श्लोक:
ब्राह्मण क्षत्त्रिय वैश्य शूद्राश्चतस्रो जातयो यथा।
तथा स्वतन्त्रा जातिरेका आभीरा च तस्या वर्ण अस्मिन् विश्वे वैष्णवाभिधा।।
(ब्रह्मवैवर्तपुराण, ब्रह्मखण्ड, एकादश अध्याय, सात्वतीय टीका)
सारांश (टीका के अनुसार)
यह श्लोक ब्रह्मवैवर्त पुराण के ब्रह्मखण्ड से लिया गया है, जिसमें चातुर्यवर्ण्य व्यवस्था के अतिरिक्त पाँवे वैष्णव वर्ण की महत्ता को भी दर्शाया गया है। श्लोक में कहा गया है कि जैसे समाज में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये चार वर्ण हैं, वैसे ही विश्व में वैष्णव नाम का एक स्वतन्त्र और सर्वोच्च वर्ण है।
इस वैष्णव वर्ण के अंतर्गत आभीर /आहीर ( यादव अथवा गोप जाति को एक स्वतन्त्र और विशेष जाति के रूप में उल्लेखित किया गया है, जो गोप (आभीर) जाति भगवान स्वराट्- विष्णु से उत्पन्न होकर उनकी सनातन भक्ति में ही लीन रहती है। वह वर्ण से वैष्णव है।
विस्तृत व्याख्या व भावार्थ:-
यह श्लोक भारतीय दर्शन और सामाजिक संरचना में ब्रह्मा की चातुर्यवर्ण्य व्यवस्था के साथ-साथ स्वराट्- विष्णु से उत्पन्न एक अन्य वर्ण वैष्णव की सार्वभौमिकता , प्राचीनता और उसकी सर्वोपरिता को स्थापित करता है।
शास्त्रों में वर्ण व्यवस्था को समाज के कार्यों को सुचारु व व्यवस्थित रूप से चलाने के लिए बनाया गया था, जिसमें प्रत्येक वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, तथा शूद्र) की अपनी विशिष्ट भूमिका थी।
एक अन्य वर्ण वैष्णव इन सबसे पृथक और सर्वोच्च था।
समाज में प्राचीन काल से ही वर्ण व्यवस्था के प्रतिनिधित्व के लिए पञ्चायत व्यवस्था भी कायम थी। जो समवेत रूप से सामाजिक समस्याओं के निवारण के लिए सम्मति व निर्णय पारित करती थी।
पञ्च शब्द समाज के पाँच वर्णों के प्रतिनिधीयों को स्वयं में अन्तर्निहित किए हुए है।
वैदिक ऋचाओं में बहुतायत से पञ्चजना, और पञ्चकृष्टय: जैसे पद पाँच वर्णों से सम्बन्धित पञ्चायत व्यवस्था की प्राचीनता को अभिव्यक्त करते है।
जैसे -ऋग्वेद की निम्नलिखित ऋचा वर्णन करती है।
तदद्य वाचः प्रथमं मसीय येनासुराँ अभि देवा असाम।
ऊर्जाद उत यज्ञियास: *पञ्चजना* मम होत्रं जुषध्वम् ॥ (ऋग्वेद-१०/५३/४)
अनुवाद- अग्निदेव कहते हैं- आज उस प्रथम वाणी को हृदयस्थ रूपेण उच्चारण करता हूँ। जिसके प्रभाव से देवगणों ने असुरो को अभिभूत (पराजित) किया था। पौष्टिक अन्नों का ही सेवन करनेवाले पाँच वर्णों के यज्ञ कर्ता व्यक्तियों ! तुम मेरे हवन को प्रीतिपूर्वक सेवन करो।४।
वेदेषु वर्णिता: पञ्चजना: शब्दपद: पञ्चवर्णानां -प्रतिनिधय: सन्ति। ब्रह्मणरुत्पन्ना ब्राह्मण-क्षत्रिय- वैश्य शूद्रा: च चत्वारो वर्णा- इति।
तथा पञ्चमो वर्णो जातिर्वा शास्त्रेषु वैष्णववर्णस्य नाम्ना विष्णू रोमकूपेभ्यिति निर्मिता: गोपानां जातिरूपेण वा वर्णितम् अस्ति। तस्य विष्णुना सह निकटसम्बन्धोऽस्ति। अत एव ते सर्वे वैष्णावा भवन्ति।
अनुवाद:-
वेदों में लिखित पञ्चजना विशेषण शब्द पाँच वर्णों के प्रतिनिधि व्यक्तियों का वाचक हैं। चार वर्ण ब्रह्मा से उत्पन्न हुए - चारवर्णों ब्राह्मण- क्षत्रिय- वैश्य और शूद्रों के रूप में वर्णित हैं।
और पाँचवां वर्ण अथवा जाति विष्णु के रोम-कूपों से उत्पन्न गोपों के वैष्णव वर्ण अथवा जाति के रूप में शास्त्रों में वर्णित ही है।
ऋग्वेद में ही पञ्चकृष्टय: पद पाँच वर्णों का प्रतिनिधि है।
वयमग्ने अर्वता वा सुवीर्यं ब्रह्मणा वा चितयेमा जनाँ अति ।
अस्माकं द्युम्नमधि पञ्च कृष्टिषूच्चा स्वर्ण शुशुचीत दुष्टरम् ॥१०॥
ऋ०२/२/१०
अनुवाद:- हे अग्नि ! हम सब गतिशील घोड़े के द्वारा बढ़े हुए बल की वृद्धि से सभी व्यक्तियों को अतिक्रमण करते हुए प्रकाशित हों !
