शुक्रवार, 10 जुलाई 2020

गोप ही अहीर और अहीर ही यादव...



पुराणों का लेखन कार्य काव्यात्मक शैली में पद्य के रूप में हुआ,  एक स्थान पर श्लेष अलंकार के माध्यम से लेखक ने पर्जन्य ' देवमीढ और वर्षीयसी जैसे द्वि-अर्थक शब्दों को वर्षा कालिक अवयवों सूर्य ,मेघ ,और घनघोर वर्षा के साथ साथ यदुवंश के वृष्णि कुल के पात्रों  जो कृष्ण के  पूर्वज भी थे !
 उनका भी वर्णन कर दिया है ...

यद्यपि यदुवशीयों की  महिला पात्र  (वरीयसी ) के वाचक शब्द 
वर्षीयसी का वर्षा से सम्बन्धित कोई अर्थ व्युत्पत्ति सिद्ध नहीं होता है ...

फिर भी यह  शब्द यहाँ  वर्षा का ही वाचक है यहाँ 
देवमीढ की पत्नी वरीयसी थीं  जो वर्षीयसी का ही रूपान्तरण है ..देखें 👇
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अष्टौ मासान् निपीतं यद् भूम्याश्चोदमयं ( म्या उदमयं) वसु  स्व गोभिर् मोक्तुम् आरेभे पर्जन्य: काल आगते |5||

तडीत्वन्तो महामेघाश्चण्डश्वसनवेपिता: |
प्रीणनं जीवनं ह्यस्य मुमुचु: करुणा इव ||6||

तप:कृशा देवमीढा आसीद् बर्षीयसी मही |
यथैव काम्यतपसस्तनु: सम्प्राप्य तत्फलम् ||7||

भागवत पुराण के दशम स्कन्ध के बीसवें अध्याय के ये  क्रमश: 5 ,6,7, वें श्लोक द्वयर्थक अर्थों से समन्वित हैं अर्थात् ये दोहरे अर्थों को समेटे हुए हैं 

पर्जन्य देवमीढ के पुत्र और वर्षीयसी ( वरीयसी) उनकी पत्नी हैं ; पर्जन्य शब्द पृज् सम्पर्के धातु से बना है जिसका अर्थ या भाव

मिलनसार और सहयोग की भावना रखने के कारण  देवमीढ के पुत्र पर्जन्य नाम भी हुआ 
वरीयसी इनकी पत्नी का नाम था 
परन्तु ये परिवार और  प्रतिष्ठा में बड़ी तो थी हीं 
नामान्तरण से वर्षीयसी भी नाम है !
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 अतिशयेन वृद्धः वृद्ध + इयसुन् वर्षादेशः । 
अतिवृद्धे अमरः स्त्रियां ङीप् ।

वस्तुत: वर्षीयसी शब्द का वर्षा से कोई सम्बन्ध नहीं है 
यह वृद्धतरा का वाचक है 
मह् पूजायाम् या महति प्रतिष्ठायाम् इति मही वा महिला !

श्लोकों का व्यक्ति मूलक अर्थ 
राजा पर्जन्य  भूमि वासी प्रजा से 
आठ महीने तक ही कर लेते हैं 
 वसु  भी अपनी गायों को मुक्त कर देते हैं प्रजा के हित में समय आने पर प्रजा से कर भी बसूलते हैं | 

और प्रजा को गलत दिशा में जाने पर ताडित भी करते हैं |5||

जैसे दयालु राजा जब देखते हैं कि भूमि की प्रजा बहुत पीडित हो रही है तो राजा अपने प्राणों को भी प्रजाहित में निसर्ग कर देता है |

जैसे बिजली गड़गड़ाहत और चमक से शोभित महामेघ प्रचण्ड हवाओं  से प्रेरित स्वयं को तृषित प्राणीयों के लिए समर्पित कर देते हैं ||6||

तप से कृश शरीर वाले राजा देवमीढ के पुत्र पर्जन्य की वर्षीयसी नाम की पूजनीया रानी थीं उसी प्रकार जो कामना और तपस्या के शरीर से युक्त होकर तत्काल फल को पाप्त कर लेती थीं 
जैसे देव =बादल   मीढ= जल  देवमीढ -बादलों का जल 

ज्येष्ठ -आषाढ  में ताप षे पृथ्वी पर रहने वाले प्राणी कृश हो गये 
अब देवमीढ के द्वारा वह फिर से हरी फरी होगयी है 
जैसे तपस्या करते समय पहले तो शरीर दुर्बल हो जाता है 
परन्तु जब इच्छित फल मिल जाता है ; तो वह हृष्ट-पुष्ट हो जाता है |

और सत्य भी है कि  "सुन्दरता से काव्य का जन्म हुआ 
 वस्तुत यह एक आवश्यकता मूलक दृष्टि कोण है ।
जिसकी भी हम्हें जितनी जरूरत है ; 'वह वस्तु हमारे लिए उसी अनुपात में ख़ूबसूरत है।

परन्तु ये जरूरतें कभी भी पूर्णत: समाप्त नहीं होती हैं ।
 जो भाव हमारे व्यक्तित्व में नहीं होता हम उसकी ही तो इच्छा करते हैं ; वही तो हमारे लिए ख़ूबसूरत है ।

 इसी सौन्दर्य प्रेरणा ने ही काव्य की सृष्टि की । 
जैसे कि अपना  उद्गार प्रकट हुआ
श्लिष्ट अर्थ में  👇
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कवि जीवन की संगिनी ।
उसके स्वप्नों की प्रेयसी ।।

कवि पुरुरवा है "रोहि"।
कविता उसके उर-वसी ।।

हृदय सागर की अप्सराओं ।
संवेदन लहरों से विकसी ।।

एक रस बस प्रेम-रस ।
सृष्टि नहीं कोई काव्य सी ।

पुरुरवा और उर्वसी वैदिक कालीन नायक-नायिका हैं ।

 यह साहित्य मनीषीयों को सर्वविदित ही है।

उपर्युक्त काव्य पक्तियों में हमने पुरुरवा और उर्वसी का सदृश्य श्लिष्ट पदों द्वारा एक तथ्य व्यक्त किया गया है ।
 इसी सन्दर्भ में यह बात भी ज्ञातव्य है कि अलंकार में महत्वपूर्ण तत्व मूलत: शब्द-कौशल है ।

जिसमें एक नहीं अपितु दोहरे अर्थ प्रसंग के अनुकूल होते हैं !

परन्तु लोग तो अपने अपने पूर्वाग्रहों के अनुकूल अर्थों का गृहण करते हैं !
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गोपों अथवा अहीरों के साथ भारतीय ग्रन्थों में दोगले विधान 
कहीं उन्हें क्षत्रिय तो कहीं वैश्य तो कहीं शूद्र कहा गया यह सब क्रमोत्तर रूप से हुआ ....

यद्यपि मार्कण्डेय पुराण में एक स्थान अध्याय 130/ के श्लोक 30 पर शास्त्रीय विधानों का निर्देशन करते हुए वर्णित है |

अर्थात् ( परिव्राट् मुनि ने कहा ) हे राजन् आपका पुत्र ( राजा दिष्ट का पुत्र नाभाग ) धर्म से पतित होकर वैश्य हो गया है और वैश्य के साथ आपका युद्ध करना नीति के विरुद्ध अनुचित ही है ।।30।।

त्वत्पुत्रस्य महाभाग विधर्मो८यं महात्मन् |
तवापि वैश्येन सह न युद्धं धर्म वन्नृप ||30||

अब कुछ रूढ़ि वादी पूर्वदुराग्रही  लोग जो न तो शास्त्रों के विधान को जानते हैं 

और ना ही धर्म के विषय में जानते हैं ; 
वे अक्सर भौंकते रहते हैं कि गोप  गाय पालन करने से वैश्य हैं परन्तु मूर्खों को ज्ञान नहीं की गाय विश्व की माता है और माता का पालन और सेवा करना उच्चता का गुण है नकि तुच्छता का दुर्गुण !

दूसरी बात कि सम्राट दिलीप जैसे महापुरुष भी नन्दिनी गाय की दीर्घकाल तक सेवा करते है पालन करते हैं वे वैश्य नहीं हुए फिर जो गोप नारायणी सेना के यौद्धा थे |

जिन्हें संसार में कोई परास्त नहीं कर सकता था वे  कुछ कुटिल पुरोहितों के कहने मात्र से वैश्य हो गये 
महाभारत में गोपों अथवा आभीरों की नारायणी सेना का युद्ध करने का वर्णन है तब एसे में गोपों को वैश्य कहना परवर्ती पुरोहितों की दोगली विधान क्रिया है |

मत्संहननतुल्यानां  गोपानामर्बुदं महत् ।
नारायणा इति ख्याता सर्वे संग्रामयोधिन: ||18।।
(महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 7)


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इसी सन्दर्भ में हरिवशं पुराण में एक आख्यानक है ⬇

एक बार जब कृष्ण हिमालय पर्वत के कैलास शिखर पर  तप करने तथा भूत और पिशाच जनजातियों के नायक शिव से मिलने गये ;
तब वहाँ पैशाची प्राकृत बोलने वाले दो पिशाच जन-जाति के लोगों से परिचय हुआ !
यद्यपि उन्होने भी कृष्ण की ख्याति सुन ली थी ।

वर्तमान में भूटान (भूतस्थान)  ही भूत या भूटिया जन-जाति का निवास था ।
ये 'लोग' कच्चे ही माँस का भक्षण करते और गन्दे सन्दे रहते थे ।
क्योंकि जिनका आहार दूषित हो तो उनका व्यवहार भूषित कैसे हो सकता है ?

'परन्तु वहाँ भी दो पिशाच जो कृष्ण के वर्चस्व से प्रभावित कृष्ण के भक्त बन गये थे ।
उन्होंने जब साक्षात् रूप में उपस्थित कृष्ण का परिचय पूछा 
तो उन्होंने (कृष्ण ने) अपना परिचय शत्रुओं का क्षरण या क्षति करके पीडित का त्राण करने वाला क्षत्रिय बताया ।
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ब्रूहि मर्त्य यथातत्त्वं ज्ञातुमिच्छामि मानद ।
एवं पृष्टः पिशाचाभ्यामाह विष्णुरुरुक्रमः ।।3/80/ 9 ।।

•–दूसरों को मान देने वाले मानव आप ठीक ठीक बताइए मैं पिशाच यथार्थ रूप से आपका परिचय जानना चाहता हूँ ।
उन दौनों पिशाचों के इस प्रकार पूछने पर महान डग वाले भगवान विष्णु के रूप में कृष्ण बोले !
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क्षत्रियोऽस्मीति मामाहुर्मानुष्याः प्रकृतिस्थिताः ।
यदुवंशे समुत्पन्नः क्षात्रं वृत्तमनुष्ठितः ।। 3/80/10 ।।

•-मैं क्षत्रिय हूँ  प्राकृत मनुष्य मुझे एेसा ही कहते हैं  ; और जानते हैं 
यदुकुल में उत्पन्न हुआ हूँ । 
इस लिए क्षत्रियोचित कर्म का अनुष्ठान करता हूँ। 10।।

लोकानामथ पातास्मि शास्ता दुष्टस्य सर्वदा ।
कैलासं गन्तुकामोऽस्मि द्रष्टुं देवमुमापतिम्।।3/80/11।।

•-मैं तीनों लोगों का पालक 
तथा सदी ही दुष्टों पर शासन करने वाला हूँ।
इस समय उमापति भगवान् शंकर का दर्शन करने कैलास पर्वत पर जाना चाहता हूँ 3/80/11

इसी पुराण में एक स्थान कृष्ण 'ने स्वयं उद्घोषणा की कि मैं गोप हमेशा सब प्रकार से प्राणियों की रक्षा करने वाला हूँ।⬇
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गोपोऽहं सर्वदा राजन् प्राणिनां प्राणद: सदा ।
गोप्ता सर्वेषु लोकेषु शास्ता दुष्टस्य सर्वदा।।४१।
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•– राजन् ! मैं गोप हूँ , और प्राणियों का सब ओर से प्राण दान करने वाला हूँ।
 सम्पूर्ण लोकों का रक्षक और सब ओर से दुष्टों का शासन करने वाला हूँ ।

हरिवशं पुराण भविष्य पर्व सौंवें  अध्याय का इकतालीस वाँ श्लोक 
(पृष्ठ संख्या 1298 गीताप्रेस गोरखपुर संस्करण)
अतएव गोप ही यादव और यादव अपनी वीरता प्रवृत्ति से आभीर थे 
और क्षत्रिय वीर ही हो सकता है ।

हरिवशं पुराण में ही भविष्य पर्व सौंवे अध्याय में 
पौंड्रक जब कृष्ण से युद्ध करता है तो कभी उन्हें गोपाल या गोप कह कर सम्बोधित करता है तो कभी यादव कह कर  !
देखें उस सन्दर्भ को ⬇
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स तत: पौण्ड्रको राजा वासुदेवमुवाच ह।
भो भो यादव गोप अलं इदनीं क्व गतो भवान्।। 26।

अर्थ:- उसके बाद वह पौण्ड्रक  श्री कृष्ण से कहता है 
अलं ( बस कर  ठहरो!)  ओ यादव ! ओ गोप ! अभी तुम कहाँ चले गये थे ।26। 
हरिवशं पुराण भविष्य पर्व सौंवे अध्याय (पृष्ठ संख्या 1297)
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गोप+ अलं = गोप ठहरो बस ! बस ! यह  अर्थ देने वाले गोप अलं अव्यय से युक्त है ।
 और शब्द गोपालं के रूप में गोपाल का कर्म कारक द्वित्तीय विभक्ति रूप बनता है ।
यद्यपि कहीं गोप तो कहीं गोपाल शब्द है 
अलम् - संस्कृत भाषा में एक अव्यय है 
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अलम्, व्य, भूषणं । पूर्णता । सामर्थ्यं । 
निषेधः । इत्यमरः ॥ निरर्थकं । इति भरतः नाट्य शास्त्र॥
स एवमुक्तो यदुना राजा कोपसमन्वित:।
उवाच वदतां श्रेष्ठो ययातिर्गर्हयन् सुतम्।२७।

•-यदु के ऐसा कहने पर ( अर्थात्‌ यदु के द्वारा पिता को युवा अवस्था न देने पर)  वक्ताओं में श्रेष्ठ राजा ययाति कुपित हो उठे और अपने उस पुत्र की निन्दा करते हुए बोले –।२७।

क आश्रयस्तवान्यो८स्ति को वा धर्मो विधीयते ।
मामनादृत्य दुर्बुद्धे तदहं तव देशिक: ।।२८।

दुर्बुद्धे ! मेरा अनादर करके तेरा दूसरा कौन सा आश्रय है ? अथवा तू किस धर्म का पालन कर रहा है। मैं तो तेरा गुरु हूँ ( फिर भी मेरी आज्ञा का उल्लंघन कर रहा है ।२८।
एवमुक्त्वा यदुं तात शशापैनं स मन्युमान्।
अराज्या ते प्रजा मूढ भवित्रीति नराधम ।।२९।

तात ! अपने पुत्र यदु से ऐसा कहकर कुपित हुए राजा ययाति 'ने उसे शाप दिया– मूढ ! नराधम तेरी सन्तानें सदा राज्य से वञ्चित रहेगी ।।२९।

अधिकतर पुराणों में ययाति द्वारा यदु को दिए गये शाप का वर्णन है ।

पहले तो ययाति का यह प्रस्ताव ही अनुचित था । 
यदु में अपना यौवन देकर वृद्धा लेना इस लिए अस्वीकार किया क्योंकि मेरे यौवन से आप माता के साथ साहचर्य करोगे मेरे लिए यह पाप तुल्य ही हैै ।

कालान्तरण में यदुवंशीयों 'ने राजा की व्यवस्था को बदलकर लोक तन्त्र की स्थापना की ...
कभी से वर्ण व्यवस्था आदि ब्राह्मणीय अव्यवस्थाओं को यादवों ने स्वीकार ही नहीं किया।
ये आभीर रूप में इतिहास में उदित हुए ...
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हरिवशं पुराण'हरिवंश पर्व तीसवाँ अध्याय  गीताप्रेस गोरखपुर संस्करण पृष्ठ संख्या १४५

प्रस्तुति-करण यादव योगेश कुमार 'रोहि'

अन्यत्र भी कृष्ण और वसुदेव को गोप कहा गया है 
;अब देखिए हरिवंश पुराण में वसुदेव तथा उनके पुत्र कृष्ण को गोप कहा!
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गोपायनं य: कुरुते जगत: सर्वलौकिकम् ।
स कथं गां गतो देशे विष्णु: गोपत्वम् आगत ।।९। 

 (हरिवंश पुराण "संस्कृति-संस्थान " ख्वाजा कुतुब वेद नगर बरेली संस्करण अनुवादक पं० श्री राम शर्मा आचार्य) 
अर्थात् :- जो प्रभु विष्णु पृथ्वी के समस्त जीवों की रक्षा करने में समर्थ है ।
वही गोप (आभीर) के घर (अयन)में गोप बनकर आता है ।९। हरिवंश पुराण १९ वाँ अध्याय ।

तथा और भी देखें---यदु को गायों से सम्बद्ध होने के कारण ही यदुवंशी (यादवों) को गोप कहा गया है ।
देखें--- महाभारत का खिल-भाग हरिवंश पुराण
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नारायणेमं सिद्धार्थमुपायं श्रुणु मे विभु ।
भुवि यस्ते जनयिता जननी च भविष्यति।।१८।

•– ब्रह्मा जी 'ने कहा – सर्वव्यापी नारायण आप मुझसे इस उपाय को सुनिए जिसके द्वारा सारा प्रयोजन सिद्ध हो जाएगा । 
भूतल पर जो तुम्हारे पिता , जो माता होंगी ।१८।

यत्र त्वं च महाबाहो जात: कुलकरो भुवि।
यादवानां महद् वंशमखिलं धारयिष्यसि ।।१९।

और जहाँ जन्म लेकर आप अपने कुल की वृद्धि करते हुए यादवों के सम्पूर्ण विशाल वंश को धारण करेंगे ।

तांश्चासुरान् समुत्पाट्यवंशं कृत्वाऽऽत्मनो महत्।
स्थापयिष्यसि मर्यादां नृणां तन्मे निशामय ।२०।।

तथा उन समस्त असुरों का  संहार करके अपने वंश का महान विस्तार करते हुए  जिस प्रकार मनुष्यों के लिए धर्म की मर्यादा स्थापित करेंगे  वह सब बताता हूँ सुनिए !
–२०

पुरा हि कश्यपो विष्णो वरुणस्य महात्मन:।
जहार यज्ञिया गा वै पयोदास्तु महामखे ।।२१।

•– विष्णो पहले की बात है  महर्षि कश्यप अपने महान यज्ञ के अवसर पर महात्मा वरुण के यहांँ से कुछ दुधारू गायें माँग लाए थे । 
जो अपने दूध आदि के द्वारा यज्ञ में बहुत ही उपयोगिनी थीं ।

अदिति: सुरभिश्चैते द्वे भार्ये कश्यपस्य तु ।
प्रदीयमाना गास्तास्तु नैच्छतां वरुणस्य वै ।।२२।

•– यज्ञ कार्य पूर्ण हो जाने पर भी कश्यप की उन दौनों पत्नियों अदिति और सुरभि 'ने  वरुण को उनका गायें लौटा देने की इच्छा नहीं की अर्थात्‌ नीयत खराब हो गयी।।२२।

ततो मां वरुणोऽभ्येत्य प्रणम्य शिरसा तत: ।
उवाच भगवन् गावो गुरुणा मे हृता इति ।२३।

तब वरुण मेरे पास आये  और मस्तक झुकाकर मुझे प्रणाम करके बोले – भगवन्  ! पिता के द्वारा मेरी गायें हरण कर ली गयी हैं ।३२।

कृतकार्यो हि गास्तास्तु नानुजानाति मे गुरु: ।
अन्ववर्तत भार्ये द्वे अदितं सुरभिं तथा ।२४।

•–यद्यपि उन गोओं से जो कार्य लेना था वह पूरा हो गया है ; तो भी पिता जी मुझे उन गायों को वापस ले जाने की आज्ञा नहीं देते ; इस विषय में उन्होंने अपनी दौनों पत्नियों अदिति और सुरभि के मत का अनुसरण किया है ।२४।

मम ता ह्यक्षया गावो दिव्या: कामदुह: प्रभो ।
चरन्ति सागरान् सर्वान् रक्षिता: स्वेन तेजसा।।२५

•–  मेरी वे गायें अक्षया , दिव्य और कामधेनु हैं।
तथा अपने ही तेज से रक्षिता वे स्वयं समुद्रों में भी विचरण और चरण करती हैं ।२५।

