रविवार, 24 नवंबर 2024

अध्याय-षष्ठम""वैष्णव वर्ण के सदस्यों के प्रमुख कार्य एवं संसार में उनके उत्तर-दायित्व-)







(अध्याय-पञ्चम्)-
"वैष्णव वर्ण की उत्पत्ति तथा ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य और वैष्णव वर्ण में अन्तर"

 इस अध्याय में ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य(चारों-वर्णों) और विष्णु जी के "वैष्णव वर्ण" में प्रमुख अंतर और उसकी कुछ प्रमुख विशेषताओं के विषय में बताया गया है।

ज्ञात हो कि-चातुर्वर्ण्य, ब्रह्मा जी की सृष्टि रचना है, जिसमें कर्म के आधार पर वर्ग विभाजन की एक सामाजिक व्यवस्था स्थापित होती है, जो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य,और शूद्र चार वर्गों में विभाजित है।

इस बात की पुष्टि- पद्मपुराणम्‎ सृष्टिखण्ड के अध्याय-(३) के श्लोक संख्या-(१३०) से होती है जिसमें लिखा गया है कि-

"ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्राश्च नृपसत्तम।पादोरुवक्षस्थलतो मुखतश्च समुद्गताः ।१३०।   

अनुवाद- पुलस्त्यजी बोले- कुरुश्रेष्ठ ! सृष्टि की इच्छा रखने वाले ब्रह्माजी ने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्णों को उत्पन्न किया। इनमें ब्राह्मण मुख से, क्षत्रिय वक्षःस्थल से, वैश्य जाँघों से और शूद्र ब्रह्माजी के पैरों से उत्पन्न हुए। १३०।
इसी उपर्युक्त बात को विष्णु पुराण के प्रथमांश के छठे अध्याय में बताया गया है।

ब्रह्मणाः क्षत्रिया वेश्याः शूद्राश्च द्विजसत्तम ।
पादोरुवक्षस्थलतो मुखतश्च समुद्गताः।१,६.६।

अनुवाद:-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्णों को उत्पन्न किया। इनमें ब्राह्मण मुख से, क्षत्रिय वक्षःस्थल से, वैश्य जाँघों से और शूद्र ब्रह्माजी के पैरों से उत्पन्न हुए।

यज्ञनिष्पत्तये सर्वमेतद्ब्रह्या चकार वै ।
चातुर्वर्ण्यं महाभाग यज्ञसाधनमुत्तमम् ॥१,६.७॥

अनुवाद:-तदनन्तर, यज्ञ के साधन-भूत चातुव॑ण्य को ब्रह्मा ने यज्ञ-निष्पत्ति( उत्पादन) के लिए बनाया ।
विष्णुपुराण- प्रथमांशः/अध्यायः (६)

अतः इससे सिद्ध होता है कि इन चारों वर्णों की उत्पत्ति ब्रह्मा जी से ही हुई है।  अब इसमें किसी को संशय नहीं होना चाहिए।
 विशेष :- यज्ञ का विधान भी ब्राह्मण प्रदान चारों वर्णों के लिए है। गोपों के लिए नहीं क्यों की गोप लोग कर्मकाण्डों से रहित भक्ति (निश्चल भाव से आत्म समर्ण
 पूर्वक ईश्वर के प्रति होकर भजन संकीर्तन ही  वैष्णवों का कर्तव्य  हैं।  
वहीं दूसरी तरफ ब्रह्मा जी के चार वर्णों के अतिरिक्त एक पाँचवां वर्ण भी है, जिसका नाम "वैष्णव वर्ण" है, जिसकी उत्पत्ति भगवान स्वराड्- विष्णु  से हुई है। इस बात की पुष्टि-
ब्रह्मवैवर्त पुराण के ब्रह्म खण्ड के एकादश (११) -अध्याय के श्लोक संख्या (४3) से होती है-

"ब्रह्मक्षत्त्रियविट्शूद्राश्चतस्रो जातयो यथा।
स्वतन्त्रा जातिरेका च विश्वस्मिन्वैष्णवाभिधा।।४३।

"अनुवाद:- ब्राह्मण" क्षत्रिय" वैश्य" और शूद्र इन चार वर्णों के अतिरिक्त एक स्वतन्त्र जाति अथवा वर्ण इस संसार में प्रसिद्ध है। जिसे वैष्णव नाम दिया गया है। जो विष्णु से सम्बन्धित अथवा उनके रोमकूपों से उत्पन्न होने से वैष्णव संज्ञा से नामित है।४३।

इस संबंध में यदि वैष्णव शब्द की व्युत्पत्ति को देखा जाए तो "शब्द कल्पद्रुम" में वैष्णव शब्द की व्युत्पत्ति को विष्णु से ही बताई गई है-






है। गोपों के लिए नहीं क्यों की गोप लोग कर्मकाण्डों से रहित भक्ति (निश्चल भाव से आत्म समर्ण
 पूर्वक ईश्वर के प्रति होकर भजन संकीर्तन ही  वैष्णवों का कर्तव्य  हैं।  
वहीं दूसरी तरफ ब्रह्मा जी के चार वर्णों के अतिरिक्त एक पाँचवां वर्ण भी है, जिसका नाम "वैष्णव वर्ण" है, जिसकी उत्पत्ति भगवान स्वराड्- विष्णु  से हुई है। इस बात की पुष्टि-
ब्रह्मवैवर्त पुराण के ब्रह्म खण्ड के एकादश (११) -अध्याय के श्लोक संख्या (४3) से होती है-

"ब्रह्मक्षत्त्रियविट्शूद्राश्चतस्रो जातयो यथा।
स्वतन्त्रा जातिरेका च विश्वस्मिन्वैष्णवाभिधा।।४३।

"अनुवाद:- ब्राह्मण" क्षत्रिय" वैश्य" और शूद्र इन चार वर्णों के अतिरिक्त एक स्वतन्त्र जाति अथवा वर्ण इस संसार में प्रसिद्ध है। जिसे वैष्णव नाम दिया गया है। जो विष्णु से सम्बन्धित अथवा उनके रोमकूपों से उत्पन्न होने से वैष्णव संज्ञा से नामित है।४३।

इस संबंध में यदि वैष्णव शब्द की व्युत्पत्ति को देखा जाए तो "शब्द कल्पद्रुम" में वैष्णव शब्द की व्युत्पत्ति को विष्णु से ही बताई गई है-

विष्णुर्देवताऽस्य तस्येदं वा अण्- वैष्णव 
- तथा विष्णु-उपासके विष्णोर्जातो इति वैष्णव विष्णुसम्बन्धिनि च स्त्रियां ङीप् वैष्णवी- दुर्गा गायत्री आदि।

अर्थात् विष्णु देवता से संबंधित वैष्णव स्त्रीलिंग में (ङीप्) प्रत्यय होने पर वैष्णवी शब्द- दुर्गा, गायत्री आदि का वाचक है।
      
कुल मिलाकर विष्णु से वैष्णव शब्द और वैष्णव वर्ण की उत्पत्ति होती है जिसमें केवल- गोप, (अहीर, यादव) जाति ही  आती हैं बाकी कोई नहीं। 

क्योंकि  इनकी उत्पत्ति विष्णु अर्थात श्री कृष्ण के रोम कूपों से हुई है इस बात को इसके पिछले अध्याय- (३) में बताया जा चुका है।

इस प्रकार से देखा जाय तो परमेश्वर श्रीकृष्ण से "वैष्णव वर्ण" की उत्पत्ति हुई है वहीं दूसरी तरफ देवो के पितामह ब्रह्मा जी से "चातुर्वर्ण्य" की उत्पत्ति हुई है। इसलिए उत्पत्ति विशेष के कारण इन दोनों के वर्णों में अन्तर होना स्वाभाविक है। जैसे-
१- ब्रह्मा की चातुर्य वर्ण व्यवस्था के अन्तर्गत ऊँच- नीच का बड़ा भेद- विभेद पाया जाता है। जबकि वैष्णव वर्ण में ऐसा कुछ भी नहीं है सभी बराबर हैं।
"हरि को भजे सो हरि को होई जाति- पाँति पूछे नहिं कोई"
२- दूसरा अंतर विष्णु और ब्रह्मा द्वारा निर्मित वर्णों में यह भी है।  कि- ब्रह्मा जी की वर्ण व्यवस्था में चारो वर्ण अपने ही वंशानुगत कार्यों को अनिवार्य रूप से पीढ़ी दर पीढ़ी जातीय धर्म समझकर  करते हैं, भले ही उनमें इसकी पूर्ण प्रवृत्ति तथा योग्यता हो या नो हो।
जैसे- ब्राह्मण का बालक मन्दिरों या देवस्थानों में परम्परागत रूप से चढ़ावा लेने तथा वहाँ की पूजा आदि क्रियाओं करेगा ही चाहें वह संस्कृत भाषा का ज्ञान तथा शास्त्रों का ज्ञान भलें ही न रखता हो- जबकि वैष्णव वर्ण में ऐसी व्यवस्था नहीं है। इस वर्ण में जो जिस योग्यता के अनुरूप होगा वह वही काम करेगा।
३- इन दोनों में तीसरा सबसे महत्वपूर्ण अंतर यह है कि ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य में इसके सदस्यों का विभाजन व्यवसाय (कार्यों) के आधार पर चार मानव समूहों ( ब्राह्मण क्षत्रिय ,वैश्य और शूद्र) में न होकर जन्म के ही आधर  पर हो जाता है।
मनुस्मृति में वर्णन है। कि 

"मङ्गल्यं ब्राह्मणस्य स्यात् क्षत्रियस्य बलान्वितम् ।
वैश्यस्य धनसंयुक्तं शूद्रस्य तु जुगुप्सितम् ॥३१॥

शर्मवद् ब्राह्मणस्य स्याद् राज्ञो रक्षासमन्वितम्।
वैश्यस्य पुष्टिसंयुक्तं शूद्रस्य प्रेष्यसंयुतम् ॥३२॥

(मनुस्मृति अध्याय-2- का 31-और 32 वाँ श्लोक)
अनुवाद-.ब्राह्मण का नाम मंगलमय', क्षत्रिय का नाम 'रक्षात्मक', वैश्य का नाम 'समृद्धि या धनात्मक' तथा शूद्र का नाम घृणा का बोधक होना चाहिए।—(३२)


                 "विष्णूवाच !
"वरं वरय राजेन्द्र यत्ते मनसि वर्तते।
तत्ते ददाम्यसन्देहं मद्भक्तोसि महामते ।७९।

अनुवाद:- हे राजाओं के स्वामी ! वर माँगो जो तुम्हारे मन में स्थित है।
वह सब तुमको दुँगा 
तुम मेरे भक्त हो!।७९।

                    "राजोवाच
यदि त्वं देवदेवेश तुष्टोसि मधुसूदन ।
दासत्वं देहि सततमात्मनश्च जगत्पते।८०।
अनुवाद:-
राजा ने कहा ! हे देवों के स्वामी हे जगत के स्वामी ! यदि तुम प्रसन्न हो तो मुझे अपना शाश्वत दासत्व( वैष्णव- भक्ति) दो। ८०।

                'विष्णुरुवाच-
एवमस्तु महाभाग मम भक्तो न संशयः ।
लोके मम महाराज स्थातव्यमनया सह ।८१।

अनुवाद:- विष्णु ने कहा 
! ऐसा ही हो !  तू मेरा भक्त है इसमें सन्देह नहीं !  अपनी पत्नी के साथ  तुम  मेरे लोक में  निवास करो !।८१।

एवमुक्तो महाराजो ययातिः पृथिवीपतिः।
प्रसादात्तस्य देवस्य विष्णुलोकं प्रसाधितम्।८२।
अनुवाद:-
इस प्रकार कहकर महाराज ययाति! पृथ्वी पति ने विष्णु भगवान की कृपा से विष्णु लोक को प्राप्त किया।८२।


निवसत्येष भूपालो वैष्णवं लोकमुत्तमम् ।८३।

और इस प्रकार ययाति पत्नी सहित लोकों में उत्तम वैष्णव लोक में निवास करने लगे।८४।

______________
पद्मपुराण /खण्डः (२) (भूमिखण्डः)
अध्यायः(83)


इन शब्दों का प्राचीनतम रूप ऋग्वेद में मिलता है; जिनमें इन शब्दों का मूल अर्थ भी दृष्टिगोचर होता है।

"दिवो वराहमरुषं कपर्दिनं त्वेषं रूपं नमसा नि ह्वयामहे ।
हस्ते बिभ्रद्भेषजा वार्याणि शर्म वर्म च्छर्दिरस्मभ्यं यंसत् ॥५॥ — ऋग्वेदः सूक्तं १.११४
अनुवाद:-
उस अरुण रंग के देव वराहरूप कपर्दिन ( जटाधारी) का नम्रता पूर्वक हम आह्वान करते हैं, जो हाथ में भय से सभी दुर्बलताओं का निवारण करने वाले शस्त्र (शर्म) और (वर्म)कवच अथवा ढाल धारण किए हुए है। वह वराह रूप कपर्दिन इन सब(शस्त्र और कवच) को हम्हें प्रदान करते हुए हम्हें अपने कवच से आच्छादित करे !(ऋ०१/११४/५)


जिन्हे संस्कृत में क्रमशः शर्मा तथा वर्मा लिखा जाता है। शर्मा ब्राह्मणों तथा वर्मा क्षत्रियों के नाम के अन्त में प्रयोग की जाने वाली उपाधियाँ हैं।

"शर्मान्तं ब्राह्मणस्य वर्मान्तं क्षत्रियस्य गुप्तान्तं वैश्यस्य भृत्यदासान्तं शूद्रस्य दासान्तमेव वा ।९। -
( बौधायनगृह्यसूत्रम् गृह्यशेषः प्रथमप्रश्ने एकादशोऽध्यायः)

ब्राह्मण के नाम का शर्मा से अन्त, क्षत्रिय नाम का वर्मा से अन्त , वैश्य के नाम का गुप्त से अन्त, शूद्र के नाम का दास से अन्त हो !

शर्मा देवश्च विप्रस्य वर्मा त्राता च भूभुजः । भूतिर्गुप्तश्च वैश्यस्य दासः शूद्रस्य कारयेत्।।

देव तथा शर्मा विप्र के नामान्त; वर्मा त्राता तथा भूमि के रक्षकों के; भूति, तथा गुप्त वैश्य के तथा दास शूद्र के नाम के अन्त में हो !

शर्मन् एक प्राचीन शब्द है; ऋग्वेद संहिता में इसका अर्थ -शस्त्र। शरण। आदि-
शरण=(शॄ+ल्युट्)। १ गृह २ रक्षक अमरकोश । ३ रक्षण ४ बध मेदिनीकोश । ५ घातक -शब्दचन्द्रिका।
इन्द्र मरुत्व इह पाहि सोमं यथा शार्याते अपिबः सुतस्य ।
तव प्रणीती तव 
शूर शर्मन्ना विवासन्ति कवयः सुयज्ञाः ॥७॥
अनुवाद-
हे इन्द्र , तुम भी मरुतों सहित इस उत्सव में सोम का पान करो , जैसे तुमने इस शर्यातिपुत्र के अर्घ्य का पान किया है ; तुम्हारे दूर-दूर तक फैले हुए प्रेम करने वाले शर्मन् बनकर शूर  रहकर अपनी सुन्दर यज्ञों  के माध्यम से स्तुति करने वाले तुम्हारी आराधना करते हैं।७।

ऋग्वेदः - मण्डल ३- सूक्त- ५१ ऋचा- ७)

वहीं यास्क के निघण्टु के अनुसार शर्मन् को घर( शरणस्थल) के अर्थ में प्रयोग किया गया है।
वैदिक काल में इन्द्र की यज्ञ में पशुओं की बलि चढ़ाने वाले पुरोहित को शर्मन् ( शृ= हिंसायां+मनिन् कृदन्त प्रत्यय) कहा जाता था।


वर्मन्-

त्वमग्ने प्रयतदक्षिणं नरं वर्मेव स्यूतं परि पासि विश्वतः ।
स्वादुक्षद्मा यो वसतौ स्योनकृज्जीवयाजं यजते सोपमा दिवः ॥१५॥ (ऋ० १/३१/१)

हे अग्नि, आप परिश्रमपूर्वक धर्मात्मा मनुष्य की रक्षा उस ढाल की तरह करते हैं जो ब्रह्मांड की रक्षा करती है। वह जो स्वदुक्षदम नगर में रहता है और जीवों को यज्ञ करता है, वह स्वर्ग के समान है।
हे अग्नि, आप उस मनुष्य की रक्षा करते हैं जो अपनी धार्मिकता के लिए प्रयास कर रहा है, जैसे ढाल उसे सभी तरफ से बचाती है। वह जो स्वदुक्षदम नगर में रहता है और जीवों को यज्ञ प्रदान करता है, वह स्वर्ग के समान है।
त्वम् अग्नि प्रयतददक्षिणं नरं वरमेव स्युतम परि पासि विश्वतः  स्वादुक्षाद्मा यो वसतौ स्योनाक्रज जीवयजं यजते सोपमा दिवाः ।।
अनुवाद:
अग्नि , तुम उस व्यक्ति को जानते हो जो हर तरफ से (पुजारियों को) उपहार देता है, अच्छी तरह से सिले हुए कवच की तरह। जो आदमी अपने घर में बढ़िया भोजन रखता है, और उनके साथ (अपने मेहमानों) का मनोरंजन करता है, वह जीवन का बलिदान करता है, और स्वर्ग की तरह है।"
सायण द्वारा भाष्य: ऋग्वेद-भाष्य
वर्मा स्युतम = सिला हुआ कवच, जो बिना कोई दरार छोड़े सुइयों से बनाया जाता है; जीवम्-याजम् यजते, जीवन-यज्ञ का बलिदान: जीवयजनसहितं यज्ञम्, जीवन के बलिदान के साथ बलिदान; जीवनिष्पाद्यम्, जिससे जीवन को सहारा दिया जाता है;
जीवयाजम् = जीवः , जीवित, पुजारी, जो इज्यन्ते दक्षिणाभिः, उपहारों द्वारा पूजे जाते हैं
वर्मन् शब्द की व्याख्या इस प्रकार है; "आवृणोति अङ्गम् (वृ+मनिन्)" जो अङ्ग को आच्छादित करे !। इससे इस शब्द का अर्थ-विस्तार आवरण, कवच, ढाल, सुरक्षा, पेड़ की छाल, छिलका, आदि में हुआ। तथा मनुष्य रूप में शरण, सुरक्षा प्रदान करने वाले के लिए वर्मन् शब्द उनके नाम में जोड़ने की परम्परा बन गई।

गुप्त

गुप्तम्, त्रि, (गुप्यते स्म । गुप् + कर्म्मणि क्तः ।) कृतरक्षणम् । तत्पर्य्यायः । त्रातम् २ त्राणम् ३ रक्षितम् ४ अवितम् ५ गोपायितम् ६ । (यथा, महाभारते । १ । १ । १८८ ।

गुप्त वि।
रक्षितम्
समानार्थक:त्रात,त्राण,रक्षित,अवित,गोपायित,गुप्त
3।1।106।1।6

"त्रातं त्राणं रक्षितमवितं गोपायितं च गुप्तं च। अवगणितमवमतावज्ञातेऽवमानितं च परिभूते॥
(अमरकोश)

गो रक्षक- गुप्त( गोपायितृ)
ऋतेन गुप्त ऋतुभिश्च सर्वैर्भूतेन गुप्तो भव्येन चाहम् ।
मा मा प्रापत्पाप्मा मोत मृत्युरन्तर्दधेऽहं सलिलेन वाचः ॥२९॥ — अथर्ववेदः/काण्डं १७

दास

अन्ततः दास शब्द की व्याख्या; ऋग्वेद में दास शब्द दान देने (दासृ दाने) के अर्थ में है। यथा ऋग्वेद के इस की ऋचा लें :—

यस्ते भरादन्नियते चिदन्नं निशिषन्मन्द्रमतिथिमुदीरत् ।
आ देवयुरिनधते दुरोणे तस्मिन्रयिर्ध्रुवो अस्तु दास्वान् ॥७॥ — (ऋग्वेदः सूक्तं ४.२)

"(हे अग्निदेव!) उसके यहां एक पुत्र पैदा हो, जो भक्ति में दृढ़ और प्रसाद में उदार हो, जो भोजन की आवश्यकता होने पर आपको यज्ञ द्वारा भोजन प्रदान करता हो, जो आपको लगातार प्रसन्न करने वाला सोमरस देता हो, जो अतिथि के रूप में आपका स्वागत करता हो , और श्रद्धापूर्वक आपको उसके आवास में प्रज्ज्वलित करता हो।" (दास्वान् = दानवान् —सायणभाष्यम्)

अनुकम्पा, दानादि के लिए उपयुक्त पात्र व्यक्ति को दास कहा गया है। ऋसुदास ऋग्वेद में वर्णित राजा सुदास भी वस्तुतः (ईश्वर की) अनुकम्पा के लिए उपयुक्त सुपात्र हैं।
___
दास--दाने सम्प्रदाने घञ ५ दानपात्रे सम्प्रदाने ६ शूद्राणां नामान्त प्रयोज्योपाधिभेदे “शर्म्मान्त ब्राह्मणस्य स्यात् वर्म्मान्तं क्षक्षियस्य तु । गुप्तदासान्तकं नाम प्रशस्तं बैश्यशूद्रयोः” उद्वाह० त० 
                 'विष्णूवाच !
वरं वरय राजेन्द्र यत्ते मनसि वर्तते।
तत्ते ददाम्यसन्देहं मद्भक्तोसि महामते ।७९।

अनुवाद:- हे राजाओं के स्वामी ! वर माँगो जो तुम्हारे मन नें स्थित है।
वह सब तुमको दुँगा 
तुम मेरे भक्त हो!।७९।

                    "राजोवाच
यदि त्वं देवदेवेश तुष्टोसि मधुसूदन ।
दासत्वं देहि सततमात्मनश्च जगत्पते।८०।
अनुवाद:-
राजा ने कहा ! हे देवों के स्वामी हे जगत के स्वामी! यदि तुम प्रसन्न हो तो मुझे अपना शाश्वत दासत्व( वैष्णव- भक्ति) दो। ८०।

                'विष्णुरुवाच-
एवमस्तु महाभाग मम भक्तो न संशयः ।
लोके मम महाराज स्थातव्यमनया सह ।८१।
अनुवाद:- विष्णु ने कहा ! ऐसा ही हो !  तू मेरा भक्त है इसमें सन्देह नहीं!  अपनी पत्नी के साथ  तुम  मेरे लोक में  निवास करो !।८१।

एवमुक्तो महाराजो ययातिः पृथिवीपतिः।
प्रसादात्तस्य देवस्य विष्णुलोकं प्रसाधितम्।८२।
अनुवाद:-
इस प्रकार कहकर महाराज ययाति! पृथ्वी पति ने विष्णु भगवान की कृपा से विष्णु लोक को प्राप्त किया।८२।

निवसत्येष भूपालो वैष्णवं लोकमुत्तमम् ।८३।
और इस प्रकार ययाति पत्नी सहित लोकों में उत्तम वैष्णव लोक में निवास करने लगे।८४।

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पद्मपुराण /खण्डः (२) (भूमिखण्डः)
अध्यायः(83)



ततश्च नाम कुर्वीत पितैव दशमेहनि ।
देवपूर्वं नराख्यं हि शर्मवर्मादिसंयुतम् ।८ ॥

शर्मेति ब्राह्यणस्योक्तं वर्मेति क्षत्रसंश्रयम् ।
गुप्तदासात्मकं नाम प्रशस्तं वैश्यशूद्रयोः ॥९॥

नार्थहीनं न चाशस्तं नापशब्दयुतं तथा ।
नामङ्गल्यं जुगुप्साकं नाम कुर्यात्समाक्षरम्॥१०॥
(विष्णुपुराण-तृतीयांशः-अध्यायः (१०)

शर्मान्तं ब्राह्मणस्योक्तं वर्मान्तं क्षत्रियस्य तु ॥१५३/४
गुप्तदासात्मकं नाम प्रशस्तं वैश्यशूद्रयोः ।१५३/५

(अग्निपुराण -/अध्यायः १५३)

मङ्गल्यं ब्राह्मणस्य स्यात्क्षत्रियस्य बलान्वितम्।
वैश्यस्य धनसंयुक्तं शूद्रस्य तु जुगुप्सितम् ॥ ३१॥
अनुवाद:-ब्राह्मण का नाम शुभ होना चाहिए, क्षत्रिय का नाम शक्ति से संबंधित होना चाहिए, वैश्य का नाम धन से संबंधित होना चाहिए, जबकि शूद्र का नाम घृणित होना चाहिए।—(३१
शर्मवद्ब्राह्मणस्य स्याद्राज्ञो रक्षासमन्वितम् ।
वैश्यस्य पुष्टिसंयुक्तं शूद्रस्य प्रेष्यसंयुतम् ॥३२।
अनुवाद:-ब्राह्मण का नाम  शर्मवत्( यज्ञ में बलि करने से सम्बन्धित), क्षत्रिय का नाम 'रक्षापरक', वैश्य का नाम 'समृद्धिपरक' तथा शूद्र का नाम ' दासत्व(गुलामीपरक) का बोधक होना चाहिए।—(३२)
(मनुस्मृति- अध्याय 2- के श्लोक संख्या- 31-32 )
 -पूर्व- वैदिक काल में इसका अर्थ दाता अथवा दानी से था। स्मृतियों के लेखन काल  में ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में दास शब्द  शूद्र का वाचक बन गया  और आज दास का अर्थ धार्मिक जगत में वैष्णव सन्तों का वाचक है। ज सूरदास , कबीरदास , मलूकदास और तुलसीदास आदि - वैष्णव सन्तों मैं दास पदवी का प्रचलन ययाति के द्वारा हुआ।
जब राजा ययाति ने भगवान विष्णु से वरदान माँगा तो उन्होंने स्वयं को विष्णु का दासत्व पाने का  का ही वर माँगा। 
                    "राजोवाच
यदि त्वं देवदेवेश तुष्टोसि मधुसूदन ।
दासत्वं देहि सततमात्मनश्च जगत्पते।८०।
अनुवाद:-
राजा ने कहा ! हे देवों के स्वामी हे जगत के स्वामी! यदि तुम प्रसन्न हो तो मुझे अपना शाश्वत दासत्व( वैष्णव- भक्ति) दो। ८०।

"पद्मपुराण -(भूमिखण्डः)अध्यायः (८३)
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ब्राह्मी वर्णव्यवस्था में विधान है।  कि चातुर्वर्ण्य के लोग जो अपने  वर्ण  के दायरे में रहकर ही कार्य करते हैं, उससे हट कर दूसरे वर्ग का कार्य नहीं कर सकते। जैसे कोई ब्राह्मण वर्ण का है, तो वह ब्राह्मणत्व कर्म ही करेगा क्षत्रियोचित कर्म कदापि नहीं कर सकता। इसी तरह से यह बात चारों वर्णों के लिए लागू होती है।

इस बात की पुष्टि- मार्कण्डेय पुराण के अध्याय- (११०) के श्लोक (३०) और (३६) से होती है जिसमें ब्रह्मा जी के वर्णव्यवस्था के शास्त्रीय विधानों का निर्देशन करते हुए कहा गया है कि-
"त्वत्पुत्रस्य महाभाग विधर्मोऽयं महात्मनः ।
तवापि वैश्येन सह न युद्धं धर्मवन्नृप ॥३०॥


सोऽयं वैश्यत्वमापन्नस्तव पुत्रः सुमन्दधीः।
नास्याधिकारो युद्धाय क्षत्रियेण त्वया सह ।३६।

अनुवाद-  हे राजन् ! आपका पुत्र नाभाग धर्म से पतित होकर वैश्य हो गया है, और वैश्य के साथ आपका युद्ध करना वर्ण-गत नीति के विरुद्ध व अनुचित ही है ।। ३०,३६
 
इन उपरोक्त श्लोकों से सिद्ध होता है कि ब्रह्मा जी के वर्ण व्यवस्था में अपने वर्ण के कर्मों को छोड़कर दूसरे वर्ण के कर्मों को करना निषिद्ध है।
         
जबकि वैष्णव वर्ण में कार्यों के आधार पर कोई वर्ग विभाजन नहीं है इसके प्रत्येक सदस्य विना वर्ग विभाजित हुए- ब्राह्मणत्व, क्षत्रित्व, व्यवसायि एवं सेवा आदि सभी कर्मों को बिना प्रतिबंध के कर सकते हैं।  वैष्णव वर्ण के सदस्यों के प्रमुख कर्मों एवं उनके दायित्वों का वर्णन इसके अगले अध्याय-(पांच) में विस्तार पूर्वक किया गया है। जिसमें बताया गया है कि वैष्णव वर्ण के सदस्य किस प्रकार से - ब्राह्मणत्व, क्षत्रित्व, व्यवसायि, एवं सेवा आदि सभी कर्मों को स्वतंत्र रूप से बिना प्रतिबंध के करते हैं।

वैष्णव वर्ण सभी चार वर्णों में श्रेष्ठ है उसको छुपाया गया है । अब हम वैष्णव वर्ण की श्रेष्ठता के साक्ष्य देते हैं नीचे देखें-

"सर्वेषां चैव वर्णानां वैष्णवः श्रेष्ठ-उच्यते ।
येषां पुण्यतमाहारस्तेषां वंशे तु वैष्णवः॥४।
(पद्मपुराण खण्ड ६ (उत्तरखण्डः) अध्यायः -६८)

अनुवाद:- महेश्वर ने कहा:-मैं तुम्हें उस तरह के एक व्यक्ति का वर्णन करूंगा। चूँकि वह विष्णु का है, इसलिए उसे वैष्णव कहा जाता है। सभी जातियों में वैष्णव को सबसे महान कहा जाता है।

वैष्णव के लक्षण-

महेश्वर उवाच- शृणु नारद! वक्ष्यामि वैष्णवानां च लक्षणम् यच्छ्रुत्वा मुच्यते लोको ब्रह्महत्यादिपातकात् ।१।

तेषां वै लक्षणं यादृक्स्वरूपं यादृशं भवेत् ।तादृशंमुनिशार्दूलशृणु त्वं वच्मि साम्प्रतम्।२।

विष्णोरयं यतो ह्यासीत्तस्माद्वैष्णव उच्यते।     सर्वेषां चैव वर्णानां वैष्णवःश्रेष्ठ उच्यते ।३।           अनुवाद:-                 
-१-महेश्वर- उवाच ! हे नारद , सुनो, मैं तुम्हें वैष्णव का लक्षण बतलाता हूँ। जिन्हें सुनने से लोग ब्रह्म- हत्या जैसे पाप से मुक्त हो जाते हैं । १।                            
२-वैष्णवों के जैसे लक्षण और स्वरूप होते हैं। उसे मैं बतला रहा हूँ। हे मुनि श्रेष्ठ ! उसे तुम सुनो ।२।                                    

३-चूँकि वह विष्णु से उत्पन्न होने से ही वैष्णव कहलाता है; और सभी वर्णों मे वैष्णव श्रेष्ठ कहे जाता है।३।  
      
"पद्म पुराण उत्तराखण्ड अध्याय(६८- श्लोक संख्या १-२-३।
Note- यदि और तुर्वसु को ऋग्वेद के दशम मण्डल के(62) वें सूक्त की ऋचा संख्या- 10  में दासा( दास का द्विवचन) पद से सम्बोधित किया है।      
जिसे आप इसी पुस्तक के अध्याय संख्या (11) के भाग (1) में देख सकते हैं।

इस प्रकार से इस अध्याय में आप लोगों ने वैष्णव वर्ण और चातुर्वर्ण्य में अंतर एवं उनकी विशेषताओं को जाना। अब इसके अगले अध्याय -(६) में आप लोग जानेंगे कि - वैष्णव वर्ण के सदस्यों के प्रमुख कार्य एवं दायित्व क्या हैं ? ।








       "अध्याय-षष्ठम"

"वैष्णव वर्ण के सदस्यों के प्रमुख कार्य एवं संसार में उनके उत्तर-दायित्व-

ब्रह्मा जी की वर्ण व्यवस्था में अपने वर्ण के कर्मों को छोड़कर दूसरे के कर्मों को करना निषिद्ध माना गया है अर्थात जन्म के आधार पर ही व्यक्ति का वर्ण व व्यवसाय सुनिश्चित क्या जाता है।

इस बात को पिछले अध्याय-( चतुर्थ) में बताया जा चुका है।         
जबकि इसके विपरीत वैष्णव वर्ण में व्यक्ति की योग्यता, गुण और स्वभाव ( प्रवृत्ति) के अनुसार ही उसके व्यवसाय का निर्धारण किया जाता है।


अनुवाद:-
कर्मों के विभाग पूर्वक चारों वर्णों की रचना की  ईश्वर द्वारा की गयी है। इसमें जन्म कोई कारण नहीं है। उस-(सृष्टि-रचना आदि-) का कर्ता होनेपर भी मुझ अव्यय परमेश्वरको तू अकर्ता जान। कारण कि कर्मोंके फलों की मेरी कोई इच्छा नहीं है, इसलिये मुझे कर्म भी  प्रभावित नहीं करते हैं।। इस प्रकार जो मुझे तत्त्व से जान लेता है, वह भी कर्मों से नहीं बँधता है ।4/13। श्रीमद्भगवद्गीता


"कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।।2.47। (श्रीमद्भगवद्गीता)।

ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन ) चारों वर्णों का नाम चातुर्वर्ण्य है। सत्त्व रज तम इन तीनों प्रकृति के मूल गुणो  के विभाग से तथा उसकेनअनुरूप कर्मों के विभाग से यह चारों वर्ण मुझ ईश्वरद्वारा निर्धारित किये गये हैं। 

वैष्णव वर्ण में जन्म के आधार पर कोई वर्ग विभाजन नहीं है। इसके प्रत्येक सदस्य विना जन्म गत वर्ण विभाजित हुए- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र आदि सभी कर्मों को बिना किसी प्रतिबन्ध के करते हैं। जैसे वैष्णव वर्ण के अहीरों को ही देखें तो-

         
             _________*_________

ब्रह्मणत्व (धर्मज्ञ) कर्म का मुख्य उद्देश्य पूजा-पाठ, यज्ञ कराना, उपदेश देना प्रमुख है। और ये सभी कर्म- स्वभावत: वैष्णव वर्ण के गोप प्रारंभ से ही करते आए हैं। इस संबंध में देखा जाए तो सदियों से परंपरागत रूप से चली जा रही सत्यनारायण व्रत कथा के मुख्य पात्र अहीर लोह़ग ही है, जिन्होंने अपनी इस सत्यनारायण कथा के माध्यम से अनेक लोगों का उद्धार किया।

गोपों के इसी धर्मज्ञ स्वभाव और कर्मों की वजह से  इन्हें पौराणिक ग्रंथों में सबसे बड़ा धर्मवत्सल, धार्मिक, सदाचारी,  सुव्रतज्ञ ( अच्छे वृतो का जानकार) ज्ञानयोगी, और कर्मयोगी माना गया है।

 इसके इसके सबसे बड़े उदाहरण गोपेश्वर श्री कृष्ण हैं। इसके अतिरिक्त ज्ञान की देवी अहीर कन्या- गायत्री, यज्ञों में हवन को ग्रहण करने वाली गोपी स्वाहा और स्वधा तथा सृष्टि रहस्यों को जानने वाली विदुषी गोपी शतचन्द्रानना इत्यादि सभी वैष्णव वर्ण के गोपजाति के सदस्यपति रहे हैं। इन सभी के बारे में क्रमशः नीचे बताया गया है कि ये सभी कैसे सबसे बड़े धर्मवत्सल एवं धर्मज्ञ थे।

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सर्वप्रथम भूतल पर गोपों को ही - सबसे बड़ा धार्मिक, सदाचारी और धर्मवत्सल माना गया। इस संबंध मे अनेक पौराणिक साक्ष्य और प्रसंग सुनने और पढ़ने को मिलते हैं। उनमें से एक सत्यनारायण व्रत कथा भी है- जो श्रीस्कन्दपुराण के अवन्ति-खण्ड के अन्तर्गत  रेवाखण्ड के अध्याय-(२३३) से लेकर अध्याय ( २३७) तक पाँच अध्यायों में वर्णित है।  युगों-युगों से सत्यनारायण अर्थात् भगवान विष्णु की कथा के रूप में प्रचलित रही है। जिसे हम और आप बचपन से ही सुनते आ रहे हैं। किंतु इस बात को कम ही लोग जानते हैं कि उस सत्यनारायण व्रत कथा के मुख्य पात्र गोप हैं जो इस कथा के माध्यम से अनेक लोगों का उद्धार करते हैं। इस बात की पुष्टि सत्यनारायण व्रत कथा के मुख्य स्रोत श्रीस्कन्दपुराण के रेवाखण्ड के अध्याय-(२३३ से २३७ ) से होती है। जो सत्यनारायण व्रत कथा में अध्याय - (५) के रूप में स्थापित है। जानकारी के लिए उसे नीचे सत्यनारायण कथा के उन प्रसंगों को मूल श्लोक सहित उद्धृत किया गया है। 

                  ॥सूत उवाच॥
अथान्यच्च प्रवक्ष्यामि शृणुध्वं मुनिसत्तमाः।
आसीत् तुङ्गध्वजो राजा प्रजापालनतत्परः ॥१॥

प्रसादं सत्यदेवस्य त्यक्त्वा दुःखमवाप सः।
एकदा स वनं गत्वा हत्वा बहुविधान् पशून्॥ २॥

आगत्य वटमूलं च  दृष्ट्वा  सत्यस्य  पूजनम्।
गोपाः कुर्वन्ति संतुष्टा भक्तियुक्ताः सबान्धवाः॥३॥

राजा दृष्ट्वा तु दर्पेण न गतो न ननाम सः।
ततो गोपगणाः सर्वे  प्रसादं  नृपसन्निधौ ॥४॥

संस्थाप्य पुनरागत्य भुक्त्वा सर्वे यथेप्सितम्।
ततः प्रसादं  संत्यज्य  राजा दुःखमवाप सः॥५॥

"अनुवाद:-( १ से ५ तक )
• श्रीसूतजी बोले – हे श्रेष्ठ मुनियो ! अब इसके बाद मैं एक अन्य कथा कहूँगा, आप उसे  सुनें। अपनी प्रजा का पालन करने में तत्पर ( तैयार रहने वाला) तुङ्गध्वज नाम का एक राजा था।१।

• उसने सत्यदेव ( सत्यनारायण ) के प्रसाद का परित्याग करके घोर दुःख प्राप्त किया। एक बार वह वन में जाकर और वहाँ बहुत-से पशुओं को मारकर।२।

• वह वट वृक्ष के नीचे आया तो वहाँ उसने देखा कि गोपगण (अहीर लोग) बन्धु-बान्धवों के साथ संतुष्ट होकर भक्तिपूर्वक भगवान् सत्यदेव( सत्यनारायण- विष्णु की पूजा करतें हैं।३।

• राजा यह देखकर भी अहंकार (दर्प)  वश न तो  वहाँ गया और न उसने भगवान् सत्यनारायण को प्रणाम ही किया। इसके बाद ( पूजन के पश्चात) सभी गोपगण भगवान् सत्य नारायण का  प्रसाद राजा के समीप में ।४।

• रखकर वहाँ से पुन: लौट  कर उन गोपों ने भगवान्‌ का प्रसाद ग्रहण किया। इधर राजा को प्रसाद का परित्याग करने से महान् कष्ट हुआ॥५॥

"तस्य पुत्रशतं नष्टं धनधान्यादिकं च यत्।
सत्यदेवेन तत्सर्वं नाशितं मम निश्चितम्॥६॥

अतस्तत्रैव गच्छामि यत्र देवस्य पूजनम्।
मनसा तु विनिश्चित्य ययौ गोपालसन्निधौ॥७॥

ततोऽसौ सत्यदेवस्य पूजां गोपगणैः सह।
भक्तिश्रद्धान्वितो भूत्वा चकार विधिना नृपः॥८॥

सत्यदेवेन प्रसादेन धनपुत्रान्वितोऽभवत् ।
इहलोके सुखं भुक्त्वा चान्ते सत्यपुरं ययौ॥९॥


""अनुवाद:-( ६ से ९ तक)
• उसका सम्पूर्ण धन-धान्य एवं सभी सौ पुत्र नष्ट हो गये। राजा ने मन में यह निश्चय किया कि अवश्य हो भगवान् सत्यनारायण ने हमारा नाश कर दिया है।६।

• इसलिये मुझे वहीं जाना चाहिये जहाँ श्रीसत्यनारायण का पूजन हो रहा था। ऐसा मन में निश्चय करके वह राजा गोपगणों (अहीरों) के समीप गया।७।

• और उसने गोपगणों के साथ भक्ति-श्रद्धा से युक्त होकर विधिपूर्वक भगवान् सत्यदेव की पूजा की।८।

• भगवान् सत्यदेव की कृपा से वह पुनः धन और पुत्रों से सम्पन्न हो गया तथा इस लोक में सभी सुखों को उपभोगकर अन्त में सत्यपुर (वैकुण्ठलोक)- को चला गया॥९॥

य  इदं कुरुते  सत्यव्रतं  परमदुर्लभम्।       
शृणोति च कथां पुण्यां भक्तियुक्तःफलप्रदाम् ॥१०॥

धनधान्यादिकं तस्य भवेत् सत्यप्रसादतः।
दरिद्रो लभते वित्तं बद्धो मुच्येत् बन्धनात् ॥ ११॥

भीतो भयात् प्रमुच्येत् सत्यमेव न संशयः।
ईप्सितं च फलं भुक्त्वा चान्ते सत्यपुरं व्रजेत् ॥ १२ ॥

इति वः कथितं विप्राः सत्यनारायणव्रतम्।
यत् कृत्वा सर्वदुःखेभ्यो मुक्तो भवति मानवः॥१३॥


"अनुवाद:- (१०-से १३तक)
सूत जी कहते हैं- जो व्यक्ति इस परम दुर्लभ श्रीसत्यनारायण के व्रत को करता और पुण्यमयी तथा फलप्रदायिनी इस कथा को भक्तियुक्त होकर सुनता है।।१०।

• उसे भगवान् सत्यनारायण की कृपा से धन-धान्य आदि की प्राप्ति होती है। दरिद्र के घर में धन  हो जाता है, बन्धन में पड़ा हुआ व्यक्ति बन्धन से छूट जाता है।११।

• डरा हुआ व्यक्ति भय से मुक्त हो जाता है-यह सत्य बात है, इसमें संशय नहीं। (इस लोक में वह सभी इच्छित फलों का भोग प्राप्त करके अन्त में सत्यपुर (वैकुण्ठलोक) को जाता है।१२।

• हे ब्राह्मणो ! इस प्रकार मैंने आप लोगों से भगवान् सत्यनारायण के व्रत को कहा, जिसे करके मनुष्य सभी दुःखों से मुक्त हो जाता है॥१३॥

विशेषतः  कलौयुगे   सत्यपूजा   फलप्रदा।
केचित् कालं वदिष्यन्ति सत्यमीशं तमेव च ॥ १४॥

सत्यनारायणं केचित् सत्यदेवं तथापरे।
नानारूपधरो भूत्वा सर्वेषामीप्सितप्रदम् ॥१५॥

भविष्यति कलौ सत्यव्रतरूपी सनातनः।
श्रीविष्णुना धृतं रूपं सर्वेषामीप्सितप्रदम्॥१६॥

य इदं पठेत् नित्यं शृणोति मुनिसत्तमाः।
तस्य नश्यन्ति पापानि सत्यदेवप्रसादतः॥१७॥

व्रतं वैस्तु कृतं पूर्व सत्यनारायणस्य च।
तेषां त्वपरजन्मानि कथयामि मुनीश्वराः॥१८॥

"अनुवाद:-( १४से -१८ तक)
• कलियुग में तो भगवान् सत्यदेव (सत्यनारायण) की पूजा विशेष फल प्रदान करने वाली है। भगवान् विष्णु को ही कुछ लोग काल, कुछ लोग सत्य, कोई ईश।१४।

• और कोई सत्यदेव तथा दूसरे लोग सत्यनारायण नाम से कहेंगे। अनेक रूप धारण करके भगवान् सत्यनारायण सभी का मनोरथ सिद्ध करते हैं।१५।

• कलियुग में सनातन भगवान् विष्णु ही सत्यव्रत-रूप धारण करके सभी का मनोरथ पूर्ण करने वाले होंगे।१६।

• हे श्रेष्ठ मुनियो। जो व्यक्ति नित्य भगवान् सत्यनारायण की इस व्रत-कथा को पढ़ता है, सुनता है, भगवान् सत्यनारायण की कृपा से उसके सभी पाप नष्ट हो जाते हैं।१७।

हे मुनीश्वरो ! पूर्वकाल में जिन लोगों ने भगवान् सत्यनारायण का व्रत किया था, उनके अगले जन्म का वृत्तान्त कहता हूँ, आप लोग उसे सुनें॥१८

"शतानन्दो महाप्राज्ञः सुदामा ब्राह्मणो ह्यभूत्। तस्मिञ्जन्मनि श्रीकृष्णं ध्यात्वा मोक्षमवाप ह ॥१९॥

"काष्ठभारवहो  भिल्लो  गुहराजो  बभूव ह।
तस्मिञ्जन्मनि श्रीरामं सेव्य मोक्षं जगाम वै॥२०॥

"उल्कामुखो महाराजो नृपो दशरथोऽभवत्।
श्रीरङ्गनाथं सम्पूज्य श्रीवैकुण्ठं तदागमत् ॥२१॥

"धार्मिकः सत्यसन्धश्च साधुर्मयूरध्वजोऽभवत्।
देहार्धं क्रकचैश्छित्त्वा दत्त्वा मोक्षमवाप ह ॥२२॥


"तुङ्गध्वजो महाराजः स्वायम्भुवोऽभवत् किल।
सर्वान् भागवतान् कृत्वा श्रीवैकुण्ठं तदाऽगमत् ॥ २३ ॥


अनुवाद:- (१९ से -२३ तक )
• महान् प्रज्ञासम्पन्न शतानन्द नाम के ब्राह्मण [सत्यनारायणका व्रत करने के प्रभाव से] दूसरे जन्म में सुदामा नामक ब्राह्मण हुए और उस जन्म में भगवान् श्रीकृष्ण का ध्यान करके उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया।१९।

• लकड़‌हारा भिल्लों का राजा गुहराज हुआ और अगले जन्ममें उसने भगवान् श्रीरामकी सेवा करके मोक्ष प्राप्त किया।२०।

• महाराज उल्कामुख [दूसरे जन्म में ] राजा दशरथ हुए, जिन्होंने श्रीरङ्गनाथ (विष्णु) की पूजा करके अन्त में वैकुण्ठ प्राप्त किया।२१।

• इसी प्रकार धार्मिक और सत्यव्रती साधु नामक वैश्य [पिछले जन्म के सत्यव्रत के प्रभाव से दूसरे जन्म में] मोरध्वज नाम का राजा हुआ। उसने आरे से चीरकर अपने पुत्र की आधी देह भगवान् विष्णुको अर्पित कर मोक्ष प्राप्त किया।२२।

• महाराज तुङ्गध्वज पूर्व जन्म में स्वायम्भुव मनु के रूप में हुए थे और भगवत्सम्बन्धी सम्पूर्ण कार्यों का अनुष्ठान करके वे ही कालान्तर में वैकुण्ठ लोक को चले गये।२३।

"भूत्वा गोपाश्च  ते सर्वे व्रजमण्डलवासिनः।
निहत्य राक्षसान् सर्वान् गोलोकं तु तदा ययुः॥२४॥


अनुवाद -और जो गोपगण थे, वे सब जन्मान्तर में व्रजमण्डल में निवास करनेवाले गोप हुए और सभी राक्षसों का संहार करके उन्होंने भी भगवान का शाश्व तधाम–गोलोक प्राप्त किया ॥२४॥

श्लोक २४ का व्याकरण मूलक अन्वय व  शब्दार्थ :-

गोपा: = गोप गण। ते सर्वे= वे सब। व्रजमण्डलवासिन:   ( भूत्वा = जन्म लेकर /होकर ) =सत्यनारायण की वन में  कथा करने वाले वे सभी गोपगण ही  व्रजमण्डल के निवासी हुए।
निहत्य= मारकर। राक्षसान् सर्वान् = सभी राक्षसों को । गोलोकं तु तदा ययुः= तत्पश्चात् वे सब गोलोक को चले गये।

किंतु यहां पर ध्यान देने वाली बात यह है कि- इस सत्यनारायण व्रत कथा में गोपों से सम्बंधित सबसे महत्वपूर्ण श्लोक- २४ है।
"भूत्वा गोपाश्च ते सर्वे  व्रजमण्डलवासिनः।
निहत्य राक्षसान् सर्वान् गोलोकं तु तदा ययुः॥२४॥


इस श्लोक को वर्तमान में पुराणों का प्रकाशन करते समय स्कन्दपुराण के रेवाखण्ड के अध्याय-(२३७) से पुरोहितों ने इर्ष्या बस निकलवा दिया है। अब वहां पर (२४) श्लोक न होकर केवल (२३) श्लोक ही शेष रह गए हैं। 

परन्तु सत्यनारायण कथा की कुछ पुस्तकों में यह श्लोक विद्यमान है। रेवाखण्ड के २३७ वें अध्याय (अर्थात नारायण कथा के  पंचम अध्याय के इस (२४) वें महत्वपूर्ण श्लोक का प्रकाशन अब वर्तमान समय में गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित "सत्यनारायण व्रत कथा" में मिलता है। इसके अतिरिक्त "कान्हादर्शन धार्मिक प्रकाशन"-117 गोविन्दखण्ड विश्वकर्मा नगर शाहदरा दिल्ली-110095 से प्राप्त किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त शब्द कल्पद्रुम" ( खण्ड- ५ के पृष्ठ संख्या- २२९) में गोपों का यह महत्वपूर्ण श्लोक आज भी सुरक्षित है।

 कुल मिलाकर सत्यनारायण व्रत कथा से यह सिद्ध होता है कि गोप प्रारंभ से ही धार्मिक, धर्मवत्सल, तथा वैष्णव धर्म के प्रबल प्रचारक रहे हैं।

गोपों के इसी गुण विशेष के कारण भगवान श्री कृष्ण के सामने श्रीराधा जी ने गोपों को सबसे बड़ा धर्मवत्सल और इस संसार में सबसे श्रेष्ठ कहा इस बात की पुष्टि - गर्गसंहिता के वृन्दावन खण्ड के अध्याय-(१८) के श्लोक संख्या -(२२) से होती है। जिसमें राधा जी श्रीकृष्ण से कहती हैं कि-


प्रेक्षन्त्यहर्निशमलं सुमुखं गवां च जाति: परा न विदिता भुवि गोपजाते:।।२२।
अनुवाद - ग्वाले सदा गौओं का पालन करते हैं। गोरज की गंगा में नहाते हैं, उनका स्पर्श करते हैं तथा गौओं के उत्तम नाम का जाप करते हैं। इतना ही नहीं उन्हें दिन- रात गौओं के सुंदर मुख का दर्शन होता है। मेरी समझ में तो इस भूतल पर गोप जाति से बढ़कर दूसरी कोई जाति ही नहीं है।२२।

इसके अलावा गोपों के धर्मवत्सल  सदाचार सम्पन्न तथा सुव्रतज्ञ होने के और कई महत्वपूर्ण उदाहरण दिए जा सकते हैं। उनमें से प्रमुख हैं -

(१) अहीर कन्या वेदमाता गायत्री का पौराणिक प्रसंग।

(२) यज्ञों में हवन को ग्रहण करने वाली गोपी स्वाहा और  स्वधा का उपाख्यान ( देवीभागवत का नवम स्कन्ध तथा ब्रह्मवैवर्त पुराण के इसके साक्ष्य हैं।
(३) ब्रह्माण्ड विदुषी गोपी शतचन्द्रानना इत्यादि


अब हम इन तीनों महत्वपूर्ण गोप कन्याओं को एक-एक करके बतायेगे की संपूर्ण ब्रह्मांड में इनसे बड़ा धर्मवत्सल व धर्मज्ञ कोई नहीं है।


 (१-) अहीर कन्या वेदमाता गायत्री का परिचय
                
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देवी गायत्री सहित समस्त गोपों को धर्म वत्सल एवं धर्मज्ञ होने की पुष्टी - पद्मपुराण के सृष्टि खंड के अध्याय- १७ के श्लोक- (१५-१६) और (१७) से होती है जिसमें भगवान विष्णु गोपों की कन्या, गायत्री को ब्रह्मा जी को कन्यादान करने के उपरांत गोपों से कहते हैं कि-

"भो ! भो ! गोपसदाचारनत्वंशोचितुमर्हसि।
कन्यायााााााााषातेमहाभागाप्राप्तादेवंविरिञ्चिनम्।।१५ ।

योगिनियोंगयुक्तायेब्राह्मणा वेदपारगा:।
नलभन्तेप्रार्थयन्तस्ताङ्गतिन्दुहितागता।।१६।

धर्मवन्तं सदाचारं भवन्तं धर्मवत्सलम्।
मया ज्ञात्वा तत:कन्यादत्ताचैषा विरञ्चय ते।। १७।

"अनुवाद -
• हे गोपगण ! तुम यहां वृथा प्रलाप मत करो। यह पुण्यवती, सौभाग्यवती तथा कुल एवं बन्धुगढ़ के लिए आनंदप्रदा है। इस बाला को हम यहां लाए हैं। इसे ब्रह्मा ने अपनी पत्नी बनाया है। इन्होंने भी ब्रह्मा का अवलंबन किया है। यदि यह पुण्यवती नहीं होती, तब इस सभा में आती क्यों ? हे महाभाग ! तुम यह सब जानकर अब शोक मत करो। तुम्हारी इस भाग्यशाली कन्या ने ब्रह्मा को प्राप्त किया है। १५।

• ज्ञान योगी, कर्मयोगी तथा वेदज्ञ ब्राह्मण, प्रार्थना  करके भी यह स्थान नहीं पाते हैं, तथापि तुम्हारी यह कन्या उस गति को पा गई है।१६।

• तुम लोगों को मैंने धार्मिक, सदाचारी एवं धर्मवत्सल जानकर ही तुम्हारी कन्या का ब्रह्मा को कन्यादान किया है।१७।               

 इस उपरोक्त- तीनों श्लोकों से एक ही साथ चार बातें सिद्ध होती हैं-

• पहली यह कि- देवी गायत्री, गोपों की कन्या हैं अर्थात वह एक गोप कन्या है, जिनका विवाह ब्रह्मा जी से हुआ वह भी केवल यज्ञ सम्पादन दन हेतु नकि सन्तान उत्पादन हेतु क्यों कि गायत्री वैष्णवी शक्ति का अवतरण है - राधा दुर्गा और गायत्री तीनों ही अहीर जाति में अवतरण करती हैं और तीनों ही प्रसव और सन्तान उत्पन्न नहीं करता़ी हैं।। ये केवल संसार का आध्यात्मिक और धार्मिक मार्गदर्शन करती हैं।

गायत्री जिनके मंत्रोच्चारण से अर्थात् गायत्री मंत्र के जाप से जगत का कल्याण होता है।
जिसमें देवी गायत्री को अहीर (गोप) कन्या होने की पुष्टि- पद्मपुराण के सृष्टि खंड के अध्याय-।१६। के- श्लोक-(१५५) से भी होती है। जिसमें देवी गायत्री अपना परिचय देते हुए इंद्र से कहती है -
 
"गोपकन्यात्वहं वीर विक्रीणामीह गोरसम् ।
नवनीतमिदमं शुद्धं दधि चेदं विमण्डकम् ।। १५५।।

अनुवाद- हे वीर! मैं गोप कन्या हूं। यहां दुग्ध विक्रय करने आई हूं। यह विशुद्ध नवनीत है। यह देखो! यह मंड रहित दधि है। तुमको यदि मट्ठा या दूध जो आवश्यक हो, कहो तथा यथेष्ट ग्रहण करो। १५५।

• दूसरी बात यह सिद्ध होती है कि- गोपों से बड़ा कोई धार्मिक, सदाचारी एवं धर्मवत्सल  इस संसार में नहीं है। इस बात को जानकर ही भगवान विष्णु ने गोपों की कन्या- देवी गायत्री का ब्रह्मा जी को कन्यादान किया। और ब्रह्मा जी ने उसे अपनी पत्नी रूप में स्वीकार किया।

• तीसरी बात यह सिद्ध होती है कि- आभीर कन्या देवी गायत्री उस स्थान और पद को प्राप्त हुई। जिसे योगी तथा वेदज्ञ ब्राह्मण, प्रार्थना करने के बाद भी नहीं पाते हैं। अब इससे बड़ा ब्राह्मणत्व कर्म वैष्णव वर्ण के गोपों के लिए और क्या हो सकता है ? 

• चौथी बात- यह कि- देवी गायत्री महा विदुषी और कठिन व्रतों का पालन करने वाली प्रथम अहीर कन्या थी। जिसकी भूरी भूरी प्रसंशा भगवान विष्णु ने ब्रह्मा जी के यज्ञ-सत्र में की, और गायत्री को ही ज्ञान की अधिष्ठात्री देवी के पद पर नियुक्त किया। जो आज भी यह मान्यता है कि संसार का सम्पूर्ण  ज्ञान गायत्री से नि:सृत होता है।

देवी गायत्री का यदि पारिवारिक परिचय देखा जाए तो उनकी माता का नाम "गोविला" और पिता का नाम "गोविल" था। जो कि  दोनों ही नाम गोलोक से सम्बन्धित है। गायत्री के पिता-गोविल को नन्दसेन, अथवा नरेन्द्र सेन आभीर नाम से भी जाना जाता है। जो आनर्त देश, वर्तमान नाम (गुजरात) के रहने वाले थे।  इस बात की पुष्टि-
लक्ष्मीनारायण संहिता के खण्ड (एक) के अध्याय-(५०९) के प्रमुख श्लोकों से होती है,जो इस प्रकार हैं -


शृणु जानामि तद्वृत्तं नान्ये जानन्त्येतद्विदः।
पुरा सृष्टे समारम्भे गोलोके श्रीकृष्णेन परात्मना सुघटिता ।।६५।

अमुना स्वांशरूपा हि सावित्री स्वमूर्तेः प्रकटीकृता।
अथ द्वितीया रूपा कन्या च गायत्र्याभिधा कृता ।।६६।

सावित्री श्रीहरिणैव गोलोके एव सन्निधौ ।
अथ भूलोके यज्ञप्रवाहार्थं  ब्रह्माणं ववल्हे।। ६८।

पृथिव्यां मर्त्यरूपेण तत्र मानुषविग्रहा ।
पत्नी यज्ञस्य कार्यार्थमपेक्षिता बभूव।।६९।

हेतुनाऽनेन कृष्णेन सावित्र्याज्ञापिता तदा ।
द्वितीयेन स्वरूपेण त्वया गन्तव्यमेव ह गायत्री नाम्ना।। ७०।


अनुवाद:
• इस ब्रह्मा के यज्ञसत्र को जानकर शुद्ध स्नान करके आयी हुई गोप कन्या नित्य जो शुद्धात्मा और वैष्णव जाति की है।६२॥

• श्रीकृष्ण ने उत्तर देते हुए  उस गोप-कन्या को कहा ! सुन प्रिये ! ये बात छिपी हुई नही है कि ये वीराणी  जाति से निश्चय ही अहीराणी है।६४।।

• सुनो ! मैं  जानाता हूँ वह वृत कोई अन्य विद्वान नहीं जानता यह सत्य पूर्वकाल में सृष्टि के प्रारम्भ में श्रीकृष्ण परमात्मा के द्वारा गोलोक में सुघटित हुआ।। ६५।

• उस परमात्मा ने अपने ही अंश से सावित्री और दूसरी कन्या को  गायत्री नाम से प्रकट किया गया।६६।

• सावित्री श्री हरि के द्वारा ही गोलोक में प्रभु के सान्निध्य में भूलोक में यज्ञ प्रवाहन के लिए ब्रह्मा जी को प्रदान की गयीं । ६८।

• पृथ्वी पर मनुष्य रूप में वहाँ मानव शरीर में ब्रह्मा की पत्नी रूप में यज्ञ कार्य के लिए अवतरित हुईं।६९।

• उस कारण से कृष्ण के द्वारा सावित्री को आज्ञा दी गयी। तब द्वित्तीय स्वरूप में तुमको जानना चाहिए गायत्री नाम से ।७०।

ज्ञात हो इस सम्बन्ध में विस्तार पूर्वक जानकारी "गोपेश्वरश्रीकृष्णस्य- पञ्चंवर्णम्" नामक ग्रंथ में दी गई है जो इस पुस्तिका का ही विस्तारमयी रूप है।