हमारा धन भी पाँच वर्णों में विभाजित ब्राह्मण क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और पाँचवें वैष्णव वर्ण से भी अधिक ऊँचा हो। सूर्य के समान दैदीप्यमान हम किसी के द्वारा न पराजित हो। (ऋ०२/२/१०)
(अग्ने) = हे अग्नि ! (वयम्) = हम (अर्वता वा) = अर्वत्- तृतीया विभक्ति एकवचन घोड़े द्वारा = (जनान् अति) = सब मनुष्यों को लाँघकर (सुवीर्यम्) = उत्कृष्ट शक्ति को (आ चितयेम) = प्रकाशित करें। (अस्माकम्) = हमारा (द्युम्नम्) = धन बल पञ्चे (कृष्टिषु) ='ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य शूद्र व वैष्णव रूप' पाँच वर्णों में विभक्त हुए मनुष्यों में (उच्चा) = उच्च हो, (दुस्तरम्) = किसी से पराजित न किया जानेवाला हो और (स्वर्ण/ स्वर्+ न ) = सोना / अथवा सूर्य के समान (अधिशुशुचीत) = अधिक प्रकाशित हो उठे।
पञ्चमवर्ण वर्ण की उत्पत्ति।
जैसा कि हम इस बात को पहले ही बता चुका हैं कि- मनुष्यों की जन्मजात प्रवृत्तियाँ ही विकसित होकर वृत्तियों यानी व्यवसायों का वरण अर्थात् चयन करती है। उनके व्यवसायों के वरण करने से ही उनका "वर्ण" निर्धारित होता है। अर्थात् व्यवसायों के वरण के आधार पर ही जातियों का चार वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, और शूद्र) निर्धारित हुआ है। ठीक इसी तरह से यादवों यानी गोपों का भी वैष्णव वर्ण निर्धारित हुआ है जिसे पञ्चमवर्ण भी कहा जाता है जो ब्रह्माजी के चातुर्वर्ण्य से बिल्कुल अलग एवं स्वतन्त्र है।
किन्तु पुराणकारों ने गोपों के अतिरिक्त निषाद और कायस्थ को पाँचवें वर्ण में सम्मिलित कर दिया। जबकि देखा जाए तो ये पाँचवें वर्ण के नहीं है। जिसमें निषाद तो ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में शूद्र वर्ण के ही अन्तर्गत हैं। ऐसे में एक जाति दो वर्णों को कैसे धारण कर सकती हैं। इसलिए निषाद जाति को पाँचवाँ वर्ण नहीं बल्कि चातुर्वर्ण्य का अवयव ही माना जा सकता है।
इसी तरह से कायस्थ जाति को पञ्चम-वर्ण में स्वीकार नहीं किया जा सकता क्योंकि कायस्थों के आदि पुरुष चित्रगुप्त ब्रह्मा की काया से उत्पन्न होने से ब्राह्मी सृष्टि के अन्तर्गत ही आते हैं, जो लेखन और गणितीय ज्ञान से सम्पन्न होने के कारण तथा प्राणीयों के चरित्रों का चित्रण करने से भी ये ब्राह्मण वर्ण के ही सन्निकट हैं। अतः कायस्थ जाति भी ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था के अंग हैं नकि पञ्चम-वर्ण के।
तब ऐसे में प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि आखिरकार पञ्चम वर्ण में कौन हो सकता है ? तो इसका जवाब वैष्णव धर्म के प्रथम प्रवर्तक एवं संरक्षक गोपेश्वर श्रीकृष्ण ने ही दिया है जिसका वर्णन ब्रह्मवैवर्त पुराण के श्रीकृष्णजन्मखण्ड के अध्याय- ७३ के श्लोक- ९२ में कुछ इस प्रकार वर्णित है -
पशुजन्तुषु गौश्चहं चन्दनं काननेषु च ।
तीर्थपूतश्च पूतेषु निःशङ्केषु च वैष्णवः।।९२।
अनुवाद- मैं पशुओं में गाय हूँ, और वनों में चन्दन हूँ। पवित्र स्थानों में तीर्थ हूँ, और निशंकों (अभीरों अथवा निर्भीकों ) में वैष्णव हूँ। ९२
"नि:शङ्क शब्द की व्याकरणिक व्युत्पत्ति विश्लेषण-
