पुरातन काल में दुर्गम नामक दैत्य हुआ।
हिन्दू पुराणों में एेसी कथाओं का सृजन किया गया ।
उसने भगवान ब्रह्मा को प्रसन्न कर सभी वेदों को अपने वश में कर लिया जिससे देवताओं का बल क्षीण हो गया। तब दुर्गम ने देवताओं को हराकर स्वर्ग पर कब्जा कर लिया। तब देवताओं को देवी भगवती का स्मरण हुआ। देवताओं ने शुंभ-निशुंभ, मधु-कैटभ तथा चण्ड-मुण्ड का वध करने वाली शक्ति का आह्वान किया। देवताओं के आह्वान पर देवी प्रकट हुईं।
उन्होंने देवताओं से उन्हें बुलाने का कारण पूछा। सभी देवताओं ने एक स्वर में बताया कि दुर्गम नामक दैत्य ने सभी वेद तथा स्वर्ग पर अपना अधिकार कर लिया है तथा हमें अनेक यातनाएं दी हैं। आप उसका वध कर दीजिए। देवताओं की बात सुनकर देवी ने उन्हें दुर्गम का वध करने का आश्वासन दिया। यह बात जब दैत्यों का राजा दुर्गम को पता चली तो उसने देवताओं पर पुन: आक्रमण कर दिया। तब माता भगवती ने देवताओं की रक्षा की तथा दुर्गम की सेना का संहार कर दिया। सेना का संहार होते देख दुर्गम स्वयं युद्ध करने आया। तब माता भगवती ने काली, तारा, छिन्नमस्ता, श्रीविद्या, भुवनेश्वरी, भैरवी, बगला आदि कई सहायक शक्तियों का आह्वान कर उन्हें भी युद्ध करने के लिए प्रेरित किया। भयंकर युद्ध में भगवती ने दुर्गम का वध कर दिया। दुर्गम नामक दैत्य का वध करने के कारण भी भगवती का नाम दुर्गा के नाम से भी विख्यात हुआ।
वस्तुत: ये कथाऐं काल्पनिक उड़ाने मात्र हैं ।
परन्तु इनका आधार सुमेरियन तथा असीरियन एवं बैवीलॉनियन पुरातन कथाओं में वर्णित द्रुयूएगा (Druaga) है । क्योंकि स्त्री (easter ) मृड तथा मृडीक विष्णु ( विएशन)आदि शब्द भी सुमेरियन मूल के है !
Druaga :- (ドルアーガ Doruāga) is the demon that resides in the Tower of Druaga. He is portrayed as a huge, green monster with eight arms, four legs, and yellow eyes. He will eventually be defeated by Gil. He has hidden the Blue Crystal Rod and kidnapped Ki in order to lure Ishtar's greatest instruments of good into his trap so he can dispose of them forever, and lay claim to the world. In order for Druaga's plan to succeed, Gil must die. Should Gil survive the climb through all 60 monster ridden floors of the tower, he must face Druaga himself. Without the proper equipment and enhancements, Gil will be no match for Druaga's brutal destructive strength. Druaga was a Babylonian and Sumerian deity.
