"कृष्ण देव पूजा अथवा यज्ञ मूलक कर्मकाण्डों के विरोधी थे क्योंकि देव- यज्ञ के लिए पशु हिंसा अनिवार्य पूरक क्रिया थी " परन्तु इस बात के -परोक्षत: संकेत प्राप्त होते हैं कि यज्ञों में बलि के नाम पर पशुओं की निर्ममता पूर्वक हत्या लोक कल्याण में नहीं थी।
इसीलिए कृष्ण देव-संस्कृति के विद्रोही पुरुष थे।उन्होंने वन, पशु और पर्वतों को अपना उपास्य स्वीकार किया।इसी लिए उनके चरित्र-उपक्रमों में इन्द्र -पूजा का विरोध परिलक्षित होता है ।👇इसीलिए कृष्ण को ऋग्वेद के अष्टम मण्डल में अदेव विशेषण से सम्बोधित भी किया गया ह।जिसका अर्थ है-( देवों को न मानने वाला )श्रीमद्भगवद् गीता के कुछ पक्ष प्रबलत्तर हैं इस बात के प्रमाण के लिए कि "कृष्णदेव विषयक कर्मकाण्डों का विरोध करते हैं।कारण यही था कि यज्ञ के नाम पर निर्दोष जीवों की हत्या होती थी।श्रीमद्भागवतम्भागवत पुराण स्कन्ध 11: सामान्य इतिहास अध्याय 5: नारद द्वारा वसुदेव को दी गई शिक्षाओं का समापन श्लोक 13श्लोक 11.5.13 भागवत पुराण"यद् घ्राणभक्षो विहित: सुराया-स्तथा पशोरालभनं न हिंसा।एवं व्यवाय: प्रजया न रत्याइमं विशुद्धं न विदु: स्वधर्मम् ॥१३॥शब्दार्थ:- यत्—चूँकि; घ्राण—सूँघ कर; भक्ष:—खाओ; विहित:—वैध है; सुराया:—मदिरा का; तथा—उसी तरह; पशो:—बलि पशु का; आलभनम्—विहित वध; न—नहीं; हिंसा— हिंसा;वध एवम्—इसी प्रकार से; व्यवाय:—यौन; प्रजया—सन्तान उत्पन्न करने के लिए; न—नहीं; रत्यै—इन्द्रिय-भोग के लिए; इमम्—यह (जैसाकि पिछले श्लोक में कहा गया है); विशुद्धम्—अत्यन्त शुद्ध; न विदु:—वे नहीं समझ पाते; स्व-धर्मम्—अपने उचित कर्तव्य को ।.अनुवाद:- वैदिक आदेशों के अनुसार, जब यज्ञोत्सवों में सुरा प्रदान की जाती है, तो उसको पीकर नहीं अपितु सूँघ कर उपभोग किया जाता है। इसी प्रकार यज्ञों में पशु-बलि की अनुमति है, किन्तु व्यापक पशु-हत्या के लिए कोई प्रावधान नहीं है। धार्मिक यौन-जीवन की भी छूट है, किन्तु विवाहोपरान्त सन्तान उत्पन्न करने के लिए, शरीर के विलासात्मक दोहन के लिए नहीं।किन्तु दुर्भाग्यवश मन्द बुद्धि भौतिकतावादी जन यह नहीं समझ पाते कि जीवन में उनके सारे कर्तव्य नितान्त आध्यात्मिक स्तर पर सम्पन्न होने चाहिए।भागवत पुराण का उपर्युक्त श्लोक यद्यपि कृष्ण के हिंसा वरोधी मत को अभिव्यक्त करने में समर्थ नहीं है। और देवयजन ( यज्ञ)के नाम पर हिंसामूलक यज्ञ का विरोध न करके उससे बचने का तो रास्ता बता रहा है।परन्तु यह उपर्युक्त कथन मौलिक रूप से कृष्ण का नहीं हैं। अपितु किसी देवयज्ञवादी ने इसे बड़ी चतुराई से भागवत में जोड़ दिया है।परन्तु कृष्ण देव पूजा के इसी हिंसामूलक उपक्रम के कारण विरोधी भी थे।तात्पर्य:- पशु-यज्ञ के सम्बन्ध में मध्वाचार्य ने भी देव पूजा का पक्ष बड़ी सहजता से लिया है। उन्होंने निम्नलिखित कथन दिया है—"यज्ञेष्वालभनं प्रोक्तं देवतोद्देशत: पशो:।हिंसानाम तदन्यत्र तस्मात् तां नाचरेद् बुध:॥यतो यज्ञे मृता ऊर्ध्वं यान्ति देवे च पैतृके।अतो लाभादालभनं स्वर्गस्य न तु मारणम् ॥भावार्थ:-इस कथन के अनुसार कभी कभी किसी देवता विशेष की तुष्टि के लिए पशु-यज्ञ करने की पुरोहित संस्तुति करते हैं।किन्तु यदि कोई व्यक्ति वैदिक नियमों का दृढ़ता से पालन न करते हुए अंधाधुंध पशु-वध करता है, तो ऐसा वध वास्तविक हिंसा है।आखिर रूढ़िवादी परम्पराओं का भी निर्वहन करना क्या बुद्धि मानी है ? जिसमें जीवों की हत्या के विधान हों।और इस हिंसामूलक यज्ञों को आज किसी भी बुद्धिमान व्यक्ति द्वारा स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए।इन्द्रोपासक पुरोहितों की मान्यता है। कि"यदि पशु-यज्ञ सही ढंग से सम्पन्न किया जाता है, तो बलि किया गया पशु तुरन्त देवलोक तथा पितृलोक को चला जाता है।इसलिए ऐसा यज्ञ पशुओं का वध नहीं है, अपितु वैदिक मंत्रों की शक्ति-प्रदर्शन के लिए होता है, जिसकी शक्ति से बलि किया हुआ पशु, तुरन्त उच्च लोकों को प्राप्त होता है।किन्तु चैतन्य महाप्रभु ने इस युग में ऐसे पशु-यज्ञ का पूर्ण निषेध किया है,क्योंकि मंत्रों का उच्चारण करने वाले योग्य ब्राह्मणों का अभाव है और तथाकथित यज्ञशाला सामान्य कसाई-घर का रूप धारण कर लेती है।इसके पूर्व के युग में जब पाखण्डी लोग वैदिक यज्ञों का गलत अर्थ लगाकर, यह सिद्ध करना चाहते थे कि पशु-वध तथा मांसाहार वैध है, तब विचारणीय प्रश्न यह है कि मुसलमान भी कुरबानी अथवा हलाल कुरान का कलमा पढकर ही करते हैं ।क्या ईश्वर कुरबानी का भूखा है? अथवा देवता माँस भक्षी हैं क्या?यद्यपि कृष्ण ने यज्ञ के नाम पर पशु वध का पूर्ण निषेध करते हुए ही देव यज्ञ को बन्द करा दिया था।अधिकतर यज्ञों में पशुबध अनिवार्य था।इसी लिए इस बध को बन्द करने के लिए स्वयं भगवान् बुद्ध ने अवतार लिया और उनकी घृणित उक्ति को अस्वीकार किया।इसका वर्णन गीत गोविन्द कार जयदेव ने किया है—"निन्दसि यज्ञविधेरहह श्रुतिजातं सदयहृदय दर्शित पशुघातम्।केशव धृतबुद्धशरीर जय जगदीश हरे ॥अतस्तु भगवता कृष्णेन हिंसायज्ञं कलौ युगे समाप्य नवीनमतो विधीयते।3.4.19.६०।अनुवाद:-इसी कारण से भगवान -कृष्ण ने सभी देव-यज्ञों में विशेषत: इन्द्र के हिंसा पूर्ण यज्ञों पर रोक लगा दी क्यों कि यज्ञों में निर्दोष पशुओं की हिंसा होती। कृष्ण ने कलियुग में हिंसात्मक यज्ञों को समाप्त कर नये मत का विधान किया ।६०।कृष्ण का समय द्वापर युग का अन्तिम चरण और कलियुग का प्रारम्भिक चरण का मध्य है। अत: कलि युग के लिए विधान - निर्देश कृष्ण ने किया ।""समाप्य कार्तिके मासि प्रतिपच्छुक्लपक्षके।अन्नकूटमयं यज्ञं स्थापयामास भूतले ।६१।अनुवाद:- ★-कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा तिथि में भूतल पर कृष्ण ने अन्नकूट का विधान किया।61।विशेष:- अन्नकूट-एक उत्सव जो कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा से पूर्णिमा पर्यन्त यथारुचि किसी दिन (विशेषत? प्रतिपदा को वैष्णवों के यहाँ)होता है । उस दिन नाना प्रकार के भोजनों की ढेरी लगाकर भगवान को भोग लगाते हैं। यह त्यौहार कृष्ण द्वारा वैदिक हिंसा पूर्ण यज्ञों के विरोध में स्थापित किया गया विधान था।"देवराजस्तदा क्रुद्धो ह्यनुजं प्रतिदुःखितः ।वज्रं सप्लावयामास तदा कृष्णः सनातनीम् । प्रकृतिं स च तुष्टाव लोकमङ्गलहेतवे ।६२।अनुवाद:-★कृष्ण द्वारा स्थापित इस अन्नकूट उत्सव से क्रोधित होकर देवराज इन्द्र ने सम्पूर्ण व्रजमण्डल को मेघ द्वारा डुबो देने का कार्य प्रारम्भ कर दिया। तब कृष्ण ने सनातन प्रकृति की आराधना की इससे वह भगवती प्रकृति लोक कल्याण के लिए प्रसन्न हो गयीं ।६२।तदा सा प्रकृतिर्माता स्वपूर्वाद्दिव्यविग्रहम् ।राधारूपं महत्कृत्वा हदि कृष्णस्यचागता।६३।अनुवाद:- ★तभी अपने पूर्वाद्धदिव्य शरीर से महान राधा रूप धारण किया तथा कृष्ण के हृदय में प्रवेश कर गयीं।६३।तच्छक्त्या भगवान्कृष्णो धृत्वा गोवर्धनं गिरिम्। नाम्ना गिरिधरो देवः सर्वपूज्यो बभूव ह ।६४।अनुवाद:- ★तब उस शक्ति द्वारा कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत धारण किया तब से उनका नाम गिरिधर हो गया और वे सबके पूज्य हो गये।64।राधाकृष्णस्स भगवान्पूर्णब्रह्म सनातनः।अतः कृष्णो न भगवान्राधाकृष्णः परः प्रभुः।६५।अनुवाद:-★वे राधाकृष्ण भगवान् सनातन पूर्णब्रह्म हैं। तभी तो कृष्ण को केवल कृष्ण नहीं कहते हैं। वे राधाकृष्ण भगवान् कहे गये हैं यह संयुक्त नाम ही पूर्ण ब्रह्म का वाचक है।वे ही सबसे परे तथा प्रभु ( सर्व समर्थ) हैं।६५।इति श्रुत्वा वचस्तस्य मध्वाचार्यो हरिप्रियः।शिष्यो भूत्वा स्थितस्तत्र कृष्णचैतन्यपूजकः।६६।अनुवाद:- ★यह सुनकर कृष्णप्रिय मध्वाचार्य ने चैतन्यमहाप्रभु का शिष्यत्व ग्रहण किया तथा कृष्ण चैतन्य आराधना में रत हो गये।६६।इति श्रीभविष्ये महापुराणे प्रतिसर्गपर्वणि चतुर्युगखण्डापरपर्याये कलियुगीयेतिहाससमुच्चये कृष्णचैतन्ययज्ञांशशिष्यबलभद्रविष्णुस्वामिमध्वाचार्यादिवृत्तान्तवर्णनं नामैकोनविंशोऽध्यायः।१९।इस प्रकार श्रीभविष्य पुराण के प्रतिसर्गपर्व चतुर्थ खण्ड अपरपर्याय"कलियुगीन इतिहास का समुच्चय में कृष्ण चैतन्य यज्ञाञ्श तथा शिष्यबलभद्र-अंश विष्णु स्वामी तथा मध्वाचार्य वृतान्त वर्णन नामक उन्नीसवाँ अध्याय समाप्त हुआ-★___________विचार विश्लेषण-इन्द्र तथा इन्द्रोपासक पुरोहितो का कृष्ण से युद्ध ऐतिहासिक है।जिसके साक्ष्य जहाँ -तहाँ पुराणों तथा वैदिक ऋचाओं में बिखरे पड़े हैं।जिस समय देव-यज्ञ के नाम पर असाह्य और निर्दोष पशुओं की यज्ञों में निरन्तर हिंसा (कत्ल) हो रही था और इस कारण से यज्ञ वेदियाँ रक्त-रञ्जित रहती थीं।तब ऐसे समय कृष्ण ने सर्वप्रथम इन अन्ध रूढ़ियों का खण्डन व विरोध किया।पुरोहितों की जिह्वालोलुपता, ब्राह्मण वादी वर्चस्व और देवपूजा के नाम पर व्यभिचार और हिंसा चरम पर थी तब कृष्ण ने इन्द्र की हिंसापूर्ण यज्ञों को समस्त गोप-यादव समाज में रोककर निषिद्ध दिया था।पुराणकारों ने भी जहाँ-तहाँ उन घटनाओं को वर्णित भी किया ही है। भले ही रूपक-विधेय कोई भी हो-जब कृष्ण ने सभी गोपों से कहा कि " देवों की यज्ञ करना व्यर्थ है।कृष्ण का स्पष्ट उद्घोषणा थी कि "जिस शक्ति मार्ग का वरण करके हिंसा द्वारा अश्वमेध आदि यज्ञों द्वारा देवों को प्रसन्न किया जाता हैं तो उन देवों की पूजा व्यर्थ है।कृष्ण की यह बात सुनकर शचीपुत्र यज्ञांश के बहाने से रूढ़िवादी देवोपासक पुरोहितों के मन्तव्य को हंसकर कहा जिसका आरोपण चैतन्य के रूप में हुआ है:- कि कृष्ण साक्षात् भगवान नहीं है ।वह तामसी शक्ति से उत्पन्न है।____________यज्ञ से यद्यपि ईश्वरीय ज्ञान की प्राप्ति नहीं होतीयज्ञ केवल देवपूजा की प्रक्रिया है ।यह देव पूजा के विधान कि सांकेतिक परम्परा मात्र बन रह गयी है।श्रीमद्भगवत् गीता पाँचवीं सदी में रचित ग्रन्थ में जिसकी कुछ प्रकाशन भी है ।यह अधिकाँशत: कृष्ण के सिद्धान्त व मतों की विधायिका है।अब कृष्ण जिस वस्तुत का समर्थन करते हैंमनुःस्मृति उसका विरोध करती है ।क्योंकि मनुस्मृति ब्राह्मण वादी व्यवस्था का पोषक व समर्थक है।"प्राचीन काल में यज्ञ की अवधारणा -
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"यज्ञ" प्राचीन भारतीय देव संस्कृति के आराधकों का एक प्रसिद्ध वैदिक कृत्य था जिसमें वे विभिन्न आयोजनों पर प्रायः देवों को लक्ष्य करके हवन किया करते थे।
- यज्ञ देवसंस्कृति के आराधकों की उस अवधारणा का प्रारूप है। जब वे शीत प्रदेशों में जीवन यापन के उपरान्त शीत-प्रभाव को कम करने के लिए नित्य-नैमित्तिक अग्नि को ईश्वरीय रूप में मान कर उसकी उपासना और सानिध्य प्राप्त करते हुए उसका यजन किया करते थे।
यह अग्नि ही भारतीयों का प्रारम्भिक और अग्रदेव है। यही सृष्टि में सर्वप्रथम उत्पन्न होकर आगे चला और सबका नेता बना । संस्कृत कोशकारों नें अग्नि शब्द की उत्पत्ति अनेक प्रकार से उसके भौतिक गुणों और प्रवृत्तियों को दृष्टि गत करके ही की हैं।
"अङ्गति ऊर्द्ध्वं गच्छति अगि--नि नलोपः " = जो नित्य ऊपर को गमन करता है।।
यूरोपीय भाषाओं में अग्नि शब्द सांस्कृतिक रूपों में विद्यमान है।
लैटिन में इग्निस = (igneous) ओल्ड चर्च और स्लॉवोनिक भाषाओं में ऑग्नि= (ogni,) और रूसी परिवार की लिथुआनियन भाषा में ugnis= (उगनिस ) रूप में यह शब्द विद्यमान है।
भारतीयों में अग्नि की महा उपासना आज भी प्रचलित है।
"ॐ अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्। होतारं रत्नधातमम् ॥ (ऋग्वेद१/१/१)
अनुवाद:- यज्ञ के पुरोहित, दीप्तिमान्, देवों का आह्वान करने वाले ऋत्विक् और रत्नधारण करने वाले अग्नि की मैं स्तुति करता हूँ।
यज्ञ तत्पर्य्यायः । सवः २ अध्वरः ३ यागः ४ सप्त- तन्तुः ५ मखः ६ क्रतुः ७ । अमरकोश(।२।७।१३)
८ इष्टिः इष्टम् ९ वितानम् १० मन्युः ११ आहवः १२ सवनम् १३ हवः १४ अभिषवः १५ होमः १६ हवनम् १७ महः १८ । इति शब्दरत्नावली ॥
यज्ञः शब्द के पर्याय वाची अथवा समानार्थी शब्द निम्नलिखित हैं।
समानार्थक:१-यज्ञ,२-सव,३-अध्वर,४--याग,५-सप्ततन्तु,६-मख,७-क्रतु,८-इष्टि,९-वितान,१०-स्तोम,११-मन्यु,१२-संस्तर,१३-स्वरु,१४-सत्र,१५-हव-2।7।13।2।1
उपज्ञा ज्ञानमाद्यं स्याज्ज्ञात्वारम्भ उपक्रमः। यज्ञः सवोऽध्वरो यागः सप्ततन्तुर्मखः क्रतुः॥
अवयव : यज्ञस्थानम्,यागादौ_हूयमानकाष्ठम्,यागे_यजमानः,हविर्गेहपूर्वभागे_निर्मितप्रकोष्टः,यागार्थं_ संस्कृतभूमिः,अरणिः,यागवेदिकायाम्_दक्षिणभागे_स्थिताग्निः,अग्निसमिन्धने_प्रयुक्ता_ऋक्, हव्यपाकः,अग्निसंरक्षणाय_ रचितमृगत्वचव्यजनम्,स्रुवादियज्ञपात्राणि, यज्ञपात्रम्,क्रतावभिमन्त्रितपशुः, यज्ञार्थं_पशुहननम्,यज्ञहतपशुः,हविः,अवभृतस्नानम्,क्रतुद्रव्यादिः,यज्ञकर्मः,पूर्तकर्मः,यज्ञशेषः,भोजनशेषः,सोमलताकण्डनम्,अघमर्षणमन्त्रः,
यज्ञोपवीतम्,विपरीतधृतयज्ञोपवीतम्,कण्डलम्बितयज्ञोपवीतम्,यज्ञे_स्तावकद्विजावस्थानभूमिः,यज्ञियतरोः_शाखा,यूपखण्डः
स्वामी : यागे_यजमानः
सम्बन्धित : यूपकटकः,अग्निसमिन्धने_प्रयुक्ता_ऋक्,हव्यपाकः,अग्निसंरक्षणाय_रचितमृगत्वचव्यजनम्,दधिमिशृतघृतम्,क्षीरान्नम्,देवान्नम्,पित्रन्नम्,यज्ञपात्रम्,क्रतावभिमन्त्रितपशुः,यज्ञार्थं_पशुहननम्,यज्ञहतपशुः,हविः,अग्नावर्पितम्,अवभृतस्नानम्,क्रतुद्रव्यादिः,पूर्तकर्मः,यज्ञशेषः,दानम्,अर्घ्यार्थजलम्
वृत्तिवान् : यजनशीलः
: ब्रह्मयज्ञः, देवयज्ञः, मनुष्ययज्ञः, पितृयज्ञः, भूतयज्ञः, दर्शयागः, पौर्णमासयागः पदार्थ-विभागः : , क्रिया
विशेष—प्राचीन भारतीय देव संस्कृतियों के आराधकों नें यह प्रथा प्रचलित थी कि जब उनके यहाँ जन्म, विवाह या इसी प्रकार का और कोई आयोजन समारंभ होता था, अथवा जब वे किसी मृतक की अंत्येष्टि क्रिया या "पितरों का श्राद्ध आदि करते थे, तब ऋग्वेद के कुछ सूक्तों और अथर्ववेद के मत्रों के द्वारा अनेक प्रकार की प्रार्थनाएँ करते थे।
इसी प्रकार पशुओं का पालन करनेवाले अपने पशुओं की वृद्धि के लिये तथा कृषक लोग अपनी उपज बढ़ाने के लिये अनेक प्रकार के धार्मिक अनुष्ठान समारंभ करके स्तुति आदि करते थे।
इन अवसरों पर अनेक प्रकार के हवन आदि भी होते थे, जिन्हें उन दिनों 'गृह्यकर्म [सं० गृह्यकर्मन्] गृहस्थ के लिये विहित कर्म, संस्कारादि कहते थे।
इन्हीं गृह्यकर्म से आगे विकसित होकर यज्ञों का रूप प्राप्त किया। पहले इन यज्ञों में घर का मालिक या यज्ञकर्ता, यज्ञमान होने के अतिरिक्त यज्ञपुरोहित भी हुआ करता था।
और प्रायः अपनी सहायता के लिये एक आचार्य, जो '{ब्राह्मण'= मन्त्र-वक्ता} कहलाता था, नियुक्त कर लिया जाता था। इन यज्ञों की आहुति घर के यज्ञकुंड में ही होती थी। इसके अतिरिक्त कुछ धनवान् या राजा ऐसे भी होते थे, जो बड़े ब़ड़े यज्ञ किया करते थे।
जैसे,— वैदिक देवता इंद्र की प्रसन्न करने के लिये सोमयाग किया जाता था। धीरे -धीरे इन यज्ञों के लिये अनेक प्रकार के नियम अथवा विधान पारित होने लगे; और पीछे से उन्हीं नियमों के अनुसार भिन्न भिन्न यज्ञों के लिये भिन्न भिन्न प्रकार की यज्ञभूमियाँ और उनमें पवित्र अग्नि स्थापित करने के लिये अनेक प्रकार के यजकुण्ड बनाये जाने लगे।
ऐस यज्ञों में प्रायः चार मुख्य ऋत्विज हुआ करते थे, जिनकी अधीनता में और भी अनेक ऋत्विज् काम करते थे।
आगे चलकर जब यज्ञ करनेवाले यज्ञमान का काम केवल दक्षिणा बाँटना ही रह गया, तब यज्ञ संबंधी अनेक कृत्य करने के लिये और लोगों की नियुक्ति होने लगी।
१-होता-
मुख्य चार ऋत्विजों में पहला 'होता' नाम से जाना जाता था और वह देवताओं की प्रार्थना करके उन्हें यज्ञ में आने के लिये आह्वान करता था।
२-उद्गाता-
दूसरा ऋत्विज् 'उद्गाता' कहलाता था। जो यज्ञकुंड़ में सोम की आहुति देने के समय़ सामागान करता था।
३-अध्वर्यु-
तीसरा ऋत्विज् 'अध्वर्यु' या यज्ञ करनेवाला होता था; और वह स्वयं अपने मुँह से गद्य मंत्र पढ़ता तथा अपने हाथ से यज्ञ के सब कृत्य करता था।
४-ब्रह्मा-
चौथे ऋत्विज् 'ब्रह्मा' अथवा महापुरोहित कहलाता था जो सब प्रकार के विघ्नों से यज्ञ की रक्षा करनी पड़नी था;
और इसके लिये उसे यज्ञुकुंड़ की दक्षिणा दिशा में स्थान दिया जाता था; क्योकि वही यम की दिशा मानी जाती थी।
और उसी ओर से असुर लोग आया करते थे। इसे इस बात का भी ध्यान रखना पड़ता था कि कोई किसी मंत्र का अशुद्ध उच्चारण न करे।
इसी लिये 'ब्रह्मा' का तीनों वेदों ऋगवेद- यजुर्वेद और सामवेद - का ज्ञाता होना भी आवश्यक था। जब यज्ञों का प्रचार बहुत बढ़ गया, तब उनके संबंध में अनेक शास्त्र बन गए, और वे शास्त्र 'ब्राह्मण' तथा 'श्रौत सूत्र' कहलाए।
इसी कारण लोग यज्ञों को 'श्रौतकर्म' भी कहने लगे।
इसी के अनुसार यज्ञ अपनी मूल गृह्यकर्म धारा से अलग हो गए, जो केवल स्मरण के आधार पर होते थे। फिर इन गृह्यकर्मों के प्रतिपादक ग्रंथों को 'स्मृति' कहने लगे।
प्रायः सभी वेदी का अधिकांश इन्ही यज्ञसंबंधी बातों से भरा पड़ा है।
पहले तो सभी लोग यज्ञ किया करते थे, पर जब धीरे धीरे यज्ञों का प्रचार घटने लगा, तब अध्वर्यु और होता ही यज्ञ के सब काम करने लगे। पीछे भिन्न भिन्न ऋषियों के नाम पर भिन्न भिन्न नामोंवाले यज्ञ प्रचलित हुए, जिससे ब्राह्माणों का महत्व भी बढ़ने लगा।
इन यज्ञों में अनेक प्रकार के पशुओं की बलि भी दी जाने लगी।, जिससे कुछ लोग असंतुष्ट होने लगे; और परिणाम स्वरूप भागवत(सात्वत्त) आदि नए सम्प्रदाय स्थापित हुए, जिनके कारण कर्मकाण्ड मूलक यज्ञों का प्रचार धीरे धीरे बंद ही गया।
यज्ञ अनेक प्रकार के होते थे। जैसे,— सोमयाग, अश्वमेध यज्ञ, (राजसूय) यज्ञ, ऋतुयाज, अग्निष्टोम, अतिरात्र, महाव्रत, दशरात्र, दशपूर्णामास, पवित्रोष्टि, पृत्रकामोष्टि, चातुर्मास्य सौत्रामणि, दशपेय, पुरुषमेध, आदि, आदि।
"असुर संस्कृति के आराधक आर्यों की ईरानी शाखा में भी यज्ञ प्रचालित रहे जो 'यश्न' नाम जाने जाते थे। इस 'यश्न' से ही फारसी का 'जश्न' शब्द विकसित हुआ है।।
यह यज्ञ वास्तव में एक प्रकार के पुण्योत्सव होते थे । अब भी विवाह, यज्ञोपवीत आदि उत्सवों को कहीं कहीं यज्ञ कहते हैं। यज्ञ का एक नाम विष्णु और अग्नि भी है।
"यज्ञ गुणों को अनुसार सात्विक राजसिक और तामसिक तीन प्रकार हे गये।
पांच महायज्ञ प्रसिद्ध हैं (1) ब्रह्मयज्ञ (2) देवयज्ञ (3) पितृयज्ञ (4) बलिवैश्व देव यज्ञ (5) अतिथि यज्ञ। वैदिक परंपरा में, यज्ञ (जिसे महायज्ञ के रूप में भी जाना जाता है) आशीर्वाद, समृद्धि, शुद्धि और आध्यात्मिक विकास के लिए विभिन्न देवताओं या ब्रह्मांडीय शक्तियों के प्रसाद ग्रहण ( कृपा प्राप्ति) के रूप में किया जाता है।
महायज्ञ के दौरान पुजारियों, विद्वानों और भक्तों की भागीदारी के साथ विस्तृत अनुष्ठान और समारोह आयोजित किए जाते हैं। इन अनुष्ठानों में अक्सर वैदिक मंत्रों का जाप, घी, अनाज और जड़ी-बूटियों जैसी विभिन्न वस्तुओं को पवित्र अग्नि (अग्नि) में चढ़ाना और सटीक पाठ के साथ विशिष्ट क्रियाएं करना शामिल होता है। अनुष्ठान प्राचीन वैदिक ग्रंथों में उल्लिखित दिशानिर्देशों और प्रक्रियाओं का सख्ती से पालन करते हुए आयोजित किए जाते हैं।
माना जाता है कि महायज्ञों का प्रभाव शक्तिशाली और दूरगामी होता है। उन्हें निस्वार्थ सेवा और भक्ति का कार्य माना जाता है और माना जाता है कि वे सकारात्मक ऊर्जा पैदा करते हैं जो प्रतिभागियों और पर्यावरण को बड़े पैमाने पर लाभ पहुंचा सकते हैं।
आधुनिक समय में, महायज्ञ अभी भी भारत और अन्य स्थानों पर जहां भारतीय सनातन धर्म के रूप में सम्पन्न किया जाता है। कुछ महायज्ञ विशिष्ट उद्देश्यों जैसे ग्रह निवारण, शांति या विश्व कल्याण के लिए आयोजित किये जाते हैं। अनुष्ठान का पैमाना और जटिलता अवसर और इसमें शामिल प्रतिभागियों की संख्या के आधार पर भिन्न हो सकता है।
राजकुल के व्यक्तियों द्वारा किए जाने वाले यज्ञ को महायज्ञ की श्रेणी में रखा जाता था। महायज्ञ के संपादन में 17 पुरोहितों की आवश्यकता होती थी। यज्ञ के प्रकार निम्नवत है।
1.राजसु यज्ञ या राज्याभिषेक :-
यह राजा के सिंहासन रोहण से संबंधित यज्ञ था। इस यज्ञ के अवसर पर राजा राजकीय वस्त्रों में सुसज्जित होकर पुरोहित से धनुष बाण लेकर स्वयं को राजा घोषित करता था। यह 1 वर्ष तक चलने वाला यज्ञ था बाद के दिनों में इसे सामान्य अभिषेक तक सीमित कर दिया गया। राजसूय का सर्वप्रथम उल्लेख ऐतरेय ब्राह्मण में मिलता है राजसुय यज्ञ कराने वाले पुरोहित को 24000 गाय तक दान में दी जाती थीं।.
2. बाजपेय यज्ञ:-
बाजपेय का शाब्दिक अर्थ है शक्ति का पान। यह शौर्य प्रदर्शन व प्रजा मनोरंजनार्थ किया जाने वाला यज्ञ था। ये लगभग 17 दिनों तक चलता था।
3.अश्वमेघ यज्ञ:-
अश्वमेघ का शाब्दिक अर्थ घोड़े की बलि है । यह राजनीतिक विस्तार हेतु किया जाने वाला यज्ञ था। इस यज्ञ में एक घोड़े को अभिषेक के पश्चात 1 वर्ष तक स्वतंत्र विचरण के लिए छोड़ दिया जाता था । विचरण के दौरान घोड़े के साथ 400 योद्धा मार्ग में उसकी रक्षा करते थे। विचरण करने वाले सम्पूर्ण भाग पर राजा का अधिपत्य समझ लिया जाता था । अगर किसी राजा द्वारा उस घोड़े को पकड़ लिया जाता था तो उसे राजा से युद्ध करना होता था।
वर्ष के समाप्त होने पर उस घोड़े को राजधानी लाया जाता था और उसकी बलि दी जाती थी। यह यज्ञ महात्मा बुद्ध के द्वारा तीव्र भर्त्सना के कारण कुछ समय तक बंद रहा, परन्तु पुनः इस परम्परा को पुष्यमित्र शुंग द्वारा प्रारम्भ किया गया।
इस यज्ञ का परचलन गुप्त एवं प्रारंभिक चालुक्य वंश तक रहा उसके बाद यह बंद हो गया।.
4. अग्निओष्टम यज्ञ :-
इसे अग्निष्टोमा के नाम से भी जाना जाता है, एक प्रमुख वैदिक यज्ञ (बलि अनुष्ठान) है जो प्राचीन हिंदू परंपराओं में बहुत महत्व रखता है। यह वैदिक ग्रंथों, विशेषकर यजुर्वेद और तैत्तिरीय संहिता में वर्णित सबसे पुराने और सबसे विस्तृत अनुष्ठानों में से एक है। अग्निष्टोम यज्ञ एक सोम यज्ञ है, जिसका अर्थ है कि इसमें विशिष्ट वैदिक मंत्रों का जाप करते हुए पवित्र अग्नि (अग्नि) में सोम रस निकालना और चढ़ाना शामिल है। अनुष्ठान आम तौर पर कई दिनों तक चलता है और जटिल समारोहों को करने के लिए कुशल पुजारियों टीम की आवश्यकता होती है। अग्निष्टोम का केंद्रीय तत्व सोम पौधा है, जो वैदिक अनुष्ठानों में एक पवित्र पौधा है जिसके बारे में माना जाता है कि इसमें दैवीय गुण हैं और यह भगवान सोम (चंद्र) से जुड़ा है।
सोम रस को पौधे से निकाला जाता है, अन्य पदार्थों के साथ मिलाया जाता है और अग्नि में आहुति दी जाती है। अनुष्ठान के दौरान प्रतिभागी सोम पीते हैं, जिसके बारे में कहा जाता है कि इसका शरीर और दिमाग पर शुद्धिकरण और उन्नत प्रभाव पड़ता है। अग्निष्टोम यज्ञ को अत्यधिक शुभ माना जाता है और माना जाता है कि इससे आध्यात्मिक उत्थान, देवताओं का आशीर्वाद और समृद्धि सहित विभिन्न लाभ मिलते हैं। यह एक जटिल और मांगलिक समारोह है, जिसमें सटीक पाठ, प्रसाद और क्रियाएं शामिल होती हैं, और आमतौर पर विशेष अवसरों पर या विशिष्ट उद्देश्यों के लिए किया जाता है।
शब्दार्थ-
(अस्मिन् चराचरे) इस जंगम स्थावर लोक में (या वेदविहिता हिंसा नियता) जो वेद विहित हिंसा नियत है, (अहिंसां एव तां विद्यात्) उसको अहिंसा ही समझना चाहिये। (वेदात् धर्मः हि निर्बभौ) वेद से ही धर्म उत्पन्न हुआ है।
वह हत्या जो वेद द्वारा अनुमोदित है, इस चर और अचर प्राणियों की दुनिया में शाश्वत है: इसे बिल्कुल भी हत्या नहीं माना जाना चाहिए; चूँकि वेद से ही धर्म प्रकाशित हुआ।(44)
मेधातिथि की टिप्पणी ( मनुभाष्य ):
वेदों में प्राणियों की हत्या का जो विधान किया गया है, वह इस चराचर और स्थावर प्राणियों के संसार में अनादि काल से चला आ रहा है । दूसरी ओर, जो तंत्र और अन्य हिंसा कार्यों में निर्धारित है वह आधुनिक है, और गलत प्रेरणा पर आधारित है। इसलिए केवल पहले वाले को ही 'कोई हत्या नहीं ' माना जाना चाहिए; और यह इस कारण से है कि इसमें दूसरी दुनिया के संदर्भ में कोई पाप शामिल नहीं है। जब इस हत्या को 'कोई हत्या नहीं' कहा जाता है।
तो यह केवल इसके प्रभावों को ध्यान में रखते हुए है, न कि इसके स्वरूप को ध्यान में रखते हुए (जो निश्चित रूप से हत्या का रूप है )।
अब प्रश्न बनता है।
“चूंकि दोनों कृत्य समान रूप से हत्या करने वाले होंगे ; उनके प्रभाव में अंतर कैसे हो सकता है ? ”
इसका उत्तर है—'क्योंकि वेद से ही धर्म प्रकाशित हुआ';—क्या वैध (सही) है और क्या अवैध (गलत) है इसका प्रतिपादन वेद से हुआ; मानवीय अधिकारी बिल्कुल भी भरोसेमंद नहीं हैं। और वास्तव में, वेद यह घोषित करता हुआ पाया जाता है कि कुछ मामलों में, हत्या कल्याण के लिए अनुकूल है। न ही रूप की कोई पूर्ण पहचान है (दोनों प्रकार की हत्याओं के बीच); क्योंकि सबसे पहले तो यह अंतर है कि, जहां एक बलिदान को पूरा करने के लिए किया जाता है, वहीं दूसरा पूरी तरह से व्यक्तिगत उद्देश्यों के लिए किया जाता है; और दूसरी बात आशय में भी अंतर है, अर्थात सामान्य हत्या या तो मांस खाने की इच्छा रखने वालों के द्वारा की जाती है, या उस प्राणी द्वारा (मारे गए प्राणी) से घृणा करने वाले द्वारा की जाती है, जबकि वैदिक हत्या इसलिए की जाती है क्योंकि मनुष्य सोचता है कि 'यह 'शास्त्रों द्वारा आदेश दिया गया है।'
आर्यसमाजीयों का मानना है। कि
यज्ञ में पशुवध वाममार्गियों ने सम्मिलित किया है। अन्यथा वेदों में तो यज्ञ के अर्थ में अध्वर शब्द आता है जिसका अर्थ यह है कि जिसमें कहीं हिंसा न हो " परन्तु गहन अध्ययन से विदित होता है। वेदों में भी हिंसक बलि प्रधान यज्ञ भौतिक उपलब्धियों के लिए कुछ लोगों द्वारा सम्पन्न किए जाते थे।
नीचे स्कन्द पुराण से कुछ सन्दर्भ उद्धृत किए जाते हैं।
स्कन्दपुराण -खण्ड ३ (ब्रह्मखण्डः) धर्मारण्य खण्डः-अध्यायः (३६)
"नारद उवाच"
- अतः परं किमभवत्तन्मे कथय सुव्रत । पूर्वं च तदशेषेण शंस मे वदताम्बर ।१ ।
- स्थिरीभूतं च तत्स्थानं कियत्कालं वदस्व मे केन वै रक्ष्यमाणंच कस्याज्ञा वर्तते प्रभो।२। "ब्रह्मोवाच"
- त्रेतातो द्वापरांतं च यावत्कलिसमागमः।तावत्संरक्षणे चैको हनूमान्पवनात्मजः।३।
- समर्थो नान्यथा कोपि विना हनुमता सुत।लंका विध्वंसिता येन राक्षसाः प्रबला हताः ।४।
- स एव रक्षते तत्र रामादेशेन पुत्रक।द्विजस्याज्ञा प्रवर्तेत श्रीमातायास्तथैव च। ५।
- दिनेदिने प्रहर्षोभूज्जनानां तत्र वासिनाः।पठंति स्म द्विजास्तत्र ऋग्युजुःसामलक्षणान्।६।
- अथर्वणमपि तत्र पठंति स्म दिवानिशम्।वेदनिर्घोषजः शब्दस्त्रैलोक्ये सचराचरे।७।
- उत्सवास्तत्र जायंते ग्रामेग्रामे पुरेपुरे ।।नाना यज्ञाःप्रवर्तंते नानाधर्मसमाश्रिताः। ८। "युधिष्ठिर उवाच ।।
- कदापि तस्य स्थानस्य भंगो जातोथ वा न वा ।। दैत्यैर्जितं कदा स्थानमथवा दुष्टराक्षसैः ।९। "व्यास उवाच ।।
- साधु पृष्टं त्वया राजन्धर्मज्ञस्त्वं सदा शुचिः आदौ कलियुगे प्राप्ते यद्दत्तं तच्छृणुष्व भोः ।3.2.36.१०।
- लोकानां च हितार्थाय कामाय च सुखाय च यज्ञं च कथयिष्यामि तत्सर्वं शृणु भूपते।११।
- इदानीं च कलौ प्राप्त आमो नामा वभूव ह कान्यकुब्जाधिपः श्रीमान्धर्मज्ञो नीतितत्परः ।१२।
- शांतो दांतः सुशीलश्च सत्यधर्मपरायणः।द्वापरांते नृपश्रेष्ठ अनागमे कलौ युगे ।१३।
- भयात्कलिविशेषेण अधर्मस्य भयादिभिः।सर्वे देवाः क्षितिं त्यक्त्वा नैमिषारण्यमाश्रिताः।१४।
- रामोपि सेतुबंधं हि ससहायो गतो नृप।१५ "युधिष्ठिर उवाच"
- कीदृशं हि कलौ प्राप्ते भयं लोके सुदुस्तरम् यस्मिन्सुरैः परित्यक्ता रत्नगर्भा वसुन्धरा। १६ ।। "व्यास उवाच"
- शृणुष्व कलिधर्मास्त्वं भविष्यंति यथा नृप असत्यवादिनो लोकाःसाधुनिन्दापरायणाः ।१७।
- दस्युकर्मरताः सर्वे पितृभक्तिविवर्जिताः।स्वगोत्रदाराभिरता लौल्यध्यानपरायणाः। १८।
- ब्रह्मविद्वेषिणः सर्वे परस्परविरोधिनः।शरणागतहंतारो भविष्यंति कलौ युगे।१९।
- वैश्याचाररता विप्रा वेदभ्रष्टाश्च मानिनः।भविष्यंति कलौ प्राप्ते संध्यालोपकरा द्विजाः -।3.2.36.२०।
- शांतौ शूरा भये दीनाः श्राद्धतर्पणवर्जिताः असुराचारनिरता विष्णुभक्तिविवर्जिताः। २१।
- परवित्ताभिलाषाश्च उत्कोच ग्रहणे रताः।अस्नातभोजिनो विप्राः क्षत्रिया रणवर्जिताः ।२२।
- भविष्यंति कलौ प्राप्ते मलिना दुष्टवृत्तयः। मद्यपानरताः सर्वेप्यया ज्यानां हि याजकाः ।२३।
- भर्तृद्वेषकरा रामाः पितृद्वेषकराःसुताः।भ्रातृद्वेषकराः क्षुद्रा भविष्यंति कलौ युगे।२४।
- गव्यविक्रयिणस्ते वै ब्राह्मणा वित्ततत्पराः। गावो दुग्धं न दुह्यंते संप्राप्ते हि कलौ युगे ।। २५ ।।
- फलन्ते नैव वृक्षाश्च कदाचिदपि भारत।कन्याविक्रय कर्त्तारो गोजाविक्रयकारकाः।२६।
- विषविक्रयकर्त्तारोरसविक्रयकारकाःवेदविक्रयकर्त्तारो भविष्यंति कलौ युगे।२७।
- नारी गर्भं समाधत्ते हायनैकादशेन हि ।एकादश्युपवासस्य विरताः सर्वतो जनाः।२८।
- न तीर्थसेवनरता भविष्यंति च वाडवाः।बह्वाहारा भविष्यंति बहुनिद्रासमाकुलाः ।२९।
- जिह्मवृत्तिपराः सर्वे वेदनिंदापरायणाः।यतिनिंदापराश्चैव च्छद्मकाराः परस्परम् । 3.2.36.३०।
- स्पर्शदोषभयं नैव भविष्यति कलौ युगे ।क्षत्रिया राज्यहीनाश्च म्लेच्छो राजा भविष्यति ।३१।
- विश्वासघातिनः सर्वे गुरुद्रोहरतास्तथा ।मित्रद्रोहरता राजञ्छिश्नोदरपरायणाः। ३२ ।
- एकवर्णा भविष्यंति वर्णाश्चत्वार एव च कलौ प्राप्ते महाराज नान्यथा वचनं मम ।३३।
- एतच्छ्रुत्वा गुरोरेव कान्यकुब्जाधिपो बली राज्यं प्रकुरुते तत्र आमो नाम्ना हि भूतले। ३४।
- सार्वभौमत्वमापन्नः प्रजापालनतत्परः ।प्रजानां कलिना तत्र पापे बुद्धिरजायत।३५।
- वैष्णवं धर्ममुत्सज्य बौद्धधर्ममुपागताः ।प्रजास्तमनुवर्तिन्यः क्षपणैः प्रतिबोधिताः।३६।
- तस्य राज्ञो महादेवी मामानाम्न्यतिविश्रुता।गर्भं दधार सा राज्ञो सर्वलक्षणसंयुता ।३७।
- संपूर्णे दशमे मासि जाता तस्याः सुरूपिणी।दुहिता समये राज्ञ्याः पूर्णचन्द्रनिभानना।३८।
- रत्नगंगेति नाम्ना सा मणिमाणिक्यभूषिता।एकदा दैवयोगेन देशांतरादुपागतः ।३९।
- नाम्ना चैवेंद्रसूरिर्वै देशेस्मिन्कान्यकुब्जके।षोडशाब्दा च सा कन्या नोपनीता नृपात्मजा।3.2.36.४०।
- दास्यांतरेण मिलिता इन्द्रसूरिश्च जीविकः।शाबरीं मंत्रविद्यां च कथयामास भारत।४१।
- एकचित्ताभवत्सा तु शूलिकर्मविमोहिता ।ततः सा मोहमापन्ना तत्तद्वाक्यपरायणा।४२।
- क्षपणैर्बोधिता वत्स जैनधर्मपरायणा ।ब्रह्मावर्ताधिपतये कुंभीपालाय धीमते ।४३।
- रत्नगंगां महादेवीं ददौ तामिति विक्रमी।।मोहेरेकं ददौ तस्मै विवाहे दैवमोहितः।४४।
- धर्मारण्यं समागत्य राजधानी कृता तदा देवांश्च स्थापयामास जैनधर्मप्रणीतकान्।४५।
- सर्वे वर्णास्तथाभूता जैन धर्मसमाश्रिताः। ब्राह्मणा नैव पूज्यंते न च शांतिकपौष्टिकम् ।४६।
- न ददाति कदा दानमेवं कालः प्रवर्तते ।लब्धशासनका विप्रा लुप्तस्वाम्या अहर्निशम् । ४७ ।।
- समाकुलितचित्तास्ते नृपमामं समाययुः ।कान्यकुब्जस्थितं शूरं पाखण्डैः परिवेष्टितम् ।४८।
- कान्यकुब्जपुरं प्राप्य कतिभिर्वासरैर्नृप ।गंगोपकण्ठे न्यवसञ्छ्रांतास्ते मोढवाडवाः।४९।
- चारैश्च कथितास्ते च नृपस्याग्रे समागताः ।प्रातराकारिता विप्रा आगता नृपसंसदि । 3.2.36.५०।
- प्रत्युत्थानाभिवादादीन्न चक्रे सादरं नृपः ।तिष्ठतो ब्राह्मणान्सर्वान्पर्यपृच्छदसौ ततः । ५१।
- किमर्थमागता विप्राः किंस्वित्कार्यं ब्रुवंतु तत् ।५२ ।। ___________________________________
इति श्रीस्कान्दे महापुराण एकाशीतिसाहस्र्यां संहितायां तृतीये ब्रह्मखण्डे धर्मारण्य माहात्म्ये हनुमत्समागमो नाम षट्त्रिंशोऽध्यायः।।३६।।
"नारद ने कहा :
1-2. हे धर्मात्मा, कृपया मुझे बताएं कि उसके बाद क्या हुआ। प्रारंभ में, हे उत्कृष्ट वक्ता, इसे पूरा कहो। वह पवित्र स्थान कब तक स्थिर रहा? इसकी सुरक्षा किसके द्वारा की जा रही थी ? हे प्रभु! वहां किसका प्रभुत्व सर्वोच्च था ?
"ब्रह्मा ने कहा :
3-5. त्रेता से लेकर द्वापर के अंत तक , कलि के आगमन तक , पवन-देवता, हनुमान के पुत्र , अकेले ही इसकी रक्षा करने में सक्षम थे। हे पुत्र, यह हनुमान के अलावा किसी के लिए संभव नहीं था जिनके द्वारा लंका का विनाश किया गया और शक्तिशाली राक्षसों का वध किया गया। (अब) राम के आदेश पर वे ही रक्षक हैं , प्रिय पुत्र। वहां ब्राह्मण और श्रीमाता का प्रभुत्व है ।
6-8. वहां रहने वाले लोगों का आनंद दिन-ब-दिन बढ़ता गया। ब्राह्मण ऋक, यजुस् और साम वेदों का पाठ करते थे । वे दिन-रात अथर्ववेद का भी उच्च स्वर से पाठ करते थे। वैदिक मंत्रोच्चार से निकलने वाली ध्वनि ने जंगम और स्थावर प्राणियों सहित तीनों लोकों को भर दिया। हर गाँव और शहर में उत्सव मनाया गया। विभिन्न धार्मिक अनुष्ठानों पर आधारित विभिन्न प्रकार के यज्ञ जारी रहे।
"युधिष्ठिर ने कहा :
9. क्या पवित्र स्थान का कभी कोई विनाश हुआ या नहीं ? क्या वह स्थान दैत्यों या दुष्ट राक्षसों द्वारा कब्जा कर लिया गया था ?
"व्यास ने कहा :
10 हे राजा, तूमने ठीक ही पूछा है। आप सदैव पवित्र और धर्म के ज्ञाता हैं । कलियुग के आरंभ में क्या हुआ सुनो।
11. समस्त लोकों के कल्याण, संतुष्टि और सुख के लिए मैं एक विशेष यज्ञ का वर्णन करूंगा । हे राजा, सब सुनो।
12-13. अब, जब कलि युग का आगमन आसन्न था, द्वापर के अंत में, जब कलि अभी शुरू नहीं हुआ था, अमा नाम का एक राजा था जो कान्यकुब्ज का शासक बन गया । हे श्रेष्ठ राजा! वह तेजस्वी, धर्म का ज्ञाता, शांत, संयमी, न्याय के प्रति उत्सुक, अच्छे आचरण वाला तथा सत्य और धर्मपरायणता के प्रति समर्पित था।
14-15. अधर्म के तीव्र भय के कारण, कलियुग के विशेष आक्रमण के कारण, सभी देवताओं ने पृथ्वी पर अपना-अपना स्थान त्याग दिया और नैमिष वन का सहारा लिया। हे राजन! राम ने भी उचित सहायता से पुल का निर्माण पूरा किया।
"युधिष्ठिर ने कहा :
16. कलि के आगमन पर पूरे विश्व में किस प्रकार का भय व्याप्त हो गया कि उस पर काबू पाना बहुत कठिन हो गया और पृथ्वी जो रत्नगर्भा थी उसको (गर्भ में रत्न धारण करने वाली) सुरों ने त्याग दिया ?
"व्यास ने कहा :
17-19. कलियुग की मुख्य विशेषताओं को सुनो जो प्रकट होंगी, हे राजा !
