"कृष्ण देव पूजा अथवा यज्ञ मूलक कर्मकाण्डों के विरोधी थे क्योंकि देव- यज्ञ के लिए पशु हिंसा अनिवार्य पूरक क्रिया थी " परन्तु इस बात के -परोक्षत: संकेत प्राप्त होते हैं कि यज्ञों में बलि के नाम पर पशुओं की निर्ममता पूर्वक हत्या लोक कल्याण में नहीं थी।
इसीलिए कृष्ण देव-संस्कृति के विद्रोही पुरुष थे।उन्होंने वन, पशु और पर्वतों को अपना उपास्य स्वीकार किया।इसी लिए उनके चरित्र-उपक्रमों में इन्द्र -पूजा का विरोध परिलक्षित होता है ।👇इसीलिए कृष्ण को ऋग्वेद के अष्टम मण्डल में अदेव विशेषण से सम्बोधित भी किया गया ह।जिसका अर्थ है-( देवों को न मानने वाला )श्रीमद्भगवद् गीता के कुछ पक्ष प्रबलत्तर हैं इस बात के प्रमाण के लिए कि "कृष्णदेव विषयक कर्मकाण्डों का विरोध करते हैं।कारण यही था कि यज्ञ के नाम पर निर्दोष जीवों की हत्या होती थी।श्रीमद्भागवतम्भागवत पुराण स्कन्ध 11: सामान्य इतिहास अध्याय 5: नारद द्वारा वसुदेव को दी गई शिक्षाओं का समापन श्लोक 13श्लोक 11.5.13 भागवत पुराण"यद् घ्राणभक्षो विहित: सुराया-स्तथा पशोरालभनं न हिंसा।एवं व्यवाय: प्रजया न रत्याइमं विशुद्धं न विदु: स्वधर्मम् ॥१३॥शब्दार्थ:- यत्—चूँकि; घ्राण—सूँघ कर; भक्ष:—खाओ; विहित:—वैध है; सुराया:—मदिरा का; तथा—उसी तरह; पशो:—बलि पशु का; आलभनम्—विहित वध; न—नहीं; हिंसा— हिंसा;वध एवम्—इसी प्रकार से; व्यवाय:—यौन; प्रजया—सन्तान उत्पन्न करने के लिए; न—नहीं; रत्यै—इन्द्रिय-भोग के लिए; इमम्—यह (जैसाकि पिछले श्लोक में कहा गया है); विशुद्धम्—अत्यन्त शुद्ध; न विदु:—वे नहीं समझ पाते; स्व-धर्मम्—अपने उचित कर्तव्य को ।.अनुवाद:- वैदिक आदेशों के अनुसार, जब यज्ञोत्सवों में सुरा प्रदान की जाती है, तो उसको पीकर नहीं अपितु सूँघ कर उपभोग किया जाता है। इसी प्रकार यज्ञों में पशु-बलि की अनुमति है, किन्तु व्यापक पशु-हत्या के लिए कोई प्रावधान नहीं है। धार्मिक यौन-जीवन की भी छूट है, किन्तु विवाहोपरान्त सन्तान उत्पन्न करने के लिए, शरीर के विलासात्मक दोहन के लिए नहीं।किन्तु दुर्भाग्यवश मन्द बुद्धि भौतिकतावादी जन यह नहीं समझ पाते कि जीवन में उनके सारे कर्तव्य नितान्त आध्यात्मिक स्तर पर सम्पन्न होने चाहिए।भागवत पुराण का उपर्युक्त श्लोक यद्यपि कृष्ण के हिंसा वरोधी मत को अभिव्यक्त करने में समर्थ नहीं है। और देवयजन ( यज्ञ)के नाम पर हिंसामूलक यज्ञ का विरोध न करके उससे बचने का तो रास्ता बता रहा है।परन्तु यह उपर्युक्त कथन मौलिक रूप से कृष्ण का नहीं हैं। अपितु किसी देवयज्ञवादी ने इसे बड़ी चतुराई से भागवत में जोड़ दिया है।परन्तु कृष्ण देव पूजा के इसी हिंसामूलक उपक्रम के कारण विरोधी भी थे।तात्पर्य:- पशु-यज्ञ के सम्बन्ध में मध्वाचार्य ने भी देव पूजा का पक्ष बड़ी सहजता से लिया है। उन्होंने निम्नलिखित कथन दिया है—"यज्ञेष्वालभनं प्रोक्तं देवतोद्देशत: पशो:।हिंसानाम तदन्यत्र तस्मात् तां नाचरेद् बुध:॥यतो यज्ञे मृता ऊर्ध्वं यान्ति देवे च पैतृके।अतो लाभादालभनं स्वर्गस्य न तु मारणम् ॥भावार्थ:-इस कथन के अनुसार कभी कभी किसी देवता विशेष की तुष्टि के लिए पशु-यज्ञ करने की पुरोहित संस्तुति करते हैं।किन्तु यदि कोई व्यक्ति वैदिक नियमों का दृढ़ता से पालन न करते हुए अंधाधुंध पशु-वध करता है, तो ऐसा वध वास्तविक हिंसा है।आखिर रूढ़िवादी परम्पराओं का भी निर्वहन करना क्या बुद्धि मानी है ? जिसमें जीवों की हत्या के विधान हों।और इस हिंसामूलक यज्ञों को आज किसी भी बुद्धिमान व्यक्ति द्वारा स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए।इन्द्रोपासक पुरोहितों की मान्यता है। कि"यदि पशु-यज्ञ सही ढंग से सम्पन्न किया जाता है, तो बलि किया गया पशु तुरन्त देवलोक तथा पितृलोक को चला जाता है।इसलिए ऐसा यज्ञ पशुओं का वध नहीं है, अपितु वैदिक मंत्रों की शक्ति-प्रदर्शन के लिए होता है, जिसकी शक्ति से बलि किया हुआ पशु, तुरन्त उच्च लोकों को प्राप्त होता है।किन्तु चैतन्य महाप्रभु ने इस युग में ऐसे पशु-यज्ञ का पूर्ण निषेध किया है,क्योंकि मंत्रों का उच्चारण करने वाले योग्य ब्राह्मणों का अभाव है और तथाकथित यज्ञशाला सामान्य कसाई-घर का रूप धारण कर लेती है।इसके पूर्व के युग में जब पाखण्डी लोग वैदिक यज्ञों का गलत अर्थ लगाकर, यह सिद्ध करना चाहते थे कि पशु-वध तथा मांसाहार वैध है, तब विचारणीय प्रश्न यह है कि मुसलमान भी कुरबानी अथवा हलाल कुरान का कलमा पढकर ही करते हैं ।क्या ईश्वर कुरबानी का भूखा है? अथवा देवता माँस भक्षी हैं क्या?यद्यपि कृष्ण ने यज्ञ के नाम पर पशु वध का पूर्ण निषेध करते हुए ही देव यज्ञ को बन्द करा दिया था।अधिकतर यज्ञों में पशुबध अनिवार्य था।इसी लिए इस बध को बन्द करने के लिए स्वयं भगवान् बुद्ध ने अवतार लिया और उनकी घृणित उक्ति को अस्वीकार किया।इसका वर्णन गीत गोविन्द कार जयदेव ने किया है—"निन्दसि यज्ञविधेरहह श्रुतिजातं सदयहृदय दर्शित पशुघातम्।केशव धृतबुद्धशरीर जय जगदीश हरे ॥अतस्तु भगवता कृष्णेन हिंसायज्ञं कलौ युगे समाप्य नवीनमतो विधीयते।3.4.19.६०।अनुवाद:-इसी कारण से भगवान -कृष्ण ने सभी देव-यज्ञों में विशेषत: इन्द्र के हिंसा पूर्ण यज्ञों पर रोक लगा दी क्यों कि यज्ञों में निर्दोष पशुओं की हिंसा होती। कृष्ण ने कलियुग में हिंसात्मक यज्ञों को समाप्त कर नये मत का विधान किया ।६०।कृष्ण का समय द्वापर युग का अन्तिम चरण और कलियुग का प्रारम्भिक चरण का मध्य है। अत: कलि युग के लिए विधान - निर्देश कृष्ण ने किया ।""समाप्य कार्तिके मासि प्रतिपच्छुक्लपक्षके।अन्नकूटमयं यज्ञं स्थापयामास भूतले ।६१।अनुवाद:- ★-कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा तिथि में भूतल पर कृष्ण ने अन्नकूट का विधान किया।61।विशेष:- अन्नकूट-एक उत्सव जो कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा से पूर्णिमा पर्यन्त यथारुचि किसी दिन (विशेषत? प्रतिपदा को वैष्णवों के यहाँ)होता है । उस दिन नाना प्रकार के भोजनों की ढेरी लगाकर भगवान को भोग लगाते हैं। यह त्यौहार कृष्ण द्वारा वैदिक हिंसा पूर्ण यज्ञों के विरोध में स्थापित किया गया विधान था।"देवराजस्तदा क्रुद्धो ह्यनुजं प्रतिदुःखितः ।वज्रं सप्लावयामास तदा कृष्णः सनातनीम् । प्रकृतिं स च तुष्टाव लोकमङ्गलहेतवे ।६२।अनुवाद:-★कृष्ण द्वारा स्थापित इस अन्नकूट उत्सव से क्रोधित होकर देवराज इन्द्र ने सम्पूर्ण व्रजमण्डल को मेघ द्वारा डुबो देने का कार्य प्रारम्भ कर दिया। तब कृष्ण ने सनातन प्रकृति की आराधना की इससे वह भगवती प्रकृति लोक कल्याण के लिए प्रसन्न हो गयीं ।६२।तदा सा प्रकृतिर्माता स्वपूर्वाद्दिव्यविग्रहम् ।राधारूपं महत्कृत्वा हदि कृष्णस्यचागता।६३।अनुवाद:- ★तभी अपने पूर्वाद्धदिव्य शरीर से महान राधा रूप धारण किया तथा कृष्ण के हृदय में प्रवेश कर गयीं।६३।तच्छक्त्या भगवान्कृष्णो धृत्वा गोवर्धनं गिरिम्। नाम्ना गिरिधरो देवः सर्वपूज्यो बभूव ह ।६४।अनुवाद:- ★तब उस शक्ति द्वारा कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत धारण किया तब से उनका नाम गिरिधर हो गया और वे सबके पूज्य हो गये।64।राधाकृष्णस्स भगवान्पूर्णब्रह्म सनातनः।अतः कृष्णो न भगवान्राधाकृष्णः परः प्रभुः।६५।अनुवाद:-★वे राधाकृष्ण भगवान् सनातन पूर्णब्रह्म हैं। तभी तो कृष्ण को केवल कृष्ण नहीं कहते हैं। वे राधाकृष्ण भगवान् कहे गये हैं यह संयुक्त नाम ही पूर्ण ब्रह्म का वाचक है।वे ही सबसे परे तथा प्रभु ( सर्व समर्थ) हैं।६५।इति श्रुत्वा वचस्तस्य मध्वाचार्यो हरिप्रियः।शिष्यो भूत्वा स्थितस्तत्र कृष्णचैतन्यपूजकः।६६।अनुवाद:- ★यह सुनकर कृष्णप्रिय मध्वाचार्य ने चैतन्यमहाप्रभु का शिष्यत्व ग्रहण किया तथा कृष्ण चैतन्य आराधना में रत हो गये।६६।इति श्रीभविष्ये महापुराणे प्रतिसर्गपर्वणि चतुर्युगखण्डापरपर्याये कलियुगीयेतिहाससमुच्चये कृष्णचैतन्ययज्ञांशशिष्यबलभद्रविष्णुस्वामिमध्वाचार्यादिवृत्तान्तवर्णनं नामैकोनविंशोऽध्यायः।१९।इस प्रकार श्रीभविष्य पुराण के प्रतिसर्गपर्व चतुर्थ खण्ड अपरपर्याय"कलियुगीन इतिहास का समुच्चय में कृष्ण चैतन्य यज्ञाञ्श तथा शिष्यबलभद्र-अंश विष्णु स्वामी तथा मध्वाचार्य वृतान्त वर्णन नामक उन्नीसवाँ अध्याय समाप्त हुआ-★___________विचार विश्लेषण-इन्द्र तथा इन्द्रोपासक पुरोहितो का कृष्ण से युद्ध ऐतिहासिक है।जिसके साक्ष्य जहाँ -तहाँ पुराणों तथा वैदिक ऋचाओं में बिखरे पड़े हैं।जिस समय देव-यज्ञ के नाम पर असाह्य और निर्दोष पशुओं की यज्ञों में निरन्तर हिंसा (कत्ल) हो रही था और इस कारण से यज्ञ वेदियाँ रक्त-रञ्जित रहती थीं।तब ऐसे समय कृष्ण ने सर्वप्रथम इन अन्ध रूढ़ियों का खण्डन व विरोध किया।पुरोहितों की जिह्वालोलुपता, ब्राह्मण वादी वर्चस्व और देवपूजा के नाम पर व्यभिचार और हिंसा चरम पर थी तब कृष्ण ने इन्द्र की हिंसापूर्ण यज्ञों को समस्त गोप-यादव समाज में रोककर निषिद्ध दिया था।पुराणकारों ने भी जहाँ-तहाँ उन घटनाओं को वर्णित भी किया ही है। भले ही रूपक-विधेय कोई भी हो-जब कृष्ण ने सभी गोपों से कहा कि " देवों की यज्ञ करना व्यर्थ है।कृष्ण का स्पष्ट उद्घोषणा थी कि "जिस शक्ति मार्ग का वरण करके हिंसा द्वारा अश्वमेध आदि यज्ञों द्वारा देवों को प्रसन्न किया जाता हैं तो उन देवों की पूजा व्यर्थ है।कृष्ण की यह बात सुनकर शचीपुत्र यज्ञांश के बहाने से रूढ़िवादी देवोपासक पुरोहितों के मन्तव्य को हंसकर कहा जिसका आरोपण चैतन्य के रूप में हुआ है:- कि कृष्ण साक्षात् भगवान नहीं है ।वह तामसी शक्ति से उत्पन्न है।____________यज्ञ से यद्यपि ईश्वरीय ज्ञान की प्राप्ति नहीं होतीयज्ञ केवल देवपूजा की प्रक्रिया है ।यह देव पूजा के विधान कि सांकेतिक परम्परा मात्र बन रह गयी है।श्रीमद्भगवत् गीता पाँचवीं सदी में रचित ग्रन्थ में जिसकी कुछ प्रकाशन भी है ।यह अधिकाँशत: कृष्ण के सिद्धान्त व मतों की विधायिका है।अब कृष्ण जिस वस्तुत का समर्थन करते हैंमनुःस्मृति उसका विरोध करती है ।क्योंकि मनुस्मृति ब्राह्मण वादी व्यवस्था का पोषक व समर्थक है।"प्राचीन काल में यज्ञ की अवधारणा -
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"यज्ञ" प्राचीन भारतीय देव संस्कृति के आराधकों का एक प्रसिद्ध वैदिक कृत्य था जिसमें वे विभिन्न आयोजनों पर प्रायः देवों को लक्ष्य करके हवन किया करते थे।
- यज्ञ देवसंस्कृति के आराधकों की उस अवधारणा का प्रारूप है। जब वे शीत प्रदेशों में जीवन यापन के उपरान्त शीत-प्रभाव को कम करने के लिए नित्य-नैमित्तिक अग्नि को ईश्वरीय रूप में मान कर उसकी उपासना और सानिध्य प्राप्त करते हुए उसका यजन किया करते थे।
यह अग्नि ही भारतीयों का प्रारम्भिक और अग्रदेव है। यही सृष्टि में सर्वप्रथम उत्पन्न होकर आगे चला और सबका नेता बना । संस्कृत कोशकारों नें अग्नि शब्द की उत्पत्ति अनेक प्रकार से उसके भौतिक गुणों और प्रवृत्तियों को दृष्टि गत करके ही की हैं।
"अङ्गति ऊर्द्ध्वं गच्छति अगि--नि नलोपः " = जो नित्य ऊपर को गमन करता है।।
यूरोपीय भाषाओं में अग्नि शब्द सांस्कृतिक रूपों में विद्यमान है।
लैटिन में इग्निस = (igneous) ओल्ड चर्च और स्लॉवोनिक भाषाओं में ऑग्नि= (ogni,) और रूसी परिवार की लिथुआनियन भाषा में ugnis= (उगनिस ) रूप में यह शब्द विद्यमान है।
भारतीयों में अग्नि की महा उपासना आज भी प्रचलित है।
"ॐ अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्। होतारं रत्नधातमम् ॥ (ऋग्वेद१/१/१)
अनुवाद:- यज्ञ के पुरोहित, दीप्तिमान्, देवों का आह्वान करने वाले ऋत्विक् और रत्नधारण करने वाले अग्नि की मैं स्तुति करता हूँ।
यज्ञ तत्पर्य्यायः । सवः २ अध्वरः ३ यागः ४ सप्त- तन्तुः ५ मखः ६ क्रतुः ७ । अमरकोश(।२।७।१३)
८ इष्टिः इष्टम् ९ वितानम् १० मन्युः ११ आहवः १२ सवनम् १३ हवः १४ अभिषवः १५ होमः १६ हवनम् १७ महः १८ । इति शब्दरत्नावली ॥
यज्ञः शब्द के पर्याय वाची अथवा समानार्थी शब्द निम्नलिखित हैं।
समानार्थक:१-यज्ञ,२-सव,३-अध्वर,४--याग,५-सप्ततन्तु,६-मख,७-क्रतु,८-इष्टि,९-वितान,१०-स्तोम,११-मन्यु,१२-संस्तर,१३-स्वरु,१४-सत्र,१५-हव-2।7।13।2।1
उपज्ञा ज्ञानमाद्यं स्याज्ज्ञात्वारम्भ उपक्रमः। यज्ञः सवोऽध्वरो यागः सप्ततन्तुर्मखः क्रतुः॥
अवयव : यज्ञस्थानम्,यागादौ_हूयमानकाष्ठम्,यागे_यजमानः,हविर्गेहपूर्वभागे_निर्मितप्रकोष्टः,यागार्थं_ संस्कृतभूमिः,अरणिः,यागवेदिकायाम्_दक्षिणभागे_स्थिताग्निः,अग्निसमिन्धने_प्रयुक्ता_ऋक्, हव्यपाकः,अग्निसंरक्षणाय_ रचितमृगत्वचव्यजनम्,स्रुवादियज्ञपात्राणि, यज्ञपात्रम्,क्रतावभिमन्त्रितपशुः, यज्ञार्थं_पशुहननम्,यज्ञहतपशुः,हविः,अवभृतस्नानम्,क्रतुद्रव्यादिः,यज्ञकर्मः,पूर्तकर्मः,यज्ञशेषः,भोजनशेषः,सोमलताकण्डनम्,अघमर्षणमन्त्रः,
यज्ञोपवीतम्,विपरीतधृतयज्ञोपवीतम्,कण्डलम्बितयज्ञोपवीतम्,यज्ञे_स्तावकद्विजावस्थानभूमिः,यज्ञियतरोः_शाखा,यूपखण्डः
स्वामी : यागे_यजमानः
सम्बन्धित : यूपकटकः,अग्निसमिन्धने_प्रयुक्ता_ऋक्,हव्यपाकः,अग्निसंरक्षणाय_रचितमृगत्वचव्यजनम्,दधिमिशृतघृतम्,क्षीरान्नम्,देवान्नम्,पित्रन्नम्,यज्ञपात्रम्,क्रतावभिमन्त्रितपशुः,यज्ञार्थं_पशुहननम्,यज्ञहतपशुः,हविः,अग्नावर्पितम्,अवभृतस्नानम्,क्रतुद्रव्यादिः,पूर्तकर्मः,यज्ञशेषः,दानम्,अर्घ्यार्थजलम्
वृत्तिवान् : यजनशीलः
: ब्रह्मयज्ञः, देवयज्ञः, मनुष्ययज्ञः, पितृयज्ञः, भूतयज्ञः, दर्शयागः, पौर्णमासयागः पदार्थ-विभागः : , क्रिया
विशेष—प्राचीन भारतीय देव संस्कृतियों के आराधकों नें यह प्रथा प्रचलित थी कि जब उनके यहाँ जन्म, विवाह या इसी प्रकार का और कोई आयोजन समारंभ होता था, अथवा जब वे किसी मृतक की अंत्येष्टि क्रिया या "पितरों का श्राद्ध आदि करते थे, तब ऋग्वेद के कुछ सूक्तों और अथर्ववेद के मत्रों के द्वारा अनेक प्रकार की प्रार्थनाएँ करते थे।
इसी प्रकार पशुओं का पालन करनेवाले अपने पशुओं की वृद्धि के लिये तथा कृषक लोग अपनी उपज बढ़ाने के लिये अनेक प्रकार के धार्मिक अनुष्ठान समारंभ करके स्तुति आदि करते थे।
इन अवसरों पर अनेक प्रकार के हवन आदि भी होते थे, जिन्हें उन दिनों 'गृह्यकर्म [सं० गृह्यकर्मन्] गृहस्थ के लिये विहित कर्म, संस्कारादि कहते थे।
इन्हीं गृह्यकर्म से आगे विकसित होकर यज्ञों का रूप प्राप्त किया। पहले इन यज्ञों में घर का मालिक या यज्ञकर्ता, यज्ञमान होने के अतिरिक्त यज्ञपुरोहित भी हुआ करता था।
