"प्रस्तावना-
भगवान श्रीकृष्ण व्रज- संस्कृति के एक अद्भुत एवं विलक्षण नायक हैं। एक ऐसा व्यक्तित्व जिसकी तुलना न किसी अवतार से की जा सकती है और न संसार के किसी महापुरुष से।
ये अवतार नहीं अपितु स्वयं अवतारी हैं।
इनके जीवन की प्रत्येक लीला में, प्रत्येक घटना में एक ऐसा विरोधाभास दिखता है जो साधारणतः लोगों सांसारिक बौद्धिक दृष्टिकोण से समझ में नहीं आता है। यही उनके जीवन चरित की विलक्षणता है।
ज्ञानी-ध्यानी जिन्हें खोजते हुए हार जाते हैं, और जो याज्ञिक कर्म काण्डों में भी नहीं मिलते हैं।
वे मिलते हैं ब्रजभूमि की किसी कुंज-निकुंज में, व्रज की अधीश्वरी राधा के चरणयुगलों को दबाते हुए - यह श्रीकृष्ण के चरित्र की विलक्षणता ही तो है कि वे अजन्मा होकर भी पृथ्वी पर माँ के गर्भ से जन्म लेते हुए आते हैं।
मृत्युंजय होने पर भी लोक में मृत्यु का वरण भी करते हैं। वे सर्वशक्तिमान होने पर भी जन्म लेते हैं कंस के कारागृह में।
श्रीकृष्ण ने मनुष्य जाति को नया जीवन-दर्शन दिया। जीने की शैली सिखाई। और उनका जीवन-कथा अनेक अलौकिक चमत्कारों से भरी है, लेकिन वे हमें जितने सामान्य लगते हैं, उतना कोई और नहीं !
लौकिक दृष्टि से कृष्ण ईश्वर हैं पर उससे भी पहले सफल, गुणवान एक महामानव है। वे ईश्वर होते हुए भी सबसे ज्यादा मानवीय लगते हैं। इसलिए श्रीकृष्ण को मानवीय भावनाओं, इच्छाओं और कलाओं का प्रतिमान माना गया है।
वे अर्जुन को संसार का रहस्य समझाते हैं, वे कंस का वध करते हैं, लेकिन उनकी छवि एक गुरु और सखा की भी है। संसार को आत्मा की अमरता और पूर्णता बोध कराते हैं।
यमुना के तट पर गोपों के साथ बाल- क्रीडाऐं करते हुए गोपियों के साथ रासनृत्य भी रचाते देखा जाते हैं। यह रास गोपों की सांस्कृतिक परम्परागत गतिविधि का अवयव है।
श्रीकृष्ण सच्चे अर्थों में लोकनायक हैं, जो अपनी यौगिक शक्तियों से द्वापर के आकाश पर सूर्य के समान दैदीप्यमान ही नहीं होते , बल्कि एक जनमानस में उनकी आस्थाओं में तथा पौराणिक घटनाओं की पृष्ठभूमि में भी बने रहते हैं।
वास्तव में, श्रीकृष्ण में वह सब कुछ विद्यमान है जो मानवीय है और मानवेतर भी है ! वे संपूर्ण हैं, तेजोमय हैं, परम-ब्रह्म हैं, ज्ञान हैं। इसी अमर ज्ञान रूपी दौलत की बदौलत उनके जीवन प्रसंगों में प्रेरणा है। और गीता के आधार पर कई ऐसे नियमों एवं जीवन सूत्रों को उन्होंने प्रतिपादित किया गया है, इस युग के लिए जीवन पद्धति है।
श्रीकृष्ण का व्यक्तित्व एवं कृतित्व बहुआयामी एवं बहुरंगी है, अर्थात - गोपालन , कृषि, युद्धनीति, आध्यात्मिकता , दार्शनिकता- आकर्षण और कर्षण, प्रेमभाव, गुरुत्व, सुख, दु:ख के समत्व आदि का सम्यक प्रतिपादन है कृष्ण की बौद्धिक विशेषता है।
एक भक्त के लिए श्रीकृष्ण भगवान तो हैं ही, साथ में वे जीवन जीने की कला भी सिखाने वाले कलाकार हैं। उन्होंने अपने व्यक्तित्व की विविध विशेषताओं से भारतीय-संस्कृति में महानायक का पद को प्राप्त किया है।
