जब वेदमाता गायत्री को अहीर कन्या अथवा गोप की कन्या कह कर वर्णित किया गया है ।
तब फिर स्वयं को आधुनिक समय में गो- संरक्षक घोषित करने वाले रूढ़िवादी इन अहीरों को हीन और हेय क्यों मानते हैं ?
गोप वस्तुत गाय का पालने वाले प्रथम चरावाहे थे ।
पद्म पुराण के सृष्टि खण्ड तथा अग्निपुराण एवं नान्दी उपपुराण आदि पौराणिक ग्रन्थों में ये तथ्य किंवदन्तियों के रूप में वर्णित हैं ।
यदु का गोप रूप में वर्णन वैदिक सन्दर्भों में पूर्व ही प्राप्त होता है !
क्यों कि ऋग्वेद के दशम मण्डल के 62 वें सूक्त की दशवीं ऋचा में यदु और तुर्वशु को गोप ही कहा है । देखें--- निम्न पक्ति ऋचाऐं ऋग्वेद की 👇
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उत् दासा परिविषे स्मत्दृष्टी गोपर् ईणसा यदुस्तुर्वशुश्च मामहे ।। ऋग्वेद 10/62/10
वे गोप ! गो-पालन की शक्ति के द्वारा ( गोप: ईनसा सन्धि संक्रमण से वर्त्स्य नकार का मूर्धन्य णकार होने से गोपरीणसा रूप सिद्ध होता है ) समृद्धशाली हो गये हैं । वे यदु और तुर्वशु हैं ।
अर्थात् यदु और तुर्वशु --जो दास अथवा असुर संस्कृति के अनुयायी हैं
वे गोप गायों से घिरे हुए हैं ।
--जो मुस्कराहट पूर्ण दृष्टि वाले हैं हम उन दौनों की प्रशंसा करते हैं ।। ऋग्वेद 10/62/10
इतना ही नहीं कृष्ण का वर्णन ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल के 96 वें--सूक्त में चरावाहे के रूप में है :- 👇
🗻 ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल के 96 में सूक्त की ऋचा संख्या (13,14,15,) पर कृष्ण को असुर या अदेव कहा है ।
'वह भी एक चरावाहे के रूप में
तथा और इन्द्र के साथ कृष्ण के युद्ध का वर्णन है !
जो यमुना नदी (अंशुमती) के तलहटी मे गायें चराते हैं
देखें---
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आवत् तमिन्द्र शच्या धमन्तमप स्नेहितीर्नृमणा अधत्त
द्रप्सम पश्यं विषुणे चरन्तम् उपह्वरे नद्यो अंशुमत्या न भो न कृष्णं अवतस्थि वांसम् इष्यामि ।।
वो वृषणो युध्य ताजौ ।।१४।।
ऋग्वेद 8/96/13,14,15,
कृष्ण का जन्म वैदिक तथा हिब्रू बाइबिल में वर्णित यदु के वंश में हुआ था ।
वेदों में यदु को दास अथवा असुर कहा गया है ,तो यह तथ्य रहस्य पूर्ण ही है ।
यद्यपि ऋग्वेद में असुर शब्द प्रारम्भिक सन्दर्भों में "पूज्य व प्राण-तत्व" से युक्त वरुण , अग्नि आदि शक्तियों का वाचक है।
वेदों का प्रणयन काल यद्यपि ई०पू० 1500 तक सिद्ध हो चुका है ।
तथा ऋग्वेद की दशम मण्डल तो पाणिनीय कालीन है
परन्तु इस मण्डल की यह ऋचा पाणिनि से पूर्व काल की है । क्यों कि इसमें द्वितीय विभक्ति द्विवचन का रूप --जो कर्म कारक में है "दासा " है जबकि पाणिनीय व्याकरण में "दासौ" रूप है ।
कृष्ण को गोप अथवा चरावाहे के रूप में सिद्ध करने के लिए ऋग्वेद के अष्टम मण्डल की 96 वें सूक्त की चौदहवीं ऋचा का निम्नलिखित
क्रिया पद विचारणीय है ।👇
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चरन्तम् उपह्वरे नद्यो अंशुमत्या न भो न कृष्णं
यमुना नदी की उपत्यका में गायों को चराने वाले हे कृष्ण !