और प्रायः अपनी सहायता के लिये एक आचार्य, जो '{ब्राह्मण'= मन्त्र-वक्ता} कहलाता था, नियुक्त कर लिया जाता था। इन यज्ञों की आहुति घर के यज्ञकुंड में ही होती थी। इसके अतिरिक्त कुछ धनवान् या राजा ऐसे भी होते थे, जो बड़े ब़ड़े यज्ञ किया करते थे।
जैसे,— वैदिक देवता इंद्र की प्रसन्न करने के लिये सोमयाग किया जाता था। धीरे -धीरे इन यज्ञों के लिये अनेक प्रकार के नियम अथवा विधान पारित होने लगे; और पीछे से उन्हीं नियमों के अनुसार भिन्न भिन्न यज्ञों के लिये भिन्न भिन्न प्रकार की यज्ञभूमियाँ और उनमें पवित्र अग्नि स्थापित करने के लिये अनेक प्रकार के यजकुण्ड बनाये जाने लगे।
ऐस यज्ञों में प्रायः चार मुख्य ऋत्विज हुआ करते थे, जिनकी अधीनता में और भी अनेक ऋत्विज् काम करते थे।
आगे चलकर जब यज्ञ करनेवाले यज्ञमान का काम केवल दक्षिणा बाँटना ही रह गया, तब यज्ञ संबंधी अनेक कृत्य करने के लिये और लोगों की नियुक्ति होने लगी।
१-होता-
मुख्य चार ऋत्विजों में पहला 'होता' नाम से जाना जाता था और वह देवताओं की प्रार्थना करके उन्हें यज्ञ में आने के लिये आह्वान करता था।
२-उद्गाता-
दूसरा ऋत्विज् 'उद्गाता' कहलाता था। जो यज्ञकुंड़ में सोम की आहुति देने के समय़ सामागान करता था।
३-अध्वर्यु-
तीसरा ऋत्विज् 'अध्वर्यु' या यज्ञ करनेवाला होता था; और वह स्वयं अपने मुँह से गद्य मंत्र पढ़ता तथा अपने हाथ से यज्ञ के सब कृत्य करता था।
४-ब्रह्मा-
चौथे ऋत्विज् 'ब्रह्मा' अथवा महापुरोहित कहलाता था जो सब प्रकार के विघ्नों से यज्ञ की रक्षा करनी पड़नी था;
और इसके लिये उसे यज्ञुकुंड़ की दक्षिणा दिशा में स्थान दिया जाता था; क्योकि वही यम की दिशा मानी जाती थी।
और उसी ओर से असुर लोग आया करते थे। इसे इस बात का भी ध्यान रखना पड़ता था कि कोई किसी मंत्र का अशुद्ध उच्चारण न करे।
इसी लिये 'ब्रह्मा' का तीनों वेदों ऋगवेद- यजुर्वेद और सामवेद - का ज्ञाता होना भी आवश्यक था। जब यज्ञों का प्रचार बहुत बढ़ गया, तब उनके संबंध में अनेक शास्त्र बन गए, और वे शास्त्र 'ब्राह्मण' तथा 'श्रौत सूत्र' कहलाए।
इसी कारण लोग यज्ञों को 'श्रौतकर्म' भी कहने लगे।
इसी के अनुसार यज्ञ अपनी मूल गृह्यकर्म धारा से अलग हो गए, जो केवल स्मरण के आधार पर होते थे। फिर इन गृह्यकर्मों के प्रतिपादक ग्रंथों को 'स्मृति' कहने लगे।
प्रायः सभी वेदी का अधिकांश इन्ही यज्ञसंबंधी बातों से भरा पड़ा है।
पहले तो सभी लोग यज्ञ किया करते थे, पर जब धीरे धीरे यज्ञों का प्रचार घटने लगा, तब अध्वर्यु और होता ही यज्ञ के सब काम करने लगे। पीछे भिन्न भिन्न ऋषियों के नाम पर भिन्न भिन्न नामोंवाले यज्ञ प्रचलित हुए, जिससे ब्राह्माणों का महत्व भी बढ़ने लगा।
इन यज्ञों में अनेक प्रकार के पशुओं की बलि भी दी जाने लगी।, जिससे कुछ लोग असंतुष्ट होने लगे; और परिणाम स्वरूप भागवत(सात्वत्त) आदि नए सम्प्रदाय स्थापित हुए, जिनके कारण कर्मकाण्ड मूलक यज्ञों का प्रचार धीरे धीरे बंद ही गया।
यज्ञ अनेक प्रकार के होते थे। जैसे,— सोमयाग, अश्वमेध यज्ञ, (राजसूय) यज्ञ, ऋतुयाज, अग्निष्टोम, अतिरात्र, महाव्रत, दशरात्र, दशपूर्णामास, पवित्रोष्टि, पृत्रकामोष्टि, चातुर्मास्य सौत्रामणि, दशपेय, पुरुषमेध, आदि, आदि।
"असुर संस्कृति के आराधक आर्यों की ईरानी शाखा में भी यज्ञ प्रचालित रहे जो 'यश्न' नाम जाने जाते थे। इस 'यश्न' से ही फारसी का 'जश्न' शब्द विकसित हुआ है।।
यह यज्ञ वास्तव में एक प्रकार के पुण्योत्सव होते थे । अब भी विवाह, यज्ञोपवीत आदि उत्सवों को कहीं कहीं यज्ञ कहते हैं। यज्ञ का एक नाम विष्णु और अग्नि भी है।
"यज्ञ गुणों को अनुसार सात्विक राजसिक और तामसिक तीन प्रकार हे गये।
पांच महायज्ञ प्रसिद्ध हैं (1) ब्रह्मयज्ञ (2) देवयज्ञ (3) पितृयज्ञ (4) बलिवैश्व देव यज्ञ (5) अतिथि यज्ञ। वैदिक परंपरा में, यज्ञ (जिसे महायज्ञ के रूप में भी जाना जाता है) आशीर्वाद, समृद्धि, शुद्धि और आध्यात्मिक विकास के लिए विभिन्न देवताओं या ब्रह्मांडीय शक्तियों के प्रसाद ग्रहण ( कृपा प्राप्ति) के रूप में किया जाता है।
महायज्ञ के दौरान पुजारियों, विद्वानों और भक्तों की भागीदारी के साथ विस्तृत अनुष्ठान और समारोह आयोजित किए जाते हैं। इन अनुष्ठानों में अक्सर वैदिक मंत्रों का जाप, घी, अनाज और जड़ी-बूटियों जैसी विभिन्न वस्तुओं को पवित्र अग्नि (अग्नि) में चढ़ाना और सटीक पाठ के साथ विशिष्ट क्रियाएं करना शामिल होता है। अनुष्ठान प्राचीन वैदिक ग्रंथों में उल्लिखित दिशानिर्देशों और प्रक्रियाओं का सख्ती से पालन करते हुए आयोजित किए जाते हैं।
माना जाता है कि महायज्ञों का प्रभाव शक्तिशाली और दूरगामी होता है। उन्हें निस्वार्थ सेवा और भक्ति का कार्य माना जाता है और माना जाता है कि वे सकारात्मक ऊर्जा पैदा करते हैं जो प्रतिभागियों और पर्यावरण को बड़े पैमाने पर लाभ पहुंचा सकते हैं।
आधुनिक समय में, महायज्ञ अभी भी भारत और अन्य स्थानों पर जहां भारतीय सनातन धर्म के रूप में सम्पन्न किया जाता है। कुछ महायज्ञ विशिष्ट उद्देश्यों जैसे ग्रह निवारण, शांति या विश्व कल्याण के लिए आयोजित किये जाते हैं। अनुष्ठान का पैमाना और जटिलता अवसर और इसमें शामिल प्रतिभागियों की संख्या के आधार पर भिन्न हो सकता है।
राजकुल के व्यक्तियों द्वारा किए जाने वाले यज्ञ को महायज्ञ की श्रेणी में रखा जाता था। महायज्ञ के संपादन में 17 पुरोहितों की आवश्यकता होती थी। यज्ञ के प्रकार निम्नवत है।
1.राजसु यज्ञ या राज्याभिषेक :-
यह राजा के सिंहासन रोहण से संबंधित यज्ञ था। इस यज्ञ के अवसर पर राजा राजकीय वस्त्रों में सुसज्जित होकर पुरोहित से धनुष बाण लेकर स्वयं को राजा घोषित करता था। यह 1 वर्ष तक चलने वाला यज्ञ था बाद के दिनों में इसे सामान्य अभिषेक तक सीमित कर दिया गया। राजसूय का सर्वप्रथम उल्लेख ऐतरेय ब्राह्मण में मिलता है राजसुय यज्ञ कराने वाले पुरोहित को 24000 गाय तक दान में दी जाती थीं।.
2. बाजपेय यज्ञ:-
बाजपेय का शाब्दिक अर्थ है शक्ति का पान। यह शौर्य प्रदर्शन व प्रजा मनोरंजनार्थ किया जाने वाला यज्ञ था। ये लगभग 17 दिनों तक चलता था।
3.अश्वमेघ यज्ञ:-
अश्वमेघ का शाब्दिक अर्थ घोड़े की बलि है । यह राजनीतिक विस्तार हेतु किया जाने वाला यज्ञ था। इस यज्ञ में एक घोड़े को अभिषेक के पश्चात 1 वर्ष तक स्वतंत्र विचरण के लिए छोड़ दिया जाता था । विचरण के दौरान घोड़े के साथ 400 योद्धा मार्ग में उसकी रक्षा करते थे। विचरण करने वाले सम्पूर्ण भाग पर राजा का अधिपत्य समझ लिया जाता था । अगर किसी राजा द्वारा उस घोड़े को पकड़ लिया जाता था तो उसे राजा से युद्ध करना होता था।
वर्ष के समाप्त होने पर उस घोड़े को राजधानी लाया जाता था और उसकी बलि दी जाती थी। यह यज्ञ महात्मा बुद्ध के द्वारा तीव्र भर्त्सना के कारण कुछ समय तक बंद रहा, परन्तु पुनः इस परम्परा को पुष्यमित्र शुंग द्वारा प्रारम्भ किया गया।
इस यज्ञ का परचलन गुप्त एवं प्रारंभिक चालुक्य वंश तक रहा उसके बाद यह बंद हो गया।.