अर्थात् द्रुएगा भी एक दैत्य है जो दुर्ग( टावर ऑफ दुर्गा ) पर आवास करता है । जिसका मूर्ति भी विशाल तथा भयानक आकृति में प्राप्त हुईं है ।
यह अष्टम् भुजा धारी है. तथा इसका आँखें पाली तथा लाल हैं । यह पाताल का अधिष्ठात्री देव है ।
वेदों में मृडीक अथवा मृड शब्द शिव का वाचक है
मृड =( मृड-क )। १ शिवे अमरः २ तत्पम्त्याम् स्त्री ङीष् आनुक् च मृडानी
मेलॉक हिब्रू बाइबिल में वर्णित है
मंगलवार, 31 अक्टूबर 2017
दुर्गा कौन और कहाँ से आयी ? जाने एक यथार्थ
अहीर, गुर्जर तथा जाट हैं वास्तविक यादव -
अहीर ही वास्तविक यादवों का रूप हैं ।
जिनकी अन्य शाखाएें गौश्चर: (गुर्जर) तथा जाट आदि हैं ।
दशवीं सदी में अल बरुनी ने नन्द को जाट के रूप में वर्णित किया है ।
जाट अर्थात् जादु (यदु ) अहीर ,जाट ,गुर्जर आदि जन जातियों को शारीरिक रूप से शक्ति शाली और वीर होने पर भी तथा कथित ब्राह्मणों ने कभी क्षत्रिय ही नहीं माना । _______________________________________ क्योंकि इनके पूर्वज यदु को वेदों में दास घोषित कर दिया था ।.... और आज जो राजपूत अथवा ठाकुर मूँछें खींच खींच कर स्वयं को यदु वंशी क्षत्रिय लिख रहे हैं ।
... वो यदु वंश के कभी नहीं हैं यदि स्वयं को ब्राह्मणों द्वारा घोषित क्षत्रिय कहते हैं।
क्योंकि वेदों में भी यदु को दास अथवा असुर के रूप में वर्णित किया है।
और जिस ऋग्वेद को विश्व का सबसे प्राचीनत्तम ग्रन्थ माना गया है ।
उसी ऋग्वेद के दशम् मण्डल के ६२वें सूक्त की १० वीं ऋचा " इस तथ्य का महाप्रमाण है । यद्यपि तत्कालीन कुछ ब्राह्मणों द्वारा द्वेष वश अहीरों को शूद्र कह कर ही सम्बोधित किया गया था ।
परन्तु अहीर (शुद्ध रूप अभीर तथा समूहवाचक रूप आभीर ) अपने नाम- व्युत्पत्ति- मूलक अर्थ के द्वारा ही
प्रकाशन करता है :- अ = नहीं + भीर = कायर अर्थात् जो किसी से डरता नहीं वीर अथवा यौद्धा ।
असली यदु वंशी प्रमाणित करने के लिए ब्रह्म - वाक्य ही नहीं विवादों के युद्ध में ब्रह्मास्त्र है ।
ऋग्वेद की यह प्राचीनत्तम ऋचा :-
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उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी गोपरीणसा
यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।(१०/६२/१० ऋग्वेद)
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अर्थात् यदु और तुर्वसु नामक दौनो दास जो गायों से घिरे हुए हैं , हम उन मुस्कराहट से पूर्ण दृष्टि वाले यदु और तुर्वसु दौनों गोपों की प्रशंसा करते हैं ।
ऋग्वेद की यह ऋचा प्राचीनत्तम है क्यों कि लौकिक संस्कृत में अकारान्त पुल्लिंग संज्ञा का द्विवचन रूप दासौ होगा न कि दासा यही इस सूक्त की प्राचीनता का प्रमाण है ।
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कुछ जादौन समुदाय के लोग यद्यपि अहीरों को
कहते हैं ,कि अहीरों ने यादव उपाधि (sir name)
हमसे छीन ली और ये विदेशी लोग हमारे वाप को अपना वाप कह रहे हैं । परन्तु विश्व एैतिहासिक सन्दर्भों से हम उद्धृत करते हैं । कि
जादौन तो अफ़्ग़ानिस्तान में तथा पश्चिमोत्तर पाकिस्तान में पठान थे ।
पठानिया वंश की उत्पत्ति
