सोमवार, 14 अक्तूबर 2024

राधा-विवाह-


राधे स्मरसि गोलोकवृत्तान्तं सुरसंसदि । अद्य पूर्णं करिष्यामि स्वीकृतं यत्पुरा प्रिये ॥५७॥

त्वं मे प्राणाधिका राधे प्रेयसी च वरानने । यथा त्वं च तथाऽहं च भेदो हि नाऽऽवयोर्ध्रुवम॥५८॥

यथा पृथिव्यां गन्धश्च तथाऽहं त्वयि संततम् ।।विना मृदा घटं कर्तुं विना स्वर्णेन कुण्डलम् ।५९।।

कुलालः स्वर्णकारश्च नहि शक्तः कदाचन ।।
तथा त्वया विना सृष्टिमहं कर्तुं न च क्षमः ।। 4.15.६० ।।

सृष्टेराधारभूता त्वं बीजरूपोऽहमच्युतः ।।
आगच्छ शयने साध्वि कुरु वक्षःस्थले हि माम् ।। ६१ ।।
त्वं मे शोभा स्वरूपाऽसि देहस्य भूषणं यथा ।
कृष्णं वदान्त मां लोकास्त्वयैव रहितं यदा ।६२।


श्रीकृष्णं च तदा तेऽपि त्वयैव सहितं परम् ।।
त्वं च श्रीस्त्वं च संपत्तिस्त्वमाधारस्वरूपिणी ।। ६३ ।।


सर्वशक्तिस्वरूपासि सर्वरूपोऽहमक्षरः ।।
यदा तेजःस्वरूपोऽहं तेजोरूपाऽसि त्वं तदा ।। ६४ ।।


“हे प्राणप्यारी राधे ! तुम गोलोक का वृत्तान्त याद करों। जो वहाँ पर देवसभा में घटित हुआ था, मैनें तुम को वचन दिया था, और आज वह वचन पूरा करने का समय अब आन पहुँचा है।५७।

तुम मुझे मेरे स्वयं के प्राणों से भी प्रिय हो, तुम में और मुझ में कोई भेद नहीं है।५८।

जैसे पृथ्वी में गंध होती है, उसी प्रकार तुममें मैं नित्य व्याप्त हूँ। जैसे बिना मिट्टी के घड़ा तैयार करने में ।  जैसे विना सोने के कुण्डल  बनाने में।५९।

जैसे कुम्हार  और सुनार सक्षम नहीं हो सकता उसी प्रकार मैं तुम्हारे बिना सृष्टिरचना में समर्थ नहीं हो सकता।६०।

तुम सृष्टि की आधारभूता हो और मैं बीजरूप हूँ।अत: आओ और मेरे वक्ष; स्थल पर शयन करो। ६१।

तुम मेरी शोभा( श्री ) हो जैसे देह की शोभा आभूषण लोक में मुझे सभी कृष्ण कहते हैं।६२।

परन्तु अगर तुम मेरे साथ होती हो तो सभी मुझे श्रीकृष्ण पुकारने लगते हैं। तुम सर्वशक्ति  स्वरूपा मेरी श्री हों। ये वेद का निर्णय है।६३।

तुम सर्वशक्ति स्वरूपणी हो  और मैं सर्व रूप अक्षर हूँ। जैसे तेज स्वरूप मैं हूँ वैसे ही तेज स्वरूप तुम हो।६४।

ब राधा जैसे नींद से जाग गई, वह बोली-“हे माधव ! वह सब मैं कैसे भूल सकती हूँ। मैं आपकी भक्त हूँ, परन्तु आप के मायाजाल में मैं रम गई हूँ, आबद्ध हो गई हूँ। मैं तो आपके भक्त के शापवश इस धरा पर आई हूँ, ये मैं कैसे भूल सकती हूँ। अभी तो मुझे सौ साल आपसे अलग भी रहना है ये सोच कर ही मेरे प्राण निकल जाते हैं।”

 (ब्रह्मवैवर्त पुराण-श्रीकृष्ण जन्म खण्ड. )      

ये कथोपकथन अभी हो ही रहा था कि वहाँ पर मुस्कराते हुए ब्रह्माजी सभी देवताओं के संग आ गये। 

मूर्ध्ना ननाम भक्त्या च मातुस्तच्चरणाम्बुजे ।चकार संभ्रमेणैव जटाजालेन वेष्टितम्॥९५॥

कमण्डलुजलेनैव शीघ्रं प्रक्षालितं मुदा ।यथागमं प्रतुष्टाव पुटाञ्जलियुतः पुनः॥९६॥ (ब्रह्मवैवर्त पुराण-श्रीकृष्ण जन्म खण्ड.)   

उन्होंने श्रीकृष्णजी को प्रणाम किया और राधिका जी के चरणद्वय को अपने कमंडल से जल लेकर धोया और फिर जल अपनी जटायों पर लगाया।९५।

कमण्डलु के जल से स्वयं को प्रक्षालन कर प्रसन्न हो तथा हाथ जोड़कर राधाजी का स्तवन किया।९६।

 

यथा समस्तब्रह्माण्डे श्रीकृष्णांशांशजीविनः।।१०३।।


तथा शक्तिस्वरूपा त्वं तेषु सर्वेषु संस्थिता।।
पुरुषाश्च हरेरंशास्त्वदंशा निखिलाः स्त्रियः ।।१०४।।


आत्मना देहरूपा त्वमस्याधारस्त्वमेव हि।।
अस्यानु प्राणैस्त्वं मातस्त्वत्प्राणैरयमीश्वरः ।।१०५।।


किमहो निर्मितः केन हेतुना शिल्पकारिणा ।।
नित्योऽयं च तथा कृष्णस्त्वं च नित्या तथाऽम्बिके ।। १०६ ।।


अस्यांशा त्वं त्वदंशो वाऽप्ययं केन निरूपितः ।।
अहं विधाता जगतां देवानां जनकः स्वयम् ।। १०७ ।।


तं पठित्वा गुरुमुखाद्भवन्त्येव बुधा जनाः ।।
गुणानां वास्तवानां ते शतांशं वक्तुमक्षमः ।।१०८।।


वेदो वा पण्डितो वाऽन्यः को वा त्वां स्तोतुमीश्वरः।।
स्तवानां जनकं ज्ञानं बुद्धिर्ज्ञानाम्बिका सदा ।। १०९ ।।


त्वं बुद्धेर्जननी मातः को वा त्वां स्तोतुमीश्वरः।।यद्वस्तु दृष्टं सर्वेषां तद्धि वक्तुं बुधः क्षमः ।।4.15.११०।।

यददृष्टाश्रुते वस्तु तन्निर्वक्तुं च कः क्षमः ।।
अहं महेशोऽनंतश्च स्तोतुं त्वां कोऽपि न क्षमः।। १११ ।।

“ब्रह्माण्ड में सभी जीव कृष्णजी के अंश हैं, स्त्री समूह माता राधाजी का अंश है, आप माता राधा कृष्ण के प्राणों से भी अधिक प्रिय हैं और आप जगत् की माता हैं। आपके गुणों का कोई वर्णन नहीं कर सकता। और आप ज्ञान की माता और बुद्धि की जननी हैं। आपकी स्तुति करने की क्षमता किस में हो सकती हैं। मैं या भगवान शिव भी आप के विस्तार के विस्तार के बारे में कुछ नहीं जानते हैं।” – इस प्रकार से कहते हुए ब्रह्माजी स्तुति करने लगे।     



               "श्रीनारायण उवाच।।

ब्रह्मणः स्तवनं श्रुत्वा तमुवाच ह राधिका ।।११७।।

वरं वृणु विधातस्त्वं यत्ते मनसि वर्तते ।।
राधिकावचनं श्रुत्वा तामुवाच जगद्विधिः ।।११८।।

वरं च युवयोः पादपद्मभक्तिं च देहि मे ।।
इत्युक्ते विधिना राधा तूर्णमोमित्युवाच ह ।।११९।।

पुनर्ननाम तां भक्त्या विधाता जगतां पतिः ।।
तदा ब्रह्मा तयोर्मध्ये प्रज्वाल्य च हुताशनम् ।। 4.15.१२० ।।

हरिं संस्मृत्य हवनं चकार विधिना विधिः।।
उत्थाय शयनात्कृष्ण उवास वह्निसन्निधौ ।।१२१ ।।

ब्रह्मणोक्तेन विधिना चकार हवनं स्वयम् ।।
प्रणमय्य पुनः कृष्णं राधां तां जनकः स्वयम् ।। १२२ ।।

