व्याकरण में वह शब्द जिसके वाच्य पर कर्ता की क्रिया का प्रभाव पड़े 'वह कर्म है ।
क्रिया के जिस रूप से यह ज्ञात हो कि वाक्य में क्रिया द्वारा सम्पादित -विधान का विषय कर्ता है, कर्म है, अथवा भाव है, उसे वाच्य कहते हैं।
क्रिया के उस परिवर्तन को वाच्य कहते हैं, जिसके द्वारा इस बात का बोध होता है कि वाक्य के अन्तर्गत कर्ता, कर्म या भाव में से किसकी प्रधानता है।
अर्थात् वाच्य केवल क्रिया के कहने का तरीका है !
यहाँं क्रिया का लिंग ,वचन कर्ता के अनुरूप है 'वह कर्तृवाच्य और जहाँ कर्म के अनुरूप है वहाँ कर्म-- वाच्य होता है ! परन्तु
कर्ता की क्रिया या व्यापार द्वार साध्य" तत्व कर्म है ।
जो अभीप्सिततम (सबसे अधिक चाहा हुआ )कार्य हो जैसे, राम ने रावण को मारा । यहाँ राम के मारने का प्रभाव रावण में पाया गया, इससे वह कर्म हुआ
यह द्वितीय विभक्ति में कर्म कारक माना जाता है ; जिसका विभक्ति-चिह्न 'को' है । कभी कभी और अपादान तथा सम्प्रदान अधिकरण अर्थ में भी द्वितीया रूप का प्रयोग होता है ।
तब वहाँ कर्म-- कारक होता है । यह दुर्लभ व अल्पायत प्रयोग हैं ।
जैसे,— वह घर को गया था ।
पर ऐसा प्रयोग अकर्मक क्रियाओं में विशेष पर आना, जाना, फिरना, लौटना, फेंकना, आदि गत्यर्थक के ही साथ होता, है ।
जिनका सम्बन्ध देश स्थान और काल से होता है ।
सम्प्रदान कारक में भी कर्मकारक का चिह्न 'को' लगाया जाता है ।
जैसे:— 'उसको रूपया दो'
(व्याकरण में कर्म दो प्रकार के होते हैं—
(मुख्य कर्म और गौण कर्म ।)
भारतीय दार्शनिक ग्रन्थों में कर्म कारक स्वरूप :-👇
__________________________________________
३. वैशेषिक के अनुसार छह पदार्थों में से एक जिसका लक्षण इस प्रकार लिखा है— जो एक द्रव्य में हो, गुण न हो और संयोग और विभाग में अनपेक्ष कारण हो 'वह कर्म है ।
(कर्म यहाँ क्रिया का लगभग पर्याय शब्द है ।
'व्यापार' भी उसे वैय्याकरण कहते हैं ।
दर्शन शास्त्र में -
कर्म पाँच हैं—
1-उत्क्षेपण (ऊपर फेंकना),
2-अवक्षेपण (नीचे फेंकना),
3-आकुञ्चन (सिकोड़ना), 4-प्रसारण (फैलाना), और
5- गमन (जाना, चलना) ।
अब गमन के भी पाँच भेद किए हैं—
१-भ्रमण (घूमना),
२-रेचना (खाली होना),
३-स्यन्दन (बाहना या सरकना),
४-ऊर्ध्वज्वलनम् (ऊपर की ओर जलना),
५-तिर्थग्गमन (तिरछा चलना) ।
________________________________________
४. मीमांसा के अनुसार कर्म के दो प्रकार जो ये हैं—गुण या गौण कर्म और प्रधान या अर्थ कर्म ।
गुण (गौण) कर्म वह है जिससे द्रव्य (सामग्री) की उत्पत्ति या संस्कार हो, जैसे, — धान कूटना, यूप बनाना, घी तपाना आदि ।
गुण कर्म का फल दृष्ट हैं, जैसे, धान कूटने से चावल निकलाता हैं,
और संस्कृत भाषा में कर्म का व्याकरणिक प्रयोग निम्न रूप में दर्शित है ।:-
_________________________________________
कर्म’ संज्ञासूत्रम् : 893. कर्तुरीप्सीतमं कर्म । (अष्टाध्यायी 1/4/49 )
कर्तुः क्रियया आप्तुमिष्टतमं कारकं कर्मसंज्ञं स्यात् ।
’द्वितीया’ विभक्तिसूत्रम् : 894. कर्मणि द्वितीया । (अष्टाध्यायी 2/3/2 ॥)
अनुक्ते कर्मणि द्वितीया स्यात् ।
हरिं भजति । अभिहिते तु कर्मादौ प्रथमा : हरिः सेव्यते । लक्ष्म्याः सेवितः ।
’कर्म’ संज्ञासूत्रम् :
895. अकथितं च । (अष्टाध्यायी 1/4/51 ॥) अपादानादिविशेषैरविवक्षितं कारकं कर्मसंज्ञं स्यात् । (’दुह्’ आदिधातुपरिणामम्) दुह्-याच्-पच्-दण्ड्-रुधि-प्रच्छि-चि-ब्रू-शासु-जि-मथ्-मुषाम् ।
कर्मयुक् स्यादकथित तथा स्यात् नी-हृ-कृष्-वहाम्
________________________________________
गां दोग्धि पयः ।
(गां द्वितीया पञ्चम्यार्थे अपादाने > गोः दोग्धि पयः) गाय से दूध दुहती है ।
बलिं याचते वसुधाम् । (बलिं द्वितीया पञ्चम्यार्थे अपादाने > बलेः ...) बलि से वसुधा माँगता है ।
तण्डुलान् ओदनं पचति । (तण्डुलान् द्वितीया पञ्चम्यार्थे अपादाने > ...तण्डुलेभ्यः > पञ्चमी न तु चतुर्थी) चावलो से भात पकाता है ।
गर्गान् शतं दण्डयति । (गर्गेभ्यः ...) व्रजम् अवरुणद्धि गाम् ।
(व्रज > अधिकरणं सप्तम्यामर्थे द्वितीया अत्र) माणवकं पन्थानं पृच्छति ।
(माणवकः > बालकः अपादान-अर्थे द्वितीया) वृक्षं अवचिनोति फलानि । (वृक्षं > वृक्षात् इति अपादानं) माणवकं धर्मं ब्रूते शास्ति वा । (माणवकं > सम्प्रदान-अर्थे > माणवकाय [आचार्यः] धर्मं ब्रूते शास्ति वा ..)
शतं जयति देवदत्तम् । (देवदत्तम् > देवदत्तात्... पञ्चमी)
सुधां क्षीरनिधिं मथ्नाति । सुधा ( अमृत) प्राप्त करने के लिए समुद्र को मथता है ।
(सुधाम् > द्वितीया,
सम्प्रदान-अर्थे सुधाम्-प्राप्त्यर्थे)
देवदत्तं शतं मुष्णाति । (देवदत्तम् > पञ्चमी ) देवदत्तं से
ग्रामम् > ग्रामात् ...अजां नयति, हरति, कर्षति, वहति वा ।
अर्थ-निबन्धना इयम् संज्ञा बलिं भिक्षते वसुधाम् । माणवकं धर्मं भाषते अभिधत्ते वक्ति-इत्यादि ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें