बुधवार, 30 अक्टूबर 2024

दीपावली-

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श्रीकृष्ण और युधिष्ठिर
शिव जी और स्कंद)कार्तिकेय का संवाद
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दीवावली शब्द दीप और अवली _पंक्ति से बना है अर्थात दीप माला।

कारण लिखित पौराणिक  संदर्भ के अनुसार 
दीवाली मनाने का सीधा संबध असुर राजा बलि से है।

शास्त्र के अनुसार इस त्योहार को कौमुदी भी कहते है। कु का मतलब मही अर्थात पृथ्वी और मुदी का अर्थ प्रसन्न रहना।
जिस त्योहार में प्रसन्न रहे है,उसे कौमुदी कहते है।

पौराणिक संदर्भ के अनुसार असुर राजा बलि का त्रैलोक्य पर प्रभुत्व हो गया था। सभी देवता विष्णु जी से इस संदर्भ में कुछ उपाय करने का आग्रह करते है।

राजा बलि खुद *बलि यज्ञ*

करते है तभी विष्णु जी *वामन* के रूप में उस यज्ञ में पहुंचते है। 
वे राजा बलि से दान स्वरूप तीन पग जमीन मांगते है।
दो पग में पृथ्वी और आकाश उनका हो जाता है। तीसरा पग रखने के लिए बलि के अनुसार बलि की पीठ बचती है।,,,,
अंत में विष्णु जी अपने असली रूप में सामने आते है। बलि को पाताल लोक भेज दिया जाता है। 
इंद्र भगवान पुनः स्वर्ग के अधिपति बन जाते है।

विष्णु भगवान अंत में बलि को आशीर्वाद देते है कि वर्ष में
एक दिन आप को लोग दीपदान करेगे। आप की पूजा होगी। तभी से दीपदान,दीवाली ,कौमुदी मनाई जाती है

इस त्योहार में लक्ष्मी की पूजा का विधान भगवान शंकर द्वारा किया गया है।
लक्ष्मी जी चुकी
पार्वती जी  पूजित रही थी,अतः  लक्ष्मी पूजन का विधान इसमें है।

द्युतपूजा /जुआ भी दीपाली का एक अभिन्न अंग है। आज के दिन जो विजेता,प्रसन्न या जो कुछ खाता है,साल भर वैसा ही रहता,चलता ,होता है है।
स्रोत

वामन पुराण पेज 458
भविष्य पुराण ,भाग 535

पदम पुराण,उत्तर खंड  प्रथम
पेज 3152

मंगलवार, 29 अक्टूबर 2024

सहस्रबाहु- ब्रह्मवैवर्त पुराण और लक्ष्मीनारायणी संहिता-



लक्ष्मीनारायणसंहिता में वे श्लोक हैं जो ब्रह्मवैवर्त पुराण गणपतिखण्ड के समान ही हैं।  हम उन्हें प्रस्तुत करते हैं।

लक्ष्मीनारायणसंहिता - खण्ड प्रथम (कृतयुगसन्तानः) अध्यायः (४५८ ) में परशुराम और सहस्रबाहू युद्ध का वर्णन इस प्रकार किया गया है।


"तावत् ध्यातोऽर्जुनगुरुर्दत्तात्रेयः समागतः ।ददौ शूलं हि रामस्य नाशार्थं कृष्णवर्म च ।।८५।।

अनुवाद:-इसी उपरान्त, युद्ध के बीच में  जब  सहस्रबाहु अर्जुन ने गुरु दत्तात्रेय का ध्यान किया, तो उनके आध्यात्मिक गुरु, दत्तात्रेय उसके पास आ गये । उन्होंने परशुराम को मारने के लिए सहस्रबाहु को एक त्रिशूल और कृष्ण द्वारा प्रदत्त की कवच दिया। 85॥

"जग्राह राजा शूलं तश्चिक्षेप रामकन्धरे ।मूर्छामवाप रामः सः पपात श्रीहरिं स्मरन् ।।८६।।

अनुवाद:- तब राजा ने शूल ग्रहण किया और उसे परशुराम के कंधे पर फेंका। तब  परशुरामभगवान श्री हरिका स्मरण करते हुए मूर्छित होकर  गिर पड़े ।।86॥

ब्राह्मणं जीवयामास शम्भुर्नारायणाज्ञया ।चेतनां प्राप्य च रामोऽग्रहीत् पाशुपतं यदा ।।८७।।

अनुवाद:-तब भगवान नारायण के आदेश से,भगवान शिव  ने ब्राह्मण परशुराम को पुनर्जीवित कर दिया  और जब परशुराम को होश आया तो उन्होंने शिव या  पाशुपत अस्त्र  ग्रहण किया।87।

दत्तात्रेयेण दत्तेन सिद्धाऽस्त्रेणाऽर्जुनस्तु तम्।जडीचकार तत्रैव स्तम्भितो राम एव वै ।।८८।।

अनुवाद:-तब  दत्तात्रेय द्वारा दिये गये सिद्ध अस्त्र के द्वारा सहस्रबाहु अर्जुन ने पाशुपत अस्त्र को जड़ करदिया अर्थात् वही रोक दिया और परशुराम को भी रोक दिया( जड़) कर दिया।। 88॥

श्रीकृष्णरक्षितं भूपं ददर्श कृष्णवर्म च ।ददर्शाऽपि भ्रमत्सुदर्शनं रक्षाकरं रिपोः ।।८९।।

अनुवाद:- परशुराम ने भगवान कृष्ण द्वारा संरक्षित राजा और उसके भगवान श्रीकृष्ण द्वारा प्रदत्त  कवच को भी देखा। और यह भी देखा कि

 सुदर्शन चक्र  राजा ( सहस्र बाहु अर्जुन) की शत्रु से रक्षा करने के लिए निरन्तर घूम रहा है । 89।

एतस्मिन्नन्तरे तत्र वाग्बभूवाऽशरीरिणी ।कृष्णस्य कवचं राज्ञो बाहावस्ति तदुत्तमम् ।।1.458.९०।।

अनुवाद:-इसी बीच वहां एक अशरीरी वाणी (आकाशवाणी) हुई  कि  भगवान कृष्ण का सर्वोत्तम कवच राजा की भुजाओं में है। 90॥

रक्षति तन्नृपं शंभुर्याचतु भिक्षया तु तत् ।तदा हन्तुं नृपं शक्तो भार्गवोऽयं भविष्यति।।९१।।

अनुवाद:- वही  राजा की रक्षा कर रहा है । यह आकाशवाणी शिव ने सुनी! तब  शंकर ने परशुराम से कहा ! हे भार्गव!  भिक्षा के द्वारा तुम उस कृष्ण ( विष्णु) के कवच को माँगो! तभी यह  राजा ( सहस्र बाहु अर्जुन ) भविष्य में  मारा जा सकता ।91॥

सन्दर्भ:-

लक्ष्मीनारायणसंहिता - खण़्डः १ (कृतयुगसन्तानः)अध्यायः( ४५८)

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[10/30, 10:03 PM] yogeshrohi📚:

 राजा चिक्षेप दिव्यास्त्रं शतसूर्य्यप्रभं मुने ।।

माहेश्वरेण मुनयश्चिच्छिदुश्चैव लीलया।।१०४।।

दिव्यास्त्रेणैव मुनयश्चिच्छिदुः सशरं धनुः।।

रथं च सारथिं चैव राज्ञः सन्नाहमेव च।।१०५

न्यस्तशस्त्रं नृपं दृष्ट्वा मुनयो हर्षविह्वलाः ।।

दधार शूलिनः शूलं मत्स्यराजजिघांसया ।। १०६ ।।

शूलनिक्षेपसमये वाग्बभूवाशरीरिणी ।।

शूलं त्यजत विप्रेन्द्राः शिवस्याव्यर्थमेव च ।। १०७ ।।

शिवस्य कवचं दिव्यं दत्तं दुर्वाससा पुरा ।।

मत्स्यराजगलेऽस्त्येतत्सर्वावयवरक्षकम् ।। १०८ ।।

प्राणानां च प्रदातारं कवचं याचतं नृपम् ।।

तदा निक्षिप्तशूलं च जघान नृपतिश्चिरम् ।। १०९ ।।


दत्तदत्तं च यच्छूलमव्यर्थं मन्त्रपूर्वकम् ।।

जग्राह राजा परशुरामनाशाय संयुगे ।। १६ ।।

शूलं ददर्श रामश्च शतसूर्य्यसमप्रभम् ।।

प्रलयाग्रिशिखोद्रिक्तं दुर्निवार्यं सुरैरपि ।। १७ ।।

पपात शूलं समरे रामस्योपरि नारद ।।

मूर्च्छामवाप स भृगुः पपात च हरिं स्मरन् ।। १८ ।।

पतिते तु तदा रामे सर्वे देवा भयाकुलाः ।।

आजग्मुः समरं तत्र ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः ।। १९ ।।

शङ्करश्च महाज्ञानी महाज्ञानेन लीलया ।।

ब्राह्मणं जीवयामास तूर्णं नारायणाज्ञया ।। 3.40.२० ।।

भृगुश्च चेतनां प्राप्य ददर्श पुरतः सुरान् ।।

प्रणनाम परं भक्त्या लज्जानम्रात्मकन्धरः ।। २१ ।।

राजा दृष्ट्वा सुरेशांश्च भक्तिनम्रात्मकन्धरः ।।

प्रणम्य शिरसा मूर्ध्ना तुष्टाव च सुरेश्वरान् ।। २२ ।।

तत्राजगाम भगवान्दत्तात्रेयो रणस्थलम् ।।

शिष्यरक्षानिमित्तेन कृपालुर्भक्तवत्सलः ।। २३ ।।

भृगुः पाशुपतास्त्रं च सोऽग्रहीत्कोपसंयुतः ।।

दत्तदत्तेन दृष्टेन बभूव स्तम्भितो भृगुः ।।२४।।

ददर्श स्तम्भितो रामो राजानं रणमूर्द्धनि ।।

नानापार्षदयुक्तेन कृष्णेनाऽऽरक्षितं रणे ।।२५।।

सुदर्शनं प्रज्वलन्तं भ्रमणं कुर्वता सदा ।।

सस्मितेन स्तुतेनैव ब्रह्मविष्णुमहेश्वरैः ।। ।। २६ ।।

गोपालशतयुक्तेन गोपवेषविधारिणा ।।

नवीनजलदाभेन वंशीहस्तेन गायता ।। २७ ।।

एतस्मिन्नन्तरे तत्र वाग्बभूवाशरीरिणी ।।

दत्तेन दत्तं कवचं कृष्णस्य परमात्मनः ।। २८ ।।

राज्ञोऽस्ति दक्षिणे बाहौ सद्रत्नगुटिकान्वितम् ।।

गृहीतकवचे शम्भौ भिक्षया योगिनां गुरौ ।। २९ ।।

तदा हन्तुं नृपं शक्तो भृगुश्चेति च नारद ।।

श्रुत्वाऽशरीरिणीं वाणीं शङ्करो द्विजरूपधृक्।। 3.40.३० ।।

भिक्षां कृत्वा तु कवचमानीय च नृपस्य च ।।

शम्भुना भृगवे दत्तं कृष्णस्य कवचं च यत् ।। ३१ ।।

एतस्मिन्नन्तरे देवा जग्मुः स्वस्थानमुत्तमम् ।।

प्रत्युवाचापि परशुरामो वै समरे नृपम् ।।३२।।

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ब्रह्मवैवर्तपुराणम् | खण्डः ३ (गणपतिखण्डः)

अध्यायः (३९) ब्रह्मवैवर्तपुराणम्


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  • दत्तात्रेयेण दत्तेन सिद्धाऽस्त्रेणाऽर्जुनस्तु तम् । जडीचकार तत्रैव स्तम्भितो राम एव वै।८८।

अर्थ:-परन्तु दत्तात्रेय द्वारा सिद्ध अस्त्र के द्वारा उस पाशुपत अस्त्र को भी कार्तवीर्य ने स्तम्भित(जाम) कर दिया और उसके साथ परशुराम भी स्तम्भित हो गये।८८।

  • श्रीकृष्णरक्षितं भूपं ददर्श कृष्णवर्म च ।ददर्शाऽपि भ्रमत्सुदर्शनं रक्षाकरं रिपोः।८९।

अर्थ:- जब परशुराम ने भगवान श्रीकृष्ण द्वारा रक्षित राजा सहस्रबाहू को देखा और कृष्ण-वर्म ( कृष्ण द्वारा प्रदत्त कवच) को भी परशुराम ने देखा और यह भी देखा कि घूमता हुआ सुदर्शन चक्र इस राजा की शत्रुओं से सदैव रक्षा करने वाला है।८९।

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  • तावत् ध्यातोऽर्जुनगुरुर्दत्तात्रेयः समागतः। ददौ शूलं हि परशुरामस्य नाशार्थं कृष्णवर्म च।८५।।

अर्थ- उसके बाद  कार्तवीर्य अर्जुन ने दत्तात्रेय का ध्यान किया तो उन दत्तात्रेय ने आकर परशुराम के विनाश के लिए  कार्तवीर्य अर्जुन को शूल और कृष्णवर्म (कृष्ण द्वारा प्रदत्त कवच) प्रदान किया।८५।


अब प्रश्न उत्पन्न होता है। कि 

विशेष :- यदि परशुराम विष्णु का अवतरण थे ; तो फिर  विष्णु के ही अंशावतार दत्तात्रेय ने परशुराम के वध के निमित्त सहस्रबाहू को शूल और कृष्ण वर्म क्यों प्रदान किया ?

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  • "जग्राह राजा शूलं तश्चिक्षेप परशुरामकन्धरे।मूर्छामवाप रामः सःपपात श्रीहरिं स्मरन्।८६।

अर्थ:-तब महाराज कार्तवीर्य अर्जुन ने उस रण में परशुराम के वध के लिए दत्तात्रेय द्वारा प्रदत्त शूल का मन्त्र पूर्वक उपयोग (सन्धान) किया , जो कभी भी व्यर्थ ना होने वाला था परशुराम ने उस सैकडो सूर्य के समान कान्तिपूर्ण प्रलय कालीन अग्निशिखा से आप्लायित और देवो के लिये भी दुर्निवार्य उस शूल को देखा हे नारद ! परशुराम के ऊपर वह शूल गिरा, जिससे आघात से भगवान् हरि का नाम लेते हुए परशुराम मूर्छित होकर गिर गये।।८६।

परशुराम के गिर जाने के वाद समस्त देव गण व्याकुल हो गये और कोहराम मच गया , तब ररउस समय युद्ध स्थल में ब्रह्मा विष्णु एवं महेश्वर भी आ गये।१९।

इस विषय में निम्न श्लोक विचारणीय हैं- यदि परशुराम हरि (विष्णु) के अवतार थे तो उन्होंने मूर्च्छित होकर मरते समय विष्णु अथवा हरि का क्यों नाम लिया। यदि वे स्वयं विष्णु के अवतार थे तो इसका अर्थ यही है कि परशुराम हरि अथवा विष्णु का अवतार नही थे।

उन्हें बाद में पुरोहितों ने अवतार बना दिया वास्तव में सहस्रबाहू ने परशुराम का वध कर दिया था।

परन्तु परशुराम का वध जातिवादी पुरोहित वर्ग का वर्चस्व समाप्त हो जाना ही था। इसीलिए इसी समस्या के निदान के लिए पुरोहितों ने ब्रह्मवैवर्त- पुराण में निम्न श्लोक बनाकर जोड़ दिया कि परशुराम को मरने बाद शिव द्वारा जीवित करना बता दिया गया ।

और इस घटना को चमत्कारिक बना दिया गया। यह ब्राह्मण युक्ति थी । परन्तु सच्चाई यही है कि मरने के व़बाद कभी कोई जिन्दा ही नहीं हुआ।

विशेष :- उपर्युक्त श्लोक में कृष्ण रूप में भगवान विष्णु अपने सुदर्शन चक्र से सहस्रबाहू की परशुराम से युद्ध होने पर रक्षा कर रहे हैं तो सहस्रबाहू को परशुराम कैसे मार सकते हैं ।

यदि शास्त्रकार सहस्रबाहू को परशुराम द्वारा मारा जाना वर्णन करते हैं तो भी उपर्युक्त श्लोक में विष्णु को शक्तिहीन और साधारण होना ही सूचित करते हैं जोकि शास्त्रीय सिद्धान्त के सर्वथा विपरीत ही है। जबकि विष्णु सर्वशक्तिमान हैं।

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जिस प्रकार पुराणों में बाद में यह आख्यान जोड़ा गया कि परशुराम ने "गर्भस्थ शिशुओं की हत्या की और क्षत्रियों पत्नीयों कोतक को मार डाला। यह कृत्य करना विष्णु के अवतारी का गुण हो सकता है। ? कभी नहीं।

महाभारत शान्तिपर्व में वर्णन है कि - परशुराम किस प्रकार हैहयवंश के यदुवंशीयों की स्त्रियों के गर्भस्थ शिशुओं की हत्या करते हैं ? यह सर्वविदित ही है। इस सन्दर्भ में देखें निम्न श्लोक

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  • "स पुनस्ताञ्जघान् आशु बालानपि नराधिप गर्भस्थैस्तु मही व्याप्ति पुनरेवाभवत्तदा ।62।
  • "जातंजातं स गर्भं तु पुनरेव जघान ह। अरक्षंश्च सुतान्कान्श्चित्तदाक्षत्रिय योषितः।63।
  • "त्रिःसप्तकृत्वःपृथिवीं कृत्वा निःक्षत्रियां प्रभुः। दक्षिणामश्वमेधान्ते कश्यपायाददत्ततः।64।

सन्दर्भ:-(महाभारत शान्तिपर्व अध्याय- ४८)

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"अर्थ-"नरेश्वर! परशुराम ने पुन: उन सबके छोटे-छोटे शिशुओं तक को शीघ्र ही मार डाला जो बच्चे गर्भ में रह गये थे, उन्हीं से पुनः यह सारी पृथ्वी व्याप्त हो गयी। परशुराम एक एक गर्भ के उत्पन्न होने पर पुनः उसका वध कर डालते थे। उस समय क्षत्राणियाँ कुछ ही पुत्रों को बचा सकीं थी।

राजन् ! तदनन्तर कुछ क्षत्रियों को बचाये रखने की इच्छा से कश्यपजी ने स्रुक् (स्रुवा) लकड़ी की बनी हुई एक प्रकार की छोटी करछी जिससे हवनादि में घी की आहुति देते हैं। उसको लिये हुए हाथ से संकेत करते हुए यह बात कही- मुने ! अब तुम दक्षिण समुद्र के तट पर चले जाओ। अब कभी मेरे राज्य में निवास न करना।

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(ब्रह्मवैवर्त पुराण गणपति खण्ड अध्याय (४०)

में भी वर्णन है कि (२१) बार पृथ्वी से क्षत्रिय को नष्ट कर दिया और उन क्षत्रियों की पत्नीयों के गर्भस्थ शिशुओं की हत्या कर दी ! यह आख्यान भी परशुराम को विष्णु का अवतार सिद्ध नहीं करता-

क्योंकि विष्णु कभी भी निर्दोष गर्भस्थ शिशुओं का वध नहीं करेंगे।

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  • "एवं त्रिस्सप्तकृत्वश्च क्रमेण च वसुन्धराम् । रामश्चकार निर्भूपां लीलया च शिवं स्मरन्।७३।                    
  • "गर्भस्थं मातुरङ्कस्थं शिशुं वृद्धं च मध्यमं जघान क्षत्रियं रामः प्रतिज्ञापालनाय वै।७४।

ब्रह्मवैवर्तपुराण गणपतिखण्ड अध्याय-(40)

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गीताप्रेस- गोरखपुर संस्करण)

महाभारत: वनपर्व:सप्तदशाधिकशततमोऽध्यायः(117) श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद :-

रेणुका स्नान करने के लिए गंगा नदी तट पर गयी। राजन! जब वह स्नान करके लौटने लगी, उस समय अकस्मात उसकी दृष्टी मार्तिकावत देश के राजा चित्ररथ पर पड़ी, जो कमलों की माला धारण करके अपनी पत्नी के साथ जल में क्रीड़ा कर रहा था।

उस समृद्धिशाली नरेश को उस अवस्था में देखकर रेणुका ने उसकी इच्छा की।

उस समय इस मानसिक विकार से द्रवित हुई रेणुका जल में बेहोश-सी हो गयी। फिर त्रस्त होकर उसने आश्रम के भीतर प्रवेश किया। परन्तु ऋषि उसकी सब बातें जान गये। उसे धैर्य से च्युत और ब्रह्मतेज से वंचित हुई देख उन महातेजस्वी शक्तिशाली महर्षि‍ ने धिक्कारपूर्ण वचनों द्वारा उसकी निन्दा की।

इसी समय जमदग्नि के ज्येष्‍ठ पुत्र रुमणवान वहाँ आ गये। फिर क्रमश: सुषेण, वसु और विश्वावसु भी आ पहूंचे।  जमदग्नि ने बारी-बारी से उन सभी पुत्रों को यह आज्ञा दी कि 'तुम अपनी माता का वध कर डालो',

परंतु मातृस्नेह उमड़ आने से वे कुछ भी बोल न सके, बेहोश-से खड़े रहे। तब महर्षि‍ ने कुपित हो उन सब पुत्रों को शाप दे दिया।

शापग्रस्त होने पर वे अपनी चेतना( होश) खो बैठे और तुरन्त मृग एवं पक्षि‍यों के समान जड़-बुद्धि हो गये।

"महाभारत: वनपर्व: अध्‍याय: (११७ )वाँ श्लोक 14-29 का हिन्दी अनुवाद-

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तदनन्तर शत्रुपक्ष के वीरों का संहार करने वाले परशुराम सबसे पीछे आश्रम पर आये। उस समय महातपस्वी महाबाहु जमदग्नि ने उनसे कहा-‘बेटा ! अपनी इस पापिनी माता को अभी मार डालो और इसके लिये मन में किसी प्रकार का खेद न करो। तब परशुराम ने फरसा लेकर उसी क्षण माता का मस्तक काट डाला।