हिन्दू पण्डितों के अनुसार
इस वंश की उत्पत्ति पर कई मत हैं,
श्री ईश्वर सिंह मढ़ाड कृत राजपूत वंशावली के पृष्ठ संख्या 181-182 के अनुसार पठानिया राजपूत बनाफर वंश की शाखा है,उनके अनुसार बनाफर राजपूत पांडू पुत्र भीम की हिडिम्बा नामक नागवंशी कन्या से विवाह हुआ था हिडिम्बा से उत्पन्न पुत्र घटोत्कच के वंशज वनस्पर के वंशज बनाफर राजपूत हैं,पंजाब के पठानकोट में रहने वाले बनाफर राजपूत ही पठानिया राजपूत कहलाते है ।
परन्तु पठान कोटी सरनेम न होकर पठानिया होना ।
इस तथ्य को प्रमाणित नहीं करता है ।
सत्य तो यह है कि पठान यहूदीयों की एक शाखा थी ।
जो स्वयं को जादौन पठान कहती है पठान संस्कृत पृक्तन् का ही अपर विकसित रूप है ।
जो सातवीं सदी में कुछ इस्लाम में चले गये और कुछ भारत में राजपूत अथवा ठाकुर के रूप में उदित हुए ।
क्योंकि पठान ही वाद में प्रस्थ तथा प्रस्थान कहे गये । यद्यपि जादौन पठान स्वयं को यहूदी ही मानते हैं .... ________________________________________ परन्तु हैं ये पठान लोग धर्म की दृष्टि से मुसलमान है ... पश्चिमीय एशिया में भी अबीर (अभीर) यहूदीयों की प्रमाणित शाखा है ।🔪🔪🔪🔪🔪🔪🔪
यहुदह् को ही यदु कहा गया ... हिब्रू बाइबिल में यदु के समान यहुदह् शब्द की व्युत्पत्ति मूलक अर्थ है " जिसके लिए यज्ञ की जाये" और यदु शब्द यज् --यज्ञ करणे धातु से व्युत्पन्न वैदिक शब्द है । ----------------------------------------------------------------- वेदों में वर्णित तथ्य ही ऐतिहासिक श्रोत हो सकते हैं । न कि रामायण और महाभारत आदि ग्रन्थ में वर्णित तथ्य.... ये पुराण आदि ग्रन्थ बुद्ध के परवर्ती काल में रचे गये । और भविष्य-पुराण सबसे बाद अर्थात् में उन्नीसवीं सदी में.. ----------------------------------------------------------------- आभीर: , गौश्चर: ,गोप: गोपाल : गुप्त: यादव - इन शब्दों को एक दूसरे का पर्याय वाची समझा जाता है। अहीरों को एक जाति, वर्ण, आदिम जाति या नस्ल के रूप मे वर्णित किया जाता है, जिन्होने भारत व नेपाल के कई हिस्सों पर राज किया था । गुप्त कालीन संस्कृत शब्द -कोश "अमरकोष " में गोप शब्द के अर्थ ---गोपाल, गोसंख्य, गोधुक, आभीर:, वल्लभ, आदि बताये गए हैं। प्राकृत-हिन्दी शब्दकोश के अनुसार भी अहिर, अहीर, अरोरा व ग्वाला सभी समानार्थी शब्द हैं। हिन्दी क्षेत्रों में अहीर, ग्वाला तथा यादव शब्द प्रायः परस्पर समानार्थी माने जाते हैं।. वे कई अन्य नामो से भी जाने जाते हैं, जैसे कि गवली, घोसी या घोषी अहीर, घोषी नामक जो मुसलमान गद्दी जन-जाति है । वह भी इन्ही अहीरों से विकसित है । हिमाचल प्रदेश में गद्दी आज भी हिन्दू हैं । तमिल भाषा के एक- दो विद्वानों को छोडकर शेष सभी भारतीय विद्वान इस बात से सहमत हैं कि अहीर शब्द संस्कृत के आभीर शब्द का तद्भव रूप है। आभीर (हिंदी अहीर) एक घुमक्कड़ जाति थी जो शकों की भांति बाहर से हिंदुस्तान में आई। _________________________________________ इतिहास कारों ने ऐसा लिखा ... परन्तु प्रमाण तो यह भी हैं कि अहीर लोग , देव संस्कृति के उपासक जर्मनिक जन-जातियाँ से सम्बद्ध भारतीय आर्यों से