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वन्दे वृन्दावन-वन्दनीयं।
सर्व लोकै रभिनन्दनीयं।
कर्मस्य फल इति ते नियम।
कर्मेच्छा सङ्कल्पो वयम्।१।
वृन्दावन के लोगों के लिए वन्दनीय और सभी लोगों के द्वारा अभिनन्दन (स्वागत ) करने योग्य भगवान श्रीकृष्ण ही कर्म सिद्धान्त के नियामक हैं। उन्होंने ही सृष्टि के प्रारम्भ में अहं समुच्चय( वयं( से संकल्प और संकल्प से इच्छा उत्पन्न करके संसार में कर्म का अस्तित्व निश्चित किया।१।
भक्त-भाव सुरञ्जनं ।
राग-रङ्ग त्वं सञ्जनं।।
बोध -शोध मनमञ्जनं
नमस्कार खल-भञ्जनं।२।
भक्तों के भावों में समर्पण के रंग भरने वाले ,राग और रंग के समष्टि रूप, मन को भक्ति में स्नान कराकर उसे शुद्ध करके ज्ञान का प्रकाश भरने वाले खलों (दुष्टों) को दण्डित करने वाले प्रभु को हम नमस्कार करते हैं।२।
मयूर पुच्छ तव मस्तकं ।
मुरलि मञ्जु शुभ हस्तकं।
ज्ञान रश्मि त्वं प्रभाकरं। गुणातीत गुरु- गुणाकरं।३।
अनुवाद:-मयूर के पूँछ से निर्मित मुकुट तेरे मस्तक पर और हाथों में सुन्दर और शुभ मुरली है। हे मन मोहन ! तू ज्ञान की किरणें विकीर्ण करने वाला प्रभाकर (सूर्य)है। तू आत्मा का ज्ञान देने वाला गुरु, प्रकृति के तीन गुणों से परे होने पर भी कल्याणकारी गुणों का भण्डार है।३।
नमामि याम: त्वं अष्टकं-
हर्त्तृ शोक अति कष्टकं।
भव-बन्ध मम मोचनं ।
सर्व भक्तगण रोचनं।४।
अनुवाद:- हे मनमोहन ! मैं आठो पहर तुमको नमन करूँ ! तुम अत्यधिक शोक और कष्टों को हरने वाले हो ! संसार के द्वन्द्व मयी बन्धनों से मुझे मुक्त करने वाले और सब भक्तों को प्रिय हे मोहन ! मैं तुझे नमन करता हूँ।४।
कृष्ण श्याम त्वं मेघनं, लभेमहि जीवन धनं।
रोमैभ्यो गोपा: सर्जकं। सकल सिद्धी: त्वं अर्जकं।५।
अनुवाद:- हे कृष्ण तुम्हारी कान्ति काले बादलों के समान है। हम तुझ जीवन के धन को प्राप्त करें। तुमने गोलोक में ही पूर्वकाल में सभी गोपों की सृष्टि अपने ही रोम कूपों से की थी। तुम सभी सिद्धियों को स्वयं ही प्राप्त हो।५।
कृपा- सिन्धु गुरु- धर्मकं।
नमामि प्रभु उरु कर्मकं।।
बलि प्रथाया निवारणं।
हिंसा तस्या कारणं।।६।
अनुवाद:- कृपा के समुद्र, धर्म का यथार्थ बोध कराने वाले गुरु ! महान कर्मों के कर्ता प्रभु ! हम तुझे नमस्कार करते हैं। तूने इन्द्र की पशुओं की बलि ( हिंसा) से पूर्ण यज्ञें बन्द करायीं, जो निर्दोष पशुओं की हिंसा का कारण थी ।६।
स्नातकं प्रभु- सुगोरजं
सदा विराजते त्वं व्रजं।।
दधान ग्रीवायां मालकं। नमामि-आभीर बालकं।७।
