महाभारत का सम्पादन बृहद् रूप से पुष्यमित्र सुंग के शासन काल में हुआ ।
भागवतपुराण में महात्मा बुद्ध का वर्णन सिद्ध करता है-कि भागवतपुराण बुद्ध के बहुत बाद की रचना है ।
दशम् स्कन्ध अध्याय 40 में श्लोक संख्या 22 पर
वर्णन है कि 👇
नमो बुद्धाय शुद्धाय दैत्यदानवमोहिने ।
म्लेच्छ प्राय क्षत्रहन्त्रे नमस्ते कल्कि रूपिणे ।।22।
दैत्य और दानवों को मोहित करने के लिए आप शुद्ध अहिंसा मार्ग के प्रवर्तक बुद्ध का जन्म ग्रहण करेंगे ---मैं आपके लिए नमस्कार करता हूँ ।
और पृथ्वी के क्षत्रिय जब म्लेच्छ प्राय हो जाऐंगे तब उनका नाश करने के लिए आप कल्कि अवतार लोगे !
मैं आपको नमस्कार करता हूँ 22।
महाभारत के शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्व भीष्मस्तव राज विषयक सैंतालीसवें अध्याय में भीष्म द्वारा भगवान् कृष्ण की स्तुति के प्रसंग में बुद्ध का वर्णन है।👇
भीष्म कृष्ण के बाद बुद्ध और फिर कल्कि अवतार की स्तुति करते हैं ।
जैसा कि अन्य पुराणों में विष्णु के अवतारों का क्रम-वर्णन है ।
उसी प्रकार यहाँं भी -
अब बुद्ध का समय ई०पू० 566 वर्ष है ।
फिर महाभारत को हम बुद्ध से भी पूर्व आज से साढ़े पाँच हजार वर्ष पूर्व क्यों घसीटते हैं?
नि: सन्देह सत्य के दर्शन के लिए हम्हें श्रृद्धा का 'वह चश्मा उतारना होगा; जिसमें अन्ध विश्वास के लेंस लगे हुए हैं।
पुराणों में कुछ पुराण -जैसे भविष्य-पुराण में महात्मा बुद्ध को पिशाच या असुर कहकर उनके प्रति घृणा प्रकट की है
वाल्मीकि रामायण के अयोध्या काण्ड में राम के द्वारा बुद्ध को चोर कह कर घृणा प्रकट की गयी है ।
इस प्रकार कहीं पर बुद्ध को गालीयाँ दी जाती हैं तो कहीं चालाकी से विष्णु के अवतारों में शामिल कर लिया जाता है ।
नि:सन्देह ये बाते महात्मा बुद्ध के बाद की हैं ।
क्यों कि महाभारत में महात्मा बुद्ध का वर्णन इस प्रकार है। देखें👇
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दानवांस्तु वशेकृत्वा पुनर्बुद्धत्वमागत:।
सर्गस्य रक्षणार्थाय तस्मै बुद्धात्मने नम:।।
अर्थ:– जो सृष्टि रक्षा के लिए दानवों को अपने अधीन करके पुन: बुद्ध के रूप में अवतार लेते हैं उन बुद्ध स्वरुप श्रीहरि को नमस्कार है।।
हनिष्यति कलौ प्राप्ते म्लेच्छांस्तुरगवाहन:।
धर्मसंस्थापको यस्तु तस्मै कल्क्यात्मने नम:।।
जो कलयुग आने पर घोड़े पर सवार हो धर्म की स्थापना के लिए म्लेच्छों का वध करेंगे उन कल्कि रूप श्रीहरि को नमस्कार है।।
( उपर्युक्त दौनों श्लोक शान्तिपर्व राजधर्मानुशासनपर्व भीष्मस्तवराज विषयक सैंतालीसवाँ अध्याय पृष्ठ संख्या (4536) गीता प्रेस संस्करण में क्रमश: है ।
शुक्लदन्ता८ञ्जिताक्षाश्च मुण्डा: काषायवासम: ।
शूद्र धर्म चरिष्यन्ति शाक्यबुद्धोपजीविन: ।।१५।
शूद्र 'लोग' शाक्य वंशी बुद्ध के मत का आश्रय लेकर ( अर्थात् वेद दूषक नास्तिक बन कर ) वेद विरोधी धर्म का आचरण करेंगे।
वे दान्त सफेद किए रहेंगे और आँखों में अञ्जन लगाऐंगे। और मूड़ मुड़ाकर गेरुए वस्त्र धारण करेंगे।१५।
(हरिवशं पुराण' भविष्य पर्व तृतीय अध्याय पृष्ठ संख्या ९४२)
गीताप्रेस गोरखपुर संस्करण
ही कुछ श्लोक जो ‘आयोध्या-काण्ड’ में आये है ।
यहाँ पर वाल्मीकि रामायण के लेखक ने ‘बुद्ध’ और ‘बौद्ध-धम्म’ को नीचा दिखाने की नीयत से ‘तथागत-बुद्ध’ को स्पष्ट ही श्लोकबद्ध (सम्बोधन) करते हुए,
राम के मुँह से चोर, धर्मच्युत नास्तिक और अपमान-जनक शब्दों से संबोधित करवा दिया हैं।
यहाँ कुछ उदाहरण प्रस्तुत किये जा रहें हैं , जिनकी पुष्टि आप ‘वाल्मिकी रामायण से कर सकते हैं ।
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:- उग्र तेज वाले नृपनन्दन श्रीरामचन्द्र, जावालि ऋषि के नास्तिकता से भरे वचन सुनकर उनको सहन न कर सके और उनके वचनों की निंदा करते हुए उनसे फिर बोले :-
“निन्दाम्यहं कर्म पितुः कृतं , तद्धस्तवामगृह्वाद्विप मस्थबुद्धिम्।
बुद्धयाऽनयैवंविधया चरन्त , सुनास्तिकं धर्मपथादपेतम्।।”
– अयोध्याकाण्ड, सर्ग – 109. श्लोक : 33।।
• सरलार्थ :- हे जावालि!
मैं अपने पिता (दशरथ) के इस कार्य की निन्दा करता हूँ।
कि उन्होने तुम्हारे जैसे वेदमार्ग से भ्रष्ट बुद्धि वाले धर्मच्युत नास्तिक को अपने यहाँ स्थान दिया है ।।
क्योंकि ‘बुद्ध’ जैसे नास्तिक - मार्गी , जो दूसरों को उपदेश देते हुए घूमा-फिरा करते हैं , वे केवल घोर नास्तिक ही नहीं, प्रत्युत धर्ममार्ग से च्युत भी हैं ।
देखें राम बुद्ध के विषय में क्या कहते हैं ?
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“यथा हि चोरः स, तथा ही बुद्धस्तथागतं।
नास्तिकमत्र विद्धि तस्माद्धियः शक्यतमः प्रजानाम् स नास्तिकेनाभिमुखो बुद्धः स्यातम् ।।
” -(अयोध्याकांड, सर्ग -109, श्लोक: 34 / पृष्ठों संख्या
गीता प्रेस गोरख पुर :1678)
सरलार्थ :- जैसे चोर दंडनीय होता है, इसी प्रकार ‘तथागत बुद्ध’ और और उनके नास्तिक अनुयायी भी दंडनीय है ।
‘तथागत'(बुद्ध) और ‘नास्तिक चार्वक’ को भी यहाँ इसी कोटि में समझना चाहिए।
इसलिए राजा को चाहिए कि प्रजा की भलाई के लिए ऐसें मनुष्यों को वहीं दण्ड दें, जो चोर को दिया जाता है।
परन्तु जो इनको दण्ड देने में असमर्थ या वश के बाहर हो, उन ‘नास्तिकों’ से समझदार और विद्वान ब्राह्मण कभी वार्तालाप ना करे।
इससे स्पष्ट है कि रामायण बुद्ध के बाद लिखी गयी रचना है न कि बुद्ध से 7000 साल पहले की रचना
कुछ विद्वान 2000वर्ष पुरातन भी मानते हैं
भारत की प्राचीनत्तम ऐैतिहासिक राजधानी मगध थी ।
जो आधुनिक विहार है ।
मगध से विहार बनने के सन्दर्भ में
ये तथ्य विदित हैं कि महात्मा बुद्ध के नवीनत्तम सम्प्रदाय पाषण्ड था जिसमें जो नव दीक्षित श्रमण थे उनके आश्रमों को विहार कहा गया था ।
पाषण्ड शब्द का प्रयोग महात्मा बुद्ध के समय ईसा०पूर्व 500 के समकक्ष हुई ।
पाषण्ड शब्द की व्युत्पत्ति बुद्ध के अनुसार -( पाषम् बन्धनम् अण्डयति खण्डयति इति पाषण्ड अर्थात् जो वैदिक विधानों के नाम पर प्राकृत जनों पर आरोपित पाशों का खण्डन करता है वह पाषण्ड है ।
वैदिक विधानों का प्रारूप ब्राह्मण हितों को सर्वेपरि रखकर बनाया गया था ।
यद्यपि ब्राह्मण पुरोहितों 'ने पाषण्ड शब्द की काल्पनिक व्युत्पत्ति (पा-पाति रक्षति दुरितेभ्यः पा--क्विप् = पाः
वेदधर्मस्तं षण्डयति खण्डयति निष्फलं करोति ।
“पालनाच्च त्रयी- धर्मः पाशब्देन निगद्यते ।
षण्डयन्ति तु तं यस्मात् पाषण्डस्तेन कीर्त्तित” इत्युक्ते वेदाचारत्यागिनि के रूप में की है ।
पाखण्ड शब्द का इतिहास ....
ही पोल खोलता है ।
ब्राह्मणों के पाखण्ड की..
