गुरुवार, 17 अक्टूबर 2024

पुरूरवा और उर्वशी का परिचय-

इषुर्न श्रिय इषुधेरसना गोषाः शतसा न रंहिः।
अवीरे क्रतौ वि दविद्युतन्नोरा न मायुं चितयन्त धुनयः॥ ३ (ऋग्वेद-10/95/3)

अर्थानुवाद: हे गोपिके ! तेरे सहयोग के विना- तुणीर से फेंका जाने वाला बाण भी विजयश्री में समर्थ नहीं होता। (गोषाःशतसा) मैं सैकड़ो गायों का सेवक तुझ भार्या उर्वशी के सहयोग के बिना  वेगवान भी नहीं हूं। (अवीरे) हे आभीरे ! विस्तृत कर्म में या संग्राम में भी अब मेरा वेग ( बल ) प्रकाशित नहीं होता है। और  शत्रुओं को कम्पित करने वाले मेरे सैनिक भी अब मेरे आदेश ( वचन अथवा हुंक्कार) को नहीं मानते हैं।३।

भाष्य- हिन्दी अनुवाद सहित-
अनया  उर्वश्या प्रति  पुरूरवाः स्वस्य विरहजनितं वैक्लव्यं  ब्रूते ।

हिन्दी- अर्थ = उर्वशी के प्रति पुरूरवा अपनी विरह जनित व्याकुलता को कहता है।

“इषुधेः । इषवो धीयन्तेऽत्रेतीषुधिर्निषङ्गः। = (इषुधि पद का पञ्चमी एक वचन = तीरकोश से)
 इषु: - (वाण धारण करने वाला निषंग या तीरकोश।)

ततः सकाशात् “इषुः= ( उसके पास से वाण) “असना असनायै= प्रक्षेप्तुं न भवति=( फेंकने के लिए नहीं होता)। “श्रिये= विजयार्थम् ।( विजयश्री के लिए।) त्वद्विरहाद्युद्धस्य बुद्ध्वावप्यनिधानात्। (तेरे विरह से युद्ध का बोध करके भी विना निधान( सहारे) से तथा “रंहिः= वेगवानहं=( मैं वेगवान्।) नहीं होता। “गोषाः = गोसेवका:   गवां संभक्ता:( गायों का भक्त- सेवक) "न अभवम्  - भू धातु रूप - कर्तरि प्रयोग लङ् लकार परस्मैपद उत्तम पुरुष एकवचन-( मैं न हुआ)। तथा “शतसाः शतानामपरिमितानां  गवां संभक्ता नाभवम् । अर्थात्- (मैं सैकड़ों गायों का सेवक  सामर्थ्य वान न हो सका)। किञ्च  और तो क्या“ अवीरे = अभीरे !   हे गोपिके ! वा  हे आभीरे “क्रतौ = यज्ञे कर्मणि वा  सति “न “वि “द्विद्युतत्= न विद्योतते मत्सामर्थ्यम् । (यज्ञ या  कर्म में भी मेरी सामर्थ्य अब प्रकाशित नहीं होती।)  किञ्च संग्रामे धुनयः = कम्पयितारोऽस्मदीया भटाः - (और तो क्या युद्ध में शत्रुओं को कम्पायमान करने वाले मेरे सैनिक भी)  । 
 मायुम् = मीयते प्रक्षिप्यत इति मायुः शब्दः । 'कृवापाजि° - इत्यादिनोण् । सिंहनादं ( मेरी (मायु)हुंक्कार“ न “चितयन्त न बुध्यन्ते वा-( नहीं समझते हैं )। ‘चिती संज्ञाने'। अस्माण्णिचि संज्ञापूर्वकस्य विधेरनित्यत्वाल्लघूपधगुणाभावः ।छान्दसो लङ्॥


व्याकरणिक उत्पत्ति-
गोष: = गां सनोति (सेवयति) सन् (षण् धातु =संभक्तौ/भक्ति/दाने च) +विट् ङा । सनोतेरनः” पा० षत्वम् ।  अर्थात "गो शब्द में षन् धातु का "ष" रूप शेष रहने पर(गो+षन्)= गोष: शब्द बना - जिसका अर्थ है । गो सेवक अथवा पालक।

उपर्युक्त ऋचाओं में गोषन् तथा गोषा शब्द गोसेवक के वाचक वैदिक रूप हैं। लौकिक भाषा में यही शब्द घोष रूप में यादवों की गोपालन वृत्ति को सूचित करने लगा ।

