मंगलवार, 21 जुलाई 2020

यादवों का प्राचीन इतिहास...


प्राय: कुछ रूढ़िवादी ब्राह्मण अथवा भ्रान्त -मति राजपूत समुदाय के लोग यादवों को आभीरों (गोपों) से पृथक बताने के लिए महाभारत के मूसल पर्व अष्टम् अध्याय से यह श्लोक उद्धृत करते हैं । ____________________________________ 
ततस्ते पापकर्माणो लोभोपहतचेतस: । 
आभीरा मन्त्रामासु: समेत्याशुभ दर्शना: ।। ४७। 

अर्थात् वे पापकर्म करने वाले तथा लोभ से पतित चित्त वाले ! अशुभ -दर्शन अहीरों ने एकत्रित होकर वृष्णि वंशी यादवों को लूटने की सलाह की ।४७।

 अब इसी बात को बारहवीं शताब्दी में रचित ग्रन्थ श्री-मद्भगवद् पुराण के प्रथम अध्याय में आभीर शब्द के स्थान पर गोप शब्द सम्बोधन द्वारा कहा गया है इसे भी देखें--- _______________________________________

 "सोऽहं नृपेन्द्र रहित: पुरुषोत्तमेन सख्याप्रियेण सुहृदा हृदयेन शून्य:। अध्वन्युरूक्रम परिग्रहम् अंग रक्षन् ।
 गौपै: सद्भिरबलेव विनिर्जितोेऽस्मि ।२०। _______________________________________

 हे राजन् ! जो मेरे सखा अथवा -प्रिय मित्र ---नहीं ,नहीं मेरे हृदय ही थे ; उन्हीं पुरुषोत्तम कृष्ण से मैं रहित हो गया हूँ ।
 कृष्ण की पत्नीयाें को द्वारिका से अपने साथ इन्द्र-प्रस्थ लेकर आर रहा था । 
परन्तु मार्ग में दुष्ट गोपों ने मुझे एक अबला के समान हरा दिया । और मैं अर्जुन उनकी गोपिकाओं तथा वृष्णि वंशीयों की पत्नीयाें की रक्षा नहीं कर सका! ( श्रीमद्भगवद् पुराण अध्याय एक श्लोक संख्या २०(पृष्ठ संख्या --१०६ गीता प्रेस गोरखपुर देखें--- ______________________________________________ महाभारत के मूसल पर्व में गोप के स्थान पर आभीर शब्द का प्रयोग सिद्ध करता है कि गोप ही आभीर हैं।

 आप को ज्ञात होना चाहिए कि नारायणी सेना के स्वरूप आभीर या गोप यौद्धा ही थे । 
और जिसका प्रत्येक गोप यौद्धा बल में कृष्ण के ही समान था। इसी बात की पुष्टि महाभारत उद्योग पर्व में वर्णित निम्न श्लोकों से होती है ।👇

 मत्सहननं तुल्यानां,गोपानामर्बुद महत् ।
 नारायण इति ख्याता सर्वे संग्राम यौधिन: ।107। 

सेना के यौद्धा रूप में मेरे समान अरबों की संख्या में महान संग्राम में युद्ध करने वाले गोप यौद्धा ही नारायणी सेना से अभिहित हैं ।
 नारायणेय: मित्रघ्नं कामाज्जातभजं नृषु । 
सर्व क्षत्रियस्य पुरतो देवदानव योरपि 108।। 

जिनके सम्मुख देव ,दानव या कोई क्षत्रिय नहीं ठहरता है । (महाभारत के उद्योग पर्व अध्याय 7/18-22,में) 

जब अर्जुन और दुर्योधन दौनों विपक्षी यौद्धा युद्ध काल में कृष्ण के पास युद्ध में सहायता माँगने के लिए गये तो श्रीकृष्ण ने प्रस्तावित किया कि आप दौनों ही मेरे लिए समतुल्य(समान) हो ।

 आपकी युद्धीय स्तर पर सहायता के लिए एक ओर मेरी गोपों की नारायणी सेना होगी ! 
और दूसरी और ---मैं स्वयं नि:शस्त्र --- अब आपको जो अच्छा लगे वह मुझसे माँंगलो !
 तब स्थूल बुद्धि दुर्योधन ने कृष्ण की नारायणी गोप सेना को माँगा ! और अर्जुन ने स्वयं कृष्ण को !

 इसी सन्दर्भ में कृष्ण ने नारायणी सेना के गोप यौद्धाओं की जानकारी दुर्योधन को दी थी उसी के पुष्टि करण में ये उपर्युक्त श्लोक उद्धृत हैं । 
बात ये भी आती है कि गोपों या अहीरों ने अर्जुन को क्यों लूटा या परास्त क्यों किया था ?

 दर असल इसके कई समवेत कारण थे । 
प्रथम अर्जुन द्वारा अपनी ममेरी बहिन सुभद्रा का कामुकता से प्रेरित होकर अपहरण करना।

 जो नि: सन्देह महापातक था ।🎼
सुभद्रा अपहरण का प्रसंग ग्रन्थों में कुछ भिन्न भिन्न रूपों में है ।

एक बार वृष्णि संघ, भोज और अंधक वंश के लोगों ने रैवतक पर्वत पर बहुत बड़ा उत्सव मनाया। 

इस अवसर पर हज़ारों रत्नों और अपार संपत्ति का दान किया गया। बालक, वृद्ध और स्त्रियां सज-धजकर घूम रही थीं।

 अक्रूर, सारण, गद, वभ्रु, विदूरथ, निशठ, चारुदेष्ण, पृथु, विपृथु, सत्यक, सात्यकि, हार्दिक्य, उद्धव, बलराम तथा अन्य प्रमुख यदुवंशी अपनी-अपनी पत्नियों के साथ उत्सव की शोभा बढ़ा रहे थे। 
गंधर्व और बंदीजन उनका विरद बखान रहे थे। 

गाजे-बाजे, नाच तमाशे की भीड़ सब ओर लगी हुई थी। 
इस उत्सव में कृष्ण और अर्जुन भी बड़े प्रेम से साथ-साथ घूम रहे थे। वहीं कृष्ण की बहन सुभद्रा भी थीं।

 उनकी रूप राशि से मोहित होकर अर्जुन एकटक उनकी ओर देखने लगे। 
कामुकता ने उसके ज्ञान व नैतिकता को नष्ट कर दिया 


एक दिन सुभद्रा रैवतक पर्वत पर देवपूजा करने गईं। 
पूजा के बाद पर्वत की प्रदक्षिणा की।

 ब्राह्मणों ने मंगल वाचन किया। जब सुभद्रा की सवारी द्वारका के लिए रवाना हुई, तब अवसर पाकर अर्जुन ने बलपूर्वक उसे उठाकर अपने रथ में बिठा लिया और अपने नगर की ओर चल दिए। 

सैनिक सुभद्राहरण का यह दृश्य देखकर चिल्लाते हुए द्वारका की सुधर्मा सभा में गए और वहाँ सब हाल कहा।

 सुनते ही सभापाल ने युद्ध का डंका बजाने का आदेश दे दिया। वह आवाज़ सुनकर भोज, अंधक और वृष्णि वंशों के योद्धा अपने आवश्यक कार्यों को छोड़कर वहाँ इकट्ठे होने लगे।

 सुभद्राहरण का वृत्तान्त सुनकर उनकी आंखें चढ़ गईं। उन्होंने सुभद्रा का हरण करने वाले को उचित दंड देने का निश्चय किया। कोई रथ जोतने लगा, कोई कवच बांधने लगा, कोई ताव के मारे ख़ुद घोड़ा जोतने लगा, युद्ध की सामग्री इकट्ठा होने लगी। 

 बलराम ने कुपित होते हुए कृष्ण से कहा- "जनार्दन! तुम्हारी इस चुप्पी का क्या अभिप्राय है?

 तुम्हारा मित्र समझकर अर्जुन का यहाँ इतना सत्कार किया गया और उसने जिस पत्तल में खाया, उसी में छेद किया। यह दुस्साहस करके उसने हमें अपमानित किया है। 
मैं यह नहीं सह सकता।"
इसी समय नारायणी सेना के यौद्धा गोपों ने अर्जुन को जघन्य दण्ड द्वेष का संकल्प बलराम के उद्घोष का समर्थन करते हुए लिया था।

श्रीमद्भागवत के उल्लेखानुसार यह प्रसंग इस प्रकार है ।

'श्रीमद्भागवत' के उल्लेखानुसार जब अर्जुन तीर्थयात्रा करते हुए प्रभास क्षेत्र पहुँचे, तब वहाँ उन्होंने सुना कि बलराम अपनी बहन सुभद्रा का विवाह दुर्योधन से करना चाहते हैं, किंतु कृष्ण, वसुदेव तथा देवकी सहमत नहीं हैं।

 अर्जुन एक त्रिदंडी वैष्णव का रूप धारण करके द्वारका पहुँचे। बलराम ने उनका विशेष स्वागत किया।
 भोजन करते समय उन्होंने और सुभद्रा ने एक-दूसरे को देखा तथा परस्पर विवाह करने के लिए इच्छुक हो उठे। 

एक बार सुभद्रा देव-दर्शन के लिए रथ पर सवार होकर द्वारका दुर्ग से बाहर निकलीं।

 सुअवसर देखकर अर्जुन ने उनका हरण कर लिया। इस कार्य के लिए अर्जुन को कृष्ण, वसुदेव तथा देवकी की सहमति पहले से ही प्राप्त थी। 
बलराम को उनके संबंधियों ने बाद में समझा-बुझाकर शांत कर दिया।

परन्तु भागवत पुराण का यह प्रकार भी समुचित नहीं क्यों की अर्जुन निश्चित रूप से अपनी ननिहाल भी गया होगा और सुभद्रा को भी उसने सम्बोधित किया होगा उसके साथ व्यवहार भी किया होगा 
क्या वह वह व्यवहार भाई - का बहिन के सदृश्य नहीं होगा ?

और जिसके साथ पहले बहिन के जैसा व्यवहार किया जाए फिर उसे ही पत्नी बताया जाय कहाँ का नैतिकता पूर्ण विधान है ।
नियोग के समान इसे भी अपरिहार्य नहीं बनाया जा सकता है ।

इसी पाप पूर्ण कृत्य के लिए भी नारायणी सेना के यौद्धा गोपों ने पञ्चनद प्रदेश में अर्जुन को परास्त किया था ।


विदित हो की हरिवंशपुराण महाभारत का खिल-भाग है।

 इस पुराणों में वसुदेव और नन्द दौनों को ही गोप अथवा अहीर कहा गया है ।

 परन्तु विचारणीय तथ्य यह भी है कि जो गोप या आभीर नारायणी सेना के यौद्धाओं में शुमार थे ।


 वे स्मृति कारों' ने शूद्र कैसे बनाये ?  नरेन्द्र सेन आभीर या गोप की कन्या वेदों की अधिष्ठात्री गायत्री शूद्र क्यों नहीं हुई ?


... क्योंकि पाराशर स्मृति ,सम्वर्त स्मृति तथा मनुस्मृति आदि में गोप ,गोपाल और आभीरों को वर्ण संकर Hybrid के रूप में वर्णित करना परवर्ती पुरोहितों की मक्कारी और धूर्तता नहीं है ?


अवश्य यह मक्कारी और धूर्तता आज भी रूढ़िवादीयों अन्धविश्वाशी जनता को मान्य है ।

 जिन्हें यादव समाज कभी क्षमा नहीं करेगा ! 


 नारायणी सेना के यौद्धाओं का वर्णन कहीं गोप रूप में है ;तो कहीं यादव और कहीं आभीर जैसे महाभारत के मूसल पर्व अष्टम अध्याय श्लोकांश 47 में आभीर के रूप में है । 


तो भागवत पुराण के प्रथम स्कन्ध के पन्द्रहवें अध्याय के श्लोक संख्या 20 में गोप रूप में !


 विदित हो कि नारायणी सेना के गोपों ने अर्जुन को सेना सहित पंजाब (पञ्चनद प्रदेश) में परास्त कर दिया था ।


अर्जुन को केवल नारायणी सेना के गोप यौद्धा ही उसे समय परास्त कर सकते थे ।

और किसी की सामर्थ्य कहाँ थी ।

अर्जुन के पूर्वज कौरव पाण्डव पुरवंशी थे विदित हो की पुरु यदु का भाई था ? 