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जैन परम्पराओं में पाषण्ड शब्द को पासंडिय अथवा पासंडी रूप में उद्धृत किया गया है ।
जैसा कि निम्न पक्तियाँ लिपिबद्ध हैं 👇
क्रमांक ३ समयसार की गाथा क्रमांक ४०८, ४१० एवं ४१३ में एक शब्द आया है :-----‘पासंडिय’ या ‘पासंडी’। देखें- ‘‘पासंडिय लिंगाणि य गिहिलिंगाणि य बहुप्प याराणि ।४०८।।
णवि एस मोॅक्खमग्गो पासंडिय
गिहिमयाणि लिंगाणि ४१०।।
पासंडिय लिंगेसु व गिहिलिंगेसु व बहुप्पयारेसु ४१३।।
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उपर्युक्त सन्दर्भों में आचार्य कुन्दकुन्द बताना चाहते हैं
कि ‘बहुत प्रकार के मुनि लिंग एवं गृहस्थलिंग हैं, मात्र इन बाह्य लिंगों (वेषों) को धारण करके अपने आपकों मोक्षमार्गी मानने वाले जीव-मूढ़-अज्ञानी हैं,
क्योंकि बाह्यलिंग (बाह्य मुनि या श्रावक वेष) का मोक्षमार्ग से सीध कोई सम्बन्ध नहीं है।
इनमें प्रयुक्त ‘पासंडिय’ या ‘पासंडी’ शब्द को मूल शौरसेनी प्राकृत भाषा के शब्द रूप में मान्य किया है।
इसकी व्याकरण, शाब्दिक प्रकृति एवं व्युत्पत्ति आदि समझे बिना प्राय: सभी आधुनिक सम्पादकों ने इसके स्थान पर ‘पाखडिय’ एवं ‘पाखंडी’ शब्द का प्रयोग कर दिया है।
जो इसका ही इतर रूप है ।
यह एक अविचारित प्रयोग है, जिसके लोकरूढ़ अर्थ के कारण इसका अर्थ-विपर्यय (विलोम) भी पर्याप्त मात्रा में हुआ है।
आज लोक में ‘पाखण्डी’ शब्द ‘ढोंगी’ (दम्भी) या ‘नकली’ साधु के अर्थ में रूढ़ हो चुका है।
जिसका श्रेय पुष्य-मित्र सुंग ई० पू० 184 के समकालिक उसके आश्रित पुरोहितों को है ।
जो जैन और बौद्ध विचारों के कट्टर विरोधी थे ।
जबकि आज से दो हजार वर्ष पूर्व इसका अर्थ भी अलग था, तथा शौरसेनी प्राकृत में इसका शाब्दिक रूप भी ‘पासंडिय’ या ‘पासंडी’ था-
‘पाखण्डी’ कदापि नहीं ।
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इसकी शब्द-परम्परा एवं अर्थ परम्परा का परिचय-निम्नानुसार है-:--
१ ‘‘देवानां पिये पियदरसि राजा सव पासंडानि’’ (समस्त मुनिलिंग)
(सम्राट् अशोक के गिरनार शिलालेख के अनुसार)
‘‘तेसु-तेसु निगण्ठेसु नानापासंडेसु’’
(सम्राट् अशोक फिरोजशाह कोटला, दिल्ली में स्थित शिलालेख)
अर्थात् ‘उन-उन निर्ग्रन्थों के विभिन्न मुनिलिंगों में।
’ २. ‘‘गुणविसेस-कुसलो सब पासंड-पूजको’’
(सम्राट् ऐल खारबेल, खण्डगिरि शिलालेख)
(मैं) सभी (निर्ग्रन्थ-दिगम्बर) मुनिलिंगों की पूजा करता हूँ।
३. ‘पासण्ड, पासण्डिक’- मिथ्यादृष्टि (पालि-हिन्दी कोश, पृ. २२२)
४. पासंड, पासंडत्थ - मिथ्यादर्शन, नास्तिक, दुष्टबुद्धि (अर्द्धमागधी कोश, पृ. ५७४)
५. पासंडि - अट्टविध-कम्मपासातो डीणों पासंडी, पाशाड्डीन: पाषण्डी (निरुक्तकोश, पृष्ठ संख्या २०)
जो अष्टविध कर्मपाश से दूर है, वह पासण्डी (मुनिलिंग) है। ‘पाश’ शब्द से ‘डीन’ प्रत्यय का विधान करके ‘पाषण्डी’ या ‘पासंडी’ शब्द निष्पन्न हुआ है।
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६. पापं खण्डयति-इति पाखण्डी-सत्साधु:।
जो पाप का खण्डन करे, वही ‘पाखण्डी’ है, जिसका अर्थ ‘सच्चा साधु’ है।
७. पाखण्डं व्रतमित्याहुस्तद् यस्यास्त्यमलं भुवि ।
स पाखण्डी वदन्ति एवं कर्मपाशाद् विनिर्गत: ।।
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‘पाखण्ड’ नाम व्रत का है; वह निर्मल व्रत इस भूमण्डल पर जिसके है, उसे ही ‘पाखण्डी’ कहते हैं।
वह कर्मबन्धन से विनिर्गत है।
८. सग्रंथारंभ-हिंसानां, संसारावत्र्तवर्तिनाम् ।
पाखंडिनां पुरस्कारो ज्ञेयं पाखंडिमोहनम् ।।
(रत्नकरण्ड श्रावकाचार, २४)
परिग्रह आरम्भ, हिंसा से युक्त संसार के चक्कर में पड़े हुए पाखंडियों (खोटे गुरुओं) की विनय/सम्मान करना गुरुमूढ़ता जानना चाहिए।👇
ब्राह्मण -वादी विद्वानों के अनुसार पाषण्ड शब्द की व्युत्पत्ति. :----
९. पातीति पा: (पा + क्विप् प्रत्यय), पा: त्रयीधर्मस्तं खण्डयतीति पाखण्डी ।
यदुक्तम् - ‘‘पालनाच्च त्रयीधर्मा: ‘पा’ शब्देन निगद्यते ।
तं खण्डयन्ति ते यस्मात् पाखण्डास्तेन हेतुना ।। (शब्दकल्पद्रुम, भाग ३, पृष्ठ संख्या )
अर्थात् जो त्रयीधर्म (वेदत्रयी) का खण्डन करे, वह ‘पाखंडी’ है।
१०. नानाव्रताधरा: नानावेशा: पाखण्डिनो मता:- पाषण्ड: - (अमरकोष टीका, भानुदीक्षित)--
अनेक प्रकार के व्रतों के धारक, नानावेशधारी ‘पाखण्डी’ माने गये हैं।
११. वेदादि-शास्त्रं खण्डयतीति पाखण्डी - (पद्मचन्द्रकोश, ३०९) श्रमण यतियों के अनेकों पर्यायवाची नामों में ‘पाखण्डी’ नाम भी है।
उक्त समस्त विश्लेषण का समग्रावलोकन करें तो निम्न निष्कर्ष निषेचित होते हैं-:-
(क) प्राकृत शिलालेखों एवं ग्रन्थों में ‘पासंडिय’ एवं ‘पासंडी’ शब्द मिलते हैं, जबकि संस्कृत में ‘पाखंडी’ प्रयोग है।
(ख) ‘पासंडिय’ या ‘पासंडी’ शब्द का मूल अभिप्राय निर्ग्रन्थ दिगम्बर वेशधारी समस्त महाव्रती जैन श्रमण है।
और उसी में दीक्षित नव बौद्ध श्रमणों के लिए जो विहार ( आश्रम) बहुतायत रूप से बनाए गये तभी से मगध का नाम विहार हो गया ।
'परन्तु पाटलिपुत्र का रूप पटना हो गया ।
महाभारत की कथाऐं जन- किंवदंतियों पर आधारित आख्यानकों का बृहद् संकलन है ।
जिसे महर्षि व्यास के नाम पर सम्पादित किया गया ।
और इसे जय संहिता का नाम दिया गया ।
कोई भा मानवीय ग्रन्थ पूर्व दुराग्रह से रहित नहीं होता है ।
दुराग्रह कहीं न कहीं मोह और हठों से समन्वित रूप से प्रेरित होते हैं ।
और हठों और मोह अज्ञानता से प्रेरित होते हैं ।
इसके विपरीत संकल्प अथवा प्रतिज्ञा ज्ञान से प्रेरित मनश्चेष्टाऐं हैं ।
महाभारत कथाओं का अवसान इन आख्यानकों से हुआ की जब रोते हुआ अर्जुन व्यास जी से अपनी मनोव्यथा कहता है ।
"सो८हं नृपेन्द्र रहित: पुरुषोत्तमेन ।
सख्या प्रियेण सुहृदा हृदयेन शून्य: ।।
अध्वन्युरूक्रम परिग्रहम् अंग रक्षन् ।
गौपै: सद्भिरबलेव विनिर्जितो८स्मि ।२०।
वह मैं राजा जो पुरुषोत्त कृष्ण से रहित हो गया!
जो मेरे सखा अथवा -प्रिय मित्र -नहीं ,नहीं मेरे हृदय ही थे ;
कृष्ण की पत्नीयाें को द्वारिका से अपने साथ इन्द्र-प्रस्थ लेकर आर रहा था ।
परन्तु मार्ग में दुष्ट गोपों ने मुझे एक अबला के समान हरा दिया ।
और मैं अर्जुन उनकी गोपिकाओं तथा वृष्णि वंशीयों की पत्नीयाें की रक्षा नहीं कर सका!
( श्रीमद्भगवद् पुराण अध्याय पन्द्रह श्लोक संख्या २०(पृष्ट संख्या --१०६ गीता प्रेस गोरखपुर देखें---
उस समय युधिष्ठिर प्रस्थान का विचार करके ब्रजनाभ जो श्रीकृष्ण का प्रपोत्र थे उनको यादवो का राजा बनाते और इह लोक जीवन से अवसान कर चले गए अब श्रीकृष्ण प्रपोत्र थे यादव थे तभी तो यादवों के राजा बने ।
वस्तुतः राजा बनने से तात्पर्य केवल अवशिष्ट यादवों को संरक्षण देना और उनका रञ्जन करना है ।
यद्यपि ऋग्वेद-४ के दशम मण्डल के बासठ वें सूक्त की दशवीं ऋचा में दास और गोप शब्द यदु के लिए प्रयुक्त हैं ।
और वैदिक सन्दर्भ में दास असुर अथवा अदेव का वाचक है ।
कृष्ण 'ने कब देव 'संस्कृति'की प्रतिष्ठा की ? आपको इन्द्र और कृष्ण का युद्ध याद है ।
'परन्तु वर्ण व्यवस्था वादी और देव 'संस्कृति' का यादवों से संयोजन अतिश्योक्ति पूर्ण हैं ।
सब मिथ्या है ।
ऋग्वेद में यादवों को परास्त करने और उनके अनिष्ट की कामना करने वाले पुरोहित यादवों को शूद्र या म्लेच्छ ही कहेंगे ।
उनके सम्मान और गरिमा को कभी भी स्वीकार नहीं करेंगे ।
इसी लिए क्षत्रिय लोग कृत्रिम वर्ण व्यवस्था के अन्तर्गत ब्राह्मण धर्म और ब्राह्मणों को सर्वोच्च सत्ता के रूप में स्वीकार करेंगे ।
यद्यपि हरिवशं पुराण में विष्णु पर्व में कई स्थानों पर कृष्ण क्षत्रियों की निन्दा करते हैं ।
और यदि कहीं श्रीकृष्ण को क्षत्रिय भी कहा गया है ।
तो वह अतिरञ्जना पूर्ण है।
यदि कहा भी गया है तो यह सब पराभव वादीयों का कुटिल समझौता है ।
जिसका परिणाम केवल दोखा या प्रवञ्चना ही है ।
वासुदेव को क्षत्रिय कहा गया है कहा यदु को क्षत्रिय कहा गया है।
ऐसा राग अलापने वाले वर्ण संकर जनजातियों के संघ राजपूतों को ही यदुवंशी बना रहे हैं ।
क्योंकि ब्राह्मणों की वर्तमान धर्म संहिता स्मृति आदि ग्रन्थों में अहीर गोपों' को शूद्र रूप में वर्णित किया गया है।
जो यादव आज अपने मन की झूँठी तसल्ली के लिए खुद को वैदिक क्षत्रिय कह रहे हैं ।
उनके पास कोई प्रमाण नही है
वितण्डावाद है।
एसे 'लोग' दो विपरीत दिशा में चलने वाली नावों पर सवारी करना चाहते हैं ।।
यदि आप'कहें'कि जब यादव क्षत्रिय नहीं हैं तो शूद्र हुए
तो यह कहना भी मूर्खता पूर्ण है ।
क्योंकि यादवों 'ने कभी वर्ण व्यवस्था को स्वीकार ही नहीं किया।
इनका नवीन धर्म भागवत था ।
जिसमें ब्राह्मण वाद के वर्चस्व विषयक किसी भी सिद्धान्तों का समायोजन नहीं था ।
कुछ लोग सहत्रबाहु को लेके यादवों का क्षत्रिय इतिहास बताते है ।
सहस्रबाहु अर्जुन जिसे हैहय वंश का यादव माना जाता है ।
परशुराम का युद्ध सहस्रबाहु से हुआ ।
और पुराणों में उसे चक्रवर्ती सम्राट वर्णित किया गया है।
और ब्राह्मणों 'ने यह भी वर्णित कर दिया कि क्षत्रियों की
विधवाएें ऋतुकाल में ब्राह्मणों के पास गयीं
तब उनसे क्षत्रिय हुए ।
'परन्तु यह कथा कल्पना प्रसूत व मनगडन्त है ।
सामान्यत तर्क से ही इसका स्वत: खण्डन हो सकता है ।
क्या विधवा हुई सभी स्त्रियाँ ब्राह्मणों से ही गर्भवती हुईं
क्या उससे पहले कोई गर्भवती नहीं थी।?
क्या इक्कीस वार परशुराम ने पृथ्वी को क्षत्रिय विहीन कर दिया?
सारी थ्योरी निराधार है ।
यद्यपि यादव अपने पराक्रमी और निर्भीकता पूर्ण आचरण के लिए क्षत्रिय हैं ।
क्या सुन्दर स्त्रियों को श्रृंँगार प्रसाधन की आवश्यकता है ?
क्या विद्वान को किसी विद्वता प्रमाण पत्र या डिग्री की आवश्यकता होती है ।
क्या वीरों को क्षत्रिय या यौद्धा के प्रमाण पत्र की आवश्यकता है ।
सायद नहीं
जो व्यक्ति वास्तविक रूप में नहीं होते हैं वे ही स्वयं को कभी क्षत्रिय या विद्वान या यौद्धा कहते हैं ।
जैसे राज पूत आज कल के ...
अहीर गूर्जर और जाट सनातन यौद्धा हैं ।
जो अपनी वीरता का परिचय करने के लिए किसी राजपूत या ब्राह्मण के प्रमाण पत्र के मोहताज नहीं ..
क्षत्रिय यादव वही है जो यादव धर्म का पालन करें
और यादव धर्म भागवत धर्म है ।
इसलिए श्रीकृष्ण 'ने कहा जब उनको राजा बनने की बात सभी यादव सामंतों ने कही !
तब उनसे मुखार बिन्दु से कथा कार 'ने कहलवा दिया कि
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एवमाश्वास्य पितरौ भगवान् देवकी सुत:।
मातामहं तु उग्रसेनयदूनाम् अकरोतन्नृपम्।१२
आह चास्मान् महाराज प्रज्ञाश्चाज्ञप्तुमर्हसि ।
ययाति शापाद् यदुभिर्नासितव्यं नृपासने ।।१३
श्रीमद्भागवत पुराण दशम् स्कन्ध ४५ वाँ अध्याय
अर्थात् मैं राजा नही बन सकता कोई यादव राजसिंहासन पर नही बैठ सकता क्यों कि यादवों के पूर्वज यदु ने वचन दिया था अपने पिता ययाति को ।
'परन्तु यहांँ विरोधाभासी स्थिति है क्योंकि जो उग्रसेन स्वयं यादव ही थे ।
वे राजा कैसे बन गये?
ययाति वाला नियम उन पर क्यों लागू नहीं हुआ ।
भागवत पुराण भी मिलाबट पूर्ण हैं इसमें भी जोड़ और तोड़ होने से विरोधाभासी स्थिति है।
यादव अथवा अहीर केवल अहीर अथवा यादव ही है । वही क्षत्रिय या शूद्र कभी नहीं
उसकी निर्भीकता प्रवृत्ति 'ने उसे आभीर बना दिया ।
और उसकी गोपालन वृत्ति 'ने उन्हें गोप बना दिया ।
और यदुवंश में जन्म लेने के कारण वह यादव कहलाये ।
अहीर सबसे प्राचीनत्तम और शुद्ध यादव हैं ।
क्योंकि की यदु के पूर्वजों को ही आभीर (अबीर) कहा गया ।
इसी लिए हम्हें अहीर होने पर फक्र है ।
और हमारा भोजन दूध दही और तक्र है।
दुश्मनो के लिए कभी लाठी तो कभी हमारे पास सुदर्शन चक्र भी है ।
हिन्दू समाज में कुछ समय से " महापुरुष कृष्ण " को लेकर ब्राह्मण तथा ठाकुर समाज में यह भ्रान्त धारणा
रूढ़ (प्रचलित) हो गयी है ।
कि कृष्ण वर्ण-व्यवस्था में क्षत्रिय थे ।
कृष्ण का जन्म वसुदेव के यहाँ हुआ , और वसुदेव क्षत्रिय थे !
तथा लालन-पालन नन्द के यहाँं और नन्द गोप अर्थात् अहीर थे ।
यदु वंश को भी ये लोग ब्राह्मण वर्ण -व्यवस्था के अन्तर्गत क्षत्रिय ही कहते हैं "
जबकि वस्तु-स्थिति ठीक इसके विपरीत है ।
क्यों कि यादवों ने कभी वर्ण -व्यवस्था को नहीं माना ।
और ये किसी के द्वारा परास्त भी नहीं हुए ।
इसलिए ब्राह्मणों ने द्वेष वश अहीरों या यादवों को शूद्र वर्ण में निर्धारित करने की असफल चेष्टा की ।
ब्राह्मण अहीरों को इसलिए शूद्र मानते हैं ।
क्योंकि यदि इन्हें कृष्ण का वंशज होने से श्रेष्ठता 'न प्राप्त हो जाए ।
वस्तुत --जो जन-जाति वर्ण व्यवस्था को ही खारिज करती हो उस आप नहीं तो क्षत्रिय मान सकते हैं और ना ही शूद्र ।
क्योंकि पुराणों से भी प्राचीन वेद हैं ;और उनमें भी ऋग्वेद सबसे प्राचीन है ।
पुराणों का लेखन भी वेदों को उपजीवि( श्रोत) मान कर किया गया है।
और सारे पुराण परछाँईं के समान वेदों के ही अनुगामी हैं
---जो वेद में है ; उसी का विस्तार पुराणों में है।
अत: यदु तथा उनके वंशज कृष्ण का वर्णन भी ऋग्वेद में है ।
विदित हो कि वेदों में यदु और उनके वंशज कृष्ण को दास अथवा अदेव अथवा असुर (अदेव) इन समानार्थक विशेषणों से सम्बोधित किया गया है ।
जो कालान्तरण में लौकिक संस्कृतियों में शूद्र के सम तुल्य ब्राह्मण वाद 'ने किया ।
सर्व-प्रथम हम ऋग्वेद में यादवों के पूर्वज यदु का वर्णन करते हैं ।
जब यदु को ही वेदों में दास और गोप कहा है ।
और कृष्ण को चरावाहे और अदेव या असुर रूप में वर्णित किया गया हो ।
ऋग्वेद के दशम् मण्डल के ६२वें सूक्त की १० वीं ऋचा में , यदु और तुर्वसु को स्पष्टत: दास के रूप में सम्बोधित किया गया है ।
वह भी गोपों को रूप में
तो यदुवंशी कब से क्षत्रिय हो गये ब्राह्मण वर्ण-व्यवस्था के अन्तर्गत ।
ऋग्वेद में यदु को विषय में लिखा है कि
" उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी ।
" गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।।
(ऋग्वेद १०/६२/१०)
अर्थात् यदु और तुर्वसु नामक दौनों दास जो गायों से घिरे हुए हैं
हम उन सौभाग्य शाली दौनों दासों की वर्णन करते हैं ।
यहाँ पर गोप शब्द स्पष्टत: है;
गो-पालक ही गोप होते हैं मह् धातु का क्रिया रूप आत्मने पदीय उत्तम पुरुष बहुवचन रूप में वर्णित है।
वैदिक सन्दर्भों में मह् धातु का अधिकतर अर्थ वर्णन करना अथवा कहना ही है।
प्रशंसा करना अर्थ लौकिक संस्कृत में रूढ़ हो गया है।
क्योंकि कि देव संस्कृति के विरोधी दास अथवा असुरों की प्रशंसा असंगत बात है ;
ऋग्वेद के प्राय: ऋचाओं में यदु और तुर्वसु का वर्णन नकारात्मक रूप में ही हुआ है
गोप: ईनसा का सन्धि संक्रमण रूप हुआ गोपरीणसा
जिसका अर्थ है शक्ति को द्वारा गायों का पालन करने वाला ।
अथवा गो परिणसा गायों से घिरा हुआ ।
वेदों में बहुतायत रूप में यदु और तुर्वशु को वंश में करने की प्रार्थना पुरोहित इन्द्र से करते हैं ।👇
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प्रियास इत् ते मघवन् अभीष्टौ
नरो मदेम शरणे सखाय:।
नि तुर्वशं नि यादवं शिशीहि
अतिथिग्वाय शंस्यं करिष्यन् ।।
(ऋग्वेद ७/१९/८ ) में भी यही ऋचा
अथर्ववेद में भी (काण्ड २० /अध्याय ५/ सूक्त ३७/ ऋचा ७) हे इन्द्र ! हम तुम्हारे मित्र रूप यजमान
अपने घर में प्रसन्नता से रहें; तथा
तुम अतिथिगु को सुख प्रदान करो ।
और तुम तुर्वसु और यादवों को क्षीण करने वाले बनो। अर्थात् उन्हें परास्त करने वाले बनो !
(ऋग्वेद ७/१९/८) ऋग्वेद में भी यथावत् यही ऋचा है ; इसका अर्थ भी देखें :- हे ! इन्द्र तुम अतिथि की सेवा करने वाले सुदास को सुखी करो ।
और तुर्वसु और यदु को हमारे अधीन करो ।
और भी देखें यदु और तुर्वसु के प्रति पुरोहितों की दुर्भावना अर्वाचीन नहीं अपितु प्राचीनत्तमभी है देखें---
अया वीति परिस्रव यस्त इन्दो मदेष्वा ।
अवाहन् नवतीर्नव ।१।
पुर: सद्य इत्थाधिये दिवोदासाय शम्बरं अध त्यं तुर्वशुं यदुम् ।२।
(ऋग्वेद ७/९/६१/ की ऋचा १-२)
हे सोम ! तुम्हारे किस रस ने दासों के निन्यानवे पुरों अर्थात् नगरों) को तोड़ा था।उसी रस से युक्त होकर तुम इन्द्र के पीने के लिए प्रवाहित हो जाओ। १।
शम्बर के नगरों को तोड़ने वाले !
सोम रस ने ही तुर्वसु की सन्तान तुर्को तथा यदु की सन्तान यादवों (यहूदीयों ) को शासन (वश) में किया ।
यदु को ही ईरानी पुरातन कथाओं में यहुदह् कहा।
जो ईरानी तथा बैबीलॉनियन संस्कृतियों से सम्बद्ध साम के वंशज-असीरियन जन-जाति के सहवर्ती यहूदी थे।
असुर तथा यहूदी दौनो साम के वंशज हैं ।
भारतीय पुराणों में साम के स्थान पर सोम हो गया ।
क्योंकि सूर्य और चन्द्र के सन्तानें होना मूर्खों की कल्पनाऐं हैं।
यादव सेमेटिक जन-जाति से सम्बद्ध हैं ।
ये असीरियन (असुर) जन-जाति के सहवर्ती तथा उनकी शाखा के लोग हैं ।
असुरों का वर्णन भारतीय पुराणों में है जो असीरी हैं ।
यह सत्य है कि यादवों का इतिहास किस प्रकार विकृत हुआ उसे सहजता से नहीं जाना जा सकता है ।
यद्यपि कृष्ण और पाण्डवों के प्रतिद्वन्द्वीयों में समाहित रहे जरासन्ध, दमघोष आदि एक कुल ही हैहयवंश के यादव ही थे 'परन्तु उन्हें यादव कहकर कितनी बार सम्बोधित किया गया ?
सायद नहीं के बरावर ...
इसी श्रृंखला में प्रस्तुत है हरिवंशपुराण से यह विश्लेषण ...
और किस प्रकार कालान्तरण में परवर्ती पुराण कारों 'ने यदु को ही एक रहस्यमय विधि से सूर्य वंश में घसीटने की भी कोशिश की ...
दरअसल भारतीय पुरोहित वर्ग 'ने यदु की कथाऐं सैमेटिक जनजातियों यहूदियों और असीरीयों से ग्रहण की और श्रुत्यान्तरण से उसमें व्युत्क्रम होना स्वाभाविक ही था।
विदित हो की यहूदी और असीरीयों ( असुर) दौनों' जनजातियाँ ही सैमेटिक लोग थे ।
जिन्हें भारतीय पुराणों ने सोमवंश कहा ..
'परन्तु जब ईसा० पूर्व की सदीयों में भारतीय मिथकों में यदु और तुर्वशु की कथाऐं समाविष्ट हुईं ।
तो पूर्वाग्रह 'ने कथाओं का स्वरूप ही बदल दिया।
हरिवंशपुराण हो या भागवत पुराण सभी में एक कृत्रिम विधि से कुछ बातें जोड़ी और तोड़ी गयी तो परिणाम स्वरूप विरोधाभास और एक क्षेपक उत्पन्न करती हैं ।
किस प्रकार यादवों के आदि पुरुष यदु के वंशजों को ही एक शाखा को यादव तो दूसरी को भोज तीसरी को अन्धक तो चौथी को वृष्णि भी कहा गया 'परन्तु थे सभी यादव ही 'परन्तु भोज या अन्धक या भैम को क्यों यादव नहीं कहा गया ?
ये मूर्खता पूर्ण षड्यन्त्र थे ।
'परन्तु आभीर जो यदु के पूर्वजों ययाति की भी उपाधि थी वह भी प्रवृत्ति मूलक विशेषण रूप में जो कालान्तरण में गोप अर्थ में समाहित हो गयी ।
आभीर यादवों का भी विशेषण रहा
जबकि ये भी यदु के वंशजों में सुमार थे ।🌸
यादव शब्द ही कालान्तरण में केवल कुछ यदुवंशीयों के लिए रूढ़ हो गया था क्या ?
जैसा कि निम्नलिखित श्लोक में भी यादव अलग से कुल बताया गया है ।
जो मूर्खता पूर्ण ही है ।
और यदुवंश का प्रारूप ही बदल दिया गया ।
सोम वंश से यदु को सूर्य या इक्ष्वाकु वंशी में परिवर्तन कर दिया यदु के माता पिता ययाति और देवयानि से हर्यश्व और मधु असुर की पुत्री मधुमती के बना दिया ।
जिसके विषय में हमने पूर्व संकेत किया ।👇
अब एक भविष्य वाणी के माध्यम से नवीनत्तम कथा सृजन की गयी ।
यह भविष्य वाणी नागराज धूम्रवर्ण करता है जो हर्यश्व के पुत्र यदु को अपनी पाँच कन्याऐं पत्नी रूप देता है।
हरिवंश पुराण विष्णु पर्व (संस्कृत) अध्याय 37 श्लोक 66-70 संस्कृत में श्लोक निम्नलिखित हैं ...
_____
स तस्मै धूम्रवर्णो वै कन्या: कन्याव्रते स्थिता:।
जलपूर्णेन योगेन ददाविन्द्रवसमाय वै।।66।।
वरं चास्मै ददौ प्रीत: स वै पन्नगपुंगव:।
श्रावयन् कन्यका: सर्वा यथाक्रममदीनवत्।।67।।
एतासु ते सुता: पंच सुतासु मम मानद।
उत्पस्यन्ते पितुस्तेजो मातुश्चैव समाश्रिता:।।68।।
अस्मत्समयबद्धाश्च सलिलाभ्यन्तरेचरा:।
तव वंशे भविष्यन्ति पार्थिवा: कामरूपिण:।।69।।
स वरं कन्यकाश्चैव लब्ध्वा यदुवरस्तदा।
उदतिष्ठत वेगेन सलिलाच्चन्द्रमा इव।।70।।
____
भैमाश्च कुकुराश्चैव भोजाश्चान्धक यादव: दाशार्हा वृष्णयश्चेति ख्यातिं यास्यन्ति सप्त ते ।।६५।
अर्थ:- जैसे कुक्कुर, भोज, अन्धक ,दाशार्ह ,भैम, यादव, और वृष्णि नाम सात वंश वाले शाखा में प्रसिद्ध होंगे
हरिवंशपुराण विष्णुपर्व सैंतीस वाँ अध्याय
अब हद तो तब हो गयी जब यदु को सैमेटिक या सोमवंश से हाइजैक कर हैम या सूर्य वंश में स्थापित करने की दुष्चेष्टा की गयी
दरअसल भारतीय पुराणों में यदु के विषय में जो कथाऐं आलेखित की गयीं वे यहूदियों के आख्यानकों से ली गयीं हैं !
ऋग्वेद में उद्गाता पुरोहित यदु और तुर्वशु को परास्त करने के लिए इन्द्र से प्रार्थना करते हैं ।
इस बात को भी कम 'लोग'जानते हैं ।
क्योंकि जो यहूदियों के आख्यानकों में इश्हाक है वही पात्र पुराणों में इक्ष्वाकु है ।
कहीं सैमेटिक तो कहीं हैमेटिक रूप में इसे माना गया
भारतीय पुराणों में भी सोम का रूपान्तरण चन्द्र में कर के चन्द्र वंश की कल्पना कर ली गयी ।
______
जैसे हरिवंशपुराण विष्णुपर्व सप्तत्रिंशो८ध्याय:
में वर्णित है कि वैवस्वत मनु के वश में इक्ष्वाकु के पुत्र हर्यश्व राजा हुए ।
जो प्रजा का रञ्जन करते थे इसी राजा कहलाये ।
मधु असुर की पुत्री मधुवती ये हर्यश्व का विवाह हुआ ।
_____
एक दिन हर्यश्व के बड़े भाई 'ने उसे राज्य से निकाल दिया तब हर्यश्व 'ने अयोध्या छोड़ दी ।
तब मधुमती हर्यश्व को मधुवन ले गयी यही मधपुरी भी था
मधु असुर 'ने केवल मधुवन को छोड़कर अपना सारा राज्य अपने जामाता हर्यश्व को दे दिया ।
लवण मधु का पुत्र भी हर्यश्व का सहायक बना ।
यह मधुवन गौंओं से सम्पन्न और लक्ष्मी से सेवित है यहांँ आभीर या गोप जाति ही बहुतायत से रहती था ।
इस प्रकार का वर्णन भी हरिवंशपुराण में है ।
देखें निम्नलिखित श्लोक इस विषय में तथा हिन्दी अनुवाद विस्तृत रूप में
_____
हरिवंश पुराण विष्णु पर्व (संस्कृत) अध्याय 37 श्लोक 16-20 में हर्यश्व और मधुमती के विषय में वर्णित है 👇
सा तमिक्ष्वांकुशार्दूलं कामयामास कामिनी।
स कदाचिन्नरश्रेष्ठो भ्रात्रा ज्येष्ठे्न माधव।।16।।
राज्यान्निरस्तो विश्वस्त: सोऽयोध्यां सम्परित्यजत्।
स तदाल्पपरीवार: प्रियया सहितो वने।।17।।
रेमे समेत्य कालज्ञ: प्रियया कमलेक्षण:।
भ्रात्रा विनिष्कृतं राज्यात् प्रोवाच कमलेक्षणा।।18।।
एह्यागच्छ नरश्रेष्ठ त्यज राज्यकृतां स्पृहाम्।
गच्छाव: सहितौ वीर मधोर्मम पितुर्गृहम्।।19।।
रम्यं मधुवनं नाम कामपुष्पफलद्रुमम्।
सहितौ तत्र रंस्यावो यथा दिवि गतौ तथा।।20।।
वह कामिनी होकर इक्ष्वाकु वंश के श्रेष्ठ वीर हर्यश्व को सम्पूर्ण से हृदय चाहती थी।
माधव! एक दिन बड़े भाई ने उनके विश्वास पर रहने वाले नरश्रेष्ठ हर्यश्व को राज्य से निकाल दिया,
तब उन्होंने अयोध्या छोड़ दी और थोड़े से परिवार के साथ अपने प्रिया मधुमती सहित वे वन में रहने लगे काल की महिमा को जानने वाले कमलनयन हर्यश्व अपनी प्यारी पत्नी के साथ मिलकर वहाँ बड़े आनन्द से समय बिताने लगे।
एक दिन कमलनयनी मधुमती ने भाई द्वारा राज्य से निकाले गये पति से कहा- ‘नरश्रेष्ठ वीर! अयोध्या के राज्य की अभिलाषा छोड़ दो और आओ मेरे साथ चलो।
हम दोनों मेरे पिता मधु के घर चलें सुरम्य मधुवन नामक वन ही मेरे पिता का निवास स्थान है।
वहाँ के वृक्ष इच्छानुसार फूल और फल देने वाले हैं।
वहाँ हम दोनों साथ रहकर स्वर्गवासियों के सामने मौज करेंगे।'
पृथ्वीनाथ! मेरे पिता और माता दोनों को ही तुम बहुत प्रिय हो और मेरा प्रिय करने के लिये मेरा भाई लवणासुर भी तुम्हें अत्यन्त प्रिय मानेगा।
नरश्रेष्ठ! वहाँ जाकर हम दोनों साथ-साथ रहकर राज्य पर बैठे हुए दम्पत्तियों की भाँति इच्छानुरूप वस्तुओं का उपभोग करते हुए रमण करेंगे।
जैसे देवपुरी के नन्दवन में देवांगना और देवता विहार करते हैं, उसी प्रकार वहाँ हम दोनों विहार करेंगे।
_______
–
हर्यश्व को राज्य देकर मधु तप करने वन में चला गया। ययाति पुत्र महाराज यदु योगबल से पुन: मधुमती के गर्भ में आए।
इनके वंश में ही मथुरा के सभी यादव हैं।
जो आभीर रूप में पहले रहते हैं ।
ये महाराज यदु एक बार अपनी पत्नियों सहित समुद्र स्नान करने गए।
वहाँ सर्पराज धूम्रवर्ण उन्हें खींच कर नाग लोक ले गए और अपनी पाँच कन्याएं उन्होंने विवाह दीं।
ये पाँचों प्रसिद्ध महाराज यौवनाश्य की बहन की संतति भानजी थीं।
नाग राज ने साथ ही वरदान दिया–तुमसे सात कुल चलेंगे।
ये वंश भैम, कुक्कुर, भोज, अन्धक, यादव, दाशार्ह और वृष्णि रूप में होगा ।
नाग लोक में विवाह करके महाराज यदु अपनी नवीन पत्नियों के साथ पृथ्वी पर आए। उन नाग कन्याओं से पाँच पुत्र हुए– मुचुकुन्द, पद्मवर्ण, माधव, सारस और हरित।
ये बड़े हुए तो इन्हें पिता ने आज्ञा दी–मुचुकुन्द को विन्ध्य एवं ऋक्षवान पर्वतों के निकट दो नगर बसाना चाहिए।
पद्मवर्ण दक्षिण भारत में सह्य पर्वत पर अपनी राजधानी बनाए।
पश्चिम भारत में सारस अपना राज्य स्थापित करे। हरित को समुद्र के भीतर जाकर अपने नाना नागराज धूम्रवर्ण के नगर का पालन करना चाहिए।
________
माधव ज्येष्ठ है, अत: युवराज होकर इस राज्य का पालन करेगा।
पिता की आज्ञा से मुचुकुन्द ने नर्मदा तट पर महिष्मतीपुरी और ऋक्षवान पर्वत के समीप पुरिका नामक पुरी बसाई।
पद्मवर्ण ने दक्षिण में वैणा के तट पर पूरे राज्य को ही परकोटे से घेर दिया।
इस पद्मावत राज्य की राजधानी करवीरपुर हुई।
सारस ने वैणा के दक्षिण तट पर क्रोञ्चपुर बसाया।
युवराज माधव के पुत्र हुए सत्त्वत।
इनके पुत्र भीम।
इसके आगे यह वंश भैम या सात्त्वत कहा जाने लगा।
त्रेता में जब अयोध्या में मर्यादा पुरुषोत्तम राज सिंहासन पर थे, तब आनर्तनरेश भीम थे।
उसी समय श्री राम के छोटे भाई शत्रुघ्न कुमार ने लवणासुर को मार कर मधुपुरी बसाई।
____________
'परन्तु भागवत पुराण में यदु के पिता ययाति ही है और यदु के पुत्र चार थे सहस्रजित् ,क्रोष्टा ,नल , और रिपु
यत्रावतीर्णो भगवान् परमात्मा नराकृति: ।
यदो: सहस्रजित् क्रोष्टा नलो रिपु: इति श्रुता : ।।२०।
चत्वार: सूनवस्तत्र शतजित् प्रथमात्मज: ।
महाहयो वेणुहयो हैहयेश्चेति तत्सुता: ।२१।
भागवत पुराण नवम स्कन्द अध्याय चौबीस( पृष्ठ संख्या ९३... गीताप्रेस गोरखपुर संस्करण)
इस वंश में स्वयं भगवान् पर ब्रह्म श्रीकृष्ण 'ने नर रूप में अवतार लिया था - यदु के चार पुत्र थे सहस्रजित् ,क्रोष्टा ,नल , और रिपु
सहस्रजित् से शतजित् का जन्म हुआ - शतजित् के तीन' पुत्र उत्पन्न हुए -महाहय, वेणुहय और हैहय ।।२०-२१।।
अब 'हरि वंश पुराण में यदु के अन्य माता-पिता हर्यश्व और मधुमती तथा पाँच पुत्र हैं :- मुचुकुन्द, पद्मवर्ण, माधव, सारस और हरित।
नाग लोक में विवाह करके महाराज यदु अपनी नवीन पत्नियों के साथ पृथ्वी पर आए।
उन नाग कन्याओं से पाँच पुत्र हुए–
मुचुकुन्द, पद्मवर्ण, माधव, सारस और हरित।
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ये बड़े हुए तो इन्हें पिता ने आज्ञा दी–मुचुकुन्द को विन्ध्य एवं ऋक्षवान पर्वतों के निकट दो नगर बसाना चाहिए।
पद्मवर्ण दक्षिण भारत में सह्य पर्वत पर अपनी राजधानी बनाए।
पश्चिम भारत में सारस अपना राज्य स्थापित करे।
हरित को समुद्र के भीतर जाकर अपने नाना नागराज धूम्रवर्ण के नगर का पालन करना चाहिए।
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माधव ज्येष्ठ है, अत: युवराज होकर इस राज्य का पालन करेगा।
पिता की आज्ञा से मुचुकुन्द ने नर्मदा तट पर महिष्मतीपुरी और ऋक्षवान पर्वत के समीप पुरिका नामक पुरी बसाई।
पद्मवर्ण ने दक्षिण में वैणा के तट पर पूरे राज्य को ही परकोटे से घेर दिया।
इस पद्मावत राज्य की राजधानी करवीरपुर हुई।
सारस ने वैणा के दक्षिण तट पर क्रोञ्चपुर बसाया।
युवराज माधव के पुत्र हुए सत्त्वत।
इनके पुत्र भीम।
इसके आगे यह वंश भैम या सात्त्वत कहा जाने लगा।
त्रेता में जब अयोध्या में मर्यादा पुरुषोत्तम राज सिंहासन पर थे, तब आनर्तनरेश भीम थे।
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अब ययाति पुत्र यदु के पुत्र सहस्रजित् ,क्रोष्टा ,नल और रिपु का वंश कहाँ गया और ये पुत्र कहाँ गये
इन बातों को कोई कथा वाचक बताए ?
'परन्तु यहांँ यह भी क्षेपक है कि मधुरा शत्रुघ्न ने बसाई क्यों कि उसका नामकरण मधु असुर के आधार पर है ।।
मधुवन का उच्छेद करके यह पुरी बसी।
मथुरा नाम परवर्ती है जबकि मधुपर: पूर्ववर्ती है ।
पुरोहितों 'ने कथाऐं बनाया कि
श्री राम के परमधाम जाने पर शत्रुघ्न के पुत्र ने विरक्त होकर राज्य त्याग दिया
ये बातें भी क्षेपक ही हैं ।
नीचे संस्कृत में सन्दर्भ..
हरिवंश पुराण विष्णु पर्व (संस्कृत) अध्याय 38 श्लोक 36-40
स यदुर्माधवे राज्यं विसृज्य यदुपुंगवे।
त्रिविष्टपं गतो राजा देहं त्यक्त्वा महीतले।।36।।
बभूव माधवसुत: सत्त्वतो नाम वीर्यवान्।
सत्त्ववृत्तिर्गुणोपेतो राजा राजगुणे स्थित:।।37।।
सत्त्वतस्य सुतो राजा भीमो नाम महानभूत्।
येन भैमा: सुसंवृत्ता: सत्त्वतात् सात्त्वता: स्मृता:।।38।।
राज्ये स्थिते नृपे तस्मिन् रामे राज्यं प्रशासति।
शत्रुघ्नो लवणं हत्वा् चिच्छेद स मधोर्वनम्।।39।।
तस्मिन् मधुवने स्थाने पुरीं च मथुरामिमाम्।
निवेशयामास विभु: सुमित्रानन्दवर्धन:।।40।।
✍✍✍✍
तब मधुपुरी–मथुरा पर भीम ने अधिकार कर लिया। अयोध्या में जब कुश राजा थे–मथुरा सिंहासन पर भीम के पुत्र अंधक का अभिषेक हुआ।
ये अन्धक के पिता भीम यादव थे ।
अन्धको नाम भीमस्ये सुतो राज्यवमकारयत्।।43।।
___
अन्धकस्या सुतो जज्ञे रेवतो नाम पार्थिव:।
ऋक्षोऽपि रेवताज्जयज्ञे रम्येन पर्वतमूर्धनि।।44।।
ततो रैवत उत्पकन्नय: पर्वत: सागरान्तिके।
नाम्नाव रैवतको नाम भूमौ भूमिधर: स्मृत:।।45।।
अन्धक के पुत्र रैवत थे।
इनकी पत्नी ने पुत्र ऋक्ष को पर्वत शिखर पर जन्म दिया था।
_______
हरिवंश पुराण विष्णु पर्व (संस्कृत) अध्याय 38 श्लोक 46-50
रैवतस्यात्माजो राजा विश्वागर्भो महायशा:।
बभूव पृथिवीपाल: पृथिव्यां प्रथित: प्रभु:।।46।।
तस्य तिसृषु भार्यासु दिव्यारूपासु केशव।
चत्वारो जज्ञिरे पुत्रा लोकपालापमा: शुभा:।।47।।
वसुर्बभ्रु: सुषेणश्च सभाक्षश्चैव वीर्यवान्।
यदुप्रवीरा: प्रख्याता लोकपाला इवापरे।।48।।
तैरये यादवो वंश: पार्थिवैर्बहुलीकृत:।
यै: साकं कृष्णर लोकेऽस्मिन् प्रजावन्त: प्रजेश्वरा:।।49।।
वसोस्तु कुन्तिविषये वसुदेव: सुतो विभु:।
तत: स जनयामास सुप्रभे द्वे च दारिके।।50।।
_______
हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: अष्टात्रिंश अध्याय: श्लोक 46-58 का हिन्दी अनुवाद--
रैवत (ऋक्ष) के महायशस्वी राजा विश्वगर्भ हुए, जो पृथ्वी पर प्रसिद्ध एवं प्रभावशाली भूमिपाल थे।
केशव! उनके तीन भार्याऐं थीं।
तीनों ही दिव्य रूप-सौन्दर्य से सुशोभित होती थीं।
उनके गर्भ से राजा के चार सुन्दर पुत्र हुए, जो लोकपालों के समान पराक्रमी थे।
उनके नाम इस प्रकार हैं- वसु, बभ्रु, सुषेण और बलवान सभाक्ष।
ये यदुकुल के प्रख्यात श्रेष्ठ वीर दूसरे लोकपालों के समान शक्तिशाली थे।
श्रीकृष्ण! उन राजाओं ने इस यादव वंश को बढ़ाकर बड़ी भारी संख्या से सम्पन्न कर दिया।
जिनके साथ इस संसार में बहुत-से संतानवान नरेश हैं। वसु से (जिनका दूसरा नाम शूर था) वसुदेव उत्पन्न हुए। ये वसुपुत्र वसुदेव बड़े प्रभावशाली हैं।
वसुदेव की उत्पत्ति के अनन्तर वसु ने दो कान्तिमती कन्याओं को जन्म दिया (जो पृथा (कुन्ती) और श्रुतश्रवा नाम से विख्यात हुईं) इनमें से पृथा कुन्ति देश में (राजा कुन्तिभोज की दत्तक पुत्री के रुप में) रहती थी।
कुन्ती जो पृथ्वी पर विचरने वाली देवांगना के समान थी, महाराज पाण्डु की महारानी हुईं तथा सुन्दर कान्ति से प्रकाशित होने वाली श्रुतश्रवा चेदिराज दमघोष की पत्नी हुईं।
___
रैवत के पुत्र विश्वगर्भ हुए जिनका दूसरा नाम देवमीढ था
इस ऋक्ष का दूसरा नाम रैवत था।
इन महाराज रैवत के पुत्र विश्वगर्भ को देवमीढ़ कहा जाता है।
__________________________
उनकी तीन रानियों से चार पुत्र हुए– वसु, वभ्रु, सुषेण और सभाक्ष।
ज्येष्ठ पुत्र वसु का ही दूसरा नाम शूरसेन है।
वभ्रु, सुषेण और सभाक्ष ये ही क्रमश अर्जन्य पर्जन्य और राजन्य थे ।
शूरसेन की संतान ही वसुदेव हैं।
और पर्जन्य के पुत्र नन्द थे।
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__________________________________________
हरिवंश पुराण विष्णु पर्व (संस्कृत) अध्याय 37 श्लोक 26-30
ततो मधुपुरं राजा हर्यश्व: स जगाम च।
भार्यया सह कामिन्या कामी पुरुषपुंगव:।।26।।
मधुना दानवेन्द्रेण स साम्न समुदाहृत:।
स्वागतं वत्स हर्यश्व प्रीतोऽस्मि तव दर्शनात्।।27।।
यदेतन्मम राज्यं वै सर्वं मधुवनं विना।
ददामि तव राजेन्द्र वासश्च प्रतिगृह्यताम्।।28।।
वनेऽस्मिल्लँवणश्चायं सहायस्ते भविष्यति।
अमित्रनिग्रहे चैव कर्णधारत्ववमेष्यति।।29।।
हरिवशं पुराणों में अन्य जनजातियों की उत्पत्ति भी प्रक्षिप्त ही है ।
प्रस्तुत हैं ये प्रमाण ....👇
हरिवंशपुराण हरिवशंपर्व पञ्चम अध्याय में एक स्थान पर वर्णन है कि
निषादवंशकर्तासौ बभूव वदतां वर ।
धीवरानसृजच्चाथ वेनकल्मषसम्भवान्।।१९।
•-- वक्ताओं में श्रेष्ठ जनमेजय ! वह निषादों के वंश को चलाने वाला हुआ और उसने धीवरों को जन्म दिया वे निषाद , धीवर वेन के पाप से उत्पन्न हुए थे ।१९।
( क्या यह सत्य कथन है ?)
ये चान्ये विन्ध्यनिलय तुषार तुम्बरास्तथा ।
अधर्म रुचयो ये च विद्धि तान् वेनसम्भवान् ।२०।
धीवरों के अतिरिक्त तुषार (तोखारी)
•--तुम्बर ( तोमर) तथा अधर्म से प्रेम करने वाले वन वासी ( गोण्ड- कोल आदि )हैं इन सबको तुम वेन के पाप से उत्पन्न हुआ समझो !
( तोमर जन-जाति राजपूत संघ गुर्जर संघ और जाट संघ में भी समायोजित है ।
'परन्तु हरिवंशपुराण विष्णुपर्व में ये
वनवासी के रूप में हैं ।
हरिवंशपुराण हरिवशं पर्व इकतालीसवाँ अध्याय में श्रीमद्भगवदगीता के एक श्लोक का पूर्वार्द्ध हरिवंशपुराण में भी यथावत है ।👇
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
धर्म संस्थापनार्थाय तदा सम्भवति प्रभु ।।१७।
यह श्लोक श्रीमद्भगवदगीता के श्लोक से साम्य रखता है
भागवत धर्म के अधिष्ठात्री देवता के रूप में वर्णन हरिवंशपुराण में है ।
इतनी ही नहीं ...
भागवत धर्म के विषय में ही एक श्लोक है ।👇
जिसके उद्गाता अक्रूर नामक यादव हैं
_______
अक्रूर ने श्रीकृष्ण से कहा- 'भैया! रथ को यहीं खड़ा रखो और घोड़ों को काबू में रखने का प्रयत्न करो। तात!
घोड़ों को दाना-घास देकर, इनके पात्र और रथ की विशेष यत्नपूर्वक देखभाल करते हुए एक क्षण तक मेरी प्रतीक्षा करो।
तब तक मैं यमुना जी के इस कुण्ड में प्रवेश करके दिव्य भागवत मन्त्रों द्वारा सम्पूर्ण जगत के स्वामी नागराज अनन्त की स्तुति कर लूँ।
वे गुहरास्वरूप भागवत देवता हैं, सम्पूर्ण लोकों के उत्पादक एवं उन्नायक हैं।
उनका मस्तिक कान्तिमान स्वस्तिक चिह्न से अलंकृत है। वे सर्प-विग्रहधारी भगवान अनन्त देव सहस्र सिरों से सुशोभित तथा नील वस्त्र धारण करने वाले हैं। मैं उन्हें प्रणाम करूँगा।
यमुनाया ह्रदे ह्यस्मिन् स्तोष्यामि भुजगेश्वरं ।
दिव्यैर् भागवतैर्मन्त्रै: सर्व लोक प्रभु यत: ।।४२।
तब तक 'मैं यमुना जी के इस कुण्ड के जल
में प्रवेश करके दिव्य भागवत मन्त्रों द्वारा सम्पूर्ण जगत के स्वामी नागराज अनन्त की स्तुति कर लूँ ।४२।
गुह्यं भागवतं देवं सर्वलोकस्य भावनम् ।
श्रीमत्स्वस्तिकमूर्द्धानं प्रणमिष्यामि भोगिनम् ।
सहस्रशिरसं देवमनन्तं नीलवाससम् ।।४३।
वे गुह्य स्वरूप भागवत देवता हैं ।
सम्पूर्ण लोकों के उत्पादक और उन्नायक हैं ।
उनका मस्तक कान्ति वान स्वास्तिक चिन्ह से अलंकृत है वे सर्प-विग्रहधारी अनन्त देव सहस्र शिरों से सुशोभित तथा नील वस्त्रधारण करने वाले हैं ।
'मैं उन्हें प्रणाम करुँगा ।४३।
हरिवंशपुराण विष्णुपर्व छब्बीस वें अध्याय में भागवत धर्म के अधिष्ठात्री देवता के रूप में बलराम की स्तुति की गयी है ।
कृष्ण को परामर्श देने वाले बलराम ही थे ।
ब्राह्मण धर्म के विरुद्ध वर्ण व्यवस्था रहित लोकतन्त्र मूलक भक्तियोग समन्वित भागवत धर्म स्थापन का श्रेय कृष्ण 'ने बलराम को ही दिया ।
'परन्तु इसका तथ्य को पुराणों में दबाया- गया ।..
यह श्लोक गुप्त काल की धर्म मूलक अवधारणा को प्रतिध्वनित करता है ।
______________________________________
यहीं तीसवें श्लोक में आभीर वर्णन है ।👇
पालयैनं शुभं राष्ट्रं समुद्रानूपभूषितम्।
गोसमृद्धं श्रिया जुष्टम् आभीर प्रायमानुषम्।।30।।
हरिवंशपुराण विष्णुपर्व में सैंतीसवाँ अध्याय श्लोक संख्या ३० पर
वस्तुतः ये ययाति पुत्र यदु के वंशजों में सुमार आभीर हैं जिन्होंने ही व्रज क्षेत्र की प्रतिष्ठा की
यह आभीर नामक यादव जाति का ही वर्णन है ।
तीसवें श्लोक का अर्थ है 👇
अर्थात् तुम समुद्र के जलप्राय प्रदेश से विभूषित इस सुराष्ट्र (सूरत ) का पालन करो !
यह गौंओं से सम्पन्न और लक्ष्मी से सेवित है तथा यहीं अधिकतर अहीर ( आभीर ) निवास करते हैं।३०।
गुजरात नामकरण आभीर की उपशाखा गौश्चर गौज्जर गूर्जर से है ।
हरिवंशपुराण के इसी अध्याय के चौंतीसवें श्लोक में वर्णन है कि
ययातमपि वंशस्ते समेष्यति च यादववम्।
अनुवंशं च वंशस्ते सोमस्य भविता किल ।।३४।
•--अर्थात् तुम्हारा यह वंश ययाति पुत्र यदु के वंश में मिल जाएगा । जो सोम वंश का रूप है ।३४।
विदित हो कि हर्यश्व का राज्य आनर्त (गुजरात)था ।
वहीं सुराष्ट्र( सूरत )है ।
______________________________________
•♪--
•--सर्पराज 'ने कहा कि तुम से सात कुल विख्यात होंगे 👇
" भैमाश्च कुकुराश्चैव भोजाश्चान्धक यादव:
दाशार्हा वृष्णयश्चेति ख्यातिं यास्यन्ति सप्त ते ।।६५।
(हरिवंशपुराण विष्णुपर्व सैंतीसवाँ अध्याय )
जैसे कुक्कुर, भोज, अन्धक, यादव ,दाशार्ह ,भैम और वृष्णि के नाम वाल ये सात कुल प्रसिद्ध होंगे ।
अब प्रश्न यहांँ भी उत्पन्न होता है कि कुकुर, भोज, अन्धक, वृष्णि दाशार्ह ये यदुवंशीयों में शुमार नहीं थे ?
यादव विशेषण तो इनका भी बनता है ।
फिर ये अलग से यादव कुल कहाँ से आगया ।
सरे आम बकवास है ये तो !
आगे हरिवंशपुराण में ही वर्णन है कि
इन नागकन्याओं से यदु के पाँच पुत्र उत्पन्न हुए ।
१-मुचुकुन्द २,पद्मवर्ण३-,माधव, ४-सारस,तथा
राजा ५-हरित ये पाँच पुत्र थे ।
राजा यदु अपने बड़े पुत्र माधव को राज्य देकर परलोक को चले गये ।
माधव के पुत्र सत्वत्त नाम से प्रसिद्ध हुए ।
सत्वत्त के पुत्र भीम हुए ।
इनके वंशज भैम कहलाये
जब राजा भीम आनर्त देश पर राज्य करते थे और तब अयोध्या मे राम का शासन था ।
तब इसके समय पर ही मधु के पुत्र लवण को शत्रुघ्न 'ने मारकर मधुवन का उच्छेद कर डाला था।३९।
और उसी मधुवन के स्थान पर शत्रुघ्न' ने मधुपुरी को बसाया ।।४०।
तस्मिन् मधुवन स्थाने पुरीं च मथुरामिमाम्।
निवेशयामास विभु: सुमित्रानन्दवर्धन: ।।४०।।
'परन्तु प्रश्न यहांँ भी है कि मधु के नाम पर ही मधु पुर या मधुपुरी( मथुरा) शत्रुघ्न'ने क्यों बसाई अपने पूर्वजों के नाम ये अपने नाम से क्यों नहीं?
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'परन्तु जब शत्रुघ्न परलोक पधारे तो पुन: यादव राजा भीम ने इस वैष्णव स्थान मथुरा को पुन: प्राप्त किया ।क्यों कि यह भी उनके नाना मधु की नगरी थी ।
कालान्तरण भीम के पुत्र अन्धक मथुरा के राजा हुए और अन्धक के पुत्र रैवत ( ऋक्ष) के पुत्र विश्वगर्भ ( देवमीढ) हुए मथुरा के राजा हुए ।
विश्वगर्भ का नामान्तरण ही देवमीढ है ।
ये देवमीढ ही नन्द और वसुदेव के पूर्वजों में थे ।
पर्जन्य और शूरसेन के पिता देवमीढ थे ।
यद्यपि भागवत पुराण में एक प्रसंग के अनुसार जब अर्जुन को द्वारिका गये हुए कई महीने हो जाते हैं तब युधिष्ठर भीम को वहाँ यह जानने के लिए भेजते हैं कि
क्या कारण है अर्जुन को वहाँ इतना समय क्यों हो गया ?
इसी सन्दर्भ में समस्त ननिहाल के लोगों का कुशल क्षेम पूछने के लिए युधिष्ठर सबको पूछने के क्रम में सुनन्द और नन्द जो दूसरे अन्य यदुकुल के हैं उनका भी कुशल क्षेम पूछते हैं
अब प्रश्न यह बनता है कि ये सुनन्द और नन्द कौन दूसरे अन्य यदुकुल 'लोग' हैं ?
वास्तव में ये नौ नन्द ही हैं
धरानन्द, ध्रुवनन्द , उपनंद,नन्द,सुनंद अभिनंद, ., कर्मानन्द , धर्मानंद , और वल्लभ।
नन्द से नन्द वंशी यादव शाखा का प्रादुर्भाव हुआ।
श्रीमद्भागवत पुराण में प्रथम स्कन्द अध्याय पन्द्रह में ही श्लोक संख्या ३२ पर तथैवानुचरा: शौरे: श्रुतदेवोद्धवाय: सुनन्द नन्द शीर्षण्या ये चान्ये सात्वतर्षभा: ।।३२।
अर्थ- भगवान् कृष्ण के सेवक श्रुतदेव ,उद्धव , तथा दूसरे अन्य सुनन्द नन्द आदि शीर्ष यदुकुल के कृष्ण और बलराम के बाहुबल से संरक्षित हैं ।
सब के सब सकुशल हैं 'न?
हमसे अत्यंत प्रेमकरने वाले वे 'लोग' कभी हमारा कुशल-मंगल पूछते हैं ?३२-३३
नन्द उपनन्द कृतक, शूर,आदि मदिरा नामकी वसुदेव की पत्नी से उत्पन्न चार पुत्र थे ।
'परन्तु सुनन्द और नन्द और उपनन्द ये पर्जन्य के पुत्रों में समविष्ट थे ।
नन्दोपनन्दकृतकशूराद्या मदिरात्मजा:।
कौसल्या केशिनं त्वेकमसूत कुलनन्दनम्।।४८।
अर्थ:- नन्द ,उपनन्द, कृतक, शूर,आदि मदिरा नामकी वसुदेव की पत्नी से उत्पन्न चार पुत्र थे ।
और वसुदेव की कौसल्या नामकी पत्नी 'ने एक ही वंश- उजागर पुत्र उत्पन्न किया उसका नाम केशी था ।४८। ( भागवत पुराण नवम् स्कन्द अध्याय चौबीस पृष्ठ संख्या १००(गीता प्रेस गोरखपुर संस्करण)
इसलिए उपर्युक्त श्लोक में नौ नन्द सुनन्द, नन्द और उपनन्द आदि नव गोपों' का अर्थ ग्रहण करना चाहिए ..
आनर्त देश के विषय में कतिपय जानकारी करें 👇 --+-
आनर्त प्राचीन भारत में गुजरात के उत्तर भाग को कहा जाता था।
द्वारावती आधुनिक द्वारका इसकी प्रधान नगरी थी।
महाभारत के अनुसार अर्जुन ने पश्चिम दिशा की विजय-यात्रा में आनर्तों को जीता था।
महाभारत के सभापर्व के एक अन्य वर्णन से ज्ञात होता है कि आनर्त का राजा शाल्व था, जिसकी राजधानी सौभनगर में थी।
श्री कृष्ण ने इस देश को शाल्व से जीत लिया था।
विष्णु पुराण में आनर्त की राजधानी कुशस्थली
बताई गई है-
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'आनर्तस्यापि रेवतनामा पुत्रो जज्ञे, योऽसावनर्तविशयं बुभुजे पुरीं च कुशस्थलीमध्युवास।'
इस उद्धरण से यह भी सूचित होता है कि आनर्त के राजा रेवत के पिता का नाम आनर्त था।
इसी के नाम से इस देश का नाम आनर्त हुआ होगा।
रेवत बलराम की पत्नी रेवती के पिता थे।
महाभारत से भी विदित होता है कि आनर्त नगरी, द्वारका का नाम था-
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'तमेव दिवसं चापि कौन्तेय: पांडुनंदन:, आनर्त नगरीं रम्यां जगामाशु धनंजय:।'
गिरनार के प्रसिद्ध अभिलेख के अनुसार रुद्रदामन आभीर ने 150 ई. के लगभग अपने पहलव अमात्य सुविशाख को आनर्त और सौराष्ट्र आदि जनपदों का शासक नियुक्त किया था-
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'कृत्स्नानामानर्त सौराष्ट्राणां पालनार्थं नियुक्तेन पह्लवे कुलैप पुत्रेणामात्येन सुविशाखेन।'
रुद्रदामन ने आनर्त को सिंधु-सौवीर आदि जनपदों के साथ विजित किया था।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
ऐतिहासिक स्थानावली |
पृष्ठ संख्या= 63-64| विजयेन्द्र कुमार माथुर |
वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग |
मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार
( यादव योगेश कुमार'रोहि'अलीगढ़ --8077160219)
हरिवंश पुराण विष्णु पर्व (संस्कृत) अध्याय 59 श्लोक 16-20
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पृथ्वी पति राजा जरासन्ध 'ने चेदिराज सुनीथ के पुत्र शिशुपाल के लिए भयानक पराक्रमी भीष्मक से उनकी कन्या रुक्मणि को माँगा था ।१९।
क्योंकि जरासन्ध दमघोष का वंशज था ।
विदित हो की चेदिराज उपरिचर वसु के एक पुत्र का नाम बृहद्रथ था जिसने मगध में पहले गिरिव्रज नामक नगर का निर्माण किया था उसी के वंश में जरासन्ध उत्पन्न हुए। उपरिचर वसु के ही वंश में उन्हीं दिनों दमघोष (सुनीथ) उत्पन्न हुए जो चेदि देश के राजा थे ।
दमघोष के पाँच पराक्रमी पुत्र उत्पन्न हुए शिशुपाल, दशग्रीव ,रैभ्य,उपदिश,और बली ।
जरासन्ध दमघोष का वंशज या कुटुम्बी था और समान वंश में उत्पन्न हुआ इसलिए दमघोष ने अपना पुत्र शिशुपाल जरासन्ध को सौंप दिया था ।
रुक्मिणी त्वयभवद् राजन् रूपेणासदशी भूवि।
चकमे वासुदेवस्तां श्रवादेव महाद्युति:।।16।।
स तया चाभिलषित: श्रवादेव जनार्दन:।
तेजोवीर्यबलोपेत: स मे भर्ता भवेदिति।।17।।
तां ददौ न च कृष्णाय द्वेषाद् रुक्मीि महाबल:।
कंसस्यौ वधसंतापात् कृष्णाययामिततेजसे।।18।।
याचमानाय कंसस्य द्वेष्योदयमिति चिन्तययन्।
चैद्यस्याकर्थे सुनीथस्य जरासंधस्तु् भूमिप:।
वरयामास तां राजा भीष्म कं भीमव्रिकमम्।।19।।
चेदिराजस्यं तु वसोरासीत् पुत्रो बृहद्रथ:।
मगधेषु पुरा येन निर्मितोऽसौ गिरिव्रज:।।20।।
हरिवंश पुराण विष्णु पर्व (संस्कृत) अध्याय 58 श्लोक 21-25
तस्यान्वावाये जज्ञेऽसौ जरासंधो :।
वसोरेव तदा वंशे दमघोषोऽपि चेदिराट्।।21।।
दमघोष पुत्रास्तु पंच भीमपराक्रमा:।
भगिन्यां वसुदेवस्य श्रुतश्रवसि जज्ञिरे।।22।।
शिशुपालो दशग्रीवो रैभ्योयऽथोपदिशो बली।
सर्वास्त्रकुशला वीरा वीर्यवन्तो महाबला:।।23।।
निम्नलिखित श्लोक दमघोष जरासन्ध समान कुल वंशञ् समानवंशस्य सुनीथ: प्रददौ सुतम्।
जरासंधस्तु सुतवद् ददर्शैनं जुगोप च।।24।।
जरासंधं पुरस्कृत्य वृष्णिशत्रुं महाबलम्।
कृतान्यागांसि चैद्येन वृष्णीनां चाप्रियौषिणा।।25।।
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इसी पुराण में पृथ्वी के प्रथम राजा पृथु का वर्णन यूनानी-माइथॉलॉजी के प्रोटियस् से ग्राह्य है ।
हरिवंशपुराण के निम्नलिखित श्लोक में पृथु की पुत्री है पृथ्वी ।👇
तत८भयुपगमाद् राज्ञ्य: पृथोर्वैन्यस्य भारत ।
दुहितृत्वमनुप्राप्ता देवी पृथ्वीति चोच्यते ।।
पृथुना प्रविभक्ता च शोधिता च वसुंधरा ।।४६।
अर्थात् भरत वंशी राजन्य !
फिर वेनपुत्र राजा पृथु के पुत्री रूप में स्वीकार करने पर यह देवी उसकी पुत्री बनगयी और पृथ्वी कहलाया ।
इस प्रकार पृथु 'ने पृथ्वी को अनेक
भागों 'ने विभक्ति किया और शुद्ध किया ।४६।
यदु जब दो हैं ।
तो फिर अहीर कौन से यादव हैं ?
ब्राह्मणों 'ने ये पेच फाँस दिया ।
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यादव योगेश कुमार 'रोहि' 8077160219
अर्धसत्य और असत्यों की मिलावट को सत्य बनाने की कोशिश है यह।
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