कस्ता धर्षयितुं शक्तो मम गा: कश्यपादृते।
अक्षयं वा क्षरन्त्ग्र्यं पयो देवामृतोपमम्।२६।

•– देव जो अमृत के समान उत्तम दूध को अविछिन्न रूप से देती रहती हैं मेरी उन गायों को पिता कश्यप के सिवा दूसरा अन्य कौन बलपूर्वक रोक सकता है ।२६।

प्रभुर्वा व्युत्थितो ब्रह्मन् गुरुर्वा यदि वेतर: ।
त्वया नियम्या: सर्वै वै त्वं हि 'न: परमा गति ।२७।

•– ब्रह्मन्! कोई कितना ही शक्ति शाली हो , गुरु जन हो अथवा कोई और हो  यदि वह मर्यादा का त्याग करता है तो आप ही ऐसे सब लोगों पर नियन्त्रण कर सकते हैं
क्योंकि आप हम सब लोगों के परम आश्रय हैं ।२७।

यदि प्रभवतां दण्डो लोके कार्यमजानताम्।
'न विद्यते लोकगुरो न स्युर्वै लोकसेतव:।।२८।

लोक गुरु ! यदि संसार में अपने कर्तव्य से अनिभिज्ञ रहने वाले  शक्ति शाली पुरुषों के लिए दण्ड की व्यवस्था 'न हो तो  जगत की सारी मर्यादाऐं नष्ट हो जायँगी ।२८।

यथा वास्तु तथा वास्तु कर्तव्ये भगवान् प्रभु:।
मम गाव:  प्रदीयन्तां ततो गन्तास्मि सागरम्।२९।

इस कार्यका जैसा परिणाम होनेवाला वैसा ही कर्तव्य का पालन करने या कराने में आप ही हमारे प्रभु हैं ।
मुझे मेरी गायें दिलवा दीजिए  तभी में समुद्र के जाऊँगा ।।२९।
" इति अम्बुपतिना प्रोक्तो वरुणेन अहमच्युत ।
गावां कारणत्वज्ञ: सतेनांशेन जगतीं गत्वा गोपत्वं एष्यति ।।२२।।

द्या च सा सुरभिर्नाम् अदितिश्च सुरारिण: तेऽप्यमे तस्य भुवि संस्यते ।।२४।।

वसुदेव: इति ख्यातो गोषुतिष्ठति भूतले ।
गुरु गोवर्धनो नामो मधुपुर: यास्त्व दूरत:।।२५।।
सतस्य कश्यपस्य अंशस्तेजसा कश्यपोपम:।
तत्रासौ गोषु निरत: कंसस्य कर दायक: तस्य भार्या द्वयं जातमदिति: सुरभिश्चते ।।२६।।
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स देवानभ्यनुज्ञाय विविक्ते त्रिदिवालये ।
जगाम विष्णु:स्वं देशं क्षीरोदस्योत्तरां दिशम् ।५०।

•-वैशम्पायन बोले – जनमेजय ! देव लोक के उस पुण्य प्रदेश में बैठे हुए भगवान् विष्णु देवताओं को जाने की आज्ञा देकर  क्षीर सागर से उत्तर दिशा में स्थित अपने निवास-स्थान को चले गये ।५०।

तत्र वै पार्वती नाम गुहा मेरो: सुदुर्गमा।
त्रिभिस्तस्यैव विक्रान्तैर्नित्यं पर्वसु पूजिता।।५१।

•– वहाँ मेरु पर्वत की पार्वती नाम से प्रसिद्ध  एक अत्यन्त दुर्गमा गुफा है , जो भगवान् विष्णु के तीन' –चरण चिन्हों से उपलक्षित होती है ; इसलिये पर्व के अवसरों पर सदा उसकी पूजा की जाती है।५१।

पुराणं तत्र विन्यस्य देहं हरिरुदारधी:।
आत्मानं योजयामास वसुदेव गृहे प्रभु : ।५२।

•– उदार बुद्धि वाले भगवान श्री 'हरि 'ने अपने पुरातन विग्रह( शरीर) को वहीं स्थापित करके अपने आपको वसुदेव के घर में अवतीर्ण होने की क्रिया में लगा दिया।५२।।

इति श्री महाभारते खिलभागे हरिवंशे हरिवशंपर्वणि "पितामहवाक्ये" पञ्चपञ्चाशत्तमो८ध्याय:।।५५।

(इस प्रकार श्री महाभारत के खिल-भाग हरिवशं पुराण के 'हरिवंश पर्व में ब्रह्मा जी वचन विषयक पचपनवाँ अध्याय सम्पन्न हुआ।५५।

गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित श्री रामनायण दत्त शास्त्री पाण्डेय ' राम'  द्वारा अनुवादित हरिवंश पुराण में वसुदेव को गोप ही बताया है ।
इसमें यह 55 वाँ अध्याय है । 
पितामह वाक्य नाम- से पृष्ठ संख्या [ 274 ]


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हरिवंश पुराण विष्णु पर्व (संस्कृत) अध्याय 35 श्लोक संख्या>  36-40

अद्यप्रभृति सैन्यैर्मे पुरीरोध: प्रवर्त्यताम्।
यावदेतौ रणे गोपौ वसुदेवसुतावुभौ।।36।।


संकर्षणं च कृष्णंव च घातयामि शितै: शरै:।
आकाशमपि बाणौघैर्नि: सम्पातं यथा भवेत्।।37।।

मयानुशिष्टाऽस्तिष्ठान्तु पुरीभूमिषु भूमिपा:।
तेषु तेष्ववकाशेषु शीघ्रमारुह्यतां पुरी।।38।।

मद्र: कलिंगाधिपतिश्चेाकितान: सबा‍ह्लिक:।
काश्मीरराजो गोनर्द: करूषाधिपतिस्तथा।।39।।

द्रुम: किम्पुनरुषश्चैव पर्वतीयो ह्यनामाय:।
नगर्या: पश्चिमं द्वारं शीघ्रमारोधयन्त्विति।।40।।

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: पञ्चत्रिंश अध्याय: श्लोक 36 -40 का हिन्दी अनुवाद
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आज से मेरे सैनिकों द्वारा मथुरापुरी पर घेरा डाल दिया जाय और उसे तब तक चालू रखा जाय, जब तक कि मैं युद्ध में इन दोनों ग्वालों वसुदेवपुत्र संकर्षण और कृष्ण को अपने तीखे बाणों द्वारा मार न डालूं।

 उस समय तक आकाश को भी बाण समूहों से इस तरह रूंध दिया जाय, जिससे पक्षी भी उड़कर बाहर न जा सके।

 मेरा अनुशासन मानकर समस्त भूपाल मथुरापुरी के निकटवर्ती भू-भागों में खड़े रहें और जब जहाँ अवकाश मिल जाय, तब तहां शीघ्र ही पुरी पर चढ़ाई कर दें। 

मद्रराज (शल्य), कलिंगराज श्रुतायु, चेकितान, बाह्कि, काश्‍मीरराज गोनर्द, करूषराज दन्तवक्त्र तथा पर्वतीय प्रदेश के रोग रहित किन्नरराज द्रुम- ये शीघ्र ही मथुरापुरी के पश्चिम द्वार को रोक लें। 

पूरुवंशी वेणुदारि, विदर्भ देशीय सोमक, भोजों के अधिपित रुक्मी, मालवा के राजा सूर्याक्ष, अवन्ती के राजकुमार विन्द और अनुविन्द, पराक्रमी दन्तवक्त्र, छागलि, पुरमित्र, राजा विराट, कुरुवंशी मालव, शतधन्वा, विदूरथ, भूरिश्रवा, त्रिगर्त, बाण और पञ्चनद- ये दुर्ग का आक्रमण सह सकने वाले नरेश मथुरा नगर के उत्तर द्वार पर चढ़ाई करके शत्रुओं को कुचल डालें।

यादवों को गाो पालक होनो से ही गोप कहा गया |
भागवत पुराण के दशम स्कन्ध के अध्याय प्रथम के श्लोक संख्या बासठ ( 10/1/62) पर वर्णित है|
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नन्दाद्या ये व्रजे गोपा याश्चामीषां च योषितः ।
 वृष्णयो वसुदेवाद्या देवक्याद्या यदुस्त्रियः ॥ ६२ ॥
●☆• नन्द आदि यदुवंशी की वृष्णि की शाखा के व्रज में रहने वाले गोप और उनकी  देवकी आदि  स्त्रीयाँ |62|

सर्वे वै देवताप्राया उभयोरपि भारत |
ज्ञातयो बन्धुसुहृदो ये च कंसमनुव्ररता:।63||

 हे भरत के वंशज जनमेजय  ! सब यदुवंशी नन्द आदि गोप दौनों ही नन्द और वसुदेव सजातीय (सगे-सम्बन्धी)भाई और परस्पर सुहृदय (मित्र) हैं ! जो तुम्हारे सेवा में हैं| 63||

(गीताप्रेस संस्करण  पृष्ठ संख्या 109)..
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गर्गसंहिता में भी नीचे देखेें 

तं द्वारकेशं पश्यन्ति मनुजा ये कलौ युगे । 
सर्वे कृतार्थतां यान्ति तत्र गत्वा नृपेश्वर:| 40||

य: श्रृणोति चरित्रं वै गोलोक आरोहणं हरे: | 
मुक्तिं यदुनां गोपानां सर्व पापै: प्रमुच्यते |

अन्वयार्थ ● हे राजन् (नृपेश्वर)जो (ये) मनुष्य (मनुजा) कलियुग में (कलौयुगे ) वहाँ जाकर ( गत्वा)
 उन द्वारकेश को (तं द्वारकेशं) कृष्ण को देखते हैं (पश्यन्ति) वे सभी कृतार्थों को प्राप्त होते हैं (सर्वे कृतार्थतां यान्ति)।40।।

य: श्रृणोति चरित्रं वै गोलोक आरोहणं हरे: |
मुक्तिं यदुनां गोपानां सर्व पापै: प्रमुच्यते | 41|| 

अन्वयार्थ ● जो (य:)  हरि के (हरे: )  🍒● यादव गोपों के (यदुनां गोपानां )गोलोक गमन (गोलोकारोहणं )   चरित्र को (चरित्रं )  निश्चय ही (वै )
 सुनता है (श्रृणोति )  
 वह मुक्ति को पाकर (मुक्तिं गत्वा) सभी पापों से (सर्व पापै: ) मुक्त होता है ( प्रमुच्यते )

इति श्रीगर्गसंहितायाम् अश्वमेधखण्डे राधाकृष्णयोर्गोलोकरोहणं नाम षष्टितमो८ध्याय |
(  इस प्रकार गर्गसंहिता में अश्वमेधखण्ड का 
राधाकृष्णगोलोक आरोहणं नामक साठवाँ अध्याय  |


श्रीश्री राधाकृष्ण गणोद्देश्य दीपिका " रचियता श्रीश्रीलरूपगोस्वामी 👇
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आभीरसुतां (सुभ्रुवां) श्रेष्ठा राधा वृन्दावनेश्वरी |
अस्या : शख्यश्च ललिता विशाखाद्या:
 सुविश्रुता: |83 |।
_____________________________________
अहीरों की कन्यायों में राधा श्रेष्ठा है ;  
जो वृन्दावन की स्वामिनी है और ललिता , विशाखा आदि जिसकी सखीयाँ  हैं |83||

उद्धरण ग्रन्थ   "श्रीश्री राधाकृष्ण गणोद्देश्य दीपिका " रचियता श्रीश्रीलरूप गोस्वामी
___________________________________

आभीरस्यापि नन्दस्य पूर्वपुत्र: प्रकीर्तित:।
 वसुदेवो मन्यते तं मत्पुत्रोऽयं गतत्रप: ।१४।
____________________________
कृष्ण वास्तव में नन्द अहीर का पुत्र है ।
 उसे वसुदेव ने वरबस अपना पुत्र माने लिया है उसे इस बात पर तनिक भी लाज ( त्रप) नहीं आती है ।१४।।
(गर्ग संहिता उद्धव शिशुपालसंवाद )
___________________________________
रूप गोस्वामी ने अपने मित्र श्री सनातन गोस्वामी के आग्रह पर कृष्ण और श्री राधा जी के भाव मयी आख्यानकों का संग्रह किया  
श्री श्री राधा कृष्ण गणोद्देश्य दीपिका के नाम से  ...
परन्तु लेखक ने एक स्थान पर लिखा .

"ते कृष्णस्य परीवारा ये जना: व्रजवासिन: ।
पशुपालस्तथा विप्रा बहिष्ठाश्चेति ते त्रिथा। ६।।
भाषानुवाद– व्रजवासी जन ही कृष्ण का परिवार हैं ; उनका यह परिवार पशुपाल, विप्र, तथा बहिष्ठ ( शिल्पकार) रूप से तीन प्रकार का है ।६।।

पशुपालस्त्रिधा वैश्या आभीरा गुर्जरास्तथा ।
गोप वल्लभ पर्याया यदुवंश समुद्भवा : ।।७।।

भषानुवाद – पशुपाल भी वणिक , अहीर और गुर्जर भेद से तीन प्रकार के हैं ।
इन तीनों का उत्पत्ति यदुवंश से हुई है ।
 तथा ये सभी गोप और वल्लभ जैसे समानार्थक नामों से जाने जाते हैं ।७।।

प्रायो गोवृत्तयो मुख्या वैश्या इति समारिता: ।
अन्ये८नुलोमजा: केचिद् आभीरा इति विश्रुता:।।८।

भषानुवाद– वैश्य प्राय: गोपालन के द्वारा अपना जीवन निर्वाह करते है ।
और आभीर तथा गुर्जरों से श्रेष्ठ माने जाते हैं ।
अनुलोम जात ( उच्च वर्ण के पिता और निम्न वर्ण की माता द्वारा उत्पन्न ) वैश्यों को आभीर नाम से जाना जाता है ।८।।

आचाराधेन तत्साम्यादाभीराश्च स्मृता इमे ।।
आभीरा: शूद्रजातीया गोमहिषादि वृत्तय: ।।
घोषादि शब्द पर्याया: पूर्वतो न्यूनतां गता: ।।९।।

भाषानुवाद–आचरण में आभीर भी वैश्यों के समान जाने जाते हैं । ये शूद्रजातीया हैं ।
तथा गाय भैस के पालन द्वारा अपना जीवन निर्वाह करते हैं ।
 इन्हें घोष भी कहा जाता है ये पूर्व कथित वैश्यों से कुछ हीन माने जाते हैं ।९।।

किञ्चिदाभीरतो न्यूनाश्च छागादि पशुवृत्तय:।
गोष्ठप्रान्त कृतावासा: पुष्टांगा गुर्जरा: स्मृता :।।१०।

भाषानुवाद – अहीरों से कुछ हीन बकरी आदि पशुओं को पालन करने वाले   तथा गोष्ठ की सीमा पर वास करने वाले गोप ही गुर्जर कहलाते हैं  ये प्राय हृष्ट-पुष्टांग वाले होते हैं ।१०।

वास्तव में उपर्युक्त रूप में वर्णित तथ्य की अहीर और गुर्जर यदुवंश से उत्पन्न होकर भी वैश्य और शूद्र हैं ।

शास्त्र सम्मत व युक्ति- युक्त नहीं हैं क्यों कि पद्मपुराण सृष्टि खण्ड अग्निपुराण और नान्दी -उपपुराण आदि में  वेदों की अधिष्ठात्री देवी गायत्री नरेन्द्र सेन आभीर की कन्या हैं जिसे गूजर और अहीर दौनों समान रूप से अपनी कुल देवी मानते हैं ।

जिस गायत्री मन्त्र के वाचन से ब्राह्मण स्वयं को तथा दूसरों को पवित्र और ज्ञानवान बनाने का अनुष्ठान करता है वह गायत्री एक अहीर नरेन्द्र सेन की कन्या है ।

जब शास्त्रों में ये बात है ते फिर 
अहीर तो ब्राह्मणों के भी पूज्य हैं 
फिर षड्यन्त्र के तहत किस प्रकार अहीर शूद्र और वैश्य हुए ।
वास्तव में जिन तथ्यों का अस्तित्व नहीं उनको उद्धृत करना भी महा मूढ़ता ही है ।

इस लिए अहीर यादव या गोप आदि विशेषणों से नामित यादव कभी शूद्र नहीं हो सकते हैं और यदि इन्हें किसी पुरोहित या ब्राह्मण का संरक्षक या सेवक माना जाए तो भी युक्ति- युक्त बात नहीं 
क्यों ज्वाला प्रसाद मिश्र अपने ग्रन्थ जाते भाष्कर में आभीरों को ब्राह्मण लिखते हैं ।

परन्तु नारायणी सेना आभीर या गोप यौद्धा जो अर्जुन जैसे महारथी यौद्धा को क्षण-भर में परास्त कर देते हैं ।
क्या ने शूद्र या वैश्य माने जाऐंगे 

सम्पूर्ण विश्व की माता गो को पालन करने वाले वाले वैश्य या शूद्र माने जाऐंगे 

किस मूर्ख ने ये विधान बनाया ?
हम इस आधार हीन बातों और विधानों को सिरे से खारिज करते हैं ।

इसी लिए यादवों ने वर्ण व्यवस्था को खण्डित किया और षड्यन्त्र कारी पुरोहितों को दण्डित भी किया ।
यादव भागवत धर्म का स्थापन करने वाले थे ।

जहाँ सारे कर्म काण्ड और वर्ण व्यवस्था आदि का कोई महत्व व मान्यता नहीं थी ।

रूप गोस्वामी ने अपने मित्र श्री सनातन गोस्वामी के आग्रह पर कृष्ण और श्री राधा जी के भाव मयी आख्यानकों का संग्रह किया  
श्री श्री राधा कृष्ण गणोद्देश्य दीपिका के नाम से  ...
परन्तु लेखक ने एक स्थान पर लिखा .

"ते कृष्णस्य परीवारा ये जना: व्रजवासिन: ।
पशुपालस्तथा विप्रा बहिष्ठाश्चेति ते त्रिथा। ६।।
भाषानुवाद– व्रजवासी जन ही कृष्ण का परिवार हैं ; उनका यह परिवार पशुपाल, विप्र, तथा बहिष्ठ ( शिल्पकार) रूप से तीन प्रकार का है ।६।।

पशुपालस्त्रिधा वैश्या आभीरा गुर्जरास्तथा ।
गोप वल्लभ पर्याया यदुवंश समुद्भवा : ।।७।।

भषानुवाद – पशुपाल भी वणिक , अहीर और गुर्जर भेद से तीन प्रकार के हैं ।
इन तीनों का उत्पत्ति यदुवंश से हुई है ।
 तथा ये सभी गोप और वल्लभ जैसे समानार्थक नामों से जाने जाते हैं ।७।।

प्रायो गोवृत्तयो मुख्या वैश्या इति समारिता: ।
अन्ये८नुलोमजा: केचिद् आभीरा इति विश्रुता:।।८।

भषानुवाद– वैश्य प्राय: गोपालन के द्वारा अपना जीवन निर्वाह करते है ।और आभीर तथा गुर्जरों से श्रेष्ठ माने जाते हैं ।
अनुलोम जात ( उच्च वर्ण के पिता और निम्न वर्ण की माता द्वारा उत्पन्न ) वैश्यों को आभीर नाम से जाना जाता है ।८।।

आचाराधेन तत्साम्यादाभीराश्च स्मृता इमे ।।
आभीरा: शूद्रजातीया गोमहिषादि वृत्तय: ।।
घोषादि शब्द पर्याया: पूर्वतो न्यूनतां गता: ।।९।।

भाषानुवाद–आचरण में आभीर भी वैश्यों के समान जाने जाते हैं । ये शूद्रजातीया हैं ।
तथा गाय भैस के पालन द्वारा अपना जीवन निर्वाह करते हैं ।
 इन्हें घोष भी कहा जाता है ये पूर्व कथित वैश्यों से कुछ हीन माने जाते हैं ।९।।

किञ्चिदाभीरतो न्यूनाश्च छागादि पशुवृत्तय:।
गोष्ठप्रान्त कृतावासा: पुष्टांगा गुर्जरा: स्मृता :।।१०।

भाषानुवाद – अहीरों से कुछ हीन बकरी आदि पशुओं को पालन करने वाले   तथा गोष्ठ की सीमा पर वास करने वाले गोप ही गुर्जर कहलाते हैं  ये प्राय हृष्ट-पुष्टांग वाले होते हैं ।१०।

वास्तव में उपर्युक्त रूप में वर्णित तथ्य की अहीर और गुर्जर यदुवंश से उत्पन्न होकर भी वैश्य और शूद्र हैं ।

शास्त्र सम्मत व युक्ति- युक्त नहीं हैं क्यों कि पद्मपुराण सृष्टि खण्ड अग्निपुराण और नान्दी -उपपुराण आदि में  वेदों की अधिष्ठात्री देवी गायत्री नरेन्द्र सेन आभीर की कन्या हैं जिसे गूजर और अहीर दौनों समान रूप से अपनी कुल देवी मानते हैं ।

जिस गायत्री मन्त्र के वाचन से ब्राह्मण स्वयं को तथा दूसरों को पवित्र और ज्ञानवान बनाने का अनुष्ठान करता है वह गायत्री एक अहीर नरेन्द्र सेन की कन्या है ।

जब शास्त्रों में ये बात है ते फिर 
अहीर तो ब्राह्मणों के भी पूज्य हैं 
फिर षड्यन्त्र के तहत किस प्रकार अहीर शूद्र और वैश्य हुए ।
वास्तव में जिन तथ्यों का अस्तित्व नहीं उनको उद्धृत करना भी महा मूढ़ता ही है ।

इस लिए अहीर यादव या गोप आदि विशेषणों से नामित यादव कभी शूद्र नहीं हो सकते हैं और यदि इन्हें किसी पुरोहित या ब्राह्मण का संरक्षक या सेवक माना जाए तो भी युक्ति- युक्त बात नहीं 
क्यों कि ज्वाला प्रसाद मिश्र अपने ग्रन्थ जाति-भाष्कर में आभीरों को ब्राह्मण लिखते हैं ।

परन्तु नारायणी सेना आभीर या गोप यौद्धा जो अर्जुन जैसे महारथी यौद्धा को क्षण-भर में परास्त कर देते हैं ।
क्या ने शूद्र या वैश्य माने जाऐंगे 

सम्पूर्ण विश्व की माता गो को पालन करने वाले वाले वैश्य या शूद्र माने जाऐंगे 

किस मूर्ख ने ये विधान बनाया ?
हम इस आधार हीन बातों और विधानों को सिरे से खारिज करते हैं ।

इसी लिए यादवों ने वर्ण व्यवस्था को खण्डित किया और षड्यन्त्र कारी पुरोहितों को दण्डित भी किया ।
यादव भागवत धर्म का स्थापन करने वाले थे ।

जहाँ सारे कर्म काण्ड और वर्ण व्यवस्था आदि का कोई महत्व व मान्यता नहीं थी ।

प्राय:  कुछ रूढ़िवादी ब्राह्मण अथवा  भ्रान्त -मति राजपूत समुदाय के लोग यादवों को  आभीरों (गोपों) से पृथक बताने के लिए
महाभारत के मूसल पर्व अष्टम् अध्याय से 
यह श्लोक उद्धृत करते हैं ।
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ततस्ते पापकर्माणो लोभोपहतचेतस: । 
आभीरा मन्त्रामासु: 
समेत्याशुभ दर्शना: ।। ४७।

अर्थात्  वे  पापकर्म करने वाले तथा लोभ से पतित चित्त वाले ! अशुभ -दर्शन अहीरों ने एकत्रित होकर वृष्णि वंशी यादवों को लूटने की  सलाह की ।४७। 

अब इसी बात को  बारहवीं शताब्दी में रचित ग्रन्थ श्री-मद्भगवद् पुराण के प्रथम स्कन्ध पन्द्रह वें अध्याय  में आभीर शब्द के स्थान पर गोप शब्द  सम्बोधन द्वारा कहा गया है 
इसे भी देखें---
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"सो८हं नृपेन्द्र रहित: पुरुषोत्तमेन   
सख्याप्रियेण सुहृदा हृदयेन शून्य:।
 
अध्वन्युरूक्रम परिग्रहम् अंग रक्षन् । 
गौपै: सद्भिरबलेव विनिर्जितोेऽस्मि ।२०।
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हे राजन् ! जो मेरे सखा अथवा -प्रिय मित्र ---नहीं ,नहीं मेरे हृदय ही थे ; उन्हीं पुरुषोत्तम कृष्ण से मैं रहित हो गया हूँ । 
कृष्ण की पत्नीयाें को द्वारिका से अपने साथ इन्द्र-प्रस्थ लेकर आर रहा था । 
परन्तु मार्ग में दुष्ट गोपों ने मुझे एक अबला के समान हरा दिया ।
और मैं अर्जुन उनकी गोपिकाओं तथा वृष्णि वंशीयों की पत्नीयाें की रक्षा नहीं कर सका!
(  श्रीमद्भगवद् पुराण अध्याय एक श्लोक संख्या २०(पृष्ठ संख्या --१०६ गीता प्रेस गोरखपुर देखें---

महाभारत के मूसल पर्व में गोप के स्थान पर आभीर शब्द का प्रयोग सिद्ध करता है कि गोप ही आभीर है।

अहीर  आप को ज्ञात होना चाहिए कि  नारायणी सेना आभीर या गोप यौद्धाओं की सेना थी ।
और जिसका प्रत्येक गोप यौद्धा बल में कृष्ण के समान था।
इसी बात की पुष्टि महाभारत उद्योग पर्व में वर्णित है ।👇

मत्सहननं तुल्यानां,गोपानामर्बुद महत् ।
नारायण इति ख्याता सर्वे संग्राम यौधिन: ।107।

सेन रूप में मेरे समान अरबों की संख्या में महान संग्राम में युद्ध करने वाले गोप यौद्धा नारायणी सेना से अभिहित हैं ।

नारायणेय: मित्रघ्नं कामाज्जातभजं नृषु ।
सर्व क्षत्रियस्य पुरतो देवदानव योरपि 108।।

जिनके सम्मुख देव दानव या कोई क्षत्रिय नहीं ठहरता है । 
महाभारत के उद्योग पर्व अध्याय 7/18-22,में 

जब अर्जुन और दुर्योधन दौनों विपक्षी यौद्धा कृष्ण के पास युद्ध में सहायता माँगने के लिए गये तो  श्री कृष्ण ने प्रस्तावित किया कि आप दौनों मेरे लिए समान हो ।

आपकी युद्धीय स्तर पर सहायता के लिए एक ओर मेरी गोपों की नारायणी सेना होगी ! 
और दूसरी और ---मैं  स्वयं नि: शस्त्र  ---जो  अच्छा लगे वह मुझसे माँंगलो ! 

तब स्थूल बुद्धि दुर्योधन ने कृष्ण की नारायणी गोप सेना को माँगा ! और अर्जुन ने स्वयं कृष्ण को !

इसी सन्दर्भ में कृष्ण ने नारायणी सेना के गोप यौद्धाओं की जानकारी दी थी उसी के पुष्टि करण में ये उपर्युक्त श्लोक उद्धृत हैं ।
बात ये भी आती है कि गोपों या अहीरों ने अर्जुन को क्यों लूटा या परास्त क्यों किया था ? 

इसके कई समवेत कारण थे ।
सुभद्रा अपहरण।

और  नारायणी सेना का दुर्योधन का पक्ष धर होना ।

गोप अर्थात् अहीर निर्भीक यदुवंशी यौद्धा तो थे ही 
इसी लिए दुर्योधन ने उनका ही चुनाव किया!

यही कारण था कि गोपों ने प्रभास के दौरान  पञ्चनद  क्षेत्र में अर्जुन को परास्त कर लूट किया था । 

क्योंकि नारायणी सेना को ये यौद्धा दुर्योधन को पक्ष में थे । 
और यादव अथवा अहीर किसी को साथ विश्वास घात नहीं करते थे ।
इसी लिए अर्जुन को परास्त करने वाले हुए 
__________________________________________

गर्ग संहिता अश्व मेध खण्ड अध्याय 60,41,में यदुवंशी गोपों ( अहीरों) की सुनने और गायन करने से मनुष्यों को सब पार नष्ट हो जाते हैं । 

और यही भाव कदाचित महाभारत के मूसल पर्व में आभीर शब्द के द्वारा वर्णित किया गया है ।
परन्तु कालान्तरण में स्मृति-ग्रन्थों में गोपों को शूद्र रूप में वर्णित करना यादवों के प्रति द्वेष भाव को ही इंगित करती है ।

गोप शूद्र नहीं अपितु स्वयं में क्षत्रिय ही हैं ।
जैसा की संस्कृति साहित्य का इतिहास 368 पर वर्णित है ।
_______
अस्त्र हस्ताश्च धन्वान: संग्रामे सर्वसम्मुखे ।
प्रारम्भे विजिता येन स: गोप क्षत्रिय उच्यते ।।

गर्ग संहिता में निम्न श्लोक भी विचारणीय है

यादव: श्रृणोति चरितं वै गोलोकारोहणं हरे :
मुक्ति यदूनां गोपानं सर्व पापै: प्रमुच्यते ।102।

_
बारहवीं सदी में लिपिबद्ध ग्रन्थ  श्रीमद्भागवत् पुराण में अहीरों को बाहर से आया बताया गया.....
 फिर महाभारत में मूसल पर्व में वर्णित अभीर कहाँ से आ गये.... 

किरात हूणान्ध्र पुलिन्द पुलकसा: 
आभीर शका यवना खशादय :।
येऽन्यत्र पापा यदुपाश्रयाश्रया शुध्यन्ति 
तस्यै प्रभविष्णवे नम:।
 (श्रीमद्भागवत् पुराण-- २/४/१८) 

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अर्थात् किरात हूण पुलिन्द पुलकस तथा आभीर शक यवन ( यूनानी) खश आदि जन-जाति तथा अन्य जन-जाति यदुपति कृष्ण के आश्रय में आकर शुद्ध हो गयीं ।
उस प्रभाव शाली कृष्ण को नमस्कार है।
श्रीमद्भागवत् पुराण-- २/४/१८ 

रूप गोस्वामी ने अपने ग्रन्थ में

पशुपालस्त्रिधा वैश्या आभीरा गर्जरास्तथा ।
गोप वल्लभ पर्याया यदुवंश समुद्भवा : ।।७।।

भषानुवाद – पशुपाल भी वणिक , अहीर और गुर्जर भेद से तीन प्रकार के हैं ।
इन तीनों का उत्पत्ति यदुवंश से हुई है ।
 तथा ये सभी गोप और वल्लभ जैसे समानार्थक नामों से जाने जाते हैं ।७।।

प्रायो गोवृत्तयो मुख्या वैश्या इति समारिता: ।
अन्येनुलोमजा: केचिद् आभीरा इति विश्रुता:।।८।

भषानुवाद– वैश्य प्राय: गोपालन के द्वारा अपना जीवन निर्वाह करते है ।
और आभीर तथा गुर्जरों से श्रेष्ठ माने जाते हैं ।
अनुलोम जात ( उच्च वर्ण के पिता और निम्न वर्ण की माता द्वारा उत्पन्न ) वैश्यों को आभीर नाम से जाना जाता है ।८।।

आचाराधेन तत्साम्यादाभीराश्च स्मृता इमे ।।
आभीरा: शूद्रजातीया गोमहिषादि वृत्तय: ।।
घोषादि शब्द पर्याया: पूर्वतो न्यूनतां गता: ।।९।।

भाषानुवाद–आचरण में आभीर भी वैश्यों के समान जाने जाते हैं । ये शूद्रजातीया हैं ।
तथा गाय भैस के पालन द्वारा अपना जीवन निर्वाह करते हैं ।
 इन्हें घोष भी कहा जाता है ये पूर्व कथित वैश्यों से कुछ हीन माने जाते हैं ।९।।

किञ्चिदाभीरतो न्यूनाश्च छागादि पशुवृत्तय:।
गोष्ठप्रान्त कृतावासा: पुष्टांगा गुर्जरा: स्मृता :।।१०।

भाषानुवाद – अहीरों से कुछ हीन बकरी आदि पशुओं को पालन करने वाले  तथा गोष्ठ की सीमा पर वास करने वाले गोप ही गुर्जर कहलाते हैं  ये प्राय हृष्ट-पुष्टांग वाले होते हैं ।१०।

वास्तव में उपर्युक्त रूप में वर्णित तथ्य की अहीर और गुर्जर यदुवंश से उत्पन्न होकर भी वैश्य और शूद्र हैं ।
शास्त्र सम्मत व युक्ति- युक्त नहीं हैं क्यों कि पद्मपुराण सृष्टि खण्ड अग्निपुराण और नान्दी -उपपुराण आदि में  वेदों की अधिष्ठात्री देवी गायत्री नरेन्द्र सेन आभीर की कन्या हैं ।
जिसे गूजर और अहीर दौनों समान रूप से अपनी कुल देवी मानते हैं ।

जिस गायत्री मन्त्र के वाचन से ब्राह्मण स्वयं को तथा दूसरों को पवित्र और ज्ञानवान बनाने का अनुष्ठान करता है वह गायत्री एक अहीर नरेन्द्र सेन की कन्या है ।

जब शास्त्रों में ये बात है ते फिर 
अहीर तो ब्राह्मणों के भी पूज्य हैं 
फिर षड्यन्त्र के तहत किस प्रकार अहीर शूद्र और वैश्य हुए ।
वास्तव में जिन तथ्यों का अस्तित्व नहीं उनको उद्धृत करना भी महा मूढ़ता ही है ।

इस लिए अहीर यादव या गोप आदि विशेषणों से नामित यादव कभी शूद्र नहीं हो सकते हैं और यदि इन्हें किसी पुरोहित या ब्राह्मण का संरक्षक या सेवक माना जाए तो भी युक्ति- युक्त बात नहीं 
क्यों ज्वाला प्रसाद मिश्र अपने ग्रन्थ जाते भाष्कर में आभीरों को ब्राह्मण लिखते हैं ।

परन्तु नारायणी सेना आभीर या गोप यौद्धा जो अर्जुन जैसे महारथी यौद्धा को क्षण-भर में परास्त कर देते हैं ।
क्या ने शूद्र या वैश्य माने जाऐंगे 

सम्पूर्ण विश्व की माता गो को पालन करने वाले वाले वैश्य या शूद्र माने जाऐंगे 

किस मूर्ख ने ये विधान बनाया ?
हम इस आधार हीन बातों और विधानों को सिरे से खारिज करते हैं ।

इसी लिए यादवों ने वर्ण व्यवस्था को खण्डित किया और षड्यन्त्र कारी पुरोहितों को दण्डित भी किया ।
यादव भागवत धर्म का स्थापन करने वाले थे ।

जहाँ सारे कर्म काण्ड और वर्ण व्यवस्था आदि का कोई महत्व व मान्यता नहीं थी ।

प्रस्तुति करण - यादव योगेश कुमार "रोहि" 8077160219

अब महाभारत के खिल-भाग हरिवंश पुराण में वसुदेव को गोप ही कहा गया है। 
और कृष्ण का जन्म भी गोप (आभीर) जन-जाति में हुआ था।
ऐसा वर्णन है । 
प्रथम दृष्टवा तो ये देखें-- कि वसुदेव को गोप कहा है ।
________________________________________
"इति अम्बुपतिना प्रोक्तो वरुणेनाहमच्युत ।
गावां कारणत्वज्ञ:कश्यपे शापमुत्सृजन् ।२१

येनांशेन हृता गाव: कश्यपेन महर्षिणा ।
स तेन अंशेन जगतीं गत्वा गोपत्वमेष्यति।२२

द्या च सा सुरभिर्नाम अदितिश्च सुरारिण: 
ते८प्यमे तस्य भार्ये वै तेनैव सह यास्यत:।।२३

ताभ्यां च सह गोपत्वे कश्यपो भुवि संस्यते।
स तस्य कश्यस्यांशस्तेजसा कश्यपोपम: ।२४

वसुदेव इति ख्यातो गोषु तिष्ठति भूतले ।
गिरिगोवर्धनो नाम मथुरायास्त्वदूरत: ।२५।

तत्रासौ गौषु निरत: कंसस्य कर दायक:।
तस्य भार्याद्वयं जातमदिति सुरभिश्च ते ।२६।

देवकी रोहिणी देवी चादितिर्देवकी त्यभृत् ।२७।
सतेनांशेन जगतीं गत्वा गोपत्वं एष्यति।

गीता प्रेस गोरखपुर की हरिवंश पुराण 'की कृति में 
श्लोक संख्या क्रमश: 32,33,34,35,36,37,तथा 38 पर देखें--- अनुवादक पं० श्री राम नारायण दत्त शास्त्री पाण्डेय "राम"   "ब्रह्मा जी का वचन " नामक  55 वाँ अध्याय।
________________________________________
अनुवादित रूप :----हे विष्णु ! महात्मा वरुण के ऐसे वचनों को सुनकर तथा इस सन्दर्भ में समस्त ज्ञान प्राप्त करके भगवान ब्रह्मा ने कश्यप को शाप दे दिया। 
तथा कहा 
।२१। कि कश्यप ने अपने जिस तेज से  प्रभावित होकरउन गायों का अपहरण किया ।
उस पाप के प्रभाव-वश होकर भूमण्डल पर अहीरों (गोपों)का जन्म धारण करें ।२२। 
तथा दौनों देव माता अदिति और सुरभि उनकी पत्नीयाें के रूप में पृथ्वी पर उनके साथ जन्म धारण करेंगी ।२३।
इस पृथ्वी पर अहीरों ( ग्वालों ) का जन्म धारण कर महर्षि कश्यप दौनों पत्नीयाें अदिति और सुरभि सहित आनन्द पूर्वक जीवन यापन करते रहेंगे ।
हे राजन् वही कश्यप वर्तमान समय में कश्यप के तेज स्वरूप वसुदेव गोप के नाम से प्रसिद्ध होकर पृथ्वी पर गायों की सेवा करते हुए जीवन यापन करते हैं।
मथुरा के ही समीप गोवर्धन पर्वत है ।
उसी पर पापी कंस के अधीन होकर गोकुल पर राज्य कर रहे हैं।
कश्यप की दौनों पत्नीयाें अदिति और सुरभि ही क्रमश: देवकी और रोहिणी के नाम से अवतीर्ण हुई हैं ।२४-२७।
(उद्धृत सन्दर्भ --------)
पितामह ब्रह्मा की योजना नामक ३२वाँ अध्याय पृष्ठ संख्या २३० अनुवादक -- पं० श्रीराम शर्मा आचार्य    " ख्वाजा कुतुब वेद नगर बरेली संस्करण)
अब कृष्ण को भी गोपों के घर में जन्म लेने वाला बताया है ।
_________________________________________
गोप अयनं य: कुरुते जगत: सार्वलौकिकम् ।
स कथं गां गतो देशे विष्णुर्गोपर्त्वमागत: ।।९।

अर्थात्:-जो प्रभु भूतल के सब जीवों की 
रक्षा करनें में समर्थ है ।
वे ही इस भूतल पर आकर गोप (आभीर) क्यों हुए ।९।
__________________________________________

हरिवंश पुराण "वराह ,नृसिंह  आदि अवतार नामक १९ वाँ अध्याय पृष्ठ संख्या १४४ (ख्वाजा कुतुब वेद नगर बरेली संस्करण) 

सम्पादक पण्डित श्री राम शर्मा आचार्य ..
गीता प्रेस गोरखपुर की हरिवंश पुराण की कृति में वराहोत्पत्ति वर्णन " नामक पाठ चालीसवाँ अध्याय 
पृष्ठ संख्या (182) श्लोक संख्या (12)
अब निश्चित रूप से आभीर और गोप परस्पर पर्याय वाची रूप हैं। 
यह शास्त्रीय पद्धति से प्रमाणित भी है ।
अब स्मृति-ग्रन्थों में गोपों को शूद्र कह कर वर्णित किया गया है। यह भी देखें---
व्यास -स्मृति )तथा  सम्वर्त -स्मृति में एक स्थान पर लिखा है 
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" क्षत्रियात् शूद्र कन्यानाम् समुत्पन्नस्तु य: सुत: । 
स गोपाल इति ज्ञेयो भोज्यो विप्रैर्न संशय: 
----------------------------------------------------------------- 
अर्थात् क्षत्रिय से शूद्र की कन्या में उत्पन्न होने वाला पुत्र गोपाल अथवा गोप होता है ।
और विप्रों के द्वारा उनके यहाँ भोजान्न होता है इसमे संशय नहीं ....
पाराशर स्मृति में वर्णित है कि..
__________________________________________
वर्द्धकी नापितो गोप: आशाप: कुम्भकारक: । 
वणिक् किरात: कायस्थ: मालाकार: कुटुम्बिन: एते चान्ये च बहव शूद्र:भिन्न स्व कर्मभि: चर्मकारो भटो भिल्लो रजक: पुष्करो नट: वरटो मेद। चाण्डालदास श्वपचकोलका: ।।११।। 

एतेऽन्त्यजा समाख्याता ये चान्ये च गवार्शना: 
एषां सम्भाषणाद् स्नानंदर्शनादर्क वीक्षणम् ।।१२।। 
-----------------------------------------------------------------  वर्द्धकी (बढ़ई) , नाई , गोप , आशाप , कुम्हार ,वणिक् ,किरात , कायस्थ, माली , कुटुम्बिन, ये सब अपने कर्मों से भिन्न बहुत से शूद्र हैं । 
चमार ,भट, भील ,धोवी, पुष्कर, नट, वरट, मेद , चाण्डाल ,दाश,श्वपच , तथा कोल (कोरिया)ये सब अन्त्यज कहे जाते हैं ।
और अन्य जो गोभक्षक हैं वे भी अन्त्यज होते हैं । इनके साथ सम्भाषण करने पर स्नान कर सूर्य दर्शन  करना चाहिए तब शुद्धि  होती है ।
____________________________
अभोज्यान्ना:स्युरन्नादो यस्य य: स्यात्स तत्सम: नापितान्वयपित्रार्द्ध सीरणो दास गोपका:।।४९।। 
शूद्राणामप्योषान्तु भुक्त्वान्न नैव दुष्यति ।
धर्मेणान्योन्य भोज्यान्ना द्विजास्तु विदितान्वया:।५०।।
     (व्यास-स्मृति)
नाई वंश परम्परा व मित्र ,अर्धसीरी ,दास ,तथा गोप ,ये सब शूद्र हैं ।
तो भी इन शूद्रों के अन्न को खाकर दूषित नहीं होते ।।
जिनके वंश का ज्ञान है ;ऐसे द्विज धर्म से परस्पर में भोजन के योग्य अन्न वाले होते हैं ।५०। ________________________________________ (व्यास- स्मृति प्रथम अध्याय श्लोक ११-१२)
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स्मृतियों की रचना काशी में हुई , वर्ण-व्यवस्था का पुन: दृढ़ता से विधान पारित करने के लिए काशी के इन ब्राह्मणों ने रूढ़ि वादी पृथाओं के पुन: संचालन हेतु स्मृति -ग्रन्थों की रचना की जो पुष्यमित्र सुंग की परम्पराओं के अनुगामी थे ।
देखें--- निम्न श्लोक दृष्टव्य है इस सन्दर्भ में..
_________________________________________ " वाराणस्यां सुखासीनं वेद व्यास तपोनिधिम् । पप्रच्छुमुर्नयोऽभ्येत्य धर्मान् वर्णव्यवस्थितान् ।।१।।
__________________________________________
अर्थात् वाराणसी में सुख-पूर्वक बैठे हुए तप की खान वेद व्यास से ऋषियों ने वर्ण-व्यवस्था के धर्मों को पूछा ।
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निश्चित रूप इन विरोधाभासी तथ्यों से ब्राह्मणों के विद्वत्व की पोल खुल गयी है ।
जिन्होंने योजना बद्ध विधि से समाज में ब्राह्मण वर्चस्व स्थापित कर के लिए सारे -ग्रन्थों पर व्यास की मौहर लगाकर अपना ही स्वार्थ सिद्ध किया है ।
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ये सारी हास्यास्पद व विकृतिपूर्ण अभिव्यञ्जनाऐं पुष्यमित्र सुंग के अनुयायी ब्राह्मणों की हैं।
समाज में अव्यवस्था उत्पन्न करने में इनके आडम्बरीय रूप का ही योगदान है ।
तुलसी दास जी भी इसी पुष्य मित्र सुंग की परम्पराओं का अनुसरण करते हुए लिखते हैं ।
राम चरित मानस के युद्ध काण्ड में राम और समुद्र के सम्वाद रूप में अहीरों के वध करने के लिए राम को दिया गया समुद्र सुझाव -
तुलसी दास ने वाल्मीकि-रामायण को उपजीव्य मान कर ही राम चरित मानस की  रचना की है ।

रामचरितमानस में भी तुलसीदास ने उत्तर कांड के 129 (1) में लिखा है कि " आभीर, यवन, । किरात ,खस, स्वपचादि अति अधरुपजे। अर्थात् अहीर, यूनानी बहेलिया, खटिक, भंगी आदि पापयो को हे प्रभु तुम मार दो 
वाल्मीकि-रामायण में राम और समुद्र के सम्वाद रूप में वर्णित युद्ध-काण्ड सर्ग २२ श्लोक ३३पर इसी का मूल विद्यमान है  देखें---

महाभारत यद्यपि किसी एक व्यक्ति की रचना नहीं है।
जिन ब्राह्मणों ने महाभारत का लेखन किया निश्चित रूप से वे यादव विरोधी थे। 

  उन्होंने यादवों के प्रधान विशेषण आभीर शब्द की प्रस्तुति दस्यु अथवा शूद्र रूप में की परन्तु नकारात्मक रूप में  
शूद्राभीरगणाश्चैव ये चाश्रित्य सरस्वतीम् ।
वर्तयन्ति च ये मत्स्यैर्ये च पर्वतवासिन: ।।१०।

महाभारत सभा पर्व के अन्तर्गत दिग्विजय पर्व३२वाँ अध्याय में वर्णित किया गया है कि 
सरस्वती नदी के किनारे निवास करने वाले जो शूद्र आभीर गण थे और उनके साथ मत्स्यजीवी धीवर जाति के लोग भी रहते थेे। 

तथा पर्वतों पर निवास करने वाले जो दूसरे दूसरे मनुष्य थे सब नकुल ने जीत लिए।
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इन्द्र कृष्टैर्वर्तयन्ति धान्यैर्ये च नदीमुखै: ।
समुद्रनिष्कुटे जाता: पारेसिन्धु च मानवा:।११।

तो वैरामा : पारदाश्च आभीरा : कितवै: सह ।
विविधं बलिमादाय रत्नानि विधानि च।१२।

महाभारत के सभा पर्व के अन्तर्गत द्यूतपर्व ५१वाँ अध्याय में वर्णित है कि -
अर्थात् जो समु्द्र तटवर्ती गृहोद्यान में तथा सिन्धु के उस पार रहते हैं।
 वर्षा द्वारा इन्द्र के पैंदा किये हुए तथा नदी के जल से उत्पन्न धान्यों द्वारा निर्वाह करते हैं । 
वे वैराम ,पारद, आभीर ,तथा कितव जाति के लोग नाना प्रकार के रत्न एवं भेंट सामग्री बकरी भेड़ गाय सुवर्ण ऊँट फल तैयार किया हुआ मधु लि बाहर खड़े हुए हैं ।
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चीनञ्छकांस्तथा चौड्रान् बर्बरान् वनवासिन: ।२३ 
वार्ष्णेयान् हार हूणांश्च कृष्णान् हैमवतांस्तथा ।
नीपानूपानधिगतान्विविधान्  द्वारा वारितान् ।२४।

अर्थात् चीन शक ओड्र वनवासी बर्बर  तथा वृष्णि वंशी वार्ष्णेय, हार, हूण , और कृष्ण भी हिमालय प्रदेशों के समीप और अनूप देशों से अनेक राजा भेंट देने के लिए आये ।
वस्तुत यहाँ वार्ष्णेय शब्द यदुवंशी वृष्णि की सन्तानों के लिए है ।
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समुद्र राम से निवेदन करता है !  हे प्रभु  आप अपने अमोघ वाण उत्तर दिशा में रहने वाले अहीरों पर छोड़ दे--
और उन अहीरों को नष्ट कर दें..
जड़ समुद्र भी राम से बाते करता है ।
और राम समु्द्र के कहने पर सम्पूर्ण अहीरों को अपने अमोघ वाण से त्रेता युग-- में ही  मार देते हैं ।
परन्तु अहीर आज भी कलियुग में  जिन्दा होकर ब्राह्मण और राजपूतों की नाक में दम किये हुए हैं ।
उनके मारने में रामबाण भी चूक गया ।

निश्चित रूप से यादवों (अहीरों) विरुद्ध इस प्रकार से लिखने में ब्राह्मणों की धूर्त बुद्धि ही दिखाई देती है।
कितना अवैज्ञानिक व मिथ्या वर्णन है ................

जड़ समुद्र भी अहीरों का शत्रु बना हुआ है  जिनमें चेतना नहीं हैं  फिर भी ।

 ब्राह्मणों ने  राम को भी अहीरों का हत्यारा' बना दिया ।
और हिन्दू धर्म के अनुयायी बने हम हाथ जोड़ कर इन काल्पनिक तथ्यों को सही मान रहे हैं। भला हो हमारी बुद्धि का जिसको मनन रहित श्रृद्धा (आस्था) ने दबा दिया । और मन गुलाम हो गया पूर्ण रूपेण  अन्धभक्ति का ! आश्चर्य  ! घोर आश्चर्य ! 
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" उत्तरेणावकाशोऽस्ति कश्चित् पुण्यतरो मम ।
द्रुमकुल्य इति ख्यातो लोके ख्यातो यथा भवान् ।।३२।।

उग्रदर्शनं कर्माणो बहवस्तत्र दस्यव: ।
आभीर प्रमुखा: पापा: पिवन्ति सलिलम् मम ।।३३।।

तैर्न तत्स्पर्शनं पापं सहेयं पाप कर्मभि: ।
अमोघ क्रियतां रामो$यं  तत्र शरोत्तम: ।।३४।।

तस्य तद् वचनं श्रुत्वा सागरस्य महात्मन: ।
मुमोच तं शरं दीप्तं परं सागर दर्शनात् ।।३५।।
          (वाल्मीकि-रामायण युद्ध-काण्ड २२वाँ सर्ग)
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अर्थात् समुद्र राम से बोल प्रभो ! जैसे जगत् में आप सर्वत्र विख्यात एवम् पुण्यात्मा हैं ।
उसी प्रकार मेरे उत्तर की ओर द्रुमकुल्य नामका बड़ा ही प्रसिद्ध देश है ।३२।

वहाँ आभीर आदि जातियों के बहुत सेमनुष्य निवास करते हैं ।
जिनके कर्म तथा रूप बड़े भयानक हैं ।
सबके सब पापी और लुटेरे हैं ।
वे लोग मेरा जल पीते हैं ।३३।
उन पापाचारियों का मेरे जल से स्पर्श होता रहता है ।
इस पाप को मैं नहीं यह सकता हूँ ।
हे राम आप अपने इस उत्तम वाण को वहीं सफल कीजिए ।३४।
महामना समुद्र का यह वचन सुनकर समुद्र के दिखाए मार्ग के अनुसार उसी अहीरों के देश द्रुमकुल्य की दिशा में राम ने वह वाण छोड़ दिया ।३।
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निश्चित रूप से ब्राह्मण समाज ने राम को आधार बनाकर ऐसी मनगढ़न्त 
कथाओं का सृजन किया है । 
ताकि इन पर सत्य का आवरण  चढ़ा कर अपनी काल्पनिक बातें को सत्य व प्रभावोत्पादक बनाया जा सके ।
इन ब्राह्मणों का जैनेटिक सिष्टम ही कपट से मय है ।
जो अवैज्ञानिक ही नहीं अपितु मूर्खता पूर्ण भी है ।
क्योंकि चालाकी कभी बुद्धिमानी नहीं हो सकती है ; चालाकी में चाल ( छल) सक्रिय रहता है । 
कपट सक्रिय रहता है और बुद्धि मानी  में निश्छलता का भाव प्रधान है।आइए अब पद्म पुराण में अहीरों के विषय में क्या लिखा  है देखें---
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पद्म पुराण के सृष्टि खण्ड के अध्याय १६  में गायत्री माता को  नरेन्द्र सैन आभीर की कन्या 'गायत्री' के रूप में वर्णित किया गया है ।
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" स्त्रियो दृष्टास्तु यास्त्व ,
      सर्वास्ता: सपरिग्रहा : |
आभीरः कन्या रूपाढ्या ,
______________________
      शुभास्यां चारू लोचना ।७।
न देवी न च गन्धर्वीं ,
नासुरी न च पन्नगी ।
वन चास्ति तादृशी कन्या , 
यादृशी सा वराँगना ।८।
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अर्थात् जब इन्द्र ने पृथ्वी पर जाकर देखा 
तो वे पृथ्वी पर कोई सुन्दर और शुद्ध कन्या न पा सके 
परन्तु एक नरेन्द्र सैन आभीर की कन्या गायत्री को सर्वांग सुन्दर और शुद्ध देखकर  दंग रह गये ।७।
उसके समान सुन्दर  कोई देवी न कोई गन्धर्वी  न सुर असुर की स्त्री और न कोई पन्नगी ही थी।
इन्द्र ने तब  ने उस कन्या गायत्री से पूछा कि तुम कौन हो  ? और कहाँ से आयी हो ? 
और किस की पुत्री हो ८।
_________________________________________

गोप कन्यां च तां दृष्टवा , गौरवर्ण महाद्युति:।
एवं चिन्ता पराधीन ,यावत् सा गोप कन्यका ।।९ ।।
पद्म पुराण सृष्टि खण्ड अध्याय १६ १८२ श्लोक में 
इन्द्र ने कहा कि तुम बड़ा रूप वती हो , गौरवर्ण वाली महाद्युति से युक्त हो  इस प्रकार की गौर वर्ण महातेजस्वी कन्या को देखकर इन्द्र भी चकित रह गया   कि यह गोप कन्या इतनी सुन्दर है ।
अध्याय १७ के ४८३ में प्रभु ने कहा कि यह गोप कन्या पराधीन चिन्ता से व्याकुल है ।९।
देवी चैव महाभागा , गायत्री नामत: प्रभु ।
गान्धर्वेण विवाहेन ,विकल्प मा कथाश्चिरम्।९।

१८४ श्लोक में विष्णु ने ब्रह्मा जी से कहा कि हे प्रभो इस कन्या का नाम गायत्री है ।
अब यहाँ भी
भागवत पुराण :--
१०/१/२२ में स्पष्टत: आभीरों  गायत्री  आभीर अथवा गोपों की कन्या है । और गोपों को भागवतपुराण तथा महाभारत हरिवंश पुराण आदि मे देवताओं का अवतार बताया गया है ।
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" अंशेन त्वं पृथिव्या वै ,प्राप्य जन्म यदो:कुले ।
भार्याभ्याँश संयुतस्तत्र ,गोपालत्वं करिष्यसि ।१४।
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वस्तुत आभीर और गोप शब्द परस्पर पर्याय वाची हैं 
पद्म पुराण में पहले आभीर- कन्या शब्द आया है फिर गोप -कन्या भी गायत्री के लिए ..
तथा अग्नि पुराण मे भी आभीरों (गोपों) की कन्या गायत्री का है ।
आभीरा स्तच्च कुर्वन्ति तत् किमेतत्त्वया कृतम्
अवश्यं यदि ते कार्यं भार्यया परया मखे  ४०

एतत्पुनर्महादुःखं यदाभीरा विगर्दिता
वंशे वनचराणां च स्ववोडा बहुभर्तृका  ५४

आभीरीति सपत्नीति प्रोक्तवंत्यः हर्षिताः

इति श्रीवह्निपुराणे नांदीमुखोत्पत्तौ ब्रह्मयज्ञ समारंभे प्रथमोदिवसो नाम षोडशोऽध्यायः संपूर्णः
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ऋग्वेद भारतीय संस्कृति में ही नहीं अपितु विश्व- संस्कृतियों में प्राचीनत्तम है । 
अर्थात् ई०पू० २५०० से १५००के काल तक--
इसी ऋग्वेद में बहुतायत से यदु और तुर्वसु का साथ साथ वर्णन हुआ है । 
वह भी दास अथवा असुर रूप में 
दास शब्द का वैदिक ऋचाओं में अर्थ आर्यों के प्रतिद्वन्द्वी असुरों से ही है ।
परन्तु ये दास अपने पराक्रम बुद्धि कौशल से सम्माननीय ही रहे हैं ।
ऋग्वेद के दशम् मण्डल के ६२वें सूक्त की १० वीं ऋचा में यदु और तुर्वसु को स्पष्टत: दास के रूप में सम्बोधित किया गया है।  वह भी गोपों को रूप में 
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     " उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी ।
     " गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।। 
(ऋग्वेद १०/६२/१०)
यदु और तुर्वसु नामक दौनो दास जो गायों से घिरे हुए हैं 
हम उन सौभाग्य शाली दौनों दासों की प्रशंसा करते हैं ।
यहाँ पर गोप शब्द स्पष्टत: है। 
गो-पालक ही गोप होते हैं 
ऋग्वेद के प्राय: ऋचाओं में यदु और तुर्वसु का वर्णन
नकारात्मक रूप में हुआ है । 
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प्रियास इत् ते मघवन् अभीष्टौ 
        नरो मदेम शरणे सखाय:।
नि तुर्वशं नि यादवं शिशीहि 
        अतिथिग्वाय शंस्यं करिष्यन् ।।
(ऋग्वेद ७/१९/८ ) में भी यही ऋचा
अथर्ववेद में भी (काण्ड २० /अध्याय ५/ सूक्त ३७/ ऋचा ७)
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हे इन्द्र !  हम तुम्हारे मित्र रूप यजमान 
अपने घर में प्रसन्नता से रहें; तथा
तुम अतिथिगु को सुख प्रदान करो ।
और तुम तुर्वसु और यादवों को क्षीण करने वाले बनो। अर्थात् उन्हें परास्त करने वाले बनो ! 
(ऋग्वेद ७/१९/८)

ऋग्वेद में भी  यथावत यही ऋचा है ; इसका अर्थ भी देखें :- हे ! इन्द्र तुम अतिथि की सेवा करने वाले सुदास को सुखी करो ।
और तुर्वसु और यदु को हमारे अधीन करो ।
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और भी देखें यदु और तुर्वसु के प्रति पुरोहितों की दुर्भावना अर्वाचीन नहीं अपितु प्राचीनत्तम भी है ।...
देखें---
अया वीति परिस्रव यस्त इन्दो मदेष्वा ।
अवाहन् नवतीर्नव ।१।
पुर: सद्य इत्थाधिये दिवोदासाय ,
शम्बरं अध त्यं तुर्वशुं यदुम् ।२।
(ऋग्वेद ७/९/६१/ की ऋचा १-२)
हे  सोम ! तुम्हारे किस रस ने दासों के निन्यानवे पुरों अर्थात् नगरों) को तोड़ा था ।
उसी रस से युक्त होकर तुम  इन्द्र के पीने के लिए प्रवाहित हो ओ। १।
शम्बर के नगरों को तोड़ने वाले  ! सोम रस ने ही  तुर्वसु की सन्तान तुर्को तथा यदु की सन्तान यादवों  (यहूदीयों ) को  शासन (वश) में किया ।
यदु को ही ईरानी पुरातन कथाओं में यहुदह् कहा
जो ईरानी तथा बैबीलॉनियन संस्कृतियों से सम्बद्ध साम के वंशज- असीरियन जन-जाति के सहवर्ती यहूदी थे।
असुर तथा यहूदी दौनो साम के वंशज- हैं  
भारतीय पुराणों में साम के स्थान पर सोम हो गया ।
यादवों से घृणा चिर-प्रचीन है  देखें--और भी
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सत्यं तत् तुर्वशे यदौ विदानो अह्नवाय्यम् ।
व्यानट् तुर्वशे शमि । (ऋग्वेद ८/४६/२७)
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हे इन्द्र! तुमने यादवों के प्रचण्ड कर्मों  को सत्य (अस्तित्व) में मान कर संग्राम में अह्नवाय्यम् को प्राप्त कर डाला ।
अर्थात् उनका हनन कर डाला ।
अह्नवाय्य :- ह्नु--बा० आय्य न० त० ।
निह्नवाकर्त्तरि ।
“सत्यं तत्तुर्वशे यदौ विदानो अह्नवाय्यम्” ऋ० ८, ४५, २७ अथर्ववेद तथा ऋग्वेद में यही ऋचांश बहुतायत से है । 
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किम् अंगत्वा मघवन् भोजं आहु: शिशीहि मा शिशयं 
त्वां श्रृणोमि ।।
अथर्ववेद का० २०/७/ ८९/३/
हे इन्द्र तुम भोग करने वाले हो ।
तुम शत्रु को क्षीण करने वाले हो । 
तुम मुझे क्षीण न करो ।
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यदु को दास अथवा असुर कहना सिद्ध करता है कि ये असीरियन जन-जाति से सम्बद्ध सेमेटिक यहूदी यों के पूर्वज यहुदह् ही थे ।
यद्यपि यदु और यहुदह् शब्द की व्युत्पत्तियाँ समान है ।
अर्थात् यज्ञ अथवा स्तुति से सम्बद्ध व्यक्ति ।
यहूदीयों का सम्बन्ध ईरान तथा बेबीलोन से भी रहा है ।
ईरानी असुर संस्कृति में  दाहे शब्द दाहिस्तान के सेमेटिक मूल के व्यक्तियों का वाचक है।

यदु ऐसे स्थान पर रहते थे।जहाँ ऊँटो का बाहुल्य था 
ऊँट उष्ण स्थान पर रहने वाला पशु है ।
यह स्था (उष + ष्ट्रन् किच्च ) 
ऊषरे तिष्ठति इति उष्ट्र (ऊषर अर्थात् मरुस्थल मे रहने से ऊँट संज्ञा )।
(ऊँट) प्रसिद्धे पशुभेदे स्त्रियां जातित्त्वात् ङीष् । “हस्तिगोऽश्वोष्ट्रदमकोनक्षत्रैर्यश्च जीवति” “नाधीयीताश्वमारूढ़ो न रथं न च हस्तिनम्
देखें---ऋग्वेद में 
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शतमहं तिरिन्दरे सहस्रं वर्शावा ददे ।
राधांसि यादवानाम् 
त्रीणि शतान्यर्वतां सहस्रा दश गोनाम् ददुष्पज्राय साम्ने ४६। 

उदानट् ककुहो दिवम् उष्ट्रञ्चतुर्युजो ददत् ।
श्रवसा याद्वं जनम् ।४८।१७।
यदु वंशीयों में परशु के पुत्र तिरिन्दर से सहस्र संख्यक धन मैने प्राप्त किया !
ऋग्वेद ८/६/४६
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यह स्थान इज़राएल अथवा फलस्तीन ही है । 
ब्राह्मणों का आगमन यूरोप स्वीडन से मैसॉपोटमिया सुमेरो-फोनियन के सम्पर्क में रहते हुए हुआ है ।
सुमेरियन पुरातन कथाओं में (बरमन) /बरम (Baram) पुरोहितों को कहते है । 

ईरानी मे बिरहमन तथा जर्मनिक जन-जातियाँ में ब्रेमन ब्रामर अथवा ब्रेख्मन है ।
 जो ब्राह्मण शब्द का तद्भव है।
पुष्य-मित्र सुंग के अनुयायी ब्राह्मणों ने अहीरों( यादवों से सदीयों से घृणा की है )उन्हें ज्ञान से वञ्चित किया और उनके इतिहास को विकृत किया और उन्हें दासता की जञ्जीरों में बाँधने की कोशिश भी की परन्तु अहीरों ने दास (गुलाम) न बन कर दस्यु बनना स्वीकार किया ।
"यह समग्र शोध श्रृंखला यादव योगेश कुमार''रोहि'के द्वारा अनुसन्धानित नवीनत्तम तथ्य है "
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ईरानी भाषा में दस्यु तथा दास शब्द क्रमश दह्यु तथा दाहे के रूप में हैं ।
ऋग्वेद के दशम् मण्डल के ६२वें सूक्त की १० वीं ऋचा में यदु और तुर्वसु को स्पष्टत: दास के रूप में सम्बोधित किया गया है।

उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी ।
गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।। 
(ऋग्वेद १०/६२/१०)

यदु और तुर्वसु नामक दौनो दास जो गायों से घिरे हुए हैं 
हम उन सौभाग्य शाली दौनों दासों की प्रशंसा करते हैं ।
यहाँ पर गोप शब्द स्पष्टत: है ।
🐂जो अहीरों का वाचक है ।

अमरकोश में जो गुप्त काल की रचना है । उसमें अहीरों के अन्य नाम-  पर्याय वाची रूप में वर्णित हैं।
आभीर पुल्लिंग विशेषण संज्ञा
गोपालः 
समानार्थक: १-गोपाल,२-गोसङ्ख्य,३-गोधुक्,४-आभीर,५-वल्लव,६-गोविन्द,७-गोप 
(2।9।57।2।5 अमरकोशः)
कामं प्रकामं पर्याप्तं निकामेष्टं यथेप्सितम्. गोपे गोपालगोसंख्यगोधुगाभीरवल्लवाः॥ 
पत्नी : आभीरी 
सेवक : गोपग्रामः 
वृत्ति : गौः 
गवां-स्वामिः गायों का स्वामी ।
कुछ लोग कहते हैं कि गोप अलग होते हैं यादवों से 
तो ये भी भ्रमात्मक जानकारी है।
महाभारत का खिल-भाग हरिवंश पुराण स्पष्टत: गोपों को यादव कहता है ।
देखें--- 
" जित्वा गोपाल दायादं गत्वा  यादवा कान्बहूनन्।
एष न: प्रथम:  कल्पो जेष्याम् इति यादवान् ।२७।

अर्थात् हंस नाम का एक राजा कहता है --कृष्ण के सन्देश वाहक सात्यकि से -- मैं प्रतिज्ञा करता हूँ ।कि इस कृष्ण गोप को उसके सहायकों सहित बाँध कर यादवों के सम्पूर्ण ऐश्वर्य को जीत लुँगा ।२७।
हरिवंश पुराण " सात्यकि का हंस के समक्ष भाषण" नामक ७८वाँ अध्याय पृष्ठ संख्या ४०४ ( ख्वाजा कुतुब वेद नगर बरेली संस्करण)
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और यदि पुराणों की बात करें; तो महाभारत का खिल-भाग हरिवंश पुराण में वसुदेव को गोप रूप में वर्णित किया गया है । 
यह तथ्य पूर्व में वर्णित किया गया है ।
पितामह ब्रह्मा की योजना नामक ३२वाँ अध्याय पृष्ठ संख्या २३० अनुवादक पं० श्रीराम शर्मा आचार्य ख्वाजा कुतुब वेद नगर बरेली संस्करण)
अब वसुदेव को गोप कहा यह देखें--- नीचे 
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एक समय महात्मा वरुण के पास कुछ यज्ञ- काल के लिए दूध देने योग्य कुछ योग्य गायें थी ।
एक वार प्रजापति भगवान् कश्यप उन गायों को महात्मा वरुण से माँग कर ले गये । 
तो कश्यप की भार्याओं अदिति और सुरभि ने गायें वरुण को लोटाने में अनिच्छा प्रकट की ।१०-११।
तब ब्रह्मा जी ने विष्णु से कहा कि तब एक वार वरुण मेरे पास आकर तथा मुझे प्रणाम करके बोले भगवन् ! मेरी समस्त गायें  मेरे पिता भगवान् कश्यप ने ले ली हैं ।यद्यपि उनका कार्य सम्पन्न हो चुका है । 
किन्तु उन्होंने मेरी गायें नहीं लौटायीं हैं ।
और अपनी दौनों पत्नीयाें अदिति और सुरभि का समर्थन कर रहे हैं ।
हे पितामह ब्रह्मा चाहें कोई स्वामी हो , या गुरू हो अथवा कोई भी क्यों न हो ।
सभी को निर्धारित सीमा का उल्लंघन कने पर आप दण्डित अवश्य करते हो !
आपके अतिरिक्त मेरा कोई सहायक नहीं है ।क्यों कि आप ही मेरे अत्यन्त हितैषी हो । 
यदि इस जगत् में अपराधी अपने अपराध के लिए नियमित रूप से दण्डित न हो  ! तो इस समस्त संसार में अव्यवस्था उत्पन्न होकर संसार का विनाश हो जाएग तथा इसकी मर्यादा-भंग  हो जाएगी ।१६-१७। 

हे ब्रह्मन् इस सन्दर्भ में और कुछ नहीं  कहना चाहता हूँ , केवल अपनी गायें वापस चाहता हूँ।
तथा संस्कृत में कुछ विशेष तथ्य देखें---
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"इति अम्बुपतिना प्रोक्तो वरुणेनाहमच्युत ।
गावां कारणत्वज्ञ:कश्यपे शापमुत्सृजन् ।२१

येनांशेन हृता गाव: कश्यपेन महर्षिणा ।
स तेन अंशेन जगतीं गत्वा गोपत्वमेष्यति।२२

द्या च सा सुरभिर्नाम अदितिश्च सुरारिण: 
ते८प्यमे तस्य भार्ये वै तेनैव सह यास्यत:।।२३

ताभ्यां च सह गोपत्वे कश्यपो भुवि संस्यते।
स तस्य कश्यस्यांशस्तेजसा कश्यपोपम: ।२४

वसुदेव इति ख्यातो गोषु तिष्ठति भूतले ।
गिरिगोवर्धनो नाम मथुरायास्त्वदूरत: ।२५।

तत्रासौ गौषु निरत: कंसस्य कर दायक:।
तस्य भार्याद्वयं जातमदिति सुरभिश्च ते ।२६।

देवकी रोहिणी देवी चादितिर्देवकी त्यभृत् ।२७।
सतेनांशेन जगतीं गत्वा गोपत्वं एष्यति।
________________________________________
अनुवादित रूप :----हे विष्णु ! महात्मा वरुण के ऐसे वचनों को सुनकर तथा इस सन्दर्भ में समस्त ज्ञान प्राप्त करके भगवान ब्रह्मा ने कश्यप को शाप दे दिया। 
तथा कहा 
।२१। 
कि कश्यप ने अपने जिस तेज से  प्रभावित होकरउन गायों का अपहरण किया ।
उस पाप के प्रभाव वश होकर भूमण्डल पर आहीरों (गोपों)का जन्म धारण करें ।२२। 

तथा दौनों देव माता अदिति और सुरभि उनकी पत्नीयाें के रूप में पृथ्वी पर उनके साथ जन्म धारण करेंगी ।२३।

 इस पृथ्वी पर अहीरों ( ग्वालों ) का जन्म धारण कर महर्षि कश्यप दौनों पत्नीयाें अदिति और सुरभि सहित आनन्द पूर्वक जीवन यापन करते रहेंगे ।

हे राजन् वही कश्यप वर्तमान समय में कश्यप के तेज स्वरूप वसुदेव गोप के नाम से प्रसिद्ध होकर पृथ्वी पर गायों की सेना करते हुए जीवन यापन करते हैं।
मथुरा के ही समीप गोवर्धन पर्वत है ।
उसी पर पापा कंस के अधीन होकर गोकुल पर राजंय कर रहे हैं।
कश्यप की दौनों पत्नीयाें अदिति और सुरभि ही क्रमश: देवकी और रोहिणी के नाम से अवतीर्ण हुई हैं ।२४-२७।
(उद्धृत सन्दर्भ )
पितामह ब्रह्मा की योजना नामक ३२वाँ अध्याय पृष्ट संख्या २३० अनुवादक पं० श्रीराम शर्मा आचार्य    " ख्वाजा कुतुब वेद नगर बरेली संस्करण)
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यह तथ्य भी प्रमाणित ही है ; कि ऋग्वेद का रचना काल ई०पू० १५०० के समकक्ष है । 
ऋग्वेद में कृष्ण को इन्द्र से युद्ध करने एक अदेव ( असुर) के रूप में वर्णित किया गया है। जो यमुना नदी ( अंशुमती नदी) के तट पर गोवर्धन पर्वत की उपत्यका में कहता है ।
अर्थात्   ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल के सूक्त संख्या ९६ के श्लोक 
१३, १४,१५, पर असुर अथवा दास कृष्ण का युद्ध इन्द्र से हुआ है ।"
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" आवत् तमिन्द्र शच्या धमन्तमप स्नेहितीर्नृमणा अधत्त।
द्रप्सम पश्यं विषुणे चरन्तम् उपह्वरे नद्यो अंशुमत्या: न भो न कृष्णं अवतस्थि वांसम् इष्यामि।।
वो वृषणो युध्य ताजौ ।।१४।।
अध द्रप्सो अंशुमत्या उपस्थे८धारयत् तन्वं तित्विषाण: विशो अदेवीरभ्या (अदेव ईरभ्यां) चरन्तीर्बृहस्पतिना
युज इन्द्र: ससाहे ।। १५।।
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अर्थात् कृष्ण नामक असुर अंशुमती अर्थात्  यमुना  नदी के तटों पर दश हजार गोपों के साथ निवास करता है ,उसे अपनी बुद्धि-बल से इन्द्र ने खोज लिया है ! 
और उसकी सम्पूर्ण सेना (गोप मण्डली) को इन्द्र ने नष्ट कर दिया है ।
आगे इन्द्र कहता है :--कृष्ण को मैंने देख लिया है ,जो  यमुना नदी के एकान्त स्थानों पर घूमता रहता है ।
यहाँ कृष्ण के लिए अदेव विशेषण है अर्थात्  जो देव नहीं है __________________________________________
"कृष्ण के पूर्वज यदु को  वेदों में पहले ही शूद्र घोषित कर दिया " तो कृष्ण भी शूद्र हुए ऋग्वेद में तो कृष्ण को असुर कहा ही है ।
क्योंकि वैदिक सन्दर्भों में जो दास अथवा असुर कहे गये हैं । 
लौकिक संस्कृत में उन्हें शूद्र कहा गया है।
मनु-स्मृति का यह श्लोक  इस तथ्य को प्रमाणित करता  है । 
जो पुष्यमित्र सुंग ई०पू०१८४ के समकालिक निर्मित कृति  है ।
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शर्मा देवश्च विप्रस्य वर्मा त्राता भूभुज:
भूतिर्दत्तश्च वैश्यस्य दास शूद्रस्य कारयेत् ।।
अर्थात् विप्र (ब्राह्मण) के वाचक शब्द शर्मा तथा देव हों,
तथा क्षत्रिय के वाचक वर्मा तथा त्राता हों ।

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कृष्ण का सम्बन्ध मधु नामक असुर से स्थापित कर दिया है ।
और यादव और माधव पर्याय रूप में हैं ।
यादवों में मधु एक प्रतापी शासक माना जाता है ।
 यह इक्ष्वाकु वंशी राजा दिलीप द्वितीय का अथवा उसके उत्तराधिकारी दीर्घबाहु का समकालीन रहा है , मधु के गुजरात से लेकर यमुना तट तक के स्वामी होने का वर्णन है ।  प्राय: मधु को `असुर`, दैत्य, दानव आदि कहा गया है ।
साथ ही यह भी है कि मधु बड़ा धार्मिक एवं न्यायप्रिय शासक था ।

 मधु की स्त्री का नाम कुंभीनसी था, जिससे लवण का जन्म हुआ ।
लवण बड़ा होने पर लोगों को अनेक प्रकार से कष्ट पहुँचाने लगा । 
लवण को अत्याचारी राजा कहा गया है । इस पर दु:खी होकर कुछ ऋषियों ने अयोध्या जाकर श्री राम से सब बातें बताई और उनसे प्रार्थना की कि लवण के अत्याचारों से लोगों को शीघ्र छुटकारा दिलाया जाय । अन्त में श्रीराम ने शत्रुघ्न को मधुपुर जाने की आज्ञा दी  लवण को मार कर शत्रुघ्न ने उसके प्रदेश पर अपना अधिकार किया ।
पुराणों तथा वाल्मीकि रामायण के अनुसार मधु के नाम पर मधुपुर या मधुपुरी नगर यमुना तट पर बसाया गया ।
यद्यपि अवान्तर काल में पुष्यमित्र सुंग ई०पू०१८४ के अनुयायी ब्राह्मण समाज ने वाल्मीकि-रामायण में बहुत सी काल्पनिक व विरोधाभासी कथाओं का समायोजन भी कर दिया । 
अत: रामायण मे राम का कम  मिलाबटराम का अधिक वर्णन है।
फिर वाल्मीकि-रामायण के आधार पर यादवों के प्रति ब्राह्मणों की भावना परिलक्षित होती है ।
वाल्मीकि-रामायण में वर्णन है कि
इसके मथुरा के आसपास का घना वन `मधुवन` कहलाता था ।
मधु को लीला नामक असुर का ज्येष्ठ पुत्र लिखा है और उसे बड़ा धर्मात्मा, बुद्धिमान और परोपकारी राजा कहा गया है । 
मधु ने शिव की तपस्या कर उनसे एक अमोघ त्रिशूल प्राप्त किया ।
निश्चय ही लवण एक शक्तिशाली शासक था ।
किन्तु श्री कृष्ण दत्त वाजपेयी के मतानुसार 'चन्द्रवंश की 61 वीं पीढ़ी में हुआ उक्त 'मधु' तथा लवण-पिता 'मधु' एक ही थे अथवा नही, यह विवादास्पद है ।
परन्तु एक स्थान पर यदु का पुत्र मधु वर्णित है ।जिसने असुर संस्कृति का प्रसार किया । 
अस्तु ! 🐃🐃
ऐतिहासिक प्रणाम साक्षी हैं कि यहूदीयों का असीरियन जन-जाति से सेमेटिक होने से सजातीय सम्बन्ध है । अत: दौनो सोम अथवा साम वंशी हैं ।
  अत: यादवों से असुरों के जातीय सम्बन्ध हैं । असीरियन जन-जाति को ही भारतीय पुराणों में असुर कहा है ।
जिन्हें भारतीय पुराणों में असुर कहा गया है वह यहूदीयों के सहवर्ती तथा सजातीय असीरियन लोग हैं ।
साम अथवा सोम शब्द हिब्रू एवं संस्कृत भाषा में समान अर्थक हैं ।
जिसके आधार पर सोम वंश की अवधारणा की गयी 
जिसे भारतीय पुराणों में चन्द्र से जोड़ कर काल्पनिक पुट दिया गया है ।
यह समग्र तथ्य यादव योगेश कुमार 'रोहि' के शोध पर आधारित असुरों का मैसॉपोटमिया की पुरातन कथाओं में एक परिचय :- थेसिस ( शोध श्रृंखला) पर आधारित हैं ।
हिन्दू धर्मग्रन्थों में असुर वे लोग हैं जो 'सुर' (देवताओं) से संघर्ष करते हैं। 
धर्मग्रन्थों में उन्हें शक्तिशाली, अतिमानवीय, के रूप में वर्णित किया गया है अर्थात् "असु राति इति असुर: अर्थात् जो प्राण देता है, वह असुर है "।
इस रूप में चित्रित किया गया है।
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'असुर' शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में लगभग (१०५) बार हुआ है।
उसमें ९० स्थानों पर इ सका प्रयोग 'असु युक्त अथवा प्राण -युक्त के अर्थ में किया गया है ।
और केवल १५ स्थलों पर यह 'देवताओं के शत्रु' का वाचक है।
'असुर' का व्युत्पत्ति -लभ्य अर्थ है :-प्राणवंत, प्राणशक्ति संपन्न :-
('असुरिति प्राणनामास्त: शरीरे भवति, निरुक्ति ३.८) 
और इस प्रकार यह वैदिक देवों के एक सामान्य विशेषण के रूप में व्यवहृत किया गया है।
विशेषत: यह शब्द इंद्र, मित्र तथा वरुण के साथ प्रयुक्त होकर उनकी एक विशिष्ट शक्ति का द्योतक है।
इंद्र के तो यह वैयक्तिक बल का सूचक है, परंतु वरुण के साथ प्रयुक्त होकर यह उनके नैतिक बल अथवा शासनबल का स्पष्टत: संकेत करता है।
असुर शब्द इसी उदात्त अर्थ में पारसियों के प्रधान देवता 'अहुरमज़्द' ('असुर: महत् ') के नाम से विद्यमान है।
यह शब्द उस युग की स्मृति दिलाता है जब वैदिक आर्यों तथा ईरानियों (पारसीकों) के पूर्वज एक ही स्थान पर निवास कर एक ही देवता की उपासना में निरत थे। अन्तर आर्यों की इन दोनों शाखाओं में किसी अज्ञात विरोध के कारण फूट पड़ी गई।
फलत: वैदिक आर्यों ने 'न सुर: असुर:' यह नवीन व्युत्पत्ति मानकर असुर का प्रयोग दैत्यों के लिए करना आरम्भ किया ।
और उधर ईरानियों ने भी देव शब्द का ('दएव' के रूप में) अपने धर्म के दानवों के लिए प्रयोग करना शुरू किया।
अर्थात् ईरानी आर्यों की भाषा में देव का अर्थ दुष्ट व्यभिचारी,----------
फलत: वैदिक 'वृत्रघ्न' (इंद्र) अवेस्ता में 'वेर्थ्रोघ्न' के रूप में एक विशिष्ट दैत्य का वाचक बन गया तथा ईरानियों का 'असुर' शब्द पिप्रु आदि देवविरोधी दानवों के लिए ऋग्वेद में प्रयुक्त हुआ जिन्हें इंद्र ने अपने वज्र से मार डाला था। 

