गुरुवार, 24 जनवरी 2019

अधिकरण का प्रकार - औपश्लेषिक अधिकरण


व्याकरण में कर्ता और कर्म द्वारा क्रिया का आधार ही अधिकरण है ।
यह सातवाँ कारक ।
इसकी विभक्तियाँ 'में ओर पर' हैं ।
व्याकरण में अधिकरण कारक के अतर्गत तीन आधारों में से वह आधार जिसके किसी अंश ही से दूसरी वस्तु का लगाव हो।
जैसे,—वह चटाई पर बैठा है ।
वह बटलोई में पकाता है ।
यहाँ चटाई और बटलोई औपश्लेषिक आधार हैं ।

औपश्लेषिक आधार:- जहां आधार का आधेय के साथ एकदेशीय सम्बन्ध हो वहाँ औपश्लेषिक आधार होता है यथा:-
ऋजीषे रोटिकां भर्जति = ऋषीज (तवे) पर रोटी सेकता है।
तल्पे शेते = गद्दे पर सोता/ती है।

नद्यां तरति = नदी में तैरता/ती है।

जलाशये जलं पिबति = तालाब से पानी पीता/ती है।

सरस्यां स्नाति = तालाब में नहाता/ती है।

ह्रदे स्थित्वा हृष्यति =
तालाब में खड़ा होकर प्रसन्न होता है।

कटाहे वटकान् तलति = कड़ाही में वड़े तलता/ती है।

समानार्थक:ऋजीष,पिष्टपचन 

सप्तम्यधिकरणे च’

- इस सूत्र से अधिकरण आधार में सप्तमी विभक्ति होती है।
आधार तीन तरह का होता है

1-औपश्लेषिक

2-वैषयिक

3-अभिव्यापक।

1.औपश्लेषिक:- जहाँ आधार का आधेय के साथ संयोग आदि संबंध रहता है, उसको ‘औपश्लेषिक आधार’ कहते हैं (यह आधार एकदेशीय होता है);
जैसे- ‘कटे आस्ते’ (चटाई पर बैठता है)-
यहाँ ‘कट’ का बैठने वाले के साथ संयोग संबंध है,
अतः ‘कट’ औपश्लेषिक आधार है।
इसी प्रकार ‘स्थाल्यां पचति’ आदि उदाहरण समझने चाहिए।

श्रीमद्भागवत् गीता में इसके प्रयोग इस प्रकार हुए हैं- ‘शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः,

‘उपविश्य आसने’ आदि।

समीपता के कारण भी औपश्लेषिक आधार माना जाता है; जैसे ‘गुरौ वसति’ (गुरु के समीप रहता है),

‘वटे गावः शेरते’ (वट के समीप गायें सोती हैं),

‘गंगायां घोषः’ (गंगा के समीप यादव घोषीयों का गाँव है) आदि।

2. विषयता संबंध से जब किसी को आधार माना जाता है, तब वह ‘वैषयिक आधार’ होता है।
यह आधार बौद्धिक होता है।
जैसे, ‘मोक्षे इच्छास्ति’ (मोक्ष में विषय इच्छा है)।

यहाँ इच्छा का विषय मोक्ष है। दूसरे शब्दों में, सत्तारूप क्रिया (अस्ति) का आधार ‘इच्छा’ कर्ता है और उस कर्ता का भी विषयत्वेन आधार ‘मोक्ष’ है।

इसी प्रकार ‘व्याकरणे रुचिः’, ‘शिवे भक्ति’ आदि उदाहरण समझने चाहिए।

श्रीमद्भागवत् गीता में भी इसके प्रयोग आये हैं;
जैसे- ‘निश्चयं शृणु मे तत्र त्यागे’,[ ‘तत्र’]आदि।

3. जहाँ आधार के प्रत्येक अवयव में आधेय की सत्ता विद्यमान हो, वहाँ ‘अभिव्यापक आधार’ मानना चाहिए।
जैसे, ‘सर्वस्मिन् आत्मा८स्ति’ (सब में आत्मा है)- यहाँ सत्तारूप क्रिया (अस्ति) का आधार ‘आत्मा’ कर्ता है और उस कर्ता का भी अभिव्यापक आधार ‘सर्व’ है।

इसी प्रकार ‘तिलेषु तैलम्’, ‘दध्नि सर्पिः’, ‘पयसि घृतम्’ आदि उदाहरण समझने चाहिए।
श्रीमद्भागवत् गीता में भी ‘समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम्,

‘समोऽहं सर्वभूतेषु’

आदि प्रयोग हैं।

अधिकरण कारक की मुख्य दो विभक्तियाँ हैं : मैं और पर।
इन दोनों विभक्तियों के अर्थ और प्रयोग अलग-अलग हैं, इसलिए इनका विचार अलग-अलग किया जायगा।

. 'में ' का प्रयोग नीचे लिखे अर्थों में होता है :

(क) अभिव्यापक आधार : दूध में मिठास, तिल में तिल, फूल में सुगंध, आत्मा सब में व्याप्त है।

अधिकरण:- आधार को व्याकरण में अधिकरण कहते हैं और जो बहुधा तीन प्रकार का होता है।
1-अभिव्यापक आधार वह है, जिसके प्रत्येक भाग में आधेय पाया जाय; इसे व्याप्ति आधार भी कहते हैं।

2-औपश्लेषिक आधार वह कहलाता है जिसके किसी एक भाग में आधेय रहता है जैसे : नौकर कोठे में सोता है, लड़का घोड़े पर बैठा है।
इसे एकदेशाधार भी कहते हैं।

3-वैषयिक:- तीसरा आधार वैषयिक कहलाता है और उससे विषय का बोध होता है, जैसे : धर्म में रुचि, विद्या में प्रेम।
इसका नाम विषयाधार भी है।

(ख) औपश्लेषिक आधार : वह वन में रहता है, किसान नदी में नहाता है ,मछलियाँ समुद्र में रहती हैं, पुस्तक कोठे में रखी है।

(ग) वैषयिक आधार : नौकर काम में है, विद्या में उसकी रुचि है ,इस विषय में कोई मतभेद नहीं है, रूप में सुंदर, डील में ऊँचा, गुण में पूरा आदि ।

( घ ) मोल : पुस्तक चार आने में मिली, उसने बीस रुपये में गाय ली, यह कपड़ा तुमने कितने में बेचा?

: मोल के अर्थ में संप्रदान, संबंध और अधिकरण आते हैं।

इन तीनों प्रकार के अर्थों में यह अंतर जान पड़ता है कि संप्रदान कारक से कुछ अधिक दामों का, अधिकरण कारक से कुछ कम दामों का, और संबंध कारकों से उचित दामों का बोध होता है, जैसे : मैंने बीस रुपये की गाय ली, मैंने बीस रुपये में गाय ली और मैंने बीस रुपये को गाय ली।)

(ङ) मेल तथा अंतर : हममें तुममें कोई भेद नहीं, भाई भाई में प्रीति है, उन दोनों में अनबन है।

(च) कारण : व्यापार में उसे टोटा पड़ा, क्रोध में शरीर छीजता है, बातों में उड़ाना, एेसा करो जिसमें (वा जिससे) प्रयोजन सिद्ध हो जाए।

(छ) निर्धारण : देवताओं में कौन अधिक पूज्य है? सती स्त्रियाों में पद्मिनी प्रसिद्ध है, सबमें छोटा, अंधों में काने राजा, तिन महँ रावण कवन तुम? नव महँ जिनके एको होई।

(ज) स्थिति : सिपाही चिंता में है, उसका भाई युद्ध में मारा गया, रोगी होश में नहीं है, नौकर मुझे रास्ते में मिला, लड़के चैन में हैं।

(झ) निश्चित काल की स्थिति : वह एक घंटे में अच्छा हुआ, दूत कई दिनों में लौटा, संवत् 1953 में अकाल पड़ा था, प्राचीन समय में भोज नाम का एक प्रतापी राजा हो गया है।

(हिंदी व्याकरण)

. भरना, समाना, घुसना, मिलना, मिलाना आदि कुछ क्रियाओं के साथ व्याप्ति के अर्थ में अधिकरण का चिह्र 'में ' आता है जैसे : घड़े में पानी भरो, लाल में नीला रंग मिल जाता है, पानी धरती में समा गया।

. गत्यर्थ क्रियाओं के साथ निश्चित स्थान की वाचक संज्ञाओं में अधिकरण-कारक का 'में ' चिह्र लगाया जाता है जैसे : लड़का कोठे में गया, नौकर घर में नहीं आता, वे रात के समय गाँव में पहुँचे, चोर जंगल में जायगा।

: गत्यर्थ क्रियाओं के साथ और निश्चित कालवाचक संज्ञाओं में अधिकरण के अर्थ में कर्मकारक भी आता है
। 'वह घर को गया' और 'वह घर में गया', इन दो वाक्यों में कारक के कारण अर्थ का कुछ अंतर है। पहले वाक्य से घर की सीमा तक जाने का बोध होता है, दूसरे से घर के भीतर जाने का अर्थ पाया जाता है।)

. 'पर' नीचे लिखे अर्थ सूचित करता है :

(क) एकदेशाधार : सिपाही घोड़े पर बैठा है, लड़का खाट पर सोता है, गाड़ी सड़क पर जा रही है, पेड़ों पर चिड़ियाँ चहचहा रही हैं।

: 'में ' विभक्ति से भी यही अर्थ सूचित होता है। 'में ' और 'पर' के अर्थ में यह अंतर है कि पहले से अंतस्थ और दूसरे से बाह्य स्पर्श का बोध होता है।

यही विशेषता बहुधा दूसरे ग्रंथों में भी पाई जाती है।)

(ख) सामीप्याधार : मेरा घर सड़क पर है, लड़का द्वार पर खड़ा है, तालाब पर मंदिर है, फाटक पर सिपाही रहता है।

( ग) दूरता : एक कोस पर, एक-एक हाथ के अंतर पर, कुछ आगे जाने पर एक कोस की दूरी पर।

(घ) विषयाधार : नौकरों पर दया करो, राजा उस कन्या पर मोहित हो गए, आप पर मेरा विश्वास है, इस बात पर बड़ा विवाद हुआ, जाकर जेहि पर सत्य सनेहू जातिभेद पर कोई आक्षेप नहीं करता।

(ङ) कारण : मेरे बोलने पर वह अप्रसन्न हो गया, इस बात पर सब झगड़ा मिट जायगा, लेने-देने पर कहा-सुनी हो गई। अच्छे काम पर इनाम मिलता है, पानी के छोटे छीटों पर राजा को बटबीज की याद आई।

(हिंदी व्याकरण /

(च) अधिकता : इस अर्थ में संज्ञा की द्विरुक्ति होती है जैसे : घर से चिट्ठियों पर चिट्ठियाँ आती हैं (सर॰), दिन पर दिन भाव चढ़ रहा है, तगादे पर तगादा भेजा जा रहा है, लड़ाई में सिपाहियों पर सिपाही कट रहे हैं।

(ज) नियमपालन : वह अपने जेठों की चाल पर चलता है, लड़के माँ-बाप के स्वभाव पर होते हैं, अंत में वह अपनी जाति पर गया, तुम अपनी बात पर नहीं रहते।

(झ) अनंतरता : भोजन करने पर पान खाना, बात पर बात निकलती है, आपका पत्र आने पर सब संबंध हो जाएगा।

(ञ) विरोध अथवा अनादर : इस अर्थ में 'पर' के पश्चात् बहुधा भी 'आता' है, जैसे : यह औषधि वात रोग पर भी चलती है, जले पर भी नोन लगाना, लड़का छोटा होने पर भी चतुर है, इतना होने पर भी कोई निश्चय न हुआ, मेरे कई बार समझाने पर भी वह दुष्कर्म नहीं छोड़ता।

जहाँ, कहाँ, यहाँ, वहाँ, ऊँचे, नीचे आदि कुछ स्थानवाचक क्रियाविशेषण के साथ विकल्प से 'पर' आता है जैसे : पहले जहाँ पर सभ्यता ही अंकुरित फूली फली (भारत॰)। जहाँ अभी समुद्र है, वहाँ पर किसी समय जंगल था (सर॰)। ऊपरवाला पत्थर 30 फुट से अधिक ऊँचे पर था (विचित्र॰)।

551. चढ़ना, मरना, इच्छा करना, घटना, छोड़ना, वारना, निछावर, निर्भर आदि शब्दों के योग से बहुधा 'पर' का प्रयोग होता है जैसे : पहाड़ पर चढ़ना, नाम पर मरना, आज का काम कल पर मत छोड़ो, मेरा जाना आपके आने पर निर्भर है, तो पर वारों उरबसी।

552. ब्रजभाषा में 'पर' का रूप 'पै' है, और यह कभी-कभी 'से' का पर्याय होकर करणकारक में आता है जैसे : मो पै चल्यो नहीं जातु। कभी-कभी यह पास के अर्थ में प्रयुक्त होता है जैसे : निज भावते पै अबही मोहि जाने (जगत॰)। हमपै एक भी पैसा नहीं है। इस विभक्ति का प्रयोग बहुधा कविता में होता है।

553. कभी-कभी 'में ' और 'पर' आपस में बदल जाते हैं जैसे : क्या आप घर पर (घर में) मिलेंगे, नौकर दूकान पर (दुकान में) बैठा है, उसकी देह में (देह पर) कपड़ा नहीं है, जल में (जल पर) गाड़ी नाव पर, थल गाड़ी पर नाव।

554. अधिकरण कारक की विभक्ति के साथ कभी-कभी अपादान और संबंध कारकों की विभक्ति का योग होता है और जिस शब्द के साथ ये विभक्तियाँ आती हैं , उससे दोनों विभक्तियों का अर्थ पाया जाता है जैसे : वह घोड़े पर से गिर पड़ा जहाज पर के यात्रयों ने आनंद मनाया इस नगर में का कोई आदमी तुमको जानता है? हिंदुओं में से कई लोग विलायत को गए हैं डोरी पर का नाच बहुत ही मुझे भाया !

( हिंदी व्याकरण)

कई एक कालवाचक और स्थानवाचक क्रियाविशेषणों में और विशेषकर आकारांत संज्ञाओं में अधिकरण कारक की विभक्तियों का लोप हो जाता है जैसे : इन दिनों हर एक चीज महँगी है, उस समय मेरी बुद्धि ठिकाने नहीं थी, मैं उनके दरवाजे कभी नहीं गया, छह बजे सूरज निकलता है, उस जगह बहुत भीड़ थी, हम आपके पाँव पड़ते हैं।

(अ) प्राचीन कविता में इन विभक्तियों का लोप बहुधा होता है जैसे :

पुत्र, फिरिय बन बहुत कलेसू (
राम॰)।
ठाढ़ी अजिर यशोदा रानी
(ब्रज॰)।

जो सिर धरि महिमा मही, लहियत राजा राव।
प्रगटत जड़ता आपनी, मुकुट सु पहिरत पाव॥
(सत॰)

556. अधिकरण की विभक्तियों का नित्य लोप होने के कारण कई एक संज्ञाओं का प्रयोग संबंधसूचक के समान होने लगा है जैसे : वश, किनारे, नाम, विषय, लेखे, पलटे (दे॰ अंक : 239)

557. कोई-कोई वैयाकरण 'तक', 'भर', 'बीच', 'तले' आदि कई एक अव्ययों को अधिकरण कारक की विभक्तियों में गिनते हैं पर ये शब्द बहुधा संबंधसूचक अथवा क्रियाविशेषण के समान प्रयोग में आते हैं, इसलिए इन्हें विभक्तियों में गिनना भूल है। इनका विवेचन यथास्थान हो चुका है।

संबोधन कारक:-

. इस कारक का प्रयोग किसी को चिताने अथवा पुकारने में होता है जैसे : भाई, तुम कहाँ गए थे? मित्र, करो हमारी शीघ्र सहाय (सर॰)।

. संबोधन कारक के साथ (आगे या पीछे) बहुधा कोई एक विस्मयादिबोधक शब्द आता है, जो भूल से इस कारक की विभक्ति मान लिया जाता है जैसे : तजो रे मन हरि बिमुखन को संग
। हे प्रभु, रक्षा करो हमारी। भैया हो, यहाँ तो आओ।

(क) कविता में कवि लोग बहुधा अपने नाम का प्रयोग करते हैं जिसे छाप कहते हैं और जिसका अर्थ कभी-कभी संबोधन कारक का होता है जैसे : रहिमन निज मन की व्यथा। सूरदास, स्वामी करुणामय। यह शब्द अपने अर्थ के अनुसार और और कारकों में आता है जैसे : कहि गिरिधर कविराय। कलिकाल तुलसी से सठहि हठ राम सम्मुख करत को?

1. एक विभक्ति के पश्चात् दूसरी विभक्ति का योग होना हिंदी भाषा की एक विशेषता है जिसके कारण कई एक वैयाकरण इस भाषा के विभक्ति प्रत्ययों को स्वतंत्र अव्यय अथवा उनके अपभ्रंश मानते हैं।

संस्कृत में विभक्ति के पश्चात् कभी कभी दूसरा प्रत्यय हो जाता है जैसे : अहंकार, ममत्व आदि में : पर विभक्ति प्रत्यय नहीं आता।

                           इति

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