मंगलवार, 29 अक्टूबर 2024

सहस्रबाहु- ब्रह्मवैवर्त पुराण और लक्ष्मीनारायणी संहिता-



लक्ष्मीनारायणसंहिता में वे श्लोक हैं जो ब्रह्मवैवर्त पुराण गणपतिखण्ड के समान ही हैं।  हम उन्हें प्रस्तुत करते हैं।

लक्ष्मीनारायणसंहिता - खण्ड प्रथम (कृतयुगसन्तानः) अध्यायः (४५८ ) में परशुराम और सहस्रबाहू युद्ध का वर्णन इस प्रकार किया गया है।


"तावत् ध्यातोऽर्जुनगुरुर्दत्तात्रेयः समागतः ।ददौ शूलं हि रामस्य नाशार्थं कृष्णवर्म च ।।८५।।

अनुवाद:-इसी उपरान्त, युद्ध के बीच में  जब  सहस्रबाहु अर्जुन ने गुरु दत्तात्रेय का ध्यान किया, तो उनके आध्यात्मिक गुरु, दत्तात्रेय उसके पास आ गये । उन्होंने परशुराम को मारने के लिए सहस्रबाहु को एक त्रिशूल और कृष्ण द्वारा प्रदत्त की कवच दिया। 85॥

"जग्राह राजा शूलं तश्चिक्षेप रामकन्धरे ।मूर्छामवाप रामः सः पपात श्रीहरिं स्मरन् ।।८६।।

अनुवाद:- तब राजा ने शूल ग्रहण किया और उसे परशुराम के कंधे पर फेंका। तब  परशुरामभगवान श्री हरिका स्मरण करते हुए मूर्छित होकर  गिर पड़े ।।86॥

ब्राह्मणं जीवयामास शम्भुर्नारायणाज्ञया ।चेतनां प्राप्य च रामोऽग्रहीत् पाशुपतं यदा ।।८७।।

अनुवाद:-तब भगवान नारायण के आदेश से,भगवान शिव  ने ब्राह्मण परशुराम को पुनर्जीवित कर दिया  और जब परशुराम को होश आया तो उन्होंने शिव या  पाशुपत अस्त्र  ग्रहण किया।87।

दत्तात्रेयेण दत्तेन सिद्धाऽस्त्रेणाऽर्जुनस्तु तम्।जडीचकार तत्रैव स्तम्भितो राम एव वै ।।८८।।

अनुवाद:-तब  दत्तात्रेय द्वारा दिये गये सिद्ध अस्त्र के द्वारा सहस्रबाहु अर्जुन ने पाशुपत अस्त्र को जड़ करदिया अर्थात् वही रोक दिया और परशुराम को भी रोक दिया( जड़) कर दिया।। 88॥

श्रीकृष्णरक्षितं भूपं ददर्श कृष्णवर्म च ।ददर्शाऽपि भ्रमत्सुदर्शनं रक्षाकरं रिपोः ।।८९।।

अनुवाद:- परशुराम ने भगवान कृष्ण द्वारा संरक्षित राजा और उसके भगवान श्रीकृष्ण द्वारा प्रदत्त  कवच को भी देखा। और यह भी देखा कि

 सुदर्शन चक्र  राजा ( सहस्र बाहु अर्जुन) की शत्रु से रक्षा करने के लिए निरन्तर घूम रहा है । 89।

एतस्मिन्नन्तरे तत्र वाग्बभूवाऽशरीरिणी ।कृष्णस्य कवचं राज्ञो बाहावस्ति तदुत्तमम् ।।1.458.९०।।

अनुवाद:-इसी बीच वहां एक अशरीरी वाणी (आकाशवाणी) हुई  कि  भगवान कृष्ण का सर्वोत्तम कवच राजा की भुजाओं में है। 90॥

रक्षति तन्नृपं शंभुर्याचतु भिक्षया तु तत् ।तदा हन्तुं नृपं शक्तो भार्गवोऽयं भविष्यति।।९१।।

अनुवाद:- वही  राजा की रक्षा कर रहा है । यह आकाशवाणी शिव ने सुनी! तब  शंकर ने परशुराम से कहा ! हे भार्गव!  भिक्षा के द्वारा तुम उस कृष्ण ( विष्णु) के कवच को माँगो! तभी यह  राजा ( सहस्र बाहु अर्जुन ) भविष्य में  मारा जा सकता ।91॥

सन्दर्भ:-

लक्ष्मीनारायणसंहिता - खण़्डः १ (कृतयुगसन्तानः)अध्यायः( ४५८)

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[10/30, 10:03 PM] yogeshrohi📚:

 राजा चिक्षेप दिव्यास्त्रं शतसूर्य्यप्रभं मुने ।।

माहेश्वरेण मुनयश्चिच्छिदुश्चैव लीलया।।१०४।।

दिव्यास्त्रेणैव मुनयश्चिच्छिदुः सशरं धनुः।।

रथं च सारथिं चैव राज्ञः सन्नाहमेव च।।१०५

न्यस्तशस्त्रं नृपं दृष्ट्वा मुनयो हर्षविह्वलाः ।।

दधार शूलिनः शूलं मत्स्यराजजिघांसया ।। १०६ ।।

शूलनिक्षेपसमये वाग्बभूवाशरीरिणी ।।

शूलं त्यजत विप्रेन्द्राः शिवस्याव्यर्थमेव च ।। १०७ ।।

शिवस्य कवचं दिव्यं दत्तं दुर्वाससा पुरा ।।

मत्स्यराजगलेऽस्त्येतत्सर्वावयवरक्षकम् ।। १०८ ।।

प्राणानां च प्रदातारं कवचं याचतं नृपम् ।।

तदा निक्षिप्तशूलं च जघान नृपतिश्चिरम् ।। १०९ ।।


दत्तदत्तं च यच्छूलमव्यर्थं मन्त्रपूर्वकम् ।।

जग्राह राजा परशुरामनाशाय संयुगे ।। १६ ।।

शूलं ददर्श रामश्च शतसूर्य्यसमप्रभम् ।।

प्रलयाग्रिशिखोद्रिक्तं दुर्निवार्यं सुरैरपि ।। १७ ।।

पपात शूलं समरे रामस्योपरि नारद ।।

मूर्च्छामवाप स भृगुः पपात च हरिं स्मरन् ।। १८ ।।

पतिते तु तदा रामे सर्वे देवा भयाकुलाः ।।

आजग्मुः समरं तत्र ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः ।। १९ ।।

शङ्करश्च महाज्ञानी महाज्ञानेन लीलया ।।

ब्राह्मणं जीवयामास तूर्णं नारायणाज्ञया ।। 3.40.२० ।।

भृगुश्च चेतनां प्राप्य ददर्श पुरतः सुरान् ।।

प्रणनाम परं भक्त्या लज्जानम्रात्मकन्धरः ।। २१ ।।

राजा दृष्ट्वा सुरेशांश्च भक्तिनम्रात्मकन्धरः ।।

प्रणम्य शिरसा मूर्ध्ना तुष्टाव च सुरेश्वरान् ।। २२ ।।

तत्राजगाम भगवान्दत्तात्रेयो रणस्थलम् ।।

शिष्यरक्षानिमित्तेन कृपालुर्भक्तवत्सलः ।। २३ ।।

भृगुः पाशुपतास्त्रं च सोऽग्रहीत्कोपसंयुतः ।।

दत्तदत्तेन दृष्टेन बभूव स्तम्भितो भृगुः ।।२४।।

ददर्श स्तम्भितो रामो राजानं रणमूर्द्धनि ।।

नानापार्षदयुक्तेन कृष्णेनाऽऽरक्षितं रणे ।।२५।।

सुदर्शनं प्रज्वलन्तं भ्रमणं कुर्वता सदा ।।

सस्मितेन स्तुतेनैव ब्रह्मविष्णुमहेश्वरैः ।। ।। २६ ।।

गोपालशतयुक्तेन गोपवेषविधारिणा ।।

नवीनजलदाभेन वंशीहस्तेन गायता ।। २७ ।।

एतस्मिन्नन्तरे तत्र वाग्बभूवाशरीरिणी ।।

दत्तेन दत्तं कवचं कृष्णस्य परमात्मनः ।। २८ ।।

राज्ञोऽस्ति दक्षिणे बाहौ सद्रत्नगुटिकान्वितम् ।।

गृहीतकवचे शम्भौ भिक्षया योगिनां गुरौ ।। २९ ।।

तदा हन्तुं नृपं शक्तो भृगुश्चेति च नारद ।।

श्रुत्वाऽशरीरिणीं वाणीं शङ्करो द्विजरूपधृक्।। 3.40.३० ।।

भिक्षां कृत्वा तु कवचमानीय च नृपस्य च ।।

शम्भुना भृगवे दत्तं कृष्णस्य कवचं च यत् ।। ३१ ।।

एतस्मिन्नन्तरे देवा जग्मुः स्वस्थानमुत्तमम् ।।

प्रत्युवाचापि परशुरामो वै समरे नृपम् ।।३२।।

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ब्रह्मवैवर्तपुराणम् | खण्डः ३ (गणपतिखण्डः)

अध्यायः (३९) ब्रह्मवैवर्तपुराणम्


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  • दत्तात्रेयेण दत्तेन सिद्धाऽस्त्रेणाऽर्जुनस्तु तम् । जडीचकार तत्रैव स्तम्भितो राम एव वै।८८।

अर्थ:-परन्तु दत्तात्रेय द्वारा सिद्ध अस्त्र के द्वारा उस पाशुपत अस्त्र को भी कार्तवीर्य ने स्तम्भित(जाम) कर दिया और उसके साथ परशुराम भी स्तम्भित हो गये।८८।

  • श्रीकृष्णरक्षितं भूपं ददर्श कृष्णवर्म च ।ददर्शाऽपि भ्रमत्सुदर्शनं रक्षाकरं रिपोः।८९।

अर्थ:- जब परशुराम ने भगवान श्रीकृष्ण द्वारा रक्षित राजा सहस्रबाहू को देखा और कृष्ण-वर्म ( कृष्ण द्वारा प्रदत्त कवच) को भी परशुराम ने देखा और यह भी देखा कि घूमता हुआ सुदर्शन चक्र इस राजा की शत्रुओं से सदैव रक्षा करने वाला है।८९।

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  • तावत् ध्यातोऽर्जुनगुरुर्दत्तात्रेयः समागतः। ददौ शूलं हि परशुरामस्य नाशार्थं कृष्णवर्म च।८५।।

अर्थ- उसके बाद  कार्तवीर्य अर्जुन ने दत्तात्रेय का ध्यान किया तो उन दत्तात्रेय ने आकर परशुराम के विनाश के लिए  कार्तवीर्य अर्जुन को शूल और कृष्णवर्म (कृष्ण द्वारा प्रदत्त कवच) प्रदान किया।८५।


अब प्रश्न उत्पन्न होता है। कि 

विशेष :- यदि परशुराम विष्णु का अवतरण थे ; तो फिर  विष्णु के ही अंशावतार दत्तात्रेय ने परशुराम के वध के निमित्त सहस्रबाहू को शूल और कृष्ण वर्म क्यों प्रदान किया ?

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  • "जग्राह राजा शूलं तश्चिक्षेप परशुरामकन्धरे।मूर्छामवाप रामः सःपपात श्रीहरिं स्मरन्।८६।

अर्थ:-तब महाराज कार्तवीर्य अर्जुन ने उस रण में परशुराम के वध के लिए दत्तात्रेय द्वारा प्रदत्त शूल का मन्त्र पूर्वक उपयोग (सन्धान) किया , जो कभी भी व्यर्थ ना होने वाला था परशुराम ने उस सैकडो सूर्य के समान कान्तिपूर्ण प्रलय कालीन अग्निशिखा से आप्लायित और देवो के लिये भी दुर्निवार्य उस शूल को देखा हे नारद ! परशुराम के ऊपर वह शूल गिरा, जिससे आघात से भगवान् हरि का नाम लेते हुए परशुराम मूर्छित होकर गिर गये।।८६।

परशुराम के गिर जाने के वाद समस्त देव गण व्याकुल हो गये और कोहराम मच गया , तब ररउस समय युद्ध स्थल में ब्रह्मा विष्णु एवं महेश्वर भी आ गये।१९।

इस विषय में निम्न श्लोक विचारणीय हैं- यदि परशुराम हरि (विष्णु) के अवतार थे तो उन्होंने मूर्च्छित होकर मरते समय विष्णु अथवा हरि का क्यों नाम लिया। यदि वे स्वयं विष्णु के अवतार थे तो इसका अर्थ यही है कि परशुराम हरि अथवा विष्णु का अवतार नही थे।

उन्हें बाद में पुरोहितों ने अवतार बना दिया वास्तव में सहस्रबाहू ने परशुराम का वध कर दिया था।

परन्तु परशुराम का वध जातिवादी पुरोहित वर्ग का वर्चस्व समाप्त हो जाना ही था। इसीलिए इसी समस्या के निदान के लिए पुरोहितों ने ब्रह्मवैवर्त- पुराण में निम्न श्लोक बनाकर जोड़ दिया कि परशुराम को मरने बाद शिव द्वारा जीवित करना बता दिया गया ।

और इस घटना को चमत्कारिक बना दिया गया। यह ब्राह्मण युक्ति थी । परन्तु सच्चाई यही है कि मरने के व़बाद कभी कोई जिन्दा ही नहीं हुआ।

विशेष :- उपर्युक्त श्लोक में कृष्ण रूप में भगवान विष्णु अपने सुदर्शन चक्र से सहस्रबाहू की परशुराम से युद्ध होने पर रक्षा कर रहे हैं तो सहस्रबाहू को परशुराम कैसे मार सकते हैं ।

यदि शास्त्रकार सहस्रबाहू को परशुराम द्वारा मारा जाना वर्णन करते हैं तो भी उपर्युक्त श्लोक में विष्णु को शक्तिहीन और साधारण होना ही सूचित करते हैं जोकि शास्त्रीय सिद्धान्त के सर्वथा विपरीत ही है। जबकि विष्णु सर्वशक्तिमान हैं।

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जिस प्रकार पुराणों में बाद में यह आख्यान जोड़ा गया कि परशुराम ने "गर्भस्थ शिशुओं की हत्या की और क्षत्रियों पत्नीयों कोतक को मार डाला। यह कृत्य करना विष्णु के अवतारी का गुण हो सकता है। ? कभी नहीं।

महाभारत शान्तिपर्व में वर्णन है कि - परशुराम किस प्रकार हैहयवंश के यदुवंशीयों की स्त्रियों के गर्भस्थ शिशुओं की हत्या करते हैं ? यह सर्वविदित ही है। इस सन्दर्भ में देखें निम्न श्लोक

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  • "स पुनस्ताञ्जघान् आशु बालानपि नराधिप गर्भस्थैस्तु मही व्याप्ति पुनरेवाभवत्तदा ।62।
  • "जातंजातं स गर्भं तु पुनरेव जघान ह। अरक्षंश्च सुतान्कान्श्चित्तदाक्षत्रिय योषितः।63।
  • "त्रिःसप्तकृत्वःपृथिवीं कृत्वा निःक्षत्रियां प्रभुः। दक्षिणामश्वमेधान्ते कश्यपायाददत्ततः।64।

सन्दर्भ:-(महाभारत शान्तिपर्व अध्याय- ४८)

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"अर्थ-"नरेश्वर! परशुराम ने पुन: उन सबके छोटे-छोटे शिशुओं तक को शीघ्र ही मार डाला जो बच्चे गर्भ में रह गये थे, उन्हीं से पुनः यह सारी पृथ्वी व्याप्त हो गयी। परशुराम एक एक गर्भ के उत्पन्न होने पर पुनः उसका वध कर डालते थे। उस समय क्षत्राणियाँ कुछ ही पुत्रों को बचा सकीं थी।

राजन् ! तदनन्तर कुछ क्षत्रियों को बचाये रखने की इच्छा से कश्यपजी ने स्रुक् (स्रुवा) लकड़ी की बनी हुई एक प्रकार की छोटी करछी जिससे हवनादि में घी की आहुति देते हैं। उसको लिये हुए हाथ से संकेत करते हुए यह बात कही- मुने ! अब तुम दक्षिण समुद्र के तट पर चले जाओ। अब कभी मेरे राज्य में निवास न करना।

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(ब्रह्मवैवर्त पुराण गणपति खण्ड अध्याय (४०)

में भी वर्णन है कि (२१) बार पृथ्वी से क्षत्रिय को नष्ट कर दिया और उन क्षत्रियों की पत्नीयों के गर्भस्थ शिशुओं की हत्या कर दी ! यह आख्यान भी परशुराम को विष्णु का अवतार सिद्ध नहीं करता-

क्योंकि विष्णु कभी भी निर्दोष गर्भस्थ शिशुओं का वध नहीं करेंगे।

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  • "एवं त्रिस्सप्तकृत्वश्च क्रमेण च वसुन्धराम् । रामश्चकार निर्भूपां लीलया च शिवं स्मरन्।७३।                    
  • "गर्भस्थं मातुरङ्कस्थं शिशुं वृद्धं च मध्यमं जघान क्षत्रियं रामः प्रतिज्ञापालनाय वै।७४।

ब्रह्मवैवर्तपुराण गणपतिखण्ड अध्याय-(40)

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गीताप्रेस- गोरखपुर संस्करण)

महाभारत: वनपर्व:सप्तदशाधिकशततमोऽध्यायः(117) श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद :-

रेणुका स्नान करने के लिए गंगा नदी तट पर गयी। राजन! जब वह स्नान करके लौटने लगी, उस समय अकस्मात उसकी दृष्टी मार्तिकावत देश के राजा चित्ररथ पर पड़ी, जो कमलों की माला धारण करके अपनी पत्नी के साथ जल में क्रीड़ा कर रहा था।

उस समृद्धिशाली नरेश को उस अवस्था में देखकर रेणुका ने उसकी इच्छा की।

उस समय इस मानसिक विकार से द्रवित हुई रेणुका जल में बेहोश-सी हो गयी। फिर त्रस्त होकर उसने आश्रम के भीतर प्रवेश किया। परन्तु ऋषि उसकी सब बातें जान गये। उसे धैर्य से च्युत और ब्रह्मतेज से वंचित हुई देख उन महातेजस्वी शक्तिशाली महर्षि‍ ने धिक्कारपूर्ण वचनों द्वारा उसकी निन्दा की।

इसी समय जमदग्नि के ज्येष्‍ठ पुत्र रुमणवान वहाँ आ गये। फिर क्रमश: सुषेण, वसु और विश्वावसु भी आ पहूंचे।  जमदग्नि ने बारी-बारी से उन सभी पुत्रों को यह आज्ञा दी कि 'तुम अपनी माता का वध कर डालो',

परंतु मातृस्नेह उमड़ आने से वे कुछ भी बोल न सके, बेहोश-से खड़े रहे। तब महर्षि‍ ने कुपित हो उन सब पुत्रों को शाप दे दिया।

शापग्रस्त होने पर वे अपनी चेतना( होश) खो बैठे और तुरन्त मृग एवं पक्षि‍यों के समान जड़-बुद्धि हो गये।

"महाभारत: वनपर्व: अध्‍याय: (११७ )वाँ श्लोक 14-29 का हिन्दी अनुवाद-

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तदनन्तर शत्रुपक्ष के वीरों का संहार करने वाले परशुराम सबसे पीछे आश्रम पर आये। उस समय महातपस्वी महाबाहु जमदग्नि ने उनसे कहा-‘बेटा ! अपनी इस पापिनी माता को अभी मार डालो और इसके लिये मन में किसी प्रकार का खेद न करो। तब परशुराम ने फरसा लेकर उसी क्षण माता का मस्तक काट डाला।

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कालिका पुराण में भी परशुराम और रेणुका की कथा  महाभारत वन पर्व के समान ही है।

"एकदा तस्य जननी स्नानार्थं रेणुका गता।गङ्गातोये ह्यथापश्यन्नाम्ना चित्ररथं नृपम्।८३.८।

अनुवाद:-एक बार परशुराम की माता रेणुका स्नान के लिए गयीं तभी गंगा के जल में स्नान करते हुए चित्ररथ नामक एक राजा को देखा।८।

"भार्याभिः सदृशीभिश्च जलक्रीडारतं शुभम्।सुमालिनं सुवस्त्रं तं तरुणं चन्द्रमालिनम्। ८३.९ ।।

अनुवाद:-

वह अपनी सुन्दर पत्नीयों के साथ शुभ जल क्रीडा में रत था। वह राजा सुन्दर मालाओं सुन्दर वस्त्र से युक्त युवा चन्द्रमा के समान सुशोभित हो रहा था।९।

"तथाविधं नृपं दृष्ट्वा सञ्जातमदना भृशम्। रेणुका स्पृहयामास तस्मै राज्ञे सुवर्चसे। ८३.१० ।

अनुवाद:-

उस प्रकार राजा को देखकर वह रेणुका अत्यधिक काम से पीडित हो गयी और रेणुका ने उस वर्चस्व शाली राजा की इच्छा की।१०।

"स्पृहायुतायास्तस्यास्तु संक्लेदः समजायत।विचेतनाम्भसा क्लिन्ना त्रस्ता सा स्वाश्रमं ययौ। ८३.११ ।।

अनुवाद:-

राजा की इच्छा करती हुई वह रज:स्रवित हो गयी और चेतना हीन रज स्राव के जल से भीगी हुई डरी हुई अपने आश्रम को गयी।।११।

"अबोधि जमदग्निस्तां रेणुकां विकृतां तथा।          धिग् धिक्काररतेत्येवं निनिन्द च समन्ततः। ८३.१२ ।।

अनुवाद:-

उस रेणुका को जमदग्नि ने विकृत अवस्था में जानकर उसकी सब प्रकार से निन्दा की और उस रति पीडिता को धिक्कारा।१२।

"ततः स तनयान् प्राह चतुरः प्रथमं मुनिः।रुषण्वत्प्रमुखान् सर्वानेकैकं क्रमतो द्रुतम्।८३.१३।

अनुवाद:-

तब क्रोधित जमदग्नि ने अपने रुषणवत् आदि चारों पुत्रों से एक एक से कहा। १३।

"छिन्धीमां पापनिरतां रेणुकां व्यभिचारिणीम्।        ते तद्वचो नैव चक्रुर्मूकाश्चासन् जडा इव।८३.१४।

अनुवाद:-

जल्दी ही पाप में निरत इस रेणुका को काट दोलेकिन पुत्र उनकी बात न मान कर मूक और जड़ ही बने रहे।१४।

"कुपितो जमदग्निस्ताञ्छशापेति विचेतसः।   भवध्वं यूयमाचिराज्जडा गोबुद्धिर्गर्द्धिता:।८३.१५। 

अनुवाद:-

क्रोधित जमदग्नि ने उन सबको शाप दिया की सभी जड़ बुद्धि हो जाएं । कि तुम सब सदैव के लिए घृणित जड़ गो बुद्धि को प्राप्त हो जाओ।१५।

अथाजगाम चरमो जामदग्न्येऽतिवीर्यवान् ।।         तं च रामं पिता प्राह पापिष्ठां छिन्धि मातरम्।८३.१६ ।।

अनुवाद:-तभी जमदग्नि के अन्तिम पुत्र शक्तिशाली परशुराम आये जमदग्नि ने परशुराम से कहा पापयुक्ता इस माता को तुम काट दो।१६।

स भ्रातृंश्च तथाभूतान् दृष्ट्वा ज्ञानविवर्जितान्। पित्रा शप्तान् महातेजाः प्रसूं परशुनाच्छिनत्।८३.१७ ।।

अनुवाद:-पिता के द्वारा शापित ज्ञान से शून्य अपने भाइयों को देखकर उस परशुराम ने अपनी माता रेणुका का शिर फरसा से काट दिया ।

"रामेण रेणुकां छिन्नां दृष्ट्वा विक्रोधनोऽभवत्।।जमदग्निः प्रसन्नः सन्निति वाचमुवाच ह।८३.१८ ।।

अनुवाद:-परशुराम के द्वारा कटी हुई रेणुका को देखकर जमदग्नि क्रोधरहित हो गये। और जमदग्नि प्रसन्न होते हुए यह वचन बोले!।१८।

"प्रीतोऽस्मि पुत्र भद्र ते यत् त्वया मद्वचः कृतम्।। ८३.१८- १/२।

अनुवाद:-मैं प्रसन्न हूँ। पुत्र तेरा कल्याण हो ! तू मुझसे कुछ माँग ले!।१९।

"श्रीकालिकापुराणे त्र्यशीतितमोऽध्यायः।८३।

शास्त्रों के कुछ गले और दोगले विधान जो जातीय द्वेष की परिणित थे। -

उनसे प्रभावित पुरोहितों नें पुराणों में कालान्तर में लेखन कार्य जोड़ दिए-

सहस्रबाहूू की कथा को विपरीत अर्थ -विधि से लिखा गया

परशुराम ने कभी भी पृथ्वी से (२१) बार क्षत्रिय हैहयवंशीयों का वध किया ही नहीं।

परन्तु इस अस्तित्व हीन बात को बड़ा- चढ़ाकर बाद में लिखा गया।

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अब प्रश्न यह भी उठता है ! कि जब धर्मशास्त्र इस बात का विधान करते हैंकि ब्राह्मण की चार पत्नीयाँ हो सकती हैं उनमें से दो पत्नीयाँ ब्राह्मणी और क्षत्राणी के गर्भ से ब्राह्मण ही उत्पन्न होगा और शेष दो वैश्याणी और शूद्राणी के गर्भ से जो पुत्र होंगे वे ; ब्राह्मणत्व से रहित माता की जाति के ही समझे जाते हैं --

कि इसी महाभारत के अनुशासन पर्व में दानधर्म नामक उपपर्व के अन्तर्गत (वर्णसंकरकथन) नामक( अड़तालीसवाँ अध्याय) में यह वर्णन है ।

देखें निम्न श्लोक -

  • भार्याश्चतश्रो विप्रस्य द्वयोरात्मा प्रजायते।आनुपूर्व्याद् द्वेयोर्हीनौ मातृजात्यौ प्रसूयत:।४।(महाभारत अनुशासन पर्व का दानधर्म नामक उपपर्व)

कि ब्राह्मण की चार पत्नीयाँ हो सकती हैं उनमें से दो पत्नीयाँ ब्राह्मणी और क्षत्राणी के गर्भ से सन्तान केवल ब्राह्मण ही उत्पन्न होगी !

