शनिवार, 18 मई 2024
बुधवार, 15 मई 2024
सुरा-
असुर शब्द को दो प्रकार से परिभाषित किया गया है :—
असु नाम की शुभङ्कर शक्ति से युक्त असु + र; ऋग्वेद में असुर शब्द इस अर्थ में है, एवं इन्द्र, वरुण, आदि ऋग्वेदिक देवताओं को भी असुर की उपाधि से विभूषित किया गया है।
असुर शब्द को जो अ+सुर; अर्थात जो सुर न हो इस अर्थ में भी वर्णन किया गया है। पौराणिक विहङ्गम में यही मुख्य अर्थ है।
असुर शब्द की व्युत्पत्ति की विस्तृत व्याख्या इस आलेख में उपलब्ध है।
वर्तमान समय में असुर शब्द को सुरों के विरोधी के अर्थ में ही सीमित कर दिया गया है।
इस आलेख में शब्द व्युत्पत्ति के आधार पर दैत्यों तथा दानवों को भी देने वाले की रूप में; तथा राक्षसों की रक्षण करने वाले के अर्थ में व्याख्या की गई है।
असुरों का सुर विरोधी होने के अर्थ में होने और देवताओं के सुर कहलाने का कारण जाने के लिए सुर शब्द कुछ भी व्याख्या आवश्यक है।
असुर शब्द की व्युत्पत्ति में यह स्पष्ट है कि असुर शब्द के शुभ करने वाली दिव्य शक्ति के अर्थ में अनेक भारोपीय बन्धु शब्द हैं। ऋग्वेद में भी असुर शब्द शुभ दिव्य शक्ति के अर्थ में है। किन्तु सुर शब्द के अन्य भारोपीय बन्धु शब्द न होने से अनेक शोधार्थी इसे असुर के विलोम शब्द के रूप में व्युत्पन्न मानते हैं। न कि असुर शब्द को सुर के विलोम रूप में।
सुर [सुष्ठु राति ददात्यभीष्टं; सु-रा-क्त] शब्द की व्युत्पत्ति रा धातु से हुई है; इस धातु से देने, मनोकामना पूर्ण करने, आदि के अर्थ में शब्दों की रचना होती है।
रा रा दाने अदादिः परस्मैपदी सकर्मकः अनिट् (देना, मिल जाना, अनुदान ) — धातुपाठ २.५२ (कौमुदीधातुः-१०५७)
सुर शब्द को सूर्य (जो जीवनदायी प्रकाश देता है), विद्वान व्यक्ति (जो ज्ञान देता है), तथा मनोकामनाएँ पूर्ण कर देने वाले देवताओं के अर्थ में प्रयोग किया जाता है। चूँकि देवताओं का वर्गीकरण तैंतीस कोटियों में किया गया है; ३३ की सङ्ख्या को भी सुर कहा गया है।
स्वर को भी सुर ही कहते हैं। जीवनदायी जल को सुर कहा जाता है; वहीं, मद्य (सुरा), चषक (मद्यपात्र) को भी सुर कहा जाता है।
सुरा को भी दो भिन्न प्रकार से परिभाषित किया गया है —
धनवान के अर्थ में
सुराः / सुरै [धनवान् । सु शोभनो रा धनं यस्येति बहुव्रौहौ कृते रैशब्दस्य रादेशेन निष्पन्नः ॥ ];
तथा;
सु अभिषवे + क्रन् । स्त्रियां टाप्;
जो अभीष्ट की प्राप्ति कराए; यह शब्द इस प्रकार मद्य, जल, तथा चषक के अर्थ में है।
सुरा मूलतः चावल अथवा अङ्कुरित यव (जौ / तक्म) के दानों को खमीर (नगन्हू) युक्त औषधिय वनस्पतियों से खमीर उठाकर बनाने का विवरण कात्यायन श्रोत सूत्र में मिलता है।
दक्षिणेन हृत्वा नग्नहुचूर्णानि कृत्वा तांश्च व्रीहि-श्यामाकौदनयो! एथगापृथगाचामौ निषिच्य चूर्णे: सर्ठ०सृज्य निदघाति तन्मासरम् ॥ २० ॥
ओदनौ चूर्णमासरैः सर्ठ०सृज्य “खाद्वी त्वार्ठ ०शुना त” इति (१९।१,२०।२७) त्रिरात्र निदघाति ॥ २१ ॥
—कात्यायन श्रोत सूत्र
यह यज्ञ के लिए बनाया गया पेय है; जो साके अथवा बियर के समतुल्य है। चूँकि यह देवताओं को अर्पण करने के लिए बनाया जाता रहा है। अतः कुछ स्थानों पर यह विवरण मिलता है कि जिन्होंने यज्ञ का सुरापान किया, वे सुर तथा जिन्हें इससे वञ्चित रखा गया वे असुर कहलाए। यथा, सौत्रामणी यज्ञ में विशेषकर इन्द्र को सुरापान करने का आह्वान किया जाता है; शाङ्खायनश्रौतसूत्र में यम, अश्विन, सरस्वती, इन्द्र आदि को सुरापान का इस मन्त्र के साथ आह्वान किया जाता है :—
यमश्विना नमुचावासुरे दधि सरस्वत्यसुनोदिन्द्रियाय
इमं तं शुक्रं मधुमन्तमिन्दुं सोमं राजानमिह भक्षयामि
इति भक्षमन्त्रः सुरायाः॥— शाङ्खायनश्रौतसूत्र १५.१५.१३ ॥
देवता भी अपने आह्वान करने वालों को सुरा प्रदान करते हैं; यह ऋग्वेद की इस ऋचा से सुस्पष्ट है :—
युवं नरा स्तुवते पज्रियाय कक्षीवते अरदतं पुरंधिम् ।
कारोतराच्छफादश्वस्य वृष्णः शतं कुम्भाँ असिञ्चतं सुरायाः ॥७॥— ऋग्वेदः १.११६.७
भावार्थ :—
हे नेतृत्व क्षमता से संपन्न अश्विनीकुमारों आपने पज्रिकुल के काक्षीवान को, नगर की रक्षा के लिए परामर्श दिए; आपने अपने बलशाली घोड़े के खुर की आकृति के एक पात्र से आपने सुरा के सौ घड़े भर दिए।
कहीं कहीं सुरा को मधु के साथ भी व्यक्त किया गया है; अतः यह मधु (शहद; फूलों ले रस) की मदिरा भी हो सकती है।
वैसे, पौराणिक विहङ्गम में विशेषकर ब्रह्माण्ड पुराण, विष्णु पुराण, पद्म-पुराण में समुद्रमन्थन के समय समुद्र से वारुणी (सुरा की देवी जिन्हे वरुण की पुत्री भी कहते हैं) के उत्पन्न होने का विवरण मिलता है। इन्हें दैत्यों ने अस्वीकार किया; किन्तु, देवताओं ने अपनाया, अतः देवता सुर कहलाए!
