बुधवार, 16 अक्तूबर 2024

गोषा

इषुर्न श्रिय इषुधेरसना गोषाः शतसा न रंहिः।
अवीरे क्रतौ वि दविद्युतन्नोरा न मायुं चितयन्त धुनयः॥ ३ (ऋग्वेद-10/95/3)

अर्थानुवाद: हे गोपिके ! तेरे सहयोग के विना- तुणीर से फेंका जाने वाला बाण भी विजयश्री में समर्थ नहीं होता। (गोषाःशतसा) मैं सैकड़ो गायों का सेवक तुझ भार्या उर्वशी के सहयोग के बिना  वेगवान भी नहीं हूं। (अवीरे) हे आभीरे ! विस्तृत कर्म में या संग्राम में भी अब मेरा वेग ( बल ) प्रकाशित नहीं होता है। और  शत्रुओं को कम्पित करने वाले मेरे सैनिक भी अब मेरे आदेश ( वचन अथवा हुंक्कार) को नहीं मानते हैं।३।

भाष्य- हिन्दी अनुवाद सहित-
अनया  उर्वश्या प्रति  पुरूरवाः स्वस्य विरहजनितं वैक्लव्यं  ब्रूते ।

हिन्दी- अर्थ = उर्वशी के प्रति पुरूरवा अपनी विरह जनित व्याकुलता को कहता है।

“इषुधेः । इषवो धीयन्तेऽत्रेतीषुधिर्निषङ्गः। = (इषुधि पद का पञ्चमी एक वचन = तीरकोश से)
 इषु: - (वाण धारण करने वाला निषंग या तीरकोश।)

ततः सकाशात् “इषुः= ( उसके पास से वाण) “असना असनायै= प्रक्षेप्तुं न भवति=( फेंकने के लिए नहीं होता)। “श्रिये= विजयार्थम् ।( विजयश्री के लिए।) त्वद्विरहाद्युद्धस्य बुद्ध्वावप्यनिधानात्। (तेरे विरह से युद्ध का बोध करके भी विना निधान( सहारे) से तथा “रंहिः= वेगवानहं=( मैं वेगवान्।) नहीं होता। “गोषाः = गोसेवका:   गवां संभक्ता:( गायों का भक्त- सेवक) "न अभवम्  - भू धातु रूप - कर्तरि प्रयोग लङ् लकार परस्मैपद उत्तम पुरुष एकवचन-( मैं न हुआ)। तथा “शतसाः शतानामपरिमितानां  गवां संभक्ता नाभवम् । अर्थात्- (मैं सैकड़ों गायों का सेवक  सामर्थ्य वान न हो सका)। किञ्च  और तो क्या“ अवीरे = अभीरे !   हे गोपिके ! वा  हे आभीरे “क्रतौ = यज्ञे कर्मणि वा  सति “न “वि “द्विद्युतत्= न विद्योतते मत्सामर्थ्यम् । (यज्ञ या  कर्म में भी मेरी सामर्थ्य अब प्रकाशित नहीं होती।)  किञ्च संग्रामे धुनयः = कम्पयितारोऽस्मदीया भटाः - (और तो क्या युद्ध में शत्रुओं को कम्पायमान करने वाले मेरे सैनिक भी)  । 
 मायुम् = मीयते प्रक्षिप्यत इति मायुः शब्दः । 'कृवापाजि° - इत्यादिनोण् । सिंहनादं ( मेरी (मायु)हुंक्कार“ न “चितयन्त न बुध्यन्ते वा-( नहीं समझते हैं )। ‘चिती संज्ञाने'। अस्माण्णिचि संज्ञापूर्वकस्य विधेरनित्यत्वाल्लघूपधगुणाभावः ।छान्दसो लङ्॥


व्याकरणिक उत्पत्ति-
गोष: = गां सनोति (सेवयति) सन् (षण् धातु =संभक्तौ/भक्ति/दाने च) +विट् ङा । सनोतेरनः” पा० षत्वम् ।  अर्थात "गो शब्द में षन् धातु का "ष" रूप शेष रहने पर(गो+षन्)= गोष: शब्द बना - जिसका अर्थ है । गो सेवक अथवा पालक।

उपर्युक्त ऋचाओं में गोषन् तथा गोषा शब्द गोसेवक के वाचक वैदिक रूप हैं। लौकिक भाषा में यही शब्द घोष रूप में यादवों की गोपालन वृत्ति को सूचित करने लगा ।

पुरूरवा की ऐतिहासिकता प्रमाणित है। उसका वर्णन वेदों के अतिरिक्त , पुराण और अन्य लौकिक आख्यानों में भी  गोपालक के रूप में वर्णित है। पुरुरवा के गोष (घोष-अथवा गो पालक होने का सन्दर्भ भी वैदिक है। जिसे  पुराणों में भी दर्शाया गया है। वैसे भी पुराण वेदों का व्याख्या भाग है।

भागवत पुराण के निम्नलिखित श्लोक में पुरूरवा की गोपालक पृष्ठ भूमि का प्रकाशन होता है।

"ततः परिणते काले प्रतिष्ठानपतिः प्रभुः।
पुरूरवस उत्सृज्य गां पुत्राय गतो वनम्॥४२ ॥
अनुवाद:- उसके बाद समय बीतने पर प्रतिष्ठान पुर का अधिपति अपने पुत्र  पुरूरवा को गायें देकर वन को चला गया।४२।
सन्दर्भ:-
श्रीमद्‍भागवत महापुराण
 नवमस्कन्ध प्रथमोध्याऽयः॥१॥


उर्वशी का मत्स्य पुराण से उनके "कल्याणिनी" नामक कठिन व्रत का अनुष्ठान करने वाले प्रसंग को हम सन्दर्भित  करते हैं।__________________________________
                   (कृष्ण उवाच)

'त्वया कृतमिदं वीर ! त्वन्नामाख्यं भविष्यति।
सा भीमद्वादशीह्येषा सर्वपापहरा शुभा।।६९.५८।।

या तु कल्याणिनी नाम पुरा कल्पेषु पठ्यते।
त्वमादिकर्ता भव सौकरेऽस्मिन् कल्पे महावीर वरप्रधान।।६९.५९।।

यस्याः स्मरन् कीर्तनमप्यशेषं विनष्टपापस्त्रिदशाधिपः स्यात्।। ६९.६० ।।

कृत्वा च यामप्सरसामधीशा नर्तकीकृता ह्यन्यभवान्तरेषु।
(बद्रिकाान्तिके पद्मसेनाभीरस्य कन्यातिकुतूहलेन सैवोर्वशी सम्प्रति नाकपृष्ठे।।६९.६१।।

जाताथवा विट्कुलोद्भवापि पुलोमकन्या पुरुहूतपत्नी।
तत्रापि तस्याः परिचारिकेयं मम प्रिया सम्प्रति सत्यकामा।।६९.६२।।

स्नातः पुरा मण्डलमेष तद्वत् तेजोमयं वेदशरीरमाप।
अस्याञ्च कल्याणतिथौ विवस्वान् सहस्रधारेण सहस्ररश्मिः।।६९.६३।।

त्वया कृतमिदं वीर ! त्वन्नामाख्यं भविष्यति।
सा भीमद्वादशीह्येषा सर्वपापहरा शुभा।५८।अनुवाद:- भगवान कृष्ण ने भीम से कहा:-वीर तुम्हारे द्वारा इसका पुन: अनुष्ठान होने पर यह व्रत तुम्हारे नाम से ही संसार में प्रसिद्ध होगा इसे लोग "भीमद्वादशी" कहेंगे यह भीम द्वादशी सब पापों का नाश करने वाला और शुभकारी होगा। ५८।

भावार्थ:-
बात उस समय की है जब एक बार भगवान् कृष्ण ने ! भीम से एक गुप्त व्रत का रहस्य उद्घाटन करते हुए कहा। भीमसेन तुम सत्व गुण का आश्रय लेकर मात्सर्य -(क्रोध और ईर्ष्या) का त्यागकर इस व्रत का सम्यक प्रकार से अनुष्ठान करो यह बहुत गूढ़ व्रत है। किन्तु स्नेह वश मैंने तुम्हें इसे बता दिया है।

"या तु कल्याणिनी नाम पुरा कल्पेषु पठ्यते। त्वमादिकर्ता भव सौकरेऽस्मिन् कल्पे महावीर वरप्रधान।।५९।।

अनुवाद:-प्राचीन कल्पों में इस व्रत को "कल्याणनी" व्रत कहा जाता था। महान वीरों में वीर भीमसेन तुम इस वराह कल्प में इस व्रत के सर्वप्रथम अनुष्ठान कर्ता बनो ।५९।

यस्याः स्मरन् कीर्तनमप्यशेषं। विनष्टपापस्त्रिदशाधिपः स्यात्।६०।।
अनुवाद:-इसका स्मरण और कीर्तन मात्र करने से मनुष्य के सम्पूर्ण पाप नष्ट हो जाते हैं और वह मनुष्य देवों के राजा इन्द्र के पद को प्राप्त करता है।६०।।
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कृत्वा च यामप्सरसामधीशा नर्तकीकृता ह्यन्यभवान्तरेषु।
(बद्रिकाान्तिके पद्मसेनाभीरस्य कन्यातिकुतूहलेन सैवोर्वशी सम्प्रति नाकपृष्ठे।।६९.६१।।

अनुवाद:-जन्मातरण में एक अहीर की कन्या ने अत्यन्त कुतूहलवश इस (कल्याणनी )व्रत का अनुष्ठान किया जिसके परिणाम स्वरूप वह स्वर्ग की देव-वेश्याओं-(अप्सराओं) की अधीश्वरी (स्वामिनी) हुई वही इस मन्वन्तर कल्प में स्वर्ग में इस समय उर्वशी नाम से विख्यात है।६१।

जाताथवा वैश्यकुलोद्भवापि पुलोमकन्या पुरुहूतपत्नी। तत्रापि तस्याः परिचारिकेयं मम प्रिया सम्प्रति सत्यभामा।६२।

इसी प्रकार वैश्य वर्ण में उत्पन्न एक दूसरी कन्या ने भी इस व्रत का अनुष्ठान किया परिणाम स्वरूप वह पुलोमा दानव की पुत्री रूप में जन्म लेकर इन्द्र की पत्नी "शचि" बनी इसके अनुष्ठान काल में जो इसकी सेविका थी वह मेरी प्रिया सत्यभामा है।६२।
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मत्स्यपुराण -★(भीमद्वादशी)नामक 69 अध्याय-______________________
 
विशेष:-

इस समस्त सृष्टि में व्रत तपस्या का ही एक कठिन रूपान्तरण है। 

तपस्या ही इस संसार में विभिन्न रूपों की सृष्टि का उपादान कारण है। भगवान कृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता में तप के स्वरूप का वर्णन करते हुए कहा-

मूल श्लोकः  
मनः प्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः।भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते।।17.16।।

अनुवाद:-मन की प्रसन्नता, सौम्य भाव, मननशीलता, मन का निग्रह और भावों की शुद्धि -- इस तरह यह मन-सम्बन्धी तप कहा जाता है।

आभीर कन्याऐं प्राचीन काल से ही कठिन व्रतों का पालन करने वाली रहीं हैं।

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"आभीर लोग प्राचीन काल से ही व्रती और सदाचार सम्पन्न होते थे। स्वयं भगवान् विष्णु ने सतयुग में भी अहीरों के समान किसी अन्य जाति को व्रती और सदाचारीयों में सर्वश्रेष्ठ न जानकर ही सदाचार सम्पन्न और धर्मवत्सल स्वीकार किया। और इसी कारण से विष्णु ने अपना अवतरण भी इन्हीं अहीरों की जाति में लेना स्वीकार किया। वैदिक ऋचाओं विष्णु का गोप होना सर्वविदित ही है।

पद्म पुराण सृष्टि खण्ड के अध्याय-17 में अहीरों की जाति में भगवान कृष्ण के रूप में विष्णु के निम्नलिखित तीन श्लोक हैं जिसमें प्रथम श्लोक में अहीरों की धर्मतत्व का ज्ञाता होना और सदाचारी होना सूचित किया गया है इसके बाद के श्लोकों में गायत्री के द्वारा आभीर जाति के उद्धार करने वाला बताकर तृतीय श्लोक में अपने अवतरण की स्वीकृति स्वयं भगवान् विष्णु अहीरों  को देते हैं।

"धर्मवन्तं सदाचारं भवन्तं धर्मवत्सलम्। 
मया ज्ञात्वा ततः कन्या दत्ता चैषा विरञ्चये।१५।
___________________________________अनया गायत्र्या तारितो गच्छ युवां भो आभीरा दिव्यान्लोकान्महोदयान्। युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये।१६।

अवतारं करिष्येहं सा क्रीडा तु भविष्यति यदा नंदप्रभृतयो ह्यवतारं धरातले।१७।

अनुवाद:-विष्णु ने अहीरों से कहा मैंने तुमको धर्मज्ञ और धार्मिक सदाचारी तथा धर्मवत्सल जानकर तुम्हारी इस गायत्री नामकी कन्या को ब्रह्मा के लिए यज्ञकार्य हेतु पत्नी रूप में दिया है। (क्योंकि यज्ञ एक व्रतानुष्ठान ही है)। 
और अहीर कन्याऐं कठिन व्रतों का पालन करती हैं। हे अहीरों इस गायत्री के द्वारा उद्धार किये गये तुम सब दिव्यलोकों को जाओ- तुम्हारी अहीर जाति के यदुकुल के अन्तर्गत वृष्णिकुल में देवों की कार्य की सिद्धि के लिए मैं अवतरण करुँगा ( अवतारं करिष्येहं ) और वहीं मेरी लीला ( क्रीडा) होगी जब धरातल पर नन्द आदि का भी अवतरण होगा।



  शास्त्र में लिखा है कि वैष्णव ही इन अहीरों का वर्ण है।
सम्पूर्ण गोप अथवा यादव विष्णु अथवा कृष्ण के अंश अथवा उनके शरीर के रोमकूपों से उत्पन्न हुए है। गर्गसंहिता के विश्वजित् खण्ड में के अध्याय दो और ग्यारह में यह वर्णन है।"एक समय की बात है- सुधर्मा में श्रीकृष्‍ण की पूजा करके, उन्‍हें शीश नवाकर प्रसन्नचेता राजा उग्रसेन ने दोनों हाथ जोड़कर धीरे से कहा।

उग्रसेन कृष्ण से बोले ! - भगवन् ! नारदजी के मुख से जिसका महान फल सुना गया है, उस राजसूय नामक यज्ञ का यदि आपकी आज्ञा हो तो अनुष्‍ठान करुँगा। पुरुषोत्तम ! आपके चरणों से पहले के राजा लोग निर्भय होकर, जगत को तिनके के तुल्‍य समझकर अपने मनोरथ के महासागर को पार कर गये थे। तब श्री कृष्ण भगवान ने कहा- राजन् ! यादवेश्‍वर ! आपने बड़ा उत्तम निश्‍चय किया है। उस यज्ञ से आपकी कीर्ति तीनों लोको में फैल जायगी। प्रभो ! सभा में समस्‍त यादवों को सब ओर से बुलाकर पान का बीड़ा रख दीजिये और प्रतिज्ञा करवाइये।
क्योंकि सभी यादव मेरे ही अंश है। 

ममांशा यादवाः सर्वे लोकद्वयजिगीषवः ॥ जित्वारीनागमिष्यंति हरिष्यंति बलिं दिशाम् ॥७॥

"शब्दार्थ:-१-ममांशा= मेरे अंश रूप (मुझसे उत्पन्न) २-यादवा: सर्वे = सम्पूर्ण यादव।३- लोकद्वयजिगीषवः = दोनों लोकों को जीतने की इच्छा वाले। ४- जिगीषव: = जीतने की इच्छा रखने वाले।५- जिगीषा= जीतने की इच्छा - जि=जीतना धातु में +सन् भावे अ प्रत्यय ।= जयेच्छायां ।६- जित्वा= जीतकर।७-अरीन्= शत्रुओ को।८- आगमिष्यन्ति = लौट आयेंगे। ९-हरिष्यन्ति= हरण कर लाऐंगे।१०-बलिं = भेंट /उपहार।११- दिशाम् = दिशाओं में।

अनुवाद:-समस्‍त यादव मेरे अंश से प्रकट हुए हें। वे दौनों लोक, को जीतने की इच्‍छा रखने वाले हैं।वे दिग्विजय के लिये यात्रा करके, शत्रुओं को जीतकर लौट आयेंगे और सम्‍पूर्ण दिशाओं से आपके लिये भेंट और उपहार लायेंगे।७।

(सन्दर्भ:- गर्गसंहिता‎ खण्डः ७ विश्वजित्खण्ड)"गोप अथवा यादव एक ही थे क्योंकि एक स्थान पर गर्ग सहिता में यादवों को कृष्ण के अंश से उत्पन्न बताया गया है। और दूसरी ओर उसी अध्याय में गोपों को कृष्ण के रोमकूपों से उत्पन्न बताया है।

"जब ब्राह्मण स्वयं को ब्राह्मा के मुख से उत्पन्न मानते हैं। तो यादव तो विष्णु के शरीर से क्लोन विधि से भी उत्पन हो सकते हैं।और ब्रह्मा का जन्म विष्णु की नाभि में उत्पन्न कमल से सम्भव है। तो यादव अथवा गोप तो साक्षात् विष्णु के शरीर से उत्पन्न हैं।
इस लिए गोप अथवा यादव ब्राह्मणों से श्रेष्ठ हैं। पूज्य हैं।
परन्तु उन्हें इसके अनुरूप चरित्र स्थापित करने की आवश्यकता है।
देखें ऋग्वेद के दशम मण्डल के द्वादश सूक्त की यह नब्बे वी ऋचा।"ब्राह्मणो अस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः।
ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत।।
(ऋग्वेद 10/90/12)
श्लोक का अनुवाद:- इस विराटपुरुष(ब्रह्मा) के मुख से ब्राह्मण हुआ , बाहू से क्षत्रिय लोग हुए एवं उसकी जांघों से वैश्य हुआ एवं दौनों चरण से शूद्रो की उत्पत्ति हुई।-(10/90/12)
इस लिए अब सभी शात्र-अध्येता जानते हैं कि ब्रह्मा भी विष्णु की सृष्टि हैं।परन्तु हम इन शास्त्रीय मान्यताओं पर ही आश्रित होकर वर्णव्यवस्था का पालन और आचरण करते हैं । तो विचार करना होगा कि गोप साक्षात् विष्णु के ही शरीर(रोम कूप) से उत्पन्न हैं । जबकि ब्राह्मण विष्णु की सृष्टि ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न हैंइस लिए गोप ब्राह्मणों से श्रेष्ठ और उनके भी पूज्य हैं।ब्रह्म-वैवर्त पुराण में भी यही अनुमोदन साक्ष्य है।
👇"कृष्णस्य लोमकूपेभ्य: सद्यो गोपगणो मुने:" आविर्बभूव रूपेण वैशैनेव च तत्सम:।४१।(ब्रह्म-वैवर्त पुराण अध्याय -5 श्लोक 41)
अनुवाद:- कृष्ण के रोमकूपों से गोपोंं (अहीरों) की उत्पत्ति हुई है , जो रूप और वेश में उन्हीं कृष्ण ( विष्णु) के समान थे। वास्तव में कृष्ण का ही गोलोक धाम का रूप विष्णु है।
यही गोपों की उत्पत्ति की बात गर्गसंहिता श्रीविश्वजित्खण्ड के ग्यारहवें अध्याय में यथावत् वर्णित है।
___________________________"नन्दो द्रोणो वसुःसाक्षाज्जातो गोपकुलेऽपि सः॥
गोपाला ये च गोलोके कृष्णरोम समुद्‌भवाः।२१।"राधारोमोद्‌भवा गोप्यस्ताश्च सर्वा इहागताः॥
काश्चित्पुण्यैः कृतैः पूर्वैः प्राप्ताः कृष्णं वरैः परैः॥२२॥