पौराणिक ग्रन्थों में अहीरों को यद्यपि द्वेष वश नकारात्मक रूप में वर्णित किया गया है । तो भी
वेदों की अधिष्ठात्री देवी गायत्री को नरेन्द्र सेन आभीर की कन्या बताया है ।
पद्म-पुराण में वर्णन मिलता है कि..
जब गायत्री के अद्भुत तेज व सौम्य स्वरूप को देखकर इन्द्र उस कन्या के अलौकिक प्रभाव से अभिभूत हो गया
तो उसने इसकी सूचना ब्रह्मा को दी -
👇
पद्म पुराण के सृष्टि खण्ड के अध्याय १६ में गायत्री माता को नरेन्द्र सैन आभीर की कन्या गायत्री के रूप में वर्णित किया गया है । देखें-- निम्न श्लोक 👇
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" स्त्रियो दृष्टास्तु यास्त्व ,
सर्वास्ता: सपरिग्रहा : |
आभीरः कन्या रूपाद्या ,
शुभास्यां चारू लोचना ।७।
न देवी न च गन्धर्वीं ,
नासुरी न च पन्नगी ।
वन चास्ति तादृशी कन्या ,
यादृशी सा वराँगना ।८।
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अर्थात् जब इन्द्र ने पृथ्वी पर जाकर देखा
तो वे पृथ्वी पर कोई सुन्दर और शुद्ध कन्या न पा सके
परन्तु एक नरेन्द्र सैन आभीर की कन्या गायत्री को सर्वांग सुन्दर और शुद्ध देखकर दंग रह गये ।
उसके समान सुन्दर कोई देवी न कोई गन्धर्वी न सुर असुर की स्त्री और न कोई पन्नगी ही थी।
इन्द्र ने तब ने उस कन्या गायत्री से पूछा कि तुम कौन हो ? और कहाँ से आयी हो ? और किस की पुत्री हो ?
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गोप कन्यां च तां दृष्टवा , गौरवर्ण महाद्युति:।
एवं चिन्ता पराधीन ,यावत् सा गोप कन्यका ।।९ ।।
पद्म पुराण सृष्टि खण्ड अध्याय १६ १८२ श्लोक में
इन्द्र ने कहा कि तुम बड़ा रूप वती हो , गौरवर्ण वाली महाद्युति से युक्त हो ,
अध्याय १७ के ४८३ में प्रभु ने कहा कि यह गोप कन्या पराधीन चिन्ता से व्याकुल है ।
देवी चैव महाभागा , गायत्री नामत: प्रभु ।
गान्धर्वेण विवाहेन ,विकल्प मा कथाश्चिरम्।९।
१८४ श्लोक में विष्णु ने ब्रह्मा जी से कहा कि हे प्रभो इस कन्या का नाम गायत्री है ।
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वस्तुत आभीर और गोप शब्द परस्पर पर्यायवाची है ।
यहा गायत्री के लिये गोप अहीर दोनो प्रयोग किया गया है
गोपों (अहीरों) को देवीभागवतपुराण तथा महाभारत , हरिवंश पुराण आदि मे देवताओं का अवतार बताया गया है ; देखें 👇
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" अंशेन त्वं पृथिव्या वै , प्राप्य जन्म यदो:कुले । भार्याभ्याँश संयुतस्तत्र , गोपालत्वं करिष्यसि ।१४
अर्थात् अपने अंश से तुम पृथ्वी पर गोप बनकर यादव कुल में जन्म ले ! और अपनी भार्या के सहित अहीरों के रूप में गोपालन करेंगे।।
वस्तुत आभीर और गोप शब्द परस्पर पर्याय वाची हैं l
गर्ग संहिता अश्व मेध खण्ड अध्याय 60,41,में यदुवंशी गोपों ( अहीरों) की कथा सुनने और गायन करने से मनुष्यों के सब पाप नष्ट हो जाते हैं ; एेसा वर्णन है ।
गोप शूद्र नहीं अपितु स्वयं में क्षत्रिय ही हैं ।
जैसा की संस्कृति साहित्य का इतिहास नामक पुस्तक में पृष्ठ संख्या 368 पर वर्णित है👇