पुरूरवा की ऐतिहासिकता प्रमाणित है। उसका वर्णन वेदों के अतिरिक्त , पुराण और अन्य लौकिक आख्यानों में भी  गोपालक के रूप में वर्णित है। पुरुरवा के गोष (घोष-अथवा गो पालक होने का सन्दर्भ भी वैदिक है। जिसे  पुराणों में भी दर्शाया गया है। वैसे भी पुराण वेदों का व्याख्या भाग है।

भागवत पुराण के निम्नलिखित श्लोक में पुरूरवा की गोपालक पृष्ठ भूमि का प्रकाशन होता है।

"ततः परिणते काले प्रतिष्ठानपतिः प्रभुः।
पुरूरवस उत्सृज्य गां पुत्राय गतो वनम्॥४२ ॥
अनुवाद:- उसके बाद समय बीतने पर प्रतिष्ठान पुर का अधिपति अपने पुत्र  पुरूरवा को गोसमुदाय देकर वन को चला गया।४२।
सन्दर्भ:-
श्रीमद्‍भागवत महापुराण
 नवमस्कन्ध प्रथमोध्याऽयः॥१॥

उपर्युक्त श्लोक में गाम्- संज्ञा पद गो शब्द का ही द्वितीया कर्म कारक रूप है।
यहाँ गो पद - गायों के समुदाय का वाचक है।


उर्वशी का मत्स्य पुराण से उनके "कल्याणिनी" नामक कठिन व्रत का अनुष्ठान करने वाले प्रसंग को हम सन्दर्भित  करते हैं।__________________________________

              (कृष्ण उवाच)

'त्वया कृतमिदं वीर ! त्वन्नामाख्यं भविष्यति।
सा भीमद्वादशीह्येषा सर्वपापहरा शुभा।।६९.५८।।

या तु कल्याणिनी नाम पुरा कल्पेषु पठ्यते।
त्वमादिकर्ता भव सौकरेऽस्मिन् कल्पे महावीर वरप्रधान।।६९.५९।।

यस्याः स्मरन् कीर्तनमप्यशेषं विनष्टपापस्त्रिदशाधिपः स्यात्।। ६९.६० ।।

कृत्वा च यामप्सरसामधीशा नर्तकीकृता ह्यन्यभवान्तरेषु।
(बद्रिकाान्तिके पद्मसेनाभीरस्य कन्यातिकुतूहलेन सैवोर्वशी सम्प्रति नाकपृष्ठे।।६९.६१।।

जाताथवा विट्कुलोद्भवापि पुलोमकन्या पुरुहूतपत्नी।
तत्रापि तस्याः परिचारिकेयं मम प्रिया सम्प्रति सत्यकामा।।६९.६२।।

स्नातः पुरा मण्डलमेष तद्वत् तेजोमयं वेदशरीरमाप।
अस्याञ्च कल्याणतिथौ विवस्वान् सहस्रधारेण सहस्ररश्मिः।।६९.६३।।

त्वया कृतमिदं वीर ! त्वन्नामाख्यं भविष्यति।
सा भीमद्वादशीह्येषा सर्वपापहरा शुभा।५८।।

अनुवाद:- भगवान कृष्ण ने भीम से कहा:-वीर तुम्हारे द्वारा इसका पुन: अनुष्ठान होने पर यह व्रत तुम्हारे नाम से ही संसार में प्रसिद्ध होगा इसे लोग "भीमद्वादशी" कहेंगे यह भीम द्वादशी सब पापों का नाश करने वाला और शुभकारी होगा। ५८।

भावार्थ:-
बात उस समय की है जब एक बार भगवान् कृष्ण ने ! भीम से एक गुप्त व्रत का रहस्य उद्घाटन करते हुए कहा। भीमसेन तुम सत्व गुण का आश्रय लेकर मात्सर्य -(क्रोध और ईर्ष्या) का त्यागकर इस व्रत का सम्यक प्रकार से अनुष्ठान करो यह बहुत गूढ़ व्रत है। किन्तु स्नेह वश मैंने तुम्हें इसे बता दिया है।

"या तु कल्याणिनी नाम पुरा कल्पेषु पठ्यते। त्वमादिकर्ता भव सौकरेऽस्मिन् कल्पे महावीर वरप्रधान।।५९।।

अनुवाद:-प्राचीन कल्पों में इस व्रत को "कल्याणनी" व्रत कहा जाता था। महान वीरों में वीर भीमसेन तुम इस वराह कल्प में इस व्रत के सर्वप्रथम अनुष्ठान कर्ता बनो ।५९।

यस्याः स्मरन् कीर्तनमप्यशेषं। विनष्टपापस्त्रिदशाधिपः स्यात्।६०।।
अनुवाद:-इसका स्मरण और कीर्तन मात्र करने से मनुष्य के सम्पूर्ण पाप नष्ट हो जाते हैं और वह मनुष्य देवों के राजा इन्द्र के पद को प्राप्त करता है।६०।।
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कृत्वा च यामप्सरसामधीशा नर्तकीकृता ह्यन्यभवान्तरेषु।
(बद्रिकाान्तिके पद्मसेनाभीरस्य कन्यातिकुतूहलेन सैवोर्वशी सम्प्रति नाकपृष्ठे।।६९.६१।।

अनुवाद:-जन्मातरण में एक अहीर की कन्या ने अत्यन्त कुतूहलवश इस (कल्याणनी ) व्रत का अनुष्ठान किया जिसके परिणाम स्वरूप वह स्वर्ग की देव-नर्तकीयों-(अप्सराओं) की अधीश्वरी (स्वामिनी) हुई वही इस मन्वन्तर कल्प में स्वर्ग में इस समय उर्वशी नाम से विख्यात है।६१।

जाताथवा वैश्यकुलोद्भवापि पुलोमकन्या पुरुहूतपत्नी। तत्रापि तस्याः परिचारिकेयं मम प्रिया सम्प्रति सत्यभामा।६२।
अनुवाद:-
इसी प्रकार वैश्य वर्ण में उत्पन्न एक दूसरी कन्या ने भी इस व्रत का अनुष्ठान किया परिणाम स्वरूप वह पुलोमा दानव की पुत्री रूप में जन्म लेकर इन्द्र की पत्नी "शचि" बनी इसके अनुष्ठान काल में जो इसकी सेविका थी वह मेरी प्रिया सत्यभामा है।६२।
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मत्स्यपुराण -★(भीमद्वादशी)नामक 69 अध्याय-

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विशेष:-
ऋग्वेद के दशम मण्डल के 95 वें सूक्त की तीसरी ऋचा में उर्वशी का सम्बोधन अवीरे! अभीरा शब्द का ही वैदिक रूप है।

लौकिक संस्कृत में अभीर और आभीर दो रूप परस्पर एक वचन और बहुवचन( समूह- वाची) हैं।

वैदिक भाषा नें उपसर्ग कभी भी  क्रिया पद और संज्ञा पद के साध नहीं आते हैं। अत: अवीरा शब्द ही लौकिक संस्कृत में अभीरा हो गया और यही अभीर तथा समूह वाची रूप आभीर प्राकृत अपभ्रंश आदि भाषाओं में अहीर तथा आहीर हुआ।

इन तीनो रूपों का कालक्रम ईसापूर्व सप्तम सदी - अवीर- (  )  ईसापूर्व पञ्चम सदी अभीर तथा आभीर रूप और तीसरा अहीर और आहीर एक हजार ईस्वी से आज तक है।

वैदिक अवीर ( अवि= गाय, भेड़ आदि पशु+ ईर=    चराने वाला।  परन्तु यह व्युत्पत्ति एक संयोग ही है।
अवीर शब्द का मूव वीर रूप है। जो सम्प्रसारित होकर आर्य बन गया।
विदित हो आर्य शब्द प्रारम्भिक काल में पशुपालक तथा कृषक का वाचक था।



इस समस्त सृष्टि में व्रत तपस्या का ही एक कठिन रूपान्तरण है। 

तपस्या ही इस संसार में विभिन्न रूपों की सृष्टि का उपादान कारण है। भगवान कृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता में तप के स्वरूप का वर्णन करते हुए कहा-

मूल श्लोकः  
मनः प्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः।भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते।।17.16।।

अनुवाद:-मन की प्रसन्नता, सौम्य भाव, मननशीलता, मन का निग्रह और भावों की शुद्धि -- इस तरह यह मन-सम्बन्धी तप कहा जाता है।

आभीर कन्याऐं प्राचीन काल से ही कठिन व्रतों का पालन करने वाली रहीं हैं।

________
"आभीर लोग प्राचीन काल से ही व्रती और सदाचार सम्पन्न होते थे। स्वयं भगवान् विष्णु ने सतयुग में भी अहीरों के समान किसी अन्य जाति को व्रती और सदाचारीयों में सर्वश्रेष्ठ न जानकर ही सदाचार सम्पन्न और धर्मवत्सल स्वीकार किया। और इसी कारण से विष्णु ने अपना अवतरण भी इन्हीं अहीरों की जाति में लेना स्वीकार किया। वैदिक ऋचाओं विष्णु का गोप होना सर्वविदित ही है।

पद्म पुराण सृष्टि खण्ड के अध्याय-17 में अहीरों की जाति में भगवान कृष्ण के रूप में विष्णु के निम्नलिखित तीन श्लोक हैं जिसमें प्रथम श्लोक में अहीरों की धर्मतत्व का ज्ञाता होना और सदाचारी होना सूचित किया गया है इसके बाद के श्लोकों में गायत्री के द्वारा आभीर जाति के उद्धार करने वाला बताकर तृतीय श्लोक में अपने अवतरण की स्वीकृति स्वयं भगवान् विष्णु अहीरों  को देते हैं।

"धर्मवन्तं सदाचारं भवन्तं धर्मवत्सलम्। 
मया ज्ञात्वा ततः कन्या दत्ता चैषा विरञ्चये।१५।
___________________________________अनया गायत्र्या तारितो गच्छ युवां भो आभीरा दिव्यान्लोकान्महोदयान्। युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये।१६।

अवतारं करिष्येहं सा क्रीडा तु भविष्यति यदा नंदप्रभृतयो ह्यवतारं धरातले।१७।

अनुवाद:-विष्णु ने अहीरों से कहा मैंने तुमको धर्मज्ञ और धार्मिक सदाचारी तथा धर्मवत्सल जानकर तुम्हारी इस गायत्री नामकी कन्या को ब्रह्मा के लिए यज्ञकार्य हेतु पत्नी रूप में दिया है। (क्योंकि यज्ञ एक व्रतानुष्ठान ही है)। 
और अहीर कन्याऐं कठिन व्रतों का पालन करती हैं। हे अहीरों इस गायत्री के द्वारा उद्धार किये गये तुम सब दिव्यलोकों को जाओ- तुम्हारी अहीर जाति के यदुकुल के अन्तर्गत वृष्णिकुल में देवों की कार्य की सिद्धि के लिए मैं अवतरण करुँगा ( अवतारं करिष्येहं ) और वहीं मेरी लीला ( क्रीडा) होगी जब धरातल पर नन्द आदि का भी अवतरण होगा।



वैदिक अवीर शब्द की व्युत्पत्ति ( अवि= गाय, भेड़ आदि पशु+ ईर=  चराने वाला। के रूप में हुई है। परन्तु यह व्युत्पत्ति एक संयोग मात्र  ही है।

ऋग्वेद में गाय चराने या हाँकने के सन्दर्भ में ईर् धातु क्रियात्मक रूप ईर्ते विद्यमान है।

रुशदीर्त्ते पयो गोः” (ऋग्वेद-9/91/3 )

यह तो सर्व विदित है की उर्वशी गाय और भेड़ें पालती थी। आभीर कन्या होने के नाते भी उसका इन पशुओं से प्रेम स्वाभाविक ही था।

पुराणों में वर्णन भी है कि उर्वशी के पास दो भेंड़े भी थीं।

"समयं चेदृशं कृत्वा स्थिता तत्र वराङ्गना ।
एतावुरणकौ राजन्न्यस्तौ रक्षस्व मानद ॥८॥
_____________________
(देवीभागवतपुराण /स्कन्धः १/अध्यायः १३)

अमरकोश में भेड़ के पर्याय निम्नांकित हैं 

अमरकोशः
उरण पुं।
मेषः
समानार्थक:मेढ्र,उरभ्र,उरण,ऊर्णायु,मेष,वृष्णि,
एडक,अवि
2।9।76।2।3

अवीर शब्द का मूल वीर रूप है। जो अहीरों की वीरता प्रवृत्ति को सूचित करता है। जो सम्प्रसारित होकर आर्य बन गया।


विदित हो आर्य शब्द प्रारम्भिक काल में पशुपालक तथा कृषक का ही  वाचक था।



वैदिक कालीन अवीर !  शब्द ईसापूर्व सप्तम सदी के आस-पास  गाय भेड़ बकरी पालक के रूप में प्रचलित था।  यह वीर अहीरों का वाचक था।

परन्तु कालान्तर में ईसापूर्व पञ्चम सदी के समय यही अवीर शब्द अभीर रूप में प्रचलन में रहा और इसी अभीर का समूह वाची अथवा बहुवचन रूप आभीर भी  वीरता प्रवृत्ति का सूचक रहा इसी समय के शब्द कोशकार  अमरसिंह ने  आभीर शब्द की व्युत्पत्ति

आभीरः, पुंल्लिंग (आ समन्तात् भियं राति । रा दाने आत इति कः ।)  आभीर-गोपः । इत्यमरःकोश  आहिर इति प्राकृत भाषा ।

अभीर-
अभिमुखीकृत्य ईरयति गाः अभि + ईरः अच् । गोपे जातिवाचकादन्तशब्दत्वेन ततः स्त्रियां ङीप् ।
अभीरी-


और एक हजार ईस्वी में अपभ्रष्ट भाषा काल में प्राकृत भाषा के प्रभाव से यह आभीर शब्द आहीर हो गया।

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