कौतुकं कारयामास सप्तधा च प्रदक्षिणाम् ।।
पुनः प्रदक्षिणां राधां कारयित्वा हुताशनम् ।।१२३ ।।
प्रणमय्य ततः कृष्णं वासयामास तं विधिः ।।
तस्या हस्तं च श्रीकृष्णं ग्राहयामास तं विधिः ।। १२४।।

वेदोक्तसप्तमन्त्रांश्च पाठयामास माधवम् ।।
संस्थाप्य राधिकाहस्तं हरेर्वक्षसि वेदवित् ।। १२५ ।।
श्रीकृष्णहस्तं राधायाः पृष्ठदेशे प्रजापतिः ।।
स्थापयामास मन्त्रांस्त्रीन्पाठयामास राधिकाम् ।।१२६।।

पारिजातप्रसूनानां मालां जानुविलम्बिताम् ।।
श्रीकृष्णस्य गले ब्रह्मा राधाद्वारा ददौ मुदा ।। १२७ ।।

प्रणमय्य पुनः कृष्णं राधां च कमलोद्भवः ।।
राधागले हरिद्वारा ददौ मालां मनोहराम्।।
पुनश्च वासयामास श्रीकृष्णं कमलोद्भवः ।। १२८ ।।
तद्वामपार्श्वे राधां च सस्मितां कृष्णचेतसम् ।।
पुटाञ्जलिं कारयित्वा माधवं राधिकां विधिः ।। ।।१२९।।

पाठयामास वेदोक्तान्पञ्च मन्त्रांश्च नारद ।।
प्रणमय्य पुनः कृष्णं समर्प्य राधिकां विधिः ।। 4.15.१३० ।।

कन्यकां च यथा तातो भक्त्या तस्थौ हरेः पुरः ।।
एतस्मिन्नन्तरे देवाः सानन्दपुलकोद्गमाः ।। १३१।।

दुन्दुभिं वादयामासुश्चानकं मुरजादिकम्।।
पारिजातप्रसूनानां पुष्पवृष्टिर्बभूव ह ।। १३२ ।।

जगुर्गन्धर्वप्रवरा ननृतुश्चाप्सरोगणाः ।।
तुष्टाव श्रीहरिं ब्रह्मा तमुवाच ह सस्मितः ।।१३३।।

युवयोश्चरणाम्भोजे भक्तिं मे देहि दक्षिणाम्।।
ब्रह्मणो वचनं श्रुत्वा तमुवाच हरिः स्वयम् ।।१३४।।

फिर ब्रह्माजी ने अग्नि प्रज्वलित करके संविधि हवन पूर्ण किया। तब उन्होंने पिता का कर्त्तव्य पालन करते हुए राधाकृष्ण जी को अग्नि की सात परिक्रमा कराई। तब उन्हें वहाँ पर बिठा कर राधा का हाथ कृष्णजी के हाथ में पकड़वाया और वैदिक मंत्रों का पाठ किया। उसके पश्चात ब्रह्मा जी ने श्रीकृष्ण का हाथ राधा की पीठ पर और राधा का हाथ कृष्णजी के वक्षस्थल पर रख कर मन्त्रों का पाठ किया और राधाकृष्ण दोनों से एक दूसरे के गले में पारिजात के फूलों से बनी हुई माला पहनवा कर विवाह को सम्पूर्ण किया।          

सी समय सभी देवताओं ने दुन्दुभि बजाई, मुरज, आनक इत्यादि वाद्ययंत्र बजाने लगे। आकाश से पारिजात पुष्पों की वर्षा होने लगी। अप्सराओं का नृत्य होने लगा, गन्धर्वगण गायन करने लगे। सभी लोग राधा-माधव की स्तुति कर रहे थे। और सभी वन्दना कर रहे थे- “हे प्रभु ! आप दोनों की सुदृढ़ भक्ति का हम आपसे वरदान मांगते हैं।” ब्रह्माजी ने अचल भक्ति का वरदान दक्षिणा के रूप में भगवान से मांग लिया।


श्रीकृष्णस्य वचः श्रुत्वा विधाता जगतां मुने ।। १३६ ।।
प्रणम्य राधां कृष्णं च जगाम स्वालयं मुदा ।।

फिर सब राधाकृष्ण को प्रणाम कर के अपने-अपने धाम चले गये।

इस राधाकृष्ण जी के विवाह का विवरण ब्रह्मवैवर्त पुराण के श्रीकृष्णजन्म खण्ड के अलावा श्रीगर्ग संहिता के गोलोकखण्ड में भी है।


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें