मंगलवार, 22 जनवरी 2019

रीति सम्प्रदाय

रीति सम्प्रदाय 
लक्षण-ग्रन्थों में प्रयुक्त “रीति”शब्द ढंग, शैली, प्रकार, मार्ग तथा प्रणाली का वाचक है।
रीतितत्व काव्य का एक महत्वपूर्ण अवयव है।
आचार्य वामन ने  नवम शताब्दी रीति सम्प्रदाय की स्थापना की है।
उनके अनुसार “पदों ( विभक्ति युक्त शब्दों )की विशिष्ट रचना ही रीति है”---
“विशिष्टपदरचना रीतिः”।
वामन के मत में रीति काव्य की आत्मा है---“रीतिरात्मा काव्यस्य”।

उनके अनुसार विशिष्ट पद रचना रीति है और गुण उसके विशिष्ट आत्मरूप धर्म है।
पूर्ववर्ती काव्यशास्त्री आचार्य दण्डी ने भी इस मत को स्वीकार किया था।
उन्होंने रीति एवं गुणों को परस्पर सम्बद्ध कर एक मानने की चेष्टा भी की थी।
आनन्दवर्धन भी रीति पर विचार करते हुए लिखते है –“वाक्य वाचक चारूत्व हेतुः”
अर्थात् रीति शब्द और अर्थ में सौन्दर्य का विधान करती है। आचार्य विश्वनाथ भी रीति को रस का उपकारक मानने के पक्ष धर हैं।
"वक्रोक्ति जीवितम् " के लेखक कुन्तक ने इस सिद्धान्त को स्वीकार करने की अपेक्षा इसका विरोध किया था। इसका प्रभाव सम्भवतः मम्मट पर भी पडा , और उन्होंने प्रत्यक्ष रूप में रीतियों को स्वीकार न कर वृत्तियों के रूप में इन्हें स्वीकार किया है।

राजशेखर ने रीतियों को काव्य का बाह्य तत्व स्वीकार किया हैं। उनका कथन इस प्रकार है –
“वचन विन्यासक्रमो रीतिः”।
जिस प्रकार अवयवों का उचित सन्निवेश शरीर का सौन्दर्य बढ़ाता है, शरीर का उपकारक होता है, उसी प्रकार गुणाभिव्यञ्जक वर्णों (रीति) का यथास्थान पर प्रयोग शब्दार्थ शरीर तथा आत्मा का विशेष उपकार करता है।

अतः काव्य में रीति का विशेष महत्व है।
क्योंकि वह काव्य शरीर का एक मात्र आधार है। आचार्य वामन ने वैदर्भी, गौडी एवं पाञ्चाली नामक तीन रीतियाँ मानी हैं।
प्रायः यह तीनों ही अधिकांश आचार्यो को मान्य है।

वैदर्भी :-
“माधुर्य व्यञ्जक वर्णों से युक्त, दीर्घ समासों से रहित अथवा छोटे समासों वाली ललित (सुन्दर) पद रचना का नाम वैदर्भी है, यह रीति श्रृंगार , शान्त एवम् करुण रस आदि की परिपोषिका है  ललित एवं मधुर रसों के लिए अधिक अनुकूल होती है”।
विदर्भ देश के कवियों के द्वारा अधिक प्रयोग में आने के कारण इनका नाम वैदर्भी है।
आचार्य विश्वनाथ ने इनकी विशेषताओं के आधार पर इसका लक्षण इस प्रकार लिखा है--- “माधुर्यव्यञ्जकैर्वर्णेः रचना ललितात्मिका । अवृत्तिरल्पवृत्तिर्वा वैदर्भीरीतिरिष्यते”।।
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माधुर्यव्यञ्जक वर्णों के द्वारा की हुई समास रहित अथवा छोटे समासों से युक्त मनोहर रचना को वैदर्भी कहते हैं।🌹
इसका दूसरा नाम ललिता भी है।
वामन तथा मम्मट इसे उपनागरिका भी कहते हैं।
रूद्रट के अनुसार वैदर्भी का स्वरूप इस प्रकार है –- “समासरहित अथवा छोटे-छोटे समासों से युक्त, श्लेष आदि दस गुणों से युक्त एवं चवर्ग से समन्वित , अल्पप्राण अक्षरों से व्याप्त सुन्दर वृत्ति वैदर्भी कहलाती है”।