लोग झूठ बोलनेवाले होंगे। वे अच्छे लोगों की निंदा करने में लगे रहेंगे। उन सभी की डाकू जैसी गतिविधियों हो जाऐंगीं। वे अपने माता-पिता के प्रति भक्ति से रहित हो जायेंगे। वे अपने रिश्तेदारों की पत्नियों के प्रति यौन प्रवृत्त होंगे। उनकी सोच वासना से भरी होगी. वे ब्राह्मणों से घृणा करेंगे। ये सभी एक दूसरे के विरोधी होंगे.कलियुग में लोग उन लोगों के विनाशक (शोषक) होंगे जो उनको शरण देंगे।
20-21. ब्राह्मण वैश्यों का कार्य अपना लेंगे : वे वेदों के मार्ग से भटक जायेंगे ; वे घमंडी होगे जब कलियुग आयेगा,और तो ब्राह्मण संध्या प्रार्थना करना बंद कर देंगे।
स्वयं को क्षत्रिय मानने वाले जब शांति होती है, तो वे ऐसे व्यवहार करते हैं जैसे कि वे बहादुर हों; जब ख़तरा होता है तो वे निराश हो जाते हैं मैंदान छोड़कर भाग जायेगे। वे श्राद्ध और तर्पण की उपेक्षा करेंग । आसुरी आचरण में लिप्त होकर, वे विष्णु की भक्ति से वंचित हो गए हैं ।
22-25. लोग दूसरे लोगों के धन के लालची होंगे हैं। वे रिश्वत लेने में लगे रहेंगे । ब्राह्मण बिना स्नान किये ही भोजन करेंगे । क्षत्रिय युद्ध से बचेंगे । जब कलि आता है, तो सभी लोग अपने आचरण में गंदे और दुष्ट हो जाते हैं। सभी शराब पीने के आदी हो जाते हैं. पुजारी उन लोगों की ओर से यज्ञ करते हैं जो इस तरह के प्रदर्शन के लिए पात्र नहीं हैं। स्त्रियाँ पतियों से घृणा करती हैं; बेटे अपने माता-पिता से नफरत करते हैं। कलियुग में सभी मूर्ख लोग अपने ही भाइयों से बैर करने लगेंगे। धन इकट्ठा करने के लिए उत्सुक, ब्राह्मण दूध उत्पादों के विक्रेता बन जाएंगे। जब वास्तव में कलियुग आ जाएगा , तो गायें दूध नहीं देगीं।
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फलन्ते नैव वृक्षाश्च कदाचिदपि भारत।कन्याविक्रय कर्त्तारो गोजाविक्रयकारकाः।२६।
विषविक्रयकर्त्तारो रसविक्रयकारकाः ।वेदविक्रयकर्त्तारो भविष्यंति कलौ युगे।२७।
नारी गर्भं समाधत्ते हायनैकादशेन हि ।एकादश्युपवासस्य विरताः सर्वतो जनाः।२८।
न तीर्थसेवनरता भविष्यंति च वाडवाः।बह्वाहारा भविष्यंति बहुनिद्रासमाकुलाः ।२९।
अनुवाद:-.वृक्षों पर कभी फल नहीं लगेंगे, हे भरत के वंशज ! कलियुग में लोग अपनी बेटियों, गायों और बकरियों, जहर, शराब और यहां तक कि वेदों के भी विक्रेता बन जाएंगे। एक महिला ग्यारह वर्ष के बाद गर्भधारण करेंगी । सभी लोग चंद्र पखवाड़े में ग्यारहवें दिन उपवास करने से बचते हैं। ब्राह्मण तीर्थ यात्रा नहीं करेंगे. वे बहुत अधिक खायेंगे; वे खूब सोएंगे.२६-२८।
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30-33. सभी कपटपूर्ण कार्यों में लगे रहेंगे, वेदों और वैरागियों से भी घृणा करेंगे। वे एक दूसरे को धोखा देंगे. कलियुग में (अभद्र साथियों से) सम्पर्क का भय नहीं रहेगा। क्षत्रियों से उनका राज्य छीन लिया जाएगा और म्लेच्छ राजा बन जाएंगे। सभी विश्वास तोड़ने वाले बन जायेंगे और सभी बड़ों को परेशान करने में लगे रहेंगे। हे राजा, वे विश्वासघाती मित्र होंगे और लोलुपता और कामवासना में लिप्त होंगे। हे महान राजा, कलि के आगमन पर सभी चार जातियाँ एक जाति में मिल जाएंगी। मेरी बातें कभी अन्यथा नहीं हो सकतीं.
34-38. सीधे अपने गुरु से यह सुनकर, कान्यकुब्ज के अमा नामक शक्तिशाली शासक ने राज्य पर शासन करना जारी रखा। वह सम्राट बन गया और प्रजा की रक्षा में तत्पर रहने लगा। कलि के आगमन के कारण प्रजा पाप करने की ओर प्रवृत्त हो गयी।
क्षपानस (बौद्ध भिक्षुकों) द्वारा उकसाए जाने और उनके निर्देशों का पालन करते हुए, प्रजा ने अपना वैष्णव पंथ छोड़ दिया और बौद्ध जीवन शैली अपना ली।
उस राजा की सबसे वरिष्ठ रानी, जो मामा के नाम से प्रसिद्ध थी और सभी अच्छे गुणों से युक्त थी। जब दसवाँ महीना पूरा हुआ, तो सर्वसुन्दर गुणों से सम्पन्न तथा पूर्णिमा के चन्द्रमा के समान मुख वाली एक कन्या उत्पन्न हुई।
39-45. वह रत्नागांगा नाम से जानी जाती थी। वह रत्नों से सुसज्जित रहती थी। एक बार संयोग से इन्द्रसूरि नाम का एक भिक्षुक कान्यकुब्ज राज्य में आया। सोलह साल की उक्त लड़की, राजकुमारी को अभी तक धार्मिक पंथ में दीक्षित नहीं किया गया था, उसे एक नौकरानी द्वारा गुप्त रूप से इंद्रसूरि में ले जाया गया था।
हे भरत के वंशज, उन्होंने उसे शाबरी मंत्र विद्या की दीक्षा दी । त्रिशूलधारी भिक्षुक की गतिविधि से मोहित होकर, वह एकाग्रता के साथ इसमें भाग लेने लगी। तब वह और अधिक मोहित हो गई और प्रत्येक कथन को उत्सुकता से समझने लगी (अनुसरण करने लगी)। क्षपणों द्वारा निर्देश दिए जाने पर, हे प्रिय, वह जैन पंथ के प्रति समर्पित हो गई।
महान पराक्रमी राजा ने राजकुमारी रत्नांगा को ब्रह्मावर्त के स्वामी, बुद्धिमान कुम्भीपाल को दे दिया । भाग्य से भ्रमित होकर, राजा ने विवाह के समय मोहेरका को उसे (दामाद को) दे दिया। वह धर्मारण्य आये और अपनी राजधानी स्थापित की। उन्होंने जैन पंथ में वर्णित देवताओं की विधिवत स्थापना की। [6]
46-52. सभी विभिन्न जातियों को जैन पंथ में परिवर्तित कर दिया गया। ब्राह्मणों का सम्मान नहीं किया जाता था। शांतिका और पौष्टिका जैसे कोई धार्मिक संस्कार नहीं किए गए। कभी कोई दान-पुण्य नहीं करता था। ऐसे ही समय बीतता गया.
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" स्कन्दपुराण - खण्डः २ (वैष्णवखण्डः) | वासुदेवमाहात्म्यम्
"स्कन्द उवाच ।
भाविधर्मविपर्यासकालवेगवशोऽथ सः । नाहं क्षमिष्य इत्युक्त्वा कैलासं प्रययौ मुने। १।
त्रैलोक्याच्छ्रीरपि तदा समुद्रेन्तर्द्धिमाययौ । इन्द्रं विहायाप्सरसः सर्वशः श्रियमन्वयुः ।२।
तपः शौचं दया सत्यं पादः सद्धर्मऋद्धयः।सिद्धयश्च बलं सत्त्वं सर्वतः श्रियमन्वयुः।३।
गजादीनि च यानानि स्वर्णाद्याभूषणानि च ।चिक्षिपुर्मणिरत्नानि धातूपकरणानि च । ४।
अन्नान्यौषधयः स्नेहाः कालेनाल्पेन चिक्षियुः । न क्षीरं धेनुमहिषीप्रमुखानां स्तनेष्वऽभूत् । ५ ।
नवापि निधयो नष्टाः कुबेरस्यापि मन्दिरात ।। इन्द्रः सहामरगणैरासीत्तापससन्निभः । ६ ।
सर्वाणि भोगद्रव्याणि नाशमीयुस्त्रिलोकतः ।। देवा दैत्या मनुष्याश्च सर्वे दारिद्यपीडिताः । ७।
कान्त्या हीनस्ततश्चन्द्रः प्रापाम्बुत्वं महोदधौ।।अनावृष्टिर्महत्यासीद्धान्यबीजक्षयंकरी । ८ ।
क्वान्नं क्वान्नेति जल्पन्तः क्षुत्क्षामाश्च निरोजसः ।त्यक्त्वा ग्रामान्पुरश्चोषुर्वनेषु च नगेषु च ।९।
क्षुधार्त्तास्ते पशून्हत्वा ग्राम्यानारण्यकांस्तथा ।पक्त्वाऽपक्त्वापि वा केचित्तेषां मांसान्यभुञ्जत । 2.9.9.१० ।।
विद्वांसो मुनयश्चाऽथ ये वै सद्धर्मचारिणः ।म्रियमाणाः क्षुधाऽथापि नाश्नन्त पललानि तु ।११।
तदा तु वृद्धा ऋषयस्तान्दृष्ट्वाऽनशनादृतान् ।मनुभिः सह वेदोक्तमापद्धर्ममबोधयन् ।१२ ।
मुनयः प्रायशस्तत्र क्षुधा व्याकुलितेन्द्रियाः ।परोक्षवादवेदार्थान्विपरीतान्प्रपेदिरे ।१३ ।
अर्थं चाजादिशब्दानां मुख्यं छागादिमेव ते ।बुबुधुश्चाऽथ ते प्राहुर्यज्ञान् कुरुत भो द्विजाः।१४।
या वेदविहिता हिंसा न सा हिंसास्ति दोषदा ।उद्दिश्य देवान्पितॄंश्च ततो घ्नत पशूञ्छुभान्। १५।
प्रोक्षितं देवताभ्यश्च पितृभ्यश्च निवेदितम् ।भुञ्जत स्वेप्सितं मांसं स्वार्थं तु घ्नत मा पशून् ।१६।
ततो देवर्षिभूपाला नराश्च स्वस्वशक्तितः ।चक्रुस्तैर्बोधिता यज्ञानृते ह्येकान्तिकान्हरेः।१७।
गोमेधमश्वमेधं च नरमेधमुखान्मखान् ।चक्रुर्यज्ञावशिष्टानि मांसानि बुभुजुश्च ते।१८।
विनष्टायाः श्रियः प्राप्त्यै केचिद्यज्ञांश्च चक्रिरे।स्त्रीपुत्रमंदिराद्यर्थं केचिच्च स्वीयवृत्तये ।१९।
महायज्ञेष्वशक्तास्तु पितॄनुदिश्य भूरिशः ।निहत्य श्राद्धेषु पशून्मांसान्यादंस्तथाऽऽदयन् । 2.9.9.२० ।
केचित्सरित्समुद्राणां तीरेष्वेवावसञ्जनाः ।मत्स्याञ्जालैरुपादाय तदाहारा बभूविरे ।२१।
स्वगृहागतशिष्टेभ्यः पशूनेव निहत्य च ।निवेदयामासुरेते गोछागप्रमुखान्मुने ।२२।
सजातीयविवाहानां नियमश्च तदा क्वचित् ।नाभवद्धर्मसांकर्याद्वित्तवेश्माद्यभावतः ।२३।
ब्राह्मणाः क्षत्रियादीनां क्षत्राद्या ब्रह्मणां सुताः।उपयेमिरे कालगत्या स्वस्ववंशविवृद्धये ।२४।
इत्थं हिंसामया यज्ञाः संप्रवृत्ता महापदि ।धर्मस्त्वाभासमात्रोऽस्थात्स्वयं तु श्रियमन्वगात् । २५ ।
अधर्मः सान्वयो लोकांस्त्रीनपि व्याप्य सर्वतः ।अवर्द्धताऽल्पकालेन दुर्निवार्यो बुधैरपि । २६ ।
दरिद्राणामथैतेषामपत्यानि तु भूरिशः। तेषां च वंशविस्तारो महाँल्लोकेष्ववर्द्धत ।२७।
विद्वांसस्तत्र ये जातास्ते तु धर्मं तमेव हि । मेनिरे मुख्यमेवाऽथ ग्रन्थांश्चक्रुश्च तादृशान् ।२८।
ते परम्परया ग्रन्थाः प्रामाण्यं प्रतिपेदिरे । आद्ये त्रेतायुगे हीत्थमासीद्धर्मस्य विप्लवः ।२९।
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ततःप्रभृति लोकेषु यज्ञादौ पशुहिंसनम् ।।बभूव सत्ये तु युगे धर्म आसीत्सनातनः । 2.9.9.३० ।
कालेन महता सोपि सह देवैः सुराधिपः । आराध्य संपदं प्राप वासुदेवं प्रभुं मुने ।३१ ।
ततो धर्मनिकेतस्य श्रीपतेः कृपया हरेः। यथापूर्वं च सद्धर्मस्त्रिलोक्यां संप्रवर्त्तत । ३२ ।
तत्रापि केचिन्मुनयो नृपा देवाश्च मानुषाः ।कामक्रोधरसास्वादलोभोपहतसद्धियः ।तमापद्धर्ममद्यापि प्राधान्येनैव मन्वते ।३३ ।
एकान्तिनो भागवता जितकामादयस्तु ये ।।आपद्यपि न तेऽगृह्णंस्तं तदा किमुताऽन्यदा।३४।
इत्थं ब्रह्मन्नादिकल्पे हिंस्रयज्ञप्रवर्त्तनम् ।यथासीत्तन्मयाख्यातमापत्कालवशाद्भुवि।३५।
इति श्रीस्कान्दे महापुराण एकाशीतिसाहस्र्यां संहितायां द्वितीये वैष्णवखण्डे श्रीवासुदेवमाहात्म्ये हिंस्रयज्ञप्रवृत्तिहेतुनिरूपणं नाम नवमोऽध्यायः।९।
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यह स्कंद पुराण के वैष्णव-खंड के वासुदेव-महात्म्य का नौवां अध्याय है।
अध्याय 9 - हिंसा से जुड़े यज्ञों की उत्पत्ति
वासुदेव-माहात्म्य
"अनुवाद:स्कंद ने कहा :हे ऋषि, काल के प्रभाव से भविष्य में धर्म की विकृति हो गई , उन्होंने ( दुर्वासा ने ) कहा, "मैं माफ नहीं करूंगा" और कैलास चले गए ।१।
"अनुवाद: देवी श्री भी फिर तीनों लोकों से समुद्र में लुप्त हो गईं। एक शरीर में सभी दिव्य युवतियों ने इंद्र को छोड़ दिया और श्री का अनुसरण किया।२।
"अनुवाद:तपस्या, पवित्रता, दया, सत्य, पद (?), सच्चा धर्म, समृद्धि, अलौकिक शक्तियाँ, शक्ति, सत्व (अच्छाई का गुण) - इन सभी ने श्री का अनुसरण किया।३।
"अनुवाद:वाहन, हाथी आदि, सोने आदि के आभूषण, बहुमूल्य पत्थर आदि तथा धातु के औजार कम हो गये।४।
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अन्नान्यौषधयः स्नेहाः कालेनाल्पेन चिक्षियुः । न क्षीरं धेनुमहिषीप्रमुखानां स्तनेष्वऽभूत् ।५ ।
"अनुवाद: कुछ ही समय में खाद्य पदार्थ, पौधे, जड़ी-बूटियाँ, तेल, चिकने पदार्थ कम हो गये। दूध देने वाले पशुओं, जिनमें गाय, भैंस प्रमुख थीं, के थनों में दूध उत्पन्न नहीं होता था।५।
कुबेर के भवन से नौ निधियाँ भी गायब हो गईं इन्द्र अनेक देवताओं सहित तपस्वी बन गये।६।
"अनुवाद:तीनों लोकों में भोग-विलास की सभी सामग्रियां समाप्त हो गईं। देवता, दैत्य और मनुष्य दरिद्रता से पीड़ित थे।७।
"अनुवाद:चन्द्रमा अपनी मनोहर कान्ति से रहित हो गया, और समुद्र के जल के समान हो गया। वहाँ एक भयानक सूखा पड़ा जिससे मक्के के बीज और दाने पूरी तरह बर्बाद हो गये।८।
"अनुवाद:बार-बार चिल्लाना 'खाना कहां है?' भूख से क्षीण और शक्तिहीन लोगों ने गांवों और कस्बों को छोड़ दिया और जंगलों और पहाड़ों का सहारा लिया।९।
"अनुवाद:भूख से व्याकुल होकर उन में से कुछ ने जंगली और पालतू दोनों प्रकार के पशुओं को मार डाला, और उनका पका या कच्चा मांस खाया।१०।
"अनुवाद:सच्चे धर्म का पालन करने वाले विद्वान पुरुष और साधु भूख से मरने के बावजूद भी मांस नहीं खाते थे।११।
"अनुवाद:उन्हें व्रत और उपवास करते देखकर मनु सहित वृद्ध ऋषियों ने उन्हें वेदों द्वारा प्रतिपादित विपरीत परिस्थितियों में पालन किये जाने वाले धर्म की शिक्षा दी ।१३।
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मुनयः प्रायशस्तत्र क्षुधा व्याकुलितेन्द्रियाः ।।परोक्षवादवेदार्थान्विपरीतान्प्रपेदिरे ।।१३।।
"अनुवाद:जिन ऋषियों की इन्द्रियाँ भूख के कारण भ्रमित हो गई थीं, उनमें से अधिकांश ने वेदों की विकृत व्याख्या की।१३।
अर्थं चाजादिशब्दानां मुख्यं छागादिमेव ते ।बुबुधुश्चाऽथ ते प्राहुर्यज्ञान् कुरुत भो द्विजाः।१४।
"अनुवाद:उन्होंने अज जैसे शब्द का अर्थ बकरी के समान लिया और उपदेश दिया, “हे ब्राह्मणों , (पशु) बलि करो।१४।
या वेदविहिता हिंसा न सा हिंसास्ति दोषदा ।उद्दिश्य देवान्पितॄंश्च ततो घ्नत पशूञ्छुभान्। १५।
"अनुवाद:वेदों द्वारा विहित हिंसा ( हिंसा ) कोई दोष या पाप उत्पन्न करने वाली हिंसा नहीं है [2] । इसलिए, देवताओं और पितरों के नाम पर शुभ (बलि देने वाले) जानवरों को मार डालो ।१५।
प्रोक्षितं देवताभ्यश्च पितृभ्यश्च निवेदितम् ।भुञ्जत स्वेप्सितं मांसं स्वार्थं तु घ्नत मा पशून् ।१६।
"अनुवाद:अपने इच्छित किसी भी जानवर के मांस को जल छिड़क कर नैवेद्य के रूप में देवताओं और पितरों को समर्पित करने के बाद उसका आनंद लें । परन्तु अपने लिये जानवरों को मत मारो।”।१६।
ततो देवर्षिभूपाला नराश्च स्वस्वशक्तितः।चक्रुस्तैर्बोधिता यज्ञानृते ह्येकान्तिकान्हरेः।१७।
"अनुवाद:तब देवताओं, ऋषियों, राजाओं और उनके द्वारा सिखाए गए मनुष्यों ने अपनी-अपनी क्षमता के अनुसार यज्ञ किए, केवल उन लोगों को छोड़कर जो पूरी तरह से हरि के प्रति समर्पित थे।१७।
गोमेधमश्वमेधं च नरमेधमुखान्मखान् ।।चक्रुर्यज्ञावशिष्टानि मांसानि बुभुजुश्च ते।१८।
"अनुवाद:उन्होंने गो- मेध (बैल-बलि), अश्वमेध (घोड़ा-बलि) जैसे बलिदान किए और बलिदान जिनमें मानव-बलि प्रमुख थी और बलिदान के बाद बचे हुए मांस का आनंद लेते थे।१८।
विनष्टायाः श्रियः प्राप्त्यै केचिद्यज्ञांश्च चक्रिरे ।।स्त्रीपुत्रमंदिराद्यर्थं केचिच्च स्वीयवृत्तये।१९।
"अनुवाद:कुछ लोगों ने खोए हुए धन के लिये यज्ञ किया। कुछ ने स्त्रियों (पत्नियों), पुत्रों और घर को प्राप्त करने के लिए और कुछ ने अपने पेशे की (समृद्धि) के लिए प्रदर्शन किया।१९।
महायज्ञेष्वशक्तास्तु पितॄनुदिश्य भूरिशः ।।
निहत्य श्राद्धेषु पशून्मांसान्यादंस्तथाऽऽदयन् ।।2.9.9.२०।
"अनुवाद: जो लोग बड़े-बड़े यज्ञ करने में असमर्थ थे, उन्होंने कई बार श्राद्ध में अपने पितरों के लिए पशुओं को मारकर खाया और दूसरों से भी ऐसा करवाया।२०।
केचित्सरित्समुद्राणां तीरेष्वेवावसञ्जनाः।मत्स्याञ्जालैरुपादाय तदाहारा बभूविरे।२१।
"अनुवाद: समुद्र के किनारे या नदियों के किनारे रहने वाले कुछ लोग जाल से मछलियाँ पकड़ते और उनका (मछली) भक्षक बन जाते।२१।
स्वगृहागतशिष्टेभ्यः पशूनेव निहत्य च ।निवेदयामासुरेते गोछागप्रमुखान्मुने ।२२ ।
"अनुवाद:हे ऋषि ! उन्होंने विशिष्ट अतिथियों के लिए उन जानवरों को मार डाला, जिनमें गाय (बैल) और बकरियां प्रमुख थीं।२२।
सजातीयविवाहानां नियमश्च तदा क्वचित् ।नाभवद्धर्मसांकर्याद्वित्तवेश्माद्यभावतः।२३।
"अनुवाद:उस समय धन, मकान आदि के अभाव में तथा धर्मों के परस्पर मिश्रण के कारण एक ही जाति के व्यक्तियों में विवाह का नियम नहीं चलता था।२३।
ब्राह्मणाः क्षत्रियादीनां क्षत्राद्या ब्रह्मणां सुताः।उपयेमिरे कालगत्या स्वस्ववंशविवृद्धये ।२४।
"अनुवाद:समय (और नई प्रवृत्तियों) की मांगों के अनुसार, अपनी जाति के विस्तार और निरंतरता के लिए, ब्राह्मणों ने क्षत्रियों ( और अन्य जातियों) की बेटियों से शादी की और क्षत्रियों और अन्य लोगों ने ब्राह्मणों की बेटियों से शादी की।२४।
इत्थं हिंसामया यज्ञाः संप्रवृत्ता महापदि ।।धर्मस्त्वाभासमात्रोऽस्थात्स्वयं तु श्रियमन्वगात् ।२५।
"अनुवाद:इस प्रकार उस महान आपदा में, हिंसा से जुड़े बलिदान शुरू किए गए। धर्म ने स्वयं देवी श्री का अनुसरण किया (समुद्र के तल तक), जबकि धर्म का एक अंश बना रहा।२५।
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अधर्मः सान्वयो लोकांस्त्रीनपि व्याप्य सर्वतः ।अवर्द्धताऽल्पकालेन दुर्निवार्यो बुधैरपि ।२६।
"अनुवाद:अधर्म अपने परिणामों सहित तीनों लोकों में व्याप्त हो गया और थोड़े ही समय में फल-फूल गया। बुद्धिमान और विद्वान लोगों द्वारा इसकी जाँच करना अत्यंत कठिन था।२६।
दरिद्राणामथैतेषामपत्यानि तु भूरिशः ।। तेषां च वंशविस्तारो महाँल्लोकेष्ववर्द्धत ।।२७ ।।
"अनुवाद:उन गरीबी से त्रस्त लोगों से असंख्य बच्चे पैदा हुए और उनके परिवारों का विस्तार दुनिया में बहुत बढ़ गया।२७।
विद्वांसस्तत्र ये जातास्ते तु धर्मं तमेव हि ।।मेनिरे मुख्यमेवाऽथ ग्रन्थांश्चक्रुश्च तादृशान् ।२८ ।
"अनुवाद:उनमें से जो लोग विद्वान बन गये, उन्होंने इसे (अर्थात अधर्म, तत्कालीन प्रचलित प्रथाओं को) वास्तविक धर्म माना और तदनुसार ग्रंथ लिखे।२८।
ते परम्परया ग्रन्थाः प्रामाण्यं प्रतिपेदिरे ।।आद्ये त्रेतायुगे हीत्थमासीद्धर्मस्य विप्लवः ।। २९।
"अनुवाद:परंपरा की शक्ति से वे ग्रंथ कालान्तर में प्रामाणिक बन गये। पहले त्रेता युग में धर्म ने इतना बुरा मोड़ ले लिया।
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ततःप्रभृति लोकेषु यज्ञादौ पशुहिंसनम् ।।बभूव सत्ये तु युगे धर्म आसीत्सनातनः ।। 2.9.9.३० ।।
"अनुवाद:उसके बाद, यज्ञ (बलि) और अन्य (धार्मिक) अवसरों पर जानवरों की हत्या को बढ़ावा मिला। केवल सत्य ( कृत ) युग में ही शाश्वत धर्म प्रचलित था।३०।
कालेन महता सोपि सह देवैः सुराधिपः ।। आराध्य संपदं प्राप वासुदेवं प्रभुं मुने ।। ३१ ।।
"अनुवाद:हे ऋषि, लंबे समय के बाद, देवों के स्वामी इंद्र ने देवताओं के साथ मिलकर भगवान वासुदेव को प्रसन्न किया और उनकी समृद्धि पुनः प्राप्त की।३१।
ततो धर्मनिकेतस्य श्रीपतेः कृपया हरेः। यथापूर्वं च सद्धर्मस्त्रिलोक्यां संप्रवर्त्तत ।३२।
"अनुवाद:तब श्री के भगवान और धर्म के आसन (शरण) हरि की कृपा से, वास्तविक धर्म तीनों लोकों में फैल गया।३२।
तत्रापि केचिन्मुनयो नृपा देवाश्च मानुषाः ।कामक्रोधरसास्वादलोभोपहतसद्धियः ।तमापद्धर्ममद्यापि प्राधान्येनैव मन्वते ।३३।
"अनुवाद:फिर भी कुछ देवता, ऋषि और पुरुष हैं जिनके अच्छे दिमाग काम, क्रोध, लालच और (मांसाहार) स्वाद से प्रतिकूल रूप से प्रभावित होते हैं, जो आपपद-धर्म (अर्थात संकट के समय में स्वीकार्य प्रथाओं) को प्रमुख धर्म मानते हैं । ३३।
एकान्तिनो भागवता जितकामादयस्तु ये ।आपद्यपि न तेऽगृह्णंस्तं तदा किमुताऽन्यदा।३४।
"अनुवाद:भगवान के भक्त, जिन्होंने अपनी भावनाओं पर विजय पा ली है, और जो पूरी तरह से भगवान के प्रति समर्पित हैं, दबाव में भी उन्हें (उन प्रथाओं को) नहीं अपनाते हैं। अन्य अवसरों का तो कहना ही क्या! ।३४।
इत्थं ब्रह्मन्नादिकल्पे हिंस्रयज्ञप्रवर्त्तनम् ।यथासीत्तन्मयाख्यातमापत्कालवशाद्भुवि ।३५।
"अनुवाद:इस प्रकार, हे ब्राह्मण, मैंने तुम्हें बताया है कि पहले कल्प में, हिंसा (हिंसा) से युक्त यज्ञ कैसे प्रचलित हुए।३५।
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“वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति” का क्या अर्थ दिया है –
या वेदविहिता हिंसा, नियतास्मिंश्चराचरे।अहिंसामेव तां विद्याद्, वेदाद धर्मो हि निर्बभौ। योहिंसकानि भूतानि, हिनस्त्यात्मसुखेच्छया। स जीवंश्च मृत्श्चैव, न कश्चित् सुखमेधते।। (५.४४-४५)
अनुवाद:अर्थात, जो विश्व संसार में दुष्टो – अत्याचारियो – क्रूरो – पापियो को जो दंड – दान रूप हिंसा वेदविहित होने से नियत है, उसे अहिंसा ही समझना चाहिए, क्योंकि वेद से ही यथार्थ धर्म का प्रकाश होता है। परन्तु इसके विपरीत जो निहत्थे, निरपराध अहिंसक प्राणियों को अपने सुख की इच्छा से मारता है, वह जीता हुआ और मरा हुआ, दोनों अवस्थाओ में कहीं भी सुख को नहीं पाता। दुष्टो को दंड देना हिंसा नहीं प्रत्युत अहिंसा होने से पुण्य है, अतएव मनु ने (8.351) में लिखा है –
गुरुं वा बालवृद्धौ वा ब्राह्मणं वा बहुश्रुतम्। आततायिनमायान्तं हन्यादेवाविचारयन।। नाततायिवधे दोषो हन्तुर्भवती कश्चन। प्रकाशं वाप्रकाशं वा मन्युस्तं मन्युमृच्छति।।
अर्थात, चाहे गुरु हो, चाहे पुत्र आदि बालक हो, चाहे पिता आदि वृद्ध हो, और चाहे बड़ा भरी शास्त्री ब्राह्मण भी क्यों न हो, परन्तु यदि वह आततायी हो और घात-पात के लिए आता हो, तो उसे बिना विचार तत्क्षण मार डालना चाहिए। क्योंकि प्रत्यक्षरूप में सामने होकर व अप्रत्यक्षरूप में लुक-छिप कर आततायी को मारने में, मारने वाले का कोई दोष नहीं होता क्योंकि क्रोध को क्रोध से मारना मानो क्रोध की क्रोध से लड़ाई है।
यज्ञ में पशुबलि की सनातन परंपरा
क्रतौ श्राद्धे नियुक्तो वा अनश्नन् पतति द्विजः .-मनु. 3, 55 तथा व्यासस्मृति
"क्रतौ श्राद्धे नियुक्तो वा अनश्नन् पतित द्विज:। मृगयोपार्जितं मासमभ्यर्च पितृदेवता:।५४।(व्यासस्मृति अध्याय तृतीय)
अर्थात यज्ञ और श्राद्ध में जो द्विज मांस नहीं खाता, वह पतित हो जाता है.
ऐसी ही बात कूर्मपुराण (2,17,40) में कही गई है.
विष्णुधर्मोत्तरपुराण (1,40,49-50) में कहा गया है कि जो व्यक्ति श्राद्ध में भोजन करने वालों की पंक्ति में परोसे गए मांस का भक्षण नहीं करता, वह नरक में जाता है.
(देखें, धर्मशास्त्रों का इतिहास, जिल्द 3 , पृ. 1244)
महाभारत में गौओं के मांस के हवन से राज्य को नष्ट करने का ज़िक्र मिलता है। दाल्भ्य की कथा में आता है-
श्लोक
9.41.11-12
स तूत्कृत्य मृतानां वै मांसानि मुनिसत्तमः॥ ११॥
जुहाव धृतराष्ट्रस्य राष्ट्रं नरपतेः पुरा ।
अनुवाद: वे मुनिश्रेष्ठ उन मृत पशुओंके ही मांस काट-काटकर उनके द्वारा राजा धृतराष्ट्रके राष्ट्रकी ही आहुति देने लगे ॥११॥
-(महाभारत , शाल्यपर्व , 41,8-9 व 11-14)
"वैशम्पायन उवाच
ब्रह्मयोनिभिराकीर्णं जगाम यदुनन्दनः
यत्र दाल्भ्यो बको राजन्पश्वर्थं सुमहातपाः
जुहाव धृतराष्ट्रस्य राष्ट्रं वैचित्रवीर्यिणः।१।
तपसा घोररूपेण कर्शयन्देहमात्मनः
क्रोधेन महताविष्टो धर्मात्मा वै प्रतापवान् ।२।
पुरा हि नैमिषेयाणां सत्रे द्वादशवार्षिके
वृत्ते विश्वजितोऽन्ते वै पाञ्चालान्नृषयोऽगमन् ।३।
तत्रेश्वरमयाचन्त दक्षिणार्थं मनीषिणः
बलान्वितान्वत्सतरान्निर्व्याधीनेकविंशतिम् ।४।
तानब्रवीद्बको वृद्धो विभजध्वं पशूनिति
पशूनेतानहं त्यक्त्वा भिक्षिष्ये राजसत्तमम् ।५।
एवमुक्त्वा ततो राजन्नृषीन्सर्वान्प्रतापवान्
जगाम धृतराष्ट्रस्य भवनं ब्राह्मणोत्तमः ।६।
स समीपगतो भूत्वा धृतराष्ट्रं जनेश्वरम्
अयाचत पशून्दाल्भ्यः स चैनं रुषितोऽब्रवीत् ।७।
यदृच्छया मृता दृष्ट्वा गास्तदा नृपसत्तम
एतान्पशून्नय क्षिप्रं ब्रह्मबन्धो यदीच्छसि ।८।
ऋषिस्त्वथ वचः श्रुत्वा चिन्तयामास धर्मवित्
अहो बत नृशंसं वै वाक्यमुक्तोऽस्मि संसदि ।९।
चिन्तयित्वा मुहूर्तं च रोषाविष्टो द्विजोत्तमः
मतिं चक्रे विनाशाय धृतराष्ट्रस्य भूपतेः ।१०।
स उत्कृत्य मृतनां वै मांसानि द्विजसत्तमः
जुहाव धृतराष्ट्रस्य राष्ट्रं नरपतेः पुरा ।११।
अवकीर्णे सरस्वत्यास्तीर्थे प्रज्वाल्य पावकम्
बको दाल्भ्यो महाराज नियमं परमास्थितः
स तैरेव जुहावास्य राष्ट्रं मांसैर्महातपाः ।१२।
तस्मिंस्तु विधिवत्सत्रे सम्प्रवृत्ते सुदारुणे
अक्षीयत ततो राष्ट्रं धृतराष्ट्रस्य पार्थिव ।१३।
छिद्यमानं यथानन्तं वनं परशुना विभो
बभूवापहतं तच्चाप्यवकीर्णमचेतनम् ।१४।
दृष्ट्वा तदवकीर्णं तु राष्ट्रं स मनुजाधिपः
बभूव दुर्मना राजंश्चिन्तयामास च प्रभुः ।१५।
मोक्षार्थमकरोद्यत्नं ब्राह्मणैः सहितः पुरा
अथासौ पार्थिवः खिन्नस्ते च विप्रास्तदा नृप ।१६।(महाभारत शल्यपर्व अध्याय -४०)
अनुवाद:- अर्थात इन मृत गौओं को यदि ले जाना चाहते हो तो ले जाओ. दाल्भ्य ने उन मृत गौओं का मांस काट काट कर सरस्वती के किनारे अवाकीर्ण नामक तीर्थस्थल पर अग्नि जला कर हवन किया. विधिपूर्वक यज्ञ के संपन्न होने पर राजा धृतराष्ट्र का राज्य क्षीण हो गया.
श्री महाभारत -(शल्य पर्व ) अध्याय 41: श्लोक 28-30
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"धृतराष्ट्रोऽपि धर्मात्मा स्वस्थचेता महामनाः ।स्वमेव नगरं राजन् प्रतिपेदे महर्द्धि मत् ।२८।
"तत्र तीर्थे महाराज बृहस्पतिरुदारधीः ।असुराणामभावाय भवाय च दिवौकसाम् ।२९।
"मांसैरभिजुहावेष्टिमक्षीयन्त ततोऽसुराः ।दैवतैरपि सम्भग्ना जितकाशिभिराहवे।३०।
अनुवाद: -राजन्! फिर महामनस्वी धर्मात्मा धृतराष्ट्र भी स्वस्थचित्त हो अपने समृद्धिशाली नगर को ही लौट आये।
महाराज! उसी तीर्थमें उदारबुद्धि बृहस्पति ने असुरोंके विनाश और देवताओंकी उन्नतिके लिये मांसोंद्वारा आभिचारिक यज्ञका अनुष्ठान किया था। इससे वे असुर क्षीण हो गये और युद्धमें विजय से सुशोभित होनेवाले देवताओं ने उन्हें मार भगाया ॥२९-३०॥
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श्रुत्वैतानृषयो धर्मान्स्नातकस्य यथोदितान् । इदं ऊचुर्महात्मानं अनलप्रभवं भृगुम् ।५.१ ।
एवं यथोक्तं विप्राणां स्वधर्मं अनुतिष्ठताम् । कथं मृत्युः प्रभवति वेदशास्त्रविदां प्रभो । ५.२ ।
स तानुवाच धर्मात्मा महर्षीन्मानवो भृगुः । श्रूयतां येन दोषेण मृत्युर्विप्रान्जिघांसति ।५.३ ।
अनभ्यासेन वेदानां आचारस्य च वर्जनात् ।आलस्यादन्नदोषाच्च मृत्युर्विप्राञ् जिघांसति ।५.४।
लशुनं गृञ्जनं चैव पलाण्डुं कवकानि च ।अभक्ष्याणि द्विजातीनां अमेध्यप्रभवानि च ।५.५।
लोहितान्वृक्षनिर्यासान्वृश्चनप्रभवांस्तथा । शेलुं गव्यं च पेयूषं प्रयत्नेन विवर्जयेत् । ५.६ ।
वृथा कृसरसंयावं पायसापूपं एव च ।अनुपाकृतमांसानि देवान्नानि हवींषि च ।५.७ ।
अनिर्दशाया गोः क्षीरं औष्ट्रं ऐकशफं तथा । आविकं संधिनीक्षीरं विवत्सायाश्च गोः पयः।५.८ ।
आरण्यानां च सर्वेषां मृगाणां माहिषं विना ।स्त्रीक्षीरं चैव वर्ज्यानि सर्वशुक्तानि चैव हि ।५.९ ।
दधि भक्ष्यं च शुक्तेषु सर्वं च दधिसंभवम् । यानि चैवाभिषूयन्ते पुष्पमूलफलैः शुभैः ।५.१०।
क्रव्यादाञ् शकुनान्सर्वांस्तथा ग्रामनिवासिनः ।अनिर्दिष्टांश्चैकशफांष्टिट्टिभं च विवर्जयेत् ।५.११।
कलविङ्कं प्लवं हंसं चक्राह्वं ग्रामकुक्कुटम् ।सारसं रज्जुवालं च दात्यूहं शुकसारिके ।५.१२।
प्रतुदाञ् जालपादांश्च कोयष्टिनखविष्किरान् ।निमज्जतश्च मत्स्यादान्सौनं वल्लूरं एव च ।५.१३।
बकं चैव बलाकां च काकोलं खञ्जरीटकम् ।मत्स्यादान्विड्वराहांश्च मत्स्यानेव च सर्वशः ५.१४।
यो यस्य मांसं अश्नाति स तन्मांसाद उच्यते ।मत्स्यादः सर्वमांसादस्तस्मान्मत्स्यान्विवर्जयेत् । ५.१५ ।
पाठीनरोहितावाद्यौ नियुक्तौ हव्यकव्ययोः ।राजीवान्सिंहतुण्डाश्च सशल्काश्चैव सर्वशः ।५.१६।
न भक्षयेदेकचरानज्ञातांश्च मृगद्विजान् । भक्ष्येष्वपि समुद्दिष्टान्सर्वान्पञ्चनखांस्तथा । । ५.१७ । ।
श्वाविधं शल्यकं गोधां खड्गकूर्मशशांस्तथा ।भक्ष्यान्पञ्चनखेष्वाहुरनुष्ट्रांश्चैकतोदतह् ।५.१८ । ।
छत्राकं विड्वराहं च लशुनं ग्रामकुक्कुटम् ।पलाण्डुं गृञ्जनं चैव मत्या जग्ध्वा पतेद्द्विजः। ५.१९ ।
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अमत्यैतानि षड्जग्ध्वा कृच्छ्रं सान्तपनं चरेत् ।यतिचान्द्रायाणं वापि शेषेषूपवसेदहः।५.२०।
संवत्सरस्यैकं अपि चरेत्कृच्छ्रं द्विजोत्तमः ।अज्ञातभुक्तशुद्ध्यर्थं ज्ञातस्य तु विषेशतः ।५.२१।
यज्ञार्थं ब्राह्मणैर्वध्याः प्रशस्ता मृगपक्षिणः ।भृत्यानां चैव वृत्त्यर्थं अगस्त्यो ह्याचरत्पुरा ।५.२२।
बभूवुर्हि पुरोडाशा भक्ष्याणां मृगपक्षिणाम् ।पुराणेष्वपि यज्ञेषु ब्रह्मक्षत्रसवेषु च ।५.२३।
यत्किं चित्स्नेहसंयुक्तं भक्ष्यं भोज्यं अगर्हितम् ।तत्पर्युषितं अप्याद्यं हविःशेषं च यद्भवेत् ।५.२४।
चिरस्थितं अपि त्वाद्यं अस्नेहाक्तं द्विजातिभिः ।यवगोधूमजं सर्वं पयसश्चैव विक्रिया ।५.२५।
एतदुक्तं द्विजातीनां भक्ष्याभक्ष्यं अशेषतः ।मांसस्यातः प्रवक्ष्यामि विधिं भक्षणवर्जने ।५.२६ ।
प्रोक्षितं भक्षयेन्मांसं ब्राह्मणानां च काम्यया ।यथाविधि नियुक्तस्तु प्राणानां एव चात्यये ।५.२७।
प्राणस्यान्नं इदं सर्वं प्रजापतिरकल्पयत् । स्थावरं जङ्गमं चैव सर्वं प्राणस्य भोजनम् ।५.२८
चराणां अन्नं अचरा दंष्ट्रिणां अप्यदंष्ट्रिणः ।अहस्ताश्च सहस्तानां शूराणां चैव भीरवः ।५.२९ ।
नात्ता दुष्यत्यदन्नाद्यान्प्राणिनोऽहन्यहन्यपि । धात्रैव सृष्टा ह्याद्याश्च प्राणिनोऽत्तार एव च । । ५.३० । ।
यज्ञाय जग्धिर्मांसस्येत्येष दैवो विधिः स्मृतः ।अतोऽन्यथा प्रवृत्तिस्तु राक्षसो विधिरुच्यते । ५.३१ ।
क्रीत्वा स्वयं वाप्युत्पाद्य परोपकृतं एव वा ।देवान्पितॄंश्चार्चयित्वा खादन्मांसं न दुष्यति । ५.३२।
नाद्यादविधिना मांसं विधिज्ञोऽनापदि द्विजः ।जग्ध्वा ह्यविधिना मांसं प्रेतस्तैरद्यतेऽवशः । । ५.३३ । ।
न तादृशं भवत्येनो मृगहन्तुर्धनार्थिनः । यादृशं भवति प्रेत्य वृथामांसानि खादतः ।५.३४ ।
नियुक्तस्तु यथान्यायं यो मांसं नात्ति मानवः । स प्रेत्य पशुतां याति संभवानेकविंशतिम् । । ५.३५ । ।
असंस्कृतान्पशून्मन्त्रैर्नाद्याद्विप्रः कदा चन । मन्त्रैस्तु संस्कृतानद्याच्छाश्वतं विधिं आस्थितः। ५.३६।
कुर्याद्घृतपशुं सङ्गे कुर्यात्पिष्टपशुं तथा । न त्वेव तु वृथा हन्तुं पशुं इच्छेत्कदा चन।५.३७ ।
यावन्ति पशुरोमाणि तावत्कृत्वो ह मारणम् ।वृथापशुघ्नः प्राप्नोति प्रेत्य जन्मनि जन्मनि ।५.३८।
यज्ञार्थं पशवः सृष्टाः स्वयं एव स्वयंभुवा । यज्ञोऽस्य भूत्यै सर्वस्य तस्माद्यज्ञे वधोऽवधः।५.३९।
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ओषध्यः पशवो वृक्षास्तिर्यञ्चः पक्षिणस्तथा ।यज्ञार्थं निधनं प्राप्ताः प्राप्नुवन्त्युत्सृतीः पुनः।५.४०।
मधुपर्के च यज्ञे च पितृदैवतकर्मणि । अत्रैव पशवो हिंस्या नान्यत्रेत्यब्रवीन्मनुः।५.४१ ।
एष्वर्थेषु पशून्हिंसन्वेदतत्त्वार्थविद्द्विजः। आत्मानं च पशुं चैव गमयत्युत्तमं गतिम् ।५.४२।
गृहे गुरावरण्ये वा निवसन्नात्मवान्द्विजः।नावेदविहितां हिंसां आपद्यपि समाचरेत् ।५.४३ ।
या वेदविहिता हिंसा नियतास्मिंश्चराचरे। अहिंसां एव तां विद्याद्वेदाद्धर्मो हि निर्बभौ।५.४४।
योऽहिंसकानि भूतानि हिनस्त्यात्मसुखेच्छया। स जीवांश्च मृतश्चैव न क्व चित्सुखं एधते ।५.४५।
यो बन्धनवधक्लेशान्प्राणिनां न चिकीर्षति। स सर्वस्य हितप्रेप्सुः सुखं अत्यन्तं अश्नुते ।५.४६।
यद्ध्यायति यत्कुरुते रतिं बध्नाति यत्र च ।तदवाप्नोत्ययत्नेन यो हिनस्ति न किं चन ।५.४७ ।
नाकृत्वा प्राणिनां हिंसां मांसं उत्पद्यते क्व चित् । न च प्राणिवधः स्वर्ग्यस्तस्मान्मांसं विवर्जयेत्। ५.४८ ।
समुत्पत्तिं च मांसस्य वधबन्धौ च देहिनाम् ।प्रसमीक्ष्य निवर्तेत सर्वमांसस्य भक्षणात् ।५.४९।
न भक्षयति यो मांसं विधिं हित्वा पिशाचवत्। न लोके प्रियतां याति व्याधिभिश्च न पीड्यते । ५.५०।
अनुमन्ता विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी। संस्कर्ता चोपहर्ता च खादकश्चेति घातकाः।५.५१ ।
स्वमांसं परमांसेन यो वर्धयितुं इच्छति । अनभ्यर्च्य पितॄन्देवांस्ततोऽन्यो नास्त्यपुण्यकृत्। ५.५२।
वर्षे वर्षेऽश्वमेधेन यो यजेत शतं समाः । मांसानि च न खादेद्यस्तयोः पुण्यफलं समम् । । ५.५३।
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फलमूलाशनैर्मेध्यैर्मुन्यन्नानां च भोजनैः । न तत्फलं अवाप्नोति यन्मांसपरिवर्जनात् ।५.५४ ।
मां स भक्षयितामुत्र यस्य मांसं इहाद्म्यहम् ।एतन्मांसस्य मांसत्वं प्रवदन्ति मनीषिणः ।५.५५ ।
न मांसभक्षणे दोषो न मद्ये न च मैथुने । प्रवृत्तिरेषा भूतानां निवृत्तिस्तु महाफला ।५.५६ ।
प्रेतशुद्धिं प्रवक्ष्यामि द्रव्यशुद्धिं तथैव च । चतुर्णां अपि वर्णानां यथावदनुपूर्वशः ।५.५७ ।
दन्तजातेऽनुजाते च कृतचूडे च संस्थिते । अशुद्धा बान्धवाः सर्वे सूतके च तथोच्यते ।५.५८
दशाहं शावं आशौचं सपिण्डेषु विधीयते ।अर्वाक्संचयनादस्थ्नां त्र्यहं एकाहं एव वा।५.५९ ।
सपिण्डता तु पुरुषे सप्तमे विनिवर्तते ।समानोदकभावस्तु जन्मनाम्नोरवेदने ।५.६० ।
यथेदं शावं आशौचं सपिण्डेषु विधीयते ।जननेऽप्येवं एव स्यान्निपुणं शुद्धिं इच्छताम् । ५.६१ ।
सर्वेषां शावं आशौचं मातापित्रोस्तु सूतकम् ।सूतकं मातुरेव स्यादुपस्पृश्य पिता शुचिः। ५.६२[६१ं]
निरस्य तु पुमाञ् शुक्रं उपस्पृस्यैव शुध्यति ।बैजिकादभिसंबन्धादनुरुन्ध्यादघं त्र्यहम् । ५.६३[६२ं] ।
अह्ना चैकेन रात्र्या च त्रिरात्रैरेव च त्रिभिः।शवस्पृशो विशुध्यन्ति त्र्यहादुदकदायिनः ५.६४[६३ं]
गुरोः प्रेतस्य शिष्यस्तु पितृमेधं समाचरन् । प्रेतहारैः समं तत्र दशरात्रेण शुध्यति।५.६५[६४ं]।
रात्रिभिर्मासतुल्याभिर्गर्भस्रावे विशुध्यति।रजस्युपरते साध्वी स्नानेन स्त्री रजस्वला । ५.६६[६५ं]
नृणां अकृतचूडानां विशुद्धिर्नैशिकी स्मृता ।निर्वृत्तचूडकानां तु त्रिरात्राच्छुद्धिरिष्यते । ५.६७[६६ं]
ऊनद्विवार्षिकं प्रेतं निदध्युर्बान्धवा बहिः।
अलंकृत्य शुचौ भूमावस्थिसंचयनादृते । ५.६८[६७ं]।
नास्य कार्योऽग्निसंस्कारो न च कार्योदकक्रिया ।अरण्ये काष्ठवत्त्यक्त्वा क्षपेयुस्त्र्यहं एव तु । ५.६९[६८ं] ।
नात्रिवर्षस्य कर्तव्या बान्धवैरुदकक्रिया ।जातदन्तस्य वा कुर्युर्नाम्नि वापि कृते सति । ५.७०[६९ं]।
सब्रह्मचारिण्येकाहं अतीते क्षपणं स्मृतम् ।जन्मन्येकोदकानां तु त्रिरात्राच्छुद्धिरिष्यते। ५.७१[७०ं]।
स्त्रीणां असंस्कृतानां तु त्र्यहाच्छुध्यन्ति बान्धवाः ।यथोक्तेनैव कल्पेन शुध्यन्ति तु सनाभयः। ५.७२[७१ं]।
अक्षारलवणान्नाः स्युर्निमज्जेयुश्च ते त्र्यहम् ।मांसाशनं च नाश्नीयुः शयीरंश्च पृथक्क्षितौ । ५.७३[७२ं]।
संनिधावेष वै कल्पः शावाशौचस्य कीर्तितः।असंनिधावयं ज्ञेयो विधिः संबन्धिबान्धवैः। ५.७४[७३ं]।
विगतं तु विदेशस्थं शृणुयाद्यो ह्यनिर्दशम् । यच्छेषं दशरात्रस्य तावदेवाशुचिर्भवेत् । । ५.७५[७४ं] । ।
अतिक्रान्ते दशाहे च त्रिरात्रं अशुचिर्भवेत् । संवत्सरे व्यतीते तु स्पृष्ट्वैवापो विशुध्यति। ५.७६[७५ं] । ।
निर्दशं ज्ञातिमरणं श्रुत्वा पुत्रस्य जन्म च । सवासा जलं आप्लुत्य शुद्धो भवति मानवः। ५.७७[७६ं]।
बाले देशान्तरस्थे च पृथक्पिण्डे च संस्थिते ।सवासा जलं आप्लुत्य सद्य एव विशुध्यति । ५.७८[७७ं] ।
अन्तर्दशाहे स्यातां चेत्पुनर्मरणजन्मनी ।तावत्स्यादशुचिर्विप्रो यावत्तत्स्यादनिर्दशम् । ५.७९[७८ं] ।
त्रिरात्रं आहुराशौचं आचार्ये संस्थिते सति । तस्य पुत्रे च पत्न्यां च दिवारात्रं इति स्थितिः । ५.८०[७९ं] । ।
श्रोत्रिये तूपसंपन्ने त्रिरात्रं अशुचिर्भवेत् । मातुले पक्षिणीं रात्रिं शिष्यर्त्विग्बान्धवेषु च । । ५.८१[८०ं] ।
प्रेते राजनि सज्योतिर्यस्य स्याद्विषये स्थितः ।अश्रोत्रिये त्वहः कृत्स्नं अनूचाने तथा गुरौ । ५.८२[८१ं] । ।
शुद्ध्येद्विप्रो दशाहेन द्वादशाहेन भूमिपः । वैश्यः पञ्चदशाहेन शूद्रो मासेन शुध्यति । । ५.८३[८२ं] । ।
न वर्धयेदघाहानि प्रत्यूहेन्नाग्निषु क्रियाः । न च तत्कर्म कुर्वाणः सनाभ्योऽप्यशुचिर्भवेत् । । ५.८४[८३ं] । ।
दिवाकीर्तिं उदक्यां च पतितं सूतिकां तथा । शवं तत्स्पृष्टिनं चैव स्पृष्ट्वा स्नानेन शुध्यति । । ५.८५[८४ं] ।
आचम्य प्रयतो नित्यं जपेदशुचिदर्शने ।सौरान्मन्त्रान्यथोत्साहं पावमानीश्च शक्तितः। ५.८६[८५ं] ।
नारं स्पृष्ट्वास्थि सस्नेहं स्नात्वा विप्रो विशुध्यति ।आचम्यैव तु निःस्नेहं गां आलभ्यार्कं ईक्ष्य वा । ५.८७[८६ं]।
आदिष्टी नोदकं कुर्यादा व्रतस्य समापनात् ।समाप्ते तूदकं कृत्वा त्रिरात्रेणैव शुध्यति । ५.८८[८७ं] । ।
वृथासंकरजातानां प्रव्रज्यासु च तिष्ठताम् ।आत्मनस्त्यागिनां चैव निवर्तेतोदकक्रिया । ५.८९[८८ं]।
त्रिंशद्वर्षो वहेत्कन्यां हृद्यां द्वादशवार्षिकीम् ।त्र्यष्टवर्षोऽष्टवर्षां वा धर्मे सीदति सत्वरः ।।9/94
आय समाजी कह देते हैं कि यह श्लोक प्रक्षिप्त है अतः मूल मनुस्मृति का भाग नहीं है। परन्तु यह क्यों नहीं कहते कि यह मनुस्मृति ही मनु की रचना नहीं है।
यद्यपि मनुस्मृति में वास्तव में बहुत सी बाते परस्पर विरोधी व सिद्धान्त हीन हैं। जिसके कुछ नमूने नीचें हैं।
ये चार (9/92-95) श्लोक निम्नलिखित कारणों से प्रक्षिप्त है— 1. विषयविरोध- मनु के (9/1, 103) में विषय का निर्देश करने वाले श्लोकों से स्पष्ट है कि प्रस्तुत विषय स्त्री-पुरुषों के संयोग-वियोगकालीन धर्मों के कथन का है । किन्तु स्वयंवर विवाह करने वाली कन्या का पिता, माता तथा भाई के धन को लेने पर चोर के समान दोष (92) ऋतुमती कन्या का हरण= लेने वाला पिता को शुल्क न देवें (93) विवाह की वर-वधू की आयु का निर्धारण (94) इत्यादि बातों का वर्णन प्रस्तुत विषय़ से भिन्न होने से विषय़-विरुद्ध है । 2. अन्तर्विरोध- (क) मनु ने स्वयंवर-विवाह का ही विधान किया है और विवाह में माता-पिता आदि कन्या को अलंकारादि से भूषित करे, यह मनु ने (3/55,59) में विधान किया है किन्तु इस 9/92 में पितृ-ग्रह से मिलने वाले आभूषणों को लेने वाली कन्या को चोर कहना पूर्वोक्त विधान से विरुद्ध है । (ख) 93-94 श्लोकों में विवाह के लिये वर-वधू की आयु का निर्धारण मनु के विधान से विपरीत है । इन श्लोकों में कन्या के ऋतुमती होने पर पिता का स्वामित्व समाप्त होना माना है, परन्तु 9/90 श्लोक में मनु ने ऋतुमती होने के बाद तीन वर्ष तक विवाह का निषेध किया है और विवाह की आयु वर की 30 वर्ष और कन्या की 12 वर्ष, वर की 24 वर्ष और कन्या की आठ वर्ष मनु के (3/1-2) विधान से विरुद्ध है । मनु ने (4/1) में आयु के द्वितीय भाग को विवाह के लिये लिखा है । अतः वर-वधू का युवावस्था में विवाह करना चाहिये । 8 अथवा 12 वर्ष की कन्या युवति नहीं होती । ऋतुमती होने के तीन वर्ष बाद कन्या के विवाह का विधान किया है । (9/90) । अतः कन्या के विवाह की आयु का निर्धारण इन श्लोकों में मनु की मान्यता से विरुद्ध है ।
महाभारत वन पर्व अध्याय 209 श्लोक 1-13 नवाधिकद्विशततक (209)
अध्याय: वन पर्व (मार्कण्डेयसमस्या पर्व) महाभारत: वन पर्व: नवाधिकद्विशततक अध्याय: श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद:-
धर्म की सूक्ष्मता, शुभाशुभ कर्म और उनके फल तथा ब्रह्म की प्राप्ति के उपायों का वर्णन मार्कण्डेय जी कहते हैं- सम्पूर्ण धर्मात्माओं में श्रेष्ठ युधिष्ठिर! तदनन्तर धर्मव्याध ने विप्रवर कौशिक से पुन: कुशलतापूर्वक कहना आरम्भ किया। व्याध बोला- वृद्ध पुरुषों का कहना है कि ‘धर्म के विषय में केवल वेद ही प्रमाण है।' यह ठीक है, तो भी धर्म की गति बड़ी सूक्ष्म है। उसके अनन्त भेद और अनेक शाखाएं हैं।
(वेद के अनुसार सत्य धर्म और असत्य अधर्म है, परंतु) यदि किसी के प्राणों पर संकट आ जाये अथवा कन्या आदि का विवाह तै करना हो तो ऐसे अवसरों पर प्राणरक्षा आदि के लिये झूठ बोलने की आवश्यकता पड़ जाये, तो वहाँ असत्य से ही सत्य का फल मिलता है।
इसके विपरीत (यदि सत्यभाषण से किसी के प्राणों पर संकट आ गया, तो वहां) सत्य से ही असत्य का फल मिलता है, जिससे परिणाम में प्राणियों का अत्यन्त हित होता हो, वह वास्तव में सत्य है। इसके विपरीत जिससे किसी का अहित होता हो या दूसरों के प्राण जाते हों, वह देखने में सत्य होने पर भी वास्तव में असत्य एवं अधर्म है।इस प्रकार विचार करके देखिये, धर्म की गति कितनी सूक्ष्म है।
सज्जनशिरोमणे! मनुष्य जो शुभ या अशुभ कार्य करता है, उसका फल उसे अवश्य भोगना पड़ता है, इसमें संशय नहीं है।
मूर्ख मानव संकट की दशा में पड़ने पर देवताओं को बहुत कोसता है, उनकी भरपेट निन्दा करता है; किंतु वह यह नहीं समझता कि यह अपने ही कर्मों के दोष का परिणाम है।
द्विजश्रेष्ठ! मूर्ख, शठ और चंचल चित्त वाला मनुष्य सदा ही भ्रमवंश सुख में दु:ख और दु:ख में सुख बुद्धि कर लेता है।
उस समय बुद्धि, उत्तम नीति (शिक्षा) तथा पुरुषार्थ भी उसकी रक्षा नहीं कर पाते। यदि पुरुषार्थजनित कर्म का फल पराधीन न होता, तो जिसकी जो इच्छा होती, उसी को वह प्राप्त कर लेता।
किंतु बड़े-बड़े संयमी, कार्यकुशल और बुद्धिमान मनुष्य भी अपना काम करते-करते थक जाते हैं, तो भी वे इच्छानुसार फल की प्राप्ति से वंचित ही देखे जाते हैं तथा दूसरा मनुष्य, जो निरन्तर जीवों की हिंसा के लिये उद्यत रहता है और सदा लोगों को ठगने में ही लगा रहता है, वह सुखपूर्वक जीवन बिताता देखा जाता है।
कोई बिना उद्योग किये चुपचाप बैठा रहता है और लक्ष्मी उसकी सेवा में उपस्थित हो जाती है और कोई सदा काम करते रहने पर भी अपने उचित वेतन से भी वंचित रह जाता है (ऐसा देखा जाता है)। कितने ही दीन मनुष्य पुत्र की कामना रखकर देवताओं को पूजते और कठिन तपस्या करते हैं, तो भी उनके द्वारा गर्भ में स्थापित तथा दस मास तक माता के उदर में पालित होकर जो पुत्र पैदा होते हैं, वे कुलांगार निकल जाते हैं और दूसरे बहुत-से ऐसे भी हैं, जो अपने पिता के द्वारा जोड़कर रखे हुए धन-धान्य तथा भोग-विलास के प्रचुर साधनों के साथ पैदा होते हैं और उनकी प्राप्ति भी उन्हीं मांगलिक कृत्यों के अनुष्ठान से होती है। टीका टिप्पणी और संदर्भ ऊपर जायें↑ कर्णपर्व के उनहत्तरवें अध्याय में 46वें से 53वें श्लोकों में एक कथा आती है।
कौशिक नाम का तपस्वी ब्राह्मण था। उसने यह व्रत ले लिया कि मैं सदा सत्य बोलूँगा। एक दिन कुछ लोग लुटेरों के भय से छिपने के लिए उसके आश्रम के पास के वन में घुस गये। खोज करते हुए लुटेरों ने सत्यवादी कौशिक से पूछा। उनके पूछने पर कौशिक ने सत्य बात कह दी।
पता लग जाने पर उन निर्दयी डाकुओं ने उन लोगों को पकड़कर मार डाला। इस प्रकार सत्य बोलने के कारण लोगों की हिंसा हो जाने से उस पाप के फलस्वरूप कौशिक को नरक में जाना पड़ा।
मार्कण्डेय उवाच। 3-212-1
स तु विप्रमथोवाच धर्मव्याधो युधिष्ठिर। यदहं ह्याचरे कर्म घोरमेतदसंशयम् ।1।
विधिस्तु बलवान्ब्रह्मन्दुस्तरं हि पुरा कृतम्। पुरा कृतस् पापस्य कर्मदोषो भवत्ययम् ।-2।
दोपस्यैतस्य वै ब्रह्मन्विघाते यत्नवानहम्। विधिना हि हते पूर्वं निमित्तं घातको भवेत् ।3।
निमित्तभूता हि वयं कर्मणोऽस्य द्विजोत्तम ।।4।
येषां हतानां मांसानि विक्रीणीमो वयं द्विज।तेषामपि भवेद्धर्म उपयोगेन भक्षणात्।देवतातिथिभृत्यानां पितृणां चापि पूजनात् ।5।
ओषध्यो वीरुधश्चैव पशवो मृगपक्षिणः।अन्नाद्यभूता लोकस्य इत्यपि श्रूयते श्रुतिः।6।
आत्ममांसप्रसादेन शिबिरौशीनरो नृपः। स्वर्गं सुदुर्लभं प्राप्तः क्षमावान्द्विजसत्तम ।7।
राज्ञो महानसे पूर्वं रन्तिदेवस्य वै द्विज। द्वे सहस्रे तु पच्छेते पशूनामन्वहं तदा।]
अहन्यहनि पच्येते द्वे सहस्रे गवां तथा ।8।
स मासं ददतो ह्यन्नं रन्तिदेवस्य नित्यशः। अतुला कीर्तिरभवन्नृपस्य द्विजसत्तम ।9।
चातुर्मास्ये च पशवो वध्यन्त इति नित्यशः। अग्नयो मांसकामाश्चइत्यपि श्रूयते श्रुतिः ।10।
"यज्ञार्थं पशवः सृष्टाः स्वयं एव स्वयंभुवा । यज्ञोऽस्य भूत्यै सर्वस्य तस्माद्यज्ञे वधोऽवधः।39। (मनुस्मृति अध्याय- 5)
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यह श्लोक है और मनु स्मृति का भाग है जिसमें बताया गया है कि सृष्टा ने पशुओं को यज्ञ बलि के लिए उत्पन्न किया है।
यज्ञार्थं पशवः सृष्टाः स्वयं एव स्वयंभुवा । यज्ञोऽस्य भूत्यै सर्वस्य तस्माद्यज्ञे वधोऽवधः।।
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यज्ञेषु पशवो ब्रह्मन्वध्यन्ते सततं द्विजैः। संस्कृताः किल मन्त्रैश्च तेऽपि स्वर्गमवाप्नुवन् ।।3-212-11
आहवेषु मिथोऽन्योन्यं जिघांसन्तो महीक्षितः ।युद्धमानाः परं शक्त्या स्वर्ग यान्त्यपराङ्मुखाः ॥
यज्ञेषु पशवो ब्रह्मन् हन्यन्ते सततं द्विजैः । संस्कृताः किल मन्त्रैश्च तेऽपि स्वर्गमवाप्नुवन् ॥
अनुवाद:-“युद्ध में विरोधी ईर्ष्यालु राजा से संघर्ष करते हुए मरने वाले राजा या क्षत्रिय को मृत्यु के अनन्तर वे ही उच्चलोक स्वर्ग प्राप्त होते हैं ।।
जिनकी प्राप्ति यज्ञाग्नि में मारे गये पशुओं को होती है।” अतः धर्म के लिए युद्धभूमि में वध करना तथा याज्ञिक अग्नि के लिए पशुओं का वध करना हिंसा कार्य नहीं माना जाता क्योंकि इसमें निहित धर्म के कारण प्रत्येक व्यक्ति को लाभ पहुँचता है । और यज्ञ में बलि दिये गये पशु को एक स्वरूप से दूसरे में बिना विकास प्रक्रिया के ही तुरन्त मनुष्य का शरीर प्राप्त हो जाता है
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श्री महाभारत पर्व 9: शल्य पर्व अध्याय 41: अवाकीर्ण और यायात तीर्थकी महिमाके प्रसंगमें दाल्भ्यकी कथा और ययातिके यज्ञका वर्णन
श्लोक 1-3: वैशम्पायनजी कहते हैं—राजन्! ब्राह्मणत्वकी प्राप्ति करानेवाले उस तीर्थसे प्रस्थित होकर यदुनन्दन बलरामजी ‘अवाकीर्ण’ तीर्थमें गये, जहाँ आश्रममें रहते हुए महातपस्वी धर्मात्मा एवं प्रतापी दलभपुत्र बकने महान् क्रोधमें भरकर घोर तपस्याद्वारा अपने शरीरको सुखाते हुए विचित्रवीर्यकुमार राजा धृतराष्ट्रके राष्ट्रका होम कर दिया था ॥ १-२ ॥
श्लोक 3-6: पूर्वकालमें नैमिषारण्यनिवासी ऋषियोंने बारह वर्षोंतक चालू रहनेवाले एक सत्रका आरम्भ किया था। जब वह पूरा हो गया, तब वे सब ऋषि विश्वजित् नामक यज्ञके अन्तमें पांचाल देशमें गये। वहाँ जाकर उन मनस्वी मुनियोंने उस देशके राजासे दक्षिणाके लिये धनकी याचना की ॥ राजन्! वहाँ महर्षि योंने पांचालोंसे इक्कीस बलवान् और नीरोग बछड़े प्राप्त किये। तब उनमेंसे दल्भपुत्र बकने अन्य सब ऋषियोंसे कहा—‘आपलोग इन पशुओंको बाँट लें। मैं इन्हें छोड़कर किसी श्रेष्ठ राजासे दूसरे पशु माँग लूँगा’ ॥ ५ ॥
श्लोक 6-7: नरेश्वर! उन सब ऋषियोंसे ऐसा कहकर वे प्रतापी उत्तम ब्राह्मण राजा धृतराष्ट्रके घरपर गये ॥ ६ ॥
श्लोक 7-9: निकट जाकर दल्भ्यने कौरवनरेश धृतराष्ट्रसे पशुओंकी याचना की। यह सुनकर नृपश्रेष्ठ धृतराष्ट्र कुपित हो उठे। उनके यहाँ कुछ गौएँ दैवेच्छासे मर गयी थीं। उन्हींको लक्ष्य करके राजाने क्रोधपूर्वक कहा—‘ब्रह्मबन्धो! यदि पशु चाहते हो तो इन मरे हुए पशुओंको ही शीघ्र ले जाओ’ ॥ ७-८ ॥
श्लोक 9-10: उनकी वैसी बात सुनकर धर्मज्ञ ऋषिने चिन्तामग्न होकर सोचा—‘अहो! बड़े खेदकी बात है कि इस राजाने भरी सभामें मुझसे ऐसा कठोर वचन कहा है’ ॥ ९ ॥
श्लोक 10-11: दो घड़ीतक इस प्रकार चिन्ता करके रोषमें भरे हुए द्विजश्रेष्ठ दाल्भ्यने राजा धृतराष्ट्रके विनाशका विचार किया ॥१०॥
श्लोक 11- 12: श्लोक वे मुनिश्रेष्ठ उन मृत पशुओंके ही मांस काट-काटकर उनके द्वारा राजा धृतराष्ट्रके राष्ट्रकी ही आहुति देने लगे ।११।
श्लोक 12-13: महाराज! सरस्वतीके अवाकीर्णतीर्थमें अग्नि प्रज्वलित करके महातपस्वी दल्भपुत्र बक उत्तम नियमका आश्रय ले उन मृत पशुओंके मांसोंद्वारा ही उनके राष्ट्रका हवन करने लगे ॥ १२-१३ ॥
श्लोक 14: राजन् ! वह भयंकर यज्ञ जब विधिपूर्वक आरम्भ हुआ, तबसे धृतराष्ट्रका राष्ट्र क्षीण होने लगा ॥ १४ ॥
श्लोक 15-16: प्रभो! जैसे बड़ा भारी वन कुल्हाड़ीसे काटा जा रहा हो, उसी प्रकार उस राजाका राज्य क्षीण होता हुआ भारी आफतमें फँस गया, वह संकटग्रस्त होकर अचेत हो गया ॥ १५ ॥
श्लोक 16-17: राजन्! अपने राष्ट्रको इस प्रकार संकटमग्न हुआ देख वे नरेश मन-ही-मन बहुत दुःखी हुए और गहरी चिन्तामें डूब गये। फिर ब्राह्मणोंके साथ अपने देशको संकटसे बचानेका प्रयत्न करने लगे ॥ १६-१७ ॥
श्लोक 18: अनघ! जब किसी प्रकार भी वे भूपाल अपने राष्ट्रका कल्याण-साधन न कर सके और वह दिन-प्रतिदिन क्षीण होता ही चला गया, तब राजा और उन ब्राह्मणोंको बड़ा खेद हुआ ॥ १८ ॥
श्लोक 19: नरेश्वर जनमेजय! जब धृतराष्ट्र अपने राष्ट्रको उस विपत्तिसे छुटकारा दिलानेमें समर्थ न हो सके, तब उन्होंने प्राश्निकों (प्रश्न पूछनेपर भूत, वर्तमान और भविष्यकी बातें बतानेवालों)-को बुलाकर उनसे इसका कारण पूछा ॥ १९ ॥
श्लोक 20: तब उन प्राश्निकोंने कहा—‘आपने पशुके लिये याचना करनेवाले बक मुनिका तिरस्कार किया है; इसलिये वे मृत पशुओंके मांसोंद्वारा आपके इस राष्ट्रका विनाश करनेकी इच्छासे होम कर रहे हैं ॥ २० ॥
श्लोक 21: ‘उनके द्वारा आपके राष्ट्रकी आहुति दी जा रही है; इसलिये इसका महान् विनाश हो रहा है। यह सब उनकी तपस्याका प्रभाव है, जिससे आपके इस देशका इस समय महान् विलय होने लगा है ॥ २१ ॥
श्लोक 22: ‘भूपाल! सरस्वतीके कुंजमें जलके समीप वे मुनि विराजमान हैं, आप उन्हें प्रसन्न कीजिये।’ तब राजाने सरस्वतीके तटपर जाकर बक मुनिसे इस प्रकार कहा ॥ २२ ॥
श्लोक 23-24: भरतश्रेष्ठ! वे पृथ्वीपर माथा टेक हाथ जोड़कर बोले—‘भगवन्! मैं आपको प्रसन्न करना चाहता हूँ। आप मुझ दीन, लोभी और मूर्खतासे हतबुद्धि हुए अपराधीके अपराधको क्षमा कर दें। आप ही मेरी गति हैं। आप ही मेरे रक्षक हैं। आप मुझपर अवश्य कृपा करें’ ॥ २३-२४ ॥
श्लोक 25: राजा धृतराष्ट्रको इस प्रकार शोकसे अचेत होकर विलाप करते देख उनके मनमें दया आ गयी और उन्होंने राजाके राज्यको संकटसे मुक्त कर दिया ॥ २५ ॥
श्लोक 26-27: ऋषि क्रोध छोड़कर राजापर प्रसन्न हुए और पुनः उनके राज्यको संकटसे बचानेके लिये आहुति देने लगे ॥ इस प्रकार राज्यको विपत्तिसे छुड़ाकर राजासे बहुत-से पशु ले प्रसन्नचित्त हुए महर्षि दाल्भ्य पुनः नैमिषारण्यको ही चले गये ॥ २७ ॥
श्लोक 28-30: राजन्! फिर महामनस्वी धर्मात्मा धृतराष्ट्र भी स्वस्थचित्त हो अपने समृद्धिशाली नगरको ही लौट आये ॥ महाराज! उसी तीर्थमें उदारबुद्धि बृहस्पतिजीने असुरोंके विनाश और देवताओंकी उन्नतिके लिये मांसोंद्वारा आभिचारिक यज्ञका अनुष्ठान किया था। इससे वे असुर क्षीण हो गये और युद्धमें विजयसे सुशोभित होनेवाले देवताओंने उन्हें मार भगाया ॥ २९-३० ॥
श्लोक 31-32: पृथ्वीनाथ! महायशस्वी महाबाहु बलरामजी उस तीर्थमें भी ब्राह्मणोंको विधिपूर्वक हाथी, घोड़े, खच्चरियोंसे जुते हुए रथ, बहुमूल्य रत्न तथा प्रचुर धन-धान्यका दान करके वहाँसे यायात तीर्थमें गये ॥ ३१-३२ ॥
श्लोक 33: महाराज! वहाँ पूर्वकालमें नहुषनन्दन महात्मा ययातिने यज्ञ किया था, जिसमें सरस्वतीने उनके लिये दूध और घीका स्रोत बहाया था ॥ ३३ ॥
श्लोक 34: पुरुषसिं ह भूपाल ययाति वहाँ यज्ञ करके प्रसन्नतापूर्वक ऊर्ध्वलोकमें चले गये और वहाँ उन्हें बहुत-से पुण्यलोक प्राप्त हुए ॥ ३४ ॥
श्लोक 35-36: शक्तिशाली राजा ययाति जब वहाँ यज्ञ कर रहे थे, उस समय उनकी उत्कृष्ट उदारताको दृष्टिमें रखकर और अपने प्रति उनकी सनातन भक्ति देख सरस्वतीने उस यज्ञमें आये हुए ब्राह्मणोंको, जिसने अपने मनसे जिन-जिन भोगोंको चाहा, वे सभी मनोवांछित भोग प्रदान किये ॥ ३५ ॥
श्लोक 36-37: राजाके यज्ञमण्डपमें बुलाकर आया हुआ जो ब्राह्मण जहाँ कहीं ठहर गया, वहीं उसके लिये सरिताओंमें श्रेष्ठ सरस्वतीने पृथक्-पृथक् गृह, शय्या, आसन, षड् रस भोजन तथा नाना प्रकारके दानकी व्यवस्था की ॥ ३६-३७ ॥
श्लोक 38: उन ब्राह्मणोंने यह समझकर कि राजाने ही वह उत्तम दान दिया है, अत्यन्त प्रसन्न होकर राजा ययातिको शुभाशीर्वाद दे उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की ॥ ३८ ॥
श्लोक 39: उस यज्ञकी सम्पत्तिसे देवता और गन्धर्व भी बड़े प्रसन्न हुए थे। मनुष्योंको तो वह यज्ञ- वैभव देखकर महान् आश्चर्य हुआ था ॥ ३९ ॥
श्लोक 40: तदनन्तर महान् धर्म ही जिनकी ध्वजा है और जिनकी पताकापर ताड़का चिह्न सुशोभित है, वे महात्मा, कृतात्मा, धृतात्मा तथा जितात्मा बलरामजी, जो प्रतिदिन बड़े- बड़े दान किया करते थे, वहाँसे वसिष्ठापवाह नामक तीर्थमें गये, जहाँ सरस्वतीका वेग बड़ा भयंकर है ॥ ४० ॥
१- "सात्विक यज्ञ:- जो यज्ञ वैष्णवों द्वारा बिना किसी हिंसा अथवा जीव जन्तु को हानि पहुचाते हुए सम्पन्न होते थे वे सात्विक यज्ञ कहलाते थे।
२- राजसिक यज्ञ:- सरे वे यज्ञ राजाओं द्वारा कुछ सात्विक और कुछ तामसिक क्रियाओं से युक्त थे और
३- "तामसिक यज्ञ:-श्रेणी के यज्ञ पूर्णत: तामसिक यज्ञ होते थे जिनके सम्पन्न करने में पशुओं और पक्षीयों की बलि दी जाती थी ये प्राय: तान्त्रिकों और वाममार्गीयों द्वारा किए जाते थे।
ऋग्वेद में ' अश्वमेध ' शब्द अपने तद्धित रूप ' आश्वमेध ' के रूप के साथ पाँच बार आया है ,
"अश्वः प्रधानतया मेध्यते हिंस्यतेऽत्र मेध--हिंसने+ घञ् । यज्ञभेदे स च शतपथ ब्राह्मण १३ काण्डे पञ्चभिर्ध्यायैरुक्तः । यजुर्वेद २४ अध्याय । तदीययूपशुविशेषा विहिता यथा । तत्राद्यमन्त्रोपोद्घाते यजु० वे० दी० उक्तम् अश्वमेधे एकविंशतिर्यूपा सन्ति तत्र मध्यमोयूपोऽग्नि- ष्ठसंज्ञः तत्र सप्तदश पशवोनियोजनीयाः( वाचस्पत्यम् कोश)
अश्वमेध शब्द का अर्थ है ' अश्वः प्रधानतया मेध्यते हिंस्यतेऽत्र , मेधु हिंसने +घञ् ' अर्थात् जिसमें मुख्य करके धोड़े का वध किया जाए वह अश्वमेध है ; मेध् धातु से , जिसका अर्थ मारना है , घञ् प्रत्यय लगाने पर मेध शब्द सिद्ध होता है।
शब्दकल्पद्रम के अनुसार अश्वमेध शब्द का विवरण इस प्रकार है -
"यत्र लक्षणविशेषाक्रान्तमश्वं संप्रोक्ष्य कपाले जयपत्रं बद्ध्वा त्यजेत्।
तद्रक्षार्थ पुरुषविशेषं नियोजयेत् संवत्सरान्ते अश्वे आगते सति अथवा केनापि संवद्धे युद्धं कृत्वा तमानीय यथाविधि वधं कृत्वा तद्वपया होमः कर्तव्यः। कामनानुसारेण तत्फलम् ; मोक्षः , ब्रह्महत्या पापचयः , स्वर्गश्च।
अर्थ - जिस यज्ञ में लक्षण - विशेषों से युक्त घोड़े को , उस पर पवित्र करनेवाले जल को मंत्रोच्चारणपूर्वक छिड़ककर तथा उसके कपाल पर जयपत्र बाँधकर छोड़ दिया जाता है। उसकी रक्षा के लिए पुरुष - विशेषों को नियुक्त कर दिया जाता है । वर्ष के अन्त में घोड़े के लौट आने पर वा यदि किसी ने उस घोड़े को बाँध रखा , तो उस बाँधनेवाले को युद्ध में हराकर घोड़े को वापस लाने पर उसे शास्त्रोक्त विधि के अनुसार मारकर उसकी चर्बी से होम किया जाता है । कामना के अनुसार फल की प्राप्ति होती है । मोक्ष , ब्रह्महत्या जनित पाप का नाश , स्वर्ग आदि इसके फल हैं ।
अभिनव गुप्त ने भी अपने तन्त्रसार ग्रन्थ में चतुर्दशाह्निकम् में लिखा है।
"ततोऽग्नौ परमेश्वरं तिलाज्यादिभिः सन्तर्प्य तदग्रेऽन्यं पशुं वपाहोमार्थं कुर्याद्देवताचक्रं तद्वपया तर्पयेत्पुनर्मण्डलं पूजयेत्ततः परमेश्वरं विज्ञप्य सर्वाभिन्नसमस्तषडध्वपरिपूर्णमात्मानं भावयित्वा शिष्यं पुरोऽवस्थितं कुर्यात्।
वपा= चरबी। मेद। तद्वपया=उस चरबी के द्वारा !
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आश्वलायन श्रौत सूत्र (10। 6। 1) का कथन है कि जो सब पदार्थो को प्राप्त करना चाहता है, सब विजयों का इच्छुक होता है और समस्त समृद्धि पाने की कामना करता है वह इस यज्ञ का अधिकारी है।
इसलिए सार्वीभौम के अतिरिक्त भी मूर्धाभिषिक्त राजा अश्वमेध कर सकता था (आप.श्रौत. 20। 1। 1।; लाट्यायन 9। 10। 17)। यह अति प्राचीन यज्ञ प्रतीत होता है क्योंकि ऋग्वेद के दो सूक्तों में (1। 162; 1। 163) अश्वमेधीय अश्व तथा उसके हवन का विशेष विवरण दिया गया है। शतपथ (13। 1-5) तथा तैतिरीय ब्राह्मणों (3। 8-9) में इसका बड़ा ही विशद वर्णन उपलब्ध है जिसका अनुसरण श्रौत सूत्रों, वाल्मीकीय रामायण (1। 13), महाभारत के आश्वमेधिक पर्व में तथा जैमिनीय अश्वमेध में किया गया है।
ऋग्वेद के सूक्त मे आप अश्वमेध का वर्णन देख सकते हैं -
सायण ने ऋग्वेद मंडल १ , सूक्त १६२ के मंत्रों को अश्वमेध यज्ञ से सम्बन्धित किया है । प्रायः बहुत से लोगों का विचार है कि ऋग्वेद के १६२ सूक्त में 'अश्वमेध ' का वर्णन है । परन्तु यदि मंत्रों की अन्तःसाक्षी ली जाय तो किसी मंत्र से घोड़े के यज्ञ में मारने का विधान नहीं मिलता ।
अश्वमेघ शब्द तो समस्त सूक्त में है ही नहीं , ' अश्व ' शब्द अवश्य है । और इस सूक्त का देवता ' अश्व ' मानने में भी कल्पना से काम लिया गया गया है । सायण लिखते हैं - ' या तेनोच्यते सा देवता ' इति न्यायेन अश्व देवता ' । अर्थात् ' अश्व ' की स्तुति होने के कारण इस सूक्त का देवता ' अश्व ' है । ' अनुक्रमणिका ' के आधार पर ' अश्वमेधस्य मध्यमे ऽहनि अध्रिगु प्रैषे ' श्रधि गोशमीध्वम् ' , इति । यह मान लिया कि समस्त सूक्त में अश्वमेध यज्ञ में घोड़ा मारने का उल्लेख है ।
'त्रीणि सुत्यानि भवन्ति ' इति खण्डे सूत्रितम् ' अधिगो शर्माध्व मिति शिष्ट्वा षड्विंशतिरस्य वऽक्रय इति वा मानो मित्र इत्यावपेत ( आश्वलायन ० सू ० १०८ ) इति।
अर्थात् वेद के मंत्रों में तो स्पष्ट विधि है नहीं , आश्वलायन श्रौत सूत्र आदि में विस्तार दिया है । उसी के साथ संगति बिठा लेने के लिये समस्त सूक्त का वैसा ही अर्थ किया गया ।
अब रामायण के बाल काण्ड मे अश्वमेध यज्ञ का वर्णन देखे -
श्री रामायण काण्ड 1: बाल काण्ड अध्याय 14: महाराज दशरथ के द्वारा अश्वमेध यज्ञ का सांगोपांग अनुष्ठान श्लोक 30 |
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श्लोक 1.14.30 |
नियुक्तास्तत्र पशवस्तत्तदुद्दिश्य दैवतम्। उरगाः पक्षिणश्चैव यथाशास्त्रं प्रचोदिताः॥३०॥ |
अनुवाद:- |
वहाँ पूर्वोक्त यूपोंमें शास्त्रविहित पशु, सर्प और पक्षी विभिन्न देवताओंके उद्देश्यसे बाँधे गये थे। |
श्री रामायण काण्ड 1: बाल काण्ड अध्याय 14: महाराज दशरथ के द्वारा अश्वमेध यज्ञ का सांगोपांग अनुष्ठान श्लोक 31 | |||||||||||||||||||||||||||||||||||
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श्लोक 1.14.31 | |||||||||||||||||||||||||||||||||||
शामित्रे तु हयस्तत्र तथा जलचराश्च ये। ऋषिभिः सर्वमेवैतन्नियुक्तं शास्त्रतस्तदा॥३१॥ | |||||||||||||||||||||||||||||||||||
अनुवाद:- | |||||||||||||||||||||||||||||||||||
शामित्र कर्म में यज्ञिय अश्व तथा कूर्म आदि जलचर जन्तु जो वहाँ लाये गये थे, ऋषियों ने उन सबको शास्त्रविधिके अनुसार पूर्वोक्त यूपों में बाँध दिया।
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वाल्मीकि रामायण महाभारत , आश्वलायन आदि गृह्य सूत्रों , शतपथ आदि ब्राह्मणों में अश्वमेध यज्ञ का वर्णन कई रूपों से मिलता है रूप भी भिन्न भिन्न है।
विधियां भी भिन्न -भिन्न हैं और उन विधियों के आधार रूप गाथायें भी भिन्न - भिन्न हैं कहीं - कहीं तो अप्राकृतिकता और अश्लीलता ने घोर रूप धारण कर लिया है , जैसे महीधर कृत यजुर्वेद भाष्य में देखो यजुर्वेद - भाष्य , अध्याय २३ , मन्त्र १९ आदि इनके विषय में ग्रिफिथ तक को लिखना पड़ा कि यह मंत्र इतने अश्लील हैं कि मैं इनका अनुवाद अंग्रजी भाषा में कर ही नहीं सकता।
पाश्चात्य विद्वान लिखते हैं कि , अश्वमेध यज्ञ का एक आवश्यक हिस्सा यह था कि मेधित (मृत अश्व ) का लिंग यजमान की मुख्य पत्नी की योनि में ब्राह्मणों द्वारा पर्याप्त मंत्रोच्चारण करते हुए डाला जाता था ।
वाजसनेयी संहिता का एक मंत्र- 23 .18 प्रकट करता है कि रानियों के बीच इस बात के लिए प्रतिस्पर्धा रहा करती थी कि घोड़े से योजित होने का श्रेय किसे प्राप्त होता है। जो इस विषय में और अधिक जानना चाहते हैं , वे यजुर्वेद की महीधर की टीका में ज्यादा विस्तार से पढ़ सकते हैं , जहां वह इस बीभत्स अनुष्ठान का पूरा विवरण देते हैं जो वैदिक धर्म का अंग था ।
इस विषय पर भिक्षु निर्गुणानंद की पुस्तक का ये उद्धरण पढे़ -
“अश्वमेध यज्ञ में एक घोड़े को विधिवत अभिषिक्त करके अन्य १०० घोड़ों के साथ स्वतन्त्र विचरने के लिए छोड़ दिया जाता था । उसके संरक्षण के लिए सैनिकों की एक टुकड़ी साथ - साथ चलती थी। एक प्रकार से यह घोड़ा दूसरे राजाओं के लिए अपने - अपने बलाबल का परीक्षण करने का चेलेंज था । उसके बाद लगभग एक वर्ष तक राजा अपनी रानी और उसकी बांदियों को साथ लेकर प्रतिदिन यज्ञ करता रहता था।
वर्ष की समाप्ति पर घोड़ा वापस मंगा लिया जाता था । अनेक क्रिया - कलापों के अनन्तर घोड़े की हत्या कर दी जाती थी और उसका मांस भूना जाता था
घोड़े का अभिषेक करते समय रानी ( गृह पत्नी ) घोड़े से । कहती थी कि हे अश्व ! तू मेरे पास आ , मैं तेरे वीर्य को अपने अन्दर धारण करूगो , मैं तुम्हारे वीर्य से गभित होना चाहती हूँ ; यही कहते - कहते वह घोड़े की मूत्रन्द्रिय को लेकर अपनी भग में घुसेड़ लेती थी । तब अन्य पत्नियों द्वारा भी इसी प्रकार पूजा की जाती थी। (यजुर्वेद २३ - १६ - २१ ) । ”
आश्वमेधिकाहुति मन्त्राः
23.1
हिरण्यगर्भः सम् अवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिर् एकऽआसीत् ।
स दाधार पृथिवीं द्याम् उतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम॥
23.2
उपयामगृहीतो ऽसि प्रजापतये त्वा जुष्टं गृह्णामि ।
एष ते योनिः सूर्यस् ते महिमा ।
यस् ते ऽहन्त् संवत्सरे महिमा संबभूव यस् ते वायाव् अन्तरिक्षे महिमा संबभूव यस् ते दिवि सूर्ये महिमा संबभूव तस्मै ते महिम्ने प्रजापतये स्वाहा देवेभ्यः ॥
23.3
यः प्राणतो निमिषतो महित्वैक ऽ इद् राजा जगतो बभूव ।
य ऽ ईशे ऽ अस्य द्विपदश् चतुष्पदः कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥
23.4
उपयामगृहीतो ऽसि प्रजापतये त्वा जुष्टं गृह्णामि ।
एष ते योनिश् चन्द्रस् ते महिमा ।
यस् ते रात्रौ संवत्सरे महिमा संबभूव यस् ते पृथिव्याम् अग्नौ महिमा संबभूव यस् ते नक्षत्रेषु चन्द्रमसि महिमा संबभूव तस्मै ते महिम्ने प्रजापतये देवेभ्यः स्वाहा ॥
23.5
युञ्जन्ति ब्रध्नम् अरुषं चरन्तं परि तस्थुषः ।
रोचन्ते रोचना दिवि ॥
23.6
युञ्जन्त्य् अस्य काम्या हरी विपक्षसा रथे ।
शोणा धृष्णू नृवाहसा ॥
23.7
यद् वातो ऽ अपो ऽ अगनीगन् प्रियाम् इन्द्रस्य तन्वम् ।
एतꣳ स्तोतर् अनेन पथा पुनर् अश्वम् आ वर्तयासि नः॥
23.8
वसवस् त्वाञ्जन्तु गायत्रेण छन्दसा ।
रुद्रास् त्वाञ्जन्तु त्रैष्टुभेन छन्दसा ।
आदित्यास् त्वाञ्जन्तु जागतेन छन्दसा ।
भूर् भुवः स्वर् लाजी3ञ् छाची3न् यव्ये गव्यऽ एतद् अन्नम् अत्त देवा ऽ एतद् अन्नम् अद्धि प्रजापते ॥
23.9
कः स्विद् एकाकी चरति क ऽ उ स्विज् जायते पुनः ।
किꣳ स्विद्धिमस्य भेषजं किम् व् आवपनं महत् ॥
23.10
सूर्य ऽ एकाकी चरति चन्द्रमा जायते पुनः ।
अग्निर् हिमस्य भेषजं भूमिर् आवपनं महत् ॥
23.11
का स्विद् आसीत् पूर्वचित्तिः किꣳ स्विद् आसीद् बृहद् वयः ।
का स्विद् आसीत् पिलिप्पिला का स्विद् आसीत् पिशङ्गिला ॥
23.12
द्यौर् आसीत् पूर्वचित्तिः अश्व ऽ आसीद् बृहद् वयः
अविर् आसीत् पिलिप्पिला रात्रिर् आसीत् पिशङ्गिला ॥
23.13
वायुष् ट्वा पचतैर् अवतु ।
असितग्रीवश् छागैः ।
न्यग्रोधश् चमसैः ।
शल्मलिर् वृद्ध्या ।
एष स्य राथ्यो वृषा ।
पड्भिश् चतुर्भिर् एद् अगन् ।
ब्रह्माकृष्णश् च नो ऽवतु ।
नमो ऽग्नये ॥
23.14
सꣳशितो रश्मिना रथः सꣳशितो रश्मिना हयः ।
सꣳशितो अप्स्व् अप्सुजा ब्रह्मा सोमपुरोगवः ॥
23.15
स्वयं वाजिꣳस् तन्वं कल्पयस्व स्वयं यजस्व स्वयं जुषस्व ।
महिमा ते ऽन्येन न संनशे ॥
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23.16
न वा ऽ उ ऽ एतन् म्रियसे न रिष्यसि देवाꣳ२ऽ इद् एषि पथिभिः सुगेभिः ।
यत्रासते सुकृतो यत्र ते ययुस् तत्र त्वा देवः सविता दधातु ॥
23.17
अग्निः पशुर् आसीत् तेनायजन्त स ऽ एतं लोकम् अजयद् यस्मिन्न् अग्निः स ते लोको भविष्यति तं जेष्यसि पिबैता ऽ अपः ।
वायुः पशुर् आसीत् तेनायजन्त स ऽ एतं लोकम् अजयद् यस्मिन् वायुः स ते लोको भविष्यति तं जेष्यसि पिबैता ऽ अपः ।
सूर्यः पशुर् आसीत् तेनायजन्त स ऽ एतं लोकम् अजयद् यस्मिन्त् सूर्यः स ते लोको भविष्यति तं जेष्यसि पिबैता ऽ अपः ॥
23.18
प्राणाय स्वाहा ।
अपानाय स्वाहा ।
व्यानाय स्वाहा अम्बे ऽ अम्बिके ऽम्बालिके न मा नयति कश् चन ।
ससस्त्य् अश्वकः सुभद्रिकां काम्पीलवासिनीम्
23.19
गणानां त्वा गणपतिꣳ हवामहे प्रियाणां त्वा प्रियपतिꣳ हवामहे निधीनां त्वा निधिपतिꣳ हवामहे वसो मम ।
आहम् अजानि गर्भधम् आ त्वम् अजासि गर्भधम् ॥
23.20
ता ऽ उभौ चतुरः पदः सम्प्र सारयाव स्वर्गे लोके प्रोर्णुवाथां वृषा वाजी रेतोधा रेतो दधातु
23.21
उत्सक्थ्या ऽ अव गुदं धेहि सम् अञ्जिं चारया वृषन् ।
य स्त्रीणां जीवभोजनः ॥
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23.22
यकासकौ शकुन्तिकाहलग् इति वञ्चति ।
आ हन्ति गभे पसो निगल्गलीति धारका ॥
23.23
यको ऽसकौ शकुन्तक ऽ आहलग् इति वञ्चति ।
विवक्षत ऽ इव ते मुखम् अध्वर्यो मा नस् त्वम् अभि भाषथाः ॥
23.24
माता च ते पिता च ते ऽग्रं वृक्षस्य रोहतः ।
प्रतिलामीति ते पिता गभे मुष्टिम् अतꣳसयत् ॥
23.25
माता च ते पिता च ते ऽग्रे वृक्षस्य क्रीडतः ।
विवक्षत ऽइव ते मुखं ब्रह्मन् मा नस् त्वं वदो बहु ॥
23.26
ऊर्ध्वम् एनाम् उच्छ्रापय गिरौ भारꣳ हरन्न् इव ।
अथास्यै मध्यम् एधताꣳ शीते वाते पुनन्न् इव ॥
23.27
ऊर्ध्वम् एनम् उच्छ्रापय गिरौ भारꣳ हरन्न् इव ।
अथास्य मध्यम् एजतु शीते वाते पुनन्न् इव ॥
23.28
यद् अस्या ऽ अꣳहुभेद्याः कृधु स्थूलम् उपातसत् ।
मुष्काविदस्या ऽ एजतो गोशफे शकुलाव् इव ॥
23.29
यद् देवासो ललामगुं प्र विष्टीमिनम् आविषुः ।
सक्थ्ना देदिश्यते नारी सत्यस्याक्षिभुवो यथा ॥
23.30
यद्धरिणो यवम् अत्ति न पुष्टं पशु मन्यते ।
शूद्रा यद् अर्यजारा न पोषाय धनायति ॥
23.31
यद्धरिणो यवम् अत्ति न पुष्टं बहु मन्यते ।
शूद्रो यद् अर्यायै जारो न पोषम् अनु मन्यते ॥
23.32
दधिक्राव्णो ऽ अकारिषं जिष्णोर् अश्वस्य वाजिनः
सुरभि नो मुखा करत् प्र ण ऽ आयूꣳषि तारिषत् ॥
23.33
गायत्री त्रिष्टुब् जगत्य् अनुष्टुप् पङ्क्त्या सह ।
बृहत्य् उष्णिहा ककुप् सूचीभिः शम्यन्तु त्वा ॥
23.34
द्विपदा याश् चतुष्पदास् त्रिपदा याश् च षट्पदाः ।
विच्छन्दा याश् च सच्छन्दाः सूचीभिः शम्यन्तु त्वा
23.35
महानाम्न्यो रेवत्यो विश्वा आशाः प्रभूवरीः ।
मैघीर् विद्युतो वाचः सूचीभिः शम्यन्तु त्वा ॥
23.36
नार्यस् ते पत्न्यो लोम विचिन्वन्तु मनीषया ।
देवानां पत्न्यो दिशः सूचीभिः शम्यन्तु त्वा ॥
23.37
रजता हरिणीः सीसा युजो युज्यन्ते कर्मभिः ।
अश्वस्य वाजिनस् त्वचि सिमाः शम्यन्तु शम्यन्तीः
23.38
कुविद् अङ्ग यवमन्तो यवं चिद् यथा दान्त्य् अनुपूर्वं वियूय ।
इहेहैषां कृणुहि भोजनानि ये बर्हिषो नम ऽ उक्तिं यजन्ति ॥
23.39
कस् त्वा छ्यति कस् त्वा वि शास्ति कस् ते गात्राणि शम्यति ।
क ऽ उ ते शमिता कविः ॥
23.40
ऋतवस्त ऽ ऋतुथा पर्व शमितारो वि शासतु ।
संवत्सरस्य तेजसा शमीभिः शम्यन्तु त्वा ॥
23.41
अर्धमासाः परूꣳषि ते मासा ऽ आ च्छ्यन्तु शम्यन्तः ।
अहोरात्राणि मरुतो विलिष्टꣳ सूदयन्तु ते ॥
23.42
दैव्या ऽ अध्वर्यवस् त्वा छ्यन्तु वि च आसतु ।
गात्राणि पर्वशस् ते सिमाः कृण्वन्तु शम्यन्तीः ॥
23.43
द्यौस् ते पृथिव्यन्तरिक्षं वायुश् छिद्रं पृणातु ते ।
सूयस् ते नक्षत्रैः सह लोकं कृणोतु साधुया ॥
23.44
शं ते परेभ्यो गात्रेभ्यः शम् अस्त्व् अवरेभ्यः ।
शम् अस्थभ्यो मज्जभ्यः शम् व् अस्तु तन्वै तव ॥
23.45
कः स्विद् एकाकी चरति क ऽ उ स्विज् जायते पुनः ।
किꣳ स्विद्धिमस्य भेषजं किम् व् आवपनं महत् ॥
23.46
सूर्य ऽ एकाकी चरति चन्द्रमा जायते पुनः ।
अग्निर् हिमस्य भेषजं भूमिर् आवपनं महत् ॥
23.47
किꣳ स्वित् सूर्यसमं ज्योतिः किꣳ समुद्रसमꣳ सरः
किꣳ स्वित् पृथिव्यै वर्षीयः कस्य मात्रा न विद्यते ॥
23.48
ब्रह्म सूर्यसमं ज्योतिर् द्यौः समुद्रसमꣳ सरः ।
इन्द्रः पृथिव्यै वर्षीयान् गोस् तु मात्रा न विद्यते ॥
23.49
पृच्छामि त्वा चितये देवसख यदि त्वम् अत्र मनसा जगन्थ ।
येषु विष्णुस् त्रिषु पदेष्व् एष्टस् तेषु विश्वं भुवनम् आ विवेशाꣳ३ऽ ॥
23.50
अपि तेषु त्रिषु पदेष्व् अस्मि येषु विश्वं भुवनम् आविवेश ।
सद्यः पर्य् एमि पृथिवीम् उत द्याम् एकेनाङ्गेन दिवो ऽ अस्य पृष्ठम् ॥
23.51
केष्व् अन्तः पुरुष ऽ आ विवेश कान्य् अन्तः पुरुषे ऽ अर्पितानि ।
एतद् ब्रह्मन्न् उपवल्हामसि त्वा किꣳ स्विन् नः प्रति वोचास्य् अत्र ॥
23.52
पञ्चस्व् अन्तः पुरुष ऽ आ विवेश तान्य् अन्तः पुरुषे ऽ अर्पितानि ।
एतत् त्वात्र प्रतिमन्वानो ऽ अस्मि न मायया भवस्य् उत्तरो मत् ॥
23.53
का स्विद् आसीत् पूर्वचित्तिः किꣳ स्विद् आसीद् बृहद् वयः ।
का स्विद् आसीत् पिलिप्पिला का स्विद् आसीत् पिशङ्गिला ॥
23.54
द्यौर् आसीत् पूर्वचित्तिः अश्वऽ आसीद् बृहद् वयः
अविर् आसीत् पिलिप्पिला रात्रिर् आसीत् पिशङ्गिला ॥
23.55
का ऽ ईमरे पिशंगिला का ऽ ईं कुरुपिशंगिला ।
क ऽ ईम् आस्कन्दम् अर्षति क ऽ ईं पन्थां वि सर्पति ॥
23.56
अजारे पिशंगिला श्वावित् कुरुपिशंगिला ।
शश आस्कन्दम् अर्षत्य् अहिः पन्थां वि सर्पति ॥
23.57
कत्य् अस्य विष्ठाः कत्य् अक्षराणि कति होमासः कतिधा समिद्धः ।
यज्ञस्य त्वा विदथा पृच्छम् अत्र कति होतार ऽ ऋतुशो यजन्ति ॥
23.58
षड् अस्य विष्ठाः शतम् अक्षराण्य् अशीतिर् होमाः समिधो ह तिस्रः ।
यज्ञस्य ते विदथा प्र ब्रवीमि सप्त होतार ऋतुशो यजन्ति ॥
23.59
को ऽ अस्य वेद भुवनस्य नाभिं को द्यावापृथिवी ऽ अन्तरिक्षम् ।
कः सूर्यस्य वेद बृहतो जनित्रं को वेद चन्द्रमसं यतोजाः ॥
23.60
वेदाहम् अस्य भुवनस्य नाभिं वेद द्यावापृथिवी ऽ अन्तरिक्षम् ।
वेद सूर्यस्य बृहतो जनित्रं अथो वेद चन्द्रमसं यतोजाः ॥
23.61
पृच्छामि त्वा परम् अन्तं पृथिव्याः पृच्छामि यत्र भुवनस्य नाभिः ।
पृच्छामि त्वा वृष्णो ऽ अश्वस्य रेतः पृच्छामि वाचः परमं व्योम ॥
23.62
इयं वेदिः परो ऽ अन्तः पृथिव्या ऽ अयं यज्ञो यत्र भुवनस्य नाभिः ।
अयꣳ सोमो वृष्णो ऽ अश्वस्य रेतः ब्रह्मायं वाचः परमं व्योम ॥
23.63
सुभूः स्वयम्भूः प्रथमो ऽन्तर् महत्य् अर्णवे ।
दधे ह गर्भम् ऋत्वियं यतो जातः प्रजापतिः ॥
23.64
होता यक्षत् प्रजापतिꣳ सोमस्य महिम्नः ।
जुषतां पिबतु सोमꣳ होतर् यज ॥
23.65
प्रजापते न त्वद् एतान्य् अन्यो विश्वा रूपाणि परि ता बभूव ।
यत्कामास् ते जुहुमस् तन् नो ऽ अस्तु । वयꣳ स्याम पतयो रयीणाम्॥
भाष्यम्(उवट-महीधर)
त्रयोविंशोऽध्यायः।
तत्र प्रथमा।
हि॒र॒ण्य॒ग॒र्भः सम॑वर्त॒ताग्रे॑ भू॒तस्य॑ जा॒तः पति॒रेक॑ आसीत् ।
स दा॑धार पृथि॒वीं द्यामु॒तेमां कस्मै॑ दे॒वाय॑ ह॒विषा॑ विधेम ।। १ ।।
उ०. हिरण्यगर्भः सम् । महिम्नः पुरोरुक् । व्याख्यातम् ॥ १॥
म०. द्वाविंशे होममन्त्रास्त्रयोविंशेऽध्याये शिष्टं कर्मोच्यते । 'प्रातरुक्थ्यो महिमानौ गृह्णाति सौवर्णेन पूर्व ᳪं᳭ हिरण्यगर्भ इति' (का० । २० । ५। १-२)। प्रातर्द्वितीयेऽहनि उक्थ्यसंस्थमहर्भवति तत्र महिमसंज्ञौ द्वौ ग्रहौ गृह्णाति आगन्तुत्वादाग्रयणोक्थ्ययोर्मध्ये तौ गृह्णाति 'अन्तराग्रयणोक्थ्यावागन्स्थातुं ग्रहाणाम्' इति वचनात् द्वयोर्मध्ये पूर्वं महिमानं सौवर्णेनोलूखलेन गृह्णाति । व्याख्याता (अ० १३ । क० ४) ॥१॥
द्वितीया ।
उ॒प॒या॒मगृ॑हीतोऽसि प्र॒जाप॑तये त्वा॒ जुष्टं॑ गृह्णाम्ये॒ष ते॒ योनि॒: सूर्य॑स्ते महि॒मा ।
यस्तेऽह॑न्त्संवत्स॒रे म॑हि॒मा स॑म्ब॒भूव॒ यस्ते॑ वा॒याव॒न्तरि॑क्षे महि॒मा स॑म्ब॒भूव॒ यस्ते॑ दि॒वि सूर्ये॑ महि॒मा स॑म्ब॒भूव॒ तस्मै॑ ते महि॒म्ने प्र॒जाप॑तये॒ स्वाहा॑ दे॒वेभ्य॑: ।। २ ।।
उ० उपयामगृहीतोसि । प्रजापतये त्वा जुष्टमभिरुचितं गृह्णामि । सादयति । एष ते तव योनिः स्थानं सूर्यस्तव महिमा महाभाग्यं शक्तिः दीपस्येव प्रभा । जुहोति । यस्तेऽहन् यस्तव अहनि संवत्सरे च महिमा संबभूव संभूत उत्पनः । अहनि निमित्तभूते सर्वाण्येव भूतानि संपद्यन्ते । निमित्तसप्तम्यश्चैताः । 'चर्मणि द्वीपिनं हन्ति दन्तयोर्हन्ति कुञ्जरम्' इति यथा । यः ते वायौ अन्तरिक्षे च महिमा संबभूव । यस्ते दिवि सूर्ये च महिमा संबभूव । तस्मै ते तव महिम्ने प्रजापतये च स्वाहा देवेभ्यश्च ॥ २ ॥
म० उपयाम० प्रजापतये जुष्टं रुचितं त्वां हे ग्रह, अहं गृह्णामि । 'एष ते योनिरिति ग्रहसादनम्' (का० ९ । ५ । २५) । एष ते योनिः स्थानं ते तव महिमा शक्तिः सूर्यः दीपस्येव प्रभा । 'यस्तेऽहन्निति जुहोति' (का० २० । ७ । १६) । पूर्वमहिमानं ग्रहं जुहोति वषट्कृते सर्वहुतम् । देवदेवत्यं यजुः द्व्यधिका शक्वरी । हे महिमन् , यः ते तव महिमा अहन् अह्नि दिवसे संवत्सरे च निमित्ते संबभूव उत्पन्नः, वायौ अन्तरिक्षे च यः तव महिमा संबभूव, दिवि सूर्ये च यस्ते महिमा संबभूव ते तव तस्मै महिम्ने प्रजापतये देवेभ्यश्च स्वाहा सुहुतमस्तु ॥ २ ॥
तृतीया।
यः प्रा॑ण॒तो नि॑मिष॒तो म॑हि॒त्वैक॒ इद्राजा॒ जग॑तो ब॒भूव॑ ।
य ईशे॑ अ॒स्य द्वि॒पद॒श्चतु॑ष्पदः॒ कस्मै॑ दे॒वाय॑ ह॒विषा॑ विधेम ।। ३ ।।
उ० द्वितीयं गृह्णाति तस्य पुरोरुक्यः प्राणतः कायी प्राजापत्या । यः कः प्रजापतिः प्राणतः प्राणनं कुर्वतः भूतग्रामस्य निमिषतः निमेषणं कुर्वतः क्रियावत इत्यर्थान्तरम् महित्वा स्वकीयेन महाभाग्येन । एकइत् । इच्छब्द एवार्थे । एकएव समस्तस्य जगतो राजा बभूव संवृत्तः । यश्च ईशे ईष्टे अस्य द्विपदः प्राणिजातस्य यश्च चतुष्पदः ईष्टे प्राणिजातस्य । तस्मै कस्मै देवाय प्रजापतये हविषा विधेम । विदधातिर्दानकर्मा । हविरिति विभक्तिव्यत्ययो द्वितीयान्तः । हविर्दद्मः ॥३॥
म०. 'द्वितीयᳪं᳭ राजतेन यः प्राणत इति' (का० २० । ५।२)। द्वितीयं महिमानं ग्रहं राजतेनोलूखलेन गृह्णाति । हिरण्यगर्भदृष्टा कदेवत्या त्रिष्टुप् । तस्मै कस्मै प्रजापतये देवाय वयं हविर्विधेम हविर्दद्मः । विधृतिर्दानार्थः। तृतीया द्वितीयार्थे। तस्मै कस्मै । यः प्रजापतिः प्राणतः प्राणनं जीवनं कुर्वतो निमिषतो निमेषणं कुर्वतः । उपलक्षणमेतत् दृगादीन्द्रियव्यापारं कुर्वतः सचेतनस्य जगतः । विश्वस्य एक एव राजा बभूव । केन । महित्वा महेर्महिम्नो भावो महित्वं तेन महित्वेन । विभक्तेः पूर्वसवर्णः । महाभाग्येनेत्यर्थः । यश्चास्य द्विपदः द्वौ पादौ यस्य स द्विपात् तस्य ‘पादः पत्' (पा० ६।४। १३०) | इति पदादेशः। द्विपादस्य मनुष्यपक्ष्यादेः चतुष्पदः हस्तिगवादेः प्राणिजातस्य ईशे ईष्टे ऐश्वर्यं करोति । 'लोपस्त आत्मनेपदेषु' (पा० ७ । १ । ४१) इति तकारलोपे ईशे इति रूपम् । 'अधीगर्थदयेशां कर्मणि' (पा० २।३ । ५२) कर्मणि | षष्ठी ॥३॥
चतुर्थी।
उ॒प॒या॒मगृ॑हीतोऽसि प्र॒जाप॑तये त्वा॒ जुष्टं॑ गृह्णाम्ये॒ष ते॒ योनि॑श्च॒न्द्रमा॑स्ते महि॒मा ।
यस्ते॒ रात्रौ॑ संवत्स॒रे म॑हि॒मा स॑म्ब॒भूव॒ यस्ते॑ पृथि॒व्याम॒ग्नौ म॑हि॒मा स॑म्ब॒भूव॒ यस्ते॒ नक्ष॑त्रेषु च॒न्द्रम॑सि महि॒मा स॑म्ब॒भूव॒ तस्मै॑ ते महि॒म्ने प्र॒जाप॑तये दे॒वेभ्य॒: स्वाहा॑ ।। ४ ।।
उ० उपयामगृहीतोऽसि प्रजापतये त्वां जुष्टं गृह्णामि । सादयति । एष ते योनिः चन्द्रमास्ते महिमा । जुहोति यस्ते रात्रौ संवत्सरे पृथिव्यामग्नौ च नक्षत्रेषु चन्द्रमसि च महिमा संबभूव तस्मै ते महिम्ने प्रजापतये देवेभ्यः स्वाहा ॥४॥
म० उपयामपात्रेण गृहीतोऽसि प्रजापतये जुष्टं त्वां गृह्णामि । सादयति । एष ते । चन्द्रमास्ते तव महिमा दीप्तिः । 'वपान्ते द्वितीयेन पूर्ववद् यस्ते रात्राविति जुहोति' (का० २० । ७ । २६ )। वपायागान्ते द्वितीयेन महिम्ना पूर्ववदिति सर्वहुतं महिमानं जुहोति । अष्टिः हे महिमन् , रात्रौ संवत्सरे च यस्ते तव महिमा संबभूव पृथिव्यामग्नौ च यस्ते महिमा संबभूव नक्षत्रेषु चन्द्रमसि च यस्तव महिमा संबभूव सर्वव्यापकस्तव यो महिमा तस्मै महिम्ने प्रजापतये देवेभ्यश्च स्वाहा सुहुतमस्तु ॥ ४॥
पञ्चमी।
यु॒ञ्जन्ति॑ ब्र॒ध्नम॑रु॒षं चर॑न्तं॒ परि॑ त॒स्थुष॑: । रोच॑न्ते रोच॒ना दि॒वि ।। ५
उ० अश्वं युनक्ति । युञ्जन्ति ब्रध्नम् । अश्वोऽत्रादित्यवत्स्तूयते उत्तरोर्धर्चः प्रथमं व्याख्यायते । यस्य भासा रोचन्ते देदीप्यन्ते रोचनाः रोचनानि दीप्तानि चन्द्रग्रहतारकादीनि। दिवि द्युलोके । तं युञ्जन्ति रथे बध्नन्ति । कथंभूतम् । ब्रध्नम् परिवृढं आदित्यम् अरुषमरोषणम् । चरन्तं गच्छन्तं वैदिककर्मसिध्यर्थम् । के युञ्जन्ति परितस्थुषः सर्वतः स्थिता ऋत्विग्यजमानाः ॥५॥
म० 'युनक्त्येनं युञ्जन्ति ब्रध्नमिति' (का० २० । ५ । ११)। अश्वं रथे युनक्ति । मधुच्छन्दोदृष्टा आदित्यदेवत्या गायत्री । तस्थुषः । विभक्तेर्व्यत्ययः । तस्थिवांसः कर्मार्थं स्थिता ऋत्विजः ब्रध्नमादित्यं युञ्जन्ति रथे योजयन्ति । अश्व आदित्यत्वेन स्तूयते । 'असौ वा आदित्यो ब्रध्नोऽरुषोऽमुमेवास्या आदित्यं युनक्ति स्वर्गस्य लोकस्य समष्ट्यै (१३ । २ ६।१) इति श्रुतेः । किंभूतं ब्रध्नम् । अरुषं रोषति क्रुध्यति रुषः 'इगुपध-' (पा० ३ । १ । १३५) इति कः । न रुषः अरुषः तं क्रोधरहितम् । परिचरन्तं वैदिककर्मसिद्ध्यर्थं सर्वत्र गच्छन्तम् । यस्य ब्रध्नस्य रोचना । विभक्तिलोपः । दीप्तयो दिवि आकाशे रोचन्ते प्रकाशन्ते । यद्वा रोचनानि दीप्तानि चन्द्रग्रहतारकादीनि ब्रध्नस्य भासा रोचन्ते 'तेजसां गोलकः सूर्यो नक्षत्राण्यम्बुगोलकाः' इति ज्योतिःशास्त्रोक्तेः ॥ ५॥
षष्ठी।
यु॒ञ्जन्त्य॑स्य॒ काम्या॒ हरी॒ विप॑क्षसा॒ रथे॑ । शोणा॑ धृ॒ष्णू नृ॒वाह॑सा ।। ६ ।।
उ० इतराश्वं युनक्ति । युञ्जन्त्यस्य । गायत्री । युञ्जन्ति रथे अस्थाश्वमेधिकस्याश्वस्य काम्या काम्यौ कामसंपादिनौ । नह्येको रथं वोढुं शक्तः । हरी हरितवर्णावश्वौ हरिणौ वा वेगवन्तौ विपक्षसा । विविधाः पक्षसः पक्षा ययोस्तौ विपक्षसौ विविधपक्षावस्थितौ । यद्वा विरिति शकुनिनाम वेतेर्गतिकर्मणः । वेः शकुनेरिव पक्षौ ययोस्तौ शोणा शोणौ। शोणशब्दोऽत्र वर्णवचनः । रक्तो वर्णो धूम्रभासः शोण इत्युच्यते । धृष्णू प्रसहनौ । नृवाहसा नृणां मनुष्याणां वोढारौ ॥६॥
म०. 'इतरांश्च युञ्जन्त्यस्येति' (का० २० । ५ । ११) इतरान्त्रीनश्वान्रथे युनक्ति । गायत्री अश्वस्तुतिः । ऋत्विजो हरी अश्वौ रथे युञ्जन्ति । कीदृशौ । अस्याश्वमेधिकाश्वस्य काम्या काम्यौ काम्येते तौ काम्यौ कामसंपादिनौ न त्वेको वोढुं शक्त इति तौ काम्यौ । विपक्षसा 'पक्ष परिग्रहे' असुन्प्रत्ययः । पक्षयन्ति शरीरं गृह्णन्ति पक्षसः पक्षाः विविधाः पक्षसः पक्षाः ययोस्तौ विपक्षसौ । यद्वा विरिति शकुनिनाम 'वेतेर्गतिकर्मणः' (निरु० २।६) इति यास्कः । वेः पक्षिण इव पक्षसो ययोस्तौ । शोणा शोणौ रक्तौ धृष्णू प्रगल्भौ 'ञिधृषा प्रागल्भ्ये' कुप्रत्ययः । नृवाहसा नॄन् वहतस्तौ । वहेरसुन्प्रत्ययः सर्वत्र विभक्तेराकारः । नृणां वोढारौ॥ ६।
सप्तमी।
यद्वातो॑ अ॒पो अ॑गनीगन्प्रि॒यामिन्द्र॑स्य त॒न्व॒म् । ए॒तᳪं᳭ स्तो॑तर॒नेन॑ प॒था पुन॒रश्व॒माव॑र्तयासि नः ।। ७ ।।
उ० अपो यात्वावगाढेषु वाचयति । यद्वातः बृहती। | अश्वदेवत्या । यत् यस्मात् वातः वातवेगोऽश्वः अपः प्रति अगनीगन् अत्यर्थं गतः । प्रियांच इन्द्रस्य तन्वं शरीरम् अगनीगन् । अतो ब्रवीमि । एतम् अश्वम् हे स्तोतः अध्वर्यो, अनेन पथा येन गतः पुनः अश्वम् आवर्तयासि आवर्तय आनय नोऽस्माकम् ॥ ७ ॥
म० 'अपो यात्वावगाढेषु वाचयति यद्वात इति' (का. २० । ५। १४) । चतुर्भिरश्वैर्युक्तं रथमध्वर्युयजमानावारुह्य तडागादिजलं गत्वा जलं प्रविष्टेष्वश्वेषु यजमानं वाचयति । बृहती अश्वस्तुतिः । सिंहो माणवक इति वत् वातः वातसमानवेगोऽश्वः यत् यस्मात् अपो जलानि अगनीगन् इन्द्रस्य प्रियं तन्वं शरीरं चागनीगन् अत्यर्थं गतः 'दाधर्तिदर्धर्ति-' | (पा० ७ । ४ । ६५) इत्यादिना यङ्लुगन्तो निपातः । अतो हे स्तोतः अध्वर्यो, एतं नोऽस्माकमश्वमनेन पथा मार्गेण येन गतस्तेन पुनरावर्तयासि आवर्तय आनय । 'लेटोऽडाटौं' पुरुषव्यत्ययः ॥ ७ ॥
अष्टमी।
वस॑वस्त्वाञ्जन्तु गाय॒त्रेण॒ छन्द॑सा रु॒द्रास्त्वा॑ञ्जन्तु॒ त्रैष्टु॑भेन॒ छन्द॑सा ऽऽदि॒त्यास्त्वा॑ञ्जन्तु॒ जाग॑तेन॒ छन्द॑सा ।
भूर्भुव॒: स्वर्ला॒जी३ञ्छा॒ची३न्यव्ये॒ गव्य॑ ए॒तदन्न॑मत्त देवा ए॒तदन्न॑मद्धि प्रजापते ।। ८ ।।
उ० 'आगतमश्वं महिषी वावाता परिवृक्ता आज्येनाभ्यञ्जयन्ति वसवस्त्वेति प्रतिमन्त्रम् । वसवस्त्वाञ्जन्तु । निगदव्याख्यातम् । सौवर्णान्मणीनेकशतमश्वकेसरपुच्छेषु प्रवयन्ति पत्न्यः । भूर्भुवः स्वः । व्याख्यातम् । अश्वाय रात्रिहुतशेषं प्रयच्छति । लाजीन् शाचीन् । योयं लाजानां समूहो लाजीनित्युक्तः । योयं सक्तूनां समूहः शाचीनित्युक्तः । सक्तवो हि अतितरां शच्या कर्मणा निष्पद्यन्त इति शाचीनित्युक्ताः। यश्चायं यव्ये यवमयः समूह उक्तो धानाः । यश्चायं गोर्विकारसमूह उक्तो गव्य इति । एतदन्नम् अत्त भक्षयत हे देवाः । एतदन्नमद्धि भक्षय हे प्रजापते । येभ्योऽश्वः प्रोक्षितः तद्देवतत्वादेतद्देवत्य इति ॥ ८॥
म०. 'आयाय विमुक्तमश्वं महिषी वावाता परिवृक्ताज्येनाभ्यञ्जन्ति पूर्वकायमध्यापरकायान्यथादेशं वसवस्त्वेति प्रतिमन्त्रम्' (का० २।५।१५) । आयाय जलप्रदेशाद्देवयजनमागत्य रथाद्विमुक्तमश्वं महिष्याद्यास्तिस्रः पत्न्यो यथाक्रममश्वस्य पूर्वादिकानभ्यञ्जन्ति घृतेन महिषी पूर्वकायं वसव इति वावाता देहमध्यं रुद्रा इति परिवृक्ता पश्चाद्भागमादित्या इति मन्त्रेणेति सूत्रार्थः । त्रीणि यजूंषि लिङ्गोक्तदेवतानि । हे अश्व, वसवोऽष्टौ देवा गायत्रेण छन्दसा त्वा त्वामञ्जन्तु स्निग्धं कुर्वन्तु । रुद्रा एकादश त्रैष्टुभेन छन्दसा त्वामञ्जन्तु । आदित्या द्वादश जागतेन छन्दसा त्वामञ्जन्तु । 'अभ्रᳪं᳭श्यमानान्मणीन् सौवर्णानेकशतमेकशतं केसरापुच्छेष्वावयन्ति भूर्भुवः स्वरिति प्रतिमहाव्याहृति' (का० २० ।५।१६)। महिष्याद्यास्तिस्रः पत्न्यः एकाधिकं शतं सुवर्णमयमणीन् यथा न पतन्ति तथा केसरयोः शिरःस्कन्धस्थयोः पुच्छे चाबध्नन्ति महिष्यश्वशिरोरोमसु भूरिति एकशतं मणीन्प्रवयति वावाता ग्रीवारोमसु भुव इति परिवृक्ता पुच्छरोमसु स्वरिति वयतीति सूत्रार्थः । भूर्भुवः स्वः व्याख्याताः । 'अश्वाय रात्रिहुतशेषं प्रयच्छति लाजीञ्छाचीनिति' (का० २० । ५। १८)। सक्तुधानालाजारूपं रात्रिहुतशेषमश्वाय ददाति भक्ष्याय । अश्वो नात्ति चेत् जले प्रक्षेपः । लाजीन् अश्वदेवत्यं यजुः । लाजानां समूहो लाजीनित्युक्तः सक्तूनां समूहः । शाचीन् यश्चायं यव्ये यव्यः यवसमूहः गव्ये गव्यः गोर्विकारसमूहो दध्यादिः हे देवाः, एतदन्नमत्त भक्षयत । हे प्रजापते, एतदन्नमद्धि भक्षय । येभ्योऽश्वः प्रोक्षितस्तद्रूपोऽश्वः संबोध्यते ॥ ८॥
नवमी।
कः स्वि॑देका॒की च॑रति॒ क उ॑ स्विज्जायते॒ पुन॑: । किᳪं᳭ स्वि॑द्धि॒मस्य॑ भेष॒जं किम्वा॒वप॑नं म॒हत् ।। ९ ।।
उ० ब्रह्मा पृच्छति होतारं यूपमभितः । कः स्वित् । चतस्रोऽनुष्टुभः प्रश्नप्रतिप्रश्नरूपाः । कः पुनरेकाकी असहायः चरति गच्छति । कउ स्वित् को नु विनष्टः सन् जायते। पुनः उकारः पादपूरणः । किं पुनः हिमस्य शीतस्य भेषजम् । किंच आवपनं महत् । उप्यते निक्षिप्यतेऽस्मिन्नित्यावपनम् ॥९॥
म० 'ब्रह्मा पृच्छति होतारं यूपमभितः कः स्विदेकाकीति' (का० २० । ५ । २०)। यूपस्य दक्षिणत उदङ्मुखो ब्रह्मा यूपोत्तरतो दक्षिणामुखं होतारं पृच्छति । ब्रह्मोद्ये कर्मणि होतुर्ब्रह्मणश्च प्रश्नप्रतिप्रश्नभूताश्चतस्रोऽनुष्टुभः। स्विदिति वितर्के। एकः असहायः कः चरति गच्छति । उ पादपूरणः । कःस्वित् विनष्टः सन् पुनर्जायते उत्पद्यते । किंस्वित् हिमस्य शीतस्य भेषजमौषधम् । किंस्वित् महत् आवपनम् आ समन्तादुप्यते यस्मिंस्तद्वपनस्थानम् ॥ ९॥
दशमी।
सूर्य॑ एका॒की च॑रति च॒न्द्रमा॑ जायते॒ पुन॑: । अ॒ग्निर्हि॒मस्य॑ भेष॒जं भूमि॑रा॒वप॑नं म॒हत् ।। १० ।।
उ० होता प्रत्याह । सूर्य एकाकी चरति । चन्द्रमा जायते पुनः । अग्निश्च हिमस्य शीतस्य भेषजम् । भूमिः अयं लोकः आवपनं महत् ॥ १०॥
म० 'सूर्य इत्याचष्टे होता ब्रह्माणं प्रति वक्ति' (का २०।५।२१)। सूर्योऽसहायो गच्छति । अनेन होतृब्रह्माणौ यजमाने ब्रह्मवर्चसं धत्तः । 'असौ वा आदित्य एकाकी चरत्येष ब्रह्मवर्चसं ब्रह्मवर्चसमेवास्मिंस्तद्धत्ते' (१३ । २ । ६ ।१०) इति श्रुतेः । चन्द्रमाः क्षीणः पुनर्जायते वर्धते अनेनायुर्धत्तः । 'चन्द्रमा वै जायते पुनरायुरेवास्मिंस्तद्धत्ते' (१३।२। ६। ११) इति श्रुतेः । हिमस्य भेषजमग्निः अनेन तेजो धत्तः । 'अग्निर्वै हिमस्य भेषजं तेज एवास्मिंस्तद्धत्ते' (१३।२।६।१२) इति श्रुतेः । भूमिरयं लोको महदावपनम् अनेनास्मिन् प्रतिष्ठां धत्तः । 'अयं वै लोक आवपनं महदस्मिन्नेव लोके प्रतितिष्ठति' (१३ । २ । ६ । १३) इति श्रुतेः ॥ १० ॥
एकादशी।
का स्वि॑दासीत्पू॒र्वचि॑त्ति॒: किᳪं᳭ स्वि॑दासीद् बृ॒हद्वय॑: ।
का स्वि॑दासीत्पिलिप्पि॒ला का स्वि॑दासीत्पिशङ्गि॒ला ।। ११ ।।
उ० होता ब्रह्माणं पृच्छति । का स्वित् । का पुनः आसीत् पूर्वचित्तिः । किं पुनरासीत् बृहत् महत् वयः पक्षी। का पुनरासीत् पिलिप्पिला । का पुनरासीत् पिशङ्गिला ॥११॥
म० 'होता ब्रह्माणं का स्विदासीदिति' (का० २० ।५। २२) होता ब्रह्माणं पृच्छति । पूर्वं चिन्त्यत इति पूर्वचित्तिः सर्वेषां प्रथमस्मृतिविषया का स्वित् बृहत् महत् । वयः पक्षी किं स्वित् आसीत् । पिलिप्पिला का स्वित् पिशङ्गिला च का स्विदासीत् ॥ ११
द्वादशी।
द्यौरा॑सीत्पू॒र्वचि॑त्ति॒रश्व॑ आसीद् बृ॒हद्वय॑: ।
अवि॑रासीत्पिलिप्पि॒ला रात्रि॑रासीत्पिशङ्गि॒ला ।। १२ ।।
उ० ब्रह्मा प्रश्नान् व्याकरोति । द्यौरासीत् । द्युग्रहणेनात्र वृष्टिर्लक्ष्यते । सा हि पूर्वं सर्वैः प्राणिभिश्चित्यते अश्व आसीद्बृहद्वयः अश्वशब्देनाश्वमेधो लक्ष्यते । वयसा इव ह्यनेनाश्वमेधेन स्वर्गं लोकमारोहन्ति । अविरासीत् अविः पृथिव्यभिधीयते सा आसीत् पिलिप्पिला । वृष्ट्या हि क्लिद्यमाना पृथिवी पिलिप्पिला भवति । श्रीरिति श्रुत्या पृथिव्युक्ता च । रात्रिरासीत्पिशङ्गिला । पिशमिति रूपनाम । रात्रिर्हि सर्वाणि रूपाणि गिलति अदृश्यानि करोति ॥ १२ ॥
म० 'द्यौरिति प्रत्याह' ( का० २० । ५। २३)। ब्रह्मा होतारं प्रति वक्ति । पूर्वचित्तिः पूर्वस्मरणविषया द्यौर्वृष्टिरासीत् । द्योशब्देन वृष्टिर्लक्ष्यते सर्वप्राणिनामिष्टत्वात् । तथाच श्रुतिः 'द्यौः वृष्टिः पूर्वचित्तिर्दिवमेव वृष्टिमवरुन्द्धे' (१३ । २।। १४) इति । अश्वः बृहद्वयः आसीत् । अश्वशब्देनाश्वमेधो लक्ष्यते । अश्वमेधेन वयसेव स्वर्गमारोहतीत्यश्वमेधो वयः। अवतीत्यविः पृथिवी पिलिप्पिलासीत् । वृष्ट्या भूः पिलिप्पिला चिक्कणा भवति । 'श्रीवै पिलिप्पिला' (१३ । २ । ६।१६) इति श्रुत्या श्रयन्त एनामिति श्रीशब्देन भूरेव । रात्रिः पिशङ्गिला आसीत् । पिशमिति रूपनाम पिशं रूपं गिलतीति पिशङ्गिला रात्रौ सर्वाणि रूपाण्यन्तर्भवन्ति ॥ १२ ॥
त्रयोदशी।
वा॒युष्ट्वा॑ पच॒तैर॑व॒त्वसि॑तग्रीव॒श्छागै॑र्न्य॒ग्रोध॑श्चम॒सैः श॑ल्म॒लिर्वृद्ध्या॑ ।
ए॒ष स्य रा॒थ्यो वृषा॑ प॒ड्भिश्च॒तुर्भि॒रेद॑गन्ब्र॒ह्मा कृ॑ष्णश्च नोऽवतु॒ नमो॒ऽग्नये॑ ।। १३ ।।
उ० प्रोक्षत्यश्वम् । वायुष्ट्वा वायुः त्वा पचतैः पाकैः अवतु । वाय्वग्निसंयोगाद्धि द्रव्याणि पच्यन्ते । असितग्रीवः छागैः असितग्रीवोऽग्निः धूमसंयोगात् । छागैः अवतु कृष्णग्रीवादिभिः पर्यङ्गैः । अश्वाङ्गेष्वालभ्यमाना अश्वायोपकुर्वन्ति अदृष्टेनोपकारेण । न्यग्रोधश्चमसैः अवतु सोमसंबन्धेन । शल्मलिः स्वकीयया वृद्ध्या त्वां अवतु पालयतु । एष स्यः एष सः राथ्यः रथे साधू राथ्यः । वृषा सेक्ता । पद्भिश्चतुर्भिः आ इत् आगन् आगतः । चतुर्ग्रहणं किम् । 'तस्मादश्वस्त्रिभिस्तिष्ठति अथ युक्तः सर्वैः सममायुत' इति श्रुतिः । ब्रह्माऽकृष्णश्च । ब्रह्मा परिवृढः अकृष्णः न विद्यते कृष्णमस्येत्यकृष्णश्चन्द्रमाः । स च नोऽस्माकम् अश्वम् अवतु । नमः अग्नये अग्निं नमस्करोत्यविघ्नाय ॥ १३ ॥
म० 'अश्वप्रोक्षणमद्भ्यस्त्वा वायुष्ट्वेति' (का० २० । ६ । ७)। अद्भ्यस्त्वोषधीभ्य इति प्राकृतमन्त्रेण ( ६ । ९) वायुष्ट्वेत्यारभ्य देवः सविता दधात्वित्यन्तेन (१६) कण्डिकाचतुष्टयेनाश्वमेधिकेन चाश्वप्रोक्षणं करोतीति सूत्रार्थः । चत्वारि यजूंष्यश्वदेवत्यानि । हे अश्व, वायुः पचतैः पाकैः त्वा त्वामवतु । वायुसंयोगादग्निः शीघ्रं पचति । असिता ग्रीवा यस्य धूमेनेत्यसितग्रीवोऽग्निः छागैः त्वामवतु । 'अग्निर्वा असितग्रीवः' (१३ । २ । ७।२) इति श्रुतेः । 'कृष्णग्रीव आग्नेयो रराटे' ( २४ । १) इति वक्ष्यमाणत्वादश्वाङ्गेषु कृष्णग्रीवादयः पञ्चदश पर्यङ्ग्याः पशवः सन्ति तैरग्निरवत्वित्यर्थः । न्यग्रोधः चमसैः सोमपात्रैः त्वामवतु । शल्मलिः वृक्षविशेषो वृद्ध्या त्वामवतु 'शल्मलिर्वनस्पतीनां वर्षिष्ठं वर्धते' (१३ । २ । ७।४) इति श्रुतेः । किंच स्यः स एष वृषा सेक्ताश्वः राथ्यः रथे साधुः पद्भिः पादैः चतुर्भिरेव आ अगन् आगतः आ इदगन्निति पदच्छेदः । अश्वस्त्रिभिः पादैस्तिष्ठति चतुर्भिश्च गच्छतीति चतुर्ग्रहणम् । तथाच श्रुतिः 'तस्मादश्वस्त्रिभिस्तिष्ठत्यथ युक्तः सर्वैः पद्भिः सममायुत' (१३ । २ । ७ । ५) इति । पदशब्दस्य डान्तत्वं छान्दसम् । किंच अकृष्णः नास्ति कृष्णं लाञ्छनं यस्मिन् स ब्रह्मा चन्द्रो नोऽस्मानवतु । 'चन्द्रमा वै ब्रह्मा कृष्णश्चन्द्रमस एनं परिददाति' (१३ । २ । ७ । ७) इति श्रुतेः । नोऽस्माकमश्वमवत्विति वा । अग्नये नमः नमस्कारोऽस्तु विघ्नाभावायाग्नेर्नतिः क्रियते ॥ १३ ॥
चतुर्दशी।
सᳪं᳭शि॑तो र॒श्मिना॒ रथ॒: सᳪं᳭शि॑तो र॒श्मिना॒ हय॑: ।
सᳪं᳭शि॑तो अ॒प्स्व॒प्सु॒जा ब्र॒ह्मा सोम॑पुरोगवः ।। १४ ।।
उ० सᳪं᳭ शितो रश्मिना । तिस्रोऽनुष्टुब्विराट्रि।यष्टुभः । प्रोक्षणे एव अश्वदेवत्याः । संपूर्वः श्यतिः शोभने वर्तते । संदर्शितः यथा दर्शनीयतमः रश्मिना रथो भवति । यथाच संशितः रश्मिना हयोऽश्वः । एवमयं संशितः । अप्सु । अद्भिः । अप्सुजाः अप्सु जातोऽश्वः । 'अप्सुजाता अश्वा' इति श्रुतिः । किंभूतः ब्रह्मा। विभर्ता परिवृढो वा । सोमपुरोगवः सोमसंस्कारान्पुरस्कृत्य स्वर्गं लोकं गच्छतीति सोमपुरोगवः । सोमार्था हि पशवः । स यत्पशुमालभते रसमेवास्मिन्दधाति' इति श्रुतिः ॥ १४ ॥
म० अश्वदेवत्यानुष्टुप् । संपूर्वः श्यतिः शोभनार्थः । रथः रश्मिना कृत्वा संशितः दर्शनीयो भवति 'तस्माद्रथः पर्युतो ।' दर्शनीयतमो भवति' (१३ । २ । ७ । ८) इति श्रुतेः । हयोऽश्वो रश्मिना संशितः शोभितः । अप्सु जायते अप्सुजा अश्वः अप्सु अद्भिः संशितः । विभक्तिव्यत्ययः । 'अप्सुयोनिर्वा अश्वः' (१३ । २ । ७ । ९) इति श्रुतेः । कीदृशः ब्रह्मा । परिवृढः सोमपुरोगमः सोमः पुरोगमोऽग्रगामी यस्य सः सोमं पुरस्कृत्य स्वर्गं लोकं गच्छति । 'सोमपुरोगममेवैनᳪं᳭ स्वर्गं लोकं गमयति' (१३ । २ । ७ । १०) इति श्रुतेः ॥१४॥
पञ्चदशी।
स्व॒यं वा॑जिँस्त॒न्वं॒ कल्पयस्व स्व॒यं य॑जस्व स्व॒यं जु॑षस्व । म॒हि॒मा ते॒ऽन्येन॒ न स॒न्नशे॑ ।। १५ ।।
उ० किंच । स्वयं वाजिन् । स्वयमेव हे वाजिन्, तन्वं , शरीरं कल्पयस्व । स्वराज्यं तवास्तीत्यर्थः । अतएव स्वयमेव यजस्व । तेन्यो यष्टा नास्तीति भावः । स्वयं च जुषस्व । स्वयमेवाभिरुचितं स्थानं कुरुष्व । किमर्थमिदमुच्यतेऽस्माभिरितिचेत् । महिमा ते तव संबन्धी अन्येन महिम्ना न संनशे। नशिरदर्शनार्थः । वेदे तु व्याप्त्यर्थोऽपि भवति न संव्याप्यते ॥ १५॥
म० आश्वी विराट् । हे वाजिन् , स्वयं तन्वं शरीरं त्वं कल्पयस्व 'स्वयं रूपं कुरुष्व यादृशमिच्छसि' (१३ । २ । ७ । ११) इति श्रुतेः । स्वाराज्यं तवास्तीति भावः । अतः स्वयं यजस्व न तवान्यो यष्टास्ति । स्वयं जुषस्व इष्टस्थानं सेवस्व । यतस्ते तव महिमा अन्येन न संनश्यते महिम्ना न संनशे न व्याप्यते । नशिरदर्शनार्थोऽत्र तु व्याप्त्यर्थः । यलोपे नशे रूपम् ॥ १५ ॥
षोडशी।
न वा उ॑ ए॒तन्म्रि॑यसे॒ न रि॑ष्यसि दे॒वाँ२ इदे॑षि प॒थिभि॑: सु॒गेभि॑: ।
यत्रास॑ते सु॒कृतो॒ यत्र॒ ते य॒युस्तत्र॑ त्वा दे॒वः स॑वि॒ता द॑धातु ।। १६ ।।
उ० नवै ।वै उ पादपूरणौ । न एतत् म्रियसे यत् संज्ञप्यसे। न च रिष्यसि विनश्यसि विशस्यमानः । किमिति । यत् देवान् इत्प्रति एषि गच्छसि । पथिभिः सुगेभिः साधुगमनैर्देवयानैरित्यर्थः । किंच । यत्र आसते सुकृतः साधुकारिणः । यत्र च ते ययुः गताः तत्र त्वां देवः सविता दधातु ॥१६॥
म० आश्वी त्रिष्टुप् । हे अश्व, अस्माभिर्यत्त्वं संज्ञप्यसे एतत्त्वं न म्रियसे मरणं नाप्नोषि नच रिष्यसे न विनश्यसि विशस्यमानः । वै उ निपातौ पादपूरणौ । यत्सुगेभिः सुगैः 'सुदुरोरधिकरणे' (पा० ३ । १ । ४८) इति गमेर्डप्रत्ययः । साधुगमनैः पथिभिः देवयानमार्गैः देवानित् देवान्प्रति एषि गच्छसि । किंच सुकृतः साधुकारिणो नरा यत्र लोके आसते तिष्ठन्ति । यत्र च ते सुकृतो ययुर्गताः तत्र लोके सविता देवः त्वा त्वां दधातु स्थापयतु । 'सवितैवैनᳪं᳭ स्वर्गे लोके दधाति' (१३ । २ । ७ । १२) इति श्रुतेः ॥ १६ ॥
सप्तदशी।
अ॒ग्निः प॒शुरा॑सी॒त्तेना॑यजन्त॒ स ए॒तँल्लो॒कम॑जय॒द्यस्मि॑न्न॒ग्निः स ते॑ लो॒को भ॑विष्यति॒ तं जे॑ष्यसि॒ पिबै॒ता अ॒पः ।
वा॒युः प॒शुरा॑सी॒त्तेना॑यजन्त॒ स ए॒तँल्लो॒कम॑जय॒द्यस्मि॑न्वा॒युः स ते॑ लो॒को भ॑विष्यति॒ तं जे॑ष्यसि॒ पिबै॒ता अ॒पः ।
सूर्य॑: प॒शुरा॑सी॒त्तेना॑यजन्त॒ स ए॒तँल्लो॒कम॑जय॒द्यस्मि॒न्त्सूर्य॒: स ते॑ लो॒को भ॑विष्यति॒ तं जे॑ष्यसि॒ पिबै॒ता अ॒पः ।। १७ ।।
उ० उपगृह्णात्यपः । अग्निः पशुः सृष्टियज्ञे देवानामासीत् । तेनाग्निना ते अयजन्त । स चाग्निस्तत्र साधनभावमुपगतः सन् । एतं पृथिवीलोकम् अजयत् । यस्मिन् लोके अग्निः । अतः स ते लोको भविष्यति तं च जेष्यसि । पिब एताः प्रोक्षणीः अपः। वायुः सूर्यः पशुः । व्याख्यातमन्यत् ॥ १७ ॥
म० 'उपगृह्णात्यपां पेरुरग्निः पशुरिति' (का० २० । ६ । ८)। अपां पेरुरिति (अ० ६ । क० १०) प्राकृतेन मन्त्रेणाग्निः पशुरिति वैकृतेन च प्रोक्षणीरश्वास्ये उपगृह्णातीति सूत्रार्थः । अश्वदेवत्यानि त्रीणि यजूंषि । सृष्टिदेवानामग्निः पशुरासीत् तेनाग्निरूपेण पशुना देवा अयजन्त ईजिरे । स पशुभावमुपगतोऽग्निः एतं लोकं पृथ्वीलोकमजयत् यस्मिन् लोकेऽग्निः हे अश्व, स लोकः ते तव भविष्यति तं लोकं त्वं जेष्यसि एताः प्रोक्षणीरपः पिब । तथाच श्रुतिः ‘यावानग्नेर्विजयो यावांल्लोको यावदैश्वर्यं तावांस्ते विजयस्तावांल्लोकस्तावदैश्वर्यं भविष्यतीत्येवैनं तदाह' (१३ । २ । ७ । १३) इति ।
वायुः पशुरासीत् सूर्यः पशुरासीत् वायुलोकोऽन्तरिक्षं सूर्यलोकः स्वर्गः तावपि ते भविष्यत इत्यर्थः ॥ १७ ॥
अष्टादशी।
प्रा॒णाय॒ स्वाहा॑ ऽपा॒नाय॒ स्वाहा॑ व्या॒नाय॒ स्वाहा॑ ।
अम्बे॒ अम्बि॒केऽम्बा॑लिके॒ न मा॑ नयति॒ कश्च॒न ।
सस॑स्त्यश्व॒कः सुभ॑द्रिकां काम्पीलवा॒सिनी॑म् ।। १८ ।।
उ० परिपशव्ये हुत्वा प्राणाय स्वाहेति । तिस्रोऽपराः वाचयति पत्नीर्नयन् । अम्बे । अनुष्टुप् । अश्वस्तुतिः। पत्न्यः परस्परमामन्त्रयन्ते । हे अम्बे, हे अम्बिके, हे अम्बाले, न मां नयति अश्वं प्रति प्रापयति कश्चन कश्चिदपि मदगमनेन च । ससस्ति 'सस् स्वप्ने' । यः अन्यां परिगृह्य शेते । कुत्सितोऽश्वः अश्वकः । अकुत्सितोऽपीर्ष्यया कुत्स्यते । सुभद्रिकाम् कुत्सिता सुभद्रा सुभद्रिका । इयमपीर्ष्यया कुत्स्यते । काम्पीलवासिनीम् । काम्पीलनगरे हि सुभगा सुरूपा विदग्धा विनीताश्च स्त्रियो भवन्ति ॥ १८ ॥
म० 'परिपशव्ये हुत्वा प्राणाय स्वाहेति तिस्रोऽपराः' (का० २० । ६ । ११)। 'परिपशव्ये खाहा देवेभ्यः स्वाहेति' (२० । ६ । ११) द्वे आहुती हुत्वा प्राणायेत्याद्यास्तिस्र आहुतीर्जुहोति एकामश्वसंज्ञपनादौ चतस्रोऽन्ते इति सूत्रार्थः । त्रीणि यजूंषि । प्राणाय अपानाय व्यानाय आभिराहुतिभिरश्वं प्राणवन्तं करोति । तथाच श्रुतिः 'प्राणानेवास्मिन्नेतद्दधाति तथो हास्यैतेन जीवतैव पशुनेष्टं भवति' (१३ । २। ८ । २)। 'वाचयति पत्नीर्नयन्नमस्तेऽन्व इति' (का०२०।६।१२)। 'सर्वाः पत्नीः पशुशोधनाय पान्नेजनीहस्ताः पशून् प्रति नयन्नमस्ते आतानेति' (२० । ६ । १२) प्राकृतं मन्त्रमम्बे इत्याश्वमेधिकं च वाचयतीति सूत्रार्थः । अश्वदेवत्यानुष्टुप् । पत्न्यः परस्परं वदन्ति हे अम्बे, हे अम्बिके, हे अम्बालिके, नामान्येतानि । कश्चन नरो मां न नयति अश्वं प्रति न प्रापयति । तर्हि किमर्थं गम्यते तत्राह । अश्वकः कुत्सितोऽश्वोऽश्वकः अकु त्सितोऽपीर्ष्यया कुत्स्यते । सुभद्रिकां कुत्सिता सुभद्रा सुभद्रिका ईर्ष्यया कुत्स्यते तां नारीमादाय ससस्ति शेते 'सस् स्वप्ने' ह्वादिः । मदगमनेऽश्वोऽन्यामादाय शयिष्यत इति मया गम्यते न तु मां कश्चिन्नयतीति भावः । किंभूतां सुभद्रिकाम् । काम्पीलवासिनीं काम्पीले नगरे वसतीति काम्पीलवासिनी ताम् । तत्र हि विदग्धाः सुरूपाः कामिन्यो भवन्ति । 'आपो जुषाणो वृष्णो वर्षिष्ठेऽम्बेऽम्बालेऽम्बिके पूर्वे' (पा० ६।१।११८) इति प्रकृतिभावः ॥ १८ ॥
एकोनविंशी।
ग॒णानां॑ त्वा ग॒णप॑तिᳪं᳭ हवामहे प्रि॒याणां॑ त्वा प्रि॒यप॑तिᳪं᳭ हवामहे नि॒धीनां॑ त्वा॑ निधि॒पति॑ᳪं᳭ हवामहे वसो मम ।
आहम॑जानि गर्भ॒धमा त्वम॑जासि गर्भ॒धम् ।। १९ ।।
उ० पत्न्यः त्रिः परियन्त्यश्वम् । [१]गणानां त्वा स्त्रीगणानां मध्ये त्वां युगपत् गणपतिं हवामहे आह्वयामः । एवमेव । प्रियाणां मनुष्याणां मध्ये त्वामेव प्रियपतिं प्रियं भर्तारं हवामहे । एवमेव निधीनां सुखनिधीनां मध्ये त्वामेव निधिपतिं हवामहे । कथं कृत्वा । हे वसो अश्व, मम त्वं पतिर्भूयाः इति । महिषी अश्वमुप संविशति । आहमजानि । आकृष्य अहम् अजानि 'अज गतिक्षेपणयोः' । क्षिपामि । गर्भधं गर्भस्य धारयितृ रेतः । आत्वमजासि गर्भधम् । आकृष्य च त्वं हे अश्व, अजासि क्षिपसि गर्भधं रेतः ॥१९॥
म० अश्वं त्रिस्त्रिः परियन्ति पितृवन्मध्ये गणानां प्रियाणां निधीनामिति' (का० २० । ६ । १३)। सर्वाः पत्न्यः पान्नेजनहस्ता एव प्राणशोधनात्प्राक् अश्वं त्रिस्त्रिः परियन्ति मध्ये पितृवत् अप्रदक्षिणं परियन्ति त्रिः त्रिभिर्मन्त्रैः । वसो ममेति त्रिष्वप्यनुषङ्गः । ततश्चैवं प्रथमं गणानामिति त्रिः प्रदक्षिणं परियन्ति । तत्र सकृन्मन्त्रेण द्विस्तूष्णीम् । ततः प्रियाणामित्यप्रदक्षिणं त्रिः निधीनामिति प्रदक्षिणं त्रिः एवं नवकृत्व इति सूत्रार्थः । त्रीणि यजूंषि लिङ्गोक्तदेवत्यानि । हे अश्व, वयं त्वां हवामहे आह्वयामः । कीदृशं त्वाम् । गणपतिं गणानां मध्ये गणपतिं गणरूपेण पालकम् । प्रियाणां वल्लभानां मध्ये प्रियपतिं प्रियस्य पालकम् । निधीनां सुखनिधीनां मध्ये निधिपतिं सुखनिधेः पालकं त्वां हवामहे । हे वसुरूप अश्व, मम पतिस्त्वं भूया इति शेषः । 'प्रक्षालितेषु महिष्यश्वमुपसंविशत्याहमजानीति' (का० २०।६।१४)। प्रक्षालितेषु शोधितेषु पशूनां प्राणेषु पत्नीभिरध्वर्युणा यजमानेन प्राणशोधने कृते महिषी अश्वसमीपे शेते । अश्वदेवत्यम् । हे अश्व, गर्भधं गर्भं दधाति गर्भधं गर्भधारकं रेतः अहम् आ अजानि आकृष्य क्षिपामि । 'अज गतिक्षेपणयोः' लोट् । तं च गर्भधं रेतः आ अजासि आकृष्य क्षिपसि ॥ १९॥
विंशी।
ता उ॒भौ च॒तुर॑: प॒दः सं॒प्रसा॑रयाव स्व॒र्गे लो॒के प्रोर्णु॑वाथां॒ वृषा॑ वा॒जी रे॑तो॒धा रेतो॑ दधातु ।। २० ।।
उ० ता उभौ । यो आवां कृतसंकेतौ तौ उभौ त्वं चाहं च । चतुरः पदः पादान् । द्वौ तव संबन्धिनौ द्वौ च मम संबन्धिनौ । संप्रसारयाव । एवं हि संबन्धे संवेशप्रकार इत्यभिप्रायः । अधीवासेन प्रच्छादयति । स्वर्गे लोके । 'एष वै स्वर्गो लोको यत्र पशुᳪं᳭ संज्ञपयन्ति' । प्रोर्णुवाथाम् । उर्णोतिराच्छादने । प्रोर्णुवनं कुरुतमित्यध्वर्युराह । अश्वशिश्नमुपस्थे कुरुते । वृषा वाजी वृषा सेक्ता वाजी अश्वः रेतोधा रेतसः धारयिता रेतो दधातु आसिञ्चतु ॥ २०॥
म० पूर्वमन्त्रशेषः । तौ त्वमहं च उभौ चतुरः पदः पादा नावां संप्रसारयाव तव द्वौ मम द्वौ एवं संवेशनप्रकारः । 'अधीवासेन प्रच्छादयति स्वर्गे लोक इति' ( का० २० । ६ ।१४) । अधीवासेनाश्वमहिष्यौ छादयति अध उपरिष्टाच्चाच्छादनक्षमं वासोऽधीवासः । अश्वदेवत्यम् । अध्वर्युर्वदति । हे अश्वमहिष्यौ, युवां स्वर्गे लोकेऽस्यां यज्ञभूमौ प्रोर्णुवाथां वास आच्छादयतम् । 'ऊर्णुञ् आच्छादने' 'एष वै स्वर्गों लोको यत्र पशुᳪं᳭ संज्ञपयन्ति' (१३ । २ । ८ । ५) इति श्रुतेः। 'अश्वशिश्नमुपस्थे कुरुते वृषा वाजीति' (का० २० । ६ । १६)। महिषी स्वयमेवाश्वशिश्नमाकृष्य स्वयोनौ स्थापयति । अश्वदेवत्यम् । वाजी अश्वो रेतो दधातु मयि वीर्यं स्थापयतु । कीदृशोऽश्वः । वृषा सेक्ता रेतोधाः रेतो दधातीति रेतोधाः वीर्यस्य धारयिता ॥ २०॥
एकविंशी।
उत्स॑क्थ्या॒ अव॑ गु॒दं धे॑हि॒ सम॒ञ्जिं चा॑रया वृषन् । यः स्त्री॒णां जी॑व॒भोज॑नः ।। २१ ।।
उ० उत्सक्थ्या । गायत्र्याऽश्वं यजमानोऽभिमन्त्रयते । उद्गते सक्थिनी यस्याः सा उत्सक्थी तस्या उत्सक्थ्या महिष्याः। अवगुदं धेहि अवाचीनं गुदम् रेतो धेहि सिञ्च । कथमितिचेत् । समञ्जिं चारया वृषन् संचारय अञ्जिम् । अनक्ति व्यनक्ति पुंस्त्वमित्यञ्जिः पुंस्त्वजननमुक्तम् । हे वृषन् सेक्तः । कथंभूतोऽञ्जिः । यः स्त्रीणां जीवभोजनः यस्मिन्सति स्त्रियो जीवन्तीत्युच्यन्ते । यस्मिंश्च सति भोजनादीन् भोगान् लभ्यते । स जीवभोजनः ॥ २१ ॥
म० 'उत्सक्थ्या इत्यश्वं यजमानोऽभिमन्त्रयते' (का० २० । ६ । १७)। अश्वदेवत्या गायत्री । हे वृषन् सेक्तः अश्व, महिष्या गुदमव गुदोपरि रेतो धेहि वीर्यं धारय । कीदृश्याः । उत्सक्थ्याः उत् ऊर्ध्वे सक्थिनी ऊरू यस्याः सा उत्सक्थी तस्याः । कथं तदाह । अञ्जिं लिङ्गं संचारय । अनक्ति व्यनक्ति पुंस्त्वमित्यञ्जिर्लिङ्गम् । लिङ्गं योनौ प्रवेशय । योऽञ्जिः स्त्रीणां जीवभोजनः जीवयति जीवः भोजयति भोजनः जीवश्चासौ भोजनश्च जीवभोजनः । यस्मिन् लिङ्गे योनौ प्रविष्टे स्त्रियो जीवन्ति भोगांश्च लभन्ते तं प्रवेशय ॥ २१ ॥
द्वाविंशी।
य॒कास॒कौ श॑कुन्ति॒काऽऽहल॒गिति॒ वञ्च॑ति । आह॑न्ति ग॒भे पसो॒ निग॑ल्गलीति॒ धार॑का ।। २२ ।।
उ० इत उत्तरं दशानुष्टुभोऽभिमेथिन्यः । पुंस्त्वजननमुक्तम् । द्वितीयोपरिष्टाद्बृहती । अत्र च यो यत्र भण्यते स तत्र देवतात्वमुपगच्छति । अध्वर्युः कुमारीमभिमेथयति । | यकासकौ । अकच्प्रत्ययोऽत्र कुत्सायाम् । अङ्गुल्या प्रदर्शयन्नाह । यकाऽसकौ शकुन्तिका । अल्पे कन् प्रत्ययः । अल्पीयसी पक्षिणीव । आहलक् इति प्रकारवचनम् । हलेहले इति ब्रुवन्ती । वञ्चति त्वरितं गच्छति । चपलेत्यर्थः । तस्या अपि आहन्ति । हन्तिर्गत्यर्थः। आगच्छति । अन्तर्भावितण्यर्थो वा । आगमयति प्रवेशयति । अत्यर्थं वाहन्ति । गभे पसः गभ इति आद्यन्तवर्णविपर्ययः । पसः पसतेः स्पृशतिकर्मणः । भगे शिश्नमाहन्तीत्यर्थः । अथ तदा निगल्गलीति अत्यर्थं शुक्रं मुञ्चति धारका योनिः । यद्वा शब्दानुकरणम् निगल्गलीति गिरते वा । निगिरति शिश्नं योनिः ॥ २२ ॥
म० 'अध्वर्युब्रह्मोद्गातृहोतृक्षत्तारः कुमारीपत्नीभिः संवदन्ते यकासकाविति दशर्चस्य द्वाभ्यां द्वाभ्याᳪं᳭ हये-हयेऽसावित्यामन्त्र्यामन्त्र्य' ( का० २० । १।१८) । अध्वर्य्वादयः पञ्च हये हयेऽसाविति संबुद्ध्यन्तनामोच्चारणपूर्वकं संमुखीकृत्य यकासकाविति दशर्चसंबन्धिनीभ्यां द्वाभ्यामृग्भ्यां कुमारीपत्नीभिः सहसोपहासं संवदन्ते । तत्र प्रथममध्वर्युः कुमारीं पृच्छति कुमारि हये हये कुमारि यकासकौ शकुन्तिकेत्यर्थः । कुमार्यादिदेवत्या दश तन्मध्ये द्वितीयोपरिष्टाद्बृहती अन्या नवानुष्टुभः । 'अव्ययसर्वनाम्नामकच्प्राक्टेः' (पा० ५। ३ । ७१) इति अकच् कुत्सायाम् । अल्पा शकुन्तिः शकुन्तिका 'अल्प' (पा० ५। ३ । ८५) इति कन् । अङ्गुल्या योनिं प्रदर्शयन्नाह । यका या असकौ असौ शकुन्तिका अल्पपक्षिणीव आहलक् शब्दानुकरणम् । हले हले इति शब्दयन्ती वञ्चति गच्छति । स्त्रीणां शीघ्रगमने योनौ हलहलाशब्दो भवतीत्यर्थः । गभे वर्णविपर्यय आर्षः । भगे योनौ शकुनिसदृश्यां यदा पसो लिङ्गमाहन्ति आगच्छति । 'पस इति पसतेः स्पृशतिकर्मणः' (निरु. ५। १६) इति यास्कः । पुंस्प्रजननस्य नाम । हन्तिर्गत्यर्थः । यदा भगे शिश्नमागच्छति तदाधारका धरति लिङ्गमिति धारका योनिर्निगल्गलीति नितरां गलति वीर्यं क्षरति । यद्वानुकरणम् । गल्गलेति शब्द करोति ॥ २२ ॥
