रविवार, 20 अक्टूबर 2024

पद्मपुराण भूमिखण्ड- से ययाति द्वारा यदु को शाप देने का प्रकरण-



                  'पिप्पल- उवाच'

कामकन्यां यदा राजा उपयेमे द्विजोत्तम।
किं चक्राते तदा ते द्वे पूर्वभार्ये सुपुण्यके।१।

देवयानी महाभागा शर्मिष्ठा वार्षपर्वणी।
तयोश्चरित्रं तत्सर्वं कथयस्व ममाग्रतः।२।

अनुवाद:-

               "पिप्पल ने कहा !
 हे ब्राह्मण श्रेष्ठ , जब राजा (ययाति ) ने कामदेव की पुत्री से विवाह किया, तो उनकी दो पूर्व, बहुत पुण्यात्मा पत्नियों देवयानी और वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा ने क्या किया ? दोनों का सारा वृत्तान्त मेरे सामने कहो।1-2।

                  "सुकर्मोवाच-
यदानीता कामकन्या स्वगृहं तेन भूभुजा ।
अत्यर्थं स्पर्धते सा तु देवयानी मनस्विनी।३।
अनुवाद:-
सन कर्मा ने कहा– जब वह( ययाति) राजा कामदेव की पुत्री को अपने घर ले गये, तो  उच्च विचार वाली देवयानी उसके साथ बहुत प्रतिद्वंद्विता करने लगी।३।


तस्यार्थे तु सुतौ शप्तौ क्रोधेनाकुलितात्मना।
शर्मिष्ठां च समाहूय शब्दं चक्रे यशस्विनी।४।
अनुवाद:-
इस कारण  उस ययाति  ने क्रोध से वशीभूत होकर अपने दो पुत्रों (अर्थात तुरुवसु और यदु जो देवयानी से उत्पन्न थे उनको क्रोधित हो शाप दे दिया। राजा  दूत के द्वारा शर्मिष्ठा को बुलाकर  ये शब्द कहे। ४।


रूपेण तेजसा दानैः सत्यपुण्यव्रतैस्तथा ।
शर्मिष्ठा देवयानी च स्पर्धेते स्म तया सह।५।
अनुवाद:-
शर्मिष्ठे और  देवयानी दोनों रूप , तेज और दान के द्वारा उस अश्रु बिन्दुमती के साथ  प्रतिस्पर्धा  स्पर्धा करती हैं।५।

दुष्टभावं तयोश्चापि साऽज्ञासीत्कामजा तदा।
राज्ञे सर्वं तया विप्र कथितं तत्क्षणादिह।६।
अनुवाद:-
तब काम देव की पुत्री अश्रुबिन्दुमती ने उन दोनों के दुष्टभाव को जाना  तो  उसने राजा को वह  सब उसी समय कह सुनाया।६।

****
अथ क्रुद्धो महाराजः समाहूयाब्रवीद्यदुम् ।
शर्मिष्ठा वध्यतां गत्वा शुक्रपुत्री तथा पुनः।७।
अनुवाद:-
तब क्रोधित होकर  राजा ययाति ने यदु को बुलाया और उनसे कहा: हे यदु ! तुम “जाओ और शर्मिष्ठा और शुक्र की बेटी अर्थात अपनी माता (देवयानी) को मार डालो।७। 


सुप्रियं कुरु मे वत्स यदि श्रेयो हि मन्यसे ।
एवमाकर्ण्य तत्तस्य पितुर्वाक्यं यदुस्तदा ।८।
अनुवाद:-
हे पुत्र तुम मेरा प्रिय करो  यदि तुम इसे कल्याण कारी मानते हो अपने पिता के ये वचन सुनकर यदु ने  पिता से कहा ।८।


प्रत्युवाच नृपेंद्रं तं पितरं प्रति मानद ।
नाहं तु घातये तात मातरौ दोषवर्जिते।९।
अनुवाद:-
तब यदु ने उस अपने पिता  राजा को उत्तर देते हुए कहा– मान्य वर! पिता श्री मैं निर्दोष दोनों माताओं को नहीं मारुँगा।९।

