वर्णाश्रमाचारयुता विमूढाः कर्मानुसारेण फलं लभन्ते॥
वर्णादिधर्मं हि परित्यजन्तः स्वानन्दतृप्ताः पुरुषा भवन्ति॥१७॥
(मैत्रेय्युपनिषत्)
सरलार्थ:-वर्ण एवं आश्रम धर्म का पालन करने वाले अज्ञानी जन ही अपने कर्मों का फल भोगते हैं; लेकिन वर्ण आदि के धर्मों को त्यागकर आत्मा में ही स्थिर रहने वाले मनुष्य अन्तः के आनन्द से ही पूर्ण सन्तुष्ट रहते हैं।।
【सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज】
प्रश्न किया श्रोता ने " यत्पुरुषं व्यदधु: कतिधा व्यकल्पयन् ? मुखं किमस्य कौ बाहू कावूरू पादा उच्येते ?
(ऋग्वेद▪■10/90/11 )जिस पुरुष का विधान क्या गया ? उसका कितने प्रकार कल्पना की गयी अर्थात् प्रजापति द्वारा जिस समय पुरुष विभक्त हुए तो उनको कितने भागों में विभक्त किया गया, इनके मुख ,बाहू उरु और चरण क्या कहे गये ? तो ऋषि ने उत्तरी दिया इस प्रकार 👇
ब्राह्मणो८स्य मुखमासीद्बाहू राजन्य:कृत: उरू तदस्य यदवैश्य: पद्भ्यां शूद्रो८जायत|।
ऋग्वेद ●《10/90/11_12》
उत्तर–इस पुरुष के मुख से ब्राह्मण जाति भुजा से क्षत्रिय जाति, वैश्य जाति ऊरु से और शूद्र जाति दौनों पैरों से उत्पन्न हुई ।
पुरुष सूक्त में जगत् की उत्पत्ति का प्रकरण है ।
इस लिए यहाँ कल्पना शब्द से उत्पत्ति का ही अर्थ ग्रहण किया जाऐगा नकि अलंकार की कल्पना का अर्थ । क्योंकि अन्यत्र भी अकल्पयत् क्रियापद रचना करने के अर्थ में है ।
"सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत्" ऋगवेद- १०/ १९१/३ अर्थात् सूर्य चन्द्र विधाता ने पूर्व कल्पना में बनाए थे वैसे ही इस कल्पना में बनाए हैं । सृष्टि उत्पत्ति के विषय में कृष्ण यजुर्वेद तैत्तिरीय संहिता ७/१/४/९ में वर्णन है कि
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प्रजापतिरकामयत प्रजायेयेति स मुखतस्त्रिवृतं निरमिमीत ।
तमग्निर्देवान्लवसृजत गायत्रीछन्दो रथन्तरं साम ।
ब्राह्मणोमनुष्याणाम् अज: पशुनां तस्मात्ते मुख्या मुखतो। ह्यसृज्यन्तोरसो बाहूभ्यां पञ्चदशं निरमिमीत ।।
तमिन्द्रो देवतान्वसृज्यतत्रष्टुपछन्दो बृहत् साम राजन्यो मनुष्याणाम् अवि: पशुनां तस्मात्ते वीर्यावन्तो वीर्याध्यसृज्यन्त ।।
मध्यत: सप्तदशं निरमिमीत तं विश्वे देवा देवता अनवसृज्यन्त जगती छन्दो वैरूपं साम वैश्यो मनुष्याणां गाव: पशुनां तस्मात्त आद्या अन्नधानाध्यसृज्यन्त तस्माद्भूयां सोन्योभूयिष्ठा हि देवता।
अन्वसृज्यन्तपत्त एकविंशं निरमिमीत तमनुष्टुप्छन्द: अन्वसृज्यत वैराजे साम शूद्रो मनुष्याणां अश्व: पशुनां तस्मात्तौ भूतसंक्रमिणावश्वश्च शूद्रश्च तसमाच्छूद्रो । यज्ञेनावक्ऌप्तो नहि देवता अन्वसृज्यत तस्मात् पादावुपजीवत: पत्तो ह्यसृज्यताम्।।
(तैत्तिरीयसंहिता--७/१/४/९/)।👇 ____________________________________________ अर्थात् प्रजापति ने इच्छा की मैं प्रकट होऊँ तो उन्होंने मुख से त्रिवृत निर्माण किया । इसके पीछे अग्नि देवता , गायत्री छन्द ,रथन्तर ,मनुष्यों में ब्राह्मण पशुओं में अज ( बकरा) मुख से उत्पन्न होने से मुख्य हैं ।
( बकरा ब्राह्मणों का सजातीय है ) ब्राह्मण को बकरा -बकरी पालनी चाहिए ।
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हृदय और दौंनो भुजाओं से पंचदश स्तोम निर्माण किये उसके पीछे इन्द्र देवता, त्रिष्टुप छन्द बृहत्साम, मनुष्यों में क्षत्रिय और पशुओं में मेष उत्पन्न हुआ।
(भेढ़ क्षत्रियों की सजातीय है इन्हें भेढ़ पालनी चाहिए ।) वीर्यसे उत्पन्न होने से ये वीर्यवान हुए।
। इसी लिए मेढ्र कहा जाता है मेढ़े को ।
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मध्य से सप्तदश स्तोम निर्माण किये।उसके पीछे विश्वदेवा देवता जगती छन्द ,वैरूप साम मनुष्यों में वैश्य पशुओं में गौ उत्पन्न हुए अन्नाधार से उत्पन्न होने से वे अन्नवान हुए।
इनकी संख्या बहुत है ।
कारण कि बहुत से देवता पीछे उत्पन्न हुए।
उनके पद से इक्कीस स्तोम निर्मित हुए ।
पीछे अनुष्टुप छन्द वैराज साम मनुष्यों में शूद्र और घोड़ा उत्पन्न हुए ।
यह अश्व और शूद्र ही भूत संक्रमी है विशेषत: शूद्र यज्ञ में अनुपयुक्त है ।
क्यों कि इक्कीस स्तोम के पीछे कोई देवता उत्पन्न नहीं हुआ।प्रजापति के पाद(चरण) से उत्पन्न होने के कारण अश्व और शूद्र पत्त अर्थात् पाद द्वारा जीवन रक्षा करने वाले हुए।
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