अस्त्र हस्ताश़्च धन्वान: संग्रामे सर्वसम्मुखे ।
प्रारम्भे विजिता येन स: गोप क्षत्रिय उच्यते ।।
यादव: श्रृणोति चरितं वै गोलोकारोहणं हरे :
मुक्ति यदूनां गोपानं सर्व पापै: प्रमुच्यते ।102।
अर्थात् जिसके हाथों में अस्त्र एवम् धनुष वाण हैं ---जो युद्ध को प्रारम्भिक काल में ही विजित कर लेते हैं वह गोप क्षत्रिय ही कहे जाते हैं ।
जो मनुष्य गोप अर्थात् आभीर (यादवों )के चरित्रों का श्रवण करता है ।
वह समग्र पाप-तापों से मुक्त हो जाता है ।।
वल्लभाचार्य जी द्वारा स्थापित पुष्टिमार्गी संप्रदाय के अनुयायी भगवान कृष्ण के लिए ठाकुर जी संबोधन देते हैं।
इसी सम्प्रदाय ने उन्हें कृष्ण जी को ठाकुर का प्रथम सम्बोधन दिया ।
यद्यपि किसी पुराण अथवा शास्त्र में ठक्कुर शब्द का प्रयोग कृष्ण के लिए कभी नहीं हुआ है। भ्रान्ति वश बेवजह राजपूत समुदाय के लोग कृष्ण को ठाकुर बिरादरी से सम्बद्ध कर रहे हैं ।
वल्लभाचार्य एक रूढि वादी ब्राह्मण थे । और राजपूतों के श्रद्धेय भी थे ।
परन्तु इस सम्बोधन के मूल में कालान्तरण में यह भावना प्रबल रही कि " कृष्ण को यादव सम्बोधन न देकर केवल आभीर (गोप) जन-जाति को हेय सिद्ध किया जा सके ।
इसलिए ठाकुर जी का सम्बोधन दिया जाने लगा ।
वस्तुत जादौन भीटी अथवा अन्य राज-पूत ---जो स्वयं को यदुवंशी क्षत्रिय कहते हैं । अपने आप को गोपों से सम्बद्ध नहीं करते हैं । परन्तु कृष्ण तो गोप ही थे ।
अब देखिए हरिवंश पुराण में वसुदेव तथा उनके पुत्र कृष्ण को गोप (आभीर) कहा!
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गोपायनं य: कुरुते जगत: सर्वलौककम् ।
स कथं गां गतो देशे विष्णु: गोपत्वम् आगत ।।९।
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(हरिवंश पुराण )
अर्थात् :- जो प्रभु विष्णु पृथ्वी के समस्त जीवों की रक्षा करने में समर्थ है l
वही गोप (आभीर) के घर (अयन)में गोप बनकर आता है ।९। हरिवंश पुराण १९ वाँ अध्याय ।
तथा और भी देखें---यदु को गायों से सम्बद्ध होने के कारण ही यदुवंशी (यादवों) को गोप कहा गया है ।
वसुदेव और नन्द दौनों को परस्पर सजातीय वृष्णि वंशी यादव बताया है ।
देवमीढ़ के दो रानीयाँ मादिष्या तथा वैश्यवर्णा नाम की थी ।
मादिषा के शूरसेन और वैश्यवर्णा के पर्जन्य हुए ।
शूरसेन के वसुदेव तथा पर्जन्य के नन्द हुए
नन्द नौ भाई थे --
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धरानन्द ,ध्रुवनन्द ,उपनन्द ,अभिनन्द सुनन्द
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कर्मानन्द धर्मानन्द नन्द तथा वल्लभ ।
हरिवंश पुराण में वसुदेव को भी गोप कहकर सम्बोधित किया है ।
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"इति अम्बुपतिना प्रोक्तो वरुणेन अहमच्युत !
गावां कारणत्वज्ञ सतेनांशेन जगतीं गत्वा गोपत्वं एष्यति !!
अर्थात् हे विष्णु वरुण के द्वारा कश्यप को व्रज में गोप (आभीर) का जन्म धारण करने का शाप दिया गया ..
क्योंकि उन्होंने वरुण की गायों का अपहरण किया था..