ईरानी आर्यों ने असुर शब्द पूज्य अर्थ में प्रयुक्त किया है 
(ऋक्. १०।१३८।३-४)। शतपथ ब्राह्मण की मान्यता है कि असुर देवदृष्टि से अपभ्रष्ट भाषा का प्रयोग करते हैं :---
(तेऽसुरा हेलयो हेलय इति कुर्वन्त: पराबभूवु:)। 
अर्थात् वे असुर हे अरय: हे अरय इस प्रकार करते हुए पराजित हो गये ।
विश्व एैतिहासिक सन्दर्भों में असुर मैसॉपोटमिया की संस्कृति में वर्णित असीरियन लोग थे।
जिनकी भाषा में "र" वर्ण का उच्चारण "ल" के रूप में होता है ।
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वाल्मीकि-रामायण में वर्णित किया गया है, कि देवता सुरा पान करने के कारण देव सुर कहलाए ,
और जो सुरा पान नहीं करते वे असुर कहलाते थे  ।
बालकाण्ड सर्ग 45 के 38 वें छन्द में ) 
सुर-असुर की परिभाषा करते हुये लिखा है- 
“सुरा पीने वाले सुर और सुरा नहीं पीने वाले असुर कहे गये l” 
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" सुरा प्रति ग्रहाद् देवा: सुरा इति अभिविश्रुता ।
अप्रति ग्रहणात् तस्या दैतेयाश्चासुरा: स्मृता ।।
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वस्तुत देव अथवा सुर जर्मनिक जन-जातियाँ से सम्बद्ध हैं ।
स्वीडन के स्वीअर (Sviar)लोग ही भारतीय पुराणों में सुर देवों के रूप में सम्बद्ध हैं ।
यूरोपीय संस्कृतियों में सुरा एक सीरप (syrup)
के समान है l
यूरोपीय लोग शराब पीना शुभ और स्वास्थ्य प्रद समझते है ।
यह उनकी संस्कृति के लिए
स्वास्थ्य प्रद परम्परा है ।
कारण वहाँ की शीतित जल-वायु के प्रभाव से बचने के लिए शराब औषधि तुल्य है । 
फ्रॉञ्च भाषा में शराब को सीरप syrup ही कहते हैं ।
अत: वाल्मीकि-रामायण कार ने सुर शब्द की यह अानुमानिक व्युत्पत्ति- की है ।
परन्तु सुर शब्द का विकास जर्मनिक जन-जाति स्वीअर (Sviar) से हुआ है ।
असुर और सुर दौनों शब्दों की व्युत्पत्ति भिन्न भिन्न हुई है 
पतञ्जलि ने अपने 'महाभाष्य' के पस्पशाह्निक में शतपथ के इस वाक्य को उधृत किया है। 
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शबर स्वामी ने 'पिक', 'नेम', 'तामरस' आदि शब्दों को असूरी भाषा का शब्द माना है।
आर्यों के आठ विवाहों में 'आसुर विवाह' का सम्बन्ध असुरों से माना जाता है। 
पुराणों तथा अवान्तर साहित्य में 'असुर' एक स्वर से दैत्यों का ही वाचक माना गया है। 

असुर संस्कृति असीरियन लोगों की संस्कृति थी ।
असीरियन अक्काडियन ,हिब्रू आदि जातियों के आवास वर्तमान ईराक और ईरान के प्राचीनत्तम रूप में थे ।
जिसे यूनानीयों ने मैसॉपोटामिया अर्थात् दजला और फ़रात के मध्य की आवासित सभ्यता माना --
उत्तरीय ध्रव से भू-मध्य रेखीय क्षेत्रों में आगमन काल में आर्यों ने  दीर्घ काल तक असीरियन लोगों से संघर्ष किया प्रणाम स्वरूप बहुत से सांस्कृतिक तत्व ग्रहण किये 
वेदों में अरि शब्द देव वाची है ।और असीरियन भाषा में भी अलि अथवा इलु के रूप में देव वाची ही है ।
देखें--- 
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विश्ववो हि अन्यो अरि: आजगाम ।
मम इदह श्वशुरो न आजगाम ।
जक्षीयाद्धाना उत सोमं पपीयात् स्वाशित पुनरस्तं जगायात् ।।
             (10/28/1 ऋग्वेद )
अर्थात् ऋषि पत्नी कहती है कि सब देवता निश्चय हमारे यज्ञ में आये , परन्तु हमारे श्वशुर  नहीं आये इस यज्ञ में यदि वे आते तो भुने हुए जौ के साथ सोमपान करते ।।10/28/1
यहाँ अरि शब्द घर का वाचक है ।
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तथा अन्यत्र भी ऋग्वेद 8/51/9 -
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यस्यायं  विश्वार्यो दास: शेवधिपा अरि:।
तिरश्चिदर्ये रुशमे पवीरवि तुभ्येत् सो अज्यते रयि:।।
अरि: आर्यों का प्रधान देव था  आर्यों ने स्वयं को अरि पुत्र माना ।
यहाँ अरि शब्द ईश्वर का वाचक है ।
असुर संस्कृति में अरि: शब्द अलि के रूप में परिणति हुआ ।
सुमेरियन और बैबीलॉनियन तथा असीरियन अक्काडियन हिब्रू आदि संस्कृतियों में असुर संस्कृति में अरि: शब्द अलि के रूप में परिणति हुआ । सुमेरियन और बैबीलॉनियन तथा असीरियन अक्काडियन हिब्रू आदि संस्कृतियों में अरि एल (el)
इलु एलॉह elaoh तथा बहुवचन रूप एलोहिम Elohim हो गया । 
अरबों के अल्लाह शब्द का विकास अल् उपसर्ग Prefix के पश्चात् इलाह करने से हुआ है ।
निश्चित रूप से यादव मैसॉपोटमिया की पुरातन संस्कृति में यहुदह् के वंशज यहूदी हैं ।

तात्पर्य यही कि असुर संस्कृति यादव संस्कृति से सम्बद्ध थी ।
असुरों के इतिहास को भारतीय पुराणों में हेय रूप में वर्णित किया गया है ।
बाणासुर की पुत्री उषा का विवाह कृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न से पुराणों में वर्णित है । 
बाणासुर तथा लवणासुर ये सभी  असुर संस्कृति के उपासक थे।

लवण ने अपने राज्य को विस्तृत कर लिया । 
इस काम में अपने बहनोई हृर्यश्व से मदद ली होगी । लवण ने राज्य की पूर्वी सीमा गंगा नदी तक बढ़ा ली और राम को कहलवाया कि 'मै तुम्हारे राज्य के निकट के ही राज्य का राजा हूँ ।' 

लवण की चुनौती से स्प्ष्ट था कि लवण की शक्ति बढ़ गई थी । 
लवण के द्वारा रावण की सराहना तथा राम की निंदा इस बात की सूचक है कि रावण की नीति और कार्य उसे पसंद थे । 

इससे पता चलता है कि लवण और उसका पिता मधु संभवत: किसी अनार्य शाखा के थे ।
 प्राचीन साहित्य में मधु की नगरी मधुपुरी के वर्णनों से ज्ञात होता है कि उस नगरी का स्थापत्य श्रेष्ठ कोटि का था । 
शत्रुघ्न भी उस मनमोहक नगर को देख कर आर्श्चयचकित हो गये । 
वैदिक साहित्य में अनार्यौं के विशाल तथा दृढ़ दुर्गों एव मकानों के वर्णन मिलते हैं । 

संभवतः लवण-पिता मधु या उनके किसी पूर्वज ने यमुना के तटवर्ती प्रदेश पर अधिकार कर लिया हो । 

यह अधिकार लवण के समय से समाप्त हो गया । मधुवन और मधुपुरी के निवासियों या लवण के अनुयायिओं को शत्रुघ्न ने समाप्त कर दिया होगा । संभवत: उन्होंने मधुपुरी को नष्ट नहीं किया ।

 उन्होंने जंगल को साफ़ करवाया तथा प्राचीन मधुपुरी को एक नये ढंग से आबाद कर उसे सुशोभित किया । 

(प्राचीन पौराणिक उल्लेखों तथा रामायण के वर्णन से यही प्रकट होता है ) रामायण में देवों से वर माँगते हुए शत्रुघ्न कहते हैं- `हे देवतागण, मुझे वर दें कि यह सुन्दर मधुपुरी या मथुरा नगरी, जो ऐसी सुशोभित है मानों देवताओं ने स्वयं बनाई हो, शीघ्र बस जाय ।

` देवताओं ने `एवमस्तु` कहा और मथुरा नगरी बस गई यद्यपि ये कथाऐं काल्पनिक उड़ाने अधिक हैं ।
 परन्तु इन व्यक्तित्वों के उपस्थिति के सूचक हैं ।

दास असुर अथवा शूद्र परस्पर पर्याय वाची हैं ।
अहीर प्रमुखतः एक हिन्दू भारतीय जाति समूह है ।
परन्तु कुछ अहीर मुसलमान भी हैं ।
पश्चिमीय पाकिस्तान के सिन्धु प्रान्त में ..
और बौद्ध तथा कुछ सिक्ख भी हैं ,और ईसाई भी ।
अहीर एशिया की सबसे बड़ी जन-जाति है । 
भारत में अहीरों को यादव समुदाय के नाम से भी पहचाना जाता है, तथा अहीर व यादव या राव साहब ये सब के सब  यादवों के ही विशेषण हैं।

हरियाणा में राव शब्द यादवों का विशेषण है।
भारत में दो हजार एक की जन गणना के अनुसार यादव लगभग २०० मिलियन अर्थात् २० करोड़ से अथिक हैं ।
 भारत में पाँच सौ बहत्तर से अधिक गोत्र यादवों में हैं । 
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” यहूदीयों की हिब्रू बाइबिल के सृष्टि-खण्ड नामक अध्याय Genesis 49: 24 पर --- अहीर शब्द को जीवित ईश्वर का वाचक बताया है । 
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The name Abir is one of The titles of the living god for some reason it,s usually translated( for some reason all god,s in Isaiah 1:24 we find four names of The lord in rapid succession as Isaiah Reports " Therefore Adon - YHWH - Saboath and Abir --Israel declares... 
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Abir (अभीर )---The name reflects protection more than strength although one obviously -- has to be Strong To be any good at protecting still although all modern translations universally translate this name whith ---- Mighty One , it is probably best translated whith  Protector 
... ---------------------------------------

यह नाम अबीर किसी जीवित देवता के शीर्षक में से किसी एक कारण से है।
जिसे आमतौर पर अनुवाद किया गया है।
(यशायाह 1:24 में किसी भी कारण से सभी ईश्वर यशायाह के रूप में बहुतायत से उत्तराधिकार में भगवान के चार नाम मिलते हैं) 
"इसलिए अदोन - YHWH यह्व :  सबोथ और अबीर -इजराइल की घोषणा
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अबीर (अबर) --- नाम ताकत से अधिक सुरक्षा को दर्शाता है ।
यद्यपि एक स्पष्ट रूप से मजबूत होना जरूरी है।
यद्यपि अभी भी सभी आधुनिक अनुवादक सार्वभौमिक रूप से इस नाम का अनुवाद करते हैं। शक्तिशाली (ताकतवर)यह शायद सबसे अच्छा अनुवाद किया है।
--रक्षक ।

हिब्रू बाइबिल में तथा यहूदीयों की परम्पराओं में ईश्वर के पाँच नाम प्रसिद्ध हैं :-(१)-अबीर (२)--अदॉन (३)--सबॉथ (४)--याह्व्ह् तथा (५)--(इलॉही)बाइबल> सशक्त> हिब्रू> 46
_________________________________________
◄ 46. अबीर ►
सशक्त कमान
अबीर: मजबूत
मूल शब्द: אֲבִיר
भाषण का भाग: विशेषण 'पौरुष '
लिप्यान्तरण: अबीर
ध्वन्यात्मक :-वर्तनी: (अ-बियर ')
लघु परिभाषा: एक
संपूर्ण संक्षिप्तता
शब्द उत्पत्ति:-
अबार के समान ही
परिभाषा
बलवान
अनुवाद
शक्तिशाली एक (6)
[אבִיר विशेषण रूप  मजबूत; हमेशा = सशक्त, भगवान के लिए पुराने नाम (कविता में प्रयुक्त अबीर); केवल निर्माण में उत्पत्ति खण्ड(Genesis) 49:24 और उसके बाद से भजन संहिता (132: 2; भजन 132: 5; यशायाह (49:26; )यशायाह 60:16; יִשְׂרָאֵל 'या यशायाह 1:24 (सीए के महत्वपूर्ण टिप्पणी की तुलना करें) -  51 इस निर्माण को बैंक के लिए निर्दिष्ट करता है।

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सशक्त की संपूर्णता
पराक्रमी
'Abar से; शक्तिशाली (भगवान की बात की) - शक्तिशाली (एक)

हिब्रू भाषा में 'अबीर रूप 
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रूप और लिप्यंतरण
אֲבִ֖יר אֲבִ֣יר אֲבִ֥יר אביר לַאֲבִ֥יר לאביר 'ר ·יי' רḇייר एक वैर ला'एरीर ला · 'ḇ ḇîr laaVir
'Ă ḇîr - 4 ओक
ला '' ırîr - 2 प्रा
उत्पत्ति खण्ड बाइबिल:-- (49:24)
יָדָ֑יו מִידֵי֙ אֲבִ֣יר יַעֲקֹ֔ב מִשָּׁ֥ם: याकूब के शक्तिशाली व्यक्ति के हाथों से
: याकूब के शक्तिशाली [परमेश्वर] (अबीर )के हाथों से;
: हाथ याकूब के पराक्रमी हाथ वहाँ
भजन 132: 2
और याकूब के पराक्रमी को  याकूब के पराक्रमी [ईश्वर] को वचन दिया;
भगवान के लिए और याकूब के शक्तिशाली करने के लिए कसम खाई

भजन 132: 5
: लेट्वाः लिबियूः יהו֑֑֑ מִ֝שְּנ֗וֹת לַאֲבִ֥יר יַעֲקֹֽב: याकूब के पराक्रमी एक के लिए एक आवास स्थान
केजेवी: याकूब के शक्तिशाली [परमेश्वर] के लिए एक निवासस्थान
: भगवान एक याकूब की ताकतवर(अबीर) निवास

यशायाह 1:24
: יְהוָ֣ה צְבָא֔וֹת אֲבִ֖יר יִשְׂרָאֵ֑ל ה֚וֹי
: मेजबान के, इज़राइल के पराक्रमी,
केजेवी: सेनाओं के, इस्राएल के पराक्रमी,
: सेनाओं के सर्वशक्तिमान इस्राएल के शक्तिशाली अहा

यशायाह 49:26
: מֽוֹשִׁיעֵ֔ךְ וְגֹאֲלֵ֖ךְ אֲבִ֥יר יַעֲקֹֽב: ס
: और अपने उद्धारकर्ता, याकूब के शक्तिशाली व्यक्ति
: और तेरा उद्धारकर्ता, याकूब के शक्तिशाली व्यक्ति।
: अपने उद्धारकर्ता और अपने उद्धारक याकूब की ताकतवर हूँ

यशायाह 60:16
: מֽוֹשִׁיעֵ֔ךְ וְגֹאֲלֵ֖ךְ אֲבִ֥יר יַעֲקֹֽב:
और अपने उद्धारकर्ता, याकूब के शक्तिशाली व्यक्ति
: और तेरा उद्धारकर्ता, याकूब के शक्तिशाली व्यक्ति।
अपने उद्धारकर्ता और अपने उद्धारक याकूब की ताकतवर हूँ
------------------------------------------------------------------- हिब्रू भाषा मे अबीर (अभीर) शब्द के बहुत ऊँचे अर्थ हैं- अर्थात् जो रक्षक है, सर्व-शक्ति सम्पन्न है इज़राएल देश में याकूब अथवा इज़राएल-- ( एल का सामना करने वाला )को अबीर का विशेषण दिया था ।

 इज़राएल एक फ़रिश्ता है जो भारतीय पुराणों में यम के समान है ।
जिसे भारतीय पुराणों में ययाति कहा है ।

ययाति यम का भी विशेषण है ।
भारतीय पुराणों में विशेषतः महाभारत तथा श्रीमद्भागवत् पुराण में वसुदेव और नन्द दौनों को परस्पर सजातीय वृष्णि वंशी यादव बताया है ।
यादवों का सम्बन्ध पणियों ( Phoenician)
सेमेटिक जन-जाति से भी है ।
इनकी भाषा यहूदीयों तथा असीरियन लोगों के समान ही है ।
भारतीय इतिहास कारों ने इन्हें वणिक अथवा वणिक कहा है ।
पणि कौन थे? 
संक्षेप में इस तथ्य पर भी विश्लेषण हो जाय ।
राथ के मतानुसार यह शब्द 'पण्=विनिमय' से बना है तथा पणि वह व्यक्ति है, जो कि बिना बदले के कुछ नहीं दे सकता।
इस मत का समर्थन जिमर तथा लुड्विग ने भी किया है।
लड्विग ने इस पार्थक्य के कारण पणिओं को यहाँ का आदिवासी व्यवसायी माना है।

ये अपने सार्थ अरब, पश्चिमी एशिया तथा उत्तरी अफ़्रीका में भेजते थे और अपने धन की रक्षा के लिए बराबर युद्ध करने को प्रस्तुत रहते थे।
दस्यु अथवा दास शब्द के प्रसंगों के आधार पर उपर्युक्त मत पुष्ट होता है।
किन्तु आवश्यक है कि आर्यों के देवों की पूजा न करने वाले और पुरोहितों को दक्षिणा न देने वाले इन पणियों को धर्मनिरपेक्ष, लोभी और हिंसक व्यापारी कहा जा सकता है।
ये आर्य और अनार्य दोनों हो सकते हैं।

हिलब्रैण्ट ने इन्हें स्ट्राबो द्वारा उल्लिखित पर्नियन जाति के तुल्य माना है।
जिसका सम्बन्ध दहा (दास) लोगों से था।
फ़िनिशिया इनका पश्चिमी उपनिवेश था, जहाँ ये भारत से व्यापारिक वस्तुएँ, लिपि, कला आदि ले गए।

मिश्र में रहने वाले ईसाई कॉप्ट Copt यहूदीयों की ही शाखा से सम्बद्ध हैं ।
Copts are one of the oldest Christian communities in the Middle East. Although integrated in the larger Egyptian nation, the Copts have survived as a distinct religious community forming today between 10 and 20 percent of the native population. They pride themselves on the apostolicity of the Egyptian Church whose founder was the first in an unbroken chain of patriots  
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कॉप्ट (Copt)
मध्य पूर्व में सबसे पुराना ईसाई समुदायों में से एक है | यद्यपि बड़े मिस्र के राष्ट्र में एकीकृत, कॉप्ट्स आज एक अलग धार्मिक समुदाय के रूप में बचे हैं,
जो आज की जनसंख्या के 10 से 20 प्रतिशत के बीच हैं।
वे खुद को मिस्र के चर्च की धर्मोपयोगी गीता पर गर्व करते थे । 
जिनके संस्थापक देशभक्तों की एक अटूट श्रृंखला में सबसे पहले थे.

जो भारतीय इतिहास में गुप्त अथवा गुप्ता के रूप में
देवमीढ़ के दो रानीयाँ मादिष्या तथा वैश्यवर्णा नाम की थी । 
मादिषा के शूरसेन और वैश्यवर्णा के पर्जन्य हुए ।
 शूरसेन के वसुदेव तथा पर्जन्य के नन्द हुए नन्द नौ भाई थे ।
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धरानन्द ,ध्रुवनन्द ,उपनन्द ,अभिनन्द सुनन्द ________________________________

 कर्मानन्द धर्मानन्द नन्द तथा वल्लभ ।
 हरिवंश पुराण में वसुदेव को भी गोप कहकर सम्बोधित किया है । 

भ्रातरं वैश्य कन्यां शूरवैमात्रेय भ्रातुर्जात्वात् |
 अतएव अग्रेभ्रातर: इति पुनरुक्ति :  गोपानां वैश्यकन्योद्भवत्वाद् वैश्वत्वं परं च ते यादवा एव " रक्षिता यादवा: सर्वे इन्द्रवृष्टिनिवारणात् इति स्कान्दे इति तोष○
अन्वयार्थ :~ यम् भ्रातरं÷ जिस भाई  को | वैश्य कन्यायां÷ चन्द्रगुप्त वणिक की पुत्री में।शूरवैमात्रेय ÷सूरसैन की विमाता ( सौतेली माँ) की सन्तान कुन्त्या:अपत्यम् ढक् ।  “कौन्तेय!विनतायाः अपत्यं ढक् "वैनतेय
विमातृ मातृसपत्न्याम् ढक् वैमात्रेय |
भ्रातुर्जात्वात्÷ सूर के भाई पर्जन्य  के द्वारा उत्पन्न होने से |

अतएव अग्रेभ्रातर: इति पुनरुक्ति : ÷ इसीलिए ज्येष्ठ भाई इस प्रकार दुबारा कहा गया |
गोपानां वैश्यकन्योद्भवत्वाद् वैश्वत्वं÷ गोपां का वैश्य कन्या से उत्पन्न हने के कारण वैश्य होना रूढ़वादी पुरोहितों के द्वारा मान्य है |

परं च ते यादवा एव "÷ और ये सभी गोप  परन्तु यादव ही हैं !
_____________________________
पर्जन्य की माता और देवमीढ की इस पत्नी का नाम "वरीयसी " था |
(भागवतपुराण  दशम स्कन्ध
" वसुदेव उपश्रुत्य भ्रातरं नन्दमागतम् " श्लोकांश की व्याख्या पर  श्रीधरीटीकी का भाष्य पृष्ठ संख्या 910)

हिन्दी अनुवाद :● 
शूर की विमाता (सौतेली माँ)वरीयसी के पुत्र पर्जन्य शूर के पिता की सन्तान होने से भाई ही हैं  जो गोपालन के कारण वैश्य वृत्ति वाहक  हुए अथवा वैश्य कन्या से उत्पन्न होने के कारण 
यद्यपि दौनों तर्क पूर्वदुराग्रह पूर्ण ही हैं !

