एकजातिर्द्विजातिन्तु येनाङ्गेनापराध्नुयात्।
तदेव च्छेदयेत्तस्य क्षिप्रमेवाविचारयन् ।२२७.८३।
अवनिष्ठीवतो दर्पात् द्वावोष्ठौच्छेदयेन्नृप!।
अवमूत्रयतोमेढ्रमपशब्दयतो गुदम् ।।२२७.८४।
सहासनमभिप्रेप्सुरुत्कृष्टस्यापकृष्टजः ।
कट्यां कृताङ्को निर्वास्यः स्फिचं वाप्यस्य कर्तयेत् ।२२७.८५ ।
केशेषु गृह्णतो हस्तं छेदयेदविचारयन्।
पादयोर्नासिकायाञ्च ग्रीवायां वृषणेषु च। २२७.८६ ।
त्वग्भेदकः शतं दण्ड्यो लोहितस्य च दर्शकः।
मांसभेत्ता च षण्णिष्कान् निर्वास्यस्त्वस्थिभेदकः। २२७.८७ ।
अङ्गभङ्गकरस्याङ्गं तदेवापहरेन्नृपः।
दण्डपारुष्यकृद्दण्ड्यौ समुत्थानव्ययन्तथा । २२७.८८ ।
अर्द्धपादकरः कार्यो गोगजाश्वोष्ट्रघातकः।
पशुक्षुद्रमृगाणाञ्च हिंसायां द्विगुणो दमः ।। २२७.८९ ।
पञ्चाशच्च भवेद्दण्ड्यस्तथैव मृगपक्षिषु।
कृमिकीटेषु दण्ड्यस्याद्रजतस्य च माषकम् ।। २२७.९० ।
यदि द्विजाति से भिन्न जातिवाला किसी द्विजातिको कठोर वाणी से बुरा-भला कहता है तो उसकी जीभ काट लेनी चाहिये और उसे परम नीच समझना चाहिये।
अधिक द्रोहवश नाम, जाति तथा घर की निन्दा करनेवाले के मुख में लोहे की बारह अंगुल लम्बी जलती हुई शलाका डाल देनी चाहिये। राजा को द्विजाति को धर्मोपदेश करनेवाले शूद्र के मुख और कान में खौलता हुआ तेल डाल देना चाहिये। वेद, देश, जाति और शारीरिक कर्म को निष्फल बतलानेवाला राजाद्वारा दुगुने साहस के दण्ड का भागी होता है।
जो मनुष्य स्वयं पापाचारी होकर दूसरे वर्णकी निन्दा करता है, उसे राजा जातिके अनुरूप उत्तम | साहसका दण्ड दे जो राजाके बनाये हुए नियमको अवहेलना करते हैं अथवा राजाकी निन्दा करते हैं, उन सबको दुगुने साहसका दण्ड देना चाहिये।
मत्स्य पुराण (मत्स्यपुराण)
अध्याय 227 -
दण्डनीतिका निरूपण
मत्स्यभगवान् ने कहा- राजन्! (रत्न-धन-) वस्त्रादि धरोहरको हड़प जानेवाले व्यक्तिको उसके मूल्यके अनुरूप दण्ड देनेपर राजाका धर्म नष्ट नहीं होता जो व्यक्ति रखी हुई धरोहरको वापस नहीं करता और जो बिना धरोहर रखे ही माँगता है, वे दोनों ही चोरके समान दण्डनीय हैं। उनसे मूल्यसे दुगुना धन दिलाना चाहिये जो कोई उपधी-ढोका डालकर या छल-कपटसे दूसरेके धनको चुरा लेता है, उसे अनेकों वधोपायोंद्वारा सहायकोंसहित प्राण दण्ड देना चाहिये। जो व्यक्ति दूसरेसे माँगकर ली गयी वस्तुको समयपर वापस नहीं करता तो उसे बलपूर्वक पकड़कर वह वस्तु दिला देने अथवा पूर्वसाहस का दण्ड देनेका विधान है। जो कोई अनजानमें किसी दूसरेकी वस्तुको बेंच देता है, वह तो निर्दोष है, किंतु जो जानते हुए दूसरेकी वस्तुको बेचता है वह चोरके समान दण्डनीय है। जो मूल्य लेकर विद्या या शिल्पज्ञानको नहीं देता, उसे धर्मज्ञ राजाको रकमवापसीका दण्ड देना चाहिये। जो ब्रह्मभोजका अवसर प्राप्त होनेपर अपने पड़ोसियोंको भोजन नहीं कराता उसे एक माशा सुवर्णका दण्ड देना चाहिये। अपराधियोंको दण्ड देनेमें व्यतिक्रमका विधान नहीं है। जो निमन्त्रित ब्राह्मण अपने घरपर रहते हुए भी बिना किसी कारणके भोजन करने नहीं जाता उसे एक सौ आठ माशा सुवर्णका दण्ड देना चाहिये। जो किसी वस्तुको देनेकी प्रतिज्ञा कर उसे नहीं देता; उसे राजा एक सुवर्ण मुद्राका दण्ड दे। जो नौकर अभिमानवश आज्ञापालन तथा कहा हुआ कर्म नहीं करता, उसे राजा आठ कृष्णलको दण्ड दे और उसका वेतन भी रोक दे। जो स्वामी अपने नौकरको उसके संचित धन तथा वेतनको समयपर नहीं देता और कुसमयमें उसे छोड़ देता है, उसे सौ मुद्राका दण्ड देना चाहिये ॥ 1-10॥
जो मनुष्य सत्यतापूर्वक किये गये दश ग्रामर अन्नके बँटवारेको लोभके कारण पुनः असत्य बतलाता है, उसे देशसे निकाल देना चाहिये। किसी वस्तुको खरीदने या बेंचने के बाद यदि कुछ मूल्य शेष रह जाता है तो उसे दस दिनके भीतर दे देना या ले लेना चाहिये। यदि दस दिन बीत जाने के बाद कोई शेष मूल्यको न देता है न दिलाता है तो राजा उन न देने और दिलानेवाले दोनोंको छः सौ मुद्राओंका दण्ड दे। जो व्यक्ति अपनी दोषसे युक्त कन्याको बिना दोष सूचित किये किसीको दान कर देता है तो स्वयं राजा उसे छियानवे पणोंका दण्ड दे। जो मनुष्य बिना दोषके ही किसी दूसरेकी कन्याको दोषयुक्त बतलाता है और उस कन्याके दोषको दिखाने में असमर्थ हो जाता है तो राजा उसे सौ मुद्राका दण्ड दे। जो व्यक्ति अन्य कन्याको दिखलाकर वरको दूसरी कन्याका दान करता है तो राजाको उसे उत्तम साहसिक दण्ड देना चाहिये जो वर अपने दोषको न बतलाकर किसी कन्याका पाणिग्रहण करता है तो वह | कन्या देनेके बाद भी न दी हुईके समान है। राजाको उसपर दो सौ मुद्राओंका दण्ड लगाना चाहिये। जो एक ही कन्याको किसीको दान कर देनेके बाद फिर किसी दूसरेको दान करता है, उसे भी राजाको उत्तम साहसका दण्ड देना चाहिये जो अपने मुखसे 'निश्चय ही मैं इतने मूल्यपर अमुक वस्तु आपको दे दूंगा' ऐसी प्रतिज्ञा कर फिर लोभके कारण उसे दूसरेके हाथ बेंच देता है, वह छः सौ मुद्राओंके दण्डका भागी होता है। जो व्यक्ति कन्याका मूल्य लेकर विक्रय नहीं करता या प्रतिज्ञासे हटता है तो उसे लिये हुए मूल्यसे दुगुने द्रव्यका दण्ड देना चाहिये, यह धर्मकी व्यवस्था है। मूल्यका कुछ भाग देनेके पश्चात् यदि लेनेवाला व्यक्ति उसे लेना नहीं चाहता तो उसे मध्यम साहसका दण्ड देना चाहिये और उसे दिये हुए द्रव्यको लौटा देना चाहिये जो गोपाल वेतन | लेकर गायको दुहता है और उसकी ठीकसे रक्षा नहीं करता उसे राजाको सौ सुवर्ण मुद्राओंका दण्ड देना चाहिये। राजा दण्ड देनेके बाद विराम ले ले। तदनन्तर | राजाद्वारा चिह्नित अपराधीको काले लोहेकी जंजीरसे आवद्ध कर दिया जाय और पुनः किसी अपने ही | कार्यपर नियुक्त कर लिया जाय ॥ 