वैदर्भी रीति काव्य में विशेष प्रशंसित रीति है।
कालिदास को वैदर्भी रीति की रचना में विशेष सफलता मिली है। इस प्रकार वैदर्भी रीति काव्य में सर्वश्रेष्ठ मान्य है।
माधुर्य्यव्यञ्जकैर्वर्णै रचना ललितात्मिका । अवृत्तिरल्पवृत्तिर्वा वैदर्भी रीतिरुच्यते”
इत्युक्ते काव्यचरनाभेदे स्त्री ङीप् (साहित्य दर्पण)
विदर्भे + अण्
विदर्भे भवा अण् +ङीप्= वैदर्भ और वैदर्भी

वैदर्भी काव्य की एक रीति।
वह रीति या शैली जिसमें मधुर वर्णों द्वारा मधुर रचना होती है।
कालिदास वैदर्भी के उत्कृष्ट कवि माने जाते हैं।
विशेष—वामन के मतानुसार जिस काव्य रीति में श्लेष, प्रसाद, समता, माधुर्य, सुकुमारता, अर्थव्यक्ति, उदारता, ओजस, कान्ति और समाधि आदि दश शब्दगुण रहते हैं वह काव्य रीति वैदर्भी कही गई है। यह सबसे अच्छी समझी जाती है।

उदाहरण :- “ब्यूटी पार्लर वह नहीं, जहाँ पर  श्रृँगार सर्जरी  कराई जाती है।
अब तो 'वह शिक्षा - संस्थान भी ब्यूटी-पार्लर हैं ।
जहाँ पर डिग्रीयों की श्रृँगार सर्जरी कराई जाती है ।
योग्यता की सुन्दरता जिसकी होती है 'वह असली क्वालिफाइड है ।
परिरम्भ-कुम्भ की मदिरा निश्वास मलय के झोंके |
   मुख-चन्द्र चांदनी-जल से मैं उठता था मुख धोके || (आँशु) जय शंकर प्रसाद

इस पद में कोमल मधुर वर्णों का प्रयोग हुआ है, समासों का अभाव है।
पदावली ललित है, श्रुतिमधुर है, अतः वैदर्भी रीति है।
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गौडी :-  “ओजः प्रकाशकैर्वर्णैर्बन्ध आड़म्बरः पुनः । समासबहुला गौडी” (साहित्य दर्पण )
तल्लक्षणमुक्तं यथा “चञ्चद्भुजभ्रमितचण्डगदाभिघात सञ्चूर्णितोरु युगलस्य सुयोधनस्य । स्त्यानावनद्धवनशोणित शोणपाणिरुत्तंसयिष्यति कचांस्तव देवि! भीमः” (वेणीसंहार )।
एषा च गौडजनप्रियत्रात् गौडैः प्रयुज्यमानत्वाच्च गौडीसंज्ञां लभते । गौड + छ । गौडीया अत्रार्थे ।
“बहुतरसमास युक्तामहाप्राणाक्षरा च गौडीया ।
रीतिरनुप्रासमहिमपरतन्त्राऽस्तोभवाक्या च” पुरुषोत्तमः
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यह ओजपूर्ण शैली है। “ओज तथा  टवर्ग के वर्णों से सम्पन्न, दीर्घ समास वाली शब्दाडम्बरवती रीति गौडी होती है”।

पाञ्चाली रीति

पाञ्चाली रीति न तो वैदर्भी रीति की भांति समास रहित होती है, और न ही गौडी की भांति समास-जटित होती है | यह मध्यममार्गी है |
इसमें छोटे-छोटे समास अवश्य मिलते है |
इस रीति से काव्य भावपूर्ण और मर्मस्पर्शी बनता है | अनुस्वार का प्रयोग न होने से यह वैदर्भी की तुलना में अधिक माधुर्य युक्त होती है |
जैसे –   मानव जीवन-वेदी पर
                     परिणय हो विरह-मिलन का
                            सुख-दुःख दोनों नाचेंगे
                                 है खेल, आँख का मन का |

दण्डी इसमें दस गुणों का समावेश नहीं मानते हैं।
वामन गौडी रीति के स्वरूप का विवेचन करते हुए लिखते हैं कि इसमें ओज और कान्ति गुणों का प्राधान्य तथा समास की बहुलता रहती है।

मधुरता तथा सुकुमारता का इसमें अभाव रहता है। रुद्रट ने इस को दीर्घ समास वाली रचना माना है जो कि रौद्र, भयानक, वीर आदि उग्ररसों की अभिव्यक्ति के लिए उपयुक्त होती है।
इस रीति की रचना में उद्दीपक वर्णों का प्रयोग होता है, जिससे शौर्य भावना का आविर्भाव होता है।
इसी गौड़ी रीति का दूसरा नाम “परूषा” जो कठोरता का वाचक शब्द है।
मम्मट के अनुसार इसका लक्षण इस प्रकार है---“ ओजः प्रकाशकैस्तुपरूषा“।

आचार्य आनन्दवर्धन इसे “दीर्घसमासवृत्ति“ कहते हैं। उदाहरणः-

देखि ज्वाल-जालु, हाहाकारू दसकंघ सुनि,
कह्यो धरो-धरो, धाए बीर बलवान हैं ।
  लिएँ सूल-सेल, पास-परिध, प्रचंड दंड
     भोजन सनीर, धीर धरें धनु -बान है I
        ‘तुलसी’ समिध सौंज, लंक जग्यकुंडु लखि,
           जातुधान पुंगीफल जव तिल धान है ।
              स्रुवा सो लँगूल , बलमूल प्रतिकूल हबि,
                 स्वाहा महा हाँकि-हाँकि हुनैं हनुमान हैं । (कवितावली)
इस उदाहरण में संयुक्ताक्षरों का प्रचुर प्रयोग है,
ओज गुण की अभिव्यक्ति हो रही है।
महाप्राण – ट,ठ,ड,ण,ह आदि का प्रयोग हुआ है,
अतः इस पद में गौडी रीति है।
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पञ्चालीः- “ओज एवं कान्ति समन्वित पदों की मधुर सुकुमार रचना को “पाञ्चाली” कहते हैं”।
पञ्चाली रीति का उल्लेख भामह तथा दण्डी ने नहीं किया है। इस रीति का सबसे पहले उल्लेख वामन ने किया था। वामन के अनुसार यह माधुर्य और सुकुमारता से सम्पन्न रीति और अगठित, भावाशिथिल,छायायुक्त (कान्तिरहित) मधुर और सुकुमार गुणों से युक्त होती है।

माधुर्य और सुकौमार्योपौपंन्ना पाञ्चाली रीति होती है।
उदहरणः-
मधु राका मुसकाती थी, पहले जब देखा तुमको। परिचित से जाने कबके, तुम लगे उसी क्षण हमको।। इस उदाहरण में प्रसाद गुण की अधिकता है।
समास का अभाव है।
शब्दावली कोमल है, अतः पञ्चाली रीति है।
राजशेखर “मागधी” नामक एक अन्य रीति भी स्वीकार करते हैं जो मगध देश में व्यवह्रत होती है।
भोज “अवन्तिका” नामक रीति का उल्लेख करते हैं। एक “लाटी” नामक रीति भी है, इसका प्रयोग लाट देश में होता है। रूद्रट के अनुसार लाटी मध्यम समास वाली होती है। इसका उपयोग उग्ररसों में होता है। विश्वनाथ लाटी को वैदर्भी पाञ्चाली के बीच की रीति मानते है—
“लाटी तु रीति वैदर्भी पाञ्चाल्योन्तरे”। उपर्युक्त विवेचन के अनुसार रीति सम्प्रदाय के भेद निम्नलिखित हैः

1 समास के सर्वथा अभाव की स्थिति में - वैदर्भी रीति।
2 समाम के अल्प मात्रा में रहने पर पाञ्चाली रीति।

3 समास की बहुलता रहने पर – गौडी रीति ।

4 समास की स्थिति मध्यम रहने पर - लाटी रीति।
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रीतियों का निर्धारण :- रस वीर ,श्रृँगार आदि के आधार तथा , गुण (माधुर्य प्रसाद तथा ओज आदि) एवं समासों की अल्पता , बहुलता एवं अभावों के आधार पर की जाती है ।

समास की स्थिति मध्यम रहने पर – लाटी रीति।
“रीति-काव्य की भूमिका” में दी गई डॉ० नगेन्द्र की परिभाषा और व्याख्या-
‘रीति’ शब्द और अर्थ के आश्रित रचना-चमत्कार का नाम है जो माधुर्य, ओज अथवा प्रसाद गुण के द्धारा चित्र को द्रवित, दीप्त और परिव्याप्त करती हुई रस-दशा तक पहुँचाती है।

वामन रस की स्थिति गुण के अन्तर्गत मानते है,
जो कि रीति का भी मूल आधार है।
आचार्य वामन के मत में रचना और चमत्कार दोैंनों रीति पर आश्रित है, वही माधुर्य आदि गुणों के कारण चित्त को द्रवित कर रस-दशा तक पहुँचाते हैं।
अतः रीति ही काव्य का सर्वस्व है।
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वृत्तियों का विश्लेषण -

नाटकों में विषय के विचार से वर्णन करने की शैली। विशेष—यह चार प्रकार की कही गई है
और भिन्न भिन्न रसों के लिये उपयुक्त मानी गई है।

जैसे—कैशिकी वृत्ति श्रृँगार रस प्रवण
नाटक की चार वृत्तियों में से एक ।
विशेष— यह वृत्ति श्रृँगार—रस—प्रधान नाटकों में होती है । इसमें नृत्य, गीत, वाद्य और भोग विलास का अधिक वर्णन किया जाता है ।
ऐसे नाटकों में स्त्रीपात्र अधिक होते हैं ।
जहाँ अच्छी वेशभूषावली नायिका,
बहुत सी स्त्रियों और संगीत तथा भोगविलास आदि का वर्णन हो, उसे कैशिकी कहते हैं ।

सात्वती वृत्ति वीर रस  प्रवण:-साहित्य के अनुसार चार नाटकीय वृत्तियों में से एक प्रकार की वृत्ति।
विशेष—इसका व्यवहार वीर, रौद्र, अद्भुत और शान्त रसों में होता है।
यह वृत्ति उस समय मानी जाती है जब कि नायक द्वारा ऐसे सुन्दर और आनन्दवर्धक वाक्यों का प्रयोग होता है, जिनसे उसकी शूरता, दानशीलता, दाक्षिण्य आदि गुण प्रकट होते हैं।

आरभटी वृत्ति रौद्र और वीभत्स रस प्रवण
क्रोधादिक उग्र भावों की चेष्टा ।
उदाहरण-—झूठौ मन झूठी सब काया,
झुठी आरभटी ।
अरु झूठन को बदन निहारत मारत फिरत लटी ।
-सूर दास।