4. अग्निओष्टम यज्ञ :-
इसे अग्निष्टोमा के नाम से भी जाना जाता है, एक प्रमुख वैदिक यज्ञ (बलि अनुष्ठान) है जो प्राचीन हिंदू परंपराओं में बहुत महत्व रखता है। यह वैदिक ग्रंथों, विशेषकर यजुर्वेद और तैत्तिरीय संहिता में वर्णित सबसे पुराने और सबसे विस्तृत अनुष्ठानों में से एक है। अग्निष्टोम यज्ञ एक सोम यज्ञ है, जिसका अर्थ है कि इसमें विशिष्ट वैदिक मंत्रों का जाप करते हुए पवित्र अग्नि (अग्नि) में सोम रस निकालना और चढ़ाना शामिल है। अनुष्ठान आम तौर पर कई दिनों तक चलता है और जटिल समारोहों को करने के लिए कुशल पुजारियों टीम की आवश्यकता होती है। अग्निष्टोम का केंद्रीय तत्व सोम पौधा है, जो वैदिक अनुष्ठानों में एक पवित्र पौधा है जिसके बारे में माना जाता है कि इसमें दैवीय गुण हैं और यह भगवान सोम (चंद्र) से जुड़ा है।
सोम रस को पौधे से निकाला जाता है, अन्य पदार्थों के साथ मिलाया जाता है और अग्नि में आहुति दी जाती है। अनुष्ठान के दौरान प्रतिभागी सोम पीते हैं, जिसके बारे में कहा जाता है कि इसका शरीर और दिमाग पर शुद्धिकरण और उन्नत प्रभाव पड़ता है। अग्निष्टोम यज्ञ को अत्यधिक शुभ माना जाता है और माना जाता है कि इससे आध्यात्मिक उत्थान, देवताओं का आशीर्वाद और समृद्धि सहित विभिन्न लाभ मिलते हैं। यह एक जटिल और मांगलिक समारोह है, जिसमें सटीक पाठ, प्रसाद और क्रियाएं शामिल होती हैं, और आमतौर पर विशेष अवसरों पर या विशिष्ट उद्देश्यों के लिए किया जाता है।
शब्दार्थ-
(अस्मिन् चराचरे) इस जंगम स्थावर लोक में (या वेदविहिता हिंसा नियता) जो वेद विहित हिंसा नियत है, (अहिंसां एव तां विद्यात्) उसको अहिंसा ही समझना चाहिये। (वेदात् धर्मः हि निर्बभौ) वेद से ही धर्म उत्पन्न हुआ है।
वह हत्या जो वेद द्वारा अनुमोदित है, इस चर और अचर प्राणियों की दुनिया में शाश्वत है: इसे बिल्कुल भी हत्या नहीं माना जाना चाहिए; चूँकि वेद से ही धर्म प्रकाशित हुआ।(44)
मेधातिथि की टिप्पणी ( मनुभाष्य ):
वेदों में प्राणियों की हत्या का जो विधान किया गया है, वह इस चराचर और स्थावर प्राणियों के संसार में अनादि काल से चला आ रहा है । दूसरी ओर, जो तंत्र और अन्य हिंसा कार्यों में निर्धारित है वह आधुनिक है, और गलत प्रेरणा पर आधारित है। इसलिए केवल पहले वाले को ही 'कोई हत्या नहीं ' माना जाना चाहिए; और यह इस कारण से है कि इसमें दूसरी दुनिया के संदर्भ में कोई पाप शामिल नहीं है। जब इस हत्या को 'कोई हत्या नहीं' कहा जाता है।
तो यह केवल इसके प्रभावों को ध्यान में रखते हुए है, न कि इसके स्वरूप को ध्यान में रखते हुए (जो निश्चित रूप से हत्या का रूप है )।
अब प्रश्न बनता है।
“चूंकि दोनों कृत्य समान रूप से हत्या करने वाले होंगे ; उनके प्रभाव में अंतर कैसे हो सकता है ? ”
इसका उत्तर है—'क्योंकि वेद से ही धर्म प्रकाशित हुआ';—क्या वैध (सही) है और क्या अवैध (गलत) है इसका प्रतिपादन वेद से हुआ; मानवीय अधिकारी बिल्कुल भी भरोसेमंद नहीं हैं। और वास्तव में, वेद यह घोषित करता हुआ पाया जाता है कि कुछ मामलों में, हत्या कल्याण के लिए अनुकूल है। न ही रूप की कोई पूर्ण पहचान है (दोनों प्रकार की हत्याओं के बीच); क्योंकि सबसे पहले तो यह अंतर है कि, जहां एक बलिदान को पूरा करने के लिए किया जाता है, वहीं दूसरा पूरी तरह से व्यक्तिगत उद्देश्यों के लिए किया जाता है; और दूसरी बात आशय में भी अंतर है, अर्थात सामान्य हत्या या तो मांस खाने की इच्छा रखने वालों के द्वारा की जाती है, या उस प्राणी द्वारा (मारे गए प्राणी) से घृणा करने वाले द्वारा की जाती है, जबकि वैदिक हत्या इसलिए की जाती है क्योंकि मनुष्य सोचता है कि 'यह 'शास्त्रों द्वारा आदेश दिया गया है।'
आर्यसमाजीयों का मानना है। कि
यज्ञ में पशुवध वाममार्गियों ने सम्मिलित किया है। अन्यथा वेदों में तो यज्ञ के अर्थ में अध्वर शब्द आता है जिसका अर्थ यह है कि जिसमें कहीं हिंसा न हो " परन्तु गहन अध्ययन से विदित होता है। वेदों में भी हिंसक बलि प्रधान यज्ञ भौतिक उपलब्धियों के लिए कुछ लोगों द्वारा सम्पन्न किए जाते थे।
नीचे स्कन्द पुराण से कुछ सन्दर्भ उद्धृत किए जाते हैं।
स्कन्दपुराण -खण्ड ३ (ब्रह्मखण्डः) धर्मारण्य खण्डः-अध्यायः (३६)
"नारद उवाच"
- अतः परं किमभवत्तन्मे कथय सुव्रत । पूर्वं च तदशेषेण शंस मे वदताम्बर ।१ ।
- स्थिरीभूतं च तत्स्थानं कियत्कालं वदस्व मे केन वै रक्ष्यमाणंच कस्याज्ञा वर्तते प्रभो।२। "ब्रह्मोवाच"
- त्रेतातो द्वापरांतं च यावत्कलिसमागमः।तावत्संरक्षणे चैको हनूमान्पवनात्मजः।३।
- समर्थो नान्यथा कोपि विना हनुमता सुत।लंका विध्वंसिता येन राक्षसाः प्रबला हताः ।४।
- स एव रक्षते तत्र रामादेशेन पुत्रक।द्विजस्याज्ञा प्रवर्तेत श्रीमातायास्तथैव च। ५।
- दिनेदिने प्रहर्षोभूज्जनानां तत्र वासिनाः।पठंति स्म द्विजास्तत्र ऋग्युजुःसामलक्षणान्।६।
- अथर्वणमपि तत्र पठंति स्म दिवानिशम्।वेदनिर्घोषजः शब्दस्त्रैलोक्ये सचराचरे।७।
- उत्सवास्तत्र जायंते ग्रामेग्रामे पुरेपुरे ।।नाना यज्ञाःप्रवर्तंते नानाधर्मसमाश्रिताः। ८। "युधिष्ठिर उवाच ।।
- कदापि तस्य स्थानस्य भंगो जातोथ वा न वा ।। दैत्यैर्जितं कदा स्थानमथवा दुष्टराक्षसैः ।९। "व्यास उवाच ।।
- साधु पृष्टं त्वया राजन्धर्मज्ञस्त्वं सदा शुचिः आदौ कलियुगे प्राप्ते यद्दत्तं तच्छृणुष्व भोः ।3.2.36.१०।
- लोकानां च हितार्थाय कामाय च सुखाय च यज्ञं च कथयिष्यामि तत्सर्वं शृणु भूपते।११।
- इदानीं च कलौ प्राप्त आमो नामा वभूव ह कान्यकुब्जाधिपः श्रीमान्धर्मज्ञो नीतितत्परः ।१२।
- शांतो दांतः सुशीलश्च सत्यधर्मपरायणः।द्वापरांते नृपश्रेष्ठ अनागमे कलौ युगे ।१३।
- भयात्कलिविशेषेण अधर्मस्य भयादिभिः।सर्वे देवाः क्षितिं त्यक्त्वा नैमिषारण्यमाश्रिताः।१४।
- रामोपि सेतुबंधं हि ससहायो गतो नृप।१५ "युधिष्ठिर उवाच"
- कीदृशं हि कलौ प्राप्ते भयं लोके सुदुस्तरम् यस्मिन्सुरैः परित्यक्ता रत्नगर्भा वसुन्धरा। १६ ।। "व्यास उवाच"
- शृणुष्व कलिधर्मास्त्वं भविष्यंति यथा नृप असत्यवादिनो लोकाःसाधुनिन्दापरायणाः ।१७।
- दस्युकर्मरताः सर्वे पितृभक्तिविवर्जिताः।स्वगोत्रदाराभिरता लौल्यध्यानपरायणाः। १८।