और शेष दो वैश्याणी और शूद्राणी पत्नीयों के गर्भ से जो सन्तान होंगी वे ; ब्राह्मणत्व से रहित माता की जाति की ही समझी जाएगी --।।४।।

इसी अनुशासन पर्व के इसी अध्याय में वर्णन है कि

  • "तिस्र: क्षत्रियसम्बन्धाद् द्वयोरात्मास्य जायते। हीनवर्णास्तृतीयायां शूद्रा उग्रा इति स्मृति:।७।

अर्थ:-क्षत्रिय से क्षत्रियवर्ण की स्त्री और वैश्यवर्ण की स्त्री में जो पुत्र उत्पन्न होता है ; वह क्षत्रिय वर्ण का होता है।तीसरी पत्नी शूद्रा के गर्भ से हीन वर्ण वाले शूद्र उत्पन्न होते हैं जिन्हें उग्र कहते हैं यह स्मृति (धर्मशास्त्र)का कथन है।७।

(महाभारत अनुशासन पर्व में दानधर्म नामक उपपर्व के अन्तर्गत वर्णसंकरकथन नामक अड़तालीसवाँ अध्याय का सप्तम श्लोक -) (पृष्ठ संख्या- ५६२५) गीता प्रेस का संस्करण)

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         "मनुस्मृति- में भी देखें निम्न श्लोक

यथा त्रयाणां वर्णानां द्वयोरात्मास्य जायते ।आनन्तर्यात्स्वयोन्यां तु तथा बाह्येष्वपि क्रमात् ।।10/28

अर्थ- जिस प्रकार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तीनों वर्णों में से दो में से दो में अपनी समान उत्पन्न होता है उसी तरह आनन्तर (खारिज) जाति में भी क्रम से होता है।१०/२८

न ब्राह्मणक्षत्रिययोरापद्यपि हि तिष्ठतोः ।कस्मिंश्चिदपि वृत्तान्ते शूद्रा भार्योपदिश्यते।। 3/14

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महाभारत के उपर्युक्त अनुशासन पर्व से उद्धृत और आदिपर्व से उद्धृत क्षत्रियों के नाश के वाद क्षत्राणीयों में बाह्मणों के संयोग से उत्पन्न पुत्र- पुत्री क्षत्रिय किस विधान से हुई दोनों तथ्य परस्पर विरोधी होने से क्षत्रिय उत्पत्ति का प्रसंग काल्पनिक व मनगड़न्त ही सिद्ध करते हैं ।

मिध्यावादीयों ने मिथकों की आड़ में अपने स्वार्थ को दृष्टि गत करते हुए आख्यानों की रचना की ---

कौन यह दावा कर सकता है ? कि ब्राह्मणों से क्षत्रिय-पत्नीयों में क्षत्रिय ही कैसे उत्पन्न हुए ?

किस सिद्धान्त की अवहेलना करके ! क्या पुरोहित जो कह दे वही सत्य हो जाएगा ?

"प्रधानता बीज की होती है नकि खेत कीक्यों कि दृश्य जगत में फसल का निर्धारण बीज के अनुसार ही होता है नकि स्त्री रूपी खेत के अनुसार--

सहस्रबाहु की पूजा का विधान ( नारदपुराण-पूर्वाद्ध- में किया गया है।

शास्त्रों में भगवान की पूजा का विधान तो हुआ है दुष्ट या व्यभिचारी की पूजा का विधान तो नहीं हुआ है।

बुद्धिमान कार्तवीर्य अर्जुन की पूजा हनुमान की पूजा से जुड़ी हुई हैं।

विशेष रूप से देवता की पूजा करनी चाहिए और ऊपर बताए अनुसार फल प्राप्त करना चाहिए 75-106।

यह श्री बृहन्नारायण पुराण के पूर्वी भाग में बृहदुपाख्यान के तीसरे भाग का पचहत्तरवाँ अध्याय है, जिसका शीर्षक दीपक की विधि का विवरण है।।75।।

  • अनेन मनुना मन्त्री ग्रहग्रस्तं प्रमार्जयेत् ।।आक्रंदंस्तं विमुच्याथ ग्रहः शीघ्रं पलायते ।। ७५-१०४।
  • मनवोऽमी सदागोप्या न प्रकाश्या यतस्ततः । परीक्षिताय शिष्याय देया वा निजसूनवे । ७५-१०५ ।
  • हनुमद्भजनासक्तः कार्तवीर्यार्जुनं सुधीः ।।  विशेषतः समाराध्य यथोक्तं फलमाप्नुयात् ।। ७५-१०६।

इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पूर्वभागे बृहदुपाख्याने तृतीयपादे दीपविधिनिरूपणं नाम पञ्चसप्ततितमोऽध्यायः ।। ७५ ।।

नारदपुराणम्- पूर्वार्द्ध अध्यायः (७६)

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                  "नारद उवाच।

  • "कार्तवीर्यतप्रभृतयो नृपा बहुविधा भुवि ।जायन्तेऽथ प्रलीयन्ते स्वस्वकर्मानुसारतः ।।१।।

अनुवाद:-देवर्षि नारद कहते हैं ! पृथ्वी पर कार्तवीर्य आदि राजा अपने कर्मानुगत होकर उत्पन्न होते और विलीन हो जाते हैं। १-।

  • तत्कथं राजवर्योऽसौ लोकेसेव्यत्वमागतः।समुल्लंघ्य नृपानन्यानेतन्मे नुद संशयम्।२।

अनुवाद:-तब उन्हीं सभी राजाओं को लाँघकर कार्तवीर्य किस प्रकार संसार में पूज्य हो गये यही मेरा संशय है।

               "सनत्कुमार उवाच"

  • श्रृणु नारद वक्ष्यामि संदेहविनिवृत्तये।      यथा सेव्यत्वमापन्नः कार्तवीर्यार्जुनो भुवि।३।

अनुवाद:-

सनत्कुमार ने कहा! हे नारद ! मैं आपके संशय की निवृति हेतु वह तथ्य कहता हूँ। जिस प्रकार से कार्तवीर्य अर्जुन पृथ्वी पर पूजनीय( सेव्यमान) कहे गये हैं।३।


  • "यः सुदर्शनचक्रस्यावतारः पृथिवीतले।। दत्तात्रेयं समाराध्य लब्धवांस्तेज उत्तमम्।४।

अनुवाद:-

ये पृथ्वी लोक पर सुदर्शन चक्र के अवतार हैं। इन्होंने महर्षि दत्तात्रेय की आराधना से उत्तम तेज प्राप्त किया।४।*******

  • तस्य क्षितीश्वरेंद्रस्य स्मरणादेव नारद ।।शत्रूञ्जयति संग्रामे नष्टं प्राप्नोति सत्वरम् ।।५।।****

अनुवाद:-

हे नारद कार्तवीर्य अर्जुन के स्मरण मात्र से पृथ्वी पर विजय लाभ की प्राप्ति होती है। शत्रु पर युद्ध में विजय प्राप्त होती है। तथा शत्रु का नाश भी शीघ्र ही हो जाता है।५।

  • तेनास्य मन्त्रपूजादि सर्वतन्त्रेषु गोपितम् । तुभ्यं प्रकाशयिष्येऽहं सर्वसिद्धिप्रदायकम् ।६ ।

अनुवाद:-

कार्तवीर्य अर्जुन का मन्त्र सभी तन्त्रों में गुप्त है। मैं सनत्कुमार आपके लिए इसे आज प्रकाशित करता हूँ। जो सभी सिद्धियों को प्रदान करने वाला है।६।

  • वह्नितारयुता रौद्री लक्ष्मीरग्नींदुशान्तियुक्।वेधाधरेन्दुशांत्याढ्यो निद्रयाशाग्नि बिंदुयुक् ।७।
  • पाशो मायांकुशं पद्मावर्मास्त्रे कार्तवीपदम्। रेफोवा द्यासनोऽनन्तो वह्निजौ कर्णसंस्थितौ ।८।
  • मेषः सदीर्घः पवनो मनुरुक्तो हृदंतिमः ।ऊनर्विशतिवर्णोऽयं तारादिर्नखवर्णकः।९ ।
  • दत्तात्रेयो मुनिश्चास्यच्छन्दोऽनुष्टुबुदाहृतम् ।कार्तवीर्यार्जुनो देवो बीजशक्तिर्ध्रुवश्च हृत् ।१०।
  • शेषाढ्यबीजयुग्मेन हृदयं विन्यसेदधः ।शान्तियुक्तचतुर्थेन कामाद्येन शिरोंऽगकम्।११।
  • इन्द्वाढ्यं वामकर्णाद्यमाययोर्वीशयुक्तया ।।शिखामंकुशपद्माभ्यां सवाग्भ्यां वर्म विन्यसेत् ।१२।
  • वर्मास्त्राभ्यामस्त्रमुक्तं शेषार्णैर्व्यापकं पुनः ।हृदये जठरे नाभौ जठरे गुह्यदेशतः ।े१३ ।
  • दक्षपादे वामपादे सक्थ्नि जानुनि जङ्घयोः । विन्यसेद्बीजदशकं प्रणवद्वयमध्यगम् ।।१४ ।।
  • ताराद्यानथ शेषार्णान्मस्तके च ललाटके ।भ्रुवोः श्रुत्योस्तथैवाक्ष्णोर्नसि वक्त्रे गलेंऽसके ।।१५ ।।
  • सर्वमन्त्रेण सर्वांगे कृत्वा व्यापकमादृतः ।।सर्वेष्टसिद्धये ध्यायेत्कार्तवीर्यं जनेश्वरम् ।। १६ ।।

इनका वह मन्त्र उन्नीस अक्षरों का है‌( यह मूल में श्लोक संख्या 7- से 9 तक वर्णित है। इसका मन्त्रोद्धार विद्वान जन करें अत: इसका अनुवाद करना भी त्रुटिपूर्ण होगा इस मन्त्र के ऋषि दत्तात्रेय हैं। छन्द अनुष्टुप् और देवाता हैं कार्तवीर्य अर्जुन " बीज है ध्रुव- तथा शक्ति है हृत् - शेषाढ्य बीज द्वय से हृदय न्यास करें। शन्तियुक्त- चतुर्थ मन्त्रक्षर से शिरोन्यास इन्द्राढ्यम् से वाम कर्णन्यास अंकुश तथा पद्म से शिखान्यास वाणी से कवचन्यास करें हुं फट् से अस्त्रन्यास करें। तथा शेष अक्षरों से पुन: व्यापक न्यास करना चाहिए इसके बाद सर्व सिद्धि हेतु जनेश्वर ( लोगों के ईश्वर) कार्तवीर्य का चिन्तन करें।७-१६।

  • उद्यद्रर्कसहस्राभं सर्वभूपतिवन्दितम् ।।      दोर्भिः पञ्चाशता दक्षैर्बाणान्वामैर्धनूंषि च ।१७ ।।

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  • दधतं स्वर्णमालाढ्यं रक्तवस्त्रसमावृतम् । चक्रावतारं श्रीविष्णोर्ध्यायेदर्जुनभूपतिम् ।१८।

अनुवाद:-

ध्यान :- इनकी कान्ति (आभा) हजारों उदित सूर्यों के समान है। संसार के सभी राजा इनकी वन्दना अर्चना करते हैं। सहस्रबाहु के 500 दक्षिणी हाथों में वाण और 500 उत्तरी (वाम) हाथों में धनुष हैं। ये स्वर्ण मालाधारी तथा रक्वस्त्र( लाल वस्त्र) से समावृत ( लिपटे हुए ) हैं। ऐसे श्री विष्णु के चक्रावतार राजा सुदर्शन का ध्यान करें।१७-१८।

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  • लक्षमेकं जपेन्मन्त्रं दशांशं जुहुयात्तिलैः ।।सतण्डुलैः पायसेन विष्णुपीठे यजत्तुतम् ।१९ ।
  • षट्कोणेषु षडंगानि ततो दिक्षु विविक्षु च ।चौरमदविभञ्जनं मारीमदविभंजनम् ।२०।।
  • अरिमदविभंजनं दैत्यमदविभंजनम् ।।      दुष्टनाशं दुःखनाशं दुरितापद्विनाशकम् ।२१।
  • दिक्ष्वष्टशक्तयः पूज्याः प्राच्यादिष्वसितप्रभाः ।                 क्षेमंकरी वश्यकरी श्रीकरी च यशस्करी ।२२।
  • आयुः करी तथा प्रज्ञाकरी विद्याकरी पुनः।धनकर्यष्टमी पश्चाल्लोकेशा अस्त्रसंयुताः ।२३।

अनुवाद:-ध्यान के उपरांत एक लाख और जप के उपरान्त होम, तिल,  चावल, तथा पायस ( खीर ) से पूजा करके विष्णु पीठ पर इनका पूजन करें । उसके बाद षट्कोण में पूजा करके दिक् विदिक् में षडंगदेवगण की पूजा करें।

इसमें चौरमद नारीमद शत्रुमद दैत्यमद का और दुष्ट का और दु:ख का तथा पाप का नाश होता है।

जिस रावण को वश में करने और परास्त करने के लिए राम ने सम्पूर्ण जीवन दाँव पर लगा दिया था उसी रावण को मात्र पाँच वाणो में परास्त कर बन्दी बना लिया-

  • एवं बध्वा धनुर्ज्यायामुत्सिक्तं पञ्चभिः शरैः। लङ्कायां मोहयित्वा तु सबलं रावणं बलात्।। ४३.३७।                                  
  • निर्जित्य बध्वा चानीय माहिष्मत्यां बबन्ध च। ततो गत्वा पुलस्त्यस्तु अर्जुनं संप्रसादयत्।। ४३.३८।
  • मुमोच रक्षः पौलस्त्यं पुलस्त्येनेह सान्त्वितम्।    तस्य बाहुसहस्रेण बभूव ज्यातलस्वनः।। ४३.३९

एक बार सम्राट सहस्रबाहु अपनी अनेक रानीयों के साथ भ्रमण करते हुए नर्मदा नदी में स्नान करने के लिए उतरे तो स्नान करते हुए एक पत्नी ने उनसे कहा कि क्या वे नर्मदा नदी का जल प्रवाह रोक सकते हैं ।

तो सहस्रबाहु ने पत्नी के कहने पर अपने हजार बाहूओं को फैलाकर नर्मदा नदी का जल प्रवाह रोक दिया इस से नर्मदा नदी का जल इधर उधर बहने लगा उसी कुछ ही दूरी पर रावण शंकर भगवान् की आराधना कर रहा था

उस जल के प्रवाह से उसकी पूजन सामग्री नैवेद्य आदि बह गयी क्रोधित रावण कारण का पता लगाते हुए सहस्रबाहु के पास पहुँच कर उससे युद्ध करने लगा तभी सहस्रबाहु ने अपने पाँच वाणों से ही परास्त कर रावण को बन्धी बना लिया था और दश वर्ष पर्यन्त अपने कारागार में रखा

तब रावण के पितामह विश्रवा के पिता पुलस्त्य वहाँ आये और रावण को मुक्त करने के लिए सहस्र बाहु से निवेदन किया सहस्रबाहु ने पुलस्त्य के उस निवेदन को स्वीकार करके रावण को मुक्त कर दिया।

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मत्स्यपुराण अध्याय- (43)

यदुवंशवर्णन के अन्तर्गत सहस्रबाहु का वर्णन-

  •  दत्तमाराधयामास कार्तवीर्य्योऽत्रिसम्भवम्।तस्मै दत्तावरास्तेन चत्वारः पुरुषोत्तम। ४३.१५।

कार्तवीर्य ने जब दतात्रेय की आराधना की तो अत्रि के पुत्र दत्तात्रेय ने उनको चार वरदान दिए-१५।  