(३) यज्ञों में हवन को ग्रहण करने वाली गोपी स्वाहा और  स्वधा का परिचय।
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देवी गायत्री के समान ही गोप कुल की देवी दक्षिणा, देवी स्वाहा और स्वधा भी हैं। जिनका यज्ञ, हवन और पित्र- पूजन के दरम्यान विशेष भूमिका रहती है। जिसमें यज्ञ और हवन के दरम्यान जो स्वाहा नाम के उच्चारण से हवन कुंडों में जो नैवेद्य अर्पण किया जाता है, और यज्ञ समाप्ति के बाद जो दान दक्षिणा दिया जाता है, वह सब देवी स्वाहा और दक्षिण के माध्यम से ही फलीभूत होता है। 

और ये देवी स्वाहा और दक्षिण दोनों ही गोपेश्वर श्री कृष्ण के गोलोक की गोपी सुशीला के ही अंशावतार है जो कभी गोलोक में श्री राधा के शाप से गोपी सुशील को भूतल पर स्वाहा, स्वधा और दक्षिणा के रूप में आना पड़ा था।

 जिसमें सुशीला को गोपी होने का प्रमाण तथा सुशीला को यज्ञ पुरुष की पत्नी दक्षिण के रूप में उत्पन्न होने का वर्णन
देवी भागवत पुराण के नवम स्कंध के अध्याय- (४५) के कुछ प्रमुख श्लोकों में मिलता है जो इस प्रकार है -

गोपी सुशीला गोलोके पुराऽऽसीत्प्रेयसी हरेः।
राधा प्रधाना सध्रीची धन्या मान्या मनोहरा ॥२।
अतीव सुन्दरी रामा सुभगा सुदती सती ।
विद्यावती गुणवती चातिरूपवती सती ॥३।

अनुवाद - प्राचीनकालमें गोलोक में भगवान् श्रीकृष्ण की प्रेयसी सुशीला नामक एक गोपी थी। परम धन्य, मान्य तथा मनोहर वह गोपी भगवती राधाकी प्रधान सखी थी। वह अत्यन्त सुन्दर, लक्ष्मीके लक्षणोंसे सम्पन्न, सौभाग्यवती, उज्ज्वल दाँतोंवाली, परम पतिव्रता साध्वी, विद्या गुण तथा रूपसे अत्यधिक सम्पन्न थी। २,३

रसज्ञा रसिका रासे रासेशस्य रसोत्सुका ।
उवासादक्षिणे क्रोडे राधायाः पुरतः पुरा ॥ ७ ॥
सम्बभूवानम्रमुखो भयेन मधुसूदनः ।
दृष्ट्वा राधां च पुरतो गोपीनां प्रवरोत्तमाम् ॥ ८।।

अनुवाद:-वह रसज्ञान से परिपूर्ण, रासक्रीडा की रसिक तथा रासेश्वर श्रीकृष्णके प्रेमरसहेतु लालायित रहनेवाली वह गोपी सुशीला एक बार राधाके सामने ही भगवान् श्रीकृष्णके वाम अंक( बगल) में बैठ गयी ॥७-८।

कामिनीं रक्तवदनां रक्तपङ्‌कजलोचनाम् ।
कोपेन कम्पिताङ्‌गीं च कोपेन स्फुरिताधराम् ॥९॥
वेगेन तां तु गच्छन्तीं विज्ञाय तदनन्तरम् ।
विरोधभीतो भगवानन्तर्धानं चकार सः॥१०॥

अनुवाद- तब मधुसूदन श्रीकृष्ण ने गोपिकाओं में परम श्रेष्ठ राधा की ओर देखकर भयभीत हो अपना मुख नीचे कर लिया। उस समय पत्नी राधा का मुख लाल हो गया और उनके नेत्र रक्तकमल के समान हो गये। क्रोध से उनके अंग काँप रहे थे तथा ओठ प्रस्फुरित हो रहे थे। तब उन राधा को बड़े वेग से जाती देखकर उनके विरोध से अत्यन्त डरे हुए भगवान् श्रीकृष्ण अन्तर्धान हो गये ॥९-१०॥

पलायन्तं च कान्तं च विज्ञाय परमेश्वरी ।
पलायन्तीं सहचरीं सुशीलां च शशाप सा ॥ १५॥
अद्यप्रभृति गोलोकं सा चेदायाति गोपिका ।
सद्यो गमनमात्रेण भस्मसाच्च भविष्यति ॥ १६॥
अनुवाद- • परमेश्वरी राधा ने अपने कान्त श्रीकृष्ण को अन्तर्धान तथा सहचरी सुशीला को पलायन करते देखकर उन्हें शाप दे दिया कि यदि गोपिका सुशीला आजसे गोलोकमें आयेगी, तो वह आते ही भस्मसात् हो जायगी।(१५-१६)

दर्शनं देहि रमण दीनां विरहदुःखितां ।
अथ सा दक्षिणा देवी ध्वस्ता गोलोकतो मुने ॥३५।

अनुवाद - राधा जी प्रियतम कृष्ण के लिए विरह से पीड़ित हो विलाप करते हुए कहती हैं हे प्रिय इस दीन दु:खी को दर्शन दो हे मुने ! इसके बाद राधा जी के द्वारा गोलोक से पलायित सुशीला नामक की वह गोपी दक्षिणा नाम से संसार में प्रसिद्ध हुई। ३५।

इस संबंध में ज्ञात होगी भगवान नारायण ने ही उस सुशीला का नाम दक्षिण रखा इस संबंध में नीचे के ये श्लोक कुछ इसी प्रकार का संकेत दे रहे हैं-

नालभंस्ते फलं तेषां विषण्णाः प्रययुर्विधिम् ।
विधिर्निवेदनं श्रुत्वा देवादीनां जगत्पतिम् ॥ ३७॥

दध्यौ च सुचिरं भक्त्या प्रत्यादेशमवाप सः।
नारायणश्च भगवान् महालक्ष्याश्च देहतः॥ ३८॥

विनिष्कृष्य मर्त्यलक्ष्मीं ब्रह्मणे दक्षिणां ददौ।
ब्रह्मा ददौ तां यज्ञाय पूरणार्थं च कर्मणाम् ॥३९ ॥
अनुवाद - जिसे भगवान नारायण ने महालक्ष्मी के विग्रह से मर्त्यलक्ष्मी को प्रकट किया और उसका दक्षिणा नाम रखकर उसे ब्रह्मा जी को सौंप दिया। तब ब्रह्मा जी यज्ञ संबंधी समस्त कार्यों की संपन्नता के लिए देवी दक्षिण को यज्ञ पुरुष के हाथों में दे दिया।३७-३८-३९।

तब यज्ञ पुरुष ने  देवी दक्षिणा के पूर्व काल की बातों का स्मरण दिलाते हुए देवी दक्षिण से कहा कि-



                ॥यज्ञ उवाच॥
पुरा गोलोकगोपी त्वं गोपीनां प्रवरा परा।।
राधासमा तत्सखी च श्रीकृष्णप्रेयसी प्रिये ।।७२। 

कार्त्तिकीपूर्णिमायां तु रासे राधामहोत्सवे ।।
आविर्भूता दक्षिणांशात्कृष्णस्यातो हि दक्षिणा ।। ७३ ।।

गोलोकात्त्वं परिध्वस्ता मम भाग्यादुपस्थिता ।।
कृपां कुरु त्वमेवाद्य स्वामिनं कुरु मां प्रिये ।७५ ।

अनुवाद - यज्ञ पुरुष बोले- हे महाभागे ! तुम पूर्वकालमें गोलोककी एक गोपी थी और गोपियों में परम श्रेष्ठ थी। श्रीकृष्ण तुमसे अत्यधिक प्रेम करते थे और तुम राधाके समान ही उन श्रीकृष्ण की प्रिय सखी थी। ।७२।

अनुवाद- एक बार कार्तिक पूर्णिमा को राधामहोत्सव के अवसर पर रासलीला में तुम श्रीकृष्ण के दक्षिण अंश से उत्पन्न हुईं इस लिए तुम्हारा नाम दक्षिणा हुआ।७३।

गोलोक से आयी हुई तुम मेरे भाग्य से उपस्थित हुई हो ! हे महाभागे ! मुझपर तुम आज कृपा करो और मुझे ही अपना स्वामी बना लो ॥७५।
                  
                      कृ .प .उ.

अध्याय-(६/२)✓✓


फिर यज्ञ पुरुष ने  उस देवी से कहा-
"कृपां कुरु महाभागे मामेव स्वामिनं कुरु" 


त्वया विना च सर्वेषां सर्वं कर्म च निष्फलम् ।
त्वया विना तथा कर्म कर्मिणां च न शोभते ॥७६॥

ब्रह्मविष्णुमहेशाश्च दिक्पालादय एव च ।
कर्मणश्च फलं दातुं न शक्ताश्च त्वया विना ॥ ७७ ॥

अनुवाद-  तुम्हीं यज्ञ करनेवालों को उनके कर्मों का सदा फल प्रदान करने वाली देवी हो। तुम्हारे बिना सम्पूर्ण प्राणियों का सारा कर्म निष्फल हो जाता है और तुम्हारे बिना अनुष्ठानकर्ताओंका कर्म शोभा नहीं पाता है।
ब्रह्मा, विष्णु, महेश, दिक्पाल आदि भी तुम्हारे बिना प्राणियोंको कर्मका फल प्रदान करने में समर्थ नहीं हैं। ७५,७६,७७
                   
 और इस संबंध में सबसे बड़ी बात श्रीमद्देवी भागवत पुराण के नवम् स्कंद के अध्याय-४३ के श्लोक-३८ में लिखी गई है,जिसमें बताया गया है कि यज्ञ, हवन के दरम्यान गोपी सुशीला की अंशस्वरूपा देवी स्वाहा का कितना महत्व है-
दक्षिणाग्निगार्हपत्याहवनीयान् क्रमेण च।
ऋषियो मुनयश्चैव ब्राह्मणा: क्षत्रियादय:।। ३८
स्वाहान्तं मंत्रमुच्चार्य हविर्दानं च चक्रिरे ।
स्वाहायुक्तं च मत्रं च यो गृह्णाति प्रशस्तकम् ।। ३९

अनुवाद - तभी से ऋषि, मुनि, ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि मंत्र के अंत में स्वाहा शब्द जोड़कर मंत्रोच्चारण करके अग्नि में हवन करने लगे। और जो मनुष्य स्वाहा युक्त प्रशस्त मंत्र का उच्चारण करता है, उसे मंत्र के उच्चारण से उसे सभी सिद्धियां प्राप्त हो जाती है।

  (४) ब्रह्मांड विदुषी गोपी शतचन्द्रानना का परिचय
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शतचन्द्रानना धन्या और मान्या गोलोक की एक विदुषी गोपी है जो गोलोक के सोलहवें द्वार की सदैव रक्षा में तत्पर रहती है। गोपी शतचन्द्रानना को विदुषी होने का परिचय  उस समय मिलता है जब समस्त देवता भगवान नारायण के कहने पर पृथ्वी के भार को दूर करने के उद्देश्य से श्रीकृष्ण के परमधाम गोलोक को प्रस्थान किया। किंतु जब देवता लोग गोलोक के सोलहवें द्वार पर पहुंचे तो वहां पर द्वार की रक्षा में  नियुक्त गोपी शतचन्द्रानना उनसे कुछ प्रश्न पूछकर अंदर जाने से रोक दिया। तब देवताओं ने जो कुछ कहा उसका सारा वृत्तांत गर्गसंहिता के गोलोकखण्ड के अध्याय- (२) के प्रमुख श्लोकों में कुछ इस प्रकार मिलता  है -

तत्र कन्दर्पलावण्याः श्यामसुंदरविग्रहाः।
द्वरि गन्तुं चाभ्यदितान् न्यषेधन् कृष्णपार्षदाः।। २०

अनुवाद - वहां कामदेव के समान मनोहर रूप लावण्य शालिनी श्यामसुंदर विग्रह श्रीकृष्ण पार्षदा (शतचन्द्रानना) द्वारपाल का कार्य करती थीं। देवताओं को द्वारा के भीतर जाने के लिए उद्यत देख उन्होंने मना किया।

"श्रीदेवा ऊचुः -
लोकपाला वयं सर्वे ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः।
श्रीकृष्णदर्शनार्थाय शक्राद्या आगता इह ॥२१॥

अनुवाद - देवता बोले- हम सभी ब्रह्मा विष्णु शंकर नाम के लोकपाल और इंद्र आदि देवता है भगवान श्री कृष्ण के दर्शन आरती यहां आए हैं।

तच्छ्रुत्वा तदभिप्रायं श्रीकृष्णाय सखीजनाः।
ऊचुर्देवप्रतीहारा गत्वा चान्तःपुरं परम् ॥२२॥

तदा विनिर्गता काचिच्छतचन्द्रानना सखी।
पीतांबरा वेत्रहस्ता सापृच्छद्वाञ्छितं सुरान् ॥ २३ ॥

अनुवाद - २२-२३
देवताओं की बात सुनकर उन सखियों ने जो श्री कृष्ण की द्वारपलकाएं थी, श्रेष्ठ अन्तः पुरमें जाकर देवताओं की बात कह सुनाई। तभी एक सखी जो शतचन्द्रानना नाम से विख्यात थी उनके वस्त्र पीले थे और जो हाथ में बेंत की छड़ी लिए थी, बाहर आयी और उन देवताओं से उनका अभीष्ट प्रयोजन पूछा। २२-२३

श्रीशतचन्द्राननोवाच -
कस्याण्डस्याधिपा देवा यूयं सर्वे समागताः।
वदताशु गमिष्यामि तस्मै भगवते ह्यहम् ॥२४॥

अनुवाद - शतचन्द्रानना बोली - यहां पधारे हुए आप सब देवता कि ब्रह्मांड के अधिपति हैं, यह शीघ्र बताइये। तब मैं भगवान श्री कृष्ण को सूचित करने के लिए उनके पास जाऊंगी। २४

श्रीदेवा ऊचुः -
अहो अण्डान्युतान्यानि नास्माभिर्दर्शितानि च ।
एकमण्डं प्रजानीमोऽथोऽपरं नास्ति नः शुभे ॥ २५ ॥

अनुवाद - तब देवताओं नें कहा - अहो! यह तो बहुत आश्चर्य की बात है, क्या अन्यान्य ब्राह्मण भी हैं ? हमनें तो उन्हें कभी नहीं देखा। शुभे! हम तो यही जानते हैं कि एक ही ब्राह्मण है, इसके अतिरिक्त दूसरा कोई है ही नहीं। २५

श्रीशतचन्द्राननोवाच -
ब्रह्मदेव लुठन्तीह कोटिशो ह्यण्डराशयः।
तेषां यूयं यथा देवास्तथाण्डेऽण्डे पृथक् पृथक् ॥ २६ ॥

नामग्रामं न जानीथ कदा नात्र समागताः ।
जडबुद्ध्या प्रहृष्यध्वे गृहान्नापि विनिर्गताः ॥२७॥

ब्रह्माण्डमेकं जानन्ति यत्र जातास्तथा जनाः ।
मशका च यथान्तःस्था औदुंबरफलेषु वै ॥ २८ ॥

अनुवाद - तब शतचन्द्रानना उन देवताओं से बोली - ब्रह्मदेव! यहां (गोलोक) में करोड़ों ब्राह्मण इधर-उधर लुढ़क रहे हैं। उनमें भी आप जैसे ही पृथक पृथक देवता वास करते हैं। अरे! क्या आप लोग अपना नाम गांव तक नहीं जानते

? जान पड़ता है की कभी यहां आए नहीं है, अपनी थोड़ी सी जानकारी में ही हर्ष से फूल उठे हैं। जान पड़ता है कभी घर से बाहर निकले ही नहीं। जैसे गूलर के फूलों में रहने वाले कीड़े जिस फल में रहते हैं, उसके सिवा दूसरे को नहीं जानते, उसी प्रकार आप जैसे साधारण जन जिसमें उत्पन्न होते हैं, एक मात्र उसी को ब्रह्मांड समझते हैं। २६-२८

श्रीनारद उवाच -
उपहास्यं गता देवा इत्थं तूष्णीं स्थिताः पुनः ।
चकितानिव तान् दृष्ट्वा विष्णुर्वचनमब्रवीत् ॥२९॥

श्रीविष्णुरुवाच -
यस्मिन्नण्डे पृश्निगर्भोऽवतारोऽभूत्सनातन ।
त्रिविक्रमनखोद्‌भिन्ने तस्मिन्नण्डे स्थिता वयम् ॥ ३० ॥

श्रीनारद उवाच -
तच्छ्रुत्वा तं च संश्लाघ्य शीघ्रमन्तःपुरं गता
पुनरागत्य देवेभ्योऽप्याज्ञां दत्त्वा गताः पुरम् ॥३१॥

अथ देवगणाः सर्वे गोलोकं ददृशुः परम् ।
तत्र गोवर्धनो नाम गिरिराजो विराजते ॥३२॥

अनुवाद - २९- ३२
• इस प्रकार उपहास के पात्र बने हुए सब देवता चुपचाप खड़े रहे, कुछ बोल ना सके। तब उन्हें चकित से देखकर भगवान विष्णु ने शतचन्द्रानना से कहा- जिस ब्रह्मांड में भगवान पृश्निगर्भ का सनातन अवतार हुआ है तथा त्रिविक्रम (विराट रूपधारी वामन) के नख से ब्रह्मांड में विवर बन गया है वहीं हम निवास करते हैं। २९-३०
• तब भगवान विष्णु की यह बात सुनकर शतचन्द्रानना ने उनकी भूरी भूरी प्रशंसा की और स्वयं भीतर चली गयी फिर शीघ्र ही आयी और सबको अंतःपुर में पधारने की आज्ञा देकर वापस चली गयी। तदनंतर संपूर्ण देवताओं ने परम सुंदर धाम गोलक का दर्शन किया। वहां गोवर्धन नामक गिरिराज शोभा पर रहे थे। २९-३२

      अतः  उपरोक्त प्रसंग से सिद्ध होता है कि गोपी शतचन्द्रानना जैसी विदुषी की तुलना संपूर्ण ब्रह्मांड में कोई नही कर सकता। इसकी विद्वता के सामने ब्रह्मा, विष्णु, महेश तथा समस्त देवताओं को लज्जित होना पड़ा।

  इस तरह से देखा जाए तो गोप और गोपियां ही एकमात्र धर्मज्ञ ज्ञान से परिपूर्ण सारे कर्म-विधान और फल के नियामक हैं। इनके ही माध्यम से ज्ञान की अविरल धारा संपूर्ण ब्रह्मांड में प्रवाहित होती है। और सारे धार्मिक कर्म विधान इन्हीं के द्वारा संपन्न एवं फलित होते हैं, चाहे वह यज्ञ हो या पूजा पाठ में हवन इत्यादि ही क्यों न हो। और इन्हीं गोप- गोपियों को आधार मानकर ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण के कर्मकाण्डी ब्राह्मण लोग ब्राह्मणत्व कर्म करते हैं। किंतु उनके सभी कर्मफलों व परिणामों में गोपों की ही भूमिका रहती है। इसीलिए गोपों को श्रेष्ठ व धर्मवत्सल जानकर ही गर्गसंगीता के अश्वमेधखंड खंड के अध्याय 60 के श्लोक संख्या 40 में गोपों को पापों से मुक्ति दिलाने वाला कहा गया है-
य: श्रृणोति चरित्रं वै गोलोकारोहणं हरे:।
मुक्तिं यदुनां गोपानां सर्वपापै: प्रमुच्यते।। ४०
        अनुवाद - जो लोग श्री हरि के गोलोक धाम पधारने का चरित्र सुनते हैं, तथा गोप,यादव की मुक्ति का वृतांत पढ़ते हैं, वे यह सब पापों से मुक्त हो जाते हैं।
और ब्राह्मणत्व कर्म का सबसे बड़ा उदाहरण परमात्मा श्री कृष्ण हैं जिन्होंने कुरुक्षेत्र में विराट रूप धारण कर अर्जुन को ज्ञान का वह उपदेश दिया जो अखिल ब्रह्मांड में प्रसिद्ध है, इसे कौन नहीं जानता। भगवान श्री कृष्ण को गोप होने को गोप होने के बारे में विस्तार पूर्वक जानकारी
अध्याय- ८ में दी गई है।
          कुल मिलाकर वैष्णव वर्ण के गोप जिन्हें यादव व अहीर भी कहा जाता है, वे सभी बिना वर्ण विभाजन के आध्यात्मिक व धार्मिक कर्तव्यों को स्वाभाविक रूप से करते हैं। वैष्णव वर्ण के गोप ही अहीर और यादव हैं, इसका विस्तार पूर्वक वर्णन अध्याय- ९ में किया गया है वहां से इस विषय पर जानकारी ली जा सकती है।

              
               [ख] गोपों का क्षत्रित्व कर्म

       वैष्णव वर्ण के गोप- क्षत्रित्व कर्म को निःस्वार्थ एवं निष्काम भाव करते हैं। इसलिए उन्हें क्षत्रियों में माहाक्षत्रिय कहा जाता है। किंतु ध्यान रहे- ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण के क्षत्रियों से इनका कोई लेना देना नहीं है। क्योंकि गोप वैष्णव वर्ण के महाक्षत्रिय है ना कि ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य वर्ण के। इस बात का सबसे बड़ा उदाहरण श्री कृष्ण की नारायणी सेना थी जिसका गठन गोपों को लेकर श्रीकृष्ण द्वारा भूमि का भार हरण के उद्देश्य से ही किया गया था। भगवान श्री कृष्ण सहित इस नारायण सेना का प्रत्येक गोप- सैनिक, क्षत्रियोचित कर्म करते हुए बड़े से बड़े युद्धों में दैत्यों का वध करके भूमि के भार को दूर किया। गोपों को क्षत्रियोचित कर्म करने से ही उन्हें क्षत्रियों में माहाक्षत्रिय कहा जाता है।
      इस सम्बन्ध में भगवान श्री कृष्ण भी क्षत्रियोचित कर्म करने की वजह से ही अपने को क्षत्रिय कहें हैं, न कि ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण के क्षत्रिय वर्ण से। इस बात की पुष्टि-हरिवंश पुराण के भविष्य पर्व के अध्याय-८० के श्लोक संख्या-१० में पिचासों को अपना परिचय देते हुए कहते हैं कि-
क्षत्