त्रयोविंशी।
य॒को॒ऽस॒कौ श॑कुन्त॒क आ॒हल॒गिति॒ वञ्च॑ति । विव॑क्षत इव ते॒ मुख॒मध्व॑र्यो॒ मा न॒स्त्वम॒भि भा॑षथाः ।। २३ ।।
उ० अध्वर्युं प्रत्याह कुमारी। यकोऽसकौ । यकः असकौ यः असौ शकुन्तक इव आहलगिति वञ्चति । तस्याश्लीलं भाषिणः किमन्यत् ब्रवीमि । विवक्षत इव ते मुखम् । असाधु वक्तुमिच्छत इव ते मुखं पश्यामि अतो हे अध्वर्यो, मा नः अस्मान् त्वमभिभाषथाः ॥ २३ ॥
म० कुमारी अध्वर्युं प्रत्याह । अङ्गुल्या शिश्नं प्रदर्शयन्त्याह । हे अध्वर्यो, यकः यः असकौ असौ शकुन्तकः पक्षीव विवक्षतः वक्तुमिच्छतस्ते तव मुखमिव आहलगिति वञ्चति इतस्ततश्चलति अग्रभागे सच्छिदं लिङ्गं तव मुखमिव भासते । अतो नोऽस्मान्प्रति मा अभिभाषथाः मा वद तुल्यत्वात् ॥ २३ ॥
चतुर्विशी।
मा॒ता च॑ ते पि॒ता च॒ तेऽग्रं॑ वृ॒क्षस्य॑ रोहतः । प्रति॑ला॒मीति॑ ते पि॒ता ग॒भे मु॒ष्टिम॑तᳪं᳭सयत् ।। २४ ।।
उ० ब्रह्मा महिषीमभिमेथति । माता च ते । हे महिषि, यदा माता च तव पिता च तव । अग्रं वृक्षस्य । वार्क्ष्यस्येति तद्धितलोपः । वार्क्ष्यस्य पर्यङ्कस्य उपरितनं भागं रोहतः मैथुनार्थमेकं पर्यङ्कमारोहत इति अश्लीलाभिप्रायं वचनम् तदा प्रतिलामीति 'तिल स्नेहने' । स्नेहाम्यहमनेन कर्मणा इति एवमिति प्रकारवचनं वदन् । तव पिता गभे भगे मुष्टिं मुष्ट्याकारं शिश्नम् अतंसयत् अक्षिपत् । एवं तवोत्पत्तिः ॥ २४ ॥
म० ब्रह्मा महिषीमाह । महिषि हे महिषि, ते तव माता च पुनस्ते तव पिता यदा वृक्षस्य वृक्षजस्य काष्ठमयस्य मञ्चकस्याग्रमुपरिभागं रोहतः आरोहतः तदा ते पिता गभे भगे मुष्टिं मुष्टितुल्यं लिङ्गमतंसयत् तंसयति प्रक्षिपति एवं तवोत्पत्तिरित्यश्लीलम् । 'तसि अलंकृतौ' चुरादिः । लिङ्गमुत्थानेनालंकरोति वा । किं कुर्वन् । प्रतिलामीति वदन्निति शेषः । 'तिल स्नेहने' तव भोगेन स्निह्यामीति वदन् । एवं तवोत्पत्तिः ॥ २४ ॥
पञ्चविंशी।
मा॒ता च॑ ते पि॒ता च॒ तेऽग्रे॑ वृ॒क्षस्य॑ क्रीडतः । विव॑क्षत इव ते॒ मुखं॒ ब्रह्म॒न्मा त्वं व॑दो ब॒हु ।। २५ ।।
उ० महिषी प्रत्याह । माता च ते। हे ब्रह्मन् , यदा माता च ते पिता च ते अग्रे वृक्षस्य पर्यङ्कस्य क्रीडतः । तदा त्वमुत्पन्नः । तुल्योत्पत्तिरावयोः। यश्चोभयोर्दोषो न तमेकश्चोदयितुमर्हति । एवं सति यदसाधु वदितुमिच्छत इव ते मुखं पश्यामि तत् हे ब्रह्मन्, मा त्वं वदो बहु ॥ २५॥
म० सानुचरी महिषी ब्रह्माणं प्रत्याह । हे ब्रह्मन् , ते तव माता ते पिता च यदि वृक्षस्य वृक्षविकारस्य मञ्चकस्याग्रे क्रीडतः रमेते तदा तवोत्पत्तिरिति तवापि तुल्यम् । 'यत्रोभयोः समो दोषः परिहारोऽपि वा समः । नैकः पर्यनयोक्तव्यस्तादृगर्थविचारणे' इति न्यायात्त्वयेदं न वक्तव्यमिति भावः । एवं सत्यपि विवक्षतः वक्तुमिच्छोरिव ते तव मुखं लक्ष्यत इति शेषः । हे ब्रह्मन् , त्वं मा बहु वदः मा ब्रूहि ॥ २५ ॥
षड्विंशी।
ऊ॒र्ध्वमे॑ना॒मुच्छ्रा॑पय गि॒रौ भा॒रᳪं᳭ हर॑न्निव । अथा॑स्यै॒ मध्य॑मेधताᳪं᳭ शी॒ते वाते॑ पु॒नन्नि॑व ।। २६ ।।
उ० उद्गाता वावातामभिमेथयति ऊर्ध्वामेनाम् कंचित्पुरुषमाह । ऊर्ध्वामेनां वावाताम् उच्छ्रितां कुरु । कथमिव । गिरौ भारं मध्ये निगृह्य हरेत् एवमेनां मध्ये निगृह्य ऊर्ध्वामुच्छ्रापय । अथ यथेत्येतस्य स्थाने । तथाच उच्छ्रापय यथा अस्या वावाताया मध्यं योनिप्रदेशः एधताम् । 'एध वृद्धौ' वृद्धिं यायात् अथैनां गृह्णीयाः । शीते वाते पुनन्निव । यथा कृषीवलः धान्यं वाते शुद्धं कुर्वन् ग्रहणमोक्षौ झटिति करोति ॥ २६ ॥
म० उद्गाता वावातामाह । कंचिन्नरं प्रत्याह । हे नर, एनां वावातामूर्ध्वमुच्छ्रापय उच्छ्रितां कुरु । कथमिव । गिरौ भारं हरन्निव । यथा कश्चित् गिरौ पर्वते भारं हरन् पर्वतोपरि भारमारोपयन् यथा तमुच्छ्रयति तथैनामूर्ध्वां कुरु । कथमूर्ध्वा कार्या तदाह । अथेति निपातो यथार्थः । यथा अस्यै अस्या वावाताया मध्यमेधतां योनिप्रदेशो वृद्धिं यायात् । यथा योनिर्विशाला भवति तथा मध्ये गृहीत्वोच्छ्रापयेत्यर्थः । दृष्टान्तान्तरमाह । शीते वाते पुनन्निव । यथा शीतले वायौ वाति पुनन्धान्यपवनं कुर्वाणः कृषीवलो धान्यपात्रं यथा ऊर्ध्वं करोति तथेत्यर्थः ॥ २६ ॥
सप्तत्रिंशी।
ऊ॒र्ध्वमे॑न॒मुच्छ्र॑यताद्गि॒रौ भा॒रᳪं᳭ हर॑न्निव । अथा॑स्य॒ मध्य॑मेजतु शी॒ते वाते॑ पु॒नन्नि॑व ।। २७ ।।
उ० वावाता प्रत्याहोद्गातारम् । भवतोप्येतदेवम् । ऊर्ध्वमेनम् । उद्गातारमुच्छ्रयतात् उच्छ्रापय । अत्र स्त्री पुरुषायते । गिरौ भारं हरन्निव । अथैवं क्रियमाणस्यास्य मध्यं प्रजननम् एजतु चलतु । अथैनं निगृहीष्व शीते वाते पुनन्निव यवान् ॥ २७ ॥
म० वावातोद्गातारं प्रत्याह । भवतोऽप्येतत्समानम् । हे नर, एनमुद्गातारमूर्ध्वमुच्छ्रयतात् ऊर्ध्वं कुरु । गिरौ भारमिति पूर्ववत् । अथ यथास्य उद्गातुर्मध्यं लिङ्गमेजत् कम्पताम् ‘एजृकम्पने' लोट् । शीते वाते उक्तम् ॥ २७ ॥
अष्टाविंशी।
यद॑स्या अᳪं᳭हु॒भेद्या॑: कृ॒धु स्थू॒लमु॒पात॑सत् । मु॒ष्काविद॑स्या एजतो गोश॒फे श॑कु॒लावि॑व ।। २८ ।।
उ० होता परिवृक्तामभिमेथयति । यदस्याः । यत् यदा अस्याः परिवृक्तायाः । अंहुभेद्याः अल्पयोनेः । अंहुः हन्तव्यः भेद्यप्रदेशः प्रजननमस्या इति अंहुभेदी तस्याः अंहुभेद्याः । कृधु इति ह्रस्वनाम । ह्रस्वं शिश्नम् स्थूलं च उपातसत् उपसङ्गच्छेत् । अथ तदा अल्पत्वात् योनेः स्थूलत्वात् ह्रस्वत्वाच्च दुःप्रजननस्य । मुष्कौ वृषणौ इत् एवम् अस्याः प्रजननस्योपरि एजतः । 'एजृ कम्पने' कम्पनं कुरुतः । कथमिव गोशफे गोष्पदे उदकपूर्णे । शकुलाविव मत्स्याविव ॥२८॥
म० होता परिवृक्तामाह । यत् यदा अस्याः परिवृक्तायाः कृधु ह्रस्वं स्थूलं च शिश्नमुपातसत् उपगच्छेत् योनिं प्रति गच्छेत् 'तंस उपक्षये' तदा मुष्कौ वृषणौ इत् एव अस्याः योनेरुपरि एजतः कम्पेते । लिङ्गस्य स्थूलत्वाद्योनेरल्पत्वाद्वृषणौ बहिस्तिष्ठत इत्यर्थः । तत्र दृष्टान्तः । गोशफे जलपूर्णे गोः खुरे शकुलौ मत्स्याविव यथा उदकपूर्णे गोः पदे मत्स्यौ कम्पेते । कृध्विति ह्रस्वनाम । कीदृश्या अस्याः । अंहुभेद्याः अंहु भगं भेद्यं विदार्यं यस्याः सा अंहुभेदी तस्याः, अंहुर्भिद्यते यस्या वा ॥ २८ ॥
एकोनत्रिंशी।
यद्दे॒वासो॑ ल॒लाम॑गुं॒ प्र वि॑ष्टी॒मिन॒मावि॑षुः । स॒क्थ्ना दे॑दिश्यते॒ नारी॑ स॒त्यस्या॑क्षि॒भुवो॒ यथा॑ ।। २९ ।।
उ० परिवृक्ता प्रत्याह । यद्देवासः । होतृप्रमुखान् सर्वानेव ऋत्विजः परिवदति । यदा एते देवासः शिश्नदेवाः शिश्नक्रीडनाः । ललामगुम् । ललामेति सुखमभिधीयते । सुखं कर्तुं गच्छतीति ललामगुः शिश्नम् । यद्वा ललामेति पौण्ड्रमभिधीयते । शिश्नं हि योनिं प्रविशत् पौण्ड्रं भवति । प्रविष्टीमिनम् प्रवेश्य विष्टभ्य च । आविषुः आलिङ्गनचुम्बनादिभिर्निगृह्णीयुर्नारीम् । अथ तदा सक्थ्ना देदिश्यते नारी सक्थिकृतेन कुटिलगमनेन निर्दिश्यते लक्ष्यते नारी । नहि तस्याः किंचिदव्याप्तं पुरुषेण भवति अन्यत्र सक्थ्न इत्यभिप्रायः । कथमिव सत्यस्याक्षिभुवो यथा। द्विप्रकारं सत्यम् अक्षिप्रभवमनक्षिप्रभवं चेति । | अक्षिग्राह्यमक्षिप्रभवम् । तत्र हि सर्वं व्याप्तं भवति । अनक्षिप्रभवं श्रोत्रग्राह्यम् । तत्तु साकाङ्क्षं वक्तुराप्ततामपेक्षते । अतो विशिनष्टि अक्षिभुव इति । सत्यस्य अक्षिभुवो यथा अवितथत्वं तथेति ॥ २९॥
म० परिवृक्ता होतारमाह । यत् यदा देवासः देवाः दीव्यन्ति क्रीडन्ति देवा होत्रादय ऋत्विजो ललामगुं लिङ्गं प्र आविषुः योनौ प्रवेशयन्ति । 'अव रक्षे गतौ कान्तौ तृप्तौ ' प्रीतौ द्युतौ श्रुतौ । प्राप्तौ श्लेषेऽर्पणे वेशे भागे वृद्धौ गृहे वधे ॥'इत्युक्तेरत्रावधातुः प्रवेशनार्थः । लुङ् 'छन्दसि लुङ्लङ्लिटः' (पा० ३ । ४ । ६ ) इति वर्तमाने लुङ् 'व्यवहिताश्च' (पा. १।४। ८२) इति प्रोपसर्गेण व्यवधानम् । ललामेति सुखनाम । ललाम सुखं गच्छति प्राप्नोति ललामगुः शिश्नः । यद्वा 'ललामं पुण्ड्रं गच्छति ललामगुः लिङ्गं योनिं प्रविशदुत्थितं पुड्राकारं भवतीत्यर्थः । कीदृशं ललामगुम् । विष्टीमिनं 'ष्टीम क्लेदे' विशेषेण स्तीमनं क्लेदनं विष्टीमः घञ्प्रत्ययः विष्टीमः क्लेदोऽस्यास्ति विष्टीमी तम् 'अत इनिठनौ' (पा० ५।२। । ११५) इत्यस्त्यर्थे इनिप्रत्ययः । शिश्नस्य योनिप्रवेशे क्लेदनं भवतीत्यर्थः । यदा देवाः शिश्नक्रीडिनो भवन्तो ललामगुं योनौ प्रवेशयन्ति तदा नारी सक्थ्ना ऊरुणा ऊरुभ्यां देदिश्यते
निर्दिश्यते अत्यन्तं लक्ष्यते । दिश्यतेर्यङ्प्रत्ययः । भोगसमये सर्वस्य नार्यङ्गस्य नरेण व्याप्तत्वादूरुमात्रं लक्ष्यते इयं नारीत्यर्थः । तत्र दृष्टान्तः । सत्यस्याक्षिभुवो यथेति । सत्यं द्विविधम् अक्षिभ्यां भवतीत्यक्षिभु प्रत्यक्षं । एकं च श्रोत्रग्राह्यम् । षष्ठ्यौ तृतीयार्थे । भवति यथा कश्चिदक्षिभुवा प्रत्यक्षेण सत्येन निर्दिश्यते तत्र विश्वासो भवति तथा उरुणा दृष्टेन नारीति लक्ष्यत इत्यर्थः । श्रोत्रग्राह्ये तु सत्ये वक्तुराप्ततमत्वमपेक्षितम् ॥ २९ ॥
त्रिंशी।
यद्ध॑रि॒णो यव॒मत्ति॒ न पु॒ष्टं प॒शु मन्य॑ते । शू॒द्रा यदर्य॑जारा॒ न पोषा॑य धनायति ।। ३० ।।
उ० क्षत्ता पालागलीमभिमेथयति । यद्धरिणः । यदा हरिणो मृगः यवं सस्यम् अत्ति भक्षयति । अथ तदा क्षेत्री। न पुष्टं पशु । पशुमिति प्राप्ते विभक्तिलोपः । पुष्टं पशुम् मन्यते अवगच्छति । मम क्षेत्रं भक्षितमिति यथा । एवं शूद्रा यत् यस्य शूद्रस्य भर्तुः । अर्यजारा अर्यः वैश्यः जारो यस्याः सा अर्यजारा भवेत् तदा स शूद्रः क्षेत्री । न पोषाय ममैतदिति मन्यते । नच तस्यां धनायति धनमिव च तां न मन्यते परस्योपभोग्यत्वात् ॥ ३०॥
म० क्षत्ता पालागलीमाह । यत् यदा हरिणो यवमत्ति मृगो यदा क्षेत्रस्थं धान्यं भक्षयति तदा क्षेत्री पशु पशुं हरिणं पुष्टं न मन्यते मम धान्यभक्षणेन पशुः पुष्टो जातः सम्यगिति न जानाति किंतु मदीयं क्षेत्रं भक्षितमिति दुःखी भवतीत्यर्थः । पशुशब्दात् 'सुपां सुलुक्' इत्यमो लुक् । एवं शूद्रा शूद्रजातिः स्त्री यदा अर्यजारा भवति 'अर्यः स्वामिवैश्ययोः' (पा० ३।१।१०३) इति निपातनादर्यो वैश्यो जार उपपतिर्यस्याः सा अर्यजारा । 'शूद्रा चामहत्पूर्वा जातिः' (पा. ४।१।४) इति शूद्राज्जात्यर्थे टाप् । वैश्यो यदा शूद्रां गच्छति तदा शूद्रः पोषाय न धनायते पुष्टिं न गच्छति मद्भार्या वैश्येन भुक्ता सती पुष्टा जातेति न मन्यते किंतु व्यभिचारिणी जातेति दुःखितो भवतीत्यर्थः । 'अशनायोदन्य-' (पा. ७ । ४ ।। ३४) इति क्यचि धनायतीति इच्छार्थे निपातः ॥ ३० ॥
एकत्रिंशी।
यद्ध॑रि॒णो यव॒मत्ति॒ न पु॒ष्टं ब॒हु मन्य॑ते । शू॒द्रो यदर्या॑यै जा॒रो न पोष॒मनु॑ मन्यते ।। ३१ ।।
उ० पालागली प्रत्याह । यद्धरिणो यवमत्ति न पुष्टं बहु मन्यते क्षेत्रीति । यदुक्तं भवतोप्येतदेवमिति सोल्लुण्ठमाह ।' इयांस्तु विशेषः । शूद्र यत् अर्यायै अर्यायाः वैश्यायाः जारः जारयिता । तदा क्षेत्री वैश्यः आत्मनः पोषं नानुमन्यते । नहि सा तस्य पोष्या निकृष्टश्च शूद्रः उत्कृष्टा वैश्या इति । समाप्तमश्लीलभाषणम् ॥ ३१ ॥
म० पालागली क्षत्तारमाह । यदा हरिणो यवमत्ति तदा बहु यथा तथा पशुं पुष्टं न मन्यते । इदं भवतोऽपि तुल्यम् । इयान् विशेषः । यत् यदा शूद्रः अर्यायै अर्याया वैश्याया जारो भवति तदा वैश्यः पोषं पुष्टिं नानुमन्यते मम स्त्री पुष्टा जातेति नानुमन्यते किंतु शूद्रेण नीचेन भुक्तेति क्लिश्यतीत्यर्थः । अश्लीलभाषणं समाप्तम् ॥ ३१ ॥
द्वात्रिंशी।
द॒धि॒क्राव्णो॑ अकारिषं जि॒ष्णोरश्व॑स्य वा॒जिन॑: ।
सु॒र॒भि नो॒ मुखा॑ कर॒त्प्र ण॒ आयू॑ᳪं᳭षि तारिषत् ।। ३२ ।।
उ० ऋत्विजो यजमानश्च सुरभिमतीमृचमन्तत आहुः वाचमेवं पुनन्ति । दधिक्राव्णः । अनुष्टुब्वैश्वदेवत्या । यत् दधिक्राव्णः अश्वस्य संस्कारार्थमश्लीलभाषणं अकारिषं अकार्षम् अकार्ष्म कृतवन्तः । वचनव्यत्ययः एकवचनस्य स्थाने बहुवचनं बोध्यम् । उपरिष्टाद्बहूनि पदानि बहुवचनान्तानि दृश्यन्ते । किंभूतस्य दधिक्राव्णः । जिष्णोः जेतुः अश्वस्य अशनस्य व्यापिनः वाजिनः। 'ओविजी भयचलनयोः' वेजनवतः तत्र सुरभीणि सुगन्धीनि । अश्लीलभाषणेन हि दुर्गन्धीनि मुखानि भवन्ति पापहेतुत्वात् । नः अस्माकं मुखानि । निकारलोपश्छान्दसः । करत् करोतु यज्ञ इत्यध्याहारः । किंच । प्राणः आयूंषि तारिषत् । प्रतारिषत् प्रवर्धयतु च नः अस्माकम् । बहुवचनं बालयौवनवृद्धवयोपेक्षम् ॥३२॥
म० 'महिषीमुत्थाप्य पुरुषा दधिक्राव्ण इत्याहुः' ( का० २० । ६ । २१)। महिषीं यजमानस्य प्रथमपरिणीतां पत्नीमश्वसमीपसुप्तामुत्थाप्य पुरुषा अध्वर्युब्रह्मोद्गातृहोतृक्षत्तारो मन्त्रं पठेयुरिति सूत्रार्थः । वामदेवात्मजदधिक्रावदृष्टाश्वदेवत्यानुष्टुप् । वयमध्वर्यादयः अकारिषमकार्ष्म कृतवन्तः । वचनव्यत्ययः । अश्लीलभाषणमिति शेषः । किमर्थम् । अश्वस्य संस्कारायेति शेषः । अश्वसंस्कारायाश्लीलभाषणं कृतवन्त इत्यर्थः । कीदृशस्याश्वस्य । दधिक्राव्णः दधाति धारयति नरमिति दधिः 'आदृगमहन-' (पा० ३।२ । १७१) इति किप्रत्ययः । । दधिः सन् क्रामतीति दधिक्रावा । तस्य 'अन्येभ्योऽपि दृश्यते' (पा० ३ । २ । ७५) इति वनिप्प्रत्ययः 'विड्वनोरनुनासिकस्यात्-' (पा० ६ । ४ । ४१) इति धातोराकारः । जिष्णोः जयनशीलस्य । वाजिनः वजति गच्छतीति वाजी वाजोऽस्यास्तीति वा वाजी तस्य च नोऽस्माकं मुखा मुखानि सुरभि सुरभीणि करत् करोतु यज्ञ इति शेषः । अश्लीलभाषणेन दुर्गन्धं प्राप्तानि 'मुखानि सुरभीणि यज्ञः करोत्वित्यर्थः । तथाच श्रुतिः 'सुरभिमतीमृचमन्ततोऽन्वाहुर्वाचमेव पुनन्तः (१३ । २ । ९ । ९) इति । सुरभिशब्दाद्विभक्तिलोपः । किंच नोऽस्माकमायूंषि जीवनानि बाल्ययौवनवार्धकानि प्रतारिषत् प्रतारयतु प्रवर्धयतु । लेटि रूपम् ॥ ३२॥
त्रयस्त्रिंशी।
गा॒य॒त्री त्रि॒ष्टुब्जग॑त्यनु॒ष्टुप्प॒ङ्क्त्या स॒ह । बृ॒ह॒त्युष्णिहा॑ क॒कुप्सू॒चीभि॑: शम्यन्तु त्वा ।। ३३ ।।
उ० पत्न्योसि पथं कल्पयन्ति । [२]गायत्री त्रिष्टुप् षड्भिर्ऋग्भिः । तत्राद्या उष्णिक् चतस्रोऽनुष्टुभः परा त्रिष्टुप् । गायत्री च त्रिष्टुप् च जगती च अनुष्टुप् च पङ्क्याषड सह बृहती च । उष्णिहा सह ककुप् च । सूचीभिः शम्यन्तु त्वाम् हे अश्व, मनमगानामभेदेन (?) वर्त्मनि दर्शनं सूचीभिः क्रियते तेन पथा असिः प्रवर्तते ॥ ३३ ॥
म० 'तिस्रः पत्न्योऽसि पथान्कल्पयन्त्यश्वस्य' सूचीभिर्लौहराजतसौवर्णीभिर्मणिसंख्याभिर्गायत्रीत्रिष्टुबिति द्वाभ्यां द्वाभ्याम् (का० २० । ७।१)। गायत्री त्रिष्टुबिति षडृचे द्वाभ्यां द्वाभ्यामृग्भ्यां महिष्याद्यास्तिस्रः पत्न्यः ताम्ररूप्यस्वर्णमयीभिः प्रत्येकमेकाधिकशतसंख्याभिः सूचीभिरश्वाङ्गेऽसेः शासस्य मार्गान्कुर्वन्ति । शासस्य सुखप्रवेशाय सूचीभिर्वितुद्य वितुद्याश्वत्वचं जर्जरीकुर्वन्तीति सूत्रार्थः । अश्वदेवत्याः षड़ृचः आद्योष्णिक् । हे अश्व, गायत्री त्रिष्टुप् जगती अनुष्टुप् पङ्क्यारा सह बृहती उष्णिहा सह ककुप् एतानि छन्दांसि सूचीभिरेताभिः त्वां शम्यन्तु संस्कुर्वन्तु । विकरणव्यत्ययः । असिपथार्थं त्वग्भेदनं संस्कारः ॥ ३३ ॥
चतुस्त्रिंशी।
द्विप॑दा॒ याश्चतु॑ष्पदा॒स्त्रिप॑दा॒ याश्च॒ षट्प॑दाः ।
विच्छ॑न्दा॒ याश्च॒ सच्छ॑न्दाः सू॒चीभि॑: शम्यन्तु त्वा ।। ३४ ।।
उ० द्विपदा याः । याः द्विपदाः याश्च चतुष्पदाः याश्च त्रिपदाः याश्च षट्पदाः । याश्च विच्छन्दाः विगतं छन्दो याभ्यस्ताः । विषमाक्षराः विषमपदाः छन्दोलक्षणेनानभिसंबद्धाः । याश्च सच्छन्दाः अन्यूनातिरिक्ताक्षराश्छन्दसां जातयः ताः सर्वाः सूचीभिः शम्यन्तु त्वाम् ॥ ३४ ॥
म० चतस्रोऽनुष्टुभः । द्वे पदे यासां ता द्विपदाः याः चतुप्पदाः याः त्रिपदाः याः षट्पदाः याः विच्छन्दाः विगतं छन्दो याभ्यस्ताः छन्दोलक्षणहीनाः याः सच्छन्दाः छन्दोलक्षणयुताः ताः सर्वाः छन्दोजातयः हे अश्व, सूचीभिः त्वां शम्यन्तु ॥ ३४ ॥
पञ्चत्रिंशी।
म॒हाना॑म्न्यो रे॒वत्यो॒ विश्वा॒ आशा॑: प्र॒भूव॑रीः ।
मैघी॑र्वि॒द्युतो॒ वाच॑: सू॒चीभि॑: शम्यन्तु त्वा ।। ३५ ।।
उ० महानाम्न्यो रेवत्यः । महानाम्न्य ऋचः शाक्वर्य इति या भण्यन्ते । रेवत्य एता अपि रेवत्यः । रेवतं तासु साम भवति । विश्वाः सर्वाः आशा दिशः । प्रभूवरीः प्रभूततमाः । मैघीः मेघे भवाः विद्युतः तदुत्पन्ना याश्च वाचः ताः सर्वाः सूचीभिः शम्यन्तु । शमनेन हविः कुर्वन्तु त्वाम् ॥ ३५॥
म० महत् नाम यासां ता महानाम्न्यः शक्वर्य ऋचः। रेवत्यः ऋचः यस्यामृचि रैवतं साम गीयते सा रेवती । विश्वाः सर्वाः आशा दिशः। कीदृश्य आशाः । प्रभूवरीः प्रभवन्ति सर्वभूतानि धारयितुं समर्था भवन्ति प्रभूवर्यः 'अन्येभ्योऽपि दृश्यन्ते' (पा० ३ । २ । ७५) इति वनिप् 'ऋन्नेभ्यः-' (पा. ४। १ । ५) इति ङीप् 'वनो र च-' (पा० ४ । १।७) इति तस्य रेफः पूर्वसवर्णदीर्घत्वम् । मेघे भवा मैघ्यः । पूर्वसवर्णः । मेघोत्था विद्युतः वाचो वेदलक्षणा अन्या अपि । एताः सर्वाः सूचीभिः हे अश्व, त्वां शम्यन्तु हविः कुर्वन्तु ॥ ३५ ॥
षट्त्रिंशी।
नार्य॑स्ते॒ पत्न्यो॒ लोम॒ विचि॑न्वन्तु मनी॒षया॑ ।
दे॒वानां॒ पत्न्यो॒ दिश॑: सू॒चीभि॑: शम्यन्तु त्वा ।। ३६ ।।
उ० नार्यस्ते । नृणामपत्यानि बहूनि स्त्रीलक्षणानि नार्यः। ते तव । पत्न्यः यजमानस्य पत्न्यः । लोम लोमानि विचिन्वन्तु पृथक्कुर्वन्तु । मनीषया मनस इच्छया मनसः पर्यालोचनेन । देवानां च याः पत्न्यः दिशः ताः सर्वाः सूचीभिः शम्यन्तु शमनेन हविष्कुर्वन्तु त्वाम् ॥ ३६ ॥
म०. हे अश्व, नार्यः नृणामपत्यानि स्त्रियः ते तव लोम रोमाणि मनीषया मनसः इच्छया विचार्य विचिन्वन्तु पृथक्कुर्वन्तु । रोमेत्यत्र जातावेकवचनं विभक्तिलोपो वा । कीदृश्यो नार्यः । पत्न्यः ‘पत्युर्नो यज्ञसंयोगे' (पा. ४।१।३३) । इति नकारः । यजमानभार्या महिष्याद्या इत्यर्थः । किंच | देवानामिन्द्रादीनां पत्न्यः दिशः प्राच्याद्याः सूचीभिः त्वां शम्यन्तु ॥ ३६॥
सप्तत्रिंशी।
र॒ज॒ता हरि॑णी॒: सीसा॒ युजो॑ युज्यन्ते॒ कर्म॑भिः ।
अश्व॑स्य वा॒जिन॑स्त्व॒चि सिमा॑: शम्यन्तु॒ शम्य॑न्तीः ।। ३७ ।।
उ० रजता हरिणीः । रजतसुवर्णसीसमय्यः सूच्यः । युजः सहयोजनाः। युज्यन्ते कर्मभिः सीमालक्षणैः याः ताः अश्वस्य वाजिनः वेजनवतः त्वचि रोमसु सीमाः। सिमाशब्दः सीमपर्यायो मर्यादावचनः । सीमानं कुर्वाणाः शम्यन्तु हविः कुर्वन्तु । शम्यन्तीः हविष्कुर्वाणाः अश्वम् ॥३०॥ ।
म० रजताः रजतमय्यः हरिणीः हरिण्यः सुवर्णमय्यः सीसाः सीसं ताम्रं तन्मय्यः । 'त्रय्यः सूच्यो भवन्ति लोहमय्यो रजता हरिण्यः दिशो वै लोहमय्योऽवान्तरदिशो रजता ऊर्ध्वा हरिण्यस्ताभिरेवैनं कल्पयन्ति' (१३ । २।१०।६) इति श्रुतेः । सूचीनां दिग्रूपत्वादश्वसंस्कारक्षमत्वम् । ताः सूच्यः कर्मभिः अश्वदेहे सीमाकरणलक्षणैः युज्यन्ते योगं प्राप्नुवन्ति । सीमाकरणयोग्या भवन्तीत्यर्थः । कीदृश्यस्ताः । युजः युज्यन्ते ता युजः संयुताः । एकीभूता इत्यर्थः । ताः सूच्यो वाजिनो वेगवतोऽश्वस्य त्वचि सिमाः सीमारेखाः शम्यन्तु सम्यक् कुर्वन्तु। सिमाशब्दः सीमापर्यायः । कीदृश्यस्ताः । शम्यन्तीः शम्यन्त्यः संस्कारं कुर्वाणाः ॥ ३७ ॥
अष्टत्रिंशी।
कु॒विद॒ङ्ग यव॑मन्तो॒ यव॑ञ्चि॒द्यथा॒ दान्त्य॑नुपू॒र्वं वि॒यूय॑ ।
इ॒हेहै॑षां कृणुहि॒ भोज॑नानि॒ ये ब॒र्हिषो॒ नम॑ उक्तिं॒ यज॑न्ति ।। ३८ ।।
उ० कुविदङ्गेति व्याख्यातम् ॥ ३८ ॥
म० इयं व्याख्याता (अ० १० । क० ३२ ) ॥ ३८ ॥
एकोनचत्वारिंशी।
कस्त्वाऽऽच्छ्य॑ति॒ कस्त्वा॒ विशा॑स्ति॒ कस्ते॒ गात्रा॑णि शम्यति । क उ॑ ते शमि॒ता क॒विः ।। ३९ ।।
उ० अश्वं विशास्ति अनुवाकेन षडृचेन । तत्राद्या गायत्री परा अनुष्टुभः । कस्त्वा । कः प्रजापतिः त्वाम् आच्छ्यति । 'छो छेदने' । आच्छिनत्ति त्वचः । कश्च प्रजापतिः त्वां विशास्ति त्वचा वियोजयति । कश्च प्रजापतिः ते तव गात्राणि शरीराणि शम्यति शमनेन हविर्भावमापादयति । क उ ते प्रजापतिरेव ते शमिता कविः मेधावी क्रान्तदर्शनः । यद्वा प्रश्नरूपोऽयं मन्त्रः । कोऽयं मनुष्यः त्वाम् आच्छ्यति कश्च त्वां विशास्ति कश्च ते गात्राणि शम्यति । कश्च उ ते शमिता कविः । न कश्चिदपीत्यभिप्रायः । उः पादपूरणः ॥ ३९ ॥
म० 'अश्वं विशास्त्यनुवाकेन कस्त्वाऽऽच्छ्यतीति' ( का. २०। ७ । ६)। षडृचेनानुवाकेनाश्वं विशास्ति अश्वोदरं पाटयति मेदस उद्धरणाय । वपाया अभावात् उदरमध्यस्थं स्त्यानं घृताभं घनं श्वेतं मांसं मेद इति सूत्रार्थः । अश्वदेवत्याः षडृचः। आद्या गायत्री । हे अश्व, कः प्रजापतिः त्वा त्वामाच्छ्यति छिनत्ति । 'छो छेदने' लट् 'ओतः श्यनि' (पा० ७ । ३ । ७१ ) इति ओकारलोपः । हे अश्व, कः त्वां विशास्ति त्वचा वियोजयति । ते तव गात्राणि कः शम्यति शमनेन हविः करोति । कः उ कश्च प्रजापतिरेव कविर्मेधावी ते तव शमिता शमयिता । प्रजापतिरेव सर्वं करोति नाहमित्यर्थः ॥ ३९॥
चत्वारिंशी।
ऋ॒तव॑स्त ऋतु॒था पर्व॑ शमि॒तारो॒ वि शा॑सतु । सं॒व॒त्स॒रस्य॒ तेज॑सा श॒मीभि॑: शम्यन्तु त्वा ।। ४० ।।
उ० यस्मिन् पक्षे कस्त्वा प्रजापतिस्त्वेति व्याख्यातं तस्मिन्पक्षे प्रतार्यते । ऋतवस्ते । ऋतवश्च तव शमितारः ऋतुथा ऋतावृतै काले काले पर्व पर्वणि । संवत्सरस्य च तेजसा । शमीभिः कर्मभिः शम्यन्तु शमनेन हविर्भावमापादयन्तु त्वां । हे अश्व, यदा तु कः त्वां विशासितुं समर्थों मनुष्य एवं व्याख्यातं तदा ऋतवो देवाः ते शमितार इत्येवं व्याख्येयम् ॥ ४० ॥
म० पञ्चानुष्टुभः । हे अश्व, ऋतवः शमितारः ऋतुथा ऋतौ ऋतौ काले काले ते तव पर्वणि पर्वणि अस्थिग्रन्थीन् शमीभिः कर्मभिः विशासतु भिन्नानि कुर्वन्तु । केन संवत्सरस्य संवत्सरात्मकस्य कालस्य तेजसा । किंच ऋतवः त्वा त्वां शम्यन्तु पर्वविशासनेन हविः कुर्वन्तु ॥ ४० ॥
एकचत्वारिंशी।
अ॒र्ध॒मा॒साः परू॑ᳪं᳭षि ते॒ मासा॒ आच्छ्य॑न्तु॒ शम्य॑न्तः । अ॒हो॒रा॒त्राणि॑ म॒रुतो॒ विलि॑ष्टᳪं᳭ सूदयन्तु ते ।। ४१ ।।
उ० अर्धमासाः पक्षाः मासाश्च ते तव परूंषि पर्वाणि आच्छ्यन्तु आच्छिन्दन्तु । शम्यन्तः शमनेन हविर्भावमापादयन्तः । किंच । अहोरात्राणि मरुतश्च विलिष्टं दुःश्लिष्टं सूदयन्तु । 'षूद क्षरणे' पठितोऽपीह संधाने वर्तते वाक्ययोगात् । संदधन्तु ते तव ॥ ४१ ॥
म० अर्धमासाः पक्षाः मासाश्च तदभिमानिनो देवाः शम्यन्तः संस्कुर्वन्तः सन्तो हे अश्व, ते तव परूंषि पर्वाणि आच्छ्यन्तु समन्ताच्छिन्दन्तु । 'ग्रन्थिर्ना पर्वपरुषी' इति कोशः । किंच अहोरात्राणि अहोरात्राभिमानिदेवा मरुतश्च देवाः ते तव विलिष्टं 'लिश अल्पीभावे' विशेषेणाल्पमङ्गम् तत् सूदयन्तु संदधतु 'सूद क्षरणे' अत्र सन्धानार्थः व्यर्थं मास्तु ॥४१॥
द्विचत्वारिंशी।
दैव्या॑ अध्व॒र्यव॒स्त्वाच्छ्य॑न्तु॒ वि च॑ शासतु । गात्रा॑णि पर्व॒शस्ते॒ सिमा॑: कृण्वन्तु॒ शम्य॑न्तीः ।। ४२ ।।
उ०. दैव्या अध्वर्यवः । ये च दैव्या दिव्या अध्वर्यवः अश्विप्रभृतयः ते च त्वा त्वाम् आच्छ्यन्तु विच शासतु चकारो भिन्नक्रमः । विशासतु च । किंच गात्राणि पर्वशः ते तव सिमाः मर्यादाः कृण्वन्तु कुर्वन्तु । शम्यन्तीः मर्यादादर्शनेन शमनं कुर्वाणाः ॥ ४२ ॥
म०. देवानामिमे दैव्याः अश्विनौ देवानामध्वर्यू इत्युक्तत्वात् अश्विप्रमृतयो देवसंबन्धिनोऽध्वर्यवः हे अश्व, त्वा त्वामाच्छ्यन्तु आच्छिन्दन्तु विशासतु च । चकारो भिन्नक्रमः । हविः कुर्वन्तु । किंच ते तव गात्राणि । विभक्तिव्यत्ययः । गात्रेषु शरीरेषु पर्वशः पर्वणि पर्वणि सिमाः सीमा मर्यादाः कृण्वन्तु कुर्वन्तु । 'कॄ करणे' स्वादिः । कीदृशीः सीमाः । शम्यन्तीः संस्कुर्वाणाः ॥ ४२ ॥
त्रिचत्वारिंशी।
द्यौ॑स्ते पृथि॒व्यन्तरि॑क्षं वा॒युश्छि॒द्रं पृ॑णातु ते । सूर्य॑स्ते॒ नक्ष॑त्रैः स॒ह लो॒कं कृ॑णोतु साधु॒या ।। ४३ ।।
उ० द्यौस्ते द्यौश्च ते तव पृथिवी च अन्तरिक्षं च वायुश्च छिद्रं पृणातु पूरयतु ते । किंच । सूर्यश्च ते तव नक्षत्रैः सह लोकं स्थानं कृणोतु । साधुया साधुम् । द्वितीयार्थे या छान्दसः ॥ ४३ ॥
म० द्यौः स्वर्गः पृथिवी अन्तरिक्षं लोकत्रयाभिमानिनो देवाः अग्निवायुसूर्याः वायुरन्योऽपि शरीरस्थः प्राणादिः हे अश्व, ते तव छिद्रं पृणातु । वचनव्यत्ययः पृणन्तु पूरयन्तु । यत् न्यूनं तत् पूरयन्तु । किंच नक्षत्रैः सह नक्षत्रयुक्तः सूर्यः ते तव साधुया साधुं समीचीनं लोकं कृणोतु करोतु । 'सुपां सुलुक्' इत्यादिना साधुशब्दात्परस्यामो यादेशः । सूर्यस्ते उत्तमं लोकं ददात्वित्यर्थः ॥ ४३ ॥
चतुश्चत्वारिंशी ।
शं ते॒ परे॑भ्यो॒ गात्रे॑भ्य॒: शम॒स्त्वव॑रेभ्यः । शम॒स्थभ्यो॑ म॒ज्जभ्य॒: शम्व॑स्तु त॒न्वै तव॑ ।। ४४ ।।
उ० शं ते सुखं ते तव अस्तु । हे अश्व, परेभ्यः गात्रेभ्यः । शं सुखम् अवरेभ्यः अस्तु । शम् अस्थभ्यः अस्थिभ्यः मज्जभ्यश्च अस्तु । शं चास्तु तन्वै शरीराय । षष्ठ्यर्थे छन्दसि चतुर्थी वक्तव्येति षष्ठ्यर्थे चतुर्थी । तन्वाः तव ॥४४॥
म० हे अश्व, ते तव परेभ्योऽवयवेभ्य उच्चेभ्यः शिरआदिभ्यः शं सुखमस्तु । अवरेभ्यः अधःस्थेभ्यश्च पादादिभ्यो गात्रेभ्यः शमस्तु । अस्थभ्यः तवास्थिभ्यश्च शमस्तु । 'अस्थिदधि-' (पा. ७ । १ । ७५) इत्यस्यानुवृत्तौ 'छन्दस्यपि दृश्यते' (पा० ७ । १ । ७६ ) इति सूत्रेण हलादावप्यस्थिशब्दस्यानङादेशः । मज्जभ्यः पृष्ठधातुभ्योऽपि शमस्तु । किंबहुना तव तन्वै तन्वाः सर्वस्यापि शरीरस्य शमु सुखमेवास्तु ।। षष्ठी चतुर्थ्यर्थे । आशिषि वा चतुर्थी । उ एवार्थे ॥ ४४ ॥
पञ्चचत्वारिंशी।
कः स्वि॑देका॒की च॑रति॒ क उ॑ स्विज्जायते॒ पुन॑: । किᳪं᳭ स्वि॑द्धि॒मस्य॑ भेष॒जं किम्वा॒वप॑नं म॒हत् ।। ४५ ।।
उ० इत उत्तरं ब्रह्मोद्यमष्टादशर्चम् (उत्तरप्रत्युत्तरैः परस्परं संवादो ब्रह्मोद्यम्) । तत्राद्याश्चतस्रोऽनुष्टुभः कास्विदासीत्पूर्वचित्तिरित्याद्याश्च चतस्रोऽनुष्टुभः त्रिष्टुभोऽन्याः । होताध्वर्युं पृच्छति कः स्विदेकाकी इति ॥४५॥
म० 'प्राग्वपाहोमाद्धोताध्वर्युश्च सदसि संवदेते चतसृभिः' (का २० । ७ । १०)। कः स्विदेकाकीति पूर्ववत् । वपाहोमात्प्राक् च चतुर्ऋग्भिः पूर्ववदुक्तिप्रत्युक्त्या सदोमध्ये गत्वा होता अध्वर्युश्च संवादं कुरुतः । अष्टादश ऋचो ब्रह्मोद्यसंज्ञाः । ब्रह्मोद्यं परस्परं संवादः । आद्याश्चतस्रोऽनुष्टुभः का स्विदित्याद्याश्च (५३) अनुष्टुभः । होताध्वर्युं पृच्छति । व्याख्याता ॥४५॥
षट्चत्वारिंशी।
सूर्य॑ एका॒की च॑रति च॒न्द्रमा॑ जायते॒ पुन॑: । अ॒ग्निर्हि॒मस्य॑ भेष॒जं भूमि॑रा॒वप॑नं म॒हत् ।। ४६ ।।
उ० तं प्रत्याह । सूर्य एकाकी चरति । अग्रे व्याख्यातौ ॥ ४६॥
म० व्याख्याता ॥ ४६ ॥
सप्तचत्वारिंशी।
किᳪं᳭ स्वि॒त्सूर्य॑समं॒ ज्योति॒: किᳪं᳭ स॑मु॒द्रस॑म॒ᳪं᳭ सर॑: । किᳪं᳭ स्वि॑त्पृथि॒व्यै वर्षी॑य॒: कस्य॒ मात्रा॒ न वि॑द्यते ।। ४७ ।।
उ० अध्वर्युर्होतारं पृच्छति । किᳪं᳭ स्वित्सूर्यसमं ज्योतिः । किंच समुद्रसमं सरः । किंस्वित्पृथिव्यै पृथिव्याः वर्षीयः महत्तरम् । कस्य च मात्रा परिमाणं न विद्यते नास्ति ॥ ४७ ॥
म० अध्वर्युर्होतारं पृच्छति । हे होतः, स्विदिति तर्के । सूर्यसमं सूर्यमण्डलतुल्यं ज्योतिः तेजः किं तत् ब्रूहि । समुद्रसमं सरः किं स्वित् । पृथिव्यै पृथिव्याः सकाशात् वर्षीयः महत्तरं किं स्वित् । 'प्रियस्थिर-' (पा० ६ । ४ । १५७) इत्यादिना वृद्धस्य वर्षादेशः । कस्य मात्रा परिमाणं न विद्यते ॥ ४७ ॥
अष्टचत्वारिंशी।
ब्रह्म॒ सूर्य॑समं॒ ज्योति॒र्द्यौः स॑मु॒द्रस॑म॒ᳪं᳭ सर॑: । इन्द्र॑: पृथिव्यै॒ वर्षी॑या॒न् गोस्तु मात्रा॒ न वि॑द्यते ।। ४८ ।।
उ० तं प्रत्याह । ब्रह्म सूर्यसमम् । ब्रह्म त्रयीलक्षणं परं वा सूर्यसमं ज्योतिः। द्यौः समुद्रसमं सरः। इन्द्रः पृथिव्यै वर्षीयान् महत्तरः । गोस्तु मात्रा न विद्यते । गवा हि यज्ञो धार्यते । स जातः कारणं भवतीत्येतदभिप्रायम् । पृथिवी वा गौः ॥४८॥
म०. होता प्रत्याह सूर्यसमं ज्योतिर्ब्रह्म त्रयीलक्षणं परं च । समुद्रसमं सरो द्यौरन्तरिक्षं यतो वृष्टिर्भवति । पृथिव्यै पृथिव्याः सकाशात् इन्द्रः वर्षीयान् वृद्धतरः । तु पुनः गोः धेनोः मात्रा न विद्यते यज्ञधारकत्वात् ॥ ४८ ॥
एकोनपञ्चाशी।
पृ॒च्छामि॑ त्वा चि॒तये॑ देवसख॒ यदि॒ त्वमत्र॒ मन॑सा ज॒गन्थ॑ ।
येषु॒ विष्णु॑स्त्रि॒षु प॒देष्वेष्ट॒स्तेषु॒ विश्वं॒ भुव॑न॒मा वि॑वेशा३ ।। ४९ ।।
उ० ब्रह्मोद्गातारं पृच्छति । पृच्छामि त्वा भवन्तं चितये । 'चिती संज्ञाने' परिज्ञानाय । हे देवसख उद्गातः । यदि त्वम् अत्र पृष्टः सन्मनसा प्रश्नविवेचनाय सूक्ष्मानर्थान् जगन्थ अवगच्छसि । येषु विष्णुः यज्ञः त्रिषु पदेषु गार्हपत्याहवनीयदक्षिणाग्निषु आ इष्टः । यजेरेतद्रूपम् । तेषु विश्वं भुवनं भूतजातम् । आविवेश उत नेति प्रश्ने प्लुतः ॥ ४९ ॥
म० 'ब्रह्मोद्गातारौ च पृच्छामि त्वेति' ( का० २० । ७ । ११)। ब्रह्मोद्गातारं पृच्छति पृच्छामीति । चकाराच्चतुर्ऋग्भिः सदसि ब्रह्मोद्गातारौ संवदेते । ब्रह्मा उद्गातारं पृच्छति । पृच्छामि । देवानां सखा देवसखः 'राजाहःसखिभ्यष्टच्' हे देवसख देवानां मित्र उद्गातः, त्वा त्वां चितये ज्ञानायाहं पृच्छामि । अत्र मत्कृते प्रश्ने यदि त्वं मनसा जगन्थ जनासि गमेर्लिट् । ये गत्यर्थास्ते ज्ञानार्थाः । किं पृच्छसीत्यत आह । विष्णुः यज्ञो येषु त्रिषु पदेषु गार्हपत्याहवनीयदक्षिणाग्निषु एष्टः आ इष्टः यागेन तर्पितः । यजेः क्तः । तेषु त्रिषु पदेषु विश्वं सर्वं भुवनमाविवेश प्रविष्टमुत नेति प्रश्ने प्लुतः ॥ ४९ ॥
पञ्चाशी।
अपि॒ तेषु॑ त्रि॒षु प॒देष्व॑स्मि॒ येषु॒ विश्वं॒ भुव॑नमा वि॒वेश॑ ।
स॒द्यः पर्ये॑मि पृथि॒वीमु॒त द्यामेके॒नाङ्गे॑न दि॒वो अ॒स्य पृ॒ष्ठम् ।। ५० ।।
उ० प्रत्याह । अपि तेषु तेषु अहमस्मि अपि त्वं चेत्यपिशब्दः । तेषु गार्हपत्याहवनीयदक्षिणाग्निषु त्रिषु पदेषु । अहमस्मि त्वं च । केषु येषु । विश्वं भूतजातम् । आविवेश आविष्टम् । यत्पुनरेतदुक्तं भवता यदि त्वमत्र मनसा जगन्थेति । अत्र ब्रूमः । सद्यः एककालमेव । पर्येमि परिगच्छामि पृथिवीम् । उत अपिच द्याम् एकेन अङ्गेन मनसा अस्य दिवः पृष्ठं च किमुत भूतानि तत्राविष्टानीति ॥५०॥
म० उद्गाता प्रत्याह । येषु त्रिषु पदेषु विश्वं भुवनमाविवेशेति यत्त्वया पृष्टम् तेषु त्रिषु पदेषु गार्हपत्यादिषु अहमस्मि अहमपि तत्रैव स्थितोऽस्मि । अपिशब्दात् त्वं च तत्रैवासि । किमेतावदेव जानामि किंतु पृथिवीमुतापि च द्यां स्वर्गं दिवः स्वर्गस्य पृष्ठमुपरिभागमपि सद्यः तत्क्षणमेव एकेनाङ्गेन मनसा पर्येमि परिगच्छामि सर्वं जानामि किंपुनर्भूतानि प्रविष्टानीति भावः ॥ ५० ॥
एकपञ्चाशी।
केष्व॒न्तः पुरु॑ष॒ आ वि॑वेश॒ कान्य॒न्तः पुरु॑षे॒ अर्पि॑तानि ।
ए॒तद्ब्र॑ह्म॒न्नुप॑ वल्हामसि त्वा॒ किᳪं᳭ स्वि॑न्न॒: प्रति॑ वोचा॒स्यत्र॑ ।। ५१ ।।
उ० उद्गाता ब्रह्माणं पृच्छति । केष्वन्तः । केषु अन्तर्मध्ये पुरुषः आविवेश आविष्टः प्रविष्टः । कानि चान्तः : मध्ये पुरुषे अर्पितानि । एतत् हे ब्रह्मन् उपवल्हामसि । • 'वल्ह प्राधान्ये' । इह तु आह्वानपूर्वे संहर्षे वर्तते । उपसङ्गम्याहूयोत्क्षिप्य बाहू पृच्छामि भवन्तम् किंस्विन्नः किं पुनरस्माकं प्रति वोचासि मध्ये पुरुष आविवेश । किंच तानि प्राणाधीनानि करणानि अन्तः पुरुषे अर्पितानि । : एतत् त्वा भवन्तं प्रति मन्वानः प्रतिजानानः अस्मि अवस्थितः । नच मायया प्रज्ञया भवसि उत्तरः उद्गातृतरः मत् प्रति ब्रवीपि अत्र प्रश्ने ॥ ५१ ॥
म० उद्गाता ब्रह्माणं पृच्छति । हे ब्रह्मन् , पुरुषः केषु ' पदार्थेषु अन्तर्मध्ये आविवेश प्रविष्टः । पुरुषे अन्तः पुरुषमध्ये कानि वस्तूनि अर्पितानि स्थापितानि । एतत् त्वा त्वां वयमुपवल्हामसि उपवल्हामः स्पर्धया पृच्छामः 'वल्ह प्राधान्यपरिभाषणहिंसादानेषु' लट् 'इदन्तो मसि' अत्र प्रश्ने । किं स्वित् त्वं प्रतिवोचासि प्रतिवदसि । 'वच उम्' (पा० ७ । ४ । २० ) इति लेटि छान्दस उम् । 'लेटोऽडाटौ' (पा० ३ । । ४ । ९४) इत्याडागमः ॥५१॥
द्विपञ्चाशी। ।
प॒ञ्चस्व॒न्तः पुरु॑ष॒ आ वि॑वेश॒ तान्य॒न्तः पुरु॑षे॒ अर्पि॑तानि ।
ए॒तत्त्वात्र॑ प्रतिमन्वा॒नो अ॑स्मि॒ न मा॒यया॑ भव॒स्युत्त॑रो॒ मत् ।। ५२ ।।
उ० प्रत्याह । पञ्चस्वन्तः पञ्चस्विति प्राणाः ख्यायन्ते । पञ्चसु प्राणेषु मत्तः मामपेक्ष्य ॥ ५२ ॥
म० ब्रह्मा प्रत्याह । पुरुषः आत्मा पञ्चसु प्राणेषु अन्तः प्राणमध्ये आविवेश प्रविष्टः तानि प्रसिद्धानि श्रोत्राधिकरणानि पुरुषे अन्तः मध्ये अर्पितानि । प्राणात्मनामन्योन्यापेक्षासिद्धिरित्यर्थः । नचात्मानमन्तरेण प्राणाः ख्यायन्ते 'न प्राणानन्तरेणात्मेति' बह्वृचश्रुतेः । यद्वा पञ्चसु भूतेषु भूम्यादिषु आत्मा प्रविष्टस्तानि चात्मनि प्रविष्टानि 'तानि सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत्' इति श्रुतेः । उद्गातः, अहमत्र प्रश्ने । त्वा त्वां प्रति एतदुत्तरं प्रतिमन्वानः प्रतिजानानोऽस्मि । एवमुत्तरं ददामीत्यर्थः । किंच मायया बुद्ध्या मत् मत्तः उत्तरोऽधिकस्वं न भवसि । मत्तो बुद्धिमान्नासीत्यर्थः ॥ ५२ ॥
त्रिपञ्चाशी।
का स्वि॑दासीत्पू॒र्वचि॑त्ति॒: किᳪं᳭ स्वि॑दासीद् बृ॒हद्वय॑: ।
का स्वि॑दासीत्पिलिप्पि॒ला का स्वि॑दासीत्पिशङ्गि॒ला ।। ५३ ।।
उ० होताध्वर्युं पृच्छति । कास्विदासीत् ॥ ५३ ॥
म० 'पुनः पूर्वावपरेणोत्तरवेदिं का स्विदिति' (का. । २० । ७ । १२)। ततः सदसो निष्क्रम्य हविर्धानस्य पुर उत्तरवेदेः पश्चादुपविश्य पूर्वौ पूर्वोक्तौ होत्रध्वर्यू चतुर्ऋग्भिः संवदेते इति सूत्रार्थः । होताध्वर्युं पृच्छति । व्याख्याता (११) ॥ ५३ ॥
चतुःपञ्चाशी।
द्यौ॑रासीत्पू॒र्वचि॑त्ति॒रश्व॑ आसीद् बृ॒हद्वय॑: ।
अवि॑रासीत्पिलिप्पि॒ला रात्रि॑रासीत्पिशङ्गि॒ला ।। ५४ ।।
उ० प्रत्याह । द्यौरासीत् व्याख्यातौ ॥ ५४ ॥
म० व्याख्याता (१२) ॥ ५४ ॥
पञ्चपञ्चाशी।
का ई॑मरे पिशङ्गि॒ला का ईं॑ कुरुपिशङ्गि॒ला ।
क ई॑मा॒स्कन्द॑मर्षति॒ क ईं॒ पन्थां॒ वि स॑र्पति ।। ५५ ।।
उ० अध्वर्युर्होतारं पृच्छति । का ईमरे । ईमिति चकारार्थे । अरे इत्यामन्त्रितविषयः । उभावपि निपातौ । का च अरे होतः, पिशङ्गिला । का च कुरुपिशङ्गिला। कश्च आस्कन्दम् अर्षति कश्च पन्थां विसर्पति ॥ ५५ ॥
म० अध्वर्युर्होतारं पृच्छति । ईमिति निपातश्चार्थः । अरे होतः, का च पिशंगिला का च कुरुपिशंगिला कश्च आस्कन्दं णमुलन्तः । आस्कद्य उत्प्लुत्य अर्षति गच्छति 'ऋष गतौ' तुदादिः व्यत्ययेन शप् । कश्च पन्थां पन्थानं मार्गं प्रति विसर्पति विविधं गच्छति ॥ ५५ ॥