ध्यान दें कि यद्यपि सुरापान को अधिकांश वैदिक, तथा वेदोत्तर काल का विहङ्गम वर्जित करता है; विशेषकर ब्राह्मणों के लिए! किन्तु, देवताओं पर वह नियम नहीं लगाए जा सकते जोकि मानवों पर लगाए जाते हैं। यथा, पद्मपुराण से,
सुलक्ष्मीर्नाम सा चैका द्वितीया वारुणी तथा ।
ज्येष्ठा नाम तथा ख्याता कामोदान्या प्रचक्षते ८।
तासां मध्ये वरा श्रेष्ठा पूर्वं जाता महामते ।
तस्माज्ज्येष्ठेति विख्याता लोके पूज्या सदैव हि ९।
वारुणीपानरूपा च पयःफेनसमुद्भवा ।
अमृतस्य तरंगाच्च कामोदाख्या बभूव ह १०।
सोमो राजा तथा लक्ष्मीर्जज्ञाते अमृतादपि ।
त्रैलोक्यभूषणः सोमः संजातः शंकरप्रियः ११।
मृत्युरोगहरा जाता सुराणां वारुणी तथा ।
ज्येष्ठासु पुण्यदा जाता लोकानां हितमिच्छताम् १२। — पद्मपुराणम्/खण्डः २ (भूमिखण्डः)/अध्यायः ११९
[(समुद्रमन्थन से जो चार कन्याएँ प्रकट हुईं) उनमें से एक का नाम सुलक्ष्मी और दूसरी का वारुणी था। तीसरी ज्येष्ठा तथा चतुर्थ कामोदा के नाम से प्रसिद्ध है। हे ज्ञानीजनों, इन महिलाओं में से सर्वश्रेष्ठ का जन्म अतीत में हुआ था अतः वह जगत में ज्येष्ठ कहलाती है और सदैव पूजी जाती है। वरुणी पेय के रूप में है और वह फेन (झाग) के रूप में प्रकट हुई थी। अमृत की तरङ्ग से उत्पन्न से वह कामोदा कहलाई। सोम देव (चन्द्रमा) तथा लक्ष्मी भी इसी अमृत से प्रकट हुईं। सोम तीनों लोकों का आभूषण बने और शिव को प्रिय हुए। इसी प्रकार वारुणी सुरों की मृत्यु और रोग के नाश करने वाली बन गईं। ज्येष्ठा संसार के लोगों के कल्याण का कारण बनीं। ]
इस प्रकरण को गीता प्रेस गोरखपुर के अनुवाद में वारुणी (सुरा की अधिष्ठात्री देवी) को देवताओं द्वारा त्यागने और असुरों द्वारा स्वीकारने का विवरण दिया गया है; जोकि मनमाना अनुवाद है।
तत्पश्चात् वारुणी (मदिरा) देवी प्रकट हुई, जिसके मदभरे नेत्र घूम रहे थे। वह पग-पगपर लड़खड़ाती चलती थी। उसे अपवित्र मानकर देवताओंने त्याग दिया। तब वह असुरोंके पास जाकर बोली--'दानवो ! मैं बल प्रदान करनेवाली देवी हूँ, तुम मुझे ग्रहण करो ।' दैत्योंने उसे ग्रहण कर लिया ।
यद्यपि,नारद पुराण में वारुणी को श्री विष्णु की आज्ञा से असुरों को देने का विवरण मिलता है।
यदा सुरासुरैर्देवि मथितः क्षीरसागरः ।।
कामोदा सा तदोत्पन्ना कन्यारत्नचतुष्टये ।। ६८-४ ।।कन्या रमाख्या प्रथमा द्वितीया वारुणी स्मृता ।।
कामोदाख्या तृतीया तु चतुर्थी तु वराभिधा ।। ६८-५ ।।तत्र कन्यात्रयं प्राप्तुं विष्णुना प्रभविष्णुना ।।
वारुणी त्वसुरैर्नीता विष्णुदेवाज्ञया सति ।। ६८-६ ।।
[हे देवी, जब क्षीरसागर का देवताओं और राक्षसों ने मन्थन किया था, तब चार कन्या रत्न उत्पन्न हुईं। पहली कन्या का नाम रमा और दूसरी का नाम वारुणी रखा गया; तीसरी को कमोदा और चौथी को वरा कहा जाता है। तब सर्वशक्तिमान भगवान विष्णु को तीन कन्याएँ प्राप्त हुईं; एवं भगवान विष्णु के आदेश से वरुणी को राक्षसों ने ले लिया।]
इससे यह प्रतीत होता है कि देवताओं द्वारा सुरा की अधिष्ठात्री देवी वारुणी को ग्रहण करने के बारे में पुराण एकमत नहीं हैं।
विशेष टिप्पणी :—
देवता (देव एव स्वार्थे तल्) अथवा देव (दिव्--अच्) शब्दों की व्युत्पत्ति दिव् धातु से हुई है। इस धातु की व्याख्या यह है:—
दिव् दिवुँ परिकूजने चुरादिः आत्मनेपदी अकर्मकः सेट् (दुःख देना, शोक करना, सताना)
— धातुपाठ १०.२३० (कौमुदीधातुः-१७०७)
दिव् दिवुँ मर्दने चुरादिः उभयपदी सकर्मकः सेट् (मर्दन करना, रगड़ ना)
— १०.२४९ (कौमुदीधातुः-१७२५)
सम्भवतः यह हम सबके लिए झटका है कि व्युत्पत्ति की दृष्टि से देवता न केवल सुरापान करने वाले हैं; अपितु, वे मर्दन करने वाले, कष्ट और दुःख देने वाले भी हैं।
यह भाव फ़ारसी भाषा के دیو (देव) तथा अवेस्तन भाषा के 𐬛𐬀𐬉𐬎𐬎𐬀 (दैव) शब्दों के अर्थ में भी मिलता है।
अतः देव शब्द को "दीव्यत्यनेनेति । दिव + करणे घञ्" (खेल-क्रीडा करने वाले) के रुप में इन्द्रियों; तथा "दीव्यति आनन्देन क्रीडतीति दिव + अच् " (आनन्द से क्रीडा करने वाले) के अर्थ में परिभाषित किया गया है।
किन्तु, भारोपीय शब्दावली की तुलना करने पर यह देव शब्द दिवस (प्रकाश वाले समय) के परामानवीय अस्तित्व को व्यक्त करता है।
अनातोलियाई भाषाओं लीसियन में 𐊈𐊆𐊇 (जिव), लीदियन में 𐤣𐤦𐤥𐤦 (दिवि), लूवियश में 𒋾𒉿𒊍 (तिवाज, “एक सूर्य देवता”), पालाइक में 𒋾𒅀𒊍 (तियाज), आर्मेनियाई में աստուած (असु-तुआज; प्राचीन काल असु (अच्छा, शुभ) देवता; अब यह झूठे देवता के अर्थ में; यह शब्द असु के परिवर्तनशील अर्थ का एक अन्य उदाहरण है); केल्टिक भाषा परिवार में ब्रेटोन में doue (दौरे) कोर्निश में dew (देव), वेल्श में duw (दूध), गॉलिसियन में Deva (एक नदी माता का नाम), Dēuos (देउओस), Dēwos (देवोस), आयरिश में dia (दिया), Dé (दे), स्कॉटिश गॉलिक में dia (दिया), लात्वीयाई dìevs (दिवेस), लिथुआनियाई diẽvas (दीवेस), अंग्रेजी में Tiw (टिव), नोर्स, आइसलैण्डिक, स्वीडिश, आदि में týr (टीर) , गोथिक में 𐍄𐌴𐌹𐍅𐍃 (तेइवेस), तथा लातिन में deus, (देउस), dīvus (दीवुस) इन सभी शब्दों की व्युत्पत्ति भारोपीय मूल शब्द *deywós (देय्वोस; देव) से ही परिकल्पित है।