  • पूर्वं बाहुसहस्रन्तु स वव्रे राजसत्तमः।        अधर्मं चरमाणस्य सद्भिश्चापि निवारणम्।४३.१६

पहले उसको कहने पर हजार बाहु दीं और जो संसासार में अधर्म है उसका निवारण करे का वरदान दिया।१६।

  • युद्धेन पृथिवीं जित्वा धर्मेणैवानुपालनम्।     संग्रामे वर्तमानस्य वधश्चैवाधिकाद् भवेत्। ४३.१७।

युद्ध में पृथ्वी जीतकर धर्म से उसका पालन करो और संग्राम में वर्तमान रहने पर वध तुमसे शक्ति शाली ही कर सकता है।१७।

  • तेनेयं पृथिवी सर्वा सप्तद्वीपा सपर्वता।समोदधिपरिक्षिप्ता क्षात्रेण विधिना जिता। ४३.१८ ।

तुम्हारे द्वारा सम्पूर्ण पृथ्वी और सातद्वीप, पर्वतों सहित, समुद्र  क्षत्रिय धर्म की विधि सबको जीत लिया जाय।१८।

  • जज्ञे बाहुसहस्रं वै इच्छत स्तस्य धीमतः। रथो ध्वजश्च सञ्जज्ञे इत्येवमनुशुश्रुमः।४३.१९ ।                                              
  • दशयज्ञसहस्राणि राज्ञा द्वीपेषु वै तदा।      निरर्गला निवृत्तानि श्रूयन्ते तस्य धीमतः। ४३.२०।                                              
  • सर्वे यज्ञा महाराज्ञस्तस्यासन् भूरिदक्षिणाः।सर्वेकाञ्चनयूपास्ते सर्वाः काञ्चनवेदिकाः। ४३.२१।                         
  • सर्वे देवैः समं प्राप्तै र्विमानस्थैरलङ्कृताः।गन्धर्वैरप्सरोभिश्च नित्यमेवोपशोभिताः। ४३.२२।                                               
  • तस्य यो जगौ गाथां गन्धर्वो नारदस्तथा।कार्तवीर्य्यस्य राजर्षेर्महिमानं निरीक्ष्य स: ४३.२३।                                               
  • न नूनं कार्तवीर्य्यस्य गतिं यास्यन्ति क्षत्रियाः।यज्ञैर्दानै स्तपोभिश्च विक्रमेण श्रुतेन च। ४३.२४।                                  
  • स हि सप्तसु द्वीपेषु, खड्गी चक्री शरासनी।रथीद्वीपान्यनुचरन् योगी पश्यति तस्करान्।। ४३.२५।                             
  • पञ्चाशीतिसहस्राणि वर्षाणां स नराधिपः। स सर्वरत्नसम्पूर्ण श्चक्रवर्त्ती बभूव ह।४३.२६।                                               
  • स एव पशुपालोऽभूत् क्षेत्रपालः स एव हि  स एव वृष्ट्या पर्जन्यो योगित्वादर्ज्जुनोऽभवत्।४३.२७।                  
  • योऽसौ बाहु सहस्रेण ज्याघात कठिनत्वचा।  भाति रश्मिसहस्रेण शारदेनैव भास्करः। ४३.२८।                      
  • एष नागं मनुष्येषु माहिष्मत्यां महाद्युतिः।कर्कोटकसुतं जित्वा पुर्य्यां तत्र न्यवेशयत्। ४३.२९।                                              
  • एष वेगं समुद्रस्य प्रावृट्काले भजेत वै।    क्रीड़न्नेव सुखोद्भिन्नः प्रतिस्रोतो महीपतिः।। ४३.३०।                                                
  • ललता क्रीड़ता तेन प्रतिस्रग्दाममालिनी।  ऊर्मि भ्रुकुटिसन्त्रा सा चकिताभ्येति नर्म्मदा।। ४३.३१।                                    
  • एको बाहुसहस्रेण वगाहे स महार्णवः।करोत्युह्यतवेगान्तु नर्मदां प्रावृडुह्यताम्।। ४३.३२।                                                
  • तस्य बाहुसहस्रेणा क्षोभ्यमाने महोदधौ।भवन्त्यतीव निश्चेष्टाः पातालस्था महासुराः।। ४३.३३।                               
  • चूर्णीकृतमहावीचि लीन मीन महातिमिम्।   मारुता विद्धफेनौघ्ज्ञ मावर्त्ताक्षिप्त दुःसहम्। ४३.३४।                                 
  • करोत्यालोडयन्नेव दोः सहस्रेण सागरम्।मन्दारक्षोभचकिता ह्यमृतोत्पादशङ्किताः। ४३.३५।                                              
  • तदा निश्चलमूर्द्धानो भवन्ति च महोरगाः।    सायाह्ने कदलीखण्डा निर्वात स्तिमिता इव। ४३.३६।                                      
  • एवं बध्वा धनुर्ज्यायामुत्सिक्तं पञ्चभिः शरैः। लङ्कायां मोहयित्वा तु सबलं रावणं बलात्। ४३.३७।                                 
  • निर्जित्य बध्वा चानीय माहिष्मत्यां बबन्ध च।ततो गत्वा पुलस्त्यस्तु अर्जुनं संप्रसादयत्। ४३.३८।                             
  • मुमोच रक्षः पौलस्त्यं पुलस्त्येनेह सान्त्वितम्।      तस्य बाहुसहस्रेण बभूव ज्यातलस्वनः।४३.३९।

अनुवाद:-और इस प्रकार धनुष पर प्रत्यञ्ज्या चढ़ाकर केवल पाँच वाणों से लंका में मोहित करके बल पूर्वक रावण को जीत कर और बंधी बनाकर महिष्मती में कारागार में डाल दिया तब जाकर पुलस्त्य ऋषि ने सहस्रबाहु को प्रसन्न कर के उस रावण को छुड़ाया-। सहस्रबाहु की हजार भुजाओं के द्वारा प्रत्यञ्चा का महान शब्द हुआ।३७-३८-३९।

विशेष :- रावण सहस्रबाहू के कारागार में दशवर्ष पर्यन्त बन्धी रहा-

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मत्स्यपुराण अध्याय (43)

यदुवंशवर्णन के अन्तर्गत सहस्रबाहु का वर्णन सहस्रार्जुन जयंती कार्तिक शुक्ल पक्ष की सप्तमी को मनाई जाती है। सहस्रार्जुन की कथाएं, महाभारत एवं वेदों के साथ सभी पुराणों में प्राय: पाई जाती हैं। चंद्रवंश के हैहय के कुल में हुआ।  महाराज कार्तवीर्य अर्जुन (सहस्रार्जुन) का जन्म कार्तिक मास में शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि को श्रावण नक्षत्र में प्रात: काल के मुहूर्त में हुआ था। वह भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी के द्वारा जन्म कथा का वर्णन भागवत पुराण में लिखा है। अत: सभी अवतारों के भांति वह भी भगवान विष्णु के चौबीसवें अवतार माने गए हैं, इनके नाम से भी पुराण संग्रह में सहस्रार्जुन पुराण के तीन भाग हैं।

यह भी धारणा मानी जाती है कि इस कुल वंश ने सबसे ज्यादा 12000 से अधिक वर्षो तक सफलता पूर्वक शासन किया था। श्री राज राजेश्वर सहस्त्रबाहु अर्जुन का जन्म महाराज हैहय के दसवीं पीढ़ी में माता पद्मिनी के गर्भ से हुआ था, राजा कृतवीर्य के संतान होने के कारण ही इन्हें कार्तवीर्य अर्जुन और भगवान दत्तात्रेय के भक्त होने के नाते उनकी तपस्या कर मांगे गए सहस्त्र बाहु भुजाओं के बल के वरदान के कारन उन्हें सहस्त्रबाहु अर्जुन भी कहा जाता है।

पूजा विधि-

सहस्रार्जुन विष्णु के चौबीसवें अवतार हैं, इसलिए उन्हें उपास्य देवता मानकर पूजा जाता है। कार्तिक शुक्ल पक्ष की सप्तमी की सहस्रार्जुन जयंती एक पर्व और उत्सव के रूप में मनाई जाती है। हिंदू धर्म संस्कृति और पूजा-पाठ के अनुसार स्नानादि से निवृत हो कर ब्रत का संकल्प करें और दिन में उपवास अथवा फलाहार कर शाम में सहस्रार्जुन का हवन-पूजन करे तथा उनकी कथा सुनें।

पुराण में कथा-वर्णन-

श्रीमद भागवत पुराण के अनुसार चंद्रवंशीय क्षत्रिय शाखा में महाराज ययाति से श्री राज राजेश्वर सहस्रबाहु का इतिहास प्रारंभ होता है,

महाराज ययाति की दो रानियाँ देवयानी व शर्मिष्ठा से पांच पुत्र उत्पन्न हुए इसमें यदु सबसे बड़े पुत्र सहस्रजित के पुत्र हैहय की शाखा में कार्तवीर्य अर्जुन का जन्म हुआ ।

कार्तवीर्यार्जुन ने परशुराम का वध किया कि परशुराम ने कार्तवीर्यार्जु का वध किया, इसकी सच्चाई का पता दोनों के बीच हुए युद्धों के निष्पक्ष विश्लेषण करने से ही लगाया जा सकता है। क्योंकि  इसमें बहुत घाल मेल किया गया है। दोनों के बीच हुए युद्धों का वर्णन ब्रह्मवैवर्त पुराण के गगपतिखण्ड के अध्याय - ४० के के कुछ श्लोकों से होती है। जिसको नीचे उद्धरित किया जा रहा है -



श्लोक ✍️


पतिते तु सहस्राक्षे कार्तवीर्य्यार्जुनः स्वयम्।।

आजगाम महावीरो द्विलक्षाक्षौहिणीयुतः।।३।।


सुवर्णरथमारुह्य रत्नसारपरिच्छदम् ।।

नानास्त्रं परितः कृत्वा तस्थौ समरमूर्द्धनि।।४।।


समरे तं परशुरामो राजेन्द्रं च ददर्श ह ।।

रत्नालंकारभूषाढ्यै राजेन्द्राणां च कोटिभिः ।।५।।


रत्नातपत्रभूषाढ्यं रत्नालंकारभूषितम् ।।

चन्दनोक्षितसर्वांगं सस्मितं सुमनोहरम् ।। ६ ।।


राजा दृष्ट्वा मुनीन्द्रं तमवरुह्म रथादहो ।।

प्रणम्य रथमारुह्य तस्थौ नृपगणैः सह ।। ७ ।।


ददौ शुभाशिषं तस्मै रामश्च समयोचितम् ।।

प्रोवाच च गतार्थं तं स्वर्गं गच्छेति सानुगः।।८।।


उभयोः सेनयोर्युद्धमभवत्तत्र नारद।

पलायिता रामशिष्या भ्रातरश्च महाबलाः ।।

क्षतविक्षतसर्वाङ्गाः कार्त्तवीर्य्यप्रपीडिताः।।९।


नृपस्य शरजालेन रामः शस्त्रभृतां वरः ।।

न ददर्श स्वसैन्यं च राजसैन्यं तथैव च ।। 3.40.१० ।।


चिक्षेप रामश्चाग्नेयं बभूवाग्निमयं रणे ।।

निर्वापयामास राजा वारुणेनैव लीलया ।।११।।


चिक्षेप रामो गान्धर्वं शैलसर्पसमन्वितम् ।।

वायव्येन महाराजः प्रेरयामास लीलया ।१२।


चिक्षेप रामो नागास्त्रं दुर्निवार्य्यं भयंकरम् ।।

गारुडेन महाराजः प्रेरयामास लीलया ।।१३।


माहेश्वरं च भगवांश्चिक्षेप भृगुनन्दनः ।।

निर्वापयामास राजा वैष्णवास्त्रेण लीलया ।। १४ ।।


ब्रह्मास्त्रं चिक्षिपे रामो नृपनाशाय नारद ।।

ब्रह्मास्त्रेण च शान्तं तत्प्राणनिर्वापणं रणे ।। १५ ।।


दत्तदत्तं च यच्छूलमव्यर्थं मन्त्रपूर्वकम् ।।

जग्राह राजा परशुरामनाशाय संयुगे ।। १६ ।।


शूलं ददर्श रामश्च शतसूर्य्यसमप्रभम् ।।

प्रलयाग्रिशिखोद्रिक्तं दि रि नि वाक्य सुरैरपि ।। १७ ।।


पपात शूलं समरे रामस्योपरि नारद ।।

मूर्च्छामवाप स भृगुः पपात च हरिं स्मरन् ।। १८ ।।


पतिते तु तदा रामे सर्वे देवा भयाकुलाः ।।

आजग्मुः समरं तत्र ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः ।।१९।


शङ्करश्च महाज्ञानी महाज्ञानेन लीलया ।।

ब्राह्मणं जीवयामास तूर्णं नारायणाज्ञया ।। 3.40.२० ।।


भृगुश्च चेतनां प्राप्य ददर्श पुरतः सुरान् ।।

प्रणनाम परं भक्त्या लज्जानम्रात्मकन्धरः ।। २१ ।।


राजा दृष्ट्वा सुरेशांश्च भक्तिनम्रात्मकन्धरः ।।

प्रणम्य शिरसा मूर्ध्ना तुष्टाव च सुरेश्वरान् ।।२२।


तत्राजगाम भगवान्दत्तात्रेयो रणस्थलम् ।।

शिष्यरक्षानिमित्तेन कृपालुर्भक्तवत्सलः ।२३।


भृगुः पाशुपतास्त्रं च सोऽग्रहीत्कोपसंयुतः ।।

दत्तदत्तेन दृष्टेन बभूव स्तम्भितो भृगुः ।।२४।।


ददर्श स्तम्भितो रामो राजानं रणमूर्द्धनि ।।

नानापार्षदयुक्तेन कृष्णेनाऽऽरक्षितं रणे ।।२५।।


सुदर्शनं प्रज्वलन्तं भ्रमणं कुर्वता सदा ।।

सस्मितेन स्तुतेनैव ब्रह्मविष्णुमहेश्वरैः ।।२६।


******

गोपालशतयुक्तेन गोपवेषविधारिणा ।।

नवीनजलदाभेन वंशीहस्तेन गायता ।२७।


एतस्मिन्नन्तरे तत्र वाग्बभूवाशरीरिणी ।।

दत्तेन दत्तं कवचं कृष्णस्य परमात्मनः ।। २८ ।।


राज्ञोऽस्ति दक्षिणे बाहौ सद्रत्नगुटिकान्वितम् ।।

गृहीतकवचे शम्भौ भिक्षया योगिनां गुरौ ।। २९ ।।


तदा हन्तुं नृपं शक्तो भृगुश्चेति च नारद ।।

श्रुत्वाऽशरीरिणीं वाणीं शङ्करो द्विजरूपधृक्।। 3.40.३० ।।


भिक्षां कृत्वा तु कवचमानीय च नृपस्य च।।

शम्भुना भृगवे दत्तं कृष्णस्य कवचं च यत् ।। ३१।।


_____

रामस्ततो राजसैन्यं ब्रह्मास्त्रेण जघान ह ।।

नृपं पाशुपतेनैव लीलया श्रीहरिं स्मरन् ।। ७२ ।।


अनुवाद- 

• सहस्राक्ष के गिर जाने पर महाबली कार्तवीर्यार्जुन दो लाख अक्षौहिणी सेना के साथ स्वयं युद्ध करने के लिए आया। वह रत्ननिर्मित खोल से आच्छादित स्वर्णमय रथ पर सवार हो अपने चारों ओर नाना प्रकार के अस्त्रों को सुसज्जित करके रणके मुहाने पर डटकर खड़ा हो गया। 

• इसके बाद वहां दोनों सेनन में युद्ध होने लगा तब परशुराम के शिष्य तथा उसके महाबली भाई कार्तवीर्य से पीड़ित होकर भाग खड़े हुए। उस समय उनके सारे अंग घायल हो गए थे। राजा के बाणसमूह से अच्छादित होने के कारण शास्त्रधारियों में श्रेष्ठ परशुराम को अपनी तथा राजा की सेना ही नहीं दिख रही थी।

• फिर तो परस्पर घोर दिव्यास्त्रों का प्रयोग होने लगा। अंतमें राजा (कार्तवीर्य) ने दत्तात्रेय के दिए हुए अमोघ शूल को यथाविधि मंत्रों का पाठ करके परशुराम पर छोड़ दिया।

• उस सैकड़ों सूर्य के समान प्रभावशाली एवं प्रलयाग्नि की शिखा के सदृश शूल के लगते ही परशुराम धराशायी हो गये।

• तदनंतर भगवान शिव ने वहां जाकर परशुराम को पुनर्जीवनदान दिया (पुनः जीवित किया)।

• इसी समय वहां युद्ध स्थल में भक्तवत्सल कृपालु भगवान दत्तात्रेय अपने शिष्य (कार्तवीर्य) की रक्षा करने के लिए आ पहुंचे।