षट्पञ्चाशी।
अ॒जारे॑ पिशङ्गि॒ला श्वा॒वित्कु॑रुपिशङ्गि॒ला ।
श॒श आ॒स्कन्द॑मर्ष॒त्यहि॒: पन्थां॒ वि स॑र्पति ।। ५६ ।।
उ० प्रत्याह अजारे अजा नित्यारात्रिः अरे अध्वर्यो, पिशङ्गिला । सा हि पिशं रूपं गिलति भक्षयति । स हि तस्याः प्रभावः । श्वावित् सेधा उच्यते । कुरुपिशंगिला । कृत्वा उपलभ्योपलभ्य पिशं रूपं गिलति भक्षयति सा कुरुपिशंगिला । सा हि शतं मूलानां श्वोभक्षणाय कुक्षौ स्थापयति शतं च भक्षयति स हि तस्याः स्वभावः । शशश्च आस्कन्दं आस्कन्द्यास्कन्द्य अर्षति गच्छति स हि तस्य स्वभावः । अहिश्च स्वकीयं पन्थानम् विसर्पति विकुर्वन् गच्छति ॥ ५६ ॥
म० अरे अध्वर्यो, अजा पिशंगिला अजा नित्या माया रात्रिर्वा पिशंगिला पिशं रूपं गिलति भक्षयति पिशंगिला माया विश्वं ग्रसते । रात्रावपि रूपाणि न प्रतीयन्ते तमसा । श्वावित् सेधा कुरुपिशंगिला कुरुशब्दोऽनुकरणे ‘पिश अवयवे' इति धातोरिगुपधेति कप्रत्ययः । कुरु इति शब्दमनुकुर्वाणा पिशान् मूलाद्यवयवान् गिलति पिशंगिला । मूलानां शतं कुक्षौ स्थापयति शतं च भक्षयतीति सेधायाः स्वभावः । शशः वन्यो जीवविशेषः आस्कन्दमास्कन्द्यास्कन्द्य अर्षति स तस्य स्वभावः । अहिः सर्पः पन्थां पन्थानं विसर्पति विशेषेण | गच्छति ॥ ५६ ॥
सप्तपञ्चाशी।
कत्य॑स्य वि॒ष्ठाः कत्य॒क्षरा॑णि॒ कति॒ होमा॑सः कति॒धा समि॑द्धः ।
य॒ज्ञस्य॑ त्वा वि॒दथा॑ पृच्छ॒मत्र॒ कति॒ होता॑र ऋतु॒शो य॑जन्ति ।। ५७ ।।
उ० ब्रह्मोद्गातारं पृच्छति । कत्यस्य अस्य यज्ञस्य कति विष्ठाः विशेषेण तिष्ठति यज्ञो यासु ता विष्ठा अन्नानि । कति च अक्षराणि कति च होमाः कतिधा च समिद्धः समिधः यज्ञस्य त्वा भवन्तम् विदथा आवेदनेन हेतुना पृच्छं पृच्छामि । अत्र च यज्ञे कति होतारः ऋतुशः ऋतुयाज्यान् यजन्ति ॥ ५७ ॥ |
म० 'उत्तरौ च कत्यस्येति' ( का० २० । ७ । १३)। । उत्तरौ पश्चादुक्तौ ब्रह्मोद्गातारौ चतुर्ऋग्भिः संवदेते । ब्रह्मोद्गातारं पृच्छति । अस्य कति विष्टाः कियन्ति अन्नानि । का संख्या यासां ताः कति । विशेषेण तिष्ठति यज्ञो यासु ताः विष्ठाः अन्नानि कियत्प्रकाराणि यज्ञे । अक्षराणि च कति । होमासः होमाः कति । समिद्धः समिधः कतिप्रकाराः । धकारस्य द्वित्वमार्षम् । यज्ञस्य विदथा वेत्तीति विदः विदस्य भावो विदथा यज्ञावेदितृत्वेन हेतुना अत्र स्थले त्वा त्वामहं पृच्छमपृच्छं पृच्छामि । पृच्छतेर्लङ् । अडभाव आर्षः । ऋतुशः ऋतौ ऋतौ कति होतारः यजन्ति ॥ ५७ ॥
अष्टपञ्चाशी।
षड॑स्य वि॒ष्ठाः श॒तम॒क्षरा॑ण्यशी॒तिर्होमा॑: स॒मिधो॑ ह ति॒स्रः ।
य॒ज्ञस्य॑ ते वि॒दथा॒ प्र ब्र॑वीमि स॒प्त होता॑र ऋतु॒शो य॑जन्ति ।। ५८ ।।
उ० प्रत्याह । षडस्य । रससंख्ययोपसंजिहीर्षुराह । अस्य यज्ञस्य षड्विष्ठाः अन्नानि सर्वान्नानां पड्रसात्मकत्वात् शतमक्षराणि । छन्दसामुद्धारेणोपसंजिहीर्षुराह । चतुर्दश छन्दांसि गायत्रीप्रभृतीनि चतुर्विंशत्यक्षरादीनि । चतुरुत्तराणि अतिधृतिपर्यन्तानि । अतिधृतिस्तु षट्सप्तत्या भवति । एतैः प्रायशो यज्ञस्तायते । तत्र गायत्री अतिधृतिश्च शतम्। एवमुष्णिक् धृतिश्च शतम् । एवमन्येष्वपि छन्दस्सु इत्येतदभिप्रायम् । अशीतिर्होमाः । एकविंशतिरश्वमेधे यूपाः । । तत्राग्निष्टे अश्वस्तूपरो गोमृगान् नियुनक्ति । इतरेषु षोडशषोडश । तत्र विंशतियूपैः चतस्रोऽशीतयो भवन्ति तदभिप्रायमेतत् । कतिधा समिद्ध इति यदुक्तम् अत्र ब्रूमः । समिधो ह तिस्रः याभिः समिद्भिः संदीप्तो यज्ञः तास्तिस्रः अश्वस्तूपरो गोमृगाः प्राजापत्याः पशवः यज्ञस्य ते तव विदथा वेदनेन । ब्रवीमि सप्तहोतारः वषट्कर्तारः ऋतुशः । ऋतुयागेषु यजन्ति ॥ ५८ ॥
म० उद्गाता प्रत्याह । रससंख्यया अन्नसंख्यामाह । अस्य यज्ञस्य षट् विष्ठाः अन्नानि । सर्वेषामन्नानां षड्रसात्मकत्वात्षडेवान्नानीत्यर्थः । अस्य यज्ञस्य शतमक्षराणि छन्दोभिर्यज्ञो निष्पाद्यते तानि च छन्दांसि गायत्र्यादीन्यतिधृत्यन्तानि चतुर्दश चतुर्विशत्यक्षरादीनि चतुर्वर्णान्तराणि तेषां क्रमोत्क्रमगत्या द्वाभ्यां शतमक्षराणि भवन्ति । तथा हि । गायत्री चतुर्विंशतिवर्णा । अतिधृतिः षट्सप्तत्यक्षरा एवं द्वे मिलित्वा शतमक्षराणि उष्णिक् २८ धृतिः ७२ एवं शतम् । अनुष्टुप् ३२ अत्यष्टिः ६८ एवं शतम् । अष्टिः ६४ बृहती ३६ एवं शतम् । अतिशक्वरी ६० पङ्क्तिः ४० एवं शतम् । शक्वरी ५६ त्रिष्टुप् ४४ एवं शतम् । अतिजगती ५२ जगती ४८ एवं शतमक्षराणि । अनेनाभिप्रायेण शतमक्षराणीत्युक्तम् । होमाः अशीतिः अश्वमेध एकविंशतिर्यूपाः तत्राग्निष्टे मध्यमयूपेऽश्वतूपरगोमृगान्नियुनक्ति इतरेषु षोडश पशून् तत्र विंशतियूपेषु चतस्रोऽशीतयः पशवो भवन्तीत्यभिप्रायेणोक्तम् । अशीतिर्होमाः ह स्फुटम् । तिस्रः समिधः अश्वतूपरगोमृगाः प्राजापत्याः पशवः तद्रूपाभिः समिद्भिर्यज्ञो दीप्त इति तिस्रः समिध उक्ताः । यज्ञस्य विदथा वेदनेन हेतुना ते तुभ्यं प्रव्रवीमि प्रवदामि । किंच सप्त होतारो वषट्कर्तारः ऋतुशः ऋतुयाजेषु यजन्ति ॥ ५८ ॥
एकोनषष्टी।
को अ॒स्य वे॑द॒ भुव॑नस्य॒ नाभिं॒ को द्यावा॑पृथि॒वी अ॒न्तरि॑क्षम् ।
कः सूर्य॑स्य वेद बृह॒तो ज॒नित्रं॒ को वे॑द च॒न्द्रम॑सं यतो॒जाः ।। ५९ ।।
उ० उद्गाता ब्रह्माणं पृच्छति । को अस्य । कः अस्य वेद जानाति । कश्च द्यावापृथिवी अन्तरिक्षं च वेद । कश्च सूर्यस्य वेद जानाति । बृहतः महतः जनित्रं जन्म । कश्च वेद चन्द्रमसम् । चन्द्रमसः इति विभक्तिव्यत्ययः । यतोजाः यतो जन्म ॥ ५९ ॥
म० उद्गाता ब्रह्माणं पृच्छति । हे ब्रह्मन् , अस्य भुवनस्य जातस्य नाभिं नभ्यते यत्र स नाभिर्बन्धनस्थानं कारणमिति यावत् । नाभौ हि सर्वा नाड्यो बध्यन्ते 'नभ हिंसायाम्' अत्र बन्धनार्थः । औणादिक इप्रत्ययः । भूतजातस्य कारणं को वेद जानाति । द्यावापृथिवी द्यावापृथिव्यौ अन्तरिक्षं च को वेद । बृहतो महतो जनित्रं जन्म को वेद । सूर्यस्योत्पत्तिः कस्मादित्यर्थः । जनेस्त्रल्प्रत्ययः। यतो जायते उत्पद्यते इति यतोजाः यत इत्युपपदे 'जनसनखनक्रमगमो विट्' (पा० ३। २।६७) इति विट्प्रत्ययः । 'विड्वनोरनुनासिकस्य' (पा० ६। ४ । ४१) इति नकारस्यात्वम् । प्रथमा द्वितीयार्था । यतोजाः यत उत्पन्नं चन्द्रमसमिन्दुं को वेद । यतश्चन्द्रस्योत्पत्तिस्तं को वेदेत्यर्थः ॥ ५९॥
षष्टी।
वेदा॒हम॒स्य भुव॑नस्य॒ नाभिं॒ वेद॒ द्यावा॑पृथि॒वी अ॒न्तरि॑क्षम् ।
वेद॒ सूर्य॑स्य बृह॒तो ज॒नित्र॒मथो॑ वेद च॒न्द्रम॑सं यतो॒जाः ।। ६० ।।
उ० प्रत्याह । वेदाहम् । वेद जानामि अहम् । अस्य भुवनस्य नाभिं नहनं बन्धनं परं ब्रह्म । वेद च द्यावापृथिवी अन्तरिक्षं च ब्रह्मणो विकारभूतम् । वेद च सूर्यस्य बृहतः जनित्रं परमात्मलक्षणम् । अथो अपिच वेद जानामि चन्द्रमसं यतोजाः चन्द्रमसः यतो जन्म परमात्मनः यज्ञाद्वा ॥ ६०॥
म० ब्रह्मा प्रत्याह । अस्य भुवनस्य नाभिं कारणमहं वेद जानामि विदो लटो वा' (पा० ३।४। ८३ ) परब्रह्मव जगकारणं जानामीत्यर्थः । द्यावापृथिवी अन्तरिक्षं च वेद ब्रह्मणो विकारभूतं जानामि । वृहतः सूर्यस्य जनित्रमुत्पत्तिकारणं ब्रह्मैव वेद । अथो अपिच यतोजाः चन्द्रमसमहं वेद परमात्मनो जातं चन्द्रमहं वेमीत्यर्थः ॥ ६० ॥
एकषष्टी।
पृ॒च्छामि॑ त्वा॒ पर॒मन्तं॑ पृथि॒व्याः पृ॒च्छामि॒ यत्र॒ भुव॑नस्य॒ नाभि॑: ।
पृ॒च्छामि॑ त्वा॒ वृष्णो॒ अश्व॑स्य॒ रेत॑: पृ॒च्छामि॑ वा॒चः प॑र॒मं व्यो॑म ।। ६१ ।।
उ० अध्वर्युं यजमानः पृच्छति पृच्छामि त्वा । पृच्छामि त्वां भवन्तम् परम् अन्तं पृथिव्याः । पृच्छामि च यत्र भुवनस्य नाभिः नहनम् । पृच्छामि च भवन्तम् वृष्णः सेक्तुः अश्वस्य रेतः । पृच्छामि च वाचः परमं व्योम व्यवनं स्थानम् ॥ ६१ ॥
म० 'यजमानोऽध्वर्यु पृच्छामि बेति' (का० २० । ७ । १४) । यजमानोऽध्वर्यु पृच्छति । हे अध्वर्यो, पृथिव्याः परमन्तमवधिभूतं पर्यन्तं त्वा त्वामहं पृच्छामि । द्विकर्मकः । यत्र यस्मिन्स्थले भुवनस्य भूतजातस्य नाभिः कारणं तदपि त्वां पृच्छामि । वृष्णः सेक्तुः अश्वस्य रेतः वीर्यं त्वां पृच्छामि । वाचो वाण्याः त्रयीलक्षणायाः परममुत्कृष्टं व्योम स्थानं त्वां पृच्छामि ॥ ६१ ॥
द्विषष्टी।
इ॒यं वेदि॒: परो॒ अन्त॑: पृथि॒व्या अ॒यं य॒ज्ञो भुव॑नस्य॒ नाभि॑: ।
अ॒यᳪं᳭ सोमो॒ वृष्णो॒ अश्व॑स्य॒ रेतो॑ ब्र॒ह्मायं वा॒चः प॑र॒मं व्यो॑म ।। ६२ ।।
उ० प्रत्याह इयं वेदिः । इयं वेदिः परः अन्तः पृथिव्याः। वेदिर्हि सर्वा पृथिवीरूपा भवति । अयं च यज्ञः भुवनस्य नाभिः नहनम् 'यज्ञाद्वै प्रजाः प्रजायन्ते' इति श्रुतेः । अयं च सोमः चन्द्रमाः लता सोमो वा वृष्णः सेक्तुः अश्वस्य रेतः । अयं च ब्रह्मा ऋत्विक् वाचः परमं व्योम व्यवनं स्थानम् त्रिवेदयोगात् । समाप्तं ब्रह्मोद्यम् ॥ ६२ ॥
म०. 'इयं वेदिरित्यध्वर्युः' (का० २० । ७ । १५) । अध्वर्युः यजमानं प्रत्याह । इयं वेदिः उत्तरवेदिः पृथिव्याः परः अन्तोऽवधिः । वेदेः सर्वपृथ्वीरूपत्वादित्यर्थः । भुवनस्य नाभिः कारणम् । अयं यज्ञोऽश्वमेधः भुवनस्य प्राणिजातस्य नाभिः कारणम् । 'यज्ञाद्वै प्रजाः प्रजायन्ते' इति श्रुतेः । वृष्णः अश्वस्य रेतः अयं सोमः सोमलताश्वस्य वीर्याज्जातेत्यर्थः । अयं ब्रह्मा ऋत्विक् वाचः त्रयीरूपायाः परमं व्योम स्थानम् । ब्रह्मणस्त्रिवेदसंयोगादित्यर्थः । ब्रह्मोद्यं समाप्तम् ॥ ६२ ॥
त्रिषष्टी।
सु॒भूः स्व॑य॒म्भूः प्र॑थ॒मोऽन्तर्म॑ह॒त्य॒र्ण॒वे । द॒धे ह॒ गर्भ॑मृ॒त्वियं॒ यतो॑ जा॒तः प्र॒जाप॑तिः ।। ६३ ।।
उ० महिम्नः पुरोनुवाक्या । सुभूः स्वयंभूः । अनुष्टुप् प्राजापत्या । साधुभवनः स्वयंभूः स्वेच्छया गृहीतशरीरः। प्रथमः अनादिनिधनः पुरुषः । किमकरोदित्याह । अन्तर्महत्यर्णवे दधेह । अन्तर्महतोऽर्णवस्य । हेति निपातः पुराकल्पद्योतनार्थः । किं दधे । गर्भं ऋत्वियं प्राप्तकालम् । कथंभूतं गर्भम् । यतो जातः प्रजापतिः । यस्माद्गर्भात् जातः प्रजापतिः अनन्योपमः ॥ ६३ ॥
म०. सुभूरिति पूर्वस्य महिम्नः पुरोऽनुवाक्या उत्तरस्य याज्या च । 'उदिते ब्रह्मोद्यं संप्रपद्याध्वर्युर्हिरण्मयेन पात्रेण प्राजापत्यं महिमानं ग्रहं गृह्णाति तस्य पुरोरुग्घिरण्यगर्भः समवर्तताग्र इत्यथास्य पुरोऽनुवाक्याः सुभूः स्वयंभूः' (१३ । ५ । २।२३) इति श्रुतेः । प्रजापतिदेवत्यानुष्टुप् । ह इति प्रसिद्धम् । प्रथमः सर्वस्य आदिः अनादिनिधनः पुरुषः महति अर्णवे कल्पान्तकालीने समुद्रे अन्तर्मध्ये गर्भं दधे स्थापितवान् । कीदृशः । सुष्ठू भूरुत्पत्तिर्यस्मात्स सुभूः विश्वोत्पादकः । खयं भवतीति स्वयंभूः स्वेच्छाधृतशरीरः । कीदृशं गर्भम् । ऋत्वियम् ऋतुः प्राप्तो यस्य । घस्प्रत्ययः । प्राप्तकालम् । यतो गर्भात् प्रजापतिः ब्रह्मा जातः उत्पन्नः ॥ ६३ ॥
चतुःषष्टी।
होता॑ यक्षत्प्र॒जाप॑ति॒ᳪं᳭ सोम॑स्य महि॒म्नः । जु॒षतां॒ पिब॑तु॒ सोम॒ᳪं᳭ होत॒र्यज॑ ।। ६४ ।।
उ० प्रैषः । होता यक्षत् । दैव्यो होता यजतु । प्रजापतिम् सोमस्य महिम्नः संबन्धिनम् । स चेज्यमानः सन् जुषतां प्रीत्या परिगृह्णातु पिबतु च सोमम् । त्वमपि च हे मनुष्यहोतः, यज ॥ ६४ ॥
म० महिम्नः प्रैषः । 'होता यक्षत्प्रजापतिमिति प्रैषः' ( १३ । ५।२।२३) इति श्रुतेः । आर्षी गायत्री । महिम्नः सोमस्य महिमसंज्ञस्य सोमग्रहस्य संबन्धिनं प्रजापतिं होता दैव्यो यक्षत् यजतु । इज्यमानः स प्रजापतिः जुषतां सोमं महिमग्रहं पिबतु च । हे मनुष्यहोतः, त्वमपि यज ॥ ६४ ॥
पञ्चषष्टी ।
प्रजा॑पते॒ न त्वदे॒तान्य॒न्यो विश्वा॑ रू॒पाणि॒ परि॒ ता ब॑भूव ।
यत्का॑मास्ते जुहु॒मस्तन्नो॑ अस्तु व॒यᳪं᳭ स्या॑म॒ पत॑यो रयी॒णाम् ।। ६ ५ ।।
इति माध्यन्दिनीयायां वाजसनेयसंहितायां त्रयोविंशोऽध्यायः ॥ २३ ॥
उ० प्रजापते न । व्याख्यातो मन्त्रः ॥ ६५॥
इति उवटकृतौ मन्त्रभाष्ये त्रयोविंशोऽध्यायः ॥ २३ ॥
म० पूर्वस्य महिम्नो याज्या । 'प्रजापते न त्वदेतान्यन्य इति होता यजतीति' (१३ । ५ । २ । २३) इति श्रुतेः । व्याख्याता (१० । २०)॥६५॥
श्रीमन्महीधरकृते वेददीपे मनोहरे।
त्रयोविंशोऽयमध्यायो व्यरंसीदाश्वमेधिकः ॥ २३ ॥
- कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में लिखा है - ' कोपाज्जनमेजयो बाह्मणेषु विक्रांतः ' - अर्थात् ब्राह्मणों के प्रति कोपजनित अत्याचार से जनमेजय पराभव को प्राप्त हुआ ।
जनमेजय के अश्वमेध यज्ञ के बारे में श्री इच्छाराम देसाई बताते हैं कि अश्व के वध के बाद अश्व की आहुति देते समय उसकी पत्नी के हाथ में घोड़े का लिंग था तब ब्राह्मण पुरोहितों ने उपहास किया। इस विषय पर क्रोधित हो कर जनमेजय ने उन ब्राह्मणों की हत्या की जिससे उसे ब्रह्म हत्या का पाप लगा। इस पूरे प्रकरण को आप उनकी वेदान्त पर लिखी गई ग्रंथमाला ' चंद्रकांत ' मे देख सकते हैं।
' ऐतरेय ब्राहमण ' में ( 8 / 21 ) कहा गया है कि जनमेजय के पुरोहित " तुर कावषेय ने जनमेजय पारीक्षित का ऐंद्र महाभिषेक से अभिषेक किया । इसलिए जनमेजय चारों दिशाओं में पृथ्वी की विजय करते हुए विचरे और उन्होंने मेध्य अश्व से यजन किया । इस विषय में यह यज्ञीय गाथा गाईजाती है - ' आसंदीवति धान्यादंरुक्मिणं हरितम्रजम् । अबध्नात् अश्वं सारंगदेवेभ्यो जनमेजयः । ' आसंदीवत् में जनमेजय ने धान्य खाने वाला . स्वर्ण से मंडित , हरितस्रज से अलंकृत शबलित रंग का एक घोड़ा देवों के लिए यूप में बाँधा । "
यूप की आवश्यकता बताने के अनन्तर ऐतरेय ब्राह्मण में इसका तात्पर्य दिया है :
" यूप एक शस्त्र है । इसके सिर के आठ छोर होने चाहिएं । क्योंकि एक शस्त्र ( लोहे के वल्लभ ) के आठ कोने होते हैं । जब भी वह उससे किसी शत्रु या विरोधी पर प्रहार करता है तो उसे मार डालता है । यह शस्त्र जिसे अभिभूत करना हो उसे अभिभूत कर देता है । यूप एक शस्त्र है जो पशु विनाश के लिए सीधा खड़ा रहता है । इससे यज्ञकर्ता का शत्रु जो ( यज्ञ में ) उपस्थित हो सकता है उस यूप को देख कर संकट ग्रस्त हो जाता है । "
यूप के लिए लकड़ी यज्ञकर्ता के यज्ञ करने के उद्देश्य के अनुसार भिन्न - भिन्न प्रकार की चुनी जाती है । ऐतरेय ब्राह्मण ( ऐतरेय ब्राह्मण ( मार्टिन हग ) - II , पृष्ठ 74 - 78) का कथन है :
" जो स्वर्ग चाहता है उसे अपनी यूप खादिर की लकड़ी से बनानी चाहिए क्योंकि देवताओं ने खादिर की लकड़ी के यूप से ही दिव्य लोक को जीता । उसी प्रकार यज्ञकर्ता खादिर की लकड़ी से बने हुए यूप से दिव्यलोक को जीतता है । "
" जो भोजन चाहता है और स्थूलता चाहता है उसे अपना यूप बेल ( बिल्व ) की लकड़ी से बनाना चाहिए । बेल के पेड़ पर प्रतिवर्ष फल लगते हैं । यह उर्वरता का प्रतीक है क्योंकि यह जड़ से शाखाओं तक ( प्रतिवर्ष ) आकार में बढ़ता रहता है । इसलिए यह मोटापे का प्रतीक है । जो यह जानता है और इसलिए अपना यूप बेल की लकड़ी का बनाता है उसके बच्चे और पशु मोटे होते हैं । "
" बेल की लकड़ी से बने यूप के बारे में इतना और कहना है जो बिल्व को बार - बार प्रकाश कहता है और ऐसा जानता है वह अपने स्वयं में प्रकाश बन जाता है और स्वयं में सबसे श्रेष्ठ । "
" जो सौंदर्य और पवित्र विद्या चाहता है उसे अपना यूप पलाश की लकड़ी का बनाना चाहिए क्योंकि ढाक सौंदर्य और पवित्र विद्या का वृक्ष है । जो यह जानता है और इसलिए अपना यूप पलाश की लकड़ी का बनाता है वह सुंदर हो जाता है और पवित्र विद्या प्राप्त करता है । "
पलाश की लकड़ी से बने यूप के बारे में इतना और कहा गया है कि पलाश सब वृक्षों का गर्भ है । इसीलिए वे उस पलाश के वृक्ष की बात करते हैं । जो यह जानता है उसकी सभी इच्छाएं चाहे किसी पेड़ से भी क्यों न हों , पूरी होती है । उसके बाद यूप के अभिषेक का संस्कार होता है । '
" अध्वर्यु कहता है हम यूप को अभिषेक कहते हैं । अपेक्षित मंत्र पढ़ो । होता मंत्र पढ़ता है अंजतित्वां अध्वरे ( 3 , 8 , 1 . ) अर्थात् हे वृक्ष ! पुरोहित दिव्य मधु से तेरा स्वागत करते हैं । यदि तू यहां सीधा खड़ा है अथवा यदि तू अपनी माता ( पृथ्वी ) पर लेटा हुआ है तो हमें धन दे । “ दिव्य मधु " पिघला हुआ मक्खन है जिससे पुरोहित यूप का अभिषेक करते हैं । दूसरे आधे मंत्र हमें दे आदि का अर्थ है " चाहे तुम खड़े हो चाहे लेटे हो हमें धन दो । "
" तब होता दोहराता है . जातो जायते सुदिनत्वे ( 3 , 8 , 5 ) अर्थात् उत्पत्ति के बाद वह ( यूप ) अपने जीवन के मध्यकाल में मरणशील मनुष्यों के यज्ञ के उपयोग में आता है । बुद्धिमान लोग उसे यूप ( को ) सजाने में संलग्न हैं । वह देवताओं के व्याख्यान पटु दूत की तरह अपना स्वर ऊंचा करता है कि देवता उसे सन सकें । वह ( यूप ) जात अर्थात् उत्पन्न कहलाता है क्योंकि वह इस श्लोक के पहले चरण के उच्चारण से पैदा होता है । वर्धमान ( शब्दों से ) अर्थात् बढ़ना से वे उसे ( यूप को ) इस प्रकार बढ़ाते हैं । पुनन्ति ( शब्द से ) अर्थात् पवित्र करना , सजाना , वे उसे इस प्रकार पवित्र करते हैं । वह एक व्याख्यान पटु दूत शब्दों से देवताओं को यूप के अस्तित्व की सूचना देता है । "
" होता यत् स्तंभ अभिषेक के संस्कार को समाप्त करता है । उस समय वह पढ़ता है : - युवा सुवासा परिविता : ( 3 , 8 , 4 ) अर्थात् बंदनवार सज्जित यूप आ पहुंचा है वह उन सब वृक्षों से जो कभी भी उत्पन्न हुए हों बढ़ कर बुद्धिमान पुरोहित अपने मन के सुव्यवस्थित विचारों के मंत्र पाठ द्वारा उसे उठाते हैं । पट्टी से ( सजा हुआ ) यूप जीवनदायिनी वायु ( आत्मा ) है जो शरीर के अंगों द्वारा ढका है । वह श्रेष्ठ है इत्यादि शब्दों से उसका अर्थ है कि वह ( यूप ) बढ़िया होता जा रहा है ( अधिक श्रेष्ठ सुंदर ) इस मंत्र के बल से । "
अगला संस्कार आग से यज्ञ स्तंभ की परिक्रमा करना है । इस संबंध में ऐतरेय ब्राह्मण ( ऐतरेय ब्राह्मण ( मार्टिन हग ) II , पृ . 84 - 86) का कथन है :
" जब ( पशु ) के चारों ओर आग घुमाई जाती है तो अध्वर्यु होता से कहता है - अपना मंत्र पाठ करो । तब होता को संबोधित करके गायत्री छंद में रचे गए तीन मंत्रों का पाठ करता है । अग्नि होता वा अध्वरे ( 4 , 15 , 1 - 3 ) अर्थात् ( 1 ) हमारा पुरोहित , अग्नि , एक घोड़े की तरह घुमाया जा रहा है । यह देवताओं में यज्ञ का देवता है । ( 2 ) एक रथी की तरह अग्नि यज्ञ के पास से तीन बार गुजरता है । वह देवताओं के पास आहुति ले जाता है । ( 3 ) भोजन का अधिष्ठाता अग्नि ऋषि आहुति के गिर्द घूमा , यह यज्ञकर्ता को धन देता है । "
" जब पशु के चहु ओर अग्नि लेकर घूमा जाता है तो उसे अपने देवता और अपने छन्द के द्वारा यशस्वी बनाता है । वह एक घोड़े की तरह ले जाया जाता है का अर्थ है कि वह उसे घुमाते हैं मानो वह कोई घोड़ा हो , एक रथी की तरह अग्नि तीन बार यज्ञ के पास से गुजरती है का अर्थ है कि वह एक रथी की तरह ( शीघ्रता ) से यज्ञ के चारों ओर वह वाजपति ( भोजन अधिष्ठाता ) कहलाता है , क्योंकि वह तरह - तरह के भोजनों का अधिष्ठाता है । "
" अध्वर्यु कहता है : हे होता ! देवताओं को आहुति देने के लिए अतिरिक्त आज्ञा दो । " तब होत ( बधिकों को ) आदेश देता है - " हे दिव्य बधिकों । ( अपना कार्य ) आरंभ करो और जो मानवीय बधिक हो वह भी । इसका अर्थ है कि वह सभी बधिकों को चाहे वे देवताओं में हों चाहे मानवों में आज्ञा देता है कि ( आरंभ करो ) । "
" वध करने के शस्त्र यहां लाओ , तुम लोग जो यज्ञ के दोनों स्वामियों की ओर से यज्ञ का आदेश दे रहे हो । " पशु आहुति है , यज्ञकर्ता आहुति का स्वामी है । इस प्रकार होतृ यज्ञ कर्ता को उसकी अपनी आहुति से यशस्वी बनाता है । इसलिए वे सत्य कहते हैं - जिस देवता के लिए भी पशु का वध किया जाता है वही उसका स्वामी है । यदि एक ही देवता के लिए पशु की बलि दी जाती है तो पुरोहित को कहना चाहिए मेधपतये अर्थात ! यज्ञ के स्वामी के लिए ( एक वचन ) , यदि देवताओं के लिए तो उसे द्विवचन का प्रयोग करना चाहिए यज्ञ के दोनों स्वामियों के लिए । यदि अनेक देवताओं के लिए है तो उसे बहुवचन का प्रयोग करना चाहिए यज्ञ के स्वामियों के लिए । यही निश्चित धर्म है । " तुम उसके लिए अग्नि लाओ । जब पशु को वध स्थान की ओर ले जाया गया , तो उसने अपने सामने मृत्यु को देखा । वह देवताओं के पास नहीं जाना चाहता था , तब देवताओं ने उससे कहा - आओ हम तुम्हें स्वर्ग पहुंचाएंगे । पशु मान गया और बोला : तुम में से एक को मेरे आगे - आगे चलना चाहिए । देवताओं ने स्वीकार किया । तब अग्नि पशु के आगे - आगे चला और पशु उसके पीछे - पीछे । इसी से वे कहते हैं कि हर पशु पर अग्नि का अधिकार है , क्य ंकि पशु अग्नि के पीछे - पीछे चला । इसीलिए वे पशु के आगे - आगे अग्नि ले जाते हैं । "
" पवित्र दूब बिखेर दो । पशु वनस्पति पर ही जीता है । होता इस प्रकार पशु को उसकी समस्त आत्मा देता है । ( क्योंकि वनस्पति उसका भाग समझी जाती है ) । " पशु को चारों ओर आग घुमाने के बाद यज्ञ के लिए पुरोहित को दिया जाता है । यज्ञ के लिए पशु का समर्पण कौन करे ? इस विषय में ऐतरेय ब्राह्मण ' की आज्ञा हैं
" मां , पिता , भाई , बहन , मित्र और साथियों को चाहिए कि वे वध करने के लिए पशु का समर्पण करें । ( जिस समय ये शब्द कहे जाते हैं वे उस पशु को पकड़ लेते हैं जिसके बारे में यह माना जाता है कि वह माता - पिता आदि के द्वारा सर्वथा परित्यक्त है ) । "
इस निर्देश को पढ़ कर आश्चर्य होता है कि लगभग हर किसी के लिए इसकी क्या आवश्यकता है कि वह पशु को यज्ञ के लिए समर्पित करने के संस्कार में हिस्सा ले । कारण स्पष्ट है । यज्ञ में हिस्सा लेने के अधिकारी पुरोहितों की कुल संख्या सत्रह थी । स्वाभाविक तौर पर वे मृत पशु की पूरी की पूरी लाश अपने ही लिए ले लेना चाहते थे ।
वास्तव में यदि उन्हें सारी देह अपने ही लिए न मिले तो वे सत्रह पुरोहितों में कुछ ठीक - ठीक बांट भी नहीं सकते थे । विधानानुसार ब्राह्मण उस पशु पर किसी प्रकार का अधिकार तब तक नहीं जता सकते थे जब तक हर आदमी पशु के मांस के अपने अधिकार को सर्वथा छोड़ न दे । इसीलिए उक्त निर्देश में जो आदमी पशु के साथ आया हो उसे भी अपना अधिकार छोड़ देने का आदेश है ।
ऐतरेय ब्राह्मण में आगे पशु हत्या करने का तरीका और उसके मास का किस किस तरह बटवारा किया जाय उसका तक वर्णन है। इन सारी बातों को आप विस्तार से यहा देख सकते हैं -
क्या हिन्दू धर्म ग्रंथ पशुबलि की आज्ञा देता है? के लिए Mayur Patel का जवाब
ऐसे भी लोग हैं इतने सारे सबूतों पर यकीन नहीं करेगे और वाद विवाद करेगे । इन प्रतिवादीओ के बारे में रजनीकांत शास्त्री ( हिन्दू जाती का उत्थान और पतन ) बताते हैं कि,
“ इस पर एक प्रतिवादी कहता है कि अजी ऐसे - ऐसे श्लोक जिनके द्वारा हमारे अहिंसा व्रतधारी , शुद्धाहार विहारी तथा प्राणिमात्र पर दया दृष्टि रखनेवाले पूज्य पूर्वजों पर मद्य - मांस - सेवन बाममागियों पर तथा यज्ञादि धार्मिक कृयों के सम्पादनार्थ पशु - हत्या कलंक बगाना करने का अभियोग लगाया जाता है , हमारे पवित्र म्यर्थ है प्रन्थों में वाममागियों के घुसेड़े हुए हैं , जिसमें वे इन श्लाकों के प्रमाण दिखा - दिखाकर अपने पंचमकारी मत को पुष्ट कर सकें । इस पर मुझे ऐसा थाथी तथा लचर दलील करनेवालों से केवल इतना ही पूछना है कि क्या वे सभी प्रन्थ जिनमें ऐसजाली कहे जानेवाले श्लोक वाममार्मियों के द्वारा प्रक्षिप्त बताए जाते हैं , केवल उनके ही घर थे जिनमें चुपके से उन्होंने ऐसो जाल साजी कर दी ? और ग्रन्थों को थोड़ी देर के लिए छोड़कर केवल वाल्मीकीय रामायण का ही उदाहरण लीजिये । प्राचीन काल में मुद्रण यंत्रों के अभाव से पुस्तकें हाथ से लिखी जाती थीं । अतः इतना मान लिया जा सकता है कि उक्त रामायण की जो हस्तलिखित प्रति जिसके घर में थी , उसमें उसका जाल कर देना एक अति ही सकर तथा निरापद काये था ; क्योंकि उस काल में मुद्रण के अभाव के कारण उसको इस बात का तनिक भी डर न था कि उसकी जालो प्रति को किसी प्रेस में छपकर प्रकाशित हो जाने पर उसकी चोरी सर्वसाधारण द्वारा पकड़ ली जाएगी । पर उक्त रामायण की जो प्रतियाँ दूसरों के घर ( जिन्हें हम तकशैली की सगमता के लिए दक्षिण - मार्गी कह सकते है ) थीं , उनमें तो वाममागियों की चोंच अवश्य ही नहीं लगी होंगी । पर प्रत्यक्ष देखने में आता है कि उक्त रामायण के सभी संस्करणों तथा प्रतियों में ही , जो प्राचीन काल की हस्तलिखित और वर्तमान काल की मुद्रित उपलब्ध हैं , राजा दशरथ का अश्वमेध यज्ञ , रामचन्द्र का किया हुआ जटायू का श्राद्ध तथा उनका मद्य - मांस - सेवन पूर्वक उपवन - विहार , ये सभी निंद्य घटनायें न केवल वर्णित मिलनी ही हैं , बल्कि एक ही प्रकार से और ठीक उन्हीं श्लोकों के द्वारा वर्णित प्राचीन हिन्दुओं का खान - पान मिलती हैं जिनका उद्धरण मैं कर चुका हूँ । तो क्या मैं इससे यही मान लूँ कि वाल्मीकीय रामायण की सभी प्रतियाँ वाममार्गियों के ही अधिकार में थीं ; दक्षिण - मार्गियों के अधिकार में एक भी नहीं ; क्योंकि यदि होती तो उसका भी संस्करण वाममार्गीय संस्करण के साथ - साथ आज भी प्रचलित देख पड़ता , जिसमें अश्वमेध यज्ञादि के पूर्वोक्त वीभत्स वर्णन हमें देखने को नहीं मिलते ? उक्त प्रन्थ के दक्षिण मार्गीय संस्करण के नितान्त प्रदर्शन होने से क्या मैं यही मानकर सन्तोष कर लूँ कि दक्षिण - मागियों की सभी प्रतियाँ दोमक चाट गई , अथवा नहीं तो विधर्मियों ने उन्हें भस्म कर दिया ? पर ऐसा मान लेने पर एक दूसरा प्रश्न उठ खड़ा होता है कि वाममार्गियों की प्रतियों ने अपने प्राक्तन जन्म में कौन - सा पुण्य - कर्म किया था जिसके फलस्वरूप वे उक्त उपद्रव से बाल - बाल बच गई । हमारे पवित्र ग्रन्थों में पाए जानेवाले आपत्ति - जनक श्लोकों को वाममार्गियों द्वारा प्रक्षिप्त मान लेने पर हमारे सम्मुख ऐसे ही कितने प्रश्न हठात् उठ खड़े हो जाते हैं जिनका संतोषजनक उत्तर मिलना नितान्त कठिन ही नहीं , वरन् पूर्णतः असंभव है । अत : सच्ची बात यही है कि भ्रमवश वा स्वार्थवश प्रक्षिप्त माने वा कहे जानेवाले श्लोक किसी के द्वारा प्रक्षिप्त न होकर मूल ग्रंथकारों को ही रचनाएँ हैं , और उन्होंने उनके द्वारा तत्कालीन हिन्दू - समाज का एक सच्चा चित्र आंकत किया है । प्रक्षेपों का गुजारा केवल वहीं हो सकता है जहाँ उनके कोई विरोधी न हों वा कम से कम उनके प्रति अन्य लोग उदासीन हों । आश्चर्य तो इस बात पर है कि इन ग्रन्थों को बने आज कई सहस्राब्दियाँ बीत गई और तब से आज तक इस देश में धर्मशास्त्रों के अनेक धुरन्धर विद्वान् उत्पन्न हुए ; पर उनमें से किसी को भी प्रक्षेप नहीं सूझ पड़ा जो सभा - शास्त्रार्थ द्वारा ठीक करके निकाल दिया जाता और जो इस बीसवीं शताब्दी में बरसाती कीड़ों की तरह फुदकने . वाले विद्वन्मन्यों को प्रस्फुरित हुमा । इसके अतिरिक्त प्रक्षेप मानने का अधिकार सब को है । यदि एक के मत में मांस - भक्षण प्रक्षेप है तो दूसरे के मत में नियोग । इस तरह हमारा सारा धर्मशास्त्र प्रक्षेपों का आगार होकर मिट्टी में मिल जाएगा ।
पुनः एक दूसरा प्रतिवादी कहता है कि ' अश्वमेध ' शब्द में जो ' अश्व ' शब्द है उसका अर्थ घोड़ा नामक पशु - विशेष नहीं है जैसा कि सामान्यत : प्रचलित है । बल्कि अश्वगन्धा नामक औषधि ( जड़ी ) विशेष है और वही जड़ी ऋषभ , मेष ( मेषपणी ) , अजा ( राजशृङ्गी ) , मृग ( सहदेई ) आदि पशु - नाम - धारिणी जड़ियों के साथ अश्वमेध के अवसर पर हवन - कुंड में डाली जाती थी , जिनकी सुगन्ध से देवता लोग प्रसन्न होते थे और जिनके धूएँ से विविध रोगों के कीटाणु ( Germ ) नष्ट हो जाते थे , जिसमे प्रजा स्वस्थ और सुखी रहतो थी । क्या मैं इन लालबुझक्कड़ों से नम्रतापूर्वक पूछ सकता हूँ कि अश्वमेध यज्ञ सम्पाद नार्थ सम्राटपद प्राप्ति रूप महत्त्वाकांक्षी राजाओं के द्वारा दिग्विजयार्थ सैनिकों के साथ जो ' अश्व ' छोड़ा जाता था वह सचमुच घोड़ा न होकर अश्वगन्धा नाम की जड़ी थी जिसे किसी भृत्य के माथे पर एक टोकरी में रखकर सर्वत्र घुमाया जाता था और वही अश्वगन्धा जड़ी सब ओर से घुमा - फिराकर वापस लाई जाती और हवनकुण्ड में काट . काटकर डाल दी जाती थी ? पर वाल्मीकीय रामायण में वर्णित राजा दशरथ के अश्वमेध यज्ञ - सम्बन्धी कतिपय श्लोकों का उद्धृतकर पहले बता आया हूँ कि रानी कौशल्या ने जिस आश्वमेधिक ' अश्व ' का वध अपनी तलवार के तीन प्रहारों से पूर्ण किया था वह यज्ञ - यूप में बँधा था । यज्ञ में वध होनेवाले पशुओं को यूपों में इसलिए बाँधते हैं कि वे प्रहार करते समय भाग न जाएँ । अतः अश्वमेध यज्ञ में वध किए जानेवाले ' अश्व ' से घोड़ा नामक जंगम प्राणी को ही ग्रहण करना बुद्धिसंगत प्रतीत होता है ; न कि अश्वगन्धा नामक औषधि - विशेष को ; क्योंकि यदि अश्वगन्धा जड़ी होती तो उस किसी यूप में , उसके जड़ तथा स्थावर होने के कारण , बांधने की आवश्यकता न होती श्रीर न तो मे तलवार से काटने की ही आवश्यकता हाती ; बल्कि वह ता यों ही इंधन की तरह हवन - कुण्ड में झोंक दी जाती और यदि वह जलाने योग्य लकड़ी के बड़े - बड़े कुन्दों की तरह होती तो उसे कुल्हाड़े से हवन -कुण्ड में डालने के पूर्व फाड़ देने की आवश्यकता होती । ”
"भारतीय सन्दर्भ में देव पूजक विशेषत:इन्द्राराधक ब्राह्मणों के यज्ञ में पशु प्रतिल था"
- यज्ञ में बलिदान देने के विषय मे शतपथ ब्राह्मण (१।२।३।७।८) में यह लिखा है—
श्लोक 1.2.3.7
- काण्ड 1, अध्याय 2, ब्राह्मण 3
- सा इमाम पृथ्वीं प्रविवेश | तं खनन्तैवनविशुस्तमन्वविन्दंस्तविमौ वृहियौ तस्मादप्येतावेतरहि खनंता इवैवाणुविन्दन्ति स यावदवीर्यवद्ध वा अस्यैते सर्वे पाश्व अलबधाः स्युस्तावद्विर्यवद्धस्य हविरेव भवति य एवमेतद्वेदात्रो स सम्पद्यदहुः पंक्तः पशुरिति
- 7. यह इस धरती में समा गया. उन्होंने खुदाई करके इसकी खोज की। उन्होंने इसे उन दो (पदार्थों) चावल और जौ के रूप में पाया: इसलिए अब भी वे खुदाई करके उन दोनों को प्राप्त करते हैं; और जितनी प्रभावोत्पादकता उसके लिए उन सभी बलिदान किए गए जानवरों की होगी, उतनी ही प्रभावकारिता उसके लिए इस आहुति (चावल आदि) की है जो यह जानता है। और इस प्रकार इस आहुति में वह पूर्णता भी है जिसे वे 'पांच गुना पशु बलि' कहते हैं।
श्लोक 1.2.3.8
- काण्ड 1, अध्याय 2, ब्राह्मण 3
- यदा पिष्टन्यथा लोमनि भवन्ति | यदाप अनायथयथ त्वग्भवति यदा संयुत्यथा मानसं भवति संता इव हि सा तरहि भवति सततमिव हि मानसं यदा श्रुतोऽस्थि भवति दारुण इव हि सा तरहि भवति दारु नामित्यस्थ्यथा यदुद्वाशयिष्यन्नभिघरायति तम् मज्जनं दधात्येषो स सम्पद्यदहुः पंक्तः पशुरिति
अनुवाद:-
- 8. जब इसमें (चावल का केक) अभी भी चावल का भोजन शामिल है, तो यह बाल है। जब वह उस पर पानी डालता है तो वह खाल बन जाता है। जब वह उसे मिलाता है, तो वह मांस बन जाता है: क्योंकि तब वह एकरूप हो जाता है; और सुसंगत भी मांस है. जब वह पक जाता है, तो हड्डी बन जाता है: क्योंकि तब वह कुछ कठोर हो जाता है; और हड्डी कठोर है. और जब वह उसे (आग से) उतारकर उस पर मक्खन छिड़कता है, तो उसे मज्जा में बदल देता है। यह पूर्णता है जिसे वे 'पांच गुना पशु बलि' कहते हैं।
- पहिले देवताओं ने मनुष्य को बलि दिया जब वह बलि दिया गया तो यज्ञ का तत्व उसमें से निकल गया और उसने घोड़े में प्रवेश किया, तब उन्होंने घोड़े को बलि दिया, जब घोड़ा बलि दिया गया तो यज्ञ का तत्व उसमें से निकल गया और उसने बैल में प्रवेश किया—तब उन्होंने बैल को बलि दिया—जब बैल बलि दिया गया तो यज्ञ का तत्व उसमे से निकल गया और उसने भेड़ में प्रवेश किया। जब भेड़ को बलि दी गई तो यज्ञ का तत्व उसमें से निकल गया, और उसने बकरे में प्रवेश।
- तब उन्होंने बकरे को बलि दिया, तो यज्ञ का तत्त्व उसमें से भी निकल गया और तब उसने पृथ्वी में प्रवेश किया। तब उन्होंने पृथ्वी को खोदा और उसे चाबल और जौ के रूप में पाया"
- ब्राह्मण ग्रन्थों के बाद सूत्रकाल में ब्राह्मणों के विस्तृत वर्णनों को स्रोत सूत्रों में वर्णन किया गया है। ये स्मोत सूत्र बौद्ध काल तक बनते रहे और इनमें मांस का यज्ञों में खूब उपयोग होता रहा है।
- बलिदान की संख्या यज्ञ के अनुसार होती थीं। अश्वमेध यज्ञ में सब प्रकार के पालतू और जंगली जानवर थलचर, जलचर, उड़ने वाले, रेंगने वाले और तैरने वाले मिलाकर ६०९ से कम नहीं होते थे।
- कृष्णयजुर्वेद के ब्राह्मण में यह व्यौरा लिखा है कि छोटे छोटे यज्ञों में विशेष देवताओं को प्रसन्न रखने के लिये किस प्रकार का पशु मारना चाहिये।
- गोपथ ब्राह्मण में बताया गया है कि उसका क्या क्या भाग किसे मिलना चाहिये। पुरोहित लोग जीभ, गला, कन्धा, नितम्ब, टांग इत्यादि पाते थे।
- यजमान पीठ का भाग लेता था, और उसकी स्त्री को पेडू के भाग से सन्तोष करना पड़ता था शतपथ ब्राह्मण में इस विषय में एक मनोहर विवाद है कि पुरोहित को बैल का मांस खाना चाहिये या गाय का।
- अन्त परिणाम निकाला गया है कि दोनों ही मांस न खाने चाहिए। परन्तु याज्ञवल्क्य हठ पूर्वक कहते हैं! 'यदि वह नर्म हो तो हम उसे खा सकते हैं।". __________________
उद्धरण:- "सधेन्वै चानहुहुश्नाश्नीयाद्वे नवनडुहौ वह इद सर्व विश्नतस्ते देवा अबवन् देश वनडुहौ वा इद सर्व विभ्रतो हन्त यदन्वेषां वयासावीर्य तद्धेन वनडुहयोर्दधोमेति तद्रहो वाच याज्ञ वल्क्य। श्नाम्येवाहमा सलचेन्द्रवतीति। (शतपथ ब्राह्मण- ३। २। २। २१)
श्लोक 3.2.2.21
अथ पुनर्लोष्टं नस्यति | पृथिव्या संभवेत्यं वै पृथिवी देवी देवयाजनी स दीक्षितेन नाभिमिह्य तस्य एतदुद्गृह्यैव यज्ञीयं तनुमथायज्ञं शरीररामाभ्यामिकशत्तमेवस्य अमेतत्पुण्यंयं तनुं दधाति तस्मादाः पृथिव्या संभवेति
- 21. तब वह मिट्टी का ढेला फिर नीचे फेंकता है, और कहता है, “पृथ्वी के साथ एक हो जाओ!” वास्तव में यह पृथ्वी दिव्य है, और देवताओं की पूजा के लिए एक स्थान के रूप में कार्य करती है: इसे पवित्र व्यक्ति द्वारा अपवित्र नहीं किया जाना चाहिए। इसके यज्ञीय रूप से शुद्ध आवरण को उठाकर, उसने अपने आप को इसके अशुद्ध शरीर से मुक्त कर लिया है, और अब इसे इसके शुद्ध आवरण को पुनर्स्थापित करता है: इसलिए वह कहता है, "पृथ्वी के साथ एक हो जाओ!"