________________________________________ हरिवंश पुराण--(ब्रह्मा की योजना नामक अध्याय)
ख्वाजा कुतुब वेद नगर बरेली संस्करण पृष्ठ संख्या १३३----
और गोप का अर्थ आभीर होता है ।
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परन्तु यादवों को कभी भी कहीं भी वर्ण-व्यवस्था के अन्तर्गत क्षत्रिय स्वीकार न करने का कारण
यही है, कि ब्राह्मण समाज ने प्राचीन काल में ही यदु को शुद्र कहा क्यों की उन्होंने अपने पिता को अपना पौरूष ना दिया और शाप के कारण उन्होंने पृथक यदुवंश / यादव राज्य स्थापित किया |
ऋग्वेद के दशम् मण्डल के ६२वें सूक्त का १०वाँ श्लोक प्रमाण रूप में देखें---
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उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे----
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अन्यत्र ऋग्वेद के द्वित्तीय मण्डल के तृतीय सूक्त के छठे श्लोक में दास शब्द का प्रयोग शम्बर असुर के लिए हुआ है ।
जो कोलों का नैतृत्व करने वाला है !
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उत् दासं कौलितरं बृहत: पर्वतात् अधि आवहन इन्द्र: शम्बरम् ।।
------------------------------------------------------------६६-६
ऋग्वेद-२ /३ /६
दास शब्द इस सूक्त में एक वचन रूप में है ।
और ६२वें सूक्त में द्विवचन रूप में है ।
वैदिक व्याकरण में "दासा "
लौकिक संस्कृत भाषा में "दासौ" रूप में मान्य है ।
ईरानी आर्यों ने " दास " शब्द का उच्चारण "दाहे "
रूप में किया है -- ईरानी आर्यों की भाषा में दाहे का अर्थ --श्रेष्ठ तथा कुशल होता है ।
अर्थात् दक्ष--
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यदुवंशी कृष्ण द्वारा श्रीमद्भगवद्गीता में--
यह कहना पूर्ण रूपेण मिथ्या व विरोधाभासी ही है
कि .......
"वर्णानां ब्राह्मणोsहम् "
( श्रीमद्भगवद् गीता षष्ठम् अध्याय विभूति-पाद)
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{"चातुर्यवर्णं मया सृष्टं गुण कर्म विभागश:" }
(श्रीमद्भगवत् गीता अध्याय ४/३)
क्योंकि कृष्ण यदु वंश के होने से स्वयं ही शूद्र अथवा दास थे ।
फिर वह व्यक्ति समाज की पक्ष-पात पूर्ण इस वर्ण व्यवस्था का समर्थन क्यों करेगा ! ...
गीता में वर्णित बाते दार्शिनिक रूप में तो कृष्ण का दर्शन (ज्ञान) हो सकता है ।
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परन्तु {"वर्णानां ब्राह्मणोsहम् "}
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अथवा{ चातुर्यवर्णं मया सृष्टं गुण कर्म विभागश:}
जैसे तथ्य उनके मुखार-बिन्दु से नि:सृत नहीं हो सकते हैं
गुण कर्म स्वभाव पर वर्ण व्यवस्था का निर्माण कभी नहीं हुआ...
ये तो केवल एक आडम्बरीय आदर्श है ।
केवल जन्म या जाति के आधार पर ही हुआ ..
स्मृतियों का विधान था , कि ब्राह्मण व्यभिचारी होने पर भी पूज्य है ।
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और शूद्र जितेन्द्रीय होने पर भी पूज्य नहीं है।
क्योंकि कौन दोष-पूर्ण अंगों वाली गाय को छोड़कर,
शील वती गधी को दुहेगा ...
"दु:शीलोSपि द्विज पूजिये न शूद्रो विजितेन्द्रीय:
क: परीत्ख्य दुष्टांगा दुहेत् शीलवतीं खरीम् ।।१९२।।. ( पराशर स्मृति )
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हरिवंश पुराण में वसुदेव को गोप कहा है ।
हरिवंश पुराण में वसुदेव का गोप रूप में वर्णन
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"इति अम्बुपतिना प्रोक्तो वरुणेन अहमच्युत !
गावां कारणत्वज्ञ: सतेनांशेन जगतीं गत्वा गोपत्वम् एष्यति ।।२२।।
अर्थात् जल के अधिपति वरुण के द्वारा ऐसे वचनों को सुनकर अर्थात् कश्यप के विषय में सब कुछ जानकर वरुण ने कश्यप को शाप दे दिया , कि कश्यप ने अपने तेज के प्रभाव से उन गायों का अपहरण किया है ।
उसी अपराध के प्रभाव से व्रज में गोप (आभीर) का जन्म धारण करें अर्थात् गोपत्व को प्राप्त हों ।
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Thank you for your opinion
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