"वसुदेव के गोप जीवन के शास्त्रीय सन्दर्भ:-
कश्यपस्य मुनेरंशो वसुदेवः प्रतापवान् ।
गोवृत्तिरभवद्राजन् पूर्वशापानुभावतः ॥४१ ॥
कश्यपस्य च द्वे पत्न्यौ शापादत्र महीपते ।
अदितिः सुरसा चैवमासतुः पृथिवीपते ॥४२॥
देवकी रोहिणी चोभे भगिन्यौ भरतर्षभ ।
वरुणेन महाञ्छापो दत्तः कोपादिति श्रुतम्॥ ४३॥
अनुवाद:
हे राजन्! कश्यपमुनिके अंशसे प्रतापी वसुदेवजी उत्पन्न हुए थे, जो पूर्वजन्मके शापवश इस जन्ममें गोपालन का काम करते थे ॥ 41 ॥हे महाराज! हे पृथ्वीपते! उन्हीं कश्यपमुनि की दो पत्नीयाँ- अदिति और सुरसा ने भी शापवश पृथ्वी पर अवतार ग्रहण किया था। हे भरतश्रेष्ठ ! उनदोनों ने देवकी और रोहिणी नामक बहनों के रूप में जन्म लिया था। मैंने यह सुना है कि क्रुद्ध होकर वरुण ने उन्हें महान् शाप दिया था ।। 42-43 ।।
दित्या अदित्यै शापदानम्
(व्यास उवाच)
कारणानि बहून्यत्राप्यवतारे हरेः किल ।
सर्वेषां चैव देवानामंशावतरणेष्वपि ॥ १॥
वसुदेवावतारस्य कारणं शृणु तत्त्वतः ।
देवक्याश्चैव रोहिण्या अवतारस्य कारणम्॥२॥
एकदा कश्यपः श्रीमान्यज्ञार्थं धेनुमाहरत् ।
याचितोऽयं बहुविधं न ददौ धेनुमुत्तमाम् ॥३॥
वरुणस्तु ततो गत्वा ब्रह्माणं जगतः प्रभुम् ।
प्रणम्योवाच दीनात्मा स्वदुःखं विनयान्वितः॥ ४॥
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किं करोमि महाभाग मत्तोऽसौ न ददाति गाम् ।
शापो मया विसृष्टोऽस्मै गोपालो भव मानुषे॥ ५॥
भार्ये द्वे अपि तत्रैव भवेतां चातिदुःखिते ।
यतो वत्सा रुदन्त्यत्र मातृहीनाः सुदुःखिताः ॥ ६ ॥
मृतवत्सादितिस्तस्माद्भविष्यति धरातले ।
कारागारनिवासा च तेनापि बहुदुःखिता ॥ ७ ॥
( व्यास उवाच ! )
तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य यादोनाथस्य पद्मभूः ।
समाहूय मुनिं तत्र तमुवाच प्रजापतिः ॥ ८ ॥
कस्मात्त्वया महाभाग लोकपालस्य धेनवः ।
हृताः पुनर्न दत्ताश्च किमन्यायं करोषि च ॥ ९ ॥
जानन् न्यायं महाभाग परवित्तापहारणम् ।
कृतवान्कथमन्यायं सर्वज्ञोऽसि महामते ॥ १० ॥
अहो लोभस्य महिमा महतोऽपि न मुञ्चति ।
लोभं नरकदं नूनं पापाकरमसम्मतम् ॥ ११ ॥
कश्यपोऽपि न तं त्यक्तुं समर्थः किं करोम्यहम् ।
सर्वदैवाधिकस्तस्माल्लोभो वै कलितो मया ।१२ ॥
धन्यास्ते मुनयः शान्ता जितो यैर्लोभ एव च ।
वैखानसैः शमपरैः प्रतिग्रहपराङ्मुखैः ॥ १३ ॥
संसारे बलवाञ्छत्रुर्लोभोऽमेध्योऽवरः सदा ।
कश्यपोऽपि दुराचारः कृतस्नेहो दुरात्मना ॥ १४ ॥
ब्रह्मापि तं शशापाथ कश्यपं मुनिसत्तमम् ।
मर्यादारक्षणार्थं हि पौत्रं परमवल्लभम् ।१५ ॥
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अंशेन त्वं पृथिव्यां वै प्राप्य जन्म यदोः कुले ।
भार्याभ्यां संयुतस्तत्र गोपालत्वं करिष्यसि॥ १६॥
(व्यास उवाच)
एवं शप्तः कश्यपोऽसौ वरुणेन च ब्रह्मणा ।
अंशावतरणार्थाय भूभारहरणाय च ॥ १७ ॥
व्यासजी बोले - [ हे राजन् ! ] भगवान् विष्णुके विभिन्न अवतार ग्रहण करने तथा इसी प्रकार सभी देवताओंके भी अंशावतार ग्रहण करनेके बहुतसे कारण हैं ॥ 1 ॥
