किसी 'ने कहा और हमने सुना
राजनैतिक वर्चस्व की बात हो या सामाजिक वर्चस्व की ब्राह्मण समुदाय , राजपूत समुदाय अथवा वैश्य समुदाय सभी एक साथ खड़े होते हैं ।
लेकिन स्थूल रूप से कोई समझ नहीं पाता ऐसा क्यों?
इस सहभागिता के मूल में परम्परागत रूप वही पुरानी मान्यताऐं सीमेण्ट का काम करती हैं ।
कि वर्ण व्यवस्था के अन्तर्गत ये द्विज हैं ।
ये देव संस्कृतियों के संरक्षक हैं ।
यद्यपि इनमें अनेक अवान्तर उपजाति भेद हैं ।
जो अनेक टाइटलों से स्वयं को सम्बोधित करते हैं ।
अब कुछ अन्य जनजातियों को देखें जैसे अहीर गूजर जाट या निम्न सामाजिक हासिये पर पड़े 'लोग'
जो सदीयों से अन्य समुदायों के उपेक्षा पात्र रहे और
जब संगठित होते हैं तो उन्हें जातिवाद का लेबल दिया जाता है. कारण जितने यदुवंशी हैं वे अहीर टायटल पर केंद्रित होते हैं सभी दबे कुचले 'लोग' दलित टायटल से
और और गूजर जाट, पटेल कुर्मी मीना आदि जो एक स्तर की सामाजिक बजूद रखते हैं उनका अलग संगठन होता है अथवा वे ब्राह्मण , राजपूत या वणिक संघ के बैनर तले आ जाते हैं ।
ये हालातें हैं भारतीय समाज की वर्तमान में .
राजनीति में जातिवाद चोली -दामन या कहे सूट -सलवार की तरह समायोजित है ...
इसी लिए मेरी यह मान्यता है कि राजनीति के पहिए की धुरी है जातिवाद .....
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