बहुत पहले ही इस भू- मध्य रेखीय देश में आ गये थे, जब भरत नाम की इनकी सहवर्ती जन-जाति निवास कर कहा थी । भारत नामकरण भी यहीं से हुआ है... शूद्रों की यूरोपीय पुरातन शाखा स्कॉटलेण्ड में शुट्र (Shouter) थी । स्कॉटलेण्ड का नाम आयर लेण्ड भी नाम था । तथा जॉर्जिया (गुर्जिस्तान) भी इसी को कहा गया ... स्पेन और पुर्तगाल का क्षेत्र आयबेरिया इन अहीरों की एक शाखा की क्रीडा-स्थली रहा है ! आयरिश भाषा और संस्कृति का समन्वय प्राचीन फ्रॉन्स की ड्रयूड (Druids) अथवा द्रविड संस्कृति से था । ब्रिटेन के मूल निवासी ब्रिटॉन् भी इसी संस्कृति से सम्बद्ध थे । ______________________________________ परन्तु पाँचवी-सदी में जर्मन जाति से सम्बद्ध एेंजीलस शाखा ने इनको परास्त कर ब्रिटेन का नया नाम आंग्ललेण्ड देकर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया --- भारत के नाम का भी ऐसा ही इतिहास है । _______________________________________ आभीर शब्द की व्युत्पत्ति- " अभित: ईरयति इति आभीर " के रूप में भी मान्य है । इनका तादात्म्य यहूदीयों के कबीले अबीरों (Abeer) से प्रस्तावित है । "( और इस शब्द की व्युत्पत्ति- अभीरु के अर्थ अभीर से प्रस्तावित है--- जिसका अर्थ होता है ।जो भीरु अथवा कायर नहीं है ,अर्थात् अभीर ________________________________________ इतिहास मे भी अहीरों की निर्भीकता और वीरता का वर्णन प्राचीनत्तम है । इज़राएल में आज भी अबीर यहूदीयों का एक वर्ग है । जो अपनी वीरता तथा युद्ध कला के लिए विश्व प्रसिद्ध है । कहीं पर " आ समन्तात् भीयं राति ददाति इति आभीर : इस प्रकार आभीर शब्द की व्युत्पत्ति-की है , जो अहीर जाति के भयप्रद रूप का प्रकाशन करती है । अर्थात् सर्वत्र भय उत्पन्न करने वाला आभीर है । यह सत्य है कि अहीरों ने दास होने की अपेक्षा दस्यु होना उचित समझा ... तत्कालीन ब्राह्मण समाज द्वारा बल-पूर्वक आरोपित आडम्बर का विरोध किया । अत: ये ब्राह्मणों के चिर विरोधी बन गये और ब्राह्मणों ने इन्हें दस्यु ही कहा " _________________________________________ बारहवीं सदी में लिपिबद्ध ग्रन्थ श्रीमद्भागवत् पुराण में अहीरों को बाहर से आया हुआ बताया है , वह भी यवन (यूनानीयों)के साथ ... देखिए कितना विरोधाभासी वर्णन है । फिर महाभारत में मूसल पर्व में वर्णित अभीर कहाँ से आ गया.... और वह भी गोपिकाओं को लूटने वाले .. ________________________________________ जबकि गोप को ही अहीर कहा गया है । संस्कृत साहित्य में.. इधर उसी महाभारत के लेखन काल में लिखित स्मृति-ग्रन्थों में व्यास-स्मृति के अध्याय १ के श्लोक संख्या ११---१२ पर गोप, कायस्थ ,कोल आदि को इतना अपवित्र माना, कि इनको देखने के बाद तुरन्त स्नान करना चाहिए.. _______________________________________ यूनानी लोग भारत में ई०पू० ३२३ में आये और महाभारत को आप ई०पू० ३०००वर्ष पूर्व का मानते हो.. फिर अहीर कब बाहर से आये ई०पू० ३२३ अथवा ई०पू० ३०००में .... भागवत पुराण में तथागत बुद्ध को विष्णु का अवतार माना लिया गया है । जबकि वाल्मीकि-रामायण में राम बुद्ध को चोर और नास्तिक कहते हैं । राम का और बुद्ध के समय का क्या मेल है ? अयोध्या काण्ड सर्ग १०९ के ३४ वें श्लोक में राम कहते हैं--जावालि ऋषि से---- -------------------------------------------------------------- यथा ही चोर:स तथा हि बुद्धस्तथागतं नास्तिकमत्र विद्धि ------------------------------------------------------------------- --------------------------------------- बारहवीं सदी में लिपिबद्ध ग्रन्थ श्रीमद्भागवत् पुराण में अहीरों को बाहर से आया बताया गया..... फिर महाभारत में मूसल पर्व में वर्णित अभीर कहाँ से आ गये.... -------------------------------- किरात हूणान्ध्र पुलिन्द पुलकसा: आभीर शका यवना खशादय :। येsन्यत्र पापा यदुपाश्रयाश्रया शुध्यन्ति तस्यै प्रभविष्णवे नम: ------------------------------------ श्रीमद्भागवत् पुराण-- २/४/१८ वास्तव में एैसे काल्पनिक ग्रन्थों का उद्धरण देकर जो लोग अहीरों(यादवों) पर आक्षेप करते हैं । नि: सन्देह वे अल्पज्ञानी व मानसिक रोगी हैं .. वैदिक साहित्य का अध्ययन कर के वे अपना उपचार कर लें ... ------------------------------------------------------------ हिब्रू भाषा में अबीर शब्द का अर्थ---वीर अथवा शक्तिशाली (Strong or brave) आभीरों को म्लेच्छ देश में निवास करने के कारण अन्य स्थानीय आदिम जातियों के साथ म्लेच्छों की कोटि में रखा जाता था, तथा वृत्य क्षत्रिय कहा जाता था। वृत्य अथवा वार्त्र भरत जन-जाति जो वृत्र की अनुयायी तथा उपासक थी । जिस वृत्र को कैल्ट संस्कृति में ए-बरटा (Abarta)कहा है । जो त्वष्टा परिवार का सदस्य हैं । तो इसके पीछे यह कारण था , कि ये यदु की सन्तानें हैं _______________________________________ यदु को ब्राह्मणों ने आर्य वर्ग से बहिष्कृत कर उसके वंशजों को ज्ञान संस्कार तथा धार्मिक अनुष्ठानों से वञ्चित कर दिया था । और इन्हें दास -(दक्ष) घोषित कर दिया था । इसका एक प्रमाण देखें --- ------------------------------------------------------------------- उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे- ------------------------------------------------------------- ऋग्वेद के दशम् मण्डल के ६२ सूक्त के १० वें श्लोकाँश में.. यहाँ यदु और तुर्वसु दौनों को दास कर सम्बोधित किया गया है । यदु और तुर्वसु नामक दास गायों से घिरे हुए हैं हम उनकी प्रशंसा करते हैं। ---------------------------------------------------------------- ईरानी आर्यों की भाषा में दास शब्द दाह/ के रूप में है जिसका अर्थ है ---पूज्य व पवित्र अर्थात् (दक्ष ) यदु का वर्णन प्राचीन पश्चिमीय एशिया के धार्मिक साहित्य में गायों के सानिध्य में ही किया है । अत: यदु के वंशज गोप अथवा गोपाल के रूप में भारत में प्रसिद्ध हुए..... हिब्रू बाइबिल में ईसा मसीह की बिलादत(जन्म) भी गौओं के सानिध्य में ही हुई ... ईसा( कृष्ट) और कृष्ण के चरित्र का भी साम्य है | ईसा के गुरु एेंजीलस( Angelus)/Angel हैं ,जिसे हिब्रू परम्पराओं ने फ़रिश्ता माना है । तो कृष्ण के गुरु घोर- आंगीरस हैं । ---------. ------------ ---------------------------------------- दास