नि:शङ्क- निस् निषेध वाची उपसर्ग+ शङ्क = भय (त्रास) भीक:अथवा डर।
नि:शङ्क पुलिङ्ग शब्द है जिसका अर्थ होता है- निर्भीक अथवा निडर।)
नि:शङ्क का मूल अर्थ निर्भीक है और निर्भीक का अर्थ होता जो कभी भयभीत नहीं होता हो।
अत: नि:शङ्क अथवा निर्भीक विशेषण पद आभीर शब्द का ही पर्याय है, जो अहीरो (गोपों) की जातिगत प्रवृत्ति है। आभीर लोग वैष्णव वर्ण तथा धर्म के अनुयायी होते ही हैं।
अत: ब्रह्मवैवर्त पुराण श्रीकृष्ण जन्मखण्ड का उपरोक्त श्लोक गोप जाति की निर्भीकता प्रवृत्ति का भी संकेत करता है।
अतः उपर्युक्त श्लोक से सिद्ध होता है कि- "वैष्णव वर्ण" की उत्पत्ति श्रीकृष्ण (स्वराट विष्णु) से हुई है। जिसमें केवल गोप आते हैं। जिसकी पुष्टि- ब्रह्मवैवर्त पुराण के ब्रह्मखण्ड के एकादश (११) -अध्याय के श्लोक संख्या (४3) से होती है। जिसमें लिखा गया है कि -
"ब्रह्मक्षत्त्रियविट्शूद्राश्चतस्रो जातयो यथा।
स्वतन्त्रा जातिरेका च विश्वस्मिन्वैष्णवाभिधा।।४३।
"अनुवाद:- ब्राह्मण" क्षत्रिय" वैश्य" और शूद्र इन चार वर्णों के अतिरिक्त एक स्वतन्त्र जाति अथवा वर्ण इस संसार में प्रसिद्ध है। जिसे वैष्णव नाम दिया गया है। जो स्वराट
विष्णु (श्रीकृष्ण) से सम्बन्धित अथवा उनके रोमकूपों से उत्पन्न होने से वैष्णव संज्ञा से नामित है।४३।
जो सभी वर्णों में श्रेष्ठ भी है इस बात की पुष्टि - पद्म पुराण के उत्तराखण्ड के अध्याय(६८) श्लोक संख्या १-२-३ से होती है जिसमें भगवान शिव नारद से कहते हैं।
'महेश्वर उवाच-
शृणु नारद ! वक्ष्यामि वैष्णवानां च लक्षणम् यच्छ्रुत्वा मुच्यते लोको ब्रह्महत्यादिपातकात् ।१।
तेषां वै लक्षणं यादृक्स्वरूपं यादृशं भवेत् ।तादृशंमुनिशार्दूलशृणु त्वं वच्मिसाम्प्रतम्।२।
विष्णोरयं यतो ह्यासीत्तस्माद्वैष्णव उच्यते।
सर्वेषां चैव वर्णानां वैष्णवःश्रेष्ठ उच्यते ।३।
अनुवाद:-
१-महेश्वर-बोले ! हे नारद , सुनो, मैं तुम्हें वैष्णव वर्ण का लक्षण बतलाता हूँ। जिन्हें सुनने से लोग ब्रह्म- हत्या जैसे पाप से मुक्त हो जाते हैं।१।
२-वैष्णवों के जैसे लक्षण और स्वरूप होते हैं। उसे मैं बतला रहा हूँ। हे मुनि श्रेष्ठ ! उसे तुम सुनो ।२।
३-चूँकि वह स्वराट विष्णु (श्रीकृष्ण) से उत्पन्न होने से ही वैष्णव कहलाते है; और सभी वर्णों मे वैष्णव वर्ण ही श्रेष्ठ कहा जाता हैं।३।
यदि वैष्णव शब्द की व्युत्पत्ति को व्याकरणिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो "शब्द कल्पद्रुम" में विष्णु से ही वैष्णव शब्द की व्यत्पत्ति बताई गई है-
विष्णुर्देवताऽस्य तस्येदं वा अण्- वैष्णव - तथा विष्णु-उपासके विष्णोर्जातो इति वैष्णव विष्णुसम्बन्धिनि च स्त्रियां ङीप् वैष्णवी- दुर्गा गायत्री आदि।
अर्थात् विष्णु देवता से सम्बन्धित वैष्णव स्त्रीलिंग में (ङीप्) प्रत्यय होने पर वैष्णवी शब्द बना है जो- दुर्गा, गायत्री आदि का वाचक है।
अतः उपर्युक्त सभी साक्ष्यों से सिद्ध होता है कि- विष्णु से वैष्णव पद ( विभक्ति युक्त शब्द ) और वैष्णव वर्ण की उत्पत्ति होती है, जिसे पञ्चमवर्ण के नाम से भी जाना जाता है। जिसमें केवल- गोप, (अहीर, यादव) जाति ही आती हैं बाकी कोई नहीं।
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