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इति श्रीगर्गसंहितायां श्रीविश्वजित्खण्डे श्रीनारदबहुलाश्वसंवादे दंतवक्त्रयुद्धे करुषदेशविजयो नामैकादशोऽध्यायः॥११॥
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शास्त्रों में वर्णन है कि गोप (आभीर) वैष्णव (विष्णु के रोमकूप) से उत्पन्न वैष्णव अञ्श ही थे।
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अत: यादव अथवा गोप गण ब्राह्मणों की वर्ण व्यवस्था में समाहित नही होने से रूढ़िवादी पुरोहितों ने अहीरों के विषय में इतिहास छुपा कर बाते लिखीं हैं।
ब्रह्मवैवर्तपुराण ब्रह्मखण्ड अध्याय- एकादश( ग्यारह)
अनुवाद- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य ,और शूद्र जैसे चार वर्ण-और उनके अनुसार जातियाँ हैं।इनसे पृथक स्वतन्त्र एक वर्ण और उसके अनुसार जाति है वह वर्ण इस विश्व में वैष्णव नाम से है और उसकी एक स्वतन्त्र जाति है।(१.२.४३)उपर्युक्त श्लोक में परोक्ष रूप से आभीर जाति का ही संकेत है। जो कि स्वयं विष्णु के रोम कूपों से प्रादुर्भूत वैष्णव वर्ण हैं।गायत्री ज्ञान की अधिष्ठात्री हुईं तो इनके अतिरिक्त सौन्दर्य की अधिष्ठात्री उर्वशी जो अप्सराओं की अधिकारिणी थी।आभीर कन्या हीं थी यह भी मत्स्यपुराण में वर्णन है।"ऋग्वेद के दशम मण्डल में उर्वशी के पति और नायक पुरुरवा का भी गोष(घोष)अथवा गोप रूप में वर्णन मिलता है।इन्हीं तथ्यों का हम शास्त्रीय प्रमाणों द्वारा यहाँ सिद्ध करने का उपक्रम करते हैं।"इषुर्न श्रिय इषुधेरसना गोषाः शतसा न रंहिः अवीरे क्रतौ वि दविद्युतन्नोरा न मायुं चितयन्त धुनयः॥३॥
सायण-भाष्य"-अनया पुरूरवाः स्वस्य विरहजनितं वैक्लव्यं तां प्रति ब्रूते =वह पुरूरवा उर्वशी के विरह से जनित कायरता( नपुंसकता) को उस उर्वशी से कहता है। “इषुधेः= इषवो धीयन्तेऽत्रेतीषुधिर्निषङ्गः। ततः सकाशात् “इषुः “असना =असनायै प्रक्षेप्तुं न भवति= उस निषंग से वाण फैकने के लिए मैं समर्थ नहीं होता “श्रिये विजयार्थम् । त्वद्विरहाद्युद्धस्य बुद्ध्वावप्यनिधानात् । तथा “रंहिः =वेगवानहं (“गोषाः =गवां संभक्ता)= गायों के भक्त/ पालक/ सेवक "न अभवम् = नहीं होसकता। तथा “शतसाः= शतानामपरिमितानां। किंच {“अवीरे= वीरवर्जिते -अबले }“क्रतौ =राजकर्मणि सति “न “वि “दविद्युतत् न विद्योतते मत्सामर्थ्यम् । किंच “धुनयः= कम्पयितारोऽस्मदीया भटाः = " कम्पित करने वाले हमारे भट्ट( सैनिक) उरौ= ‘सुपां सुलुक् ' इति सप्तम्या डादेशः । विस्तीर्णे संग्रामे "मायुम् । मीयते प्रक्षिप्यत इति मायुः =शब्दः । 'कृवापाजि° - इत्यादिनोण् । सिंहनादं “न “चितयन्त न बुध्यन्ते ।‘चिती संज्ञाने'। अस्माण्णिचि संज्ञापूर्वकस्य विधेरनित्यत्वाल्लघूपधगुणाभावः। छान्दसो लङ्।