नारायणी सेना के यौद्धाओं द्वारा अर्जुन को परास्त करने की बात महाभारत में है ।

 

महाभारत के मूसलपर्व अष्टम अध्याय के श्लोक 47 में आभीर रूप में तो है ही । '


परन्तु परवर्ती रूपान्तरण होने से प्रस्तुति-करण गलत है क्योंकि कि द्वेषवादी पुरोहितों 'ने अर्जुन द्वारा सुभद्रा अपहरण और दुर्योधन की पक्षधर नारायणी सेना के यौद्धाओं और अर्जुन की प्राचीन शत्रुता के मूलकारण वाले प्रकरण को तिरोहित (गायब) ही कर दिया 

और यदुवंशी तथा अहीर या गोपों को अलग दिखाने की कोशिश की है । 

-स्मृतियों के काल में यह ज्यादा ही हुई ।

गोपों ने ही पंजाब प्रदेश में अर्जुन को परास्त कर लूट लिया था वे ही गोप ,अहीर नामान्तरण से भी थे ।


 अर्जुन से नारायणी सेना के यौद्धाओं की शत्रुता के एक नहीं अपितु कई समन्वित कारण थे ।


 ये तो महाभारत और अन्य पुराणों में ध्वनित होता ही है 

 एक घटना अर्जुन द्वारा अपने सगे मामा की लड़की- अर्थात्‌ ममेरी बहिन सुभद्रा का काम-मोहित होकर कपट पूर्वक अपहरण करना था ।


अर्जुन का उस काल में यह सबसे बड़ा व्यभिचार पूर्ण कार्य था ।


 मातुल (मामा)वैसे भी माँ के तुल(समान) पालन करने वाला होने से ही मातुल संज्ञा का अधिकारी हुआ।

और  मामा की पुत्री बहिन ही है ।


 और अर्जुन' का  अपने मामा वसुदेव की पुत्री सुभद्रा का अपहरण कर उसके साथ विवाह करना यह कारनामा कभी नैतिक मर्यादाओं में समाहित नहीं था ।

क्यों स्मृतियों मे भी वर्णन है कि मामा की सात पुश्तों में ही वैवाहिक सम्बन्ध सम्भव हैं ।


'परन्तु जिसे अर्जुन बहन मानता हो और उसे ही कामुक होकर अपहरण कर ले ।
तो यह बात कभी भी धर्म संगत नहीं ।


 (मा तुल)– माँ के तुल्य संस्कृत भाषा में मातुल शब्द की व्युत्पत्ति – मातुर्भ्राता मातृ--डुलच् । १ मातुर्भ्रातरि अमरःकोश २ तत्पत्न्यां वा ङीष् वा आनुक् च । मातुलानी मातुली मातुला च । 
_________

मद मूलक धतूरे की व्युत्पत्ति में 

मद् उन्मत्ते मद--णिच्--उलच् पृषो० दस्य तः ।

 (माद् उलच् )३ धुस्तूरे ४ व्रीहिभेदे ५ मदनवृक्षे च मेदिनीकोश । 

६ सर्पभेदे हेमचन्द्र-कोश ।

 विदित हो कि अर्जुन ऐसी कई नैतिक गलतीयाँ कर चुका था । शास्त्रों में ये विधान भी थे ।👇 

"मातुलानीं सनाभिञ्च मातुलस्यात्मजां स्नुषाम् । 
एता गत्वा स्त्रियो मोहान् पराकेश विशुध्यति ।।157।


 (सम्वर्त स्मृति )

 मामी ,सनाभि ,मामा की पुत्री अथवा उसकी पुत्र वधू इनके साथ जो व्यक्ति लुब्ध या मोहित होकर मैथुन करता है तो वह पराक नामक प्रायश्चित से शुद्ध होता है यह महापाप है ।

 शास्त्रों में ये प्रायश्चित विधान सामाजिक व्यवस्थाओं के उन्नयन के लिए नैतिक रूप से बनाये गये थे । 

ताकि समाज पापोन्मुख न हो । आपको ये भी याद होगा की अर्जुन 'ने अपने मामा वसुदेव की कन्या और अपनी ममेरी बहिन सुभद्रा का अपहरण काम मोहित होकर ही किया था ।


 उसकी नैतिकता और धर्म मर्यादाओं का नाश हो गया था इसीलिउसने अपनी ममेरी बहिन के साथ ये हरकत कर डाली वह भी कपटपूर्वक नारायणी सेना के यौद्धाओं अर्थात्‌ अहीरों या गोपों'ने अर्जुन को पंजाब प्रदेश में तब और बुरी तरह परास्त कर दिया था ।


जब वह कृष्ण के कुल की यदुवंशी स्त्रीयो गोपियों को अपने ही साथ इन्द्र -प्रस्थ ले जा रहा था । 

इसी कहीं गोप तो कहीं अहीर शब्दों के द्वारा अर्जुन को परास्त करने वाला बताया गया पुराणों में । 

और दूसरा समर्थित कारण नारायणी सेना का दुर्योधन का पक्ष धर होना । 
गोप अर्थात् अहीर निर्भीक यदुवंशी यौद्धा तो थे ही इसी लिए दुर्योधन ने उनका ही चुनाव किया था ! 
यही कारण था कि गोपों ने प्रभास के दौरान पञ्चनद क्षेत्र में अर्जुन को परास्त कर लूट किया था । 

लूटा क्या था एक स्त्रीयों के लुटेरा को ही रोककर उससे अपने यदुवंश की विधवा ,बालिका और छोटे बालकों को अर्जुन के ल़साथ जाने से रोका । 

क्यों वे अर्जुन के कामुकता पूर्ण चरित्र से परिचित थे । 
और फिर अर्जुन जैसे महारथी यौद्धा को परास्त करने वाले या स्वयं श्रीकृष्ण की स्त्रीयों को लूटने या अपने साथ ले जाने वाले साधारण लुटेरे कैसे ह सकते हैं ? 

अर्जुन नारायणी सेना के गोपों का चिर शत्रु था ।
 और नारायणी सेना के ये यौद्धा दुर्योधन को पक्ष में थे । 
और यादव अथवा अहीर किसी को साथ विश्वास घात नहीं करते थे इसी लिए अर्जुन को परास्त करने वाले हुए __________________________________________

 गर्ग संहिता अश्व मेध खण्ड अध्याय 60/41,में यदुवंशी गोपों ( अहीरों) की सुनने और गायन करने से मनुष्यों को सब पार नष्ट हो जाते हैं । महाभारत के मूसल पर्व में आभीर शब्द के द्वारा भी नारायणी सेना के यौद्धा गोपों क वर्णन है ।

 परन्तु कालान्तरण में स्मृति-ग्रन्थों में गोपों को शूद्र रूप में वर्णित करना यादवों के प्रति द्वेष भाव को ही इंगित भी करता है ।
 गोप शूद्र नहीं अपितु स्वयं में क्षत्रिय ही हैं ।
 जैसा की संस्कृति साहित्य का इतिहास पृष्ठ संख्या 368 पर भी वर्णित है ।

 _______

 अस्त्र हस्ताश़्च धन्वान: संग्रामे सर्वसम्मुखे ।
 प्रारम्भे विजिता येन स: गोप क्षत्रिय उच्यते ।।101 

यादवा: श्रृणोति चरितं वै गोलोकारोहणं हरे : 
मुक्ति यदूनां गोपानां सर्व पापै: प्रमुच्यते ।102। 

हाथों में अस्त्र और धनुष धारण करने वाले संग्राम में सब के सम्मुख रहकर प्रारम्भ में ही जिनके द्वारा विजय प्राप्त कर ली जाता है वे यौद्धा गोप कहे जाते हैं ।

 यादव शिरोमणि श्रीकृष्ण जो गोलोक में उत्पन्न हुए उन हरि और उनके सहायक यादव गोपों के चरित्र का श्रवण करता है वह सभी पापों से मुक्त हो जाता है । _________________

 बारहवीं सदी में लिपिबद्ध ग्रन्थ श्रीमद्भागवत् पुराण में अहीरों को बाहर से आया बताया गया.....

 फिर महाभारत में मूसल पर्व में वर्णित अभीर कहाँ से आ गये.... 

ये विरोधाभासी बातें सत्य से परे हैं ।

किरात हूणान्ध्र पुलिन्द पुलकसा: 
आभीर शका यवना खशादय :।
 येऽन्यत्र पापा यदुपाश्रयाश्रया
 शुध्यन्ति तस्यै प्रभविष्णवे नम:। 
(श्रीमद्भागवत् पुराण-- २/४/१८)

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 अर्थात् किरात हूण पुलिन्द पुलकस तथा आभीर शक यवन ( यूनानी) खश आदि जन-जाति तथा अन्य जन-जाति यदुपति कृष्ण के आश्रय में आकर शुद्ध हो गयीं ।

 उस प्रभाव शाली कृष्ण को नमस्कार है। 
श्रीमद्भागवत् पुराण-- २/४/१८ यद्यपि अन्यत्र एक विद्वान रूप गोस्वामी ने अपने ग्रन्थ "श्रीश्रीराधाकृष्ण गण उद्देश दीपिका" में लिखा कि 👇 _______________________________________ पशुपालस्त्रिधा वैश्या आभीरा गर्जरास्तथा ।
 गोप वल्लभ पर्याया यदुवंश समुद्भवा : ।।७।।

 भषानुवाद – पशुपाल भी वणिक , अहीर और गुर्जर भेद से तीन प्रकार के हैं । इन तीनों का उत्पत्ति यदुवंश से हुई है ।
 तथा ये सभी गोप और वल्लभ जैसे समानार्थक नामों से जाने जाते हैं ।७।। 
_____________________________________ 

प्रायो गोवृत्तयो मुख्या वैश्या इति समारिता: ।
 अन्ये८नुलोमजा: केचिद् आभीरा इति विश्रुता:।।८। 

भषानुवाद– वैश्य प्राय: गोपालन के द्वारा अपना जीवन निर्वाह करते है । और आभीर तथा गुर्जरों से श्रेष्ठ माने जाते हैं । 
अनुलोम जात ( उच्च वर्ण के पिता और निम्न वर्ण की माता द्वारा उत्पन्न ) वैश्यों को आभीर नाम से जाना जाता है ।८।। __________________________________________
 आचाराधेन तत्साम्यादाभीराश्च स्मृता इमे ।।
 आभीरा: शूद्रजातीया गोमहिषादि वृत्तय: ।।
 घोषादि शब्द पर्याया: पूर्वतो न्यूनतां गता: ।।९।।

 भाषानुवाद–आचरण में आभीर भी वैश्यों के समान जाने जाते हैं । ये शूद्रजातीया हैं । 
तथा गाय भैस के पालन द्वारा अपना जीवन निर्वाह करते हैं ।
 इन्हें घोष भी कहा जाता है ये पूर्व कथित वैश्यों से कुछ हीन माने जाते हैं ।९।। ___________________________________________ किञ्चिदाभीरतो न्यूनाश्च छागादि पशुवृत्तय:।
 गोष्ठप्रान्त कृतावासा: पुष्टांगा गुर्जरा: स्मृता :।।१०। 

भाषानुवाद – अहीरों से कुछ हीन बकरी आदि पशुओं को पालन करने वाले तथा गोष्ठ की सीमा पर वास करने वाले गोप ही गुर्जर कहलाते हैं ये प्राय हृष्ट-पुष्टांग वाले होते हैं ।१०। 

वास्तव में उपर्युक्त रूप में वर्णित तथ्यों की समीक्षा की जाए तो निष्कर्ष यही निकता है कि अहीर और गुर्जर यदुवंश से उत्पन्न होकर भी वैश्य और शूद्र क्यों हैं ?

 और जिस वेदों की अधिष्ठात्री देवी गायत्री का जन्म एक नरेन्द्र सेन अहीर की पुत्री के रूप में हुई हो ।
 जिस गायत्री मन्त्र के वाचन से ब्राह्मण स्वयं को तथा दूसरों को पवित्र और ज्ञानवान बनाने का अनुष्ठान करता हो वह गायत्री एक अहीर नरेन्द्र सेन की कन्या है । 

फिर अहीरों को शूद्र घोषित करना मूढ मान्यता ही है ये आभीरों के विरुद्ध बातें प्राचीनत्तम शास्त्रों के द्वारा सम्मत व युक्ति- युक्त नहीं हैं। 

क्यों कि पद्मपुराण सृष्टि खण्ड ,अग्निपुराण और नान्दी -उपपुराण आदि में वेदों की अधिष्ठात्री देवी गायत्री नरेन्द्र सेन आभीर की कन्या हैं ।
 जिसे गूजर और अहीर दौनों समान रूप से अपनी कुल देवी मानते हैं ।

 जब शास्त्रों में ही ये बातें हैं कि गायत्री आभीरों कन्या हैं तोे फिर अहीर तो ब्राह्मणों के भी पूज्य हैं फिर षड्यन्त्र के तहत किस प्रकार मूढ पुरोहितों के विधान में अहीर शूद्र और वैश्य हुए । 

वास्तव में जिन तथ्यों का अस्तित्व ही सत्य संगत नहीं हो तो उनको उद्धृत करना भी महा मूढ़ता ही है ।

 इस लिए अहीर यादव या गोप आदि विशेषणों से नामित यादव कभी शूद्र नहीं हो सकते हैं और यदि इन्हें किसी पुरोहित या ब्राह्मण का संरक्षक या सेवक माना जाए तो भी युक्ति- युक्त बात नहीं है ।
क्यों कि एक ब्राह्मण विद्वान लेखक ज्वाला प्रसाद मिश्र अपने ग्रन्थ "जाति-भाष्कर" में आभीरों को ब्राह्मण भी लिखते हैं । 

परन्तु नारायणी सेना के ये अजेय यौद्धा आभीर या गोप जो अर्जुन जैसे महारथी यौद्धा को क्षण-भर में परास्त कर देते हैं ।

 क्या मूर्ख पुरोहितों के करने से ही शूद्र या वैश्य माने जाऐंगे ।
 ये आभीर या गोप जो सम्पूर्ण विश्व की माता गो को पालन करने वाले हैं – वैश्य या शूद्र माने जाऐंगे ?

 किस मूर्ख ने ये विधान बनाया ? हम इस आधार हीन बातों और विधानों को सिरे से खारिज करते हैं ।

 यादव अपने विधानों के स्वयं विधायक है ।
 इसी लिए यादवों ने रूढ़िवादी पुरोहितों की वर्ण व्यवस्था को खण्डित किया और षड्यन्त्र कारी पुरोहितों को दण्डित भी किया ।

 परिणाम स्वरूप यादवों ने मानवका की समताओं को जीवन्त रखने वाले भागवत धर्म की स्थापना की । 
जहाँ सारे कर्म काण्ड और वर्ण व्यवस्था आदि का कोई महत्व व मान्यता नहीं थी । 

(प्रस्तुति करण - यादव योगेश कुमार "रोहि" 8077160219) 

कुछ लोग बार बार अज्ञानता के मद में उन्मत्त होकर ये बड़बड़ाते हैं कि गोप अहीरों से पृथक् है, या गोप यादवों से पृथक् हैं । 
परन्तु यह मूर्खों का प्रलाप ही है ।

 हम महा भारत से ही सिद्ध करते हैं कि गोप ही यादव हैं क्यों कि यादव वंशमूलक विशेषण और गोप व्यवसाय मूलक विशेषण है । अब महाभारत के खिल-भाग हरिवंश पुराण में वसुदेव को गोप ही कहा गया है।

 और कृष्ण का जन्म भी गोप (आभीर) जन-जाति में हुआ था। एेसा वर्णन है । प्रथम दृष्टवा तो ये देखें-- कि वसुदेव को गोप कहा है । ________________________________________

 "इति अम्बुपतिना प्रोक्तो वरुणेनाहमच्युत । 
गावां कारणत्वज्ञ:कश्यपे शापमुत्सृजन् ।२१। 

येनांशेन हृता गाव: कश्यपेन महर्षिणा । 
स तेन अंशेन जगतीं गत्वा गोपत्वमेष्यति।२२। 

द्या च सा सुरभिर्नाम अदितिश्च सुरारिण: 
ते८प्यमे तस्य भार्ये वै तेनैव सह यास्यत:।।२३। 

ताभ्यां च सह गोपत्वे कश्यपो भुवि संस्यते। 
स तस्य कश्यस्यांशस्तेजसा कश्यपोपम: ।२४। 

वसुदेव इति ख्यातो गोषु तिष्ठति भूतले ।
 गिरिगोवर्धनो नाम मथुरायास्त्वदूरत: ।२५। 

तत्रासौ गौषु निरत: कंसस्य कर दायक:। 
तस्य भार्याद्वयं जातमदिति सुरभिश्च ते ।२६। 

देवकी रोहिणी देवी चादितिर्देवकी त्यभृत् सतेनांशेन जगतीं गत्वा गोपत्वं एष्यति। २७।
 गीता प्रेस गोरखपुर की हरिवंश पुराण 'की कृति में श्लोक संख्या क्रमश: 32,33,34,35,36,37,तथा 38 पर देखें--- 
अनुवादक पं० श्री राम नारायण दत्त शास्त्री पाण्डेय "राम" "ब्रह्मा जी का वचन " नामक 55 वाँ अध्याय। ________________________________________

 अनुवादित रूप :----हे विष्णु ! महात्मा वरुण के ऐसे वचनों को सुनकर तथा इस सन्दर्भ में समस्त ज्ञान प्राप्त करके भगवान ब्रह्मा ने कश्यप को शाप दे दिया। तथा कहा ।२१। 

कि कश्यप ने अपने जिस तेज से प्रभावित होकरउन गायों का अपहरण किया । 
उस पाप के प्रभाव-वश होकर भूमण्डल पर अहीरों (गोपों)का जन्म धारण करें ।२२। 

तथा दौनों देव माता अदिति और सुरभि उनकी पत्नीयाें के रूप में पृथ्वी पर उनके साथ जन्म धारण करेंगी ।२३। 

इस पृथ्वी पर अहीरों ( ग्वालों ) का जन्म धारण कर महर्षि कश्यप दौनों पत्नीयाें अदिति और सुरभि सहित आनन्द पूर्वक जीवन यापन करते रहेंगे । 

हे राजन् वही कश्यप वर्तमान समय में कश्यप के तेज स्वरूप वसुदेव गोप के नाम से प्रसिद्ध होकर पृथ्वी पर गायों की सेवा करते हुए जीवन यापन करते हैं।

 मथुरा के ही समीप गोवर्धन पर्वत है । 
उसी पर पापी कंस के अधीन होकर गोकुल पर राज्य कर रहे हैं। कश्यप की दौनों पत्नीयाें अदिति और सुरभि ही क्रमश: देवकी और रोहिणी के नाम से अवतीर्ण हुई हैं ।२४-२७।

 (उद्धृत सन्दर्भ --------) पितामह ब्रह्मा की योजना नामक ३२वाँ अध्याय पृष्ठ संख्या २३० अनुवादक -- पं० श्रीराम शर्मा आचार्य " ख्वाजा कुतुब वेद नगर बरेली संस्करण) अब कृष्ण को भी गोपों के घर में जन्म लेने वाला बताया है । _________________________________________

 गोप अयनं य: कुरुते जगत: सार्वलौकिकम् । 
स कथं गां गतो देशे विष्णुर्गोपर्त्वमागत: ।।९। 

अर्थात्:-जो प्रभु भूतल के सब जीवों की रक्षा करनें में समर्थ है । वे ही इस भूतल पर आकर गोप (आभीर) क्यों हुए ।९। __________________________________________

 हरिवंश पुराण "वराह ,नृसिंह आदि अवतार नामक १९ वाँ अध्याय पृष्ठ संख्या १४४ (ख्वाजा कुतुब वेद नगर बरेली संस्करण) सम्पादक पण्डित श्री राम शर्मा आचार्य .. गीता प्रेस गोरखपुर की हरिवंश पुराण की कृति में वराहोत्पत्ति वर्णन " नामक पाठ चालीसवाँ अध्याय पृष्ठ संख्या (182) श्लोक संख्या (12)
 अब निश्चित रूप से आभीर और गोप परस्पर पर्याय वाची रूप हैं। यह शास्त्रीय पद्धति से प्रमाणित भी है ।

 अब द्वेष वश स्मृति-ग्रन्थों में गोपों को शूद्र कह कर वर्णित किया गया है। यह भी देखें--- व्यास -स्मृति )तथा सम्वर्त -स्मृति में एक स्थान पर लिखा है ।
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 क्षत्रियात् शूद्र कन्यानाम् समुत्पन्नस्तु य: सुत: । 
स गोपाल इति ज्ञेयो भोज्यो विप्रैर्न संशय:।
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 अर्थात् क्षत्रिय से शूद्र की कन्या में उत्पन्न होने वाला पुत्र गोपाल अथवा गोप होता है ।

 और विप्रों के द्वारा उनके यहाँ भोजान्न होता है इसमे संशय नहीं .... व्यास-स्मृति प्रथम अध्याय में वर्णित है कि.. __________________________________________ 
वर्द्धकी नापितो गोप: आशाप: कुम्भकारक: ।
 वणिक् किरात: कायस्थ: मालाकार: कुटुम्बिन: ।

एते चान्ये च बहव शूद्रा भिन्न: स्व कर्मभि: ।
चर्मकारो भटो भिल्लो रजक: पुष्करो नट: वरटो मेद। चाण्डालदास श्वपचकोलका: ।।११।।

 एतेऽन्त्यजा समाख्याता ये चान्ये च गवार्शना:।
 एषां सम्भाषणाद् स्नानंदर्शनादर्क वीक्षणम् ।।१२।।
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 वर्द्धकी (बढ़ई) , नाई , गोप , आशाप , कुम्हार ,वणिक् ,किरात , कायस्थ, माली , कुटुम्बिन, ये सब अपने कर्मों से भिन्न बहुत से शूद्र हैं । चमार ,भट, भील ,धोवी, पुष्कर, नट, वरट, मेद , चाण्डाल ,दाश,श्वपच , तथा कोल (कोरिया)ये सब अन्त्यज कहे जाते हैं । और अन्य जो गोभक्षक हैं वे भी अन्त्यज होते हैं ।
 इनके साथ सम्भाषण करने पर स्नान कर सूर्य दर्शन करना चाहिए तब शुद्धि होती है ।

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अभोज्यान्ना:स्युरन्नादो यस्य य: स्यात्स तत्सम:
 नापितान्वयपित्रार्द्ध सीरणो दास गोपका:।।४९।। 

शूद्राणामप्योषान्तु भुक्त्वाsन्न नैव दुष्यति ।
 धर्मेणान्योन्य भोज्यान्ना द्विजास्तु विदितान्वया:।५०।। 
( प्रथम अध्याय व्यास-स्मृति) 
नाई वंश परम्परा व मित्र ,अर्धसीरी ,दास ,तथा गोप ,ये सब शूद्र हैं । तो भी इन शूद्रों के अन्न को खाकर दूषित नहीं होते ।।
 जिनके वंश का ज्ञान है ;एेसे द्विज धर्म से परस्पर में भोजन के योग्य अन्न वाले होते हैं ।५०। ________________________________________

 (व्यास- स्मृति प्रथम अध्याय श्लोक ११-१२) -------------------------------------------------------------- 

स्मृतियों की रचना काशी में हुई , वर्ण-व्यवस्था का पुन: दृढ़ता से विधान पारित करने के लिए काशी के इन ब्राह्मणों ने रूढ़ि वादी पृथाओं के पुन: संचालन हेतु स्मृति -ग्रन्थों की रचना की जो पुष्यमित्र सुंग की परम्पराओं के अनुगामी थे ।
 देखें--- निम्न श्लोक दृष्टव्य है इस सन्दर्भ में.. _________________________________________

 वाराणस्यां सुखासीनं वेद व्यास तपोनिधिम् ।
 पप्रच्छुमुर्नयोSभ्येत्य धर्मान् वर्णव्यवस्थितान् ।।१।। __________________________________________ 


अर्थात् वाराणसी में सुख-पूर्वक बैठे हुए तप की खान वेद व्यास से ऋषियों ने वर्ण-व्यवस्था के धर्मों को पूछा । -------------------------------------------------------------- 

निश्चित रूप इन विरोधाभासी तथ्यों से ब्राह्मणों के विद्वत्व की पोल खुल गयी है ।
 जिन्होंने योजना बद्ध विधि से समाज में ब्राह्मण वर्चस्व स्थापित कर के लिए सारे -ग्रन्थों पर व्यास की मौहर लगाकर अपना ही स्वार्थ सिद्ध किया है । 
ये सारी हास्यास्पद व विकृतिपूर्ण अभिव्यञ्जनाऐं पुष्यमित्र सुंग के अनुयायी ब्राह्मणों की हैं।
 समाज में अव्यवस्था उत्पन्न करने में इनके आडम्बरीय रूप का ही योगदान है । 
तुलसी दास जी भी इसी पुष्य मित्र सुंग की परम्पराओं का अनुसरण करते हुए लिखते हैं । 
राम चरित मानस के युद्ध काण्ड में राम और समुद्र के सम्वाद रूप में अहीरों के वध करने के लिए राम को दिया गया समुद्र सुझाव - तुलसी दास ने वाल्मीकि-रामायण को उपजीव्य मान कर ही राम चरित मानस की रचना की है । 

रामचरितमानस में भी तुलसीदास ने उत्तर कांड के 129 (1) में लिखा है कि " आभीर, यवन, ।
 किरात ,खस, स्वपचादि अति अधरुपजे। 
अर्थात् अहीर, यूनानी बहेलिया, खटिक, भंगी आदि पापयो को हे प्रभु तुम मार दो वाल्मीकि-रामायण में राम और समुद्र के सम्वाद रूप में वर्णित युद्ध-काण्ड सर्ग २२ श्लोक ३३पर इसी का मूल विद्यमान है देखें--- 

महाभारत यद्यपि किसी एक व्यक्ति की रचना नहीं है।
 जिन ब्राह्मणों ने महाभारत का लेखन किया निश्चित रूप से वे यादव विरोधी थे। 
उन्होंने यादवों के प्रधान विशेषण आभीर शब्द की प्रस्तुति दस्यु अथवा शूद्र रूप में की परन्तु नकारात्मक रूप में अथवा यह भी अर्थ है कि आभीर शूद्रों के सहवर्ती थे । 

शूद्राभीरगणाश्चैव ये चाश्रित्य सरस्वतीम् ।
 वर्तयन्ति च ये मत्स्यैर्ये च पर्वतवासिन: ।।१०। 

महाभारत सभा पर्व के अन्तर्गत दिग्विजय पर्व३२वाँ अध्याय में वर्णित किया गया है कि सरस्वती नदी के किनारे निवास करने वाले जो शूद्र आभीर गण थे और उनके साथ मत्स्यजीवी धीवर जाति के लोग भी रहते थेे। 

तथा पर्वतों पर निवास करने वाले जो दूसरे दूसरे मनुष्य थे सब नकुल ने जीत लिए। परन्तु ये वर्णन काल्पनिक ही हैं _____________________________________
 इन्द्र कृष्टैर्वर्तयन्ति धान्यैर्ये च नदीमुखै: । 
समुद्रनिष्कुटे जाता: पारेसिन्धु च मानवा:।११। 

तो वैरामा : पारदाश्च आभीरा : कितवै: सह ।
 विविधं बलिमादाय रत्नानि विधानि च।१२।
 महाभारत के सभा पर्व के अन्तर्गत द्यूतपर्व ५१वाँ अध्याय में वर्णित है कि - अर्थात् जो समु्द्र तटवर्ती गृहोद्यान में तथा सिन्धु के उस पार रहते हैं। वर्षा द्वारा इन्द्र के पैंदा किये हुए तथा नदी के जल से उत्पन्न धान्यों द्वारा निर्वाह करते हैं ।

 वे वैराम ,पारद, आभीर ,तथा कितव जाति के लोग नाना प्रकार के रत्न एवं भेंट सामग्री बकरी भेड़ गाय सुवर्ण ऊँट फल तैयार किया हुआ मधु लि बाहर खड़े हुए हैं । __________________________________________ चीनञ्छकांस्तथा चौड्रान् बर्बरान् वनवासिन: ।२३
 वार्ष्णेयान् हार हूणांश्च कृष्णान् हैमवतांस्तथा ।

 नीपानूपानधिगतान्विविधान् द्वारा वारितान् ।२४।
 अर्थात् चीन शक ओड्र वनवासी बर्बर तथा वृष्णि वंशी वार्ष्णेय, हार, हूण , और कृष्ण भी हिमालय प्रदेशों के समीप और अनूप देशों से अनेक राजा भेंट देने के लिए आये ।

 वस्तुत यहाँ वार्ष्णेय शब्द यदुवंशी वृष्णि की सन्तानों के लिए है । __________________________________________ वाल्मीकि रामायण में अब अहीरों को समुद्र के करने पर राम द्रुमकुल्य देश में माने का उपक्रम करते हैं. 
समुद्र राम से निवेदन करता है ! हे प्रभु आप अपने अमोघ वाण उत्तर दिशा में रहने वाले अहीरों पर छोड़ दे-- और उन अहीरों को नष्ट कर दें.. जड़ समुद्र भी राम से बाते करता है ।

 और राम समु्द्र के कहने पर सम्पूर्ण अहीरों को अपने अमोघ वाण से त्रेता युग-- में ही मार देते हैं । 
परन्तु अहीर आज भी कलियुग में जिन्दा होकर ब्राह्मण और राजपूतों की नाक में दम किये हुए हैं ।

 उनके मारने में रामबाण भी चूक गया । 
निश्चित रूप से यादवों (अहीरों) विरुद्ध इस प्रकार से लिखने में ब्राह्मणों की धूर्त बुद्धि ही दिखाई देती है।
 कितना अवैज्ञानिक व मिथ्या वर्णन है ................ 

जड़ समुद्र भी अहीरों का शत्रु बना हुआ है जिनमें चेतना नहीं हैं फिर भी ।
 ब्राह्मणों ने राम को भी अहीरों का हत्यारा' बना दिया । और हिन्दू धर्म के अनुयायी बने हम हाथ जोड़ कर इन काल्पनिक तथ्यों को सही मान रहे हैं। 
भला हो हमारी बुद्धि का जिसको मनन रहित श्रृद्धा (आस्था) ने दबा दिया । और मन गुलाम हो गया पूर्ण रूपेण अन्धभक्ति का ! आश्चर्य ! घोर आश्चर्य ! _____________________________________ " उत्तरेणावकाशो$स्ति कश्चित् पुण्यतरो मम ।
 द्रुमकुल्य इति ख्यातो लोके ख्यातो यथा भवान् ।।३२।।

 उग्रदर्शनं कर्माणो बहवस्तत्र दस्यव: । 
आभीर प्रमुखा: पापा: पिवन्ति सलिलम् मम ।।३३।।

 तैर्न तत्स्पर्शनं पापं सहेयं पाप कर्मभि: । 
अमोघ क्रियतां रामो$यं तत्र शरोत्तम: ।।३४।। 

तस्य तद् वचनं श्रुत्वा सागरस्य महात्मन: । 
मुमोच तं शरं दीप्तं परं सागर दर्शनात् ।।३५।। 
(वाल्मीकि-रामायण युद्ध-काण्ड २२वाँ सर्ग) __________________________________________ 

अर्थात् समुद्र राम से बोल प्रभो ! जैसे जगत् में आप सर्वत्र विख्यात एवम् पुण्यात्मा हैं । 
उसी प्रकार मेरे उत्तर की ओर द्रुमकुल्य नामका बड़ा ही प्रसिद्ध देश है ।३२। 
वहाँ अाभीर आदि जातियों के बहुत सेमनुष्य निवास करते हैं । जिनके कर्म तथा रूप बड़े भयानक हैं ।
सबके सब पापी और लुटेरे हैं । 
वे लोग मेरा जल पीते हैं ।३३। 

उन पापाचारियों का मेरे जल से स्पर्श होता रहता है । इस पाप को मैं नहीं यह सकता हूँ । हे राम आप अपने इस उत्तम वाण को वहीं सफल कीजिए ।३४।

 महामना समुद्र का यह वचन सुनकर समुद्र के दिखाए मार्ग के अनुसार उसी अहीरों के देश द्रुमकुल्य की दिशा में राम ने वह वाण छोड़ दिया ।३५। ________________________________________ 

निश्चित रूप से ब्राह्मण समाज ने राम को आधार बनाकर ऐसी मनगढ़न्त कथाओं का सृजन किया है ।

 ताकि इन पर सत्य का आवरण चढ़ा कर अपनी काल्पनिक बातें को सत्य व प्रभावोत्पादक बनाया जा सके ।
 इन ब्राह्मणों का जैनेटिक सिष्टम ही कपट से मय है । जो अवैज्ञानिक ही नहीं अपितु मूर्खता पूर्ण भी है । 

अब ब्राह्मण सब तो कपटी नहीं होते परन्तु जो ब्राह्मण साधना हीन हते हैं वे ही नकली ब्राह्मण द्वेष और प्रमाद के वशीभूत होते हैं । क्योंकि चालाकी कभी बुद्धिमानी नहीं हो सकती है ; चालाकी में चाल ( छल) सक्रिय रहता है ।

 कपट सक्रिय रहता है और बुद्धि मानी में निश्छलता का भाव प्रधान है। आइए अब पद्म पुराण में अहीरों के विषय में क्या लिखा है देखें--- 
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 पद्म पुराण के सृष्टि खण्ड के अध्याय १६ में गायत्री माता को नरेन्द्र सैन आभीर की कन्या 'गायत्री' के रूप में वर्णित किया गया है । _________________________________________

 " स्त्रियो दृष्टास्तु यास्त्व 
, सर्वास्ता: सपरिग्रहा : |
 आभीरः कन्या रूपाद्या , 
सुनासा चारू लोचना ।७। 

न देवी न च गन्धर्वीं , नासुरी न च पन्नगी ।
 वन चास्ति तादृशी कन्या , यादृशी सा वराँगना ।८।
 _________________________________________ 

अर्थात् जब इन्द्र ने पृथ्वी पर जाकर देखा तो वे पृथ्वी पर कोई सुन्दर और शुद्ध कन्या न पा सके परन्तु एक नरेन्द्र सैन आभीर की कन्या गायत्री को सर्वांग सुन्दर और शुद्ध देखकर दंग रह गये ।७।
 उसके समान सुन्दर कोई देवी न कोई गन्धर्वी न सुर असुर की स्त्री और न कोई पन्नगी ही थी। इन्द्र ने तब ने उस कन्या गायत्री से पूछा कि तुम कौन हो ? और कहाँ से आयी हो ? और किस की पुत्री हो ।८।
 _________________________________________ 
गोप कन्यां च तां दृष्टवा , गौरवर्ण महाद्युति:।
 एवं चिन्ता पराधीन ,यावत् सा गोप कन्यका ।।९ ।।
 पद्म पुराण सृष्टि खण्ड अध्याय १६ १८२ श्लोक में इन्द्र ने कहा कि तुम बड़ा रूप वती हो , गौरवर्ण वाली महाद्युति से युक्त हो इस प्रकार की गौर वर्ण महातेजस्वी कन्या को देखकर इन्द्र भी चकित रह गया कि यह गोप कन्या इतनी सुन्दर है ।

 अध्याय १७ के ४८३ में प्रभु ने कहा कि यह गोप कन्या पराधीन चिन्ता से व्याकुल है ।९।
 देवी चैव महाभागा , गायत्री नामत: प्रभु ।
 गान्धर्वेण विवाहेन ,विकल्प मा कथाश्चिरम्।९। १८४।
 श्लोक में विष्णु ने ब्रह्मा जी से कहा कि हे प्रभो इस कन्या का नाम गायत्री है ।
 अग्निपुराण और नान्दी-उपपुराण आदि में भी गायत्री आभीर कन्या हैं। आभीरों गायत्री आभीर अथवा गोपों की कन्या है । 

और गोपों को भागवतपुराण तथा महाभारत हरिवंश पुराण आदि मे देवताओं का अवतार बताया गया है । ________________________________________ 

" अंशेन त्वं पृथिव्या वै ,प्राप्य जन्म यदो:कुले । भार्याभ्याँश संयुतस्तत्र ,गोपालत्वं करिष्यसि ।१४। ________________________________________

 वस्तुत आभीर और गोप शब्द परस्पर पर्याय वाची हैं पद्म पुराण में पहले आभीर- कन्या शब्द आया है फिर गोप -कन्या भी गायत्री के लिए .. तथा अग्नि पुराण मे भी आभीरों (गोपों) की कन्या गायत्री का है ।
 आभीरा स्तच्च कुर्वन्ति तत् किमेतत्त्वया कृतम् अवश्यं यदि ते कार्यं भार्यया परया मखे ।४०।।
 एतत्पुनर्महादुःखं यदाभीरा विगर्दिता वंशे वनचराणां च स्ववोडा बहुभर्तृका ।५४। 

आभीरीति सपत्नीति प्रोक्तवंत्यः हर्षिताः इति श्रीवह्निपुराणे नांदीमुखोत्पत्तौ ब्रह्मयज्ञ समारंभे प्रथमोदिवसो नाम षोडशोऽध्यायः संपूर्णः """"""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""" ऋग्वेद भारतीय संस्कृति में ही नहीं अपितु विश्व- संस्कृतियों में प्राचीनत्तम है ।
 अर्थात् ई०पू० २५०० से १५००के काल तक-- इसी ऋग्वेद में बहुतायत से यदु और तुर्वसु का साथ साथ वर्णन हुआ है । वह भी दास अथवा असुर रूप में दास शब्द का वैदिक ऋचाओं में अर्थ आर्यों के प्रतिद्वन्द्वी असुरों से ही है ।

 परन्तु ये दास अपने पराक्रम बुद्धि कौशल से सम्माननीय ही रहे हैं । ऋग्वेद के दशम् मण्डल के ६२वें सूक्त की १० वीं ऋचा में यदु और तुर्वसु को स्पष्टत: दास के रूप में सम्बोधित किया गया है। वह भी गोपों को रूप में _________________________________________

 " उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी । 
" गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।। (ऋग्वेद १०/६२/१०) यदु और तुर्वसु नामक दौनो दास जो गायों से घिरे हुए हैं हम उन सौभाग्य शाली दौनों दासों की प्रशंसा करते हैं । 

यहाँ पर गोप शब्द स्पष्टत: है। गो-पालक ही गोप होते हैं ऋग्वेद के प्राय: ऋचाओं में यदु और तुर्वसु का वर्णन नकारात्मक रूप में हुआ है । ____________________________________

 प्रियास इत् ते मघवन् अभीष्टौ नरो मदेम शरणे सखाय:।
 नि तुर्वशं नि यादवं शिशीहि अतिथिग्वाय शंस्यं करिष्यन् ।।
 (ऋग्वेद ७/१९/८ ) में भी यही ऋचा अथर्ववेद में भी (काण्ड २० /अध्याय ५/ सूक्त ३७/ ऋचा ७) ________________________________________

 हे इन्द्र ! हम तुम्हारे मित्र रूप यजमान अपने घर में प्रसन्नता से रहें; तथा तुम अतिथिगु को सुख प्रदान करो । 
और तुम तुर्वसु और यादवों को क्षीण करने वाले बनो। अर्थात् उन्हें परास्त करने वाले बनो ! (ऋग्वेद ७/१९/८) 
ऋग्वेद में भी यथावत यही ऋचा है ; इसका अर्थ भी देखें :- हे ! इन्द्र तुम अतिथि की सेवा करने वाले सुदास को सुखी करो ।
 और तुर्वसु और यदु को हमारे अधीन करो । _______________________________________

 और भी देखें यदु और तुर्वसु के प्रति पुरोहितों की दुर्भावना अर्वाचीन नहीं अपितु प्राचीनत्तम भी है ।

... देखें--- अया वीति परिस्रव यस्त इन्दो मदेष्वा । 
अवाहन् नवतीर्नव ।१। 

पुर: सद्य इत्थाधिये दिवोदासाय , 
शम्बरं अध त्यं तुर्वशुं यदुम् ।२। 

(ऋग्वेद ७/९/६१/ की ऋचा १-२) हे सोम ! तुम्हारे किस रस ने दासों के निन्यानवे पुरों अर्थात् नगरों) को तोड़ा था । 
उसी रस से युक्त होकर तुम इन्द्र के पीने के लिए प्रवाहित हो ओ। १। शम्बर के नगरों को तोड़ने वाले !
 सोम रस ने ही तुर्वसु की सन्तान तुर्को तथा यदु की सन्तान यादवों (यहूदीयों ) को शासन (वश) में किया ।
 यदु को ही ईरानी पुरातन कथाओं में यहुदह् कहा जो ईरानी तथा बैबीलॉनियन संस्कृतियों से सम्बद्ध साम के वंशज- असीरियन जन-जाति के सहवर्ती यहूदी थे।
 सुमेरियन मिथकों में उदु नाम यदु के लिए है । असुर तथा यहूदी दौनो साम के वंशज- हैं भारतीय पुराणों में साम के स्थान पर सोम हो गया । 
यादवों से घृणा चिर-प्रचीन है देखें--और भी ____________________________________

 सत्यं तत् तुर्वशे यदौ विदानो अह्नवाय्यम् । 
व्यानट् तुर्वशे शमि । (ऋग्वेद ८/४६/२७) _______________________________________

 हे इन्द्र! तुमने यादवों के प्रचण्ड कर्मों को सत्य (अस्तित्व) में मान कर संग्राम में अह्नवाय्यम् को प्राप्त कर डाला । 
अर्थात् उनका हनन कर डाला । अह्नवाय्य :- ह्नु--बा० आय्य न० त० । 
निह्नवाकर्त्तरि । “सत्यं तत्तुर्वशे यदौ विदानो अह्नवाय्यम्” ऋ० ८, ४५, २७ अथर्ववेद तथा ऋग्वेद में यही ऋचांश बहुतायत से है । ________________________________________ 

किम् अंगत्वा मघवन् भोजं आहु: 
शिशीहि मा शिशयं त्वां श्रृणोमि ।। अथर्ववेद का० २०/७/ ८९/३/ 

हे इन्द्र तुम भोग करने वाले हो । 
तुम शत्रु को क्षीण करने वाले हो । तुम मुझे क्षीण न करो । 
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 यदु को दास अथवा असुर कहना सिद्ध करता है कि ये असीरियन जन-जाति से सम्बद्ध सेमेटिक यहूदी यों के पूर्वज यहुदह् ही थे । यद्यपि यदु और यहुदह् शब्द की व्युत्पत्तियाँ समान है ।
 अर्थात् यज्ञ अथवा स्तुति से सम्बद्ध व्यक्ति । 
यहूदीयों का सम्बन्ध ईरान तथा बेबीलोन से भी रहा है । 
उदु रूव में ...