- ब्रह्मविद्वेषिणः सर्वे परस्परविरोधिनः।शरणागतहंतारो भविष्यंति कलौ युगे।१९।
- वैश्याचाररता विप्रा वेदभ्रष्टाश्च मानिनः।भविष्यंति कलौ प्राप्ते संध्यालोपकरा द्विजाः -।3.2.36.२०।
- शांतौ शूरा भये दीनाः श्राद्धतर्पणवर्जिताः असुराचारनिरता विष्णुभक्तिविवर्जिताः। २१।
- परवित्ताभिलाषाश्च उत्कोच ग्रहणे रताः।अस्नातभोजिनो विप्राः क्षत्रिया रणवर्जिताः ।२२।
- भविष्यंति कलौ प्राप्ते मलिना दुष्टवृत्तयः। मद्यपानरताः सर्वेप्यया ज्यानां हि याजकाः ।२३।
- भर्तृद्वेषकरा रामाः पितृद्वेषकराःसुताः।भ्रातृद्वेषकराः क्षुद्रा भविष्यंति कलौ युगे।२४।
- गव्यविक्रयिणस्ते वै ब्राह्मणा वित्ततत्पराः। गावो दुग्धं न दुह्यंते संप्राप्ते हि कलौ युगे ।। २५ ।।
- फलन्ते नैव वृक्षाश्च कदाचिदपि भारत।कन्याविक्रय कर्त्तारो गोजाविक्रयकारकाः।२६।
- विषविक्रयकर्त्तारोरसविक्रयकारकाःवेदविक्रयकर्त्तारो भविष्यंति कलौ युगे।२७।
- नारी गर्भं समाधत्ते हायनैकादशेन हि ।एकादश्युपवासस्य विरताः सर्वतो जनाः।२८।
- न तीर्थसेवनरता भविष्यंति च वाडवाः।बह्वाहारा भविष्यंति बहुनिद्रासमाकुलाः ।२९।
- जिह्मवृत्तिपराः सर्वे वेदनिंदापरायणाः।यतिनिंदापराश्चैव च्छद्मकाराः परस्परम् । 3.2.36.३०।
- स्पर्शदोषभयं नैव भविष्यति कलौ युगे ।क्षत्रिया राज्यहीनाश्च म्लेच्छो राजा भविष्यति ।३१।
- विश्वासघातिनः सर्वे गुरुद्रोहरतास्तथा ।मित्रद्रोहरता राजञ्छिश्नोदरपरायणाः। ३२ ।
- एकवर्णा भविष्यंति वर्णाश्चत्वार एव च कलौ प्राप्ते महाराज नान्यथा वचनं मम ।३३।
- एतच्छ्रुत्वा गुरोरेव कान्यकुब्जाधिपो बली राज्यं प्रकुरुते तत्र आमो नाम्ना हि भूतले। ३४।
- सार्वभौमत्वमापन्नः प्रजापालनतत्परः ।प्रजानां कलिना तत्र पापे बुद्धिरजायत।३५।
- वैष्णवं धर्ममुत्सज्य बौद्धधर्ममुपागताः ।प्रजास्तमनुवर्तिन्यः क्षपणैः प्रतिबोधिताः।३६।
- तस्य राज्ञो महादेवी मामानाम्न्यतिविश्रुता।गर्भं दधार सा राज्ञो सर्वलक्षणसंयुता ।३७।
- संपूर्णे दशमे मासि जाता तस्याः सुरूपिणी।दुहिता समये राज्ञ्याः पूर्णचन्द्रनिभानना।३८।
- रत्नगंगेति नाम्ना सा मणिमाणिक्यभूषिता।एकदा दैवयोगेन देशांतरादुपागतः ।३९।
- नाम्ना चैवेंद्रसूरिर्वै देशेस्मिन्कान्यकुब्जके।षोडशाब्दा च सा कन्या नोपनीता नृपात्मजा।3.2.36.४०।
- दास्यांतरेण मिलिता इन्द्रसूरिश्च जीविकः।शाबरीं मंत्रविद्यां च कथयामास भारत।४१।
- एकचित्ताभवत्सा तु शूलिकर्मविमोहिता ।ततः सा मोहमापन्ना तत्तद्वाक्यपरायणा।४२।
- क्षपणैर्बोधिता वत्स जैनधर्मपरायणा ।ब्रह्मावर्ताधिपतये कुंभीपालाय धीमते ।४३।
- रत्नगंगां महादेवीं ददौ तामिति विक्रमी।।मोहेरेकं ददौ तस्मै विवाहे दैवमोहितः।४४।
- धर्मारण्यं समागत्य राजधानी कृता तदा देवांश्च स्थापयामास जैनधर्मप्रणीतकान्।४५।
- सर्वे वर्णास्तथाभूता जैन धर्मसमाश्रिताः। ब्राह्मणा नैव पूज्यंते न च शांतिकपौष्टिकम् ।४६।
- न ददाति कदा दानमेवं कालः प्रवर्तते ।लब्धशासनका विप्रा लुप्तस्वाम्या अहर्निशम् । ४७ ।।
- समाकुलितचित्तास्ते नृपमामं समाययुः ।कान्यकुब्जस्थितं शूरं पाखण्डैः परिवेष्टितम् ।४८।
- कान्यकुब्जपुरं प्राप्य कतिभिर्वासरैर्नृप ।गंगोपकण्ठे न्यवसञ्छ्रांतास्ते मोढवाडवाः।४९।
- चारैश्च कथितास्ते च नृपस्याग्रे समागताः ।प्रातराकारिता विप्रा आगता नृपसंसदि । 3.2.36.५०।
- प्रत्युत्थानाभिवादादीन्न चक्रे सादरं नृपः ।तिष्ठतो ब्राह्मणान्सर्वान्पर्यपृच्छदसौ ततः । ५१।
- किमर्थमागता विप्राः किंस्वित्कार्यं ब्रुवंतु तत् ।५२ ।। ___________________________________
इति श्रीस्कान्दे महापुराण एकाशीतिसाहस्र्यां संहितायां तृतीये ब्रह्मखण्डे धर्मारण्य माहात्म्ये हनुमत्समागमो नाम षट्त्रिंशोऽध्यायः।।३६।।
"नारद ने कहा :
1-2. हे धर्मात्मा, कृपया मुझे बताएं कि उसके बाद क्या हुआ। प्रारंभ में, हे उत्कृष्ट वक्ता, इसे पूरा कहो। वह पवित्र स्थान कब तक स्थिर रहा? इसकी सुरक्षा किसके द्वारा की जा रही थी ? हे प्रभु! वहां किसका प्रभुत्व सर्वोच्च था ?
"ब्रह्मा ने कहा :
3-5. त्रेता से लेकर द्वापर के अंत तक , कलि के आगमन तक , पवन-देवता, हनुमान के पुत्र , अकेले ही इसकी रक्षा करने में सक्षम थे। हे पुत्र, यह हनुमान के अलावा किसी के लिए संभव नहीं था जिनके द्वारा लंका का विनाश किया गया और शक्तिशाली राक्षसों का वध किया गया। (अब) राम के आदेश पर वे ही रक्षक हैं , प्रिय पुत्र। वहां ब्राह्मण और श्रीमाता का प्रभुत्व है ।
6-8. वहां रहने वाले लोगों का आनंद दिन-ब-दिन बढ़ता गया। ब्राह्मण ऋक, यजुस् और साम वेदों का पाठ करते थे । वे दिन-रात अथर्ववेद का भी उच्च स्वर से पाठ करते थे। वैदिक मंत्रोच्चार से निकलने वाली ध्वनि ने जंगम और स्थावर प्राणियों सहित तीनों लोकों को भर दिया। हर गाँव और शहर में उत्सव मनाया गया। विभिन्न धार्मिक अनुष्ठानों पर आधारित विभिन्न प्रकार के यज्ञ जारी रहे।
"युधिष्ठिर ने कहा :
9. क्या पवित्र स्थान का कभी कोई विनाश हुआ या नहीं ? क्या वह स्थान दैत्यों या दुष्ट राक्षसों द्वारा कब्जा कर लिया गया था ?
"व्यास ने कहा :
10 हे राजा, तूमने ठीक ही पूछा है। आप सदैव पवित्र और धर्म के ज्ञाता हैं । कलियुग के आरंभ में क्या हुआ सुनो।
11. समस्त लोकों के कल्याण, संतुष्टि और सुख के लिए मैं एक विशेष यज्ञ का वर्णन करूंगा । हे राजा, सब सुनो।
12-13. अब, जब कलि युग का आगमन आसन्न था, द्वापर के अंत में, जब कलि अभी शुरू नहीं हुआ था, अमा नाम का एक राजा था जो कान्यकुब्ज का शासक बन गया । हे श्रेष्ठ राजा! वह तेजस्वी, धर्म का ज्ञाता, शांत, संयमी, न्याय के प्रति उत्सुक, अच्छे आचरण वाला तथा सत्य और धर्मपरायणता के प्रति समर्पित था।
14-15. अधर्म के तीव्र भय के कारण, कलियुग के विशेष आक्रमण के कारण, सभी देवताओं ने पृथ्वी पर अपना-अपना स्थान त्याग दिया और नैमिष वन का सहारा लिया। हे राजन! राम ने भी उचित सहायता से पुल का निर्माण पूरा किया।
"युधिष्ठिर ने कहा :
16. कलि के आगमन पर पूरे विश्व में किस प्रकार का भय व्याप्त हो गया कि उस पर काबू पाना बहुत कठिन हो गया और पृथ्वी जो रत्नगर्भा थी उसको (गर्भ में रत्न धारण करने वाली) सुरों ने त्याग दिया ?
"व्यास ने कहा :
17-19. कलियुग की मुख्य विशेषताओं को सुनो जो प्रकट होंगी, हे राजा !