एक ओर वे राजनीति के ज्ञाता, तो दूसरी ओर दर्शन के प्रकाण्ड वेत्ता और समाजवाद के भी पक्षधर हैं। भागवत धर्म का प्रतिपादन कर उन्होंने स्त्री और शूद्रों के लिए भी ईश्वरीय उपासना के द्वार खोल दिए-
धार्मिक जगत में भी नेतृत्व करते हुए ज्ञान-कर्म-भक्ति का समन्वयवादी जीवन उपासना मार्ग उन्होंने प्रवर्तित किया।
उन्हें हम एक महान् क्रांतिकारी नायक के रूप में स्मरण करते हैं। वे दार्शनिक, चिंतक, गीता के माध्यम से कर्म और सांख्य योग के संदेशवाहक और महाभारत युद्ध के नीति निर्देशक थे।
गीता में इसी की भावाभिव्यक्ति उनके द्वारा की गयी है - हे अर्जुन! जो भक्त मुझे जिस भावना से भजता है मैं भी उसको उसी प्रकार से भजता हूं।
"ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।।4.11। (श्रीमद्भगवद्गीता)
श्रीकृष्ण का चरित्र एक लोकनायक का चरित्र है। वह द्वारिकाधीश भी है किंतु कभी उन्हें राजा श्रीकृष्ण के रूप में सम्बोधित नहीं किया जाता। क्योंकि वे लोक तन्त्र के स्थापक और व्यवस्थापक हैं।
वास्तव में श्रीकृष्ण का व्यक्तित्व भारतीय इतिहास के लिए ही नहीं, अपितु विश्व इतिहास के लिए भी अलौकिक एवम आकर्षक व्यक्तित्व है।
उन्होंने विश्व के मानव मात्र के कल्याण के लिए अपने जन्म से लेकर गोलोक गमन पर्यन्त अपनी सरस एवं मोहक लीलाओं तथा परम पावन उपदेशों से अंत: एवं बाह्य दृष्टि द्वारा जो अमूल्य शिक्षण दिया था वह किसी वाणी अथवा लेखनी की वर्णनीय शक्ति एवं मन की कल्पना की सीमाओं में नहीं आ सकता।
श्रीकृष्ण जीवन-दर्शन के पुरोधा गोपालन करने वाले गोपों के नायक और योद्धा बनकर आए थे। उनका अथ से इति तक का पूरी जीवन - यात्रा पुरुषार्थ की प्रेरणा है।
उन्होंने उस समाज में अवतरण किया जब निरंकुश शक्ति के नशे में चूर सत्ता नैतिक मूल्यों को तिलाञ्जलि देकर उन्मत्त हो गयी थी।
सत्ता को कोई चुनौती न दे सके इसलिए दुधमुंहे बच्चे मार दिए जाते थे। स्वयं श्रीकृष्ण के जन्म की गाथा भी ऐसी ही है।
श्रीमद्भगवद्गीता के संवाद रूप में श्रीकृष्ण ने अर्जुन की मानसिक व्यथा का निदान करते हुए उसे एक मनोवैज्ञानिक उपचार तथा समाधान दिया-
श्रीकृष्ण जन्मोत्सव सामाजिक समता का उदाहरण है। उन्होंने मथुरा नगर में जन्म लिया और गोकुल गांव में खेलते हुए उनका बचपन व्यतीत हुआ। इस प्रकार उनका चरित्र गांव व नगर की संस्कृति को भी जोड़ता है, गरीब को अमीर से जोड़ता है, गोचारक से गीता के उपदेशक होना, दुष्ट कंस को मारकर महाराज उग्रसेन को उनका राज्य पर पुन: अभिषिक्त करना,
कोई भी साधारण मानव श्रीकृष्ण की तरह समाज की प्रत्येक स्थिति को छूकर, सबका प्रिय होकर राष्ट्रोद्धारक बन सकता है।
अध्यात्म के विराट आकाश में श्रीकृष्ण ही अकेले ऐसे नक्षत्र तुल्य महामानव हैं जो धर्म की अथाह गहराइयों व ऊंचाइयों पर जाकर भी न तो गंभीर ही दिखाई देते हैं और न ही उदासीन दिखाई पड़ते हैं, अपितु पूर्ण रूप से जीवनी शक्ति से भरपूर व्यक्तित्व हैं।