अब वसुदेव, देवकी तथा रोहिणीके अवतारोंका कारण यथार्थ रूपसे सुनिये ॥ 2 ॥
एक बार महर्षि कश्यप यज्ञकार्य के लिये वरुणदेवकी गौ ले आये। [ यज्ञ-कार्य की समाप्ति के पश्चात्] वरुणदेव के बहुत याचना करने पर भी उन्होंने वह उत्तम धेनु वापस नहीं दी ॥ 3 ।
तत्पश्चात् उदास मनवाले वरुणदेवने जगत्के स्वामी ब्रह्माके पास जाकर उन्हें प्रणाम करके विनम्रतापूर्वक उनसे अपना दुःख कहा ॥ 4 ।
हे महाभाग ! मैं क्या करूँ? वह अभिमानी कश्यप मेरी गाय नहीं लौटा रहा है। अतएव मैंने उसे शाप दे दिया कि मानवयोनिमें जन्म लेकर तुम गोपालक हो जाओ और तुम्हारी दोनों भार्याएँ भी मानवयोनिमें उत्पन्न होकर अत्यधिक दुःखी रहें।
मेरी गायके बछड़े मातासे वियुक्त होकर अति दुःखित हैं और रो रहे हैं, अतएव पृथ्वीलोकमें जन्म लेनेपर यह अदिति भी मृतवत्सा होगी। इसे कारागारमें रहना पड़ेगा, उससे भी उसे महान् कष्ट भोगना होगा ॥ 5-7 ॥
व्यासजी बोले- जल-जन्तुओंके स्वामी वरुणका यह वचन सुनकर प्रजापति ब्रह्माने मुनि कश्यपको वहाँ बुलाकर उनसे कहा- हे महाभाग ! आपने लोकपाल वरुणकी गायोंका हरण क्यों किया; और फिर आपने उन्हें लौटाया भी नहीं। आप ऐसा अन्याय क्यों कर रहे हैं? ॥ 8-9 ॥
हे महाभाग ! न्यायको जानते हुए भी आपने दूसरेके धनका हरण किया। हे महामते। आप तो सर्वज्ञ हैं; तो फिर आपने यह अन्याय क्यों किया ? ॥ 10 ॥
अहो! लोभकी ऐसी महिमा है कि वह महान् से महान् लोगोंको भी नहीं छोड़ता है। लोभ तो निश्चय ही पापोंकी खान, नरककी प्राप्ति करानेवाला और सर्वथा अनुचित है ॥ 11 ॥
महर्षि कश्यप भी उस लोभका परित्याग कर सकनेमें समर्थ नहीं हुए तो मैं क्या कर सकता हूँ। अन्ततः मैंने यही निष्कर्ष निकाला कि लोभ सदासे सबसे प्रबल है ॥ 12 ॥
अतएव मर्यादाकी रक्षाके लिये ब्रह्माजीने भी अपने परमप्रिय पौत्र मुनिश्रेष्ठ कश्यपको शाप दे दिया कि तुम अपने अंशसे पृथ्वीपर यदुवंशमें जन्म लेकर वहाँ अपनी दोनों पत्नियोंके साथ गोपालनका कार्य करोगे ।। 15-16 ।।
व्यासजी बोले- इस प्रकार अंशावतार लेने तथा पृथ्वीका बोझ उतारनेके लिये वरुणदेव तथा ब्रह्माजीने उन महर्षि कश्यपको शाप दे दिया था ॥ 17 ॥
श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां ॥ चतुर्थस्कन्धे दित्या अदित्यै शापदानं नाम तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥
व्यासजी बोले - [ हे राजन् ! ] भगवान् विष्णुके विभिन्न अवतार ग्रहण करने तथा इसी प्रकार सभी देवताओंके भी अंशावतार ग्रहण करनेके बहुत से कारण हैं ॥ 1 ॥
अब वसुदेव, देवकी तथा रोहिणी के अवतारों का कारण यथार्थ रूपसे सुनिये ॥ 2 ॥
तत्पश्चात् उदास मनवाले वरुणदेव ने जगत्के स्वामी ब्रह्माके पास जाकर उन्हें प्रणाम करके विनम्रतापूर्वक उनसे अपना दुःख कहा ॥ 4 ॥
हे महाभाग ! मैं क्या करूँ? वह अभिमानी कश्यप मेरी गाय नहीं लौटा रहा है। अतएव मैंने उसे शाप दे दिया कि मानवयोनिमें जन्म लेकर तुम गोपालक हो जाओ और तुम्हारी दोनों भार्याएँ भी मानवयोनिमें उत्पन्न होकर अत्यधिक दुःखी रहें। मेरी गाय के बछड़े मातासे वियुक्त होकर अति दुःखित हैं और रो रहे हैं, अतएव पृथ्वीलोकमें जन्म लेनेपर यह अदिति भी मृतवत्सा होगी। इसे कारागारमें रहना पड़ेगा, उससे भी उसे महान् कष्ट भोगना होगा ॥ 5-7