पुरुरवा :- हे उर्वशी ! कहीं बिछड़ने से मुझे इतना दु:ख होता है कि तरकश से एक तीर भी छूटता नहीं है। मैं अब सैकड़ों गायों की सेवा अथवा पालन के लिए सक्षम नहीं हूं। मैं राजा के कर्तव्यों से विमुख हो गया हूं और इसलिए मेरे योद्धाओं के पास भी अब कोई काम नहीं रहा।विशेष:- गोष: = गां सनोति (सेवयति) सन् (षण् =संभक्तौ/भक्ति/दाने च) +विट् ङा । सनोतेरनः” पा० षत्वम् । गोदातरि “गोषा इन्द्रीनृषामसि” सि० कौ० धृता श्रुतिः “इत्था गृणन्तो महिनस्य शर्म्मन् दिविष्याम पार्य्ये गोषतमाः” ऋ० ६ । ३३ । ५ । अत्र “घरूपेत्यादि” पा० सू० गोषा शब्दस्य तमपि परे ह्रस्वः ।
वैदिक ऋचाओं में गोष: (घोष)शब्द का पूर्व रूप ही है। जिसका अर्थ होता है - गायों का दान करने वाला / तथा गोसेवक" गोपाल- उपर्युक्त ऋचा के अतिरिक्त निम्न ऋचा में भी पुरुरवा को गाय पालने वाला सूचित किया गया है।"जज्ञिषे इत्था गोपीथ्याय हि दधाथ तत्पुरूरवो म ओजः अशासं त्वा विदुषी सस्मिन्नहन्न म आशृणोः किमभुग्वदासि ॥११॥
सायण-भाष्य"-“इत्था= इत्थं = इस प्रकार इत्थम्भावः इत्थम्भूतः "गोपीथ्याय – गौः =पृथिवी /धेनू। पीथं= पालनम् के लिए । स्वार्थिकस्तद्धितः । भूमे रक्षणीय जज्ञिषे =( जनी धातु मध्यम पुरुष एकवचन लिट् लकार “हि जातोऽसि खलु पुत्ररूपेण । 'आत्मा वै पुत्रनामा ' इति श्रुतेः। पुनस्तदेवाह । हे "पुरूरवः “मे ममोदरे मयि "ओजः अपत्योत्पादनसामर्थ्यं "दधाथ मयि निहितवानसि । "तत् तथास्तु । अथापि स्थातव्यमिति चेत् तत्राह । अहं "विदुषी भावि कार्यं जानती “सस्मिन्नहन् सर्वस्मिन्नहनि त्वया कर्तव्यं "त्वा =त्वाम् "अशासं =शिक्षितवत्यस्मि । त्वं "मे मम वचनं “न “आशृणोः =न शृणोषि। “किं त्वम् "अभुक् =अभोक्तापालयिता प्रतिज्ञातार्थमपालयन् “वदासि हये जाय इत्यादिकरूपं प्रलापम् ।"मत्स्य उवाच।शृणु कर्म्मविपाकेन येन राजा पुरूरवाः।अवाप ताद्रृशं रूपं सौभाग्यमपि चोत्तमम्। ११५.६।
"अतीते जन्मनि पुरा योऽयं राजा पुरूरवाः। पुरूरवा इति ख्यातो मद्रदेशाधिपो हि सः।११५.७।
चाक्षुषस्यान्वये राजा चाक्षुषस्यान्तरे मनोः।स वै नृपगुणैर्युक्तः केवलं रूपवर्जितः।११५.८ ।
पुरूरवा मद्रपतिः कर्म्मणा केन पार्थिवः।बभूव कर्म्मणा केन रूपवांश्चैव सूतज!। ११५.९।
अनुवाद:-शास्त्रों में पुरुरवा के जन्म की विभिन्न कथाऐं हैं।मत्स्यभगवान्ने कहा- राजन्। राजा पुरुरवाको जिस कर्मके फलस्वरूप वैसे सुन्दर रूप और उत्तम सौभाग्यकी प्राप्ति हुई थी, वह बतला रहा हूँ, सुनो। यह राजा पुरूरवा पूर्वजन्ममें भी पुरूरवा नामसे ही विख्यात था। यह चाक्षुष मन्वन्तरमें चाक्षुष मनुके वंशमें उत्पन्न होकर मद्र देश (पंजाबका पश्चिमोत्तर भाग) का अधिपति था (जहाँका राजा शल्य तथा पाण्डुपत्त्री माद्री थी। उस समय इसमें राजाओंके सभी गुण तो विद्यमान थे, पर वह केवल रूपरहित अर्थात् कुरूप था (मत्स्यभगवान्द्वारा आगे कहे जानेवाले प्रसङ्गको ऋषियोंके पूछने पर सूतजीने वर्णन किया है, अतः इसके आगे पुनः वही प्रसङ्ग चलाया गया है।)।6-8।(मत्स्यपुराण अध्याय-115)सतयुग में वर्णव्यवस्था नहीं थी परन्तु एक ही वर्ण था । जिसे हंस नाम से शास्त्रों में वर्णन किया गया है। परन्तु आभीर लोग सतयुग में भी विद्यमान थेजब ब्रह्मा का विवाह आभीर कन्या गायत्री से हुआ था । तब आभीर जाति के लोग उपस्थित थे।कालान्तर में भी वर्णव्यवस्था का आधार गुण और मनुष्य का कर्म ही था।गुणकर्मानुसार वर्णविभाग ही भगवान का जाननेका मार्ग है-"चातुर्वर्ण्य मया सृष्टं गुणकर्म विभागशः। तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्॥१६॥( श्रीमद्भगवद्गीता- ४/१३)अनुवाद:- गुण और कर्मों के विभाग से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र मेरे द्वारा रचे गये हैं। मैं सृष्टि आदिका कर्त्ता होने पर भी मुझे अकर्ता और अव्यय ही जानना अर्थात् वर्ण और आश्रम धर्म की रचना मेरी बहिरङ्गा प्रकृति के द्वारा ही हुई है।प्राचीन युग का वर्णधर्म; सत्ययुगमें मात्र एक वर्ण-था वह सत्य का युग था। परन्तु उसका चतुर्थाञ्श(1/4) भाग असत् से लिप्त हो जाता है आनुपातिक रूप में तब कदाचित् अन्य वर्ण विकसित हुए हों परन्तु सत युग में हंस नामक एक ही वर्ण का उल्लेख भागवत पुराण आदि ग्रन्थों में प्राप्त होता है।- भागवत पुराण में वर्णन है कि त्रेता युग के प्रारम्भिक चरण में ही वर्ण-व्यवस्था का विकास हुआ।"आदौ कृतयुगे वर्णो नृणां हंस इति स्मृतः।कृतकृत्याः प्रजा जात्या तस्मात् कृतयुगं विदुः॥१९॥
"त्रेतामुखे महाभाग प्राणान्मे हृदयात् त्रयी। विद्या प्रादुरभूत्तस्या अहमासं त्रिवृन्मखः॥२०॥
विप्रक्षत्रियविटशूद्रा मुखबाहूरुपादजाः। वैराजात् पुरुषाज्जाता य आत्माचारलक्षणाः॥२१॥
(श्रीमद्भागवत पुराण ११/१७/१९--२०-२१)अनुवाद:-(भगवान ने उद्धव से कहा-हे उद्धव ! सत्ययुग के प्रारम्भ में सभी मनुष्यों का 'हंस' नामक एक ही वर्ण था। उस युग में सब लोग जन्म से ही कृतकृत्य होते थे, इसीलिए उसका एक नाम कृतयुग भी है। हे महाभाग, त्रेतायुगके आरम्भ होने पर मेरे हृदयसे श्वास-प्रश्वासके द्वारा ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेदरूप त्रयी विद्या प्रकट हुई और उस त्रयी विद्यासे होत्र, अध्वर्य और उद्गाता-इन तीन यज्ञों के कर्ता के ये रूप प्रकट हुए। बाद में विराट पुरुष के मुख से ब्राह्मण, भुजा से क्षत्रिय, जंघा से वैश्य और चरणों से शूद्रों की उत्पत्ति हुई। उनकी पहचान उनके स्वभावानुसार और आचरण से होती है॥१९-२१॥पहले सभी ब्रह्मज्ञान से सम्पन्न होने से ब्राह्मण थे, बाद में गुण और कर्मों के अनुसार विभिन्न वर्ण विभाग हुए-श्रोत:-आभीरसंहिता,‌ यदुवंशसंहिता एवं यदुवंशसमुद्भवा राधिका"



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