11-23॥ग्रामके बाहर चारों ओरसे सौ धनुपके विस्तारकी और नगरके लिये उससे दुगुने या तिगुने विस्तारकी ऐसी प्राचीर बनाये जिसके भीतरकी वस्तुको ऊँट भी न देख सके। उसमें कुत्ते तथा सूअरके मुख घुसने योग्य सभी छिद्रोंको बंद करा देना चाहिये। यदि पशु बिना घेरेके खेतके अन्नको हानि पहुँचाते हैं तो राजाको पशुके चरवाहेको दण्ड नहीं देना चाहिये। दस दिनके भीतरकी व्यायी गायद्वारा तथा देवताके उद्देश्यसे छोड़े गये वृषद्वारा घेरा रहनेपर भी यदि खेतके अन्नकी हानि होती है तो उसके लिये पशुपालक दण्डनीय नहीं है—ऐसा मनुने कहा है। इन उपर्युक्त कारणोंके अतिरिक्त अन्य प्रकारसे नष्ट हुए द्रव्यके दशांशका दण्ड लगाना चाहिये। कोई पशु फसलको खाकर यदि वहीं बैठा हुआ मिलता है। तो उसके स्वामीके ऊपर उक्त दण्डसे दुगुना दण्ड लगाना चाहिये। यदि खेतका स्वामी क्षत्रिय है और वैश्यका पशु हानि पहुँचाता है तो उसे हानिका दस गुना दण्ड देना चाहिये। यदि किसीके घर, तालाब, बगीचे या खेतको कोई दूसरा छीन लेता है तो उसे पाँच सौ | मुद्राका तथा बिना जाने यदि इनको हानि पहुँचाता है तो दो सौ मुद्राका दण्ड देना चाहिये। किसी खेत आदिकी सीमा बाँधनेके समय यदि कोई सीमाका उल्लङ्घन करता है या सम्मति देता है तो उसकी जीभ काट लेनी चाहिये। जो सीमाका उल्लङ्घन करनेवाले व्यक्तिकी बातोंका शपथपूर्वक समर्थन करता है, उसे उत्तम साहसका दण्ड देना चाहिये- ऐसा स्वायम्भुव मनुने कहा है॥ 24-32 ॥ ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य — इन तीनों वर्णोंके लोग समाजमें अपनी स्थितिके बिना किसी विशेषताके क्रमसे यदि निषिद्ध कार्य करते हैं तो उन सबसे प्रायश्चित्त करवाना चाहिये। यदि कोई अनजानमें स्त्रीका वध कर देता है तो उसे शूद्र हत्या व्रतका पालन करना चाहिये। सर्पादिकी हत्या कर धन-दान करनेमें असमर्थ द्विजको पाप-शान्तिके लिये एक-एक कृच्छ्रव्रतका आचरण करना चाहिये। फल देनेवाले वृक्षों, फूली हुई लताओं, गुल्मों, वल्लियों तथा फूले हुए वृक्षोंको काटनेपर सौ ऋचाओंका जप करना चाहिये। एक सहस्र अथवा एक गाड़ीमें भर जानेके योग्य हड्डीवाले जीवोंकी हत्या करनेवालेको शूद्रहत्याका प्रायश्चित्त करना चाहिये।