भारोपीय धातु शब्द *dyew- (द्येव; द्यु — चमक, आकाश) इससे निकट का सम्बन्ध रखती है; जिससे दिवस (दीव्यत्यत्र दिव्—असच् किच्च) शब्द की व्युत्पत्ति है। अतः देव का दिव्य, द्युति, और दिवस से प्राचीन सम्बन्ध है।
सुरा तथा अवेस्तन भाषा के 𐬵𐬎𐬭𐬁 (हुरा) की व्युत्पत्ति भारोपीय धातु *sew- (सेव; गाढ़ा द्रव, निचोड़) से मानी गई है; सोम तथा अवेस्तन 𐬵𐬀𐬊𐬨𐬀 (होम; सोम), एवं ग्रीक ὕω (हुओं; बरसना) एवं लातिन sucus (सुकुस; चूसना); अंग्रेजी suck (सक; चूसना) इसी धातु शब्द से व्युत्पन्न हैं।
जयन्ती-
जयन्ती" शब्द का मूल अर्थ "विजय पाने वाली स्त्री अथवा नायिका से" है; ऋग्वेद की एक ऋचा में किये इस शब्द के सबसे प्राचीन उल्लेख में यही अर्थ ध्वनित होता है। यथा,
असपत्ना सपत्नघ्नी जयन्त्यभिभूवरी ( जयन्ती+अभिभूवरी)।
आवृक्षमन्यासां वर्चो राधो अस्थेयसामिव ॥५॥(अ॒स॒प॒त्ना । स॒प॒त्न॒ऽघ्नी । जय॑न्ती । अ॒भि॒ऽभूव॑री । आ । अ॒वृ॒क्ष॒म् । अ॒न्यासा॑म् । वर्चः॑ । राधः॑ । अस्थे॑यसाम्ऽइव ॥)
— ऋग्वेदः १०.१५९.५
[भावार्थ :—
इन्द्र पत्नी शची पौलुमी इस ऋचा में कहती हैं कि मैं सपत्नियों का विनाश कर उन पर विजय प्राप्त करने वाली हूँ। अस्थिर व्यक्तियों का तेज और ऐश्वर्य जिस प्रकार नष्ट होता है वैसे ही मैं सपत्नियों के तेज और ऐश्वर्य नष्ट करती हूँ।
टिप्पणी : सामान्य रूप से सपत्नी का अर्थ सौतन है;
वाचस्पत्यम् के अनुसार जयन्ती शब्द के यह अर्थ हैं
जयन्ती = स्त्री जि धातु--झ(अन्त) तथा ङीष्(ई) प्रत्यय।
१- दुर्गा शक्ति भेदे (माँ दुर्गा का एक नाम)
२ जयन्तभगिन्यां शक्रपुत्र्यां (इन्द्र के पुत्र जयन्त की बहिन का नाम)
३ -पताकायां च (पताका (युद्ध में विजय की सूचिका) पताका
४ -स्वनामख्याते वृक्षभेदे (एक प्रकार का वृक्ष; जैत अथवा जैता)
५-श्रावणकृष्णाष्टमीरोहिणीयोगे
कृष्णाष्टमीशब्दे (रोहिणी नक्षत्र योग वाली श्रावण मास में कृष्ण पक्ष की अष्टमी; श्री कृष्ण जन्माष्टमी)
श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के रोहिणी योग को जयन्ती नाम दिया गया है। यथा सङ्कीर्ण ग्रन्थों में एक श्रीमद आनन्दतीर्थ भगवत्पादाचार्य विरचित जयन्ती कल्प में यह विवरण इस प्रकार है
रोहिण्यामर्धरात्रे तु यदा कालाष्टमी भवेत् ।
जयन्ती नाम सा प्रोक्ता सर्वापापप्रणाशनी ॥ १ ॥यस्यां जातो हरिः साक्षान्निशीते भगवानजः ।
तस्मात्तद्दिनमत्यन्तं पुण्यं पापहरं स्मृतम् ॥ २ ॥तस्मात् सर्वैरुपोष्या सा जयन्ती नाम वै सदा ।
द्विजातिभिर्विशेषेण तद्भक्तैश्च विशेषतः ॥ ३ ॥
[भावार्थ :—
जब काल मास का आठवें दिन आधी रात को रोहिणी नक्षत्र योग होता है, तब वह योग जयन्ती कहा जाता है; जोकि सभी पापों का नाश करने वाला है ॥ उसी रात भगवान हरि का जन्म हुआ। इसलिए वह दिन अत्यन्त पवित्र और सभी पापों का नाश करने वाला माना जाता है ॥ अत: सभी को, विशेषकर उन ब्राह्मणों को जो भगवान के परम भक्त हैं ॥
अग्नि पुराण में भी इसी प्रकार का विवरण मिलता है।
वक्ष्ये व्रतानि चाष्टम्यां रोहिण्यां प्रथमं व्रतं ।
मासि भाद्रपदेऽष्टभ्यां रोहिण्यामर्धरात्रके ॥
कृष्णो जातो यतस्तस्यां जयन्ती स्यात्ततोऽष्टमी ।
सप्तजन्मकृतात्पापात्मुच्यते चोपवासतः ॥
कृष्णपक्षे भाद्रपदे अष्टम्यां रोहिणीयुते ।
उपाषितोर्चयेत्कृष्णं(१) भुक्तिमुक्तिप्रदायकं ॥ — अग्नि पुराण १८३.१-३
रोहिणी मास की अष्टमी तिथि के व्रतों तथा प्रथम व्रत का वर्णन करता हूँ; भाद्रपद माह में अष्टमी तिथि को आधी रात के समय रोहिणी होती है; महीने का आठवाँ दिन जयन्ती है क्योंकि कृष्ण का जन्म हुआ था; इस दिन का उपवास सात जन्मों के पापों से वह मुक्ति दिलाता है। भाद्रपद माह के कृष्ण पक्ष के आठवें दिन रोहिणी नक्षत्र में मनुष्यों को कृष्ण की पूजा-आराधना करनी चाहिए जो मुक्ति प्रदान करते हैं।
ज्योतिषी कहते हैं कि जयन्ती योग दुर्लभ है; 2023 को श्री कृष्ण जन्माष्टमी पर जयन्ती योग था। गौतमीमहातन्त्रं के अनुसार सोमवार अथवा बुधवार को रोहिणी नक्षत्र वाली अष्टमी को जयन्ती योग होता है।
सोमाह्नी बुधवारे वा अष्टमी रोहिणीयुता।
जयन्ती सा समाख्याता लभ्यते पुण्यसञ्चयैः ॥ — गौतमीयमहातन्त्रम् ३१.८४।
सोमवार अथवा बुधवार को रोहिणीयुता अष्टमी जयन्ती कही गई यह योग अतिशय पुण्य से ही प्राप्त होती हे। ]
अतः यह प्रतीत होता है कि जयन्ती (पापों पर विजय दिलाने वाले) योग के समय श्री कृष्ण जन्माष्टमी के होने से इस दिन को श्री कृष्ण जयन्ती कहा जाने लगा। जिससे जयन्ती का अर्थ विस्तार जन्मोत्सव के अर्थ में भी हो गया। समय के साथ अन्य महत्वपूर्ण व्यक्तियों के जन्मदिवस भी जयन्ती कहलाने लगे!