लोग झूठ बोलनेवाले होंगे। वे अच्छे लोगों की निंदा करने में लगे रहेंगे। उन सभी की डाकू जैसी गतिविधियों हो जाऐंगीं। वे अपने माता-पिता के प्रति भक्ति से रहित हो जायेंगे। वे अपने रिश्तेदारों की पत्नियों के प्रति यौन प्रवृत्त होंगे। उनकी सोच वासना से भरी होगी. वे ब्राह्मणों से घृणा करेंगे। ये सभी एक दूसरे के विरोधी होंगे.कलियुग में लोग उन लोगों के विनाशक (शोषक) होंगे जो उनको शरण देंगे।
20-21. ब्राह्मण वैश्यों का कार्य अपना लेंगे : वे वेदों के मार्ग से भटक जायेंगे ; वे घमंडी होगे जब कलियुग आयेगा,और तो ब्राह्मण संध्या प्रार्थना करना बंद कर देंगे।
स्वयं को क्षत्रिय मानने वाले जब शांति होती है, तो वे ऐसे व्यवहार करते हैं जैसे कि वे बहादुर हों; जब ख़तरा होता है तो वे निराश हो जाते हैं मैंदान छोड़कर भाग जायेगे। वे श्राद्ध और तर्पण की उपेक्षा करेंग । आसुरी आचरण में लिप्त होकर, वे विष्णु की भक्ति से वंचित हो गए हैं ।
22-25. लोग दूसरे लोगों के धन के लालची होंगे हैं। वे रिश्वत लेने में लगे रहेंगे । ब्राह्मण बिना स्नान किये ही भोजन करेंगे । क्षत्रिय युद्ध से बचेंगे । जब कलि आता है, तो सभी लोग अपने आचरण में गंदे और दुष्ट हो जाते हैं। सभी शराब पीने के आदी हो जाते हैं. पुजारी उन लोगों की ओर से यज्ञ करते हैं जो इस तरह के प्रदर्शन के लिए पात्र नहीं हैं। स्त्रियाँ पतियों से घृणा करती हैं; बेटे अपने माता-पिता से नफरत करते हैं। कलियुग में सभी मूर्ख लोग अपने ही भाइयों से बैर करने लगेंगे। धन इकट्ठा करने के लिए उत्सुक, ब्राह्मण दूध उत्पादों के विक्रेता बन जाएंगे। जब वास्तव में कलियुग आ जाएगा , तो गायें दूध नहीं देगीं।
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फलन्ते नैव वृक्षाश्च कदाचिदपि भारत।कन्याविक्रय कर्त्तारो गोजाविक्रयकारकाः।२६।
विषविक्रयकर्त्तारो रसविक्रयकारकाः ।वेदविक्रयकर्त्तारो भविष्यंति कलौ युगे।२७।
नारी गर्भं समाधत्ते हायनैकादशेन हि ।एकादश्युपवासस्य विरताः सर्वतो जनाः।२८।
न तीर्थसेवनरता भविष्यंति च वाडवाः।बह्वाहारा भविष्यंति बहुनिद्रासमाकुलाः ।२९।
अनुवाद:-.वृक्षों पर कभी फल नहीं लगेंगे, हे भरत के वंशज ! कलियुग में लोग अपनी बेटियों, गायों और बकरियों, जहर, शराब और यहां तक कि वेदों के भी विक्रेता बन जाएंगे। एक महिला ग्यारह वर्ष के बाद गर्भधारण करेंगी । सभी लोग चंद्र पखवाड़े में ग्यारहवें दिन उपवास करने से बचते हैं। ब्राह्मण तीर्थ यात्रा नहीं करेंगे. वे बहुत अधिक खायेंगे; वे खूब सोएंगे.२६-२८।
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30-33. सभी कपटपूर्ण कार्यों में लगे रहेंगे, वेदों और वैरागियों से भी घृणा करेंगे। वे एक दूसरे को धोखा देंगे. कलियुग में (अभद्र साथियों से) सम्पर्क का भय नहीं रहेगा। क्षत्रियों से उनका राज्य छीन लिया जाएगा और म्लेच्छ राजा बन जाएंगे। सभी विश्वास तोड़ने वाले बन जायेंगे और सभी बड़ों को परेशान करने में लगे रहेंगे। हे राजा, वे विश्वासघाती मित्र होंगे और लोलुपता और कामवासना में लिप्त होंगे। हे महान राजा, कलि के आगमन पर सभी चार जातियाँ एक जाति में मिल जाएंगी। मेरी बातें कभी अन्यथा नहीं हो सकतीं.
34-38. सीधे अपने गुरु से यह सुनकर, कान्यकुब्ज के अमा नामक शक्तिशाली शासक ने राज्य पर शासन करना जारी रखा। वह सम्राट बन गया और प्रजा की रक्षा में तत्पर रहने लगा। कलि के आगमन के कारण प्रजा पाप करने की ओर प्रवृत्त हो गयी।
क्षपानस (बौद्ध भिक्षुकों) द्वारा उकसाए जाने और उनके निर्देशों का पालन करते हुए, प्रजा ने अपना वैष्णव पंथ छोड़ दिया और बौद्ध जीवन शैली अपना ली।
उस राजा की सबसे वरिष्ठ रानी, जो मामा के नाम से प्रसिद्ध थी और सभी अच्छे गुणों से युक्त थी। जब दसवाँ महीना पूरा हुआ, तो सर्वसुन्दर गुणों से सम्पन्न तथा पूर्णिमा के चन्द्रमा के समान मुख वाली एक कन्या उत्पन्न हुई।
39-45. वह रत्नागांगा नाम से जानी जाती थी। वह रत्नों से सुसज्जित रहती थी। एक बार संयोग से इन्द्रसूरि नाम का एक भिक्षुक कान्यकुब्ज राज्य में आया। सोलह साल की उक्त लड़की, राजकुमारी को अभी तक धार्मिक पंथ में दीक्षित नहीं किया गया था, उसे एक नौकरानी द्वारा गुप्त रूप से इंद्रसूरि में ले जाया गया था।
हे भरत के वंशज, उन्होंने उसे शाबरी मंत्र विद्या की दीक्षा दी । त्रिशूलधारी भिक्षुक की गतिविधि से मोहित होकर, वह एकाग्रता के साथ इसमें भाग लेने लगी। तब वह और अधिक मोहित हो गई और प्रत्येक कथन को उत्सुकता से समझने लगी (अनुसरण करने लगी)। क्षपणों द्वारा निर्देश दिए जाने पर, हे प्रिय, वह जैन पंथ के प्रति समर्पित हो गई।
महान पराक्रमी राजा ने राजकुमारी रत्नांगा को ब्रह्मावर्त के स्वामी, बुद्धिमान कुम्भीपाल को दे दिया । भाग्य से भ्रमित होकर, राजा ने विवाह के समय मोहेरका को उसे (दामाद को) दे दिया। वह धर्मारण्य आये और अपनी राजधानी स्थापित की। उन्होंने जैन पंथ में वर्णित देवताओं की विधिवत स्थापना की। [6]
46-52. सभी विभिन्न जातियों को जैन पंथ में परिवर्तित कर दिया गया। ब्राह्मणों का सम्मान नहीं किया जाता था। शांतिका और पौष्टिका जैसे कोई धार्मिक संस्कार नहीं किए गए। कभी कोई दान-पुण्य नहीं करता था। ऐसे ही समय बीतता गया.
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" स्कन्दपुराण - खण्डः २ (वैष्णवखण्डः) | वासुदेवमाहात्म्यम्
"स्कन्द उवाच ।
भाविधर्मविपर्यासकालवेगवशोऽथ सः । नाहं क्षमिष्य इत्युक्त्वा कैलासं प्रययौ मुने। १।
त्रैलोक्याच्छ्रीरपि तदा समुद्रेन्तर्द्धिमाययौ । इन्द्रं विहायाप्सरसः सर्वशः श्रियमन्वयुः ।२।
तपः शौचं दया सत्यं पादः सद्धर्मऋद्धयः।सिद्धयश्च बलं सत्त्वं सर्वतः श्रियमन्वयुः।३।
गजादीनि च यानानि स्वर्णाद्याभूषणानि च ।चिक्षिपुर्मणिरत्नानि धातूपकरणानि च । ४।
अन्नान्यौषधयः स्नेहाः कालेनाल्पेन चिक्षियुः । न क्षीरं धेनुमहिषीप्रमुखानां स्तनेष्वऽभूत् । ५ ।
नवापि निधयो नष्टाः कुबेरस्यापि मन्दिरात ।। इन्द्रः सहामरगणैरासीत्तापससन्निभः । ६ ।
सर्वाणि भोगद्रव्याणि नाशमीयुस्त्रिलोकतः ।। देवा दैत्या मनुष्याश्च सर्वे दारिद्यपीडिताः । ७।
कान्त्या हीनस्ततश्चन्द्रः प्रापाम्बुत्वं महोदधौ।।अनावृष्टिर्महत्यासीद्धान्यबीजक्षयंकरी । ८ ।
क्वान्नं क्वान्नेति जल्पन्तः क्षुत्क्षामाश्च निरोजसः ।त्यक्त्वा ग्रामान्पुरश्चोषुर्वनेषु च नगेषु च ।९।
क्षुधार्त्तास्ते पशून्हत्वा ग्राम्यानारण्यकांस्तथा ।पक्त्वाऽपक्त्वापि वा केचित्तेषां मांसान्यभुञ्जत । 2.9.9.१० ।।
विद्वांसो मुनयश्चाऽथ ये वै सद्धर्मचारिणः ।म्रियमाणाः क्षुधाऽथापि नाश्नन्त पललानि तु ।११।
तदा तु वृद्धा ऋषयस्तान्दृष्ट्वाऽनशनादृतान् ।मनुभिः सह वेदोक्तमापद्धर्ममबोधयन् ।१२ ।
मुनयः प्रायशस्तत्र क्षुधा व्याकुलितेन्द्रियाः ।परोक्षवादवेदार्थान्विपरीतान्प्रपेदिरे ।१३ ।
अर्थं चाजादिशब्दानां मुख्यं छागादिमेव ते ।बुबुधुश्चाऽथ ते प्राहुर्यज्ञान् कुरुत भो द्विजाः।१४।
या वेदविहिता हिंसा न सा हिंसास्ति दोषदा ।उद्दिश्य देवान्पितॄंश्च ततो घ्नत पशूञ्छुभान्। १५।
प्रोक्षितं देवताभ्यश्च पितृभ्यश्च निवेदितम् ।भुञ्जत स्वेप्सितं मांसं स्वार्थं तु घ्नत मा पशून् ।१६।