अहो! लोभकी ऐसी महिमा है कि वह महान् से महान् लोगोंको भी नहीं छोड़ता है। लोभ तो निश्चय ही पापोंकी खान, नरककी प्राप्ति करानेवाला और सर्वथा अनुचित है ॥ 11 ॥
महर्षि कश्यप भी उस लोभका परित्याग कर सकनेमें समर्थ नहीं हुए तो मैं क्या कर सकता हूँ। अन्ततः मैंने यही निष्कर्ष निकाला कि लोभ सदासे सबसे प्रबल है ॥ 12 ॥
अतएव मर्यादाकी रक्षाके लिये ब्रह्माजीने भी अपने परमप्रिय पौत्र मुनिश्रेष्ठ कश्यपको शाप दे दिया कि तुम अपने अंशसे पृथ्वीपर यदुवंशमें जन्म लेकर वहाँ अपनी दोनों पत्नियोंके साथ गोपालनका कार्य करोगे ।। 15-16 ।।
व्यासजी बोले- इस प्रकार अंशावतार लेने तथा पृथ्वीका बोझ उतारनेके लिये वरुणदेव तथा ब्रह्माजीने उन महर्षि कश्यपको शाप दे दिया था ॥ 17 ॥
उधर कश्यपकी भार्या दितिने भी अत्यधिक शोकसन्तप्त होकर अदिति को शाप दे दिया कि क्रमसे तुम्हारे सातों पुत्र उत्पन्न होते ही मृत्युको प्राप्त हो जायँ ॥ 18 ॥
क एष वसुदेवस्तु देवकी च यशस्विनी ।
नन्दगोपस्तु कस्त्वेष यशोदा य महायशाः ॥ २,७१.२३६ ॥
यो विष्णुं जनयामास यं च तातेत्यभाषत ।
या गर्भं जनयामास या वैनं याभ्यवर्द्धयत् ॥ २,७१.२३७ ॥
सूत उवाच
कश्यपो ब्रह्मणोंऽशश्च पृथिव्या आदितिस्तथा ॥ २,७१.२३८ ॥
नन्दो द्रोणः समाख्यातो यशोदा च धराभवत् ।
अथ कामान्महाबाहुर्देवक्याः संप्रवर्द्धयन् ॥ २,७१.२३९ ॥
अचरत्स महीं देवः प्रविष्टो मानुषीं तनुम् ।
मोहयन्सर्वभूतानि योगात्मा योगमायया ॥ २,७१.२४० ॥
नष्टे धर्मे तदा जज्ञे विष्णुर्वृष्णिकुले स्वयम् ।
कर्त्तुं धर्मव्यवस्थानमसुराणां प्रणाशनम् ॥ २,७१.२४१ ॥
गोपायन यः कुरुते जगतः सर्वकालिकम्॥२,७२.१२॥
स कथं गां गतो विष्णुर्गोपत्वमकरोत्प्रभुः।
महाभूतानि भूतात्मा यो दधार चकार ह॥२,७२.१३॥
तस्य पत्नी धरा साध्वी यशोदा सा तपस्विनी ।१७।
एकदा च धरा द्रोणौ पर्वते गन्धमादने ।।
पुण्यदे भारते वर्षे गौतमाश्रमसन्निधौ ।। १९ ।।
चक्रतुश्च तपस्तत्र वर्षाणामयुतं मुने ।।
श्रीकृष्णदर्शनार्थं च निर्जने सुप्रभातटे ।4.9.२० ।।
क एष वसुदेवश्च देवकी च यशस्विनी।
नन्दगोपस्तु कस्त्वेष यशोदा च महायशाः।
यो विष्णुं जनयामास या चैनं चाभ्यवर्द्धयत् ॥२२९।
॥सूत ऊवाच॥
भीष्म उवाच
क एष वसुदेवस्तु देवकी का यशस्विनी।१४४।
नन्दगोपश्च कश्चैव यशोदा का महाव्रता
या विष्णुं पोषितवती यां स मातेत्यभाषत।१४५।
"या गर्भं जनयामास या चैनं समवर्द्धयत्
(पुलस्त्य उवाच). "पुरुषः कश्यपश्चासावदितिस्तत्प्रिया स्मृता।१४६।
कश्यपो ब्रह्मणोंशस्तु पृथिव्या अदितिस्तथा
नन्दो द्रोणस्समाख्यातो यशोदाथ धराभवत्।१४७।
अथकामान्महाबाहुर्देवक्याः समपूरयत्।
ये तया काङ्क्षिताः पूर्वमजात्तस्मान्महात्मनः। १४८।
पुलस्त्यजी बोले- राजन् पुरुष वसुदेव जी कश्यप # और उनको प्रिया देवकी अदिति कही गयी हैं।
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