विशेष टिप्पणी :—
जिज्ञासु पाठकों के संशय निवारण हेतु—
जयन्ती को जीवित नहीं मात्र मृत व्यक्ति के लिए ही प्रयोग करने का मत तर्कसङ्गत नहीं है; क्योंकि
1 जयन्ती शब्द का जन्म-मृत्यु से सम्बन्ध नहीं है।
2 भाषाओं में अर्थ-सङ्कोच तथा अर्थ-विस्तार सामान्य प्रक्रिया है; अतः अर्थ-विस्तार कर हनुमान जयन्ती आदि लिखना अनुचित नहीं कहा जा सकता है। विशेषकर जब अधिकांश व्यक्ति इस शब्द को जन्मोत्सव के अर्थ में ही मुख्य अर्थ मानने लगे हैं।
3 काल के किसी महत्वपूर्ण पड़ाव पर पहुँचना भी विजय है। जैसे, किसी फिल्म का पच्चीस सप्ताह लगातार प्रदर्शन होने को रजत-जयन्ती कहना उचित है।
तो किसी जीवित अथवा मृत व्यक्ति की स्मृति का हमारे मन-मस्तिष्क में, हमारी भावनाओं पर विजय पाकर कालजयी हो जाना; और उसके लिए एक विशेष दिन का हमारे द्वारा मनाया जयन्ती कहलाने की योग्यता रखता है।
सोमवार, 13 मई 2024
वैष्णव वर्ण की श्रेष्ठता-
आज शास्त्रों के शोधों से यह प्रमाण प्राप्त हुए हैं कि यादव, गोप अथवा अहीर लोग ब्रह्मा की सृष्टि न होने से ब्रह्मा के द्वारा बनायी गयी वर्ण व्यवस्था में शामिल नहीं हैं।
इन गोपों की उत्पत्ति स्वराट विष्णु के हृदय रोम कूपों से हुई है अत: इनका वर्ण विष्णु से उत्पन्न होने के कारण ही वैष्णव है। वैष्णव वर्ण के शास्त्रों में प्रमाण हैं। जिन्हें हम आगे यथाक्रम प्रस्तुत करेंगे
विष्णु पद में सन्तान वाचक अण्- प्रत्यय करने से वैष्णव शब्द बनता है। जिसका अर्थ है विष्णु से उत्पन्न अथवा विष्णु की सन्तान !
और चातुर्य वर्ण के अन्तर्गत प्रमुख ब्राह्मण ब्रह्मा ( पुल्लिंग ब्रह्मन् पद में अण् प्रत्यय लगाने बनता है। जिसका अर्थ होता है ब्रह्मा कि सन्तान!
गोप साक्षात स्वराट्- विष्णु से उत्पन्न होने ब्राह्मणों के भी पूज्य व उनसे श्रेष्ठ हैं।
प्रस्तुत है वर्ण व्यवस्था पर सारगर्भित आलेख-
प्रस्तुतिकरण:-यादव योगेश कुमार रोहि -( अलीगढ़) एवं इ० माता प्रसाद यादव -( लखनऊ)
गर्गसंहिता के विश्वजित् खण्ड में के अध्याय दो और ग्यारह में यह गोपों की उत्पत्ति का वर्णन है।
यदि मान लिया जाए कि गोलोक में उत्पन्न गोप भिन्न और पृथ्वी लोक के गोप भिन्न हैं तो भी यह बात सही नहीं है।
क्योंकि इसी विश्वजित्खण्डः के अध्याय एकादश ( ग्यारह) में पृथ्वी के सभी यादवों को कृष्ण ने अपने सनातन विष्णु रूप का अंश बताया है।
प्रसंग देखें-
"एक समय की बात है- सुधर्मा में श्रीकृष्ण की पूजा करके, उन्हें शीश नवाकर प्रसन्नचेता राजा उग्रसेन ने दोनों हाथ जोड़कर धीरे से कहा।
उग्रसेन कृष्ण से बोले ! - भगवन् ! नारदजी के मुख से जिसका महान फल सुना गया है, उस राजसूय नामक यज्ञ का यदि आपकी आज्ञा हो तो अनुष्ठान करुँगा। पुरुषोत्तम ! आपके चरणों से पहले के राजा लोग निर्भय होकर, जगत को तिनके के तुल्य समझकर अपने मनोरथ के महासागर को पार कर गये थे।
तब श्री कृष्ण भगवान ने कहा- राजन् ! यादवेश्वर ! आपने बड़ा उत्तम निश्चय किया है। उस यज्ञ से आपकी कीर्ति तीनों लोकों में फैल जायगी। प्रभो ! सभा में समस्त यादवों को सब ओर से बुलाकर पान का बीड़ा रख दीजिये और प्रतिज्ञा करवाइये।
तब कृष्ण नें कहा था
"ममांशा यादवाः सर्वे लोकद्वयजिगीषवः।
जित्वारीनागमिष्यंति हरिष्यंति बलिं दिशाम् ॥७॥
"शब्दार्थ:-
१-ममांशा= मेरे अंश रूप (मुझसे उत्पन्न)
२-यादवा: सर्वे = सम्पूर्ण यादव।
३- लोकद्वयजिगीषवः = दोनों लोकों को जीतने की इच्छा वाले।
४- जिगीषव: = जीतने की इच्छा रखने वाले।
५- जिगीषा= जीतने की इच्छा - जि=जीतना धातु में + सन् भावे अ प्रत्यय = जयेच्छायां ।
६- जित्वा= जीतकर।
७-अरीन्= शत्रुओ को।
८- आगमिष्यन्ति = लौट आयेंगे।
९-हरिष्यन्ति= हरण कर लाऐंगे।
१०-बलिं = भेंट /उपहार।
११- दिशाम् = दिशाओं में।
सन्दर्भ:- गर्गसंहिता खण्डः ७ विश्वजित्खण्ड)
अनुवाद:-
समस्त यादव मेरे ही अंश से प्रकट हुए हें। वे दौनों लोकों, को जीतने की इच्छा रखने वाले हैं। वे दिग्विजय के लिये यात्रा करके, शत्रुओं को जीतकर लौट आयेंगे और सम्पूर्ण दिशाओं से आपके लिये भेंट और उपहार भी लायेंगे।७।
ब्रह्मवैवर्त पुराण तथा गर्ग सहिता में भी गोपों को स्वराटविष्णु- (गोलोक वासी कृष्ण) के हृदय- रोम कूपों से उत्पन्न बताया है।
देखें निम्न श्लोक-
कृष्णस्य लोमकूपेभ्य: सद्यो गोपगणो मुने: ! "आविर्बभूव रूपेण वैशैनेव च तत्सम:।४१। सन्दर्भ:-(ब्रह्म-वैवर्त पुराण अध्याय -5 श्लोक -41)