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कालिका पुराण में भी परशुराम और रेणुका की कथा  महाभारत वन पर्व के समान ही है।

"एकदा तस्य जननी स्नानार्थं रेणुका गता।गङ्गातोये ह्यथापश्यन्नाम्ना चित्ररथं नृपम्।८३.८।

अनुवाद:-एक बार परशुराम की माता रेणुका स्नान के लिए गयीं तभी गंगा के जल में स्नान करते हुए चित्ररथ नामक एक राजा को देखा।८।

"भार्याभिः सदृशीभिश्च जलक्रीडारतं शुभम्।सुमालिनं सुवस्त्रं तं तरुणं चन्द्रमालिनम्। ८३.९ ।।

अनुवाद:-

वह अपनी सुन्दर पत्नीयों के साथ शुभ जल क्रीडा में रत था। वह राजा सुन्दर मालाओं सुन्दर वस्त्र से युक्त युवा चन्द्रमा के समान सुशोभित हो रहा था।९।

"तथाविधं नृपं दृष्ट्वा सञ्जातमदना भृशम्। रेणुका स्पृहयामास तस्मै राज्ञे सुवर्चसे। ८३.१० ।

अनुवाद:-

उस प्रकार राजा को देखकर वह रेणुका अत्यधिक काम से पीडित हो गयी और रेणुका ने उस वर्चस्व शाली राजा की इच्छा की।१०।

"स्पृहायुतायास्तस्यास्तु संक्लेदः समजायत।विचेतनाम्भसा क्लिन्ना त्रस्ता सा स्वाश्रमं ययौ। ८३.११ ।।

अनुवाद:-

राजा की इच्छा करती हुई वह रज:स्रवित हो गयी और चेतना हीन रज स्राव के जल से भीगी हुई डरी हुई अपने आश्रम को गयी।।११।

"अबोधि जमदग्निस्तां रेणुकां विकृतां तथा।          धिग् धिक्काररतेत्येवं निनिन्द च समन्ततः। ८३.१२ ।।

अनुवाद:-

उस रेणुका को जमदग्नि ने विकृत अवस्था में जानकर उसकी सब प्रकार से निन्दा की और उस रति पीडिता को धिक्कारा।१२।

"ततः स तनयान् प्राह चतुरः प्रथमं मुनिः।रुषण्वत्प्रमुखान् सर्वानेकैकं क्रमतो द्रुतम्।८३.१३।

अनुवाद:-

तब क्रोधित जमदग्नि ने अपने रुषणवत् आदि चारों पुत्रों से एक एक से कहा। १३।

"छिन्धीमां पापनिरतां रेणुकां व्यभिचारिणीम्।        ते तद्वचो नैव चक्रुर्मूकाश्चासन् जडा इव।८३.१४।

अनुवाद:-

जल्दी ही पाप में निरत इस रेणुका को काट दोलेकिन पुत्र उनकी बात न मान कर मूक और जड़ ही बने रहे।१४।

"कुपितो जमदग्निस्ताञ्छशापेति विचेतसः।   भवध्वं यूयमाचिराज्जडा गोबुद्धिर्गर्द्धिता:।८३.१५। 

अनुवाद:-

क्रोधित जमदग्नि ने उन सबको शाप दिया की सभी जड़ बुद्धि हो जाएं । कि तुम सब सदैव के लिए घृणित जड़ गो बुद्धि को प्राप्त हो जाओ।१५।

अथाजगाम चरमो जामदग्न्येऽतिवीर्यवान् ।।         तं च रामं पिता प्राह पापिष्ठां छिन्धि मातरम्।८३.१६ ।।

अनुवाद:-तभी जमदग्नि के अन्तिम पुत्र शक्तिशाली परशुराम आये जमदग्नि ने परशुराम से कहा पापयुक्ता इस माता को तुम काट दो।१६।

स भ्रातृंश्च तथाभूतान् दृष्ट्वा ज्ञानविवर्जितान्। पित्रा शप्तान् महातेजाः प्रसूं परशुनाच्छिनत्।८३.१७ ।।

अनुवाद:-पिता के द्वारा शापित ज्ञान से शून्य अपने भाइयों को देखकर उस परशुराम ने अपनी माता रेणुका का शिर फरसा से काट दिया ।

"रामेण रेणुकां छिन्नां दृष्ट्वा विक्रोधनोऽभवत्।।जमदग्निः प्रसन्नः सन्निति वाचमुवाच ह।८३.१८ ।।

अनुवाद:-परशुराम के द्वारा कटी हुई रेणुका को देखकर जमदग्नि क्रोधरहित हो गये। और जमदग्नि प्रसन्न होते हुए यह वचन बोले!।१८।

"प्रीतोऽस्मि पुत्र भद्र ते यत् त्वया मद्वचः कृतम्।। ८३.१८- १/२।

अनुवाद:-मैं प्रसन्न हूँ। पुत्र तेरा कल्याण हो ! तू मुझसे कुछ माँग ले!।१९।

"श्रीकालिकापुराणे त्र्यशीतितमोऽध्यायः।८३।

शास्त्रों के कुछ गले और दोगले विधान जो जातीय द्वेष की परिणित थे। -

उनसे प्रभावित पुरोहितों नें पुराणों में कालान्तर में लेखन कार्य जोड़ दिए-

सहस्रबाहूू की कथा को विपरीत अर्थ -विधि से लिखा गया

परशुराम ने कभी भी पृथ्वी से (२१) बार क्षत्रिय हैहयवंशीयों का वध किया ही नहीं।

परन्तु इस अस्तित्व हीन बात को बड़ा- चढ़ाकर बाद में लिखा गया।

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अब प्रश्न यह भी उठता है ! कि जब धर्मशास्त्र इस बात का विधान करते हैंकि ब्राह्मण की चार पत्नीयाँ हो सकती हैं उनमें से दो पत्नीयाँ ब्राह्मणी और क्षत्राणी के गर्भ से ब्राह्मण ही उत्पन्न होगा और शेष दो वैश्याणी और शूद्राणी के गर्भ से जो पुत्र होंगे वे ; ब्राह्मणत्व से रहित माता की जाति के ही समझे जाते हैं --

कि इसी महाभारत के अनुशासन पर्व में दानधर्म नामक उपपर्व के अन्तर्गत (वर्णसंकरकथन) नामक( अड़तालीसवाँ अध्याय) में यह वर्णन है ।

देखें निम्न श्लोक -

  • भार्याश्चतश्रो विप्रस्य द्वयोरात्मा प्रजायते।आनुपूर्व्याद् द्वेयोर्हीनौ मातृजात्यौ प्रसूयत:।४।(महाभारत अनुशासन पर्व का दानधर्म नामक उपपर्व)

कि ब्राह्मण की चार पत्नीयाँ हो सकती हैं उनमें से दो पत्नीयाँ ब्राह्मणी और क्षत्राणी के गर्भ से सन्तान केवल ब्राह्मण ही उत्पन्न होगी !

और शेष दो वैश्याणी और शूद्राणी पत्नीयों के गर्भ से जो सन्तान होंगी वे ; ब्राह्मणत्व से रहित माता की जाति की ही समझी जाएगी --।।४।।

इसी अनुशासन पर्व के इसी अध्याय में वर्णन है कि

  • "तिस्र: क्षत्रियसम्बन्धाद् द्वयोरात्मास्य जायते। हीनवर्णास्तृतीयायां शूद्रा उग्रा इति स्मृति:।७।

अर्थ:-क्षत्रिय से क्षत्रियवर्ण की स्त्री और वैश्यवर्ण की स्त्री में जो पुत्र उत्पन्न होता है ; वह क्षत्रिय वर्ण का होता है।तीसरी पत्नी शूद्रा के गर्भ से हीन वर्ण वाले शूद्र उत्पन्न होते हैं जिन्हें उग्र कहते हैं यह स्मृति (धर्मशास्त्र)का कथन है।७।

(महाभारत अनुशासन पर्व में दानधर्म नामक उपपर्व के अन्तर्गत वर्णसंकरकथन नामक अड़तालीसवाँ अध्याय का सप्तम श्लोक -) (पृष्ठ संख्या- ५६२५) गीता प्रेस का संस्करण)

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         "मनुस्मृति- में भी देखें निम्न श्लोक

यथा त्रयाणां वर्णानां द्वयोरात्मास्य जायते ।आनन्तर्यात्स्वयोन्यां तु तथा बाह्येष्वपि क्रमात् ।।10/28

अर्थ- जिस प्रकार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तीनों वर्णों में से दो में से दो में अपनी समान उत्पन्न होता है उसी तरह आनन्तर (खारिज) जाति में भी क्रम से होता है।१०/२८

न ब्राह्मणक्षत्रिययोरापद्यपि हि तिष्ठतोः ।कस्मिंश्चिदपि वृत्तान्ते शूद्रा भार्योपदिश्यते।। 3/14

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महाभारत के उपर्युक्त अनुशासन पर्व से उद्धृत और आदिपर्व से उद्धृत क्षत्रियों के नाश के वाद क्षत्राणीयों में बाह्मणों के संयोग से उत्पन्न पुत्र- पुत्री क्षत्रिय किस विधान से हुई दोनों तथ्य परस्पर विरोधी होने से क्षत्रिय उत्पत्ति का प्रसंग काल्पनिक व मनगड़न्त ही सिद्ध करते हैं ।

मिध्यावादीयों ने मिथकों की आड़ में अपने स्वार्थ को दृष्टि गत करते हुए आख्यानों की रचना की ---

कौन यह दावा कर सकता है ? कि ब्राह्मणों से क्षत्रिय-पत्नीयों में क्षत्रिय ही कैसे उत्पन्न हुए ?

किस सिद्धान्त की अवहेलना करके ! क्या पुरोहित जो कह दे वही सत्य हो जाएगा ?

"प्रधानता बीज की होती है नकि खेत कीक्यों कि दृश्य जगत में फसल का निर्धारण बीज के अनुसार ही होता है नकि स्त्री रूपी खेत के अनुसार--

सहस्रबाहु की पूजा का विधान ( नारदपुराण-पूर्वाद्ध- में किया गया है।

शास्त्रों में भगवान की पूजा का विधान तो हुआ है दुष्ट या व्यभिचारी की पूजा का विधान तो नहीं हुआ है।

बुद्धिमान कार्तवीर्य अर्जुन की पूजा हनुमान की पूजा से जुड़ी हुई हैं।

विशेष रूप से देवता की पूजा करनी चाहिए और ऊपर बताए अनुसार फल प्राप्त करना चाहिए 75-106।

यह श्री बृहन्नारायण पुराण के पूर्वी भाग में बृहदुपाख्यान के तीसरे भाग का पचहत्तरवाँ अध्याय है, जिसका शीर्षक दीपक की विधि का विवरण है।।75।।

  • अनेन मनुना मन्त्री ग्रहग्रस्तं प्रमार्जयेत् ।।आक्रंदंस्तं विमुच्याथ ग्रहः शीघ्रं पलायते ।। ७५-१०४।
  • मनवोऽमी सदागोप्या न प्रकाश्या यतस्ततः । परीक्षिताय शिष्याय देया वा निजसूनवे । ७५-१०५ ।
  • हनुमद्भजनासक्तः कार्तवीर्यार्जुनं सुधीः ।।  विशेषतः समाराध्य यथोक्तं फलमाप्नुयात् ।। ७५-१०६।

इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पूर्वभागे बृहदुपाख्याने तृतीयपादे दीपविधिनिरूपणं नाम पञ्चसप्ततितमोऽध्यायः ।। ७५ ।।

नारदपुराणम्- पूर्वार्द्ध अध्यायः (७६)

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                  "नारद उवाच।

  • "कार्तवीर्यतप्रभृतयो नृपा बहुविधा भुवि ।जायन्तेऽथ प्रलीयन्ते स्वस्वकर्मानुसारतः ।।१।।

अनुवाद:-देवर्षि नारद कहते हैं ! पृथ्वी पर कार्तवीर्य आदि राजा अपने कर्मानुगत होकर उत्पन्न होते और विलीन हो जाते हैं। १-।

  • तत्कथं राजवर्योऽसौ लोकेसेव्यत्वमागतः।समुल्लंघ्य नृपानन्यानेतन्मे नुद संशयम्।२।

अनुवाद:-तब उन्हीं सभी राजाओं को लाँघकर कार्तवीर्य किस प्रकार संसार में पूज्य हो गये यही मेरा संशय है।

               "सनत्कुमार उवाच"

  • श्रृणु नारद वक्ष्यामि संदेहविनिवृत्तये।      यथा सेव्यत्वमापन्नः कार्तवीर्यार्जुनो भुवि।३।

अनुवाद:-

सनत्कुमार ने कहा! हे नारद ! मैं आपके संशय की निवृति हेतु वह तथ्य कहता हूँ। जिस प्रकार से कार्तवीर्य अर्जुन पृथ्वी पर पूजनीय( सेव्यमान) कहे गये हैं।३।


  • "यः सुदर्शनचक्रस्यावतारः पृथिवीतले।। दत्तात्रेयं समाराध्य लब्धवांस्तेज उत्तमम्।४।

अनुवाद:-

ये पृथ्वी लोक पर सुदर्शन चक्र के अवतार हैं। इन्होंने महर्षि दत्तात्रेय की आराधना से उत्तम तेज प्राप्त किया।४।*******

  • तस्य क्षितीश्वरेंद्रस्य स्मरणादेव नारद ।।शत्रूञ्जयति संग्रामे नष्टं प्राप्नोति सत्वरम् ।।५।।****

अनुवाद:-

हे नारद कार्तवीर्य अर्जुन के स्मरण मात्र से पृथ्वी पर विजय लाभ की प्राप्ति होती है। शत्रु पर युद्ध में विजय प्राप्त होती है। तथा शत्रु का नाश भी शीघ्र ही हो जाता है।५।

  • तेनास्य मन्त्रपूजादि सर्वतन्त्रेषु गोपितम् । तुभ्यं प्रकाशयिष्येऽहं सर्वसिद्धिप्रदायकम् ।६ ।

अनुवाद:-

कार्तवीर्य अर्जुन का मन्त्र सभी तन्त्रों में गुप्त है। मैं सनत्कुमार आपके लिए इसे आज प्रकाशित करता हूँ। जो सभी सिद्धियों को प्रदान करने वाला है।६।

  • वह्नितारयुता रौद्री लक्ष्मीरग्नींदुशान्तियुक्।वेधाधरेन्दुशांत्याढ्यो निद्रयाशाग्नि बिंदुयुक् ।७।
  • पाशो मायांकुशं पद्मावर्मास्त्रे कार्तवीपदम्। रेफोवा द्यासनोऽनन्तो वह्निजौ कर्णसंस्थितौ ।८।
  • मेषः सदीर्घः पवनो मनुरुक्तो हृदंतिमः ।ऊनर्विशतिवर्णोऽयं तारादिर्नखवर्णकः।९ ।
  • दत्तात्रेयो मुनिश्चास्यच्छन्दोऽनुष्टुबुदाहृतम् ।कार्तवीर्यार्जुनो देवो बीजशक्तिर्ध्रुवश्च हृत् ।१०।
  • शेषाढ्यबीजयुग्मेन हृदयं विन्यसेदधः ।शान्तियुक्तचतुर्थेन कामाद्येन शिरोंऽगकम्।११।
  • इन्द्वाढ्यं वामकर्णाद्यमाययोर्वीशयुक्तया ।।शिखामंकुशपद्माभ्यां सवाग्भ्यां वर्म विन्यसेत् ।१२।
  • वर्मास्त्राभ्यामस्त्रमुक्तं शेषार्णैर्व्यापकं पुनः ।हृदये जठरे नाभौ जठरे गुह्यदेशतः ।े१३ ।
  • दक्षपादे वामपादे सक्थ्नि जानुनि जङ्घयोः । विन्यसेद्बीजदशकं प्रणवद्वयमध्यगम् ।।१४ ।।
  • ताराद्यानथ शेषार्णान्मस्तके च ललाटके ।भ्रुवोः श्रुत्योस्तथैवाक्ष्णोर्नसि वक्त्रे गलेंऽसके ।।१५ ।।
  • सर्वमन्त्रेण सर्वांगे कृत्वा व्यापकमादृतः ।।सर्वेष्टसिद्धये ध्यायेत्कार्तवीर्यं जनेश्वरम् ।। १६ ।।

इनका वह मन्त्र उन्नीस अक्षरों का है‌( यह मूल में श्लोक संख्या 7- से 9 तक वर्णित है। इसका मन्त्रोद्धार विद्वान जन करें अत: इसका अनुवाद करना भी त्रुटिपूर्ण होगा इस मन्त्र के ऋषि दत्तात्रेय हैं। छन्द अनुष्टुप् और देवाता हैं कार्तवीर्य अर्जुन " बीज है ध्रुव- तथा शक्ति है हृत् - शेषाढ्य बीज द्वय से हृदय न्यास करें। शन्तियुक्त- चतुर्थ मन्त्रक्षर से शिरोन्यास इन्द्राढ्यम् से वाम कर्णन्यास अंकुश तथा पद्म से शिखान्यास वाणी से कवचन्यास करें हुं फट् से अस्त्रन्यास करें। तथा शेष अक्षरों से पुन: व्यापक न्यास करना चाहिए इसके बाद सर्व सिद्धि हेतु जनेश्वर ( लोगों के ईश्वर) कार्तवीर्य का चिन्तन करें।७-१६।

  • उद्यद्रर्कसहस्राभं सर्वभूपतिवन्दितम् ।।      दोर्भिः पञ्चाशता दक्षैर्बाणान्वामैर्धनूंषि च ।१७ ।।

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  • दधतं स्वर्णमालाढ्यं रक्तवस्त्रसमावृतम् । चक्रावतारं श्रीविष्णोर्ध्यायेदर्जुनभूपतिम् ।१८।

अनुवाद:-

ध्यान :- इनकी कान्ति (आभा) हजारों उदित सूर्यों के समान है। संसार के सभी राजा इनकी वन्दना अर्चना करते हैं। सहस्रबाहु के 500 दक्षिणी हाथों में वाण और 500 उत्तरी (वाम) हाथों में धनुष हैं। ये स्वर्ण मालाधारी तथा रक्वस्त्र( लाल वस्त्र) से समावृत ( लिपटे हुए ) हैं। ऐसे श्री विष्णु के चक्रावतार राजा सुदर्शन का ध्यान करें।१७-१८।

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  • लक्षमेकं जपेन्मन्त्रं दशांशं जुहुयात्तिलैः ।।सतण्डुलैः पायसेन विष्णुपीठे यजत्तुतम् ।१९ ।
  • षट्कोणेषु षडंगानि ततो दिक्षु विविक्षु च ।चौरमदविभञ्जनं मारीमदविभंजनम् ।२०।।
  • अरिमदविभंजनं दैत्यमदविभंजनम् ।।      दुष्टनाशं दुःखनाशं दुरितापद्विनाशकम् ।२१।
  • दिक्ष्वष्टशक्तयः पूज्याः प्राच्यादिष्वसितप्रभाः ।                 क्षेमंकरी वश्यकरी श्रीकरी च यशस्करी ।२२।
  • आयुः करी तथा प्रज्ञाकरी विद्याकरी पुनः।धनकर्यष्टमी पश्चाल्लोकेशा अस्त्रसंयुताः ।२३।

अनुवाद:-ध्यान के उपरांत एक लाख और जप के उपरान्त होम, तिल,  चावल, तथा पायस ( खीर ) से पूजा करके विष्णु पीठ पर इनका पूजन करें । उसके बाद षट्कोण में पूजा करके दिक् विदिक् में षडंगदेवगण की पूजा करें।

इसमें चौरमद नारीमद शत्रुमद दैत्यमद का और दुष्ट का और दु:ख का तथा पाप का नाश होता है।

जिस रावण को वश में करने और परास्त करने के लिए राम ने सम्पूर्ण जीवन दाँव पर लगा दिया था उसी रावण को मात्र पाँच वाणो में परास्त कर बन्दी बना लिया-

  • एवं बध्वा धनुर्ज्यायामुत्सिक्तं पञ्चभिः शरैः। लङ्कायां मोहयित्वा तु सबलं रावणं बलात्।। ४३.३७।                                  
  • निर्जित्य बध्वा चानीय माहिष्मत्यां बबन्ध च। ततो गत्वा पुलस्त्यस्तु अर्जुनं संप्रसादयत्।। ४३.३८।
  • मुमोच रक्षः पौलस्त्यं पुलस्त्येनेह सान्त्वितम्।    तस्य बाहुसहस्रेण बभूव ज्यातलस्वनः।। ४३.३९

एक बार सम्राट सहस्रबाहु अपनी अनेक रानीयों के साथ भ्रमण करते हुए नर्मदा नदी में स्नान करने के लिए उतरे तो स्नान करते हुए एक पत्नी ने उनसे कहा कि क्या वे नर्मदा नदी का जल प्रवाह रोक सकते हैं ।

तो सहस्रबाहु ने पत्नी के कहने पर अपने हजार बाहूओं को फैलाकर नर्मदा नदी का जल प्रवाह रोक दिया इस से नर्मदा नदी का जल इधर उधर बहने लगा उसी कुछ ही दूरी पर रावण शंकर भगवान् की आराधना कर रहा था

उस जल के प्रवाह से उसकी पूजन सामग्री नैवेद्य आदि बह गयी क्रोधित रावण कारण का पता लगाते हुए सहस्रबाहु के पास पहुँच कर उससे युद्ध करने लगा तभी सहस्रबाहु ने अपने पाँच वाणों से ही परास्त कर रावण को बन्धी बना लिया था और दश वर्ष पर्यन्त अपने कारागार में रखा

तब रावण के पितामह विश्रवा के पिता पुलस्त्य वहाँ आये और रावण को मुक्त करने के लिए सहस्र बाहु से निवेदन किया सहस्रबाहु ने पुलस्त्य के उस निवेदन को स्वीकार करके रावण को मुक्त कर दिया।

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मत्स्यपुराण अध्याय- (43)

यदुवंशवर्णन के अन्तर्गत सहस्रबाहु का वर्णन-

  •  दत्तमाराधयामास कार्तवीर्य्योऽत्रिसम्भवम्।तस्मै दत्तावरास्तेन चत्वारः पुरुषोत्तम। ४३.१५।

कार्तवीर्य ने जब दतात्रेय की आराधना की तो अत्रि के पुत्र दत्तात्रेय ने उनको चार वरदान दिए-१५।  

  • पूर्वं बाहुसहस्रन्तु स वव्रे राजसत्तमः।        अधर्मं चरमाणस्य सद्भिश्चापि निवारणम्।४३.१६

पहले उसको कहने पर हजार बाहु दीं और जो संसासार में अधर्म है उसका निवारण करे का वरदान दिया।१६।

  • युद्धेन पृथिवीं जित्वा धर्मेणैवानुपालनम्।     संग्रामे वर्तमानस्य वधश्चैवाधिकाद् भवेत्। ४३.१७।

युद्ध में पृथ्वी जीतकर धर्म से उसका पालन करो और संग्राम में वर्तमान रहने पर वध तुमसे शक्ति शाली ही कर सकता है।१७।

  • तेनेयं पृथिवी सर्वा सप्तद्वीपा सपर्वता।समोदधिपरिक्षिप्ता क्षात्रेण विधिना जिता। ४३.१८ ।

तुम्हारे द्वारा सम्पूर्ण पृथ्वी और सातद्वीप, पर्वतों सहित, समुद्र  क्षत्रिय धर्म की विधि सबको जीत लिया जाय।१८।

  • जज्ञे बाहुसहस्रं वै इच्छत स्तस्य धीमतः। रथो ध्वजश्च सञ्जज्ञे इत्येवमनुशुश्रुमः।४३.१९ ।                                              
  • दशयज्ञसहस्राणि राज्ञा द्वीपेषु वै तदा।      निरर्गला निवृत्तानि श्रूयन्ते तस्य धीमतः। ४३.२०।                                              
  • सर्वे यज्ञा महाराज्ञस्तस्यासन् भूरिदक्षिणाः।सर्वेकाञ्चनयूपास्ते सर्वाः काञ्चनवेदिकाः। ४३.२१।                         
  • सर्वे देवैः समं प्राप्तै र्विमानस्थैरलङ्कृताः।गन्धर्वैरप्सरोभिश्च नित्यमेवोपशोभिताः। ४३.२२।                                               
  • तस्य यो जगौ गाथां गन्धर्वो नारदस्तथा।कार्तवीर्य्यस्य राजर्षेर्महिमानं निरीक्ष्य स: ४३.२३।                                               
  • न नूनं कार्तवीर्य्यस्य गतिं यास्यन्ति क्षत्रियाः।यज्ञैर्दानै स्तपोभिश्च विक्रमेण श्रुतेन च। ४३.२४।                                  
  • स हि सप्तसु द्वीपेषु, खड्गी चक्री शरासनी।रथीद्वीपान्यनुचरन् योगी पश्यति तस्करान्।। ४३.२५।                             
  • पञ्चाशीतिसहस्राणि वर्षाणां स नराधिपः। स सर्वरत्नसम्पूर्ण श्चक्रवर्त्ती बभूव ह।४३.२६।                                               
  • स एव पशुपालोऽभूत् क्षेत्रपालः स एव हि  स एव वृष्ट्या पर्जन्यो योगित्वादर्ज्जुनोऽभवत्।४३.२७।                  
  • योऽसौ बाहु सहस्रेण ज्याघात कठिनत्वचा।  भाति रश्मिसहस्रेण शारदेनैव भास्करः। ४३.२८।                      
  • एष नागं मनुष्येषु माहिष्मत्यां महाद्युतिः।कर्कोटकसुतं जित्वा पुर्य्यां तत्र न्यवेशयत्। ४३.२९।                                              
  • एष वेगं समुद्रस्य प्रावृट्काले भजेत वै।    क्रीड़न्नेव सुखोद्भिन्नः प्रतिस्रोतो महीपतिः।। ४३.३०।                                                
  • ललता क्रीड़ता तेन प्रतिस्रग्दाममालिनी।  ऊर्मि भ्रुकुटिसन्त्रा सा चकिताभ्येति नर्म्मदा।। ४३.३१।                                    
  • एको बाहुसहस्रेण वगाहे स महार्णवः।करोत्युह्यतवेगान्तु नर्मदां प्रावृडुह्यताम्।। ४३.३२।                                                
  • तस्य बाहुसहस्रेणा क्षोभ्यमाने महोदधौ।भवन्त्यतीव निश्चेष्टाः पातालस्था महासुराः।। ४३.३३।                               
  • चूर्णीकृतमहावीचि लीन मीन महातिमिम्।   मारुता विद्धफेनौघ्ज्ञ मावर्त्ताक्षिप्त दुःसहम्। ४३.३४।                                 
  • करोत्यालोडयन्नेव दोः सहस्रेण सागरम्।मन्दारक्षोभचकिता ह्यमृतोत्पादशङ्किताः। ४३.३५।                                              
  • तदा निश्चलमूर्द्धानो भवन्ति च महोरगाः।    सायाह्ने कदलीखण्डा निर्वात स्तिमिता इव। ४३.३६।                                      
  • एवं बध्वा धनुर्ज्यायामुत्सिक्तं पञ्चभिः शरैः। लङ्कायां मोहयित्वा तु सबलं रावणं बलात्। ४३.३७।                                 
  • निर्जित्य बध्वा चानीय माहिष्मत्यां बबन्ध च।ततो गत्वा पुलस्त्यस्तु अर्जुनं संप्रसादयत्। ४३.३८।                             
  • मुमोच रक्षः पौलस्त्यं पुलस्त्येनेह सान्त्वितम्।      तस्य बाहुसहस्रेण बभूव ज्यातलस्वनः।४३.३९।

अनुवाद:-और इस प्रकार धनुष पर प्रत्यञ्ज्या चढ़ाकर केवल पाँच वाणों से लंका में मोहित करके बल पूर्वक रावण को जीत कर और बंधी बनाकर महिष्मती में कारागार में डाल दिया तब जाकर पुलस्त्य ऋषि ने सहस्रबाहु को प्रसन्न कर के उस रावण को छुड़ाया-। सहस्रबाहु की हजार भुजाओं के द्वारा प्रत्यञ्चा का महान शब्द हुआ।३७-३८-३९।

विशेष :- रावण सहस्रबाहू के कारागार में दशवर्ष पर्यन्त बन्धी रहा-

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मत्स्यपुराण अध्याय (43)

यदुवंशवर्णन के अन्तर्गत सहस्रबाहु का वर्णन सहस्रार्जुन जयंती कार्तिक शुक्ल पक्ष की सप्तमी को मनाई जाती है। सहस्रार्जुन की कथाएं, महाभारत एवं वेदों के साथ सभी पुराणों में प्राय: पाई जाती हैं। चंद्रवंश के हैहय के कुल में हुआ।  महाराज कार्तवीर्य अर्जुन (सहस्रार्जुन) का जन्म कार्तिक मास में शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि को श्रावण नक्षत्र में प्रात: काल के मुहूर्त में हुआ था। वह भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी के द्वारा जन्म कथा का वर्णन भागवत पुराण में लिखा है। अत: सभी अवतारों के भांति वह भी भगवान विष्णु के चौबीसवें अवतार माने गए हैं, इनके नाम से भी पुराण संग्रह में सहस्रार्जुन पुराण के तीन भाग हैं।

यह भी धारणा मानी जाती है कि इस कुल वंश ने सबसे ज्यादा 12000 से अधिक वर्षो तक सफलता पूर्वक शासन किया था। श्री राज राजेश्वर सहस्त्रबाहु अर्जुन का जन्म महाराज हैहय के दसवीं पीढ़ी में माता पद्मिनी के गर्भ से हुआ था, राजा कृतवीर्य के संतान होने के कारण ही इन्हें कार्तवीर्य अर्जुन और भगवान दत्तात्रेय के भक्त होने के नाते उनकी तपस्या कर मांगे गए सहस्त्र बाहु भुजाओं के बल के वरदान के कारन उन्हें सहस्त्रबाहु अर्जुन भी कहा जाता है।

पूजा विधि-

सहस्रार्जुन विष्णु के चौबीसवें अवतार हैं, इसलिए उन्हें उपास्य देवता मानकर पूजा जाता है। कार्तिक शुक्ल पक्ष की सप्तमी की सहस्रार्जुन जयंती एक पर्व और उत्सव के रूप में मनाई जाती है। हिंदू धर्म संस्कृति और पूजा-पाठ के अनुसार स्नानादि से निवृत हो कर ब्रत का संकल्प करें और दिन में उपवास अथवा फलाहार कर शाम में सहस्रार्जुन का हवन-पूजन करे तथा उनकी कथा सुनें।

पुराण में कथा-वर्णन-

श्रीमद भागवत पुराण के अनुसार चंद्रवंशीय क्षत्रिय शाखा में महाराज ययाति से श्री राज राजेश्वर सहस्रबाहु का इतिहास प्रारंभ होता है,

महाराज ययाति की दो रानियाँ देवयानी व शर्मिष्ठा से पांच पुत्र उत्पन्न हुए इसमें यदु सबसे बड़े पुत्र सहस्रजित के पुत्र हैहय की शाखा में कार्तवीर्य अर्जुन का जन्म हुआ ।

कार्तवीर्यार्जुन ने परशुराम का वध किया कि परशुराम ने कार्तवीर्यार्जु का वध किया, इसकी सच्चाई का पता दोनों के बीच हुए युद्धों के निष्पक्ष विश्लेषण करने से ही लगाया जा सकता है। क्योंकि  इसमें बहुत घाल मेल किया गया है। दोनों के बीच हुए युद्धों का वर्णन ब्रह्मवैवर्त पुराण के गगपतिखण्ड के अध्याय - ४० के के कुछ श्लोकों से होती है। जिसको नीचे उद्धरित किया जा रहा है -



श्लोक ✍️


पतिते तु सहस्राक्षे कार्तवीर्य्यार्जुनः स्वयम्।।

आजगाम महावीरो द्विलक्षाक्षौहिणीयुतः।।३।।


सुवर्णरथमारुह्य रत्नसारपरिच्छदम् ।।

नानास्त्रं परितः कृत्वा तस्थौ समरमूर्द्धनि।।४।।


समरे तं परशुरामो राजेन्द्रं च ददर्श ह ।।

रत्नालंकारभूषाढ्यै राजेन्द्राणां च कोटिभिः ।।५।।


रत्नातपत्रभूषाढ्यं रत्नालंकारभूषितम् ।।

चन्दनोक्षितसर्वांगं सस्मितं सुमनोहरम् ।। ६ ।।


राजा दृष्ट्वा मुनीन्द्रं तमवरुह्म रथादहो ।।

प्रणम्य रथमारुह्य तस्थौ नृपगणैः सह ।। ७ ।।


ददौ शुभाशिषं तस्मै रामश्च समयोचितम् ।।

प्रोवाच च गतार्थं तं स्वर्गं गच्छेति सानुगः।।८।।


उभयोः सेनयोर्युद्धमभवत्तत्र नारद।

पलायिता रामशिष्या भ्रातरश्च महाबलाः ।।

क्षतविक्षतसर्वाङ्गाः कार्त्तवीर्य्यप्रपीडिताः।।९।


नृपस्य शरजालेन रामः शस्त्रभृतां वरः ।।

न ददर्श स्वसैन्यं च राजसैन्यं तथैव च ।। 3.40.१० ।।


चिक्षेप रामश्चाग्नेयं बभूवाग्निमयं रणे ।।

निर्वापयामास राजा वारुणेनैव लीलया ।।११।।


चिक्षेप रामो गान्धर्वं शैलसर्पसमन्वितम् ।।

वायव्येन महाराजः प्रेरयामास लीलया ।१२।


चिक्षेप रामो नागास्त्रं दुर्निवार्य्यं भयंकरम् ।।

गारुडेन महाराजः प्रेरयामास लीलया ।।१३।


माहेश्वरं च भगवांश्चिक्षेप भृगुनन्दनः ।।

निर्वापयामास राजा वैष्णवास्त्रेण लीलया ।। १४ ।।


ब्रह्मास्त्रं चिक्षिपे रामो नृपनाशाय नारद ।।

ब्रह्मास्त्रेण च शान्तं तत्प्राणनिर्वापणं रणे ।। १५ ।।


दत्तदत्तं च यच्छूलमव्यर्थं मन्त्रपूर्वकम् ।।

जग्राह राजा परशुरामनाशाय संयुगे ।। १६ ।।


शूलं ददर्श रामश्च शतसूर्य्यसमप्रभम् ।।

प्रलयाग्रिशिखोद्रिक्तं दि रि नि वाक्य सुरैरपि ।। १७ ।।


पपात शूलं समरे रामस्योपरि नारद ।।

मूर्च्छामवाप स भृगुः पपात च हरिं स्मरन् ।। १८ ।।


पतिते तु तदा रामे सर्वे देवा भयाकुलाः ।।

आजग्मुः समरं तत्र ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः ।।१९।


शङ्करश्च महाज्ञानी महाज्ञानेन लीलया ।।

ब्राह्मणं जीवयामास तूर्णं नारायणाज्ञया ।। 3.40.२० ।।


भृगुश्च चेतनां प्राप्य ददर्श पुरतः सुरान् ।।

प्रणनाम परं भक्त्या लज्जानम्रात्मकन्धरः ।। २१ ।।


राजा दृष्ट्वा सुरेशांश्च भक्तिनम्रात्मकन्धरः ।।

प्रणम्य शिरसा मूर्ध्ना तुष्टाव च सुरेश्वरान् ।।२२।


तत्राजगाम भगवान्दत्तात्रेयो रणस्थलम् ।।

शिष्यरक्षानिमित्तेन कृपालुर्भक्तवत्सलः ।२३।


भृगुः पाशुपतास्त्रं च सोऽग्रहीत्कोपसंयुतः ।।

दत्तदत्तेन दृष्टेन बभूव स्तम्भितो भृगुः ।।२४।।


ददर्श स्तम्भितो रामो राजानं रणमूर्द्धनि ।।

नानापार्षदयुक्तेन कृष्णेनाऽऽरक्षितं रणे ।।२५।।


सुदर्शनं प्रज्वलन्तं भ्रमणं कुर्वता सदा ।।

सस्मितेन स्तुतेनैव ब्रह्मविष्णुमहेश्वरैः ।।२६।


******

गोपालशतयुक्तेन गोपवेषविधारिणा ।।

नवीनजलदाभेन वंशीहस्तेन गायता ।२७।


एतस्मिन्नन्तरे तत्र वाग्बभूवाशरीरिणी ।।

दत्तेन दत्तं कवचं कृष्णस्य परमात्मनः ।। २८ ।।


राज्ञोऽस्ति दक्षिणे बाहौ सद्रत्नगुटिकान्वितम् ।।

गृहीतकवचे शम्भौ भिक्षया योगिनां गुरौ ।। २९ ।।


तदा हन्तुं नृपं शक्तो भृगुश्चेति च नारद ।।

श्रुत्वाऽशरीरिणीं वाणीं शङ्करो द्विजरूपधृक्।। 3.40.३० ।।


भिक्षां कृत्वा तु कवचमानीय च नृपस्य च।।

शम्भुना भृगवे दत्तं कृष्णस्य कवचं च यत् ।। ३१।।


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रामस्ततो राजसैन्यं ब्रह्मास्त्रेण जघान ह ।।

नृपं पाशुपतेनैव लीलया श्रीहरिं स्मरन् ।। ७२ ।।


अनुवाद- 

• सहस्राक्ष के गिर जाने पर महाबली कार्तवीर्यार्जुन दो लाख अक्षौहिणी सेना के साथ स्वयं युद्ध करने के लिए आया। वह रत्ननिर्मित खोल से आच्छादित स्वर्णमय रथ पर सवार हो अपने चारों ओर नाना प्रकार के अस्त्रों को सुसज्जित करके रणके मुहाने पर डटकर खड़ा हो गया। 

• इसके बाद वहां दोनों सेनन में युद्ध होने लगा तब परशुराम के शिष्य तथा उसके महाबली भाई कार्तवीर्य से पीड़ित होकर भाग खड़े हुए। उस समय उनके सारे अंग घायल हो गए थे। राजा के बाणसमूह से अच्छादित होने के कारण शास्त्रधारियों में श्रेष्ठ परशुराम को अपनी तथा राजा की सेना ही नहीं दिख रही थी।

• फिर तो परस्पर घोर दिव्यास्त्रों का प्रयोग होने लगा। अंतमें राजा (कार्तवीर्य) ने दत्तात्रेय के दिए हुए अमोघ शूल को यथाविधि मंत्रों का पाठ करके परशुराम पर छोड़ दिया।

• उस सैकड़ों सूर्य के समान प्रभावशाली एवं प्रलयाग्नि की शिखा के सदृश शूल के लगते ही परशुराम धराशायी हो गये।

• तदनंतर भगवान शिव ने वहां जाकर परशुराम को पुनर्जीवनदान दिया (पुनः जीवित किया)।

• इसी समय वहां युद्ध स्थल में भक्तवत्सल कृपालु भगवान दत्तात्रेय अपने शिष्य (कार्तवीर्य) की रक्षा करने के लिए आ पहुंचे।

• फिर परशुराम ने क्रुद्ध होकर पाशुपतास्त्र हाथ में लिया, परंतु दत्तात्रेय की दृष्टि पड़ने से वह (परशुराम) रणभूमि में स्तम्भित (जड़वत्) हो गये।


• तब रण के मुहाने पर स्तंभित हुए परशुराम ने देखा कि जिनके शरीर की कांति नूतन जलधार के सदृश्य है, जो हाथ में वंशी लिए बजा रहे हैं, सैकड़ो गोप जिनके साथ हैं, जो मुस्कुराते हुए प्रज्वलित सुदर्शन चक्र को निरन्तर घुमा रहे हैं और अनेकों पार्षदों से गिरे हुए हैं, एवं ब्रह्मा, विष्णु, और महेश्वर जिनका स्तवन कर रहे हैं, वे गोपवेषधारी श्रीकृष्ण युद्ध क्षेत्र में राजा (कार्तवीर्य) की रक्षा कर रहे हैं।

• इसी समय वहां यूं आकाशवाणी हुई - दत्तात्रेय के द्वारा दिया हुआ परमात्मा श्री कृष्ण का कवच उत्तम रतन की गुटका के साथ राजा की दाहिनी भुजा पर बंधा हुआ है, अतः योगियो के गुरु शंकर भिक्षारूप से जब उस कवच को मांग लेंगे, तभी परशुराम राजा कार्तवीर्यार्जुन का वध करने में समर्थ हो सकेंगे।


*****

• नारद! उस आकाशवाणी को सुनकर शंकर ब्राह्मण का रूप धारण करके राजा सहस्र बाहु को पास गए और राजा से याचना करके उसका कवच मांग लाये। फिर शंभू ने श्री कृष्ण का वह कवच परशुराम को दे दिया । (३ से लेकर 

३१ तक के)  श्लोकों का अनुवाद-


• तत्पश्चात परशुराम ने श्री हरि का स्मरण करते हुए ब्रह्मास्त्र द्वारा राजा की सेना का सफाया कर दिया और फिर लीलापूर्वक पशुपतास्त्र का प्रयोग करके राजा कार्तवीर्यार्जुन की जीवन लीला समाप्त कर दी।७२।

     

         ( 👇 नीचे के श्लोक केवल जानकारी के लिए अनुवाद करना आवश्यक है। इस अनुवाद को यहां नहीं रखा जाएगा। जरूरत के हिसाब से इसकी आवश्यकता पड़ेगी इसलिए इसका अनुवाद करना आवश्यक है ) 


"कालस्य कालः श्रीकृष्णः स्रष्टुः स्रष्टा यथेच्छया।।

संहर्ता चैव संहर्तुः पातुः पाता परात्परः।।४७।।


महास्थूलात्स्थूलतमः सूक्ष्मात्सूक्ष्मतमः कृशः ।।

परमाणुपरः कालः कालस्स्यात्कालभेदकः ।। ४८ ।।


यस्य लोमानि विश्वानि स पुमांश्च महाविराट् ।।

तेजसा षोडशांशश्च कृष्णस्य परमात्मनः ।।४९।।


ततः क्षुद्रविराड् जातः सर्वेषां कारणं परम् ।।

यः स्रष्टा च स्वयं ब्रह्मा यन्नाभिकमलोद्भवः ।। 3.40.५० ।।


नाभेः कमलदण्डस्य योऽन्तं न प्राप यत्नतः ।।

भ्रमणाल्लक्षवर्षं च ततः स्वस्थानसंस्थितः ।।५१।।


तपश्चक्रे ततस्तत्र लक्षवर्षं च वायुभुक् ।।

ततो ददर्श गोलोकं श्रीकृष्णं च सपार्षदम् ।। ।। ५२ ।।


गोपगोपीपरिवृतं द्विभुजं मुरलीधरम् ।।

रत्नसिंहासनस्थं च राधावक्षस्थलस्थितम् ।। ५३ ।।


दृष्ट्वाऽनुज्ञां गृहीत्वा च प्रणम्य च पुनः पुनः ।।

ईश्वरेच्छां च विज्ञाय स्रष्टुं सृष्टिं मनो दधे ।। ५४ ।।


यः शिवः सृष्टिसंहर्त्ता स च स्रष्टुर्ललाटजः ।।

विष्णुः पाता क्षुद्रविराट् श्वेतद्वीपनिवासकृत् ।।५५।


सृष्टिकारणभूताश्च ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः ।।

सन्ति विश्वेषु सर्वेषु श्रीकृष्णस्य कलोद्भवाः ।।५६।।


तेऽपि देवाः प्राकृतिकाः प्राकृतश्च महाविराट् ।।

सर्वप्रसूतिः प्रकृतिः श्रीकृष्णः प्रकृतेः परः ।।५७।।


न शक्तः परमेशोऽपि तां शक्तिं प्रकृतिं विना ।।

सृष्टिं विधातुं मायेशो न सृष्टिर्मायया विना ।।५८ ।।


सा च कृष्णे तिरोभूय सृष्टिसंहारकारके ।।

साऽऽविर्भूता सृष्टिकाले सा च नित्या महेश्वरी ।।५९।।


कुलालश्च कटं कर्तुं यथाऽशक्तो मृदं विना।।

स्वर्णं विना स्वर्णकारः कुण्डलं कर्तुमक्षमः ।। 3.40.६० ।।


सा च शक्तिः सृष्टिकाले पञ्चधा चेश्वरेच्छया ।।

राधा पद्मा च सावित्री दुर्गा देवी सरस्वती ।। ६१ ।।


प्राणाधिष्ठातृदेवी या कृष्णस्य परमात्मनः ।।

प्राणाधिकप्रियतमा सा राधा परिकीर्त्तिता ।६२ ।।



ऐश्वर्य्याधिष्ठातृदेवी सर्वमङ्गलकारिणी ।।

परमानन्दरूपा च सा लक्ष्मीः परिकीर्त्तिता ।।६३।।



           ,👇

[• परात्पर श्री कृष्ण उस काल के- काल हैं और स्वेच्छानुसार सृष्टि रचयिता के स्रष्टा, संहार कर्ता के संहारक और पालन करनेवाले के पालक है। जो महान स्थूल से स्थूलतम, सूक्ष्म से सूक्ष्मतम कृश, परमाणुपरक काल, कालभेदक काल है। सारे विश्व जिनके रोयें हैं। वह महाविराट पुरुष तेज में परमात्मा श्री कृष्ण के सोलहवें  अंश के बराबर है, जिनसे क्षूद्र विराट उत्पन्न हुआ है, जो सबका उत्कृष्ट कारण है। जो स्वयं स्रष्टा है और ब्रह्मा जिनके नाभिकमल से उत्पन्न हुए हैं।

• श्वेतदीप निवासी क्षूद्र विराटविष्णु पालनकर्ता हैं। सृष्टि के कारण भूत ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर सभी विश्वों में श्रीकृष्ण की कला से उत्पन्न हुए हैं। प्रकृति (राधा) सबको जन्म देने वाली है और श्री कृष्ण प्रकृति से परे हैं मायापति महेश्वर भी उसे प्रकृति रूपिणी शक्ति (राधा)के बिना सृष्टि का विधान करने में समर्थ नहीं है क्योंकि माया बिना सृष्टि की रचना नहीं हो सकती, वह परमेश्वरी माया नित्य है वह सृष्टि संहार और पालन करता श्री कृष्ण में छिपी रहती है और सृष्टि रचना के समय प्रकट हो जाती है, जैसे मिट्टी के बिना कुमार घड़ा नहीं बन सकता और स्वर्ण के बिना स्वर्णकार कुंडल का निर्माण करने में असमर्थ है (उसी तरह स्रष्टा माया के बिना सृष्टि रचना नहीं कर सकते) वह शक्ति ईश्वर की इच्छा से सृष्टि कल में राधा, पद्मा, सावित्री, दुर्गा देवी, और सरस्वती नाम से पांच प्रकार की हो जाती है। परमात्मा श्री कृष्ण की जो प्राणाधिष्ठात्री देवी है। वह प्राणों से भी बढ़कर प्रियतमा राधा कही जाती है ।


जो संपूर्ण मंगलो को संपन्न करने वाली परमानंद रूप तथा ऐश्वर्या की अधिष्ठात्री देवी है।वह लक्ष्मी कही जाती है।


 ४७ से ६३ तक को श्लोकों का अनुवाद- उपर्युक्त रूप से है।


सोमवार, 28 अक्टूबर 2024

अध्याय-(११) [भाग-१]यदु का परिचय एवं यादवंश का उदय तथा उसके प्रमुख सदस्यपति।


अध्याय-(११)  [भाग-१] 

यदु का परिचय एवं यादवंश का उदय तथा उसके प्रमुख सदस्यपति।

                         यदु (YADU)

                          ________



महाराज यदु , यादवों के आदि पुरुष या कहें, पूर्वज थे। इस बात को श्रीकृष्ण भी स्वीकार करते हुए श्रीमद्भागवत महापुराण के (११)वें स्कंध के अध्याय - (७) के श्लोक- (३१) में कहते हैं कि -
 
  यदुनैवं  महाभागो  ब्रह्मण्येन   सुमेधसा।
  पृष्टः सभाजितः प्राह प्रश्रयावनतं द्विजः।। ३१।

अनुवाद-  हमारे "पूर्वज महाराज यदु" की बुद्धि शुद्ध थी और उनके हृदय में ब्रह्मज्ञानीयों के प्रति-भक्ति थी। ३१।

अब ऐसे में जब महाराज "यदु" यादवों के पूर्वज है, तब यदु के बारे में और विस्तार से जानना आवश्यक हो जाता है कि यदु कौन हैं, तथा "यदु" नाम की सार्थकता क्या है ? तथा यदु शब्द की  उत्पत्ति कब और कैसे हुई ? इत्यादि इन सभी बातों का समाधान इस अध्याय में किया गया है।

यदु शब्द की उत्पत्ति वैदिक कालीन है। सम्भवतः इसी कारण से लौकिक संस्कृत में यदु शब्द मूलक 'यद्' धातु प्राप्त नहीं होती है। 
इसी लिए संस्कृत भाषा के कोशकारों और व्याकरणविदों ने यदु शब्द की व्युत्पत्ति यज्-धातु से निर्धारित की हैं।  जिससे यदु शब्द की व्युत्पत्ति पुल्लिंग रूप में होती है। जैसे -

संस्कृत भाषा में  'यज् धातु (अर्थात् क्रिया का मूल +  उणादि  प्रत्यय (उ ) को जोड़ने पर- 'पृषोदर प्रकरण' के नियम से "जस्य दत्वं"  अर्थात् "ज वर्ण का "द वर्ण में रूपान्तरण होने से यदु शब्द बनता है।
 [ ज्ञात हो- पाणिनीय व्याकरण में  "पृषोदरादीनि  एक पारिभाषिक शब्द है। पृषोदरादीनि यथोपदिष्टम्' 
(६.३.१०८)  इस पाणिनीय सूत्र से यज्- धातु के अन्तिम वर्ण  "जकार को दकार" आदेश हो जाने से ही यदु शब्द बनता है। ]
       
ये तो रही यदु शब्द की ब्युत्पत्ति अब हमलोग जानेंगे यदु शब्द के अर्थ को -

जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है कि यदु शब्द की व्युत्पत्ति "यज्" धातु से हुई है, जिसमें यज् धातु के तीन अर्थ प्रसिद्ध हैं। 
[यज् = देवपूजा,सङ्गतिकरण,दानेषु ]
          
इसको साधारण भाषा में इस तरह से समझा जा सकता है -
यज् = १- यजन करना।
          २- न्याय (संगतिकरण) करना।
          ३- दान करना।
विदित हो की यादवों के आदि पुरुष यदु में उपरोक्त तीनों ही प्रवृत्तियों का मौलिक रूप से समावेश था। जैसे- महाराज यदु -
(१)-  हिंसा से रहित नित्य वैष्णव यज्ञ किया करते थे।
(२)-वे  सबका यथोचित न्याय किया करते थे।
(३)- और वे दान के क्षेत्र में निर्धन तथा भिक्षुओं को बहुत सी गायें भी दान करते थे। इन तीनों गुणकारी कार्यों से उनकी मेधा (बुद्धि ) भी प्रखर हो गयी थी। 

तभी तो भगवान श्रीकृष्ण श्रीमद्भागवत पुराण के ११वें स्कन्ध के अध्याय (७) के श्लोक- श्लोक- ३१ में उद्धव जी से कहते हैं कि
             'श्रीभगवानुवाच।
यदुनैवं महाभागो ब्रह्मण्येन सुमेधसा।
पृष्टः सभाजितः प्राह प्रश्रयावनतं द्विजः ।३१।

अनुवाद:-
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—उद्धव! हमारे पूर्वज महाराज यदु की बुद्धि शुद्ध थी और उनके हृदय में ब्राह्मज्ञानीयों के प्रति-भक्ति थी।

उन्होंने परमभाग्यवान् दत्तात्रेयजी का अत्यन्त सत्कार करके यह प्रश्न पूछा और बड़े विनम्रभाव से सिर झुकाकर वे उनके सामने खड़े हो गये थे।३१।
                
महाराज यदु के इन्हीं सब विशेषताओं के कारण ऋग्वेद के दशम मण्डल की सूक्त- ६२ की ऋचा-१०
में ऋषियों ने उनकी भूरी-भूरी प्रशंसा की है। ऋग्वेद की वह ऋचा नीचे उद्धृत है -
"उत दासा परिविषे स्मद्दिष्टी गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च मामहे"
     
अनुवाद:- और वे दोनों यदु और तुर्वसु दास -( दाता/ दानी ) तथा कल्याण कारी दृष्टि वाले, स्नान आदि क्रियाओं से युक्त होकर नित्य  गायों का पालन पोषण और दान भी करते हैं। हम उनकी स्तुति करते हैं। (ऋ०१०/६२/१०)
            
          
ऋग्वेद की उपरोक्त ऋचा का सम्यग्भाष्य- करने पर यदु के सम्पूर्ण चरित्रों का बोध होता है। सम्यग्भाष्य के लिए नीचे देखें -
१- उत = अत्यर्थेच  अपि च। और भी
२- स्मद्दिष्टी कल्याणादेशिनौ। वे दोनों कल्याण कारी दृष्टि वाले ।
३- गोपरीणसा गोपरीणसौ गोभिः परिवृतौ बहुगवादियुक्तौ । गायों से घिरे हुए अथवा गायें जिनके चारो ओर हैं।
४- दासा = दासतः दानकुरुत: =  दान करने वाले वे दोनों (यदु और तुर्वसु)।
    
 (ज्ञात हो- "दासा" बहुवचन शब्द है जो यदु  
  और तुर्वसु के लिए प्रयुक्त  है।

दास - शब्द वैदिक काल में ही अपने उच्च अर्थों में प्रतिष्ठित था।
ययाति ने भगवान विष्णु से यह वरदान माँगा कि 
              

                     "राजोवाच-
यदि त्वं देवदेवेश तुष्टोसि मधुसूदन ।
दासत्वं देहि सततमात्मनश्च जगत्पते।८०।

  
अनुवाद- राजा (ययाति) ने कहा ! हे देवों के स्वामी हे जगत के स्वामी ! यदि तुम प्रसन्न हो तो मुझे अपना शाश्वत दासत्व (वैष्णव- भक्ति) दो। ८०।।
५- गोपरीणसा= गवां परीणसा बहुभावो यमो बहुगोमन्तौ =
गायों से घिरे हुए वे दोंनो यदु और तुर्वसु। (इसके साथ ही यहां यह भी सिद्ध होता है कि यदु गोपालक अर्थात गोप थे।)

 [ वैदिक शब्द निघण्टु में "दासा"    
  द्विवचन में दाता का वाचक है। ३।१]

पाणिनीय धातुपाठ में "दास्" धातु = दान करना अर्थ में है।
दास्= दाने सम्प्रदाने + अच् । दास:= दाता। 
अच्' प्रत्यय का 'अ' लगाकर कर्तृबोधक शब्द बनाया जाता हैं।

 महामहे का ही (वेैदिक रूप "मामहे" ) है।
अत: दास शब्द भी वैदिक काल में दाता 
 ( दानी ) के अर्थ में चरितार्थ था।

किंतु समय परिवर्तन के साथ-साथ दास शब्द के अर्थ में उसी तरह परिवर्तन हुआ जैसे वैदिक काल में घृणा शब्द के अर्थ मै  परिवर्तन हुआ ।
घृणा शब्द वैदिक काल में  दया भाव का वाचक था किन्तु आज घृणा शब्द का अर्थ नफ़रत हो गया है।।
          
ठीक उसी तरह से वैदिक काल के दास शब्द के  अर्थ में भी बड़ी तेजी से परिवर्तन हुआ। ज्ञात हो कि वैदिक काल में दास शब्द का अर्थ - दाता था।
 
उस समय दास शब्द एक प्रतिष्ठा और सम्मान का पद था। इसी लिए उस समय ऋषिगण भी दासों की स्तुतियां और प्रशंसा किया करते थे।

जैसा कि ऋग्वेद के दशम मण्डल की सूक्त- ६२ की ऋचा-१० में यदु और तुर्वसु को दास (दाता) के रूप में स्तुतियां की गई है। इस बात को ऊपर बताया जा चुका है।

       
वहीं दास शब्द अपने विकास क्रम में आते-आते पौराणिक काल में वैष्णव वाचक के रूप में स्थापित हुआ। इस बात की पुष्टि - पद्मपुराण के भूमि खण्ड अध्यायः(८३) से होती से होती है। 

जिसमें दास शब्द वैष्णव वाचक के रूप में प्रयुक्त हुआ है। इस प्रसंग में दासत्व प्राप्ति के लिए ययाति वैष्णव राजा भगवान विष्णु से वर मांगते हैं हे प्रभु मुझे दासत्व प्रदान करो!। इसके लिए देखें निम्नलिखित श्लोक-

                   "विष्णूवाच-
"वरं वरय राजेन्द्र यत्ते मनसि वर्तते।
तत्ते ददाम्यसन्देहं मद्भक्तोसि महामते ।।७९।।


अनुवाद:- भगवान विष्णु नें कहा - हे राजाओं के स्वामी! वर माँगो जो तुम्हारे मन नें स्थित है। वह सब तुमको मैं दुँगा तुम मेरे भक्त हो।।७९।।

                     राजोवाच-
यदि त्वं देवदेवेश तुष्टोसि मधुसूदन ।
दासत्वं देहि सततमात्मनश्च जगत्पते।८०।

  
अनुवाद- 
राजा (ययाति) ने कहा ! हे देवों के स्वामी हे जगत के स्वामी ! यदि तुम प्रसन्न हो तो मुझे अपना शाश्वत दासत्व (वैष्णव- भक्ति) दो। ८०।।

                 'विष्णुरुवाच-
एवमस्तु महाभाग मम भक्तो न संशयः ।
लोके मम महाराज स्थातव्यमनया सह ।८१।।


अनुवाद:- विष्णु ने कहा- ऐसा ही हो तू मेरा भक्त हो इसमें सन्देह नहीं। अपनी पत्नी के साथ तुम मेरे लोक में निवास करो। ८१।।

यदि उपरोक्त श्लोक-८१ को देखा जाए तो उसमें एक शब्द (दासत्वं ) आया है जिसका अर्थ है- दासत्व अर्थात वैष्णव भक्त, यानी उस समय जो वैष्णव (विष्णु) भक्त थे, वे अपने को दास कहलाना ही श्रेयस्कर समझता थे। और जन-समुदाय में उसकी पहचान दास के रूप में ही थी। जैसे - तुलसीदास, सूरदास रैदास  इत्यादि इसके उदाहरण हैं।।

किंतु यहीं दास शब्द मध्यकाल में पुरोहित वाद की चपेट में आकर शूद्र और असुर का पर्याय बन गया। इसी समय के दास शब्दार्थ के आधार पर कुछ अज्ञनी लोग यादवों के पुर्वज यदु को  दास अथवा शूद्र  कहते हैं। जबकि उन्हें यह ज्ञात नहीं है कि जब यदु शूद्र थे, तो उनकी स्तुति ऋषियों के द्वारा क्यों की गई ? क्या पुरोहितवादी व्यवस्था में कोई ऋषि कभी शूद्र की स्तुति नही करता था  ?  जबाब होगा नहीं। अतः मध्यकाल के दास के अर्थ में यदु को शूद्र कहना सरासर ग़लत है।
        
और वैसे भी देखा जाए तो गोपों (यादवों) का वर्ण "वैष्णव" है। अतः इनको ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य के ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इत्यादि किसी एक में गोपों स्थापित करना सिद्धांत विहीन होगा क्योंकि ब्रह्मा जी की वर्ण व्यवस्था सिद्धांत के अनुसार ब्राह्मण- ब्रह्मा जी के मुख से, क्षत्रिय- भुजा से, वैश्य - उदर से, और शूद्र - पैर से उत्पन्न होते हैं। जबकि गोप और गोपियां गोलोक में श्री कृष्ण और श्री राधा के रोमकूपों से उत्पन्न होते हैं। अतः गोप ब्रह्मा जी की सृष्टि रचना के भाग नहीं है, और जब ये ब्रह्मा जी की सृष्टि रचना के भाग नहीं है, तो इनको ब्रह्मा जी के चातुर्वण्य में शूद्र या और कुछ कहना निराधार होगा।
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पूर्व- वैदिक काल में इसका अर्थ दाता अथवा दानी से था। स्मृतियों के लेखन काल  में ब्राह्मी वर्ण व्यवस्था में दास शब्द  शूद्र का वाचक बन गया  और आज दास का अर्थ धार्मिक जगत में वैष्णव सन्तों का वाचक है। ज सूरदास , कबीरदास , मलूकदास और तुलसीदास आदि - वैष्णव सन्तों मैं दास पदवी का प्रचलन ययाति के द्वारा हुआ।

जब राजा ययाति ने भगवान विष्णु से वरदान माँगा तो उन्होंने स्वयं को विष्णु का दासत्व पाने का  का ही वर माँगा। 

                    "राजोवाच
"यदि त्वं देवदेवेश तुष्टोसि मधुसूदन ।
दासत्वं देहि सततमात्मनश्च जगत्पते।८०।
अनुवाद:-
राजा ने कहा ! हे देवों के स्वामी हे जगत के स्वामी! यदि तुम प्रसन्न हो तो मुझे अपना शाश्वत दासत्व( वैष्णव- भक्ति) दो। ८०।

"पद्मपुराण -(भूमिखण्डः)अध्यायः (८३)
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इस बात को विस्तार पूर्वक इस पुस्तक के अध्याय- (५) में बताया जा चुका है कि कैसे गोप ब्रह्मा जी के चातुर्वण्य से अलग वैष्णव वर्ण के सदस्य हैं।

         
अब वहीं दास शब्द अपने विकास क्रम को पूरा करते हुए आधुनिक समय में आकर "नौकर" (servant) के अर्थ में प्रयुक्त होने लगा। जिसका कुछ सम्मान जनक शब्द नौकरी (job) है।  चाहे वह नौकर (सरकारी हो या प्राइवेट) किंतु कर्म के अनुसार वह निश्चित रूप से दास ही है। जिसमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र बिना भेदभाव के यह कर्म (job) करते हैं। यह बड़ी अच्छी बात है कि दास शब्द वर्तमान समय में सबके लिए बिना भेदभाव के समभाव को प्राप्त हो गया है।

इसलिए अब दास शब्द को लेकर बहुत ज्यादा उतावले होने की जरूरत नहीं है। आप कबीर दास या सूरदास को ही याद कर लो !
                    
यादवों के पूर्वज यदु का जीवन प्रारंभ से ही संघर्षमय रहा। यदु के संघर्षों की कहानी उनके घर से ही प्रारंभ होती है। जिसका वर्णन कुछ इस प्रकार है -
यदु के पिता ययाति की कुल तीन पत्नियां- देवयानी, शर्मिष्ठा, और अश्रुबिन्दुमती नाम  की थीं। उनमें से दो पत्नियों से कुल पांच यशस्वी पुत्र हुए। जिसमें शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी से दो पुत्र - यदु और तुर्वसु तथा दैत्यराज विषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा से तीन पुत्र - द्रुह्य, अनु,और पुरु हुए।

ययाति की तीसरी पत्नी अश्रुबिन्दुमती सदैव पुत्रहीन रही। राजा ययाति अपने पांच पुत्रों में ज्येष्ठ पुत्र यदु को शाप देकर राज्यपद से वंचित कर पशुपालक होने का शाप दिया और  सबसे छोटे पुत्र पुरु को राजपद दिया। इस बात की पुष्टि - लक्ष्मीनारायणसंहिता/खण्डः( ३ )अध्याय- (७३) के श्लोक (७५-७६) से होती है। जिसमें लिखा गया है कि-

"श्रुत्वा राजा शशापैनं राज्यहीनः सवंशजः।
तेजोहीनः क्षत्रधर्मवर्जितः पशुपालकः।। ७५।


भविष्यसि न सन्देहो याहि राज्याद् बहिर्मम।
इत्युक्त्वा च पुरुं  प्राह  शर्मिष्ठाबालकं  नृपः।७६।


 अनुवाद- यह सुनकर राजा ने उसे श्राप दे दिया और उसने अपने वंशजो सहित राज्य को छोड़ दिया वह यदु राजकीय तेज से हीन और राजकीय क्षत्र धर्म से रहित पशुपालन से जीवन निर्वाह करने लगे।७५।।

पुनः राजा ने कहा तुम्हारे वंशज कभी राजतन्त्र की प्रणाली से राजा नहीं होंगे इसमें सन्देह नहीं हेै। यदु ! मेरे राज्य से बाहर चले जाओ। इस प्रकार कहकर राजा (ययाति) ने पुरू से कहा शर्मिष्ठा के बालक पुरु तुम राजा बनोगे। ७६।

यहीं से यदु के जीवन का कठिन दौर प्रारंभ हुआ।
पिता के शाप और राजपद से वंचित "यदु" ने अपने पूर्वजों की तरह ही गोपालन से अपना जीविकोपार्जन करना प्रारंभ किया और कठिन से कठिन परिस्थितियों को दरकिनार करते हुए अपने पौरुष से राजतंत्र के विकल्प में मुक्त प्रजातंत्र की स्थापना की और प्रजातांत्रिक ढंग से राजा बनकर अपने वंश एवं कुल का विस्तार कर जगत में कीर्तिमान स्थापित किया।

ध्यान रहे - राजा ययाति नें यदु को यह शाप दे रखा था कि- तुम्हारे वंशज कभी राजतन्त्र की प्रणाली से राजा नहीं होंगे। अतः यदु के सामने यह एक बहुत बड़ी समस्या थी। और समस्या ही आविष्कार की जननी होती है। अतः यदु नें राजतंत्र के विकल्प में प्रजातंत्र की खोज लिया और प्रजातांत्रिक तरीके से वे राजा हुए। इसीलिए यदु को प्रजातंत्र( गणतन्त्र) का जनक माना जाता है।
              
आगे चलकर इसी यदु से समुद्र के समान विशाल यादवंश का उदय हुआ। जिसके सदस्यपत्तियों को यादव कहा जाता है। इस संबंध में यदि देखा जाए तो जिस तरह से ब्रह्मन् शब्द में अण् प्रत्यय लगाने से ब्राह्मण शब्द की उत्पत्ति होती है, वैसे ही यदु नें अण् प्रत्यय पश्चात लगाने पर  यादव शब्द की भी उत्पत्ति होती है। 

 [यदोरपत्यम् " इति यादव- अर्थात् यदु शब्द के अन्त में सन्तान वाचक संस्कृत अण्- प्रत्यय लगाने से यादव शब्द की उत्पत्ति होती है। (यदु + अण् = यादव:) जिसका अर्थ है यदु की सन्तानें अथवा वंशज।]

यदु के संघर्षमय जीवन में हमसफ़र के रूप में यदु की पत्नी यज्ञवती हुई। जो यदु नाम के अनुरूप ही जगत में विख्यात थी। जो कभी गोलोक में सुशीला गोपी नाम से प्रसिद्ध थी। वही कालान्तर में यज्ञपुरुष की पत्नी दक्षिणा के रूप में भू-तल पर अवतरित हुई। जिसमें यदु और यज्ञवती का विष्णु और दक्षिणा के अंश से उत्पन्न होने का प्रकरण पौराणिक है। 

जिसका वर्णन-देवीभागवतपुराण-‎ स्कन्धः नवम के अध्याय (४५) तथा ब्रह्मवैवर्त्त महापुराण के प्रकृतिखण्ड के बयालीसवें अध्याय में  मिलता है।

 और इस प्रकरण का विस्तार पूर्वक वर्णन इस को सहवर्ती ग्रन्थ "श्री कृष्ण गोपेश्वरस्य पञ्चंवर्णं "में किया गया है। वहां से पाठकगण यदु पत्नी यज्ञवती के बारे में विशेष जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।

आगे चलकर यदु और उनकी पत्नी यज्ञवती से प्रमुख चार धर्मवत्सल पुत्र पैदा हुए। जिनके क्रमशः नाम हैं - सहस्रजित, क्रोष्टा, नल, और रिपु। जिसमें सहस्रजित यदु के ज्येष्ठ पुत्र थे।
महाराज यदु के चार पुत्रों का वर्णन अन्य पुराणों तथा  श्रीमद्भागवत पुराण के स्कंघ- ९ के अध्याय- २३ में भी मिलता है। उसके लिए कुछ श्लोक नीचे प्रस्तुत है -

वर्णयामि महापुण्यं सर्वपापहरं नृणाम् ।
यदोर्वंशं नरः श्रुत्वा सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥१९॥

यत्रावतीर्णो भगवान् परमात्मा नराकृतिः ।
यदोः सहस्रजित्क्रोष्टा नलो रिपुरिति श्रुताः ॥२०॥

चत्वारः सूनवस्तत्र शतजित् प्रथमात्मजः ।
महाहयो रेणुहयो हैहयश्चेति तत्सुताः ॥२१॥

धर्मस्तु हैहयसुतो नेत्रः कुन्तेः पिता ततः ।
सोहञ्जिरभवत् कुन्तेः महिष्मान् भद्रसेनकः॥२२॥


अनुवाद- महाराज यदु का वंश परम पवित्र और मनुष्यों के समस्त पापों को नष्ट करने वाला है। जो मनुष्य इसका श्रवण करता है वह समस्त पापों से मुक्त हो जाता है।१९।

इस वंश में स्वयं भगवान परब्रह्म श्री कृष्ण ने मनुष्य के रूप में अवतार लेते  हैं।। यदु के चार पुत्र थे- सहस्रजित, क्रोष्टा, नल, और रिपु। सहस्रजित से शतजित का जन्म हुआ। शतजित के तीन पुत्र थे - महाहय, वेणुहय, और हैहय। ।२०-२१।

       
इस प्रकार से यह अध्याय- ११ का भाग-(१) यदु के सम्पूर्ण चरित्रों व पुत्रों इत्यादि की सामान्य जानकारी के साथ समाप्त हुआ। 
इसके अगले भाग-(२) में विस्तार से जानकारी दी गई है कि यदु के ज्येष्ठ पुत्र सहस्रजित से हैहय वंशी यादवों की उत्पत्ति कब और कैसे हुई। जिसमें  सहस्राजित के वंशज सहस्रबाहू  अर्जुन के बारे में विशेष जानकारी दी गई है।

शनिवार, 26 अक्टूबर 2024

यदु शब्द की उत्पत्ति वैदिक कालीन है।

यदु शब्द की उत्पत्ति वैदिक कालीन है। लौकिक संस्कृत  में यदु शब्द मूलक 'यद्' धातु प्राप्त नहीं होती है। इसी लिए संस्कृत भाषा के  कोशकारों और व्याकरणविदों ने यदु शब्द की व्युत्पत्ति यज्-धातु से निर्धारित की हैं।  जिससे यदु शब्द  पुल्लिंग रूप में व्युत्पन्न होता है। 

जैसे  [संस्कृत भाषा में  'यज् धातु (अर्थात् क्रिया का मूल +  उणादि  प्रत्यय (उ ) को जोड़ने पर -पृषोदर प्रकरण के नियम से    "जस्य दत्वं"  अर्थात् "ज वर्ण का "द वर्ण में रूपान्तरण होने से यदु शब्द  बनता है।

पाणिनीय व्याकरण में  पृषोदरादीनि  एक पारिभाषिक शब्द है।

पृषोदरादीनि यथोपदिष्टम्' (६.३.१०८)  इस पाणिनीय सूत्र  से  यज्- धातु के अन्तिम वर्ण  "जकार को दकार" आदेश हो जाने से यदु शब्द बनता है। 


यदु का अर्थ है  - यजन करने वाला।
यज् = देवपूजा,सङ्गतिकरण,दानेषु यज् धातु के तीन अर्थ प्रसिद्ध हैं।

यज् = १-यजन करना- २-न्याय (संगतिकरण) करना और ३-दान करना ।

विदित हो की यादवों के आदि पुरुष यदु में तीनों ही प्रवृत्तियों का मौलिक समावेश था। 

वे हिंसा से रहित वैष्णव यज्ञ भी करते थे । सबका यथोचित न्याय भी करते थे। और दान के क्षेत्र में वे निर्धन तथा भिक्षुओं को बहुत सी गायें भी दान करते थे। इन तीनों गुणकारी कार्यों से उनकी मेधा प्रखर हो गयी थी । तभी तो भगवान श्रीकृष्ण ने
भागवत पुराण के एकादश स्कन्ध के सप्तम अध्याय में स्वयं  उद्धव जी से कहा हैं - 

             'श्रीभगवानुवाच।
यदुनैवं महाभागो ब्रह्मण्येन सुमेधसा।
पृष्टः सभाजितः प्राह प्रश्रयावनतं द्विजः ।३१।

अनुवाद:-
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—उद्धव! हमारे पूर्वज महाराज यदु की बुद्धि शुद्ध थी और उनके हृदय में ब्राह्मज्ञानीयों के प्रति-भक्ति थी। उन्होंने परमभाग्यवान् दत्तात्रेयजी का अत्यन्त सत्कार करके यह प्रश्न पूछा और बड़े विनम्रभाव से सिर झुकाकर वे उनके सामने खड़े हो गये थे।३१।

श्रीमद्भागवत पुराण स्कन्ध (11) अध्याय (7) श्लोक संख्या-(31)
______________________

ऋग्वेद की एक ऋचा में इनके दान कर्म के लिए इन्हें वैदिक सन्दर्भ के प्राचीनत्तम  दास शब्द से सम्बोधित किया गया है।  दास का अर्थ  वैदिक काल में "दाता " होता था। इसी सन्दर्भ में  यदु और तुर्वसु की  वैदिक ऋषि ने  स्तुति और प्रशंसा भी की है।

जैसे ऋग्वेद की निम्नलिखित ऋचा में देखे-
__
"उत दासा परिविषे स्मद्दिष्टी गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च मामहे ॥१०॥
अनुवाद:- और वे दोनों दास ( दाता)  कल्याण कारी दृष्टि वाले 
स्नान आदि क्रियाओं से युक्त होकर नित्य  गायों का पालन पोषण करते है और दान करते हैं हम उनकी स्तुति करते हैं। १०/६२/१०


"-भाष्य"
(स्मद्दिष्टी) =प्रशस्त कल्याण वा दर्शनौ दृष्टौ “स्मद्दिष्टीन्= कल्याण कारी दृष्टि वाले  द्विवचन ।

 प्रशस्तदर्शनान्” [ऋ० ६।६३।९] (गोपरीणसा)= गवां परीणसा बहुभावो यमो बहुगोमन्तौ = गायों से घिरे हुए वे दोंनो यदि और तुर्वसु। “परीणसा= बहुनाम” [ वैदिक शब्द निघण्टु में दासा द्विवचन में दाता का वाचक है। ३।१]

 (दासा)= दातारौ “दासृ= दाने” [भ्वादि०] “दासं= दातारम्” [ऋ० ७।१९।२ ] 



(उत )= अपि तस्य =ज्ञानदातुः (परिविषे) =स्नान-सेवायै योग्यौ भवतः “विष सेचने सेवायाम् च ” [भ्वादि०] (यदुः-तुर्वः-च एतयो: नाम्नो: गोपभ्याम् (मामहे)= स्तुमहे। ॥१०॥
__________

दासा शब्द द्विवचन में "यदु और "तुर्वसु के लिए आया है। और वैदिक निघण्टु में दास का अर्थ दानी, और रक्षक ( त्राता) है।

अत: इस शब्द का अर्थ भी निघण्टु को अधिगत करके ही करना चाहिए- न कि दास मध्यकालीन सन्दर्भ में !

 क्यों वैदिक काल में घृणा शब्द दया का वाचक था तो आज घृणा का अर्थ नफरत है।


 उपर्युक्त ऋचा पर सम्यग्भाष्य- निम्नलिखित है।
( १-“उत = अत्यर्थेच  अपि च।
२-"स्मद्दिष्टी कल्याणादेशिनौ ।
३-“गोपरीणसा गोपरीणसौ गोभिः परिवृतौ बहुगवादियुक्तौ 
४-(“दासा =दासतः दानकुरुत: =जो दौनों दान करते हैं। 

पाणिनीय धातुपाठ में दास्=दान करना। अर्थ में है ।दास्= दाने सम्प्रदाने + अच् । दास:= दाता।अच्' प्रत्यय का 'अ' लगाकर कर्तृबोधक शब्द बनाये जाते हैं।

 महामहे का ही (वेैदिक रूप "मामहे" है।)
अत: दास शब्द भी वैदिक काल में दाता ( दानी ) के अर्थ नें चरितार्थ था।

परन्तु कई उतार चढ़ावों के बाद दास शब्द  यह  आज वैष्णव का वाचक हो गया ।
पद्मपुराण के भूमि खण्ड में दास वैष्णव का वाचक है।
देखें निम्नलिखित श्लोक-

            ' विष्णूवाच!
वरं वरय राजेन्द्र यत्ते मनसि वर्तते।
तत्ते ददाम्यसन्देहं मद्भक्तोसि महामते ।७९।

अनुवाद:- हे राजाओं के स्वामी ! वर माँगो जो तुम्हारे मन नें स्थित है।
वह सब तुमको दुँगा 
तुम मेरे भक्त हो!।७९।

              "राजोवाच
यदि त्वं देवदेवेश तुष्टोसि मधुसूदन ।
दासत्वं देहि सततमात्मनश्च जगत्पते।८०।

अनुवाद:-
राजा ने कहा ! हे देवों के स्वामी हे जगत के स्वामी! यदि तुम प्रसन्न हो तो मुझे अपना शाश्वत दासत्व( वैष्णव- भक्ति) दो। ८०।

            'विष्णुरुवाच-
एवमस्तु महाभाग मम भक्तो न संशयः ।
लोके मम महाराज स्थातव्यमनया सह ।८१।

अनुवाद:- विष्णु ने कहा 
! ऐसा ही हो !  तू मेरा भक्त है इसमें सन्देह नहीं!  अपनी पत्नी के साथ  तुम  मेरे लोक में  निवास करो !।८१।

एवमुक्तो महाराजो ययातिः पृथिवीपतिः।
प्रसादात्तस्य देवस्य विष्णुलोकं प्रसाधितम्।८२।
अनुवाद:-
इस प्रकार कहकर महाराज ययाति! पृथ्वी पति ने विष्णु भगवान की कृपा से विष्णु लोक को प्राप्त किया।८२।

निवसत्येष भूपालो वैष्णवं लोकमुत्तमम् ।८३।

और इस प्रकार ययाति पत्नी सहित लोकों में उत्तम वैष्णव लोक में निवास करने लगे।८३।
______________
पद्मपुराण /खण्डः (२) (भूमिखण्डः)
अध्यायः(B3)

इन ऋचाओं  के भाष्य और अनुवाद से स्पष्ट होता कि यदु और तुर्वसु के लिए प्रयोग किया गया द्विवचन में दासा" शब्द दानी या दाताओं  का वाचक है नकि 
मध्यकालीन शूद्र के अर्थ दास शब्द का वाचक है।

क्यों  कि  ऋग्वेद. की  उपर्युक्त ऋचा में यदि दासा शब्द  शूद्र या असुर का वाचक होता तो मन्त्र दृष्टा ऋषि यदु और तुर्वसु की स्तुति  या प्रशंसा  नही करते।

ऋग्वेद की इसी दशवी   ऋचा में प्रयुक्त ( गोपरीणसा) पद  से  यदु के   गोप ( गोपालक. ) होने की भी पुष्टि होती है।।
__________________


यदु की सन्तानों ने भी अपने पूर्वजों की परम्परा का पालन किया- यदु से यादव शब्द सन्तान वाचक अण्- प्रत्यय लगने पर बनता है।

"यदोरपत्यम् " इति यादव- अर्थात् यदु शब्द के अन्त में सन्तान वाचक संस्कृत अण्- प्रत्यय लगाने से यादव शब्द बनता है।
यदु + अण् । यादव:) जिसका अर्थ है यदु की सन्तानें अथवा वंशज- यादव लोग न्यायप्रिय, युद्धप्रिय और सबसे मेलजोल( संगतिकरण) करने वाले होते हैं।

वैदिक काल में यदुवंश में उत्पन्न राजा आसंग का प्रसंग उल्लेखनीय है।

अध प्लायोगिरति दासदन्यानासङ्गो अग्ने दशभिः सहस्रैः ।
अधोक्षणो दश मह्यं रुशन्तो नळा इव सरसो निरतिष्ठन् ॥३३॥ (ऋग्वेद-8/1/33)

पदपाठ-अध॑ । प्लायो॑गिः । अति॑ ।( दा॒स॒त् )। अ॒न्यान् । आ॒ऽस॒ङ्गः । अ॒ग्ने॒ । द॒शऽभिः॑ । स॒हस्रैः॑ ।अध॑ । उ॒क्षणः॑ । दश॑ । मह्य॑म् । रुश॑न्तः । न॒ळाःऽइ॑व । सर॑सः । निः । अ॒ति॒ष्ठ॒न् ॥३३। 
____   
(१-“अध =अपि च 
२"प्लायोगिः= प्रयोगनाम्नः पुत्रः “आसङ्गः नाम राजा 
३“दशभिः =दशगुणितैः “सहस्रैः सहस्रसंख्याकैर्गवादिभिः 
४“अन्यान् =दातॄन् “
______
५-अति “दासत्= अतिक्रम्य ददाति । 
६-“अध= अनन्तरम् 
७-“उक्षणः = वृषभा: सेचनसमर्थाः “मह्यम् आसङ्गेन दत्ताः 
८-“रुशन्तः= दीप्यमानाः “दश दशगुणितसहस्रसंख्याकास्ते गवादयः “नळाइव । नळास्तटाकोद्भवास्तृणविशेषाः । ते यथा “सरसः तटाकात् {संघशो} निर्गच्छन्ति तथैव मह्यं दत्ता गवादयोऽस्मादासङ्गात् "निरतिष्ठन् निर्गत्यावास्थिषत । एवमेवंप्रकारेण मां स्तुहीति मेध्यातिथिं प्रत्युक्तत्वादेतासां चतसृणामृचां {प्रायोगिरासङ्ग ऋषिः स एव देवतेत्येतदुपपन्नं भवति} ॥
अनुवाद-
आसङ्ग यदुवंशी राजा सूक्त-दृष्टा मेधातिथि ऋषि को बहुत सारा धन देकर उन ऋषि को अपने द्वारा दिए गये दान के स्तुति करने के लिए प्रेरित करता है।
बहुव्रीहि समास-मेधा से युक्त हैं अतिथि जिनके वह मेधातिथि इस प्रकार-मेधातिथि ऋषि ।
आप हमारी ही प्रशंसा करो , प्रसन्न रहो उदासीनता मत करो।
 निश्चित रूप से हम सब परिवारी जन और प्रयोग नाम वाले राजा के पुत्र आसङ्ग राजा दश हजार गायों के दान द्वारा अन्य दानदाताओं का उल्लंघन कर गायों का दान करता है। 

दासा शब्द द्विवचन में "यदु और "तुर्वसु के लिए आया है। और वैदिक निघण्टु में दास का अर्थ दानी, और रक्षक ( त्राता)  होता है।

अत: इस शब्द का अर्थ भी निघण्टु को अधिगत करके ही करना चाहिए- नकि 'दास' के आधुनिक सन्दर्भ में ! क्यों वैदिक काल में घृणा शब्द  दया भाव का वाचक था तो आज घृणा का अर्थ नफ़रत है।
____  

यदु शब्द व्युत्पत्ति की दृष्टि से यदु शब्द हिब्रू भाषा में यथावत् मिलता है।

जो कि हिब्रू क्रिया ( ידה) = यदा ) से सम्बन्धित है । जिसका अर्थ है - प्रशंसा करना -स्तुति करना।

इसी यदा क्रिया से संबंधित नाम हैं।

•यादा ( यादा ) : अबीहुद , अबीहूद , अहिहूद , अम्मीहूद , बाले- यहूदा , एहूद , एलियुद , होद , होदवियाह ,  होदिय्याह , ईशहोद , जद्दै , यदायाह , यदूतून , येहूदी , यहूदी , यहूदा , यहूदा , यहूदा , यहूदिया , जूडिथ आदि 

_____
 इस प्रकार यदु नाम के अनुरूप ही उसके अर्थ की सार्थकता  भी सिद्ध होती है।

यदु की पत्नी का नाम यदु के नाम के अनुरूप यज्ञवती था जो गोलोक की एक गोपी थी। जिसका गोलोक नाम सुशीला वही कालान्तर में यज्ञपुरुष की पत्नी दक्षिणा के रूप में अवतरित हुई।
 
यदु और यज्ञवती का विष्णु और दक्षिणा के अंश से उत्पन्न होना का प्रकरण पौराणिक है।

देवीभागवतपुराण-‎ स्कन्धः नवम -अध्याय (45-) तथा 

इसकी पुष्टि  ब्रह्मवैवर्त्त महापुराण के द्वितीय प्रकृतिखण्ड के  
बयालीसवें(४२) अध्याय से भी होती है।।

इस प्रकरण विस्तार पूर्वक वर्णन श्री कृष्ण गोपेश्वरस्य पञ्चं वर्ण " में किया गया है। ।



यदु और यज्वती की कहानी-

यदु शब्द की उत्पत्ति वैदिक कालीन है। लौकिक संस्कृत  में यदु शब्द मूलक 'यद्' धातु प्राप्त नहीं होती है। इसी लिए संस्कृत भाषा के  कोशकारों और व्याकरणविदों ने यदु शब्द की व्युत्पत्ति यज्-धातु से निर्धारित की हैं।  जिससे यदु शब्द  पुल्लिंग रूप में व्युत्पन्न होता है। 

जैसे  [संस्कृत भाषा में  'यज् धातु (अर्थात् क्रिया का मूल +  उणादि  प्रत्यय (उ ) को जोड़ने पर -पृषोदर प्रकरण के नियम से    "जस्य दत्वं"  अर्थात् "ज वर्ण का "द वर्ण में रूपान्तरण होने से यदु शब्द  बनता है।

पाणिनीय व्याकरण में  पृषोदरादीनि  एक पारिभाषिक शब्द है।

पृषोदरादीनि यथोपदिष्टम्' (६.३.१०८)  इस पाणिनीय सूत्र  से  यज्- धातु के अन्तिम वर्ण  "जकार को दकार" आदेश हो जाने से यदु शब्द बनता है। 


यदु का अर्थ है  - यजन करने वाला।
यज् = देवपूजा,सङ्गतिकरण,दानेषु यज् धातु के तीन अर्थ प्रसिद्ध हैं।

यज् = १-यजन करना- २-न्याय (संगतिकरण) करना और ३-दान करना ।

विदित हो की यादवों के आदि पुरुष यदु में तीनों ही प्रवृत्तियों का मौलिक समावेश था। 

वे हिंसा से रहित वैष्णव यज्ञ भी करते थे । सबका यथोचित न्याय भी करते थे। और दान के क्षेत्र में वे निर्धन तथा भिक्षुओं को बहुत सी गायें भी दान करते थे। इन तीनों गुणकारी कार्यों से उनकी मेधा प्रखर हो गयी थी । तभी तो भगवान श्रीकृष्ण ने
भागवत पुराण के एकादश स्कन्ध के सप्तम अध्याय में स्वयं  उद्धव जी से कहा हैं - 

             'श्रीभगवानुवाच।
यदुनैवं महाभागो ब्रह्मण्येन सुमेधसा।
पृष्टः सभाजितः प्राह प्रश्रयावनतं द्विजः ।३१।

अनुवाद:-
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—उद्धव! हमारे पूर्वज महाराज यदु की बुद्धि शुद्ध थी और उनके हृदय में ब्राह्मज्ञानीयों के प्रति-भक्ति थी। उन्होंने परमभाग्यवान् दत्तात्रेयजी का अत्यन्त सत्कार करके यह प्रश्न पूछा और बड़े विनम्रभाव से सिर झुकाकर वे उनके सामने खड़े हो गये थे।३१।

श्रीमद्भागवत पुराण स्कन्ध (11) अध्याय (7) श्लोक संख्या-(31)
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ऋग्वेद की एक ऋचा में इनके दान कर्म के लिए इन्हें वैदिक सन्दर्भ के प्राचीनत्तम  दास शब्द से सम्बोधित किया गया है।  दास का अर्थ  वैदिक काल में "दाता " होता था। इसी सन्दर्भ में  यदु और तुर्वसु की  वैदिक ऋषि ने  स्तुति और प्रशंसा भी की है।

जैसे ऋग्वेद की निम्नलिखित ऋचा में देखे-
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"उत दासा परिविषे स्मद्दिष्टी गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च मामहे ॥१०॥
अनुवाद:- और वे दोनों दास ( दाता)  कल्याण कारी दृष्टि वाले 
स्नान आदि क्रियाओं से युक्त होकर नित्य  गायों का पालन पोषण करते है और दान करते हैं हम उनकी स्तुति करते हैं। १०/६२/१०


"-भाष्य"
(स्मद्दिष्टी) =प्रशस्त कल्याण वा दर्शनौ दृष्टौ “स्मद्दिष्टीन्= कल्याण कारी दृष्टि वाले  द्विवचन ।

 प्रशस्तदर्शनान्” [ऋ० ६।६३।९] (गोपरीणसा)= गवां परीणसा बहुभावो यमो बहुगोमन्तौ = गायों से घिरे हुए वे दोंनो यदि और तुर्वसु। “परीणसा= बहुनाम” [ वैदिक शब्द निघण्टु में दासा द्विवचन में दाता का वाचक है। ३।१]

 (दासा)= दातारौ “दासृ= दाने” [भ्वादि०] “दासं= दातारम्” [ऋ० ७।१९।२ ] 



(उत )= अपि तस्य =ज्ञानदातुः (परिविषे) =स्नान-सेवायै योग्यौ भवतः “विष सेचने सेवायाम् च ” [भ्वादि०] (यदुः-तुर्वः-च एतयो: नाम्नो: गोपभ्याम् (मामहे)= स्तुमहे। ॥१०॥
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दासा शब्द द्विवचन में "यदु और "तुर्वसु के लिए आया है। और वैदिक निघण्टु में दास का अर्थ दानी, और रक्षक ( त्राता) है।

अत: इस शब्द का अर्थ भी निघण्टु को अधिगत करके ही करना चाहिए- न कि दास मध्यकालीन सन्दर्भ में !

 क्यों वैदिक काल में घृणा शब्द दया का वाचक था तो आज घृणा का अर्थ नफरत है।


 उपर्युक्त ऋचा पर सम्यग्भाष्य- निम्नलिखित है।
( १-“उत = अत्यर्थेच  अपि च।
२-"स्मद्दिष्टी कल्याणादेशिनौ ।
३-“गोपरीणसा गोपरीणसौ गोभिः परिवृतौ बहुगवादियुक्तौ 
४-(“दासा =दासतः दानकुरुत: =जो दौनों दान करते हैं। 

पाणिनीय धातुपाठ में दास्=दान करना। अर्थ में है ।दास्= दाने सम्प्रदाने + अच् । दास:= दाता।अच्' प्रत्यय का 'अ' लगाकर कर्तृबोधक शब्द बनाये जाते हैं।

 महामहे का ही (वेैदिक रूप "मामहे" है।)
अत: दास शब्द भी वैदिक काल में दाता ( दानी ) के अर्थ नें चरितार्थ था।

परन्तु कई उतार चढ़ावों के बाद दास शब्द  यह  आज वैष्णव का वाचक हो गया ।
पद्मपुराण के भूमि खण्ड में दास वैष्णव का वाचक है।
देखें निम्नलिखित श्लोक-

            ' विष्णूवाच!
वरं वरय राजेन्द्र यत्ते मनसि वर्तते।
तत्ते ददाम्यसन्देहं मद्भक्तोसि महामते ।७९।

अनुवाद:- हे राजाओं के स्वामी ! वर माँगो जो तुम्हारे मन नें स्थित है।
वह सब तुमको दुँगा 
तुम मेरे भक्त हो!।७९।

              "राजोवाच
यदि त्वं देवदेवेश तुष्टोसि मधुसूदन ।
दासत्वं देहि सततमात्मनश्च जगत्पते।८०।

अनुवाद:-
राजा ने कहा ! हे देवों के स्वामी हे जगत के स्वामी! यदि तुम प्रसन्न हो तो मुझे अपना शाश्वत दासत्व( वैष्णव- भक्ति) दो। ८०।

            'विष्णुरुवाच-
एवमस्तु महाभाग मम भक्तो न संशयः ।
लोके मम महाराज स्थातव्यमनया सह ।८१।

अनुवाद:- विष्णु ने कहा 
! ऐसा ही हो !  तू मेरा भक्त है इसमें सन्देह नहीं!  अपनी पत्नी के साथ  तुम  मेरे लोक में  निवास करो !।८१।

एवमुक्तो महाराजो ययातिः पृथिवीपतिः।
प्रसादात्तस्य देवस्य विष्णुलोकं प्रसाधितम्।८२।
अनुवाद:-
इस प्रकार कहकर महाराज ययाति! पृथ्वी पति ने विष्णु भगवान की कृपा से विष्णु लोक को प्राप्त किया।८२।

निवसत्येष भूपालो वैष्णवं लोकमुत्तमम् ।८३।

और इस प्रकार ययाति पत्नी सहित लोकों में उत्तम वैष्णव लोक में निवास करने लगे।८४।
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पद्मपुराण /खण्डः (२) (भूमिखण्डः)
अध्यायः(B3)

इन ऋचाओं  के भाष्य और अनुवाद से स्पष्ट होता कि यदु और तुर्वसु के लिए प्रयोग किया गया द्विवचन में दासा" शब्द दानी या दाताओं  का वाचक है नकि 
मध्यकालीन शूद्र के अर्थ दास शब्द का वाचक है।

क्यों  कि  ऋग्वेद. की  उपर्युक्त ऋचा में यदि दासा शब्द  शूद्र या असुर का वाचक होता तो मन्त्र दृष्टा ऋषि यदु और तुर्वसु की स्तुति  या प्रशंसा  नही करते।

ऋग्वेद की इसी दशवी   ऋचा में प्रयुक्त ( गोपरीणसा) पद  से  यदु के   गोप ( गोपालक. ) होने की भी पुष्टि होती है।।
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यदु की सन्तानों ने भी अपने पूर्वजों की परम्परा का पालन किया- यदु से यादव शब्द सन्तान वाचक अण्- प्रत्यय लगने पर बनता है।

"यदोरपत्यम् " इति यादव- अर्थात् यदु शब्द के अन्त में सन्तान वाचक संस्कृत अण्- प्रत्यय लगाने से यादव शब्द बनता है।
यदु + अण् । यादव:) जिसका अर्थ है यदु की सन्तानें अथवा वंशज- यादव लोग न्यायप्रिय, युद्धप्रिय और सबसे मेलजोल( संगतिकरण) करने वाले होते हैं।

वैदिक काल में यदुवंश में उत्पन्न राजा आसंग का प्रसंग उल्लेखनीय है।

अध प्लायोगिरति दासदन्यानासङ्गो अग्ने दशभिः सहस्रैः ।
अधोक्षणो दश मह्यं रुशन्तो नळा इव सरसो निरतिष्ठन् ॥३३॥ (ऋग्वेद-8/1/33)

पदपाठ-अध॑ । प्लायो॑गिः । अति॑ ।( दा॒स॒त् )। अ॒न्यान् । आ॒ऽस॒ङ्गः । अ॒ग्ने॒ । द॒शऽभिः॑ । स॒हस्रैः॑ ।अध॑ । उ॒क्षणः॑ । दश॑ । मह्य॑म् । रुश॑न्तः । न॒ळाःऽइ॑व । सर॑सः । निः । अ॒ति॒ष्ठ॒न् ॥३३। 
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(१-“अध =अपि च 
२"प्लायोगिः= प्रयोगनाम्नः पुत्रः “आसङ्गः नाम राजा 
३“दशभिः =दशगुणितैः “सहस्रैः सहस्रसंख्याकैर्गवादिभिः 
४“अन्यान् =दातॄन् “
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५-अति “दासत्= अतिक्रम्य ददाति । 
६-“अध= अनन्तरम् 
७-“उक्षणः = वृषभा: सेचनसमर्थाः “मह्यम् आसङ्गेन दत्ताः 
८-“रुशन्तः= दीप्यमानाः “दश दशगुणितसहस्रसंख्याकास्ते गवादयः “नळाइव । नळास्तटाकोद्भवास्तृणविशेषाः । ते यथा “सरसः तटाकात् {संघशो} निर्गच्छन्ति तथैव मह्यं दत्ता गवादयोऽस्मादासङ्गात् "निरतिष्ठन् निर्गत्यावास्थिषत । एवमेवंप्रकारेण मां स्तुहीति मेध्यातिथिं प्रत्युक्तत्वादेतासां चतसृणामृचां {प्रायोगिरासङ्ग ऋषिः स एव देवतेत्येतदुपपन्नं भवति} ॥
अनुवाद-
आसङ्ग यदुवंशी राजा सूक्त-दृष्टा मेधातिथि ऋषि को बहुत सारा धन देकर उन ऋषि को अपने द्वारा दिए गये दान के स्तुति करने के लिए प्रेरित करता है।
बहुव्रीहि समास-मेधा से युक्त हैं अतिथि जिनके वह मेधातिथि इस प्रकार-मेधातिथि ऋषि ।
आप हमारी ही प्रशंसा करो , प्रसन्न रहो उदासीनता मत करो।
 निश्चित रूप से हम सब परिवारी जन और प्रयोग नाम वाले राजा के पुत्र आसङ्ग राजा दश हजार गायों के दान द्वारा अन्य दानदाताओं का उल्लंघन कर गायों का दान करता है। 

दासा शब्द द्विवचन में "यदु और "तुर्वसु के लिए आया है। और वैदिक निघण्टु में दास का अर्थ दानी, और रक्षक ( त्राता)  होता है।

अत: इस शब्द का अर्थ भी निघण्टु को अधिगत करके ही करना चाहिए- नकि 'दास' के आधुनिक सन्दर्भ में ! क्यों वैदिक काल में घृणा शब्द  दया भाव का वाचक था तो आज घृणा का अर्थ नफ़रत है।
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यदु शब्द व्युत्पत्ति की दृष्टि से यदु शब्द हिब्रू भाषा में यथावत् मिलता है।

जो कि हिब्रू क्रिया ( ידה) = यदा ) से सम्बन्धित है । जिसका अर्थ है - प्रशंसा करना -स्तुति करना।

इसी यदा क्रिया से संबंधित नाम हैं।

•यादा ( यादा ) : अबीहुद , अबीहूद , अहिहूद , अम्मीहूद , बाले- यहूदा , एहूद , एलियुद , होद , होदवियाह ,  होदिय्याह , ईशहोद , जद्दै , यदायाह , यदूतून , येहूदी , यहूदी , यहूदा , यहूदा , यहूदा , यहूदिया , जूडिथ आदि 

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 इस प्रकार यदु नाम के अनुरूप ही उसके अर्थ की सार्थकता  भी सिद्ध होती है।

यदु यादवों के पूर्वज थे जिनका ऋग्वेद के दशम मण्डल में गोप रूप में वर्णन प्राप्त होता है। यदु विष्णु के यज्ञ पुरूष रूप का अंश थे। यदु शब्द का ही वैदिक अर्थ होता - यजनशील-अथवा यज्ञ करने वाला- ऋग्वेद में यदु को गायों से घिरा हुआ गोप रूप में निम्न ऋचा में देखें-

"उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी ।" गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।। (ऋग्वेद १०/६२/१०) अर्थात् यदु और तुर्वसु नामक दास( दाता) हैं जो गायों से घिरे हुए हैं हम उन सौभाग्य शाली दाताओं की प्रशंसा करते हैं । यहाँ पर गोप शब्द स्पष्टत: है; गो-पालक ही गोप होते हैं

__

लक्ष्मी नारायणी संहिता में भी पद्मपुराण के समान ययाति की तृतीय पत्नी अश्रुबिन्दुमती को बिन्दुमती कह कर वर्णन किया गया है।

श्रुत्वा राजा शशापैनं राज्यहीनः सवंशजः।तेजोहीनः क्षत्रधर्मवर्जितः पशुपालकः ।७५।

"अनुवाद:-यह सुनकर राजा ने उसे श्राप दे दिया और उसने अपने वंशजो सहित राज्य को छोड़ दिया वह यदु राजकीय तेज से हीन और राजकीय क्षत्र धर्म से रहित पशुपालन से जीवन निर्वाह करने लगा।७५।

भविष्यसि न सन्देहो याहि राज्याद् बहिर्मम।इत्युक्त्वा च पुरुं प्राह शर्मिष्ठाबालकं  नृपः।७६।
"अनुवाद:-तुम्हारे वंशज कभी राजतन्त्र की प्रणाली से राजा नहीं होंगे इसमें सन्देह नहीं हेै यदु ! मेरे राज्य से बाहर चले जाओ। इस प्रकार कहकर और राजा ने फिर पुरू से कहा शर्मिष्ठा के बालक पुरु तुम राजा बनोगे।७६।

  "लक्ष्मीनारायणसंहिता/खण्डः ३ (द्वापरयुगसन्तानः अध्याय 73-)

यदु से पूर्व भी उनके आदि पूर्वज पुरूरवा से लेकर आयुष ,नहुष और ययाति भी सफल गोपालक ही थे । परन्तु यदु ने उस प्राचीन गोपालन की परम्परा को पूर्ण निष्ठा और समर्पण के साथ निर्वहन किया।

यदु प्रारम्भ से स्वराट्- विष्णु का यजन करने वाले थे। ये परम वैष्णव थे।

यदु शब्द का व्याकरण परक अर्थ- यज्ञ करने वाला होता है।

यदु की पत्नी यज्ञवती थी जो गोलोक में जो  दक्षिणा और सुशीला नाम से प्रसिद्ध थीं। वही अपने अंश से भूलोक पर यज्ञवती हुई। कालान्तर में यदु से यज्ञवती के सहस्रजित , क्रोष्ठा ,नल ,और रिपु आदि पुत्र हुए ।

📚: "यादवों के पूर्वज यदु यज्ञतत्व के पूर्ण ज्ञाता थे। इसी लिए लोक में उन्हें यदु भी कहा गया। यदु वैष्णव यज्ञों के प्रवर्तक थे। इसके विपरीत जो देवयज्ञ होते थे वे पशु हिंसा से सने हुए और भौतिक कामनाओं की पूर्ति के लिए इन्द्र आदि देवों के निमित्त किये जाते थे।

यदु की पत्नी का नाम यदु के नाम के अनुरूप यज्ञवती था जो गोलोक की एक गोपी थी। जिसका गोलोक नाम सुशीला वही कालान्तर में यज्ञपुरुष की पत्नी दक्षिणा के रूप में अवतरित हुई।
 
यदु और यज्ञवती का विष्णु और दक्षिणा के अंश से उत्पन्न होना का प्रकरण पौराणिक है।

देवीभागवतपुराण-‎ स्कन्धः नवम -अध्याय (45-) तथा इसकी पुष्टि  ब्रह्मवैवर्त्त महापुराण के द्वितीय प्रकृतिखण्ड के  
बयालीसवें(४२) अध्याय से भी होती है।।

इस प्रकरण विस्तार पूर्वक वर्णन श्री कृष्ण गोपेश्वरस्य पञ्चं वर्ण " में किया गया है। ।



वैष्णव का वाचक दास शब्द-

                'विष्णूवाच!

वरं वरय राजेन्द्र यत्ते मनसि वर्तते।
तत्ते ददाम्यसन्देहं मद्भक्तोसि महामते ।७९।

अनुवाद:- हे राजाओं के स्वामी ! वर माँगो जो तुम्हारे मन नें स्थित है।
वह सब तुमको दुँगा 
तुम मेरे भक्त हो!।७९।

                    "राजोवाच
यदि त्वं देवदेवेश तुष्टोसि मधुसूदन ।
दासत्वं देहि सततमात्मनश्च जगत्पते।८०।
अनुवाद:-
राजा ने कहा ! हे देवों के स्वामी हे जगत के स्वामी! यदि तुम प्रसन्न हो तो मुझे अपना शाश्वत दासत्व( वैष्णव- भक्ति) दो। ८०।

                'विष्णुरुवाच-
एवमस्तु महाभाग मम भक्तो न संशयः ।
लोके मम महाराज स्थातव्यमनया सह ।८१।

अनुवाद:- विष्णु ने कहा 
! ऐसा ही हो !  तू मेरा भक्त है इसमें सन्देह नहीं!  अपनी पत्नी के साथ  तुम  मेरे लोक में  निवास करो !।८१।

एवमुक्तो महाराजो ययातिः पृथिवीपतिः।
प्रसादात्तस्य देवस्य विष्णुलोकं प्रसाधितम्।८२।
अनुवाद:-
इस प्रकार कहकर महाराज ययाति! पृथ्वी पति ने विष्णु भगवान की कृपा से विष्णु लोक को प्राप्त किया।८२।


निवसत्येष भूपालो वैष्णवं लोकमुत्तमम् ।८३।

और इस प्रकार ययाति पत्नी सहित लोकों में उत्तम वैष्णव लोक में निवास करने लगे।८४।

______________
पद्मपुराण /खण्डः (२) (भूमिखण्डः)
अध्यायः(83)

यदु शब्द की उत्पत्ति वैदिक कालीन है।



यदु शब्द की उत्पत्ति वैदिक कालीन है। अतः लौकिक संस्कृत में यदु शब्द मूलक यद् धातु प्राप्त नहीं होती है। इसी वजह से संस्कृत भाषा के कोशकारों और व्याकरण विदों ने यदु: शब्द की व्युत्पत्ति यज् धातु से निर्धारित की है।             
 जिससे यदु शब्द पुल्लिंग रूप में उत्पन्न होता है। जैसे संस्कृत भाषा में यज् धातु  अर्थात् क्रिया के मूल रूप में +   उणादि प्रत्यय (उ ) को जोड़ने से- पृषोदर प्रकरण के नियम से-' जस्य दत्वं अर्थात् "ज वर्ण का "द वर्ण मे रूपान्तरण  होने से होती है। 

इसकी पुष्टि- पाणिनीय व्याकरण के निम्नलिखित सूत्र से होती है। 
पृषोदरादीनि यथोपदिष्टम्' (६.३.१०८) जिसमें यज् धातु के अन्तिम वर्ण- "जकार, दकार" हो जाता है। इसी सिद्धांत के अनुसार यज् धातु से "यदु" शब्द 
की व्युत्पत्ति होती है।

 जिसका अर्थ होता है "यजन करने वाला"। क्योंकि "यज्" धातु के संस्कृत भाषा में तीन  अर्थ प्रसिद्ध हैं।
(१)- यजन करना।
(२)- न्याय (संगतिकरण) करना
(३)- दान करना।

और ये सभी तीनों गुण- राजा यदु में मौलिक रूप से विद्यमान थे। क्योंकि राजा यदु भी - 

(१)-  हिंसा से रहित वैष्णव यज्ञ किया करते थे। 

(२)- सबका यथोचित न्याय किया करते थे। 

(३)- वे दान के क्षेत्र में निर्धन तथा भिक्षुओं को बहुत सी गायें भी दान करते थे। 
अर्थात उन्होंने अपने नाम की सार्थकता को सिद्ध किया।

 इन तीनों गुणकारी कार्यों से उनकी मेधा (बुद्धि ) प्रखर हुई। 

 तभी तो भगवान श्रीकृष्ण ने अपने पूर्वज यदु के बारे में भागवत पुराण के ग्यारहवें स्कन्ध (एकादश स्कन्ध) के सप्तम  अध्याय सातवें अध्याय  के (३१) वें श्लोक में उद्धव जी से कहते हैं कि -

          'श्रीभगवानुवाच।
यदुनैवं महाभागो ब्रह्मण्येन सुमेधसा।
पृष्टः सभाजितः प्राह प्रश्रयावनतं द्विजः ।३१।

अनुवाद:- भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—उद्धव! हमारे पूर्वज महाराज यदु की बुद्धि बड़ी शुद्ध थी और उनके हृदय में ब्राह्मज्ञानीयों के प्रति-भक्ति थी। उन्होंने परमभाग्यवान् दत्तात्रेयजी का अत्यन्त सत्कार करते हुए यह प्रश्न पूछा और बड़े विनम्र होकर खड़े हो गये।

 महाराज यदु के इन्हीं सब विशेषताओं के कारण 
ऋग्वेद के दशम मण्डल की सूक्त- ६२ की ऋचा-१० में कहा गया है।

 कि -

"उत्  दासा   परिविषे    स्मद्दिष्टी।
गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।। 

इस ऋचा में इनके दान कर्म के लिए इन्हें वैदिक सन्दर्भ के प्राचीनत्तम अर्थ में दास (दाता) कह कर दोनों भाईयों (यदु और तुर्वसु ) की ऋषियों ने स्तुति और प्रशंसा की है।

ऋग्वेद की उपरोक्त ऋचा का यदि भाष्य किया जाए तो यदु से संबंधित बहुत सारे तथ्य निकलकर सामने आते हैं। जैसे 

हिन्दी अर्थ-
(स्मद्दिष्टी) =प्रशस्त कल्याण वा दर्शनौ दृष्टौ “स्मद्दिष्टीन्= कल्याण कारी दृष्टि वाले। प्रशस्तदर्शनान्” [ऋ० ६।६३।९] (गोपरीणसा)=  गवां परीणसा बहुभावो यमो बहुगोमन्तौ = जो चारो तरफ से गायों से घिरे हुए हैं “परीणसा= बहुनाम” [निघ० ३।१] (दासा)= दातारौ “दासृ= दाने” [भ्वादि०] “दासं= दातारम्” [ऋ० ७।१९।२]= दानी।
(उत)= अपि तस्य =ज्ञानदातुः (परिविषे) =स्नान-सेवायै योग्यौ भवतः “विष सेचने सेवायाम् च ”= स्नान आदि के लिए । [भ्वादि०] (यदुः-तुर्वः-च एतयो: नाम्नो: गोपभ्याम् =  यदु और तुर्वसु इस नाम के गोपों के लिए ।(मामहे)= स्तुमहे = हम सब स्तुति करते हैं। ॥१०॥

ज्ञात हो कि ऋचा में "दासा" शब्द द्विवचन में "यदु और "तुर्वसु के लिए आया है। और वैदिक निघण्टु में दास का अर्थ दानी, और रक्षक (त्राता) होता है।
अत: इस शब्द का अर्थ भी निघण्टु को अधिगत करके ही करना चाहिए- नकि दास के आधुनिक सन्दर्भ में क्योंकि वैदिक काल में घृणा दया का वाचक थी तो आज घृणा का अर्थ नफरत है।
 उपर्युक्त ऋचा पर सम्यग्भाष्य- निम्नलिखित है।
१- “उत = अत्यर्थेच  अपि च। और भी ।
२- "स्मद्दिष्टी कल्याणादेशिनौ । कल्याण कारी दृष्टि वाले।
३- “गोपरीणसा गोपरीणसौ गोभिः परिवृतौ  
     बहुगवादियुक्तौ । बहुत सी गायों से घिरे हुए।
४- “दासा =दासतः दानकुरुत: = जो दोनों दान करते हैं। 
पाणिनीय धातुपाठ में दास्= दान करनें के अर्थ में है । दास्= दाने सम्प्रदाने + अच् । 
दास:= दाता। अच्'  प्रत्यय का 'अ' लगाकर कर्तृबोधक शब्द बनाये जाते हैं।

ज्ञात हो कि दास: और असुर: जैसे शब्द वैदिक सन्दर्भों में अधिकांशतः श्रेष्ठ अर्थों के सूचक थे। 
जैसे-  दास:= दाता/दानी। तथा असुर:= प्राणवान् और मेधावान्।
५- स्थितौ तेनाधिष्ठितौ “यदुः च “तुर्वश्च एतन्नामकौ राजर्षी।
६- “परिविषे =परिचर्य्यायां /व्याप्त्वौ।
७- मामहे= वयं सर्वे स्तुमहे।
आत्मनेपदी "वह्" तथा "मह्" भ्वादिगणीय धातुऐं हैं आत्मनेपदी नें लट् लकार उत्तम पुरुष बहुवचन के रूप में क्रमश:"वहामहे "और महामहे हैं महामहे का ही(वेैदिक रूप "मामहे" है।)
अत: दास शब्द भी वैदिक काल में दाता ( दानी ) के अर्थ नें चरितार्थ था।✋

परन्तु कई उतार चढ़ा वें के बाद यह  दास शब्द आज वैष्णव का वाचक हो गया ।
पद्मपुराण के भूमि खण्ड में दास वैष्णव का ही  वाचक है।

यदु की सन्तानों ने भी अपने पूर्वजों की परम्परा का पालन किया- यदु से यादव शब्द सन्तान वाचक अण्- प्रत्यय लगने पर बनता है।

"यदोरपत्यम् " इति यादव- अर्थात् यदु शब्द के अन्त में सन्तान वाचक संस्कृत अण्- प्रत्यय लगाने से यादव शब्द बनता है।
यदु + अण् । यादव:) जिसका अर्थ है यदु की सन्तानें अथवा वंशज- यादव लोग "यजन करने वाले,  न्यायप्रिय, युद्धप्रिय और सबसे मेलजोल (संगतिकरण) करने वाले होते हैं।

शुक्रवार, 25 अक्टूबर 2024

यदु और यज्ञवती-

📚: यदु शब्द की उत्पत्ति वैदिक कालीन है। लौकिक संस्कृत  में यदु शब्द मूलक यद् धातु प्राप्त नहीं होती है। इसी लिए संस्कृत भाषा के  कोशकारों और व्याकरण विदों ने यदु शब्द की व्युत्पत्ति यज्-धातु से निर्धारित करते हैं।  जिससे यदु शब्द  पुल्लिंग रूप में व्युत्पन्न होता है। 

जैसे  [संस्कृत भाषा में √यज् धातु (अर्थात् क्रिया का मूल +  उणादि  प्रत्यय (उ) को जोड़ने -पृषोदर प्रकरण के नियम से  "जस्य दत्वं"  अर्थात् "ज वर्ण का "द वर्ण में रूपान्तरण होने से  होती है।

पाणिनीय व्याकरण में  पृषोदरादीनि  एक पारिभाषिक शब्द है।
पृषोदरादीनि यथोपदिष्टम्' (६.३.१०८)  इस पाणिनीय सूत्र  से  यज्- धातु के अन्तिम वर्ण  "जकार को दकार" आदेश हो जाने से यदु शब्द बनता है। इसकी पुष्टि पाणिनीय व्याकरण से होती है।

यदु का अर्थ है  - यजन करने वाला।
यज् = देवपूजा,सङ्गतिकरण,दानेषु यज् धातु के तीन अर्थ प्रसिद्ध हैं।

यज् = १-यजन करना- २-न्याय (संगतिकरण) करना और ३-दान करना ।

विदित हो की यादवों के आदि पुरुष यदु में तीनों ही प्रवृत्तियों का मौलिक समावेश था। 
वे हिंसा से रहित वैष्णव यज्ञ भी करते थे । सबका यथोचित न्याय भी करते थे। और दान के क्षेत्र में वे निर्धन तथा भिक्षुओं को बहुत सी गायें भी दान करते थे। इन तीनों गुणकारी कार्यों से उनकी मेधा प्रखर थी । तभी तो भगवान श्रीकृष्ण-
भागवत पुराण के एकादश स्कन्ध के सप्तम अध्याय में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण उद्धव जी से  कहते हैं - 

               'श्रीभगवानुवाच।
यदुनैवं महाभागो ब्रह्मण्येन सुमेधसा।
पृष्टः सभाजितः प्राह प्रश्रयावनतं द्विजः ।३१।
अनुवाद:-
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—उद्धव! हमारे पूर्वज महाराज यदु की बुद्धि शुद्ध थी और उनके हृदय में ब्राह्मज्ञानीयों के प्रति-भक्ति थी। उन्होंने परमभाग्यवान् दत्तात्रेयजी का अत्यन्त सत्कार करके यह प्रश्न पूछा और बड़े विनम्रभाव से सिर झुकाकर वे उनके सामने खड़े हो गये थे।३१।

श्रीमद्भागवत पुराण स्कन्ध (11) अध्याय (7) श्लोक संख्या-(31)

ऋग्वेद की एक ऋचा में इनके दान कर्म के लिए इन्हें वैदिक सन्दर्भ के प्राचीनत्तम अर्थ में दास  कह कर भी यदु और तुर्वसु की ऋषि ने  स्तुति और प्रशंसा भी की है।
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उत दासा परिविषे स्मद्दिष्टी गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च मामहे ॥१०॥

" -भाष्य"
(स्मद्दिष्टी) =प्रशस्त कल्याण वा दर्शनौ दृष्टौ “स्मद्दिष्टीन्= प्रशस्तदर्शनान्” [ऋ० ६।६३।९] (गोपरीणसा)= गवां परीणसा बहुभावो यमो बहुगोमन्तौ  “परीणसा= बहुनाम” [निघ० ३।१] (दासा)= दातारौ “दासृ= दाने” [भ्वादि०] “दासं= दातारम्” [ऋ० ७।१९।२ ] 
(उत)= अपि तस्य =ज्ञानदातुः (परिविषे) =स्नान-सेवायै योग्यौ भवतः “विष सेचने सेवायाम् च ” [भ्वादि०] (यदुः-तुर्वः-च एतयो: नाम्नो: गोपभ्याम् (मामहे)= स्तुमहे। ॥१०॥

दासा शब्द द्विवचन में "यदु और "तुर्वसु के लिए आया है। और वैदिक निघण्टु में दास का अर्थ दानी, और रक्षक ( त्राता) है।

अत: इस शब्द का अर्थ भी निघण्टु को अधिगत करके ही करना चाहिए- न कि दास के आधुनिक सन्दर्भ में क्यों वैदिक काल में घृणा दया का वाचक थी तो आज घृणा का अर्थ नफरत है।
 उपर्युक्त ऋचा पर सम्यग्भाष्य- निम्नलिखित है।
( १-“उत = अत्यर्थेच  अपि च।
२-"स्मद्दिष्टी कल्याणादेशिनौ ।
३-“गोपरीणसा गोपरीणसौ गोभिः परिवृतौ बहुगवादियुक्तौ 
४-(“दासा =दासतः दानकुरुत: =जो दौनों दान करते हैं। 
पाणिनीय धातुपाठ में दास्=दान करना। अर्थ में है ।दास्= दाने सम्प्रदाने + अच् । दास:= दाता।अच्' प्रत्यय का 'अ' लगाकर कर्तृबोधक शब्द बनाये जाते हैं।

 महामहे का ही (वेैदिक रूप "मामहे" है।)
अत: दास शब्द भी वैदिक काल में दाता ( दानी ) के अर्थ नें चरितार्थ था।
परन्तु कई उतार चढ़ा वें के बाद यह  आज वैष्णव का वाचक हो गया ।
पद्मपुराण के भूमि खण्ड में दास वैष्णव का वाचक है।

            ' विष्णूवाच!
वरं वरय राजेन्द्र यत्ते मनसि वर्तते।
तत्ते ददाम्यसन्देहं मद्भक्तोसि महामते ।७९।

अनुवाद:- हे राजाओं के स्वामी ! वर माँगो जो तुम्हारे मन नें स्थित है।
वह सब तुमको दुँगा 
तुम मेरे भक्त हो!।७९।

              "राजोवाच
यदि त्वं देवदेवेश तुष्टोसि मधुसूदन ।
दासत्वं देहि सततमात्मनश्च जगत्पते।८०।
अनुवाद:-
राजा ने कहा ! हे देवों के स्वामी हे जगत के स्वामी! यदि तुम प्रसन्न हो तो मुझे अपना शाश्वत दासत्व( वैष्णव- भक्ति) दो। ८०।

            'विष्णुरुवाच-
एवमस्तु महाभाग मम भक्तो न संशयः ।
लोके मम महाराज स्थातव्यमनया सह ।८१।

अनुवाद:- विष्णु ने कहा 
! ऐसा ही हो !  तू मेरा भक्त है इसमें सन्देह नहीं!  अपनी पत्नी के साथ  तुम  मेरे लोक में  निवास करो !।८१।

एवमुक्तो महाराजो ययातिः पृथिवीपतिः।
प्रसादात्तस्य देवस्य विष्णुलोकं प्रसाधितम्।८२।
अनुवाद:-
इस प्रकार कहकर महाराज ययाति! पृथ्वी पति ने विष्णु भगवान की कृपा से विष्णु लोक को प्राप्त किया।८२।


निवसत्येष भूपालो वैष्णवं लोकमुत्तमम् ।८३

और इस प्रकार ययाति पत्नी सहित लोकों में उत्तम वैष्णव लोक में निवास करने लगे।८४।
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पद्मपुराण /खण्डः (२) (भूमिखण्डः)
अध्यायः(B3)

यदु की सन्तानों ने भी अपने पूर्वजों की परम्परा का पालन किया- यदु से यादव शब्द सन्तान वाचक अण्- प्रत्यय लगने पर बनता है।

"यदोरपत्यम् " इति यादव- अर्थात् यदु शब्द के अन्त में सन्तान वाचक संस्कृत अण्- प्रत्यय लगाने से यादव शब्द बनता है।
यदु + अण् । यादव:) जिसका अर्थ है यदु की सन्तानें अथवा वंशज- यादव लोग न्यायप्रिय, युद्धप्रिय और सबसे मेलजोल( संगतिकरण) करने वाले होते हैं।

वैदिक काल में यदुवंश में उत्पन्न राजा आसंग का प्रसंग उल्लेखनीय है।

अध प्लायोगिरति दासदन्यानासङ्गो अग्ने दशभिः सहस्रैः ।
अधोक्षणो दश मह्यं रुशन्तो नळा इव सरसो निरतिष्ठन् ॥३३॥ (ऋग्वेद-8/1/33)

पदपाठ-अध॑ । प्लायो॑गिः । अति॑ ।( दा॒स॒त् )। अ॒न्यान् । आ॒ऽस॒ङ्गः । अ॒ग्ने॒ । द॒शऽभिः॑ । स॒हस्रैः॑ ।अध॑ । उ॒क्षणः॑ । दश॑ । मह्य॑म् । रुश॑न्तः । न॒ळाःऽइ॑व । सर॑सः । निः । अ॒ति॒ष्ठ॒न् ॥३३। 
____   
(१-“अध =अपि च 
२"प्लायोगिः= प्रयोगनाम्नः पुत्रः “आसङ्गः नाम राजा 
३“दशभिः =दशगुणितैः “सहस्रैः सहस्रसंख्याकैर्गवादिभिः 
४“अन्यान् =दातॄन् “
______
५-अति “दासत्= अतिक्रम्य ददाति । 
६-“अध= अनन्तरम् 
७-“उक्षणः = वृषभा: सेचनसमर्थाः “मह्यम् आसङ्गेन दत्ताः 
८-“रुशन्तः= दीप्यमानाः “दश दशगुणितसहस्रसंख्याकास्ते गवादयः “नळाइव । नळास्तटाकोद्भवास्तृणविशेषाः । ते यथा “सरसः तटाकात् {संघशो} निर्गच्छन्ति तथैव मह्यं दत्ता गवादयोऽस्मादासङ्गात् "निरतिष्ठन् निर्गत्यावास्थिषत । एवमेवंप्रकारेण मां स्तुहीति मेध्यातिथिं प्रत्युक्तत्वादेतासां चतसृणामृचां {प्रायोगिरासङ्ग ऋषिः स एव देवतेत्येतदुपपन्नं भवति} ॥
अनुवाद-
आसङ्ग यदुवंशी राजा सूक्त-दृष्टा मेधातिथि ऋषि को बहुत सारा धन देकर उन ऋषि को अपने द्वारा दिए गये दान के स्तुति करने के लिए प्रेरित करता है।
बहुव्रीहि समास-मेधा से युक्त हैं अतिथि जिनके वह मेधातिथि इस प्रकार-मेधातिथि ऋषि ।
आप हमारी ही प्रशंसा करो , प्रसन्न रहो उदासीनता मत करो।
 निश्चित रूप से हम सब परिवारी जन और प्रयोग नाम वाले राजा के पुत्र आसङ्ग राजा दश हजार गायों के दान द्वारा अन्य दानदाताओं का उल्लंघन कर गायों का दान करता है। 

दासा शब्द द्विवचन में "यदु और "तुर्वसु के लिए आया है। और वैदिक निघण्टु में दास का अर्थ दानी, और रक्षक ( त्राता)  होता है।

अत: इस शब्द का अर्थ भी निघण्टु को अधिगत करके ही करना चाहिए- नकि 'दास' के आधुनिक सन्दर्भ में ! क्यों वैदिक काल में घृणा शब्द  दया भाव का वाचक था तो आज घृणा का अर्थ नफ़रत है।
____  

यदु शब्द व्युत्पत्ति की दृष्टि से यदु शब्द हिब्रू भाषा में यथावत् मिलता है।

जो कि हिब्रू क्रिया ( ידה) = यदा ) से सम्बन्धित है । जिसका अर्थ है - प्रशंसा करना -स्तुति करना।

इसी यदा क्रिया से संबंधित नाम हैं।

•यादा ( यादा ) : अबीहुद , अबीहूद , अहिहूद , अम्मीहूद , बाले- यहूदा , एहूद , एलियुद , होद , होदवियाह ,  होदिय्याह , ईशहोद , जद्दै , यदायाह , यदूतून , येहूदी , यहूदी , यहूदा , यहूदा , यहूदा , यहूदिया , जूडिथ आदि 

_____
(भारतीय पुराणों में यदु का अर्थ) )
यदु और यज्ञवती का विष्णु और दक्षिणा के अंश से उत्पन्न होना का प्रकरण"

(भगवती दक्षिणा का विवाह यज्ञ-पुरुष के साथ-)

"श्रीनारायण बोले- हे नारद! मैंने भगवती स्वाहा तथा स्वधाका अत्यन्त मधुर तथा कल्याणकारी उपाख्यान बता दिया। अब मैं भगवती दक्षिणाका आख्यान कह रहा हूँ, सावधान होकर सुनिये ॥1॥

प्राचीनकालमें गोलोक में भगवान् श्रीकृष्ण की प्रेयसी सुशीला नामक एक गोपी थी। परम धन्य, मान्य तथा मनोहर वह गोपी भगवती राधा की प्रधान सखी थी। वह अत्यन्त सुन्दर, लक्ष्मी के लक्षणों से सम्पन्न, सौभाग्यवती, उज्ज्वल दाँतोंवाली, परम पतिव्रता साध्वी, विद्या गुण तथा रूपसे अत्यधिक सम्पन्न थी।

वह विविध कलाओं में निपुण, कोमल अंगोंवाली, आकर्षक, कमलनयनी, श्यामा, सुन्दर नितम्ब तथा वक्षःस्थल से सुशोभित होती हुई वट वृक्षों से घिरी रहती थी।

उसका मुखमण्डल मन्द मुसकान तथा प्रसन्नता से युक्त था, वह रत्नमय अलंकारों से सुशोभित थी, उसके शरीर की कान्ति श्वेत चम्पा के समान थी, उसके ओष्ठ बिम्बाफल के समान रक्तवर्णके थे, मृगके सदृश उसके नेत्र थे, कामिनी तथा हंसके समान गतिवाली वह कामशास्त्र में निपुण थी।

भगवान् श्रीकृष्ण की प्रियभामिनी वह सुशीला उनके भावोंको भलीभाँति जानती थी।

तथा उनके भावों से सदा अनुरक्त रहती थी। रसज्ञान से परिपूर्ण, रासक्रीडा की रसिक तथा रासेश्वर श्रीकृष्णके प्रेमरस हेतु लालायित रहनेवाली वह गोपी सुशीला एक बार राधा के सामने ही भगवान् श्रीकृष्णके वाम अंक में बैठ गयी ॥ 2-7॥

तब मधुसूदन श्रीकृष्णने गोपिकाओं में परम श्रेष्ठ राधा की ओर देखकर भयभीत हो अपना मुख नीचे कर लिया।

उस समय कामिनी राधा का मुख लाल हो गया और उनके नेत्र रक्तकमल के समान हो गये। क्रोध से उनके अंग काँप रहे थे तथा ओठ प्रस्फुरित हो रहे थे।

तब उन राधा को बड़े वेग से जाती देखकर उनके विरोध से अत्यन्त डरे हुए भगवान् श्रीकृष्ण अन्तर्धान हो गये ॥ 8-10 ॥

कान्तिमान् शान्त स्वभाववाले, सत्त्वगुणसम्पन्न | तथा सुन्दर विग्रहवाले भगवान् श्रीकृष्ण को अन्तर्हित हुआ देखकर सुशीला आदि गोपियाँ भयसे काँपने लगीं।

श्रीकृष्ण को अन्तर्धान हुआ देखकर वे भयभीत लाखों-करोड़ों गोपियाँ भक्तिपूर्वक कन्धा झुकाकर और दोनों हाथ जोड़कर 'रक्षा कीजिये- रक्षा कीजिये' ऐसा भगवती राधासे बार-बार कहने लगीं और उन राधा के चरणकमलमें भयपूर्वक शरणागत हो गर्यो।

हे नारद ! वहाँके तीन लाख करोड़ सुदामा आदि गोप भी भयभीत होकर उन राधाके चरण कमलकी शरण में गये ॥ 11 - 14 ॥

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परमेश्वरी राधा ने अपने कान्त श्रीकृष्ण को अन्तर्धान तथा सहचरी सुशीलाको पलायन करते देखकर उन्हें शाप दे दिया कि यदि गोपिका सुशीला आज से गोलोक में आयेगी, तो वह आते ही भस्मसात् हो जायगी ।। 15-16

ऐसा कहकर श्रीराधा भक्तिपूर्वक श्रीकृष्णका ध्यान करने लगीं। विरहसे दुःखित तथा दीन वे राधिका प्रेमके कारण रो रही थीं और 'हे नाथ ! हे रमण ! मुझे दर्शन दीजिये'- ऐसा कह रही थीं ॥ 34॥

हे मुने ! इसके बाद राधा के द्वारा गोलोक से भूलोक पर शापित सुशीला नामक वह गोपी दक्षिणा नाम से प्रसिद्ध हुई।

दीर्घकाल तक उस दक्षिणा ने तपस्या करके भगवती लक्ष्मी के शरीर में स्थान प्राप्त कर लिया। अत्यन्त दुष्कर यज्ञ करने पर भी जब देवताओं को यज्ञफल नहीं प्राप्त हुआ, तब वे उदास होकर ब्रह्माजी के पास गये ॥ 35-36 ॥

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देवताओं की प्रार्थना सुनकर ब्रह्माजी ने बहुत समयतक भक्तिपूर्वक जगत्पति भगवान् श्रीहरिका ध्यान किया। अन्त में उन्हें प्रत्यादेश प्राप्त हुआ।

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भगवान नारायण ने महालक्ष्मी के विग्रह से मर्त्यलक्ष्मीको प्रकट करके और उसका नाम दक्षिणा रखकर ब्रह्माजी को सौंप दिया। ब्रह्माजी ने भी यज्ञकार्यों की सम्पन्नता के लिये उन देवी दक्षिणा को यज्ञपुरुष हरि को पुन: समर्पित कर दिया।