क्यों कि माता में भी पितृ बीज की ही प्रथानता होती है जैसे खेत में बीज के आधार पर फसल का स्वरूप होता है --

दूसरा दुराग्रह भी बहुत दुर्बल है 
कि गाय पालने से ही यादव गोप के रूप में वैश्य हो गये 
"गावो विश्वस्य मातर: " महाभारत की यह सूक्ति वेदों का भावानुवाद है जिसका अर्थ है कि गाय विश्व की माता है ! 

और माता का पालन करना किस प्रकार तुच्छ या वैश्य वृत्ति का कारण हो सकता है ...

राजा लोग गो की रक्षा और पालन का पुनीत उत्तर दायित्व सदीयों से निर्वहन करते रहे हैं राजा दिलीप नन्दनी गाय की सेवा करते हैं परन्तु वे क्षत्रिय ही हैं 

परन्तु ये तर्क कोई दे कि दुग्ध विक्रय करने से यादव या गोप वैश्य हैं तो सभी किसान दुग्ध विक्रय के द्वारा अपनी आर्थिक आवश्यकताओं का निर्वहन करते हैं ...
अत: गोपाल या दुग्ध विक्रय प्रत्येक किसान करता है वे सभी वैश्य ही हुए जो अपने को क्षत्रिय या ठाकुर लिखते हैं वे भी दूध वेचते हैं वे सभी वैश्य है

_________________________________________ "इति अम्बुपतिना प्रोक्तो वरुणेन अहमच्युत ! गावां कारणत्वज्ञ सतेनांशेन जगतीं गत्वा गोपत्वं एष्यति !! 

अर्थात् हे विष्णु वरुण के द्वारा कश्यप को व्रज में गोप (आभीर) का जन्म धारण करने का शाप दिया गया .. क्योंकि उन्होंने वरुण की गायों का अपहरण किया था.. _________________________________________ हरिवंश पुराण--(ब्रह्मा की योजना नामक अध्याय) ख्वाजा कुतुब वेद नगर बरेली संस्करण पृष्ठ संख्या १३३---- और गोप का अर्थ आभीर होता है ।

आभीरवामनयनाहृतमानसाय दत्तं मनो यदुपते !
 तदिदं गृहाण” उद्भटः । 

यहाँ आभीर और यदुपति परस्पर पर्याय वाची हैं ।
और आपको हम यह भी बता दे कि भारत की प्राय: सभी शूद्र तथा पिछड़े तबके (वर्ग-) की जन-जातियाँ 
यदु की सन्ताने हैं । 

जिनमें जादव जो शिवाजी महाराज के वंशज महारों का एक कब़ीलाई विशेषण है ।

सन् १९२२ में इसी मराठी जादव( जाधव) शब्द से 
पञ्जाबी प्रभाव से जाटव शब्द का विकास हुआ।

यादवों की शाखा जाट ,गुर्जर ,(गौश्चर) गो चराने वाला होने से तथा लगभग ५७२ गोत्र यादवों के हैं ।
शिक्षा से ये लोग वञ्चित किए गये इस कारण इनमें संस्कार हीनता तथा आपराधिक प्रवृत्तियों का भी विकास हुआ । 
ब्राह्मण जानते हैं कि ज्ञान ही संसार की सबसे बड़ी शक्ति है ।
यदि ये ज्ञान सम्पन्न हो गये तो हमारी गुलामी कौन करेगा ? अतः ब्राह्मणों ने 
स्त्रीशूद्रौ नाधीयताम् वेद वाक्य के रूप में विधान पारित कर दिया ।
_________________________________________

यादवों का एक विशेषण है घोष ---

    आयो घोष बड़ो व्यापारी |
लादि खेप गुन-ज्ञान जोग की, ब्रज में आन उतारी ||
फाटक दैकर हाटक मांगत, भोरै निपट सुधारी 
धुर ही तें खोटो खायो है, लए  फिरत सिर भारी ||

इनके कहे कौन डहकावै ,ऐसी कौन अजानी
अपनों दूध छाँड़ि को पीवै, खार कूप को पानी ||

ऊधो जाहु सबार यहाँ ते, बेगि गहरु जनि लावौ |
मुंह मांग्यो पैहो सूरज प्रभु, साहुहि आनि दिखावौ ||

वह उद्धव घोष की शुष्क ज्ञान चर्चा को अपने लिए निष्प्रयोज्य बताते हुए उनकी व्यापारिक-सम योजना का विरोध करते हुए कहती हैं –
_________                                      
घोषम्, क्ली, (घोषति शब्दायते इति । 
घुष विशब्दने + अच् ) कांस्यम् । 
इति राजनिर्घण्टः ॥ घोषः, पुं, (घोषन्ति शब्दायन्ते गावो यस्मिन् ।
घुषिर् विशब्दने + “हलश्च ।” ३ । ३ । १२१ । इति घञ् ।) आभीरपल्ली । (यथा, रघुः । १ । ४५ । “हैयङ्गवीनमादाय घोषवृद्धानुपस्थितान् । 
नामधेयानि पृच्छन्तौ वन्यानां मार्गशाखिनाम् ॥
” घोषति शब्दायते इति । घुष + कर्त्तरि अच् ।) 
गोपालः । (घुष + भावे घञ् ) ध्वनिः ।
(यथा, मनुः । ७ । २२५ । 
“तत्र भुक्त्वा पुनः किञ्चित् तूर्य्यघोषैः प्रहर्षितः । संविशेत्तु यथाकालमुत्तिष्ठेच्च गतक्लमः ॥”) 
घोषकलता । कांस्यम् । मेघशब्दः । इति मेदिनी । । ११ ॥ मशकः । इति त्रिकाण्ड- शेषः ॥
(वर्णोच्चारणवाह्यप्रयत्नविशेषः । यदुक्तं शिक्षायाम् । २० । “संवृतं मात्रिकं ज्ञेयं विवृतं तु द्बिमात्रिकम् ।
 घोषा वा संवृताः सर्व्वे अघोषा विवृताः स्मृताः ॥”) कायस्थादीनां पद्धतिविशेषः । (यथा, कुलदीपि- कायाम् । “वसुवंशे च मुख्यौ द्वौ नाम्ना लक्षणपूषणौ ।
 घोषेषु च समाख्यातश्चतुर्भुजमहाकृती ॥”) अमरकोशः

व्रज में गोप अथवा आभीर घोष कहलाते हैं ।
संज्ञा स्त्री०[संघोष + कुमारी] गोपबालिका ।
गोपिका । उ०—प्रात समै हरि को जस गावत उठि घर घर सब घोषकुमारी ।—(भारतेंदु ग्रन्थावली भा० २, पृ० ६०६ )
___________________________________
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० आभीरी] १. अहीर । ग्वाल । गोप — आभीर जमन किरात खस स्वपचादि अति अघ रुप जे । (राम चरित मानस । ७ । १३० )
तुलसी दास ने अहीरों का वर्णन भी विरोधाभासी रूप में किया है ।
कभी अहीरों को निर्मल मन बताते हैं तो कभी अघ ( पाप ) रूप देखें -
"नोइ निवृत्ति पात्र बिस्वासा ।
निर्मल मन अहीर निज दासा- 
(राम चरित मानस, ७ ।११७ )

विशेष—ऐतिहासिकों के अनुसार भारत की एक वीर और प्रसिद्ध यादव जाति जो कुछ लोगों के मत से बाहर से आई थी ।
इस जातिवालों का विशेष ऐतिहसिक महत्व माना जाता है ।
कहा जाता है कि उनकी संस्कृति का प्रभाव भी भारतीय संस्कृति पर पड़ा ।
वे आगे चलकर ब्राह्मण धर्म में घुलमिल गए । 
इनके नाम पर आभीरी नाम की एक अपभ्रंश (प्राकृत) भाषा भी थी । य़ौ०—आभीरपल्ली= अहीरों का गाँव । ग्वालों की बस्ती ।
२. एक देश का नाम ।
३. एत छंद जिसमें ११ ।
मात्राएँ होती है और अंत में जगण होता है ।
जैसे—यहि बिधि श्री रघुनाथ ।
गहे भरत के हाथ । पूजत लोग अपार । गए राज दरबार । ४. एक राग जो भैरव राग का पुत्र कहा जाता है ।
संज्ञा पुं० [सं० आभीर] [स्त्री० अहीरिन] एक जाति जिसका काम गाय भैंस रखना और दूध बेचना है । ग्वाला । 
रसखान अहीरों को अपने -ग्रन्थों में कृष्ण के वंश के रूप में वर्णित करते हैं ।

या लकुटी अरु कामरिया पर, राज तिहूँ पुर को तजि डारौं।
आठहुँ सिद्धि, नवों निधि को सुख, नंद की धेनु चराय बिसारौं॥
रसखान कबौं इन आँखिन सों, ब्रज के बन बाग तड़ाग निहारौं।
कोटिक हू कलधौत के धाम, करील के कुंजन ऊपर वारौं॥ 
सेस गनेस महेस दिनेस, सुरेसहु जाहि निरंतर गावै।
जाहि अनादि अनंत अखण्ड, अछेद अभेद सुबेद बतावैं॥
नारद से सुक व्यास रहे, पचिहारे तऊ पुनि पार न पावैं।
ताहि अहीर की छोहरियाँ, छछिया भरि छाछ पै नाच नचावैं॥
_________________________________________
हरिवंश पुराण में यादवों को घोष कहा है ।
हरिवंश पुराण में यादवों अथवा गोपों के लिए घोष (घोषी) शब्द का बहुतायत से प्रयोग है ।
_________________________________________
ताश्च गाव: स घोषस्तु स च सकर्षणो युवा।
कृष्णेन विहितं वासं तमध्याससत निर्वृता ।३५।
__________________________________________
अर्थात् उस वृदावन में सभी गौऐं गोप (घोष) तथा संकर्षण आदि सब कृष्ण के साथ आनन्द पूर्वक निवास करने लगे ।३५।
हरिवंश पुराण श्रीकृष्ण का वृन्दावन गमन नामक ४१वाँ अध्याय।
__________________________________________
     
प्रेषित यह सन्देश का उद्देश्य एक भ्रान्ति का निवारण है 
आज अहीरों को कुछ रूढ़िवादीयों द्वारा फिर से परिभाषित करने की असफल कुचेष्टाऐं की जा रहीं अतः उसके लिए यह सन्देश आवश्यक है । 
कि इसे पढ़े.......
और अपना मिथ्या वितण्डावाद बन्द करें ..

प्रस्तुति करण - यादव योगेश कुमार "रोहि" 8077160219

'परन्तु स्मृति ग्रन्थों में गोप शूद्र बना दिए 
और उनकी व्युत्पत्ति भी वर्ण संकर के रूप में की गयी ।

व्याधांच्छाकुनिकान्” गोपान्।
 “मणिवन्द्यां तन्तुवायात् गोपजातेश्च सम्भवः” मनुस्मृति
अब स्मृति-ग्रन्थों में गोपों को शूद्र कह कर वर्णित किया गया है।
 यह भी देखें--- व्यास -स्मृति )तथा सम्वर्त -स्मृति में एक स्थान पर लिखा है 
------------------------------------------------------------- " क्षत्रियात् शूद्र कन्यानाम् समुत्पन्नस्तु य: सुत: ।
 स गोपाल इति ज्ञेयो भोज्यो विप्रैर्न संशय:

 ----------------------------------------------------------------- अर्थात् क्षत्रिय से शूद्र की कन्या में उत्पन्न होने वाला पुत्र गोपाल अथवा गोप होता है । 
और विप्रों के द्वारा उनके यहाँ भोजान्न होता है इसमे संशय नहीं .... पाराशर स्मृति में वर्णित है कि.. __________________________________________ वर्द्धकी नापितो गोप: आशाप: कुम्भकारक: ।
 वणिक् किरात: कायस्थ: मालाकार: कुटुम्बिन:
 एते चान्ये च बहव शूद्र:भिन्न स्व कर्मभि: चर्मकारो भटो भिल्लो रजक: पुष्करो नट: वरटो मेद। 
चाण्डालदास श्वपचकोलका: ।।११।। 

एतेऽन्त्यजा समाख्याता ये चान्ये च गवार्शना: 
एषां सम्भाषणाद् स्नानंदर्शनादर्क वीक्षणम् ।।१२।।

 ----------------------------------------------------------------- वर्द्धकी (बढ़ई) , नाई , गोप , आशाप , कुम्हार ,वणिक् ,किरात , कायस्थ, माली , कुटुम्बिन, ये सब अपने कर्मों से भिन्न बहुत से शूद्र हैं । 
चमार ,भट, भील ,धोवी, पुष्कर, नट, वरट, मेद , चाण्डाल ,दाश,श्वपच , तथा कोल (कोरिया)ये सब अन्त्यज कहे जाते हैं । 

और अन्य जो गोभक्षक हैं वे भी अन्त्यज होते हैं । इनके साथ सम्भाषण करने पर स्नान कर सूर्य दर्शन करना चाहिए तब शुद्धि होती है । ____________________________ अभोज्यान्ना:स्युरन्नादो यस्य य: स्यात्स तत्सम: नापितान्वयपित्रार्द्ध सीरणो दास गोपका:।।४९।।

 शूद्राणामप्योषान्तु भुक्त्वाऽन्न नैव दुष्यति । 
धर्मेणान्योन्य भोज्यान्ना द्विजास्तु विदितान्वया:।५०।।
 (व्यास-स्मृति) 

नाई वंश परम्परा व मित्र ,अर्धसीरी ,दास ,तथा गोप ,ये सब शूद्र हैं । 
तो भी इन शूद्रों के अन्न को खाकर दूषित नहीं होते ।। जिनके वंश का ज्ञान है ;ऐसे द्विज धर्म से परस्पर में भोजन के योग्य अन्न वाले होते हैं ।५०। ________________________________________
 (व्यास- स्मृति प्रथम अध्याय श्लोक ११-१२) 
-------------------------------------------------------------- 
स्मृतियों की रचना काशी में हुई , वर्ण-व्यवस्था का पुन: दृढ़ता से विधान पारित करने के लिए काशी के इन ब्राह्मणों ने रूढ़ि वादी पृथाओं के पुन: संचालन हेतु स्मृति -ग्रन्थों की रचना की जो पुष्यमित्र सुंग की परम्पराओं के अनुगामी थे ।
 देखें--- निम्न श्लोक दृष्टव्य है इस सन्दर्भ में.. _________________________________________ 

" वाराणस्यां सुखासीनं वेद व्यास तपोनिधिम् । पप्रच्छुमुर्नयोभ्येत्य धर्मान् वर्णव्यवस्थितान् ।।१।। __________________________________________ अर्थात् वाराणसी में सुख-पूर्वक बैठे हुए तप की खान वेद व्यास से ऋषियों ने वर्ण-व्यवस्था के धर्मों को पूछा । 
-------------------------------------------------------------- 
निश्चित रूप इन विरोधाभासी तथ्यों से ब्राह्मणों के विद्वत्व की पोल खुल गयी है । 
जिन्होंने योजना बद्ध विधि से समाज में ब्राह्मण वर्चस्व स्थापित करने के लिए सारे -ग्रन्थों पर व्यास की मौहर लगाकर अपना ही स्वार्थ सिद्ध किया है ।


यादव: शब्द का वैदिक रूप यदव:  जिसका अर्थ यदु की सन्तानों से  है 
यद्यपि यादव  भारत ही नही अपितु एशिया की प्राचीनत्तम मानव जाति है 
अत: वेदों में प्रयुक्त यदव: का अर्थ निरुक्त कारों ने मनुष्या: ही कर दिया कौत्सव्य निरुक्त में यह यदव: शब्द 78 वें श्लोक में है 

कौत्सव्य-निरुक्त निघण्टु: ⬇
नरा: | जन्तव: | विश: |क्षितय:| कृष्टय: | चर्षणय:| नहुष: |अरय: |अर्या |मर्या| मर्ता | व्राता :| पूर्वा : |
तुर्वशा:| द्रुह्यव: |आयवा : |यदव: अनव: पूरव: जगत: तस्थुष:|पञ्चजना: | विवस्वन्त:| मानवा:| मनुष्याणाम् || 
______________________
कौत्सव्य-निरुक्त - निघण्टु:( पृष्ठ संख्या 8 )प्रकाशन प्राच्यविद्या अनुसन्धान केन्द्र 89 कविता कालौनी नागलोई दिल्ली )
___________________________

तो यास्क निरुक्त में  द्वित्तीय अध्याय का तृत्तीय श्लोक 2/3 पर है ⬇

मनुष्या:| नरा: |  धवा: | जन्तव:| विश: |क्षितय:| कृष्टय: | चर्षणय:| नहुष: |हरय: |मर्या: |मर्त्या:| मर्त्ता: |  तुर्वशा:| व्राता :| पूर्वा : |
| द्रुह्यव: |आयवा : | यदव:| अनव: |पूरव: |जगत: |तस्थुष:|पञ्चजना: | विवस्वन्त:| पृतना: इति पञ्च विंशति मनुष्यनामानि ||3|| 
_________________________
भास्करीय वैदिक कोष में काण्ड एक वर्ग द्वित्तीय श्लोक छ: 
 1/2/6पर वर्णित है 
मनुष्या जन्तवो मर्त्या मर्ता मर्या नरो विश: ||4||
हरयो नहुषो व्राता : कृष्टय:  क्षितयो: धवो:|
विवस्वन्तश् चर्षणस्तुर्वशा द्रुह्यवो८नव:||5||

जगतस्तस्थुष: पञ्चजना: पूरव आयव: |
यदव: पृतनाश्चेति नराख्या : पञ्चविंशति ||6||
पृष्ठ सं 51 पर देखें 
___________
माधव अनुक्रणी में में भी नामानुक्रमणी  118 पर यदव: शब्द  है .