अनुवाद:- कृष्ण के रोमकूपों से गोपोंं (अहीरों) की उत्पत्ति हुई है , जो रूप और वेश में उन्हीं कृष्ण ( स्वराट्-विष्णु ) के समान थे। वास्तव में स्वराट्- विष्णु का ही गोलोक धाम का रूप कृष्ण है। जो सदैव किशोर अवस्था में रहते हैं।
इसी प्रकार गोपों की उत्पत्ति की बात गर्गसंहिता श्रीविश्वजित्खण्ड के ग्यारहवें अध्याय में यथावत् वर्णित है।
जिसे हम निम्न श्लोकों में दर्शाते हैं।
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"नन्दो द्रोणो वसुःसाक्षाज्जातो गोपकुलेऽपि सः॥ गोपाला ये च गोलोके कृष्णरोम समुद्भवाः।२१।
"राधारोमोद्भवा गोप्यस्ताश्च सर्वा इहागताः॥ काश्चित्पुण्यैः कृतैः पूर्वैःप्राप्ताः कृष्णं वरैः परैः॥२२।
सन्दर्भ:-
इति श्रीगर्गसंहितायां श्रीविश्वजित्खण्डे श्रीनारदबहुलाश्वसंवादे दंतवक्त्रयुद्धे करुषदेशविजयो नामैकादशोऽध्यायः॥११॥
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शास्त्रों में वर्णन है कि गोप (आभीर) वैष्णव (विष्णु के हृदय- रोमकूप) से उत्पन्न होने से अञ्श रूप में वैष्णव ही थे। वैष्णव ब्रह्मा की चातुर्य वर्ण-व्यवस्था से पृथक वर्ण है।
चातुर्य- वर्णव्यवस्था ब्रह्मा की सृष्टि है तो पाँचवाँ वर्ण वैष्णव वर्ण विष्णु की सृष्टि है।
चातुर्य वर्ण व्यवस्था में ब्रह्मा की मुखज सन्तान होने से ब्राह्मण श्रेष्ठ हैं।
परन्तु विष्णु के हृदय रोम कूपों से उत्पन्न होने से गोप ब्राह्मणों के भी पूज्य व उनसे श्रेष्ठ हैं।
व्याकरणीय नियम से ब्राह्मण शब्द ( पुल्लिंग शब्द-ब्रह्मन् से +अण् प्रत्यय )= करने पर तद्धित प्रत्ययान्त पद के रूप में सिद्ध होता है।
जिसका अर्थ होता है ब्रह्मा की सन्तान-
ब्रह्मन्- शब्द नपुसंसक लिंग में होने पर परम-ब्रह्म का वाचक है। परन्तु पुल्लिंग रूप में केवल ब्रह्मा का वाचक है। ब्रह्मा जो ब्राह्मणों के पिता और सांसारिक सृष्टि के रचयिता हैं।
देखें ऋग्वेद के दशम मण्डल के नब्बे वें सूक्त की यह बारहवीं ऋचा भी ब्राह्मणों की उत्पत्ति के विषय में प्रकाश डालती है।
इस विषय में ऋचा कहती है कि ब्राह्मण ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न हुए, क्षत्रिय बाहों से, वैश्य उरू ( नाभि और जंघा के मध्य भाग) से और शूद्र दोनों पैरों से उत्पन्न हुए हैं।
"ब्राह्मणो अस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः। ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत।। (ऋग्वेद 10/90/12)
श्लोक का अनवय युक्त अनुवाद:- इस विराटपुरुष (ब्रह्मा) के मुख से ब्राह्मण हुआ , बाहू से क्षत्रिय लोग हुए एवं उसकी जांघों से वैश्य हुआ एवं दौनों चरणों से शूद्र की उत्पत्ति हुई।(10/90/12)
इस लिए अब सभी शात्र-अध्येता जानते हैं कि ब्रह्मा भी विष्णु की ही सृष्टि हैं। जबकि विष्णु स्वयं निराकार ईश्वर का अविनाशी साकार रूप भी हैं- विष्णु का ही सांसारिक व मूल गोलोकवासी रूप कृष्ण है।
विष्णु का गो तथा गोपो से सनातन सम्बन्ध है। पृथ्वी पर जब भी स्वराज विष्णु अवतार लेते हैं तो वे केवल गोपों के ही बीच में लेते हैं।
वेदों में विष्णु लोक का वर्णन करते हुए अनेक ऋचाऐं यह उद्घोष करती हैं। विष्णु के लोक में बहुत सी स्वर्ण मण्डित गायें रहती हैं।
भारतीय वेदों में विष्णु का वर्णन "गोप" के रूप में ही हुआ है। देखें निम्न ऋचा -
"त्रीणि पदा विचक्रमे विष्णुर्गोपा अदाभ्यः ।
अतो धर्माणि धारयन् ॥ तृणि पदा वि चक्रमे विष्णुर गोपा अदाभ्य:। अतो धर्माणि धारायं।।
(ऋग्वेद 1/22/18)
उस अविनाशी विष्णु ने गोप रूप में सम्पूर्ण लोकों को तीन पग में अभिगमन कर लिया वही धर्म को धारण करने वाला है।
शास्त्रों में पंचम वर्ण के विषय में उपर्युक्त जानकारी है। परन्तु कोई भी तथाकथित पुरोहित या कथा वाचक कभी भी यह जानकारी समाज को नहीं देता है। इसके विषय में आज तक कोई चर्चा नही होती है।
परन्तु आभीर लोग यदि आज भी ब्राह्मणों को स्वयं से श्रेष्ठ मानकर इन शास्त्रीय मान्यताओं पर ही आश्रित होकर ब्राह्मणीय वर्णव्यवस्था का पालन और आचरण करते हैं ।
तो ब्राह्मण लोग उन्हें वैश्य और शूद्र वर्ण ही मानते हैं। और स्मृति ग्रन्थों में विशेषत: मनुस्मृति में इस प्रकार की काल्पनिक मन गड़न्त श्लोक भी बनाकर जोड़े गये हैं। जिसमें तथाकथित ब्राह्मणो ने अहीरों अपनी अवैध सन्तान बताया है। इसके लिए
मनुस्मृति का अध्याय दश का पन्द्रहवाँ श्लोक देखें-