शब्द ईरानी असुर आर्यों की भाषा में दाहे के रूप में उच्च अर्थों को ध्वनित करता है। बहुतायत से अहीरों को दस्यु उपाधि से विभूषित किया जाता रहा है । सम्भवत: इन्होंने चतुर्थ वर्ण के रूप में दासता की वेणियों को स्वीकार नहीं किया, और ब्राह्मण जाति के प्रति विद्रोह कर दिया तभी से ये दास से दस्यु: हो गये ... जाटों में दाहिया गोत्र इसका रूप है । वस्तुत: दास का बहुवचन रूप ही दस्यु: रहा है । जो अंगेजी प्रभाव से डॉकू अथवा (dacoit )हो गया । ------------------------------------------------------------------- महाभारत में भी युद्धप्रिय, घुमक्कड़, गोपाल अभीरों का उल्लेख मिलता है। महाभारत के मूसल पर्व में आभीरों को लक्ष्य करके प्रक्षिप्त और विरोधाभासी अंश जोड़ दिए हैं । कि इन्होने प्रभास क्षेत्र में गोपियों सहित अर्जुन को भील रूप में लूट लिया था । आभीरों का उल्लेख अनेक शिलालेखों में पाया जाता है। शक राजाओं की सेनाओं में ये लोग सेनापति के पद पर नियुक्त थे। आभीर राजा ईश्वरसेन का उल्लेख नासिक के एक शिलालेख में मिलता है। ईस्वी सन् की चौथी शताब्दी तक अभीरों का राज्य रहा। अन्ततोगत्वा कुछ अभीर राजपूत जाति में अंतर्मुक्त हुये व कुछ अहीर कहलाए, जिन्हें राजपूतों सा ही योद्धा माना गया। ---------------------------------------------------------- मनु-स्मृति में अहीरों को काल्पनिक रूप में ब्राह्मण पिता तथा अम्बष्ठ माता से उत्पन्न कर दिया है । आजकल की अहीर जाति ही प्राचीन काल के आभीर हैं। ______________________________________ ब्राह्मणद्वैश्य कन्यायायामबष्ठो नाम जायते । "आभीरोsम्बष्टकन्यायामायोगव्यान्तु धिग्वण" इति-----( मनु-स्मृति ) अध्याय १०/१५ तारानाथ वाचस्पत्य कोश में आभीर शब्द की व्युत्पत्ति- दी है --- "आ समन्तात् भियं राति ददाति - इति आभीर : " अर्थात् सर्वत्र भय भीत करने वाले हैं । - यह अर्थ तो इनकी साहसी और वीर प्रवृत्ति के कारण दिया गया था । क्योंकि शूद्रों का दर्जा इन्होने स्वीकार नहीं किया । दास होने की अपेक्षा दस्यु बनना उचित समझा। अत: इतिहास कारों नें इन्हें दस्यु या लुटेरा ही लिखा । जबकि अपने अधिकारों के लिए इनकी यह लड़ाई थी ।
दाह संस्कार एक सांस्कृतिक विश्लेषण -- यादव योगेश कुमार'रोहि'
भारतीय तथा योरोपीय आर्यों में प्रचलित थी -- मृतक के दाह संस्कार की पृथा ~ --------- ----- ---------- ------------------------------- यादव योगेश कुमार रोहि ग्राम :---आज़ादपुर पत्रालय:--- पहाड़ीपुर जनपद अलीगढ़
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अन्तिम संस्कार के सर्वाधिक प्रचलित विधियों में एक है, मृतदेह को भूमि में दबाना जिसे दफ़न करना कहते हैं इसके बाद आता है दाहसंस्कार जो हिन्दू धर्म तथा उससे निकले कुछ पंथो में प्रचलित है। ऐसी आधुनिक इतिहस कारों की मान्यता है ! इतिहास- कार ये भी कहते हैं | कि ईसाइयों, मुस्लिमों, यहूदियों समेत कई अन्य समाज-संस्कृतियों में शवों को दफ़नाने की परम्परा है। मुस्लिम समाज में शवों को जहां गाड़ा जाता है उसे कब्रिस्तान कहते हैं। श्मशान शब्द का