- उचित विशेषक और फ़ुटनोट सहित विस्तृत अनुवाद के लिए, पूर्ण अंग्रेज़ी अनुवाद पर जाएँ ।
- इस पवित्र मांस भक्षण का प्रभाव उपनिषदो तक में हो गया। बृहदारण्यक उपनिषद् मे लिखा है कि जो कोई यह चाहे कि मेरा पुत्र विद्वान् , विजयी और सर्व वेदों का ज्ञाता हो-वह बैल का मांस चावल के साथ पकाकर घी डालकर खाया
- अथ य इच्छेत् पुत्रो मे पण्डित विजिगीथ: समितिङ्गम: शुश्रूषितां वाचं भाषिता जायते सर्वान् वेदाननुब्रवीत सर्वमायुरिया दिति माँसौदनं पाचयित्वा।सर्पिष्मन्तमश्नीयाताम्- ईश्वरौ जनयितवै- औक्ष्णेन वार्षभेण वा।।१८।। (वृहद-आरण्यक - उपनिषद- (८। ४। १८)
- रथ्यास्त्री ब्रह्मणो वस्स कथ्य, ब्रह्माच्छासित उरु पोतुः सव्या श्रोणिहोंतुर-परसक्थं मैत्रावरुणस्योऊरच्छ्वाकस्य, दक्षिणादौनेष्ट. सव्यान्सदस्यस्य सदंचानक च गृहपतेर्जाघी पत्नायस्तासां ब्राह्मणे न प्रति ग्राहयति, वतिष्टुहृर्दयं वृक्कौ चांगुल्यानि दक्षिणो बाहुरर्गिनधस्य सव्य आत्रेयस्य दक्षिणी पादौ। गृहपतेवृंतपदस्य, सन्यौपादौ गृहपत्न्या वृतप्रदायाः (गोपथ ब्राह्मण ३॥ १८॥)
ऐसा प्रतीत होता है कि इस प्रकार की घृणास्पद हत्यायें लोगों को अप्रिय प्रतीत होने लगी थीं। और लोगो ने उनका विरोध करना शुरू कर दिया था। 'महाभारत में लिखा है' वेद में जो 'अज' से यज्ञ करने को लिखा है उसका अर्थ बीज है बकरा नहीं।
'गायें अवध्य हैं इन्हें न मारना चाहिये।'
"हिन्सा धर्म नहीं है।"
चार्वाक सम्प्रदाय वालों ने उपहास से कहा था—
- 'यदि पशु को मारने ही से स्वर्ग मिलता है तो यजमान अपने माता पिता को ही क्यों नहीं मारकर हवन कर देते।'
- मत्स्यपुराण अध्याय १४३
- में यज्ञ के विषय में एक मनोरंजक उपाख्यान है। "ऋषि पूछने लगे—स्वयंभुव मनु के समय त्रेतायुग के प्रारम्भ में यज्ञ का प्रचार कैसे हुआ ?...
- सूत जी ने कहा—वेद मन्त्रों का विनियोग यज्ञ कर्म में, करके इन्द्र ने यज्ञ का प्रचार किया ..जब सामगान होने लगा और पशुओं का आलंभन चलने लगा—तब महर्षि गणों ने उठ कर इन्द्र से पूंछा—तुम्हारी यज्ञ विधि क्या है ? ..यह पशु हवन की विधि तो अनुचित है ..यह धर्म नहीं अधर्म है। तुम धान्य से यज्ञ करो।[ ८४ ]
- पर इन्द्र ने नहीं माना। तब ऋषि सम्राट् बसु के पास गये और कहा—हे उत्तानपाद के बंशवर ! तूने कैसी यज्ञ विधि देखी है सो कहः—
- वसु ने कहा—द्विजों के मध्य पशुओं से तथा फल मूलों से यज्ञ करना चाहिये। यज्ञ का स्वभाव ही हिंसा है।
- यह सुनकर ऋषियों ने उसे श्राप दिया जिस से उसका अधःपतन हो गया।
- यही कथा कुछ फर्क से वायुपुराण में भी है। महाभारत में भी यह मजेदार घटना है।
- "इन्द्र ने भूमि पर आकर यज्ञ किया। जब पशु की जरूरत हुई तब वृहस्पति ने कहा—पशु के स्थान आटे का पशु बनाओ। यह सुन देवता चिल्ला उठे कि बकरे के मांस से हवन करो।
- तब ऋषियों ने कहा—नहीं धान्यो से यज्ञ करना चाहिये। बकरा मारना भले आदमियों को उचित नही। तब वे सम्राट आदि वसु के पास गये ओर पूंछा कि यज्ञ बकरे के मांस से करे या वनम्पतियों से।
- तब राजा ने कहा—पहिले यह कहो किस का क्या मत है। तब ऋषियों ने कहा—
- धान्य हमारा मत और पशु हनन देवों का।
- वमु ने कहा—तब बकरेके मांससे ही यज्ञ करना चाहिये। तब ऋषियों ने उसे श्राप दिया।
- महाभारत में (शान्तिपर्व अध्याय- ३४०) में इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि यज्ञों में पशुवध वैदिक काल से बहुत पीछे चला है।
श्रीमद्भागवत् में (४।२५।७।८ में) एक यज्ञ के विषय में लिखा है कि हे राजन्! तेरे यज्ञ में जो हज़ारों पशु मारे गये हैं तेरी उस क्रूरता का स्मरण करते हुए क्रोधित होकर तीक्ष्ण हथियारों से तुझे काटने को बैठे हैं।
भागवत पुराण - स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति - अध्याय 25: राजा पुरञ्जन के गुणों का वर्णन - श्लोक 7
श्लोक
4.25.7
नारद उवाच
भो भो: प्रजापते राजन् पशून् पश्य त्वयाध्वरे
संज्ञापिताञ्जीवसङ्घान्निर्घृणेन सहस्रश:॥७।
शब्दार्थ:-
नारद: उवाच—नारद मुनि ने उत्तर दिया; भो: भो:—हे, अरे; प्रजा-पते—हे प्रजा के शासक; राजन्—हे राजा; पशून्—पशुओं को; पश्य—देखो; त्वया—तुम्हारे द्वारा; अध्वरे—यज्ञ में; संज्ञापितान्—मारे गये; जीव-सङ्घान्—पशु समूह; निर्घृणेन— निर्दयतापूर्वक; सहस्रश:—हजारों ।.
अनुवाद:-नारद मुनि ने कहा : हे प्रजापति, हे राजन्, तुमने यज्ञस्थल में जिन पशुओं का निर्दयतापूर्वक वध किया है, उन्हें आकाश में देखो।
तात्पर्य:-चूँकि वेदों में पशु-यज्ञ की संस्तुति है, अत: समस्त धार्मिक अनुष्ठानों में पशुबलि दी जाती है। किन्तु शास्त्रों में दी गई विधि से पशुबलि करके संतुष्ट नहीं हो जाना चाहिए। मनुष्य को इन अनुष्ठानों से ऊपर उठकर वास्तविक सत्य—जीवन लक्ष्य—जानने का प्रयत्न करना चाहिए। नारद मुनि ने राजा को जीवन के असली लक्ष्य का उपदेश देकर उसके हृदय में वैराग्य की भावना जगानी चाही। ज्ञान तथा वैराग्य ही जीवन के चरमलक्ष्य हैं। बिना ज्ञान के मनुष्य भौतिक सुखों को नहीं छोड़ सकता और भौतिक सुख से विरक्त हुए बिना मनुष्य आध्यात्मिक उन्नति नहीं कर सकता। कर्मी प्राय: इन्द्रियतृप्ति में लगे रहते हैं और इसके लिए वे अनेक सारे पापकर्म कर सकते हैं। पशुवध तो ऐसे पापकर्मों में से एक है। फलत: नारदमुनि ने अपनी योगशक्ति से राजा प्राचीनबर्हिषत् को वे सारे मृत पशु दिखलाये जिनका राजा ने वध किया था।
श्लोक 7: नारद मुनि ने कहा : हे प्रजापति, हे राजन्, तुमने यज्ञस्थल में जिन पशुओं का निर्दयतापूर्वक वध किया है, उन्हें आकाश में देखो।
भागवत पुराण » स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति » अध्याय 25: राजा पुरञ्जन के गुणों का वर्णन » श्लोक 8
श्लोक
4.25.8
एते त्वां सम्प्रतीक्षन्ते स्मरन्तो वैशसं तव
सम्परेतम् अय:कूटैश्छिन्दन्त्युत्थितमन्यव: ॥ ८ ॥
शब्दार्थ
एते—ये सब; त्वाम्—तुम्हारी; सम्प्रतीक्षन्ते—प्रतीक्षा कर रहे हैं; स्मरन्त:—स्मरण करते हुए; वैशसम्—पीड़ा; तव—तुम्हारी; सम्परेतम्—मृत्यु के पश्चात्; अय:—लोहे के; कूटै:—सींगों से; छिन्दन्ति—छेदेंगे; उत्थित—जागृत; मन्यव:—क्रोध ।.
अनुवाद:-ये सारे पशु तुम्हारे मरने की प्रतीक्षा कर रहे हैं जिससे वे उन पर किये गये आघातों का बदला ले सकें। तुम्हारी मृत्यु के बाद वे अत्यन्त क्रोधपूर्वक तुम्हारे शरीर को लोहे के अपने सींगों से बेध डालेंगे।
तात्पर्य-नारद मुनि का उद्देश्य राजा प्राचीनबर्हिषत् का ध्यान यज्ञों में होने वाले अत्यधिक पशुवध के अत्याचार की ओर आकृष्ट करना था। शास्त्रों का कथन है कि यज्ञ में पशुओं का वध करने से उन्हें मनुष्य-जन्म प्राप्त होता है। इसी प्रकार जो क्षत्रिय युद्धभूमि में न्यायोचित उद्देश्य से अपने शत्रुओं से लड़ते हुए अपने शत्रुओं को मारते हैं, वे मृत्यु के पश्चात् स्वर्गलोक प्राप्त करते हैं। मनुस्मृति में कहा गया है कि राजा के लिए यह आवश्यक है कि वह हत्यारे को इसी जीवन में दण्डित करे जिससे अपने अपराधों के लिए उसे अगले जन्म में कष्ट न भोगना पड़े। इसी आधार पर नारद मुनि राजा को आगाह कर रहे हैं कि उसके द्वारा यज्ञ में जितने पशुओं का वध हुआ है वे उसकी मृत्यु के बाद अपना बदला लेने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। नारद मुनि यहाँ पर अपनी बात का खंडन नहीं कर रहे हैं। नारद मुनि राजा को विश्वास दिलाना चाहते थे कि अत्यधिक पशुवध खतरनाक है, क्योंकि यदि ऐसे यज्ञ में थोड़ी-सी भी त्रुटि रह जाती है, तो बलि किया गया पशु मनुष्य देह नहीं पा सकता। फलत: यज्ञ करने वाले पुरुष को ऐसे पशु की मृत्यु के लिए उत्तरदायी होना पड़ेगा, ठीक वैसे जैसे कोई हत्यारा अन्य व्यक्ति की हत्या के लिए जिम्मेदार होता है जब किसी बूचडख़ाने में पशुओं का वध किया जाता है, तो उस वध के लिए छ: व्यक्ति उत्तरदायी होते हैं, जो उस वध से सम्बधित हैं। जो व्यक्ति पशुवध की आज्ञा देता है, जो वध करता है, जो उसकी सहायता करता है, जो उसके मांस को खरीदता है, जो उसके मांस को पकाता है तथा जो उसे खाता है—ये सब हत्या के लिए उत्तरदायी बनते हैं। नारद मुनि राजा का ध्यान इसी तथ्य की ओर आकृष्ट करना चाह रहे थे। इस प्रकार से यज्ञ में भी पशुवध को प्रोत्साहन नहीं दिया जाता।
- श्लोक 8: ये सारे पशु तुम्हारे मरने की प्रतीक्षा कर रहे हैं जिससे वे उन पर किये गये आघातों का बदला ले सकें। तुम्हारी मृत्यु के बाद वे अत्यन्त क्रोधपूर्वक तुम्हारे शरीर को लोहे के अपने सींगों से बेध डालेंगे।
दया मानवीय स्वभाव का सब से भारी गुण है। मूक और असहाय पशु पक्षियों पर निर्दय होना मनुष्य के लिये सर्वाधिक कलङ्क की बात है। मत्स्य पुराण और अन्य पुराण इसके साक्ष्य हैं।
मत्स्यपुराण /अध्यायः १४३-त्रेतायुगे यज्ञविधिप्रवृत्तिः।
"ऋषय ऊचुः !
- कथं त्रेतायुगमुखे यज्ञस्यासीत् प्रवर्तनम्।पूर्वे स्वायम्भुवे स्वर्गे यथावत् प्रब्रवीहि नः। 143.1।
- अन्तर्हितायां सन्ध्यायां सार्द्धं कृतयुगेन हि।कालाख्यायां प्रवृत्तायां प्राप्ते त्रेतायुगे तथा। 143.2।
- औषधीषु च जातासु प्रवृत्ते वृष्टिसर्जने।प्रतिष्ठितायां वार्तायां ग्रामेषु च परेषु च। 143.3।
- वर्णाश्रमप्रतिष्ठान्नं कृत्वा मन्त्रैश्च तैः पुनः।संहितास्तु सुसंहृत्य कथं यज्ञः प्रवर्त्तितः।एतच्छ्रुत्वाब्रवीत् सूतः श्रूयतां तत्प्रचोदितम्। 143.4।
- "सूत उवाच!
- मन्त्रान्वै योजयित्वा तु इहामुत्र च कर्म्मसु।तथा विश्वभुगिन्द्रस्तु यज्ञं प्रावर्त्तयत्प्रभुः।। 143.5।
- दैवतैः सह संहृत्य सर्वसाधनसंवृतः।तस्याश्वमेधे वितते समाजग्मुर्महर्षयः।143.6।
- यज्ञकर्म्मण्यवर्तन्त कर्म्मण्यग्रे तथर्त्विजः।हूयमाने देवहोत्रे अग्नौ बहुविधं हविः।143.7।
- सम्प्रतीतेषु देवेषु सामगेषु च सुस्वरम्।परिक्रान्तेषु लघुषु अध्वर्युपुरुषेषु च।143.8।
- आलब्धेषु च मध्ये तु तथा पशुगुणेषु वै।आहूतेषु च देवेषु यज्ञभुक्षु ततस्तदा।143.9।
- य इन्द्रियात्मका देवा यज्ञभागभुजस्तु ते।तान्यजन्ति तदा देवाः कल्पादिषु भवन्ति ये। 143.10।
- अध्वर्युप्रैषकाले तु व्युत्थिता ऋषयस्तथा
- महर्षयश्च तान् द्रृष्ट्वा दीनान् पशुगणांस्तदा।
- विश्वभुजन्तेत्वपृच्छन् कथं यज्ञविधिस्तवः। 143.11।
- अधर्मो बलवानेष हिंसा धर्मेप्सया तव।नवः पशुविधिस्त्वष्टस्तव यज्ञे सुरोत्तम!।143.12।
- अधर्मा धर्म्मघाताय प्रारब्धः पशुभिस्त्वया।
- नायं धर्मो ह्यधर्मोऽयं न हिंसा धर्म्म उच्यते।आगमेन भवान् धर्मं प्रकरोतु यदीच्छति।। 143.13 ।
- विधिद्रृष्टेन यज्ञेन धर्मेणाव्यसनेन तु।यज्ञबीजैः सुरश्रेष्ठ! त्रिवर्गपरिमोषितैः।143.14।
- एष यज्ञो महानिन्द्रः स्वयम्भुविहितः पुनः।एवं विश्वभुगिन्द्रस्तु ऋषिभिस्तत्वदर्शिभिः।।उक्तो न प्रति जग्राह मानमोहसमन्वितः।143.15।
- तेषां विवादः सुमहान् जज्ञे इन्द्रमहर्षिणम्।जङ्गमैः स्थावरैः केन यष्टव्यमिति चोच्यते।। 143.16 ।
- ते तु खिन्ना विवादेन शक्त्या युक्ता महर्षयः।सन्धाय सममिन्द्रेण पप्रच्छुः खचरं वसुम्।। 143.17 ।
- ऋषय ऊचुः।
- महाप्राज्ञ! त्वया द्रृष्टः कथं यज्ञविधिर्नृप!।औत्तानपादे प्रब्रूहि संशयं नस्तुद प्रभो!। 143.18।
- "सूत उवाच।
- श्रुत्वा वाक्यं वसुस्तेषामविचार्य बलाबलम्।वेदशास्त्रमनुस्मृत्य यज्ञतत्त्वमुवाच ह।143.19।
- यथोपनीतैर्यष्टव्यमिति होवाच पार्थिवः।यष्टव्यं पशुभिर्मेध्यैरथ मूलफलैरपि।143.20।__________________________________
- हिंसास्वभावो यज्ञस्य इति मे दर्शनागमः।तथैते भविता मन्त्रा हिंसालिङ्गामहर्षिभिः।। 143.21
- दीर्घेण तपसा युक्तैस्तारकादिनिदर्शिभिः।तत्प्रमाणं मया चोक्तं तस्माच्छमितुमर्हथ।। 143.22 ।।
- यदि प्रमाणं स्वान्येव मन्त्रवाक्यानि वो द्विजाः!।तथा प्रवर्त्ततां यज्ञो ह्यन्यथा मानृतं वचः।143.23।
- एवं कृतोत्तरास्ते तु युञ्ज्यात्मानं ततो धिया।अवश्यम्भाविनं द्रृष्ट्वा तमधोह्यशपंस्तदा। 143.24।
- इत्युक्तमात्रो नृपतिः प्रविवेश रसातलम्।ऊद्र्ध्वचारी नृपो भूत्वा रसातलचरोऽभवत्। 143.25 ।।
- वसुधातलचारी तु तेन वाक्येन सोऽभवत्।धर्माणां संशयच्छेत्ता राजा वसुधरो गतः। 143.26।
- तस्मान्नवाच्यो ह्येकेन बहुज्ञेनापि संशयः।बहुधारस्य धर्म्मस्य सूक्ष्मा दुरनुगागातिः। 143.27।
- तस्मान्न निश्चयाद्वक्तुं धर्म्मः शक्तो हि केनचित्।देवानृषीनुपादाय स्वायम्भुवमृते मनुम्।143.28।
- तस्मान्न हिंसा यज्ञे स्याद्यदुक्तमृषिभिः पुरा।ऋषिकोटिसहस्राणि स्वैस्तपोभिर्दिवङ्गताः। 143.29।
- तस्मान्न हिंसा यज्ञञ्च प्रशंसन्ति महर्षयः।उञ्छो मूलं फलं शाकमुदपात्रे तपोधनाः।। 143.30।
- एतद्दत्वा विभवतः स्वर्गलोके प्रतिष्ठिताः।अद्रोहश्चाप्यलोभश्च दमोभूतदया शमः।143.31।
- ब्रह्मचर्यं तपः शौचमनुक्रोशं क्षमा धृतिः।सनातनस्य धर्म्मस्य मूलमेव दुरासदम्।143.32।
- द्रव्यमन्त्रात्मको यज्ञस्तपश्च समतात्मकम्।यज्ञैश्च देवानाप्नोति वैराजं तपसा पुनः।143.33 ।।
- ब्रह्मणः कर्म्मसंन्यासाद् वैराग्यात्प्रकृतेर्लयम्।ज्ञानात् प्राप्नोति कैवल्यं पञ्चैता गतयः स्मृताः। 142.34।
- एवं विवादः सुमहान् यज्ञस्यासीत् प्रवर्त्तते।ऋषीणां देवतानाञ्च पूर्वे स्वायम्भुवेऽन्तरे।। 142.35 ।
- ततस्ते ऋषयो द्रृष्ट्वा हृतं धर्मं बलेन ते।वसोर्वाक्यमनाद्रृत्य जग्मुस्ते वै यथागतम्।। 143.36 ।।
- गतेषु ऋषिसङ्घेषु देवायज्ञमवाप्नुयुः।श्रूयन्ते हि तपः सिद्धा ब्रह्मक्षत्रादयो नृपाः। 143.37।
- प्रियव्रतोत्तानपादौ ध्रुवो मेधातिथिर्वसुः।सुधामा विरजाश्चैव शङ्कपाद्राजसस्तथा। 143.38।
- प्राचीनबर्हिः पर्ज्जन्यो हविर्धानादयो नृपाः।एते चान्ये च बहवस्ते तपोभिर्दिवङ्गताः।143.39।
- राजर्षयो महात्मानो येषां कीर्त्तिः प्रतिष्ठिताः।तस्माद्विशिष्यते यज्ञात्तपः सर्वैस्तु कारणैः। 143.40।
- ब्रह्मणा तपसा सृष्टं जगद्विश्वमिदं पुरा।तस्मान्नाप्नोति तद्यज्ञात्तपो मूलमिदं स्मृतम्। 143.41।
- यज्ञप्रवर्तनं ह्येवमासीत् स्वायम्भुवेऽन्तरे।तदा प्रभृति यज्ञोऽयं युगैः सार्द्धं प्रवर्तितः।। 143.42 ।।
- मत्स्य पुराण (मत्स्यपुराण अध्याय १४३-)
- अनुवाद:-अध्याय 143 -
- यज्ञकी प्रवृत्ति तथा विधि का वर्णन
- ऋषियों ने पूछ— सूतजी ! पूर्वकालमें स्वायम्भुवमनुके कार्य कालमें त्रेतायुगके प्रारम्भ में किस प्रकार यज्ञ की प्रवृत्ति हुई थी ?
- जब कृतयुगके साथ उसकी संध्या (तथा संध्यांश) दोनों अन्तर्हित हो गये, तब कालक्रमानुसार त्रेतायुगकी संधि प्राप्त हुई।
- उस समय वृष्टि होनेपर ओषधियाँ उत्पन्न हुई तथा ग्रामों एवं नगरों में वार्ता वृत्ति की स्थापना हो गयी। उसके बाद वर्णाश्रमकी स्थापना करके परम्परागत आये हुए मन्त्रोंद्वारा पुनः संहिताओं को एकत्र कर यज्ञ की प्रथा किस प्रकार प्रचलित हुई?
- हम लोगोंके प्रति इसका यथार्थरूप से वर्णन कीजिये। यह सुनकर सूतजीने कहा 'आपलोगों के प्रश्नानुसार कह रहा हूँ, सुनिये ॥1- 14॥
- सूतजी कहते हैं-ऋषियो ! विश्वभोक्ता सामर्थ्यशाली इन्द्र ने ऐह लौकिक तथा पारलौकिक कमों में मन्त्रों को प्रयुक्त कर देवताओं के साथ सम्पूर्ण साधनों से सम्पन्न हो यज्ञ प्रारम्भ किया। उनके उस अश्वमेध यज्ञके आरम्भ होने पर उसमें महर्षिगण उपस्थित हुए। उस यज्ञ-कर्म में ऋत्विग्गण यज्ञक्रियाको आगे बढ़ा रहे थे। उस समय सर्वप्रथम अग्निमें अनेकों प्रकारके हवनीय पदार्थ डाले जा रहे थे, सामगान करनेवाले देवगण विश्वासपूर्वक ऊँचे स्वरसे सामगान कर रहे थे, अध्वर्युगण धीमे स्वरसे मन्त्रोंका उच्चारण कर रहे थे।______________________________
- पशुओंका समूह मण्डप के मध्यभाग में लाया जा रहा था, यज्ञभोक्ता देवोंका आवाहन हो चुका था। जो इन्द्रियात्मक देवता तथा जो यज्ञभागके भोक्ता थे और जो प्रत्येक कल्पके आदिमें उत्पन्न होनेवाले अजानदेव थे, देवगण उनका यजन कर रहे थे।
- इसी बीच जब यजुर्वेदके अध्येता एवं हवनकर्ता ऋषिगण पशु बलिका उपक्रम करने लगे, तब यूथ के यूथ ऋषि तथा महर्षि उन दीन पशुओंको देखकर उठ खड़े हुए और वे विश्वभुग् नाम के विश्वभोक्ता इन्द्रसे पूछने लगे 'देवराज आपके यज्ञकी यह कैसी विधि है ? आप धर्म-प्राप्ति की अभिलाषासे जो जीव-हिंसा करनेके लिये उद्यत हैं, यह महान् अधर्म है।__________________________________
- सुरश्रेष्ठ! आपके यज्ञमें पशु हिंसाकी यह नवीन विधि दीख रही है। ऐसा प्रतीत होता है कि आप पशु-हिंसाके व्याजसे धर्मका विनाश करने के लिये अधर्म करने पर तुले हुए हैं।
- यह धर्म नहीं है। यह सरासर अधर्म है। जीव-हिंसा धर्म नहीं कही जाती इसलिये यदि आप धर्म करना चाहते हैं तो वेदविहित धर्मका अनुष्ठान कीजिये।_________________________________
- सुरश्रेष्ठ! वेदविहित विधिके अनुसार किये हुए यज्ञ और दुर्व्यसनरहित धर्मके पालनसे यज्ञके बीजभूत शिववर्ग (नित्य धर्म, अर्थ, काम) की प्राप्ति होती है। इन्द्र ! पूर्वकालमें ब्रह्माने इसीको महान् यज्ञ बतलाया है।' तत्त्वदर्शी ऋषियोंद्वारा इस प्रकार कहे जानेपर भी विश्वभोक्ता इन्द्रने उनकी बातों को अङ्गीकार नहीं किया; क्योंकि उस समय वे मान और मोह से भरे हुए थे।
- फिर तो इन्द्र और उन महर्षियों के बीच 'स्थावरों या जङ्गमोंमेंसे किससे यज्ञानुष्ठान करना चाहिये'- इस बातको लेकर वह अत्यन्त महान् विवाद उठ खड़ा हुआ ।
- यद्यपि वे महर्षि शक्तिसम्पन्न थे, तथापि उन्होंने उस विवाद से खिन्न होकर इन्द्र के साथ संधि करके (उसके निर्णयार्थ ) उपरिचर (आकाशचारी राजर्षि) वसुसे प्रश्न किया।5- 17॥
- ऋषियों ने पूछा— उत्तानपाद-नन्दन नरेश ! आप तो सामर्थ्यशाली एवं महान् बुद्धिमान् हैं। आपने किस प्रकार की यज्ञ विधि देखी है, उसे बतलाइये और हम लोगोंका संशय दूर कीजिये ।18।
- सूतजी कहते हैं। उन ऋषियोंका प्रश्न ! सुनकर महाराज वसु उचित - अनुचितका कुछ भी विचार न कर वेद-शास्त्रों का अनुस्मरण कर यज्ञतत्त्वका वर्णन करने लगे। उन्होंने कहा- 'शक्ति एवं समयानुसार प्राप्त हुए पदार्थों से यज्ञ करना चाहिये।
- पवित्र पशुओं और मूल फलोंसे भी यज्ञ किया जा सकता है।
- मेरे देखने में तो ऐसा लगता है कि हिंसा यज्ञका स्वभाव ही है। इसी प्रकार तारक आदि मन्त्रोंके ज्ञाता उग्रतपस्वी महर्षियोंने हिंसासूचक मन्त्रोंको उत्पन्न किया है। ____________________
- उसीको प्रमाण मानकर मैंने ऐसी बात कही है, अतः आपलोग मुझे क्षमा कीजियेगा। द्विजवरो! यदि आप लोगों को वेदों के मन्त्रवाक्य प्रमाणभूत प्रतीत होते हों तो यही कीजिये, अन्यथा यदि आप वेद-वचनको झूठा मानते हों तो मत कीजिये।' वसु-द्वारा ऐसा उत्तर पाकर महर्षियनि अपनी बुद्धिसे विचार किया और अवश्यम्भावी विषयको जानकर राजा वसुको विमानसे नीचे गिर जानेका तथा पातालमें प्रविष्ट होनेका शाप दे दिया।
- ऋषियोंकि ऐसा कहते ही राजा वसु रसातलमें चले गये। इस प्रकार जो राजा वसु एक दिन आकाशचारी थे, वे रसातलगामी हो गये। ऋषियोंके शापसे उन्हें पातालचारी होना पड़ा। धर्मविषयक संशयोंका निवारण करने वाले राजा वसु इस प्रकार अधोगतिको प्राप्त हुए । 19 - 26।
- इसलिये बहुज्ञ (अत्यन्त विद्वान्) होते हुए भी अकेले किसी धार्मिक संशय का निर्णय नहीं करना चाहिये; -क्योंकि अनेक द्वार (मार्ग) वाले धर्मकी गति अत्यन्त सूक्ष्म और दुर्गम है। अतः देवताओं और ऋषियोंके साथ-साथ, स्वायम्भुव मनुके अतिरिक्त अन्य कोई भी अकेला व्यक्ति धर्म के विषयमें निश्चयपूर्वक निर्णय नहीं दे सकता। इसलिये पूर्वकालमें जैसा ऋषियोंने कहा है, उसके अनुसार यज्ञ में जीव- हिंसा नहीं होनी चाहिये।
- हजारों करोड़ ऋषि अपने तपोबलसे स्वर्गलोकको गये हैं। इसी कारण महर्षिगण हिंसात्मक यज्ञकी प्रशंसा नहीं करते।
- वे तपस्वी अपनी सम्पत्तिके अनुसार उच्छवृत्तिसे प्राप्त हुए अन्न, मूल, फल, शाक और कमण्डलु आदिका दान कर स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित हुए हैं। ईर्ष्याहीनता, निर्लोभता, इन्द्रियनिग्रह, जीवोंपर दयाभाव, मानसिक स्थिरता, ब्रह्मचर्य, तप, पवित्रता, करुणा, क्षमा और धैर्य— ये सनातन धर्मके मूल ही हैं,
- जो बड़ी कठिनता से प्राप्त किये जा सकते हैं। यज्ञ द्रव्य और मन्त्रद्वारा सम्पन्न किये जा सकते हैं और तपस्याकी सहायिका समता है। यज्ञोंसे देवताओंकी तथा तपस्यासे विराट् ब्रह्मकी प्राप्ति होती है।
- कर्म (फल) का त्याग कर देनेसे ब्रह्म-पदकी प्राप्ति होती है, वैराग्यसे प्रकृतिमें लय होता है और ज्ञानसे कैवल्य (मोक्ष) सुलभ हो जाता है। इस प्रकार ये पाँच गतियाँ बतलायी गयी हैं । 27-34l
- पूर्वकालमें स्वायम्भुव मन्वन्तरमें यज्ञकी प्रथा प्रचलित होनेके अवसरपर देवताओं और ऋषियोंके बीच इस प्रकारका महान् विवाद हुआ था। तदनन्तर जब ऋषियोंने यह देखा कि यहाँ तो बलपूर्वक धर्मका विनाश किया जा रहा है, तब वसुके कथनकी उपेक्षा कर वे जैसे आये थे, वैसे ही चले गये। उन ऋषियोंके चले जानेपर देवताओंने यज्ञकी सारी क्रियाएँ सम्पन्न कीं। इसके अतिरिक्त इस विषयमें ऐसा भी सुना जाता है कि बहुतेरे ब्राह्मण तथा क्षत्रियनरेश तपस्याके प्रभावसे ही सिद्धि प्राप्त की थी। प्रियव्रत उत्तानपाद, ध्रुव, मेधातिथि, वसु, सुभामा, विरजा, शङ्खपाद, राजस प्राचीनवर्हि, पर्जन्य और हविधान आदि नृपतिगण तथा इनके अतिरिक्त अन्य भी बहुत-से नरेश तपोबलसे स्वर्गलोक को प्राप्त हुए हैं, जिन महात्मा राजर्षियोंकी कीर्ति अबतक विद्यमान है अतः तपस्या सभी कारणों से सभी प्रकार यज्ञ से बढ़कर है।
- पूर्वकालमें ब्रह्माने तपस्याके प्रभावसे ही इस सारे जगत्को सृष्टि की थी, अतः यज्ञ द्वारा वह बल नहीं प्राप्त हो सकता। उसकी प्राप्ति का मूल कारण तप ही कहा गया है। इस प्रकार स्वायम्भुव मन्वन्तरमें यज्ञ की प्रथा प्रारम्भ हुई थी। तबसे यह यज्ञ सभी युगोंक साथ प्रवर्तित हुआ || 35 - 42 ॥
- (मत्स्य पुराण)
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- ब्रह्माण्ड पुराण के पूर्वभाग अध्याय 30 में वर्णन है।
- "ब्रह्माण्डपुराण -पूर्वभागः
- अध्यायः(३०)
- ". शांशापायनिरुवाच ।
- कथं त्रेतायुगमुखे यज्ञस्य स्यात्प्रवर्त्तनम् ।पूर्वं स्वायंभुवे सर्गे यथावत्तच्च ब्रूहि मे ।१।
- अंतर्हितायां संध्यायां सार्द्धं कृतयुगेन वै ।कालाख्यायां प्रवृत्तायां प्राप्ते त्रेतायुगे तदा ।२।
- औषधीषु च जातासु प्रवृत्ते वृष्टिसर्जने ।प्रतिष्ठितायां वार्त्तायां गृहाश्रमपरे पुनः ।३।
- वर्णाश्रमव्यवस्थानं कृतवंतश्च संख्यया।संभारांस्तांस्तु मंभृत्य कथं यज्ञः प्रवर्त्तितः ।४।
- एतच्छुत्वाऽब्रवीत्सूतः श्रूयतां शांशपायने ।यथा त्रेतायुगमुखे यज्ञस्य स्यात्प्रवर्तनम् ।५
- पूर्वं स्वायंभुवे सर्गे तद्वक्ष्याम्यानुपूर्व्यतः ।अंतर्हितायां संध्यायां सार्द्धं कृतयुगेन तु ।६ ।
- कालाख्यायां प्रवृत्तायां प्रप्ते त्रेतायुगे तदा ।औषधीषु च जातासु प्रवृत्ते वृष्टिसर्जने ।७।
- प्रतिष्ठितायां वार्त्तायां गृहश्रमपरेषु च ।वर्णाश्रमव्यवस्थानं कृत्वा मंत्रांस्तु संहतान् ।८।
- मंत्रांस्तान्योजयित्वाथ इहामुत्र च कर्मसु ।तदा विश्वभुगिंद्रश्च यज्ञं प्रावर्त्तयत्प्रभुः ।९।
- दैवतैः सहितैः सर्वैः सर्वसंभारसंभृतैः ।तस्याश्वमेधे वितते समाजग्मुर्महर्षयः ।१०।
- यजंतं पशुभिर्मेध्यैरूचुः सर्वे समागताः ।कर्मव्यग्रेषु ऋत्विक्षु संतते यज्ञकर्मणि ।११।
- संप्रगीथेषु सर्वेषु सामगेष्वथ सुस्वरम् ।परिक्रांतेषु लघुषु ह्यध्वर्युवृषभेषु च ।१२।
- आलब्धेषु च मेध्येषु तथा पशुगणेषु च ।हविष्यग्नौ हूयमाने ब्राह्मणैश्चाग्निहोत्रिभिः ।१३।
- आहूतेषु च सर्वेषु यज्ञभाक्षु क्रमात्तदा ।य इंद्रियात्मका देवास्तदा ते यज्ञभागिनः ।१४।
- तद्यजन्ते तदा देवान्कल्पादिषु भवंति ये।अध्वर्यवः प्रैषकाले व्युत्थिता वै महर्षयः ।१५।
- महर्षयस्तु तान्दृष्ट्वा दीनान्पशुगणांस्तदा ।प्रपच्छुरिन्द्रं संभूय कोऽयं यज्ञविधिस्तव ।१६।
- अधर्मो बलवानेष हिंसाधर्मेप्सया ततः ।ततः पशुवधश्चैष तव यज्ञे सुरोत्तम ।१७ ।
- अधर्मो धर्मघाताय प्रारब्धः पशुहिसया ।नायं धर्मो ह्यधर्मोऽयं न हिंसा धर्म उच्यते ।१८।
- आगमेन भवान्यज्ञं करोतु यदिहेच्छति ।विधिदृष्टेन यज्ञेन धर्मेणाव्यपसेतुना ।१९ ।
- यज्ञबीजैः सुरेश्रष्ठ येषु हिंसा न विद्यते ।त्रिवर्षं परमं कालमुषितैरप्ररोहिभिः ।२० ।
- एष धर्मो महाप्राज्ञ विरंचिविहितः पुरा ।एवं विश्वभुगिंद्रस्तु ऋषिभिस्तत्त्वदर्शिभिः ।२१।
- तदा विवादः सुमहानिंद्रस्यासीन्महर्षिभिः।जंगमस्थावरैः कैर्हि यष्टव्यमिति चोच्यते ।२२ ।
- ते तु खिन्ना विवादेन तत्त्वमुक्त्वा महर्षयः।सन्धाय वाक्यमिंद्रेण पप्रच्छुः खेचरं वसुम् ।२३।
- सहाप्राज्ञ कथं दृष्टस्त्वया यज्ञविधिर्नृप।औत्तानपादे प्रब्रूहि संशयं नो नुद प्रभो ।२४।
- श्रुत्वा वाक्यं वसुस्तेषामविचार्य बलाबलम् ।वेदशास्त्रमनुस्मृत्य यज्ञतत्त्वमुवाच ह ।२५।
- यथोपनीर्तैर्यष्टव्यमिति होवाच पार्थिवः ।यष्टव्यं पशुभिर्मेध्यैरथ बीजैः फलैरपि ।२६।
- हिंसास्वभावो यज्ञस्य इति मे दर्शनागमौ ।यथेह देवता मंत्रा हिंसालिंगा महर्षिभिः । २७।
- दीर्घेण तपसा युक्तैर्दर्शनैस्तारकादिभिः ।तत्प्रामाण्यान्मया चोक्तं तस्मात्स प्राप्तुमर्हथ ।२८।
- यदि प्रमाणं तान्येव मंत्रवाक्यानि वै द्विजाः ।तथा प्रवततां यज्ञो ह्यन्यथा वोऽनृतं वचः ।२९ ।
- एवं कृतोत्तरास्ते वै युक्तात्मानस्तपोधनाः ।अवश्यभावितं दृष्ट्वा तमथो वाग्यताऽभवन् ।३०।
- इत्युक्तमात्रे नृपतिः प्रविवेश रसातलम् ।ऊर्ध्वचारी वसुर्भूत्वा रसातलचरोऽभवत् ।३१ ।
- वसुधा तलवासी तु तेन वाक्येन सोऽभवत् धर्माणां संशयच्छेत्ता राजा वसुरधोगतः ।३२।
- तस्मान्न वाच्यमेकेन बहुज्ञेनापि संशये ।बहुद्वारस्य धर्मस्य सूक्ष्मा दूरतरा गतिः ।३३।
- तस्मान्न निश्चयाद्वक्तुं धर्मः शक्यस्तु केनचित् ।देवानृषीनुपादाय स्वायंभुवमृते मनुम् ।३४ ।
- तस्मादहिंसा धर्मस्य द्वारमुक्तं महर्षिभिः ।ऋषिकोटिसहस्राणि स्वतपोभिर्दिवं ययुः ।३५।
- तस्मान्न दानं यज्ञं वा प्रशंसंति महर्षयः ।उञ्छमूलफलं शाकमुदपात्रं तपोधनाः।३६
- एतद्दत्वा विभवतः स्वर्गे लोके प्रतिष्ठिताः ।अद्रोहश्चाप्य लोभश्च तपो भुतदया दमः ।३७।
- ब्रह्मचर्यं तथा सत्यमनुक्रोशः क्षमा धृतिः।सनातनस्य धर्मस्य मूलमेतद्दुरासदम् ।३८ ।
- श्रूयंते हि तपःसिद्धा ब्रह्मक्षत्रादयोऽनघाः ।प्रियव्रतोत्तानपादौ ध्रुवो मेधातिथिर्वसुः ।३९ ।
- सुधामा विरजाश्चैव शंखः पांड्यज एव च ।प्रचीनबर्हिः पर्जन्यो हविर्धानादयो नृपः।४०।
- एते चान्ये च बहवः स्वैस्तपोभिर्दिवं गताः ।राजर्षयो महासत्त्वा येषां कीर्त्तिः प्रतिष्ठिता ।। ३०.४१।
- तस्माद्विशिष्यते यज्ञात्तपः सर्वैस्तु कारणः ।।ब्रह्मणा तपसा सृष्टं जगद्विश्वमिदं पुरा ।। ३०.४२ ।
- तस्मान्नान्वेति तद्यज्ञस्तपोमूलमिदं स्मृतम्द्रव्यमंत्रात्मको यज्ञस्तपस्त्वनशनात्मकम् ।४३।
- यज्ञेन देवानाप्नोति वैराजं तपसा पुनः ।ब्राह्मं तु कर्म संन्यासाद्वैराग्यात्प्रकृतेर्जयम् ।४४ ।
- ज्ञानात्प्राप्नोति कैवल्यं पंचैतागतयः स्मृताः।एवं विवादः सुमहान्य ज्ञस्यासीत्प्रवर्त्तने ।४५ ।
- देवतानामृषीणां च पूर्व स्वायंभुवेऽन्तरे ।ततस्तमृषयो दृष्ट्वा हतं धर्मबलेन तु ।४६ ।
- वसोर्वाक्यमना दृत्य जगमुः सर्वे यथागतम् ।।गतेषु मुनिसंघेषु देवा यज्ञं समाप्नुवन् ।४७ ।
- यज्ञप्रवर्त्तनं ह्येवमासीत्स्वायंभुवेऽन्तरे।ततः प्रभृति यज्ञोऽयं युगैः सह विवर्त्तितः । ४८।
अध्याय 30 - यज्ञ पंथ का उद्घाटन अभिभावक: खंड 2 - अनुषंग-पाद
सारांश : बलिदान पंथ का उद्घाटन; यज्ञ की निंदा के कारण राजा वसु का पतन |
नोट : यह अध्याय 58.76 एफएफ से मेल खाता है । वायु-पुराण का .
शंशपायनी ने कहा :-
- 1. त्रेता युग की शुरुआत में, स्वायंभुव मन्वंतर में यज्ञ कार्य कैसे शुरू किया जा सकता था । ?
- इसे तथ्यात्मक रूप से मुझे सुनाइये।
- 2-4. जब कृत युग के साथ-साथ संध्या (दो युगों के बीच की अवधि ) भी बीत गई , जब त्रेता युग के आगमन पर ( काल इकाई) जिसे काल कहा जाता था , काम करना शुरू कर दिया , जब बारिश का निर्माण हुआ और (पौधे) और) जब खेती का चलन हुआ तो औषधीय जड़ी-बूटियाँ उग आई थीं। और कृषि पूरी तरह से स्थापित हो चुकी थी, जब गृहस्थ जीवन के प्रति समर्पित लोगों ने गहरी अंतर्दृष्टि के साथ जातियों और जीवन के चरणों का वर्गीकरण स्थापित किया, तो सभी आवश्यकताओं को एक साथ इकट्ठा करने के बाद यज्ञ कैसे शुरू किया गया?”
- 5. यह सुनकर सुत ने कहा:-
- हे शंशपायनी, यह सुना जाए कि त्रेता युग के आरंभ में यज्ञ कैसे किये जाने लगे।
- 6-9. मैं पूर्व स्वायंभुव मन्वंतर में उचित क्रम में (यज्ञ कैसे शुरू हुआ) वर्णन करूंगा।
- जब कृत युग के साथ संध्या संक्रमणकालीन अवधि (या जंक्शन) समाप्त हो गई, जब त्रेता युग के आगमन पर काल नामक काल ने कार्य करना शुरू किया, जब बारिश का निर्माण हुआ था और (पौधों और) औषधीय जड़ी बूटियों का विकास हुआ था बड़े हुए, जब खेती और कृषि का अभ्यास पूरी तरह से स्थापित हो गया, जब लोग गृहस्थ जीवन के प्रति समर्पित हो गए और जातियों और जीवन के चरणों का वर्गीकरण स्थापित करने के बाद, उन्होंने मंत्रों को एक सुव्यवस्थित संग्रह में व्यवस्थित किया, उनमें शामिल थे उन मंत्रों को पवित्र अनुष्ठानों में (कल्याण के लिए) यहां और इसके बाद। उस समय भगवान इंद्र (ब्रह्मांड के भोक्ता) ने यज्ञ की शुरुआत की।
- 10. (उन्होंने समस्त देवताओं तथा समस्त आवश्यक वस्तुओं को एकत्र करके यज्ञ प्रारम्भ किया)। महान ऋषि उसके अश्व-यज्ञ में आए, जो भव्य रूप से किया जा रहा था।
- 11-16. जब वह बलि योग्य पशुओं के साथ यज्ञ कर रहा था, तब भी जो लोग आये थे, उन्होंने उससे पूछा।
- जब ऋत्विक (यज्ञ पुजारी) यज् के प्रदर्शन से संबंधित गतिविधियों के रूप में अपने अनुष्ठानिक अग्नि-पूजा में व्यस्त थे; जब पुजारियों (अधिकृत) ने समान मंत्रों का गायन शुरू कर दिया था; जब प्रमुख अध्वर्यु (यज्ञ पुरोहित) ने तुरंत अपनी कार्यवाही शुरू कर दी; जब बलि देने योग्य सभी जानवरों के झुंड काट दिए गए और मारे गए, जब अग्निहोत्र करने वाले ब्राह्मणों द्वारा हविस हवि को अग्नि में डाला जा रहा था ; जब यज्ञ में भाग लेने वाले सभी देवताओं का उचित क्रम में आह्वान किया गया - वे देवता जो इंद्रिय प्रकृति के हैं(इंद्रियों के अधिष्ठाता देवता) यज्ञ के भागी थे - वे उन देवताओं की पूजा करते थे जो कल्प की शुरुआत में मौजूद थे - महान ऋषि, अध्वर्यु, निचोड़ने और कुचलने के समय उठते थे ( सोम रस के) . पशुओं के दुखी झुंड को देखकर, महान ऋषियों ने सामूहिक रूप से इंद्र से पूछा- ''आपके यज्ञ की विधि क्या है? [1]
- 17. यह अत्यन्त अधर्म और पाप है। यह (यह बलिदान) जीवन की हिंसा से जुड़े संस्कारों की इच्छा से फैलाया (किया गया) है)। हे श्रेष्ठ देवता, आपके यज्ञ में; जानवरों की हत्या शामिल है.
- 18. पशुओं पर इस आघात के कारण धर्म का नाश करने का दुष्ट कार्य प्रारम्भ हो गया है । यह धर्म नहीं है; यह अधर्म (पाप) है. हिंसा को धर्म नहीं कहा जाता।
- 19. यदि आपका सम्मान शास्त्र के अनुसार यज्ञ करना चाहता है, तो धर्म के माध्यम से यज्ञ करें जो स्थापित संस्थानों का उल्लंघन नहीं करता है। (शास्त्रों में) बताई गई आज्ञा के अनुसार यज्ञ करो।
- 20-21. हे श्रेष्ठ देव! (यज्ञ करना चाहिए) उन यज्ञीय बीजों से जिन्हें अधिकतम तीन वर्ष तक रखा जाता है और जिनमें अंकुर नहीं निकलते। उनमें (ऊपर वर्णित ऐसे बीज) कोई हिंसा (जीवन के प्रति) मौजूद नहीं है (शामिल है)। हे अत्यधिक बुद्धिमान, यह ब्रह्मा द्वारा पूर्व निर्धारित धर्म है ।
- इस प्रकार ब्रह्माण्ड के भोक्ता इंद्र से, वास्तविकता को जानने वाले ऋषियों ने (पूछा था)।
- 22. तब इंद्र और महान ऋषियों के बीच एक महान बहस हुई - "यज्ञ किस माध्यम से किया जाना चाहिए - जंगम (जीवित) प्राणियों या स्थिर वस्तुओं द्वारा?"
- 23. सिद्धांत बताने के बाद महर्षिगण तर्क-वितर्क के कारण निराश हो गये। इंद्र के साथ समझौता करने के बाद, उन्होंने वसु से पूछा जो आकाश में घूम रहे थे।
- 24 हे महान बुद्धि राजा, आपने यज्ञ की विधि कैसी (क्या) बताई है। हे भगवान, उत्तानपाद के पुत्र , समझाएं और हमारे संदेह दूर करें।”
- 25 उनकी बातें सुनकर वसु को हित-अहित का विचार किये बिना ही वेदों और शास्त्रों का स्मरण हो आया। फिर उन्होंने यज्ञ के सिद्धांत को समझाया।
- 26. राजा ने कहा, “जो कुछ भी विधिपूर्वक लाया जाए उसी से यज्ञ करना चाहिए।” 'बलिदान योग्य पशुओं के माध्यम से या बीज और फलों के माध्यम से किया जाना चाहिए।
- 27-29. यज्ञ में हिंसा स्वाभाविक है - ऐसी मेरी (राय) है और दार्शनिक ग्रंथों और शास्त्रों में भी इसका उल्लेख है। जैसे देवता , वैसे ही मंत्र भी हिंसा के प्रतीक हैं। यह बात लंबी अवधि की तपस्या से संपन्न महान ऋषियों ने अपने दार्शनिक ग्रंथों और तारक और अन्य (मंत्रों) के माध्यम से कही है। यह बात उनके अधिकार के आधार पर कही गयी है. इसलिए, हे ब्राह्मणों, इसे प्राप्त करना आप सभी के लिए आवश्यक है, बशर्ते उन मंत्रों और कथनों को आप आधिकारिक मानते हों, इसलिए, यज्ञ को जारी रखा जाए और कार्य करने दिया जाए। अन्यथा आपकी बातें अन्यथा (झूठी) होंगी।”
- 30. इस तरह से उत्तर दिए जाने के बाद, एकीकृत आत्माओं के ब्रह्म के साथ एकजुट आत्माओं वाले उन संतों को अनिवार्यता का एहसास हुआ और इसलिए उन्होंने अपनी वाणी पर संयम रखा।
- 31 इतना कहकर राजा तुरंत रसातल (पाताल लोक) में प्रवेश कर गया। ऊपरी लोकों का यात्री हो ने के बाद वसु (अब) पाताल लोक का यात्री बन गया। [2]
- 32. उस कथन के अनुसार वह संसार की (पाताल) सतह का निवासी था। धर्म के विषय में संदेह दूर करने का प्रयत्न करने वाले राजा वसु नीचे चले गये।
- 33. इसलिए, भले ही कोई व्यक्ति कई चीजों से परिचित हो, उसे अकेले और अकेले ही संदेह के स्पष्टीकरण के रूप में कुछ भी व्यक्त नहीं करना चाहिए। धर्म में कई खुलेपन हैं। इसका रास्ता सूक्ष्म है और यह बहुत दूर तक जाता है।
- 34. इसलिए, स्वायंभुव मनु को छोड़कर, देवताओं और ऋषियों सहित धर्म के मामले में कोई भी निश्चित रूप से कुछ नहीं कह सकता है ।
- 35. अत: अहिंसा को महान ऋषियों ने धर्म का द्वार बताया है। [3] हजारों-लाखों ऋषि-मुनि अपनी-अपनी तपस्या से स्वर्ग सिधार गये हैं।
- 36-38. इसलिए महर्षि लोग न तो दान की प्रशंसा करते हैं और न ही यज्ञ की। कंद-मूल, फल, साग-सब्जी या अपनी सामर्थ्य के अनुसार जल-पात्र देकर अनेक तपस्वी स्वर्ग लोक में सुप्रतिष्ठित हुए हैं।
- उत्पीड़न न करना, लालच का अभाव, तपस्या, प्राणियों पर दया, इंद्रियों पर नियंत्रण, ब्रह्मचर्य, सत्यता, कोमलता, क्षमा, धैर्य - ये शाश्वत धर्म की जड़ें हैं, लेकिन इन्हें हासिल करना बहुत मुश्किल है।
- 39-41. ऐसा सुना जाता है (परंपरागत रूप से) कि कई पापरहित ब्राह्मणों, क्षत्रियों और अन्य लोगों ने तपस्या के माध्यम से आध्यात्मिक शक्ति प्राप्त की है। वे प्रियव्रत , उत्तानपाद, ध्रुव , मेधातिथि , वसु, सुधामन , विरजस , शंख , पांड्यजा , प्राचीनबर्हिस , पर्जन्य , हविर्धन और अन्य राजा हैं। ये तथा अन्य अनेक लोग अपनी तपस्या से स्वर्ग गये हैं। वे महान अंतर्निहित शक्ति वाले संत राजा हैं जिनकी प्रतिष्ठा दृढ़ता से स्थापित हो चुकी है।
- 42. अत: सभी कारणों से तपस्या यज्ञ से श्रेष्ठ है। यह उनकी तपस्या का ही परिणाम है कि इस संपूर्ण ब्रह्माण्ड की रचना पहले ब्रह्मा ने की थी।
- 43. अत: यज्ञ कहीं भी इसका (तपस्या) पालन नहीं करता। यह (संसार) तप पर आधारित माना गया है।
- यज्ञ की सामग्री और मन्त्र यज्ञ के आधार हैं। तपस्या भोजन न करने की प्रकृति की है।
- 44. मनुष्य यज्ञ से देवताओं को और तपस्या से वैराज को प्राप्त करता है। त्याग के माध्यम से ब्राह्मणवादी पवित्र संस्कार (प्राप्त किए जाते हैं) और वैराग्य (भावुक लगाव की अनुपस्थिति) के माध्यम से प्रकृति पर विजय प्राप्त की जाती है।
- 45-48. ज्ञान से कैवल्य (मोक्ष) की प्राप्ति होती है । इन्हें पांच गोल घोषित किया गया है.
- इस प्रकार स्वायंभुव मन्वंतर के दौरान यज्ञ के संचालन के संबंध में देवताओं और ऋषियों के बीच महान बहस हुई।
- तत्पश्चात् उसे (वसु?) को धर्मबल से मारा हुआ देखकर वे सब वसु की बात को अनसुना कर गये और जैसे आये थे वैसे ही चले गये। जब ऋषियों के समूह चले गए, तो देवताओं ने यज्ञ समाप्त किया। इस प्रकार स्वायम्भुव मन्वन्तर में यज्ञ प्रारम्भ हुआ। इसके बाद युगों के साथ-साथ इस यज्ञ में भी संशोधन किया गया।
- वी.वी. 16-21 में पशु-बलि के विरुद्ध ब्राह्मणवादी विरोध दर्ज है। उनका कहना है कि बलि में जानवरों की जगह उन बीजों का इस्तेमाल किया जाना चाहिए जो 3 साल पुराने हैं और अंकुरण में असमर्थ हैं।
- पशुबलि का समर्थन करने के कारण राजा वसु के पतन से पता चला कि इस पुराण के समय में पशुबलि की वह संस्था किस प्रकार निंदित हो गई थी।
- [3] :
- वी.वी. 35-48 पशु बलि सहित कर्ममार्ग पर ज्ञान मार्ग की श्रेष्ठता स्थापित करते हैं।
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- इति श्रीब्रह्माण्डे महापुराणे वायुप्रोक्ते पूर्वभागे द्वितीयेऽनुषंगपादे
- यज्ञप्रवर्त्तनं नाम त्रिशत्तमोऽध्यायः ।३०।______________________________________
- लक्ष्मीनारायणसंहिता | खण्डः १ (कृतयुगसन्तानः) अध्यायः
- श्री लक्ष्मीरुवाच
- कदा यज्ञः प्रवृत्तः स किमभूत्तत्र पापकृत् ।केन कृतः कथं वसोः पतनं समभूत्कुतः ? ।१ ।
- श्रीनारायण उवाच--
- प्रथमे तु युगे त्रेतानामके राजचिह्नवान् ।उत्तानपादपुत्रस्तु वसुनामाऽभवन्नृपः ।२।
- विष्णोरंशेन जायन्ते पृथिव्यां चक्रवर्तिनः ।आजानुबाहवश्चैव धनुर्हस्ता वृषांकिताः ॥३॥
- ताम्रप्रभौष्ठदन्तौष्ठाः श्रीवत्साश्चोर्ध्वरोमशाः ।केशस्थिता ललाटोर्णा जिह्वा चैषां प्रमार्जनी ।४।
- न्यग्रोधपरिणाहाश्च सिंहस्कन्धाः सुमेहनाः ।गजेन्द्रगतयश्चैव महाहनव एव च । ५ ।
- ऐश्वर्येणाऽणिमाद्येन प्रभुशक्त्या बलेन च ।अन्नेन तपसा चैव ऋषीनभिभवन्ति वै ।६।
- नयेन तपसा चैव देवदानवमानुषान् ।अभिभवन्ति योगेन विष्णुप्रदत्तशक्तिभिः।७।
- पादयोश्चक्रमत्स्यौ च शंखपद्मे तु हस्तयोः।धनुर्भुजे ह्युरौ छत्रं रेखास्ताश्चक्रवर्तिनाम् ।८।
- चक्रं रथो मणिः खड्गं धनूरत्नं च पंचमम् ।केतुर्निधिश्च सप्तैते रत्नश्रेष्ठा अचेतनाः ।९।
- राज्ञी पुरोहितश्चैव सेनानी रथसारथिः ।मन्त्र्यश्वः कलभश्चैते रत्नश्रेष्ठाः सचेतनाः॥1.52.१०।
- दिव्यैतानि चतुर्दश सर्वेषां चक्रवर्तिनाम् ।अन्तरिक्षे समुद्रे च पाताले पर्वतेषु च ।११।
- अहता गतयस्तेषां चतस्रश्चक्रवर्तिनाम् ।चक्रवर्ती भवेदंशस्तस्य श्रीपरमात्मनः ॥१२॥
- तेन तस्य प्रजायां वै प्रादुर्भवन्ति शक्तयः ।दिव्याश्च लौकिकाश्चापि राज्यसीमान्तबोधिकाः॥१३।
- दूरश्रवणयन्त्राणि दूरभ्यो दूरदर्शनाः ।कालमानसुयन्त्राणि दूरवाचकरश्मयः ।१४।
- दूरमूर्तिदर्शकानि दिव्यकाचानि भूरिशः ।देहानावरणदृष्टिप्रदविद्युत्प्रसाधनम् ॥१५॥
- धातुतन्तुधृतिविद्युत्प्रकाशाः सुप्रदीपकाः ।अग्नियन्त्रोद्भवोद्योगा जलयन्त्राणि भूरिशः।१६।
- जलान्तर्गतियानानि व्योमयानानि चाप्यथ ।विमानानि ह्यसंख्यानि काचिका दूरदर्शिनी ।१७।
- वायुतन्तुध्वनिग्राह्यशब्दशक्तिनियन्त्रणाप्रवासयानयन्त्राणि भूविमानानि भूरिशः॥१८॥ ________________
- जलप्रवासयन्त्राणि मेघोत्पादकशक्तयः ।सैनिका व्योमगतिका जलान्तर्गतिका अपि ।१९।
- धूम्रयानानि बाष्पाणां शकटानि रथास्तथा ।मोहमारणद्रव्याणि संहाराण्डानि भूरिशः ॥1.52.२०॥
- चक्रद्रावणगतयश्चौषधीनां सुशक्तयः ।ग्रहान्तरगतिश्चाग्नौ गतिः पृथ्व्युदरेक्षणम् ॥२१॥
- रूपान्तरधृतिश्चापि हयदृश्यभवनादिकम् ।भौतिक्यः शक्तयश्चैताः सहाऽऽगच्छन्ति तेन वै ।२२।
- तत्तच्छक्तिमया देवा मानुषा वा भवन्ति च ।तत्तदाविष्कृतैर्भौमैर्जलीयैस्तैजसैरपि ॥२३॥
- धातुजैर्मानसैश्चैव साधनैश्चक्रवर्तिनः ।मानवा राज्यभारं निर्वहन्ति चालयन्ति च ।२४।
- लोकान्तरगतं राज्यं द्वीपान्तरगतं च वा ।समुद्रान्तरितं राज्यं करोति निकटे इव ।२५।
- पश्यति च शृणोत्यपि स्पृशत्यपि प्रजिघ्रति ।वदति चानुभवति स्वगृहे इव संस्थितम् ॥२६॥
- चक्रवर्तिप्रजाः सर्वास्तत्समा भाग्यशालिनी ।तत्समानप्रभोगा च पुण्ययुगबलाद्भवेत् ।२७
- उत्तानपादतनुजो व्योमगामी वसुर्नृपः ।चक्रवर्त्यभवद्धर्मसत्येज्यादानसत्तपाः ॥२८॥
- तदा विश्वभुगिन्द्रश्च यज्ञं प्रावर्तयच्छुभम् ।देवैस्तु सहितैः सर्वैर्मुनिभिः ऋषिभिस्तथा ॥२९॥
- पितृभिर्यक्षराक्षसगन्धर्वकिन्नरोरगैः ।मानुषैर्नदनदीभिः समुद्रैस्तीर्थपर्वतैः ॥1.52.३०॥
- नक्षत्रदैत्यदानवसाधुसाध्वीसुतत्त्वकैः ।जलस्थलचरैर्वृक्षवल्लीगुल्मलतादिभिः ।।३१।।
- सात्विकैर्मनुभिश्चापि राजसैर्नरमानवैः ।तामसैर्देवदेवीभिः सहितश्चाकरोन्मखम् ॥३२॥
- मानसी मैथुनी सृष्टिः सर्वा तत्राऽगमन्मुदा ।अथाऽश्वमेधे वितते तामसाश्चाऽर्धतामसाः ॥३३। . __________________
- यजन्ते पशुभिर्मेध्यैर्हुत्वा मांसप्रियाशनाः ।कर्मव्यग्रेषु ऋत्विक्षु सन्तते यज्ञकर्मणि ॥३४॥
- संप्रगीतेषु तेष्वेवमागमेष्वथ सुस्वरम्परिक्रान्तेषु लघुषु चाध्वर्युवृषभेषु च ॥३५॥
- आहुतेषु च देवेषु यज्ञभांक्षु महात्मसु ।आलब्धेषु च मेध्येषु तथा पशुगणेषु वै ॥३६॥
- हविष्यग्नौ हूयमाने देवानां देवहोतृभिः ।य इन्द्रियात्मका देवा यज्ञभाजस्तथा तु ये ॥३७॥
- कल्पादिषु च ये देवास्तान् यजन्ते ह्यध्वर्यवः ।तदा तु सात्विकाः प्रैषकाले ये वै महर्षयः ॥३८॥
- वीक्ष्योत्थिता अध्वर्यवो दीनान्पशुगणान् स्थितान् ।पप्रच्छुरिन्द्रं संभूय कोऽयं यज्ञविधिस्तव ॥३९॥
- अधर्मो बलवानेषो हिंसाकार्येच्छया तव ।नेष्टः पशुवधस्त्वेषस्तव यज्ञे सुरोत्तम ! ॥1.52.४०॥
- अधर्मो धर्मघाताय प्रारब्धः पशुभिस्त्वया ।
- नाऽयं धर्मो ह्यधर्मोऽयं न हिंसा धर्म उच्यते ॥४१॥हिंसा नाम शरीरस्य सजीवस्य विघानतम् ।
- सर्वेषां देहिनां तादृक् दुःखं नान्यत्तु विद्यते ॥४२॥
- यथाऽकस्माच्छस्त्रघाताद् दुःखं भवति प्राणिनाम् ।यत्कर्मणा भवेद् दुःखं पापं तत्तु प्रकीर्तितम् ।।४३।।
- तस्मान्न हिंसया पुण्यं कस्यापि च कदापि च ।कथं त्वं कुरुषे पापं देवो भूत्वा सुराधिप ! ॥४४॥
- निरागसां च मौनानां पराधीनप्रजीविनाम् ।हिंसनं मा कुरु चेन्द्र कर्मैतन्निन्द्यमेव यत् ॥४५॥ _______________
- ऋषीनिन्द्रस्तदा प्राह यज्ञे हिंसा सुखप्रदा ।यज्ञे हुता इमे जीवा यास्यन्ति स्वर्गमीप्सितम् ॥४६।।
- मोक्षोऽथ भवते तेषां यान् भुंक्तेऽग्निमुखो हरिः ।पशुयोनेश्च मोक्षोऽपि दुःखबाहुल्यनिभृतेः ॥४७॥
- ऋषयः प्राहुरिन्द्रैवं यज्ञे होमाच्च मोक्षणम् ।दुःखनाशस्तथा स्वर्गं ! सुखं तादृक् न को लभेत् ॥४८॥
- सर्पसत्रे भावियुगे कुहकेन सह द्विजाः ।तव होमं करिष्यन्ति तदा ते शिक्षणं भवेत् ॥४९॥
- पारमेष्ठ्यं चैन्द्रपदं सार्वभौमं रसातलम् ।।वैराजं तत्त्वधामानि प्राकृतं लोकघट्टनम् ।।1.52.५०।।
- सर्वे मायाफेनजन्या निरया ब्रह्मणो हरेः ।तवाऽपीन्द्र ! पदं तादृङ् निरय एव नाऽपरम् ॥५१॥
- दुःखदं क्लेशबहुलं पशुप्रायं विभाति नः ।तस्मादिन्द्र ! इमं देहं पदं चैन्द्रं परित्यज ।।५२।। ___________________
- यज्ञे स्वयं पशुर्भूत्वा होमं कुरु निजस्य वै ।यदि स्वहोमे त्रासस्ते स्वं होमं न करिष्यसे ।।५३॥
- वयं तु ऋषयस्त्वां वै जुह्मोऽव्यग्रः स्थिरो भव ।तेन होमेन ते राजन् परं स्वर्गं भविष्यति ।।५४॥
- यद्वै ब्रह्मपदं प्राहुर्मोक्षस्थानमनुत्तमम् ।तत्र गन्ताऽसि चागच्छ त्वां प्रजुह्मो हरेऽद्य वै ॥५५॥
- तव मांसेन यज्ञेशः प्रसन्नः संभविष्यति ।अस्माकमपि पुण्यं स्यान्मांसहोमेन ते मतम् ॥५६॥
- अन्नस्येन्द्रत्वलाभः स्यात्पशवः स्युः सुजीविनःलाभाः सुबहवश्चेन्द्र ! हते त्वयि भवन्ति हि ॥५७॥
- तत आगच्छ देवेन्द्र भवान् हुतो भवत्विति ।इत्येवमृषिभिश्चोते शच्या ह्याक्रन्दनं कृतम् ॥५८॥
- इन्द्रोऽपि त्रासमापन्नो मरणक्षणदर्शनात् ।मण्डपे च सदस्येषु महान्कोलाहलोऽभवत् ।।५९॥
- इन्द्रो हूयते ऋषिभिर्बह्वनिष्टं भवेदितिइन्द्रस्तु मरणश्रावात् मुखेन श्यामलोऽभवत् ।1.52.६०।
- तेजस्तिमिरतां यातं शुष्कास्यो ह्यभवत्क्षणात् ।
- त्रासात् हृदयकंपश्च वेपथुर्देहजोऽभवत् ॥६१।शक्तिहीनानि गात्राणि ह्यभवन्मरणश्रवात् ।
- अथवा ऋषिभिः प्रोक्तं मा ते होमोऽस्तु देवराट् ! ॥६२॥
- बहवः सन्ति होतारस्तेषां होमो भवत्वथ ।।अध्वर्यवः ऋत्विजाश्च होतारश्च सदस्यकाः ॥६३॥
- अनेके सन्त्युपस्थितास्ते हुताः संभवन्त्विति ।तेनाऽद्य प्रीयतां कृष्णः पशवः सन्तु रक्षिताः ॥६४॥
- हुताः सर्वे गमिष्यन्ति ब्रह्मणः पदमव्ययम् ।देवमानुषनिरयात् प्रयास्यन्ति प्रमोक्षणम् ॥६५॥
- श्रुत्वैतदिन्द्रः स्वस्थोऽभूत्कथंचिज्जीवनाशयः ।।अध्वर्युहोतृप्रमुखाश्चिन्तामग्नास्तदाऽभवन् ॥६६॥
- अहो कष्टमिति प्रोचुर्नेच्छामो मोक्षणं जगुः।न च मुक्तिं न वै होमं न भोज्यं न च दक्षिणाम् ॥६७।।
- वस्तु किमपि नेच्छामस्तव सर्वं भवत्विति ।न स्थास्यामो वयं चात्र मरणं कस्य वै प्रियम् ॥६८॥
- गमिष्यामो गृहान्स्वान्स्वान् होमद्रव्याणि नो वयम् । .इत्येवं त्रासमाप्तानां महान् कोलाहलो ह्यभूत् ॥६९।
- तावत्तत्र समायातो राजोपरिचरो वसुः ।।विमानात्स समुत्तीर्य यज्ञमण्डपमागमत् ।।1.52.७०।
- इन्द्रादिभिः सत्कृतः सन्न्यषीदन्मध्यमासने ।ऋषिभिस्तु तदा प्रोक्तं हिंसायज्ञो न वैदिकः ॥७१।_______
- आगमेन सदा यज्ञं करोतु यदिहेच्छसि ।।विधिदृष्टेन यज्ञेन धर्ममव्ययहेतुना ॥७२॥
- यज्ञबीजैः सुरश्रेष्ठ ! येषु हिंसा न विद्यते ।त्रिवर्षपरमं कालमुषितैरप्ररोहिभिः ॥७३॥________
- एष धर्मो महानिन्द्र स्वयं विचार्य साध्यताम् ।एवं विश्वभुगिन्द्रस्तु मुनिभिस्तत्त्वदर्शिभिः ॥७४॥
- प्रोक्तस्ते तु विवादेन खिन्ना दिव्या महर्षयः ।।संधाय पशुमुभयं पप्रच्छुश्चेश्वरं वसुम् ।।७५॥
- वसो राजन्कथं दृष्टस्त्वया यज्ञविधिर्नृप ।औत्तानपादे प्रब्रूहि संशयं छिन्धि नः प्रभो ॥७६॥
- श्रुत्वा सर्वमुभयेषामविचार्य बलाबलम् ।वेदशास्त्रमनुसृत्य यज्ञतत्त्वमुवाच ह ॥७७॥
- इन्द्रस्य च सुरेशस्य छायामाश्रित्य पक्षतः ।रागाच्चाऽप्यविरोधेन क्षत्त्रांशप्रबलेन च ।।७८॥
- यथोपदिष्टैर्यष्टव्यमिति होवाच पार्थिवः ।यष्टव्यं पशुभिर्मेध्यैरथ बीजैः फलैस्तथा ॥७९॥ ________________
- हिंसास्वभावो यज्ञस्य इति मे दर्शयत्यसौ ।यथेहसंहितामन्त्रा हिंसालिंगा महर्षिभिः ॥1.52.८०॥
- दीर्घेण तपसा युक्तैर्दर्शनैस्तारकादिभिः ।।तत्प्रामाण्यान्मया चोक्तं तस्मान्मां मन्तुमर्हथ ॥८१॥
- यदि प्रमाणं तान्येव महावाक्यानि वै द्विजाः ! ।।तदा प्रावर्ततां यज्ञो ह्यन्यथा नोऽनृतं वचः ॥८२॥
- एवं प्राप्तोत्तरास्ते वै युक्तात्मानस्तपोधनाः ।।भूत्वा ह्यधोमुखा वसुं प्राहुर्मा वद पार्थिव ।।८३॥
- वेदार्थस्तलस्पर्शित्वबुद्ध्या नैवाऽऽहृतस्त्वया ।वेदस्य नहि तात्पर्यं कदापि हिंसने मतम् ॥८४॥
- स्वभावप्राप्तहिंसाया निवृत्तौ युक्तिकृद्वचः ।अनालोड्योच्यते हिंसा विधिश्चेत्यनृतो भवान् ॥८५॥
- मिथ्यावादी वसुः सोऽयं सत्यं नैव ब्रवीत्यपि ।।इत्युक्तमात्रे नृपतिः प्रविवेश रसातलम् ॥८६॥
- ऊर्ध्वचारी वसुस्त्वासीद् रसातलचरोऽभवत् ।वसुधाऽध: सदावासी मिथ्यावाक्येन सोऽभवत् ॥८७॥
- तस्मान्न वाच्यमेकेन बहुज्ञेनापि संशयात् ।बहुद्वारस्य धर्मस्य सूक्ष्मात् सूक्ष्मतरा गतिः ।।८८।।
- तस्मान्न निश्चयाद्वक्तुं धर्मः शक्यस्तु केनचित् ।ततो न हिंसा धर्मस्य द्वारं भवति कर्हिचित् ।।८९।।
- पत्रं मूलं फलं शाकं मुन्यन्नं पय एव च ।यज्ञे दत्वा महीयन्ते स्वर्गे लोके तपोधनाः ।।1.52.९०।।
- अद्रोहश्चाऽप्यलोभश्च दमौ भूतदया तपः ।ब्रह्मसेवा च सत्यं च ह्युपकारः क्षमा धृतिः ।।९ १।।
- सनातनस्य धर्मस्य मूलान्येतानि सर्वथा ।तस्माद् द्रोहं मा कुरु त्वं पशून्मोचय यज्ञतः ।।९२।।
- फलान्नादिद्रव्यहव्यैर्यज्ञं कुरु सुरेश्वर ।इत्येतद्वाक्यमादृत्य शक्रेण हतपायसैः ।।९३ ।।
- यज्ञः कृतस्ततः पश्चाद् यज्ञास्तु सात्त्विकाः सदा ।वैष्णवाः सर्वथा त्रेतायां प्रावर्तन्त चाऽद्रुहः ।।९४।।
- ऋषयस्तु तदारभ्य शं प्राकुर्वन् सुसत्तपः ।यज्ञाँश्च वैष्णवाँश्चक्रुरहिंसाधर्मसंभृतान् ।।९५।।
- 'अजेन तु यजेते'ति अजस्त्रैवार्षिको ब्रिहिः ।न जायतेंऽकुरो यस्य तद्धान्यमज उच्यते ।।९६।।
- मैथुने मादके मांसे तामसानां स्वभावजा ।प्रवृत्तिर्भवतीति तन्निरोधाय विधिर्मतः ।।९७।।
- मैथुनेच्छा यदि तीव्रा विवाहेन प्रशाम्यतु ।यदीच्छा मांसरसने यज्ञेनैव प्रशाम्यतु ।।९८।।
- यदीच्छा मादके पाने सौत्रामण्या प्रशाम्यतु ।कथंचिदनुभूयैतान्निवृत्ताः संभवन्त्विति ।।९९।।
- विधिपूर्वो निषेधः स न विधिस्तत्त्रयेऽपि वै ।मद्यमांसमिथुनैर्यो नाऽऽक्रान्तो मुक्त एव सः ।। 1.52.१०० ।।
- अहिंसा परमो धर्मो ब्रह्मचर्यं महत्तपः ।अमादकं परा शुद्धिस्त्रिभिर्ब्रह्म सुविन्दति ।। १०१ ।।
- अथापि कालवेगाश्च तामसाहारमिश्रणात् ।अन्नादिलाभवैधुर्याद् रसनारसलोलनात् ।। १०२।।
- तामसैस्तामसी रीतिर्गृह्यते तत्त्रयात्मिका ।तेषां दण्डप्रदानार्थं धर्मो वैवस्वतो यमः ।। १ ०३।।
- वर्तते न्यायकर्ता श्रीनारायणसमीहया ।तदन्यायपरा शुद्धिर्यमलोके करोति सः ।। १ ०४।। _____________
इतिश्रीलक्ष्मीनारायणीयसंहितायां प्रथमे कृतयुगसन्ताने चक्रवर्तिचिह्नमहेन्द्रयज्ञसम्बन्धिहिंसाप्रतिपादकोपरिचरवसुप्रपतनादिनिरूपणनामाद्विपंचाशत्तमोऽध्यायः ।।५२।।
ब्राह्मणादि त्रैवर्णियों के वर्णाश्रम विहित् कर्तव्यों में यज्ञ कर्म मुख्य है। यज्ञ में हवन मुख्य है। और हवन में अनेक देवताओं के उद्देश्य से मंत्र पठन पूर्वक विविध पदार्थों की आहुतियाँ दी जाती हैं। जेसै आज्य, चरु, पुरोडाश, सोमरस ये द्रव्य हैं। तथा अज, मेष आदि पशुओं के अवयवों का मांस भी है।
"भारतीय युद्ध के पश्चात् जैन और बौद्धों ने वैदिक धर्म पर बड़ाभारी हमला किया—जिससे वैदिक यज्ञ संस्था को बड़ा भारी धका लगा। तथापि तत्पश्चात् गुप्त वंशीय राजा लोग, शात कर्णी, चालुकर पुलकेशी आदि राजाओं ने अश्वमेध जैसे यज्ञ( जिनमें ३०० पशुओं का हवन विहित है) किये और वैदिक परम्परा को स्थिर किया। राजा जयसिंह ने भी अश्वमेध यज्ञ किया था। यज्ञीय हिंसा हिंसा नहीं है। छान्दोग्य उपनिषद में कहा है कि—
'माहिंस्यात्सर्वाणि भूतनि अन्यत्र तीर्थेभ्यः। 'तीर्थनाय शास्त्रानुज्ञा विषय, ततोऽन्यत्रेत्यर्यः।(शांकर भाष्य)अनुवाद:-शास्त्र की आज्ञानुसार जो कर्म किया जाता है—वही तीर्थ है। इस प्रकार के कर्मों को छोड़कर अन्य कर्म में हिंसा करना नहीं चाहिये। तात्पर्य श्रीशंकराचार्य भी यज्ञीय हिंसा के विरोधी नहीं थे।
"देवताओं के उद्देश्य से यज्ञ प्रसङ्ग में वेदोक्त विधि से जो पशु हनन होता है—उसका नाम हिंसा नहीं है। अपना पेट भरने के लिये मांस खाने की इच्छा से जो पशु हनन होता है वही हिंसा है। वेदोक्त पशु हिंसा में देवताओं के लिये मांसाहुतियाँ समर्पित करना ही मुख्य उद्दिष्ट होता है। हुत शेष मांस का भक्षण करना भी विधि विहित है। अतः शास्त्राज्ञा भक्षण करने की इच्छा से ही (?) इस हुत शेष का मांस भक्षण किया जाता है।"वर्णाश्रम विहित होने ही से यज्ञीय पशु हिंसा की जाती है। सोम याग में पशु हिंसा के बिना कर्म पूर्ण ही नहीं हो सकता। जो निंदक अविचार से तथा वेद शास्त्र की मर्यादा का उल्लङ्घन करके इस प्रकार के सोम यागादि वैदिक कर्मों का उप- हास करते हैं, उनसे यज्ञ कर्ता लोग कम अहिंसावादी हैं ऐसा नहीं कहा जा सकता। अहिंसा परम धर्म अवश्य है, पर उसमें भी अपवाद है।
"क्षत्रिय जिस प्रकार मृगया और युद्ध में हिंसा करते हैं, उसी प्रकार यज्ञ कर्ता यज्ञ विधि के कारण पशु हनन करते हैं।
पुरोहित कहता है कि "यज्ञ में जिस रीति से पशु हनन होता है—वह शस्त्र वध की अपेक्षा कम दुखःदाई हैं।
उत्तर दिशा की ओर पैर करके पशु को भूमि पर लिटाना चाहिये, पश्चात् श्वासादि प्राण वायु बन्द करके नाक मुख आदि बन्द करे। इत्यादि सूचनाएं शास्त्रों में कही हैं।
"उदीचीनां अस्यपदो निदधात्। अन्तरे वोष्मांण वारयतात्॥ [ ऐतरेय ब्राह्मण- ६।७
तथा—अमायु कृण्वन्तं संज्ञय यतात्॥ (तैतीरीय ब्राह्मण- ३।६।६
अर्थात्—पशु का हनन उसे न्यून से न्यून दुःख देते हुए करना चाहिये।
पाठक स्वयं ही इस धर्म के हिंसा रूपी पाप को समझ सकते हैं।
"अथातः सवनीयस्य पशोर्विभागं व्याख्यास्यामः; उद्धृत्यावदानि हनू सजिह्वे प्रस्तोतुः कण्ठः स ककुदः प्रतिहर्तुः। श्येर्नं पक्ष उद्गातुर्दक्षिणं पाशर्वं सांस मध्वयों:, सत्यमुपगात्रीणां सव्योंस: प्रति प्रस्थातुर्दविणा श्रेणी
"सधेन्वै चानहुहुश्नाश्नीयाद्वे नवनडुहौ वह इद सर्व विश्नतस्ते देवा अबवन् देश वनडुहौ वा इद सर्व विभ्रतो हन्त यदन्वेषां वयासावीर्य तद्धेन वनडुहयोर्दधोमेति तद्रहो वाच याज्ञ वल्क्य। श्नाम्येवाहमा सलचेन्द्रवतीति। (शतपथ ब्राह्मण- ३। २। २। २१)
"अथ य इच्छेत् पुत्रो मे पण्डित विजिगीथ: समितिङ्गम: शुश्रूषितां वाचं भाषिता जायते सर्वान् वेदाननुब्रवीत सर्वमायुरिया दिति माँसौदनं पाचयित्वा।सर्पिष्मन्तमश्नीयाताम्- ईश्वरौ जनयितवै- औक्ष्णेन वार्षभेण वा।।१८।।
(वृहद-आरण्यक - उपनिषद- (८। ४। १८)
त्रेतायुगे यज्ञविधिप्रवृत्तिः।
ऋषय ऊचुः।
कथं त्रेतायुगमुखे यज्ञस्यासीत् प्रवर्तनम्।
पूर्वे स्वायम्भुवे स्वर्गे यथावत् प्रब्रवीहि नः।। 143.1 ।।
अन्तर्हितायां सन्ध्यायां सार्द्धं कृतयुगेन हि।
कालाख्यायां प्रवृत्तायां प्राप्ते त्रेतायुगे तथा।। 143.2 ।।
औषधीषु च जातासु प्रवृत्ते वृष्टिसर्जने।
प्रतिष्ठितायां वार्तायां ग्रामेषु च परेषु च।143.3 ।।
वर्णाश्रमप्रतिष्ठान्नं कृत्वा मन्त्रैश्च तैः पुनः।
संहितास्तु सुसंहृत्य कथं यज्ञः प्रवर्त्तितः।।
एतच्छ्रुत्वाब्रवीत् सूतः श्रूयतां तत्प्रचोदितम्।। 143.4 ।।
सूत उवाच।
मन्त्रान्वै योजयित्वा तु इहामुत्र च कर्म्मसु।
तथा विश्वभुगिन्द्रस्तु यज्ञं प्रावर्त्तयत्प्रभुः।143.5।
दैवतैः सह संहृत्य सर्वसाधनसंवृतः।
तस्याश्वमेधे वितते समाजग्मुर्महर्षयः।143.6 ।।
यज्ञकर्म्मण्यवर्तन्त कर्म्मण्यग्रे तथर्त्विजः।
हूयमाने देवहोत्रे अग्नौ बहुविधं हविः।। 143.7 ।।
सम्प्रतीतेषु देवेषु सामगेषु च सुस्वरम्।
परिक्रान्तेषु लघुषु अध्वर्युपुरुषेषु च।143.8 ।।
आलब्धेषु च मध्ये तु तथा पशुगुणेषु वै।
आहूतेषु च देवेषु यज्ञभुक्षु ततस्तदा।। 143.9 ।।
य इन्द्रियात्मका देवा यज्ञभागभुजस्तु ते।
तान्यजन्ति तदा देवाः कल्पादिषु भवन्ति ये। 143.10 ।
अध्वर्युप्रैषकाले तु व्युत्थिता ऋषयस्तथा।
महर्षयश्च तान् द्रृष्ट्वा दीनान् पशुगणांस्तदा।
विश्वभुजन्तेत्वपृच्छन् कथं यज्ञविधिस्तवः।। 143.11 ।
अधर्मो बलवानेष हिंसा धर्मेप्सया तव।
नवः पशुविधिस्त्वष्टस्तव यज्ञे सुरोत्तम!।143.12 ।
अधर्मा धर्म्मघाताय प्रारब्धः पशुभिस्त्वया।
नायं धर्मो ह्यधर्मोऽयं न हिंसा धर्म्म उच्यते।
आगमेन भवान् धर्मं प्रकरोतु यदीच्छति।। 143.13 ।।
विधिद्रृष्टेन यज्ञेन धर्मेणाव्यसनेन तु।
यज्ञबीजैः सुरश्रेष्ठ! त्रिवर्गपरिमोषितैः।143.14 ।।
एष यज्ञो महानिन्द्रः स्वयम्भुविहितः पुनः।
एवं विश्वभुगिन्द्रस्तु ऋषिभिस्तत्वदर्शिभिः।।
उक्तो न प्रति जग्राह मानमोहसमन्वितः।। 143.15 ।।
तेषां विवादः सुमहान् जज्ञे इन्द्रमहर्षिणम्।
जङ्गमैः स्थावरैः केन यष्टव्यमिति चोच्यते।। 143.16 ।।
ते तु खिन्ना विवादेन शक्त्या युक्ता महर्षयः।
सन्धाय सममिन्द्रेण पप्रच्छुः खचरं वसुम्।। 143.17 ।।
________
ऋषय ऊचुः।
महाप्राज्ञ! त्वया द्रृष्टः कथं यज्ञविधिर्नृप!।
औत्तानपादे प्रब्रूहि संशयं नस्तुद प्रभो!।। 143.18 ।।
सूत उवाच।
श्रुत्वा वाक्यं वसुस्तेषामविचार्य बलाबलम्।
वेदशास्त्रमनुस्मृत्य यज्ञतत्त्वमुवाच ह।। 143.19 ।।
यथोपनीतैर्यष्टव्यमिति होवाच पार्थिवः।
यष्टव्यं पशुभिर्मेध्यैरथ मूलफलैरपि।143.20।
हिंसास्वभावो यज्ञस्य इति मे दर्शनागमः।
तथैते भविता मन्त्रा हिंसालिङ्गामहर्षिभिः।। 143.21।
दीर्घेण तपसा युक्तैस्तारकादिनिदर्शिभिः।
तत्प्रमाणं मया चोक्तं तस्माच्छमितुमर्हथ।। 143.22 ।
यदि प्रमाणं स्वान्येव मन्त्रवाक्यानि वो द्विजाः!।
तथा प्रवर्त्ततां यज्ञो ह्यन्यथा मानृतं वचः।। 143.23।
एवं कृतोत्तरास्ते तु युञ्ज्यात्मानं ततो धिया।
अवश्यम्भाविनं द्रृष्ट्वा तमधोह्यशपंस्तदा।। 143.24 ।।
इत्युक्तमात्रो नृपतिः प्रविवेश रसातलम्।
ऊद्र्ध्वचारी नृपो भूत्वा रसातलचरोऽभवत्।। 143.25 ।।
वसुधातलचारी तु तेन वाक्येन सोऽभवत्।
धर्माणां संशयच्छेत्ता राजा वसुधरो गतः।। 143.26 ।।
तस्मान्नवाच्यो ह्येकेन बहुज्ञेनापि संशयः।
बहुधारस्य धर्म्मस्य सूक्ष्मा दुरनुगागातिः।। 143.27 ।।
तस्मान्न निश्चयाद्वक्तुं धर्म्मः शक्तो हि केनचित्।
देवानृषीनुपादाय स्वायम्भुवमृते मनुम्।। 143.28।
तस्मान्न हिंसा यज्ञे स्याद्यदुक्तमृषिभिः पुरा।
ऋषिकोटिसहस्राणि स्वैस्तपोभिर्दिवङ्गताः।। 143.29 ।।
तस्मान्न हिंसा यज्ञञ्च प्रशंसन्ति महर्षयः।
उञ्छो मूलं फलं शाकमुदपात्रे तपोधनाः।। 143.30 ।।
एतद्दत्वा विभवतः स्वर्गलोके प्रतिष्ठिताः।
अद्रोहश्चाप्यलोभश्च दमोभूतदया शमः।। 143.31।
ब्रह्मचर्यं तपः शौचमनुक्रोशं क्षमा धृतिः।
सनातनस्य धर्म्मस्य मूलमेव दुरासदम्।। 143.32।
द्रव्यमन्त्रात्मको यज्ञस्तपश्च समतात्मकम्।
यज्ञैश्च देवानाप्नोति वैराजं तपसा पुनः।। 143.33।
ब्रह्मणः कर्म्मसंन्यासाद् वैराग्यात्प्रकृतेर्लयम्।
ज्ञानात् प्राप्नोति कैवल्यं पञ्चैता गतयः स्मृताः।। 142.34 ।
एवं विवादः सुमहान् यज्ञस्यासीत् प्रवर्त्तते।
ऋषीणां देवतानाञ्च पूर्वे स्वायम्भुवेऽन्तरे।। 142.35 ।।
ततस्ते ऋषयो द्रृष्ट्वा हृतं धर्मं बलेन ते।
वसोर्वाक्यमनाद्रृत्य जग्मुस्ते वै यथागतम्।। 143.36 ।।
गतेषु ऋषिसङ्घेषु देवायज्ञमवाप्नुयुः।
श्रूयन्ते हि तपः सिद्धा ब्रह्मक्षत्रादयो नृपाः।। 143.37 ।।
प्रियव्रतोत्तानपादौ ध्रुवो मेधातिथिर्वसुः।
सुधामा विरजाश्चैव शङ्कपाद्राजसस्तथा।। 143.38 ।
प्राचीनबर्हिः पर्ज्जन्यो हविर्धानादयो नृपाः।
एते चान्ये च बहवस्ते तपोभिर्दिवङ्गताः।। 143.39 ।।
राजर्षयो महात्मानो येषां कीर्त्तिः प्रतिष्ठिताः।
तस्माद्विशिष्यते यज्ञात्तपः सर्वैस्तु कारणैः।। 143.40 ।।
ब्रह्मणा तपसा सृष्टं जगद्विश्वमिदं पुरा।
तस्मान्नाप्नोति तद्यज्ञात्तपो मूलमिदं स्मृतम्।। 143.41।
यज्ञप्रवर्तनं ह्येवमासीत् स्वायम्भुवेऽन्तरे।
तदा प्रभृति यज्ञोऽयं युगैः सार्द्धं प्रवर्तितः।।
मत्स्य पुराण-(मत्स्यपुराण)
अध्याय 143 -
यज्ञ की प्राचीन प्रवृत्ति तथा विधि का वर्णन-
ऋषियों ने पूछ— सूतजी ! पूर्वकालमें स्वायम्भुवमनु के कार्य काल में त्रेतायुग के प्रारम्भ में किस प्रकार यज्ञकी प्रवृत्ति हुई थी ? जब कृतयुगके साथ उसकी संध्या (तथा संध्यांश) दोनों अन्तर्हित हो गये, तब कालक्रमानुसार त्रेतायुगकी संधि प्राप्त हुई। उस समय वृष्टि होनेपर ओषधियाँ उत्पन्न हुई तथा ग्रामों एवं नगरोंमें वार्ता वृत्तिकी स्थापना हो गयी। उसके बाद वर्णाश्रमकी स्थापना करके परम्परागत आये हुए मन्त्रोंद्वारा पुनः संहिताओंको एकत्रकर यज्ञ की प्रथा किस प्रकार प्रचलित हुई? हमलोगोंके प्रति इसका यथार्थरूपसे वर्णन कीजिये। यह सुनकर सूतजीने कहा 'आपलोगों के प्रश्नानुसार कह रहा हूँ, सुनिये ॥ 14॥
सूतजी कहते हैं-ऋषियो ! विश्वभोक्ता सामर्थ्यशाली इन्द्रने ऐहलौकिक तथा पारलौकिक कमोंमें मन्त्रोंको प्रयुक्तकर देवताओंके साथ सम्पूर्ण साधनोंसे सम्पन्न हो यज्ञ प्रारम्भ किया। उनके उस अश्वमेध यज्ञके आरम्भ होनेपर उसमें महर्षिगण उपस्थित हुए। उस यज्ञकर्म में ऋत्विग्गण यज्ञक्रियाको आगे बढ़ा रहे थे। उस समय सर्वप्रथम अग्निमें अनेकों प्रकारके हवनीय पदार्थ डाले जा रहे थे, सामगान करने वाले देवगण विश्वासपूर्वक ऊँचे स्वरसे सामगान कर रहे थे, अध्वर्युगण धीमे स्वरसे मन्त्रोंका उच्चारण कर रहे थे। पशुओंका समूह मण्डपके मध्यभागमें लाया जा रहा था, यज्ञभोक्ता देवोंका आवाहन हो चुका था। जो इन्द्रियात्मक देवता तथा जो यज्ञभागके भोक्ता थे और जो प्रत्येक कल्पके आदिमें उत्पन्न होनेवाले अजान देव थे, देवगण उनका यजन कर रहे थे। इसी बीच जब यजुर्वेदके अध्येता एवं हवनकर्ता ऋषिगण पशु बलि का उपक्रम करने लगे, तब यूथ के यूथ ऋषि तथा महर्षि उन दीन पशुओंको देखकर उठ खड़े हुए और वे विश्वभुग् नामके विश्वभोक्ता इन्द्रसे पूछने लगे 'देवराज आपके यज्ञकी यह कैसी विधि है?
आप धर्म-प्राप्तिकी अभिलाषासे जो जीव-हिंसा करनेके लिये उद्यत हैं, यह महान् अधर्म है। सुरश्रेष्ठ! आपके यज्ञ में पशु हिंसा की यह नवीन विधि दीख रही है। ऐसा प्रतीत होता है कि आप पशु-हिंसाके व्याज( बहाने से) धर्मका विनाश करनेके लिये अधर्म करने पर तुले हुए हैं। यह धर्म नहीं है। यह सरासर अधर्म है। जीव-हिंसा धर्म नहीं कही जाती इसलिये यदि आप धर्म करना चाहते हैं तो वेदविहित धर्मका अनुष्ठान कीजिये। सुरश्रेष्ठ! वेदविहित विधिके अनुसार किये हुए यज्ञ और दुर्व्यसनरहित धर्मके पालन से यज्ञके बीजभूत शिवर्ग (नित्य धर्म, अर्थ, काम) की प्राप्ति होती है। इन्द्र ! पूर्वकालमें ब्रह्माने इसीको महान् यज्ञ बतलाया है।' तत्त्वदर्शी ऋषियोंद्वारा इस प्रकार कहे जानेपर भी विश्वभोक्ता इन्द्रने उनकी बातोंको अङ्गीकार नहीं किया; क्योंकि उस समय वे मान और मोहसे भरे हुए थे। फिर तो इन्द्र और उन महर्षियोंके बीच 'स्थावरों या जङ्गमोंमेंसे किससे यज्ञानुष्ठान करना चाहिये'- इस बातको लेकर वह अत्यन्त महान् विवाद उठ खड़ा हुआ । यद्यपि वे महर्षि शक्तिसम्पन्न थे, तथापि उन्होंने उस विवादसे खिन्न होकर इन्द्रके साथ संधि करके (उसके निर्णयार्थ ) उपरिचर (आकाशचारी राजर्षि) वसुसे प्रश्न किया ।। 5- 17 ॥
ऋषियोंने पूछा— उत्तानपाद-नन्दन नरेश! आप तो सामर्थ्यशाली एवं महान् बुद्धिमान् हैं। आपने किस प्रकारकी यज्ञ विधि देखो है, उसे बतलाइये और हम लोगों का संशय दूर कीजिये ॥ 18 ॥
सूतजी कहते हैं। उन ऋषियोंका प्रश्न | सुनकर महाराज वसु उचित - अनुचितका कुछ भी विचार न कर वेद-शास्त्रोंका अनुस्मरण कर यज्ञतत्त्वका वर्णन करने लगे। उन्होंने कहा- 'शक्ति एवं समयानुसार प्राप्त हुए पदार्थों से यज्ञ करना चाहिये। पवित्र पशुओं और मूल फलोंसे भी यज्ञ किया जा सकता है। मेरे देखनेमें तो ऐसा लगता है कि हिंसा यज्ञका स्वभाव ही है।
पूर्वकालमें स्वायम्भुव मन्वन्तरमें यज्ञकी प्रथा प्रचलित होनेके अवसरपर देवताओं और ऋषियोंके बीच इस प्रकार का महान् विवाद हुआ था। तदनन्तर जब ऋषियोंने यह देखा कि यहाँ तो बलपूर्वक धर्मका विनाश किया जा रहा है, तब वसुके कथनकी उपेक्षा कर वे जैसे आये थे, वैसे ही चले गये। उन ऋषियोंके चले जानेपर देवताओंने यज्ञकी सारी क्रियाएँ सम्पन्न कीं।
प्रस्तुतिकरण- यादव योगेश कुमार रोहि-
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