ततो देवर्षिभूपाला नराश्च स्वस्वशक्तितः ।चक्रुस्तैर्बोधिता यज्ञानृते ह्येकान्तिकान्हरेः।१७।
गोमेधमश्वमेधं च नरमेधमुखान्मखान् ।चक्रुर्यज्ञावशिष्टानि मांसानि बुभुजुश्च ते।१८।
विनष्टायाः श्रियः प्राप्त्यै केचिद्यज्ञांश्च चक्रिरे।स्त्रीपुत्रमंदिराद्यर्थं केचिच्च स्वीयवृत्तये ।१९।
महायज्ञेष्वशक्तास्तु पितॄनुदिश्य भूरिशः ।निहत्य श्राद्धेषु पशून्मांसान्यादंस्तथाऽऽदयन् । 2.9.9.२० ।
केचित्सरित्समुद्राणां तीरेष्वेवावसञ्जनाः ।मत्स्याञ्जालैरुपादाय तदाहारा बभूविरे ।२१।
स्वगृहागतशिष्टेभ्यः पशूनेव निहत्य च ।निवेदयामासुरेते गोछागप्रमुखान्मुने ।२२।
सजातीयविवाहानां नियमश्च तदा क्वचित् ।नाभवद्धर्मसांकर्याद्वित्तवेश्माद्यभावतः ।२३।
ब्राह्मणाः क्षत्रियादीनां क्षत्राद्या ब्रह्मणां सुताः।उपयेमिरे कालगत्या स्वस्ववंशविवृद्धये ।२४।
इत्थं हिंसामया यज्ञाः संप्रवृत्ता महापदि ।धर्मस्त्वाभासमात्रोऽस्थात्स्वयं तु श्रियमन्वगात् । २५ ।
अधर्मः सान्वयो लोकांस्त्रीनपि व्याप्य सर्वतः ।अवर्द्धताऽल्पकालेन दुर्निवार्यो बुधैरपि । २६ ।
दरिद्राणामथैतेषामपत्यानि तु भूरिशः। तेषां च वंशविस्तारो महाँल्लोकेष्ववर्द्धत ।२७।
विद्वांसस्तत्र ये जातास्ते तु धर्मं तमेव हि । मेनिरे मुख्यमेवाऽथ ग्रन्थांश्चक्रुश्च तादृशान् ।२८।
ते परम्परया ग्रन्थाः प्रामाण्यं प्रतिपेदिरे । आद्ये त्रेतायुगे हीत्थमासीद्धर्मस्य विप्लवः ।२९।
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ततःप्रभृति लोकेषु यज्ञादौ पशुहिंसनम् ।।बभूव सत्ये तु युगे धर्म आसीत्सनातनः । 2.9.9.३० ।
कालेन महता सोपि सह देवैः सुराधिपः । आराध्य संपदं प्राप वासुदेवं प्रभुं मुने ।३१ ।
ततो धर्मनिकेतस्य श्रीपतेः कृपया हरेः। यथापूर्वं च सद्धर्मस्त्रिलोक्यां संप्रवर्त्तत । ३२ ।
तत्रापि केचिन्मुनयो नृपा देवाश्च मानुषाः ।कामक्रोधरसास्वादलोभोपहतसद्धियः ।तमापद्धर्ममद्यापि प्राधान्येनैव मन्वते ।३३ ।
एकान्तिनो भागवता जितकामादयस्तु ये ।।आपद्यपि न तेऽगृह्णंस्तं तदा किमुताऽन्यदा।३४।
इत्थं ब्रह्मन्नादिकल्पे हिंस्रयज्ञप्रवर्त्तनम् ।यथासीत्तन्मयाख्यातमापत्कालवशाद्भुवि।३५।
इति श्रीस्कान्दे महापुराण एकाशीतिसाहस्र्यां संहितायां द्वितीये वैष्णवखण्डे श्रीवासुदेवमाहात्म्ये हिंस्रयज्ञप्रवृत्तिहेतुनिरूपणं नाम नवमोऽध्यायः।९।
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यह स्कंद पुराण के वैष्णव-खंड के वासुदेव-महात्म्य का नौवां अध्याय है।
अध्याय 9 - हिंसा से जुड़े यज्ञों की उत्पत्ति
वासुदेव-माहात्म्य
"अनुवाद:स्कंद ने कहा :हे ऋषि, काल के प्रभाव से भविष्य में धर्म की विकृति हो गई , उन्होंने ( दुर्वासा ने ) कहा, "मैं माफ नहीं करूंगा" और कैलास चले गए ।१।
"अनुवाद: देवी श्री भी फिर तीनों लोकों से समुद्र में लुप्त हो गईं। एक शरीर में सभी दिव्य युवतियों ने इंद्र को छोड़ दिया और श्री का अनुसरण किया।२।
"अनुवाद:तपस्या, पवित्रता, दया, सत्य, पद (?), सच्चा धर्म, समृद्धि, अलौकिक शक्तियाँ, शक्ति, सत्व (अच्छाई का गुण) - इन सभी ने श्री का अनुसरण किया।३।
"अनुवाद:वाहन, हाथी आदि, सोने आदि के आभूषण, बहुमूल्य पत्थर आदि तथा धातु के औजार कम हो गये।४।
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अन्नान्यौषधयः स्नेहाः कालेनाल्पेन चिक्षियुः । न क्षीरं धेनुमहिषीप्रमुखानां स्तनेष्वऽभूत् ।५ ।
"अनुवाद: कुछ ही समय में खाद्य पदार्थ, पौधे, जड़ी-बूटियाँ, तेल, चिकने पदार्थ कम हो गये। दूध देने वाले पशुओं, जिनमें गाय, भैंस प्रमुख थीं, के थनों में दूध उत्पन्न नहीं होता था।५।
कुबेर के भवन से नौ निधियाँ भी गायब हो गईं इन्द्र अनेक देवताओं सहित तपस्वी बन गये।६।
"अनुवाद:तीनों लोकों में भोग-विलास की सभी सामग्रियां समाप्त हो गईं। देवता, दैत्य और मनुष्य दरिद्रता से पीड़ित थे।७।
"अनुवाद:चन्द्रमा अपनी मनोहर कान्ति से रहित हो गया, और समुद्र के जल के समान हो गया। वहाँ एक भयानक सूखा पड़ा जिससे मक्के के बीज और दाने पूरी तरह बर्बाद हो गये।८।
"अनुवाद:बार-बार चिल्लाना 'खाना कहां है?' भूख से क्षीण और शक्तिहीन लोगों ने गांवों और कस्बों को छोड़ दिया और जंगलों और पहाड़ों का सहारा लिया।९।
"अनुवाद:भूख से व्याकुल होकर उन में से कुछ ने जंगली और पालतू दोनों प्रकार के पशुओं को मार डाला, और उनका पका या कच्चा मांस खाया।१०।
"अनुवाद:सच्चे धर्म का पालन करने वाले विद्वान पुरुष और साधु भूख से मरने के बावजूद भी मांस नहीं खाते थे।११।
"अनुवाद:उन्हें व्रत और उपवास करते देखकर मनु सहित वृद्ध ऋषियों ने उन्हें वेदों द्वारा प्रतिपादित विपरीत परिस्थितियों में पालन किये जाने वाले धर्म की शिक्षा दी ।१३।
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मुनयः प्रायशस्तत्र क्षुधा व्याकुलितेन्द्रियाः ।।परोक्षवादवेदार्थान्विपरीतान्प्रपेदिरे ।।१३।।
"अनुवाद:जिन ऋषियों की इन्द्रियाँ भूख के कारण भ्रमित हो गई थीं, उनमें से अधिकांश ने वेदों की विकृत व्याख्या की।१३।
अर्थं चाजादिशब्दानां मुख्यं छागादिमेव ते ।बुबुधुश्चाऽथ ते प्राहुर्यज्ञान् कुरुत भो द्विजाः।१४।
"अनुवाद:उन्होंने अज जैसे शब्द का अर्थ बकरी के समान लिया और उपदेश दिया, “हे ब्राह्मणों , (पशु) बलि करो।१४।
या वेदविहिता हिंसा न सा हिंसास्ति दोषदा ।उद्दिश्य देवान्पितॄंश्च ततो घ्नत पशूञ्छुभान्। १५।
"अनुवाद:वेदों द्वारा विहित हिंसा ( हिंसा ) कोई दोष या पाप उत्पन्न करने वाली हिंसा नहीं है [2] । इसलिए, देवताओं और पितरों के नाम पर शुभ (बलि देने वाले) जानवरों को मार डालो ।१५।
प्रोक्षितं देवताभ्यश्च पितृभ्यश्च निवेदितम् ।भुञ्जत स्वेप्सितं मांसं स्वार्थं तु घ्नत मा पशून् ।१६।
"अनुवाद:अपने इच्छित किसी भी जानवर के मांस को जल छिड़क कर नैवेद्य के रूप में देवताओं और पितरों को समर्पित करने के बाद उसका आनंद लें । परन्तु अपने लिये जानवरों को मत मारो।”।१६।
ततो देवर्षिभूपाला नराश्च स्वस्वशक्तितः।चक्रुस्तैर्बोधिता यज्ञानृते ह्येकान्तिकान्हरेः।१७।
"अनुवाद:तब देवताओं, ऋषियों, राजाओं और उनके द्वारा सिखाए गए मनुष्यों ने अपनी-अपनी क्षमता के अनुसार यज्ञ किए, केवल उन लोगों को छोड़कर जो पूरी तरह से हरि के प्रति समर्पित थे।१७।
गोमेधमश्वमेधं च नरमेधमुखान्मखान् ।।चक्रुर्यज्ञावशिष्टानि मांसानि बुभुजुश्च ते।१८।
"अनुवाद:उन्होंने गो- मेध (बैल-बलि), अश्वमेध (घोड़ा-बलि) जैसे बलिदान किए और बलिदान जिनमें मानव-बलि प्रमुख थी और बलिदान के बाद बचे हुए मांस का आनंद लेते थे।१८।
विनष्टायाः श्रियः प्राप्त्यै केचिद्यज्ञांश्च चक्रिरे ।।स्त्रीपुत्रमंदिराद्यर्थं केचिच्च स्वीयवृत्तये।१९।
"अनुवाद:कुछ लोगों ने खोए हुए धन के लिये यज्ञ किया। कुछ ने स्त्रियों (पत्नियों), पुत्रों और घर को प्राप्त करने के लिए और कुछ ने अपने पेशे की (समृद्धि) के लिए प्रदर्शन किया।१९।
महायज्ञेष्वशक्तास्तु पितॄनुदिश्य भूरिशः ।।
निहत्य श्राद्धेषु पशून्मांसान्यादंस्तथाऽऽदयन् ।।2.9.9.२०।
"अनुवाद: जो लोग बड़े-बड़े यज्ञ करने में असमर्थ थे, उन्होंने कई बार श्राद्ध में अपने पितरों के लिए पशुओं को मारकर खाया और दूसरों से भी ऐसा करवाया।२०।
केचित्सरित्समुद्राणां तीरेष्वेवावसञ्जनाः।मत्स्याञ्जालैरुपादाय तदाहारा बभूविरे।२१।
"अनुवाद: समुद्र के किनारे या नदियों के किनारे रहने वाले कुछ लोग जाल से मछलियाँ पकड़ते और उनका (मछली) भक्षक बन जाते।२१।
स्वगृहागतशिष्टेभ्यः पशूनेव निहत्य च ।निवेदयामासुरेते गोछागप्रमुखान्मुने ।२२ ।
"अनुवाद:हे ऋषि ! उन्होंने विशिष्ट अतिथियों के लिए उन जानवरों को मार डाला, जिनमें गाय (बैल) और बकरियां प्रमुख थीं।२२।
सजातीयविवाहानां नियमश्च तदा क्वचित् ।नाभवद्धर्मसांकर्याद्वित्तवेश्माद्यभावतः।२३।
"अनुवाद:उस समय धन, मकान आदि के अभाव में तथा धर्मों के परस्पर मिश्रण के कारण एक ही जाति के व्यक्तियों में विवाह का नियम नहीं चलता था।२३।
ब्राह्मणाः क्षत्रियादीनां क्षत्राद्या ब्रह्मणां सुताः।उपयेमिरे कालगत्या स्वस्ववंशविवृद्धये ।२४।
"अनुवाद:समय (और नई प्रवृत्तियों) की मांगों के अनुसार, अपनी जाति के विस्तार और निरंतरता के लिए, ब्राह्मणों ने क्षत्रियों ( और अन्य जातियों) की बेटियों से शादी की और क्षत्रियों और अन्य लोगों ने ब्राह्मणों की बेटियों से शादी की।२४।
इत्थं हिंसामया यज्ञाः संप्रवृत्ता महापदि ।।धर्मस्त्वाभासमात्रोऽस्थात्स्वयं तु श्रियमन्वगात् ।२५।
"अनुवाद:इस प्रकार उस महान आपदा में, हिंसा से जुड़े बलिदान शुरू किए गए। धर्म ने स्वयं देवी श्री का अनुसरण किया (समुद्र के तल तक), जबकि धर्म का एक अंश बना रहा।२५।
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अधर्मः सान्वयो लोकांस्त्रीनपि व्याप्य सर्वतः ।अवर्द्धताऽल्पकालेन दुर्निवार्यो बुधैरपि ।२६।
"अनुवाद:अधर्म अपने परिणामों सहित तीनों लोकों में व्याप्त हो गया और थोड़े ही समय में फल-फूल गया। बुद्धिमान और विद्वान लोगों द्वारा इसकी जाँच करना अत्यंत कठिन था।२६।
दरिद्राणामथैतेषामपत्यानि तु भूरिशः ।। तेषां च वंशविस्तारो महाँल्लोकेष्ववर्द्धत ।।२७ ।।
"अनुवाद:उन गरीबी से त्रस्त लोगों से असंख्य बच्चे पैदा हुए और उनके परिवारों का विस्तार दुनिया में बहुत बढ़ गया।२७।
विद्वांसस्तत्र ये जातास्ते तु धर्मं तमेव हि ।।मेनिरे मुख्यमेवाऽथ ग्रन्थांश्चक्रुश्च तादृशान् ।२८ ।
"अनुवाद:उनमें से जो लोग विद्वान बन गये, उन्होंने इसे (अर्थात अधर्म, तत्कालीन प्रचलित प्रथाओं को) वास्तविक धर्म माना और तदनुसार ग्रंथ लिखे।२८।
ते परम्परया ग्रन्थाः प्रामाण्यं प्रतिपेदिरे ।।आद्ये त्रेतायुगे हीत्थमासीद्धर्मस्य विप्लवः ।। २९।
"अनुवाद:परंपरा की शक्ति से वे ग्रंथ कालान्तर में प्रामाणिक बन गये। पहले त्रेता युग में धर्म ने इतना बुरा मोड़ ले लिया।
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ततःप्रभृति लोकेषु यज्ञादौ पशुहिंसनम् ।।बभूव सत्ये तु युगे धर्म आसीत्सनातनः ।। 2.9.9.३० ।।
"अनुवाद:उसके बाद, यज्ञ (बलि) और अन्य (धार्मिक) अवसरों पर जानवरों की हत्या को बढ़ावा मिला। केवल सत्य ( कृत ) युग में ही शाश्वत धर्म प्रचलित था।३०।
कालेन महता सोपि सह देवैः सुराधिपः ।। आराध्य संपदं प्राप वासुदेवं प्रभुं मुने ।। ३१ ।।
"अनुवाद:हे ऋषि, लंबे समय के बाद, देवों के स्वामी इंद्र ने देवताओं के साथ मिलकर भगवान वासुदेव को प्रसन्न किया और उनकी समृद्धि पुनः प्राप्त की।३१।
ततो धर्मनिकेतस्य श्रीपतेः कृपया हरेः। यथापूर्वं च सद्धर्मस्त्रिलोक्यां संप्रवर्त्तत ।३२।
"अनुवाद:तब श्री के भगवान और धर्म के आसन (शरण) हरि की कृपा से, वास्तविक धर्म तीनों लोकों में फैल गया।३२।
तत्रापि केचिन्मुनयो नृपा देवाश्च मानुषाः ।कामक्रोधरसास्वादलोभोपहतसद्धियः ।तमापद्धर्ममद्यापि प्राधान्येनैव मन्वते ।३३।
"अनुवाद:फिर भी कुछ देवता, ऋषि और पुरुष हैं जिनके अच्छे दिमाग काम, क्रोध, लालच और (मांसाहार) स्वाद से प्रतिकूल रूप से प्रभावित होते हैं, जो आपपद-धर्म (अर्थात संकट के समय में स्वीकार्य प्रथाओं) को प्रमुख धर्म मानते हैं । ३३।
एकान्तिनो भागवता जितकामादयस्तु ये ।आपद्यपि न तेऽगृह्णंस्तं तदा किमुताऽन्यदा।३४।
"अनुवाद:भगवान के भक्त, जिन्होंने अपनी भावनाओं पर विजय पा ली है, और जो पूरी तरह से भगवान के प्रति समर्पित हैं, दबाव में भी उन्हें (उन प्रथाओं को) नहीं अपनाते हैं। अन्य अवसरों का तो कहना ही क्या! ।३४।
इत्थं ब्रह्मन्नादिकल्पे हिंस्रयज्ञप्रवर्त्तनम् ।यथासीत्तन्मयाख्यातमापत्कालवशाद्भुवि ।३५।
"अनुवाद:इस प्रकार, हे ब्राह्मण, मैंने तुम्हें बताया है कि पहले कल्प में, हिंसा (हिंसा) से युक्त यज्ञ कैसे प्रचलित हुए।३५।
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“वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति” का क्या अर्थ दिया है –
या वेदविहिता हिंसा, नियतास्मिंश्चराचरे।अहिंसामेव तां विद्याद्, वेदाद धर्मो हि निर्बभौ। योहिंसकानि भूतानि, हिनस्त्यात्मसुखेच्छया। स जीवंश्च मृत्श्चैव, न कश्चित् सुखमेधते।। (५.४४-४५)
अनुवाद:अर्थात, जो विश्व संसार में दुष्टो – अत्याचारियो – क्रूरो – पापियो को जो दंड – दान रूप हिंसा वेदविहित होने से नियत है, उसे अहिंसा ही समझना चाहिए, क्योंकि वेद से ही यथार्थ धर्म का प्रकाश होता है। परन्तु इसके विपरीत जो निहत्थे, निरपराध अहिंसक प्राणियों को अपने सुख की इच्छा से मारता है, वह जीता हुआ और मरा हुआ, दोनों अवस्थाओ में कहीं भी सुख को नहीं पाता। दुष्टो को दंड देना हिंसा नहीं प्रत्युत अहिंसा होने से पुण्य है, अतएव मनु ने (8.351) में लिखा है –
गुरुं वा बालवृद्धौ वा ब्राह्मणं वा बहुश्रुतम्। आततायिनमायान्तं हन्यादेवाविचारयन।। नाततायिवधे दोषो हन्तुर्भवती कश्चन। प्रकाशं वाप्रकाशं वा मन्युस्तं मन्युमृच्छति।।
अर्थात, चाहे गुरु हो, चाहे पुत्र आदि बालक हो, चाहे पिता आदि वृद्ध हो, और चाहे बड़ा भरी शास्त्री ब्राह्मण भी क्यों न हो, परन्तु यदि वह आततायी हो और घात-पात के लिए आता हो, तो उसे बिना विचार तत्क्षण मार डालना चाहिए। क्योंकि प्रत्यक्षरूप में सामने होकर व अप्रत्यक्षरूप में लुक-छिप कर आततायी को मारने में, मारने वाले का कोई दोष नहीं होता क्योंकि क्रोध को क्रोध से मारना मानो क्रोध की क्रोध से लड़ाई है।
यज्ञ में पशुबलि की सनातन परंपरा
क्रतौ श्राद्धे नियुक्तो वा अनश्नन् पतति द्विजः .-मनु. 3, 55 तथा व्यासस्मृति
"क्रतौ श्राद्धे नियुक्तो वा अनश्नन् पतित द्विज:। मृगयोपार्जितं मासमभ्यर्च पितृदेवता:।५४।(व्यासस्मृति अध्याय तृतीय)
अर्थात यज्ञ और श्राद्ध में जो द्विज मांस नहीं खाता, वह पतित हो जाता है.
ऐसी ही बात कूर्मपुराण (2,17,40) में कही गई है.
विष्णुधर्मोत्तरपुराण (1,40,49-50) में कहा गया है कि जो व्यक्ति श्राद्ध में भोजन करने वालों की पंक्ति में परोसे गए मांस का भक्षण नहीं करता, वह नरक में जाता है.
(देखें, धर्मशास्त्रों का इतिहास, जिल्द 3 , पृ. 1244)
महाभारत में गौओं के मांस के हवन से राज्य को नष्ट करने का ज़िक्र मिलता है। दाल्भ्य की कथा में आता है-
श्लोक
9.41.11-12
स तूत्कृत्य मृतानां वै मांसानि मुनिसत्तमः॥ ११॥
जुहाव धृतराष्ट्रस्य राष्ट्रं नरपतेः पुरा ।
अनुवाद: वे मुनिश्रेष्ठ उन मृत पशुओंके ही मांस काट-काटकर उनके द्वारा राजा धृतराष्ट्रके राष्ट्रकी ही आहुति देने लगे ॥११॥
-(महाभारत , शाल्यपर्व , 41,8-9 व 11-14
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