विकास भी इन्हीं रूपों से हुआ है हिन्दुओं में उस स्थान को श्मशान कहते हैं। हिन्दुओं में आमतौर पर दाहसंस्कार की परम्परा है मगर उसके कुछ पंथो में शवों को दफ़नाया भी जाता है जिसे समाधि देना कहते हैं। हिन्दी के समाधि शब्द में कई अर्थ छिपे हैं। आमतौर पर चिंतन-मनन की मुद्रा अथवा ध्यानमग्न अवस्था को भी समाधि कहते हैं और कब्र को भी समाधि कहते हैं। समाधि शब्द बना है आधानम् से जिसका अर्थ होता है ----- ऊपर रखना, प्राप्त करना, मानना, यज्ञाग्नि स्थापित करना आदि। इसके अलावा कार्यरूप में परिणत करना भाव भी इसमें शामिल है। आधानम् में सम् उपसर्ग लगने से बनता है समाधानम्। जब सम् अर्थात समान रूप से बहुत सी चीज़ें अथवा तथ्य सामने रखे जाते हैं, गहरी बातों को उभारा जाता है तो सब कुछ स्पष्ट होने लगता है। यही है समाधानम् या समाधान अर्थात निष्कर्ष, संदेह निवारण, शांति, सन्तोष आदि। समाधि इसी कड़ी का हिस्सा है जिसमें संग्रह, एकाग्र, चिंतन, आदि भाव हैं। जब बहुत सारी चीज़ों को सामने रखा जाता है तब उनमें से चुनने की प्रक्रिया शुरू होती है। भौतिक तौर पर विभिन्न वस्तुओं के बीच इसे चुनाव कहा जाता है। पर जब यह प्रक्रिया मन में चलती है तब यह भाव चिन्तन कहलाती है। यह भाव-चिन्तन ही मनोयोग है, तपस्या है, समाधि है। आमतौर पर ऋषि-मुनि, तपस्वी ही समाधि अवस्था में पहुंचते हैं। ऐसे लोगों की आत्मा जब देहत्याग करती थी तो उसे मृत्यु न कह कर समाधि लगना कहा जाता था .... परन्तु में इसके विपरीत कुछ तथ्य समायोजित करना चाहता हूँ ---- सर्व प्रथम दफ़न शब्द संस्कृत भाषा के तपन = दाहकरण का फारसी प्रतिरूप है परन्तु ईरानी आर्य असुर संस्कृति के उपासक थे अत: उन्होंने उस अग्नि में मृतक को जलाना पाप माना जिसकी वह नित्य उपासना करते हैं परन्तु मुसलमानों ने दफ़न शब्द को मुर्दे को दबाने के अर्थ में ग्रहण किया ---- और प्रचीन यूरोपीय आर्यों के दाह संस्कार सम्बन्धी वर्णन होमर ई०पू० ८०० के समकक्ष उनके इलियड महाकाव्य में यूनानी योद्धा सिकन्दर का पूर्वज हर्कुलिस ( एक्लीश ) अपने चचेरे भाई का दाह संस्कार एक ऊँचे टापू पर मृतक की आँखों पर दो स्वर्ण सिक्के रखकर करता है -! और ऐसा ही ट्रॉय के हेक्टर का पिता प्रियम अपने पुत्र हेक्टर के दाह संस्कार के समय करता है |🔥🔥🔥🔥🔥🔥🔥🔥🔥🔥🔥🔥🔥🔥 प्राचीन यूनान तथा ट्रॉय में मृतक दाह संस्कार के बारह दिन तक शोक की पृथा भारतीय आर्यों के समान कायम थी प्राचीन जर्मन संस्कृति में भी दाह संस्कार की पृथा प्रचलित थी रोमन संस्कृति में दाह- संस्कार को क्रीमेशन Cremation कहते थे यह शब्द लैटिन क्रिया Cremare = to burn
It is the hypothetical source of/evidence for its existence is provided by: Sanskrit kudayati "singes;" Latin carbo "a coal, glowing coal; charcoal," cremare "to burn;" Lithuanian kuriu "to heat," karštas "hot," krosnis "oven;" Old Church Slavonic kurjo "to smoke," krada "fireplace, hearth;" Russian ceren "brazier;" Old High German harsta "roasting;" Gothic hauri "coal;" Old Norse hyrr "fire;" Old English heorð "hearth."
