सोमवार, 15 जुलाई 2024

(वसुदेव के गोप होने के शास्त्रीय व पौराणिक सन्दर्भ-)

"वसुदेव के गोप जीवन के शास्त्रीय सन्दर्भ:- 

कश्यपस्य मुनेरंशो वसुदेवः प्रतापवान् ।
गोवृत्तिरभवद्राजन् पूर्वशापानुभावतः ॥४१ ॥

कश्यपस्य च द्वे पत्‍न्यौ शापादत्र महीपते ।
अदितिः सुरसा चैवमासतुः पृथिवीपते ॥४२॥

देवकी रोहिणी चोभे भगिन्यौ भरतर्षभ ।
वरुणेन महाञ्छापो दत्तः कोपादिति श्रुतम्॥ ४३॥

अनुवाद:

हे राजन्! कश्यपमुनिके अंशसे प्रतापी वसुदेवजी उत्पन्न हुए थे, जो पूर्वजन्मके शापवश इस जन्ममें गोपालन का काम करते थे ॥ 41 ॥

हे महाराज! हे पृथ्वीपते! उन्हीं कश्यपमुनि की दो पत्नीयाँ- अदिति और सुरसा ने भी शापवश पृथ्वी पर अवतार ग्रहण किया था। हे भरतश्रेष्ठ ! उनदोनों ने देवकी और रोहिणी नामक बहनों के रूप में जन्म लिया था। मैंने यह सुना है कि क्रुद्ध होकर वरुण ने उन्हें महान् शाप दिया था ।। 42-43 ।।

श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां सहितायां ॥ चतुर्थस्कन्धे कर्मणो जन्मादिकारणत्वनिरूपणं नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥२।

📚: देवीभागवतपुराणम्/स्कन्धः ४/अध्यायः ३ - 

            दित्या अदित्यै शापदानम्

                (व्यास उवाच)
कारणानि बहून्यत्राप्यवतारे हरेः किल ।
सर्वेषां चैव देवानामंशावतरणेष्वपि ॥ १॥

वसुदेवावतारस्य कारणं शृणु तत्त्वतः ।
देवक्याश्चैव रोहिण्या अवतारस्य कारणम्॥२॥

एकदा कश्यपः श्रीमान्यज्ञार्थं धेनुमाहरत् ।
याचितोऽयं बहुविधं न ददौ धेनुमुत्तमाम् ॥३॥

वरुणस्तु ततो गत्वा ब्रह्माणं जगतः प्रभुम् ।
प्रणम्योवाच दीनात्मा स्वदुःखं विनयान्वितः॥ ४॥

_______________________________     
किं करोमि महाभाग मत्तोऽसौ न ददाति गाम् ।
शापो मया विसृष्टोऽस्मै गोपालो भव मानुषे॥ ५॥

भार्ये द्वे अपि तत्रैव भवेतां चातिदुःखिते ।
यतो वत्सा रुदन्त्यत्र मातृहीनाः सुदुःखिताः ॥ ६ ॥

मृतवत्सादितिस्तस्माद्‌भविष्यति धरातले ।
कारागारनिवासा च तेनापि बहुदुःखिता ॥ ७ ॥

              (  व्यास उवाच ! )
तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य यादोनाथस्य पद्मभूः ।
समाहूय मुनिं तत्र तमुवाच प्रजापतिः ॥ ८ ॥

कस्मात्त्वया महाभाग लोकपालस्य धेनवः ।
हृताः पुनर्न दत्ताश्च किमन्यायं करोषि च ॥ ९ ॥

जानन् न्यायं महाभाग परवित्तापहारणम् ।
कृतवान्कथमन्यायं सर्वज्ञोऽसि महामते ॥ १० ॥

अहो लोभस्य महिमा महतोऽपि न मुञ्चति ।
लोभं नरकदं नूनं पापाकरमसम्मतम् ॥ ११ ॥

कश्यपोऽपि न तं त्यक्तुं समर्थः किं करोम्यहम् ।
सर्वदैवाधिकस्तस्माल्लोभो वै कलितो मया ।१२ ॥

धन्यास्ते मुनयः शान्ता जितो यैर्लोभ एव च ।
वैखानसैः शमपरैः प्रतिग्रहपराङ्मुखैः ॥ १३ ॥

संसारे बलवाञ्छत्रुर्लोभोऽमेध्योऽवरः सदा ।
कश्यपोऽपि दुराचारः कृतस्नेहो दुरात्मना ॥ १४ ॥

ब्रह्मापि तं शशापाथ कश्यपं मुनिसत्तमम् ।
मर्यादारक्षणार्थं हि पौत्रं परमवल्लभम् ।१५ ॥

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अंशेन त्वं पृथिव्यां वै प्राप्य जन्म यदोः कुले ।
भार्याभ्यां संयुतस्तत्र गोपालत्वं करिष्यसि॥ १६॥

                (व्यास उवाच)
एवं शप्तः कश्यपोऽसौ वरुणेन च ब्रह्मणा ।
अंशावतरणार्थाय भूभारहरणाय च ॥ १७ ॥

व्यासजी बोले - [ हे राजन् ! ] भगवान् विष्णुके विभिन्न अवतार ग्रहण करने तथा इसी प्रकार सभी देवताओंके भी अंशावतार ग्रहण करनेके बहुतसे कारण हैं ॥ 1 ॥

अब वसुदेव, देवकी तथा रोहिणीके अवतारोंका कारण यथार्थ रूपसे सुनिये ॥ 2 ॥

एक बार महर्षि कश्यप यज्ञकार्य के लिये वरुणदेवकी गौ ले आये। [ यज्ञ-कार्य की समाप्ति के पश्चात्] वरुणदेव के बहुत याचना करने पर भी उन्होंने वह उत्तम धेनु वापस नहीं दी ॥ 3 ।

तत्पश्चात् उदास मनवाले वरुणदेवने जगत्के स्वामी ब्रह्माके पास जाकर उन्हें प्रणाम करके विनम्रतापूर्वक उनसे अपना दुःख कहा ॥ 4 ।

हे महाभाग ! मैं क्या करूँ? वह अभिमानी कश्यप मेरी गाय नहीं लौटा रहा है। अतएव मैंने उसे शाप दे दिया कि मानवयोनिमें जन्म लेकर तुम गोपालक हो जाओ और तुम्हारी दोनों भार्याएँ भी मानवयोनिमें उत्पन्न होकर अत्यधिक दुःखी रहें।

 मेरी गायके बछड़े मातासे वियुक्त होकर अति दुःखित हैं और रो रहे हैं, अतएव पृथ्वीलोकमें जन्म लेनेपर यह अदिति भी मृतवत्सा होगी। इसे कारागारमें रहना पड़ेगा, उससे भी उसे महान् कष्ट भोगना होगा ॥ 5-7 ॥

व्यासजी बोले- जल-जन्तुओंके स्वामी वरुणका यह वचन सुनकर प्रजापति ब्रह्माने मुनि कश्यपको वहाँ बुलाकर उनसे कहा- हे महाभाग ! आपने लोकपाल वरुणकी गायोंका हरण क्यों किया; और फिर आपने उन्हें लौटाया भी नहीं। आप ऐसा अन्याय क्यों कर रहे हैं? ॥ 8-9 ॥

हे महाभाग ! न्यायको जानते हुए भी आपने दूसरेके धनका हरण किया। हे महामते। आप तो सर्वज्ञ हैं; तो फिर आपने यह अन्याय क्यों किया ? ॥ 10 ॥

अहो! लोभकी ऐसी महिमा है कि वह महान् से महान् लोगोंको भी नहीं छोड़ता है। लोभ तो निश्चय ही पापोंकी खान, नरककी प्राप्ति करानेवाला और सर्वथा अनुचित है ॥ 11 ॥

महर्षि कश्यप भी उस लोभका परित्याग कर सकनेमें समर्थ नहीं हुए तो मैं क्या कर सकता हूँ। अन्ततः मैंने यही निष्कर्ष निकाला कि लोभ सदासे सबसे प्रबल है ॥ 12 ॥