हड्डीवाले जानवरोंकी हत्या करनेपर ब्राह्मणको कुछ | दान देना चाहिये और जो बिना हड्डीके हैं उनकी हिंसा करनेपर प्राणायामसे शुद्धि हो जाती है। अन्नादिसे एवं रससे उत्पन्न होनेवाले तथा फलों और पुष्पोंमें पैदा होनेवाले जन्तुओंकी हिंसा करनेपर घृत-पान ही प्रायश्चित्त है। जुताईसे उत्पन्न हुई तथा वनमें स्वतः उगी हुई ओषधियोंको बिना आवश्यकताके काटनेपर एक दिनका दुग्धव्रत करना चाहिये। हिंसासे उत्पन्न हुआ पातक इन व्रतोंसे दूर किया जा सकता है। अब चोर-कर्मसे उत्पन्न हुए पापको दूर करनेके लिये उत्तम व्रत सुनिये ॥ 33 -40 ।। यदि ब्राह्मण अपनी जातिवालोंके घरसे इच्छापूर्वक धान्य, अन्न और धनकी चोरी करता है तो वह अर्धकृच्छ्रव्रतसे शुद्ध होता है। मनुष्य, स्त्री, खेत, घर, कूप और बावलीके जलका हरण करनेपर शुद्धिके लिये चान्द्रायणव्रतका विधान है। दूसरेके घरसे थोड़ी मूल्यवाली वस्तुओंकी चोरी करनेपर उससे शुद्ध होनेके लिये कृच्छ्रसांतपन-व्रतका अनुष्ठान करना चाहिये। भक्ष्य, भोज्य, वाहन, शय्या, आसन, पुष्प, मूल और फलकी चोरी करनेपर उसका प्रायश्चित्त पञ्चगव्य-पान है। तृण, काष्ठ, वृक्ष, सूखा अन्न, गुड, वस्त्र, चमड़ा तथा मांसकी चोरी करनेपर तीन राततक उपवास करना चाहिये। मणि, मोती, प्रवाल, ताँबा, चाँदी, लोहा, काँसा तथा पत्थरकी चोरी करनेपर बारह दिनोंतक अन्नके कणोंका भोजन करना चाहिये। सूती, रेशमी, ऊनी वस्त्र, दो तथा एक खुरवाले पशु, पक्षी, सुगन्धित द्रव्य, ओषधि तथा रस्सीकी चोरी करनेपर तीन दिनतक केवल जल पीकर रहना चाहिये। ब्राह्मणको इन व्रतोंद्वारा चोरीसे उत्पन्न हुए पापका निवारण करना चाहिये। अगम्या स्त्रीके साथ समागम करनेसे उत्पन्न हुए पापको इन व्रतोंद्वारा नष्ट करना चाहिये। अपनी जातिको परायी स्वोके साथ समागम करके गुरुतल्प व्रतका अनुष्ठान करना चाहिये अर्थात् गुरुकी स्त्रीके साथ समागम करनेपर जो प्रायश्चित्त कहा गया है, उसका अनुष्ठान करना चाहिये। मित्र तथा पुत्रकी स्त्री, कुमारी कन्या, नीच जातिको स्त्री (चाण्डाली), फुफेरी तथा मौसेरी बहन और भाईकी कन्याके साथ समागम करनेपर चान्द्रायण व्रतका अनुष्ठान करना चाहिये ।। 41-50 ॥बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि जो स्त्रियाँ अपनी जातिकी हों तथा जो पतितोंकी अनुगामिनी हों, उनके साथ भार्याके समान समागम न करे। मनुष्यसे भिन्न योनि ऋतुमती स्त्री तथा योनिद्वारसे अन्यत्र अथवा जलमें वीर्यपात करके पुरुषको कृच्छ्र सान्तपन नामक व्रतका | अनुष्ठान करना चाहिये बैलगाड़ीपर, जलमें तथा दिनमें स्त्री-पुरुषके मैथुनको देखकर ब्राह्मणको वस्वसहित स्नान करना चाहिये। ब्राह्मण यदि अज्ञानसे चाण्डाल और अन्त्यज स्त्रियोंके साथ सम्भोग, उनके यहाँ भोजन और उनका दिया हुआ दान ग्रहण करता है तो वह पतित हो जाता है और जान-बूझकर करता है तो वह उन्होंके