रियोऽस्मीति मामाहुर्मनुष्या: प्रकृतिस्थिता:।
यदुवंशे समुत्पन्न: क्षात्रं वृत्तमनुष्ठित:।। १०
    अनुवाद- मैं क्षत्रिय हूं। प्रकृति मनुष्य मुझे ऐसा ही कहते और जानते हैं। यदुकुल में उत्पन्न हुआ हूं, इसलिए क्षत्रियोचित कर्म का अनुष्ठान करता हूं।
  इस उपर्युक्त श्लोक से सिद्ध होता है कि भगवान श्रीकृष्ण क्षत्रियोचित कर्म करने से ही अपने को क्षत्रिय मानते हैं, न कि ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य के जन्मजात क्षत्रियों से। और यह भी ज्ञात हो कि- भगवान श्रीकृष्ण जब भी भूतल पर अवतरित होते हैं तो वे वैष्णव वर्ण के गोप कुल में ही अवतरित होते हैं न कि ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण के जन्मजात क्षत्रिय वर्ण में।  भगवान श्रीकृष्ण खुद गोप हैं। इस बात को इस पुस्तक के अध्याय- ८ जो "भगवान श्री कृष्ण का गोप होना तथा गोप कुल में अवरण" नामक शीर्षक से है, उसमें विस्तार पूर्वक बताया गया है, वहां से इस विषय पर पाठक गण जानकारी ले सकते हैं।
     भगवान श्री कृष्ण के गोपकुल के अन्य सदस्यों की ही भांति नंद बाबा की पुत्री योगमाया- विंध्यवासिनी को भी "क्षत्रिया" होने के सम्बन्ध में हरिवंश पुराण के विष्णु पर्व के अध्याय-तीन के श्लोक-२३ में लिखा गया है कि-
निद्रापि सर्वभूतानां मोहिनी क्षत्रिया तथा ।
विद्यानां ब्रह्मविद्या त्वमोङ्कारोऽथ वषट् तथा ।। २३
         अनुवाद-  समस्त प्राणियों को मोह में डालने वाली निद्रा भी तुम्हीं हो। तुम क्षत्रिय हो, विद्याओं में ब्रह्मविद्या हो तथा तुम ही ॐमकार एवं वषट्कार हो।
     किंतु इस संबंध में यह बात ध्यान रहे कि योगमाया- विंध्यवासिनी क्षत्रित्व कर्म से वैष्णव वर्ण की क्षत्रिया है न कि ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण की।
          कुल मिलाकर वैष्णव वर्ण के गोप क्षत्रियोचित कर्म से क्षत्रिय हैं न कि ब्रह्मा जी की वर्ण व्यवस्था के बनावटी जन्मजात क्षत्रिय। इसलिए उन्हें वैष्णव वर्ण के महाक्षत्रिय कहा जाता है। जो समय-समय पर भूमि का भार दूर करने के लिए तथा पापियों का नाश करने के लिए शास्त्र उठाकर रण-भूमि में कूद पड़ते हैं। इसके उदाहरण हैं - दुर्गा,  गोपेश्वर श्रीकृष्ण, और उनकी नारायणी सेना।
     अब यहां पर कुछ पाठक गणों को अवश्य संशय हुआ होगा कि- गोपों को क्षत्रिय न कहकर महाक्षत्रिय क्यों कहा जाता है ? तो इसका एक मात्र जवाब है कि गोप और उनसे संबंधित सभी सेनाएं जैसे- "नारायणी सेना" अपराजित एवं अजेय है, और उसके प्रत्येक गोप-यादव सैनिकों में लोक परलोक सभी को जीतने शक्ति है। क्योंकि सभी  गोप भगवान श्रीकृष्ण के अंश से उत्पन्न हुए हैं इसलिए उनपर कोई विजय नहीं पा सकता, अर्थात् उसपर देवता, गंधर्व, दैत्य,दानव, मनुष्य आदि कोई भी उनपर विजय नहीं पा सकता इसलिए उन्हें महाक्षत्रिय कहा जाता है। इन सभी बातों की पुष्टि गर्गसंहिता के विश्वजीत खंड के अध्याय-२ के श्लोक संख्या- ७ में भगवान श्री कृष्ण उग्रसेन से स्वयं इन सभी बात की पुष्टि करते हुए कहते हैं कि-
ममांशा यादवा: सर्वे लोकद्वयजिगीषव:।
जित्वारीनागमिष्यन्ति हरिष्यन्ति बलिं दिशाम्।। ७
           अनुवाद - समस्त यादव मेरे अंश से प्रकट हुए हैं। वे लोक, परलोक दोनों को जीतने की इच्छा करते हैं। वे दिग्विजय के लिए यात्रा करके शत्रुओं को जीत कर लौट आएंगे और संपूर्ण दिशाओं से आपके लिए भेंट और उपहार लायेंगे।
          इन सभी बातों से सिद्ध होता है कि भगवान श्री कृष्ण के गोप और उनकी नारायणी सेना अजेय एवं अपराजित है इसीलिए इन गोप कुल के यादवों को क्षत्रिय ही नहीं बल्कि महाक्षत्रिय कहा जाता है।

                   [ग] गोपों का वैश्य कर्म

ब्रह्मा जी के चार वर्णों में तीसरे पायदान पर वैश्य लोग आते हैं। जिनका मुख्य कर्म- व्यवसाय, व्यापार, पशुपालन, कृषि कार्य इत्यादि है। और यह सभी कर्म वैष्णव वर्ण के गोप भी स्वतंत्र रूप से करते हैं इसलिए इन्हें कर्म के आधार पर वैश्य भी कहा जाता है, किंतु ब्रह्मा जी की वर्ण व्यवस्था के ये वैश्य नहीं है। क्योंकि गोपों का वर्ण तो वैष्णव वर्ण है, जो किसी भी कर्म को करने के लिए स्वतंत्र हैं। क्योंकि गोप समय आने पर युद्ध भी करते हैं, समय आने पर ब्राह्मणत्व कर्म करते हुए उपदेश देने का भी कार्य करते हैं, और समय आने पर कृषि कार्य, पशुपालन इत्यादि भी करते हैं। जिसमें ये गोप पशुपालन में  मुख्य रूप से गो-पालन करते हैं, इसलिए लिए भगवान श्रीकृष्ण को गोपाल और समस्त गोपों को गोपालक कहा जाता है। गोपालन कार्य से सम्बन्ध,गोपों सहित भगवान श्री कृष्ण का पूर्व कल से ही रहा है। क्योंकि भगवान श्री कृष्ण के धाम, गोलोक में भूरिश्रृगा गायों का वर्णन-ऋग्वेद के मंडल (१) के सूक्त- 154 की रिचा (6) में मिलता है-
"ता वां वास्तून्युश्मसि गमध्यै यत्र गावो भूरिशृङ्गा अयास:। अत्राह तदुरुगायस्य वृष्ण: परमं पदमव भाति भूरि ॥६
              अर्थात् उपर्युक्त ऋचाओं का सार यही है कि विष्णु का परम धाम वहीं है, जहाँ स्वर्ण युक्त

सींगों वाली गायें रहती हैं, और वे विष्णु  वहाँ गोप रूप में अहिंस्य (अवध्य) हैं, और यहीं स्वराट-विष्णु ही श्रीकृष्ण, वासुदेव, नारायण आदि  नामों से परवर्ती युग में लोकप्रिय हुए हैं।
   इससे सिद्ध होता है कि गोप वैश्य कर्म के अंतर्गत गोपालन करते थे जिसे आज भी परंपरागत रूप से निभाते हैं।
गोप,पशुपालन के साथ-साथ कृषि कर्म भी करते हैं। जिसे ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण के ब्राह्मण और क्षत्रियों के लिए निषिद्ध माना गया है। किंतु गोप, कृषि कर्म को निर्वाध एवं नि:संकोच होकर करते हैं। इस बात की पुष्टि- गर्ग संहिता के गिरिराज खण्ड के अध्याय-६ के श्लोक-२६ में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण नन्द बाबा से कहते हैं कि-
कृषीवला वयं गोपा: सर्वबीजप्ररोहका:।
क्षेत्रे मुक्ताप्रबीजानि विकीर्णीकृतवानहम्।। २६
         अनुवाद- बाबा हमारे गोप किसान हैं, जो खेतों में सब प्रकार के बीज बोया करते हैं। अतः हमने भी खेतों में मोती के बीच बिखेर दिए हैं।
            इससे सिद्ध होता है कि गोप, कुशल कृषक भी है। और इस सम्बन्ध में बलराम जी का हाल धारण करना इस बात का सबसे बड़ा प्रमाण है कि बलराम जी उस युग के सबसे बड़े कृषक रहे होंगे, जो अपने हल से कृषि कार्य के साथ-साथ भयंकर से भयंकर युद्ध भी किया करते थे।
            श्री कृष्ण के पिता वासुदेव जी को भी वैश्य कर्म करने पुष्टि-देवीभागवतपुराण के चतुर्थ स्कंध के अध्याय- २० के श्लोक-६० और ६१ से होती है-
तत्रोत्पन्न: कश्यपांश: शापाच्च वरूणस्य वै।
वसुदेवोऽतिविख्यात: शूरसेनसुतस्तदा।। ६०
वैश्यावृत्तिरत: सोऽभून्मृते पितरि माधव:।
उग्रसेनो बभूवाथ कंसस्तस्यात्मजो महान्।। ६१
              अनुवाद- वहां पर वरुण देव के शापवश महर्षि कश्यप के अंशावतार परम यशस्वी वसुदेव जी सुरसेन के पुत्र होकर उत्पन्न हुए। पिता के मर जाने पर वे वसुदेव जी वैश्यावृत्ति में संलग्न होकर जीवन यापन करने लगे। उस समय वहां के राजा उग्रसेन थे और उनका कंस नामक एक प्रतापी पुत्र था। ६०,६१

       इससे सिद्ध होता है कि वैष्णव वर्ण के अंतर्गत किसी भी कर्म को छोटा या बड़ा नहीं माना गया है। इसी वजह से वैष्णव वर्ण के गोप, वैश्य कर्म करने में गर्व महसूस करते हैं। इसीलिए भगवान श्री कृष्णा भी नंद बाबा से बड़े गर्व के साथ करते हैं कि- बाबा हमारे सभी गोप किसान हैं।

                        [घ] गोपों का शूद्र कर्म।

    देखा जाए तो  ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण में चौथे पायदान पर शूद्र आते हैं, जिनका मुख्य कर्म सेवा करना निश्चित किया गया है। उससे हटकर शूद्र कुछ भी नहीं कर सकते, ऐसा ही उन पर प्रतिबंध लगाया गया है।
किंतु वैष्णव वर्ण में ऐसा कुछ भी नहीं है। क्योंकि वैष्णव वर्ण के गोप, ब्रह्मणत्व, क्षत्रित्व, वैश्य कर्म के साथ- साथ सेवा कर्म को भी नि:संकोच और बड़े गर्व के साथ बिना प्रतिबंध के करते आए हैं। जिसमें गोपों सहित भगवान श्री कृष्ण का भी ऐसा ही स्वभाव देखने को मिलता है। जिसकी वजह से भगवान श्री कृष्णा जब-जब पृथ्वी पर पाप अत्याचार बढ़ता है, तब- तब वे अपने गोपों के साथ वैष्णव वर्ण के गोप कुल में अवतरित होते हैं। यानी पाप और अत्याचार को दूर करने के लिए और समाज सेवा हेतु ही प्रभु भूमि पर अवतरित होते हैं।
    भगवान श्री कृष्ण को सेवा कर्म में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेने की पुष्टि- युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ से होती है, जिसका वर्णन- श्रीमद्भागवत पुराण के दशम स्कंध (उत्तरार्ध ) के अध्याय-७५ के श्लोक- ४,५ और ६ से होती है। जिसमें उस यज्ञ के बारे में लिखा गया है कि-
भीमो महानसाध्यक्षो थानाध्यक्ष: सुयोधन:।
सहदेवस्तु पूजायां नकुलो द्रव्य साधने।। ४
गुरुशुश्रूषणे जिष्णु: कृष्ण: पदावनेजन।
परिवेषणे द्रुपदजा कर्णो दाने महामना:।। ५
युयुधाननो विकर्णश्च हार्दिक्यो विदुरादय:।
बाह्लीकपुत्रा भूर्याद्या ये च सन्तर्दनादय:।। ६

  अनुवाद- भीमसेन भोजनालय की देखभाल करते थे। दुर्योधन कोषाध्यक्ष थे सहदेव अभ्यगतों के स्वागत सत्कार में नियुक्त थे। और नकुल विविध प्रकार की सामग्री एकत्र करने का काम देखते थे। अर्जुन गुरुजनों की सेवा सुश्रुषा करते थे। और स्वयं भगवान श्री कृष्ण, आए हुए अतिथियों के पांव पखारने का काम करते थे। देवी द्रोपदी भोजन परोसने का काम करती थीं। और उदार शिरोमणि कर्ण खुले हाथों दान दिया करते थे। ४,५,६
     इन उपरोक्त श्लोक को यदि अंतरात्मा विचार किया जाए, तो गोपेश्वर श्री कृष्ण समाज सेवा में वह कार्य किये जो ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य के शूद्र किया करते हैं। जबकि भगवान श्री कृष्ण वैष्णव वर्ण के गोप रूप में पांव- पखार कर यह सिद्ध कर दिया कि वैष्णव वर्ण के सदस्य ब्रह्मणत्व, क्षत्रित्व,वैश्य कर्म- के साथ-साथ शूद्र (समाज सेवा) कर्म करने में गर्व महसूस करते हैं। जबकि ब्रह्मा जी की वर्ण व्यवस्था में ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य से शूद्र- (सेवा) कर्म को करना और कराना दोनों ही निंदनीय माना गया है। जबकि वैष्णव वर्ण मे

ं कोई भी कर्म छोटा या बड़ा नहीं माना गया है। इसमें वैष्णव जन निःसंकोच सभी कर्मों को बिना प्रतिबंध के करने की आजादी होती है जो ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य में ऐसा नहीं है।
      
         इसीलिए वैष्णव वर्ण के गोपों की पौराणिक ग्रंथों में भूरी-भूरी प्रशंसा की गई है। उनकी सभी प्रसंशाओं का विस्तार पूर्वक वर्णन इसके अगले अध्याय- (७) में किया गया है। उसे भी इसी अध्याय के साथ जोड़कर पढ़ें।
    इस प्रकार से यह अध्याय-(६) वैष्णव वर्ण के गोपों के प्रमुख कार्यों एवं दायित्वों की जानकारी के साथ समाप्त हुआ।

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