नाटक में एक वृत्ति का नाम विशेष—इस वृत्ति में यमक का प्रयोग अधिक होता है ।
इसके द्वारा माया, इंद्रजाल, संग्राम, क्रोध, आघात, प्रिताघात और बंधनादि विविध रौद्र, भयानक और बीभत्स रस दिखाए जाते हैं ।
इसके चार भेद हैं-
वस्तूसत्थावन, सम्फैट, संक्षिप्ति और अवपातन
(१) वस्तूत्थापन=ऐसी वस्तुओं का प्रदर्शन या वर्णन जिससे रौद्रादि रसों की सूचना हो  जैसे,—सियारों का बोलना और श्मशान आदि ।

भारती वृत्ति शेष अन्य रसों के लिये।
एक वृत्ति का नाम। इसके द्वारा रौद्र और बीभत्स रस का वर्णन किया जाता है। यह साधु वा संस्कृत भाषा में होती है।

जहाँ वीरता, दानशक्ति, दया, सरलता आदि वर्णन हो उसे सात्वती;
जहाँ माया, इन्द्रजाल, संग्राम, क्रोध आदि का वर्णन हो, उसे आरभटी,
और जहाँ संस्कृत बहुल कथोपकथन हो उसे भारती वृत्ति कहते हैं।
इन चारों वृत्तियों के भी कई अवान्तर भेद माने गए हैं।
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शब्द-शक्तियाँ-

 लक्षणा :-वह लक्षणा जो प्रयोजन द्वारा वाच्यार्थ अभिधार्थ से भिन्न अर्थ प्रकट करे।
विशेष—लक्षणा दो प्रकार की होती है,
प्रयोजनवती लक्षणा और रुढि लक्षणा
प्रयोजनवती लक्षणा:-
'बहुत सी तलवारें मैदान में आ गई' इस वाक्य में यदि हम तलवार का अर्थ तलवार ही करके रह जाते हैं ;
तो अर्थ में बाधा पड़ती है।
इससे प्रयोजनवश हमें तलवार का अर्थ तलवारबन्ध सिपाही लेना पड़ता है।
अतः जिस लक्षणा द्वारा यह अर्थ लिया वह प्रयोजनवती लक्षणा हुई।
पर कुछ लक्ष्यार्थ रुढ़ हो गए हैं।
जैसे 'कार्य में कुशल'। कुशल का शब्दार्थ कुश लाकर इकट्ठा करनेवाला होता है,
परन्तु यह शब्द बुद्धिमान अथवा दक्ष के अर्थ में रुढ़ हो गया है। इस प्रकार का अर्थ रुढि लक्षणा द्वारा प्रकट होता है।

लक्षणा शब्द-शक्ति का एक प्रकार है।
लक्षणा, शब्द की वह शक्ति है जिससे उसका अभिप्राय सूचित होता है।

कभी-कभी ऐसा होता है कि शब्द के साधारण अर्थ से उसका वास्तविक अभिप्राय नहीं प्रकट होता।
वास्तविक अभिप्राय उसके साधारण अर्थ से कुछ भिन्न होता है।
शब्द को जिस शक्ति से उसका वह साधारण से भिन्न और दूसरा वास्तविक अर्थ प्रकट होता है, उसे लक्षणा कहते हैं।
अर्थात् जिस शब्द शक्ति में लक्षणों का समावेश हो
जैसे मूर्ख व्यक्ति को गधा कहना ।
शब्द का वह अर्थ जो अभिधा शक्ति द्वारा प्राप्त न हो बल्कि लक्षणा शक्ति द्वारा प्राप्त हो, लक्षितार्थ कहलाता है।
साहित्य में लक्षणा शक्ति दो प्रकार की मानी गई है— रूढ़ि और प्रयोजनवती।

रूढ़ि लक्षणा-
जहाँ पर कुछ लक्ष्यार्थ रुढ़ हो गए हैं। जैसे 'कार्य में कुशल'।
कुशल का शब्दार्थ 'कुश इकट्ठा करनेवाला' होता है, पर यह शब्द दक्ष या निपुण के अर्थ में रुढ़ हो गया है। इस प्रकार का अर्थ रुढिलक्षणा द्वारा प्रकट होता है।