समान हो जाता है। ब्राह्मणद्वारा दूषित स्त्रीको उसका पति एक घरमें बंद कर दे। इसी प्रकार दूसरेकी स्त्रियोंसे समागम करनेवाले पुरुषको भी यही व्रत करना चाहिये। | यदि वह स्त्री पुनः किसी परकीय पुरुषसे दूषित होती है तो उसे शुद्ध करनेके लिये कृच्छ्रचान्द्रायण व्रतका अनुष्ठान बताया गया है। जो द्विज एक रात भी शूद्र स्त्रीके साथ समागम करता है तथा उसका दिया हुआ अन्न भोजन करता है, वह तीन वर्षोंतक निरन्तर गायत्रीजप करनेसे शुद्ध होता है। चारों वर्णोंके पापियोंके लिये यह प्रायश्चित्त कहा गया है। अब पतितोंके संसर्गमें होनेवाले पापके लिये यह प्रायश्चित्त सुनिये ll 51-58 ।।
पतितके साथ यज्ञानुष्ठान, अध्यापन, यौन-सम्बन्ध, भोजन, एक वाहनपर गमन तथा आसनपर उपवेशन करनेसे भला मनुष्य (भी) एक वर्षमें पतित हो जाता है। जो मनुष्य इन कर्मोंमें जिस पतितका संसर्ग प्राप्त करता है, उसे उस संसर्गदोषको शुद्धिके लिये उसी पतितके व्रतका अनुष्ठान करना चाहिये। उसके सपिण्ड भाई बन्धुओंको जातिवालोंके साथ किसी निन्दित दिनको | सायंकालके समय गुरुके समीप उस पतितके लिये उदक क्रिया करनी चाहिये। दासी उक्त व्यक्तिके लिये प्रेतकी तरह जलपूर्ण घट रखे, परिवारवालोंके साथ एक दिन रातका उपवास करे और अशौचके समान व्यवहार करे। परिवारवालोंके लिये उसके साथ वार्तालाप करना और एक आसनपर बैठना निषिद्ध है। इस पाप कर्मको जातिको भी उन्हें नहीं प्रकट करना चाहिये- यह लोककी मर्यादा है। जिस प्रकार ज्येष्ठ भाईके न रहनेपर उसके हिस्सेकी प्राप्ति छोटे भाईको होती है, उसी प्रकार अधिक गुणवान् | होनेपर भी छोटे भाईको उसका फल भोगना पड़ता है।जो पापाचारी प्राणी निश्चित की गयी मर्यादाको तोड़ देते हैं, उन्हें राजा पृथक् पृथक् जाति-क्रमके अनुसार उत्तम साहसका दण्ड दे राजन् यदि क्षत्रिय होकर ब्राह्मणको कटु वचन कहता है तो उसे सौ मुद्राका दण्ड देना चाहिये। यदि वैश्य है तो उसे दो सौ मुद्राका और यदि शूद्र है तो उसे प्राण दण्ड देना चाहिये। यदि ब्राह्मण क्षत्रियको कटु बातें कहे तो उसे पचास पण, वैश्यको कहे तो पचीस पण तथा शूदको कहे तो भारह पणका दण्ड देना चाहिये। यदि वैश्य क्षत्रियको कटु वचन कहता है तो उसे उत्तम साहसका दण्ड देना चाहिये और शूद्र क्षत्रियको कटूक्ति सुनाता है तो उसकी जीभ काट लेनी चाहिये ।। 59-68 ॥