यदु: यदुषु और यदव: शब्द वैदिक सन्दर्भों में प्रयुक्त हैं



आ हि ष्मा याति नर्यश्चिकित्वान्हूयमानः सोतृभिरुप यज्ञम्। 
स्वश्वो यो अभीरुर्मन्यमानः सुष्वाणेभिर्मदति सं ह वीरैः ॥२॥


आ। हि। स्म। याति। नर्यः। चिकित्वान्। हूयमानः। सोतृऽभिः। उप। यज्ञम्। सुऽअश्वः। यः। अभीरुः। मन्यमानः। सुस्वानेभिः। मदति। सम्। ह। वीरैः ॥२॥


ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:29» ऋचा:2 | 

अन्वय:
हे मनुष्या ! योऽभीरुर्मन्यमानः स्वश्वश्चिकित्वान् हूयमानो नर्य्यो हि सोतृभिः सह यज्ञमुपायाति ष्मा स सुष्वाणेभिवीरैस्सह सम्मदति ह ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! (यः) जो (अभीरुः)  अभीर के घर    (चिकित्वान्)  कित-- निवासे -निवास करने करते हुए (मन्यमानः)माने जाते हुए
 (स्वश्वः) अपने घोड़े से साथ (हूयमानः) आह्वान किये जाते हुए।
  (नर्य्यः) मनुष्यों में श्रेष्ठ (हि)
 (यज्ञम्) यज्ञ के सोतृभिः) 
अनुष्ठान करने वालों के साथ  
(उप, आ, याति, स्म) 
 उनके समीप आते हैं ।

 (सुष्वाणेभिः) तीक्ष्ण वाणों वाले (वीरैः) वीरों के द्वारा (सम्, मदति, ह)
उनके कार- नामों से आप प्रसन्न होते हैं अथवा एसा कार्य आपको आनन्दित करता है ।२।।
________________________

इसमें अभीरु शब्द अहीर का वाचक है देखें

यदु॑ष् औच्छ॑: प्रथ॒मा वि॒भाना॒मज॑नयो॒ येन॑ पु॒ष्टस्य॑ पु॒ष्टम् । यत्ते॑ जामि॒त्वमव॑रं॒ पर॑स्या म॒हन्म॑ह॒त्या अ॑सुर॒त्वमेक॑म् ॥


पदान्वय :--
यदु:। औच्छः॑ । प्र॒थ॒मा । वि॒ऽभाना॑म् । अज॑नयः । येन॑ । पु॒ष्टस्य॑ । पु॒ष्टम् । यत् । ते॒ । जा॒मि॒ऽत्वम्( जा सन्ततय:+ मित्वम्  निश्चितम् ) अव॑रम् ( आवरम् ) लोकेषु भाषायाम् आभीरम् । वीरस्य शब्दस्य परवर्तौ रूपे आगतम्) पर॑स्याः । म॒हत् । म॒ह॒त्याः । अ॒सु॒र॒ऽत्वम् ..
 असुनाम प्राण: तद्वन्त असुर तस्य भावम् । एक॑म् उभौ  एकेव स्त:  ॥  10/55/4 

ऋग्वेद » मण्डल:10» सूक्त:55» मन्त्र:4 | अष्टक:8» अध्याय:1» वर्ग:16» मन्त्र:4 | मण्डल:10» अनुवाक:4» मन्त्र:


पदार्थान्वय भाषाः -यदु:  (औच्छः ( उत् +श: +घञ् ) कल्याण रूप अथवा तुम संसार में दैदीप्यमान होते  हो .. (प्रथमा-विभानाम्-अजनयः) प्रकाश रूपी यश को उत्पन्न हो 
 
(येन पुष्टस्य पुष्टम्)  जिसके पोषण करण से 
 (ते यत्-अवरं जा मित्वम्) वे जो अहीरों  इनकी निश्चित सन्तानें हैं उनका रक्त सम्बन्ध है  
 (  परस्याः महत्याः उनकी इस महानता से  -महत्-असुरत्वम्-एकम्) उनका एक शक्ति शाली या प्राणवन्त रूप  ही प्रकट होता है ..
 ॥४॥

उपर्युक्त ऋचा में यत् नपुसंक लिंग का  पुरुष वाचक सर्वनाम है 
जबकि उषा स्त्रीलिंग है 
उषस् पुल्लिंग है परन्तु यहाँ यद् नपुसंक लिग है 

अवर् अव:☆--त्रातरि माधवीय नमानुक्रमणिका 471 पर देखें 
 
अवर: अव् +अर  = रक्षक यौद्धा 
इसी का परवर्ती रूप अभीरु: का वर्णन मधवीय नामानुक्रमिणिका में है 550वें श्लोक में 
एकवीर - दमूना: -सत्यशुष्म - सदासह: सैन्योप्रतिधृष्ट शवा अमितौजा धृषन्मना: उराणो यावयद्द्वेषो  - प्रमर: अभीरव: आदि पर्याय वाची वीरों के हैं 
विशेष :- असुर का अर्थ कालान्तरण में ईरानी और देव संस्कृति के अनुयायीयों की इन दोनों शाखाओं में किसी अज्ञात विरोध के कारण से हुई ...

फलत: परवर्ती वैदिक देव संस्कृति के अनुयायीयों  ने  'न सुर: के रूप में (अ-सुर- असुर:' यह नवीन वर्ण विन्यास परक  व्युत्पत्ति मानकर असुर का प्रयोग सुरों के वरोधी ( दैत्यों ) के लिए करना आरम्भ किया ।
इसका वर्ण-विन्यास (अ-सुर) रूप में किया ।
जबकि (असु-र) यह वर्ण विन्यास 
शक्ति शाली और प्राणवन्त  अर्थ का द्योतक है 
जिसका प्रयोग ऋग्वेद के प्रारम्भिक मण्डलों में हुआ है ।; 

असुः प्राणः तेन तद्वन्तो भवन्ति रो मत्वर्थ;  इति  असुर: तद्भाव असुरत्वम् अर्थात् प्राण अथवा शक्ति में सम्पन्न होने से ही ये असुर हैं  और उसका भाव असुरता इन्हे पूर्व देवा भी कहा गया है ..
यहाँ यह शब्द विभानम् का संकेतक है 

गो-पालन यदु वंश की परम्परागत वृत्ति ( कार्य ) होने से ही भारतीय इतिहास में यादवों को गोप ( गो- पालन करने वाला ) कहा गया है ।
वैदिक काल में ही यदु को दास सम्बोधन के द्वारा असुर संस्कृति से सम्बद्ध मानकर ब्राह्मणों की अवैध वर्ण-व्यवस्था ने शूद्र श्रेणि में परिगणित किया गया था ।
यदु की गोप वृत्ति को प्रमाणित करने के लिए ऋग्वेद की ये ऋचा सम्यक् रूप से प्रमाण है ।

" उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।(ऋ०10/62/10)
अर्थात् यदु और तुर्वसु नामक दौनों दास गायों से घिरे हुए हैं ; गो-पालन शक्ति के द्वारा सौभाग्य शाली हैं हम उनका वर्णन करते हैं । (ऋ०10/62/10/) 
विशेष:-  व्याकरणीय विश्लेषण - उपर्युक्त ऋचा में दासा शब्द प्रथमा विभक्ति के अन्य पुरुष का द्विवचन रूप है ।
क्योंकि वैदिक भाषा ( छान्दस् ) में प्राप्त दासा द्विवचन का रूप पाणिनीय द्वारा संस्कारित भाषा लौकिक संस्कृत में दासौ रूप में है ।
परिविषे:-परित: चारौ तरफ से व्याप्त ( घिरे हुए)
स्मद्दिष्टी स्मत् + दिष्टी सौभाग्य शाली अथवा अच्छे समय वाले द्विवचन रूप ।
गोपर् +ईनसा सन्धि संक्रमण रूप गोपरीणसा :- गो पालन की शक्ति के द्वारा ।
गोप: ईनसा का सन्धि संक्रमण रूप हुआ गोपरीणसा
जिसका अर्थ है शक्ति को द्वारा गायों का पालन करने वाला । अथवा गो परिणसा गायों  से घिरा हुआ

यदु: तुर्वसु: च :- यदु और तुर्वसु दौनो द्वन्द्व सामासिक रूप ।

मामहे :- मह् धातु का उत्तम पुरुष आत्मने पदीय  बहुवचन रूप  अर्थात् हम सब वर्णन करते हैं ।

वेदिक निघण्टु के माधवीय नामानुक्रमणिका में मामहे दाने अर्थ मे है 171 पर 
अब हम इस तथ्य की विस्तृत व्याख्या करते हैं ।

देव संस्कृति के विरोधी दास अथवा असुरों की प्रशंसा असंगत बात है ;

यद्यपि वैदिक निघण्टु में दास त्रातरि ( त्राता अथवा रक्षक का अर्थक है  और दासति क्रिया दाने ( दान के अर्थ में ) है एक स्थान पर वहीं दासति हिसायाम् तथा दासा शत्रौ असुरे वा रूप में है 
माधवीय नामनुक्रमणी में 472 पर देखें 

ईरानी भाषा में यह शब्द (दाहे) होगा है ...
ऋग्वेद के प्राय: ऋचाओं में यदु और तुर्वसु का वर्णन नकारात्मक रूप में ही हुआ है !
दास शब्द ईरानी भाषाओं में दाहे शब्द के रूप में विकसित है । ---जो  एक ईरानी असुर संस्कृति से सम्बद्ध जन-जाति का वाचक है ।
 वैदिक निघण्टु में असु: बले प्रज्ञायाम् च देखे माधवीय नामानुक्रमणिका 234 पर यास्क निरुक्त में 3/9पर तथा भास्करीय वैदिक कोश में 1/3/13पर देखें असु: शब्द 
असुर शब्द सोम के लिए भी है माधवीय तथा असुर वरुण का वाचक मा●नामानुक्रमिणिका 746 पर  नमानुक्रमणिका 62पर

असुर: दात्रारिव्याप्त्याम् मा•नामानुक्रमिका 422पर 
असुरत्वम् बले प्रज्ञायाम् च  माधवीय नामानुक्रमणिका 329 तथा 517 पर देखें 

अही गवि गाय के अर्थ  में
 ---जो वर्तमान में दाहिस्तान Dagestan को आबाद करने वाले हैं ।
दाहिस्तान Dagestan वर्तमान रूस तथा तुर्कमेनिस्तान की भौगोलिक सीमाओं में है ।
दास अथवा दाहे जन-जाति सेमेटिक शाखा की असीरियन (असुर) जन जातियों से निकली हुईं हैं ।
यहूदी और असीरियन दौनों सेमेटिक शाखा से सम्बद्ध हैं ।
दास जन-जाति के विषय में ऐतिहासिक विवरण निम्न है 

आभीर शब्द का मूल वीर मूलक शब्द आवीर है जो जल वायु और भिन्न मनस्स्तर तथा परिवर्तन स्वरूप  आभीर और अभीर भी हुआ यद्यपि आभीर अभीर का समूह वाची रूप है ..
परन्तु पश्चिमी एशिया में अवर : अहीरों की एक पृथक शाखा है ...
शब्दों का परिवर्तन सदीयों से हुआ है यह एक सतत विकास वाद की क्रिया है ...
अत: यहाँ यदु: असुर और अवर: शब्द विचारणीय हैं 
यद्यपि सायण आदि ने इस ऋचा की व्याख्या उषा परक की है 

-(उषः)  उषः, [स्] क्ली, (ओषति नाशयत्यन्धकारम् । उष + “उषः किदिति” ४ । २३३ । उणादिसूत्रेण असिः ।) प्रत्यूषः । इत्यमरः ।

उषस् स्त्री का वाचक 
उषा देवी, जै.ब्रा. I.21०।

(यत्) जब (औच्छः) तू जगत् में प्रकाशित होती है (प्रथमा-विभानाम्-अजनयः)
प्रथम विभा अथवा प्रकाश की जनने वाली होी है ..
  (येन पुष्टस्य पुष्टम्) जिससे   जगत् का पोषण  गोता है ..
  (ते यत्-अवरं जामित्वम्) तेरा जो इधर  मातृत्व रूप है (महत्याः परस्याः-महत्-असुरत्वम्-एकम्) तुझ महत्ता से    प्राणों का एकत्व स्थापित होता  है ॥४॥


नीलकण्ठ चतुर्धर (सत्रहवीं सदी ईस्वी) संस्कृत साहित्य के सुप्रसिद्ध टीकाकार। सम्पूर्ण महाभारत की टीका के लिए विशेष प्रख्यात।

 इनके नाम के साथ चतुर्धर (चौधरी) जुड़ा हुआ है। 
'सप्तशती' पर लिखी अपनी 'सुबोधिनी' नामक टीका में इन्होंने स्वयं को चतुर्धर मिश्र कहा है।[ अल्पकाल के लिए इन्होंने काशी में भी निवास किया था। 

कुछ विद्वानों का मानना है कि ये बाद में काशी में ही बस गये थे। अपनी सर्वाधिक प्रसिद्ध कृति महाभारत की 'भारत-भावदीप' नामक टीका की रचना इन्होंने काशी में ही की थी।

 इनके पुत्र का नाम भी गोविन्द ही था जिनके पुत्र (अर्थात् नीलकंठ के पौत्र) शिव ने पैठण में रहते हुए 'धर्मतत्त्व-प्रकाश' ग्रंथ का निर्माण 1746 ईस्वी में किया था।

 नीलकंठ की शिवताण्डव-टीका का रचनाकाल 1680 ई० तथा गणेशगीता की टीका का रचनाकाल 1693 ई० है।

 भारत-भावदीप के नाना हस्तलेखों का समय 1687 ई० से लेकर 1695 ई० है।

 अतः आचार्य बलदेव उपाध्याय ने इनका समय 1650 ई० से 1700 ई० तक के आस-पास माना है।

इनके द्वारा रचित 

भारत-भावदीप टीका सहित संपूर्ण महाभारत के (नाग प्रकाशन, दिल्ली से) प्रकाशित संस्करण से 

नीलकंठ चतुर्धर की अमर कीर्ति का आधार उनके द्वारा रचित महाभारत की 'भारत-भावदीप' नामक प्रख्यात टीका है। 

यह टीका महाभारत के संपूर्ण 18 पर्वों पर उपलब्ध है। 

प्राचीन समय से इनके समय तक लिखी गयी महाभारत की समस्त उपलब्ध टीकाओं में इनकी टीका सर्वाधिक उपयोगी मानी गयी है।

 वस्तुतः महाभारत के विवेचन करने वाले महापुरुषों में आचार्य नीलकंठ का स्थान प्रमुखतम है।

 भारत-भावदीप के प्रस्तुत होने के बाद महाभारत की अन्य टीकाएँ प्रायः लुप्त ही हो गयी और अब उनका उल्लेख संस्कृत साहित्य के इतिहास ग्रंथों तक सिमट कर रह गया है।

महाभारत पर लिखी गयी अपनी इस प्रसिद्ध टीका के आरंभ में ही इन्होंने यह व्यक्त किया है कि इस टीका को लिखने से पहले इन्होंने देश के विभिन्न भागों से मूल ग्रंथ महाभारत की अनेक पांडुलिपियों को एकत्र किया था और उन्हें देखते हुए मूल के सर्वोपयुक्त पाठ का निर्धारण किया था, साथ ही इस संदर्भ में प्राचीन व्याख्याकारों की व्याख्याओं को भी ध्यान में रखा था:-

बहून् समाहृत्य विभिन्नदेश्यान् कोशान् विनिश्चित्य च पाठमग्र्यम्।

प्राचां गुरूणामनुसृत्य वाचम् आरभ्यते भारतभावदीपः।।

इस सन्दर्भ में स्थान-स्थान पर इन्होंने पाठ-भेदों की ओर तथा अनेक पांडुलिपियों में प्राप्त अधिक पाठ की ओर इंगित किया है, और ऐसा लगभग 125 स्थानों में हुआ है। 

आज भी विभिन्न पांडुलिपियों का निरीक्षण करने पर पाठ-भेदों के संबंध में प्रायः वही सामग्री प्राप्त होती है, जिसका निदर्शन इन्होंने अपनी टीका में किया है। इन पाठ-भेदों के संबंध में अपने से पूर्व विद्यमान टीकाकारों की टीकाओं के उद्धरण भी इन्होंने प्रमाण स्वरूप उद्धृत किया है और इनका यह वैशिष्ट्य महाभारत के प्रचलित मूल ग्रंथ के संबंध में सूचना प्रस्तुत करने की दिशा में अत्यंत महत्वपूर्ण है।
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मन्त्ररामायण एवं मन्त्रभागवत
इन्होंने अपनी अद्भुत व्याख्या-शक्ति का परिचय देते हुए ऋग्वेद के मंत्रों में रामकथा तथा श्रीकृष्ण-कथा के संदर्भ ढूँढ़ निकाले हैं।

 इनकी पुस्तक 'मन्त्र-रामायण' एवं 'मन्त्र-भागवत' ऋग्वेद के मंत्रों का व्याख्या सहित संकलन है।

 मन्त्र-रामायण में ऋग्वेद से क्रमबद्ध रूप में चुने गये 157 मंत्रों की रामकथापरक व्याख्या करके ऋग्वेद में रामकथा का मूल प्रतिपादित किया गया है।


'मन्त्र भागवत' भी बिल्कुल इसी तरह श्रीकृष्ण से संबद्ध मंत्रों का सव्याख्या संग्रह है। 

इस ग्रंथ में 107 वैदिक मंत्रों की व्याख्या करते हुए व्याख्याकार ने वेद में भागवत धर्म को सिद्ध करने का प्रयत्न किया है।[8]
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इसके लिए देखें ⬇
 मन्त्रभागवतम्, सं०- सुश्री श्रद्धा कुमारी चौहान, राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर, संस्करण-1969, पृष्ठ-1
 (भूमिका)।

 सभी मंत्रों को क्रमशः गोकुल काण्ड, वृंदावन काण्ड, अक्रूर काण्ड और मथुरा काण्ड नामक चार वर्गों में विभाजित किया गया है। 

उन्होंने न केवल कृष्ण शब्द को ऋग्वेद में ढूँढ़ निकाला है अपितु भागवत के कृष्ण-संबंधी गोकुल, वृंदावन तथा मथुरा की कल्पना को भी वैदिक आधार दे दिया है।
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 इनकी प्रमुख कृतियाँ
●भारत-भावदीप (नीलकंठी) - महाभारत की टीका
मन्त्रकाशी खण्ड टीका
●मन्त्र-रामायण
●मन्त्र-भागवत
●वेदान्तशतक
●शिवताण्डव-व्याख्या
●षट्तन्त्रीसार
●गणेशगीता-टीका
●हरिवंश-टीका
●सौरपौराणिक मत समर्थन
●विधुराधानविचार
●आचार प्रदीप
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प्रस्तुति करण यादव योगेश कुमार "रोहि"


3 टिप्‍पणियां:

  1. Gop ek caste ka naam hai.Jo ki punjab ke aas paas ke region me kheti or pashuplan krne waale logo ko kaha jaata tha.
    Jbki Abheer ek foreign tribe ka naam hai jo ki Desh me baad me aayi thi. Abheer koi caste nhi blki ek kabile ka naam hai.jo ki bharat ki alag alag castes me mil gyi Brahmin,maratha,jat, chamar,sonar etc.
    Abheer kheti/dairy farming krte hai iska mtlab ye nhi ki duniya ke saare Gop Aheer ho jaenge.Kuchh common sense ka istemal kiya kro.

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  2. अत्रि गोत्र से संबंधित प्रत्येक व्यक्ति मूलतः अभीर/ अहीर ही है। अन्य क्रिया वृत अपनाने के वे अलग अलग जातियों में हो गए हैं। अहीर जनजाति के लोग उन सभी जातियों में पाए जाते हैं जिन जातियों में अत्रि गोत्र के लोग पाए जाते हैं। विदित हो अहीर किसी भी जाति में हो उनका ऋषि गोत्र हमेशा अत्रि ही रहता है।
    अत्रि गोत्र ( अहीर जनजाति ) से सम्बंधित मुख्य जनजातियां :
    अत्रि के पुत्र : दत्तात्रेय, सोम ( साम ) , दुर्वासा
    सोम ( साम ) से संबंधित : यादव ( यदुवंशी ), यवन, म्लेक्ष, पौरव ( पुरुवंशी ) , नाग ( नागवंशी ) , आनव आदि है।


    °यदुवंशी अहीर वर्तमान में यादव ( स्वयं योगेश्वर श्रीकृष्ण , गोपाल राजवंश, गुप्त वंश आदि ) ( वर्तमान में यादव , जाट, गड़रिया आदि )
    ° पुरुवंशी अहीर ( अर्जुन, दुर्योधन आदि )
    ° यवन अहीर ( कालयवन , सिकन्दर आदि | यूनानी लोग )
    • मलेक्ष् अहीर ( मामा शकुनी, घननंद | वर्तमान जाट , नाई, गडरिया आदि )
    ° नागवंशी अहीर ( राजा अहिक्षत्र, तक्षक, आदि | नागवंशी राजपूत, दक्षिण भारत में पामू )
    • गर्ग ब्राह्मण अहीर ( दत्तात्रेय से संबंधित हैं )

    राजपूत, जाट और गड़ेरिया अहीर मलेक्षों और यादव दोनों से निकले हैं। और भी अन्य जातियों से निकले हो सकते हैं। जैसे पेरियार मलैक्ष गड़रिया था। और अहिल्याबाई होलकर यदुवंशी गड़रिया थीं।
    “Garg distinguishes a Brahmin community who use the Abhira name and are found in the present-day states of Maharashtra and Gujarat. That usage, he says, is because that division of Brahmins were priests to the ancient Abhira tribe.” from wikipedia तो क्या ब्राह्मण यादव जाति से संबद्ध हैं? हो भी सकते हैं और नहीं भी | क्यों कि अत्रि गोत्र से संबंधित प्रत्येक व्यक्ति अहीर / अभीर ही है। कौरव, पांडव, कृष्ण आदि सभी अहीर थे किन्तु कृष्ण अहीर के साथ यादव भी थे क्योंकी वे यदु के वंशज थे। परन्तु कौरव पांडव अहीर होने के साथ पौरव भी थे क्योंकि वे पुरू के वंशज थे।

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  3. किसने इसका हिन्दी अनुवाद किया! वेदो पुराणों मे कही भी अहीर शूद्र नही है, ना ही किसी ग्रंथ मे उनका नाम है?
    ग्रंथो मे अहीर लिखा है! संस्कृत मे स्पष्ट अभीर
    लिखा है " और अभीर को धोष कहते है, यह भी
    लिखा, है! क्या इतिहास की सच्चाई है !

    पुरे भारत मे ब्रिटिश गजेंडियर मे पासी जाति को
    ग़ुज्जर, गुजर, लिखा है! कहते है, संस्कृत मे ग़ुज्जर, गुजर को गुर्जर कहते है ! Bdrinarayan tivari, viliyam kruk pasi jati bare me gayo ki rachchha ke liy
    Likhate,

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