• फिर परशुराम ने क्रुद्ध होकर पाशुपतास्त्र हाथ में लिया, परंतु दत्तात्रेय की दृष्टि पड़ने से वह (परशुराम) रणभूमि में स्तम्भित (जड़वत्) हो गये।


• तब रण के मुहाने पर स्तंभित हुए परशुराम ने देखा कि जिनके शरीर की कांति नूतन जलधार के सदृश्य है, जो हाथ में वंशी लिए बजा रहे हैं, सैकड़ो गोप जिनके साथ हैं, जो मुस्कुराते हुए प्रज्वलित सुदर्शन चक्र को निरन्तर घुमा रहे हैं और अनेकों पार्षदों से गिरे हुए हैं, एवं ब्रह्मा, विष्णु, और महेश्वर जिनका स्तवन कर रहे हैं, वे गोपवेषधारी श्रीकृष्ण युद्ध क्षेत्र में राजा (कार्तवीर्य) की रक्षा कर रहे हैं।

• इसी समय वहां यूं आकाशवाणी हुई - दत्तात्रेय के द्वारा दिया हुआ परमात्मा श्री कृष्ण का कवच उत्तम रतन की गुटका के साथ राजा की दाहिनी भुजा पर बंधा हुआ है, अतः योगियो के गुरु शंकर भिक्षारूप से जब उस कवच को मांग लेंगे, तभी परशुराम राजा कार्तवीर्यार्जुन का वध करने में समर्थ हो सकेंगे।


*****

• नारद! उस आकाशवाणी को सुनकर शंकर ब्राह्मण का रूप धारण करके राजा सहस्र बाहु को पास गए और राजा से याचना करके उसका कवच मांग लाये। फिर शंभू ने श्री कृष्ण का वह कवच परशुराम को दे दिया । (३ से लेकर 

३१ तक के)  श्लोकों का अनुवाद-


• तत्पश्चात परशुराम ने श्री हरि का स्मरण करते हुए ब्रह्मास्त्र द्वारा राजा की सेना का सफाया कर दिया और फिर लीलापूर्वक पशुपतास्त्र का प्रयोग करके राजा कार्तवीर्यार्जुन की जीवन लीला समाप्त कर दी।७२।

     

         ( 👇 नीचे के श्लोक केवल जानकारी के लिए अनुवाद करना आवश्यक है। इस अनुवाद को यहां नहीं रखा जाएगा। जरूरत के हिसाब से इसकी आवश्यकता पड़ेगी इसलिए इसका अनुवाद करना आवश्यक है ) 


"कालस्य कालः श्रीकृष्णः स्रष्टुः स्रष्टा यथेच्छया।।

संहर्ता चैव संहर्तुः पातुः पाता परात्परः।।४७।।


महास्थूलात्स्थूलतमः सूक्ष्मात्सूक्ष्मतमः कृशः ।।

परमाणुपरः कालः कालस्स्यात्कालभेदकः ।। ४८ ।।


यस्य लोमानि विश्वानि स पुमांश्च महाविराट् ।।

तेजसा षोडशांशश्च कृष्णस्य परमात्मनः ।।४९।।


ततः क्षुद्रविराड् जातः सर्वेषां कारणं परम् ।।

यः स्रष्टा च स्वयं ब्रह्मा यन्नाभिकमलोद्भवः ।। 3.40.५० ।।


नाभेः कमलदण्डस्य योऽन्तं न प्राप यत्नतः ।।

भ्रमणाल्लक्षवर्षं च ततः स्वस्थानसंस्थितः ।।५१।।


तपश्चक्रे ततस्तत्र लक्षवर्षं च वायुभुक् ।।

ततो ददर्श गोलोकं श्रीकृष्णं च सपार्षदम् ।। ।। ५२ ।।


गोपगोपीपरिवृतं द्विभुजं मुरलीधरम् ।।

रत्नसिंहासनस्थं च राधावक्षस्थलस्थितम् ।। ५३ ।।


दृष्ट्वाऽनुज्ञां गृहीत्वा च प्रणम्य च पुनः पुनः ।।

ईश्वरेच्छां च विज्ञाय स्रष्टुं सृष्टिं मनो दधे ।। ५४ ।।


यः शिवः सृष्टिसंहर्त्ता स च स्रष्टुर्ललाटजः ।।

विष्णुः पाता क्षुद्रविराट् श्वेतद्वीपनिवासकृत् ।।५५।


सृष्टिकारणभूताश्च ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः ।।

सन्ति विश्वेषु सर्वेषु श्रीकृष्णस्य कलोद्भवाः ।।५६।।


तेऽपि देवाः प्राकृतिकाः प्राकृतश्च महाविराट् ।।

सर्वप्रसूतिः प्रकृतिः श्रीकृष्णः प्रकृतेः परः ।।५७।।


न शक्तः परमेशोऽपि तां शक्तिं प्रकृतिं विना ।।

सृष्टिं विधातुं मायेशो न सृष्टिर्मायया विना ।।५८ ।।


सा च कृष्णे तिरोभूय सृष्टिसंहारकारके ।।

साऽऽविर्भूता सृष्टिकाले सा च नित्या महेश्वरी ।।५९।।


कुलालश्च कटं कर्तुं यथाऽशक्तो मृदं विना।।

स्वर्णं विना स्वर्णकारः कुण्डलं कर्तुमक्षमः ।। 3.40.६० ।।


सा च शक्तिः सृष्टिकाले पञ्चधा चेश्वरेच्छया ।।

राधा पद्मा च सावित्री दुर्गा देवी सरस्वती ।। ६१ ।।


प्राणाधिष्ठातृदेवी या कृष्णस्य परमात्मनः ।।

प्राणाधिकप्रियतमा सा राधा परिकीर्त्तिता ।६२ ।।



ऐश्वर्य्याधिष्ठातृदेवी सर्वमङ्गलकारिणी ।।

परमानन्दरूपा च सा लक्ष्मीः परिकीर्त्तिता ।।६३।।



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[• परात्पर श्री कृष्ण उस काल के- काल हैं और स्वेच्छानुसार सृष्टि रचयिता के स्रष्टा, संहार कर्ता के संहारक और पालन करनेवाले के पालक है। जो महान स्थूल से स्थूलतम, सूक्ष्म से सूक्ष्मतम कृश, परमाणुपरक काल, कालभेदक काल है। सारे विश्व जिनके रोयें हैं। वह महाविराट पुरुष तेज में परमात्मा श्री कृष्ण के सोलहवें  अंश के बराबर है, जिनसे क्षूद्र विराट उत्पन्न हुआ है, जो सबका उत्कृष्ट कारण है। जो स्वयं स्रष्टा है और ब्रह्मा जिनके नाभिकमल से उत्पन्न हुए हैं।

• श्वेतदीप निवासी क्षूद्र विराटविष्णु पालनकर्ता हैं। सृष्टि के कारण भूत ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर सभी विश्वों में श्रीकृष्ण की कला से उत्पन्न हुए हैं। प्रकृति (राधा) सबको जन्म देने वाली है और श्री कृष्ण प्रकृति से परे हैं मायापति महेश्वर भी उसे प्रकृति रूपिणी शक्ति (राधा)के बिना सृष्टि का विधान करने में समर्थ नहीं है क्योंकि माया बिना सृष्टि की रचना नहीं हो सकती, वह परमेश्वरी माया नित्य है वह सृष्टि संहार और पालन करता श्री कृष्ण में छिपी रहती है और सृष्टि रचना के समय प्रकट हो जाती है, जैसे मिट्टी के बिना कुमार घड़ा नहीं बन सकता और स्वर्ण के बिना स्वर्णकार कुंडल का निर्माण करने में असमर्थ है (उसी तरह स्रष्टा माया के बिना सृष्टि रचना नहीं कर सकते) वह शक्ति ईश्वर की इच्छा से सृष्टि कल में राधा, पद्मा, सावित्री, दुर्गा देवी, और सरस्वती नाम से पांच प्रकार की हो जाती है। परमात्मा श्री कृष्ण की जो प्राणाधिष्ठात्री देवी है। वह प्राणों से भी बढ़कर प्रियतमा राधा कही जाती है ।


जो संपूर्ण मंगलो को संपन्न करने वाली परमानंद रूप तथा ऐश्वर्या की अधिष्ठात्री देवी है।वह लक्ष्मी कही जाती है।


 ४७ से ६३ तक को श्लोकों का अनुवाद- उपर्युक्त रूप से है।


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