विचार करना होगा कि जो गोप साक्षात् विष्णु के ही शरीर ( हृदय रोम कूप) से उत्पन्न हैं । और जबकि ब्राह्मण विष्णु के नाभि कमल की सृष्टि ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न हैं । तो इन दौंनों में किसकी श्रेष्ठता है। कालान्तर में धर्म की ठेकेदारी ब्राह्मणों ने अपने हाथ में लेकर अपने आप को बिना मतलब ही श्रेष्ठ बना कर लिख दिया- यहाँ तक की ब्राह्मण व्यभिचारी और कुकर्मी भी हो तो भी वह पूज्य है ।
तुलसी दास तभी जहालत में लिख गये "पूजिअ बिप्र सील गुन हीना।
सूद्र न गुन गन ग्यान प्रबीना।।"
(रामचरित.मानस. ३।३४।२)
अर्थः "शील और गुण से हीन ब्राह्मण भी पूजनीय है और गुणों से युक्त और ज्ञान में निपुण शूद्र भी पूजनीय नहीं है।"
तुलसी से पहले यही बात मनुस्मृति, पाराशर स्मृति और अन्य स्मृतियाों में लिखी गयी । जैसे
"दु:शीलोऽपि द्विज: पूजयेत् न शूद्रो विजितेन्द्रिय: क: परीतख्य दुष्टांगा दोहिष्यति शीलवतीं खरीम् (पाराशर-स्मृति 192)
शील का मतलब:- चाल ,व्यवहार, आचारण। वृत्ति अथवा चरित्र है। — जैसा कि उद्धरण है।
'भाव' ही कर्म के मूल प्रवर्तक और शील के संस्थापक हैं।—रस०, पृ० १६१।
विशेष—बौद्ध शास्त्रों में दस शील कहे गए हैं—हिंसा, स्त्येन, व्यभिचार, मिथ्याभाषण, प्रमाद, अपराह्न भोजन, नृत्य गीतादि, मालागंधादि, उच्चासन शय्या और द्रव्यसंग्रह इन सब का त्याग।
उपर्युक्त गद्यांशों में केवल शील का अर्थ बताना है।
तुलसी दु:शील ब्राह्मण को पूजने की बात कह रहे हैं
वह भी धर्म ग्रन्थ की आढ़ में
परन्तु शूद्र कही जाने वाली मेहनत कश जाति के काबिल और विद्वान होने पर भी सम्मानित न करने की भी बात भी कह रहें हैं।
ये कैसी सामाजिकता?
मतलब धर्म और समाज का ठेका पुरोहितों ने ही ले लिया। वह भी दर दर भीख माँग कर - शा~ आ ~~बास!!!
दु:शील का मतलब चरित्रहीन भी है। ऐसे ब्राह्मणों को पूजने का विधान बनाकर धर्म का सत्यानाश ही किया गया है ।
दुर्जना दासवर्गाश्च पटहाः पशवस्तथा ।
ताडिता मार्दवं यान्ति दुष्टा स्त्री व्यसनी नरः।५५।
दुर्जन= गँवार। दास = शूद्र! पटह = बड़ा ढोल! पशव = पशुगण। ताडिता ( प्रताडिता- पिटे हुए होकर- मार्दव= कोमलता (अधीनता) को प्राप्त होते हैं।
दुष्ट नारी और व्यसनी नर भी प्रताणित होकर कोमल हो जाते हैं।
अनुवाद:-
दुष्ट, दास, बड़े ढोल और पशु और दुष्टा नारी ।
मार खाकर ही मृदुता ( अधीनता) को डरते मारे प्राप्त हो जाते हैं ।
तुलसी दास ने ढोल गवाँर शूद्र पशु नारी की चौपाई यहीं से इ़अनुवाद की है। यहाँ भी ता जन का अर्थ पीटना ही है। नकि समझाना-
गोपों को भी स्मृतिग्रन्थों नीच और दुष्कर्म से उत्पन्न सन्तान दर्शाकर धर्म शास्त्रों की मर्यादा को तोड़ा है।
अत: गोप ब्राह्मणों से श्रेष्ठ और उनके भी पूज्य हैं यह बात प्राचीन ग्रन्थों में दर्ज ही है।।
इसका साक्ष्य पद्मपुराण उत्तर खण्ड, वृहद-नारदपुराण-
ब्रह्म-वैवर्त पुराण ब्रह्म-खण्ड और गर्ग संहिता विश्व जित्खण्ड में है।
पञ्चम वर्ण वैष्णव के पक्ष में ब्रह्म वैवर्त पुराण तथा पद्म पुराण उत्तराखण्ड से निम्न श्लोक देखने योग्य हैं।
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ब्रह्मवैवर्तपुराण ब्रह्मखण्ड अध्याय- एकादश( ग्यारह) में चार वर्णों से पृथक पाँचवा वर्ण वैष्णव की एक स्वतंत्र जाति आभीर का वर्णन किया है।
"ब्रह्मक्षत्त्रियविट्शूद्राश्चतस्रोजातयोयथा। स्वतन्त्राजातिरेका च विश्वस्मिन्वैष्णवाभिधा।४३।
अनुवाद- ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र जैसे चार वर्ण-और उनके अनुसार जातियाँ हैं । इनसे पृथक स्वतन्त्र एक वर्ण और उसके अनुसार जाति है वह वर्ण इस विश्व में वैष्णव नाम से है और उसकी एक स्वतन्त्र जाति गोप है।(१.२.४३)
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सन्दर्भ:-(ब्रह्मवैवर्तपुराण ब्रह्मखण्ड अध्याय ग्यारह)-१/२/४३
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उपर्युक्त श्लोक में परोक्ष रूप से आभीर जाति का ही संकेत है। जो कि स्वयं विष्णु के रोम कूपों से प्रादुर्भूत वैष्णव वर्ण हैं।
वैष्णव ही इन अहीरों का वर्ण है ।
अत: यादव अथवा गोप गण ब्राह्मणों की वर्ण व्यवस्था में समाहित नही हैं ।
परन्तु रूढ़िवादी पुरोहितों ने अहीरों के विषय में इतिहास छुपा कर बाते लिखीं हैं।
और ब्रह्मा के द्वारा निर्मित वर्णन व्यवस्था में शामिल कर उन्हें वैश्य तथा शूद्र बनाने का असफल प्रयास किया है।
और वैष्णव वर्ण सभी चार वर्णों में श्रेष्ठ है उसको छुपाया गया है । अब हम वैष्णव वर्ण की श्रेष्ठता के साक्ष्य देते हैं नीचे देखें-
"सर्वेषांचैववर्णानांवैष्णवःश्रेष्ठ-उच्यते ।