अनुवाद:- सुन्दर गाय के निवास स्थान की रज( मिट्टी) से स्नान करने वाले, सदैव व्रज( गायों का बाड़ा) में विराजने वाले, गले में माला धारण करने वाले, अहीर बालक के रूप में रहने वाले प्रभु ! मैं तुम्हें नमस्कार हूँ।७।
गोप-गोपयो रधिनायकं।
वैष्णव धर्मस्य विधायकं।।
व्रज रज ते विभूषणं ।
नमामि कोटिश: पूषणं।९।
अनुवाद:- हे कृष्ण तुम गोप और गोपियों के अधिनायक ( मार्गदर्शन करने वाले), वैष्णव वर्ण और धर्म का संसार में विधान करने वाले भक्तों का पोषण करने वाले हो ! प्रभु तुम्हें हम कोटि -कोटि नमस्कार करते हैं।९।
निष्काम कर्मं निर्णायकं।
सुतान वेणु लय -गायकं।
दीन बन्धो: त्वं सहायकं।
नमामि यादव विनायकं।१०।
अनुवाद:- संसार को निष्काम कर्म का उपदेश देने वाले ,बाँसुरी पर सुन्दर तान के द्वारा लय से गायन करने वाले , दीन दु:खीयों के सहायता करने वाले, यादवों के विशेष नेता तुमको हम नमस्कार करते हैं। १०।
किशोर वय- सुव्यञ्जितम्।
राग-रङ्ग शोभित नितम्
नमस्कार प्रभु ऋत-व्रतम्
पाययाञ्चकार गीतामृतं।११।
अनुवाद:- गोलोक में सदैव किशोर अवस्था में विद्यमान, राग -रंग से शोभित, रासधारी सत्य व्रतों का पालन करने वाले, तुमने गीता का अमृत पिलाया ।११।
वन्यमाल कण्ठे धारिणं । नमामि व्रजस्य विहारिणं।
वैजयन्ती लालित्य हारिणं। लीला विलोल विस्तारिणं।१२।
अनुवाद:- वनों की सुन्दर माला कण्ठ में धारण करने वाले और सम्पूर्ण व्रज में भ्रमण करने वाले, सुन्दर लीलाओं का विस्तार करने वाले, सुन्दर वैजयन्ती माला धारण करने वाले, भगवान कन्हैया को हम नमस्कार करते हैं।१२।
इस पॉकेट बुक्स साइज ". "श्रीकृष्ण-साराङ्गिणी" नामक पुस्तिका को लिखने का एक मात्र उद्देश्य समाज में श्रीकृष्ण जीवन- चरित्र विषयक वार्तालाप के उपरान्त हुए प्रश्नों तथा कुछ भ्रान्ति मूलक टिप्पणीयों का सम्यक शास्त्रीय उत्तरों को खोजकर त्वरित समाधान करना है।
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यह "श्रीकृष्ण-साराङ्गिणी" पुस्तिका वास्तव में भगवान श्रीकृष्ण का शास्त्रीय कलेवर (शरीर ) ही है। उनके जीवन के अद्भुत पहलुओं का अंकन इसमें किया गया है।
अत: इस पुस्तिका को भगवान् श्रीकृष्ण के पूजा- स्थल पर रखकर भक्तगण स्वयं भगवान श्रीकृष्ण की उपस्थिति का आभास कर सकते हैं।
श्रीकृष्ण के जीवन के सार- गर्भित चरित्रों के चित्रों का शब्दांकन करने में इस पुस्तिका के प्रेरणा -श्रोत बनकर परम श्रद्धेय, सन्त- हृदय, गोपाचार्य हंस आत्मानन्द जी सदैव मुख्य भूमिका में उपस्थित रहें हैं।
जिनके आध्यात्मिक मार्गदर्शन में यह पुस्तिका अतीव सार-गर्भित होकर अपने नाम को सार्थक करती है।
अनुनीत- विनीत-
लेखक गण-
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