रूढ़ि लक्षणा में रूढ़ि के कारण मुख्यार्थ को छोड़कर उससे सम्बन्ध रखने वाला अन्य प्रचलित अर्थ को ग्रहण किया जाता है ।
जैसे 'राजस्थान वीर है।
राजस्थान प्रदेश वीर नहीं हो सकता।
इसमें मुख्यार्थ की बाधा है।
इससे इसका लक्ष्यार्थ 'राजस्थान निवासी' होता है, क्योंकि राजस्थान से उसके निवासी का आधाराधेयभाव का सम्बन्ध है।
यहाँ राजस्थानियों के लिए 'राजस्थान' कहना रूढ़ि है।

प्रयोजनवती लक्षणा-
वह लक्षणा जो प्रयोजन द्वारा वाच्यार्थ से भिन्न अर्थ प्रकट करे।
प्रयोजनवती लक्षणा में किसी विशेष प्रयोजन की सिद्धि के लिए लक्ष्यार्थ को गृहण किया जाता है, जैसे-

'बहुत सी तलवारें मैदान में आ गईं' इस वाक्य में यदि हम तलवार का अर्थ तलवार ही करके रह जाते हैं तो अर्थ में बाधा पड़ती है।
इससे प्रयोजनवश हमें तलवार का अर्थ तलवारबंद सिपाही लेना पड़ता है।
अतः जिस लक्षणा द्वारा यह अर्थ लिया वह प्रयोजनवती हुई।
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प्रयोजनवती लक्षणा के दो मुख्य भेद हैं-
1-गौणी लक्षणा- 2- शुद्धा लक्षणा-।

गौणी लक्षणा-
गौणी में सादृश्य सम्बन्ध से अर्थात् समान गुण या धर्म के कारण लक्ष्यार्थ का ग्रहण किया जाए।

शुद्धा लक्षणा-
शुद्धा लक्षणा में सादृश्य सम्बन्ध के अतिरिक्त अन्य सम्बन्ध से लक्ष्यार्थ का बोध होता है।
शुद्धा लक्षणा के चार भेद हैं-
1-उपादान लक्षणा,
2-लक्षणलक्षणा,
3-सारोपा लक्षणा
4-साध्यावसाना लक्षणा।

उपादान -
जहाँ वाक्यार्थ की संगति के लिए अन्य अर्थ के लक्षित किए जाने पर भी अपना अर्थ न छूटे वहाँ उपादानलक्षणा होती है। 

उपादान का अर्थ है :-
वह कारण जो स्वयं कार्य रूप में परिणत हो जाय । सामग्री जिससे कोई वस्तु तैयार हो ।
जैसे, घड़े का उपादान कराण मिट्टी है ।
वैशेषिक में इसी को समवायिकरण कहते हैं ।

इसमें वाच्यार्थ का सर्वथा त्याग नहीं होता।
जैसे, 'पगड़ी की लाज रखिये।
लक्ष्यार्थ होता है पगड़ीधारी की लाज।
यहाँ पगड़ी अपना अर्थ न छोड़ते हुए पगड़ीधारी का आक्षेप करता है।
यहाँ दोनों साथ-साथ हैं।
अत: उपादान लक्षणा है।

लक्षण-लक्षणा-
जहाँ वाक्यार्थ की सिद्धि के लिए वाक्यार्थ अपने अर्थ को छोड़कर केवल लक्ष्यार्थ को सूचित करे, वहाँ लक्षण-लक्षणा होती है।

इसमें अमुख्यार्थ को अनिवत होने के लिए मुख्यार्थ अपना अर्थ बिल्कुल छोड़ देता है। जैसे, 'पेट में आग लगी है।
यह एक सार्थक वाक्य है।
इसमें 'आग लगी है' वाक्य अपना अर्थ छोड़ देता है और लक्ष्यार्थ होता है कि भूख लगी है।
इससे लक्षण-लक्षणा है।