ईरानी असुर संस्कृति में दाहे शब्द दाहिस्तान के सेमेटिक मूल के व्यक्तियों का वाचक है। 
यदु एेसे स्थान पर रहते थे।
जहाँ ऊँटो का बाहुल्य था ऊँट उष्ण स्थान पर रहने वाला पशु है । यह स्था (उष ष्ट्रन् किच्च ) ऊषरे तिष्ठति इति उष्ट्र (ऊषर अर्थात् मरुस्थल मे रहने से ऊँट संज्ञा )। 
(ऊँट) प्रसिद्धे पशुभेदे स्त्रियां जातित्त्वात् ङीष् । “हस्तिगोऽश्वोष्ट्रदमकोनक्षत्रैर्यश्च जीवति” “नाधीयीताश्वमारूढ़ो न रथं न च हस्तिनम् देखें---ऋग्वेद में ________________________________________ 

शतमहं तिरिन्दरे सहस्रं वर्शावा ददे । 
राधांसि यादवानाम् त्रीणि शतान्यर्वतां सहस्रा
 दश गोनाम् ददुष्पज्राय साम्ने ४६।

 उदानट् ककुहो दिवम् उष्ट्रञ्चतुर्युजो ददत् ।
श्रवसा याद्वं जनम् ।४८।१७।

 यदु वंशीयों में परशु के पुत्र तिरिन्दर से सहस्र संख्यक धन मैने प्राप्त किया ! ऋग्वेद ८/६/४६ ______________________________________ 

यह स्थान इज़राएल अथवा फलस्तीन ही है । 
ब्राह्मणों का आगमन यूरोप स्वीडन से मैसॉपोटमिया सुमेरो-फोनियन के सम्पर्क में रहते हुए हुआ है ।
 सुमेरियन पुरातन कथाओं में (बरमन) /बरम (Baram) पुरोहितों को कहते है ।
 ईरानी मे बिरहमन तथा जर्मनिक जन-जातियाँ में ब्रेमन ब्रामर अथवा ब्रेख्मन है ।

 जो ब्राह्मण शब्द का तद्भव है। पुष्य-मित्र सुंग के अनुयायी ब्राह्मणों ने अहीरों( यादवों से सदीयों से घृणा की है )उन्हें ज्ञान से वञ्चित किया और उनके इतिहास को विकृत किया और उन्हें दासता की जञ्जीरों में बाँधने की कोशिश भी की परन्तु अहीरों ने दास (गुलाम) न बन कर दस्यु बनना स्वीकार किया ।

 "यह समग्र शोध श्रृंखला यादव योगेश कुमार ''रोहि' के द्वारा अनुसन्धानित नवीनत्तम तथ्य है " ________________________________________

 ईरानी भाषा में दस्यु तथा दास शब्द क्रमश दह्यु तथा दाहे के रूप में हैं । ऋग्वेद के दशम् मण्डल के ६२वें सूक्त की १० वीं ऋचा में यदु और तुर्वसु को स्पष्टत: दास के रूप में सम्बोधित किया गया है।

 उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी । 
गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।। (ऋग्वेद १०/६२/१०) 
यदु और तुर्वसु नामक दौनो दास जो गायों से घिरे हुए हैं हम उन सौभाग्य शाली दौनों दासों की प्रशंसा करते हैं । 
यहाँ पर गोप शब्द स्पष्टत: है । 

🐂जो अहीरों का वाचक है । 
अमरकोश में जो गुप्त काल की रचना है । उसमें अहीरों के अन्य नाम- पर्याय वाची रूप में वर्णित हैं। 

आभीर पुल्लिंग विशेषण संज्ञा गोपालः समानार्थक: १-गोपाल,२-गोसङ्ख्य,३-गोधुक्,४-आभीर,५-वल्लव,६-गोविन्द,७-गोप (2।9।57।2।5 अमरकोशः) कामं प्रकामं पर्याप्तं निकामेष्टं यथेप्सितम्. गोपे गोपालगोसंख्यगोधुगाभीरवल्लवाः॥

 पत्नी : आभीरी सेवक : गोपग्रामः वृत्ति : गौः गवां-स्वामिः गायों का स्वामी । कुछ लोग कहते हैं कि गोप अलग होते हैं यादवों से तो ये भी भ्रमात्मक जानकारी है। महाभारत का खिल-भाग हरिवंश पुराण स्पष्टत: गोपों को यादव कहता है । 

देखें--- " जित्वा गोपाल दायादं गत्वा यादवा कान्बहूनन्।
 एष न: प्रथम: कल्पो जेष्याम् इति यादवान् ।२७। 

अर्थात् हंस नाम का एक राजा कहता है --कृष्ण के सन्देश वाहक सात्यकि से -- मैं प्रतिज्ञा करता हूँ ।
कि इस कृष्ण गोप को उसके सहायकों सहित बाँध कर यादवों के सम्पूर्ण ऐश्वर्य को जीत लुँगा ।२७। 
हरिवंश पुराण " सात्यकि का हंस के समक्ष भाषण" नामक ७८वाँ अध्याय पृष्ठ संख्या ४०४ ( ख्वाजा कुतुब वेद नगर बरेली संस्करण) ________________________________________ 

और यदि पुराणों की बात करें; तो महाभारत का खिल-भाग हरिवंश पुराण में वसुदेव को गोप रूप में वर्णित किया गया है ।
 यह तथ्य पूर्व में वर्णित किया गया है ।
 पितामह ब्रह्मा की योजना नामक ३२वाँ अध्याय पृष्ठ संख्या २३० अनुवादक पं० श्रीराम शर्मा आचार्य ख्वाजा कुतुब वेद नगर बरेली संस्करण) अब वसुदेव को गोप कहा यह देखें--- नीचे ________________________________________ 

एक समय महात्मा वरुण के पास कुछ यज्ञ- काल के लिए दूध देने योग्य कुछ योग्य गायें थी । 
एक वार प्रजापति भगवान् कश्यप उन गायों को महात्मा वरुण से माँग कर ले गये ।
 तो कश्यप की भार्याओं अदिति और सुरभि ने गायें वरुण को लोटाने में अनिच्छा प्रकट की ।१०-११। तब ब्रह्मा जी ने विष्णु से कहा कि तब एक वार वरुण मेरे पास आकर तथा मुझे प्रणाम करके बोले भगवन् ! मेरी समस्त गायें मेरे पिता भगवान् कश्यप ने ले ली हैं ।यद्यपि उनका कार्य सम्पन्न हो चुका है । 
किन्तु उन्होंने मेरी गायें नहीं लौटायीं हैं । 

और अपनी दौनों पत्नीयाें अदिति और सुरभि का समर्थन कर रहे हैं । हे पितामह ब्रह्मा चाहें कोई स्वामी हो , या गुरू हो अथवा कोई भी क्यों न हो । 
सभी को निर्धारित सीमा का उल्लंघन कने पर आप दण्डित अवश्य करते हो ! आपके अतिरिक्त मेरा कोई सहायक नहीं है ।
क्यों कि आप ही मेरे अत्यन्त हितैषी हो । 
यदि इस जगत् में अपराधी अपने अपराध के लिए नियमित रूप से दण्डित न हो ! तो इस समस्त संसार में अव्यवस्था उत्पन्न होकर संसार का विनाश हो जाएग तथा इसकी मर्यादा-भंग हो जाएगी ।१६-१७। हे ब्रह्मन् इस सन्दर्भ में और कुछ नहीं कहना चाहता हूँ , केवल अपनी गायें वापस चाहता हूँ। तथा संस्कृत में कुछ विशेष तथ्य देखें--- ________________________________________ "इति अम्बुपतिना प्रोक्तो वरुणेनाहमच्युत । गावां कारणत्वज्ञ:कश्यपे शापमुत्सृजन् ।२१ येनांशेन हृता गाव: कश्यपेन महर्षिणा । स तेन अंशेन जगतीं गत्वा गोपत्वमेष्यति।२२ द्या च सा सुरभिर्नाम अदितिश्च सुरारिण: ते८प्यमे तस्य भार्ये वै तेनैव सह यास्यत:।।२३ ताभ्यां च सह गोपत्वे कश्यपो भुवि संस्यते। स तस्य कश्यस्यांशस्तेजसा कश्यपोपम: ।२४ वसुदेव इति ख्यातो गोषु तिष्ठति भूतले । गिरिगोवर्धनो नाम मथुरायास्त्वदूरत: ।२५। तत्रासौ गौषु निरत: कंसस्य कर दायक:। तस्य भार्याद्वयं जातमदिति सुरभिश्च ते ।२६। देवकी रोहिणी देवी चादितिर्देवकी त्यभृत् ।२७। सतेनांशेन जगतीं गत्वा गोपत्वं एष्यति। ________________________________________ अनुवादित रूप :----हे विष्णु ! महात्मा वरुण के ऐसे वचनों को सुनकर तथा इस सन्दर्भ में समस्त ज्ञान प्राप्त करके भगवान ब्रह्मा ने कश्यप को शाप दे दिया। तथा कहा ।२१। कि कश्यप ने अपने जिस तेज से प्रभावित होकरउन गायों का अपहरण किया । उस पाप के प्रभाव वश होकर भूमण्डल पर आहीरों (गोपों)का जन्म धारण करें ।२२। तथा दौनों देव माता अदिति और सुरभि उनकी पत्नीयाें के रूप में पृथ्वी पर उनके साथ जन्म धारण करेंगी ।२३। इस पृथ्वी पर अहीरों ( ग्वालों ) का जन्म धारण कर महर्षि कश्यप दौनों पत्नीयाें अदिति और सुरभि सहित आनन्द पूर्वक जीवन यापन करते रहेंगे । हे राजन् वही कश्यप वर्तमान समय में कश्यप के तेज स्वरूप वसुदेव गोप के नाम से प्रसिद्ध होकर पृथ्वी पर गायों की सेना करते हुए जीवन यापन करते हैं। मथुरा के ही समीप गोवर्धन पर्वत है । उसी पर पापा कंस के अधीन होकर गोकुल पर राजंय कर रहे हैं। कश्यप की दौनों पत्नीयाें अदिति और सुरभि ही क्रमश: देवकी और रोहिणी के नाम से अवतीर्ण हुई हैं ।२४-२७। (उद्धृत सन्दर्भ ) पितामह ब्रह्मा की योजना नामक ३२वाँ अध्याय पृष्ट संख्या २३० अनुवादक पं० श्रीराम शर्मा आचार्य " ख्वाजा कुतुब वेद नगर बरेली संस्करण) _________________________________________ यह तथ्य भी प्रमाणित ही है ; कि ऋग्वेद का रचना काल ई०पू० १५०० के समकक्ष है । ऋग्वेद में कृष्ण को इन्द्र से युद्ध करने एक अदेव ( असुर) के रूप में वर्णित किया गया है। जो यमुना नदी ( अंशुमती नदी) के तट पर गोवर्धन पर्वत की उपत्यका में कहता है । अर्थात् ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल के सूक्त संख्या ९६ के श्लोक १३, १४,१५, पर असुर अथवा दास कृष्ण का युद्ध इन्द्र से हुआ है ।" _______________________________________ " आवत् तमिन्द्र शच्या धमन्तमप स्नेहितीर्नृमणा अधत्त। द्रप्सम पश्यं विषुणे चरन्तम् उपह्वरे नद्यो अंशुमत्या: न भो न कृष्णं अवतस्थि वांसम् इष्यामि।। वो वृषणो युध्य ताजौ ।।१४।। अध द्रप्सो अंशुमत्या उपस्थे८धारयत् तन्वं तित्विषाण: विशो अदेवीरभ्या (अदेव ईरभ्यां) चरन्तीर्बृहस्पतिना युज इन्द्र: ससाहे ।। १५।। _______________________________________ अर्थात् कृष्ण नामक असुर अंशुमती अर्थात् यमुना नदी के तटों पर दश हजार गोपों के साथ निवास करता है ,उसे अपनी बुद्धि-बल से इन्द्र ने खोज लिया है ! और उसकी सम्पूर्ण सेना (गोप मण्डली) को इन्द्र ने नष्ट कर दिया है । आगे इन्द्र कहता है :--कृष्ण को मैंने देख लिया है ,जो यमुना नदी के एकान्त स्थानों पर घूमता रहता है । यहाँ कृष्ण के लिए अदेव विशेषण है अर्थात् जो देव नहीं है __________________________________________ "कृष्ण के पूर्वज यदु को वेदों में पहले ही शूद्र घोषित कर दिया " तो कृष्ण भी शूद्र हुए ऋग्वेद में तो कृष्ण को असुर कहा ही है । क्योंकि वैदिक सन्दर्भों में जो दास अथवा असुर कहे गये हैं । लौकिक संस्कृत में उन्हें शूद्र कहा गया है। मनु-स्मृति का यह श्लोक इस तथ्य को प्रमाणित करता है । जो पुष्यमित्र सुंग ई०पू०१८४ के समकालिक निर्मित कृति है । ______________________________________ 
शर्मा देवश्च विप्रस्य वर्मा त्राता भूभुज: भूतिर्दत्तश्च वैश्यस्य दास शूद्रस्य कारयेत् ।। 

अर्थात् विप्र (ब्राह्मण) के वाचक शब्द शर्मा तथा देव हों, तथा क्षत्रिय के वाचक वर्मा तथा त्राता हों । और वैश्य के वाचक भूति अथवा दत्त हों तथा दास शूद्र का वाचक हो । हरिवंश पुराण में भी इन्द्र ने कृष्ण को शूद्र कह कर सम्बोधित किया है देखें---प्रमाण -- 
" तं वीक्ष्यं बालं महता तेजसा दीप्तमव्ययम् । 
गोप वेषधरं विष्णु प्रीति लेभे पुरन्दर: ।४। 

त साम्युजलद श्याम कृष्ण श्रीवत्स लक्षणम् । पर्याप्तनयन: शूद्र सर्व नेत्रैर् उदक्षत् ।५। 

दृष्टवा च एनं श्रिया जुष्टं मर्त्यलोके८मरोपमम्।
 शूपविष्टं शिला पृष्ठे शक्र स ब्रीडितो८भवत् ।६।

 अर्थात्:- जल युक्त मेघ के समान काले शूद्र कृष्ण को इन्द्र अपने हजारों नेत्रों से देखा जो हृदय पर श्रीवत्स लक्षणम् धारण किये हुए था ।४-५।
 पृथ्वी के एक शिला खण्ड पर विराजमान उस तेजस्वी बालकी शोभा देकर इन्द्र बड़ा लज्जित हुआ ।६। हरिवंश पुराण "श्रीकृष्ण का गोविन्द पद पर अभिषेक नामक ४९वाँ अध्याय पृष्ठ संख्या ३१४ सम्पादक पं० श्री राम शर्मा आचार्य ( ख्वाजा कुतुब वेद नगर बरेली संस्करण) __________________________________________ कृष्ण का सम्बन्ध मधु नामक असुर से स्थापित कर दिया है । और यादव और माधव पर्याय रूप में हैं । यादवों में मधु एक प्रतापी शासक माना जाता है । यह इक्ष्वाकु वंशी राजा दिलीप द्वितीय का अथवा उसके उत्तराधिकारी दीर्घबाहु का समकालीन रहा है , मधु के गुजरात से लेकर यमुना तट तक के स्वामी होने का वर्णन है । 
प्राय: मधु को `असुर`, दैत्य, दानव आदि कहा गया है । साथ ही यह भी है कि मधु बड़ा धार्मिक एवं न्यायप्रिय शासक था । मधु की स्त्री का नाम कुंभीनसी था, जिससे लवण का जन्म हुआ । 
लवण बड़ा होने पर लोगों को अनेक प्रकार से कष्ट पहुँचाने लगा । लवण को अत्याचारी राजा कहा गया है । इस पर दु:खी होकर कुछ ऋषियों ने अयोध्या जाकर श्री राम से सब बातें बताई और उनसे प्रार्थना की कि लवण के अत्याचारों से लोगों को शीघ्र छुटकारा दिलाया जाय । अन्त में श्रीराम ने शत्रुघ्न को मधुपुर जाने की आज्ञा दी लवण को मार कर शत्रुघ्न ने उसके प्रदेश पर अपना अधिकार किया । 
पुराणों तथा वाल्मीकि रामायण के अनुसार मधु के नाम पर मधुपुर या मधुपुरी नगर यमुना तट पर बसाया गया । यद्यपि अवान्तर काल में पुष्यमित्र सुंग ई०पू०१८४ के अनुयायी ब्राह्मण समाज ने वाल्मीकि-रामायण में बहुत सी काल्पनिक व विरोधाभासी कथाओं का समायोजन भी कर दिया ।
 अत: रामायण मे राम का कम मिलाबटराम का अधिक वर्णन है। फिर वाल्मीकि-रामायण के आधार पर यादवों के प्रति ब्राह्मणों की भावना परिलक्षित होती है । वाल्मीकि-रामायण में वर्णन है कि इसके मथुरा के आसपास का घना वन `मधुवन` कहलाता था । मधु को लीला नामक असुर का ज्येष्ठ पुत्र लिखा है और उसे बड़ा धर्मात्मा, बुद्धिमान और परोपकारी राजा कहा गया है । मधु ने शिव की तपस्या कर उनसे एक अमोघ त्रिशूल प्राप्त किया ।
 निश्चय ही लवण एक शक्तिशाली शासक था । किन्तु श्री कृष्ण दत्त वाजपेयी के मतानुसार 'चन्द्रवंश की 61 वीं पीढ़ी में हुआ उक्त 'मधु' तथा लवण-पिता 'मधु' एक ही थे अथवा नही, यह विवादास्पद है । परन्तु एक स्थान पर यदु का पुत्र मधु वर्णित है ।जिसने असुर संस्कृति का प्रसार किया । अस्तु ! यद्यपि यदु दो हैं हर्यश्व पुत्र यदु जो मधुवती के गर्भ से उत्पन्न होते हैं मधु असुर जिनके नाना हैं । परन्तु पुराणों में यह भी बताया गया कि ययाति पुत्र यदु ही योगेश बल से मधुवती के गर्भ में प्रवेश कर गये । ऐतिहासिक प्रणाम साक्षी हैं कि यहूदीयों का असीरियन जन-जाति से सेमेटिक होने से सजातीय सम्बन्ध है । अत: दौनो सोम अथवा साम वंशी हैं । अत: यादवों से असुरों के जातीय सम्बन्ध हैं । असीरियन जन-जाति को ही भारतीय पुराणों में असुर कहा है । जिन्हें भारतीय पुराणों में असुर कहा गया है वह यहूदीयों के सहवर्ती तथा सजातीय असीरियन लोग हैं । साम अथवा सोम शब्द हिब्रू एवं संस्कृत भाषा में समान अर्थक हैं । जिसके आधार पर सोम वंश की अवधारणा की गयी जिसे भारतीय पुराणों में चन्द्र से जोड़ कर काल्पनिक पुट दिया गया है । यह समग्र तथ्य यादव योगेश कुमार 'रोहि' के शोध पर आधारित असुरों का मैसॉपोटमिया की पुरातन कथाओं में एक परिचय :- थेसिस ( शोध श्रृंखला) पर आधारित हैं । हिन्दू धर्मग्रन्थों में असुर वे लोग हैं जो 'सुर' (देवताओं) से संघर्ष करते हैं। धर्मग्रन्थों में उन्हें शक्तिशाली, अतिमानवीय, के रूप में वर्णित किया गया है अर्थात् "असु राति इति असुर: अर्थात् जो प्राण देता है, वह असुर है "। इस रूप में चित्रित किया गया है। _______________________________________ 'असुर' शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में लगभग (१०५) बार हुआ है। उसमें ९० स्थानों पर इ सका प्रयोग 'असु युक्त अथवा प्राण -युक्त के अर्थ में किया गया है । और केवल १५ स्थलों पर यह 'देवताओं के शत्रु' का वाचक है। 'असुर' का व्युत्पत्ति -लभ्य अर्थ है :-प्राणवंत, प्राणशक्ति संपन्न :- ('असुरिति प्राणनामास्त: शरीरे भवति, निरुक्ति ३.८) और इस प्रकार यह वैदिक देवों के एक सामान्य विशेषण के रूप में व्यवहृत किया गया है। विशेषत: यह शब्द इंद्र, मित्र तथा वरुण के साथ प्रयुक्त होकर उनकी एक विशिष्ट शक्ति का द्योतक है। इंद्र के तो यह वैयक्तिक बल का सूचक है, परंतु वरुण के साथ प्रयुक्त होकर यह उनके नैतिक बल अथवा शासनबल का स्पष्टत: संकेत करता है। असुर शब्द इसी उदात्त अर्थ में पारसियों के प्रधान देवता 'अहुरमज़्द' ('असुर: महत् ') के नाम से विद्यमान है। यह शब्द उस युग की स्मृति दिलाता है जब वैदिक आर्यों तथा ईरानियों (पारसीकों) के पूर्वज एक ही स्थान पर निवास कर एक ही देवता की उपासना में निरत थे। अन्तर आर्यों की इन दोनों शाखाओं में किसी अज्ञात विरोध के कारण फूट पड़ी गई। परन्तु ये सब काल्पनिक उड़ाने हैं । क्यों आर्य तो असुरों का वीरता मूलक विशेषण था । फलत: वैदिक आर्यों ने 'न सुर: असुर:' यह नवीन व्युत्पत्ति मानकर असुर का प्रयोग दैत्यों के लिए करना आरम्भ किया । और उधर ईरानियों ने भी देव शब्द का ('दएव' के रूप में) अपने धर्म के दानवों के लिए प्रयोग करना शुरू किया। एक बात कि आर्य शब्द को हाइजैक क्या गया ये शब्द असीरियन जनजाति या अहुर मज्दा के अनुयायीयों का विशेषण उनका वीरता को द्योतित करने के लिए था यह अार्य शब्द वीर शब्द का सम्प्रसारण रूप है । अर्थात् ईरानी आर्यों की भाषा में देव का अर्थ दुष्ट व्यभिचारी,---------- फलत: वैदिक 'वृत्रघ्न' (इंद्र) अवेस्ता में 'वेर्थ्रोघ्न' के रूप में एक विशिष्ट दैत्य का वाचक बन गया तथा ईरानियों का 'असुर' शब्द पिप्रु आदि देवविरोधी दानवों के लिए ऋग्वेद में प्रयुक्त हुआ जिन्हें इंद्र ने अपने वज्र से मार डाला था।

 ईरानी आर्यों ने असुर शब्द पूज्य अर्थ में प्रयुक्त किया है (ऋक्. १०।१३८।३-४)। शतपथ ब्राह्मण की मान्यता है कि असुर देवदृष्टि से अपभ्रष्ट भाषा का प्रयोग करते हैं :--- (तेऽसुरा हेलयो हेलय इति कुर्वन्त: पराबभूवु:)। अर्थात् वे असुर हे अरय: हे अरय इस प्रकार करते हुए पराजित हो गये । विश्व एैतिहासिक सन्दर्भों में असुर मैसॉपोटमिया की संस्कृति में वर्णित असीरियन लोग थे। जिनकी भाषा में "र" वर्ण का उच्चारण "ल" के रूप में होता है । _________________________________________ वाल्मीकि-रामायण में वर्णित किया गया है, कि देवता सुरा पान करने के कारण देव सुर कहलाए , और जो सुरा पान नहीं करते वे असुर कहलाते थे । बालकाण्ड सर्ग 45 के 38 वें छन्द में ) सुर-असुर की परिभाषा करते हुये लिखा है- “सुरा पीने वाले सुर और सुरा नहीं पीने वाले असुर कहे गये l” _________________________________________ " सुरा प्रति ग्रहाद् देवा: सुरा इति अभिविश्रुता । अप्रति ग्रहणात् तस्या दैतेयाश्चासुरा: स्मृता ।। _________________________________________ वस्तुत देव अथवा सुर जर्मनिक जन-जातियाँ से सम्बद्ध हैं । स्वीडन के स्वीअर (Sviar)लोग ही भारतीय पुराणों में सुर देवों के रूप में सम्बद्ध हैं । यूरोपीय संस्कृतियों में सुरा एक सीरप (syrup) के समान है l यूरोपीय लोग शराब पीना शुभ और स्वास्थ्य प्रद समझते है । यह उनकी संस्कृति के लिए स्वास्थ्य प्रद परम्परा है । कारण वहाँ की शीतित जल-वायु के प्रभाव से बचने के लिए शराब औषधि तुल्य है ।

 फ्रॉञ्च भाषा में शराब को सीरप syrup ही कहते हैं । अत: वाल्मीकि-रामायण कार ने सुर शब्द की यह आनुमानिक व्युत्पत्ति- की है ।

 परन्तु सुर शब्द का विकास जर्मनिक जन-जाति स्वीअर (Sviar) से हुआ है । असुर और सुर दौनों शब्दों की व्युत्पत्ति भिन्न भिन्न हुई है पतञ्जलि ने अपने 'महाभाष्य' के पस्पशाह्निक में शतपथ के इस वाक्य को उधृत किया है। _________________________________________ शबर स्वामी ने 'पिक', 'नेम', 'तामरस' आदि शब्दों को असूरी भाषा का शब्द माना है। आर्यों के आठ विवाहों में 'आसुर विवाह' का सम्बन्ध असुरों से माना जाता है। पुराणों तथा अवान्तर साहित्य में 'असुर' एक स्वर से दैत्यों का ही वाचक माना गया है। असुर संस्कृति असीरियन लोगों की संस्कृति थी । असीरियन अक्काडियन ,हिब्रू आदि जातियों के आवास वर्तमान ईराक और ईरान के प्राचीनत्तम रूप में थे । जिसे यूनानीयों ने मैसॉपोटामिया अर्थात् दजला और फ़रात के मध्य की आवासित सभ्यता माना -- उत्तरीय ध्रव से भू-मध्य रेखीय क्षेत्रों में आगमन काल में आर्यों ने दीर्घ काल तक असीरियन लोगों से संघर्ष किया प्रणाम स्वरूप बहुत से सांस्कृतिक तत्व ग्रहण किये वेदों में अरि शब्द देव वाची है ।और असीरियन भाषा में भी अलि अथवा इलु के रूप में देव वाची ही है । देखें--- __________________________________________ विश्ववो हि अन्यो अरि: आजगाम ।
 मम इदह श्वशुरो न आजगाम । जक्षीयाद्धाना उत सोमं पपीयात् स्वाशित पुनरस्तं जगायात् ।। (10/28/1 ऋग्वेद ) 
अर्थात् ऋषि पत्नी कहती है कि सब देवता निश्चय हमारे यज्ञ में आये , परन्तु हमारे श्वशुर नहीं आये इस यज्ञ में यदि वे आते तो भुने हुए जौ के साथ सोमपान करते ।।10/28/1 यहाँ अरि शब्द घर का वाचक है ।
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 तथा अन्यत्र भी ऋग्वेद 8/51/9 - _____________________________________ यस्यायं विश्वार्यो दास: शेवधिपा अरि:।
 तिरश्चिदर्ये रुशमे पवीरवि तुभ्येत् सो अज्यते रयि:।। 

अरि: आर्यों का प्रधान देव था आर्यों ने स्वयं को अरि पुत्र माना । यहाँ अरि शब्द ईश्वर का वाचक है ।
 असुर संस्कृति में अरि: शब्द अलि के रूप में परिणति हुआ । सुमेरियन और बैबीलॉनियन तथा असीरियन अक्काडियन हिब्रू आदि संस्कृतियों में असुर संस्कृति में अरि: शब्द अलि के रूप में परिणति हुआ ।

 सुमेरियन और बैबीलॉनियन तथा असीरियन अक्काडियन हिब्रू आदि संस्कृतियों में अरि एल (el) इलु एलॉह elaoh तथा बहुवचन रूप एलोहिम Elohim हो गया । अरबों के अल्लाह शब्द का विकास अल् उपसर्ग Prefix के पश्चात् इलाह करने से हुआ है । निश्चित रूप से यादव मैसॉपोटमिया की पुरातन संस्कृति में यहुदह् के वंशज यहूदी हैं । तात्पर्य यही कि असुर संस्कृति यादव संस्कृति से सम्बद्ध थी ।
 असुरों के इतिहास को भारतीय पुराणों में हेय रूप में वर्णित किया गया है । 
बाणासुर की पुत्री उषा का विवाह कृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न से पुराणों में वर्णित है ।
 बाणासुर तथा लवणासुर ये सभी असुर संस्कृति के उपासक थे। 
लवण ने अपने राज्य को विस्तृत कर लिया ।
 इस काम में अपने बहनोई हृर्यश्व से मदद ली होगी । लवण ने राज्य की पूर्वी सीमा गंगा नदी तक बढ़ा ली और राम को कहलवाया कि 'मै तुम्हारे राज्य के निकट के ही राज्य का राजा हूँ ।' लवण की चुनौती से स्प्ष्ट था कि लवण की शक्ति बढ़ गई थी । लवण के द्वारा रावण की सराहना तथा राम की निंदा इस बात की सूचक है कि रावण की नीति और कार्य उसे पसंद थे । इससे पता चलता है कि लवण और उसका पिता मधु संभवत: किसी अनार्य शाखा के थे । प्राचीन साहित्य में मधु की नगरी मधुपुरी के वर्णनों से ज्ञात होता है कि उस नगरी का स्थापत्य श्रेष्ठ कोटि का था । शत्रुघ्न भी उस मनमोहक नगर को देख कर आर्श्चयचकित हो गये । वैदिक साहित्य में अनार्यौं के विशाल तथा दृढ़ दुर्गों एव मकानों के वर्णन मिलते हैं । संभवतः लवण-पिता मधु या उनके किसी पूर्वज ने यमुना के तटवर्ती प्रदेश पर अधिकार कर लिया हो । यह अधिकार लवण के समय से समाप्त हो गया । मधुवन और मधुपुरी के निवासियों या लवण के अनुयायिओं को शत्रुघ्न ने समाप्त कर दिया होगा । संभवत: उन्होंने मधुपुरी को नष्ट नहीं किया । उन्होंने जंगल को साफ़ करवाया तथा प्राचीन मधुपुरी को एक नये ढंग से आबाद कर उसे सुशोभित किया । (प्राचीन पौराणिक उल्लेखों तथा रामायण के वर्णन से यही प्रकट होता है ) रामायण में देवों से वर माँगते हुए शत्रुघ्न कहते हैं- `हे देवतागण, मुझे वर दें कि यह सुन्दर मधुपुरी या मथुरा नगरी, जो ऐसी सुशोभित है मानों देवताओं ने स्वयं बनाई हो, शीघ्र बस जाय । ` देवताओं ने `एवमस्तु` कहा और मथुरा नगरी बस गई यद्यपि ये कथाऐं काल्पनिक उड़ाने अधिक हैं । परन्तु इन व्यक्तित्वों के उपस्थिति के सूचक हैं । दास असुर अथवा शूद्र परस्पर पर्याय वाची हैं । अहीर प्रमुखतः एक हिन्दू भारतीय जाति समूह है । परन्तु कुछ अहीर मुसलमान भी हैं । पश्चिमीय पाकिस्तान के सिन्धु प्रान्त में .. और बौद्ध तथा कुछ सिक्ख भी हैं ,और ईसाई भी । अहीर एशिया की सबसे बड़ी जन-जाति है । भारत में अहीरों को यादव समुदाय के नाम से भी पहचाना जाता है, तथा अहीर व यादव या राव साहब ये सब के सब यादवों के ही विशेषण हैं। हरियाणा में राव शब्द यादवों का विशेषण है। भारत में दो हजार एक की जन गणना के अनुसार यादव लगभग २०० मिलियन अर्थात् २० करोड़ से अथिक हैं । भारत में पाँच सौ बहत्तर से अधिक गोत्र यादवों में हैं । __________________________________________ ” यहूदीयों की हिब्रू बाइबिल के सृष्टि-खण्ड नामक अध्याय Genesis 49: 24 पर --- अहीर शब्द को जीवित ईश्वर का वाचक बताया है ।
 ------------------------------------------------ The name Abir is one of The titles of the living god for some reason it,s usually translated( for some reason all god,s in Isaiah 1:24 we find four names of The lord in rapid succession as Isaiah Reports " Therefore Adon - YHWH - Saboath and Abir --Israel declares...
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Abir (अभीर )---The name reflects protection more than strength although one obviously -- has to be Strong To be any good at protecting still although all modern translations universally translate this name whith ---- Mighty One , it is probably best translated whith Protector ...
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यह नाम अबीर किसी जीवित देवता के शीर्षक में से किसी एक कारण से है। 
जिसे आमतौर पर अनुवाद किया गया है। (यशायाह 1:24 में किसी भी कारण से सभी ईश्वर यशायाह के रूप में बहुतायत से उत्तराधिकार में भगवान के चार नाम मिलते हैं) "इसलिए अदोन - YHWH यह्व : सबोथ और अबीर -इजराइल की घोषणा
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अबीर (अबर) --- नाम ताकत से अधिक सुरक्षा को दर्शाता है । यद्यपि एक स्पष्ट रूप से मजबूत होना जरूरी है। यद्यपि अभी भी सभी आधुनिक अनुवादक सार्वभौमिक रूप से इस नाम का अनुवाद करते हैं। शक्तिशाली (ताकतवर)यह शायद सबसे अच्छा अनुवाद किया है। --रक्षक । हिब्रू बाइबिल में तथा यहूदीयों की परम्पराओं में ईश्वर के पाँच नाम प्रसिद्ध हैं :-(१)-अबीर (२)--अदॉन (३)--सबॉथ (४)--याह्व्ह् तथा (५)--(इलॉही)बाइबल> सशक्त> हिब्रू> 46 _________________________________________ ◄ 46. अबीर ► सशक्त कमान अबीर: मजबूत मूल शब्द: אֲבִיר भाषण का भाग: विशेषण 'पौरुष ' लिप्यान्तरण: अबीर ध्वन्यात्मक :-वर्तनी: (अ-बियर ') लघु परिभाषा: एक संपूर्ण संक्षिप्तता शब्द उत्पत्ति:- अबार के समान ही परिभाषा बलवान अनुवाद शक्तिशाली एक (6) [אבִיר विशेषण रूप मजबूत; हमेशा = सशक्त, भगवान के लिए पुराने नाम (कविता में प्रयुक्त अबीर); केवल निर्माण में उत्पत्ति खण्ड(Genesis) 49:24 और उसके बाद से भजन संहिता (132: 2; भजन 132: 5; यशायाह (49:26; )यशायाह 60:16; יִשְׂרָאֵל 'या यशायाह 1:24 (सीए के महत्वपूर्ण टिप्पणी की तुलना करें) - 51 इस निर्माण को बैंक के लिए निर्दिष्ट करता है। __________________________________________ सशक्त की संपूर्णता पराक्रमी 'Abar से; शक्तिशाली (भगवान की बात की) - शक्तिशाली (एक) हिब्रू भाषा में 'अबीर रूप _________________________________________ रूप और लिप्यंतरण אֲבִ֖יר אֲבִ֣יר אֲבִ֥יר אביר לַאֲבִ֥יר לאביר 'ר ·יי' רḇייר एक वैर ला'एरीर ला · 'ḇ ḇîr laaVir 'Ă ḇîr - 4 ओक ला '' ırîr - 2 प्रा उत्पत्ति खण्ड बाइबिल:-- (49:24) יָדָ֑יו מִידֵי֙ אֲבִ֣יר יַעֲקֹ֔ב מִשָּׁ֥ם: याकूब के शक्तिशाली व्यक्ति के हाथों से : याकूब के शक्तिशाली [परमेश्वर] (अबीर )के हाथों से; : हाथ याकूब के पराक्रमी हाथ वहाँ भजन 132: 2 और याकूब के पराक्रमी को याकूब के पराक्रमी [ईश्वर] को वचन दिया; भगवान के लिए और याकूब के शक्तिशाली करने के लिए कसम खाई भजन 132: 5 : लेट्वाः लिबियूः יהו֑֑֑ מִ֝שְּנ֗וֹת לַאֲבִ֥יר יַעֲקֹֽב: याकूब के पराक्रमी एक के लिए एक आवास स्थान केजेवी: याकूब के शक्तिशाली [परमेश्वर] के लिए एक निवासस्थान : भगवान एक याकूब की ताकतवर(अबीर) निवास यशायाह 1:24 : יְהוָ֣ה צְבָא֔וֹת אֲבִ֖יר יִשְׂרָאֵ֑ל ה֚וֹי : मेजबान के, इज़राइल के पराक्रमी, केजेवी: सेनाओं के, इस्राएल के पराक्रमी, : सेनाओं के सर्वशक्तिमान इस्राएल के शक्तिशाली अहा यशायाह 49:26 : מֽוֹשִׁיעֵ֔ךְ וְגֹאֲלֵ֖ךְ אֲבִ֥יר יַעֲקֹֽב: ס : और अपने उद्धारकर्ता, याकूब के शक्तिशाली व्यक्ति : और तेरा उद्धारकर्ता, याकूब के शक्तिशाली व्यक्ति। : अपने उद्धारकर्ता और अपने उद्धारक याकूब की ताकतवर हूँ यशायाह 60:16 : מֽוֹשִׁיעֵ֔ךְ וְגֹאֲלֵ֖ךְ אֲבִ֥יר יַעֲקֹֽב: और अपने उद्धारकर्ता, याकूब के शक्तिशाली व्यक्ति : और तेरा उद्धारकर्ता, याकूब के शक्तिशाली व्यक्ति। अपने उद्धारकर्ता और अपने उद्धारक याकूब की ताकतवर हूँ

 ------------------------------------------------------------------- हिब्रू भाषा मे अबीर (अभीर) शब्द के बहुत ऊँचे अर्थ हैं- अर्थात् जो रक्षक है, सर्व-शक्ति सम्पन्न है इज़राएल देश में याकूब अथवा इज़राएल-- ( एल का सामना करने वाला )को अबीर का विशेषण दिया था । 

इज़राएल एक फ़रिश्ता है जो भारतीय पुराणों में यम के समान है ।
 जिसे भारतीय पुराणों में ययाति कहा है । ययाति यम का भी विशेषण है ।
 भारतीय पुराणों में विशेषतः महाभारत तथा श्रीमद्भागवत् पुराण में वसुदेव और नन्द दौनों को परस्पर सजातीय वृष्णि वंशी यादव बताया है । यादवों का सम्बन्ध पणियों ( Phoenician) सेमेटिक जन-जाति से भी है । इनकी भाषा यहूदीयों तथा असीरियन लोगों के समान ही है । 

भारतीय इतिहास कारों ने इन्हें वणिक अथवा वणिक कहा है । पणि कौन थे? संक्षेप में इस तथ्य पर भी विश्लेषण हो जाय । राथ के मतानुसार यह शब्द 'पण्=विनिमय' से बना है तथा पणि वह व्यक्ति है, जो कि बिना बदले के कुछ नहीं दे सकता।

 इस मत का समर्थन जिमर तथा लुड्विग ने भी किया है। लड्विग ने इस पार्थक्य के कारण पणिओं को यहाँ का आदिवासी व्यवसायी माना है। ये अपने सार्थ अरब, पश्चिमी एशिया तथा उत्तरी अफ़्रीका में भेजते थे और अपने धन की रक्षा के लिए बराबर युद्ध करने को प्रस्तुत रहते थे। दस्यु अथवा दास शब्द के प्रसंगों के आधार पर उपर्युक्त मत पुष्ट होता है।
 किन्तु आवश्यक है कि आर्यों के देवों की पूजा न करने वाले और पुरोहितों को दक्षिणा न देने वाले इन पणियों को धर्मनिरपेक्ष, लोभी और हिंसक व्यापारी कहा जा सकता है। ये आर्य और अनार्य दोनों हो सकते हैं। हिलब्रैण्ट ने इन्हें स्ट्राबो द्वारा उल्लिखित पर्नियन जाति के तुल्य माना है। जिसका सम्बन्ध दहा (दास) लोगों से था। फ़िनिशिया इनका पश्चिमी उपनिवेश था, जहाँ ये भारत से व्यापारिक वस्तुएँ, लिपि, कला आदि ले गए। मिश्र में रहने वाले ईसाई कॉप्ट Copt यहूदीयों की ही शाखा से सम्बद्ध हैं । 

Copts are one of the oldest Christian communities in the Middle East. Although integrated in the larger Egyptian nation, the Copts have survived as a distinct religious community forming today between 10 and 20 percent of the native population. They pride themselves on the apostolicity of the Egyptian Church whose founder was the first in an unbroken chain of patriots _________________________________________ कॉप्ट (Copt) मध्य पूर्व में सबसे पुराना ईसाई समुदायों में से एक है | 
यद्यपि बड़े मिस्र के राष्ट्र में एकीकृत, कॉप्ट्स आज एक अलग धार्मिक समुदाय के रूप में बचे हैं, जो आज की जनसंख्या के 10 से 20 प्रतिशत के बीच हैं। वे खुद को मिस्र के चर्च की धर्मोपयो गीता पर गर्व करते थे । जिनके संस्थापक देशभक्तों की एक अटूट श्रृंखला में सबसे पहले थे जो भारतीय इतिहास में गुप्त अथवा गुप्ता के रूप में देवमीढ़ के दो रानीयाँ मादिष्या तथा वैश्यवर्णा नाम की थी ।
 मादिषा के शूरसेन और वैश्यवर्णा के पर्जन्य हुए । शूरसेन के वसुदेव तथा पर्जन्य के नन्द हुए नन्द नौ भाई थे ।
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 धरानन्द ,ध्रुवनन्द ,उपनन्द ,अभिनन्द सुनन्द ________________________________ 
कर्मानन्द धर्मानन्द नन्द तथा वल्लभ ।
 हरिवंश पुराण में वसुदेव को भी गोप कहकर सम्बोधित किया है । _________________________________________ "इति अम्बुपतिना प्रोक्तो वरुणेन अहमच्युत ! गावां कारणत्वज्ञ सतेनांशेन जगतीं गत्वा गोपत्वं एष्यति !! अर्थात् हे विष्णु वरुण के द्वारा कश्यप को व्रज में गोप (आभीर) का जन्म धारण करने का शाप दिया गया .. क्योंकि उन्होंने वरुण की गायों का अपहरण किया था.. ________________________________________ _ हरिवंश पुराण--(ब्रह्मा की योजना नामक अध्याय) ख्वाजा कुतुब वेद नगर बरेली संस्करण पृष्ठ संख्या १३३---- और गोप का अर्थ आभीर होता है । “आभीरवामनयनाहृतमानसाय दत्तं मनो यदुपते ! तदिदं गृहाण” उद्भटः स च सङ्कीर्ण्णवर्ण्णः। यहाँ आभीर और यदुपति परस्पर पर्याय वाची हैं । और आपको हम यह भी बता दे कि भारत की प्राय: सभी शूद्र तथा पिछड़े तबके (वर्ग-) की जन-जातियाँ यदु की सन्ताने हैं । जिनमें जादव जो शिवाजी महाराज के वंशज महारों का एक कब़ीलाई विशेषण है । सन् १९२२ में इसी मराठी जादव( जाधव) शब्द से पञ्जाबी प्रभाव से जाटव शब्द का विकास हुआ। यादवों की शाखा जाट ,गुर्जर ,(गौश्चर) गो चराने वाला होने से तथा लगभग ५७२ गोत्र यादवों के हैं । शिक्षा से ये लोग वञ्चित किए गये इस कारण इनमें संस्कार हीनता तथा आपराधिक प्रवृत्तियों का भी विकास हुआ । 
ब्राह्मण जानते हैं कि ज्ञान ही संसार की सबसे बड़ी शक्ति है । यदि ये ज्ञान सम्पन्न हो गये तो हमारी गुलामी कौन करेगा ? अतः ब्राह्मणों ने स्त्रीशूद्रौ नाधीयताम् वेद वाक्य के रूप में विधान पारित कर दिया । _________________________________________

 यादवों का एक विशेषण है घोष --- आयो घोष बड़ो व्यापारी | लादि खेप गुन-ज्ञान जोग की, ब्रज में आन उतारी || 

फाटक दैकर हाटक मांगत, भोरै निपट सुधारी धुर ही त
ें खोटो खायो है, लए फिरत सिर भारी ||

 इनके कहे कौन डहकावै ,ऐसी कौन अजानी अपनों दूध छाँड़ि को पीवै, खार कूप को पानी ||

 ऊधो जाहु सबार यहाँ ते, बेगि गहरु जनि लावौ | 
मुंह मांग्यो पैहो सूरज प्रभु, साहुहि आनि दिखावौ || 

वह उद्धव घोष की शुष्क ज्ञान चर्चा को अपने लिए निष्प्रयोज्य बताते हुए उनकी व्यापारिक-सम योजना का विरोध करते हुए कहती हैं –

 घोषम्, क्ली, (घोषति शब्दायते इति ।
 घुष विशब्दने अच् ) कांस्यम् । 
इति राजनिर्घण्टः ॥ घोषः, पुं, (घोषन्ति शब्दायन्ते गावो यस्मिन् । घुषिर् विशब्दने “हलश्च ।” ३ । ३ । १२१ । इति घञ् ।) आभीरपल्ली । (यथा, रघुः । १ । ४५ । 

“हैयङ्गवीनमादाय घोषवृद्धानुपस्थितान् । 
नामधेयानि पृच्छन्तौ वन्यानां मार्गशाखिनाम् ॥ 
” घोषति शब्दायते इति । घुष कर्त्तरि अच् ।) गोपालः । (घुष भावे घञ् ) ध्वनिः । (यथा, मनुः । ७ । २२५ । “तत्र भुक्त्वा पुनः किञ्चित् तूर्य्यघोषैः प्रहर्षितः । संविशेत्तु यथाकालमुत्तिष्ठेच्च गतक्लमः ॥”) घोषकलता । कांस्यम् । मेघशब्दः । इति मेदिनी । । ११ ॥ मशकः । इति त्रिकाण्ड- शेषः ॥
 (वर्णोच्चारणवाह्यप्रयत्नविशेषः । 

यदुक्तं शिक्षायाम् । २० । “संवृतं मात्रिकं ज्ञेयं विवृतं तु द्बिमात्रिकम् । घोषा वा संवृताः सर्व्वे अघोषा विवृताः स्मृताः ॥”) कायस्थादीनां पद्धतिविशेषः ।
 (यथा, कुलदीपि- कायाम् ।
 “वसुवंशे च मुख्यौ द्वौ नाम्ना लक्षणपूषणौ । घोषेषु च समाख्यातश्चतुर्भुजमहाकृती ॥”) 

परन्घोष श्ब्द भी वैदिक शब्द गोष: ( गाम् सनोति सेवयति इति गोष:
का विकसित रूप है ।
जिस अर्थ है गायों की सेवा करने वाला ।

अमरकोशः व्रज में गोप अथवा आभीर घोष कहलाते हैं । संज्ञा स्त्री०[संघोष कुमारी] गोपबालिका । 
गोपिका । उ०—प्रात समै हरि को जस गावत उठि घर घर सब घोषकुमारी ।—
(भारतेंदु ग्रन्थावली भा० २, पृ० ६०६ ) ___________________________________

 संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० आभीरी] १. 
अहीर । ग्वाल । गोप — आभीर जमन किरात खस स्वपचादि 
अति अघ रुप जे । 
(राम चरित मानस । ७ । १३० ) 
तुलसी दास ने अहीरों का वर्णन भी विरोधाभासी रूप में किया है । 
कभी अहीरों को निर्मल मन बताते हैं तो कभी अघ 
( पाप ) रूप देखें - "नोइ निवृत्ति पात्र बिस्वासा । 
निर्मल मन अहीर निज दासा- (राम चरित मानस, ७ ।११७ ) 

विशेष—ऐतिहासिकों के अनुसार भारत की एक वीर और प्रसिद्ध यादव जाति जो कुछ लोगों के मत से बाहर से आई थी ।
 इस जातिवालों का विशेष ऐतिहसिक महत्व माना जाता है । कहा जाता है कि उनकी संस्कृति का प्रभाव भी भारतीय संस्कृति पर पड़ा ।
 वे आगे चलकर आर्यों में घुलमिल गए ।
परन्तु आर्य थ्यौरी ही गलत है .
आर्य का अर्थ वीर या  यौद्धा है|
और यह शब्द सैमेटिक भी है .

 इनके नाम पर आभीरी नाम की एक अपभ्रंश (प्राकृत) भाषा भी थी । य़ौ०—आभीरपल्ली= अहीरों का गाँव । ग्वालों की बस्ती । २. एक देश का नाम । ३. एत छंद जिसमें ११ । 
मात्राएँ होती है और अंत में जगण होता है । जैसे—यहि बिधि श्री रघुनाथ । गहे भरत के हाथ । पूजत लोग अपार । गए राज दरबार । ४. एक राग जो भैरव राग का पुत्र कहा जाता है । संज्ञा पुं० [सं० आभीर] [स्त्री० अहीरिन] 

एक जाति जिसका काम गाय भैंस रखना और दूध बेचना है । 
ग्वाला । 
रसखान अहीरों को अपने -ग्रन्थों में कृष्ण के वंश के रूप में वर्णित करते हैं । 
या लकुटी अरु कामरिया पर, राज तिहूँ पुर को तजि डारौं। 
आठहुँ सिद्धि, नवों निधि को सुख, नंद की धेनु चराय बिसारौं॥

 रसखान कबौं इन आँखिन सों, ब्रज के बन बाग तड़ाग निहारौं।
 कोटिक हू कलधौत के धाम, करील के कुंजन ऊपर वारौं॥ 

सेस गनेस महेस दिनेस, सुरेसहु जाहि निरंतर गावै।
 जाहि अनादि अनंत अखण्ड, अछेद अभेद सुबेद बतावैं॥

 नारद से सुक व्यास रहे, पचिहारे तऊ पुनि पार न पावैं। 
ताहि अहीर की छोहरियाँ, छछिया भरि छाछ पै नाच नचावैं॥

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 हरिवंश पुराण में यादवों को घोष कहा है । 
हरिवंश पुराण में यादवों अथवा गोपों के लिए घोष (घोषी) शब्द का बहुतायत से प्रयोग है । _________________________________________ 

ताश्च गाव: स घोषस्तु स च सकर्षणो युवा। 
कृष्णेन विहितं वासं तमध्याससत निर्वृता ।३५। __________________________________________ 

अर्थात् उस वृदावन में सभी गौऐं , गोप (घोष) तथा संकर्षण आदि सब कृष्ण के साथ आनन्द पूर्वक निवास करने लगे ।३५। 

हरिवंश पुराण श्रीकृष्ण का वृन्दावन गमन नामक ४१वाँ अध्याय। __________________________________________ वेदों में मितज्ञु के रूप में मितन्नी मरुत के रूप में एमोराइट पणिस्   के रूप पणि फोनिशी के रूप में हैं
मिश्र में तथा पश्चिमी  एशिया  तक में और भारत में पायी जाने वाली अभीर यादव जाति का वर्णन अभीरु अथवा अभीर रूप में है !
अभीर  वीर जनजातित का विशेषण है!


देवता: मरुतः ऋषि: गोेैतमो राहूगणपुत्रः छन्द: 
निचृज्जगती स्वर: निषादः अलंकार:  उपमा 
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श्रियसे। कम्। भानुऽभिः। सम्। मिमिक्षिरे। ते। रश्मिऽभिः। ते। ऋक्वऽभिः। सुऽखादयः। ते। वाशीऽमन्तः। इष्मिणः। अभीर वः। विद्रे। प्रियस्य। मारुतस्य। धाम्नः ॥
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श्रियसे कं भानुभिः सं मिमिक्षिरे ते रश्मिभिस्त ऋक्वभिः सुखादयः।

जैसे सूर्य अपनी किरणों की ऊष्मा  और प्रकाश अपनी सतुति करने वालो के लिए सुख से सिंचित करता है
और अपने शत्रु  अन्धकार..और जडता को अपने किरण रूपी वाणों से डुबो देता है !
उसी प्रकार  अभीर जो बलवान् जो मरुतों के गृहस्थान से उदघोष करते हुए  गतिमान होकर वाणों को केन्द्र में सन्धान करते  हैं |


 ते वाशीमन्त (वाश तिरश्चां शब्दे आह्वाने वशीकरणे च सकारात्मक दि० आत्मनेपदीय सेट् ऋदित् चङि न ह्रस्वः)

 । इष्मिणो (वेग शाली) अभीर( निर्भीक यौद्धा ) वो (बलवान् )विद्रे (केन्द्र में) 
इषुणा विध्यन्तिइषौ कुशलो वा  ये  अभीरव: जना: विद्रे लक्ष्ये केन्द्रे वा !

 प्रियस्य  मारुतस्य धाम्नः( प्रिय मारुत के 💝 गृह से )  ॥

पद पाठ
श्रि॒यसे _ श्रयसे (तुम ऊष्मा करते हो ) कम् _कमु
 
कान्तौ। भा॒नुऽभिः॑ रविभिः| सम् समानम् । मि॒मि॒क्षि॒रे॒ (मिह् धातौ लिट्लकार प्रथम पुरूष बहुवचन रूप  )। ते अमी । र॒श्मिऽभिः॑किरणैः । ते अमी । ऋक्व॑ऽभिः स्तुतिभिः । सु॒ऽखा॒दयः॑। ते। वाशीऽमन्तः।  इ॒ष्मिणः॑ _गतिमन्तः। अभी॑र  बलवान्  _वः। वि॒द्रे_छिद्रे। प्रि॒यस्य॑। मारु॑तस्य। धाम्नः॑ ॥

ऋग्वेद » मण्डल: प्रथम » सूक्त:87» ऋचा:6 | 
 
पदार्थान्वयभाषाः - (भानुभिः) सूर्यों से (कम्) प्रकाश को (श्रियसे) ऊष्मा के लिये (ते) वे (प्रियस्य) प्रिय का (मारुतस्य) मारुत का (धाम्नः)  धाम से, घर से  (सम्+मिमिक्षिरे) मिमिहुः इष्णन्ति अच्छे प्रकार प्रकीर्ण सिंचन करना चाहते हैं (ते) (रश्मिभिः) किरणों से  (विद्रे) केन्द्रे  (ऋक्वभिः)स्तुतिभिः स्तुतियों से (सुखादयः) 
(ते) वे  (वाशीमन्तः)  उद्घोष करते हुए  (इष्मिणः)  गतिशील  वे (अभीरवः) वे अभीर निर्भय पुरुष  मारुतों के घर से युद्ध में प्रवृत्त होते हैं, 
 ॥ ६ ॥
वैसे ही अभीर बलवान् यौद्धा अपने स्फूर्तिमयी वाणों से विरोधीयों को वश में करते हुए अथवा आह्वान करते हुए  होते हैं ! 
जैसे सूर्य अपनी ऊष्मामयी किरणों से अन्धकार और शीत को  
आक्रान्त करता हुआ होता है ..

यहाँ उपमा अलंकार है गुण वीरता अथवा तेज और वाचक शब्द सम है |
अभीरु मितज्ञु और एमोराइत मारुत ये जन जातियाँ प्राचीनत्तम हैं | 

जिनका वर्णन मेसोपोटामिया की सभ्यताओं में भी है |

प्रेषित यह सन्देश का उद्देश्य एक भ्रान्ति का निवारण है आज अहीरों को कुछ रूढ़िवादीयों द्वारा फिर से परिभाषित करने की असफल कुचेष्टाऐं की जा रहीं अतः उसके लिए यह सन्देश आवश्यक है ।
 कि इसे पढ़े....... 
और अपना मिथ्या वितण्डावाद बन्द करें ..

3 टिप्‍पणियां:

  1. Sanskrit pel ne kuchh prove nhi ho jata smjhe......???
    Do kaudi ki sanskrit kitabo ka translation krke dikha rhe ho ye bahut prachin hai.....Abhi bhi samy hai in purabiye/bihario ke chakkar me mar pado vo sabko shudra bnate rhte hai.....👺👺👺

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    1. Aankhe band kar lene se raat nahi ho jaati. Satya ko sweekar karna chahiye. Jo uper likha hei wahi pratham aur antim satya hei

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  2. Kya bkwaas krte rhte ho...???
    Paryavachi se kya hota hai...???
    Agar Narendra Modi ka paryayvachi pm hai...to iska kya matlab hai ki duniya ke saare modi pm bn gye.....ek dum jaahilo vaali baat krte ho.....!!!

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