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cremare = जलाने के लिए
यह अपने अस्तित्व के लिए / साक्ष्य का काल्पनिक स्रोत है: संस्कृत कुदायती "गायन"; लैटिन कार्बो "कोयला, चमकदार कोयले, लकड़ी का कोयला," जलाने के लिए दमखम ";" लिथुआनियाई कुरी "गर्मी", "गर्म", "कुर्निश" ओवन; " पुराना चर्च स्लावोनिक कूर्जो "धूम्रपान करने के लिए," क्राडा "चिमनी, चूल्हा;" रूसी सीरेन "ब्रेज़ीयर;" पुरानी हाई जर्मन हार्स्टा "बरस रही"; गॉथिक हौरी "कोयला;" पुराना नॉर्स हायर "आग;" पुरानी अंग्रेजी भाषा "चूल्हा।"
परन्तु संस्कृत भाषा में श्रमु श्रिष् आदि धातुऐं हैं ।
दाहे
( श्रेषति शिश्रेष शिश्लेषिथ श्लेषिता ) शिषि पिपिं शुष्यतिशिष्यती त्विषिं श्लिषिमित्यनिट्कारिकायां दैवादिकस्य श्लिषेर्ग्रहणं तेनास्येतीह् उदातः उक्तं च कैयटे श्लिष आलिङ्गन इति क्सविघावनिट इत्यनवर्त्तनाद् दाह्मार्थस्य सेटो ग्रहणाभाव इति एवं तत्र न्यासपदमञ्जर्योरपि यस्त्वनिट्कारिकाव्याख्यानन्यासे द्वयोर्ग्रहणमिति पाठः सस्वोक्तिविरोधाद् ग्रन्थान्तरविरोधाच्च प्रमादलिखितः तथा च वर्द्धमानस्वामिसंमताकारादयश्चामुं सेटमाहुः श्लेषयतीति (श्लेषः)"श्याद्व्यधास्त्रुसंस्त्रतीणवसावहृलिहश्लिषश्वसश्च'' इति कर्त्तारि, णः ( श्लेष्मा श्लेष्मलः मत्वर्थे श्लष्मणः) पामादित्वान्नः, अयमपि मत्वर्थे श्लेष्मणःशमनं कोपनं वा (श्लेष्मिकम् ) तस्य निमित्तप्रकरणे "वातपित्तश्लेष्मभ्यः शमनकोपनयोरुपसंख्यानम्''इति ठक्(श्लक्ष्णः)"श्लिषेरच्चोपधाया'' इति क्नप्रत्ययः उपधायाश्चकारः श्लिष्यतेर्वा (श्लक्ष्णः आचारश्लक्ष्णः) "पूर्वस दृश'' इत्यादिना समासः आलिङ्गने दिवादिः श्लेषणे चुरादिः ( प्रोषति प्लोषतीत्यादि ) प्लुष्यतीति दिवादिपाठात् सेट् प्रुषिप्लुषी द्वौ स्त्रैहने क्र्यादौ
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मृतक का दाह करना वस्तुत: इस रुप का तादात्म्य संस्कृत भाषा के श्रमशान् रूप से प्रस्तावित है संस्कृत में श्रमु = तापसि दाहे खेदे च उ० श्राम्यति -- श्राम्यते श्रम्
आदि धातु के आत्मने पदीय क्रिया रूप में शानच् प्रत्यय करने पर श्रमशान् रूप सिद्ध होता है = अर्थात् जलता हुआ वामन शिव राम आप्टे ने वाचस्पत्यम् को के आधार पर श्मशानम्--------श्मान: शय्या: शेरतेsत्र -- शी -- आनच् डिच्च अथवा श्मन् शब्देन शब: प्रोक्त: तस्य शानं शयनं )------- 🔥🔥🔥🔥🔥🔥🔥🔥🔥🔥🔥🔥🔥🔥--- वस्तुत: श्रम् धातु की सहवर्ति अन्य धातुऐं श्रा - पाके | श्रै - पाके श्रीञ् - पाके श्रिषु - दाहे तथा श्यैन -करणम् = अलग चिता पर मृतक का दाह संस्कार करना |शव- शयैन -- श्मशान -------- श्यै = भ्वा० आत्मने पदीय श्यायते ,श्यान , शीत ,शीन, १-- जाना २-- जमना ३-- जलाना , सुखाना ---आदि ... अत: प्रबल प्रमाणों के अभाव में इतिहास कार इस तथ्य को सिद्ध नहीं कर सकते हैं कि भारतीयों का श्मशान शब्द कब्रुस्तान का समानार्थक है || 🔯🔯🔯🔯🔯🔯🔯🔯🔯🔯🔯🔯🔯
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