जहां वाक्यार्थ की संगति के लिए अन्य अर्थ के लक्षित किये जाने पर भी अपना अर्थ न छूटे वहां उपादान लक्षणा होती है।
रसखान के काव्य में उपादान लक्षणा के सफल प्रयोग के दर्शन होते हैं।

अन्त ते न आयौ याही गाँवरे को जायौ
माई बापरे जिवायौ प्याइ दूध बारे बारे को।
सोई रसखानि पहिवानि कानि छाँडि चाहै,
लोचन नचावत नचैया द्वारे द्वारे को।
मैया की सौं सोच कछू मटकी उतारे को न
गोरस के ढारे को न चीर चीरि डारे को।
यहै दु:ख भारी गहै डगर हमारी माँझ,
नगर हमारे ग्वाल बगर हमारे को।

तीसरी पक्ति में उपादान लक्षणा है।
द्वार-द्वार नाचने वाला आज हमारे सामने आंखें नचा रहा है।
उपादान लक्षणा से विदित हो रहा है कि वह हमारे साथ छल कर रहा है।

उपादान-लक्षणा  : साहित्य में लक्षणा का वह प्रकार या भेद जिसमें मुख्य अर्थ ज्यों का त्यों बना रहने पर भी साथ में कोई और अर्थ अथवा किसी और का कर्तृत्व भी ग्रहण कर लेता अथवा सूचित करने लगता है।

जैसे—वहाँ जमकर लाठियाँ चलीं।
धँआधार गोली चली
में ‘गोलियों ने चलाने वालों का कर्तृत्व ग्रहण कर लिया है।
ध्वनि सिद्धान्त-
काव्यप्रकाश में काव्य तीन प्रकार के कहे गए हैं,
ध्वनि, गुणीभूत व्यंग्य और चित्र।
ध्वनि वह है जिस, में शब्दों से निकले हुए अर्थ (वाच्य) की अपेक्षा छिपा हुआ अभिप्राय (व्यंग्य) प्रधान हो। गुणीभूत व्यंग्य वह है जिसमें गौण हो।
चित्र या अलंकार वह है जिसमें बिना व्यंग्यात्मक के चमत्कार हो।
इन तीनों को क्रमशः उत्तम, मध्यम और अधम भी कहते हैं। काव्यप्रकाशकार का जोर छिपे हुए भाव पर अधिक जान पड़ता है, रस के उद्रेक पर नहीं।

आनन्दवर्धन 9वीं शती ई. के उत्तरार्ध में कश्मीर निवासी संस्कृत के काव्यशास्त्री तथा 'ध्वनि सम्प्रदाय' के प्रवर्तक आचार्य थे। इनकी कृति 'ध्वन्यालोक' बहुत प्रसिद्ध है। 'ध्वनि सम्प्रदाय' का सम्बन्ध मुख्यत: शब्द शक्ति और अर्थविज्ञान से है। शब्द शक्ति भाषा दर्शन का विषय है और अर्थविज्ञान भाषा दर्शन का विषय होते हुए काव्य शास्त्र और सामान्यत: सौंदर्यशास्त्र के लिए भी महत्त्वपूर्ण है।
आनन्दवर्धन ने अर्थ का विवेचन प्रधानत: काव्य के सन्दर्भ में किया है। अनेक अनुसार काव्य ध्वनि है। ध्वनि उस विशिष्ट काव्य की संज्ञा है, जिसमें शब्द और वाच्य अर्थ की अपेक्षा प्रतीयमान अर्थ का चमत्कार अधिक होता है। आनन्दवर्धन का महत्त्व प्रधानत: एक भाषा-दार्शनिक व एक सौंदर्य शास्त्री के रूप में है।

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