शान्त स्वभाववाले, जितेन्द्रिय, प्रतिग्रहसे पराङ्मुख तथा वानप्रस्थ आश्रम स्वीकार किये हुए वे मुनिलोग धन्य हैं, जिन्होंने लोभपर विजय प्राप्त कर ली है ॥ 13 ॥ संसारमें लोभसे बढ़कर अपवित्र तथा निन्दित अन्य कोई चीज नहीं है; यह सबसे बलवान् शत्रु है। महर्षि कश्यप भी इस नीच लोभसे स्नेह करनेके कारण दुराचारमें लिप्त हो गये ॥ 14 ॥

अतएव मर्यादाकी रक्षाके लिये ब्रह्माजीने भी अपने परमप्रिय पौत्र मुनिश्रेष्ठ कश्यपको शाप दे दिया कि तुम अपने अंशसे पृथ्वीपर यदुवंशमें जन्म लेकर वहाँ अपनी दोनों पत्नियोंके साथ गोपालनका कार्य करोगे ।। 15-16 ।।

व्यासजी बोले- इस प्रकार अंशावतार लेने तथा पृथ्वीका बोझ उतारनेके लिये वरुणदेव तथा ब्रह्माजीने उन महर्षि कश्यपको शाप दे दिया था ॥ 17 ॥

श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां ॥ चतुर्थस्कन्धे दित्या अदित्यै शापदानं नाम तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥

व्यासजी बोले - [ हे राजन् ! ] भगवान् विष्णुके विभिन्न अवतार ग्रहण करने तथा इसी प्रकार सभी देवताओंके भी अंशावतार ग्रहण करनेके बहुत से कारण हैं ॥ 1 ॥

अब वसुदेव, देवकी तथा रोहिणी के अवतारों का कारण यथार्थ रूपसे सुनिये ॥ 2 ॥

एक बार महर्षि कश्यप यज्ञकार्यके लिये वरुणदेव की गौ ले आये। [ यज्ञ-कार्यकी समाप्तिके पश्चात्] वरुणदेवके बहुत याचना करनेपर भी उन्होंने वह उत्तम धेनु वापस नहीं दी ॥ 3 ॥

तत्पश्चात् उदास मनवाले वरुणदेव ने जगत्के स्वामी ब्रह्माके पास जाकर उन्हें प्रणाम करके विनम्रतापूर्वक उनसे अपना दुःख कहा ॥ 4 ॥

हे महाभाग ! मैं क्या करूँ? वह अभिमानी कश्यप मेरी गाय नहीं लौटा रहा है। अतएव मैंने उसे शाप दे दिया कि मानवयोनिमें जन्म लेकर तुम गोपालक हो जाओ और तुम्हारी दोनों भार्याएँ भी मानवयोनिमें उत्पन्न होकर अत्यधिक दुःखी रहें। मेरी गाय के बछड़े मातासे वियुक्त होकर अति दुःखित हैं और रो रहे हैं, अतएव पृथ्वीलोकमें जन्म लेनेपर यह अदिति भी मृतवत्सा होगी। इसे कारागारमें रहना पड़ेगा, उससे भी उसे महान् कष्ट भोगना होगा ॥ 5-7 

"व्यासजी बोले- जल-जन्तुओं के स्वामी वरुण का यह वचन सुनकर प्रजापति ब्रह्मा ने मुनि कश्यपको वहाँ बुलाकर उनसे कहा- हे महाभाग ! आपने लोकपाल वरुणकी गायोंका हरण क्यों किया; और फिर आपने उन्हें लौटाया भी नहीं। आप ऐसा अन्याय क्यों कर रहे हैं? ॥ 8-9 ॥

हे महाभाग ! न्यायको जानते हुए भी आपने दूसरेके धनका हरण किया। हे महामते। आप तो सर्वज्ञ हैं; तो फिर आपने यह अन्याय क्यों किया ? ॥ 10 ॥

अहो! लोभकी ऐसी महिमा है कि वह महान् से महान् लोगोंको भी नहीं छोड़ता है। लोभ तो निश्चय ही पापोंकी खान, नरककी प्राप्ति करानेवाला और सर्वथा अनुचित है ॥ 11 ॥

महर्षि कश्यप भी उस लोभका परित्याग कर सकनेमें समर्थ नहीं हुए तो मैं क्या कर सकता हूँ। अन्ततः मैंने यही निष्कर्ष निकाला कि लोभ सदासे सबसे प्रबल है ॥ 12 ॥
शान्त स्वभाववाले, जितेन्द्रिय, प्रतिग्रहसे पराङ्मुख तथा वानप्रस्थ आश्रम स्वीकार किये हुए वे मुनिलोग धन्य हैं, जिन्होंने लोभपर विजय प्राप्त कर ली है ॥ 13 ॥

 संसारमें लोभसे बढ़कर अपवित्र तथा निन्दित अन्य कोई चीज नहीं है; यह सबसे बलवान् शत्रु है। महर्षि कश्यप भी इस नीच लोभसे स्नेह करनेके कारण दुराचारमें लिप्त हो गये ॥ 14 ॥

अतएव मर्यादाकी रक्षाके लिये ब्रह्माजीने भी अपने परमप्रिय पौत्र मुनिश्रेष्ठ कश्यपको शाप दे दिया कि तुम अपने अंशसे पृथ्वीपर यदुवंशमें जन्म लेकर वहाँ अपनी दोनों पत्नियोंके साथ गोपालनका कार्य करोगे ।। 15-16 ।।

व्यासजी बोले- इस प्रकार अंशावतार लेने तथा पृथ्वीका बोझ उतारनेके लिये वरुणदेव तथा ब्रह्माजीने उन महर्षि कश्यपको शाप दे दिया था ॥ 17 ॥

उधर कश्यपकी भार्या दितिने भी अत्यधिक शोकसन्तप्त होकर अदिति को शाप दे दिया कि क्रमसे तुम्हारे सातों पुत्र उत्पन्न होते ही मृत्युको प्राप्त हो जायँ ॥ 18 ॥


वसुदेव गोप रूप में पिता की मृत्यु के बाद कृषि और गोपालन करते हुए-
शूरसेनाभिधःशूरस्तत्राभून्मेदिनीपतिः ।
माथुराञ्छूरसेनांश्च बुभुजे विषयान्नृप॥५९॥

तत्रोत्पन्नः कश्यपांशः शापाच्च वरुणस्य वै ।वसुदेवोऽतिविख्यातः शूरसेनसुतस्तदा॥ ६०॥

वैश्यवृत्तिरतः सोऽभून्मृते पितरि माधवः।      उग्रसेनो बभूवाथ कंसस्तस्यात्मजो महान्॥६१॥

•-तब वहाँ के शूर पराक्रमी राजा शूरसेन नाम से हुए । और वहाँ की सारी सम्पत्ति भोगने का शुभ अवसर उन्हें प्राप्त हुआ ! वरुण के शाप के कारण कश्यप ही अपने अंश रूप में शूरसेन के पुत्र वसुदेव के रूप में उत्पन्न हुए  कालान्तरण में पिता के स्वर्गवासी हो जाने पर वसुदेव (वैश्य-वृति) से अपना जीवन निर्वाह करने लगे। उन दिनों उग्रसेन भी जो मथुरा के एक भाग पर राज्य पर राज करते थे !  जिनके कंस नामक महाशक्ति शाली पुत्र हुआ

सन्दर्भ:- इति श्रमिद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे कृष्णावतारकथोपक्रमवर्णनं नाम विंशोऽध्यायः।२०।

 गर्गसंहिता में भी नीचे देखेें 

तं द्वारकेशं पश्यन्ति मनुजा ये कलौ युगे । 
सर्वे कृतार्थतां यान्ति तत्र गत्वा नृपेश्वर:| 40||

य: श्रृणोति चरित्रं वै गोलोक आरोहणं हरे: | 
मुक्तिं यदुनां गोपानां सर्व पापै: प्रमुच्यते |

अन्वयार्थ ● हे राजन् (नृपेश्वर)जो (ये) मनुष्य (मनुजा) कलियुग में (कलौयुगे ) वहाँ जाकर ( गत्वा)
 उन द्वारकेश को (तं द्वारकेशं) कृष्ण को देखते हैं (पश्यन्ति) वे सभी कृतार्थों को प्राप्त होते हैं (सर्वे कृतार्थतां यान्ति)।40।।

य: श्रृणोति चरित्रं वै गोलोक आरोहणं हरे: |
मुक्तिं यदुनां गोपानां सर्व पापै: प्रमुच्यते | 41|| 

अन्वयार्थ ● जो (य:)  हरि के (हरे: )  🍒● यादव गोपों के (यदुनां गोपानां )गोलोक गमन (गोलोकारोहणं ) चरित्र को (चरित्रं ) निश्चय ही (वै)
 सुनता है (श्रृणोति )  
 वह मुक्ति को पाकर (मुक्तिं गत्वा) सभी पापों से (सर्व पापै: ) मुक्त होता है ( प्रमुच्यते )

इति श्रीगर्गसंहितायाम् अश्वमेधखण्डे राधाकृष्णयोर्गोलोकरोहणं नाम षष्टितमो८ध्याय |
(  इस प्रकार गर्गसंहिता में अश्वमेधखण्ड का 
राधाकृष्णगोलोक आरोहणं नामक साठवाँ अध्याय  |


देवमीढान्मारिषायां वसुदेवो महानभूत् । आनकञ्च महाहृष्टाः श्रीहरेर्ज्जनकञ्च तम् । सन्तः पुरातनास्तेन वदन्त्यानकदुन्दुभिम् ॥
 “इति ब्रह्मवैवर्त्ते श्रीकृष्णजन्मखण्डे ।७। अध्यायःनवम

कश्यपो वसुदेवश्च देवकी चादितिः परा ।
शूरः प्राणो ध्रुवः सोऽपि देवकोऽवतरिष्यति ॥२३।

गर्गसंहिता/खण्डः १ (गोलोकखण्डः)/अध्यायः५


< गर्गसंहिता‎ | खण्डः १ (गोलोकखण्डः)
विविधगोपीजन्मकथा

               श्रीभगवानुवाच -
भक्तिभावसमायुक्ता भूरिभाग्या वरांगनाः ।
लतागोप्यो भविष्यन्ति वृन्दारण्ये पितामह ॥१० ॥

___________________________________
जालन्धर्य्यश्च या नार्यो वीक्ष्य वृन्दापतिं हरिम् ।
ऊचुर्वायं हरिः साक्षादस्माकं तु वरो भवेत् ॥ ११ ॥

आकाशवागभूत्तासां भजताशु रमापतिम् ।
यथा वृन्दा तथा यूयं वृन्दारण्ये भविष्यथ ॥ १२ ॥

समुद्रकन्याः श्रीमत्स्यं हरिं दृष्ट्वा च मोहिताः ।
ता हि गोप्यो भविष्यन्ति श्रीमत्स्यस्य वराद्‌व्रजे ॥ १३ ॥

____________________________

_____________

इति श्रीगर्गसंहितायां गोलोकखण्डे नारदबहुलाश्वसंवादे अवतारव्यवस्था नाम पंचमोऽध्यायः ॥ ५ ॥ 
______________________________________
भविष्य पुराण उत्तर पर्व (४)
श्री भविष्येमहापुराण उत्तरपर्वणि श्रीकृष्णयुधिष्ठिरसंवादे जन्माष्टमीव्रतवर्णनं नाम पंचपंचाशत्तमोऽध्यायः ।। ५५ ।।

कश्यपो वसुदेवोयमदिति श्चापि देवकी ।।
बलभद्रः शेषनागो यशोदादित्यजायत ।। ३४ ।।

नन्दः प्रजापतिर्दक्षो गर्गश्चापि चतुर्मुखः ।।

तत्र कंसनियुक्ता ये दानवा विविधायुधाः ।।
ते च प्राहारिकाः सर्वे सुप्ता निद्राविमोहिताः ।। ३६

 गोलोकखण्ड; 

📚:
 
रहस्यं गोपनीयं च सर्वं निगदितं मुने ।।
अधुना बलदेवस्य जन्माख्यानं मुने शृणु । ४१।

श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखंडे नारायणनारदसंवादे नंदपुत्रोत्सवो नाम नवमोऽध्यायः ।। ९ ।।

📚: 
सुगन्धा वनराजी च द्वेचान्ये परिचारिके ।
रोहिणी पौरवी चैव बाह्लीकस्यानुजाभवत् ॥१६३

📚: अन्यस्यामभवद्वीरो वसुदेवात्मजो बली ।
जरा नाम निषादोऽसौ प्रथमः स धनुर्द्धरः ॥१८

📚: 
दत्त्वेमं नन्दगोपस्य रक्षेममिति चाब्रवीत् ।
सुतस्ते सर्वकल्याणो यादवानां भविष्यति ॥२१६॥


सूत उवाच

नन्दो द्रोणः समाख्यातो यशोदा च धराभवत् ।
अथ कामान्महाबाहुर्देवक्याः संप्रवर्द्धयन् ॥२३९॥

अचरत्स महीं देवः प्रविष्टो मानुषीं तनुम् ।
मोहयन्सर्वभूतानि योगात्मा योगमायया ॥२४०॥

नष्टे धर्मे तदा जज्ञे विष्णुर्वृष्णिकुले स्वयम् ।
कर्त्तुं धर्मव्यवस्थानमसुराणां प्रणाशनम् ॥२४१॥

सन्दर्भ:-
श्रीब्रह्माण्डे महापुराणे वायुप्रोक्ते मध्यमभागे तृतीय उपोद्धातपदे वृष्णिवंशानुकीर्त्तनं नामैकसप्ततितमोऽध्यायः॥७१॥



             ऋषय ऊचुः
क एष वसुदेवस्तु देवकी च यशस्विनी ।
नन्दगोपस्तु कस्त्वेष यशोदा य महायशाः ॥ २,७१.२३६ ॥
यो विष्णुं जनयामास यं च तातेत्यभाषत ।
या गर्भं जनयामास या वैनं याभ्यवर्द्धयत् ॥ २,७१.२३७ ॥
सूत उवाच
"पुरुषः कश्यपस्त्वासी अदितिस्तत्प्रिया तथा ।
कश्यपो ब्रह्मणोंऽशश्च पृथिव्या आदितिस्तथा ॥ २,७१.२३८ ॥


नन्दो द्रोणः समाख्यातो यशोदा च धराभवत् ।
अथ कामान्महाबाहुर्देवक्याः संप्रवर्द्धयन् ॥ २,७१.२३९ ॥
अचरत्स महीं देवः प्रविष्टो मानुषीं तनुम् ।
मोहयन्सर्वभूतानि योगात्मा योगमायया ॥ २,७१.२४० ॥
नष्टे धर्मे तदा जज्ञे विष्णुर्वृष्णिकुले स्वयम् ।
कर्त्तुं धर्मव्यवस्थानमसुराणां प्रणाशनम् ॥ २,७१.२४१ ॥

_____________________________
श्रीब्रह्माण्डे महापुराणे वायुप्रोक्ते मध्यमभागे तृतीय उपोद्धातपदे वृष्णिवंशानुकीर्त्तनं नामैकसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७१॥

मानुष्ये स कथं बुद्धिं चक्रे चक्रभृतां वरः।
गोपायन यः कुरुते जगतः सर्वकालिकम्॥२,७२.१२॥
स कथं गां गतो विष्णुर्गोपत्वमकरोत्प्रभुः।
महाभूतानि भूतात्मा यो दधार चकार ह॥२,७२.१३॥


श्रीब्रह्माण्डे महापुराणे वायुप्रोक्ते मध्यमभागे तृतीय उपोद्धातपदे वृष्णिवंशानुकीर्त्तनं नामक ७२ वाँ अध्याय-

____
वसूनां प्रवरो नन्दो नाम्ना द्रोणस्तपोधनः ।।
तस्य पत्नी धरा साध्वी यशोदा सा तपस्विनी ।१७।

एकदा च धरा द्रोणौ पर्वते गन्धमादने ।।
पुण्यदे भारते वर्षे गौतमाश्रमसन्निधौ ।। १९ ।।

चक्रतुश्च तपस्तत्र वर्षाणामयुतं मुने ।।
श्रीकृष्णदर्शनार्थं च निर्जने सुप्रभातटे ।4.9.२० ।।
______________
श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे नारायणनारदसंवादे नन्दपुत्रोत्सवो नाम नवमोऽध्यायः ।९।



                "ऋषय ऊचुः॥
क एष वसुदेवश्च देवकी च यशस्विनी।
नन्दगोपस्तु कस्त्वेष यशोदा च महायशाः।
यो विष्णुं जनयामास या चैनं चाभ्यवर्द्धयत् ॥२२९।
"अनुवाद:- ऋषियों ने कहा- ये यशवाले वसुदेव और देवकी तथा महान यश वाले  ये नन्द और यशोदा कौन थे ? जिन्होंने विष्णु(कृष्ण) भगवान को जन्म दिया और उनका पालन पोषण किया।२२९।


                ॥सूत ऊवाच॥
सूत जी बोले- कश्यप के अंश से वसुदेव नन्दादि पुरुष हुए तथा अदिति के अंश से देवकी, यशोदा आदि स्त्रीयाँ- महाबाहु श्रीकृष्ण ने देवकी के मनोरथों को पूर्ण किया था।२३०।

______________________
श्रीमहापुराणे वायुप्रोक्ते विष्णुवंशानुकीर्त्तनं नाम चतुस्त्रिंशोऽध्यायः ॥३४॥


                   भीष्म उवाच
क एष वसुदेवस्तु देवकी का यशस्विनी।१४४।


नन्दगोपश्च कश्चैव यशोदा का महाव्रता

या विष्णुं पोषितवती यां स मातेत्यभाषत।१४५।


"या गर्भं जनयामास या चैनं समवर्द्धयत्
                 (पुलस्त्य उवाच).                   "पुरुषः कश्यपश्चासावदितिस्तत्प्रिया स्मृता।१४६।


कश्यपो ब्रह्मणोंशस्तु पृथिव्या अदितिस्तथा
नन्दो द्रोणस्समाख्यातो यशोदाथ धराभवत्।१४७।

अथकामान्महाबाहुर्देवक्याः समपूरयत्।
ये तया काङ्क्षिताः पूर्वमजात्तस्मान्महात्मनः। १४८।

श्रीपद्मपुराणे प्रथमे सृष्टिखण्डे अवतारचरितंनाम त्रयोदशोऽध्यायः।१३।

भीष्मने पूछा- ब्रह्मन् ! ये वसुदेव कौन थे? यशस्विनी देवकीदेवी कौन थीं तथा ये नन्दगोप और उनकी पत्नी महाव्रता यशोदा कौन थीं? जिसने बालकरूपमें भगवान्को जन्म दिया और जिसने उनका पालन-पोषण किया जिसे भगवान विष्णु ने माता इस प्रकार कहा , उन दोनों स्त्रियोंका परिचय दीजिये।

पुलस्त्यजी बोले- राजन् पुरुष वसुदेव जी कश्यप # और उनको प्रिया देवकी अदिति कही गयी हैं।
 कश्यप ब्रह्माजी के अंश हैं और अदिति पृथ्वी का अंश है। इसी प्रकार द्रोण नामक वसु ही नन्दगोप के नाम से विख्यात हुए हैं तथा उनकी पत्नी धरा यशोदा हैं। 

देवी देवकी ने पूर्वजन्म में अजन्मा परमेश्वर से जो कामना की थी, उसकी वह कामना महाबाहु श्रीकृष्ण ने पूर्ण कर दी।

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