वृत्तिः सङ्करजातीनां तत्तत्कुलकृता भवेत्। अचौराणां अपापानां अन्त्यजान्तेऽवसायिनाम्॥३०॥
प्रायः स्वभावविहितो नृणां धर्मो युगे युगे। वेददृग्भिः स्मृतो राजन् प्रेत्य चेह च शर्मकृत्॥३१॥
वृत्त्या स्वभावकृतया वर्तमानः स्वकर्मकृत्। हित्वा स्वभावजं कर्म शनैर्निर्गुणतामियात्॥३२॥
उप्यमानं मुहुः क्षेत्रं स्वयं निर्वीर्यतामियात्। न कल्पते पुनः सूत्यै उप्तं बीजं च नश्यति॥३३॥
एवं कामाशयं चित्तं कामानामतिसेवया। विरज्येत यथा राजन् अग्निवत् कामबिन्दुभिः॥ ३४॥
यस्य यल्लक्षणं प्रोक्तं पुंसो वर्णाभिव्यञ्जकम्। यदन्यत्रापि दृश्येत तत्तेनैव विनिर्दिशेत्॥३५॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां सप्तमस्कन्धे युधिष्ठिरनारदसंवादे सदाचारनिर्णयो नाम एकादशोऽध्यायः॥११॥
युधिष्ठिर ! जो चोरी तथा अन्यान्य पाप-कर्म नहीं करते—उन अन्त्यज तथा चाण्डाल आदि अन्तेवसायी वर्णसङ्कर जातियोंकी वृत्तियाँ वे ही हैं, जो कुल-परम्परासे उनके यहाँ चली आयी हैं॥ ३० ॥
वेददर्शी ऋषि-मुनियों ने युग-युग में प्राय: मनुष्यों के स्वभाव के अनुसार धर्मकी व्यवस्था की है। वही धर्म उनके लिये इस लोक और परलोक में कल्याणकारी है ॥ ३१ ॥
जो स्वाभाविक वृत्ति का आश्रय लेकर अपने स्वधर्म का पालन करता है, वह धीरे-धीरे उन स्वाभाविक कर्मों से भी ऊपर उठ जाता है और गुणातीत हो जाता है ॥३२॥
महाराज ! जिस प्रकार बार-बार बोने से खेत स्वयं ही शक्तिहीन हो जाता है और उसमें अङ्कुर उगना बंद हो जाता है, यहाँ-तक कि उसमें बोया हुआ बीज भी नष्ट हो जाता है—उसी प्रकार यह चित्त, जो वासनाओंका खजाना है, विषयों का अत्यन्त सेवन करनेसे स्वयं ही ऊब जाता है। परन्तु स्वल्प भोगों से ऐसा नहीं होता। जैसे एक-एक बूँद घी डालने से आग नहीं बुझती, परन्तु एक ही साथ अधिक घी पड़ जाय तो वह अग्नि बुझ जाती है ॥ ३३-३४॥
जिस पुरुष के वर्ण को बतलानेवाला जो लक्षण कहा गया है, वह यदि दूसरे वर्णवाले में भी मिले तो उसे भी उसी वर्ण का समझना चाहिये ॥३५॥
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