राह्मण को विद्या, तप, और धर्म का प्रतीक माना जाता था। यह श्लोक कहता है कि यदि कोई ब्राह्मण अज्ञानी (मूर्ख) है, तो वह अपने वर्ण के गुणों को खो देता है और शूद्र के समान हो जाता है। यहाँ "शूद्र" का उल्लेख संभवतः प्रतीकात्मक है, जिसका अर्थ है कि वह अपने उच्च कर्तव्यों को निभाने में असमर्थ है। ऐसा ब्राह्मण न तो सम्मान (पूजा) के योग्य है, न ही दान पाने के योग्य है, और सभी कार्यों में निंदनीय है। यह श्लोक ज्ञान और विद्या के महत्व को रेखांकित करता है, विशेष रूप से ब्राह्मण के लिए, जिससे यह स्पष्ट होता है कि केवल जन्म से ब्राह्मण होना पर्याप्त नहीं, बल्कि विद्या और सद्गुण आवश्यक हैं।
श्लोक ३६
 राज्ञा शूद्रसमो ज्ञेयो न योज्यः सर्वकर्मसु।  
 कर्षकस्तु द्विजः कार्यों ब्राह्मणो विद्यावर्जितः॥३६।
शब्दार्थ-
- राज्ञा = राजा द्वारा
- शूद्रसमो = शूद्र के समान
- ज्ञेयो = जाना जाए (समझा जाए)
- न योज्यः = नियुक्त नहीं किया जाए
- सर्वकर्मसु = सभी कार्यों में
- कर्षकस्तु = कर्षक (कृषक, किसान)
- द्विजः = द्विज (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, जो उपनयन संस्कार द्वारा दूसरा जन्म प्राप्त करते हैं)
- कार्यों = कार्य में नियुक्त किया जाए
- ब्राह्मणो = ब्राह्मण
- विद्यावर्जितः = विद्या से रहित (अज्ञानी)
                         अनुवाद
राजा को चाहिए कि वह मूर्ख ब्राह्मण को शूद्र के समान समझे और उसे किसी भी कार्य में नियुक्त न करे। विद्या से रहित ब्राह्मण को द्विज के रूप में कृषि कार्य में नियुक्त किया जाए।
                       व्याख्या-
यह श्लोक शासन और सामाजिक व्यवस्था के संदर्भ में है। यहाँ राजा को सलाह दी गई है कि वह अज्ञानी ब्राह्मण को शूद्र के समान माने और उसे महत्वपूर्ण कार्यों (जैसे यज्ञ, पुरोहिताई, या शासन से संबंधित कार्य) में नियुक्त न करे। इसके बजाय, यदि कोई ब्राह्मण विद्या से रहित है, तो उसे द्विज के रूप में (अर्थात् उसके वर्ण के सम्मान को बनाए रखते हुए) कृषि जैसे कार्य में लगाया जाए। यह श्लोक यह दर्शाता है कि विद्या के अभाव में ब्राह्मण का सामाजिक और धार्मिक महत्व कम हो जाता है, और उसे अन्य उत्पादक कार्यों में योगदान देना चाहिए। साथ ही, यह सामाजिक लचीलापन भी दर्शाता है कि यदि कोई ब्राह्मण अपने परंपरागत कर्तव्यों को निभाने में असमर्थ है, तो उसे समाज के लिए अन्य उपयोगी कार्य करने चाहिए।
                          संदर्भ
ये श्लोक श्रीमद्देवीभागवत महापुराण के तृतीय स्कन्ध अध्याय एकादश से हैंं।
जो वर्ण-व्यवस्था, कर्तव्यों, और समाज में विद्या के महत्व पर चर्चा करते हैं। हालाँकि, बिना । ये श्लोक प्राचीन भारतीय समाज की उस विचारधारा को दर्शाते हैं, जहाँ ज्ञान और गुणों को जन्म से अधिक महत्व दिया गया है। यह विचारधारा भगवद्गीता (4.13) में भी परिलक्षित होती है, जहाँ कर्म और गुण के आधार पर वर्ण व्यवस्था की बात कही गई है।

चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।।4.13।।

                 -आधुनिक परिप्रेक्ष्य-
आधुनिक सन्दर्भ में इन श्लोकों को जातिगत भेदभाव के बजाय योग्यता और ज्ञान के महत्व के रूप में देखा जा सकता है। ये श्लोक इस बात पर जोर देते हैं कि किसी भी व्यक्ति का मूल्यांकन उसके जन्म से नहीं, बल्कि उसके ज्ञान, कौशल, और कर्म से होना चाहिए। यह शिक्षा और आत्म-विकास के महत्व को रेखांकित करता है, जो आज के समाज में भी प्रासंगिक है।
उपर्युक्त विचार ही सुव्यवस्थित समाजिक व राष्ट्रीय उन्नति का आधार है।

सड़ी गली तथा रूढ़िवादी मानसिकता के लोग ही इन विचारों का विरोध करते हैं- जिनके स्वार्थ सहज ही विना किसी परिश्रम और योग्यता के ही सिद्ध हो रहे हो तो वे धूर्त ही इन शास्त्रीय मतों का विरोध करेंगे-
पहले भी देश में इसी प्रकार व्यक्ति के ज्ञान और कर्म कौशल से उसकी महानता का मूल्यांकन होता था-



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