कृष्ण धर्म के पुन:स्थापक हैं । धर्म कृष्ण का सहवर्ती है । और विजय धर्म की सहवर्ती है।
यत: कृष्णस्ततो धर्मो यतो धर्मस्ततो जय:।
महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय-167 श्लोक संख्या 40 -
"जिधर कृष्ण हैं उधर धर्म है और जिधर धर्म है उधर ही विजय श्री है।
स्त्री-पुरुष संबंधों को लेकर तथा स्त्री स्वतन्त्रता और स्वाभिमान को लेकर कृष्ण का दृष्टिकोण जितना उदार है उतना पौराणिक इतिहास में किसी अन्य नायक का नहीं है।
महिलाओं के लिए श्रीकृष्ण के विचार आज के तथाकथित प्रगतिशाली विचारों से कहीं ज्यादा ईमानदार और प्रभावशाली थे।
महिलाओं की सहायता और सम्मान का भाव कृष्ण का मौलिक गुण व स्वभाव है।
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उन्होंने अपनी बहिन सुभद्रा का विवाह उनकी इच्छा के ही अनुसार अर्जुन से तो होने दिया परन्तु नैतिक विरोध अवश्य किया।
क्योंकि सभी यादव अर्जुन के इस कृत्य के जोर विरोधी थे।
क्रुद्धमानप्रलापश्च वृष्णीनामर्जुनं प्रति।
पौरुषं चोपमां कृत्वा प्रावर्तत धनुष्मताम्।२४।
महाभारत आदि पर्व- अध्याय 241- 23 वाँ श्लोक-
नरकासुर नाम के अत्याचारी राजा को मार कर उसकी कैद 16 हजार बंधक कन्याओं को समाज में वापस सम्मानजनक दर्जा दिलाने के लिए उन्हें पत्नी के रूप में स्वीकार किया।
श्रीकृष्ण ग्रामीण संस्कृति के पोषक बने हैं। उन्होंने अपने समय में गायों को अभूतपूर्व सम्मान दिया। वे गायों एवं ग्वालों के स्वास्थ्य, उनके खान-पान को लेकर सजग थे। उन्होंने जहां ग्वालों की मेहनत से निकाला गया माखन और दूध-दही को स्वास्थ्य रक्षक के रूप में प्रतिष्ठित किया वही इन अमूल्य चीजों को ‘कर’ के रूप में कंस को देने से रोका।
वे चाहते थे कि इन चीजों का उपभोग गांवों में ही हो। श्रीकृष्ण का माखनचोर वाला रूप दरअसल निरंकुश सत्ता को सीधे चुनौती तो था ही, लेकिन साथ ही साथ ग्रामीण संस्कृति को प्रोत्साहन देना भी था। कृष्ण कृषि पद्धति के प्रथम सर्जक थे।
यत्सन्निधावहमु खाण्डवमग्नयेऽदामिन्द्रं च सामरगणं तरसा विजित्य।
लब्धा सभा मयकृताद्भुतशिल्पमाया दिग्भ्योऽहरन्नृपतयो बलिमध्वरे ते ॥८॥
यत्तेजसा नृपशिरोऽङ्घ्रिमहन्मखार्थे आर्योऽनुजस्तव गजायुतसत्ववीर्यः।
तेनाहृताः प्रमथनाथमखाय भूपा यन्मोचितास्तदनयन् बलिमध्वरे ते ॥९॥
दस हजार हाथियों की शक्ति और बल से सम्पन्न आपके इन छोटे भाई भीमसेन ने उन्हीं की शक्ति से राजाओं के सिर पर पैर रखने वाले अभिमानी जरासन्ध का वध किया था; तदनन्तर उन्हीं भगवान ने उन बहुत-से राजाओं को मुक्त किया, जिनको जरासन्ध ने महाभैरव-यज्ञ बलि चढ़ाने के लिये बंदी बना रखा था। उन सब राजाओं ने आपके यज्ञ में अनेकों प्रकार के उपहार दिये थे ।
भागवत पुराण १/१५
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