क्षत्रिय यदि वैश्यको बुरा-भला कहता है तो उसे पचास और शूद्रको कहता है तो पचीस दमका दण्ड | देना चाहिये। ऐसा करनेसे उसका धर्म क्षीण नहीं होता। शूद्र यदि वैश्यको कटु वचन कहे तो उसे उत्तम साहसका दण्ड देना चाहिये और वैश्य होकर शुद्रको बुरा-भला कह रहा है तो वह पचास दमके दण्डका भागी होता है। यदि कोई अपने वर्णवालेको कटुति सुनाता है तो उसे बारह दमका दण्ड देना चाहिये तथा | अकथनीय बातें कहनेपर वह दण्ड दुगुना हो जाता है। यदि द्विजातिसे भिन्न जातिवाला किसी द्विजातिको कठोर वाणीसे बुरा-भला कहता है तो उसकी जीभ काट लेनी चाहिये और उसे परम नीच समझना चाहिये। अधिक द्रोहवश नाम, जाति तथा घरकी निन्दा करनेवालेके मुखमें लोहेकी बारह अंगुल लम्बी जलती हुई शलाका | डाल देनी चाहिये। राजाको द्विजातिको धर्मोपदेश करनेवाले शूद्रके मुख और कानमें खौलता हुआ तेल डाल देना चाहिये। वेद, देश, जाति और शारीरिक कर्मको निष्फल बतलानेवाला राजाद्वारा दुगुने साहसके दण्डका भागी होता है। जो मनुष्य स्वयं पापाचारी होकर दूसरे वर्णकी निन्दा करता है, उसे राजा जातिके अनुरूप उत्तम | साहसका दण्ड दे जो राजाके बनाये हुए नियमको अवहेलना करते हैं अथवा राजाकी निन्दा करते हैं, उन सबको दुगुने साहसका दण्ड देना चाहिये। जो व्यक्ति 'मैंने प्रेमवश अथवा प्रमादसे ऐसा कहा है, अब पुनः ऐसा नहीं कहूंगा' ऐसा कहकर अपराध स्वीकार कर लेता है, वह आधे दण्डका पात्र है ।। 69-78 ॥कोई काना हो, लँगड़ा हो अथवा अन्धा हो, उसे सत्यतापूर्वक उसी प्रकारका कहनेपर भी उसे एक कार्यापणका दण्ड देना चाहिये। माता पिता, ज्येष्ठ भाई, वशुर तथा गुरु-इनकी निन्दा करनेवाले तथा गुरुजनोंके मार्गको नष्ट करनेवालेको सौ कार्षापणका दण्ड देना चाहिये जो माननीय श्रेष्ठ लोगोंको मार्ग नहीं देता, उसे उस पापकी शान्तिके लिये राजा एक कृष्णलका दण्ड दे द्विजातिसे भिन्न जातिवाला व्यक्ति किसी द्विजातिका जिस अङ्गसे अपकार करता है, उसके उसी अङ्गको शीघ्र ही बिना कुछ विचार किये कटवा देना चाहिये। राजा सामने गर्वपूर्वक धूकनेवाले, पेशाब करनेवाले तथा अपानवायु छोड़नेवाले व्यक्तिका क्रमशः दोनों होंठ, लिङ्ग और गुदाद्वार कटवा दे। यदि कोई नीच जातिवाला व्यक्ति उत्कृष्ट व्यक्तिके साथ आसनपर बैठना चाहता है तो राजा उसकी कमरमें एक चिह्न बनाकर अपने राज्यसे निर्वासित | कर दे या उसके गुदाभागको कटवा दे। इसी प्रकार यदि | कोई निम्न जातिवाला किसी उच्च जातीय व्यक्तिके केशोंको पकड़ता है तो उसके हाथको बिना विचार किये ही कटवा देना चाहिये। इसी प्रकारका दण्ड दोनों पैरों, नासिका, गला तथा अण्डकोशके पकड़नेपर भी देना चाहिये। यदि कोई किसीके चमड़ेको काट देता है और उससे रक्त निकलने लगता है तो उसे शतमुद्राका दण्ड देना चाहिये। मांस काट लेनेवालेको छः निष्कोंका दण्ड तथा हड्डी तोड़नेवालेको देशनिकालाका दण्ड देना चाहिये। यदि कोई व्यक्ति किसीके अङ्गको तोड़-फोड़ देता है तो राजाको चाहिये कि उसके उसी अङ्गको कटवा दे तथा उसे उतने द्रव्यका भी दण्ड दे, जितना उस आहत व्यक्तिके उठने-बैठनेके व्ययके लिये अपेक्षित हो। गाय, हाथी, अश्व और ऊँटकी हत्या करनेवालेका आधा हाथ और आधा पैर काट लेना चाहिये। राजाको पशु तथा छोटे जानवरोंकी हत्या करनेपर अपराधीको उनके मूल्यके दुगुने पणका दण्ड देना चाहिये। मृग तथा पक्षियोंकी हत्या करनेपर पचास पणका दण्ड करनेका विधान है। कृमि तथा कोटोंके मारनेपर एक मासा चाँदीका दण्ड लगाना उचित है तथा उसके अनुकूल मूल्य भी उसके स्वामीको दिलाना चाहिये ॥ 79-89 ॥दण्डको बहला रहा हूँ। फलयुक्त वृक्षको काटनेपर अपराधीको सुवर्णका दण्ड देना उचित है। यदि वह वृक्ष किसी सीमा, मार्ग अथवा जलाशयके समीप है तो उसे दुगुना दण्ड देना चाहिये। फलरहित वृक्षको भी काटने पर मध्यमसाहसका दण्ड देनेका विधान है। गुल्मों, लताओं तथा वल्लियोंको काटनेपर एक मासा सुवर्णका दण्ड देना चाहिये। बिना किसी आवश्यकताके तृणको भी नष्ट करनेवाला व्यक्ति एक कार्षापणके दण्डका भागी होता है। किसी प्राणीको कष्ट पहुँचानेवालेको कृष्णलके तिहाई भागका दण्ड देना चाहिये। राजन् वृक्षादिके काटे जानेपर राजा देश तथा कालके अनुसार उचित मूल्यका दण्ड दे और उस दण्डको वृक्षादिके स्वामीको दिला दे। यदि चालककी असावधानीसे रथ मार्गसे विचलित हो जाता है। तो ऐसे अवसरपर यदि वह चालक निपुण नहीं है तो उसके स्वामीको दण्ड देना चाहिये और यदि चालक निपुण है तो उसीके ऊपर दण्ड लगाना चाहिये, किंतु यदि वह घटना किसी विशेष परिस्थितिवश घटित हुई हो तो चालकको भी दण्ड नहीं देना चाहिये। जो किसीके द्रव्यको जानकर या अनजानमें अपहरण कर लेता है, उसे राजाके सम्मुख दण्ड स्वीकार कर उसके स्वामीको संतुष्ट करना चाहिये। अन्यथा उसपर एक पण दण्ड लगानेका विधान है। जो व्यक्ति किसी कुएँपरसे रस्सी अथवा घड़ा चुरा लेता है या उस कुएँको तोड़ता फोड़ता है, उसके ऊपर एक मासा सुवर्णका दण्ड लगाना उचित है और उसीसे कुएँकी क्षतिपूर्ति करानी चाहिये। दस घड़ेसे अधिक अन्न चुरानेवालेको प्राण दण्ड देना चाहिये यदि दस घड़ेसे कम अन्न चुराता है तो उसने जितना अन्न चुराया है, उससे ग्यारहगुना अधिक मूल्यका दण्ड उसपर लगाना चाहिये। उसी प्रकार दस घड़ेसे अधिक खाद्य सामग्री, अन्न एवं पानादिकी चोरी करनेपर उसी प्रकारके दण्डका विधान है। उसे प्राणदण्ड नहीं देना चाहिये। सुवर्ग, चाँदी आदि धातुओं,' उत्तम वस्त्रों, कुलीन पुरुषों, विशेषतया कुलीन स्त्रियों, बड़े-बड़े पशुओं, हथियारों, ओषधियों तथा मुख्य-मुख्य रत्नोंकी चोरी करनेपर चोर प्राण दण्डका पात्र होता है ।। 90 - 1013 ॥
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