येषां पुण्यतमाहारस्तेषां वंशे तु वैष्णवः॥ ४
(पद्मपुराण खण्ड ६ (उत्तरखण्डः) अध्यायः -६८)
अनुवाद:- महेश्वर ने कहा:-मैं तुम्हें उस तरह के एक आदमी का वर्णन करूंगा। चूँकि वह विष्णु का है, इसलिए उसे वैष्णव कहा जाता है। सभी जातियों में वैष्णव को सबसे महान कहा जाता है।
प्राचीन युग का वर्णधर्म; सत्ययुगमें मात्र एक वर्ण-था वह सत्य का युग था। परन्तु उसका चतुर्थाञ्श(1/4) भाग असत् से लिप्त हो जाता है आनुपातिक रूप में तब कदाचित् अन्य वर्ण विकसित हुए हों परन्तु सत युग में हंस नामक एक ही वर्ण का उल्लेख भागवत पुराण आदि ग्रन्थों में प्राप्त होता है।-
भागवत पुराण में वर्णन है कि त्रेता युग के प्रारम्भिक चरण में ही वर्ण-व्यवस्था का विकास हुआ।
"आदौ कृतयुगे वर्णो नृणां हंस इति स्मृतः।कृतकृत्याः प्रजा जात्या तस्मात् कृतयुगं विदुः॥१९॥
"त्रेतामुखे महाभाग प्राणान्मे हृदयात् त्रयी।
विद्या प्रादुरभूत्तस्या अहमासं त्रिवृन्मखः॥२०॥
"विप्रक्षत्रियविटशूद्रा मुखबाहूरुपादजाः।
वैराजात् पुरुषाज्जाता य आत्माचारलक्षणाः॥२१॥"
(श्रीमद्भागवत पुराण ११/१७/१९--२०-२१)
अनुवाद:-(भगवान ने उद्धव से कहा-हे उद्धव ! सत्ययुग के प्रारम्भ में सभी मनुष्यों का 'हंस' नामक एक ही वर्ण था। उस युग में सब लोग जन्म से ही कृतकृत्य होते थे, इसीलिए उसका एक नाम कृतयुग भी है।
हे महाभाग, त्रेतायुगके आरम्भ होने पर मेरे हृदयसे श्वास-प्रश्वासके द्वारा ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेदरूप त्रयी विद्या प्रकट हुई और उस त्रयी विद्यासे होत्र, अध्वर्य और उद्गाता-इन तीन यज्ञों के कर्ता के ये रूप प्रकट हुए।
बाद में विराट पुरुष ( ब्रह्मा) के मुख से ब्राह्मण, भुजा से क्षत्रिय, जंघा से वैश्य और चरणों से शूद्रों की उत्पत्ति हुई।
उनकी पहचान उनके स्वभावानुसार और आचरण से होती है॥१९-२१॥
पहले सभी ब्रह्मज्ञान से सम्पन्न होने से ब्राह्मण थे, बाद में गुण और कर्मों के अनुसार विभिन्न वर्ण विभाग हुए कोई क्षत्रिय हुआ तो कोई वैश्य- और कोई शूद्र हो गया।
महाभारत में भी इस बात की पुष्टि निम्न श्लोक से होती है
"न विशेषोऽस्ति वर्णानां सर्व ब्राह्ममिदं जगत्। ब्रह्मणा पूर्वसृष्टं हि कर्मभिर्वर्णतां गतम् ॥२२॥(महाभारत-शल्यपर्व १८८/१०)
अनुवाद:-भृगु ने कहा-ब्राह्मणादि भृगु ने कहा-ब्राह्मणादि वर्गों में किसी प्रकार का अन्तर नहीं है। पहले ब्रह्मा द्वारा सृष्ट सारा जगत् ब्राह्मणमय था, बाद में कर्मों द्वारा विभिन्न वर्ण हुए॥२२॥
परन्तु आभीर लोग सतयुग से ही संसार में धर्म का प्रसारण करने वाले सदाचारी ( अच्छे व्रत का ज्ञाता व पालन करने वाले ! हुए ।
धर्मवन्तं सदाचारं भवन्तं धर्मवत्सलम्मया ज्ञात्वा ततः कन्या दत्ता चैषा विरंचये।१५।
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अनया गायत्र्या तारितो गच्छ युवां भो आभीरा दिव्यान्लोकान्महोदयान्।
युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये।१६।
अवतारं करिष्येहं सा क्रीडा तु भविष्यति यदा नन्दप्रभृतयो ह्यवतारं धरातले।१७।
अनुवाद -विष्णु ने अहीरों से कहा मैंने तुमको धर्मज्ञ और धार्मिक सदाचारी तथा धर्मवत्सल जानकर तुम्हारी इस गायत्री नामकी कन्या को ब्रह्मा के लिए यज्ञकार्य हेतु पत्नी रूप में दिया है ।
हे अहीरों इस गायत्री के द्वारा उद्धार किये गये तुम सब दिव्यलोकों को जाओ- तुम्हारी अहीर जाति के यदुकुल को अन्तर्गत वृष्णिकुल में देवों को कार्य की सिद्धि को लिए मैं अवतरण करुँगा और वहीं मेरी लीला (क्रीडा) होगी जब धरातल पर नन्द आदि का का अवतरण होगा।
विष्णु भगवान की अवधारणा प्राचीन मेसोपोटामिया की संस्कृतियों में भी है।
विष्णु" एक मत्स्य मानव के रूप में है जो सुमेरियन और हिब्रू संस्कृतियों में भी वर्णित देवता है।
वही विष्णु अहीरों में गोप रूप में जन्म लेता है । और अहीर शब्द भी मूलत: वीर शब्द का ही रूपान्तरण है।
विदित हो की "आभीर शब्द "अभीर का समूह वाची "रूप है। जो अपने प्रारम्भिक रूप में वीर शब्द से विकसित हुई है।
अहीर शब्द हिब्रू बाइबिल के जेनेसिस खण्ड में अबीर" शब्द के रूप में ईश्वर के पाँच नामों में से एक है।
और यहूदियों का पूर्व और अपर एक कबीला जो मार्शल आर्ट का विशेषज्ञ माना जाता है अबीर कहलाता था ।
हिब्रू भाषा नें अबीर का अर्थ शक्तिशाली से है क्योंकि अबीर का मूल रूप "बर / बीर" है ।भारोपीय भाषाओं में वीर का सम्प्रसारण( आर्य) हो जाता है ।
अत: आर्य शब्द ऋग्वेद तथा पाणिनीय कालीन भाषाओं में कृषक का वाचक रहा है ।
"चरावाहों ने ही कृषि का आविष्कार किया और ये ग्रामीण संस्कृति ये सूत्रधार थे। अत: वीर शब्द से ही आवीर/आभीर का विकास हुआ।अहीर एक प्राचीनतम जनजाति है । जो अफ्रीका कि अफर" जाति थी जिसका प्रारम्भिक रूप मध्य अफ्रीका को जिम्बाब्वे मेें था।
"तुर्कमेनिस्तान तथा अजरबैजान में यही लोग "अवर" और आयवेरिया में आयवरी रूप में और- ग्रीक में अफोर- आदि नामों से विद्यमान थे सभी पशुपालक व चरावाहे थे।
भारतीय संस्कृत भाषा ग्रन्थों में अमीर और आभीर दो पृथक शब्द प्रतीत होते हैं परन्तु अमीर का ही समूहवाची अथवा बहुवचन रूप आभीर है।
परन्तु परवर्ती शब्द कोश कारों ने दोनों शब्दों को पृथक मानकर इनकी व्युत्पत्ति भी पृथक ही क्रमश: वर्णन किया है। देखें नीचे क्रमश: विवरण-
१- आ=समन्तात् + भी=भीयं(भयम्)+ र=राति ददाति शत्रुणां हृत्सु = जो चारो तरफ से शत्रुओं को हृदय नें भय उत्पन्न करता है
- यह उत्पत्ति अमरसिंह को शब्द कोश अमर कोश पर आधारित है ।
अमर सिंह के परवर्ती शब्द कोश कार- तारानाथ वाचस्पत्यम् ने अभीर -शब्द की व्युत्पत्ति निम्न प्रकार से की है।
"अभिमुखी कृत्य ईरयति गा- इति अभीर = जो सामने मुखकरके चारो-ओर गायें चराता है उन्हें घेरता है। वाचस्पत्य के पूर्ववर्ती कोशकार "अमर सिंह" की व्युत्पत्ति अहीरों की वीरता प्रवृत्ति (aptitude ) को अभिव्यक्त करती है ।
जबकि तारानाथ वाचस्पति की व्युत्पत्ति अहीरों कि गोपालन वृत्ति अथवा ( व्यवसाय ( profation) को अभिव्यक्त करती है ।
और व्यक्तियों की प्रवृति भी वृत्ति( व्यवसाय-)से निर्मित होती है। जैसे सभी "वकालत करने वाले अधिक बोलने वाले तथा अपने मुवक्किल की पहल-(lead the way) करने में वाणीकुशल होते हैं। जैसे डॉक्टर ,ड्राइवर आदि - अत: किसी भी समाज के दोचार व्यक्तियों सम्पूर्ण जाति या समाज की प्रवृति का आकलन करना बुद्धिसंगत नहीं है।
"प्रवृत्तियाँ जातियों अथवा नस्लों की विशेषता है और स्वभाव व्यक्ति के पूर्वजन्म के संस्कार का प्रभाव-"
क्योंकि अहीर "वीर" चरावाहे थे यह वीरता इनकी पशुचारण अथवा गोचारण वृत्ति से पीढ़ी दर पीढ़ी उनकी जातियों में समाविष्ट हो गयी !
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प्राचीनतम पुराण "पद्मपुराण के सृष्टि खण्ड में अहीर जाति का उल्लेख "धर्मवत्सल और सदाचरणपरायण के रूप में हुआ है यह पूर्व ही उल्लेख कर चुके हैं। ।
जिसमें वेदों की अधिष्ठात्री देवी गायत्री का जन्म होता है ; जो सावित्री द्वारा सभी देवताओं को दिए गये शाप को वरदान में बदल देती हैं।
इसी अहीर जाति में द्वापर में चलकर यदुवंश के अन्तर्गत वृष्णि-कुल में कृष्ण का जन्म होता है ।
अत: ययाति के पूर्व पुरुषों की जाति भी अहीर ही सिद्ध होती है परन्तु यदु ने ही गोपालन वृत्ति द्वारा अहीर जाति को अन्य मानवीय जातियों से भिन्न बनाये रखा। और अहीर शब्द केवल यदुवंशीयों को ही कालान्तर अधिक रूढ़ हो गया।
अहीर जाति में गायत्री का जब जन्म हुआ था तब आयुस्-नहुष' और ययाति आदि का भी नाम नहीं था।
तुर्वसु के वंशज तुर्की जिनमें अवर जाति है । वही अहीर जाति का ही रूप है। वर्तमान में इतना ही जानना काफी है कि जो अहीर है वही यादव हो सकता है ।
अहीरों में गोत्र की कोई मान्यता नहीं है। और अहीर कभी गोत्रवाद में आस्था नहीं रखते हैं।
वैवाहिक मर्यादा के लिए समाज में गोत्र अवधारणा सुनिश्चित की गयी ताकि सन्निकट रक्त सम्बन्धी पति -पत्नी न बन सकें क्योंकि इससे तो भाई बहिन की मर्यादा ही दूषित हो जाएगी।
"जय श्री राधे कृष्णाभ्याम् नमो नम: !
गुरुवार, 9 मई 2024
वैष्णव वर्ण की श्रेष्ठता के साक्ष्य
- महेश्वर उवाच- शृणु नारद! वक्ष्यामि वैष्णवानां च लक्षणम् यच्छ्रुत्वा मुच्यते लोको ब्रह्महत्यादिपातकात् ।१।
- तेषां वै लक्षणं यादृक्स्वरूपं यादृशं भवेत् ।तादृशंमुनिशार्दूलशृणु त्वं वच्मिसाम्प्रतम्।२
- विष्णोरयं यतो ह्यासीत्तस्माद्वैष्णव उच्यते। सर्वेषां चैव वर्णानां वैष्णवःश्रेष्ठ उच्यते ।३। -१-महेश्वर- उवाच ! हे नारद , सुनो, मैं तुम्हें वैष्णव का लक्षण बतलाता हूँ। जिन्हें सुनने से लोग ब्रह्म- हत्या जैसे पाप से मुक्त हो जाते हैं । १। २-वैष्णवों के जैसे लक्षण और स्वरूप होते हैं। उसे मैं बतला रहा हूँ। हे मुनि श्रेष्ठ ! उसे तुम सुनो ।२। ३-चूँकि वह विष्णु से उत्पन्न होने से ही वैष्णव कहलाता है; और सभी वर्णों मे वैष्णव श्रेष्ठ कहे जाता है।३। "पद्म पुराण उत्तराखण्ड अध्याय(६८ श्लोक संख्या १-२-३।