तब यज्ञपुरुष ने प्रसन्नतापूर्वक उन देवी दक्षिणा की विधिवत् पूजा करके उनकी स्तुति की ।37-39॥

उन भगवती दक्षिणा का वर्ण तपाये हुए सोने के समान था; उनके विग्रह की कान्ति करोड़ों चन्द्रोंके तुल्य थी; वे अत्यन्त कमनीय, सुन्दर तथा मनोहर थीं; उनका मुख कमल के समान था; उनके अंग अत्यन्त कोमल थे; कमल के समान उनके विशाल नेत्र थे कमल के आसनपर पूजित होनेवाली वे भगवती कमला के शरीर से प्रकट हुई थीं, उन्होंने अग्निके समान शुद्ध वस्त्र धारण कर रखे थे; उन साध्वी के ओष्ठ बिम्बाफल के समान थे; उनके दाँत अत्यन्त सुन्दर थे; उन्होंने अपने

केशपाश में मालती के पुष्पों की माला धारण कर रखी थी; उनके प्रसन्नतायुक्त मुखमण्डल पर मन्द मुसकान व्याप्त थी; वे रत्नमय आभूषणों से अलंकृत थीं; उनका वेष अत्यन्त सुन्दर था वे विधिवत् स्नान किये हुए थीं वे मुनियों के भी मन को मोह लेती थीं कस्तूरीमिश्रित सुगन्धित चन्दन से बिन्दी के रूप में अर्धचन्द्राकार तिलक उनके ललाट पर सुशोभित हो रहा था;

केशों के नीचे का भाग (सीमन्त) सिन्दूर की छोटी-छोटी बिन्दियों से अत्यन्त प्रकाशमान था। सुन्दर नितम्ब, बृहत् श्रोणी तथा विशाल वक्षःस्थल से वे शोभित हो रही थीं; उनका विग्रह कामदेव का आधार-स्वरूप था और वे कामदेव के बाण से अत्यन्त व्यथित थीं ऐसी उन रमणीया दक्षिणा को देखकर यज्ञपुरुष मूर्च्छित हो गये।

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पुनः ब्रह्माजीके कथनानुसार उन्होंने भगवती दक्षिणा को पत्नीरूप में स्वीकार कर लिया ॥ 40-46 ॥

तत्पश्चात् यज्ञपुरुष उन रमेश ने रमारूपिणी भगवती दक्षिणा को निर्जन स्थान में ले जाकर उनके साथ दिव्य सौ वर्षों तक आनन्दपूर्वक रमण किया।

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अतीव गोपनीयं यदुपयुक्तं च सर्वतः ।अप्रकाश्यं पुराणेषु वेदोक्तं धर्मसंयुतम् ॥४॥

              "श्रीनारायण उवाच

नानाप्रकारमाख्यानमप्रकाश्यं पुराणतः ।श्रुतं कतिविधं गूढमास्ते ब्रह्मन् सुदुर्लभम्॥५॥

जो रहस्यमय, अत्यन्त गोपनीय, सबके लिये उपयोगी, पुराणों में अप्रकाशित, धर्मयुक्त तथा वेद प्रतिपादित हो ।2-4।

श्रीनारायण बोले- हे ब्रह्मन् ! ऐसे साहित्य-विध आख्यान हैं, जो पुराणों में वर्णित नहीं हैं। कई प्रकार के आख्यान सुने भी गये हैं, जो अत्यन्त दुर्लभ तथा गूढ़ हैं।

सन्दर्भ:- श्रीमद्देवी भागवत महापुराण- -9/43/4-5

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यदु यादवों के पूर्वज थे जिनका ऋग्वेद के दशम मण्डल में गोप रूप में वर्णन प्राप्त होता है। यदु विष्णु के यज्ञ पुरूष रूप का अंश थे। यदु शब्द का ही वैदिक अर्थ होता - यजनशील-अथवा यज्ञ करने वाला- ऋग्वेद में यदु को गायों से घिरा हुआ गोप रूप में निम्न ऋचा में देखें-

"उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी ।" गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।। (ऋग्वेद १०/६२/१०) अर्थात् यदु और तुर्वसु नामक दास( दाता) हैं जो गायों से घिरे हुए हैं हम उन सौभाग्य शाली दाताओं की प्रशंसा करते हैं । यहाँ पर गोप शब्द स्पष्टत: है; गो-पालक ही गोप होते हैं

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लक्ष्मी नारायणी संहिता में भी पद्मपुराण के समान ययाति की तृतीय पत्नी अश्रुबिन्दुमती को बिन्दुमती कह कर वर्णन किया गया है।

श्रुत्वा राजा शशापैनं राज्यहीनः सवंशजः।तेजोहीनः क्षत्रधर्मवर्जितः पशुपालकः ।७५।

"अनुवाद:-यह सुनकर राजा ने उसे श्राप दे दिया और उसने अपने वंशजो सहित राज्य को छोड़ दिया वह यदु राजकीय तेज से हीन और राजकीय क्षत्र धर्म से रहित पशुपालन से जीवन निर्वाह करने लगा।७५।

भविष्यसि न सन्देहो याहि राज्याद् बहिर्मम।इत्युक्त्वा च पुरुं प्राह शर्मिष्ठाबालकं  नृपः।७६।
"अनुवाद:-तुम्हारे वंशज कभी राजतन्त्र की प्रणाली से राजा नहीं होंगे इसमें सन्देह नहीं हेै यदु ! मेरे राज्य से बाहर चले जाओ। इस प्रकार कहकर और राजा ने फिर पुरू से कहा शर्मिष्ठा के बालक पुरु तुम राजा बनोगे।७६।

  "लक्ष्मीनारायणसंहिता/खण्डः ३ (द्वापरयुगसन्तानः अध्याय 73-)

यदु से पूर्व भी उनके आदि पूर्वज पुरूरवा से लेकर आयुष ,नहुष और ययाति भी सफल गोपालक ही थे । परन्तु यदु ने उस प्राचीन गोपालन की परम्परा को पूर्ण निष्ठा और समर्पण के साथ निर्वहन किया।

यदु प्रारम्भ से स्वराट्- विष्णु का यजन करने वाले थे। ये परम वैष्णव थे।

यदु शब्द का व्याकरण परक अर्थ- यज्ञ करने वाला होता है।

यदु की पत्नी यज्ञवती थी जो गोलोक में जो  दक्षिणा और सुशीला नाम से प्रसिद्ध थीं। वही अपने अंश से भूलोक पर यज्ञवती हुई। कालान्तर में यदु से यज्ञवती के सहस्रजित , क्रोष्ठा ,नल ,और रिपु आदि पुत्र हुए ।

📚: "यादवों के पूर्वज यदु यज्ञतत्व के पूर्ण ज्ञाता थे। इसी लिए लोक में उन्हें यदु भी कहा गया। यदु वैष्णव यज्ञों के प्रवर्तक थे। इसके विपरीत जो देवयज्ञ होते थे वे पशु हिंसा से सने हुए और भौतिक कामनाओं की पूर्ति के लिए इन्द्र आदि देवों के निमित्त किये जाते थे।
[10/26, 6:17 AM] yogeshrohi📚: अध प्लायोगिरति दासदन्यानासङ्गो अग्ने दशभिः सहस्रैः ।
अधोक्षणो दश मह्यं रुशन्तो नळा इव सरसो निरतिष्ठन् ॥३३॥ (ऋग्वेद-8/1/33)

पदपाठ-अध॑ । प्लायो॑गिः । अति॑ ।( दा॒स॒त् )। अ॒न्यान् । आ॒ऽस॒ङ्गः । अ॒ग्ने॒ । द॒शऽभिः॑ । स॒हस्रैः॑ ।अध॑ । उ॒क्षणः॑ । दश॑ । मह्य॑म् । रुश॑न्तः । न॒ळाःऽइ॑व । सर॑सः । निः । अ॒ति॒ष्ठ॒न् ॥३३। 
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(१-“अध =अपि च 
२"प्लायोगिः= प्रयोगनाम्नः पुत्रः “आसङ्गः नाम राजा 
३“दशभिः =दशगुणितैः “सहस्रैः सहस्रसंख्याकैर्गवादिभिः 
४“अन्यान् =दातॄन् “
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५-अति “दासत्= अतिक्रम्य ददाति । 
६-“अध= अनन्तरम् 
७-“उक्षणः = वृषभा: सेचनसमर्थाः “मह्यम् आसङ्गेन दत्ताः 
८-“रुशन्तः= दीप्यमानाः “दश दशगुणितसहस्रसंख्याकास्ते गवादयः “नळाइव । नळास्तटाकोद्भवास्तृणविशेषाः । ते यथा “सरसः तटाकात् {संघशो} निर्गच्छन्ति तथैव मह्यं दत्ता गवादयोऽस्मादासङ्गात् "निरतिष्ठन् निर्गत्यावास्थिषत । एवमेवंप्रकारेण मां स्तुहीति मेध्यातिथिं प्रत्युक्तत्वादेतासां चतसृणामृचां {प्रायोगिरासङ्ग ऋषिः स एव देवतेत्येतदुपपन्नं भवति} ॥

अनुवाद-
आसङ्ग यदुवंशी राजा सूक्त-दृष्टा मेधातिथि ऋषि को बहुत सारा धन देकर उन ऋषि को अपने द्वारा दिए गये दान के स्तुति करने के लिए प्रेरित करते है।

मेधातिथि शब्द बहुव्रीहि समास-मेधा से युक्त हैं अतिथि जिनके वह व्यक्ति ही मेधातिथि है  इस प्रकार के एक-मेधातिथि ऋषि ।

आप हमारी ही प्रशंसा करो , प्रसन्न रहो उदासीनता मत करो।
 निश्चित रूप से हम सब परिवारी जन और प्रयोग नाम वाले राजा के पुत्र आसङ्ग यदुवंश के राजा  दश हजार गायों के दान द्वारा अन्य दानदाताओं का उल्लंघन कर गायों का दान करता है। 



दासा शब्द द्विवचन में "यदु और "तुर्वसु के लिए भी आया है। और वैदिक निघण्टु में दास का अर्थ दानी, और रक्षक ( त्राता)  होता है।

अत: इस शब्द का अर्थ भी निघण्टु को अधिगत करके ही करना चाहिए- नकि 'दास' के आधुनिक सन्दर्भ में ! क्यों वैदिक काल में घृणा शब्द  दया भाव का वाचक था तो आज घृणा का अर्थ नफ़रत है।


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यदु शब्द व्युत्पत्ति की दृष्टि से यदु शब्द हिब्रू भाषा में यथावत् मिलता है।

जो कि हिब्रू क्रिया ( ידה) = यदा ) से सम्बन्धित है । जिसका अर्थ है - प्रशंसा करना -स्तुति करना।

इसी यदा क्रिया से संबंधित नाम हिब्रू भाषा में निम्नलिखित हैं।

•यादा ( यादा ) : अबीहुद , अबीहूद , अहिहूद , अम्मीहूद , बाले- यहूदा , एहूद , एलियुद , होद , होदवियाह ,  होदिय्याह , ईशहोद , जद्दै , यदायाह , यदूतून , येहूदी , यहूदी , यहूदा , यहूदा , यहूदा , यहूदिया , जूडिथ , आदि -

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(भारतीय पुराणों में यदु का अर्थ- यज्ञ तत्व को जानने वाले से है।)

यदु और यज्ञवती का विष्णु और दक्षिणा के अंश से उत्पन्न होना का प्रकरण" पौराणिक है।

(भगवती दक्षिणा का विवाह यज्ञ-पुरुष के साथ- होता है।)

"श्रीनारायण बोले- हे नारद! मैंने भगवती स्वाहा तथा स्वधाका अत्यन्त मधुर तथा कल्याणकारी उपाख्यान बता दिया। अब मैं भगवती दक्षिणाका आख्यान कह रहा हूँ, सावधान होकर सुनिये ॥1॥

प्राचीनकालमें गोलोक में भगवान् श्रीकृष्ण की प्रेयसी सुशीला नामक एक गोपी थी। परम धन्य, मान्य तथा मनोहर वह गोपी भगवती राधा की प्रधान सखी थी। वह अत्यन्त सुन्दर, लक्ष्मी के लक्षणों से सम्पन्न, सौभाग्यवती, उज्ज्वल दाँतोंवाली, परम पतिव्रता साध्वी, विद्या गुण तथा रूपसे अत्यधिक सम्पन्न थी।

वह विविध कलाओं में निपुण, कोमल अंगोंवाली, आकर्षक, कमलनयनी, श्यामा, सुन्दर नितम्ब तथा वक्षःस्थल से सुशोभित होती हुई वट वृक्षों से घिरी रहती थी।

उसका मुखमण्डल मन्द मुसकान तथा प्रसन्नता से युक्त था, वह रत्नमय अलंकारों से सुशोभित थी, उसके शरीर की कान्ति श्वेत चम्पा के समान थी, उसके ओष्ठ बिम्बाफल के समान रक्तवर्णके थे, मृगके सदृश उसके नेत्र थे, कामिनी तथा हंसके समान गतिवाली वह कामशास्त्र में निपुण थी।

भगवान् श्रीकृष्ण की प्रियभामिनी वह सुशीला उनके भावोंको भलीभाँति जानती थी।

तथा उनके भावों से सदा अनुरक्त रहती थी। रसज्ञान से परिपूर्ण, रासक्रीडा की रसिक तथा रासेश्वर श्रीकृष्णके प्रेमरस हेतु लालायित रहनेवाली वह गोपी सुशीला एक बार राधा के सामने ही भगवान् श्रीकृष्णके वाम अंक में बैठ गयी ॥ 2-7॥

तब मधुसूदन श्रीकृष्णने गोपिकाओं में परम श्रेष्ठ राधा की ओर देखकर भयभीत हो अपना मुख नीचे कर लिया।

उस समय कामिनी राधा का मुख लाल हो गया और उनके नेत्र रक्तकमल के समान हो गये। क्रोध से उनके अंग काँप रहे थे तथा ओठ प्रस्फुरित हो रहे थे।

तब उन राधा को बड़े वेग से जाती देखकर उनके विरोध से अत्यन्त डरे हुए भगवान् श्रीकृष्ण अन्तर्धान हो गये ॥ 8-10 ॥

कान्तिमान् शान्त स्वभाववाले, सत्त्वगुणसम्पन्न | तथा सुन्दर विग्रहवाले भगवान् श्रीकृष्ण को अन्तर्हित हुआ देखकर सुशीला आदि गोपियाँ भयसे काँपने लगीं।
[10/26, 6:57 AM] yogeshrohi📚: श्रीकृष्ण को अन्तर्धान हुआ देखकर वे भयभीत लाखों-करोड़ों गोपियाँ भक्तिपूर्वक कन्धा झुकाकर और दोनों हाथ जोड़कर 'रक्षा कीजिये- रक्षा कीजिये' ऐसा भगवती राधा से बार-बार कहने लगीं और उन राधा के चरण-कमल में भयपूर्वक शरणागत हो गर्यो।

हे नारद ! वहाँ के तीन लाख करोड़ सुदामा आदि गोप भी भयभीत होकर उन राधाके चरण कमल की शरण में गये ॥ 11 - 14 ॥

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परमेश्वरी राधा ने अपने कान्त श्रीकृष्ण को अन्तर्धान तथा सहचरी सुशीला को पलायन करते देखकर उन्हें शाप दे दिया कि यदि गोपिका सुशीला आज से गोलोक में आयेगी, तो वह आते ही भस्मसात् हो जायगी ।। 15-16।।


ऐसा कहकर श्रीराधा भक्तिपूर्वक श्रीकृष्णका ध्यान करने लगीं। विरहसे दुःखित तथा दीन वे राधिका प्रेम के कारण रो रही थीं और 'हे नाथ ! हे रमण ! मुझे दर्शन दीजिये'- ऐसा कह रही थीं ॥ 34॥

हे मुने ! इसके बाद राधा के द्वारा गोलोक से भूलोक पर शापित सुशीला नामक वह गोपी दक्षिणा नाम से प्रसिद्ध हुई।

दीर्घकाल तक उस दक्षिणा ने तपस्या करके भगवती लक्ष्मी के शरीर में स्थान प्राप्त कर लिया। अत्यन्त दुष्कर यज्ञ करने पर भी जब देवताओं को यज्ञफल नहीं प्राप्त हुआ, तब वे उदास होकर ब्रह्माजी के पास गये ॥ 35-36 ॥

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देवताओं की प्रार्थना सुनकर ब्रह्माजी ने बहुत समय तक भक्तिपूर्वक जगत्पति भगवान् श्रीहरि का ध्यान किया। अन्त में उन्हें प्रत्यादेश प्राप्त हुआ।

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भगवान नारायण ने महालक्ष्मी के विग्रह से मर्त्यलक्ष्मी को प्रकट करके और उसका नाम दक्षिणा रखकर ब्रह्माजी को सौंप दिया।
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 ब्रह्माजी ने भी यज्ञकार्यों की सम्पन्नता के लिये उन देवी दक्षिणा को यज्ञपुरुष हरि को पुन: समर्पित कर दिया।

तब यज्ञपुरुष ने प्रसन्नतापूर्वक उन देवी दक्षिणा की विधिवत् पूजा करके उनकी स्तुति की ।37-39॥

उन भगवती दक्षिणा का वर्ण तपाये हुए सोने के समान था; उनके विग्रह की कान्ति करोड़ों चन्द्रोंके तुल्य थी; वे अत्यन्त कमनीय, सुन्दर तथा मनोहर थीं; उनका मुख कमल के समान था; उनके अंग अत्यन्त कोमल थे; कमल के समान उनके विशाल नेत्र थे कमल के आसनपर पूजित होनेवाली वे भगवती कमला के शरीर से प्रकट हुई थीं, उन्होंने अग्निके समान शुद्ध वस्त्र धारण कर रखे थे; उन साध्वी के ओष्ठ बिम्बाफल के समान थे; उनके दाँत अत्यन्त सुन्दर थे; उन्होंने अपने

केशपाश में मालती के पुष्पों की माला धारण कर रखी थी; उनके प्रसन्नतायुक्त मुखमण्डल पर मन्द मुसकान व्याप्त थी; वे रत्नमय आभूषणों से अलंकृत थीं; उनका वेष अत्यन्त सुन्दर था वे विधिवत् स्नान किये हुए थीं वे मुनियों के भी मन को मोह लेती थीं कस्तूरीमिश्रित सुगन्धित चन्दन से बिन्दी के रूप में अर्धचन्द्राकार तिलक उनके ललाट पर सुशोभित हो रहा था;

केशों के नीचे का भाग (सीमन्त) सिन्दूर की छोटी-छोटी बिन्दियों से अत्यन्त प्रकाशमान था। सुन्दर नितम्ब, बृहत् श्रोणी तथा विशाल वक्षःस्थल से वे शोभित हो रही थीं; उनका विग्रह कामदेव का आधार-स्वरूप था और वे कामदेव के बाण से अत्यन्त व्यथित थीं ऐसी उन रमणीया दक्षिणा को देखकर यज्ञपुरुष मूर्च्छित हो गये।

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पुनः ब्रह्माजीके कथनानुसार उन्होंने भगवती दक्षिणा को पत्नीरूप में स्वीकार कर लिया ॥40-46 ॥

तत्पश्चात् यज्ञपुरुष उन रमेश ने रमारूपिणी भगवती दक्षिणा को निर्जन स्थान में ले जाकर उनके साथ दिव्य सौ वर्षों तक आनन्दपूर्वक विहार किया।

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अतीव गोपनीयं यदुपयुक्तं च सर्वतः ।अप्रकाश्यं पुराणेषु वेदोक्तं धर्मसंयुतम् ॥४॥

              "श्रीनारायण उवाच

नानाप्रकारमाख्यानमप्रकाश्यं पुराणतः ।श्रुतं कतिविधं गूढमास्ते ब्रह्मन् सुदुर्लभम्॥५॥

जो रहस्यमय, अत्यन्त गोपनीय, सबके लिये उपयोगी, पुराणों में अप्रकाशित, धर्मयुक्त तथा वेद प्रतिपादित हो ।2-4।

श्रीनारायण बोले- हे ब्रह्मन् ! ऐसे साहित्य-विध आख्यान हैं, जो पुराणों में वर्णित नहीं हैं। कई प्रकार के आख्यान सुने भी गये हैं, जो अत्यन्त दुर्लभ तथा गूढ़ हैं।

सन्दर्भ:- श्रीमद्देवी भागवत महापुराण- -9/43/4-5

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यदु यादवों के पूर्वज थे जिनका ऋग्वेद के दशम मण्डल में गोप रूप में वर्णन प्राप्त होता है।

यही यदु विष्णु के यज्ञ पुरूष रूप का अंश थे। यदु शब्द का ही वैदिक अर्थ होता - यजनशील-अथवा यज्ञ करने वाला- ऋग्वेद में यदु को गायों से घिरा हुआ गोप रूप में निम्न ऋचा में देखें-

"उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी ।" गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।। (ऋग्वेद १०/६२/१०) अर्थात् यदु और तुर्वसु नामक दास( दाता) हैं जो गायों से घिरे हुए हैं हम उन सौभाग्य शाली दाताओं की प्रशंसा करते हैं । यहाँ पर गोप शब्द स्पष्टत: है; गो-पालक ही गोप होते हैं

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"यदुः प्राह न शक्नोमि दातुं ते यौवनं नृप ।
जराया हेतवः पञ्च चिन्ता वृद्धस्त्रियस्तथा ।।७३।।

कदन्नं नित्यमध्वा च शीतजाठरपीडनम् ।
सा जरा रोचते मे न भोगकालो ह्ययं मम ।।७४।।

श्रुत्वा राजा शशापैनं राज्यहीनः सवंशजः ।
तेजोहीनः क्षत्रधर्मवर्जितः पशुपालकः ।।७५।।

यदु पशुपालन करने वाले राजा थे ।यह बात लक्ष्मी नारायणीय संहिता के उपर्युक्त श्लोकों से भी स्पष्ट होती है।

लक्ष्मीनारायणसंहिता - (द्वापरयुगसन्तानः)
अध्यायः(73)