मातृघाते महादोषः कथितो वेदपण्डितैः।
तस्माद्घातं महाराज एतयोर्न करोम्यहम्।१०।
अनुवाद:-
वेदों के ज्ञाता लोगों ने अपनी माता की हत्या को महापाप बताया है।  इस लिए महाराज ! मैं इन दोनों का बध नहीं करुँगा।१०।

दोषाणां तु सहस्रेण माता लिप्ता यदा भवेत् ।
भगिनी च महाराज दुहिता च तथा पुनः।११।
अनुवाद:-
हे राजा, (भले ही) यदि एक माँ, एक बहन या एक बेटी पर हजार दोष लगें हो।११।
 
पुत्रैर्वा भ्रातृभिश्चैव नैव वध्या भवेत्कदा ।
एवं ज्ञात्वा महाराज मातरौ नैव घातये।१२।
अनुवाद:-
तो भी उसे कभी भी बेटों या भाइयों द्वारा नहीं मारा जाना चाहिए यह जानकर महाराज मैं दोनों माताओ को नहीं मारुँगा।१२।

यदोर्वाक्यं तदा श्रुत्वा राजा क्रुद्धो बभूव ह ।
शशाप तं सुतं पश्चाद्ययातिः पृथिवीपतिः।१३।
अनुवाद:-
उस समय यदु की बातें सुनकर राजा ययाति क्रोधित हो गये इसके बाद पृथ्वी के स्वामी ययाति ने अपने पुत्र को शाप दिया।१३।

यस्मादाज्ञाहता त्वद्य त्वया पापि समोपि हि ।
मातुरंशं भजस्व त्वं मच्छापकलुषीकृतः।१४।
अनुवाद:-
चूंकि तुमने  आज (मेरे ) आदेश का पालन नहीं किया है, तुम एक पापी के समान हो, मेरे शाप से प्रदूषित हो, तुम मातृभक्त ही बने रहो अपनी माँ के अंश का ही  भजन( भक्ति) करो ।१४।

एवमुक्त्वा यदुं पुत्रं ययातिः पृथिवीपतिः ।
पुत्रं शप्त्वा महाराजस्तया सार्द्धं महायशाः।१५।
अनुवाद:-
अपने पुत्र यदु से इस प्रकार कहकर और पृथ्वी के स्वामी, महान प्रतापी राजा ययाति अपने पुत्र  यदु को शाप देकर कामदेव की पुत्री अश्रबिन्दुमती के साथ सुख भोगा।१५।

रमते सुखभोगेन विष्णोर्ध्यानेन तत्परः ।
अश्रुबिन्दुमतीसा च तेन सार्द्धं सुलोचना।१६।
अनुवाद:-
अश्रुबिन्दुमती के साथ सुख भोग के समय राजा विष्णु के ध्यान में भी तत्पर न रह सके।१६।
 
बुभुजे चारुसर्वांगी पुण्यान्भोगान्मनोनुगान् ।
एवं कालो गतस्तस्य ययातेस्तु महात्मनः।१७।
अनुवाद:-
उस सर्वांग सुन्दरी कामदेव की पुत्री अश्रुबिन्दुमती के साथ मनोवाँच्छित भोगों का उपभोग करते हुए ययाति ने समय व्यतीत किया।१७।

अक्षया निर्जराः सर्वा अपरास्तु प्रजास्तथा ।
सर्वे लोका महाभाग विष्णुध्यानपरायणाः।१८।
अनुवाद:-
बिना किसी हानि या बिना बुढ़ापे के थे; सभी लोग पूरी तरह से गौरवशाली विष्णु के ध्यान के प्रति समर्पित थे।१८।

तपसा सत्यभावेन विष्णोर्ध्यानेन पिप्पल ।
सर्वे लोका महाभाग सुखिनः साधुसेवकाः।१९।
अनुवाद:-
हे महान पिप्पल , सभी लोग प्रसन्न थे और उन्होंने तपस्या, सत्यता और विष्णु के ध्यान के माध्यम से भलाई की उनके राज्य में सभी लोग महाभाग्यशाली सुखी और साधना करने वाले साधुओं के सेवक थे।१९।

सन्दर्भ:-
"इति श्रीपद्मपुराणे भूमिखण्डे वेनोपाख्याने मातापितृतीर्थवर्णने ययातिचरित्रेऽशीतितमोऽध्यायः।८०।


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें