(विषय- सूची)
१- श्रीकृष्ण का स्वरूप और उनका गोलोक-
२- श्रीकृष्ण के अतिरिक्त दूसरा कोई परमेश्वर नहीं।
३- गोलोक में गोपों की उत्पत्ति एवं भूलोक पर भी -
४-श्रीकृष्ण का आभीर( गोप) जाति के यदुवंश के वृष्णि कुल में अवतरण-
५-श्रीकृष्ण सहित प्रमुख पौराणिक व्यक्तियों का गोप जाति के अन्तर्गत यदुवंश से सम्बन्ध-
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६-अहीर गोप और यादव एक ही जाति के तीन विशेषण-
७-यादव अथवा गोप वैष्णव वर्ण के अन्तर्गत एक ही जाति-
८-श्रीकृष्ण के सहचर - गोप और गोपियों की पुराणों में प्रशंसा-
९- श्रीकृष्ण का अपने पारिवारिक सदस्य गोपों के साथ गोलोकगमन तथा कुछ गोपों का पृथ्वी पर ही रह जाना-
१०- गोपियों के १६ वें अँश के बराबर भी ब्रह्मा की सामर्थ्य नहीं हैं।
११- ब्रह्मा, विष्णु तथा शंकर आदि त्रिवृहद्-देव भी गोपियों की चरण रज के स्पर्श करने के लिए तरसते हैं।
१२-श्रीकृष्ण के एक बहेलिए के द्वारा मारा जाने का खण्डन -
१३-यादवों का सम्पूर्ण विनाश कभी नहीं हुआ-
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•लघु ( छोटे) किन्तु महत्व पूर्ण बिन्दु-
•गोलोक में भगवान श्रीकृष्ण और राधा जी की नित्य किशोरावस्था ( कन्यावस्था ) रहती है।
•श्रीकृष्ण सदैव गोप - वेष में रहते हैं।
•श्रीकृष्ण के विग्रह ( शरीर) में ब्रह्मा ,विष्णु और शिव का विलय होना-
•गोप- गोपियों की उत्पत्ति।
•पृथ्वी का प्रथम गोप सम्राट पुरुरवा का परिचय-
•लोकतान्त्रिक विधि से सम्राट बने हुए अन्य गोप जाति के वीर-आयुष ,नहुष , ययाति , यदु , तथा कार्तवीर्य- अर्जुन आदि का वृत्तान्त ।
•यादवों का वैष्णव वर्ण के अन्तर्गत होना तथा जिसका ब्रह्मा के द्वारा बनाये गये वर्णों से श्रेष्ठ होना । क्योंकि यादव सभी वर्णों का व्यवसाय ( वृत्ति ) कर सकते हैं। जबकि ब्राह्मी वर्ण के अन्तर्गत एक ही वर्ण का एक ही व्यवसाय जन्म से निश्चित कर दिया जाता है।
•यादव - ब्रह्मा की चातुर्य वर्ण व्यवस्था के अन्तर्गत आये हुए सभी वर्णों का कार्य कर सकते हैं।
•भारत भूमि पर गोप जाति से श्रेष्ठ कोई जाति नहीं -
(अध्याय ~१ )
भगवान श्रीकृष्ण के गोलोक और उनके अनेक स्वरूपों का वर्णन ब्रह्म वैवर्तपुराण के ब्रह्म -खण्ड में मिलता है ।
सन्दर्भ- ब्रह्म वैवर्त पुराण अध्याय २- श्लोक ११- पृष्ठ २५ गीताप्रेस हिन्दी संस्करण ।
ज्योतिःसमूहं प्रलये पुराऽऽसीत्केवलं द्विज ।।
सूर्य्यकोटिप्रभं नित्यमसंख्यं विश्वकारणम् ।।४ ।।
सूर्य्यकोटिप्रभं नित्यमसंख्यं विश्वकारणम् ।।४ ।।
स्वेच्छामयस्य च विभोस्तज्ज्योतिरुज्ज्वलं महत्।
ज्योतिरभ्यन्तरे लोकत्रयमेव मनोहरम् ।।५।।
तेषामुपरि गोलोकं नित्यमीश्वरवद् द्विज।।
त्रिकोटियोजनायामविस्तीर्णं मण्डलाकृति ।।६।।
तेजःस्वरूपं सुमहद्रत्नभूमिमयं परम्।।
अदृश्यं योगिभिः स्वप्ने दृश्यं गम्यं च वैष्णवैः।।७।।
योगेन धृतमीशेन चान्तरिक्षस्थितं वरम् ।।
आधिव्याधिजरामृत्युशोकभीतिविवर्जितम् ।।८।।
सद्रत्नरचितासंख्यमन्दिरैः परिशोभितम् ।।
लये कृष्णयुतं सृष्टौ गोपगोपीभिरावृतम् ।। ९ ।।
तदधो दक्षिणे सव्ये पञ्चाशत्कोटियोजनान् ।।
वैकुण्ठं शिवलोकं तु तत्समं सुमनोहरम् ।। 1.2.१०।।
कोटियोजनविस्तीर्णं वैकुण्ठं मण्डलाकृति ।।
लये शून्यं च सृष्टौ च लक्ष्मीनारायणान्वितम् ।।११।।
चतुर्भुजैः पार्षदैश्च जरामृत्य्वादिवर्जितम् ।।
सव्ये च शिवलोकं च कोटियोजनविस्तृतम् ।।१२।।
लये शून्यं च सृष्टौ च सपार्षदशिवान्वितम् ।।
गोलोकाभ्यन्तरे ज्योतिरतीव सुमनोहरम् ।।१३।।
परमाह्लादकं शश्वत्परमानन्दकारकम् ।।
ध्यायन्ते योगिनः शश्वद्योगेन ज्ञानचक्षुषा ।।१४।।
तदेवानन्दजनकं निराकारं परात्परम् ।।
तज्ज्योतिरन्तरे रूपमतीव सुमनोहरम् ।। १५ ।।
नवीननीरदश्यामं रक्तपङ्कजलोचनम्।।
शारदीयपार्वणेन्दुशोभितं चामलाननम् ।। १६ ।।
कोटिकन्दर्पलावण्यं लीलाधाम मनोरमम् ।।
द्विभुजं मुरलीहस्तं सस्मितं पीतवाससम् ।। १७ ।।
सद्रत्नभूषणौघेन भूषितं भक्तवत्सलम्।।
चन्दनोक्षितसर्वाङ्गं कस्तूरीकुङ्कुमान्वितम्।।१८।।
श्रीवत्सवक्षःसंभ्राजत्कौस्तुभेन विराजितम् ।।
सद्रत्नसाररचितकिरीटमुकुटोज्ज्वलम् ।। १९ ।।
रत्नसिंहासनस्थं च वनमालाविभूषितम् ।।
तदेव परमं ब्रह्म भगवन्तं सनातनम् ।। 1.2.२० ।।
स्वेच्छामयं सर्वबीजं सर्वाधारं परात्परम् ।।
किशोरवयसं शश्वद्गोपवेषविधायकम् ।। २१ ।।
कोटिपूर्णेन्दुशोभाढ्यं भक्तानुग्रहकारकम् ।।
निरीहं निर्विकारं च परिपूर्णतमं विभुम् ।।२२।।
रासमण्डलमध्यस्थं शान्तं रासेश्वरं वरम् ।।
माङ्गल्यं मङ्गलार्हं च माङ्गल्यं मङ्गलप्रदम्।।२३।।
अनुवाद:-
पूर्ववर्ती प्रलय काल में केवल ज्योति- पुञ्ज प्रकाशित होता था । जिसकी प्रभा करोड़ो सूर्यों के समान थी वह ज्योतिर्मण्डल नित्य व शाश्वत है। वही सम्पूर्ण विश्व का कारण बनता है ।
वह स्वेच्छामयी ,रूपधारी सर्वव्यापी परमात्मा का सर्वोज्ज्वल तेज है। उस तेज के आभ्यन्तर. ( भीतर ) मनोहर रूप में तीनों ही लोक विद्यमान हैं। और उन तीनों लोकों के ऊपर गोलोक धाम है जो परमेश्वर के समान ही नित्य है। उसकी लम्बाई- चौड़ाई तीन करोड़ योजन है। उसका आयतन सभी और से मण्डलाकार है। और परम महान तेज ही उसका शाश्वत स्वरूप है।
श्लोक- वहाँ आधि( मानसिक पीड़ा) व्याधि( शारीरिक पीड़ा) जरा ( बुड़़ापा) मृत्यु तथा शोक और भय का प्रवेश नहीं।
प्रलय काल में वहाँ केवल श्री कृष्ण मूल रूप से विद्यमान रहते हैं।
और सृष्टि काल में वही गोप - गोपियों से परिपूर्ण रहता है।
और इस गोलोक से नीचे दक्षिण भाग में पचास करोड़ योजन दूर वैकुण्ठ धाम है। और वाम भाग में इसी के समानान्तर शिवलोक विद्यमान है।
श्लोक- गोलोक से भीतर अत्यंत मनोहर ज्योति है। जो परम आह्लाद जनक तथा
नित्य परमानन्द की प्राप्ति का कारण है। वह ज्योति ही परमानन्द दायक निराकार व परात्पर ब्रह्म है। और इसी ब्रह्म ज्योति के भीतर अत्यन्त रूप सुशोभित होता है । जो नूतन जल धर (मेघ) के समान श्याम (साँवला) है।
उनके नेत्र लाल कमल के समान प्रफुल्लित हैं। उनका निर्मल मुख पूर्णिमा के चन्द्रमा की शोभा को तिरस्कृत करता है। यह मनोहर रूप विविध लीलाओं का धाम है । उनकी दो भुजाएँ हैं । एक हाथ में मुरली सुशोभित होती है ; और उपरोष्ठ और अधरोष्ठों पर मुस्कान खेलती रहती है।
श्लोक - वह श्याम सुन्दर पुरुष रत्न मय सिंहासन पर आसीन और आजानुलम्बिनी (घुटनों तक लटकने वाली) वन माला उसकी शोभा बढ़ाती है। उसी को परम्-ब्रह्म परमात्मा और सनातन ईश्वर कहते हैं। वे ही प्रभु स्वेच्छामयी रूपधारी सबके आदि कारण सर्वाधार तथा परात्पर- परमात्मा हैं। उनकी गी नित्य किशोरावस्था रहती है और वे प्रभु गायों के उस लोक में सदा गोप( आभीर) -वेष में रहते हैं ।
📚: श्री कृष्ण ही एक मात्र परम प्रभु ( Supreme power of Universe) - ब्रह्म वैवर्त पुराण ब्रह्मखण्ड अध्याय- ११ श्लोक - संख्या
"नास्ति गङ्गासमं तीर्थं न च कृष्णात्परः सुरः।।
न शङ्कराद्वैष्णवश्च न सहिष्णुर्धरा परा।।१६।
देवों मे काल का भी काल हूँ। विधाता का भी विधाता हूँ। संहार कारी का भी संहारक तथा पालक का भी पालक परात्पर परमेश्वर हूँ। मेरी आज्ञा से ही शिव रूद्र रूप धारण कर संसार का संहार करते हैं इसलिए उनका नाम "हर" सार्थक है। और मेरी आज्ञा से ब्रह्मा सृष्टि सर्जन के लिए उद्यत रहते हैं। इस लिए वे विश्व- सृष्टा कहलाते हैं। और धर्म के रक्षक देव विष्णु सृष्टि की रक्षा के कारण पालक कहलाते हैं।
इसके पश्चात गोपेश्वर श्रीकृष्ण देवी तथा देवगणों को निर्देश करते हुए कहते हैं।
" ब्रह्मा से लेकर तृण पर्यन्त सबका ईश्वर मैं ही हूँ।
मैं ही कर्म फल का दाता और कर्मों का निर्मूलन करने वाला हूँ। और मैं जिसका संहार करना चाहता हूँ उनकी रक्षा कौन कर सकता है ? तथा मैं जिसका पालन करने वाला हूँ उसका विनाश करने वाला कोई नहीं ! मूलत: मैं ही सबका सर्जक ,पालक और संहारक हूँ। परन्तु मेरे भक्त नित्यदेही हैं उनका संहार करने में मैं भी समर्थ नहीं हूँ। -क्योंकि मैं सदा भक्तों के अधीन रहता हूँ। भक्त मेरे अनुयायी हैं। भक्त मेरे चरणों की उपासना में तत्पर रहते हैं। इस लिए मैं भी सदा भक्तों के निकट उनकी रक्षा के लिए समर्पित रहता हूँ।
इस प्रकार गोपेश्वर श्रीकृष्ण के विषय में ब्रह्म वैवर्तपुराण के ब्रह्म खण्ड के अध्याय -२१ लिखा गया है।"
तेजोमण्डलरूपे च सूर्य्यकोटिसमप्रभे ।।
योगिभिर्वाञ्छितं ध्याने योगैः सिद्धगणैः सुरैः ।। ३२ ।।
ध्यायन्ते वैष्णवा रूपं तदभ्यन्तरसन्निधौ ।।
अतीव कमनीयानिर्वचनीयं मनोहरम् ।। ३३ ।।
नवीनजलदश्यामं शरत्पङ्कजलोचनम् ।।
शरत्पार्वणचन्द्रास्यं पक्वबिम्बाधिकाधरम् ।। ३४ ।।
मुक्तापङ्क्तिविनिन्दैकदन्तपंक्तिमनोहरम् ।।
सस्मितं मुरलीन्यस्तहस्तावलम्बनेन च ।। ३५ ।।
कोटिकन्दर्पलावण्यं लीलाधाम मनोहरम् ।।
चन्द्रलक्षप्रभाजुष्टं पुष्टश्रीयुक्तविग्रहम् ।। ३६ ।।
त्रिभङ्गसङ्गि वा युक्तं द्विभुजं पीतवाससम् ।।
रत्नकेयूरवलयरत्ननूपुरभूषि तम् ।। ३७ ।।
रत्नकुण्डलयुग्मेन गण्डस्थलविराजितम् ।।
मयूरपुच्छचूडं च रत्नमालाविभूषितम् ।। ३८ ।।
शोभितं जानुपर्य्यन्तं मालतीवनमालया ।।
चन्दनोक्षितसर्वाङ्गं भक्तानुग्रहकारकम् ।।३९ ।।
मणिना कौस्तुभेन्द्रेण वक्षस्थलसमुज्ज्वलम् ।।
वीक्षितं गोपिकाभिश्च शश्वद्व्रीडितलोचनैः ।।1.21.४०।।
स्थिरयौवनयुक्ताभिर्वेष्टिताभिश्च सन्ततम् ।।
भूषणैर्भूषिताभिश्च राधावक्षःस्थलस्थितम् ।। ।। ४१ ।।
ब्रह्मविष्णुशिवाद्यैश्च पूजितं वन्दितं स्तुतम् ।।
किशोरं राधिकाकान्तं शान्तरूपं परात्परम् ।। ४२ ।।
निर्लिप्तं साक्षिरूपं च निर्गुणं प्रकृतेः परम् ।।
ध्यायेत्सर्वेश्वरं तं च परमात्मानमीश्वरम् ।। ४३ ।।
योगिभिर्वाञ्छितं ध्याने योगैः सिद्धगणैः सुरैः ।। ३२ ।।
ध्यायन्ते वैष्णवा रूपं तदभ्यन्तरसन्निधौ ।।
अतीव कमनीयानिर्वचनीयं मनोहरम् ।। ३३ ।।
नवीनजलदश्यामं शरत्पङ्कजलोचनम् ।।
शरत्पार्वणचन्द्रास्यं पक्वबिम्बाधिकाधरम् ।। ३४ ।।
मुक्तापङ्क्तिविनिन्दैकदन्तपंक्तिमनोहरम् ।।
सस्मितं मुरलीन्यस्तहस्तावलम्बनेन च ।। ३५ ।।
कोटिकन्दर्पलावण्यं लीलाधाम मनोहरम् ।।
चन्द्रलक्षप्रभाजुष्टं पुष्टश्रीयुक्तविग्रहम् ।। ३६ ।।
त्रिभङ्गसङ्गि वा युक्तं द्विभुजं पीतवाससम् ।।
रत्नकेयूरवलयरत्ननूपुरभूषि तम् ।। ३७ ।।
रत्नकुण्डलयुग्मेन गण्डस्थलविराजितम् ।।
मयूरपुच्छचूडं च रत्नमालाविभूषितम् ।। ३८ ।।
शोभितं जानुपर्य्यन्तं मालतीवनमालया ।।
चन्दनोक्षितसर्वाङ्गं भक्तानुग्रहकारकम् ।।३९ ।।
मणिना कौस्तुभेन्द्रेण वक्षस्थलसमुज्ज्वलम् ।।
वीक्षितं गोपिकाभिश्च शश्वद्व्रीडितलोचनैः ।।1.21.४०।।
स्थिरयौवनयुक्ताभिर्वेष्टिताभिश्च सन्ततम् ।।
भूषणैर्भूषिताभिश्च राधावक्षःस्थलस्थितम् ।। ।। ४१ ।।
ब्रह्मविष्णुशिवाद्यैश्च पूजितं वन्दितं स्तुतम् ।।
किशोरं राधिकाकान्तं शान्तरूपं परात्परम् ।। ४२ ।।
निर्लिप्तं साक्षिरूपं च निर्गुणं प्रकृतेः परम् ।।
ध्यायेत्सर्वेश्वरं तं च परमात्मानमीश्वरम् ।। ४३ ।।
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रत्नसिंहासनस्थं च रत्नभूषणभूषितम् ।।
किशोरवयसं श्यामं गोपवेषं च सस्मितम् ।। ४७ ।।
गोपैर्गोपाङ्गनाभिश्च वेष्टितं पीतवाससम् ।।
द्विभुजं मुरलीहस्तं चन्दनेन विचर्चितम्।।४८।।
ब्रह्मविष्णुशिवाद्यैश्च स्तूयमानं परात्परम् ।।
दृष्ट्वा च सुचिरं शान्तं शान्तश्च गोपिकासुतः।।४९।।
किशोरवयसं श्यामं गोपवेषं च सस्मितम् ।। ४७ ।।
गोपैर्गोपाङ्गनाभिश्च वेष्टितं पीतवाससम् ।।
द्विभुजं मुरलीहस्तं चन्दनेन विचर्चितम्।।४८।।
ब्रह्मविष्णुशिवाद्यैश्च स्तूयमानं परात्परम् ।।
दृष्ट्वा च सुचिरं शान्तं शान्तश्च गोपिकासुतः।।४९।।
वे श्रीकृष्ण श्री राधा जी के वक्ष:स्थल पर स्थित रहते हैं। ब्रह्मा , विष्णु तथा शिव आदि देवता निरन्तर उनकी पूजा, स्तुति और वन्दना करते रहते हैं। उनकी अवस्था किशोर है।
वे राधा के प्राण नाथ शान्तस्वरूप- एवं परात्पर हैं। वे सांसारिक विकारों से परे निर्लिप्त तथा केवल साक्षी रूप दृष्टा हैं। भगवान श्रीकृष्ण मूलत: निर्गुण तथा प्रकृति के तीनों गुणों से परे हैं। वे सर्वेश्वर एवं सर्व ऐश्वर्य शाली हैं।
देखें ब्रह्म वैवर्त पुराण के श्रीकृष्ण जन्म खण्ड के अध्याय ६६ के अनुसार -
गोपेश्वर श्रीकृष्ण की सर्वोच्चता का वर्णन कुछ इस प्रकार है।
जिसमें भगवान श्रीकृष्ण राधा जी से कहते हैं।
" हे राधे ! संसार के सभी दृश्य नश्वर ( नाशवान) हैं। कहीं किन्हीं पदार्थों का आविष्कार अधिक होता है और कहीं कम मात्रा में
कुछ देवता मेरे अंश हैं कुछ कला हैं और कुछ अंश के भी अंश हैं। मेरी अंश स्वरूपा प्रकृति सूक्ष्म रूपिणी है। उसकी पाँच मूर्तियां है । प्रधान मूर्ति तुम राधा,वेदमाता गायत्री,दुर्गा,लक्ष्मी आदि और जीतने भी मूर्ति धारी देवता हैं वे सब प्राकृतिक हैं। और मैं सबका आत्मा हूँ
और भक्तों के द्वारा ध्यान करने के लिए मैं नित्य देह धारण करके स्थित रहता हूँ।
हे राधे ! जो जो प्राकृतिक देह धारी हैं। वे सब प्राकृतिक प्रलय के पश्चात नष्ट हो जाते हैं। सबसे पहले मैं वही था !
और सबके अन्त में मैं ही रहुँगा-
हे राधे जिस प्रकार मैं हूँ उसी प्रकार तुम भी हो !
जिस प्रकार दुग्ध और उसका धवलता में भेद नहीं हैं। प्राकृतिक सृष्टि में मैं ही वह महान विराट हूँ। जिसकी रोमावलियों में असंख्य ब्रह्माण्ड विद्यमान है। वह महा विराट् मेरा ही अँश है और तुम अपने अंश से उसकी पत्नी भी हो।
बाद की सृष्टि में मैं ही वह क्षुद्र विराट् विष्णु हूँ जिसकी नाभि कमल से ब्रह्मा की उत्पत्ति होती है।
विष्णु के रोम कूपों में मेरा आंशिक निवास है। तुम्ही अपने अंश रूप से सुन्दरी जननी हो। उस विराट विष्णु के रोम कूपों को प्रत्येक ब्रह्माण्ड में ब्रह्मा विष्णु तथा महेश( शिव) आदि देवता विद्यमान हैं।
ये ब्रह्मा विष्णु तथा शिव तथा अन्य ब्रह्माण्डों के ब्रह्मा विष्णु तथा शिव आदि देवता मेरी ही कलाऐं हैं।
फिर भी कृष्ण की सर्वोच्चता का पता उस समय चलता है।
जिस समय प्रलय काल में जो - जो देवता श्रीकृष्ण के जिस जिस भाग से उत्पन्न हुए थे । वे सभी देवता उसी क्रम में श्रीकृष्ण के भाग और अंशों में विलीन हो जाते हैं।
इस बात की पुष्टि ब्रह्म वैवर्त पुराण के प्रकृति खण्ड के अध्याय ३४- से होती है।
पृष्ठ संख्या ६-७-८-९
[7/27, 8:39 PM] yogeshrohi📚: ब्रह्म वैवर्त पुराण अध्याय- ३४ के श्लोक-
चक्षुर्निमीलने तस्य लयं प्राकृतिकं विदुः ।
प्रलये प्राकृताः सर्वे देवाद्याश्च चराचराः । ५७।
लीना धातरि धाता च श्रीकृष्णे नाभिपङ्कजे ।
विष्णुः क्षीरोदशायी च वैकुण्ठे यश्चतुर्भुजः । ५८ ।
विलीना वामपार्श्वे च कृष्णस्य परमात्मनः ।
रुद्राद्या भैरवाद्याश्च यावन्तश्च शिवानुगाः ।५९।
शिवाधारे शिवे लीना ज्ञानानन्दे सनातने ।
ज्ञानाधिदेवः कृष्णस्य महादेवस्य चात्मनः । 2.34.६०।
प्राकृतिक प्रलय के समय सम्पूर्ण देवता आदि चराचर प्राणी ब्रह्मा मैं विलीन हो जाते हैं। और ब्रह्मा क्षुद्र विष्णु के नाभि कमल में लीन हो जाते हैं। और क्षुद्र विष्णु विराट विष्णु में और विराट विष्णु स्वराट्- विष्णु में लीन हो जाता है।
इसके बाद क्षीर सागर में निवास करने वाले श्री विष्णु ( नारायण) तथा वैकुण्ठ में निवास करने वाले चतुर्भुज धारी विष्णु परम्- ब्रह्म परमात्मा श्री कृष्ण के वाम पार्श्व ( वाँये बगल) में विलीन हो जाते हैं।
रूद्र और भैरव आदि जितने भी शिव के अनुचर हैं। वे मंगलाधार सनातन ज्ञान नन्दन स्वरूप शिव में लीन हो जाते हैं। और ज्ञान के अधिष्ठात्री देव परमात्मा उन श्री कृष्ण के ज्ञान में विलीन हो जाते हैं।
इसी तरह सम्पूर्ण शक्तियाँ विष्णु माया दुर्गा में समाहित हो जाती हैं। और दुर्गा स्वयं श्री कृष्ण की बुद्धि में समाहित होता है। इसी प्रकार लक्ष्मी की अँशभूता शक्तियाँ लक्ष्मी में तथा लक्ष्मी स्वयं श्री राधा जी में लीन हो जाती हैं। तत्पश्चात गोपियाँ और देव पत्नीयाँ श्री राधा जी में लीन हो गयीं । और श्रीकृष्ण के प्राणों की अधीश्वरी देवी राधा स्वयं श्रीकृष्ण के प्राणों में प्रतिष्ठित हो जाती हैं।
और गोलोक के सम्पूर्ण गोप श्रीकृष्ण के रोम कूपों में विलीन हो जाते हैं। ।
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अध्याय २- का पृष्ठ संख्या १०-
लीना धातरि धाता च श्रीकृष्णे नाभिपङ्कजे ।।
विष्णुः क्षीरोदशायी च वैकुण्ठे यश्चतुर्भुजः ।। ५८ ।।
विलीना वामपार्श्वे च कृष्णस्य परमात्मनः ।।
रुद्राद्या भैरवाद्याश्च यावन्तश्च शिवानुगाः। ५९। ******
शिवाधारे शिवे लीना ज्ञानानन्दे सनातने ।
ज्ञानाधिदेवः कृष्णस्य महादेवस्य चात्मनः । 2.34.६० ।
[7/28, 9:27 AM] yogeshrohi📚: इसी प्रकार श्रीराम और उनके भाईयों सहित सीता जी के श्रीकृष्ण के विग्रह में लीन हो जाने की बात गर्गसंहिता के गोलोकखण्ड के अध्याय -३ के श्लोक संख्या ६- से ८ तक लिखा गया है।
"तदैव चागतः साक्षाद्रामो राजीवलोचनः।
धनुर्बाणधरः सीताशोभितो भ्रातृभिर्वृतः॥६॥
दशकोट्यर्कसंकाशे चामरैर्दोलिते रथे।
असंख्यवानरेंद्राढ्ये लक्षचक्रघनस्वने॥७॥
लक्षध्वजे लक्षहये शातकौम्भे स्थितस्ततः।
श्रीकृष्णविग्रहे पूर्णः सम्प्रलीनो बभूव ह॥८॥
अनुवाद:- तत्पश्चात वह पूर्ण स्वरूप कमल लोचन भगवान श्रीराम में पधारे उनके हाथ में धनुषवाण थे और साथ में सीता सहित भरत आदि तीनों भाई भी थे।(६)
उनका दिव्य धनुष दशकरोड़ सूर्यों के समान प्रकाशमान था। उसपर निरन्तर चम्बर डुलाये जा रहे थे। और असंख्य वानर यूथपति उनकी रक्षा के कार्य में संलग्न थे । उस रथ के एक लाख चक्कों में मेघों की गर्जना निकल रही थी । और उसी पर बैठकर भगवान श्रीराम वहाँ गोलोक में पधारे -वे श्रीराम भी श्रीकृष्ण के विग्रह में शीघ्र विलीन हो गये।
इस प्रकार देखा जाय तो भगवान श्रीकृष्ण ही सम्पूर्ण ब्रह्माण्डों के आदि ( प्रारम्भ) और अन्त हैं। और यही कृष्ण अपने परात्पर स्वरूप में अनन्त भी हैं। सृष्टि काल में वे ही प्रभु अपने विग्रह ( शरीर)से जिस क्रम में सृष्टि का निर्माण करते हैं तो समय के अनुरूप वे ही प्रभु पुन: प्रलय काल में सम्पूर्ण सृष्टि का अपने विग्रह ( शरीर) में विलय भी कर लेते हैं।
जैसे मकड़ी अपने शरीर से लार के द्वारा जाला बनाकर उसमे स्थित हो जाती है । और फिर कुछ समय पश्चात वही मकड़ी उस जाले को निगल कर अपने शरीर में समेत लेती है।
यह सृष्टि- जगत परमात्मा श्री कृष्ण का शाश्वत स्वरूप है।
शिव जी पार्वती से कहते हैं।
आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं सर्वं मिथ्यैव पार्वति ।
भज सत्यं परं ब्रह्म राधेशं त्रिगुणात्परम् । ४८।
परं प्रधानं परमं परमात्मानमीश्वरम्।
सर्वाद्यं सर्वपूज्यं व निरीहं प्रकृतेः परम् ।४९।
ब्रह्मवैवर्तपुराण - (प्रकृतिखण्डः) अध्यायः (४८)
हे पार्वती ! ब्रह्मा से लेकर तृण अथवा कीट पर्यन्त सम्पूर्ण जगत मिथ्या ही है।
केवल त्रिगुणातीत परम- ब्रह्म परमात्मा श्री कृष्ण ही परम सत्य हैं अत: हे पार्वती तुम उन्ही की आराधना करो
" इस प्रकार से देखा जाये तो कृष्ण से बढ़कर कोई दूसरा ईश्वर नहीं है।
पृष्ठ संख्या- ११ ( अध्याय-२)
भज सत्यं परं ब्रह्म राधेशं त्रिगुणात्परम् ।।
सर्वेशं सर्वरूपं च सर्वात्मानन्तमीश्वरम।।६३।।
[7/28, 4:39 PM] yogeshrohi📚: (📕-अध्याय-3 )★
गोलोक से गोप-गोपियों की उत्पत्ति एवं श्रीकृष्ण का भूतल पर गोप जाति के यदुवंश में अवतरण-
भगवान श्रीकृष्ण चाहें गोलोक में हों अथवा भू- लोक में उनका प्रथम सम्बन्ध गोप और गोप जाति से ही होता है।
फिर इसी गोप अथवा आभीर जाति में यदुवंश के अन्तर्गत उनका आगे चलकर अवतरण होता है।
गोप जाति स्वराट विष्णु ( गोलोक वासी कृष्ण के रोमकूपों से उत्पन्न होने वैष्णव वर्ण के अन्तर्गत है।
ब्रह्मा गोपों की अथवा यादवों की सृष्टि नहीं करते हैं। इस प्रकार इकाइयाँ रूप में गोप प्रत्येक ब्रह्माण्ड में क्षुद्र विष्णु के रोम कूपों से उत्पन्न होकर भूतल पर स्थापित होते हैं। और ब्रह्मा इसी क्षुद्र विष्णु के नाभि कमल से उत्पन्न होकर भूतल पर चार वर्णों की सृष्टि के साथ -साथ चराचर प्राणियों की सृष्टि करते हैं।
गोलोक में गोपों की सर्वप्रथम उत्पत्ति श्रीकृष्ण के रोमकूपों से और गोपियों की उत्पत्ति श्री राधा जी के रोमकूपों से हुई है।
यह बात पुराणों में भी लिखित है। जैसे ब्रह्म वैवर्त पुराण के ब्रह्म खण्ड के अध्याय-5-में श्रीकृष्ण से गोलोक में गोपों की उत्पत्ति और श्री राधा जी से गोपियों की उत्पत्ति का वर्णन मिलता है।
आविर्बभूव कन्यैका कृष्णस्य वामपार्श्वतः।
धावित्वा पुष्पमानीय ददावर्घ्यं प्रभोः पदे । २५।
रासे सम्भूय गोलोके सा दधाव हरेः पुरः ।
तेन राधा समाख्याता पुराविद्भिर्द्विजोत्तम ।२६।
प्राणाधिष्ठातृदेवी सा कृष्णस्य परमात्मनः ।
आविर्बभूव प्राणेभ्यः प्राणेभ्योऽपि गरीयसी ।२७।
देवी षोडशवर्षीया नवयौवनसंयुता ।
वह्निशुद्धांशुकाधाना सस्मिता सुमनोहरा । २८।
तस्या राधायाश्च लोमकूपेभ्यः सद्यो
गोपाङ्गनागणः।
आविर्बभूव रूपेण वेशेनैव च तत्समः । ४०।
लक्षकोटीपरिमितः शश्वत्सुस्थिरयौवनः ।
संख्याविद्भिश्च संख्यातो गोलोके गोपिकागणः । ४१।
कृष्णस्य लोमकूपेभ्यः सद्यो गोपगणो मुने।
आविर्बभूव रूपेण वेषेणैव च तत्समः।४२।
त्रिंशत्कोटिपरिमितः कमनीयो मनोहरः।
संख्याविद्भिश्च संख्यातो बल्लवानां गणः श्रुतौ।४३।
कृष्णस्य लोमकूपेभ्यः सद्यश्चाविर्बभूव ह ।
नानावर्णो गोगणश्च शश्वत्सुस्थिरयौवनः ।४४।
गोलोक में स्वराट्- विष्णु भगवान श्रीकृष्ण के वाम पार्श्व में वामा के रूप में एक कामनाओं की प्रतिमूर्ति- प्रकृति रूपा कन्या उत्पन्न हुई जो कृष्ण के समान ही किशोर वय थी।
कन्या- शब्द स्त्री वाचक भी है। ऋग्वेद में जन्य: शब्द वर का वाचक है। जिसमें सन्तान उत्पन्न करने की क्षमता विकसित हो गयी हो-
और इसी जन्य: शब्द के सापेक्ष जन्या: शब्द था जो उत्तर वैदिक भाषा तथा लौकिक संस्कृत में कन्या: हो गया है।
अत: कन्या शब्द बधू वाचक भी है।
अत: राधा को कृष्ण की पत्नी ( आदि प्रकृति) ही मानना चाहिए-
किशोरी राधा जी के रोमकूपों से तत्काल ही अनेक गोपांगनाओं की उत्पत्ति हुई जो रूप और वेष में राधा जी के समान थीं।
फिर श्रीकृष्ण के रोमकूपों से अनेक गोप गणों की उत्पत्ति हुई जो रूप और वेष में कृष्ण के ही समान थे ।
पृष्ठ १२ अध्याय -3
__________
[7/28, 9:01 PM] yogeshrohi📚: स्वराट्- विष्णु ( भगवान श्रीकृष्ण) के रोम कूपों से गोप - और गोपियों की उत्पत्ति की घटना को भगवान शिव ने भी पार्वती को बताया जिसे शिव-वाणी समझ कर इस घटना को पुराणों में सार्व भौमिक रूप से स्वीकार किया जाता है।
जिसका वर्णन ब्रह्म वैवर्त पुराण के प्रकृति खण्ड के अध्याय-48 की श्लोक संख्या ( 48 )
"बभूव गोपीसंघश्च राधाया लोमकूपतः।
श्रीकृष्णलोमकूपेभ्यो बभूवुः सर्वबल्लवाः ।४३।
गोप-गोपियों की उत्पत्ति के विषय में परम प्रभु परमात्मा श्री कृष्ण की वे सभी बातें और प्रमाणित हो जाती हैं। जिसमें भगवान श्रीकृष्ण अपने अँश गोपों की उत्पत्ति के विषय में स्वयं ब्रह्म वैवर्त पुराण के प्रकृति खण्ड के अध्याय -36 के श्लोक संख्या 62 में राधा जी से कहते हैं।
"गोपाङ्गनास्तव कला अत एव मम प्रियाः ।
मल्लोमकूपजा गोपाः सर्वे गोलोकवासिनः । ६२ ।
अनुवाद:- समस्त गोपियाँ
तुम्हारी कलाऐं हैं हे राधे! और सभी गोलोक वासी गोप मेरे रोमकूपों से उत्पन्न मेरी ही कलाऐं तथा अंश हैं।
इसी प्रकार जब भूतल पर श्रीकृष्ण गोप जाति के यदुवंश के अन्तर्गत वृष्णि कुल में अवतरण लेते हैं।
और कुछ काल पश्चात कंस का वधकर के मथुरा के सिंहासन पर पुन: कंस के पिता उग्रसेन को अभिषिक्त करते हैं। तब उग्रसेन कृष्ण से राजसूय यज्ञ के आयोजन का परामर्श लेते हैं। उसी के प्रसंग क्रम में स्वयं श्रीकृष्ण उग्रसेन से कहते हैं कि
गर्गसंहिता- (विश्वजित्खण्डः) अध्यायः (२)
आहूय यादवान्साक्षात्सभां कृत्वथ सर्वतः ॥
तांबूलबीटिकां धृत्वा प्रतिज्ञां कारय प्रभो ॥६॥
" *ममांशा यादवाः सर्वे* लोकद्वयजिगीषवः॥ जित्वारीनागमिष्यन्ति हरिष्यन्ति बलिं दिशाम्॥७।
तब श्री कृष्ण भगवान ने कहा- राजन् ! यादवेश्वर ! आपने बड़ा उत्तम निश्चय किया है। उस यज्ञ से आपकी कीर्ति तीनों लोकों में फैल जायगी। प्रभो ! सभा में समस्त यादवों को सब ओर से बुलाकर पान का बीड़ा रख दीजिये और प्रतिज्ञा करवाइये।
तब कृष्ण नें कहा था समस्त यादव मेरे ही अंश से प्रकट हुए हें। वे दौनों लोक, को जीतने की इच्छा रखने वाले हैं। वे दिग्विजय के लिये यात्रा करके, शत्रुओं को जीतकर लौट आयेंगे और सम्पूर्ण दिशाओं से आपके लिये भेंट और उपहार लायेंगे।७।
नन्दो द्रोणो वसुःसाक्षाज्जातो गोपकुलेऽपि सः॥ गोपाला ये च गोलोके कृष्णरोम समुद्भवाः।२१।
"राधारोमोद्भवा गोप्यस्ताश्च सर्वा इहागताः॥ काश्चित्पुण्यैः कृतैः पूर्वैःप्राप्ताः कृष्णं वरैः परैः॥२२।
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इति श्रीगर्गसंहितायां श्रीविश्वजित्खण्डे श्रीनारदबहुलाश्वसंवादे दंतवक्त्रयुद्धे करुषदेशविजयो नामैकादशोऽध्यायः॥११॥
उपर्युक्त श्लोकों में एक बात विचारणीय है। कि भगवान श्रीकृष्ण ने गोपों की उत्पत्ति को दो रूपों में दर्शाया है । एक जब वे गोलोक में रास मण्डल में गोपों की सृष्टि अपने रोमरूपों से करते हैं। और द्वितीय रूप में जब वही श्रीकृष्ण पृथ्वी पर अवतरण करते हैं तब समस्त यादवों को अपना ही अंश ( कला) बताते हैं।
स्वयं कृष्ण गोप जाति के यदुवंश के वृष्णि कुल में अवतरण करते हैं । इसलिए वे अपने को गोप भी कहते हैं। और वंश गत रूप यादव भी कहते हैं ।और वृष्णि कुल में अवतरण लेने से वार्ष्णेय ( वृष्णि+ ढक्=एय) भी कहते हैं।
श्रीकृष्ण की लीला सहचर बनने के लिए गोलोक से ही भूलोक पर आते हैं तब गोपों का प्रादुर्भाव क्षुद्र विष्णु के रोम कूपों से सत् युग के प्रारम्भ में ही हो जाता है।
और इसी गोप जाति के यदुवंश के अन्तर्गत वृष्णि कुल में कृष्ण का जन्म होता है।
पद्म पुराण सृष्टि खण्ड अध्याय- १७ इसका साक्ष्य है।
विष्णुपुराण पञ्चम अँश अध्याय २३ में श्लोक संख्या-
२४ में कृष्ण अपना परिचय यादव रूप में देते हैं।
कस्त्वमित्याह सोऽप्याह जातोहं शशिनः कुले
वसुदेवस्य तनयो यदोर्वंशसमुद्भवः। २४।
[7/29, 11:52 AM] yogeshrohi📚: हरिवशं पुराण में ही भविष्य पर्व सौंवे अध्याय में
पौंड्रक जब कृष्ण से युद्ध करता है तो कभी उन्हें गोपाल या गोप कह कर सम्बोधित करता है तो कभी यादव कह कर !
देखें उस सन्दर्भ को ⬇
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स तत: पौण्ड्रको राजा वासुदेवमुवाच ह।
भो भो यादव गोप अलं इदनीं क्व गतो भवान्।। 26।
अर्थ:- उसके बाद वह पौण्ड्रक श्री कृष्ण से कहता है
अलं ( बस कर ठहरो!) ओ यादव ! ओ गोप ! अभी तुम कहाँ चले गये थे ।26।
हरिवशं पुराण भविष्य पर्व सौंवे अध्याय (पृष्ठ संख्या 1297)
गोप+ अलं = गोप ठहरो बस ! बस ! यह अर्थ देने वाले गोप अलं अव्यय से युक्त है ।
और शब्द गोपालं के रूप में गोपाल का कर्म कारक द्वित्तीय विभक्ति रूप बनता है ।
यद्यपि कहीं गोप तो कहीं गोपाल शब्द है
अलम् - संस्कृत भाषा में एक अव्यय है ।
इसी पुराण में एक स्थान कृष्ण 'ने स्वयं उद्घोषणा की कि मैं गोप हमेशा सब प्रकार से प्राणियों की रक्षा करने वाला हूँ।⬇
गोपोऽहं सर्वदा राजन् प्राणिनां प्राणद: सदा ।
गोप्ता सर्वेषु लोकेषु शास्ता दुष्टस्य सर्वदा।।४१।
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•– राजन् ! मैं गोप हूँ , और प्राणियों का सब ओर से प्राण दान करने वाला हूँ।
सम्पूर्ण लोकों का रक्षक और सब ओर से दुष्टों का शासन करने वाला हूँ ।
"क्षत्रियोऽस्मीति मामाहुर्मानुष्याः प्रकृतिस्थिताः ।
यदुवंशे समुत्पन्नः क्षात्रं वृत्तमनुष्ठितः 3/80/10 ।।
•-मैं क्षत्रिय हूँ प्राकृत मनुष्य मुझे ऐसा ही कहते हैं ; और जानते हैं
यदुकुल में उत्पन्न हुआ हूँ ।
इस लिए क्षत्रियोचित कर्म का अनुष्ठान करता हूँ। 10।।
"तुष्टोऽस्मि कृष्ण तपसा तवोग्रेण महामते ।
ददामि वाच्छितान्कामान्ब्रूहि यादवनन्दन ॥३६॥
अनुवाद:-
हे कृष्ण! हे महामते! मैं शिव तुम्हारे उग्र तप से संतुष्ट हूँ । हे यादव नन्दन आप अपना इच्छित वर बताईए मैं उसे तुम्हें अवश्य दुँगा।३६।
देवीभागवतपुराण -स्कन्धः (४)-अध्यायः (२५)
उपर्युक्त श्लोक में भगवान शिव श्रीकृष्ण को यादव नन्दन कह कर सम्बोधित कर रहे हैं।
अत: गोप यादव तथा आभीर विशेषण सम्बोधन एक जाति के लिए ही हैं।
ऋग्वेद के दशम मण्डल के 62वीं सूक्त की 10 वीं ऋचा में यदु और उसके भाई तुर्वसु को गायों का पालन करने वाले गोप रूप में दर्शाया है।
"उ॒त दा॒सा प॑रि॒विषे॒ स्मद्दि॑ष्टी॒ गोप॑रीणसा । यदु॑स्तु॒र्वश्च॑ मामहे ॥
उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।(ऋ०10/62/10)
अर्थात् यदु और तुर्वसु नामक दौनों दास गायों से घिरे हुए हैं ; गो-पालन शक्ति के द्वारा सौभाग्य शाली हैं हम उनका वर्णन करते हैं । (ऋ०10/62/10/)
विशेष:- व्याकरणीय विश्लेषण - उपर्युक्त ऋचा में दासा शब्द प्रथमा विभक्ति के अन्य पुरुष का द्विवचन रूप है ।
क्योंकि वैदिक भाषा ( छान्दस् ) में प्राप्त दासा द्विवचन का रूप पाणिनीय द्वारा संस्कारित भाषा लौकिक संस्कृत में दासौ रूप में है ।
उपर्युक्त ऋचा में दास= दाता अथवा दानी के अर्थ में है। तब मामहे क्रिया पद सार्थक होता है।
परिविषे:-परित: चारौ तरफ से व्याप्त ( घिरे हुए)
स्मद्दिष्टी स्मत् + दिष्टी सौभाग्य शाली अथवा अच्छे समय वाले द्विवचन रूप ।
गोपर् +ईनसा सन्धि संक्रमण रूप गोपरीणसा :- गो पालन की शक्ति के द्वारा।
गोप: ईनसा का सन्धि संक्रमण रूप हुआ गोपरीणसा अथवा गो+ परिणसा।
जिसका अर्थ है शक्ति के द्वारा गायों का पालन करने वाला । अथवा गो परिणसा= गायों से घिरा हुआ
यदु: तुर्वसु: च :- यदु और तुर्वसु दौनो द्वन्द्व सामासिक रूप ।
मामहे :- मह् धातु का उत्तम पुरुष आत्मने पदीय बहुवचन रूप अर्थात् हम सब महिमा वर्णन करते हैं ।
अब हम इस तथ्य की विस्तृत व्याख्या करते हैं ।
देव संस्कृति के विरोधी दास अथवा असुरों की प्रशंसा असंगत बात है ;
ऋग्वेद के प्राय: ऋचाओं में यदु और तुर्वसु का वर्णन नकारात्मक रूप में नहीं हुआ है !
दास शब्द ईरानी भाषाओं में "दाहे" शब्द के रूप में विकसित है ।
पृष्ठ संख्या १५ अध्याय 3-📕
[7/29, 1:54 PM] yogeshrohi📚: जब ययाति यदु से उनकी युवावस्था का अधिग्रहण करने को कहते हैं
तब यदु उनके इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर देते हैं।
"यदुं प्राह प्रदेहि मे यौवनं भुंक्ष्व राष्ट्रकम् ।७२।
अनुवाद:-उन ययाति ने यदु से कहा :-कि मुझे यौवन दो और राष्ट्र का भोग करो ।
यदुः प्राह न शक्नोमि दातुं ते यौवनं नृप।
जराया हेतवः पञ्च चिन्ता वृद्धस्त्रियस्तथा ।७३।
कदन्नं नित्यमध्वा च शीतजाठरपीडनम्।
सा जरा रोचते मे न भोगकालो ह्ययं मम ।७४।
"अनुवाद:-यदु ने कहा-: हे राजा, मैं अपनी जवानी तुम्हें नहीं दे सकता। शरीर के जरावस्था( जर्जर होने के पांच कारण होते हैं १-चिंता और २-वृद्ध महिलाएं ३-खराब खानपान (कदन्न )और ४-नित्य सुरापान करने से पेट में (५-शीतजाठर की पीडा)। मुझे ये जरा( बुढ़ापा) अच्छा नहीं लगता यह मेरा भोग करने का समय है ।७३-।७४।
श्रुत्वा राजा शशापैनं राज्यहीनः सवंशजः।
तेजोहीनः क्षत्रधर्मवर्जितः पशुपालकः ।७५।
"अनुवाद:-यह सुनकर राजा ने उसे श्राप दे दिया और उसने अपने वंशजो सहित राज्य को छोड़ दिया वह यदु राजकीय तेज से हीन और राजकीय क्षत्र धर्म से रहित पशुपालन से जीवन निर्वाह करने लगा।७५।
भविष्यसि न सन्देहो याहि राज्याद् बहिर्मम।
इत्युक्त्वा च पुरुं प्राह शर्मिष्ठाबालकं नृपः।७६।
"अनुवाद:-तुम्हारे वंशज कभी राजतन्त्र की प्रणाली से राजा नहीं होंगे इसमें सन्देह नहीं हेै यदु! मेरे राज्य से बाहर चले जाओ। इस प्रकार कहकर और राजा ने फिर पुरू से कहा शर्मिष्ठा के बालक पुरु तुम राजा बनोगे।७६।
भविष्यसि न सन्देहो याहि राज्याद् बहिर्मम।
इत्युक्त्वा च पुरुं प्राह शर्मिष्ठाबालकं नृपः।७६।
"अनुवाद:-तुम्हारे वंशज कभी राजतन्त्र की प्रणाली से राजा नहीं होंगे इसमें सन्देह नहीं हेै यदु! मेरे राज्य से बाहर चले जाओ। इस प्रकार कहकर और राजा ने फिर पुरू से कहा शर्मिष्ठा के बालक पुरु तुम राजा बनोगे।७६।
देहि मे यौवनं पुत्र गृहाण त्वं जरां मम ।
कुरुः प्राह करिष्यामि भजनं श्रीहरेः सदा ।७७।
"अनुवाद:-पुत्र मुझे यौवन देकर तुम मेरा जरा( बुढ़ापा) ग्रहण करो पुरु ( कुरु वंश के जनक) ने कहा मैं हरि का सदैव भजन करूँगा।७७।
_________________
कः पिता कोऽत्र वै माता सर्वे स्वार्थपरा भुवि।
न कांक्षे तव राज्यं वै न दास्ये यौवनं मम ।७८।
"अनुवाद:-कौन पिता है कौन माता है यहाँ सब स्वार्थ में रत हैं इस संसार में न मैं अब तुम्हारे राज्य की इच्छा करता हूँ और ना ही अपने यौवन की ही इच्छा करता हूँ यह बात पुरु ने अपने पिता ययाति से कही ।७८।
इत्युक्त्वा पितरं नत्वा हिमालयवनं ययौ।
तत्र तेपे तपश्चापि वैष्णवो धर्मभक्तिमान् ।७९।
"अनुवाद:- इस प्रकार कहकर पिता को नमन कर पुरु हिमालय के वन को चला गया और वहाँ तप किया और वैष्णव धर्म का अनुयायी बन भक्ति को प्राप्त किया।७९।
कृषिं चकार धर्मात्मा सप्तक्रोशमितक्षितेः ।
हलेन कर्षयामास महिषेण वृषेण च ।८०।
"अनुवाद:-उस धर्मात्मा ने पृथ्वी को सात कोश नाप कर वहाँ हल के द्वारा कृषि कार्य भैंसा और बैल के द्वारा भी किया।८०।
आतिथ्यं सर्वदा चक्रे नूत्नधान्यादिभिः सदा ।
विष्णुर्विप्रस्वरूपेण ययौ कुरोः कृषिं प्रति ।८१।
"अनुवाद:-:- नवीन धन धान्य से वह सब प्रकार से अतिथियों का सत्कार करता तभी एक बार विष्णु भगवान विप्र के रूप धारण कर कुरु के पास गये और उन्हें कृषि कार्य के लिए प्रेरित किया। ८१।
आतिथ्यं च गृहीत्वैव मोक्षपदं ददौ ततः । कुरुक्षेत्रं च तन्नाम्ना कृतं नारायणेन ह ।।८२।।
"अनुवाद:-तब भगवान् विष्णु ने कुरु का आतिथ्य सत्कार ग्रहण कर उसे मोक्ष पद प्रदान किया उस क्षेत्र का नाम नारायण के द्वारा कुरुक्षेत्र कर दिया गया।८२।
कुरुक्षेत्र के समीपवर्ती लोग सदीयों से कृषि और पशुपालन कार्य करते चले आ रहे हैं। आज कल ये लोग जाट " गूजर और अहीरों के रूप में वर्तमान में भी इस कृषि और पशुपालन व्यवसाय से जुड़े हुए हैं।८२।
""सन्दर्भ:-
श्रीलक्ष्मीनारायणीयसंहितायां तृतीये द्वापरसन्ताने ययातेः स्वर्गतः पृथिव्यामधिकभक्त्यादिलाभ इति तस्य पृथिव्यास्त्यागार्थमिन्द्रकृतबिन्दुमत्याः प्रदानं पुत्रतो यौवनप्रप्तिश्चान्ते वैकुण्ठगमन चेत्यादिभक्तिप्रभाववर्णननामा त्रिसप्ततितमोऽध्यायः । ७३।
और आगे चलकर इसी गोप जाति में यदु वंश हुआ जिसमें महाभारत काल में (101) एक सौ एक से ज्यादा कुल थे। इन्हीं में वृष्णि कुल में नन्द" और वसुदेव आदि का जन्म हुआ । वसुदेव कृष्ण के जन्मदाता पिता तो नन्द पालक पिता हुए।
वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि( १०/३७/ श्रीमद्भगवद्गीता-
सभी वैष्णव पुरुरवा से यदु पर्यन्त एक ही आभीर जाति से सम्बन्धित थे।
आभीर:पुत्री गायत्र्या किं कृतं तत्र पत्नीत्वे स्थितया तया।
आभीरा: किं सुवृत्तज्ञैर्ज्ञात्वा तैश्च कृतं मुने।२।
धर्मवन्तं सदाचारं भवन्तं धर्मवत्सलम्।
मया ज्ञात्वा ततः कन्या दत्ताचैषा विरञ्चये।१५।
अनया-आभीरकन्याया तारितो गच्छ! *दिव्यान्लोकान्महोदयान्।
युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये।१६।
अवतारं करिष्येहं सा क्रीडा तु भविष्यति।
यदा नन्दप्रभृतयो ह्यवतारं धरातले।१७।
करिष्यन्ति तदा चाहं वसिष्ये तेषु मध्यतः।
युष्माकं कन्यकाः सर्वा वसिष्यन्ति मया सह।१८।
तत्र दोषो न भविता न द्वेषो न च मत्सरः।
करिष्यन्ति तदा गोपा भयं च न मनुष्यकाः।१९।
न चास्याभविता दोषः कर्मणानेन कर्हिचित्।
श्रुत्वा वाक्यं तदा विष्णोःप्रणिपत्य ययुस्तदा।२०।
आभीर लोग सतयुग से ही संसार में धर्म का प्रसारण करने वाले सदाचारी ( अच्छे व्रत का पालन करने वाले!
धर्मवन्तं सदाचारं भवन्तं धर्मवत्सलम्मया ज्ञात्वा ततः कन्या दत्ता चैषा विरंचये।१५।
___________________
अनया गायत्र्या तारितो गच्छ युवां भो आभीरा दिव्यान्लोकान्महोदयान्।
युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये।१६।
अवतारं करिष्येहं सा क्रीडा तु भविष्यति यदा नन्दप्रभृतयो ह्यवतारं धरातले।१७।
अनुवाद -विष्णु ने अहीरों से कहा मैंने तुमको धर्मज्ञ और धार्मिक सदाचारी तथा धर्मवत्सल जानकर तुम्हारी इस गायत्री नामकी कन्या को ब्रह्मा के लिए यज्ञकार्य हेतु पत्नी रूप में दिया है ।
हे अहीरों इस गायत्री के द्वारा उद्धार किये गये तुम सब दिव्यलोकों को जाओ- तुम्हारी अहीर जाति के यदुकुल को अन्तर्गत वृष्णिकुल में देवों को कार्य की सिद्धि को लिए मैं अवतरण करुँगा और वहीं मेरी लीला( क्रीडा) होगी जब धरातल पर नन्द आदि का अवतरण होगा।
[7/29, 3:01 PM] yogeshrohi📚: ययातेर्ज्येष्ठपुत्रस्य यदोर्वंशं नरर्षभ ॥ १८॥
वर्णयामि महापुण्यं सर्वपापहरं नृणाम् ।
यदोर्वंशं नरः श्रुत्वा सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ १९ ॥
यत्रावतीर्णो भगवान् परमात्मा नराकृतिः ।
भगवत पुराण - (9/23/18-19)
अनुवाद:-
ययाति के बड़े पुत्र यदु के वंश का वर्णन करता हूँ।
परीक्षित! महाराज यदु का वंश परम पवित्र और मनुष्यों के समस्त पापों को नष्ट करने वाला है।
जो मनुष्य इसका श्रवण करेगा, वह समस्त पापों से मुक्त हो जायेगा। इस वंश में स्वयं भगवान् परब्रह्म श्रीकृष्ण ने मनुष्य के- रूप में अवतार लिया था।
[7/29, 6:49 PM] yogeshrohi📚: (अध्याय- 4- 📕) पृष्ठ २०
श्रीकृष्ण सहित प्रमुख पौराणिक व्यक्तियों का गोप जाति के यदुवंश से सम्बन्ध-
१-भगवान श्रीकृष्ण हरिवंश पुराण के हरिवंशपर्व के अध्याय- १०० श्लोकों में कहा है कि
मैं सर्वदा गोप हूँ।
दो पिशाच जो कृष्ण के वर्चस्व से प्रभावित कृष्ण के भक्त बन गये थे ।
उन्होंने जब साक्षात् रूप में उपस्थित कृष्ण का परिचय पूछा
तो उन्होंने (कृष्ण ने) अपना परिचय शत्रुओं का क्षरण या क्षति करके पीडित का त्राण करने वाला क्षत्रिय बताया ।
________________________
ब्रूहि मर्त्य यथातत्त्वं ज्ञातुमिच्छामि मानद ।
एवं पृष्टः पिशाचाभ्यामाह विष्णुरुरुक्रमः ।।3/80/ 9 ।।
•–दूसरों को मान देने वाले मानव आप ठीक ठीक बताइए मैं पिशाच यथार्थ रूप से आपका परिचय जानना चाहता हूँ ।
उन दौनों पिशाचों के इस प्रकार पूछने पर महान डग वाले भगवान विष्णु के रूप में कृष्ण बोले !
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क्षत्रियोऽस्मीति मामाहुर्मानुष्याः प्रकृतिस्थिताः ।
यदुवंशे समुत्पन्नः क्षात्रं वृत्तमनुष्ठितः ।। 3/80/10 ।।
•-मैं क्षत्रिय हूँ प्राकृत मनुष्य मुझे ऐसा ही कहते हैं ; और जानते हैं
यदुकुल में उत्पन्न हुआ हूँ ।
इस लिए क्षत्रियोचित कर्म का अनुष्ठान करता हूँ। 10।।
लोकानामथ पातास्मि शास्ता दुष्टस्य सर्वदा ।
कैलासं गन्तुकामोऽस्मि द्रष्टुं देवमुमापतिम्।।3/80/11।।
•-मैं तीनों लोगों का पालक
तथा सदी ही दुष्टों पर शासन करने वाला हूँ।
इस समय उमापति भगवान् शंकर का दर्शन करने कैलास पर्वत पर जाना चाहता हूँ 3/80/11
इसी पुराण में एक स्थान कृष्ण 'ने स्वयं उद्घोषणा की कि मैं गोप हमेशा सब प्रकार से प्राणियों की रक्षा करने वाला हूँ।⬇
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गोपोऽहं सर्वदा राजन् प्राणिनां प्राणद: सदा ।
गोप्ता सर्वेषु लोकेषु शास्ता दुष्टस्य सर्वदा।।४१।
___________________________
•– राजन् ! मैं गोप हूँ , और प्राणियों का सब ओर से प्राण दान करने वाला हूँ।
सम्पूर्ण लोकों का रक्षक और सब ओर से दुष्टों का शासन करने वाला हूँ ।
हरिवशं पुराण भविष्य पर्व सौंवें अध्याय का इकतालीस वाँ श्लोक
(पृष्ठ संख्या 1298 गीताप्रेस गोरखपुर संस्करण)
_______
अतएव गोप ही यादव और यादव अपनी वीरता प्रवृत्ति से आभीर कहलाते थे ।
और क्षत्रिय वीर ही हो सकता है ।
हरिवशं पुराण में ही भविष्य पर्व सौंवे अध्याय में
पौंड्रक जब कृष्ण से युद्ध करता है तो कभी उन्हें गोपाल या गोप कह कर सम्बोधित करता है तो कभी यादव कह कर !
देखें उस सन्दर्भ को ⬇
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स तत: पौण्ड्रको राजा वासुदेवमुवाच ह।
भो भो यादव गोप अलं इदनीं क्व गतो भवान्।। 26।
अर्थ:- उसके बाद वह पौण्ड्रक श्री कृष्ण से कहता है
अलं ( बस कर ठहरो!) ओ यादव ! ओ गोप ! अभी तुम कहाँ चले गये थे ।26।
हरिवशं पुराण भविष्य पर्व सौंवे अध्याय (पृष्ठ संख्या 1297)
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गोप+ अलं = गोप ठहरो बस ! बस ! यह अर्थ देने वाले गोप अलं अव्यय से युक्त है ।
और शब्द गोपालं के रूप में गोपाल का कर्म कारक द्वित्तीय विभक्ति रूप बनता है ।
यद्यपि कहीं गोप तो कहीं गोपाल शब्द है
अलम् - संस्कृत भाषा में एक अव्यय है
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अलम्, व्य, भूषणं । पूर्णता । सामर्थ्यं ।
निषेधः । इत्यमरः ॥ निरर्थकं । इति भरतः नाट्य शास्त्र।
पद्म पुराण गर्ग संहिता आदि ग्रन्थों में गोप को आभर भी कहा जैसा कि नन्द को कहीं गोप तो कहीं
आभीर कहा है जैसा कि गर्गसंहिता में👇
" आभीरस्यापि नन्दस्य पूर्वपुत्र: प्रकीर्तित:।
वसुदेवो मन्यते तं मत्पुत्रोऽयं गतत्रप: ।१४।
(गर्ग संहिता उद्धव शिशुपालसंवाद )
(विश्व जितखण्ड अध्याय सप्तम)
____________________________
कृष्ण वास्तव में नन्द अहीर का पुत्र है ।
उसे वसुदेव ने वरबस अपना पुत्र माने लिया है उसे इस बात पर तनिक भी लाज ( त्रप) नहीं आती है ।१४।।
(गर्ग संहिता उद्धव शिशुपालसंवाद )
गोपानां वचनं श्रुत्वा कृष्णः पद्मदलेक्षणः ।
प्रत्युवाच स्मितं कृत्वा ज्ञातीन्सर्वान्समागतान्।।2.20.१०।।
गोपों का वचन सुन कर कमल के जैसे नेत्रों वाले भगवान श्रीकृष्ण मुस्कराकर सभी जातीय बन्धुओं से बोले !
मन्यन्ते मां यथा सर्वे भवन्तो भीमविक्रमम्।
तथाहं नावमन्तव्यः स्वजातीयोऽस्मि बान्धवः।।११।।
यद् तुम मुझे भीषण कार्य करने वाला मानते हों परन्तु मैं यह सब नहीं मानता मैं तुम्हारा स्वजातीय बान्धव हूँ।
हरिवंश पुराण विष्णु पर्व-अध्याय 20
हरिवंश पुराण विष्णु पर्व (संस्कृत) अध्याय 11 श्लोक 56-60
57।। एतदर्थं च वासोऽयं व्रजेऽस्मिन् गोपजन्म च। अमीशामुत्पथस्थानां निग्रहार्थं दुरात्मनाम्।।58।।
इसलिए दुष्टों के नियन्त्रण के लिए व्रज में मेरा निवास हुआ और मैंने गोपों में जन्म लिया है।५८।
गर्गसंहिता के (बलभद्रखण्डः) के अध्यायः (२) में बलराम गोपजाति के यदुवंश के वृष्णि कुल में अवतार लेने की बात करते हैं।
"हे वासुक्यादिनागेन्द्रा हे निवातकवचा हे वरुण
हे कामधेनो भूम्यां भरतखण्डे यदुकुलेऽवतरंतं मां
यूयं सर्वे सर्वदा एत्य मम दर्शनं कुरुत ॥१४॥
बलराम अपने जन्म के विषय में कहते हैं।
मैं भू- मण्डल पर भारत वर्ष में यदु वंश के वृष्णि कुल में अवतार लुँगा। १४।
आभीरकन्या रूपाढ्या सुनासा चारुलोचना
न देवी न च गंधर्वी नासुरी न च पन्नगी।१३२।।
१३२-१३३. एक ग्वाले की बेटी थी, जो सुन्दर थी, जिसकी नाक सुन्दर थी और आँखें आकर्षक थीं। कोई देवी, कोई गंधर्व , कोई राक्षसी, कोई नाग, कोई युवती उस सुन्दर स्त्री के समान नहीं थी। उसने उसे एक अन्य देवी लक्ष्मी के समान आकर्षक रूप में देखा, जो अपनी सुन्दरता के धन से मन की शक्तियों को कम कर रही थी (अर्थात विचलित कर रही थी)।
गोपकन्या त्वहं वीर विक्रीणामीह गोरसम्
नवनीतमिदं शुद्धं दधि चेदं विमण्डकम्।।१५६।।
१५६-१५७. "हे वीर! मैं एक गोप-कन्या हूँ; मैं दूध, यह शुद्ध मक्खन और मलाई से भरा दही बेचती हूँ। तुम्हें जो स्वाद चाहिए - दही या छाछ - वह मुझे बताओ, जितना चाहो ले लो।"
एवं चिंतापराधीना यावत्सा गोपकन्यका
तावद्ब्रह्मा हरिं प्राह यज्ञार्थं सत्वरं वचः।१८४।।
जब वह गोपिका इस प्रकार विचारमग्न हो गई, तब ब्रह्माजी ने यज्ञ को शीघ्र पूर्ण करने के लिए विष्णु से ये शब्द कहे:
"
देवी चैषा महाभागा गायत्री नामतः प्रभो
एवमुक्ते तदा विष्णुर्ब्रह्माणं प्रोक्तवानिदम्।१८५।।
और यह गायत्री नामक देवी है , जो परम सौभाग्यशाली है।" जब ये शब्द कहे गए, तब विष्णुजी ने ब्रह्माजी से ये शब्द कहे: "हे जगत के स्वामी, आज तुम उससे गन्धर्व - विवाह करो, जिसे मैंने तुम्हें दिया है। अब और संकोच मत करो।
उपर्युक्त श्लोकों में गायत्री का सम्बोधन कहीं गोपकन्या है कहीं आभीर कन्या है। जो गोप और आभीर के परस्पर पर्याय होने की पुष्टि करता है।
अध्याय ४- पृष्ठ २०
[7/30, 9:36 AM] yogeshrohi📚: भगवान श्रीकृष्ण के प्रतिनिधि विष्णु के रूप में-
अध्याय 4- पृष्ठ संख्या -२१
हरिवंश पुराण के विष्णुपर्व के अध्याय 2- के श्लोक संख्या-34-35- के अनुसार योग माया को विष्णु अपने कुल में अवतरण होने का निर्देश देते हैं। विष्णु योगमाया को सम्बोधित करते हुए कहते हैं। हे देवि ! तुम्हारा भला हो ! तुम भूत पर अवतार लो - इस समय जो व्रज में यशोदा नाम से विख्यात नन्द गोप की जो प्यारी पत्नी हैं। वे ही गोप कुल की स्वामिनी हैं। तुम उन्हीं यशोदा के नवम गर्भ के रूप में हमारे गोपों की जाति - कुल में अवतार करोंगी।
या तु सा नन्दगोपस्य दयिता भुवि विश्रुता ।
यशोदा नाम भद्रं ते भार्या गोपकुलोद्वहा ।३४।
तस्यास्त्वं नवमो गर्भः कुलेऽस्माकं भविष्यसि ।
नवम्यामेव संजाता कृष्णपक्षस्य वै तिथौ ।३५।
ऋषय ऊचुः ।।
क एष वसुदेवश्च देवकी च यशस्विनी।
नन्दगोपस्तु कस्त्वेष यशोदा च महायशाः।
यो विष्णुं जनयामास या चैनं चाभ्यवर्द्धयत् ।। ३४.२२९ ।।
सूत ऊवाच।।
पुरुषाः कश्यपस्यासन्नादित्यास्तु स्त्रियास्तथा।
अथ कामान् महाबाहुर्देवक्याः समवर्द्धयत् ।। ३४.२३० ।।
अत: यहा विष्णु भगवान के कथन के अनुसार यही सिद्ध होता है कि गोप पृथ्वी पर पहले से ही स्थापित हैं। वे विष्णु गोप कुल को अपना कुल
( कुलेऽसमाकं) कहते हैं। अर्थात वे विष्णु योग माया को अपने गोप कुल में यशोदा के गर्भ से नन्द गोप की पुत्री के रूप में जन्म लेने का निर्देश देते हैं।
[7/30, 1:17 PM] yogeshrohi📚: किसान शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत भाषा के
शब्द कृषाण से हुई है।
वाचस्पत्यम् के अनुसार :
कृषाण- त्रि० कृष—वा० आनक्– कर्षके कृषिशब्दे -
आप्ते के संस्कृत-अंग्रेजी शब्दकोष के अनुसार :
कृषाण¦ कृष्-आनक्-किकन् वा
(जो कृषि से सम्बन्धित कार्य करे वह किसान है)।
इसकी मूल धातु कृष् है (उणादि कृषति-ते, कृष्ट), इससे खीचने अथवा आकर्षित करने (यथा : हस्ताभ्यां नश्यद्क्राक्षीद्), हल चलाने, घसीटने, मोड़ना (यथा : नात्यायतकृष्टशार्ङ्गः), उखाड़ना, बल पूर्वक नियन्त्रण करना (यथा : बलवानिन्द्रियग्रामो विद्वांसमपि कर्षति), नेतृत्व करने (विशेषकर सेना का नेतृत्व यथा "स सेनां महतीं कर्षन्"),
अरि आदि देव है। जो कालान्तर में हरि हो गया-
संस्कृत भाषा में "आरा" और "आरि" शब्द हैं।
परन्तु वर्तमान में "अर्" धातु विद्यमान नहीं है।
सम्भव है कि पुराने जमाने में "अर्" धातु
रही हो; पीछे से लुप्त हो गई हो ।
अथवा यह भी हो सकता है कि "ऋ" धातु ही के रूपान्तरण, "अर" (और संस्कृत व्याकरण में ऋ का अर् होता भी है) और उसका मूल अर्थ
"हल चलाना" हो।
यह भी सम्भव है कि "हल की गति के कारण ही "ऋ" धातु का अर्थ गतिसूचक हो गया हो ।
"ऋ" धातु के पश्चात "यत्" प्रत्यय करने से "अर्य्य और आर्य शब्द 'ऋ' धातु में " ण्यत्" प्रत्यय करने से "आर्य्य शब्द की सिद्धि होती है। ये कृदन्त पद हैं।
विभिन्न भाषाओं के कृषि वाचक धातुओं का विचार करने से जान पड़ता है कि "अर्य" और "आर्य" दोनों शब्दो का धात्वर्थ कृषक है।
इसका परोक्ष प्रमाण संस्कृत-साहित्य और व्याकरण में पाया भी जाता है।
आर्य ही नहीं अपितु "आर्य" शब्द का एक अर्थ वैश्य अथवा कृषक भी है। वैश्य शब्द वणिक सा वाचक नहीं है। अपितु वाणिज्य क्रिया को कालान्तर में वैश्य वृत्ति के अन्तर्गत समाविष्ट कर दिया।
पाणिनि की अष्टाध्यायी के तृतीयाध्याय के पहले पाद का "आर्य: स्वामिवैश्ययोः" सूत्र इस बात का प्रमाण है।
फिर पाणिनि के "इन्द्र वरुण-भव-शर्व" आदि (४-१-४९) सूत्र पर सिद्धान्त- कौमुदी में पाया और आर्याणी शब्दों का अर्थ वैश्य-जातीय स्त्री और आर्य शब्द का अर्थ वैश्य-पति लिखा है ।
फिर, वाजसनेयी (१४-२८) और तैत्तिरीय संहिता (४-३-१०-१) में चारों वर्णो के नाम-ब्रह्मण, क्षत्र, आर्य और शूद्र लिखे हैं।
प्राचीन वैश्यों का प्रधान कार्य कर्षण (कृषि कार्य)ही था । इन्ही का नाम "आर्य" है । अतएव "आर्य" शब्द का अर्थ "कृषक" कहना युक्ति-विरहित नही।
कृष्ण और संकर्षण जैसे शब्द भी कृषि मूलक हैं
गोप गो -चारण करते थे और चरावाहों से कृषि संस्कृति का विकास हुआ और कृष्ण और संकर्षण ( बलराम)
दोनों युग पुरुष कृषि संस्कृति के प्रवर्तक और सूत्रधार थे इतिहास कारों का निष्कर्ष है कि आर्य चरावाहे ही थे ।
कृषिगोरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यस्य परिकीर्तितं । (अग्निपुराण 151/9)
कृषि, गोपालन और व्यापार वैश्य के कर्म हैं !कृषि करना वैश्य का काम है! यह भारतीय शास्त्रों का विधान हैं ।
मनुस्मृति में वर्णन है कि "वैश्यवृत्त्यापि जीवंस्तु ब्राह्मणः क्सत्रियोऽपि वा। हिंसाप्रायां पराधीनां कृषिं यत्नेन वर्जयेत् ।।10/83
अर्थ-• ब्राह्मण अथवा क्षत्रिय वैश्य वृत्ति से जीवन निर्वाह करते हुए भी कृषि कार्य तो कभी न करें अर्थात् इसे यत्न पर्वक त्यागें क्योंकि कि यह जीव हिंसा के अन्तर्गत है।
अर्थात कृषि कार्य वैश्य ब्राह्मण और क्षत्रिय के लिए भी निषिद्ध ही है ।
इसी लिए वर्ण-व्यवस्था वादी वणिक कभी हल चलाते या कृषि कार्य करते हुए नहीं देखे जाते है।
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क : पुनर् आर्य निवास: ?
आर्यों ( कृषकों) का निवास कहाँ है ? ग्रामो घोषो नगरं संवाह इति ।
ग्राम ( ग्रास क्षेत्र) घोष नगर आदि -( द्वितीय अध्याय पस्पशाह्निक पतञ्जलि महाभाष्य)
निश्चित रूप से यहाँ कृषि कार्य केवल शूद्र वर्ण का विधान है ।
जैसा कि नृसिंह पुराण में वर्णन करते हुए विधान निश्चित किया है।
"दासवद्ब्राह्मणानां च विशेषेण समाचरेत् । अयाचितं प्रदातव्यम् कृषिं वृत्यर्थमाचरेत्।।११।
दासों के समान ब्राह्मणों की विशेष रूप से सेवा करे बिना कुछ माँगे हुए और अपनी ही सम्पत्ति का दान करना चाहिए और जीविका उपार्जन के लिए कृषि कर्म करे ।११।
(नृसिंह पुराण अध्याय 58 का 11 वाँ श्लोक)
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परन्तु व्यास, पराशर और वैजयंती में एक कृषि वर्ग का उल्लेख है जिन्हें ‘कुटुम्बी’ कहा गया है।
इन्हें शूद्रों के अन्तर्गत रखा गया है।
इस काल में एक और वर्ग कीनाश का उल्लेख आता है प्राचीन ग्रंथों में कीनाश वैश्य थे किन्तु आठवीं शताब्दी के नारद स्मृति के टीकाकार ने कीनाशों को शूद्र बताया है।
परन्तु कोई वणिक कभी कृषि कार्य करते हुए नहीं देखा सिवाय व्यापार के
फिर भी व्यास स्मृति का लेखक वणिक और गोप को शूद्र रूप में वर्णन सिद्ध करता है।
कि द्वेष और रोष के आवेश में पुरोहित वर्णव्यवस्था की मर्यादा भी भूल गये अन्यथा वणिक् शब्द जो स्वयं वैश्य का पर्याय है। उसको शूद्र धर्मी न कहते !
सायद यही कारण है ।
किसान जो भारत के सभी समाजों को अन्न उत्पादन करता है ।
और पशुपालन के द्वारा दुग्ध सबको उपलब्ध कराता है ; वही किसान जो जीवन के कठिनत्तम संघर्षों से गुजर कर भी अनाज उत्पन्न करता है ।
दृढ़ता और धैर्य पूर्वक वीरता के गुणों से समन्वित होकर कृषि कार्य करता है।
किसान से शक्तिशाली और जीवन का बलिदान करने वाला सायद दूसरा कोई नहीं इस संसार में !
परन्तु उसके बलिदान कि कोई प्रतिमान नहीं ! और कोई मूल्य नहीं !
फिर भी किसान जो कभी वाणिज्यिक गतिविधियों से अलग थलग ही रहता है , कभी बेईमानी नही करता कभी ठगाई नहीं करता और वणिक जिसे कभी हल चलाते और फसल उगाते नहीं देखा सिवाय ठगाई और व्यापार के !
और तब भी किसान और वणिक को वर्ण-व्यवस्था के अन्तर्गत समान रूप में परिभाषित करने वाले धूर्तों ने किसान को शूद्र और वैश्य के लिए हल न पकड़ने के विधान बना डाले और अन्तत: वणिक को शूद्र वर्ण में समायोजित कर दिया है ।
वही वणिक वेदों में वर्णित पणि: अथवा फनीशी जिसके पूर्वज थे जो समुद्री यात्राओं के द्वारा देश देश में व्यापार करते थे।
यह आश्चर्य ही है ।
किसानों के लिए निम्न विधान बनाने वाले भी किसान की रोटी से ही पेट भरते हैं ।
परन्तु गुण, कर्म के आधार भी धर्म शास्त्रों में यह वर्ण-व्यवस्था निराधार ही थी ।
किसान भोला- है यह तो जानते सब ; परन्तु यह भाला भी बन सकता है इसे भी जानते तो अच्छा होता है ।
किसान आज मजदूर से भी आर्थिक स्तर पर पिछड़ा है।
"रूढ़िवादी समाज में व्यक्ति का आकलन रूढ़िवादी विधानों से ही होता है।
ये रूढ़िवादी विधान किसी भी राष्ट्र के समाज का उत्थान नहीं कर सकते हैं।
वर्ण- व्यवस्था में कृषि गोपालन को भी वणिक से भी निम्न स्तर का माना है परन्तु ये निम्नता लगभग शूद्र के स्तर पर । वैश्य के पर्याय-
१-व्यवहर्त्ता २- वार्त्तिकः ३- वणिकः ४- पणिकः । इति राजनिर्घण्टः में ये वैश्य के पर्याय हैं ।
कृषि करने वाले पशु पालक वैदिक काल में आर्य कहलाते थे।
और हाथ में आरं ( आरा) लेकर चलने वाले ही आर्य कहलाते थे।
(आर्य' और 'वीर' शब्दों का विकास)
परस्पर सम्मूलक है । दौनों शब्दों की व्युपत्ति पर एक सम्यक् विश्लेषण -
कुसीदकृषिवाणिज्यं पाशुपाल्यं विशः स्मृतम् ॥शूद्रस्य द्विजशुश्रूषा द्विजो यज्ञान्न हापयेत् ।96.28॥
(गरुड़ पुराण)
श्रीगारुजे महापुराणे पूर्वखण्डे प्रथमांशाख्ये आचारकाण्डे याज्ञवल्क्योक्तश्राद्धनिरूपणं नाम षण्णवतितमोऽध्यायः ॥96॥
कुशल चरावाहों के रूप में सम्पूर्ण एशिया की धरा पर अपनी महान सम्पत्ति गौओं के साथ कबीलों के रूप में यायावर जीवन व्यतीत करते थे ।
यहीं से इनकी ग्राम - सभ्यता का विकास हुआ था अपनी गौओं के साथ साथ विचरण करते हुए .
जहाँ जहाँ भी ये विशाल ग्रास-मेदिनी (घास के मैदान )देखते उसी स्थान पर अपना पढ़ाव डाल देते थे ।
उसी प्रक्रिया के तहत बाद में ग्राम शब्द (पल्लि या गाँव) शब्द का वाचक हो गया ।
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ग्राम शब्द संस्कृत की ग्रस् …धातु मूलक है..—(ग्रस् मन् ) प्रत्यय..आदन्तादेश..ग्रस् धातु का ही अपर रूप ग्रह् भी है । जिससे गृह शब्द का निर्माण हुआ है अर्थात् जहाँ खाने के लिए मिले वह घर है ।
इसी ग्रस् धातु का वैदिक रूप… गृभ् …है ; गृह ही ग्रास है
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यही कारण है कि कृषकों का सामाजिक स्तर शास्त्र वेत्ता ब्राह्मण की दृष्टि में निम्न ही है ।
हिन्दू धर्म की नीतियों का पालन करने वाले कितने किसान स्वयं को क्षत्रिय मानते हैं ? विचार कर ले !
श्रीमद्भगवद्गीता जो पञ्चम सदी में वर्ण-व्यवस्था की भेट चढ़ी उसके अष्टादश अध्याय में भी लिख डाला है ।
कि
कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम् ।परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम् ॥44॥
कृषि, गोरक्षा और वाणिज्य- भूमि में हल चलाने का नाम ‘कृषि’ है, गौओं की रक्षा करनने वाला ‘गोरक्ष’ है, उसका भाव ‘गौरक्ष्य’ यानी पशुओं को पालना है तथा क्रय-विक्रय रूप वणिक् कर्म का नाम ‘वाणिज्य’ है- ये तीनों वैश्यकर्म हैं अर्थात् वैश्यजाति के स्वाभाविक कर्म हैं।
वैसे ही शूद्र का भी परिचर्यात्मक अर्थात् सेवारूप कर्म स्वाभाविक है।।44।।
पुरोहितों का कहना है कि जाति के उद्देश्य से कहे हुए इन कर्मों का भली प्रकार अनुष्ठान किये जाने पर स्वर्ग की प्राप्ति रूप स्वाभाविक फल होता है।
Pracheen Bharat Ka Rajneetik Aur Sanskritik Itihas - Page 23 पर वर्णन है
'ऋ' धातु में ण्यत' प्रत्यय जोडने से 'आर्य' शब्द की उत्पत्ति होती है ऋ="जोतना', अत: आर्यों को कृषक ही माना जाता है । '
पं० महावीर प्रसाद द्विवेदी अपनी ऐतिहासिक पुस्तक "अतीत की स्मृति" में प्रमाणों से समन्वित होकर आर्य शब्द का मूल अर्थ कृषक ही लिखते हैं।
"प्राचीन वैश्यों का प्रधान कार्य कर्षण ही था । इन्ही का नाम "आर्य" है ।
अतएव "आर्य" शब्द का अर्थ कृषक कहना युक्ति-विरहित नही। किसी किसी का मत है कि "आर्य" का अर्थ आरि धारण करने वाला है ।
वर्ण-व्यवस्था के निर्माण काल में गोपालन और कृषि को निम्न मानते हुए वैश्य वर्ण में समायोजित किया
परन्तु फिर भी आर्य का व्युत्पत्ति मूलक अर्थ वीर अथवा युद्ध के देवता अरि: से सम्बंधित होने के कारण दृढ़ता और धैर्य मूलक प्रवृत्ति होने के कारण श्रेष्ठ व्यक्ति के अर्थ में रूढ़ होकर कर्मवीर और धर्मवीर आदि रूपों में परिभाषित हुआ दृढ़ता और धैर्य वीरों का और कृषकों का ही आज भी मौलिक गुण (प्रवृत्ति) है।
श्रेष्ठ पुरुष तथा श्रेष्ठ कुल में उत्पन्न विशेषत:—स्वामी, गुरु और सुहद् आदि को संबोधन करने में भी इस शब्द का व्यवहार होने लगा । छोटे लोग बड़े को जैसे, —स्त्री पति को, छोटा भाई बड़े भाई को, शिष्य गुरु का आर्य या आर्यपुत्र कहकर संबोधित करते हैं ।
नाटकों में भी नटी भी सूत्रधार को आर्य या आर्यपुत्र कहती है ।
पाश्चात्य नाट्यशास्त्र में हीरो (Hero) आर्य का ही रूपान्तरण है ।
आपने हेरो (Harrow) शब्द भी सुना होगा और हल दोनों का श्रोत ऋ-अर्-हिंसागतियो: धातु प्रसिद्ध ही है।
पूर्व वैदिक काल का अरि का एक रूपान्तरण हरि भी हुआ।
अध्यायः ५५
-४ हरिवंशपुराणम्
वेदव्यासः
भगवतः विष्णुना नारदस्य कथनस्योत्तरं, ब्रह्मणा भगवन्तं तस्य
भगवतः विष्णुना नारदस्य कथनस्योत्तरं, ब्रह्मणा भगवन्तं तस्य अवतारतारयोग्यस्थानस्य एवं पितामातादीनां परिचयम् '
गोपजातौ अवतारतारयोग्यस्थानस्य एवं पितामातादीनां परिचयम्
"पञ्चपञ्चाशत्तमोऽध्याय
वैशम्पायन उवाच
नारदस्य वचः श्रुत्वा सस्मितं मधुसूदनः
प्रत्युवाच शुभं वाक्यं वरेण्यः प्रभुरीश्वरः ।१।
त्रैलोक्यस्य हितार्थाय यन्मां वदसि नारद।
तस्य सम्यक्प्रवृत्तस्य श्रूयतामुत्तरं वचः।२।
विदिता देहिनो जाता मयैते भुवि दानवाः।
यां च यस्तनुमादाय दैत्यः पुष्यति विग्रहम् ।३।
जानामि कंसं सम्भूतमुग्रसेनसुतं भुवि ।
केशिनं चापि जानामि दैत्यं तुरगविग्रहम् ।४।
नागं कुवलयापीडं मल्लौ चाणूरमुष्टिकौ।
अरिष्टं चापि जानामि दैत्यं वृषभरूपिणम्।५।
विदितो मे खरश्चैव प्रलम्बश्च महासुरः ।
सा च मे विदिता विप्र पूतना दुहिता बलेः ।६।
कालियं चापि जानामि यमुनाह्रदगोचरम् ।
वैनतेयभयाद् यस्तु यमुनाह्रदमाविशत्।७।
विदितो मे जरासंधः स्थितो मूर्ध्नि महीक्षिताम् ।
प्राग्ज्योतिषपुरे वापि नरकं साधु तर्कये ।८।
मानुषे पार्थिवे लोके मानुषत्वमुपागतम्।
बाणं च शोणितपुरे गुहप्रतिमतेजसम्। ९।
दृप्तं बाहुसहस्रेण देवैरपि सुदुर्जयम।
मय्यासक्तां च जानामि भारतीं महतीं धुरम्।1.55.१०।
सर्वं तच्च विजानामि यथा योत्स्यन्ति ते नृपाः।
क्षयो भुवि मया दृष्टः शक्रलोके च सत्क्रिया।
एषां पुरुषदेहानामपरावृत्तदेहिनाम् गं ११।
सम्प्रवेक्ष्याम्यहं योगमात्मनश्च परस्य च
सम्प्राप्य पार्थिवं लोकं मानुषत्वमुपागतः ।१२।
कंसादींश्चापि तान्सर्वान् वधिष्यामि महासुरान्।
तेन तेन विधानेन येन यः शान्तिमेष्यति ।१३।
अनुप्रविश्य योगेन तास्ता हि गतयो मया।
अमीषां हि सुरेन्द्राणां हन्तव्या रिपवो युधि ।१४।
जगत्यर्थे कृतो योऽयमंशोत्सर्गो दिवौकसैः।
सुरदेवर्षिगन्धर्वैरितश्चानुमते मम।१५।
विनिश्चयो प्रागेव नारदायं कृतो मया ।
निवासं ननु मे ब्रह्मन् विदधातु पितामहः ।१६।
____________******
यत्र देशे यथा जातो येन वेषेण वा वसन्
तानहं समरे हन्यां तन्मे ब्रूहि पितामह ।१७।
____________
"ब्रह्मोवाच
नारायणेमं सिद्धार्थमुपायं शृणु मे विभो।
भुवि यस्ते जनयिता जननी च भविष्यति ।१८।
यत्र त्वं च महाबाहो जातः कुलकरो भुवि ।
यादवानां महद् वंशमखिलं धारयिष्यसि ।१९।
तांश्चासुरान्समुत्पाट्य वंशं कृत्वाऽऽत्मनो महत्।
स्थापयिष्यसि मर्यादां नृणां तन्मे निशामय ।1.55.२०।
______
पुरा हि कश्यपो विष्णो वरुणस्य महात्मनः ।
जहार यज्ञिया गा वै पयोदास्तु महामखे ।२१।
अदितिः सुरभिश्चैते द्वे भार्ये कश्यपस्य तु। प्रदीयमाना गास्तास्तु नैच्छतां वरुणस्य वै ।२२।
ततो मां वरुणोऽभ्येत्य प्रणम्य शिरसा ततः।
उवाच भगवन् गावो गुरुणा मे हृता इति ।२३।
कृतकार्यो हि गास्तास्तु नानुजानाति मे गुरुः।
अन्ववर्तत भार्ये द्वे अदितिं सुरभिं तथा ।२४।
____________
"मम ता ह्यक्षया गावो दिव्याः कामदुहः प्रभो ।
चरन्ति सागरान् सर्वान्रक्षिताः स्वेन तेजसा।२५।
कस्ता धर्षयितुं शक्तो मम गाः कश्यपादृते ।
अक्षयं वा क्षरन्त्यग्र्यं पयो देवामृतोपमम् ।२६।
प्रभुर्वा व्युत्थितो ब्रह्मन् गुरुर्वा यदि वेतरः।
त्वया नियम्याः सर्वे वै त्वं हि नः परमा गतिः ।२७।
यदि प्रभवतां दण्डो लोके कार्यमजानताम्।
न विद्यते लोकगुरो न स्युर्वै लोकसेतवः ।२८।
यथा वास्तु तथा वास्तु कर्तव्ये भगवान् प्रभुः।
मम गावः प्रदीयन्तां ततो गन्तास्मि सागरम् ।२९।
या आत्मदेवता गावो या गावः सत्त्वमव्ययम् ।
लोकानां त्वत्प्रवृत्तानामेकं गोब्राह्मणं स्मृतम्।1.55.३०।
त्रातव्याः प्रथमं गावस्त्रातास्त्रायन्ति ता द्विजान् ।
गोब्राह्मणपरित्राणे परित्रातं जगद् भवेत् ।३१।
________
"इत्यम्बुपतिना प्रोक्तो वरुणेनाहमच्युत
गवां कारणतत्त्वज्ञः कश्यपे शापमुत्सृजम् ।।३२।।
येनांशेन हृता गावः कश्यपेन महर्षिणा ।
स तेनांशेन जगतीं गत्वा गोपत्वमेष्यति ।३३।
या च सा सुरभिर्नाम अदितिश्च सुरारणिः।
तेऽप्युभे तस्य भार्ये वै तेनैव सह यास्यतः।३४।
ताभ्यां च सह गोपत्वे कश्यपो भुवि रंस्यते।
स तस्य कश्यपस्यांशस्तेजसा कश्यपोपमः।३५।
वसुदेव इति ख्यातो गोषु तिष्ठति भूतले।
गिरिर्गोवर्धनो नाम मथुरायास्त्वदूरतः। ३६।
तत्रासौ गोषु निरतः कंसस्य करदायकः।
तस्य भार्याद्वयं जातमदितिः सुरभिश्च ते ।३७।
देवकी रोहिणी चेमे वसुदेवस्य धीमतः ।
सुरभी रोहिणी देवी चादितिर्देवकी त्वभूत् ।३८।
तत्र त्वं शिशुरेवाङ्कौ गोपालकृतलक्षणः ।
वर्धयस्व मूहाबाहो पुरा त्रैविक्रमे यथा। ३९।
छादयित्वाऽऽत्मनाऽऽत्मानं मायया योगरूपया।
तत्रावतर लोकानां भवाय मधुसूदन। 1.55.४०।
जयाशीर्वचनैस्त्वेते वर्धयन्ति दिवौकसः
आत्मानमात्मना हि त्वमवतार्य महीतले ।४१।
देवकीं रोहिणीं चैव गर्भाभ्यां परितोषय
गोपकन्यासहस्राणि रमयंश्चर मेदिनीम् ।४२।
"गाश्च ते रक्षतो विष्णो वनानि परिधावतः
वनमालापरिक्षिप्तं धन्या द्रक्ष्यन्ति ते वपुः ।४३।
विष्णौ पद्मपलाशाक्षे गोपालवसतिं गते
बाले त्वयि महाबाहो लोको बालत्वमेष्यति ।४४।
त्वद्भक्ताः पुण्डरीकाक्ष तव चित्तवशानुगाः।
गोषु गोपा भविष्यन्ति सहायाः सततं तव ।४५।
"वने चारयतो गाश्च गोष्ठेषु परिधावतः ।
मज्जतो यमुनायां च रतिं प्राप्स्यन्ति ते त्वयि ।४६।
जीवितं वसुदेवस्य भविष्यति सुजीवितम् ।
यस्त्वया तात इत्युक्तः स पुत्र इति वक्ष्यति ।४७।
अथवा कस्य पुत्रत्वं गच्छेथाः कश्यपादृते ।
का च धारयितुं शक्ता त्वां विष्णो अदितिं विना ।४८।
योगेनात्मसमुत्थेन गच्छ त्वं विजयाय वै।
वयमप्यालयान्स्वान्स्वान्गच्छामो मधुसूदन।४९।
"वैशम्पायन उवाच
स देवानभ्यनुज्ञाय विविक्ते त्रिदिवालये
जगाम विष्णुः स्वं देशं क्षीरोदस्योत्तरां दिशम् ।1.55.५०।
"तत्र वै पार्वती नाम गुहा मेरोः सुदुर्गमा
त्रिभिस्तस्यैव विक्रान्तैर्नित्यं पर्वसु पूजिता ।५१।
पुराणं तत्र विन्यस्य देहं हरिरुदारधीः।
आत्मानं योजयामास वसुदेवगृहे प्रभुः।५२।
"इति श्रीमहाभारते खिलभागे हरिवंशे हरिवंशपर्वणि पितामहवाक्ये पञ्चपञ्चाशत्तमोऽध्यायः।।५५।।
*हिन्दी अनुवाद:-★
____________________________
"हरिवंशपर्व ।
वैशम्पायनजी कहते हैं–जनमेजय!भोग और मोक्ष की अभिलाषा रखने वाले पुरुषों के द्वारा जो एकमात्र वरण करने योग्य हैं। वे सर्वशक्तिमान परमेश्वर मधुसूदन श्रीहरि नारद की पूर्वोक्त बात सुनकर मुस्कराए और अपनी कल्याण कारी वाणी द्वारा उन्हें उत्तर देते हुए बोले –।१।
'नारद ! तुम तीनों लोकों के हित के लिए मुझसे जो कुछ कह रहे हो -तुम्हारी वह बात उत्तम प्रवृत्ति के लिए प्रेरणा देने वाली है। अब तुम उसका उत्तर सुनो !।२।
अब मुझे भली भाँति विदित है कि ये दानव भूतल पर मानव शरीर धारण करके उत्पन्न हो गये हैं। मैं यह भी जानता हूँ कि कौन कौन दैत्य किस किस शरीर को धारण करके वैर भाव की पुष्टि कर रहा है।३।
मुझे यह भी ज्ञात है कि कालनेमि उग्रसेनपुत्र कंस के रूप में पृथ्वी पर उत्पन्न हुआ है । घोड़े का शरीर धारण करने वाले केशी दैत्य से भी मैं अपरिचित नहीं हूँ।४।
कुवलयापीड हाथी चाणूर और मुष्टिक नामक मल्ल तथा वृषभ रूपधारी दैत्य अरिष्टासुर को भी मैं अच्छी तरह जानता हूँ।५।
विप्रवर -खर और प्रलम्ब नामक असुर भी मुझसे अज्ञात नहीं हैं। राजा बलि की पुत्री पूतना को भी मैं जानता हूँ।६।
यमुना के कुण्ड में रहने वाले कालिया नाग को भी मैं जानता हूँ। जो गरुड के भय से उस कुण्ड में जा घुसा है।७।
मैं उस जरासन्ध से भी परिचित हूँ जो इस समय सभी भूपालों के मस्तक पर खड़ा है। प्राग्य- ज्योतिष पुर में रहने वाले नरकासुर को भी मैं भलीभाँति जानता हूँ।८।
भूतल के मानव लोक में जो मनुष्य रूप धारण कर के उत्पन्न हुआ है। जिसका तेज कुमार कार्तिकेय के समान है। जो शोणितपुर में निवास करता है। और अपनी हजार भुजाओं के कारण देवों के लिए भी अत्यन्त दुर्जेय हो रहा है। उस बलाभिमानी दैत्य वाणासुर को भी मैं जानता हूँ ।
तथा यह भी जानता हूँ कि पृथ्वी पर जो भारती सेना का महान भार बढ़ा हुआ है उसे उतारने का उत्तरदायित्व(भार,) मुझपर ही अवलम्बित है।९-१०।
मैं उन सारी बातों से परिचित हूँ कि किस प्रकार वे राजा लोग आपस में युद्ध करेंगे। भूतल पर उनका किस प्रकार संहार होगा। और पुनर्जन्म से रहित देह धारण करने वाले इन नरेशों को इन्द्र लोक में किस प्रकार सत्कार प्राप्त होगा।– यह सब कुछ मेरी आँखों के सामने है।११।
मैं भूलोक में पहुँच कर मानव शरीर धारण करके स्वयं तो उद्योग का आश्रय लुँगा ही दूसरों को भी इसके लिए प्रेरित करुँगा।१२।
जिस जिस विधि से जो जो असुर मर सकेगा उस उस उपाय से ही मैं उन सभी कंस आदि बड़े़ बड़े़ असुरों का वध करुँगा१३।
मैं योग से इनके भीतर प्रवेश करके इनकी अन्तर्धान गतियों को नष्ट कर दुँगा और इस प्रकार युद्ध में इन देवेश्वरों के शत्रुओं का वध कर डालुँगा।१४।
नारद ! पृथ्वी के हित के लिए स्वर्गवासी देवताओं देवर्षियों तथा गन्धर्वों के यहाँ से जो अपने अपने अंश का उत्सर्ग किया है वह सब मेरी अनुमति से हुआ है । क्योंकि मैंने पहले से ही ऐसा निश्चय कर लिया था।
ब्रह्मन् अब यह ब्रह्मा जी ही मेरे लिए निवास स्थान की व्यवस्था करें। पितामह !अब आप ही मुझे बताइए कि मैं किस प्रदेश में किस जाति में प्रकट होकर अथवा किस वेष में रहकर उन सब असुरों का समर भूमि नें संहार करुँगा ? ।१६-१७।
ब्रह्मा जी ने कहा– सर्वव्यापी नारायण आप मुझसे इस उपाय को सुनिये , जिसके द्वारा सारा प्रयोजन सिद्ध हो जाएगा। महाबाहो ! भूतल पर जो आपके पिता होंगे और जो माता होगीं और जहाँ जन्म लेकर आप अपने कुल की वृद्धि करते हुए यादवों के सम्पूर्ण विशाल वंश को धारण करेंगे- तथा उन समस्त असुरों का वध कर के अपने वंश का महान विस्तार करते हुए,जिस प्रकार मनुष्यों के लिए धर्म की मर्यादा स्थापित करेंगे। वह सब बताता हूँ – सुनिए!।१८-२०।
विष्णो ! पहले की बात है महर्षि कश्यप अपने महान यज्ञ को अवसर पर महात्मा वरुण के यहाँ से कुछ दुधारू गायें माँग लाये थे। जो अपने दूध आदि के द्वारा यज्ञ में बहुत ही उपयोगिनी थीं।२१।
यज्ञ कार्य पूर्ण हो जाने पर भी कश्यप की दो पत्नीयों अदिति और सुरभि ने वरुण को उसकी गायें लौटा देने की इच्छा नहीं की।२२।
तब वरुण देव मेरे पास आये, मस्तक झुकाकर मुझे प्रणाम करने के पश्चात बोले – भगवन पिता जी ने मेरी गायें लाकर अपने यहाँ करली हैं।२३।
यद्यपि उन गायों से जो कार्य लेना था वह पूरा हो गया है। तो भी पिता जी मुझे उन गायों को वापस ले जाने की आज्ञा नहीं देते हैं। इस विषय में उन्होंने अपनी दो पत्नीयों अदिति और सुरभि के मत का अनुसरण किया है।२४।
प्रभु मेरी वे गायें दिव्या, अक्षया और कामधेनु रूपिणी हैं । तथा अपने ही तेज से सुरक्षित रहकर समस्त समुद्रों में विचरण करती हैं।२५।
देव! जो अमृत के समान उत्तम दूध को अविच्छिन्न रूप से देती रहती है। मेरी उन गायों को पिता कश्यप के अतिरिक्त दूसरा कौन बलपूर्वक रोक सकता है?। २६।
ब्रह्मन ! कोई कितना ही शक्तिशाली हो, गुरुजन हो अथवा और कोई हो, यदि वह मर्यादा का त्याग करता है। तो आप ही ऐसे सब लोगों पर नियन्त्रण कर सकते हैं। क्योंकि आप हम सब लोगों के परम आश्रय हैं।।२७।
लोकगुरो ! यदि संसार में अपने कर्तव्य से अनभिज्ञ रहने वाले शक्तिशाली पुरुषों के लिए दण्ड की व्यवस्था न हो तो जगत् की सारी मर्यादाऐं नष्ट हो जाऐंगी।२८।
इस कार्य का जैसा परिणाम होने वाला हो वैसा ही कर्तव्य का पालन करने या कराने में आप ही हमारे प्रभु हैं। मुझे मेरी गायें दिलवा दीजिये तभी मैं समुद्र के लिए प्रस्थान करुँगा।२९।
इन गायों के देवता साक्षात्- परम् - ब्रह्म परमात्मा हैं। तथा ये अविनाशी सत्व गुण का साकार रूप हैं। आपसे प्रकट जो -जो लोक हैं उन सबकी दृष्टि में गौ और ब्राह्मण ( ब्रह्म ज्ञानी) समान माने गये हैं।३०।
गौओं और ब्राह्मण की रक्षा होने पर सम्पूर्ण जगत की रक्षा हो जाती है।३१।
अच्युत ! जल के स्वामी वरुण के ऐसा कहने पर गौओं के कारण तत्व को जानने वाले मुझ( ब्रह्मा) ने शाप देते हुए कहा-।३२।
महर्षि कश्यप के जिस अंश के द्वारा वरुण की गायों का हरण किया गया है वह उस अंश से पृथ्वी पर जाकर गोपत्व को प्राप्त कर गोप होंगे।३३।
वे जो सुरभि नाम वाली और देव -रूपी अग्नि को उत्पन्न करने वाली अरणि के समान जो अदिति देवी हैं। वे दौंनो पत्नीयाँ कश्यप के साथ ही भूलोक पर जाऐंगी।३४।
गोप जाति में जन्मे कश्यप भूतल पर अपनी उन दौंनों पत्नीयों के साथ सुखपूर्वक रहेंगे। कश्यप का दूसरा अंश कश्यप के समान ही तेजस्वी होगा। वह भूतल पर वसुदेव नाम से विख्यात हो गोओं और गोपों के अधिपति रूप में मथुरा से थोड़ी दूर पर गोवर्द्धन नामक पर्वत है।
जहाँ वे वसुदेव गायों के पालन में लगे रहेंगे ,और कंस को कर (टैक्स) देने वाले होंगे। वहाँ अदिति और सुरभि नामकी इनकी दौंनों पत्नीयाँ बुद्धि- मान् वसुदेव की देवकी और रोहिणी नामक दो पत्नीयाँ बनेंगीं। उनमें सुरभि तो रोहिणी देवी होगी और अदिति देवकी होगी।३५-३८।
हे विष्णो ! वहाँ तुम प्रारम्भ में शिशु रूप में ही गोप बालक के चिन्ह धारण करके क्रमशः बड़े होइये , ठीक उसी प्रकार जैसे त्रिविक्रमावतार के समय आप वामन (बौना) से बढ़कर विराट् हो गये थे।३९।
मधुसूदन ! योगमाया के द्वारा स्वयं ही अपने स्वरूप का आच्छादित करके (छिपाकर के ) आप लोक कल्याण के लिए वहाँ अवतार लीजिए ।४०।
ये देवगण विजयसूचक आशीर्वाद देकर आपके अभ्युदय की कामना करते हैं। आप पृथ्वी पर स्वयं अपने रूप को उतारकर दो गर्भों के रूप में प्रकट हो माता देवकी और रोहिणी को सन्तुष्ट कीजिये । साथ ही हजारों गोपकन्याओं के साथ रास नृत्य का आनन्द प्रदान करते हुए पृथ्वी पर विचरण कीजिये ।४१-४२।
'विष्णो ! वहाँ गायों की रक्षा करते हुए जब आप स्वयं वन -वन में दौड़ते फिरेगे ! उस समय आपके वन माला विभूषित मनोहर रूप का जो लोग दर्शन करेंगे वे धन्य हो जाऐंगे ।४३।
महाबाहो! विकसित कमल- दल के समान नेत्र वाले आप सर्वव्यापी परमेश्वर ! जब गोप -बालक के रूप में व्रज में निवास करोगे ! उस समय सब लोग आपके बाल रूप की झाँकी करके स्वयं भी बालक बन जाऐंगे (बाल लीला के रसास्वादन में तल्लीन हो जाऐंगे)।४४।
कमल नयन आपके चित्त के अनुरूप चलने वाले आपके भक्तजन वहाँ गायों की सेवा के लिए गोप बनकर जन्म लेंगे और सदा आप के साथ साथ रहेंगे ।४५।
हे प्रभु ! जब आप वन में गायें चराते होंगे , व्रज में इधर -उधर दौड़ते होंगे , तथा यमुना नदी के जल में गोते लगाते होगें , उन सभी अवसरों पर आपका दर्शन करके वे भक्तजन आप में उत्तरोत्तर अनुराग प्राप्त करेंगे ।४६।
वसुदेव का जीवन वास्तव में उत्तम जीवन होगा ! जो आप के द्वारा तात ! कहकर पुकारे जाने पर आप से पुत्र (वत्स) कहकर बोलेंगे ४७।
विष्णो ! अथवा आप कश्यप के अतिरिक्त दूसरे किसके पुत्र होंगे ? देवी अदिति के अतिरिक्त दूसरी कौन सी स्त्री आपको गर्भ में धारण कर सकेगी ?।४८।
मधुसूदन ! आप अपने स्वाभाविक योग- बल से असुरों पर विजय प्राप्त करने के लिए यहाँ से प्रस्थान कीजिये ! और अब हम लोग भी अपने -अपने निवास स्थान को जा रहे हैं।४९।
वैशम्पायन जी कहते हैं– देव लोक के उस पुण्य प्रदेश में बैठे हुए भगवान विष्णु देवताओं को जाने की आज्ञा देकर क्षीर सागर से उत्तर दिशा में स्थित अपने निवास स्थान (श्वेत द्वीप) को चले गये।५०।
वहाँ मेरु पर्वत की पार्वती नाम से प्रसिद्ध एक अत्यन्त दुर्गम गुफा है। जो भगवान विष्णु के तीन चरण चिन्हों से चिन्हित होती है , इसी लिए पर्व के अवसरों पर सदा उसकी पूजा की जाती है।५१।
उदारबुद्धि वाले भगवान् श्रीहरि विष्णु ने अपने पुरातन विग्रह को (शरीर) को स्थापित करके अपने आपको वसुदेव के घर में अवतीर्ण होने के कार्य में लगा दिया।५२।
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"इस प्रकार श्री महाभारत के खिलभाग हरिवंश के अन्तर्गत हरिवंश पर्व में ब्रह्मा जी का वचन विषयक पचपनवाँ अध्याय पूरा हुआ ।।५५।।
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यही उपर्युक्त बात देवी भागवत महापुराण में भी चतर्थ स्कन्ध के बीसवें अध्याय में भी लगभग इसी के समान कही गयी है।
दैत्यानां हननं कर्म कर्तव्यं हरिणा स्वयम् ।अंशांशेन पृथिव्यां वै कृत्वा जन्म महात्मना ॥ ३९।
तदहं संप्रवक्ष्यामि कृष्णजन्मकथां शुभाम् ।स एव भगवान्विष्णुरवतीर्णो यदोः कुले ॥ ४० ॥
कश्यपस्य मुनेरंशो वसुदेवः प्रतापवान् ।गोवृत्तिरभवद्राजन् पूर्वशापानुभावतः ॥ ४१ ॥
"कश्यपस्य च द्वे पत्न्यौ शापादत्र महीपते ।
अदितिः सुरसा चैवमासतुः पृथिवीपते ॥४२॥
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देवकी रोहिणी चोभे भगिन्यौ भरतर्षभ वरुणेन महाञ्छापो दत्तः कोपादिति श्रुतम् ॥ ४३ ॥
"राजोवाच
किं कृतं कश्यपेनागो येन शप्तो महानृषिः ।सभार्यः स कथं जातस्तद्वदस्व महामते ॥ ४४ ॥
कथञ्च भगवान्विष्णुस्तत्र जातोऽस्ति गोकुले ।वासी वैकुण्ठनिलये रमापतिरखण्डितः ॥ ४५ ॥
निदेशात्कस्य भगवान्वर्तते प्रभुरव्ययः ।
नारायणः सुरश्रेष्ठो युगादिः सर्वधारकः ॥ ४६ ॥
स कथं सदनं त्यक्त्वा कर्मवानिव मानुषे करोति जननं कस्मादत्र मे संशयो महान् ॥ ४७ ॥
प्राप्य मानुषदेहं तु करोति च विडम्बनम् भावान्नानाविधांस्तत्र मानुषे दुष्टजन्मनि ॥ ४८ ॥
कामः क्रोधोऽमर्षशोकौ वैरं प्रीतिश्च कर्हिचित् ।सुखं दुःखं भयं नॄणां दैन्यमार्जवमेव च ॥ ४९ ॥
दुष्कृतं सुकृतं चैव वचनं हननं तथा ।
पोषणं चलनं तापो विमर्शश्च विकत्थनम्॥५०॥
लोभो दम्भस्तथा मोहः कपटः शोचनं तथा ।
एते चान्ये तथा भावा मानुष्ये सम्भवन्ति हि ॥५१।
"भगवान् हरि अपने अंशांशसे पृथ्वीपर अवतार लेकर दैत्योंका वधरूपी कार्य सम्पन्न करते हैं।
इसलिये अब मैं यहाँ श्रीकृष्ण के जन्म की पवित्र कथा कह रहा हूँ। वे साक्षात् भगवान् विष्णु ही यदुवंशमें अवतरित हुए थे ।39-40।
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हे राजन् ! कश्यपमुनि के अंश से प्रतापी वसुदेव जी उत्पन्न हुए थे, जो पूर्वजन्म के शापवश इस जन्ममें गोपालन का काम करते थे। 41।
हे महाराज! हे पृथ्वीपते! उन्हीं कश्यपमुनि की दो पत्नियाँ- अदिति और सुरसा (नाग माता) ने भी शापवश पृथ्वीपर अवतार ग्रहण किया था।
हे भरतश्रेष्ठ ! उन दोनों ने देवकी और रोहिणी नामक बहनों के रूपमें जन्म लिया था। मैंने यह सुना है कि क्रुद्ध होकर वरुण ने उन्हें महान् शाप दिया था ।। 42-43 ।।
राजा बोले- हे महामते। महर्षि कश्यपने कौन सा ऐसा अपराध किया था, जिसके कारण उन्हें स्त्रियों सहित शाप मिला इसे मुझे बताइये ।।44।
वैकुण्ठवासी, अविनाशी, रमापति भगवान् विष्णु को गोकुलमें जन्म क्यों लेना पड़ा ? ।। 45 ।।
सबके स्वामी, अविनाशी, देवश्रेष्ठ युगके आदि तथा सबको धारण करने वाले साक्षात् भगवान् नारायण किसके आदेश से व्यवहार करते हैं और वे अपने स्थानको छोड़कर मानव-योनिमें जन्म लेकर मनुष्योंकी भाँति सब काम क्यों करते हैं; इस विषयमें मुझे महान् सन्देह है ।46-47।
भगवान् विष्णु स्वयं मानव-शरीर धारण करके ही मनुष्य जन्म में अनेकविध लीलाएँ दिखाते हुए प्रपंच क्यों करते हैं ? ।48 ।
काम, क्रोध, अमर्ष, शोक, वैर, प्रेम, सुख, दुःख, भय, दीनता, सरलता, पाप, पुण्य, वचन, मारण, पोषण, चलन, ताप, विमर्श, आत्मश्लाघा, लोभ, दम्भ, मोह, कपट और चिन्ता-ये तथा अन्य भी नाना प्रकारके भाव मनुष्य जन्म में विद्यमान रहते हैँ । 49-51।
विशेष:-
"सुरसा रोहिणी के रूप में अवतरित हुईं क्योंकि सुरसा नाग माता हैं और बलराम स्वयं शेषनाग के रूप- इस तर्क से सुरभि न होकर सुरसा सा रोहिणी रूप में अवतरण होना समीचीन और प्राचीन है।
"पिता के मृत्यु के पश्चात -वसुदेव गोप रूप में गोपालन और कृषि करते हुए "
शूरसेनाभिधः शूरस्तत्राभून्मेदिनीपतिः ।
माथुराञ्छूरसेनांश्च बुभुजे विषयान्नृप॥५९॥
तत्रोत्पन्नः कश्यपांशः शापाच्च वरुणस्य वै ।वसुदेवोऽतिविख्यातः शूरसेनसुतस्तदा॥ ६०॥
वैश्यवृत्तिरतः सोऽभून्मृते पितरि माधवः। उग्रसेनो बभूवाथ कंसस्तस्यात्मजो महान्॥६१॥
अनुवाद:-•-तब वहाँ के शूर पराक्रमी राजा शूरसेन नाम से हुए । और वहाँ की सारी सम्पत्ति भोगने का शुभ अवसर उन्हें प्राप्त हुआ ! वरुण के शाप के कारण कश्यप ही अपने अंश रूप में शूरसेन के पुत्र वसुदेव के रूप में उत्पन्न हुए कालान्तरण में पिता की मृत्यु हो जाने पर वसुदेव (वैश्य-वृति) से अपना जीवन निर्वाह करने लगे। उन दिनों उग्रसेन भी जो मथुरा के एक भाग पर राज्य पर राज करते थे ! जिनके कंस नामक महाशक्ति शाली पुत्र हुआ
सन्दर्भ:- इति श्रमिद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे कृष्णावतारकथोपक्रमवर्णनं नाम विंशोऽध्यायः।२०।
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देवीभागवत पुराण के चतुर्थ स्कन्ध के द्वितीय अध्याय में कहा गयी है कि पिता के मरणो उपरानत वसुदेव ने कृषि और गोपालन कार्य किया था -
कश्यपस्य मुनेरंशो वसुदेवः प्रतापवान् ।
गोवृत्तिरभवद्राजन् पूर्वशापानुभावतः ॥४१॥
कश्यपस्य च द्वे पत्न्यौ शापादत्र महीपते ।
अदितिः सुरसा चैवमासतुः पृथिवीपते ॥ ४२ ॥
देवकी रोहिणी चोभे भगिन्यौ भरतर्षभ ।
वरुणेन महाञ्छापो दत्तः कोपादिति श्रुतम् ॥४३।
"राजोवाच
किं कृतं कश्यपेनागो येन शप्तो महानृषिः ।
सभार्यः स कथं जातस्तद्वदस्व महामते ॥ ४४ ॥
कथञ्च भगवान्विष्णुस्तत्र जातोऽस्ति गोकुले ।
वासी वैकुण्ठनिलये रमापतिरखण्डितः ॥ ४५ ॥
निदेशात्कस्य भगवान्वर्तते प्रभुरव्ययः ।
नारायणः सुरश्रेष्ठो युगादिः सर्वधारकः ॥ ४६।
श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां सहितायां ॥
चतुर्थस्कन्धे कर्मणो जन्मादिकारणत्वनिरूपणं नाम द्वितीयोऽध्यायः॥२।
("देवी भागवत महापुराण (देवी भागवत) में वसुदेव और देवकी तथा रोहिणी के पूर्व जन्म की कथा- वसुदेव का यदुवंश में जन्म लेकर गोपालन करना-)
स्कन्ध 4, अध्याय 3 -
वसुदेव और देवकी के पूर्वजन्मकी कथा
"देवीभागवतपुराणम् स्कन्धः ४
दित्या अदित्यै शापदानम्
__________
वन्दे वृन्दावन-वन्दनीयं।
सर्व लोकै रभिनन्दनीयं।
कर्मस्य फल इति ते नियम।
कर्मेच्छा सङ्कल्पो वयम्।१।
"
भक्त-भाव सुरञ्जनं ।
राग-रङ्ग त्वं सञ्जनं।।
बोध -शोध मनमञ्जनं
नमस्कार खल-भञ्जनं।२।
मयूर पुच्छ तव मस्तकं ।
मुरलि मञ्जु शुभ हस्तकं।
ज्ञान रश्मि त्वं प्रभाकरं। गुणातीत गुरु- गुणाकरं।३।
नमामि याम: त्वं अष्टकं-
हर्त्तृ शोक अति कष्टकं।
भव-बन्ध मम मोचनं ।
सर्व भक्तगण रोचनं।४।
कृष्ण श्याम त्वं मेघनं, लभेमहि जीवन धनं।
रोमैभ्यो गोपा: सर्जकं। सकल सिद्धी: त्वं अर्जकं।५।
कृपा- सिन्धु गुरु- धर्मकं।
नमामि प्रभु उरु कर्मकं।।
बलि प्रथाया निवारणं।
हिंसा तस्या कारणं।६।
स्नातकं प्रभु- सुगोरजं
सदा विराजते त्वं व्रजं।।
दधान ग्रीवायां मालकं। नमामि-आभीर बालकं।७।
गोप-गोपयो रधिनायकं।
वैष्णव धर्मस्य विधायकं।।
व्रज रज ते विभूषणं ।
नमामि कोटिश: पूषणं।९।
निष्काम कर्मं निर्णायकं।
सुतान वेणु लय -गायकं।
दीन बन्धो: त्वं सहायकं।
नमामि यादव विनायकं।१०।
किशोर वय- सुव्यञ्जितम्।
राग-रङ्ग शोभित नितम्
नमस्कार प्रभु ऋत-व्रतम्
पाययाञ्चकार गीतामृतं।११।
वन्यमाल कण्ठे धारिणं । नमामि व्रजस्य विहारिणं।
वैजयन्ती लालित्य हारिणं। लीला विलोल विस्तारिणं।१२।
📚: कृषि कर्मणेषु प्रवीण आपीड केकी पणम्।
कृषाणु शाण हल कृपाणु।
वन्दे कर्षणं संकर्षणम्।८।
📚: ऋग्वेद मण्डल १० सूक्त ९० ऋचा- १३-१४
📚: उधर ऋग्वेद के दशम मण्डल ते 95 वें सूक्त की सम्पूर्ण (18) ऋचाऐं " पुरूरवा और उर्वशी के संवाद रूप में है।
जिसमें पुरूरवा के विशेषण गोष ( घोष- गोप) तथा गोपीथ- हैं । अत: पुरुरवा एक गो- पालक राजा ही सम्राट् भी है।
पुरुरवा बुध ग्रह और पृथ्वी ग्रह (इला) ग्रह से सम्बन्धित होने से इनकी सन्तान माना गया है।
यही व्युत्पत्ति सैद्धान्तिक है।
यदि आध्यात्मिक अथवा काव्यात्मक रूप से इला-वाणी अथवा बुद्धिमती स्त्री और बुध बुद्धिमान पुरुष का भी वाचक है । और पुरुरवा एक शब्द और उसकी अर्थवत्ता के विशेषज्ञ कवि का वाचक है। और उर्वशी उसकी काव्य शक्ति है।
यदि पुरुरवा को बुध ग्रह और इला स्त्री से उत्पन्न भी माना जाय तो इला की ऐतिहासिकता सन्दिग्ध है। परन्तु पुरुरवा की ऐतिहासिकता प्रमाणित है। उसका वर्णन वेद, पुराण और अन्य लौकिक आख्यानों में है। पुरुरवा के गोष (घोष-अथवा गो पालक होने का सन्दर्भ भी वैदिक है।
"ततः परिणते काले प्रतिष्ठानपतिः प्रभुः ।
पुरूरवस उत्सृज्य गां पुत्राय गतो वनम्॥४२ ॥
अनुवाद:- उसके बाद समय बीतने पर प्रतिष्ठान पुर का अधिपति अपने पुत्र पुरुरवा को गायें देकर वन को चला गया।४२।
श्रीमद्भागवत महापुराण
नवमस्कन्ध प्रथमोध्याऽयः॥१॥
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वेदों में भी पुरुरवा के गाय पालने का सन्दर्भ पूर्व- वितित ही हैं । पुरुरवा ,बुध ,और इला की सन्तान था।
ऋग्वेद के दशम मण्डल में उर्वशी के पति और नायक पुरुरवा का भी गोष(घोष)अथवा गोप रूप में वर्णन मिलता है।
इन्हीं तथ्यों का हम शास्त्रीय प्रमाणों द्वारा यहाँ सिद्ध करने का उपक्रम करते हैं।
उर्वशी:-उरून् अश्नुते वशीकरोति उरु + अश+क गौरा० ङीष् । स्वसौन्दर्येण उरून् महतः पुरुषान् वशीकरोति- अपने अद्भुद सौन्दर्य से अच्छे अच्छों को वश में करने से इनकी उर्वशी संज्ञा सार्थक होती है।
"उरसि वशति(वष्टि)इति उर्वशी-जो हृदय में कामना अथवा प्रेम उत्पन्न करती है। वह उर्वशी है यह भाव मलक अर्थ भी सार्थक है।
"कवि पुरुरवा है रोहि !
कविता उसके उरवशी
हृदय सागर की अप्सरा ।
संवेदन लहरों में विकसी।।
एक रस बस ! प्रेमरस सृष्टि
नहीं कोई काव्य सी !
प्रेम मूलक काव्य का आदि श्रोत उर्वशी और आदि कवि गोपालक पुरुरवा ही है -क्योंकि प्रेम सौन्दर्य का आकाँक्षी और उसका चिरनिवेदक है।
ऋग्वेद के दशम मण्डल ते 95 वें सूक्त में 18 ऋचाओं में सबसे प्राचीन यह "प्रेम निवेदन पुरुरवा का उर्वशी के प्रति किया गया है।
सत्य पछा जाय तो कवि अथवा शब्द तत्व का ज्ञाता वही बन सकता है जो किसी के प्रेम में तड़पता हो अथवा जिसे संसार से वैराग्य हो गया हो।
"प्रेम में तड़पा हुआ या जिसे वैराग्य है।
कवि बनने का केवल उसका ही सौभाग्य है।।
उर्वशी ही काव्य की आदि जननी है।
और अहीरों अथवा यादवों के आदि ऐतिहासिक पुरुष पुरुरवा भी गोपालक (गोष - गोपीथ )आदि के रूप में वैदिक ऋचाओं में वर्णित हैं।
"कालान्तरण पुराणों में कुछ द्वेषवादी पुरोहितों ने जोड़-तोड़ और तथ्यों को मरोड़ कर अपने स्वार्थ के अनुरूप लिपिबद्ध किया तो परिणाम स्वरूप तथ्यों में परस्पर विरोधाभास और शास्त्रीय सिद्धान्त के विपरीत बाते सामने आयीं।
गोष: = गां सनोति (सेवयति) सन् (षण् धातु =संभक्तौ/भक्ति/दाने च) +विट् ङा । सनोतेरनः” पा० षत्वम् । अर्थात "गो शब्द में षन् धातु का "ष" रूप शेष रहने पर(गो+षन्)= गोष: शब्द बना - जिसका अर्थ है । गो सेवक अथवा पालक।
वैदिक ऋचाओं में गोष: (घोष)शब्द का पूर्व रूप ही है। जिसका अर्थ होता है - गायों का दान करने वाला / तथा गोसेवा करने वाला" गोपाल- उपर्युक्त ऋचा के अतिरिक्त निम्न ऋचा में भी पुरुरवा को गाय पालने वाला सूचित किया गया है।
"जज्ञिषे इत्था गोपीथ्याय हि दधाथ तत्पुरूरवो म ओजः अशासं त्वा विदुषी सस्मिन्नहन्न म आशृणोः किमभुग्वदासि ॥११॥
सायण-भाष्य"-
“इत्था= इत्थं = इस प्रकार इत्थम्भावः इत्थम्भूतः "गोपीथ्याय – गौः =पृथिवी /धेनू। पीथं= पालनम् के लिए । स्वार्थिकस्तद्धितः । भूमे रक्षणीय जज्ञिषे =( जनी धातु मध्यम पुरुष एकवचन लिट् लकार “हि जातोऽसि खलु पुत्ररूपेण । 'आत्मा वै पुत्रनामा ' इति श्रुतेः। पुनस्तदेवाह ।
हे "पुरूरवः “मे ममोदरे मयि "ओजः अपत्योत्पादनसामर्थ्यं "दधाथ मयि निहितवानसि "तत् तथास्तु । अथापि स्थातव्यमिति चेत् तत्राह । अहं "विदुषी भावि कार्यं जानती “सस्मिन्नहन् सर्वस्मिन्नहनि त्वया कर्तव्यं "त्वा =त्वाम् "अशासं =शिक्षितवत्यस्मि । त्वं "मे मम वचनं “न “आशृणोः =न शृणोषि। “किं त्वम् "अभुक् =अभोक्तापालयिता प्रतिज्ञातार्थमपालयन् “वदासि हये जाय इत्यादिकरूपं प्रलापम् ।
सतयुग में वर्णव्यवस्था नहीं थी परन्तु एक ही वर्ण था । जिसे हंस नाम से केवल भागवत पुराण में वर्णन किया गया है।
“गोषाः= तेषां शत्रूणां ~ गवां संभक्ता} "न अभवम् । तथा “शतसाः= शतानामपरिमितानां शत्रुधनानां संभक्ता नाभवम् । किंच “अवीरे= वीरवर्जिते( वैदिक रूप में तद्धित पद से पूर्व उपसर्ग विधान नही होने से अवीर अवि+ईर= अवीर= अभीर
उर्वशी का वर्णन अहीर कन्या के नाम से इतिहास में जुड़ा है। मत्स्यपुराण इसका साक्ष्य है।
"एक आभीर कन्या जिसने भीमदवादशी का पालन किया, और उर्वशी बन गई।
(मत्स्य-पुराण 69.59.)
"या तु कल्याणिनी नाम पुरा कल्पेषु पठ्यते।
त्वमादिकर्ता भव सौकरेऽस्मिन् कल्पे महावीर वरप्रधान।।६९.५९।।
यस्याः स्मरन् कीर्तनमप्यशेषं विनष्टपापस्त्रिदशाधिपः स्यात्।। ६९.६० ।।
कृत्वा च यामप्सरसामधीशा नर्तकीकृता ह्यन्यभवान्तरेषु।
(बद्रिकाान्तिके पद्मसेनाभीरस्य)आभीर कन्यातिकुतूहलेन सैवोर्वशी सम्प्रति नाकपृष्ठे।।६९.६१।।
जाताथवा विट्कुलोद्भवापि पुलोमकन्या पुरुहूतपत्नी।
तत्रापि तस्याः परिचारिकेयं मम प्रिया सम्प्रति सत्यकामा।।६९.६२।।
विवरण:- वीर! तुम्हारे द्वारा इसका अनुष्ठान होनेपर यह व्रत तुम्हारे ही नामसे प्रसिद्ध होगा। इसे लोग भीमद्वादशी' कहेंगे। यह भीमद्वादशी सब पापोंको नाश करनेवाली और शुभकारिणी होगी। प्राचीन कल्पोंमें इस व्रतको 'कल्याणिनी व्रत' कहा जाता था। महान् वीरोंमें श्रेष्ठ वीर भीमसेन! इस वाराहकल्पमें तुम इस व्रतके सर्वप्रथम अनुष्ठानकर्ता बनो। इसका स्मरण और कीर्तनमात्र करनेसे मनुष्यका सारा पाप नष्ट हो जाता है और वह देवताओंका राजा इन्द्र बन जाता है ॥ 51-58 ॥
कालान्तर में एक बद्रिका वन के समीप पद्मसेन अहीर की कन्या ने अत्यन्त कुतूहलवश इस व्रत का अनुष्ठान किया था, जिसके फलस्वरूप वह नर्तकी अप्सराओं की अधीश्वरी हुई। वही इस समय स्वर्गलोक में वह उर्वशी नाम से विख्यात है। इसी प्रकार वैश्य कुलमें उत्पन्न हुई, एक दूसरी कन्याने भी इस व्रतका अनुष्ठान किया था, जिसके परिणामस्वरूप वह पुलोम (दानव) की पुत्रीरूपमें उत्पन्न होकर इन्द्र की पत्नी बनी उसके अनुष्ठान कालमें जो उसको सेविका थी,वही इस समय मेरी प्रिया सत्यभामा है।
वेदाश्च सर्वशास्त्राणां वरुणो यादसामहम् । उर्वश्यप्सरसामेव समुद्राणां जलार्णवः ।७०।
अनुवाद :- नन्दजी को कृष्ण अपने वैष्णव विभूतियों के सन्दर्भ में कहते हैं कि छन्दों में गायत्री, संपूर्ण शास्त्रों में वेद, जलचरों में उनका राजा वरुण, अप्सराओं में उर्वशी, मेरी विभूति हैं इति श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराण श्रीकृष्णजन्मखण्ड उत्तरार्द्ध नारदनां नन्दादि-
णोकप्रमोचनं नाम त्रिसप्ततितमोऽध्यायः।७३।
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सौन्दर्य एक भावना मूलक विषय है इसी कारण स्वर्ग ही नही अपितु सृष्टि की सबसे सुन्दर स्त्री के रूप में उर्वशी को अप्सराओं की स्वामिनी नियुक्त किया।
"अप्सराओं को जल (अप) में रहने अथवा सरण ( गति ) करने के कारण अप्सरा कहा जाता है।
इनमे सभी संगीत और विलास विद्या की पारंगत होने के गुण होते हैं।
शास्त्रों के हवाले से हम आपको बता दें कि "स्वयं भगवान विष्णु 'आभीर' जाति में मानव रूप में अवतरित होने के लिए इस पृथ्वी पर आते हैं; और अपनी आदिशक्ति - "राधा" "दुर्गा" "गायत्री" और "उर्वशी" आदि को भी इन्हीं अहीरों में जन्म लेने के लिए प्रेरित करते हैं।
ऋग्वेद में विष्णु के लिए प्रयुक्त 'गोप', 'गोपति' और 'गोपा:' जैसे विशेषण-पद गोप-गोपी-परम्परा के प्राचीनतम लिखित प्रमाण कहे जा सकते हैं।
विष्णु भगवान् का गोपों से अभिन्न सम्बन्ध रहा है। इन उरूक्रम त्रिपाद-क्षेपी भगवान्- विष्णु के तृतीय पाद-क्षेप परमपद में मधु के उत्स (श्रोत) और भूरिश्रृंगा-(अनेक सींगों वाली गायों ) के होने का भाव सूचित करता है। कदाचित इन गायों के पालक होने के नाते से ही भगवान्- विष्णु को गोप कहा गया है।
"त्रीणि पदा विचक्रमे विष्णुर्गोपा अदाभ्यः।अतो धर्माणि धारयन् ॥१८॥ (ऋग्वेद १/२२/१८)
भावार्थ-(अदाभ्यः) -सोमरस अथवा अन्न आदि रखने के लिए गूलर की लकड़ी का बना हुआ पात्र (धारयन्)- धारण करता हुआ । (गोपाः)- गोपालकों के रूप, (विष्णुः)- संसार के अन्तर्यामी परमेश्वर (त्रीणि)- तीन (पदानि)- क़दमो से (विचक्रमे)- गमन करते हैं। और ये ही (धर्माणि)- धर्मों को धारण करते हैं॥18॥
विशेष:- गोपों को ही संसार में धर्म का आदि प्रसारक माना गया है। ऋग्वेद में वर्णित है कि भगवान विष्णु गोप रूप में धर्म को धारण किये हुए हैं।
आभीर लोग प्राचीन काल से ही व्रती, धर्म वत्सल और सदाचार सम्पन्न होते थे। स्वयं भगवान् विष्णु ने सतयुग में भी अहीरों के समान किसी अन्य जाति को व्रती और सदाचारीयों में सम्पन्न न जानकर अहीरों को ही सदाचार सम्पन्न और धर्मवत्सल स्वीकार किया है।
और इसी कारण से विष्णु ने अपना अवतरण भी इन्हीं अहीरों की जाति में लेना स्वीकार किया। वैदिक ऋचाओं में विष्णु का गोप होना सर्वविदित ही है।
हम बात करते हैं पद्मपुराण सृष्टि खण्ड के अध्याय-17 में वर्णित- अहीरों की जाति में भगवान कृष्ण के रूप में विष्णु के निम्नलिखित तीन श्लोक की :- जिसमें प्रथम श्लोक में अहीरों को धर्मतत्व का ज्ञाता होना तथा सदाचारी होना सूचित किया गया है इसके बाद के श्लोकों में गायत्री के द्वारा आभीर जाति का उद्धार करने वाला बताकर तृतीय श्लोक में विष्णु द्वारा अपने अवतरण की स्वीकृति अहीरों को दे दी गयी है।
ये तीनों बाते हीं सिद्ध करती हैं कि अहीरों की जाति सबसे प्राचीन और पवित्र है जिसमें स्वयं भगवान विष्णु अवतरण करते हैं।
पद्मपुराण सृ्ष्टिखण्ड के (१७) वें अध्याय के निम्न लिखित श्लोक विचारणीय है।
"धर्मवन्तं सदाचारं भवन्तं धर्मवत्सलम्। मया ज्ञात्वा ततःकन्या दत्ता चैषा विरञ्चये।१५।
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"अनया गायत्र्या तारितो गच्छ युवां भो आभीरा ! दिव्यान्लोकान्महोदयान्।
युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये।१६।
"अवतारं करिष्येहं सा क्रीडा तु भविष्यति यदा नन्दप्रभृतयो ह्यवतारं धरातले।१७।
अनुवाद -विष्णु ने अहीरों से कहा मैंने तुमको धर्मज्ञ और धार्मिक, सदाचारी तथा धर्मवत्सल जानकर तुम्हारी इस गायत्री नामकी कन्या को ब्रह्मा के लिए यज्ञकार्य हेतु पत्नी रूप में दिया है। (क्योंकि यज्ञ एक व्रतानुष्ठान ही है)। और अहीर कन्याऐं सदैव कठिन व्रतों का पालन करती हैं।
हे अहीरों ! इस गायत्री के द्वारा उद्धार किये गये तुम सब लोग ! दिव्यलोकों को जाओ- और तुम्हारी अहीर जाति के यदुवंश के अन्तर्गत वृष्णिकुल में देवों की कार्य की सिद्धि के लिए मैं अवतरण करुँगा (अवतारं करिष्येहं ) और वहीं मेरी सांसारिक लीला (क्रीडा) होगी जब धरातल पर नन्द आदि का भी अवतरण होगा।
निष्कर्ष:- उपर्युक्त श्लोकों में भगवान विष्णु संसार में अहीरों को ही सबसे बड़े धर्मज्ञ ' धार्मिक सदाचारी और सुव्रतज्ञ ( अच्छे व्रतों को जानने वाला ) मानते हैं और इसी लिए उनका सांसारिक कल्याण करने के लिए उनकी ही अहीर जाति में अवतरण करते हैं।
गोप लोग विष्णु के शरीर से उनके रोमकूपों से उत्पन्न होते हैं। अत: ये वैष्णव जन हैं।
ब्रह्मवैवर्तपुराण में लिखा है कि वैष्णव ही इन अहीरों का वर्ण है।
गोपों अथवा अहीरों की सृष्टि चातुर्यवर्ण- व्यवस्था से पृथक (अलग) है। क्यों कि ब्रह्मा आदि देव भी विष्णु के नाभि कमल से उत्पन्न होते हैं तो गोप सीधे विष्णु के शरीर के रोम कूपों से उत्पन्न होते हैं। इसीलिए ब्रह्मवैवर्त पुराण में गोपों को वैष्णव वर्ण में समाविष्ट ( included ) किया गया है।
"पाद्मे विष्णोर्नाभिपद्मे स्रष्टा सृष्टिं विनिर्ममे । त्रिलोकीं ब्रह्मलोकान्तां नित्यलोकत्रयं विना ।१५।
अनुवाद:-
तत्पश्चात् पाद्म कल्प में सृष्टिकर्ता ब्रह्मा ने विष्णु के नाभि कमल से उत्पन्न हो सृष्टि का निर्माण किया।
ब्रह्मलोक पर्यन्त जो त्रिलोकी है, उसी की रचना ब्रह्मा ने की परन्तु , ऊपर के जो नित्य तीन लोक हैं, उनकी रचना ब्रह्मा ने नहीं की।
"सा च सम्भाष्य गोविन्दं रत्नसिंहासने वरे । उवास सस्मिता भर्तुः पश्यन्ती मुखपङ्कजम्।३९।
तस्याश्च लोमकूपेभ्यः सद्यो गोपाङ्गनागणः।आविर्बभूव रूपेण वेशेनैव च तत्समः ।1.5.४०।
कृष्णस्य लोमकूपेभ्यः सद्यो गोपगणो मुने।। आविर्बभूव रूपेण वेषेणैव च तत्समः। ४२ ।
त्रिंशत्कोटिपरिमितः कमनीयो मनोहरः ।।संख्याविद्भिश्च संख्यातो बल्लवानां गणः श्रुतौ।४३।
कृष्णस्य लोमकूपेभ्यः सद्यश्चाविर्बभूव ह ।। नानावर्णो गोगणश्च शश्वत्सुस्थिरयौवनः ।४४।
श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे सौतिशौनकसंवादे सृष्टिनिरूपणे ब्रह्मखण्डे पञ्चमोऽध्यायः ।५।
अनुवाद:- वह गोविन्द से वार्तालाप करके उनकी आज्ञा पा मुसकराती हुई श्रेष्ठ रत्नमय सिंहासन पर बैठ गयीं। उनकी दृष्टि अपने उन प्राणवल्लभ के मुखारविन्द पर ही लगी हुई थी। उस किशोरी के रोमकूपों से तत्काल ही गोपांगनाओं का आविर्भाव हुआ, जो रूप और वेष के द्वारा भी उसी की समानता करती थीं। उनकी संख्या लक्षकोटि थी। वे सब-की-सब नित्य सुस्थिर-यौवना थीं। संख्या के जानकार विद्वानों ने गोलोक में गोपांगनाओं की उक्त संख्या ही निर्धारित की है।
मुने ! फिर तो श्रीकृष्ण के रोमकूपों से भी उसी क्षण गोपगणों का आविर्भाव हुआ, जो रूप और वेष में भी उन्हीं के समान थे। संख्यावेत्ता महर्षियों का कथन है कि श्रुति में गोलोक के कमनीय मनोहर रूप वाले गोपों की संख्या तीस करोड़ बतायी गयी है।
ब्रह्म वैवर्त पुराण एकादश -अध्याय श्लोक संख्या (४१)
निम्नलिखित श्लोक में ब्राह्मण" क्षत्रिय" वैश्य" और शूद्र वर्ण के अतिरिक्त एक स्वतन्त्र जाति और वर्ण भी माना गया है। जिसे वैष्णव नाम दिया गया है। जो विष्णु से सम्बन्धित अथवा उनके रोमकूपों से उत्पन्न है।
विष्णुर्देवताऽस्य तस्येदं वा अण् वैष्णव -विष्णू- पासके विष्णोर्जातो इति वैष्णव विष्णुसम्बन्धिनि च स्त्रियां ङीप् वैष्णवी- दुर्गा गायत्री आदि।
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"ब्रह्मक्षत्रियविट्शूद्राश्चतस्रो जातयो यथा। स्वतन्त्रा जातिरेका च विश्वेष्वस्मिन्वैष्णवाभिधा ।४३।।
अनुवाद:-ब्राह्मण' क्षत्रिय 'वैश्य और शूद्र जो चार जातियाँ जैसे इस विश्व में हैं वैसे ही वैष्णव नाम कि एक स्वतन्त्र जाति व वर्ण भी इस संसार में है ।४३।
उपर्युक्त श्लोक में पञ्चम जाति व वर्ण के रूप में भागवत धर्म के प्रर्वतक आभीर / यादव लोगो को स्वीकार किया गया है। क्योंकि वैष्णव शब्द भागवत शब्द का ही पर्याय है।
विष्णु का परम पद, परम धाम दिव्य- आकाश में स्थित एवं सूर्य के समान देदीप्यमान माना गया है -
तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः । दिवीव चक्षुराततम् ॥२०॥
देवता — विष्णुः ; छन्द — गायत्री;
स्वर — षड्जः; ऋषि — मेधातिथिः काण्वः
(सूरयः) बहुत से सूर्य (दिवि) आकाश में (आततम्) फैले हुए (चक्षुरिव) नेत्रों के समान जो (विष्णोः) विष्णु भगवान् ! (परमम्) उत्तम से उत्तम (पदम्) स्थान को ! (तत्) उसको (पश्यन्ति) देखते हैं॥20॥(ऋग्वेद १/२२/२०)।
इसी प्रकार का वर्णन भविष्य पुराण में भी ऋग्वेद का उपर्युक्त श्लोक है।
तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यंति सूरयः ।।
दिवीव चक्षुराततम् ।।१९।।
पीतवस्त्रेण कृष्णाय श्वेतवस्त्रेण शूलिने।।
कौसुंभवस्त्रेणाढ्येन गौरीमुद्दिश्य दापयेत्।।4.130.२०।।
इति श्रीभविष्ये महापुराण उत्तरपर्वणि श्रीकृष्णयुधिष्ठिरसंवादे दीपदानविधिवर्णनं नाम त्रिंशदुत्तरशततमोऽध्यायः।।१३०।।
उरुक्रमस्य स हि बन्धुरित्था विष्णोः पदे परमे मध्व उत्सः ॥५॥
अर्थानुवाद:-
(यत्र) जिसमें (देवयवः) देवों का अन्न( जौ) (नरः) जन (मदन्ति) आनन्दित होते हैं (तत्) उस (अस्य) इस (उरुक्रमस्य) अनन्त पराक्रमयुक्त (विष्णोः) के (प्रियम्) प्रिय (पाथः) मार्ग को (अभ्यश्याम्) सब ओर से प्राप्त होऊँ, जिस परमात्मा के (परमे) अत्युत्तम (पदे) प्राप्त होने योग्य पद में (मधवः) मधुरादि गुणयुक्त पदार्थ का (उत्सः) श्रोत- वर्तमान है (सः, हि) वही (इत्था) इस प्रकार से हमारा (बन्धुः) भाई के समान है ॥५॥
ता वां वास्तून्युश्मसि गमध्यै यत्र गावो भूरिशृङ्गा अयासः।
अत्राह तदुरुगायस्य वृष्णः परमं पदमवभाति भूरि ॥६॥
(यत्र) जहाँ (अयासः) स्थित हुईं (भूरिशृङ्गाः) बहुत सींगों वाली (गावः)गायें हैं (ता) उन (वास्तूनि) स्थानों को (वाम्) तुम (गमध्यै) जाने के लिए (उश्मसि) इच्छा करते हो। जो (उरुगायस्य) बहुत प्रकारों से प्रशंसित (वृष्णः) बैल हैं (परमम्) जो उत्कृष्ट (पदम्) स्थान (भूरिः) अत्यन्त (अवभाति) प्रकाशमान होता है (तत्) उस स्थान को (अत्राह) यहाँ ही हम लोग चाहते हैं ॥ ६ ॥
ऋग्वेदः - मण्डल १
सूक्तं १.१५४/५-६
(गोपाः)गायों के पालक (अदाभ्यः) न दबने योग्य (विष्णुः) विष्णु अन्तर्यामी भगवान् ने (त्रीणि) तीनों (पदा:) कदम अथवा लोक [कारण, सूक्ष्म और स्थूल जगत् अथवा भूमि, अन्तरिक्ष और द्यु लोक] को (वि चक्रमे) गमन किया है। (इतः) इसी से वह (धर्माणि) धर्मों काे (धारयन्) धारण करता हुआ है ॥१८॥
"त्रीणि पदा वि चक्रमे विष्णुर्गोपा अदाभ्यः। इतो धर्माणि धारयन् ॥
' (ऋग्वेद १/२२/१८) अथर्वेद-७/२६/५
तात्पर्य:- तीनों लोकों में गमन करने वाले भगवान विष्णु हिंसा से रहित और धर्म को धारण करने वाले हैं।
'विष्णु ही श्रीकृष्ण वासुदेव, नारायण आदि नामों से परवर्ती युग में लोकप्रिय हुए।
ब्राह्मण ग्रन्थों में इन्हीं विष्णु को यज्ञ के रूप में माना गया यह यज्ञ हिंसा रहित है। - 'यज्ञो व विष्णु:'। तैत्तिरीयसंहिता शतपथ ब्राह्मण और ऐतरेय ब्राह्मण में इन्हें त्रिविक्रम रूप से भी प्रस्तुत किया गया है , जिनकी कथा पुराणों में वामन अवतार के रूप में मिलती है। विष्णु के उपासक, भक्त वैष्णव. कहे जाते हैं। विष्णु को अनन्त ऐश्वर्य, वीर्य, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य रूप 'भग' से सम्पन्न होने के कारण भगवान् या भगवत् कहा जाता है।
इस कारण वैष्णवों को भगवत् नाम से भी जाना जाता है - जो भगवत् का भक्त है वह भागवत्। श्रीमद् वल्लभाचार्य का कथन है कि इन्ही परमतत्त्व को वेदान्त में 'ब्रह्म'. स्मृतियों में 'परमात्मा' तथा भागवत् में 'भगवान्' कहा गया है। उनकी सुदृढ़ मान्यता है कि श्रीकृष्ण ही परब्रह्म है 'परब्रह्म तु कृष्णो हि'(सिद्धान्त मुक्तावलली-( ३ )वैष्णव धर्म भक्तिमार्ग है।
भक्ति का सम्बंध हृदय की रागात्मिक वृति से, प्रेम. से है। इसीलिए महर्षि शाण्डिल्य को ईश्वर के प्रति अनुरक्ति अर्थात् उत्कृष्ठ प्रेम मानते हैं और देवर्षि नारद इसे परमात्मा के प्रति परम प्रेमस्वरूपता कहते हैं।
वैष्णव भक्ति का उदय और प्रसार सबसे पहले भगवान् श्रीकृष्ण की जन्मभूमि और लीलास्थली ब्रजमंडल में हुआ
[7/30, 6:16 PM] yogeshrohi📚: एक आभीर कन्या जिसने भीमदवादशी व्रत का पालन किया, और उर्वशी बन गई। (मत्स्य-पुराण 69.59.)
"या तु कल्याणिनी नाम पुरा कल्पेषु पठ्यते। त्वमादिकर्ता भव सौकरेऽस्मिन् कल्पे महावीर वरप्रधान।६९.५९।
यस्याः स्मरन् कीर्तनमप्यशेषं विनष्टपापस्त्रिदशाधिपः स्यात्।६९.६०।
कृत्वा च यामप्सरसामधीशा नर्तकीकृता ह्यन्यभवान्तरेषु।(बद्रिकाान्तिके पद्मसेनाभीरस्य)आभीर कन्यातिकुतूहलेन सैवोर्वशी सम्प्रति नाकपृष्ठे।६९.६१।
जाताथवा विट्कुलोद्भवापि पुलोमकन्या पुरुहूतपत्नी। तत्रापि तस्याः परिचारिकेयं मम प्रिया सम्प्रति सत्यकामा।।६९.६२।।
विवरण:- वीर! तुम्हारे द्वारा इसका अनुष्ठान होनेपर यह व्रत तुम्हारे ही नाम से प्रसिद्ध होगा। इसे लोग भीमद्वादशी' कहेंगे।
यह भीमद्वादशी सब पापोंको नाश करनेवाली और शुभकारिणी होगी।
प्राचीन कल्पोंमें इस व्रतको 'कल्याणिनी व्रत' कहा जाता था। महान् वीरोंमें श्रेष्ठ वीर भीमसेन! इस वाराहकल्पमें तुम इस व्रतके सर्वप्रथम अनुष्ठानकर्ता बनो।
इसका स्मरण और कीर्तनमात्र करनेसे मनुष्यका सारा पाप नष्ट हो जाता है और वह देवताओंका राजा इन्द्र बन जाता है ॥ 51-58 ॥
कालान्तर में एक बद्रिका वन के समीप पद्मसेन अहीर की कन्या ने अत्यन्त कुतूहलवश इस व्रतका अनुष्ठान किया था, जिसके फलस्वरूप वह उर्वशी नर्तकी -अप्सराओं की अधीश्वरी हुई। वही इस समय स्वर्गलोक में उर्वशी नाम से विख्यात है। इसी प्रकार वैश्य कुल में उत्पन्न हुई एक दूसरी कन्या ने भी इस व्रतका अनुष्ठान किया था, जिसके परिणामस्वरूप वह पुलोम (दानव) की पुत्री रूप में उत्पन्न होकर इन्द्र की पत्नी बनी उसके अनुष्ठान काल में जो उसको सेविका थी, वही इस समय मेरी प्रिया सत्यभामा है।
वेदाश्च सर्वशास्त्राणां वरुणो यादसामहम् । उर्वश्यप्सरसामेव समुद्राणां जलार्णवः। ७०।
अनुवाद :- नन्द जी ! को कृष्ण अपने वैष्णव विभूतियों के सन्दर्भ में कहते हैं कि छन्दों में गायत्री, संपूर्ण शास्त्रों में वेद, जलचरों में उनका राजा वरुण, अप्सराओं में उर्वशी, मेरी विभूति हैं इति श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराण श्रीकृष्णजन्मखण्ड उत्तरार्द्ध नारदनां नन्दादि-
णोकप्रमोचनं नाम त्रिसप्ततितमोऽध्यायः।७३।
"कृत्वा च यामप्सरसामधीशा नर्तकीकृता ह्यन्यभवान्तरेषु।
आभीर कन्यातिकुतूहलेन सैवोर्वशी सम्प्रति नाकपृष्ठे।।६९.६१।।
(मत्स्य पुराण अध्याय 69 श्लोक 59)
अनुवाद :-
जन्मान्तर में एक अहीर की कन्या ने अत्यन्त कुतूहलवश इस व्रतका अनुष्ठान किया था, जिसके फलस्वरूप वह स्वर्ग नर्तकी अप्सराओं की अधीश्वरी हुई। वही इस समय स्वर्गलोक में उर्वशी नामसे विख्यात है।५९।
वैष्णव धर्म के प्राचीन संवाहक पुरुरवा - नहुष और ययाति-
पुरुरवा (पुरूरवस) एक प्राचीन राजा का नाम है, जिसने (अहिर्बुध्न्यसंहिता) के अध्याय:- 47 में वर्णित शांति अनुष्ठान किया था, जो पंचरात्र( भागवत/वैष्णव धर्म )की परम्परा से संबंधित है, जो धर्मशास्त्र, अनुष्ठान, प्रतिमा विज्ञान, कथा पौराणिक कथाओं और अन्य से संबंधित है।
तदनुसार, "[यह संस्कार] जब वे संकट में हों तो अत्यंत गौरवशाली संप्रभुओं द्वारा नियोजित किया जाना चाहिए-
,अलर्क, मांधात्र, पुरुरवा, राजोपरिचर, धुंधु, शिबि और श्रुतकीर्तन - पुराने राजाओं ने इसे करने के बाद सार्वभौमिक संप्रभुता प्राप्त की।
वे रोगमुक्त और शत्रुमुक्त हो गये। उनकी प्रसिद्धि दूर-दूर तक फैली हुई थी और वे निर्दोष थे।”
पञ्चरात्र
भागवत धर्म की एक परंपरा का प्रतिनिधित्व करता है जहां विष्णु का सम्मान किया जाता है और उनकी पूजा की जाती है।
वैष्णववाद से संबंधित क्लोज़ले के अनुसार, पंचरात्र साहित्य में कई वैष्णव दर्शनों को समाहित करने वाले विभिन्न आगम और तंत्र शामिल हैं।।
नहुष की पत्नी पार्वती पुत्री अशोक सुन्दरी की जन्म गाथा-
"श्रीदेव्युवाच-
वृक्षस्य कौतुकाद्भावान्मया वै प्रत्ययः कृतः।
सद्यः प्राप्तं फलं भद्रे भवती रूपसम्पदा ।७१।
अशोकसुन्दरी नाम्ना लोके ख्यातिं प्रयास्यसि ।
सर्वसौभाग्यसम्पन्ना मम पुत्री न संशयः ।७२।
सोमवंशेषु विख्यातो यथा देवः पुरन्दरः ।
नहुषोनाम राजेन्द्रस्तव नाथो भविष्यति ।७३।
एवं दत्वा वरं तस्यै जगाम गिरिजा गिरिम् ।
कैलासं शङ्करेणापि मुदा परमया युता। ७४।
अनुवाद:-
श्री देवी (अर्थात पार्वती ) ने अपनी पुत्री अशोक सुन्दरी से कहा :
71-74.-इस कल्पद्रुम के बारे में सच्चाई जानने की जिज्ञासा से मैंने पुत्री तुम्हारे बारे में चिन्तन किया। हे भद्रे!, तुझे फल अर्थात् सौन्दर्य का धन तुरन्त प्राप्त हो जाता है तुम रूप सम्पदा हो। तुम निःसंदेह सर्व सौभाग्य से सम्पन्न मेरी पुत्री हो। तुम संसार में अशोकसुन्दरी के नाम से विख्यात होओंगी । राजाओं के स्वामी सम्राट, नहुष , जो देव इंद्र के समान चन्द्रवँश परिवार में प्रसिद्ध होंगे वे ही , तुम्हारे पति होंगे।
इस प्रकार (अर्थात् पार्वती) ने अशोक सुन्दरी को वरदान दिया और बड़ी खुशी के साथ शंकर के साथ कैलास पर्वत पर चली गईं।
इति श्रीपद्मपुराणे भूमिखण्डे वेनोपाख्याने गुरुतीर्थमाहात्म्ये च्यवनचरित्रे द्व्यधिकशततमोऽध्यायः ।१०२।
वेनोपाख्याने गुरुतीर्थमाहात्म्ये च्यवनचरित्रे द्व्यधिकशततमोऽध्यायः ।१०२।
पुरुरवा पुत्र आयुष को दत्तात्रेय का वरदान कि आयुष के नहुष नाम से विष्णु का अंश- अवतार होगा। नीचे के श्लोकों में यही है।
देववीर्यं सुतेजं च अजेयं देवदानवैः ।
क्षत्रियै राक्षसैर्घोरैर्दानवैः किन्नरैस्तथा ।१३१।
देवब्राह्मणसम्भक्तः प्रजापालो विशेषतः ।
यज्वा दानपतिः शूरः शरणागतवत्सलः ।१३२।
दाता भोक्ता महात्मा च वेदशास्त्रेषु पण्डितः ।
धनुर्वेदेषु निपुणः शास्त्रेषु च परायणः ।१३३।
अनाहतमतिर्धीरः सङ्ग्रामेष्वपराजितः ।
एवं गुणः सुरूपश्च यस्माद्वंशः प्रसूयते ।१३४।
देहि पुत्रं महाभाग ममवंशप्रधारकम् ।
यदि चापि वरो देयस्त्वया मे कृपया विभो ।१३५।
अनुवाद :- सम्राट आयुष दत्तात्रेय से कहते हैं कि हे भगवन ् यदि आप मुझे वर देना चाहते हो तो वर दो ।१३५।
"दत्तात्रेय उवाच-
एवमस्तु महाभाग तव पुत्रो भविष्यति ।
गृहे वंशकरः पुण्यः सर्वजीवदयाकरः ।१३६।
अनुवाद :- दत्तात्रेय ने कहा - एसा ही हो
तेरे घर में सभी जीवों पर दया करनेवाला पुण्य कर और भाग्यशाली पुत्र होगा।१३६।
एभिर्गुणैस्तु संयुक्तो वैष्णवांशेन संयुतः ।***
राजा च सार्वभौमश्च इन्द्रतुल्यो नरेश्वरः ।१३७।
अनुवाद:-
इन सभी गुणों से संयुक्त विष्णु के अंश से युक्त
सार्वभौमिक राजा इन्द्र के तुल्य होगा। १३७।
एवं खलु वरं दत्वा ददौ फलमनुत्तमम् ।
भूपमाह महायोगी सुभार्यायै प्रदीयताम् ।१३८।
एवमुक्त्वा विसृज्यैव तमायुं प्रणतं पुरः ।
आशीर्भिरभिनंद्यैव अन्तर्द्धानमधीयत ।१३९।
प्रसंग-
प्रसंग-
एक बार दत्तात्रेय की सेवा करते करते आयुष को जब कई दिनों का लंबा समय बीत गया, तो उस योगी दत्तात्रेय ने उन्मत्त हालत में राजा से कहा: हे राजन् “जैसा मैं तुमसे कहता हूं वैसा ही करो। मुझे प्याले में दाखमधु दो; और मांस का भोजन जो पक गया है उसे दो।” उनके इन शब्दों को सुनकर, पृथ्वी के स्वामी आयुष ने उत्सुक होकर, तुरन्त एक प्याले में शराब ली, और तुरंत अपने हाथ से अच्छी तरह से पका हुआ मांस काट लिया, और, राजा ने उसे दत्तात्रेय को दे दिया। वह श्रेष्ठ मुनि मन में प्रसन्न हो गये। (आयुष की) भक्ति, पराक्रम और गुरु के प्रति महान सेवा को देखकर, उन्होंने राजाओं के भी राजा उस विनम्र आयुष से कहा:
129. “हे राजन, आपका कल्याण हो, ऐसा वर मांगो जो पृथ्वी पर प्राप्त करना कठिन हो।” अब मैं तुम्हें वह सब कुछ दूँगा जो तुम चाहते हो।”
राजा ने कहा :
130-135. हे मुनिश्रेष्ठ, आप मुझ पर दया करके सचमुच वरदान दे रहे हैं। तो मुझे सद् गुणों से संपन्न, सर्वज्ञ, , देवताओं की शक्ति से युक्त और देवताओं और दैत्यों, क्षत्रियों , दिग्गजों, भयंकर राक्षसों और किन्नरों से अजेय पुत्र दीजिए । (वह केवल ) देवताओं और ब्राह्मणों के प्रति समर्पित होना चाहिए, और (उसे) विशेष रूप से अपनी प्रजा की देखभाल करने वाला , त्यागी, दान का स्वामी (अर्थात् सर्वश्रेष्ठ दाता), शूरवीर, अपने आश्रय पाने वालों के प्रति स्नेही, दाता, भोक्ता, उदार और वेदों तथा पवित्र ग्रंथों का ज्ञाता, धनुर्वेद (अर्थात धनुर्विद्या) में कुशल होना चाहिए। और पवित्र उपदेशों में पारंगत हैं। उसकी बुद्धि (होनी चाहिए) और वह अजेय; बहादुर और युद्धों में अपराजित होना वाला हो। उसमें ऐसे गुण होने चाहिए, वह सुंदर होना चाहिए और ऐसा होना चाहिए जिससे वंश आगे बढ़े। हे महामहिम, यदि आप कृपा करके मुझे एक वरदान देना चाहते हैं, तो हे प्रभु, मुझे मेरे परिवार का भरण-पोषण करने वाला (ऐसा) पुत्र अवश्य दीजिए।
दत्तात्रेय ने कहा :
136-138- ऐसा ही होगा, हे गौरवशाली राजी! आपके महल में एक पुत्र होगा, जो मेधावी होगा, आपके वंश को कायम रखेगा और सभी जीवित प्राणियों पर दया करेगा। वह सभी सद्गुणों और विष्णु के अंश से संपन्न होगा। वह, मनुष्यों का स्वामी, इंद्र के बराबर एक संप्रभु सम्राट होगा।
इस प्रकार उसे वरदान देने के बाद, महान ध्यानी योगी दत्तात्रेय ने राजा को एक उत्कृष्ट फल दिया और उससे कहा: "इसे अपनी पत्नी को देना।" इतना कहकर, और उस आयुस् को, जो उसके सामने नतमस्तक हुआ था, दत्तात्रेय उसे आशीर्वाद देकर , वह गायब हो गये।
इति श्रीपद्मपुराणे भूमिखण्डे वेनोपाख्याने गुरुतीर्थमाहात्म्ये च्यवनचरित्रे त्र्यधिकशततमोऽध्यायः ।१०३।
नहुष चन्द्रवंश का एक प्रसिद्ध राजा था। वह सम्राट आयुष् के पुत्र थे। एक समय तो वह इंद्र भी बन गया थे। अंत में अगस्त्य ऋषि ने उन्हें सर्प बनने का श्राप दे दिया।
परिवार
पिता: आयुष्
माता : इन्दुमती
भाई: क्षत्रियवृद्ध, राभ, अनैना
पत्नी: अशोकसुन्दरी
पुत्र : याति, ययाति , संयाति, अयाति, वियाति, कृति
(नह्यति सर्व्वाणि भूतानि माययेति - जो माया द्वाराजगत के सभी प्राणियों को बाँधता है वह विष्णु नहुष हैं।
(महाभारते ।१३।१४९।४७। “
परन्तु पद्मपुराण भूमि-खण्ड में नहुष शब्द की व्युत्पत्ति {नञ्+ हुष्+घञ्}=नहुष: जो कभी पराजित न हो।
नहुष को स्वर्ग में प्रवेश करने की अनुमति दी गई क्योंकि उसने वैष्णव यज्ञ करके खुद को शुद्ध कर लिया था।
(महाभारत, वन पर्व, अध्याय 257, श्लोक 5)।
महाभारत, सभा पर्व, अध्याय 8, श्लोक 8
में कहा गया है कि नहुष, मृत्यु के बाद, राजा यम (मृत्यु के देवता) के महल में रहते है।
(9) ऋग्वेद , मण्डल 1, अनुवाक 7, सूक्त 31 की 11वीं ऋचा में पुरुरवा के पुत्र आयुस् वर्णन है और उसके भी पुत्र नहुष के इन्द्र बनने का उल्लेख मिलता है।
त्वामग्ने प्रथममायुमायवे देवा अकृण्वन्नहुषस्य विश्पतिम् ।
इळामकृण्वन्मनुषस्य शासनीं पितुर्यत्पुत्रो ममकस्य जायते ॥११॥
-हे (अग्ने) तुम ! (देवाः) देवों ने (नहुषस्य) पुरुरवा के पौत्र की (आयवे) आयुस् के लिये इस (इळाम्) वाणी को (अकृण्वन्) प्रकाशित किया तथा (मनुष्यस्य) मनुष्यमात्र की (शासनीम्) सत्य शिक्षा को (अकृण्वन्) प्रकाशित किया और (यत्) जैसे (ममकस्य) हम लोगों के (पितुः) पिता का (पुत्रः) (जायते) उत्पन्न होता है।॥ ११ ॥
सायण की टिप्पणी: ऋग्वेद-भाष्य
नहुष पुरुरवा के पुत्र 'आयुष- का पुत्र था , जिसे इंद्र के रूप में स्वर्ग में पदोन्नत किया गया था । इला( पृथ्वी - गाय) यज्ञ करने के पहले नियमों को साधन बनाती है, इसलिए वह शासनि = धर्मोपदेशकर्तृ, कर्तव्य में वाद्य कर्म की दाता है।
[7/31, 12:54 PM] yogeshrohi📚: "अध्याय-चतुर्थ• ★
(सृष्टि सर्जन खण्ड)
पुरुरवा के ज्येष्ठ पुत्र आयुष और आयुष पुत्र नहुष का वैष्णव धर्म के उत्थान में योगदान करना-व स्वयं भगवान विष्णु का नहुष के रूप में गोपों में अंशावतार लेना" तथा यदु का वैष्णव धर्म के प्रचार -प्रसार के लिए लोक भ्रमण और गोपालन करना"
पुरुरवा के ज्येष्ठ पुत्र आयुष थे जो गोप जाति में उत्पन्न होकर वैष्णव धर्म का संसार में प्रचार प्रसार करने वाले हुए, जिसके वैष्णव धर्म के संसार में प्रचार का वर्णन पद्मपुराण के भूमि- खण्ड में विस्तृत रूप से दिया गया ।
पद्म पुराण के उन अध्यायों को पुस्तक में अध्याय के ( श्रीपद्मपुराणे भूमिखण्डे वेनोपाख्याने गुरुतीर्थमाहात्म्ये च्यवनचरित्रे द्व्यधिकशततमोऽध्यायः ।१०२। नामक प्रकरण में समायोजित किया गया ।
फिर इसी गोप आयुष से वैष्णव वंश परम्परा आगे चली आयुष और उनकी पत्नी इन्दुमती से कालान्तर में अनेक सन्तानें उत्पन्न हुईं जो वैष्णव धर्म का प्रचान करने वाली हुईं।
पुरुरवा और उर्वशी दोनों ही आभीर (गोष:) घोष जाति से सम्बन्धित थे। जिनके विस्तृत साक्ष्य यथा स्थान हम आगे देंगे।
पुरुरवा के छह पुत्रों में से एक सबसे बड़ा आयुष था, आयुष का ही ज्येष्ठ पुत्र नहुष था।
नहुष की माता इन्दुमती स्वर्भानु गोप की पुत्री थी परन्तु कुछ परवर्ती पुराण स्वर्भानु नामक दानव को इन्दुमती का पिता वर्णन करते हैं जो सत्य नहीं है । नहुष के अन्य कुल चार भाई क्षत्रवृद्ध (वृद्धशर्मन्), रम्भ, रजि और अनेनस् (विषाप्मन्) थे , जो वैष्णव धर्म का पालन करते थे।।
कुछ पुराणों में 'आयुष और 'नहुष तथा 'ययाति की सन्तानों में कुछ भिन्न नाम भी मिलते हैं। जैसे पद्मपुराण भूमिखण्ड के अनुसार
आयु का विवाह स्वर्भानु की पुत्री इन्दुमती से हुआ था परन्तु इन्दुमती का अन्य नाम मत्स्यपुराण अग्निपुराण लिंग पुराण आदि में "प्रभा" भी मिलता है। इन्दुमती से आयुष के पाँच पुत्र हुए- नहुष, क्षत्रवृत (वृद्धशर्मा), राजभ (गय), रजि, अनेना।
प्रथम पुत्र नहुष का विवाह पार्वती की पुत्री अशोकसुन्दरी (विरजा) से हुआ था। विरजा नाम सूर्यपुराण के सृष्टि निर्माण खण्ड में तथा लिंगपुराण में मिलता है। परन्तु अशोक सुन्दरी ही अधिक उपयुक्त है। नहुष के अशोक सुन्दरी में अनेक पुत्र हुए जिसमें- सम्राट नहुष के छह पुत्र थे, जिनके नाम यति, ययाति, संयाति, अयाति, वियाति और(कृति) (ध्रुव) थे। (भागवत पुराण 9.17.1-3 , 9.18.1
ययाति, संयाति, अयाति, अयति और ध्रुव( कृति) प्रमुख थे। इन पुत्रों में यति और ययाति प्रिय थे।
पद्मपुराण भूमिखण्ड के अनुसार नहुष की पत्नी अशोक सुन्दरी पार्वती और शिव की पुत्री थी। जिससे ययाति आदि पुत्रों की उत्पत्ति हुई है।
सम्राट नहुष के छह पुत्र थे, जिनके नाम यति, ययाति, संयाति, अयाति, वियाति और कृति थे। (भागवत पुराण 9.17.1-3 , 9.18.1
नीचे लिंगपुराण में पुरुरवा के आयु: मायु: अमायु: विश्वायु: श्रुतायु: शतायु: और दिव्य ये सात पुत्र बताये हैं।
और आयुष की पत्नी पद्मपुराण भूमिखण्ड में इन्दुमती नाम से है और लिंगपुराण में स्वर्भानु की पुत्री प्रभा के नाम से है। लिंगपुराण में नहुष की पत्नी पितृकन्या विरजा को बताया है। जबकि पद्मपुराण में पार्वती पुत्री अशोक सुन्दरी को बताया है।
विशेष:- विरजा एक गोलोक की गोपी है और स्वर्भानु गोलोक के गोप हैं। जिनकी पुत्री प्रभा है। वही स्वर्भानु गोप जाति में समयानुसार अवतरण लेते है।
नहुष और ययाति का गोपालक होना -और
नहुष का एक गौ के मोल पर च्यवन मुनि को खरीदने का महाभारत में प्राचीन प्रसंग है।
महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 51 में नहुष का एक गौ के मोल पर च्यवन मुनि को खरीदने का वर्णन हुआ है।
सन्दर्भ:-
महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय -51 श्लोक 1-20
महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 51 श्लोक 21-38
एकाशीतितम (81) अध्याय अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासनपर्व: एकाशीतितम अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद-
गौओं का माहात्म्य तथा व्यासजी के द्वारा शुकदेव से गौओं की, गोलोक की और गोदान की महत्ता का वर्णन करना:-
"युधिष्ठिर उवाच।
पवित्राणां पवित्रं यच्छ्रेष्ठं लोके च यद्भवेत्।
पावनं परमं चैव तन्मे ब्रूहि पितामह।।1
"भीष्म उवाच।
गावो महार्थाः पुण्याश्च तारयन्ति च मानवान्।
धारयन्ति प्रजाश्चेमा हविषा पयसा तथा।2।
न हि पुण्यतमं किञ्चिद्गोभ्यो भरतसत्तम।
एताः पुण्याः पवित्राश्च त्रिषु लोकेषु सत्तमाः।3।
देवानामुपरिष्टाच्च गावः प्रतिवसन्ति वै।
दत्त्वा चैतास्तारयते यान्ति स्वर्गं मनीषिणः।4।
मान्धाता यौवनाश्वश्च ययातिर्नहुषस्तथा।
गा वै ददन्तः सततं सहस्रशतसम्मिताः।5।
गताः परमकं स्थानं देवैरपि सुदुर्लभम्।
अपि चात्र पुरावृत्तं कथयिष्यामि तेऽनघ।6।
युधिष्ठिर ने कहा- पितामह। संसार में जो वस्तु पवित्रों में भी पवित्र तथा लोक में पवित्र कहकर अनुमोदित एवं परम पावन हो, उसका मुझसे वर्णन कीजिये।
भीष्म जी नें कहा- राजन। गौऐं महान प्रयोजन सिद्ध करने वाली तथा परम पवित्र हैं। ये मनुष्यों को तारने वाली हैं और अपने दूध-घी से प्रजावर्ग के जीवन की रक्षा करती हैं। भरतश्रेष्ठ !गौओ से बढ़कर परम पवित्र दूसरी कोई वस्तु नहीं है। ये पुण्यजनक, पवित्र तथा तीनों लोकों में सर्वश्रेष्ठ है। गौऐं देवताओ से भी ऊपर के लोकों में निवास करती हैं। जो मनीषी पुरुष इनका दान करते हैं, वे अपने-आपको तारते हैं और स्वर्ग में जाते हैं।
युवनाश्व के पुत्र राजा मान्धाता, (सोमवंशी) नहुष और ययाति- ये सदा लाखों गौओं का दान किया करते थे; इससे वह उन उत्तम स्थानों को प्राप्त हुऐ हैं, जो देवताओं के लिये भी अत्यन्त दुर्लभ हैं। अर्थात् गोलोक को चले गये।
महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 81 श्लोक 21-47 में गोलोक का भी वर्णन है।
महाभारत: अनुशासनपर्व: "एकाशीतितमो अध्याय: श्लोक 21-47 का हिन्दी अनुवाद:-
' ययाति का यदु को देवयानी और शर्मिष्ठा को मारने का आदेश देना ,परन्तु यदु द्वारा ऐसा न करने पर ययाति द्वारा यदु को ही शाप देना"
ययाति - बारह यम में से एक का नाम ययाति- जो यज्ञ और दक्षिणा से पैदा हुए माने जाते हैं। जिनके नाम पुराणों में निम्न प्रकार से वर्णित हैं।
१- यदु,२- ययाति, ३-विवध,४- श्रसता,५- मति,६- विभास,७- क्रतु, ८-प्रयाति,९- विश्रुत, १०-द्युति, ११-वायव्या और १२संयम हैं,
ये स्वायंभुव मनु के युग में पैदा हुए थे।
सन्दर्भ-
(1) भागवत-पुराण I. 3. 12; 8. 1. 18.
(2) ब्रह्माण्ड-पुराण द्वितीय। 9. 45; 13. 89-90;
(3)वायु-पुराण 10.20; 31. 3, 6-7.
(4) मत्स्य-पुराण 9. 3; 51. 40;
(5)विष्णु-पुराण I. 7. 21; 12. 12.
बाइबिल के याकूव ( जैकव) - इजराएल से ययाति का साम्य देखें-
"यदुवंश का विवरण
"पिप्पल ने कहा !
1-2. हे ब्राह्मण श्रेष्ठ , जब राजा (ययाति ) ने कामदेव की पुत्री से विवाह किया, तो उनकी दो पूर्व, बहुत शुभ, पत्नियों, अर्थात्। कुलीन देवयानी और वृषपर्वन् की पुत्री शर्मिष्ठा क्या करती हैं? दोनों का सारा वृत्तान्त बताओ।
सुकर्मन ने कहा :
3-9. जब वह राजा कामदेव की पुत्री को अपने घर ले गया, तो वह उच्च विचार वाली देवयानी (उसके साथ) बहुत प्रतिद्वंद्विता करने लगी।"इस कारण उस ययाति ने क्रोध से वशीभूत होकर अपने दो पुत्रों (अर्थात तुरुवसु और यदु )जो देवयानी से उत्पन्न थे उनको श्राप दे दिया।" राजा दूत को बुलाकर उसके द्वारा शर्मिष्ठा से ये शब्द कहे। शर्मिष्ठे देवयानी ने सुंदरता, चमक, दान, सच्चाई और पवित्र व्रत में उसके साथ अश्रुबिन्दुमती के साथ प्रतिस्पर्धा की।तब काम देव की बेटी को उसकी दुष्टता का पता चला। तभी उसने राजा को सारी बात बता दी, हे तब क्रोधित होकर राजा ययाति ने यदु को बुलाया और उनसे कहा: हे यदु ! तुम “जाओ और शर्मिष्ठा और शुक्र की बेटी अपनी माता (देवयानी) को मार डालो ।
हे पुत्र, यदि तुम्हें सुख की परवाह है तो वही करो जो मुझे सबसे प्रिय है।” अपने पिता के ये वचन सुनकर यदु ने पिता से कहा, राजाओं के स्वामी, :
9-14. “हे घमंडी पिता, मैं अपराधबोध से मुक्त होकर इन दोनों माताओं को नहीं मारूंगा।
वेदों के ज्ञाता लोगों ने अपनी माता की हत्या को महापाप बताया है।
इसलिए, हे राजा, मैं इन दोनों माताओं को नहीं मारूंगा। हे राजा, (भले ही) यदि एक माँ, एक बहन या एक बेटी पर सौ दोष लगें, तो उसे कभी भी बेटों या भाइयों द्वारा नहीं मारा जाना चाहिए।
******
यह जानकर, हे महान राजा, मैं (इन) दोनों माताओं को कभी नहीं मारूंगा। उस समय यदु की बातें सुनकर राजा ययाति क्रोधित हो गये।
पृथ्वी के स्वामी ययाति ने तब अपने पुत्र को शाप दिया: और कहा "चूंकि तुमने (मेरे) आदेश का पालन नहीं किया है, तुम एक पापी के समान हो, मेरे शाप से प्रदूषित हो, तुम मातृभक्त ही बने रहो अपनी माँ के अंश का आनन्द लो"।
******************
15-19. अपने पुत्र यदु से इस प्रकार बात करते हुए, पृथ्वी के स्वामी, ययाति, महान प्रतापी राजा, ने अपने पुत्र यदु को शाप दे दिया, और पूरी तरह से विष्णु के प्रति समर्पित न होकर , कामदेव की पुत्री अश्रबिन्दुमती के साथ सुख भोगा।
आकर्षक नेत्रों वाली और सभी अंगों में सुंदर अश्रुबिन्दुमती ने उसके साथ अपनी इच्छानुसार सभी सुंदर भोगों का आनंद लिया।
इस प्रकार उस श्रेष्ठ ययाति ने अपना समय व्यतीत किया। अन्य सभी विषय बिना किसी हानि या बिना बुढ़ापे के थे; सभी लोग पूरी तरह से गौरवशाली विष्णु के ध्यान के प्रति समर्पित थे।
हे महान पिप्पल , सभी लोग प्रसन्न थे और उन्होंने तपस्या, सत्यता और विष्णु के ध्यान के माध्यम से भलाई की।
"पद्म-पुराण सृष्टिखण्ड के अन्तर्गत यदु की वंशावली-
पद्मपुराणम्/खण्डः २ (भूमिखण्डः अध्याय-80)
"कामकन्यां यदा राजा उपयेमे द्विजोत्तम।
किं चक्राते तदा ते द्वे पूर्वभार्ये सुपुण्यके।१।
देवयानी महाभागा शर्मिष्ठा वार्षपर्वणी।
तयोश्चरित्रं तत्सर्वं कथयस्व ममाग्रतः।२।
"सुकर्मोवाच-
यदानीता कामकन्या स्वगृहं तेन भूभुजा ।
अत्यर्थं स्पर्धते सा तु देवयानी मनस्विनी।३।
तस्यार्थे तु सुतौ शप्तौ क्रोधेनाकुलितात्मना।
शर्मिष्ठां च समाहूय शब्दं चक्रे यशस्विनी।४।
रूपेण तेजसा दानैः सत्यपुण्यव्रतैस्तथा ।
शर्मिष्ठा देवयानी च स्पर्धेते स्म तया सह।५।
दुष्टभावं तयोश्चापि साऽज्ञासीत्कामजा तदा।
राज्ञे सर्वं तया विप्र कथितं तत्क्षणादिह।६।
****
अथ क्रुद्धो महाराजः समाहूयाब्रवीद्यदुम् ।
शर्मिष्ठा वध्यतां गत्वा शुक्रपुत्री तथा पुनः।७।
सुप्रियं कुरु मे वत्स यदि श्रेयो हि मन्यसे ।
एवमाकर्ण्य तत्तस्य पितुर्वाक्यं यदुस्तदा ।८।
प्रत्युवाच नृपेंद्रं तं पितरं प्रति मानद ।
नाहं तु घातये तात मातरौ दोषवर्जिते।९।
मातृघाते महादोषः कथितो वेदपण्डितैः।
तस्माद्घातं महाराज एतयोर्न करोम्यहम्।१०।
दोषाणां तु सहस्रेण माता लिप्ता यदा भवेत् ।
भगिनी च महाराज दुहिता च तथा पुनः।११।
पुत्रैर्वा भ्रातृभिश्चैव नैव वध्या भवेत्कदा ।
एवं ज्ञात्वा महाराज मातरौ नैव घातये।१२।
यदोर्वाक्यं तदा श्रुत्वा राजा क्रुद्धो बभूव ह ।
शशाप तं सुतं पश्चाद्ययातिः पृथिवीपतिः।१३।
यस्मादाज्ञाहता त्वद्य त्वया पापि समोपि हि ।
मातुरंशं भजस्व त्वं मच्छापकलुषीकृतः।१४।
एवमुक्त्वा यदुं पुत्रं ययातिः पृथिवीपतिः ।
पुत्रं शप्त्वा महाराजस्तया सार्द्धं महायशाः।१५।
रमते सुखभोगेन विष्णोर्ध्यानेन तत्परः ।
अश्रुबिन्दुमतीसा च तेन सार्द्धं सुलोचना।१६।
बुभुजे चारुसर्वांगी पुण्यान्भोगान्मनोनुगान् ।
एवं कालो गतस्तस्य ययातेस्तु महात्मनः।१७।
अक्षया निर्जराः सर्वा अपरास्तु प्रजास्तथा ।
सर्वे लोका महाभाग विष्णुध्यानपरायणाः।१८।
तपसा सत्यभावेन विष्णोर्ध्यानेन पिप्पल ।
सर्वे लोका महाभाग सुखिनः साधुसेवकाः।१९।
"इति श्रीपद्मपुराणे भूमिखण्डे वेनोपाख्याने मातापितृतीर्थवर्णने ययातिचरित्रेऽशीतितमोऽध्यायः ८०।
अध्याय-(80 )-ययाति के कहने से जब यदु ने अपनी दोंनो माताओं (देवयानी- और शर्मिष्ठा) को मारने से मना कर दिया तब ययाति ने यदु को शाप दिया ।
पिप्पल ने कहा :
1-2. हे ब्राह्मण श्रेष्ठ , जब राजा ( ययाति ) ने कामदेव की पुत्री से विवाह किया, तो उनकी दो पूर्व, बहुत शुभ, पत्नियों, अर्थात्। कुलीन देवयानी और वृषपर्वन् की पुत्री शर्मिष्ठा क्या करती हैं? दोनों का सारा वृत्तान्त बताओ।
सुकर्मन ने कहा :
3-9. जब वह राजा कामदेव की पुत्री को अपने घर ले गया, तो वह उच्च विचार वाली देवयानी (उसके साथ) बहुत प्रतिद्वन्द्विता करने लगी।"उसके लिए उसने क्रोध से वशीभूत होकर अपने दो पुत्रों (अर्थात तुरुवसु और यदु ) को श्राप दे दिया।" प्रसिद्ध व्यक्ति ने शर्मिष्ठा को बुलाकर उससे ये शब्द कहे। शर्मिष्ठा और देवयानी ने सुंदरता, चमक, दान, सच्चाई और पवित्र व्रत में उसके साथ प्रतिस्पर्धा की।तब कामदेव की बेटी को उनकी दुष्टता का पता चला। तभी उसने राजा को सारी बात बता दी, हे ब्राह्मण! तब क्रोधित होकर महान राजा ने यदु को बुलाया और उनसे कहा:
“जाओ और शर्मिष्ठा और शुक्र की बेटी (देवयानी) को मार डालो ।
हे पुत्र, यदि तुम्हें सुख की परवाह है तो वही करो जो मुझे सबसे प्रिय है।” अपने पिता के ये वचन सुनकर यदु ने अपने पिता, राजाओं के स्वामी, को उत्तर दिया:
9-14. “हे घमंडी पिता, मैं अपराधबोध से मुक्त होकर इन दोनों माताओं को नहीं मारूंगा। वेदों के ज्ञाता लोगों ने अपनी माता की हत्या को महापाप बताया है।
इसलिए, हे महान राजा, मैं इन दोनों माताओं को नहीं मारूंगा। हे महान राजा, (भले ही) यदि एक माँ, एक बहन या एक बेटी पर सौ दोष लगें, तो उसे कभी भी बेटों या भाइयों द्वारा नहीं मारा जाना चाहिए।
यह जानकर, हे महान राजा, मैं (इन) दोनों माताओं को कभी नहीं मारूंगा। उस समय यदु की बातें सुनकर राजा ययाति क्रोधित हो गये।
पृथ्वी के स्वामी ययाति ने तब अपने पुत्र को शाप दिया: और कहा "चूंकि तुमने (मेरे) आदेश की अवज्ञा की है, तुम एक पापी के समान हो, मेरे शाप से प्रदूषित हो, तुम मातृभक्त ही बने रहो अपनी माँ के अंश का आनंद लो"।
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15-19. अपने पुत्र यदु से इस प्रकार बात करते हुए, पृथ्वी के स्वामी, ययाति, महान प्रतापी राजा, ने अपने पुत्र यदु को शाप दे दिया, और पूरी तरह से विष्णु के प्रति समर्पित न होकर , कामदेव की पुत्री अश्रबिन्दुमती के साथ सुख भोगा।
आकर्षक नेत्रों वाली और सभी अंगों में सुंदर अश्रुबिन्दुमती ने उसके साथ अपनी इच्छानुसार सभी सुंदर भोगों का आनंद लिया।
इस प्रकार उस श्रेष्ठ ययाति ने अपना समय व्यतीत किया। अन्य सभी विषय बिना किसी हानि या बिना बुढ़ापे के थे; सभी लोग पूरी तरह से गौरवशाली विष्णु के ध्यान के प्रति समर्पित थे। हे महान पिप्पल , सभी लोग प्रसन्न थे और उन्होंने तपस्या, सत्यता और विष्णु के ध्यान के माध्यम से भलाई की।
यदु के चार पुत्र प्रसिद्ध थे- सहस्रजित, क्रोष्टा, नल और रिपु। पद्मपुराण सृष्टिखण्ड अध्याय-(13) में पाँच पुत्र भी बताये गये हैं।
"यदोः पुत्रा बभूवुश्च पञ्च देवसुतोपमाः।।९८।।
सहस्रजित्तथा ज्येष्ठः क्रोष्टा नीलोञ्जिको रघुः।
सहस्रजितो दायादः शतजिन्नाम पार्थिवः।।९९।।
अनुवाद:-यदु के देवों के समान पाँच पुत्र उत्पन्न हुए।98।
सबसे बड़े थे सहस्रजित , फिर क्रोष्ट्रा , नील , अंजिका और रघु ।99।
राजा सहस्रजीत का पुत्र शतजित था।
और शतजित के तीन पुत्र थे- महाहय, वेणुहय और हैहय। हैहय का धर्म, धर्म का नेत्र, नेत्र का कुन्ति, कुन्ति का सोहंजि, सोहंजि का महिष्मान और महिष्मान का पुत्र भद्रसेन हुआ।
श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: त्रयोविंश अध्यायः श्लोक 23-39 का हिन्दी अनुवाद:-
भद्रसेन के दो पुत्र थे- दुर्मद और धनक। धनक के चार पुत्र हुए- कृतवीर्य, कृताग्नि, कृतवर्मा और कृतौजा।
कृतवीर्य का पुत्र अर्जुन था। वह सातों द्वीप का एकछत्र सम्राट् था। उसने भगवान् के अंशावतार श्रीदत्तात्रेय जी से योग विद्या और अणिमा-लघिमा आदि बड़ी-बड़ी सिद्धियाँ प्राप्त की थीं। इसमें सन्देह नहीं कि संसार का कोई भी सम्राट् यज्ञ, दान, तपस्या, योग शस्त्रज्ञान, पराक्रम और विजय आदि गुणों में कृतवीर्य अर्जुन की बराबरी नहीं कर सकेगा।
सहस्रबाहु अर्जुन पचासी हजार वर्ष तक छहों इन्द्रियों से अक्षय विषयों का भोग करता रहा। इस बीच में न तो उसके शरीर का बल ही क्षीण हुआ और न तो कभी उसने यही स्मरण किया कि मेरे धन का नाश हो जायेगा। उसके धन के नाश की तो बात ही क्या है, उसका ऐसा प्रभाव था कि उसके स्मरण से दूसरों का खोया हुआ धन भी मिल जाता था। उसके हजार पुत्रों में से केवल पाँच ही जीवित रहे - जयध्वज, शूरसेन, वृषभ, मधु और ऊर्जित।
जयध्वज के पुत्र का नाम था तालजंघ। तालजंघ के सौ पुत्र हुए। वे ‘तालजंघ’ नामक क्षत्रिय कहलाये। उन सौ पुत्रों में सबसे बड़ा था वीतिहोत्र। वीतिहोत्र का पुत्र मधु हुआ।
मधु के सौ पुत्र थे। उनमें वृष्णि सबसे बड़ा था ।**
(१-मधु पुत्र वृष्णि था)
परीक्षित ! इन्हीं मधु, वृष्णि और यदु के कारण यह वंश माधव, वार्ष्णेय और यादव के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
यदुनन्दन क्रोष्टु के पुत्र का नाम था वृजिनवान। वृजिनवान का पुत्र श्वाहि, श्वाहि का रुशेकु, रुशेकु का चित्ररथ और चित्ररथ के पुत्र का नाम था शशबिन्दु।
शशबिन्दु सम्राट- वह परम योगी, महान् भोगैश्वर्य-सम्पन्न और अत्यन्त पराक्रमी था। वह चौदह रत्नों का स्वामी, चक्रवर्ती और युद्ध में अजेय था।
परम यशस्वी शशबिन्दु की दस हजार पत्नियाँ थीं। उनमें से एक-एक के लाख-लाख सन्तान हुई थीं। इस प्रकार उसके सौ करोड़-एक अरब सन्तानें उत्पन्न हुईं।
उनमें पृथुश्रवा आदि छः पुत्र प्रधान थे। पृथुश्रवा के पुत्र का नाम था धर्म। धर्म का पुत्र उशना हुआ। उसने सौ अश्वमेध यज्ञ किये थे।
उशना का पुत्र हुआ रुचक। रुचक के पाँच पुत्र हुए, उनके नाम सुनो।
पुरुजित्, रुक्म, रुक्मेषु, पृथु और ज्यामघ। ज्यामघ की पत्नी का नाम था शैब्या। ज्यामघ के बहुत दिनों तक कोई सन्तान न हुई, परन्तु उसने अपनी पत्नी के भय से दूसरा विवाह नहीं किया।
एक बार वह अपने शत्रु के घर से भोज्या नाम की कन्या हर लाया। जब शैब्या ने पति के रथ पर उस कन्या को देखा, तब वह चिढ़कर अपने पति से बोली- ‘कपटी! मेरे बैठने की जगह पर आज किसे बैठाकर लिये आ रहे हो ?’ ज्यामघ ने कहा- ‘यह तो तुम्हारी पुत्रवधू है।’ शैव्या ने मुस्कराकर अपने पति से कहा- ‘मैं तो जन्म से ही बाँझ हूँ और मेरी कोई सौत भी नहीं है।
फिर यह मेरी पुत्रवधू कैसे हो सकती है?’ ज्यामघ ने कहा- ‘रानी! तुमको जो पुत्र होगा, उसकी ये पत्नी बनेगी’। राजा ज्यामघ के इस वचन का विश्वेदेव और पितरों ने अनुमोदन किया। फिर क्या था, समय पर शैब्या को गर्भ रहा और उसने बड़ा ही सुन्दर बालक उत्पन्न किया। उसका नाम हुआ विदर्भ।
उसी ने शैव्या( चेैत्रा) की साध्वी पुत्रवधू भोज्या से विवाह किया।
देवीभागवतपुराणम्/स्कन्धः (९) अध्यायः
< देवीभागवतपुराणम् स्कन्धः ०९
पुरा गोलोकगोपी त्वं गोपीनां प्रवरा वरा ॥७१॥
राधासमा तत्सखी च श्रीकृष्णप्रेयसी प्रिया ।
कार्तिकीपूर्णिमायां तु रासे राधामहोत्सवे ॥ ७२ ॥
आविर्भूता दक्षिणांसाल्लक्ष्म्याश्च तेन दक्षिणा ।
पुरा त्वं च सुशीलाख्या ख्याता शीलेन शोभने ॥ ७३ ॥
लक्ष्मीदक्षांसभागात्त्वं राधाशापाच्च दक्षिणा ।
गोलोकात्त्वं परिभ्रष्टा मम भाग्यादुपस्थिता ॥७४॥
स्कन्ध (9)- अध्याय- (45) -
"भगवती दक्षिणाका उपाख्यान"
श्रीनारायण बोले- [हे नारद !] मैंने भगवती स्वाहा तथा स्वधाका अत्यन्त मधुर तथा कल्याणकारी उपाख्यान बता दिया।
अब मैं भगवती दक्षिणा का आख्यान कह रहा हूँ, सावधान होकर सुनिये॥1॥
प्राचीनकाल में गोलोक में भगवान् श्रीकृष्ण की प्रेयसी सुशीला नामक एक गोपी थी। परम धन्य, मान्य तथा मनोहर वह गोपी भगवती राधा की प्रधान सखी थी। वह अत्यन्त सुन्दर, लक्ष्मीके लक्षणों से सम्पन्न, सौभाग्यवती, उज्ज्वल दाँतोंवाली, परम पतिव्रता साध्वी, विद्या गुण तथा रूपसे अत्यधिक सम्पन्न थी।
वह विविध कलाओं में निपुण, कोमल अंगोंवाली, आकर्षक, कमलनयनी, श्यामा, सुन्दर नितम्ब तथा वक्षःस्थलसे सुशोभित होती हुई "वट वृक्षों से घिरी रहती थी। उसका मुखमण्डल मन्द मुसकान तथा प्रसन्नतासे युक्त था, वह रत्नमय अलंकारों से सुशोभित थी, उसके शरीर की कान्ति श्वेत चम्पाके समान थी, उसके ओष्ठ बिम्बाफल के समान रक्तवर्ण के थे, मृगके सदृश उसके नेत्र थे, कामिनी तथा हंस के समान गतिवाली वह कामशास्त्र में निपुण थी। भगवान् श्रीकृष्ण की प्रियभामिनी वह सुशीला उनके भावों को भलीभाँति जानती थी तथा उनके भावों से सदा अनुरक्त रहती थी।
रसज्ञानसे परिपूर्ण, रासक्रीडा की रसिक तथा रासेश्वर श्रीकृष्णके प्रेमरसहेतु लालायित रहनेवाली वह गोपी सुशीला एक बार राधा के सामने ही भगवान् श्रीकृष्ण के वाम अंक में बैठ गयी ॥2-7॥
तब मधुसूदन श्रीकृष्णने गोपिकाओं में परम श्रेष्ठ राधा की ओर देखकर भयभीत हो अपना मुख नीचे कर लिया। उस समय भामिनी राधा का मुख लाल हो गया और उनके नेत्र रक्तकमल के समान हो गये। क्रोध से उनके अंग काँप रहे थे तथा ओठ प्रस्फुरित हो रहे थे। तब उन राधा को बड़े वेग से आती हुई देखकर उनके विरोध से अत्यन्त डरे हुए भगवान् श्रीकृष्ण अन्तर्धान हो गये ॥8-10॥
कान्तिमान् शान्त स्वभाव वाले, सत्त्वगुणसम्पन्न तथा सुन्दर विग्रहवाले भगवान् श्रीकृष्ण को अन्तर्हित हुआ देखकर सुशीला आदि गोपियाँ भय से काँपने लगीं।
श्रीकृष्णको अन्तर्धान हुआ देखकर वे भयभीत लाखों-करोड़ों गोपियाँ भक्तिपूर्वक कन्धा झुकाकर और दोनों हाथ जोड़कर 'रक्षा कीजिये- रक्षा कीजिये' ऐसा भगवती राधा से बार-बार कहने लगीं और उन राधा के चरणकमल में भयपूर्वक शरणागत हो गयीं। हे नारद ! वहाँ के तीन लाख करोड़ सुदामा आदि गोप भी भयभीत होकर उन राधाके चरण कमल की शरण में गये ॥11-14 ॥
परमेश्वरी राधाने अपने कान्त श्रीकृष्ण को अन्तर्धान तथा सहचरी सुशीला( दक्षिणा) को पलायन करते देखकर उन्हें शाप दे दिया कि यदि गोपिका सुशीला आज से गोलोक में आयेगी, तो वह आते ही भस्मसात् हो जायगी ।। 15-16
ऐसा कहकर देवदेवेश्वरी रासेश्वरी राधा रोषपूर्वक रासमण्डलके मध्य रामेश्वर भगवान् श्रीकृष्णको पुकारने लगीं ॥ 17 ॥
श्रीकृष्णको समक्ष न देखकर राधिकाजी विरहसे व्याकुल हो गयीं। उन परम साध्वीको एक-एक क्षण करोड़ों युगों के समान प्रतीत होने लगा। उन्होंने श्रीकृष्णसे प्रार्थना की- हे कृष्ण ! हे प्राणनाथ ! हे ईश! आ जाइये। हे प्राणोंसे अधिक प्रिय तथा प्राणके अधिष्ठाता देवेश्वर आपके बिना मेरे प्राण निकल रहे हैं ।। 18-19 ॥
पतिके सौभाग्यसे स्त्रियोंका स्वाभिमान दिन प्रतिदिन बढ़ता रहता है और उन्हें महान् सुख प्राप्त होता है। अतः स्त्रीको सदा धर्मपूर्वक पतिकी सेवा करनी चाहिये ॥20॥
कुलीन स्त्रियोंके लिये पति ही बन्धु, अधिदेवता, आश्रय, परम सम्पत्तिस्वरूप तथा भोग प्रदान करनेवाला साक्षात् विग्रह है ॥21॥
वही स्त्रीके लिये धर्म, सुख, निरन्तर प्रीति, सदा शान्ति तथा सम्मान प्रदान करनेवाला; आदरसे देदीप्यमान होनेवाला और मानभंग भी करनेवाला है। पति हो स्वीके लिये परम सार है और बन्धुओंमें बन्धुभावको बढ़ानेवाला है।
समस्त बन्धु बान्धवोंमें पतिके समान कोई बन्धु दिखायी नहीं देता ॥22-23॥
वह स्त्री का भरण करनेके कारण 'भर्ता', पालन करनेके कारण 'पति', उसके शरीरका शासक होनेके कारण 'स्वामी' तथा उसकी कामनाएँ पूर्ण करनेके कारण 'कान्त' कहा जाता है। वह सुखकी वृद्धि करनेसे 'बन्धु', प्रीति प्रदान करनेसे 'प्रिय', ऐश्वर्य प्रदान करनेसे 'ईश', प्राणका स्वामी होनेसे 'प्राणनायक' और रतिसुख प्रदान करनेसे 'रमण' कहा गया है। स्त्रियोंके लिये पतिसे बढ़कर दूसरा कोई प्रिय नहीं है। पतिके शुक्रसे पुत्र उत्पन्न होता है, इसलिये वह प्रिय होता है ।24-26 ll
उत्तम कुलमें उत्पन्न स्त्रियोंके लिये उनका पति सदा सौ पुत्रोंसे भी अधिक प्रिय होता है। जो असत् कुलमें उत्पन्न स्त्री है, वह पतिके महत्त्वको समझने में सर्वथा असमर्थ रहती है ॥27 ॥
सभी तीर्थोंमें स्नान, सम्पूर्ण यज्ञोंमें दक्षिणादान, पृथ्वीकी प्रदक्षिणा, सम्पूर्ण तप, सभी प्रकारके व्रत और जो महादान आदि हैं, जो-जो पुण्यप्रद उपवास आदि प्रसिद्ध हैं और गुरुसेवा, विप्रसेवा तथा देव पूजन आदि जो भी शुभ कृत्य हैं, वे सब पतिके चरणकी सेवाकी सोलहवीं कलाके भी बराबर नहीं हैं ॥ 28-30 ॥
गुरु, ब्राह्मण और देवता-इन सभीकी अपेक्षा स्त्रीके लिये पति ही श्रेष्ठ है। जिस प्रकार पुरुषोंके लिये विद्याका दान करनेवाला गुरु श्रेष्ठ है; उसी प्रकार कुलीन स्त्रियोंके लिये पति श्रेष्ठ है ॥31॥
जिनके अनुग्रह से मैं लाखों-करोड़ गोपियों, गोपों, असंख्य ब्रह्माण्डों, वहाँके निवासियों तथा अखिल ब्रह्माण्ड- गोलककी ईश्वरी बनी हूँ, अपने उन कान्त श्रीकृष्णका रहस्य मैं नहीं जानती। स्त्रियोंका स्वभाव अत्यन्त दुर्लघ्य है ।।32-33 ॥
ऐसा कहकर श्रीराधा भक्तिपूर्वक श्रीकृष्णका ध्यान करने लगीं। विरहसे दुःखित तथा दीन वे राधिका प्रेमके कारण रो रही थीं और 'हे नाथ! हे रमण ! मुझे दर्शन दीजिये'- ऐसा कह रही थीं ॥ 343 ॥
हे मुने ! इसके बाद राधाके द्वारा गोलोक से च्युत सुशीला नामक वह गोपी दक्षिणा नामसे प्रसिद्ध हुई। दीर्घकालतक तपस्या करके उसने भगवती लक्ष्मीके विग्रहमें स्थान प्राप्त कर लिया।
अत्यन्त दुष्कर यज्ञ करनेपर भी जब देवताओंको यज्ञफल नहीं प्राप्त हुआ, तब वे उदास होकर ब्रह्माजीके पास गये ॥35-36॥
देवताओंकी प्रार्थना सुनकर ब्रह्माजीने बहुत समयतक भक्तिपूर्वक जगत्पति भगवान् श्रीहरिका ध्यान किया।
अन्तमें उन्हें प्रत्यादेश प्राप्त हुआ भगवान नारायणने महालक्ष्मी के विग्रहसे मर्त्यलक्ष्मी को प्रकट करके और उसका नाम दक्षिणा रखकर ब्रह्माजीको सौंप दिया।
ब्रह्माजी ने भी यज्ञकार्यों की सम्पन्नता के लिये उन देवी दक्षिणाको यज्ञपुरुष को समर्पित कर दिया। तब यज्ञपुरुष ने प्रसन्नतापूर्वक उन देवी दक्षिणा की विधिवत् पूजा करके उनकी स्तुति की।37-39॥
उन भगवती दक्षिणाका वर्ण तपाये हुए सोनेके समान था; उनके विग्रहकी कान्ति करोड़ों चन्द्रों के तुल्य थी; वे अत्यन्त कमनीय, सुन्दर तथा मनोहर थीं; उनका मुख कमलके समान था; उनके अंग अत्यन्त कोमल थे; कमलके समान उनके विशाल नेत्र थे कमलके आसन पर पूजित होने वाली वे भगवती कमला के शरीर से प्रकट हुई थीं, उन्होंने अग्नि के समान शुद्ध वस्त्र धारण कर रखे थे; उन साध्वीके ओष्ठ बिम्बाफल के समान थे; उनके दाँत अत्यन्त सुन्दर थे; उन्होंने अपने केशपाश में मालती के पुष्पों की माला धारण कर रखी थी; उनके प्रसन्नतायुक्त मुखमण्डल पर मन्द मुस्कान व्याप्त थी; वे रत्नमय आभूषणों से अलंकृत थीं; उनका वेष अत्यन्त सुन्दर था वे विधिवत् स्नान किये हुए थीं वे मुनियोंके भी मनको मोह लेती थीं कस्तूरी मिश्रित सुगन्धित चन्दनसे बिन्दी के रूप में अर्धचन्द्राकार तिलक उनके ललाट पर सुशोभित हो रहा था; केशोंके नीचे का भाग (सीमन्त) सिन्दूर की छोटी-छोटी बिन्दियों से अत्यन्त प्रकाशमान था। सुन्दर नितम्ब, बृहत् श्रोणी तथा विशाल वक्षःस्थलसे वे शोभित हो रही थीं; उनका विग्रह कामदेव का आधारस्वरूप था और वे कामदेव के बाण से अत्यन्त व्यथित थीं ऐसी उन रमणीया दक्षिणा को देखकर यज्ञपुरुष मूच्छित हो गये।
पुनः ब्रह्माजीके कथनानुसार उन्होंने भगवती दक्षिणा को पत्नीरूप में स्वीकार कर लिया ॥40-46॥
यदि यज्ञ के समय कर्ता के द्वारा संकल्पित दान नहीं दिया गया और प्रतिग्रह लेने वाले ने उसे माँगा भी नहीं, तो वे दोनों ही (यजमान और ब्राह्मण) नरक में उसी प्रकार गिरते हैं, जैसे रस्सी टूट जानेपर घड़ा ॥60॥
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श्रीनारायण बोले- हे मुने! दक्षिणाविहीन कर्म का फल हो ही कहाँ सकता है? दक्षिणायुक्त कर्म में ही फल प्रदान का सामर्थ्य होता है।
हे मुने ! जो कर्म बिना दक्षिणाके सम्पन्न होता है, उसके फलका भोग राजा बलि करते हैं। हे मुने। पूर्वकाल भगवान् वामन राजा बलिके लिये वैसा कर्म अर्पण कर चुके हैं ।।65-66॥
[हे नारद।] भगवती दक्षिणा का जो भी ध्यान, स्तोत्र तथा पूजाविधि का क्रम आदि है, वह सब कण्वशाखामें वर्णित है, अब मैं उसे बताऊँगा, ध्यानपूर्वक सुनिये ॥ 693 ॥
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पूर्वसमय में कर्म का फल प्रदान करने में दक्ष उन भगवती दक्षिणा को प्राप्त करके वे यज्ञपुरुष कामपीड़ित होकर उनके स्वरूप पर मोहित हो गये और उनकी स्तुति करने लगे ॥70॥
यज्ञ बोले- [ हे महाभागे ! ] तुम पूर्वकाल में गोलोक की एक गोपी थी और गोपियों में परम श्रेष्ठ थीं। श्रीकृष्ण तुमसे अत्यधिक प्रेम करते थे और तुम राधाके समान ही उन श्रीकृष्णकी प्रिय सखी और पत्नी थीं। ll793॥
एक बार कार्तिक पूर्णिमा को राधामहोत्सवके अवसरपर रासलीला में तुम भगवती लक्ष्मी के दक्षिणांश से प्रकट हो गयी थी, उसी कारण तुम्हारा नाम दक्षिणा पड़ गया।
हे शोभने !
इससे भी पहले अपने उत्तम शील के कारण तुम सुशीला नाम से प्रसिद्ध थीं तुम भगवती राधिका के शापसे गोलोकसे च्युत होकर और पुनः देवी लक्ष्मी के दक्षिणांश से आविर्भूत हो अब देवी दक्षिणा के रूपमें मेरे सौभाग्य से मुझे प्राप्त हुई हो। हे महाभागे ! मुझपर कृपा करो
और मुझे ही अपना स्वामी बना लो ॥72–74॥
तुम्हीं यज्ञ करने वालों को उनके कर्मों का सदा फल प्रदान करनेवाली देवी हो। तुम्हारे बिना सम्पूर्ण प्राणियों का सारा कर्म निष्फल हो जाता है और तुम्हारे बिना अनुष्ठान कर्ताओं का कर्म शोभा नहीं पाता है ll75-76॥
ब्रह्मा, विष्णु, महेश, दिक्पाल आदि भी तुम्हारे बिना प्राणियों को कर्म का फल प्रदान करने में समर्थ नहीं हैं ॥77॥
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ब्रह्मा स्वयं कर्मरूप हैं, महेश्वर फलरूप हैं और मैं
विष्णु यज्ञरूप हूँ, इन सबमें तुम ही साररूपा हो॥ 78॥
"फल प्रदान करने वाले परब्रह्म, गुणरहित पराप्रकृति तथा स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण तुम्हारे ही सहयोग से शक्तिमान् हैं ।।79॥
हे कान्ते ! जन्म-जन्मान्तर में तुम्हीं सदा मेरी | शक्ति रही हो। हे वरानने ! तुम्हारे साथ रहकर ही मैं सारा कर्म करने में समर्थ हूँ ॥ 80 ॥
ऐसा कहकर यज्ञ के अधिष्ठातृदेवता भगवान् यज्ञ- पुरुष विष्णु दक्षिणा के समक्ष स्थित हो गये। तब भगवती ! कमला की कलास्वरूपिणी देवी दक्षिणा प्रसन्न हो गयीं और उन्होंने यज्ञपुरुषका वरण कर लिया ।81।
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जो मनुष्य यज्ञ के अवसर पर भगवती दक्षिणा के इस स्तोत्र का पाठ करता है, वह सम्पूर्ण यज्ञों का फल प्राप्त कर लेता है; इसमें संशय नहीं है॥82॥
यह स्तोत्र मैंने कह दिया, अब ध्यान और पूजा-विधि सुनो। शालग्राममें अथवा कलश पर भगवती दक्षिणा का आवाहन करके विद्वान् को उनकी पूजा करनी चाहिये ॥ 88 ॥
[उनका ध्यान इस प्रकार करना चाहिये-] भगवती लक्ष्मी के दाहिने स्कन्ध से आविर्भूत होनेके कारण दक्षिणा नामसे विख्यात ये देवी साक्षात् कमलाकी कला हैं, सभी कर्मों में अत्यन्त प्रवीण( दक्ष)भी हैं।
सम्पूर्ण कर्मो का फल प्रदान करने वाली हैं, भगवान् विष्णुकी शक्तिस्वरूपा है, सबके लिए वन्दनीय पूजनीय, मंगलमयी, शुद्धिदायिनी, शुद्धिस्वरूपिणी, शोभनशील वाली और शुभदायिनी हैं- ऐसी देवी की मैं आराधना करता हूँ ॥89-90।।
हे नारद ! इस प्रकार ध्यान करके विद्वान् पुरुष को मूलमन्त्र से इन वरदायिनी देवी की पूजा करनी चाहिये। वेदोक्त मन्त्रके द्वारा देवी दक्षिणा को पाद्य आदि अर्पण करके 'ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं दक्षिणायै स्वाहा' - इस मूल मन्त्र से बुद्धिमान् व्यक्ति को सभी प्राणियों द्वारा पूजित भगवती दक्षिणा की भक्तिपूर्वक विधिवत् पूजा करनी चाहिये ॥91-92।।
सन्दर्भ:-
(देवी भागवत पुराण नवम स्कन्ध )
विशेष—पुराणों में दक्षिणा को यज्ञ की पत्नी बतलाया गया है और यज्ञ स्वयं श्रीहरि का स्वरूप है-।
ब्रह्मवैवर्त्त पुराण में लिखा हैं कि कार्तिकी पूर्णिमा की रात को जब एक बार रास महोत्सव हुआ उसी में श्रीकृष्ण के दक्षिणांश से दक्षिणा की उत्पत्ति हुई।
यह परमेश्वर श्री कृष्ण के दक्षिण अंश से उत्पन्न होने से दक्षिणा कहलायी परन्तु यह गोलोक में सुशीला नाम की गोपी थी। जिस प्रकार राधा नामक आदि -प्रकृति परमेश्वर श्रीकृष्ण के वामांग से उत्पन्न होने से वामा कहलायी सम्पूर्ण नारी प्रकृति का प्रतिनिधि होने से "वामा कहलाती है।
विष्णु स्वयं यज्ञ पुरुष हैं। वैष्णव यज्ञ पशुओं की हिंसा से रहित शुद्ध सात्विक विराट पुरुष के निमित्त किये जाने वाले यज्ञ हैं।
परन्तु पशुओं की बलि या वध द्वारा सम्पन्न यज्ञ देवों को लक्ष्य करके किये जाते हैं।
विशेषत: इन्द्र यज्ञ पशुओं की हिंसा से सम्पन्न होते थे। पशु हिंसा से सम्पन्न इन्द्र यज्ञों का स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पूजन के अवसर पर बन्द करा दिया था।
स्वयं यादवों के नायक श्रीकृष्ण के आदि पूर्वज यदु बहुत बड़े वैष्णव यज्ञ करने वाले पशुपालक गोप थे। उनका नाम यदु उनकी यज्ञ करने की प्रवृत्ति के कारण सार्थक हुआ। गोपों मे ही भगवान विष्णु के समय -समय पर अनेक अवतरण हुए नहुष स्वयं विष्णु के अंशावतार थे। इसी परम्परा में स्वराज विष्णु परमेश्वर श्रीकृष्ण के एक अंश से यदु और उन्हीं कृष्ण के दक्षिण (अंग) से देवी सुशीला गोपी रूप में गोलोक में उत्पन्न होकर श्री कृष्ण की प्रेयसीऔर (पत्नी) रूप में प्रख्यात हुई-
कालान्तर में श्रीकृष्ण के गोलोक से भूलोक पर अवतरण होने पर श्रीकृष्ण के ही अंश से यादवों के आदि पुरुष यदु का अवतरण हुआ।
और उनकी पत्नी यज्ञवती के रूप में स्वयं साक्षात् सुशीला गोपी भूलोक पर अवतरित हुईं थीं। जो भूलोक पर दक्षिणा और यज्ञवती के दो रूपों में अवतीर्ण हुईं।
ब्रह्मवैवर्त पुराण से हम सुशीला गोपी का उपाख्यान प्रस्तुत करते हैं।
"दक्षिणोपाख्यानवर्णनम्
"श्रीनारायण उवाच-
उक्तं स्वाहास्वधाख्यानं प्रशस्तं मधुरं परम् ।
वक्ष्यामि दक्षिणाख्यानं सावधानो निशामय॥१॥
गोपी सुशीला गोलोके पुराऽऽसीत्प्रेयसी हरेः ।
राधा प्रधाना सध्रीची धन्या मान्या मनोहरा ॥२॥
अतीव सुन्दरी रामा सुभगा सुदती सती ।
विद्यावती गुणवती चातिरूपवती सती ॥ ३ ॥
कलावती कोमलाङ्गी कान्ता कमललोचना ।
सुश्रोणी सुस्तनी श्यामा न्यग्रोधपरिमण्डिता ॥४॥
ईषद्धास्यप्रसन्नास्या रत्नालङ्कारभूषिता ।
श्वेतचम्पकवर्णाभा बिम्बोष्ठी मृगलोचना ॥ ५ ॥
कामशास्त्रेषु निपुणा कामिनी हंसगामिनी।
भावानुरक्ता भावज्ञा कृष्णस्य प्रियभामिनी ॥६॥
रसज्ञा रसिका रासे रासेशस्य रसोत्सुका ।
उवासादक्षिणे क्रोडे राधायाः पुरतः पुरा॥ ७ ॥
सम्बभूवानम्रमुखो भयेन मधुसूदनः ।
दृष्ट्वा राधां च पुरतो गोपीनां प्रवरोत्तमाम्॥८॥
कामिनीं रक्तवदनां रक्तपङ्कजलोचनाम् ।
कोपेन कम्पिताङ्गीं च कोपेन स्फुरिताधराम्॥९॥
वेगेन तां तु गच्छन्तीं विज्ञाय तदनन्तरम् ।
विरोधभीतो भगवानन्तर्धानं चकार सः ॥१०॥
पलायन्तं च कान्तं च शान्तं सत्त्वं सुविग्रहम् ।
विलोक्य कम्पिता गोप्यः सुशीलाद्यास्ततो भिया॥ ११॥
विलोक्य लम्पटं तत्र गोपीनां लक्षकोटयः ।
पुटाञ्जलियुता भीता भक्तिनम्रात्मकन्धराः ॥१२॥
रक्ष रक्षेत्युक्तवन्त्यो देवीमिति पुनः पुनः।
ययुर्भयेन शरणं यस्याश्चरणपङ्कजे ॥१३॥
त्रिलक्षकोटयो गोपाः सुदामादय एव च ।
ययुर्भयेन शरणं तत्पादाब्जे च नारद ॥१४॥
पलायन्तं च कान्तं च विज्ञाय परमेश्वरी ।
पलायन्तीं सहचरीं सुशीलां च शशाप सा ॥१५॥
अद्यप्रभृति गोलोकं सा चेदायाति गोपिका ।
सद्यो गमनमात्रेण भस्मसाच्च भविष्यति ॥१६॥
इत्येवमुक्त्वा तत्रैव देवदेवेश्वरी रुषा ।
रासेश्वरी रासमध्ये रासेशमाजुहाव ह ॥१७॥
नालोक्य पुरतः कृष्णं राधा विरहकातरा ।
युगकोटिसमं मेने क्षणभेदेन सुव्रता ॥१८॥
हे कृष्ण प्राणनाथेशागच्छ प्राणाधिकप्रिय ।
प्राणाधिष्ठातृदेवेश प्राणा यान्ति त्वया विना ॥१९॥
स्त्रीगर्वः पतिसौभाग्याद्वर्धते च दिने दिने।
सुखं च विपुलं यस्मात्तं सेवेद्धर्मतः सदा ॥२०॥
पतिर्बन्धुः कुलस्त्रीणामधिदेवः सदागतिः ।
परसम्पत्स्वरूपश्च मूर्तिमान् भोगदः सदा ॥२१॥
धर्मदः सुखदः शश्वत्प्रीतिदः शान्तिदः सदा ।
सम्मानैर्दीप्यमानश्च मानदो मानखण्डनः ॥२२॥
सारात्सारतरः स्वामी बन्धूनां बन्धुवर्धनः ।
न च भर्तुः समो बन्धुर्बन्धोर्बन्धुषु दृश्यते ॥ २३ ॥
भरणादेव भर्ता च पालनात्पतिरुच्यते ।
शरीरेशाच्च स स्वामी कामदः कान्त उच्यते ॥२४॥
बन्धुश्च सुखवृद्ध्या च प्रीतिदानात्प्रियः स्मृतः ।
ऐश्वर्यदानादीशश्च प्राणेशात्प्राणनायकः ॥ २५ ॥
रतिदानाच्च रमणः प्रियो नास्ति प्रियात्परः ।
पुत्रस्तु स्वामिनः शुक्राज्जायते तेन स प्रियः ॥२६॥
शतपुत्रात्परः स्वामी कुलजानां प्रियः सदा ।
असत्कुलप्रसूता या कान्तं विज्ञातुमक्षमा ॥ २७ ॥
स्नानं च सर्वतीर्थेषु सर्वयज्ञेषु दक्षिणा ।
प्रादक्षिण्यं पृथिव्याश्च सर्वाणि च तपांसि च ॥२८॥
सर्वाण्येव व्रतादीनि महादानानि यानि च ।
उपोषणानि पुण्यानि यानि यानि श्रुतानि च ॥२९॥
गुरुसेवा विप्रसेवा देवसेवादिकं च यत् ।
स्वामिनः पादसेवायाः कलां नार्हन्ति षोडशीम्॥ ३०॥
गुरुविप्रेन्द्रदेवेषु सर्वेभ्यश्च पतिर्गुरुः ।
विद्यादाता यथा पुंसां कुलजानां तथा प्रियः ॥३१॥
गोपीनां लक्षकोटीनां गोपानां च तथैव च ।
ब्रह्माण्डानामसंख्यानां तत्रस्थानां तथैव च ॥३२॥
विश्वादिगोलकान्तानामीश्वरी यत्प्रसादतः ।
अहं न जाने तं कान्तं स्त्रीस्वभावो दुरत्ययः ॥३३॥
इत्युक्त्वा राधिका कृष्णं तत्र दध्यौ स्वभक्तितः ।
रुरोद प्रेम्णा सा राधा नाथ नाथेति चाब्रवीत् ॥३४॥
दर्शनं देहि रमण दीना विरहदुःखिता ।
अथ सा दक्षिणा देवी ध्वस्ता गोलोकतो मुने ॥३५॥
सुचिरं च तपस्तप्त्वा विवेश कमलातनौ ।
अथ देवादयः सर्वे यज्ञं कृत्वा सुदुष्करम् ॥३६॥
नालभंस्ते फलं तेषां विषण्णाः प्रययुर्विधिम् ।
विधिर्निवेदनं श्रुत्वा देवादीनां जगत्पतिम् ॥३७॥
दध्यौ च सुचिरं भक्त्या प्रत्यादेशमवाप सः ।
नारायणश्च भगवान् महालक्ष्याश्च देहतः ॥३८॥
विनिष्कृष्य मर्त्यलक्ष्मीं ब्रह्मणे दक्षिणां ददौ ।
ब्रह्मा ददौ तां यज्ञाय पूरणार्थं च कर्मणाम् ॥३९॥
यज्ञः सम्पूज्य विधिवत्तां तुष्टाव तदा मुदा ।
तप्तकाञ्चनवर्णाभां चन्द्रकोटिसमप्रभाम् ॥ ४० ॥
अतीव कमनीयां च सुन्दरीं सुमनोहराम् ।
कमलास्यां कोमलाङ्गीं कमलायतलोचनाम् ॥४१॥
कमलासनपूज्यां च कमलाङ्गसमुद्भवाम् ।
वह्निशुद्धांशुकाधानां बिम्बोष्ठीं सुदतीं सतीम्॥४२॥
बिभ्रतीं कबरीभारं मालतीमाल्यसंयुतम् ।
ईषद्धास्यप्रसन्नास्यां रत्नभूषणभूषिताम् ॥ ४३ ॥
सुवेषाढ्यां च सुस्नातां मुनिमानसमोहिनीम् ।
कस्तूरीबिन्दुभिः सार्धं सुगन्धिचन्दनेन्दुभिः ॥४४॥
सिन्दूरबिन्दुनाल्पेनाप्यलकाधःस्थलोज्ज्वलाम् ।
सुप्रशस्तनितम्बाढ्यां बृहच्छ्रोणिपयोधराम् ॥४५॥
कामदेवाधाररूपां कामबाणप्रपीडिताम् ।
तां दृष्ट्वा रमणीयां च यज्ञो मूर्च्छामवाप ह ॥४६॥
पत्नीं तामेव जग्राह विधिबोधितपूर्वकम् ।
दिव्यं वर्षशतं चैव तां गृहीत्वा तु निर्जने ॥४७॥
यज्ञो रेमे मुदा युक्तो रामेशो रमया सह ।
गर्भं दधार सा देवी दिव्यं द्वादशवर्षकम् ॥४८॥
ततः सुषाव पुत्रं च फलं वै सर्वकर्मणाम् ।
परिपूर्णे कर्मणि च तत्पुत्रः फलदायकः ॥४९॥
यज्ञो दक्षिणया सार्धं पुत्रेण च फलेन च ।
कर्मिणां फलदाता चेत्येवं वेदविदो विदुः ॥५०॥
तत्सर्वं कण्वशाखोक्तं प्रवक्ष्यामि निशामय ।
पुरा सम्प्राप्य तां यज्ञः कर्मदक्षां च दक्षिणाम् ॥ ७० ॥
मुमोहास्याः स्वरूपेण तुष्टाव कामकातरः ।
"यज्ञ उवाच"
पुरा गोलोकगोपी त्वं गोपीनां प्रवरा वरा ॥७१॥
राधासमा तत्सखी च श्रीकृष्णप्रेयसी प्रिया ।
कार्तिकीपूर्णिमायां तु रासे राधामहोत्सवे ॥ ७२ ॥
आविर्भूता दक्षिणांसाल्लक्ष्म्याश्च तेन दक्षिणा ।
पुरा त्वं च सुशीलाख्या ख्याता शीलेन शोभने ॥ ७३ ॥
लक्ष्मीदक्षांसभागात्त्वं राधाशापाच्च दक्षिणा ।
गोलोकात्त्वं परिभ्रष्टा मम भाग्यादुपस्थिता ॥७४॥
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कृपां कुरु महाभागे मामेव स्वामिनं कुरु ।
कर्मिणां कर्मणां देवी त्वमेव फलदा सदा ॥ ७५ ॥
त्वया विना च सर्वेषां सर्वं कर्म च निष्फलम् ।
त्वया विना तथा कर्म कर्मिणां च न शोभते ॥७६॥
ब्रह्मविष्णुमहेशाश्च दिक्पालादय एव च ।
कर्मणश्च फलं दातुं न शक्ताश्च त्वया विना ॥ ७७ ॥
कर्मरूपी स्वयं ब्रह्मा फलरूपी महेश्वरः ।
यज्ञरूपी विष्णुरहं त्वमेषां साररूपिणी ॥ ७८ ॥
फलदातृपरं ब्रह्म निर्गुणा प्रकृतिः परा ।
स्वयं कृष्णश्च भगवान् स च शक्तस्त्वया सह ॥७९।
त्वमेव शक्तिः कान्ते मे शश्वज्जन्मनि जन्मनि ।
सर्वकर्मणि शक्तोऽहं त्वया सह वरानने ॥ ८० ॥
इत्युक्त्वा च पुरस्तस्थौ यज्ञाधिष्ठातृदेवता ।
तुष्टा बभूव सा देवी भेजे तं कमलाकला॥८१॥
इदं च दक्षिणास्तोत्रं यज्ञकाले च यः पठेत् ।
फलं च सर्वयज्ञानां प्राप्नोति नात्र संशयः ॥ ८२ ॥
राजसूये वाजपेये गोमेधे नरमेधके ।
अश्वमेधे लाङ्गले च विष्णुयज्ञे यशस्करे॥ ८३ ॥
धनदे भूमिदे पूर्ते फलदे गजमेधके ।
लोहयज्ञे स्वर्णयज्ञे रत्नयज्ञेऽथ ताम्रके॥ ८४ ॥
शिवयज्ञे रुद्रयज्ञे शक्रयज्ञे च बन्धुके ।
वृष्टौ वरुणयागे च कण्डके वैरिमर्दने ॥ ८५ ॥
शुचियज्ञे धर्मयज्ञेऽध्वरे च पापमोचने ।
ब्रह्माणीकर्मयागे च योनियागे च भद्रके ॥ ८६ ॥
एतेषां च समारम्भे इदं स्तोत्रं च यः पठेत् ।
निर्विघ्नेन च तत्कर्म सर्वं भवति निश्चितम् ॥ ८७ ॥
इदं स्तोत्रं च कथितं ध्यानं पूजाविधिं शृणु ।
शालग्रामे घटे वापि दक्षिणां पूजयेत्सुधीः ॥ ८८ ॥
लक्ष्मीदक्षांससम्भूतां दक्षिणां कमलाकलाम् ।
सर्वकर्मसुदक्षां च फलदां सर्वकर्मणाम् ॥ ८९ ॥
विष्णोः शक्तिस्वरूपां च पूजितां वन्दितां शुभाम् ।
शुद्धिदां शुद्धिरूपां च सुशीलां शुभदां भजे ॥९०॥
ध्यात्वानेनैव वरदां मूलेन पूजयेत्सुधीः ।
दत्त्वा पाद्यादिकं देव्यै वेदोक्तेनैव नारद ॥ ९१ ॥
ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं दक्षिणायै स्वाहेति च विचक्षणः ।
पूजयेद्विधिवद् भक्त्या दक्षिणां सर्वपूजिताम् ॥ ९२॥
इत्येवं कथितं ब्रह्मन् दक्षिणाख्यानमेव च ।
सुखदं प्रीतिदं चैव फलदं सर्वकर्मणाम् ॥ ९३ ॥
इदं च दक्षिणाख्यानं यः शृणोति समाहितः ।
अङ्गहीनं च तत्कर्म न भवेद्भारते भुवि ॥ ९४ ॥
अपुत्रो लभते पुत्रं निश्चितं च गुणान्वितम् ।
भार्याहीनो लभेद्भार्यां सुशीलां सुन्दरीं पराम् ॥९५॥
वरारोहां पुत्रवतीं विनीतां प्रियवादिनीम् ।
पतिव्रतां च शुद्धां च कुलजां च वधूं वराम् ॥९६॥
विद्याहीनो लभेद्विद्यां धनहीनो लभेद्धनम् ।
भूमिहीनो लभेद्भूमिं प्रजाहीनो लभेत्प्रजाम् ॥९७॥
सङ्कटे बन्धुविच्छेदे विपत्तौ बन्धने तथा ।
मासमेकमिदं श्रुत्वा मुच्यते नात्र संशयः ॥ ९८ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां नवमस्कन्धे नारायणनारदसंवादे दक्षिणोपाख्यानवर्णनं नाम पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४५ ॥
(भगवती दक्षिणा का उपाख्यान)
"श्रीनारायण बोले- [हे नारद!] मैंने भगवती स्वाहा तथा स्वधाका अत्यन्त मधुर तथा कल्याणकारी उपाख्यान बता दिया। अब मैं भगवती दक्षिणाका आख्यान कह रहा हूँ, सावधान होकर सुनिये ॥ 1 ॥
प्राचीनकालमें गोलोक में भगवान् श्रीकृष्ण की प्रेयसी सुशीला नामक एक गोपी थी। परम धन्य, मान्य तथा मनोहर वह गोपी भगवती राधा की प्रधान सखी थी। वह अत्यन्त सुन्दर, लक्ष्मी के लक्षणों से सम्पन्न, सौभाग्यवती, उज्ज्वल दाँतोंवाली, परम पतिव्रता साध्वी, विद्या गुण तथा रूपसे अत्यधिक सम्पन्न थी।
वह विविध कलाओं में निपुण, कोमल अंगोंवाली, आकर्षक, कमलनयनी, श्यामा, सुन्दर नितम्ब तथा वक्षःस्थल से सुशोभित होती हुई वट वृक्षों से घिरी रहती थी।
उसका मुखमण्डल मन्द मुसकान तथा प्रसन्नता से युक्त था, वह रत्नमय अलंकारों से सुशोभित थी, उसके शरीर की कान्ति श्वेत चम्पा के समान थी, उसके ओष्ठ बिम्बाफल के समान रक्तवर्णके थे, मृगके सदृश उसके नेत्र थे, कामिनी तथा हंसके समान गतिवाली वह कामशास्त्र में निपुण थी।
भगवान् श्रीकृष्ण की प्रियभामिनी वह सुशीला उनके भावोंको भलीभाँति जानती थी।
तथा उनके भावों से सदा अनुरक्त रहती थी। रसज्ञान से परिपूर्ण, रासक्रीडा की रसिक तथा रासेश्वर श्रीकृष्णके प्रेमरस हेतु लालायित रहनेवाली वह गोपी सुशीला एक बार राधा के सामने ही भगवान् श्रीकृष्णके वाम अंक में बैठ गयी ॥ 2-7॥
तब मधुसूदन श्रीकृष्णने गोपिकाओं में परम श्रेष्ठ राधा की ओर देखकर भयभीत हो अपना मुख नीचे कर लिया।
उस समय कामिनी राधा का मुख लाल हो गया और उनके नेत्र रक्तकमल के समान हो गये। क्रोध से उनके अंग काँप रहे थे तथा ओठ प्रस्फुरित हो रहे थे।
तब उन राधा को बड़े वेग से जाती देखकर उनके विरोध से अत्यन्त डरे हुए भगवान् श्रीकृष्ण अन्तर्धान हो गये ॥ 8-10 ॥
कान्तिमान् शान्त स्वभाववाले, सत्त्वगुणसम्पन्न | तथा सुन्दर विग्रहवाले भगवान् श्रीकृष्ण को अन्तर्हित हुआ देखकर सुशीला आदि गोपियाँ भयसे काँपने लगीं।
श्रीकृष्ण को अन्तर्धान हुआ देखकर वे भयभीत लाखों-करोड़ों गोपियाँ भक्तिपूर्वक कन्धा झुकाकर और दोनों हाथ जोड़कर 'रक्षा कीजिये- रक्षा कीजिये' ऐसा भगवती राधासे बार-बार कहने लगीं और उन राधा के चरणकमलमें भयपूर्वक शरणागत हो गर्यो।
हे नारद ! वहाँके तीन लाख करोड़ सुदामा आदि गोप भी भयभीत होकर उन राधाके चरण कमलकी शरण में गये ॥ 11 - 14 ॥
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परमेश्वरी राधा ने अपने कान्त श्रीकृष्ण को अन्तर्धान तथा सहचरी सुशीलाको पलायन करते देखकर उन्हें शाप दे दिया कि यदि गोपिका सुशीला आज से गोलोक में आयेगी, तो वह आते ही भस्मसात् हो जायगी ।। 15-16
ऐसा कहकर श्रीराधा भक्तिपूर्वक श्रीकृष्णका ध्यान करने लगीं। विरहसे दुःखित तथा दीन वे राधिका प्रेमके कारण रो रही थीं और 'हे नाथ ! हे रमण ! मुझे दर्शन दीजिये'- ऐसा कह रही थीं ॥ 34॥
हे मुने ! इसके बाद राधाके द्वारा गोलोक से भूलोक पर शापित सुशीला नामक वह गोपी दक्षिणा नाम से प्रसिद्ध हुई।
दीर्घकाल तक उस दक्षिणा ने तपस्या करके भगवती लक्ष्मी के शरीर में स्थान प्राप्त कर लिया। अत्यन्त दुष्कर यज्ञ करने पर भी जब देवताओंको यज्ञफल नहीं प्राप्त हुआ, तब वे उदास होकर ब्रह्माजीके पास गये ॥ 35-36 ॥
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देवताओं की प्रार्थना सुनकर ब्रह्माजी ने बहुत समयतक भक्तिपूर्वक जगत्पति भगवान् श्रीहरिका ध्यान किया।
अन्त में उन्हें प्रत्यादेश प्राप्त हुआ।
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भगवान नारायण ने महालक्ष्मी के विग्रहसे मर्त्यलक्ष्मीको प्रकट करके और उसका नाम दक्षिणा रखकर ब्रह्माजीको सौंप दिया। ब्रह्माजी ने भी यज्ञकार्योंकी सम्पन्नताके लिये उन देवी दक्षिणाको यज्ञपुरुषको हरि को पुन: समर्पित कर दिया।
तब यज्ञपुरुष ने प्रसन्नतापूर्वक उन देवी दक्षिणाकी विधिवत् पूजा करके उनकी स्तुति की ।37-39॥
उन भगवती दक्षिणाका वर्ण तपाये हुए सोनेके समान था; उनके विग्रह की कान्ति करोड़ों चन्द्रोंके तुल्य थी; वे अत्यन्त कमनीय, सुन्दर तथा मनोहर थीं; उनका मुख कमलके समान था; उनके अंग अत्यन्त कोमल थे; कमल के समान उनके विशाल नेत्र थे कमल के आसनपर पूजित होनेवाली वे भगवती कमलाके शरीरसे प्रकट हुई थीं, उन्होंने अग्निके समान शुद्ध वस्त्र धारण कर रखे थे; उन साध्वी के ओष्ठ बिम्बाफल के समान थे; उनके दाँत अत्यन्त सुन्दर थे; उन्होंने अपने केशपाश में मालती के पुष्पोंकी माला धारण कर रखी थी; उनके प्रसन्नतायुक्त मुखमण्डल पर मन्द मुसकान व्याप्त थी; वे रत्नमय आभूषणोंसे अलंकृत थीं; उनका वेष अत्यन्त सुन्दर था वे विधिवत् स्नान किये हुए थीं वे मुनियोंके भी मन को मोह लेती थीं कस्तूरीमिश्रित सुगन्धित चन्दन से बिन्दी के रूपमें अर्धचन्द्राकार तिलक उनके ललाटपर सुशोभित हो रहा था;
केशों के नीचे का भाग (सीमन्त) सिन्दूर की छोटी-छोटी बिन्दियोंसे अत्यन्त प्रकाशमान था। सुन्दर नितम्ब, बृहत् श्रोणी तथा विशाल वक्षःस्थल से वे शोभित हो रही थीं; उनका विग्रह कामदेव का आधारस्वरूप था और वे कामदेव के बाण से अत्यन्त व्यथित थीं ऐसी उन रमणीया दक्षिणा को देखकर यज्ञपुरुष मूर्च्छित हो गये।
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पुनः ब्रह्माजीके कथनानुसार उन्होंने भगवती दक्षिणा को पत्नीरूपमें स्वीकार कर लिया ॥ 40-46 ॥
तत्पश्चात् यज्ञपुरुष उन रमेश ने रमारूपिणी भगवती दक्षिणाको निर्जन स्थानमें ले जाकर उनके साथ दिव्य सौ वर्षोंतक आनन्दपूर्वक रमण किया।
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अतीव गोपनीयं यदुपयुक्तं च सर्वतः ।
अप्रकाश्यं पुराणेषु वेदोक्तं धर्मसंयुतम् ॥४॥
श्रीनारायण उवाच
नानाप्रकारमाख्यानमप्रकाश्यं पुराणतः ।
श्रुतं कतिविधं गूढमास्ते ब्रह्मन् सुदुर्लभम्॥५॥
जो रहस्यमय, अत्यन्त गोपनीय, सबके लिये उपयोगी, पुराणों में अप्रकाशित, धर्मयुक्त तथा वेद प्रतिपादित हो ।2-4।
श्रीनारायण बोले- हे ब्रह्मन् ! ऐसे सहित-विध आख्यान हैं, जो पुराणों में वर्णित नहीं हैं। कई प्रकार के आख्यान सुने भी गये हैं, जो अत्यन्त दुर्लभ तथा गूढ़ हैं।
सन्दर्भ:- श्रीमद्देवी भागवत -9/43/4-5
गोप रूप में वर्णन किया गया।
" उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी । " गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।। (ऋग्वेद १०/६२/१०) अर्थात् यदु और तुर्वसु नामक दास( दाता) हैं जो गायों से घिरे हुए हैं हम उन सौभाग्य शाली दाताओं की प्रशंसा करते हैं । यहाँ पर गोप शब्द स्पष्टत: है; गो-पालक ही गोप होते हैं
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श्रुत्वा राजा शशापैनं राज्यहीनः सवंशजः।
तेजोहीनः क्षत्रधर्मवर्जितः पशुपालकः ।७५।
"अनुवाद:-यह सुनकर राजा ने उसे श्राप दे दिया और उसने अपने वंशजो सहित राज्य को छोड़ दिया वह यदु राजकीय तेज से हीन और राजकीय क्षत्र धर्म से रहित पशुपालन से जीवन निर्वाह करने लगा।७५।
भविष्यसि न सन्देहो याहि राज्याद् बहिर्मम।
इत्युक्त्वा च पुरुं प्राह शर्मिष्ठाबालकं नृपः।७६।
"अनुवाद:-तुम्हारे वंशज कभी राजतन्त्र की प्रणाली से राजा नहीं होंगे इसमें सन्देह नहीं हेै यदु! मेरे राज्य से बाहर चले जाओ। इस प्रकार कहकर और राजा ने फिर पुरू से कहा शर्मिष्ठा के बालक पुरु तुम राजा बनोगे।७६।
भविष्यसि न सन्देहो याहि राज्याद् बहिर्मम।
इत्युक्त्वा च पुरुं प्राह शर्मिष्ठाबालकं नृपः।७६।
"अनुवाद:-तुम्हारे वंशज कभी राजतन्त्र की प्रणाली से राजा नहीं होंगे इसमें सन्देह नहीं हेै यदु! मेरे राज्य से बाहर चले जाओ। इस प्रकार कहकर और राजा ने फिर पुरू से कहा शर्मिष्ठा के बालक पुरु तुम राजा बनोगे।७६।
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श्रीलक्ष्मीनारायणीयसंहिता त्रिसप्ततितमोऽध्यायः।७३।
यदु से पूर्व भी उनके आदि पूर्वज पुरुरवा से लेकर आयुष ,नहुष और ययाति भी गोपालक ही थे । परन्तु यदु ने उस प्राचीन गोपालन की परम्परा को पूर्ण निष्ठा और समर्पण के साथ निर्वहन किया।
यदु प्रारम्भ से स्वराट्- विष्णु का यजन करने वाले थे। ये परम वैष्णव थे।
यदु शब्द का व्याकरण परक अर्थ यज्ञ करने वाला होता है।
यदु की पत्नी यज्ञवती थी जो गोलोक में जो गोलोक में दक्षिणा और सुशीला नाम से प्रसिद्ध थीं। वही अपने अंश से भूलोक पर यज्ञवती हुई। कालान्तर में यदु से यज्ञवती के सहस्रजित , क्रोष्ठा ,नल ,और रिपु आदि पुत्र हुए ।
[7/31, 1:43 PM] yogeshrohi📚: यादवों के पूर्वज यदु यज्ञ तत्व के पूर्ण ज्ञाता थे। इसी लिए लोक में उन्हें यदु भी कहा गया।
यदु वैष्णव यज्ञों के प्रवर्तक थे। इसके विपरीत जो देवयज्ञ होते थे वे पशु हिंसा से सने हुए और भौतिक कामनाओं की पूर्ति के लिए इन्द्र आदि देवों के निमित्त किये जाते थे।
★-"इतिहास के बिखरे हुए पन्ने"-★
सोमवार, 12 फ़रवरी 2024
सहस्रबाहु की पूजा का शास्त्रीय विधान
हनुमद्भजनासक्तः कार्तवीर्यार्जुनं सुधीः ।।
विशेषतः समाराध्य यथोक्तं फलमाप्नुयात् ।। ७५-१०६।
अनुवाद:- हनुमान की भक्ति से आसक्त सुधीजन कार्तवीर्य अर्जुन की आराधना प्रारम्भ कर जैसा कगा है लैसा ही फ।।१०६।
सन्दर्भ :- नारदपुराण पूर्वभाग 75 वाँ अध्याय :-
जो सत्य हम कहेंगे वह कोई नहीं नहीं कहेगा-
एक स्थान पर परशुराम ने स्वयं- कार्तवीर्य्य अर्जुन के द्वारा वध अपना वध होने से पूर्व सहस्रबाहू की प्रशंसा करते हुए कहा-
हे राजन्!
(प्राचीन काल के वन्दीगण ऐसा कहते हैं कि भूतल पर कार्तवीर्यार्जुन के समान दाता, सर्वश्रेष्ठ, धर्मात्मा, यशस्वी, पुण्यशाली और उत्तम बुद्धिसम्पन्न न कोई हुआ है ; और ना ही आगे होगा।
पुराणों के अतिरिक्त संहिता ग्रन्थ भी इस आख्यान का वर्णन करते हैं।
लक्ष्मीनारायणसंहिता में वे श्लोक हैं जो ब्रह्मवैवर्त पुराण गणपतिखण्ड के समान ही हैं। प्रस्तुत करते हैं।
लक्ष्मीनारायणसंहिता - खण्ड प्रथम (कृतयुगसन्तानः) अध्यायः (४५८ ) में परशुराम और सहस्रबाहू युद्ध का वर्णन इस प्रकार है।
दत्तात्रेयेण दत्तेन सिद्धाऽस्त्रेणाऽर्जुनस्तु तम् ।जडीचकार तत्रैव स्तम्भितो राम एव वै।८८।
अर्थ:-परन्तु दत्तात्रेय द्वारा सिद्ध अस्त्र के द्वारा उस पाशुपत अस्त्र को भी कार्तवीर्य ने स्तम्भित(जाम) कर दिया और उसके साथ परशुराम भी स्तम्भित हो गये।
श्रीकृष्णरक्षितं भूपं ददर्श कृष्णवर्म च ।
ददर्शाऽपि भ्रमत्सुदर्शनं रक्षाकरं रिपोः।८९।
अर्थ:- जब परशुराम ने भगवान श्रीकृष्ण द्वारा रक्षित राजा सहस्रबाहू को देखा और कृष्ण-वर्म ( कृष्ण द्वारा प्रदत्त कवच) को भी परशुराम ने देखा और यह भी देखा कि घूमता हुआ सुदर्शन चक्र इस राजा की शत्रुओं से सदैव रक्षा करने वाला है।८९।
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तावत् ध्यातोऽर्जुनगुरुर्दत्तात्रेयः समागतः।
ददौ शूलं हि परशुरामस्य नाशार्थं कृष्णवर्म च।८५।।
अर्थ- उसके बाद अर्जुन ने दत्तात्रेय का ध्यान किया तो उन्होंने आकर परशुराम के विनाश के लिए अर्जुन को शूल और कृष्णवर्म (काला-कवच) प्रदान किया।८५।
विशेष :- यदि परशुराम विष्णु का अवतरण थे तो विष्णु के ही अंशावतार दत्तात्रेय ने परशुराम के वध के निमित्त सहस्रबाहू को शूल और कृष्ण वर्म क्यों प्रदान किया ?
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"जग्राह राजा शूलं तश्चिक्षेप परशुरामकन्धरे।मूर्छामवाप रामः सःपपात श्रीहरिं स्मरन्।८६।
अर्थ:-तब महाराज कार्तवीर्य ने उस रण में परशुराम के वध के लिए दत्तात्रेय द्वारा प्रदत्त शूल का मन्त्र पूर्वक उपयोग (सन्धान) किया , जो कभी भी व्यर्थ ना होने वाला था परशुराम ने उस सैकडो सूर्य के समान कान्तिपूर्ण प्रलय कालीन अग्निशिखा से आप्लायित और देवो के लिये भी दुर्निवार्य उस शूल को देखा हे नारद ! परशुराम के ऊपर वह शूल गिरा, जिससे भगवान् हरि का नाम लेते हुए परशुराम मूर्छित हो गिर गये।।८६।
परशुराम के गिर जाने के वाद समस्त देव गण व्याकुल हो गये और कोहराम मच गया , उस समय युद्ध स्थल में ब्रह्मा विष्णु एवं महेश्वर भी आ गये।१९।
इस विषय में निम्न श्लोक विचारणीय हैं-
यदि परशुराम हरि (विष्णु) के अवतार थे तो उन्होंने मूर्च्छित होकर मरते समय विष्णु अथवा हरि को क्यो नाम लिया। यदि वे स्वयं विष्णु के अवतार थे तो इसका अर्थ यही है कि परशुराम हरि अथवा विष्णु का अवतार नही थे।
उन्हें बाद में पुरोहितों ने अवतार बना दिया
वास्तव में सहस्रबाहू ने परशुराम का वध कर दिया था।
परन्तु परशुराम का वध जातिवादी पुरोहित वर्ग का वर्चस्व समाप्त हो जाना ही था। इसीलिए इसी समस्या के निदान के लिए पुरोहितों ने ब्रह्मवैवर्त- पुराण में निम्न श्लोक बनाकर जोड़ दिया कि परशुराम को मरने बाद शिव द्वारा जीवित करना बता दिया गया ।
और इस घटना को चमत्कारिक बना दिया गया। यह ब्राह्मण युक्ति थी । परन्तु सच्चाई यही है कि मरने के व़बाद कभी कोई जिन्दा ही नहीं हुआ।
विशेष :- उपर्युक्त श्लोक में कृष्ण रूप में भगवान विष्णु अपने सुदर्शन चक्र से सहस्रबाहू की परशुराम से युद्ध होने पर रक्षा कर रहे हैं तो सहस्रबाहू को परशुराम कैसे मार सकते हैं ।
यदि शास्त्रकार सहस्रबाहू को परशुराम द्वारा मारा जाना वर्णन करते हैं तो भी उपर्युक्त श्लोक में विष्णु को शक्तिहीन और साधारण होना ही सूचित करते हैं जोकि शास्त्रीय सिद्धान्त के सर्वथा विपरीत ही है। जबकि विष्णु सर्वशक्तिमान हैं।
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जिस प्रकार पुराणों में बाद में यह आख्यान जोड़ा गया कि परशुराम ने
"गर्भस्थ शिशुओं की हत्या की और क्षत्रियों पत्नीयों क्या तक को मार डाला। यह कृत्य करना विष्णु के अवतारी का गुण हो सकता है। ? कभी नहीं।
महाभारत शान्तिपर्व में वर्णन है कि - परशुराम किस प्रकार हैहयवंश के यदुवंशीयों की स्त्रियों के गर्भस्थ शिशुओं की हत्या करते हैं ? यह सर्वविदित ही है। इस सन्दर्भ में देखें निम्न श्लोक
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"स पुनस्ताञ्जघान् आशु बालानपि नराधिप गर्भस्थैस्तु मही व्याप्ति पुनरेवाभवत्तदा ।62।
"जातंजातं स गर्भं तु पुनरेव जघान ह। अरक्षंश्च सुतान्कान्श्चित्तदाक्षत्रिय योषितः।63।
"त्रिःसप्तकृत्वःपृथिवीं कृत्वा निःक्षत्रियां प्रभुः।दक्षिणामश्वमेधान्ते कश्यपायाददत्ततः।64।
सन्दर्भ:-(महाभारत शान्तिपर्व अध्याय- ४८)
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"अर्थ-
"नरेश्वर! परशुराम ने पुन: उन सबके छोटे-छोटे शिशुओं तक को शीघ्र ही मार डाला जो बच्चे गर्भ में रह गये थे, उन्हीं से पुनः यह सारी पृथ्वी व्याप्त हो गयी। परशुराम एक एक गर्भ के उत्पन्न होने पर पुनः उसका वध कर डालते थे। उस समय क्षत्राणियाँ कुछ ही पुत्रों को बचा सकीं थी।
राजन् ! तदनन्तर कुछ क्षत्रियों को बचाये रखने की इच्छा से कश्यपजी ने स्रुक् (स्रुवा) लकड़ी की बनी हुई एक प्रकार की छोटी करछी जिससे हवनादि में घी की आहुति देते हैं। उसको लिये हुए हाथ से संकेत करते हुए यह बात कही- मुने ! अब तुम दक्षिण समुद्र के तट पर चले जाओ। अब कभी मेरे राज्य में निवास न करना।
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(ब्रह्मवैवर्त पुराण गणपति खण्ड अध्याय (४०)
में भी वर्णन है कि (२१) बार पृथ्वी से क्षत्रिय को नष्ट कर दिया और उन क्षत्रियों की पत्नीयों के गर्भस्थ शिशुओं की हत्या कर दी ! यह आख्यान भी परशुराम को विष्णु का अवतार सिद्ध नहीं करता-
क्योंकि विष्णु कभी भी निर्दोष गर्भस्थ शिशुओं का वध नहीं करेंगे।
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"एवं त्रिस्सप्तकृत्वश्च क्रमेण च वसुन्धराम् ।।
रामश्चकार निर्भूपां लीलया च शिवं स्मरन्।७३
"गर्भस्थं मातुरङ्कस्थं शिशुं वृद्धं च मध्यमम्।
जघान क्षत्रियं रामः प्रतिज्ञापालनाय वै।७४।
ब्रह्मवैवर्तपुराणम्/खण्डः ३ (गणपतिखण्डः)/अध्यायः ४०
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गीताप्रेस- गोरखपुर संस्करण)
महाभारत: वनपर्व:
सप्तदशाधिकशततमोऽध्यायः(117) श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद :-
रेणुका स्नान करने के लिए गंगा नदी तट पर गयी। राजन! जब वह स्नान करके लौटने लगी, उस समय अकस्मात उसकी दृष्टी मार्तिकावत देश के राजा चित्ररथ पर पड़ी, जो कमलों की माला धारण करके अपनी पत्नी के साथ जल में क्रीड़ा कर रहा था।
उस समृद्धिशाली नरेश को उस अवस्था में देखकर रेणुका ने उसकी इच्छा की।
उस समय इस मानसिक विकार से द्रवित हुई रेणुका जल में बेहोश-सी हो गयी। फिर त्रस्त होकर उसने आश्रम के भीतर प्रवेश किया। परन्तु ऋषि उसकी सब बातें जान गये। उसे धैर्य से च्युत और ब्रह्मतेज से वंचित हुई देख उन महातेजस्वी शक्तिशाली महर्षि ने धिक्कारपूर्ण वचनों द्वारा उसकी निन्दा की।
इसी समय जमदग्नि के ज्येष्ठ पुत्र रुमणवान वहाँ आ गये। फिर क्रमश: सुशेण, वसु और विश्वावसु भी आ पहूंचे। भगवान जमदग्नि ने बारी-बारी से उन सभी पुत्रों को यह आज्ञा दी कि 'तुम अपनी माता का वध कर डालो',
परंतु मातृस्नेह उमड़ आने से वे कुछ भी बोल न सके, बेहोश-से खड़े रहे। तब महर्षि ने कुपित हो उन सब पुत्रों को शाप दे दिया।
शापग्रस्त होने पर वे अपनी चेतना( होश) खो बैठे और तुरन्त मृग एवं पक्षियों के समान जड़-बुद्धि हो गये।
"महाभारत: वनपर्व: अध्याय: (११७ )वाँ श्लोक 14-29 का हिन्दी अनुवाद
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तदनन्तर शत्रुपक्ष के वीरों का संहार करने वाले परशुराम सबसे पीछे आश्रम पर आये। उस समय महातपस्वी महाबाहु जमदग्नि ने उनसे कहा-‘बेटा ! अपनी इस पापिनी माता को अभी मार डालो और इसके लिये मन में किसी प्रकार का खेद न करो। तब परशुराम ने फरसा लेकर उसी क्षण माता का मस्तक काट डाला।
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कालिका पुराण में भी महाभारत वन पर्व के समान कथा है।
"एकदा तस्य जननी स्नानार्थं रेणुका गता।
गङ्गातोये ह्यथापश्यन्नाम्ना चित्ररथं नृपम्।८३.८।
अनुवाद:-
एक बार परशुराम की माता रेणुका स्नान के लिए गयीं तभी गंगा के जल में स्नान करते हुए चित्ररथ नामक एक राजा को देखा।८।
"भार्याभिः सदृशीभिश्च जलक्रीडारतं शुभम्।
सुमालिनं सुवस्त्रं तं तरुणं चन्द्रमालिनम्। ८३.९ ।।
अनुवाद:-
वह अपनी सुन्दर पत्नीयों के साथ शुभ जल क्रीडा में रत था। वह राजा सुन्दर मालाओं सुन्दर वस्त्र से युक्त युवा चन्द्रमा के समान सुशोभित हो रहा था।९।
"तथाविधं नृपं दृष्ट्वा सञ्जातमदना भृशम्।
रेणुका स्पृहयामास तस्मै राज्ञे सुवर्चसे। ८३.१० ।
अनुवाद:-
उस प्रकार राजा को देखकर वह रेणुका अत्यधिक काम से पीडित हो गयी और रेणुका ने उस वर्चस्व शाली राजा की इच्छा की।१०।
"स्पृहायुतायास्तस्यास्तु संक्लेदः समजायत।
विचेतनाम्भसा क्लिन्ना त्रस्ता सा स्वाश्रमं ययौ। ८३.११ ।।
अनुवाद:-
राजा की इच्छा करती हुई वह रज:स्रवित हो गयी
और चेतना हीन रज स्राव के जल से भीगी हुई डरी हुई अपने आश्रम को गयी।।११।
"अबोधि जमदग्निस्तां रेणुकां विकृतां तथा।
धिग् धिक्काररतेत्येवं निनिन्द च समन्ततः। ८३.१२ ।।
अनुवाद:-
उस रेणुका को जमदग्नि ने विकृत अवस्था में जानकर उसकी सब प्रकार से निन्दा की और उस रति पीडिता को धिक्कारा।१२।
"ततः स तनयान् प्राह चतुरः प्रथमं मुनिः।
रुषण्वत्प्रमुखान् सर्वानेकैकं क्रमतो द्रुतम्।८३.१३।
अनुवाद:-
तब क्रोधित जमदग्नि ने अपने रुषणवत् आदि चारों पुत्रों से एक एक से कहा। १३।
"छिन्धीमां पापनिरतां रेणुकां व्यभिचारिणीम्।
ते तद्वचो नैव चक्रुर्मूकाश्चासन् जडा इव।८३.१४।
अनुवाद:-
जल्दी ही पाप में निरत इस रेणुका को काट दो
लेकिन पुत्र उनकी बात न मान कर मूक और जड़ ही बने रहे।१४।
कुपितो जमदग्निस्ताञ्छशापेति विचेतसः।
भवध्वं यूयमाचिराज्जडा गोबुद्धिर्गर्द्धिता:।
८३.१५ ।।अनुवाद:-
क्रोधित जमदग्नि ने उन सबको शाप दिया की सभी जड़ बुद्धि हो जाएं । कि तुम सब सदैव के लिए घृणित जड़ गो बुद्धि को प्राप्त हो जाओ।१५।
अथाजगाम चरमो जामदग्न्येऽतिवीर्यवान्।।
तं च रामं पिता प्राह पापिष्ठां छिन्धि मातरम्।
८३.१६ ।।
अनुवाद:-
तभी जमदग्नि के अन्तिम पुत्र शक्तिशाली परशुराम आये जमदग्नि ने परशुराम से कहा पापयुक्ता इस माता को तुम काट दो।१६।
स भ्रातृंश्च तथाभूतान् दृष्ट्वा ज्ञानविवर्जितान्।।
पित्रा शप्तान् महातेजाः प्रसूं परशुनाच्छिनत्।
८३.१७ ।।
अनुवाद:-
पिता के द्वारा शापित ज्ञान से शून्य अपने भाइयों को देखकर उस परशुराम ने अपनी माता रेणुका का शिर फरसा से काट दिया ।
"रामेण रेणुकां छिन्नां दृष्ट्वा विक्रोधनोऽभवत्।।
जमदग्निः प्रसन्नः सन्निति वाचमुवाच ह।८३.१८ ।।
अनुवाद:-
परशुराम के द्वारा कटी हुई रेणुका को देखकर
जमदग्नि क्रोधरहित हो गये। और जमदग्नि प्रसन्न होते हुए यह वचन बोले!।१८।
"प्रीतोऽस्मि पुत्र भद्र ते यत् त्वया मद्वचः कृतम्।। ८३.१८- १/२।
अनुवाद:-
मैं प्रसन्न हूँ। पुत्र तेरा कल्याण हो ! तू मुझसे कुछ माँग ले!।१९।
"श्रीकालिकापुराणे त्र्यशीतितमोऽध्यायः।८३।
शास्त्रों के कुछ गले और दोगले विधान जो जातीय द्वेष की परिणित थे। -
उनसे प्रभावित पुरोहितों नें पुराणों में कालान्तर में लेखन कार्य जोड़ दिए-
सहस्रबाहु की कथा को विपरीत अर्थ -विधि से लिखा गया
परशुराम ने कभी भी पृथ्वी से २१ बार क्षत्रिय हैहयवंशीयों का वध किया ही नहीं।
परन्तु इस अस्तित्व हीन बात को बड़ा- चढ़ाकर बाद में लिखा गया।
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अब प्रश्न यह भी उठता है !
कि जब धर्मशास्त्र इस बात का विधान करते हैं
कि ब्राह्मण की चार पत्नीयाँ हो सकती हैं उनमें से दो पत्नीयाँ ब्राह्मणी और क्षत्राणी के गर्भ से ब्राह्मण ही उत्पन्न होगा और शेष दो वैश्याणी और शूद्राणी के गर्भ से जो पुत्र होंगे वे ; ब्राह्मणत्व से रहित माता की जाति के ही समझे जाते हैं --
कि इसी महाभारत के अनुशासन पर्व में दानधर्म नामक उपपर्व के अन्तर्गत (वर्णसंकरकथन) नामक( अड़तालीसवाँ अध्याय) में यह वर्णन है ।
देखें निम्न श्लोक -
भार्याश्चतश्रो विप्रस्य द्वयोरात्मा प्रजायते।
आनुपूर्व्याद् द्वेयोर्हीनौ मातृजात्यौ प्रसूयत:।४।(महाभारत अनुशासन पर्व का दानधर्म नामक उपपर्व)
कि ब्राह्मण की चार पत्नीयाँ हो सकती हैं उनमें से दो पत्नीयाँ ब्राह्मणी और क्षत्राणी के गर्भ से सन्तान केवल ब्राह्मण ही उत्पन्न होगी !
और शेष दो वैश्याणी और शूद्राणी पत्नीयों के गर्भ से जो सन्तान होंगी वे ; ब्राह्मणत्व से रहित माता की जाति की ही समझी जाएगी --।।४।।
इसी अनुशासन पर्व के इसी अध्याय में वर्णन है कि
"तिस्र: क्षत्रियसम्बन्धाद् द्वयोरात्मास्य जायते। हीनवर्णास्तृतीयायां शूद्रा उग्रा इति स्मृति:।७।।
अर्थ:-क्षत्रिय से क्षत्रियवर्ण की स्त्री और वैश्यवर्ण की स्त्री में जो पुत्र उत्पन्न होता है ; वह क्षत्रिय वर्ण का होता है।तीसरी पत्नी शूद्रा के गर्भ से हीन वर्ण वाले शूद्र उत्पन्न होते हैं जिन्हें उग्र कहते हैं यह स्मृति (धर्मशास्त्र)का कथन है।७।
(महाभारत अनुशासन पर्व में दानधर्म नामक उपपर्व के अन्तर्गत वर्णसंकरकथन नामक अड़तालीसवाँ अध्याय का सप्तम श्लोक -) (पृष्ठ संख्या- ५६२५) गीता प्रेस का संस्करण)
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मनुस्मृति- में भी देखें निम्न श्लोक
यथा त्रयाणां वर्णानां द्वयोरात्मास्य जायते ।आनन्तर्यात्स्वयोन्यां तु तथा बाह्येष्वपि क्रमात् ।।10/28
अर्थ- जिस प्रकार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तीनों वर्णों में से दो में से दो में अपनी समान उत्पन्न होता है उसी तरह आनन्तर (खारिज) जाति में भी क्रम से होता है।१०/२८
न ब्राह्मणक्षत्रिययोरापद्यपि हि तिष्ठतोः ।कस्मिंश्चिदपि वृत्तान्ते शूद्रा भार्योपदिश्यते 3/14
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महाभारत के उपर्युक्त अनुशासन पर्व से उद्धृत और आदिपर्व से उद्धृत क्षत्रियों के नाश के वाद क्षत्राणीयों में बाह्मणों के संयोग से उत्पन्न पुत्र- पुत्री क्षत्रिय किस विधान से हुई दोनों तथ्य परस्पर विरोधी होने से क्षत्रिय उत्पत्ति का प्रसंग काल्पनिक व मनगड़न्त ही सिद्ध करते हैं ।
मिध्यावादीयों ने मिथकों की आड़ में अपने स्वार्थ को दृष्टि गत करते हुए आख्यानों की रचना की ---
कौन यह दावा कर सकता है ? कि ब्राह्मणों से क्षत्रिय-पत्नीयों में क्षत्रिय ही कैसे उत्पन्न हुए ?
किस सिद्धांत की अवहेलना करके ! क्या पुरोहित जो कह दे वही सत्य हो जाएगा ?
"प्रधानता बीज की होती है नकि खेत की
क्यों कि दृश्य जगत में फसल का निर्धारण बीज के अनुसार ही होता है नकि स्त्री रूपी खेत के अनुसार--
सहस्रबाहु की पूजा का विधान ( नारदपुराण-पूर्वाद्ध- में किया गया है।
शास्त्रों में भगवान की पूजा का विधान तो हुआ है दुष्ट या व्यभिचारी की पूजा का विधान तो नही
हुआ है।
बुद्धिमान कार्तवीर्य अर्जुन हनुमान की पूजा से जुड़ा हुए हैं
विशेष रूप से देवता की पूजा करनी चाहिए और ऊपर बताए अनुसार फल प्राप्त करना चाहिए 75-106।
यह श्री बृहन्नारायण पुराण के पूर्वी भाग में बृहदुपाख्यान के तीसरे भाग का पचहत्तरवाँ अध्याय है, जिसका शीर्षक दीपक की विधि का विवरण है।।75।।
अनेन मनुना मन्त्री ग्रहग्रस्तं प्रमार्जयेत् ।।
आक्रंदंस्तं विमुच्याथ ग्रहः शीघ्रं पलायते ।। ७५-१०४।
मनवोऽमी सदागोप्या न प्रकाश्या यतस्ततः ।।
परीक्षिताय शिष्याय देया वा निजसूनवे । ७५-१०५ ।
हनुमद्भजनासक्तः कार्तवीर्यार्जुनं सुधीः ।।
विशेषतः समाराध्य यथोक्तं फलमाप्नुयात् ।। ७५-१०६।
इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पूर्वभागे बृहदुपाख्याने तृतीयपादे दीपविधिनिरूपणं नाम पञ्चसप्ततितमोऽध्यायः ।। ७५ ।।
नारदपुराणम्- पूर्वार्द्ध अध्यायः ७६
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"नारद उवाच।
कार्तवीर्यतप्रभृतयो नृपा बहुविधा भुवि ।
जायन्तेऽथ प्रलीयन्ते स्वस्वकर्मानुसारतः ।।१।।
अनुवाद:-
देवर्षि नारद कहते हैं ! पृथ्वी पर कार्तवीर्य आदि राजा अपने कर्मानुगत होकर उत्पन्न होते और विलीन हो जाते हैं। १-।
तत्कथं राजवर्योऽसौ लोकेसेव्यत्वमागतः ।।
समुल्लंघ्य नृपानन्यानेतन्मे नुद संशयम् ।।२ ।।
अनुवाद:-
तब उन्हीं सभी राजाओं को लाँघकर कार्तवीर्य किस प्रकार संसार में पूज्य हो गये यही मेरा संशय है।
"सनत्कुमार उवाच"
श्रृणु नारद वक्ष्यामि संदेहविनिवृत्तये।।
यथा सेव्यत्वमापन्नः कार्तवीर्यार्जुनो भुवि।३।
अनुवाद:-
सनत्कुमार ने कहा! हे नारद ! मैं आपके संशय की निवृति हेतु वह तथ्य कहता हूँ। जिस प्रकार से कार्तवीर्य अर्जुन पृथ्वी पर पूजनीय( सेव्यमान) कहे गये हैं।३।
यः सुदर्शनचक्रस्यावतारः पृथिवीतले।।
दत्तात्रेयं समाराध्य लब्धवांस्तेज उत्तमम्।४।
अनुवाद:-
ये पृथ्वी लोक पर सुदर्शन चक्र के अवतार हैं। इन्होंने महर्षि दत्तात्रेय की आराधना से उत्तम तेज प्राप्त किया।४।*******
तस्य क्षितीश्वरेंद्रस्य स्मरणादेव नारद ।।
शत्रूञ्जयति संग्रामे नष्टं प्राप्नोति सत्वरम् ।।५।।****
अनुवाद:-
हे नारद कार्तवीर्य अर्जुन के स्मरण मात्र से पृथ्वी पर विजय लाभ की प्राप्ति होती है। शत्रु पर युद्ध में विजय प्राप्त होती है। तथा शत्रु का नाश भी शीघ्र ही हो जाता है।५।
तेनास्य मन्त्रपूजादि सर्वतन्त्रेषु गोपितम् ।।
तुभ्यं प्रकाशयिष्येऽहं सर्वसिद्धिप्रदायकम् ।६ ।
अनुवाद:-
कार्तवीर्य अर्जुन का मन्त्र सभी तन्त्रों में गुप्त है। मैं सनत्कुमार आपके लिए इसे आज प्रकाशित करता हूँ। जो सभी सिद्धियों को प्रदान करने वाला है।६।
वह्नितारयुता रौद्री लक्ष्मीरग्नींदुशांतियुक् ।।
वेधाधरेन्दुशांत्याढ्यो निद्रयाशाग्नि बिंदुयुक् ।७।
पाशो मायांकुशं पद्मावर्मास्त्रे कार्तवीपदम् ।
रेफोवा द्यासनोऽनन्तो वह्निजौ कर्णसंस्थितौ ।८।
मेषः सदीर्घः पवनो मनुरुक्तो हृदंतिमः ।।
ऊनर्विशतिवर्णोऽयं तारादिर्नखवर्णकः ।९ ।
दत्तात्रेयो मुनिश्चास्यच्छन्दोऽनुष्टुबुदाहृतम् ।।
कार्तवीर्यार्जुनो देवो बीजशक्तिर्ध्रुवश्च हृत् ।१०।
शेषाढ्यबीजयुग्मेन हृदयं विन्यसेदधः ।।
शांतियुक्तचतुर्थेन कामाद्येन शिरोंऽगकम् ।।११ ।।
इन्द्वाढ्यं वामकर्णाद्यमाययोर्वीशयुक्तया ।।
शिखामंकुशपद्माभ्यां सवाग्भ्यां वर्म विन्यसेत् ।१२।।
वर्मास्त्राभ्यामस्त्रमुक्तं शेषार्णैर्व्यापकं पुनः ।।
हृदये जठरे नाभौ जठरे गुह्यदेशतः ।।१३ ।।
दक्षपादे वामपादे सक्थ्नि जानुनि जंघयोः ।।
विन्यसेद्बीजदशकं प्रणवद्वयमध्यगम् ।।१४ ।।
ताराद्यानथ शेषार्णान्मस्तके च ललाटके ।।
भ्रुवोः श्रुत्योस्तथैवाक्ष्णोर्नसि वक्त्रे गलेंऽसके ।।१५ ।।
सर्वमन्त्रेण सर्वांगे कृत्वा व्यापकमादृतः ।।
सर्वेष्टसिद्धये ध्यायेत्कार्तवीर्यं जनेश्वरम् ।। १६ ।।
इनका वह मन्त्र उन्नीस अक्षरों का है( यह मूल में श्लोक संख्या 7- से 9 तक वर्णित है। इसका मन्त्रोद्धार विद्वान जन करें अत: इसका अनुवाद करना भी त्रुटिपूर्ण होगा इस मन्त्र के ऋषि दत्तात्रेय हैं। छन्द अनुष्टुप् और देवाता हैं कार्तवीर्य अर्जुन " बीज है ध्रुव- तथा शक्ति है हृत् - शेषाढ्य बीज द्वय से हृदय न्यास करें। शन्तियुक्त- चतुर्थ मन्त्रक्षर से शिरोन्यास इन्द्राढ्यम् से वाम कर्णन्यास अंकुश तथा पद्म से शिखान्यास वाणी से कवचन्यास करें हुं फट् से अस्त्रन्यास करें। तथा शेष अक्षरों से पुन: व्यापक न्यास करना चाहिए इसके बाद सर्व सिद्धि हेतु जनेश्वर ( लोगों के ईश्वर) कार्तवीर्य का चिन्तन करें।७-१६।
उद्यद्रर्कसहस्राभं सर्वभूपतिवन्दितम् ।।
दोर्भिः पञ्चाशता दक्षैर्बाणान्वामैर्धनूंषि च ।१७ ।।
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दधतं स्वर्णमालाढ्यं रक्तवस्त्रसमावृतम् ।।
चक्रावतारं श्रीविष्णोर्ध्यायेदर्जुनभूपतिम् ।१८ ।।
अनुवाद:-
ध्यान :- इनकी कान्ति (आभा) हजारों उदित सूर्यों के समान है। संसार के सभी राजा इनकी वन्दना अर्चना करते हैं। सहस्रबाहु के 500 दक्षिणी हाथों में वाण और 500 उत्तरी (वाम) हाथों में धनुष हैं। ये स्वर्ण मालाधारी तथा रक्वस्त्र( लाल वस्त्र) से समावृत ( लिपटे हुए ) हैं। ऐसे श्री विष्णु के चक्रावतार राजा सुदर्शन का ध्यान करें।१७-१८।
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लक्षमेकं जपेन्मन्त्रं दशांशं जुहुयात्तिलैः ।।
सतण्डुलैः पायसेन विष्णुपीठे यजत्तुतम् ।१९ ।
षट्कोणेषु षडंगानि ततो दिक्षु विविक्षु च ।।
चौरमदविभञ्जनं मारीमदविभंजनम् ।२०।।
अरिमदविभंजनं दैत्यमदविभंजनम् ।।
दुष्टनाशं दुःखनाशं दुरितापद्विनाशकम् ।२१।
दिक्ष्वष्टशक्तयः पूज्याः प्राच्यादिष्वसितप्रभाः ।।
क्षेमंकरी वश्यकरी श्रीकरी च यशस्करी ।२२।
आयुः करी तथा प्रज्ञाकरी विद्याकरी पुनः।
धनकर्यष्टमी पश्चाल्लोकेशा अस्त्रसंयुताः ।२३।
अनुवाद:-ध्यान के उपरांत एक लाख और जप के उपरान्त होम तिल चावल तथा पायस( खीर ) से पूजा करके विष्णु पीठ पर इनका पूजन करें । उसके बाद षट्कोण में पूजा करके दिक् विदिक् में षडंगदेवगण की पूजा करें।
इसमें चौरमद नारीमद शत्रुमद दैत्यमद का और दुष्ट का और दु:ख का तथा पाप का नाश होता है।
जिस रावण को वश में करने और परास्त करने के लिए राम ने सम्पूर्ण जीवन दाँव पर लगा दिया था उसी रावण को मात्र पाँच वाणो में परास्त कर बन्दी बना लिया-
एवं बध्वा धनुर्ज्यायामुत्सिक्तं पञ्चभिः शरैः।
लङ्कायां मोहयित्वा तु सबलं रावणं बलात्।। ४३.३७।
निर्जित्य बध्वा चानीय माहिष्मत्यां बबन्ध च।
ततो गत्वा पुलस्त्यस्तु अर्जुनं संप्रसादयत्।। ४३.३८।
मुमोच रक्षः पौलस्त्यं पुलस्त्येनेह सान्त्वितम्।
तस्य बाहुसहस्रेण बभूव ज्यातलस्वनः।। ४३.३९।
एक बार सम्राट सहस्रबाहु अपनी अनेक रानीयों के साथ भ्रमण करते हुए नर्मदा नदी में स्नान करने के लिए उतरे तो स्नान करते हुए एक पत्नी ने उनसे कहा कि क्या वे नर्मदा नदी का जल प्रवाह रोक सकते हैं ।
तो सहस्र बाहु ने पत्नी को कहने पर अपने हजार बाहूओं को फैलाकर नर्मदा नदी का जल प्रवाह रोक दिया इस से नर्मदा नदी का जल इधर उधर बहने लगा उसी कुछ ही दूरी पर रावण शंकर भगवान् की आराधना कर रहा था
उस जल के प्रवाह से उसकी पूजन सामग्री नैवेद्य आदि बह गयी क्रोधित रावण कारण का पता लगाते हुए सहस्रबाहु के पास पहुँच कर उससे युद्ध करने लगा तभी सहस्रबाहु ने अपने पाँच वाणों से ही परास्त कर रावण को बन्धी बना लिया था और दश वर्ष पर्यन्त अपने कारागार में रखा
तब रावण के पितामह विश्रवा के पिता पुलस्त्य वहाँ आये और रावण को मुक्त करने के लिए सहस्र बाहु से निवेदन किया सहस्रबाहु ने पुलस्त्य के वह निवेदन को स्वीकार करके रावण को मुक्त कर दिया।
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मत्स्यपुराण अध्याय 43
यदुवंशवर्णन के अन्तर्गत सहस्रबाहु का वर्णन
दत्तमाराधयामास कार्तवीर्य्योऽत्रिसम्भवम्।
तस्मै दत्तावरास्तेन चत्वारः पुरुषोत्तम। ४३.१५।
कार्तवीर्य ने जब दतात्रेय की आराधना की तो अत्रि के पुत्र दत्तात्रेय ने उनको चार वरदान दिए-१५।
पूर्वं बाहुसहस्रन्तु स वव्रे राजसत्तमः।
अधर्मं चरमाणस्य सद्भिश्चापि निवारणम्।४३.१६
पहले उसको कहने पर हजार बाहु दीं और जो संसासार में अधर्म है उसका निवारण करे का वरदान दिया।१६।
युद्धेन पृथिवीं जित्वा धर्मेणैवानुपालनम्।
संग्रामे वर्तमानस्य वधश्चैवाधिकाद् भवेत्। ४३.१७।
युद्ध में पृथ्वी जीतकर धर्म से उसका पालन करो और संग्राम में वर्तमान रहने पर वध तुमसे शक्ति शाली ही कर सकता है।१७।
तेनेयं पृथिवी सर्वा सप्तद्वीपा सपर्वता।
समोदधिपरिक्षिप्ता क्षात्रेण विधिना जिता। ४३.१८ ।
तुम्हारे द्वार सम्पूर्ण पृथ्वी और सात द्वीप पर्वत समुद्र अधीन और क्षत्रिय धर्म से तुम सबको जीत लो।१८।
जज्ञे बाहुसहस्रं वै इच्छत स्तस्य धीमतः।
रथो ध्वजश्च संजज्ञे इत्येवमनुशुश्रुमः।४३.१९ ।
दशयज्ञसहस्राणि राज्ञा द्वीपेषु वै तदा।
निरर्गला निवृत्तानि श्रूयन्ते तस्य धीमतः। ४३.२०।
सर्वे यज्ञा महाराज्ञस्तस्यासन् भूरिदक्षिणाः।
सर्वेकाञ्चनयूपास्ते सर्वाः काञ्चनवेदिकाः। ४३.२१।
सर्वे देवैः समं प्राप्तै र्विमानस्थैरलङ्कृताः।
गन्धर्वैरप्सरोभिश्च नित्यमेवोपशोभिताः। ४३.२२।
तस्य यो जगौ गाथां गन्धर्वो नारदस्तथा।
कार्तवीर्य्यस्य राजर्षेर्महिमानं निरीक्ष्य स: ४३.२३।
न नूनं कार्तवीर्य्यस्य गतिं यास्यन्ति क्षत्रियाः।
यज्ञैर्दानै स्तपोभिश्च विक्रमेण श्रुतेन च। ४३.२४।
स हि सप्तसु द्वीपेषु, खड्गी चक्री शरासनी।
रथीद्वीपान्यनुचरन् योगी पश्यति तस्करान्।। ४३.२५।
पञ्चाशीतिसहस्राणि वर्षाणां स नराधिपः।
स सर्वरत्नसम्पूर्ण श्चक्रवर्त्ती बभूव ह।४३.२६।
स एव पशुपालोऽभूत् क्षेत्रपालः स एव हि।
स एव वृष्ट्या पर्जन्यो योगित्वादर्ज्जुनोऽभवत्।४३.२७।
योऽसौ बाहु सहस्रेण ज्याघात कठिनत्वचा।
भाति रश्मिसहस्रेण शारदेनैव भास्करः। ४३.२८।
एष नागं मनुष्येषु माहिष्मत्यां महाद्युतिः।
कर्कोटकसुतं जित्वा पुर्य्यां तत्र न्यवेशयत्। ४३.२९।
एष वेगं समुद्रस्य प्रावृट्काले भजेत वै।
क्रीड़न्नेव सुखोद्भिन्नः प्रतिस्रोतो महीपतिः।। ४३.३०।
ललता क्रीड़ता तेन प्रतिस्रग्दाममालिनी।
ऊर्मि भ्रुकुटिसन्त्रा सा चकिताभ्येति नर्म्मदा।। ४३.३१।
एको बाहुसहस्रेण वगाहे स महार्णवः।
करोत्युह्यतवेगान्तु नर्मदां प्रावृडुह्यताम्।। ४३.३२।
तस्य बाहुसहस्रेणा क्षोभ्यमाने महोदधौ।
भवन्त्यतीव निश्चेष्टाः पातालस्था महासुराः।। ४३.३३।
चूर्णीकृतमहावीचि लीन मीन महातिमिम्।
मारुता विद्धफेनौघ्ज्ञ मावर्त्ताक्षिप्त दुःसहम्। ४३.३४।
करोत्यालोडयन्नेव दोः सहस्रेण सागरम्।
मन्दारक्षोभचकिता ह्यमृतोत्पादशङ्किताः। ४३.३५।
तदा निश्चलमूर्द्धानो भवन्ति च महोरगाः।
सायाह्ने कदलीखण्डा निर्वात स्तिमिता इव।। ४३.३६।
एवं बध्वा धनुर्ज्यायामुत्सिक्तं पञ्चभिः शरैः।
लङ्कायां मोहयित्वा तु सबलं रावणं बलात्।। ४३.३७।
निर्जित्य बध्वा चानीय माहिष्मत्यां बबन्ध च।
ततो गत्वा पुलस्त्यस्तु अर्जुनं संप्रसादयत्।। ४३.३८।
मुमोच रक्षः पौलस्त्यं पुलस्त्येनेह सान्त्वितम्।
तस्य बाहुसहस्रेण बभूव ज्यातलस्वनः।४३.३९।
अनुवाद:-
और इस प्रकार धनुष पर प्रत्यञ्ज्या चढ़ाकर केवल पाँ वाणों से लंका मोहित करके बल पूर्वक रावण को जीत कर और बंधी बनाकर महिष्मती में कारागार में डालदिया तब जाकर पुलस्त्य ऋषि ने सहस्रबाहु को प्रसन्न कर के उस रावण को छुड़ाया-। सहस्रबाहु की हजार भुजाओं के द्वारा प्रत्यञ्चा का महान शब्द हुआ।३७-३८-३९।
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मत्स्यपुराण अध्याय 43
यदुवंशवर्णन के अन्तर्गत सहस्रबाहु का वर्णन
सहस्रार्जुन जयंती कार्तिक शुक्ल पक्ष की सप्तमी को मनाई जाती है। सहस्रार्जुन की कथाएं, महाभारत एवं वेदों के साथ सभी पुराणों में प्राय: पाई जाती हैं। चंद्रवंशी क्षत्रियों में सर्वश्रेठ हैहयवंश एक उच्च कुल के क्षत्रिय हैं। महाराज कार्तवीर्य अर्जुन (सहस्रार्जुन) जी का जन्म कार्तिक मास में शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि को श्रावण नक्षत्र में प्रात: काल के मुहूर्त में हुआ था। वह भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी के द्वारा जन्म कथा का वर्णन भागवत पुराण में लिखा है। अत: सभी अवतारों के भांति वह भी भगवान विष्णु के चौबीसवें अवतार माने गए हैं, इनके नाम से भी पुराण संग्रह में सहस्रार्जुन पुराण के तीन भाग हैं।
सहस्रार्जुन जन्म कथा
वैवस्वतश्च तत्रपि यदा तु मनुरूतम:।
भविश्यति च तत्रैव पन्चविशतिमं यदा॥
कृतं नामयुगं तत्र हैहयान्वयवडॅ. न:।
भवता नृपतिविर्र: कृतवीर्य: प्रतापवान॥
मत्स्य पुराण में वर्णित उपरोक्त लोक का अर्थ है कि पचीसवें कृत युग के आरम्भ में हैहय कुल में एक प्रतापी राजा कार्तवीर्य राजा होगा जो सातो द्रवीपों और समस्त भूमंडल का परिपालन करेगा। स्मृति पुराण शास्त्र के अनुसार कार्तिक शुक्ल पक्ष की सप्तमी, जो कि हिन्दी माह के कार्तिक महीने में सातवें दिन पड़ता है, दीपावली के ठीक बाद हर वर्ष मनाया जाता है। महिष्मति महाकाव्य के निम्न लोक के अनुसार यह चन्द्रवंश के महाराजा कृतवीर्य के पुत्र कार्तवीर्य-अर्जुन - हैहयवंश शाखा के 36 राजकुलों में से एक कुल से संबद्घ मानी जाती है। उक्त सभी राजकुलों में - हैहयवंश-कुल के राजवंश के कुलश्रेष्ठ राजा श्री राज राजेश्वर सहस्त्रवाहु अर्जुन समस्त सम-कालीन वंशों में सर्वश्रेष्ठ, सौर्यवान, परिश्रमी, निर्भीक और प्रजा के पालक के रूप की जाती है। यह भी धारणा मानी जाती है कि इस कुल वंश ने सबसे ज्यादा 12000 से अधिक वर्षो तक सफलता पूर्वक शासन किया था। श्री राज राजेश्वर सहस्त्रबाहु अर्जुन का जन्म महाराज हैहय के दसवीं पीढ़ी में माता पदमिनी के गर्भ से हुआ था, राजा कृतवीर्य के संतान होने के कारण ही इन्हें कार्तवीर्य अर्जुन और भगवान दत्तात्रेय के भक्त होने के नाते उनकी तपस्या कर मांगे गए सहस्त्र बाहु भुजाओं के बल के वरदान के कारन उन्हें सहस्त्रबाहु अर्जुन भी कहा जाता है।
पूजा विधि
सहस्रार्जुन विष्णु के चौबीसवें अवतार हैं, इसलिए उन्हें उपास्य देवता मानकर पूजा जाता है। कार्तिक शुक्ल पक्ष की सप्तमी की सहस्रार्जुन जयंती एक पर्व और उत्सव के रूप में मनाई जाती है। हिंदू धर्म संस्कृति और पूजा-पाठ के अनुसार स्नानादि से निवृत हो कर ब्रत का संकल्प करें और दिन में उपवास अथवा फलाहार कर शाम में सहस्रार्जुन का हवन-पूजन करे तथा उनकी कथा सुनें।
पुराण में कथा-वर्णन
श्रीमद भागवत पुराण के अनुसार चंद्रवंशीय क्षत्रिय शाखा में महाराज ययाति से श्री राज राजेश्वर सहस्रबाहु का इतिहास प्रारंभ होता है,
महाराज ययाति की दो रानियाँ देवयानी व शर्मिष्ठा से पांच पुत्र उत्पन्न हुए इसमें यदु सबसे बड़े पुत्र सहस्रजित के पुत्र हैहय की शाखा में कार्तवीर्य अर्जुन काम जन्म हुआ ।
[7/31, 2:05 PM] yogeshrohi📚: "इस प्रकार श्री महाभारत के खिलभाग हरिवंश के अन्तर्गत हरिवंश पर्व में ब्रह्मा जी का वचन विषयक पचपनवाँ अध्याय पूरा हुआ ।५५।
नारद पुराण में सभी गोपों की पूजा का विधान-
दक्षिणे वासुदेवाख्यं स्वच्छं चैतन्यमव्ययम् ।।
वामे च रुक्मिणीं तदून्नित्यां रक्तां रजोगुणाम् ।। ८०-५८।
एवं संपूज्य गोपालं कुर्यादावरणार्चनम्।
यजेद्दामसुदामौ च वसुदामं च किंकिणीम्।८०-५९।
पूर्वाद्याशासु दामाद्या ङेंनमोन्तध्रुवादिकाः ।।
अग्निनैर्ऋतिवाय्वीशकोणेषु हृदयादिकान् ।। ८०-६० ।।
दिक्ष्वस्त्राणि समभ्यर्च्य पत्रेषु महिषीर्यजेत् ।
रुक्मिणी सत्यभामा च नाग्नजित्यभिधा पुनः । ८०-६१ ।
सुविन्दा मित्रविन्दा च लक्ष्मणा चर्क्षजा ततः ।।
सुशीला च लसद्रम्यचित्रिताम्बरभूषणा ।८०-६२।
ततो यजेद्दलाग्रेषु वसुदेवञ्च देवकीम्।
नंदगोपं यशोदां च बलभद्रं सुभद्रिकाम् ।८०-६३।
गोपानूगोपीश्च गोविंदविलीनमतिलोचनान् ।।
ज्ञानमुद्राभयकरौ पितरौ पीतपांडुरौ।८०-६४।
दिव्यमाल्याम्बरालेपभूषणे मातरौ पुनः।
धारयन्त्यौ चरुं चैव पायसीं पूर्णपात्रिकाम् ।। ८०-६५ ।।
अनुवाद:-
इनके पूजन के उपरान्त वसुदेव - देवकी नन्दगोप यशोदा बलराम सुभद्रा और गोविन्द में लीन नेत्र तथा मति वाले गोप गोपियों और ज्ञान मुद्रा अभयमुद्राधारी पितरों की जो पीले और सफेद रंग वाले हैं उन सबकी पूजा करें- तत्पश्चात दलाग्र में दिव्य माला वस्त्र भूषण सज्जित माताओं की पुन: पूजा करें। वे चरण तथा खीर भरे पात्रों को धारण करने वाली हैं।।६३-६५।।
"अध्याय- सप्तम -
(सृष्टि सर्जन खण्ड)
'यदुवंश के सनातन विशेषण-आभीर, गोप और यादव। अहीर जाति के यदुवंश के अन्तर्गत वृष्णि कुल में देवमीढ ही नन्द और वसुदेव दोंनो के पितामह थे । ***
राजा हृदीक के तीन' पुत्र थे; देवमीढ, सत्धन्वा तथा कृतवर्मा थे ।
देवमीढ की राजधानी मथुरा पुरी थी हरिवंश पुराण पर्व 2 अध्याय 38 में भी कहा गया है कि..👇
"अन्धकस्यसुतो जज्ञे रैवतो नाम पार्थिव: रैवतस्यात्मजौ राजा, विश्वगर्भो महायशा : ।४८।
(हरिवंशपुराण विष्णुपर्व -३८ वाँ अध्याय )
यदु की कई पीढ़ियों बाद अन्धक के रैवत हुए जिनका ही दूसरा नाम हृदीक है । रैवत के विश्वगर्भ अर्थात् देवमीढ़ हुए।
"यदोर्वंशस्यान्तर्गते देवक्षत्रस्यमहातेजा पुत्रो मधु: तस्यनाम्ना मधोः पुर वसस्तथा। आसीत् पुरवसः पुत्रः पुरुद्वान् पुरुषोत्तमः।४४।
(मत्स्य- पुराण अध्याय 44 श्लोक 44)
अनुवाद:-"मथुरा का पूर्व नाम मधुपर - यादव राजा देवक्षत्र के पुत्र मधु के नाम पर प्रचलित हुआ"
देवक्षत्र के मधु थे । मधु ने ब्रजभूमि में यमुना नदी के दाहिने किनारे पर एक राज्य की स्थापना की, जिसका नाम उनके नाम पर मधुपुर रखा गया। बाद में इसे मथुरा के नाम से जाना गया । उनसे पुरवस नामक पुत्र उत्पन्न हुआ । बाद वाले पुरुद्वान के पिता थे । पुरुद्वान् का जन्तु नाम का एक पुत्र था । जंतु( अँशु) की पत्नी ऐक्ष्वाकि से सात्वत नामक पुत्र उत्पन्न हुआ । सात्वत मधु के पांचवें उत्तराधिकारी थे। सात्वत के उत्तराधिकारियों को सात्वत के नाम से भी जाना जाता था । सात्वत के पुत्र भजिन, भजमान , दिव्य , देववृध, अन्धक , महाभोज , वृष्णि आदि थे।
______
तेभ्यः प्रव्राजितो राज्यात् ज्यामघस्तु तदाश्रमे।
प्रशान्तश्चाश्रमस्थश्च ब्राह्मणेनावबोधितः।४४.३०।
जगाम धनुरादाय देशमन्यं ध्वजी रथी।
नर्म्मदां नृप एकाकी केवलं वृत्तिकामतः। ४४.३१।
ऋक्षवन्तं गिरिं गत्वा भुक्तमन्यैरुपाविशत्।
ज्यामघस्याभवद् भार्या चैत्रापरिणतासती।। ४४.३२ ।।
अपुत्रो न्यवसद्राजा भार्यामन्यान्नविन्दत।
तस्यासीद्विजयो युद्धे तत्र कन्यामवाप्य सः।। ४४.३३ ।।
भार्यामुवाच सन्त्रासात् स्नुषेयं ते शुचिस्मिते।
एव मुक्ताब्रवीदेन कस्य चेयं स्नुषेति च।। ४४.३४
राजोवाच।
यस्तेजनिष्यते पुत्रस्तस्य भार्या भविष्यति।
तस्मात् सा तपसोग्रेण कन्यायाः सम्प्रसूयत।। ४४.३५ ।।
पुत्रं विदर्भं सुभगा चैत्रा परिणता सती।
राजपुत्र्यां च विद्वान् स स्नुषायां क्रथ कैशिकौ।।
लोमपादं तृतीयन्तु पुत्रं परमधार्मिकम्।। ४४.३६ ।
तस्यां विदर्भोऽजनयच्छूरान् रणविशारदान्।
लोमपादान्मनुः पुत्रो ज्ञातिस्तस्य तु चात्मजः।। ४४.३७ ।।
कैशिकस्य चिदिः पुत्रो तस्माच्चैद्या नृपाः स्मृताः।
क्रथो विदर्भपुत्रस्तु कुन्ति स्तस्यात्मजोऽभवत्।। ४४.३८ ।।
कुन्ते र्धृतः सुतो जज्ञे रणधृष्टः प्रतापवान्।
धृष्टस्य पुत्रो धर्मात्मा निर्वृतिः परवीरहा।४४.३९।
तदेको निर्वृतेः पुत्रो नाम्ना स तु विदूरथः।
दशार्हिस्तस्य वै पुत्रो व्योमस्तस्य च वै स्मृतः।।
दाशार्हाच्चैव व्योमात्तु पुत्रो जीमूत उच्यते।। ४४.४० ।।
जीमूतपुत्रो विमलस्तस्य भीमरथः सुतः।
सुतो भीमरथस्यासीत् स्मृतो नवरथः किल।। ४४.४१ ।।
तस्य चासीद् दृढरथः शकुनिस्तस्य चात्मजः।
तस्मात् करम्भः कारम्भि र्देवरातो बभूव ह।। ४४.४२ ।।
देवक्षत्रोऽभवद्राजा दैवरातिर्महायशाः।
देवगर्भसमो जज्ञे देवनक्षत्रनन्दनः।। ४४.४३ ।।
मधुर्नाम महातेजा मधोः पुरवसस्तथा।
आसीत् पुरवसः पुत्रः पुरुद्वान् पुरुषोत्तमः।। ४४.४४ ।।
जन्तुर्जज्ञेऽथ वैदर्भ्यां भद्रसेन्यां पुरुद्वतः।
ऐक्ष्वाकी चाभवद् भार्या जन्तोस्तस्यामजायत।। ४४.४५ ।।
सात्वतः सत्वसंयुक्तः सात्वतां कीर्तिवर्द्धनः।
इमां विसृष्टिं विज्ञाय ज्यामघस्य महात्मनः।।
प्रजावानेति सायुज्यं राज्ञः सोमस्य धीमतः।। ४४.४६ ।।
सात्वतान् सत्वसम्पन्नान् कौसल्या सुषुवे सुतान्।
भजिनं भजमानन्तु दिव्यं देवावृधं नृप!।। ४४.४७।।
अन्धकञ्च महाभोजं वृष्णिं च यदुनन्दनम्!
तेषां तु सर्गा श्चत्वारो विस्तरेणैव तच्छृणु।। ४४.४८।।
सन्दर्भ:- मत्स्यपुराणम् - अध्यायः (44)
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नर्म्मदानूप एकाकी मेकलावृत्तिका अपि।
ऋक्षवन्तं गिरिं गत्वा शुक्तिमन्यामथाविशत् ।। ३३.३१ ।।
ज्यामघस्याभवद्भार्या शैव्या बलवती भृशम्।
अपुत्रोऽपि स वै राजा भार्यामन्यां न विन्दति ।। ३३.३२ ।।
तस्यासीद्विजयो युद्धे ततः कन्यामवाप सः।
भार्यामुवाच राजा स स्नुषेति तु नरेश्वरः।३३.३३ ।।
एवमुक्ताब्रवीदेवं काम्ये यन्ते स्नुषेति सा।
यस्ते जनिष्यते पुत्रस्तस्य भार्या भविष्यति ।। ३३.३४ ।।
तस्य सा तपसोग्रेण शैव्या वैशं प्रसूयत ।
पुत्रं विदर्भं सुभगा शैव्या परिणता सती ।३३.३५।
राजपुत्रौ तु विद्वांसौ स्नुषायां क्रथुकौशिकौ।
पुत्रौ विदर्भोऽजनयच्छूरौ रणविशारदौ ।३३.३६ ।
लोमपादं तृतीयन्तु पश्चाज्जज्ञे सुधार्मिकः।
लोम पादात्मजोवस्तुराहृतिस्तस्य चात्मजः ।। ३३.३७ ।।
कौशिकस्य चिदिः पुत्रस्तस्माच्चैद्या नृपाः स्मृताः ।
क्रथोर्विदर्भपुत्रस्तु कुन्तिस्तस्यात्मजोऽभवत् ।। ३३.३८ ।।
कुन्तेर्धृष्टसुतो जज्ञे पुरोधृष्टः प्रतापवान् ।
धृष्टस्य पुत्रो धर्मात्मा निर्वृतिः परवीरहा ।३३.३९।
तस्य पुत्रो दाशार्हस्तु महाबलपराक्रमः।
दाशार्हस्य सुतो व्योमा ततो जीमूत उच्यते ।। ३३.४० ।।
जीमूतपुत्रो विकृतिस्तस्य भीमरथः सुतः.
अथ भीमरथस्यासीत् पुत्रो रथवरः किल ।। ३३.४१ ।।
दाता धर्म्मरतो नित्यं शीलसत्यपरायणः।
तस्य पुत्रो नवरथस्ततो दशरथः स्मृतः।३३.४२।
तस्य चैकादशरथः शकुनिस्तस्य चात्मजः।
तस्मात् करम्भको धन्वी देवरातोऽभवत्ततः ।। ३३.४३ ।।
देवक्षत्रोऽभवद्राजा देवरातिर्म्महायशाः।
देवक्षत्रसुतो जज्ञे देवनः क्षत्रनन्दनः ।। ३३.४४ ।।
****
देवनात् स मधुर्जज्ञे यस्य मेधार्थसम्भवः।
मधोश्चापि महातेजा मनुर्मनुवशस्तथा** ।। ३३.४५।
नन्दनश्च महातेजा महापुरुवशस्तथा।
आसीत् पुरुवशात् पुत्रः पुरुद्वान् पुरुषोत्तमः ।। ३३.४६ ।।
जज्ञे पुरुद्वतः पुत्रो भद्रवत्यां पुरूद्वहः।
ऐक्षाकी त्वभवद्भार्या सत्त्वस्तस्यामजायत।
सत्त्वात् सत्त्वगुणो पेतः सात्त्वतः कीर्तिवर्द्धनः ।। ३३.४७ ।।
इमां विसृष्टिं विज्ञाय ज्यामघस्य महात्मनः।
प्रजावानेति सायुज्यं राज्ञः सोमस्य धीमतः ।। ३३.४८ ।।
सन्दर्भ:-
इति श्रीमहा पुराणे वायुप्रोक्ते ज्यामघवृत्तान्तकथनं नाम त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः ।। ३३ ।। *
तस्य चासीद्दशरथः शकुनिस्तस्य चात्मजः ।
तस्मात् करम्भः कारम्भिर्देवरातोऽभवन्नृपः।२६।
देवक्षत्रोऽभवत् तस्य दैवक्षत्रिर्महायशाः ।
देवगर्भसमो जज्ञे देवक्षत्रस्य नन्दनः ।। २७ ।।
मधूनां वंशकृद् राजा मधुर्मधुरवागपि ।
मधोर्जज्ञेऽथ वैदर्भो पुत्रो मरुवसास्तथा ।। २८ ।।
आसीन्मरुवसः पुत्रः पुरुद्वान् पुरुषोत्तमः ।
मधुर्जज्ञेऽथ वैदर्भ्यां भद्रवत्यां कुरूद्वहः ।। २९ ।
ऐक्ष्वाकी चाभवद्भार्या सत्त्वांस्तस्यामजायत ।
सत्त्वान् सर्वगुणोपेतः सात्त्वतां कीर्तिवर्धनः ।। 1.36.३० ।।
इमां विसृष्टिं विज्ञाय ज्यामघस्य महात्मनः ।
युज्यते परया कीर्त्या प्रजावांश्च भवेन्नरः ।। ३१ ।।
सन्दर्भ:-
इति श्रीमहाभारते खिलभागे हरिवंशे हरिवंशपर्वणि षट्त्रिंशोऽध्यायः।३६।
नर्म्मदानूप एकाकी मेकलावृत्तिका अपि।
ऋक्षवन्तं गिरिं गत्वा शुक्तिमन्यामथाविशत् ।। ३३.३१ ।।
ज्यामघस्याभवद्भार्या शैव्या बलवती भृशम्।
अपुत्रोऽपि स वै राजा भार्यामन्यां न विन्दति ।। ३३.३२ ।।
तस्यासीद्विजयो युद्धे ततः कन्यामवाप सः।
भार्यामुवाच राजा स स्नुषेति तु नरेश्वरः।३३.३३ ।।
एवमुक्ताब्रवीदेवं काम्ये यन्ते स्नुषेति सा।
यस्ते जनिष्यते पुत्रस्तस्य भार्या भविष्यति ।। ३३.३४ ।।
तस्य सा तपसोग्रेण शैब्या वैशं प्रसूयत ।
पुत्रं विदर्भं सुभगा शैब्या परिणता सती ।३३.३५।
राजपुत्रौ तु विद्वांसौ स्नुषायां क्रथुकौशिकौ।
पुत्रौ विदर्भोऽजनयच्छूरौ रणविशारदौ । ३३.३६ ।
लोमपादं तृतीयन्तु पश्चाज्जज्ञे सुधार्मिकः।
लोम पादात्मजोवस्तुराहृतिस्तस्य चात्मजः ।। ३३.३७ ।
कौशिकस्य चिदिः पुत्रस्तस्माच्चैद्या नृपाः स्मृताः ।
क्रथोर्विदर्भपुत्रस्तु कुन्तिस्तस्यात्मजोऽभवत् ।। ३३.३८ ।
कुन्तेर्धृष्टसुतो जज्ञे पुरोधृष्टः प्रतापवान् ।
धृष्टस्य पुत्रो धर्मात्मा निर्वृतिः परवीरहा।३३.३९ ।
तस्य पुत्रो दशार्हस्तु महाबलपराक्रमः।
दीशर्हस्य सुतो व्योमा ततो जीमूत उच्यते । ३३.४०।
जीमूतपुत्रो विकृतिस्तस्य भीमरथः सुतः.
अथ भीमरथस्यासीत् पुत्रो रथवरः किल ।३३.४१
दाता धर्म्मरतो नित्यं शीलसत्यपरायणः।
तस्य पुत्रो नवरथस्ततो दशरथः स्मृतः।३३.४२ ।
तस्य चैकादशरथः शकुनिस्तस्य चात्मजः।
तस्मात् करम्भको धन्वी देवरातोऽभवत्ततः। ३३.४३ ।
देवक्षत्रोऽभवद्राजा देवरातिर्म्महायशाः।
देवक्षत्रसुतो जज्ञे देवनः क्षत्रनन्दनः । ३३.४४ ।।
देवनात् स मधुर्जज्ञे यस्य मेधार्थसम्भवः।
मधोश्चापि महातेजा मनुर्मनुवशस्तथा ।३३.४५ ।****
नन्दनश्च महातेजा महापुरुवशस्तथा।
आसीत् पुरुवशात् पुत्रः पुरुद्वान् पुरुषोत्तमः ।। ३३.४६ ।।
जज्ञे पुरुद्वतः पुत्रो भद्रवत्यां पुरूद्वहः।
ऐक्षाकी त्वभवद्भार्या सत्त्वस्तस्यामजायत।
सत्त्वात् सत्त्वगुणो पेतः सात्त्वतः कीर्तिवर्द्धनः ।। ३३.४७ ।।
इमां विसृष्टिं विज्ञाय ज्यामघस्य महात्मनः।
प्रजावानेति सायुज्यं राज्ञः सोमस्य धीमतः ।। ३३.४८ ।।
सन्दर्भ-
इति श्रीमहा पुराणे वायुप्रोक्ते ज्यामघवृत्तान्तकथनं नाम त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः ।। ३३।। *
आसीत्कुरुवशात्पुत्रः पुरुहोत्रः प्रतापवान्
अंशुर्जज्ञेथ वैदर्भ्यां द्रवंत्यां पुरुहोत्रतः।२८।
28. कुरुवश से एक वीर पुत्र पुरुहोत्र का जन्म हुआ। पुरुहोत्र से वैदर्भी नामक पत्नी में अंशु नामक पुत्र हुआ।
📚:
वेत्रकी त्वभवद्भार्या अंशोस्तस्यां व्यजायत
सात्वतः सत्वसंपन्नः सात्वतान्कीर्तिवर्द्धनः।२९।
29-. अंशु की पत्नी वेत्रकी से सात्वत हुआ जो ऊर्जा से संपन्न और बढ़ती प्रसिद्धि वाला था।
इमां विसृष्टिं विज्ञाय ज्यामघस्य महात्मनः
प्रजावानेति सायुज्यं राज्ञः सोमस्य धीमतः।३०।
30- महाराज ज्यामघ की. इन संतानों को जानकर कोई भी सन्तान वाला व्यक्ति पुत्र जुड़कर, सोम के साथ एक रूपता प्राप्त करता है।
सात्वतान्सत्वसंपन्ना कौसल्यां सुषुवे सुतान्
तेषां सर्गाश्च चत्वारो विस्तरेणैव तान्शृणु।३१।
31-. कौशल्या में सत्व सम्पन्न सात्वत से चार पुत्रों को जन्म हुआ उन्हें विस्तार से सुनो
×××××××××
कुकुरं भजमानं च श्यामं कंबलबर्हिषम्
कुकुरस्यात्मजो वृष्टिर्वृष्टेस्तु तनयो धृतिः।४५।
45- ये चार पुत्र थे (कुकुर , भजमान, श्याम और कम्बलबर्हिष) । कुकुर के पुत्र वृष्टि हुए और वृष्टि के पुत्र धृति थे।
"सात्वत वंश के यादव"
📚: सात्वत् (सात्वत्)। - यदु वंश के एक राजा और देवक्षत्र के पुत्र, सात्वत के सात पुत्र थे जिनमें -भज, भजी, दिव्य, वृष्णि, देववृध,अन्धक और महाभोज शामिल थे।
सात्वत:- सात्वों में से एक थे और उनके वंश में सात्वत लोगों को सात्वत कहा जाता है। (सभा पर्व, अध्याय 2, श्लोक 30)।
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क्रोष्टा नामक यादव के पौत्र और युधाजित के पुत्र अन्धक !
सात्त्वतान् सत्त्वसम्पन्नात् कौशल्यां सुषुवे सुतान् ।
भजिनं भजमानञ्च दिव्यं देवावृधं नृपम् ।
अन्धकञ्च महाबाहुं, वृष्णिञ्च यदुनन्दनम् । तेषां विसर्गाश्चत्वारो विस्तरेणेह तान् शृणु ।
अन्धकात् काश्यदुहिता चतुरोऽलभ्मतात्मजान् ।कुकुरं भजमानञ्च शभं कम्बलवर्हिषम्” । इति हरिवंशे ।३८-वाँ अध्याय ।
आयु से सात्वत का जन्म हुआ।
सात्वत के सात पुत्र हुए- भजमान, भजि, दिव्य, वृष्णि, देवावृध, अन्धक और महाभोज। भजमान की दो पत्नियाँ थीं, एक से तीन पुत्र हुए-
(२-सात्वत के पुत्र वृष्णि प्रथम )
निम्लोचि, किंकिण और धृष्टि। दूसरी पत्नी से भी तीन पुत्र हुए- शताजित, सहस्रजित् और अयुताजित।
आयु से सात्वत का जन्म हुआ।
सात्वत के सात पुत्र हुए- भजमान, भजि, दिव्य, वृष्णि, देवावृध, अन्धक और महाभोज। भजमान की दो पत्नियाँ थीं, एक से तीन पुत्र हुए-
(२-सात्वत के पुत्र वृष्णि )
निम्लोचि, किंकिण और धृष्टि। दूसरी पत्नी से भी तीन पुत्र हुए- शताजित, सहस्रजित् और अयुताजित।
(३-अनमित्र के पुत्र वृष्णि द्वितीय )
अनमित्र के तीसरे पुत्र का नाम वृष्णि था।*‡‡‡
सात्वत के पुत्र अन्धक के चार पुत्र हुए- कुकुर, भजमान, शुचि और कम्बलबर्हि।
उनमें कुकुर का पुत्र वह्नि, वह्नि का विलोमा, विलोमा का कपोतरोमा और कपोतरोमा का अनु हुआ।
तुम्बुरु गन्धर्व के साथ अनु की बड़ी मित्रता थी। अनु का पुत्र अन्धक, अन्धक का दुन्दुभि, दुन्दुभि का अरिद्योत, अरिद्योत का पुनर्वसु और
पुनर्वसु के आहुक नाम का एक पुत्र तथा आहुकी नाम की एक कन्या हुई।
*****
आहुक के दो पुत्र हुए- देवक और उग्रसेन। देवक के चार पुत्र हुए- देववान्, उपदेव, सुदेव और देववर्धन। इनकी सात बहिनें भी थीं- धृत, देवा, शान्तिदेवा, उपदेवा, श्रीदेवा, देवरक्षिता, सहदेवा और देवकी। वसुदेव जी ने इन सबके साथ विवाह किया था।
****
श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: चतुर्विंश अध्यायः श्लोक 24-41 का हिन्दी अनुवाद:-
उग्रसेन के नौ पुत्र थे- कंस, सुनामा, न्यग्रोध, कंक, शंकु, सुहू, राष्ट्रपाल, सृष्टि और तुष्टिमान। उग्रसेन के पाँच कन्याएँ भी थीं- कंसा, कंसवती, कंका, शूरभू और राष्ट्रपालिका।
इनका विवाह देवभाग आदि वसुदेव जी के छोटे भाइयों से हुआ था। चित्ररथ के पुत्र विदूरथ से शूर, शूर से भजमान, भजमान से शिनि, शिनि से स्वयम्भोज और स्वयम्भोज से हृदीक हुए।
हृदीक से तीन पुत्र हुए- देवबाहु, शतधन्वा और कृतवर्मा।
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(२-सात्वत के पुत्र वृष्णि )
सात्वत के पुत्र अन्धक के चार पुत्र हुए- कुकुर, भजमान, शुचि और कम्बलबर्हि।
उनमें कुकुर का पुत्र वह्नि, वह्नि का विलोमा, विलोमा का कपोतरोमा और कपोतरोमा का "अनु हुआ।
तुम्बुरु गन्धर्व के साथ "अनु की बड़ी मित्रता थी। अनु का पुत्र अन्धक, अन्धक का दुन्दुभि, दुन्दुभि का अरिद्योत, अरिद्योत का पुनर्वसु और
पुनर्वसु के आहुक नाम का एक पुत्र तथा आहुकी नाम की एक कन्या हुई।
*****
आहुक के दो पुत्र हुए- देवक और उग्रसेन। देवक के चार पुत्र हुए- देववान्, उपदेव, सुदेव और देववर्धन। इनकी सात बहिनें भी थीं- धृत, देवा, शान्तिदेवा, उपदेवा, श्रीदेवा, देवरक्षिता, सहदेवा और देवकी। वसुदेव जी ने इन सबके साथ विवाह किया था।
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श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: चतुर्विंश अध्यायः
देवमीढ के पुत्र शूर की पत्नी का नाम था मारिषा। उन्होंने उसके गर्भ से दस निष्पाप पुत्र उत्पन्न किये- वसुदेव, देवभाग, देवश्रवा, आनक, सृंजय, श्यामक, कंक, शमीक, वत्सक और वृक।
ये सब-के-सब बड़े पुण्यात्मा थे। वसुदेव जी के जन्म के समय देवताओं के नगारे और नौबत स्वयं ही बजने लगे थे। अतः वे ‘आनन्ददुन्दुभि’ भी कहलाये। वे ही भगवान् श्रीकृष्ण के पिता हुए। वसुदेव आदि की पाँच बहनें भी थीं-
पृथा (कुन्ती), श्रुतदेवा, श्रुतकीर्ति, श्रुतश्रवा और राजाधिदेवी।
वसुदेव के पिता शूरसेन के एक मित्र थे- कुन्तिभोज। कुन्तिभोज के कोई सन्तान न थी
देवमीढ के पुत्र शूर की पत्नी का नाम था मारिषा। उन्होंने उसके गर्भ से दस निष्पाप पुत्र उत्पन्न किये- वसुदेव, देवभाग, देवश्रवा, आनक, सृंजय, श्यामक, कंक, शमीक, वत्सक और वृक।
ये सब-के-सब बड़े पुण्यात्मा थे। वसुदेव जी के जन्म के समय देवताओं के नगारे और नौबत स्वयं ही बजने लगे थे। अतः वे ‘आनन्ददुन्दुभि’ भी कहलाये। वे ही भगवान् श्रीकृष्ण के पिता हुए। वसुदेव आदि की पाँच बहनें भी थीं-
पृथा (कुन्ती), श्रुतदेवा, श्रुतकीर्ति, श्रुतश्रवा और राजाधिदेवी।
वसुदेव के पिता शूरसेन के एक मित्र थे- कुन्तिभोज। कुन्तिभोज के कोई सन्तान न थी
अहीर जाति के यदुवंश के अन्तर्गत वृष्णि कुल में देवमीढ ही नन्द और वसुदेव के पितामह थे ।
राजा हृदीक के तीन' पुत्र थे; देवमीढ, सत्धन्वा तथा कृतवर्मा थे ।
देवमीढ की राजधानी मथुरा पुरी थी हरिवंश पुराण पर्व- 2 अध्याय 38 में भी कहा गया है कि..👇
"अन्धकस्यसुतो जज्ञे रैवतो नाम पार्थिव: रैवतस्यात्मजौ राजा, विश्वगर्भो महायशा : ।४८।
(हरिवंशपुराण विष्णुपर्व ३८ वाँ अध्याय )
यदु की कई पीढ़ियों बाद अन्धक के रैवत हुए जिनका ही दूसरा नाम हृदीक है । रैवत के विश्वगर्भ अर्थात् देवमीढ़ हुए। ये अन्धक वृष्णि शाखा से सम्बन्धित थे।
देवमीढ नन्द और वसुदेव के पितामह थे । राजा हृदीक के तीन' पुत्र थे; देवमीढ, सत्धनवा तथा कृतवर्मा थे ।
शूरसेन की मारिषा रानी में वसुदेव आदि दश पुत्र तथा पर्जन्य के वरियसी रानी में नन्दादि नौं भाई तथा अर्जन्य के चन्द्रिका रानी से दण्डर और कण्डर पुत्र हुए ।👇-💐☘
और राजन्य के हेमवती रानी से चाटु और वाटु दो पुत्र हुए थे ; इस प्रकार राजा देवमीढ के चार पुत्र तैईस पौत्र थे ।
📚:
"नन्द के परिवारीय जन"
नन्द ★-
अत: कृष्ण के पालक पिता नन्द के होने से जो पारिवारिक सम्बन्ध स्थापित हुए हैं; वह निम्नांकित रूप में हैं ।
नन्द के अन्य नौ भाई थे -धरानंद, ध्रुवानंद, उपनंद, अभिनंद, .सुनंद, कर्मानंद, धर्मानंद, नंद और वल्लभ।
१- नन्द के पिता पर्जन्य, माता वरीयसी, पितामाह देवमीढ और पितामही गुणवती थीं।
-३-यशोदा के पिता—-सुमुख-( भानुगिरि)। माता–पाटला- और भाई यशोवर्धन, यशोधर, यशोदेव, सुदेव आदि नाम चार थे।
नन्द के बड़े भाई — उपनन्द एवं अभिनन्द दो मुख्य थे तुंगी (उपनन्द की पत्नी),
पीवरी (अभिनन्द की पत्नी) थीं।
नन्द छोटे भाई — सन्नन्द (सुनन्द) एवं नन्दन थे जिनकी पत्नी क्रमश: कुवलया (सन्नन्द की पत्नी), और अतुल्या (नन्दन की पत्नी) का नाम था ।
इसके अतिरिक्त नन्द बहिनें सुनन्दा और नन्दिनी भीं थी जिनके पतियों का नाम क्रमश:
-महानील एवं सुनील ।
सुनन्दा (महानील की पत्नी), और-नन्दिनी-(सुनील की पत्नी) थी।
-कृष्ण के पालक पिता—महाराज नन्द।
यशस्विनी यशोदा की बहिन जिनके पति —मल्ल नाम से थे। (एक मत से मौसा का दूसरा नाम भी नन्द है) ये यशस्वनी भी यशोदा की बहिन थी ।
इसके अतिरिक्त यशोदा की अन्य बहिनें—यशोदेवी (दधिसारा), यशस्विनी (हविस्सारा) भी थीं।
📚:
"मथुरा शब्द की उत्पत्ति तथा विकास"
तस्यनाम्ना मधोः पुर वसस्तथा। आसीत् पुरवसः पुत्रः पुरुद्वान् पुरुषोत्तमः।४४।
(मत्स्य-पुराण अध्याय 44 श्लोक 44)
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शूरसेनाभिधः शूरस्तत्राभून्मेदिनीपतिः ।
माथुराञ्छूरसेनांश्च बुभुजे विषयान्नृप ॥ ५९ ॥_________
तत्रोत्पन्नः कश्यपांशः शापाच्च वरुणस्य वै । वसुदेवोऽतिविख्यातः शूरसेनसुतस्तदा ॥६०
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वैश्यवृत्तिरतः सोऽभून्मृते पितरि माधवः ।
उग्रसेनो बभूवाथ कंसस्तस्यात्मजो महान्।६१।
अर्थ-•तब वहाँ मथुरा के शूर पराक्रमी राजा शूरसेन नाम से हुए। और वहां की सारी संपत्ति भोगने का शुभ अवसर उन्हें प्राप्त हुआ ।५९।
अर्थ-•तब वहाँ वरुण के शाप के कारण कश्यप अपने अंश रूप में शूरसेन के पुत्र वसुदेव के रूप में उत्पन्न हुए।६०।
अर्थ • और कालान्तरण में पिता के स्वर्गवासी हो जाने पर वासुदेव ने वैश्य-वृत्ति (कृषि और गोपालन आदि ) से अपना जीवन निर्वाह करने वाले हुए ।६१।
अर्थ-•उन दिनों उग्रसेन भी जो मथुरा के एक भू-भाग पर राज्य करते थे ! वास्तव में (शूरसेन और उग्रसेन दोनों ही बड़े प्रतापी राजा हुए) कुछ दिनों बाद उग्रसेन का पुत्र कंस हुआ जो उस समय के अत्याचारी राजाओं में बड़ा पराक्रमी कहा जाता था।
अदितिर्देवकी जाता देवकस्य सुता तदा ।
शापाद्वै वरुणस्याथ कश्यपानुगता किल।६२॥
अर्थ-•अदिति ही देवक की पुत्री देवकी के रूप में उत्पन्न हुई !और तभी कश्यप भी वरुण के कहने पर ब्रह्मा के शाप से शूरसेन के पुत्र वसुदेव रुप में हुए।
दत्ता सा वसुदेवाय देवकेन महात्मना ।
विवाहे रचिते तत्र वागभूद् गगने तदा ॥ ६३ ॥
अर्थ-•वह देवकी देवक महात्मा के द्वारा वसुदेव से को विवाही गयीं तब उस समय आकाशवाणी हुई ।
कंस कंस ! महाभाग देवकीगर्भसम्भवः ।
अष्टमस्तु सुतः श्रीमांस्तव हन्ता भविष्यति ॥ ६४ ॥
अर्थ-•कंस ! कंस हे महाभाग ! देवकी के गर्भ से उत्पन्न आठवाँ पुत्र श्रीमान तेरा हनन करने वाला होगा।
इति श्रमिद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे कृष्णावतारकथोपक्रमवर्णनं नाम विंशोऽध्यायः ॥ २० ॥
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यह सर्वविदित है कि वसुदेव को बहुतायत पुराणों में गोप रूप में महर्षि कश्यप का अँश रूप में वरुण के शाप वश जन्म लेने का वर्णन किया गया है ।
गोप लोग कृषि, गोपालन आदि के कारण से वैश्य वर्ण में समायोजित किये गये हैं । जो कि असंगत व पूर्व दुराग्रह वश ही है ।
क्योंकि गोपालन और कृषि स्वभाव से क्षत्रिय वृत्ति है। पालन में रक्षण का भाव होने से यह क्षत्रिय वृत्ति ही है । न कि वैश्य वृत्ति वैश्य -वृत्ति तो केवल कुसीद , व्यापार तथा अन्य वाणिज्यिक क्रियाएँ ही हैं
कृषक और वैश्य कि वृत्ति और प्रवृत्ति ही पूर्ण रूपेण भिन्न ही नहीं अपितु विपरीत भी हैं ।
फिर दौनों का सजातीय अथवा सहवर्णी होने का क्या तात्पर्य ? आर्य शब्द मूलतः योद्धा और वीर का विशेषण है; ये आर्य अथवा पशुपालक गोपालक चरावाहों के रूप में विश्व इतिहास में वर्णित हैं ।
परन्तु कालान्तरण में जब आर्य शब्द कृषक के अर्थ में प्रचलित हुआ तो तो ग्राम और कृषि संस्कृति के प्रतिष्ठापक रूप में कृषकों ने श्रेष्ठता के प्रतिमान निर्धारित किये !
अत: आर्य शब्द वीर से धर्मवीर कर्मवीर ,न्यायवीर रूपों में दृढ़ और संकल्प करने वालों का वाचक होकर सभ्याचारीयों का सम्बोधन हो गया !
गोप अथवा आभीर जो वृत्ति और प्रवृत्ति मूलक विशेषण ही थे परन्तु आभीर प्रवृत्ति मूलक होते हुए भी एक जनजाति मूलक विशेषण भी था जो वीर शब्द से प्रादुर्भूत हुआ था।
और वीर का सम्प्रसारण ही आर्य शब्द होता है।
जो परम्परागत रूप से कृषि और गोपालन करने वालों के लिए रूढ़ था । आख्यानकों मे इन्हें यदु के वंशज कहा गया ।
भागवत पुराण पर भाष्य और टीका करने वाले बहुत से संस्कृत विद्वान भी वसुदेव की कृषि -वृत्ति से अनभिज्ञ ही थे; इसी लिए जो दोनों नन्द और वसुदेव के गोपालन वृत्ति को लेकरही गोप और यादवों होने के वंश मूलक भाष्य ही करते रहे ।
देवीभागवत पुराण के चतुर्थ स्कन्ध के बीसवें अध्याय में वसुदेव के वैश्य वर्ण में आने का वर्णन किया है । जो वर्ग मूलक या व्यवसाय मूलक परम्परा के अवशेष हैं ।
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तत्रोत्पन्नः कश्यपांशः शापाच्च वरुणस्य वै ।
वसुदेवोऽतिविख्यातः शूरसेनसुतस्तदा ॥६०॥
वैश्यवृत्तिरतः सोऽभून्मृते पितरि माधवः।
उग्रसेनो बभूवाथ कंसस्तस्यात्मजो महान्॥ ६१॥
अर्थ•- तब वहाँ वरुण के शाप के कारण कश्यप अपने अंश में शूरसेन के पुत्र वसुदेव के रूप में उत्पन्न हुए ।६०।
अर्थ • और कालान्तरण में पिता के मृत्यु हो जाने पर वासुदेव ने वेश्य-वृति (कृषि गोपालन आदि ) से अपना जीवन निर्वाह करने लगे । और उसी समय उग्रसेन हुए जिनका कंस नाम से एक महा पराक्रमी पुत्र हुआ ।६१।
संस्कृत भाषा के प्राचीनत्तम कोश मेदिनीकोश में नन्द के वंश वर्णन व कुल के विषय में वर्णन है ।👇
यदो: कुलवंशं कुल जनपद गोत्रसजातीय गणेपि च। यत्रा यस्मिन्कुले नन्दवसुदेवौ बभूवतुः । इति मेदिनी कोष:)
परवर्ती संस्कृत ग्रन्थों में यादवों के प्रति द्वेष और वैमनस्यता का विस्तार ब्राह्मण समाज में रूढ़ हो गया ।
और इनके वंश और कुल को लेकर विभिन्न प्रकार की काल्पनिक व हेयतापूर्ण कथाऐं सृजित की गयीं ।
जैसे -अभीर शब्द में अण् तद्धित प्रत्यय करने पर आभीर समूह वाची रूप बनता है ।
आभीर अभीर के ही बहुवचन का वाचक है।'परन्तु परवर्ती संस्कृत कोश कारों नें
आभीरों की गोपालन वृत्ति और उनकी वीरता प्रवृत्ति को दृष्टि -गत करते हुए अभीर और आभीर शब्दों की दो भिन्न-भिन्न व्युत्पत्तियाँ कर दीं गयीं ✍
महाभारत के खिल-भाग हरिवंश पुराण में नन्द को ही नहीं अपितु वसुदेव को भी गोप ही कहा गया है।
और कृष्ण का जन्म भी गोप (आभीर) जन-जाति में हुआ था; ऐसा वर्णन है ।
गोप अथवा आभीर जो वृत्ति और प्रवृत्ति मूलक विशेषण ही थे परन्तु आभीर एक जनजाति मूलक विशेषण भी था जो वीर शब्द से प्रादुर्भूत हुआ
जो परम्परागत रूप से कृषि और गोपालन करते थे आख्यानकों मे इन्हें यदु के वंशज कहा गया ।
भागवत पुराण पर भाष्य और टीका करने वाले बहुत से संस्कृत विद्वान भी वसुदेव की कृषि वृत्ति से अनभिज्ञ ही थे जो दोनों के गोप और यादवों के रूप में अलग अलग- वंश मूलक भाष्य ही करते रहे ।
देवीभागवत पुराण के चतुर्थ स्कन्ध के बीसवें
अध्याय में वसुदेव के वैश्य वर्ण में आने का वर्णन किया है । जो वर्ग मूलक या व्यवसाय मूलक परम्परा के अवशेष हैं ।
गोपालन और कृषि वृत्ति परस्पर सम्पूरक थीं।
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त्वत्समं वैभवं नास्ति नन्दराजगृहे क्वचित् ।
कृषीवलो नन्दराजो गोपतिर्दीनमानसः ॥७॥
यदि नन्दसुतः साक्षात्परिपूर्णतमो हरिः ।
सर्वेषां पश्यतां नस्तत्परिक्षां कारय प्रभो।।८।
"श्रीभगवानुवाच -
कृषीवला वयं गोपाः सर्वबीजप्ररोहकाः ।
क्षेत्रे मुक्ताप्रबीजानि विकीर्णीकृतवाहनम् ।२६।
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श्रीगर्गसंहितायां गिरिराजखण्डे श्रीनारदबहुलाश्वसंवादे
हरिपरीक्षणं नाम षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥
यहाँ तक कि राजा नन्द के घर में भी तुम्हारे समान धन और ऐश्वर्य नहीं है।
अनेक गायों के स्वामी कृषक राजा नन्द तुम्हारी तुलना में दीन-हीन हैं।७।
हे स्वामी, यदि नन्द का पुत्र वास्तव में भगवान है, तो कृपया उसकी परीक्षा लीजिए, जिससे हम सब देखते हुए उसकी दिव्यता प्रकट हो जाएगी।८
भगवान ने कहा: हम गोप किसान हैं। हम सभी प्रकार के बीज बोते हैं। मैंने खेतों में कुछ मोती बोए हैं।२६।
गर्गसंहिता-खण्डः (३) (गिरिराजखण्डः)अध्यायः (६)
त्वत्समं वैभवं नास्ति नन्दराजगृहे क्वचित् ।
कृषीवलो नन्दराजो गोपतिर्दीनमानसः ॥ ७ ॥
"श्रीभगवानुवाच -
कृषीवला वयं गोपाः सर्वबीजप्ररोहकाः ।
क्षेत्रे मुक्ताप्रबीजानि विकीर्णीकृतवाहनम् ॥
किसान शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत भाषा के
शब्द कृषाण से हुई है।
वाचस्पत्यम् के अनुसार :
कृषाण- त्रि० कृष—वा० आनक्– कर्षके कृषिशब्दे -
आप्ते के संस्कृत-अंग्रेजी शब्दकोष के अनुसार :
कृषाण¦ कृष्-आनक्-किकन् वा
(जो कृषि से सम्बन्धित कार्य करे वह किसान है)।
इसकी मूल धातु कृष् है (उणादि कृषति-ते, कृष्ट), इससे खीचने अथवा आकर्षित करने (यथा : हस्ताभ्यां नश्यद्क्राक्षीद्), हल चलाने, घसीटने, मोड़ना (यथा : नात्यायतकृष्टशार्ङ्गः), उखाड़ना, बल पूर्वक नियन्त्रण करना
तत्रोत्पन्नः कश्यपांशः शापाच्च वरुणस्य वै ।
वसुदेवोऽतिविख्यातः शूरसेनसुतस्तदा ॥६० ॥
वैश्यवृत्तिरतः सोऽभून्मृते पितरि माधवः। उग्रसेनो बभूवाथ कंसस्तस्यात्मजो महान्॥ ६१॥
अर्थ•- तब वहाँ वरुण के शाप के कारण कश्यप अपने अंश रूप में शूरसेन के पुत्र वसुदेव के रूप में उत्पन्न हुए ।६०।
अर्थ • और कालान्तरण में पिता के मृत्यु हो जाने पर वासुदेव ने वेश्य-वृति (कृषि गोपालन आदि ) से अपना जीवन निर्वाह करने लगे । और उसी समय उग्रसेन हुए जिनका कंस नाम से एक महा पराक्रमी पुत्र हुआ ।६१।
चैतन्य महाप्रभु की शिष्य परम्परा में प्रतिष्ठित बंगाल के वैष्णव सन्त और पुराणों के ज्ञाता "श्रीजीवगोस्वामी" द्वारा रचित चम्पूमहाकाव्य "गोपालचम्पू" में नन्दवंश का देवमीढ पूर्व तक वर्णन किया ।
जिसका यथावत् प्रस्तुति करण करते हैं ;यह कथा तृतीय पूरण में पूर्व चम्पू के अन्तर्गत है ।
निम्नलिखित गद्याँशों में श्री मद्भागवत पुराण के प्राचीनतम भाष्य श्रीगोपालचम्पू के तृतीय पूरण से उद्धृत तथ्य-
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उपनन्द जी को ही स्वकुल की प्रधानता देने के लिए राजतिलक देने की अभिलाषा की। पश्चात् श्री वसुदेव आदि राजाओं एवं श्रीगर्गाचार्य आदि ब्राह्मणों द्वारा सुशोभित सभा की रचना करके श्री उपनन्द जी को राजतिलक दे दिया ।।३७।।
"स पुन: पितुराज्ञाम् अंगीकृत्य कृतकृत्यस्तस्यामेव श्रीवसुदेवादि-संवलितमहानुभावानां सभायामाहूय सभावमुत्संसंगिनं विधाय मध्यममेव निजानुजं तेन तिलकेन गोकुलराजतया सभाजयामास।।३८।
अर्थ•-पश्चात उन श्री उपनन्द जी ने भी पिता की आज्ञा को अंगीकार कर अपने को कृत कत्य मानकर उसी वसुदेव आदि से युक्त सभा में बुलाकर भावपूर्वक
अपनी गोद में बैठा कर अपने मझेले भाई नन्दजी को ही उस तिलक द्वारा गोकुल के राजा रूप में सम्मानित कर दिया अर्थात् उन्ही को व्रज का राजा बना दिया ।३८।
(तृतीय-पूरण श्रीगोपालचम्पू (श्रीकृष्णनन्दिनीहिन्दीटीका वनमालिदासशास्त्री-कृत )
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तस्मिन्नेव दिवसेऽवगतदोषे प्रदोषे समुद्भट-कंसरोषेण जातचित्तशोषेण कृतपरिदेवेन वसुदेवेन प्रहिता व्रजहिता वडवारोहिणी रोहिणीगुप्तमाजगामम; यस्यामागतायां परमपति-व्रतायां सर्व एव व्रजराजराजसमाज: शुभशकुनसंकुलशकुनादिसमजेन सममुल्ललास। तत्र चानन्दमोहिन्यौ श्रीयशोदा-रोहिण्यौ यमुना-गंगे इव संगतसंगे परस्परं परेभ्यश्च सुखसमूहमूहतु:।।६७।।
अर्थ •- उसी दिन दोषरहित प्रदोषकाल में भयंकर कंस के कोप से सूख गया है चित जिनका एवं विलाप करने वाले श्री वासुदेवजी के द्वारा भेजी हुई व्रज की हितकारिणी श्री रोहिणी जी घोड़ी पर चढ़कर गुप्तरूपसे महावन( गोकुल) में आगई । परमपतिव्रता श्री रोहिणी जी के आने मात्र से व्रजराज का सारा राजसमाज शुभशकुनसूचक पक्षियों के समूह के सहित परमप्रसन्न हो गया । वहाँ पर । श्री यशोदा एवं रोहिणी जी तो आनन्द विभोर होकर श्रीगंगा-यमुना की तरह दौनों मिलकर आपस में एवं दूसरों के लिए भी सुखसमुुदाय की वृष्टि करने लग गईं ।।६७।।
तृतीय-पूरण श्रीगोपालचम्पू (श्रीकृष्णनन्दिनीहिन्दीटीका वनमालिदासशास्त्री-कृत )
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हरिवंशपुराण /पर्व २ (विष्णुपर्व)/अध्यायः ०३८।
विकद्रुणा यदोः संततिवर्णनम्, जरासंधस्य आक्रमणानि
अहीर अथवा गोप शूद्र हैं तो वेदों की अधिष्ठात्री देवी गायत्री शूद्रा क्यों नहीं है ? वास्तव में अहीर वैष्णव हैं।
गायत्री वेदजननी गायत्री लोकपावनी ।
न गायत्र्याः परं जप्यमेतद् विज्ञाय मुच्यते ।। १४.५९
सन्दर्भ:-
(कूर्म पुराण उत्तर भाग अध्याय १४का ५९वाँ श्लोक)
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(नन्द - यशोदा, वृषभानु और कीर्तिदा के कुल परिवारों तथा परिवारीय जनों का विस्तार से परिचय. एवं राधा और कृष्ण के विवाह तथा उनकी लौकिक लीलाओं का परिचय )
जैसे-(नन्द के पिता-पर्जन्य- और माता-वरीयसी पितामह- देवमीढ़ और पितामही - गुणवती- थीं।
अत: कृष्ण के पालक पिता नन्द के होने से जो पारिवारिक सम्बन्ध स्थापित हुए हैं; वह निम्नांकित रूप में हैं ।
नन्द के अन्य नौ भाई थे -धरानंद, ध्रुवानंद, उपनंद, अभिनंद, .सुनंद, कर्मानंद, धर्मानंद, नंद और वल्लभ।
१- नन्द के पिता पर्जन्य, माता वरीयसी, पितामाह देवमीढ और पितामही गुणवती थीं।
-३-यशोदा के पिता—-सुमुख-( भानुगिरि)। माता–पाटला- और भाई यशोवर्धन, यशोधर, यशोदेव, सुदेव आदि नाम चार थे।
नन्द के बड़े भाई — उपनन्द एवं अभिनन्द दो मुख्य थे तुंगी (उपनन्द की पत्नी),
पीवरी (अभिनन्द की पत्नी) थीं।
नन्द के छोटे भाई — सन्नन्द (सुनन्द) एवं नन्दन थे जिनकी पत्नी क्रमश: कुवलया (सन्नन्द की पत्नी), और अतुल्या (नन्दन की पत्नी) का नाम था ।
इसके अतिरिक्त नन्द बहिनें सुनन्दा और नन्दिनी भीं थी जिनके पतियों का नाम क्रमश:
-महानील एवं सुनील ।
:—सुनन्दा (महानील की पत्नी), और-नन्दिनी-(सुनील की पत्नी) थी।
-कृष्ण के पालक पिता—महाराज नन्द।
यशस्विनी यशोदा की बहिन जिनके पति —मल्ल नाम से थे। (एक मत से मौसा का दूसरा नाम भी नन्द है) ये यशस्वनी भी यशोदा की बहिन थी ।
इसके अतिरिक्त यशोदा की अन्य बहिनें—यशोदेवी (दधिसारा), यशस्विनी (हविस्सारा) भी थीं।
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कृष्ण के पारिवारिक चाचा ताऊ के भाई बहिनों की संख्या सैकड़ों हजारों में हैं। परन्तु कुछ के नाम नीचें विवरण रूप में उद्धृत करते हैं।
-अग्रज (बड़े भ्राता)—बलराम(रोहिणी जी के पुत्र) -ताऊ के सम्बन्ध से चचेरे बड़े भाई—सुभद्र, मण्डल, दण्डी, कुण्डली, भद्रकृष्ण, स्तोककृष्ण, सुबल, सुबाहु आदि।
ताऊ, चाचा के सम्बन्ध से बहनें –नन्दिरा, मन्दिरा, नन्दी, नन्दा, श्यामादेवी आदि।
नित्य-सखा —
"श्रीकृष्ण के चार प्रकार के सखा हैं—(१) सुहृद्, (२) सखा, (३) प्रियसखा, (४) प्रिय नर्मसखा।
(१) सुहृद्वर्ग के सखा—सुहृद्वर्ग में जो गोपसखा हैं, वे आयु में श्रीकृष्ण की अपेक्षा बड़े हैं ।
वे सदा साथ रहकर इनकी रक्षा करते हैं । ये सुभद्र, भद्रवर्धन, मण्डलीभद्र, कुलवीर, महाभीम, दिव्यशक्ति, गोभट, सुरप्रभ, रणस्थिर आदि हैं ।
इन सबके अध्यक्ष अम्बिकापुत्र विजयाक्ष हैं ।
(२)सखावर्ग के सदस्य—सखावर्ग के कुछ सखा तो श्रीकृष्णचन्द्र के समान आयु के हैं तथा कुछ श्रीकृष्ण से छोटे हैं।
ये सखा भाँति—भाँति से श्रीकृष्ण की आग्रहपूर्वक सेवा करते हैं और सदा सावधान रहते हैं कि कोई शत्रु नन्दनन्दन पर आक्रमण न कर दे।
समान आयु के सखा हैं—विशाल, वृषभ, ओजस्वी, जम्बि, देवप्रस्थ, वरूथप, मन्दार, कुसुमापीड, मणिबन्ध आदि तथा श्रीकृष्ण से छोटी आयु के सखा हैं—मन्दार, चन्दन, कुन्द, कलिन्द, कुलिक आदि।
(३)प्रियसखावर्ग के सदस्य—इस वर्ग में श्रीदाम, दाम, सुदामा, वसुदाम, किंकिणी, भद्रसेन, अंशुमान्, स्तोककृष्ण (श्रीकृष्ण के चाचा नन्दन के पुत्र), पुण्डरीकाक्ष, विटंगाक्ष, विलासी, कलविंक, प्रियंकर आदि हैं।
ये प्रिय सखा विविध क्रीड़ाओं से, परस्पर कुश्ती लड़कर, लाठी के खेल खेलकर, युद्ध—अभिनय की रचनाकर तथा अन्य अनेकों प्रकार से श्रीकृष्णचन्द्र का आनन्दवर्द्धन करते हैं।
ये सब शान्त प्रकृति के हैं तथा श्रीकृष्ण के परम प्राणरूप ये सब समान वय और रूपवाले हैं ।
इन सबमें मुख्य हैं —श्रीदाम । ये पीठमर्दक (प्रधान नायक के सहायक) सखा हैं।
इन्हें श्रीकृष्ण अत्यन्त प्यार करते हैं ।
इसी प्रकार स्तोककृष्ण( छोटा कन्हैया)भी इन्हें बहुत प्रिय हैं, प्राय: देखा जाता है कि श्रीकृष्ण जो भी भोजन करते हैं, उसमें से प्रथम ग्रास का आधा भाग स्तोककृष्ण के मुख में पहले देते हैं एवं फिर शेष अपने मुँह में डाल लेते हैं ।
स्तोककृष्ण देखने में श्रीकृष्ण की प्रतिमूर्ति हैं। वे इन्हें प्यार भी बहुत करते हैं।
भद्रसेन समस्त सखाओं के सेनापति हैं।
भद्रसेन समस्त सखाओं के सेनापति हैं।
(४) प्रिय नर्मसखावर्ग के सखा — इस वर्ग में सुबल,(श्रीकृष्ण के चाचा सन्नन्द के पुत्र), अर्जुन, गन्धर्व, वसन्त, उज्ज्वल, कोकिल, सनन्दन, विदग्ध आदि सखा हैं।
श्रीकृष्ण का ऐसा कोई रहस्य नहीं है, जो इनसे छिपा हो
,दर्पण की सेवा आदि कार्यों में नियुक्त हैं — दक्ष, सुरंग, भद्रांग, स्वच्छ, सुशील एवं प्रगुण नामक गृहस्नापित।
कृष्ण का धनुष भी रहता है तथा इनके मनोहर बाण का नाम ‘शिंजिनी’ है, जिसके दोनों ओर मणियाँ बँधी हुई हैं।
श्रृँग — इनके प्रिय श्रृंग (विषाण) — का नाम ‘मंजुघोष’ है।
"वंशी — इनकी वंशी का नाम ‘भुवनमोहिनी’ है। यह ‘महानन्दा’ नाम से भी विख्यात है।
वेणु — छः रन्ध्रोंवाले इनके सुन्दर वेणु का नाम ‘मदन-झंकार’ है।
मुरली — कोकिलाओं के हृदयाकर्षक कूजन को भी फीका करनेवाली इनकी मधुर मुरलिका का नाम ‘सरला’ है इसका बचपन में (धन्व:) नामक बाँसुरी विक्रेता से कृष्ण ने प्राप्त किया था।
वीणा — इनकी वीणा ‘तरंगिणी’ नाम से विख्यात है।
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राग — गौड़ी तथा गुर्जरी राग आभीर भैरव नामकी राग- रागिनियाँ श्रीकृष्ण को अतिशय प्रिय हैं।
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"देवमीढ की तीन पत्नीयों से उत्पन्न सन्तान- तथा "राधा जी का कुल एवं परिवार)
पिता- वृषभानु ।माता — कीर्तिदा
पितामह )— महिभानु गोप (आभीर)
"पितामही — सुखदा गोपी (अन्यत्र ‘सुषमा’ नाम का भी उल्लेख मिलता है।।
पितृव्य (चाचा)—भानु, रत्नभानु एवं सुभानु
फूफा — काश।
बुआ — भानुमुद्रा।
भ्राता — श्रीदामा।
कनिष्ठा भगिनी — अनंगमंजरी।
मातामह — इन्दु।
मातामही — मुखरा।
मामा — भद्रकीर्ति, महाकीर्ति, चन्द्रकीर्ति।
मामी — क्रमश: मेनका, षष्ठी, गौरी।
मौसा — कुश।
मौसी — कीर्तिमती।
धात्री — धातकी।
सखियाँ — श्रीराधाजी की पाँच प्रकार की सखियाँ हैं — (१) सखी, (२) नित्यसखी, (३) प्राणसखी, (४) प्रियसखी, (५) परम प्रेष्ठसखी।
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(१) सखीवर्ग की सखियाँ — कुसुमिका, विन्ध्या, धनिष्ठा आदि हैं।
(२) नित्यसखीवर्ग की सखियाँ — कस्तूरी, मनोज्ञा, मणिमंजरी, सिन्दूरा, चन्दनवती, कौमुदी, मदिरा आदि हैं।
(३) प्राणसखीवर्ग की सखियाँ — शशिमुखी, चन्द्ररेखा, प्रियंवदा, मदोन्मदा, मधुमती, वासन्ती, लासिका, कलभाषिणी, रत्नवर्णा, केलिकन्दली, कादम्बरी, मणिमती, कर्पूरतिलका आदि हैं।
ये सखियाँ प्रेम, सौन्दर्य एवं सद्गुणों में प्रायः श्रीराधारानी के समान ही हैं।
(४) प्रियसखीवर्ग की सखियाँ — कुरंगाक्षी, मण्डली, मणिकुण्डला, मालती, चन्द्रतिलका, माधवी, मदनालसा, मंजुकेशी, मंजुमेघा, शशिकला, सुमध्या, मधुरेक्षणा, कमला, कामलतिका, चन्द्रलतिका, गुणचूड़ा, वरांगदा, माधुरी, चन्द्रिका, प्रेममंजरी, तनुमध्यमा, कन्दर्पसुन्दरी आदि कोटि—कोटि प्रिय सखियाँ श्रीराधारानी की हैं।
(५) परमप्रेष्ठसखीवर्ग की सखियाँ –इस वर्ग की सखियाँ हैं — (१) ललिता, (२) विशाखा, (३) चित्रा, (४) इन्दुलेखा, (५) चम्पकलता, (६) रंगदेवी, (७) तुंगविद्या, (८) सुदेवी।
सुहृद्वर्ग की सखियाँ — श्यामला, मंगला आदि। प्रतिपक्षवर्ग की सखियाँ — चन्द्रावली आदि। वाद्य एवं संगीत में निपुणा सखियाँ — कलाकण्ठी, सुकण्ठी एवं प्रियपिक—कण्ठिका नाम्नी सखियाँ वाद्य एवं कण्ठसंगीत की कला में अत्यधिक निपुणा हैं।
विशाखा सखी अत्यन्त मधुर कोमल पदों की रचना करती हैं तथा ये तीनों सखियाँ गा-गाकर प्रिया—प्रियतम को सुख प्रदान करती हैं।
ये सब शुषिर, तत, आनद्ध, घन तथा अन्य वाद्य—यन्त्रों को बजाती हैं।
मानलीला में सन्धि करानेवाली सखियाँ — नान्दीमुखी एवं बिन्दुमुखी।
कुल-उपास्यदेव —
भगवान् श्री चन्द्रदेव श्रीराधारानी के कुल—उपास्य देवता हैं। परन्तु सूर्यदेव को सृष्टि का प्रकाशक होने से उनकी भी अर्चना ये करती हैं।
वाटिका — कंदर्प—कुहली (यह प्रत्येक समय सुगन्धित पुष्पों से सुसज्जित रहती है)। कुण्ड — श्रीराधाकुण्ड (इसके नीपवेदीतट में रहस्य—कथनस्थली है)।
राग — मल्हार और धनाश्री श्रीराधारानी की अत्यन्त प्रिय रागिनियाँ हैं।
वीणा — श्रीराधारानी की रुद्रवीणा का नाम मधुमती है।
(नृत्य —श्रीराधारानी के प्रिय नृत्य का नाम छालिक्य है।
रुद्रवल्लकी नाम की नृत्य—पटु सहचरी इन्हें अत्यन्त प्रिय है।
अब इसी प्रकरण की समानता के लिए देखें नीचे
"श्रीश्रीराधाकृष्णगणोद्देश्य दीपिका-
में वर्णित राधा जी के पारिवारिक सदस्यों की सूची वासुदेव- रहस्य- राधा तन्त्र नामक ग्रन्थ के ही समान हैं परन्तु श्लोक विपर्यय ( उलट- फेर) हो गया है। और कुछ शब्दों के वर्ण- विन्यास ( वर्तनी) में भी परिवर्तन वार्षिक परिवर्तन हुआ है।
"वृषभानु: पिता तस्या राधाया वृषभानरिवोज्ज्जवल:।१६८।(ख)
रत्नगर्भाक्षितौ ख्याति कीर्तिदा जननी भवेत्।।१६९।(क)
अनुवाद:- श्री राधा के पिता वृषभानु वृष राशि में स्थित भानु( सूर्य ) के समान उज्ज्वल हैं।१६८-(ख)
श्री राधा जी की माता का नाम कीर्तिदा है। ये पृथ्वी पर रत्नगर्भा- के नाम से प्रसिद्ध हैं।१६९।(क)
"पितामहो महीभानुरिन्दुर्मातामहो मत:।१६९(ख) मातामही पितामह्यौ मुखरा सुखदे उभे।१७०(क)
राधा जी के पिता का नाम महीभानु तथा नाना का नाम इन्दु है। राधा जी दादी का नाम सुखदा और नानी का नाम मुखरा है।१७०।(क)
" रत्नभानु:, सुभानुश्च भानुश्च भ्रातर: पितु:"१७०(ख)
भद्रकर्ति , महाकीर्ति, कीर्तिचन्द्रश्च मातुला:। मातुल्यो मेनका , षष्ठी , गौरी,धात्री और धातकी।।१७१।
अनुवाद:-
भद्रकर्ति , महाकीर्ति, कीर्तिचन्द्र मामा:। और मेनका , षष्ठी , गौरी धात्री और धातकी ये राधा की पाँच मामीयाँ हैं।१७१/।
"स्वसा कीर्तिमती मातुर्भानुमुद्रा पितृस्वसा। पितृस्वसृपति: काशो मातृस्वसृपति कुश:।१७२।।
अनुवाद:- श्रीराधा जी की माता की बहिन का नाम कीर्तिमती,और भानुमुद्रा पिता की बहिन ( बुआ) का नाम है। फूफा का नाम "काश और मौसा जी का नाम कुश है।
"श्रीदामा पूर्वजो भ्राता कनिष्ठानङ्गमञ्जरी।१७३।(क)
अनुवाद:- श्री राधा जी के बड़े भाई का नाम श्रीदामन्- तथा छोटी बहिन का नाम श्री अनंगमञ्जरी है।१७३।(क)
"राधा जी की प्रतिरूपा( छाया) वृन्दा जो ध्रुव के पुत्र केदार की पुत्री है उसके ससुराल पक्ष के सदस्यों के नाम भी बताना आवश्यक है। वह राधा के अँश से उत्पन्न राधा के ही समान रूप ,वाली गोपी है। वृन्दावन नाम उसी के कारण प्रसिद्ध हो जाता है। रायाण गोप का विवाह उसी वृन्दावन के साथ होता है। ब्रह्मवैवर्त पुराण के श्रीकृष्ण जन्मखण्ड के अध्याय-(86) में श्लोक संख्या134-से लगातार 143 तक वृन्दा और रायाण के विवाह ता वर्णन है।
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उवाच वृन्दां भगवान्सर्वात्मा प्रकृतेः परः ।१३४
श्रीभगवानुवाच-
त्वयाऽऽयुस्तपसा लब्धं यावदायुश्च ब्रह्मणः ।
तदेव देहि धर्माय गोलोकं गच्छ सुन्दरि ।१३५ ।
तन्वाऽनया च तपसा पश्चान्मां च लभिष्यसि ।
पश्चाद्गोलोकमागत्य वाराहे च वरानने ।१३६ ।
"वृन्दे ! त्वं वृषभानसुता च राधाच्छाया भविष्यसि।
मत्कलांशश्च रायाणस्त्वां विवाह ग्रहीष्यति ।१३७।
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मां लभिष्यसि रासे च गोपीभी राधया सह ।
राधा श्रीदामशापेन वृषभानसुता यदा ।१३८।
सा चैव वास्तवी राधा त्वं च च्छायास्वरुपिणी
विवाहकाले रायाणस्त्वां च च्छायां ग्रहीष्यति। १३९।
त्वां दत्त्वा वास्तवी राधा साऽन्तर्धाना भविष्यति ।
राधैवेति विमूढाश्च विज्ञास्यन्ति ।
च गोकुले ।१४० ।
स्वप्ने राधापदाम्भोजं नारि पश्यन्ति बल्लवाः ।
स्वयं राधा मम क्रोडे छाया वृन्दा रायाणकामिनी ।१४१।
विष्णोश्च वचनं श्रुत्वा ददावायुश्च सुन्दरी ।
उत्तस्थौ पूर्ण धर्मश्च तप्तकाञ्चनसन्निभः ।।
पूर्वस्मात्सुन्दरः श्रीमान्प्रणनाम परात्परम् । १४२।
वृन्दोवाच
देवाः शृणुत मद्वाक्यं दुर्लङ्घ्यं सावधानतः ।
न हि मिथ्या भवेद्वाक्यं मदीयं च निशामय ।१४३ ।
उपर्युक्त संस्कृत श्लोकों का नीचे अनुवाद देखें-
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अनुवाद:- तब भगवान कृष्ण जो सर्वात्मा एवं प्रकृति से परे हैं; वृन्दा से बोले।
श्रीभगवान ने कहा- सुन्दरि! तुमने तपस्या द्वारा ब्रह्मा की आयु के समान आयु प्राप्त की है।
वह अपनी आयु तुम धर्म को दे दो और स्वयं गोलोक को चली जाओ।
वहाँ तुम तपस्या के प्रभाव से इसी शरीर द्वारा मुझे प्राप्त करोगी।
सुमुखि वृन्दे ! गोलोक में आने के पश्चात वाराहकल्प में हे वृन्दे ! तुम पुन: राधा की वृषभानु की कन्या राधा की छायाभूता होओगी।
उस समय मेरे कलांश से ही उत्पन्न हुए रायाण गोप ही तुम्हारा पाणिग्रहण करेंगे।
फिर रासक्रीड़ा के अवसर पर तुम गोपियों तथा राधा के साथ मुझे पुन: प्राप्त करोगी।
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स्पष्ट हुआ कि रायाण गोप का विवाह मनु के पौत्र केदार की पुत्री वृन्दा " से हुआ था। जो राधाच्छाया के रूप में व्रज में उपस्थित थी।
जब राधा श्रीदामा के शाप से वृषभानु की कन्या होकर प्रकट होंगी, उस समय वे ही वास्तविक राधा रहेंगी।
हे वृन्दे ! तुम तो उनकी छायास्वरूपा होओगी। विवाह के समय वास्तविक राधा तुम्हें प्रकट करके स्वयं अन्तर्धान हो जायँगी और रायाण गोप तुम छाया को ही पाणि-ग्रहण करेंगे;
परंतु गोकुल में मोहाच्छन्न लोग तुम्हें ‘यह राधा ही है’- ऐसा समझेंगे।
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उन गोपों को तो स्वप्न में भी वास्तविक राधा के चरण कमल का दर्शन नहीं होता; क्योंकि स्वयं राधा मेरी हृदय स्थल में रहती हैं !
इस प्रकार भगवान कृष्ण के वचन के सुनकर सुन्दरी वृन्दा ने धर्म को अपनी आयु प्रदान कर दी। फिर तो धर्म पूर्ण रूप से उठकर खड़े हो गये।
उनके शरीर की कान्ति तपाये हुए सुवर्ण की भाँति चमक रही थी और उनका सौंदर्य पहले की अपेक्षा बढ़ गया था। तब उन श्रीमान ने परात्पर परमेश्वर को श्रीकृष्ण को प्रणाम किया।
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सन्दर्भ:-
ब्रह्मवैवर्तपुराण /खण्डः ४ (श्रीकृष्णजन्मखण्डः)/अध्यायः-( ८६ )
राधा जी की प्रतिरूपा( छाया) वृन्दा जो ध्रुव के पुत्र केदार की पुत्री है उसके ससुराल पक्ष के सदस्यों के नाम भी बताना आवश्यक है।
राधाया: प्रतिच्छाया वृन्दया: श्वशुरो वृकगोपश्च देवरो दुर्मदाभिध:।१७३।(ख)
श्वश्रूस्तु जटिला ख्याता पतिमन्योऽभिमनयुक:।
ननन्दा कुटिला नाम्नी सदाच्छिद्रविधायनी।१७४।
"अनुवाद:- राधा की प्रतिछाया रूपा वृन्दा के श्वशुर -वृकगोप देवर- दुर्मद नाम से जाने जाते थे। और सास- का नाम जटिला और पति अभिमन्यु - पति का अभिमान करने वाला था। हर समय दूसरे के दोंषों को खोजने वाली ननद का नाम कुटिला था।१७४।
सन्दर्भ:- श्री-श्री-राधागणोद्देश्यदीपिका( लघुभाग- श्री-कृष्णस्य प्रेयस्य: प्रकरण- रूपादिकम्-
इति श्रीगर्गसंहितायां गोलोकखण्डे"
"अनुवाद-
श्रीगर्ग जी कहते हैं- शौनक ! राजा बहुलाश्व का हृदय भक्तिभाव से परिपूर्ण था। हरिभक्ति में उनकी अविचल निष्ठा थी। उन्होंने इस प्रसंग को सुनकर ज्ञानियों में श्रेष्ठ एवं महाविलक्षण स्वभाव वाले देवर्षि नारद जी को प्रणाम किया और पुन: पूछा।
राजा बहुलाश्व ने कहा- भगवन् ! आपने अपने आनन्दप्रद, नित्य वृद्धिशील, निर्मल यश से मेरे कुल को पृथ्वी पर अत्यंत विशद (उज्ज्वल) बना दिया; क्योंकि श्रीकृष्ण भक्तों के क्षणभर के संग से साधारण जन भी सत्पुरुष महात्मा बन जाता है।
इस विषय में अधिक कहने से क्या लाभ। श्रीराधा के साथ भूतल अवतीर्ण हुए साक्षात परिपूर्णतम भगवान ने व्रज में कौन-सी लीलाएँ कीं- यह मुझे कृपा पूर्वक बताइये।
देवर्षे ! ऋषीश्वर ! इस कथामृत द्वारा आप त्रिताप-दु:ख से मेरी रक्षा कीजिये।
श्री नारद जी कहते हैं- राजन ! वह कुल धन्य है, जिसे परात्पर श्रीकृष्ण भक्त राजा निमि ने समस्त सदगुणों से परिपूर्ण बना दिया है और जिसमें तुम- जैसे योगयुक्त एवं भव-बन्धन से मुक्त पुरुष ने जन्म लिया है।
तुम्हारे इस कुल के लिये कुछ भी विचित्र नहीं है। अब तुम उन परम पुरुष भगवान श्रीकृष्ण की परम मंगलमयी पवित्र लीला का श्रवण करो।
वे भगवान केवल कंस का संहार करने के लिये ही नहीं, अपितु भूतल के संतजनों की रक्षा के लिये अवतीर्ण हुए थे।
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अथैव राधां वृषभानुपत्न्या-
मावेश्य रूपं महसः पराख्यम् ।
कलिन्दजाकूलनिकुञ्जदेशे
सुमन्दिरे सावततार राजन् ॥ ६ ॥
अनुवाद-
उन्होंने अपनी तेजोमयी पराशक्ति श्री राधा का वृषभानु की पत्नी कीर्ति रानी के गर्भ में प्रवेश कराया।
वे श्री राधा कलिन्दजाकूलवर्ती ( यमुना के किनारे वाले) निकुंज प्रदेश के एक सुन्दर मन्दिर में अवतीर्ण हुईं।
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उस समय भाद्रपद का महीना था। शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि एवं सोम का दिन था। मध्याह्न का समय था और आकाश में बादल छाये हुए थे। देवगण नन्दनवन के भव्य प्रसून लेकर भवन पर बरसा रहे थे।
उस समय श्री राधिका जी के अवतार धारण करने से नदियों का जल स्वच्छ हो गया।
सम्पूर्ण दिशाएँ प्रसन्न-निर्मल हो उठीं। कमलों की सुगन्ध से व्याप्त शीतल वायु मन्द गति से प्रवाहित हो रही थी। शरत्पूर्णिमा के शत-शत चन्द्रमाओं से भी अधिक अभिरामा( सुन्दरी) कन्या को देखकर गोपी कीर्तिदा आनन्द में निमग्न हो गयीं।
गोलोक खण्ड : अध्याय 8 का शेष भाग
उन्होंने मंगल कृत्य कराकर पुत्री के कल्याण की कामना से आनन्ददायिनी दो लाख उत्तम गौएँ ब्राह्मणों को दान की। जिनका दर्शन बड़े-बड़े देवताओं के लिये भी दुर्लभ है, तत्त्वज्ञ मनुष्य सैकड़ों जन्मों तक तप करने पर भी जिनकी झाँकी नहीं पाते, वे ही श्री राधिका जी जब वृषभानु के यहाँ साकार रूप से प्रकट हुईं और गोप-ललनाएँ जब उनका लालन-पालन करने लगी, तब सर्वधारण एवं सुन्दर रत्नों से खचित, चन्दन निर्मित तथा रत्न किरण मंडित पालने में सखी जनों द्वारा नित्य झुलायी जाती हुई श्री राधा प्रतिदिन शुक्ल पक्ष के चन्द्रमा की कला की भाँति बढ़ने लगी।
श्री राधा क्या हैं- रास की रंगस्थली को प्रकाशित करने वाली चन्द्रिका, वृषभानु-मन्दिर की दीपावली, गोलोक-चूड़ामणि श्रीकृष्ण के कण्ठ की हारावली।
मैं उन्हीं पराशक्ति का ध्यान करता हुआ भूतल पर विचरता रहता हूँ।
राजा बहुलाश्व ने पूछा- मुने ! वृषभानु जी का सौभाग्य अदभुत है, अवर्णनीय है; क्योंकि उनके यहाँ श्री राधिका जी स्वयं पुत्री रूप से अवतीर्ण हुईं। कलावती और सुचन्द्र ने पूर्वजन्म में कौन सा पुण्यकर्म किया था, जिसके फलस्वरूप इन्हें यह सौभाग्य प्राप्त हुआ।
श्री नारद जी कहते हैं- राजन ! राजराजेश्वर महाभाग सुचन्द्र राजा नृग के पुत्र थे। परम सुन्दर सुचन्द्र चक्रवर्ती नरेश थे। उन्हें साक्षात भगवान का अंश माना जाता है। पूर्वकाल में (अर्यमा प्रभृति) पितरों के यहाँ तीन मानसी कन्याएँ उत्पन्न हुई थी। वे सभी परम सुन्दरी थी। उनके नाम थे- कलावती, रत्नमाला और मेनका।
पितरों ने स्वेच्छा से ही कलावती का हाथ श्री हरि के अंश भूत बुद्धिमान सुचन्द्र के हाथ में दे दिया। रत्नमाला को विदेहराज के हाथ में और मेनका को हिमालय के हाथ में अर्पित कर दिया।
साथ ही विधि पूर्वक दहेज की वस्तुएँ भी दी। महामते ! रत्नमाला से सीताजी और मेनका के गर्भ से पार्वती जी प्रकट हुई। इन दोनों देवियों की कथाएँ पुराणों में प्रसिद्ध हैं। तदनंतर कलावती को साथ लेकर महाभाग सुचन्द्र गोमती के तट पर ‘नैमिष’( नीमसार)नामक वन में गये।
उन्होंने ब्रह्माजी की प्रसन्नता के लिये तपस्या आरम्भ की। वह तप देवताओं के कालमान से बारह वर्षों तक चलता रहा।
तदनंतर ब्रह्माजी वहाँ पधारे और बोले- ‘वर माँगो।’ राजा के शरीर पर दीमकें चढ़ गयी थी।
ब्रह्मवाणी सुनकर वे दिव्य रूप धारण करके बाँबी( दीमक के द्वारा बनाये गये घर) से बाहर निकले।
उन्होंने सर्वप्रथम ब्रह्माजी को प्रणाम किया और कहा- ‘मुझे दिव्य परात्पर मोक्ष प्राप्त हो।’ राजा की बात सुनकर साध्वी रानी कलावती का मन दु:खी हो गया। अत: उन्होंने
ब्रह्माजी से कहा- ‘पितामह ! पति ही नारियों के लिये सर्वोत्कृष्ट देवता माना गया है।
यदि ये मेरे पति देवता मुक्ति प्राप्त कर रहे हैं तो मेरी क्या गति होगी ? इनके बिना मैं जीवित नहीं रहूँगी।
यदि आप इन्हें मोक्ष देंगे तो मैं पतिसाहचर्य में विक्षेप के कारण विह्वल हो आपको शाप दे दूँगी।
ब्रह्माजी ने कहा- देवि ! मैं तुम्हारे शाप के भय से अवश्य डरता हूँ; किंतु मेरा दिया हुआ वर कभी विफल नहीं हो सकता। इसलिये तुम अपने प्राणपति के साथ स्वर्ग में जाओ। वहाँ स्वर्ग सुख भोगकर कालांतर में फिर पृथ्वी पर जन्म लोगी।
द्वापर के अंत में भारतवर्ष में, गंगा और यमुना के बीच, तुम्हारा जन्म होगा। तुम दोनों से जब परिपूर्ण भगवान की प्रिया साक्षात श्रीराधिका जी पुत्री रूप में प्रकट होंगी, तब तुम दोनों साथ ही मुक्त हो जाओगे।
श्री नारद जी कहते हैं- इस प्रकार ब्रह्माजी के दिव्य एवं अमोघ वर से कलावती और सुचन्द्र- दोनों की भूतल पर उत्पत्ति हुई।
वे ही गोकुल ( महावन) में ‘कीर्ति’ तथा ‘श्री वृषभानु’ दाम्पति हुए हैं। कलावती कान्यकुब्ज देश (कन्नौज) में राजा भलन्दन के यज्ञ कुण्ड़ से प्रकट हुई।
उस दिव्य कन्या को अपने पूर्वजन्म की सारी बातें स्मरण थीं।
पूर्वजन्म के कलावती और सुचन्द्र ही इस जन्म के कीर्तिदा और वृषभानु हुए।
सुरभानु गोप के घर सुचन्द्र का जन्म हुआ। उस समय वे ‘श्रीवृषभानु’ नाम से विख्यात हुए।
उन्हें भी पूर्वजन्म की स्मृति बनी रही। वे गोपों में श्रेष्ठ होने के साथ ही दूसरे कामदेव के समान परम सुन्दर थे।
परम बुद्धिमान नन्दराज जी ने इन दोनों का विवाह-सम्बन्ध जोड़ा था। उन दोनों को पूर्वजन्म की स्मृति थी ही, अत: वह एक-दूसरे को चाहते थे और दोनों की इच्छा से ही यह सम्बन्ध हुआ।
जो मनुष्य वृषभानु और कलावती के इस उपाख्यान को श्रवण करता है, वह सम्पूर्ण पापों से छूट जाता है और अंत में भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के सायुज्य को प्राप्त कर लेता है।
इस प्रकार श्री गर्ग संहिता में गोलोक खण्ड के अंतर्गत नारद-बहुलाश्व संवाद में ‘श्री राधिका के पूर्वजन्म का वर्णन’ नामक आठवाँ अध्याय
स्वतन्त्रभाव वाले श्रीकृष्ण की इच्छा से वे मूलप्रकृति भगवती सृष्टि करने की कामना से सहसा प्रकट हो गयीं।
उनकी आज्ञा से भिन्न-भिन्न कर्मो की अधिष्ठात्री होकर एवं भक्तोंके अनुरोध से उन पर अनुग्रह करने हेतु विग्रह धारण करनेवाली वे पाँच रूपों में अवतरित हुईं ॥ 12-13 ॥
१-जो गणेश-माता दुर्गा, शिवप्रिया तथा शिवरूपा हैं, वे ही विष्णुमाया नारायणी हैं तथा पूर्णब्रह्म स्वरूपा हैं ब्रह्मादि देवता, मुनि तथा मनुगण सभी उनकी पूजा स्तुति करते हैं वे सबकी अधिष्ठात्रीदेवी हैं, सनातनी हैं तथा शिवस्वरूपा हैं ।। 14-15 ।।
वे धर्म, सत्य, पुण्य तथा कीर्तिस्वरूपा हैं वे यश, कल्याण, सुख, प्रसन्नता और मोक्ष भी देती हैं तथा शोक, दुःख और संकटोंका नाश करनेवाली हैं ॥ 16 ॥
वे अपनी शरण में आये हुए दीन और पीडित जनों की निरन्तर रक्षा करती हैं। वे ज्योतिस्वरूपा हैं, उनका विग्रह परम तेजस्वी है और वे भगवान् श्रीकृष्ण के तेज की अधिष्ठात्री देवता हैं ।17।
वे सर्वशक्तिस्वरूपा हैं और महेश्वर की शाश्वत शक्ति हैं। वे ही साधकों को सिद्धि देनेवाली, सिद्धिरूपा, सिद्धेश्वरी, सिद्धि तथा ईश्वरी हैं। बुद्धि, निद्रा, क्षुधा, पिपासा, छाया, तन्द्रा, दया, स्मृति, जाति, क्षान्ति, भ्रान्ति, शान्ति, कान्ति, चेतना, तुष्टि, पुष्टि, लक्ष्मी, धृति तथा माया-ये इनके नाम हैं।
वे परमात्मा श्रीकृष्णके पास सर्वशक्तिस्वरूपा होकर स्थित रहती हैं ।॥ 18-20 ॥
श्रुतियों में इनके प्रसिद्ध गुणों का थोड़े में वर्णन किया गया है, जैसा कि आगमों में भी वर्णन उपलब्ध है। उन अनन्ता के अनन्त गुण हैं।
२-अब दूसरे स्वरूपके विषयमें सुनिये ॥ 21 ॥
जो शुद्ध सत्त्वरूपा महालक्ष्मी हैं, वे भी परमात्माकी ही शक्ति हैं, वे सर्वसम्पत्स्वरूपिणी तथा सम्पत्तियोंकी
अधिष्ठातृदेवता हैं ॥ 22 ।
वे शोभामयी, अति संयमी, शान्त, सुशील, सर्वमंगलरूपा हैं और लोभ, मोह, काम, क्रोध, मद, अहंकारादि से रहित हैं ॥ 23 ॥
भक्तों पर अनुग्रह करने वाली, अपने स्वामी के लिये सबसे अधिक पतिव्रता, प्रभु के लिये प्राणतुल्य, उनकी प्रेमपात्र तथा प्रियवादिनी, सभी धन-धान्यकी अधिष्ठात्री तथा आजीविका स्वरूपिणी वे देवी सती महालक्ष्मी वैकुण्ठ में अपने स्वामी भगवान् विष्णु की सेवा में तत्पर रहती हैं । ll24-25 ॥
वे स्वर्ग स्वर्गलक्ष्मी राजाओं में राजलक्ष्मी, गृहस्थ मनुष्योंके घर में गृहलक्ष्मी और सभी प्राणियों तथा पदार्थोंमें शोभा रूपसे विराजमान रहती हैं।
वे मनोहरा हैं। वे पुण्यवान् लोगों में कीर्तिरूप से, राजपुरुषों में प्रभारूप से, व्यापारियों में वाणिज्यरूप से तथा पापियों में कलहरूप से विराजती हैं। वे दयारूपा कही गयी हैं, | वेदों में उनका निरूपण हुआ है, वे सर्वमान्या, सर्वपूज्या तथा सबके लिये वन्दनीया हैं।
३-अब आप अन्य स्वरूपके विषयमें मुझसे सुनिये ॥ 26-283 ll
जो परमात्माको वाणी, बुद्धि, विद्या तथा ज्ञानकी अधिष्ठात्री हैं सभी विद्याओंकी विग्रहरूपा हैं, वे देवी सरस्वती हैं। वे मनुष्योंको बुद्धि, कवित्व शक्ति, मेधा, प्रतिभा और स्मृति प्रदान करती हैं। वे भिन्न भिन्न सिद्धान्तोंके भेद निरुपण का सामर्थ्य रखनेवाली, व्याख्या और बोधरूपिणी तथा सारे सन्देहोंका नाश करनेवाली कही गयी हैं।
वे विचारकारिणी, ग्रन्थकारिणी, शक्तिरूपिणी तथा स्वर-संगीत-सन्धान तथा ताल की कारणरूपा हैं।
वे ही विषय, ज्ञान तथा वाणीस्वरूपा है सभी प्राणियोंको संजीवनी शक्ति है; वे व्याख्या और वाद-विवाद करनेवाली हैं; शान्तिस्वरूपा है तथा वीणा और पुस्तक धारण करनेवाली हैं। वे शुद्धसत्त्वगुणमयी, सुशील तथा श्रीहरिकी प्रिया है। उनको कान्ति हिम्, चन्दन, कुन्द, चन्द्रमा, कुमुद और श्वेत कमलके समान है।
रत्नमाला लेकर परमात्मा श्रीकृष्णका जप करती हुई वे साक्षात् तपःस्वरूपा हैं तथा तपस्वियोंको उनकी तपस्याका फल प्रदान करनेवाली हैं।
वे सिद्धिविद्यास्वरूपा और सदा सब प्रकारको सिद्धियाँ प्रदान करनेवाली हैं। जिनकी कृपाके बिना विप्रसमूह सदा मूक और मृततुल्य रहता है, उन श्रुतिप्रतिपादित तथा आगम में वर्णित तृतीया शक्ति जगदम्बिका भगवती सरस्वतीका यत्किंचित् वर्णन मैंने किया। अब अन्य शक्ति के विषयमें आप मुझसे सुनिये ॥ 29-37 ॥
वे विचक्षण सावित्री चारों वर्णों, वेदांगों, छन्दों, सन्ध्यावन्दनके मन्त्रों एवं समस्त तन्त्रों की जननी हैं। वे द्विजातियोंकी जातिरूपा हैं; जपरूपिणी, तपस्विनी, ब्रह्मज्ञानीयों की तेजरूपा और सर्वसंस्काररूपिणी हैं ।। 38-39 ।।
३-४-वे तीसरी और चौथी ब्रह्मप्रिया सावित्री और गायत्री परम पवित्र रूपसे विराजमान रहती हैं, तीर्थ भी अपनी शुद्धिके लिये जिनके स्पर्शकी इच्छा करते हैं ।। 40 ।।
वे शुद्ध स्फटिक की कान्तिवाली, शुद्धसत्त्व गुणमयी, सनातनी, पराशक्ति तथा परमानन्दरूपा हैं। हे नारद! वे परब्रह्मस्वरूपा, मुक्तिप्रदायिनी, ब्रह्मतेजोमयी शक्तिस्वरूपा तथा शक्तिकी अधिष्ठातृ देवता भी हैं, जिनके चरणरज से समस्त संसार पवित्र हो जाता है।
इस प्रकार चौथी शक्ति का वर्णन कर दिया। अब ५-पाँचवीं शक्ति राधा के विषय में आपसे कहता हूँ ॥ 41-43 ll
जो पंच प्राणोंकी अधिष्ठात्री, पंच प्राणस्वरूपा, सभी शक्तियोंमें परम सुन्दरी, परमात्मा के लिये प्राणों से भी अधिक प्रियतम्, सर्वगुणसम्पन्न, सौभाग्यमानिनी, गौरवमयी, श्रीकृष्णकी वामांगार्धस्वरूपा और गुण तेज में परमात्माके समान ही हैं; वे परावरा, सारभूता, परमा, आदिरूपा, सनातनी, परमानन्दमयी, धन्या मान्या और पूज्या हैं ॥ 44-46 ॥
वे परमात्मा श्रीकृष्णके रासक्रीडाकी अधिष्ठातृदेवी हैं, रासमण्डलमें उनका आविर्भाव हुआ है, वे रासमण्डलसे सुशोभित हैं; वे देवी रासेश्वरी, सुरसिका, रासरूपी आवासमें निवास करनेवाली, गोलोकमें निवास करनेवाली, गोपीवेष धारण करनेवाली, परम आह्लाद स्वरूपा, सन्तोष तथा हर्षरूपा, आत्मस्वरूपा, निर्गुण, निराकार और सर्वथा निर्लिप्त हैं ।। 47-49 ।।
वे इच्छारहित, अहंकाररहित और भक्तोंपर अनुग्रह करनेवाली हैं। बुद्धिमान् लोगोंने वेदविहित मार्गसे ध्यान करके उन्हें जाना है ॥ 50 ॥
वे ईश्वरों, देवेन्द्रों और मुनिश्रेष्ठोंके दृष्टिपथमें भी नहीं आतीं। वे अग्निके समान शुद्ध वस्त्रोंको धारण करनेवाली, विविध अलंकारोंसे विभूषित, कोटिचन्द्रप्रभासे युक्त और पुष्ट तथा समस्त ऐश्वर्यौसे समन्वित विग्रहवाली हैं। वे भगवान् श्रीकृष्णकी अद्वितीय दास्यभक्ति तथा सम्पदा प्रदान करनेवाली हैं ॥ 51-52 ॥
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वाराह कल्प में उन्होंने [व्रजमण्डलमें] वृषभानु की पुत्री के रूप में जन्म लिया, जिनके चरणकमलों के स्पर्शसे पृथ्वी पवित्र हुई। ब्रह्मादि देवों के द्वारा भी जो अदृष्ट थीं, वे भारतवर्ष में सर्वसाधारण को दृष्टिगत हुई।
हे मुने! स्त्रीरत्नोंमें सारस्वरूप वे राधा भगवान् श्रीकृष्ण के वक्षःस्थल में उसी प्रकार सुशोभित हैं, जैसे आकाशमण्डल में नवीन मेघों के बीच विद्युत् लता सुशोभित होती है।
पूर्वकाल में ब्रह्माजी ने आत्मशुद्धिहेतु जिनके चरणकमल के नख के दर्शन के लिये साठ हजार वर्षों तक तपस्या की, किंतु स्वप्न में भी नखज्योति का दर्शन नहीं हुआ; साक्षात् दर्शन की तो बात ही क्या ? उन्हीं ब्रह्मा ने पृथ्वीतल के वृदावन में तपस्या के द्वारा उनका दर्शन किया।
मैंने पाँचवीं देवी का वर्णन कर दिया; वे ही राधा कही गयी हैं ।।53-57 ॥
प्रत्येक भुवन में सभी देवियाँ और नारियाँ इन्हीं राधा प्रकृतिदेवी की अंश, कला, कलांश अथवा अंशांश से उत्पन्न हैं ॥ 58 ॥
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भगवतीके पूर्णावताररूप में जो-जो प्रधान अंशस्वरूपा पाँच विद्यादेवियाँ कही गयी हैं, उनका वर्णन कर रहा हूँ; सुनिये ॥ 59 ॥
लोकपावनी गंगा प्रधान अंशस्वरूपा हैं, वे भगवान् विष्णु के श्रीविग्रह से प्रकट हुई हैं तथा सनातनरूप से ब्रह्मद्रव होकर विराजती हैं।60।
गंगा पापियों के पापरूप ईंधन के दाह के लिये धधकती अग्निके समान हैं; किंतु [भक्तोंके लिये ] सुखस्पर्शिणी तथा स्नान- आचमनादि से मुक्तिपद प्रदायिनी हैं ॥ 61 ॥
गंगा गोलोकादि दिव्य लोकों में जाने के लिये सुखद सीढ़ीके समान, तीर्थो को पावन करनेवाली तथा नदियों में श्रेष्ठतम हैं। भगवान् शंकरके जटाजूट में मुक्तामाल की भाँति सुशोभित होनेवाली वे गंगा भारतवर्ष में तपस्वीजनों की तपस्याको शीघ्र सफल करती रहती हैं।
उनका जल चन्द्रमा, दुग्ध और श्वेत कमलके समान धवल है और वे शुद्ध सत्त्वरूपिणी हैं। वे निर्मल, निरहंकार, साध्वी और नारायणप्रिया हैं ॥ 62-64 ॥
विष्णुवल्लभा तुलसी भी भगवती की प्रधानांशस्वरूपा हैं। वे सती सदा भगवान् विष्णुके चरणपर विराजती हैं और उनकी आभूषणरूपा हैं।
हे मुने ! उनसे तप, संकल्प और पूजादि के सभी सत्कर्मों का सम्पादन होता है, वे सभी पुष्पों की सारभूता हैं तथा सदैव पवित्र एवं पुण्यप्रदा हैं ॥ 65-66।
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वे अपने दर्शन एवं स्पर्शसे शीघ्र ही मोक्षपद देनेवाली हैं। कलि के पापरूप शुष्क ईंधन को जलानेके लिये वे अग्निस्वरूपा हैं।
जिनके चरणकमलके संस्पर्श से पृथ्वी शीघ्र पवित्र हो जाती है और तीर्थ भी जिनके दर्शन तथा स्पर्शसे स्वयंको पवित्र करनेके लिये कामना करते हैं ।। 67-68 ।।
जिनके बिना सम्पूर्ण जगत् में सभी कर्म निष्फल हो जाते हैं। जो मुमुक्षुजनों को मोक्ष देनेवाली हैं, कामिनी हैं और सब प्रकार के भोग प्रदान करनेवाली हैं। कल्पवृक्षस्वरूपा हैं जो परमा-देवता भारतीयों को प्रसन्न करनेके लिये भारतवर्ष में वृक्षरूप में प्रादुर्भूत हुई ।। 69-70 ॥
उपर्युक्त सन्दर्भित- श्लोक देवीमहा-भागवत पुराण के नवम स्कन्ध के प्रथम अध्याय से हैं।
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ब्रह्मवैवर्त पुराण, 2, 49 और 56-57 और आदि पर्व अध्याय 11)।
राधा के जन्म के बारे में पुराणों में अलग-अलग कथाएं दी गई हैं, जो इस प्रकार हैं:—
(i) उनका जन्म गोकुल में वृषभानु और कलावती की पुत्री के रूप में हुआ था। (ब्रह्मवैवर्त पुराण, 2, 49; 35-42; और
नारद पुराण, 2. 81) में राधा जी सन्दर्भ-
मह्यं प्रोवाच देवर्षे भविष्यच्चरितं हरेः ।।
सुखमास्तेऽधुना देवः कृष्णो राधासमन्वितः।। ८१-२५।।
गोलोकेऽस्मिन्महेशान गोपगोपीसुखावहः ।।
स कदाचिद्धरालोके माथुरे मंडले शिव।८१-२६ ।
आविर्भूयाद्भुतां क्रीडां वृन्दाग्ण्ये करिष्यति ।।
वृषभानुसुता राधा श्रीदामानं हरेः प्रियम् ।। ८१-२७ ।।
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सखायं विरजागेहद्वाःस्थं क्रुद्धा शपिष्यति ।।
ततः सोऽपि महाभाग राधां प्रतिशपिष्यति ।। ८१-२८ ।।
याहि त्वं मानुषं लोकं मिथः शापाद्धरां ततः ।।
प्राप्स्यत्यथ हरिः पश्चाद्ब्रह्मणा प्रार्थितः क्षितौ ।। ८१-२९ ।।
भूभारहरणायैव वासुदेवो भविष्यति ।।
वसुदेवगृहे जन्म प्राप्य यादवनंदनः ।। ८१-३० ।।
कंसासुरभिया पश्चाद्व्रजं नन्दस्य यास्यति ।।
तत्र यातो हरिः प्राप्तां पूतनां बालघातिनीम् । ८१-३१।
श्रीबृहन्नारदीयपुराणे बृहदुपाख्याने उत्तरभागे वसुमोहिनीसंवादे वसुचरित्रनिरूपणं नामैकाशीतितमोऽध्यायः ।। ८१ ।।
(उपर्युक्त सन्दर्भ- राधा जी के विषय में "नारद पुराण "के उत्तरभाग के (81)वें अध्याय से है।)
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अनुवाद:-
यदुवंश के वृष्णि कुल में देवमीण जी के पुत्र पर्जन्य नाम से थे। जो बहुत ही शिष्ट और अत्यन्त महान समस्त व्रज समुदाय के लिए थे। वे पर्जन्य श्रीकृष्ण के पितामह अर्थात नन्द बाबा के पिता थे।१।
अनुवाद:- प्राचीन काल में नन्दीश्वर प्रदेश में गोपों के साथ रहते हुए वे पर्जन्य यतियों के जीवन धारण करके स्वराट्- विष्णु का तप करते थे।२।
तपसानेन धन्येन भाविन: पुत्रा वरीयान्। पञ्च ते मध्यमस्तेषां नन्दनाम्ना जजान।३।
"अनुवाद:- महान तपस्या के द्वारा उनके श्रेष्ठ पाँच पुत्र उत्पन्न हुए। जिनमें मध्यम पुत्र नन्द नाम से थे।३।
तुष्टस्तत्र वसन्नत्र प्रेक्ष्य केशिनमागतं।
परीवारै: समं सर्वैर्ययौ भीतो गोकुलं।।४।
"अनुवाद:- वहाँ सन्तोष पूर्ण रहते हुए केशी नामक असुर को आया हुआ देखकर परिवार के साथ पर्जन्य जी भय के कारण नन्दीश्वर को छोड़कर गोकुल (महावन) को चले गये।४।
कृष्णस्य पितामही महीमान्या कुसुम्भाभा हरित्पटा।
वरीयसीति वर्षीयसी विख्याता खर्वा: क्षीराभ लट्वा।५।
"अनुवाद:- कृष्ण की दादी( पिता की माता) वरीयसी जो सम्पूर्ण गोकुल में बहुत सम्मानित थीं ; कुसुम्भ की आभा वाले हरे वस्त्रों को धारण करती थीं। वह छोटे कद की और दूध के समान बालों वाली और अधिक वृद्धा थीं।५।
भ्रातरौ पितुरुर्जन्यराजन्यौ च सिद्धौ गोषौ ।
सुवेर्जना सुभ्यर्चना वा ख्यापि पर्जन्यस्य सहोदरा।६।
"अनुवाद:- नन्द के पिता पर्जन्य के दो भाई अर्जन्य और राजन्य प्रसिद्ध गोप थे। सुभ्यर्चना नाम से उनकी एक बहिन भी थी।६।
गुणवीर: पति: सुभ्यर्चनया: सूर्यस्याह्वयपत्तनं।
निवसति स्म हरिं कीर्तयन्नित्यनिशिवासरे।।७।
"अनुवाद:- सुभ्यर्चना के पति का नाम गुणवीर था। जो सूर्य-कुण्ड नगर के रहने वाले थे। जो नित्य दिन- रात हरि का कीर्तन करते थे।७।
उपनन्दानुजो नन्दो वसुदेवस्य सुहृत्तम:।
नन्दयशोदे च कृष्णस्य पितरौ व्रजेश्वरौ।८।
"अनुवाद:- उपनन्द के भाई नन्द वसुदेव के सुहृद थे और कृष्ण के माता- पिता के रूप में नन्द और यशोदा दोनों व्रज के स्वामी थे। ८।
वसुदेवोऽपि वसुभिर्दीव्यतीत्येष भण्यते।
यथा द्रोणस्वरूपाञ्श: ख्यातश्चानक दुन्दुभ:।९।
"अनुवाद:-वसु शब्द पुण्य ,रत्न ,और धन का वाचक है। वसु के द्वारा देदीप्यमान(प्रकाशित) होने के कारण श्रीनन्द के मित्र वसुदेव कहलाते हैं। अथवा विशुद्ध सत्वगुण को वसुदेव कहते हैं।
इस अर्थ नें शुद्ध सत्व गुण सम्पन्न होने से इनका नाम वसुदेव है। ये द्रोण नामक वसु के स्वरूपाञ्श हैं। ये आनक दुन्दुभि नाम से भी प्रसिद्ध हैं।९।
वसु= (वसत्यनेनेति वस + “शॄस्वृस्निहीति ।” उणाणि १ । ११ । इति उः) – रत्नम् । धनम् । इत्यमरःकोश ॥ (यथा, रघुः । ८ । ३१ । “बलमार्त्तभयोपशान्तये विदुषां सत्कृतये
बहुश्रुतम् । वसु तस्य विभोर्न केवलं गुणवत्तापि परप्रयोजनम् ॥) वृद्धौषधम् । श्यामम् । इति मेदिनीकोश । हाटकम् । इति विश्वःकोश ॥ जलम् । इति सिद्धान्त- कौमुद्यामुणादिवृत्तिः ॥
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नामेदं नन्दस्य गारुडे प्रोक्तं मथुरामहिमक्रमे।
वृषभानुर्व्रजे ख्यातो यस्य प्रियसुहृदर:।।१०।
"अनुवाद:- नन्द के ये नाम गरुडपुराण के मथुरा महात्म्य में कहे गये हैं। व्रज में विख्यात श्री वृषभानु जी नन्द के परम मित्र हैं।१०।
माता गोपान् यशोदात्री यशोदा श्यामलद्युति:।
मूर्ता वत्सलते! वासौ इन्द्रचापनिभाम्बरा।।११।
"अनुवाद:- श्रीकृष्ण की माता गोप जाति को यश प्रदान करने वाली होने से यशोदा कहलाती हैं।
इनकी अंग कान्ति श्यामल वर्ण की है ये वात्सल्य की प्रतिमूर्ति हैं।और इनके वस्त्र इन्द्र धनुष के समान हैं ।११।
गौरवर्णा यशोदे त्वं नन्द त्वं गौरवर्णधृक् ।
अयं जातः कृष्णवर्ण एतत्कुलविलक्षणम्॥५ ॥
अयं जातः कृष्णवर्ण एतत्कुलविलक्षणम्॥५ ॥
यशोदा; त्वम्- आप; नन्द - नन्द; त्वम् - आप; गौर- वर्ण - धृक् - धारक करने वाले; अयम् - वह; जाता - जन्मा; कृष्ण-वर्णा - श्याम; एतत् - कुल - इस कुल में; विलक्षणम् -असामान्य।
"गर्गसंहिता- ३/५/७
हे यशोदा, तुम्हारा रंग गोरा है। हे नन्द, तुम्हारा रंग भी गोरा है। यह लड़का बहुत काला है। वह परिवार के बाकी लोगों से अलग है।
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श्रीगर्गसंहितायां गिरिराजखण्डे श्रीनारदबहुलाश्वसंवादे
गोपविवादो नाम पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥
गोपविवादो नाम पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥
"विशेष- यशोदा का वर्ण(रंग) श्यामल (साँबला) ही था। गौरा रंग कभी नहीं था- यह बात पन्द्रहवीं सदी में लिखित "श्रीश्रीराधाकृष्ण गणोद्देश दीपिका में भी लिखी हुई है।
परन्तु उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में काशी पण्डित- पीठ ने गर्गसंहिता के गिरिराजखण्ड के पञ्चम अध्याय में तीन फर्जी श्लोक प्रकाशन काल में लिखकर जोड़ दिए हैं।
जिनको हम ऊपर दे चुके हैं।
शास्त्रों गोपों की वीरता सर्वत्र प्रतिध्वनित है।
प्रसंग:- श्रृगाल नामक एक मण्डलेश्वर राजाधिराज था ; जो जय-विजय की तरह गोलोक से नीचेवैकुण्ठ मे द्वारपाल था। जिसका नाम सुभद्र था जिसने लक्ष्मी के शाप से भ्रष्ट हेकर पृथ्वी पर जन्म लिया। उसी श्रृगाल की कृष्ण के प्रति शत्रुता की सूचना देने के लिए एक ब्राह्मण कृष्ण की सुधर्मा सभा आता है और वह उस श्रृगाल मण्डलेश्वर के कहे हुए शब्दों को कृष्ण से कहता है।
हे प्रभु आपके प्रति श्रृँगाल ने कहा :-
श्लोक का अनुवाद:-
"वसुदेव का पुत्र कृष्ण वैश्य जाति का है; वह अहंकारी क्षत्रिय भी है।"
वह तो विष्णु को अपना भक्त कहता है; इसलिए वह मायावी और ठग है ।६।
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{ब्रह्मवैवर्त पुराण खण्ड (४)१२१ वाँ अध्याय
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आदिपुराणे प्रोक्तं देने नाम्नी नन्द भार्याया यशोदा देवकी -इति च।।
अत: सख्यमभूत्तस्या देवक्या: शौरिजायया।।१२।
"अनुवाद:- आदि पुराण में वर्णित नन्द की पत्नी यशोदा का नाम देवकी भी है। इस लिए शूरसेन के पुत्र वसुदेव की पत्नी देवकी के साथ नाम की भी समानता होने के कारण स्वाभाविक रूप में यशोदा का सख्य -भाव भी है।१२।
उपनन्दोऽभिनन्दश्च पितृव्यौ पूर्वजौ पितु:।
पितृव्यौ तु कनीयांसौ स्यातां सनन्द नन्दनौ।१३।
"अनुवाद:- श्री नन्द के उपनन्द और अभिनन्दन बड़े भाई तथा आनन्द और नन्दन नाम हे दो छोटे भाई भी हैं। ये सब कृष्ण के पितृव्य( ताऊ-चाचा)हैं।१३।
"आद्य: सितारुणरुचिर्दीर्घकूचौ हरित्पट:।
तुङ्गी प्रियास्य सारङ्गवर्णा सारङ्गशाटिका।।१४।
"अनुवाद:- सबसे बड़े भाई उपनन्द की अंग कान्ति धवल ( सफेद) और अरुण( उगते हुए सूर्य) के रंग के मिश्रण अर्थात- गुलाबी रंग जैसी है। इनकी दाढ़ी बहुत लम्बी और वस्त्र हरे रंग के हैं । इनकी पत्नी का नाम तुंगी है। जिनकी अंग कन्ति तथा साड़ी का रंग सारंग( पपीहे- के रंग जैसा है।१४।
द्वितीयो भ्रातुरभिनन्दनस्य भार्या पीवरी ख्याता।
पाटलविग्रहा नीलपटा लम्बकूर्चोऽसिताम्बरा:।।१५ ।
"अनुवाद:- दूसरे भाई श्री -अभिनन्द की अंग कान्ति शंख के समान गौर वर्ण है। और दाढ़ी लम्बी है। ये काले रंग के वस्त्र धारण करते हैं। इनकी पत्नी का नाम पीवरी जो नीले रंग के वस्त्र धारण करती हैं। तथा जिनकी अंग कान्ति पाटल ( गुलाब) रंग की है।१५।
सुनन्दापरपर्याय: सनन्दस्य च पाण्डव:।
श्यामचेल: सितद्वित्रिकेशोऽयं केशवप्रिय:।१६।
"अनुवाद:- आनन्द का दूसरा नाम सन नन्द है। इनकी अंग कान्ति पीला पन लिए हुए सफेद रंग की तथा वस्त्र काले रंग के हैं। इनके शिर के सम्पूर्ण बालों में केवल दो या तीन बाल ही सफेद हुए हैं। ये केशव- कृष्ण के परम प्रिय है।१६।
सनन्दस्य भार्या कुवलया नाम्न: ख्याता।
रक्तरङ्गाणि वस्त्राणि धारयति तस्या: कुवलयच्छवि:।१७।
"अनुवाद:-सनन्द की पत्नी का नाम कुवलया है।
जो कुवलय( नीले और हल्के लाल के मिश्रण जैसे ) वस्त्रों को धारण करने वाली तथा कुवलय अंक कान्ति वाली हैं।१७।
नन्दन: शिकिकण्ठाभश्चण्डातकुसुमाम्बर:।
अपृथग्वसति: पित्रा सह तरुण प्रणयी हरौ।
अतुल्यास्य प्रिया विद्युतकान्तिरभ्रनिभाम्बरा।१८।
"अनुवाद:- नंदन की अंग कान्ति मयूर के
कण्ठ जैसी तथा वस्त्र चण्डात (करवीर) पुष्प के समान है। श्रीनन्दन अपने पिता ( श्री पर्जन्य जी के साथ ही इकट्ठे निवास करते हैं। श्रीहरि के प्रति इनका कोमल प्रेम है। नन्दन जी की पत्नी का नाम अतुल्या है। जिनकी अंगकान्ति बिजली के समान रंग वाली है। तथा वस्त्र मेघ की तरह श्याम रंग के हैं।१८।
सानन्दा नन्दिनी चेति पितुरेते सहोदरे।
कल्माषवसने रिक्तदन्ते च फेनरोचिषी।१९।
"अनुवाद:-( कृष्ण के पिता नन्द की सानन्दा और नन्दिनी नाम की दो बहिने हैं। ये अनेक प्रकार के रंग- विरंगे) वस्त्र धारण करती हैं। इनकी दन्तपंक्ति रिक्त अर्थात इनके बहुत से दाँत नहीं हैं। इनकी अंगकान्ति फेन( झाग) की तरह सफेद है।१९।
सानन्दा नन्दिन्यो: पत्येतयो: क्रमाद्महानील: सुनीलश्च तौ कृष्णस्य वपस्वसृपती शुद्धमती।
२०।
"अनुवाद:-सानन्दा के पति का नाम महानील और नन्दिनी के पति का नाम सुनील है। ये दोंनो श्रीकृष्ण के फूफा अर्थात् (नन्द) के बहनोई हैं।२०।
पितुराद्यभ्रातुः पुत्रौ कण्डवदण्डवौ नाम्नो:
सुबले मुदमाप्तौ सौ ययोश्चारु मुखाम्बुजम्।।२१।
"अनुवाद:- श्री कृष्ण के पिता नन्द बड़े भाई श्री उपनन्द के कण्डव और दण्डव नाम के दो पुत्र हैं।
दोंनो सुबह के संग में बहुत प्रसन्न रहते हैं। तथ
दोंनो का मनोहर मुख कमल के समान सुन्दर है।२१।
राजन्यौ यौ तु पुत्रौ नाम्ना तौ चाटु- वाटुकौ।
दधिस्सारा- हविस्सारे सधर्मिण्यौ क्रमात्तयो:।।२२।
"अनुवाद:- श्रीनन्द जी के दो चचेरे भाई जो उनके चाचा राजन्य के पुत्र हैं। उनका नाम चाटु और वाटु है उनकी पत्नीयाँ का नाम इसी क्रम से दधिस्सारा और हविस्सारा है।२२।
महामहो महोत्साहो स्यादस्य सुमुखाभिध:।
लम्बकम्बुसमश्रु: पक्वजम्बूफलच्छवि:।।२३।
"अनुवाद:- श्री कृष्ण के नाना (मातामह) का नाम सुमुख है। ये बहुत उद्यमी और उत्साही हैं। इनकी लम्बी दाढ़ी शंख के समान सफेद तथा अंगकान्ति पके हुए जामुन के फल जैसी ( श्यामल) है।२३।
"श्रीब्रह्मवैवर्ते पुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे नारायणनारदसंवादे कृष्णान्नप्राशन वर्णननामकरणप्रस्तावो नाम त्रयोदशोऽध्याये यशोदया: पित्रोर्नामनी पद्मावतीगिरिभानू उक्तौ।२४।
अनुवाद:- ब्रह्म वैवर्त पुराण के श्रीकृष्ण जन्म खण्ड के अन्तर्गत नारायण -और नारद संवाद में कृष्ण का अन्न प्राशनन नामक तेरहवें अध्याय में यशोदा के माता-पिता का नाम पद्मावती और गिरिभानु है।२४।
सर्वेषां गोपपद्मानां गिरिभानुश्च भास्करः ।
पत्नी पद्मासमा तस्य नाम्ना पद्मावती सती ।२५।
पत्नी पद्मासमा तस्य नाम्ना पद्मावती सती ।२५।
अनुवाद:- गोप रूपी कमलों के गिरिभानु सूर्य हैं।
और उनकी पत्नी पद्मावती लक्ष्मी के समान सती है।२५।
तस्याः कन्या यशोदा त्वं यशोवर्द्धनकारिणी ।।
बल्लवानां च प्रवरो लब्धो नन्दश्च वल्लभः।२६।।
अनुवाद:- उस पद्मावती की कन्या यशोदा तुम यश को बढ़ाने वाली हो। गोपों में श्रेष्ठ नन्द तुमको पति रूप में प्राप्त हुए हैं।२६।
माता गोपान् यशोदात्री यशोदा श्यामलद्युति:।
मूर्ता वत्सलते! वासौ इन्द्रचापनिभाम्बरा।।११।
"अनुवाद:- श्रीकृष्ण की माता गोप जाति को यश प्रदान करने वाली होने से यशोदा कहलाती हैं।
इनकी अंग कान्ति श्यामल वर्ण की है ये वात्सल्य की प्रतिमूर्ति हैं।और इनके वस्त्र इन्द्र धनुष के समान हैं ।११।
गौरवर्णा यशोदे त्वं नन्द त्वं गौरवर्णधृक् ।
अयं जातः कृष्णवर्ण एतत्कुलविलक्षणम्॥५ ॥
अयं जातः कृष्णवर्ण एतत्कुलविलक्षणम्॥५ ॥
यशोदा; त्वम्- आप; नन्द - नन्द; त्वम् - आप; गौर- वर्ण - धृक् - धारक करने वाले; अयम् - वह; जाता - जन्मा; कृष्ण-वर्णा - श्याम; एतत् - कुल - इस कुल में; विलक्षणम् -असामान्य।
"गर्गसंहिता- ३/५/७
हे यशोदा, तुम्हारा रंग गोरा है। हे नन्द, तुम्हारा रंग भी गोरा है। यह लड़का बहुत काला है। वह परिवार के बाकी लोगों से अलग है।
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श्रीगर्गसंहितायां गिरिराजखण्डे श्रीनारदबहुलाश्वसंवादे
गोपविवादो नाम पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥
गोपविवादो नाम पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥
"विषेश- यशोदा का वर्ण(रंग) श्यामल (साँबला) ही था। गौरा रंग कभी नहीं था- यह बात पन्द्रहवीं सदी में लिखित "श्रीश्रीराधाकृष्ण गणोद्देश दीपिका में भी लिखी हुई है।
परन्तु उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में काशी पण्डित- पीठ ने गर्गसंहिता के गिरिराजखण्ड के पञ्चम अध्याय में तीन फर्जी श्लोक प्रकाशन काल में लिखकर जोड़ दिए हैं।
जिनको हम ऊपर दे चुके हैं।
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मातामही तु महिषी दधिपाण्डर कुन्तला।
पाटला पाटलीपुष्पपटलाभा हरित्पटा।२७।
"अनुवाद:- कृष्ण की नानी (मातामही) का नाम पाटला है ये व्रज की रानी के रूप में प्रसिद्ध हैं। इनके केश देखने में गाय के दूध से बने दही के समान पीले, अंगकान्ति पाटल पुष्प के समान हल्के गुलाबी रंग जैसी तथा वस्त्र हरे रंग के है।२७।
प्रिया सहचरी तस्या मुखरा नाम बल्लवी।
व्रजेश्वर्यै ददौ स्तन्यं सखी स्नहभरेण या।२८।
"अनुवाद:- मातामही( नानी) पाटला की मुखरा
नाम की एक गोपी प्रिय सखी है। वह पाटला के प्रति इतनी स्नेह-शील है कि कभी- कभी
पाटला के व्यस्त होने पर व्रज की ईश्वरी पाटला
की पुत्री यशोदा को अपना स्तन-पान तक भी करा देती थी।२८।
सुमुखस्यानुजश्चारुमुखोऽञ्जनभिच्छवि:।
भार्यास्य कुलटीवर्णा बलाका नाम्नो बल्लवी।२९।
"अनुवाद:- सुमुख( गिरिभानु) के छोटे भाई की नाम चारुमुख है। इनकी अंगकान्ति काजल की तरह है। इनकी पत्नी का नाम बलाका है। जिनकी अंगकान्ति कुलटी( गहरे नीले रंग की एक प्रकार की दाल जो काजल ( अञ्जन) रे रंग जैसी होती है।२९
गोलो मातामही भ्राता धूमलो वसनच्छवि:।
हसितो य: स्वसुर्भर्त्रा सुमुखेन क्रुधोद्धुर:।३०।
"अनुवाद:-मातामही( नानी ) पाटला के भाई का नाम गोल है। तथा वे धूम्र( ललाई लिए हुए काले रंग के वस्त्र धारण करते हैं। बहिन के पति-( बहनोई) सुमुख द्वारा हंसी मजाक करने पर गोल विक्षिप्त हो जाते हैं।३०।
दुर्वाससमुपास्यैव कुलं लेभे व्रजोज्ज्वलम्।।गोलस्य भार्या जटिला ध्वाङ्क्ष वर्णा महोदरी।३१।
"अनुवाद:- दुर्वासा ऋषि की उपासना के परिणाम स्वरूप इन्हें व्रज के उज्ज्वल वंश में जन्म ग्रहण करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। गोल की पत्नी का नाम जटिला है। यह जटिला कौए जैसे रंग वाली तथा स्थूलोदरी (मोटे पेट वाली ) है।३१।
यशोदाया: त्रिभ्रातरो यशोधरो यशोदेव: सुदेवस्तु।
अतसी पुष्परुचय: पाण्डराम्बर-संवृता:।३२।
"अनुवाद:-यशोदा के तीन भाई हैं जिनके नाम हैं यशोधर" यशोदेव और सुदेव – इन सबकी अंगकान्ति अलसी के फूल के समान है । ये सब हल्का सा पीलापन लिए हुए सफेद रंग के वस्त्र धारण करते हैं।३२।
येषां धूम्रपटा भार्या कर्कटी-कुसुमित्विष:।।
रेमा रोमा सुरेमाख्या: पावनस्य पितृव्यजा:।।३३।
"अनुवाद:-इन सब तीनों भाइयों की पत्नीयाँ पावन( विशाखा के पिता) के चाचा( पितृव्य )की कन्याऐं हैं। जिनके नाम क्रमश: रेमा, रोमा और सुरेमा हैं। ये सब काले वस्त्र पहनती हैं। इनकी अंगकान्ति कर्कटी(सेमल) के पुष्प जैसी है।३३।
यशोदेवी- यशस्विन्यावुभे मातुर्यशोदया: सहोदरे।
दधि:सारा हवि:सारे इत्यन्ये नामनी तयो:।३४।
"अनुवाद:- यशोदेवी और यशस्विनी श्रीकृष्ण की माता यशोदा की सहोदरा बहिनें हैं। ये दोंनो क्रमश दधिस्सारा और हविस्सारा नाम से भी जानी जाती हैं। बड़ी बहिन यशोदेवी की अंगकान्ति श्याम वर्ण-(श्यामली) है।३४।
चाटुवाटुकयोर्भार्ये ते राजन्यतनुजयो: ़
सुमुखस्य भ्राता चारुमुखस्यैक: पुत्र: सुचारुनाम्।३५ ।
अनुवाद:- दधिस्सारा और हविस्सारा पहले कहे हुए राजन्य गोप के पुत्रों चाटु और वाटु की पत्नियाँ हैं। सुमुख के भाई चारुमख का सुचारु नामक एक सुन्दर पुत्र है।३५।
गोलस्य भ्रातु: सुता नाम्ना तुलावती या सुचारोर्भार्या ।३६।
"अनुवाद:-गोल की भतीजी तुलावती चारुमख के पुत्र सुचारु की पत्नी है।३६।
पौर्णमासी भगवती सर्वसिद्धि विधायनी।
काषायवसना गौरी काशकेशी दरायता।३७।
"अनुवाद:- भगवती पौर्णमासी सभी सिद्धियों का विधान करने वाली है। उसके वस्त्र काषाय ( गेरुए) रंग के हैं। उसकी अंगकान्ति गौरवर्ण की और केश काश नामक घास के पुष्प के समान सफेद हैं; ये आकार में कुछ लम्बी हैं।
मान्या व्रजेश्वरादीनां सर्वेषां व्रजवासिनां। नारदस्य प्रियशिष्येयमुपदेशेन तस्य या।३८।
"अनुवाद:- पौर्णमसी व्रज में नन्द आदि सभी व्रजवासियों की पूज्या और देवर्षि नारद की प्रिया शिष्या है नारद के उपदेश के अनुसार जिसने।३८।
सान्दीपनिं सुतं प्रेष्ठं हित्वावन्तीपुरीमपि।
स्वाभीष्टदैवतप्रेम्ना व्याकुला गोकुलं गता।३९।
"अनुवाद:- अपने सबसे प्रिय पुत्र सान्दीपनि को उज्जैन(अवन्तीपरी) में छोड़कर अपने अभीष्ट देव श्रीकृष्ण के प्रेम में वशीभूत होकर गोकुल में गयी।३९।
राधया अष्ट सख्यो ललिता च विशाखा च चित्रा।
चम्पकवल्लिका तुङ्गविद्येन्दुलेखा च रङ्गदेवी सुदेविका।४०।
"अनुवाद:- राधा जी की आठ सखीयाँ ललिता, विशाखा,चित्रा,चम्पकलता, तुंगविद्या,इन्दुलेखा,रंग देवी,और सुदेवी हैं।४०।
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तत्राद्या ललितादेवी स्यादाष्टासु वरीयसी प्रियसख्या भवेज्ज्येष्ठा सप्तविञ्शतिवासरे।४१।
"अनुवाद:-इन आठ वरिष्ठ सखीयों में ललिता देवी सर्वश्रेष्ठ हैं यह अपनी प्रिया सखी राधा से सत्ताईस दिन बड़ी हैं।४१।
अनुराधा तया ख्याता वामप्रखरतां गता।
गोरोचना निभाङ्गी सा शिखिपिच्छनिभाम्बरा।।४२।
"अनुवाद:- श्री ललिता अनुराधा नाम से विख्यात तथा वामा और प्रखरा नायिकाओं के गुणों से विभूषित हैं। ललिता की अंगकान्ति गोरोचना के समान तथा वस्त्र मयूर पंख जैसे हैं।४२।
ललिता जाता मातरि सारद्यां पितुरेषा विशोकत:।
पतिर्भैरव नामास्या: सखा गोवर्द्धनस्य य: ।४३।
"अनुवाद:- श्री ललिता की माता का नाम सारदी और पिता का नाम विशोक है। ललिता के पति का नाम भैरव है जो गोवर्द्धन गोप के सखा हैं।४३।
सम्मोहनतन्त्रस्य ग्रन्थानुसार राधया: सख्योऽष्ट
कलावती रेवती श्रीमती च सुधामुखी।
विशाखा कौमुदी माधवी शारदा चाष्टमी स्मृता।४४।
"अनुवाद:-सम्मोहन तन्त्र के अनुसार राधा की आठ सखियाँ हैं।–कलावती, रेवती,श्रीमती, सुधामुखी, विशाखा, कौमुदी, माधवी,शारदा।४४।
श्रीमधुमङ्गल ईषच्छ्याम वर्णोऽपि भवेत्।
वसनं गौरवर्णाढ्यं वनमाला विराजित:।।४५।
"अनुवाद:- श्रीमान्- मधुमंगल कुछ श्याम वर्ण के हैं। इनके वस्त्र गौर वर्ण के हैं। तथा वन- मालाओं
से सुशोभित हैं।४५।
पिता सान्दीपनिर्देवो माता च सुमुखी सती।
नान्दीमुखी च भगिनी पौर्णमासी पितामही।।४६।
"अनुवाद:-मधुमंगल के पिता सान्दीपनि ऋषि तथा माता का नीम सुमुखी है। जो बड़ी पतिव्रता है। नान्दीमुखी मधु मंगल की बहिन और पौर्णमासी दादी है। ४६।
पौर्णमास्या: पिता सुरतदेवश्च माता चन्द्रकला सती। प्रबलस्तु पतिस्तस्या महाविद्या यशस्करी।४७।
"अनुवाद:- पौर्णमासी के पिता का नाम सुरतदेव तथा माता का नाम चन्द्रकला है। पौर्णमासी के पति का नाम प्रबल है। ये महाविद्या में प्रसिद्धा और सिद्धा हैं।४७।
पौर्णमास्या भ्रातापि देवप्रस्थश्च व्रजे सिद्धा शिरोमणि: । नानासन्धानकुशला द्वयो: सङ्गमकारिणी।।४८।
"अनुवाद:- पौर्णमासी का भाई देवप्रस्थ है। ये पौर्णमासी व्रज में सिद्धा में शिरोमणि हैं।
पौर्णमासी अनेक अनुसन्धान करके कार्यों में कुशल तथा श्रीराधा-कृष्ण दोंनो का मेल कराने वाली है।४८।
आभीरसुभ्रुवां श्रेष्ठा राधा वृन्दावनेश्वरी।
अस्या: सख्यश्च ललिताविशाखाद्या: सुविश्रुता:।४९।
"अनुवाद:- आभीर कन्याओं में श्रेष्ठा वृन्दावन की अधिष्ठात्री व स्वामिनी राधा हैं। ललिता और विशाखा आदि सख्यियाँ श्री राधा जी प्रधान सखियों के रूप में विख्यात हैं।४९।
चन्द्रावली च पद्मा च श्यामा शैव्या च भद्रिका।
तारा विचित्रा गोपाली पालिका चन्द्रशालिका।५०।
"अनुवाद:- चन्दावलि, पद्मा, श्यामा,शैव्या,भद्रिका, तारा, विचित्रा, गोपली, पालिका ,चन्द्रशालिका,
मङ्गला विमला लीला तरलाक्षी मनोरमा
कन्दर्पो मञ्जरी मञ्जुभाषिणी खञ्जनेक्षणा।।५१
"अनुवाद:-मंगला ,विमला, नीला,तरलाक्षी,मनोरमा,कन्दर्पमञजरी, मञ्जुभाषिणी, खञ्जनेक्षणा
कुमुदा, कैरवी, शारी,शारदाक्षी, विशारदा,। शङ्करी, कुङ्कुङ्मा,कृष्णासारङ्गीन्द्रावलि, शिवा।।५२।
"अनुवाद:-कुमुदा, कैरवी, शारी,शारदाक्षी, विशारदा, शंकरी, कुंकुमा,कृष्णा, सारंगी,इन्द्रावलि, शिवा आदि ।
तारावली,गुणवती,सुमुखी,केलिमञ्जरी।
हारावली,चकोराक्षी, भारती, कमलादय:।।५३।
"अनुवाद:तारावली,गुणवती,सुमुखी,केलिमञ्जरी,हारावली,चकोराक्षी, भारती, और कमला आदि गोपिकाऐं कृष्ण की उपासिका व आराधिका हैं।
आसां यूथानि शतश: ख्यातान्याभीर सुताम्।
लक्षसङ्ख्यातु कथिता यूथे- यूथे वराङ्गना।।५४।
"अनुवाद:- इन आभीर कन्याओं के सैकड़ों यूथ( समूह) हैं और इन यूथों में बंटी हुई वरागंनाओं की संख्या भी लाखों में है।५४।
अब इसी प्रकरण की समानता के लिए देखें नीचे
"अनुवाद:- श्री राधा के पिता वृषभानु वृष राशि में स्थित भानु( सूर्य ) के समान उज्ज्वल हैं।१६८-(ख)
श्री राधा जी की माता का नाम कीर्तिदा है। ये पृथ्वी पर रत्नगर्भा- के नाम से प्रसिद्ध हैं।१६९।(क)
राधा जी के पिता का नाम महीभानु तथा नाना का नाम इन्दु है। राधा जी दादी का नाम सुखदा और नानी का नाम मुखरा है।१७०।(क)
अनुवाद:-भद्रकर्ति , महाकीर्ति, कीर्तिचन्द्र मामा:। और मेनका , षष्ठी , गौरी धात्री और धातकी ये राधा की पाँच मामीयाँ हैं।१७१/।
"अनुवाद:- श्रीराधा जी की माता की बहिन का नाम कीर्तिमती,और भानुमुद्रा पिता की बहिन ( बुआ) का नाम है। फूफा का नाम "काश और मौसा जी का नाम कुश है।
"अनुवाद:- श्री राधा जी के बड़े भाई का नाम श्रीदामन्- तथा छोटी बहिन का नाम श्री अनंगमञ्जरी है।१७३।(क)
रायाणस्य परिणीता वृन्दा वृन्दावनस्य अधिष्ठात्री । इयं केदारस्य सुता कृष्णाञ्शस्य भक्ते: सुपात्री। १।
ब्रह्मवैवर्तपुराणस्य श्रीकृष्णजन्मखण्डस्य षडाशीतितमोऽध्यायस्य अनतर्निहिते । सप्तत्रिंशताधिकं शतमे श्लोके रायाणस्य पत्नी वृन्दया: वर्णनमस्ति।।२।
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उवाच वृन्दां भगवान्सर्वात्मा प्रकृतेः परः ।१३४
श्रीभगवानुवाच-
त्वयाऽऽयुस्तपसा लब्धं यावदायुश्च ब्रह्मणः ।
तदेव देहि धर्माय गोलोकं गच्छ सुन्दरि ।१३५ ।
तन्वाऽनया च तपसा पश्चान्मां च लभिष्यसि ।
पश्चाद्गोलोकमागत्य वाराहे च वरानने ।१३६ ।
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मां लभिष्यसि रासे च गोपीभी राधया सह ।
राधा श्रीदामशापेन वृषभानसुता यदा ।१३८।
सा चैव वास्तवी राधा त्वं च च्छायास्वरुपिणी
विवाहकाले रायाणस्त्वां च च्छायां ग्रहीष्यति। १३९।
त्वां दत्त्वा वास्तवी राधा साऽन्तर्धाना भविष्यति ।
राधैवेति विमूढाश्च विज्ञास्यन्ति ।
च गोकुले ।१४० ।
स्वप्ने राधापदाम्भोजं नारि पश्यन्ति बल्लवाः ।
स्वयं राधा मम क्रोडे छाया वृन्दा रायाणकामिनी ।१४१।
विष्णोश्च वचनं श्रुत्वा ददावायुश्च सुन्दरी ।
उत्तस्थौ पूर्ण धर्मश्च तप्तकाञ्चनसन्निभः ।।
पूर्वस्मात्सुन्दरः श्रीमान्प्रणनाम परात्परम् । १४२।
वृन्दोवाच
देवाः शृणुत मद्वाक्यं दुर्लङ्घ्यं सावधानतः ।
न हि मिथ्या भवेद्वाक्यं मदीयं च निशामय ।१४३ ।
उपर्युक्त संस्कृत श्लोकों का नीचे अनुवाद देखें-
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तब भगवान कृष्ण जो सर्वात्मा एवं प्रकृति से परे हैं; वृन्दा से बोले।
श्रीभगवान ने कहा- सुन्दरि! तुमने तपस्या द्वारा ब्रह्मा की आयु के समान आयु प्राप्त की है।
वह अपनी आयु तुम धर्म को दे दो और स्वयं गोलोक को चली जाओ।
वहाँ तुम तपस्या के प्रभाव से इसी शरीर द्वारा मुझे प्राप्त करोगी।
सुमुखि वृन्दे ! गोलोक में आने के पश्चात वाराहकल्प में हे वृन्दे ! तुम पुन: राधा की वृषभानु की कन्या राधा की छायाभूता होओगी।
उस समय मेरे कलांश से ही उत्पन्न हुए रायाण गोप ही तुम्हारा पाणिग्रहण करेंगे।
फिर रासक्रीड़ा के अवसर पर तुम गोपियों तथा राधा के साथ मुझे पुन: प्राप्त करोगी।
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स्पष्ट हुआ कि रायाण गोप का विवाह मनु के पौत्र केदार की पुत्री वृन्दा " से हुआ था। जो राधाच्छाया के रूप में व्रज में उपस्थित थी।
जब राधा श्रीदामा के शाप से वृषभानु की कन्या होकर प्रकट होंगी, उस समय वे ही वास्तविक राधा रहेंगी।
हे वृन्दे ! तुम तो उनकी छायास्वरूपा होओगी। विवाह के समय वास्तविक राधा तुम्हें प्रकट करके स्वयं अन्तर्धान हो जायँगी और रायाण गोप तुम छाया को ही पाणि-ग्रहण करेंगे;
परन्तु गोकुल में मोहाच्छन्न लोग तुम्हें ‘यह राधा ही है’- ऐसा समझेंगे।
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उन गोपों को तो स्वप्न में भी वास्तविक राधा के चरण कमल का दर्शन नहीं होता; क्योंकि स्वयं राधा मेरी हृदय स्थल में रहती हैं !
इस प्रकार भगवान कृष्ण के वचन के सुनकर सुन्दरी वृन्दा ने धर्म को अपनी आयु प्रदान कर दी। फिर तो धर्म पूर्ण रूप से उठकर खड़े हो गये।
उनके शरीर की कान्ति तपाये हुए सुवर्ण की भाँति चमक रही थी और उनका सौंदर्य पहले की अपेक्षा बढ़ गया था। तब उन श्रीमान ने परात्पर परमेश्वर को श्रीकृष्ण को प्रणाम किया।
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सन्दर्भ:-
ब्रह्मवैवर्तपुराण /खण्डः ४ (श्रीकृष्णजन्मखण्डः)/अध्यायः-( ८६ )
राधाया: प्रतिच्छाया वृन्दया: श्वशुरो वृकगोपश्च देवरो दुर्मदाभिध:।१७३।(ख)
श्वश्रूस्तु जटिला ख्याता पतिमन्योऽभिमन्युक:।
ननन्दा कुटिला नाम्नी सदाच्छिद्रविधायनी।१७४।
"अनुवाद:- राधा की प्रतिच्छाया रूपा वृन्दा के श्वशुर -वृकगोप देवर- दुर्मद नाम से जाने जाते थे। और सास- का नाम जटिला और पति अभिमन्यु - पति का अभिमान करने वाला था। हर समय दूसरे के दोंषों को खोजने वाली ननद का नाम कुटिला था।१७४।
और निम्न श्लोक में राधा रानी सहित अन्य गोपियों को भी आभीर ही लिखा है...
और चैतन्श्रीय परम्परा के सन्त श्रीलरूप गोस्वामी द्वारा रचित श्रीश्रीराधाकृष्णगणोद्देश-दीपिका नामक ग्रन्थ में श्लोकः १३४ में राधा जी को आभीर कन्या कहा ।
/लघु भाग/श्रीकृष्णस्य प्रेयस्य:/श्री राधा/श्लोकः १३४
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आभीरसुभ्रुवां श्रेष्ठा राधा वृन्दावनेश्वरी |
अस्या : सख्यश्च ललिता विशाखाद्या:सुविश्रुता:।।
भावार्थ:- सुंदर भ्रुकटियों वाली ब्रज की आभीर कन्याओं में वृंदावनेश्वरी श्री राधा और इनकी प्रधान सखियां ललिता और विशाखा सर्वश्रेष्ठ व विख्यात हैं।
अमरकोश में जो गुप्त काल की रचना है ;उसमें अहीरों के अन्य नाम-पर्याय वाची रूप में गोप शब्द भी वर्णित हैं।
आभीर पुल्लिंग विशेषण संज्ञा गोपालः समानार्थक:
१-गोपाल,२-गोसङ्ख्य, ३-गोधुक्, ४-आभीर,५-वल्लव,६-गोविन्द, ७-गोप।
(2।9।57।2।5)
अमरकोशः)
रसखान ने भी गोपियों को आभीर ही कहा है-
""ताहि अहीर की छोहरियाँ...""
करपात्री स्वामी भी भक्ति सुधा और गोपी गीत में गोपियों को आभीरा ही लिखते हैं
500 साल पहले कृष्णभक्त चारण इशरदास रोहडिया जी ने पिंगल डिंगल शैली में श्री कृष्ण को दोहे में अहीर लिख दिया:--
दोहा इस प्रकार है:-
"नारायण नारायणा, तारण तरण अहीर, हुँ चारण हरिगुण चवां, वो तो सागर भरियो क्षीर।"
अर्थ:-अहीर जाति में अवतार लेने वाले हे नारायण(श्री कृष्ण)! आप जगत के तारण तरण(सर्जक) हो, मैं चारण (आप श्री हरि के) गुणों का वर्णन करता हूँ, जो कि सागर(समुंदर) और दूध से भरा हुआ है।
भगवान श्री कृष्ण की श्रद्धा में सदैव लीन रहने वाले कवि इशरदास रोहडिया (चारण), जिनका जन्म विक्रम संवत 1515 में राजस्थान के भादरेस गांव में हुआ था। जिन्होंने मुख्यतः 2 ग्रंथ लिखे हैं "हरिरस" और "देवयान"।
यह आजसे 500 साल पहले ईशरदासजी द्वारा लिखे गए एक दुहे में स्पष्ट किया गया है कि कृष्ण भगवान का जन्म अहीर(यादव) कुल में हुआ था।
सूरदास जी ने भी श्री कृष्ण को अहीर कहते हुए सूरसागर में "सखी री, काके मीत अहीर" नाम से एक राग गाया!!
तिरुपति बालाजी मंदिर का पुनर्निर्माण विजयनगर नगर के शासक वीर नरसिंह देव राय यादव और राजा कृष्णदेव राय ने किया था।
विजयनगर के राजाओं ने बालाजी मंदिर के शिखर को स्वर्ण कलश से सजाया था।
विजयनगर के यादव राजाओं ने मंदिर में नियमित पूजा, भोग, मंदिर के चारों ओर प्रकाश तथा तीर्थ यात्रियों और श्रद्धालुओं के लिए मुफ्त प्रसाद की व्यवस्था कराई थी।तिरुपति बालाजी (भगवान वेंकटेश) के प्रति यादव राजाओं की निःस्वार्थ सेवा के कारण मंदिर में प्रथम पूजा का अधिकार यादव जाति को दिया गया है।
तब ऐसे में आभीरों को शूद्र कहना युक्तिसंगत नहीं
गोप शूद्र नहीं अपितु स्वयं में क्षत्रिय ही हैं ।
जैसा की संस्कृति साहित्य का इतिहास नामक पुस्तकमें पृष्ठ संख्या- 368 पर वर्णित है👇
"अस्त्र हस्ताश्च धन्वान: संग्रामे सर्वसम्मुखे ।
प्रारम्भे विजिता येन स: गोप क्षत्रिय उच्यते ।।
और गर्ग सहिता
में लिखा है !
यादव: श्रृणोति चरितं वै गोलोकारोहणं हरे :
मुक्ति यदूनां गोपानं सर्व पापै: प्रमुच्यते ।102।
अर्थात् जिसके हाथों में अस्त्र एवम् धनुष वाण हैं ---जो युद्ध को प्रारम्भिक काल में ही विजित कर लेते हैं वह गोप क्षत्रिय ही कहे जाते हैं ।
जो मनुष्य गोप अर्थात् आभीर (यादवों )के चरित्रों का श्रवण करता है ।
वह समग्र पाप-तापों से मुक्त हो जाता है ।।
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विरोधीयों का दूसरा दुराग्रह भी बहुत दुर्बल है
कि गाय पालने से ही यादव गोप के रूप में वैश्य हो गये परन्तु
"गावो विश्वस्य मातरो मातर: सर्वभूतानां गाव: सर्वसुखप्रदा:।।
महाभारत की यह सूक्ति वेदों का भावानुवाद है जिसका अर्थ है कि गाय विश्व की माता है !
और माता का पालन करना किस प्रकार तुच्छ या वैश्य वृत्ति का कारण हो सकता है
सन्दर्भ:- श्री-श्री-राधागणोद्देश्यदीपिका( लघुभाग- श्री-कृष्णस्य प्रेयस्य: प्रकरण- रूपादिकम्-
[8/1, 12:40 PM] yogeshrohi📚: वसुदेव और नन्द ज्ञाति (जाति) बन्धु थे।
ज्ञाति शब्द से ही जाति शब्द का विकास हुआ है; जैसा कि शास्त्रों में वर्णन है।
भ्रातृपुत्रस्य पुनर्ज्ञातय: स्मृता । गुरुपुत्रस्तथा भ्राता पोष्य: परम बान्धव:।१५८।
अर्थ •-भाई के पुत्र के पुत्र आदि को पुन: ज्ञाति कहा जाता है गुरुपुत्र तथा भ्राता पोषण करने योग्य और परम बान्धव हैं ।१५८।
(ब्रह्मवैवर्तपुराण ब्रह्मखण्ड) अमर-कोश में भी वर्णन है।अमरकोशः ज्ञाति पुल्लिंग। सगोत्रःसमानार्थक:सगोत्र,बान्धव,ज्ञाति,बन्धु,स्व,स्वजन, दायाद -2।6।34।2।3
समानोदर्यसोदर्यसगर्भ्यसहजाः समाः। सगोत्रबान्धवज्ञातिबन्धुस्वस्वजनाः समाः॥
(भागवत पुराण दशम स्कन्ध ४५वाँ अध्याय में वर्णन भी है ।)
यात यूयं व्रजं तात वयं च स्नेहदुःखितान्। ज्ञातीन् वो द्रष्टुमेष्यामो विधाय सुहृदां सुखम्।२३।
" देवमीढ की तीन पत्नीयों से उत्पन्न सन्तानों का विवरण- "
वनमाली दास कृत "भक्तमालिका"नामक पुस्तक से उद्धृत यह पुस्तक भक्तचरितांक गोरखपुर से पृष्ठ संख्या १७६ सम्बद्ध है ।
"ये श्लोक माधवाचार्य की भागवत टीका पर आधारित हैं। 👇शास्त्रों के मर्मज्ञ इतर विद्वानों ने जिसका भाष्य किया और हमने उनको संस्कृत रूप दिया है "
"देवमीढस्य तिस्र: पत्न्यो बभूवुर्महामता:।अश्मिकासतप्रभाश्चगुणवत्यो राज्ञ्योरूपाभि:।१।
"अर्थ- - देवमीढ की तीन पत्नियाँ थी रानी रूप में तीनों ही महान विचार वाली थीं । अश्मिका ,सतप्रभा और गुणवती अपने गुणों के अनुरूप ही हुईं थी।१।
"अश्मिकां जनयामास शूरं वै महात्मनम्।सतवत्यां जनयामास सत्यवतीं सुभास्यां।।२।
अर्थ:-अश्मिका ने शूर नामक महानात्मा को जन्म दिया और तीसरी रानी सतवती ने सत्यवती नामकी कन्या को जन्म दिया ।२।
"गुणवत्यांपत्न्याम् जज्ञिरे त्रितयान् पुत्रान् अर्जन्यपर्जन्यौ तथैव च राजन्यो यशस्विना।३।
अर्थ :-गुणवती पत्नी के तीन पुत्र हुए अर्जन्य , पर्जन्य और राजन्य ये यश वाले हुए ।३।
"पर्जन्येण वरीयस्यां जज्ञिरे नवनन्दा:।। ये गोपालनं कर्तृभ्यो लोके गोपा उच्यन्ते ।४।
अर्थ:-पर्जन्य के द्वारा वरीयसी पत्नी से नौ नन्द हुए ये गोपालन करने से गोप कहे गये ।४।
"गौपालनैर्गोपा निर्भीकेभ्यश्च आभीरा। यादवालोकेषु वृत्तिभिर् प्रवृत्तिभिश्चब्रुवन्ति।५।
अर्थ•-गोपालन के द्वारा गोप और निर्भीकता से आभीर यादव ही संसार में गोप और आभीर कहलाते हैं ।५।
"आ समन्तात् भियं राति ददाति शत्रूणांहृत्सु ते वीराऽऽभीरा: सन्ति।६।
अर्थ •-शत्रुओं के हृदय में भय देने वाले वीर आभीर हैं ।६।
"अरेऽसाम्बभूवार्य: तस्य सम्प्रसारणं वीर :।वीरेवऽऽवीर: तस्य समुद्भवऽऽभीरो बभूव।७।
अर्थ:-(अरि वेदों में युद्ध का देवता या ईश्वर है ) उससे आर्य्य शब्द उत्पन्न हुआ और उसका सम्प्रसारित रूप वीर हुआ उससे "आवीर और आवीर से ही "आभीर "शब्द हुआ।।७।
"ऋग्वेदस्य अष्टमे मण्डले एकोपञ्चाशतमम् सूक्तस्य नवे शलोके अरे: शब्दस्य ईश्वरस्य रूपे वर्णयति । भवन्त: सर्वे निम्नलिखिता: ऋचा: पश्यत ।
अर्थ:-:-ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल के ५१ वें सूक्त का ९ वाँ श्लोक देखो जो अरि: का ईश्वर के रूप में वर्णन करता है। देवमीढ नन्द और वसुदेव के पितामह थे । राजा हृदीक के तीन' पुत्र थे; देवमीढ, सत्धनवा तथा कृतवर्मा थे ।
देवमीढ की राजधानी मथुरा पुरी थी हरिवंश पुराण पर्व 2 अध्याय 38 में भी कहा गया है कि ...👇
"अन्धकस्यसुतो जज्ञे रैवतो नाम पार्थिव: रैवतस्यात्मजौ राजा,विश्वगर्भो महायशा:।४८।
(हरिवंशपुराण विष्णुपर्व ३८ वाँ अध्याय )
यदु की कई पीढ़ियों बाद अन्धक के रैवत हुए जिनका ही दूसरा नाम हृदीक है । रैवत के विश्वगर्भ अर्थात् देवमीढ़ हुए
"तस्यतिसृषु भार्याषु दिव्यरूपासु केशव:। चत्वारोजज्ञिरेपुत्र लोकपालोपमा: शुभा:।४९"
अर्थ:-
देवमीढ के दिव्यरूपा , १-सतप्रभा,२-अष्मिका,और ३-गुणवती ये तीन रानीयाँ थीं ।
देवमीढ के शुभ लोकपालों के समान चार पुत्र थे।जिनमें एक अश्मिका के शूरसेन तथा तीन गुणवती के
"वसु वभ्रु:सुषेणश्च ,सभाक्षश्चैव वीर्यमान् । यदु प्रवीण: प्रख्याता लोकपाला इवापरे ।५०।
अर्थ:-
सत्यप्रभा के सत्यवती कन्या तथा अष्मिका से वसु ( शूरसेन) पर्जन्य, अर्जन्य, और राजन्य हुए
" शूरसेन की मारिषा रानी में वसुदेव आदि दश पुत्र तथा पर्जन्य के वरियसी रानी में नन्दादि नौं भाई तथा अर्जन्य के चन्द्रिका रानी से दण्डर और कण्डर पुत्र हुए । 👇-💐☘
और राजन्य के हेमवती रानी से चाटु और वाटु दो पुत्र हुए थे ; इस प्रकार राजा देवमीढ के चार पुत्र तैईस पौत्र थे ।
"देवमीढ़स्य या भार्या, वैश्यगुणवती स्मृता।चन्द्रगुप्तस्य सा पुत्री महारण्य निवासिना।५२।
नाभागो दिष्ट पुत्रोऽन्य: कर्मणा वैश्यतांगत: । तेषां मध्य महारण्य चन्द्रगुप्तस्तथैव च ।५३।
अर्थ:-
भागवत पुराण 9/2/23 पर वर्णित है कि वैवश्वत मनु का पुत्र दिष्ट था ; और दिष्ट का नाभाग अपने कर्म से वैश्य हुआ इसी वंश का राजा मरुत था इसी वंश में चन्द्रगुप्त वैश्य हुआ जो गोकुल का रहने वाला था ।
उसी चन्द्र गुप्त की कन्या गुणवती राजा देवमीढ की पत्नी थीं ।👇
श्रीदेवमीढ़स्य बभूवतुःद्वे भार्ये हि विट्क्षत्रिय वंश जाते । पर्जन्य नाम्ना जनि गुणवतीम् वा वैश्यपुत्र्या राजन्य पुत्रापि च शूरसेन:।
सन्दर्भ-:-
वनमाली दास कृत "भक्तमालिका"नामक पुस्तक से उद्धृत यह पुस्तक भक्तचरितांक गोरखपुर से पृष्ठ संख्या १७६ सम्बद्ध है ।
अब देखें "देवीभागवत" पुराण के चतुर्थ स्कन्ध के बीसवें अध्याय में वसुदेव को कृषि और गो-पालन करते हुए वैश्यवृत्ति को ग्रहण करने वाला वर्णन किया गया है। यह बात हम पूर्व में अनेक बार लिख चुके हैं। परन्तु कृषि और गोपालन तो प्राचीन काल में क्षत्रियों की भी वृत्ति रही है। स्मरण करो राजा जनक और राजा दिलीप को और स्वयं यादव राजा सहस्रबाहु भी गोपालक ही था। निम्न रूप में वसुदेव को कृषि और गोपालन करते हुए वर्णन किया है -
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श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे कृष्णावतारकथोपक्रमवर्णनं नाम विंशोऽध्यायः ।२०। में प्रस्तुत है वह वर्णन -
एवं नानावतारेऽत्र विष्णुः शापवशंगतः। करोति विविधाश्चेष्टा दैवाधीनःसदैव हि।५२॥
अर्थ •-इस प्रकार अनेक अवतारों के रूप में इस पृथ्वी पर विष्णु शाप वश गये
जो दैव के अधीन होकर संसार में विविध चेष्टा करते हैं ।५२।
तवाहं कथयिष्यामि कृष्णस्यापि विचेष्टितम् ।
प्रभवं मानुषे लोके देवकार्यार्थसिद्धये ॥५३ ॥
अर्थ•अब मैं तेरे प्रति कृष्ण की विभिन्न लीलाओं के विषय में कहुँगा । जो मनुष्य लोक में देव कार्य की सिद्धि के लिए ही थे ।
कालिन्दीपुलिने रम्ये ह्यासीन्मधुवनं पुरा ।
लवणो मधुपुत्रस्तु तत्रासीद्दानवो बली॥५४ ॥अर्थ •-प्राचीन समय की बात है ; यमुना नदी के सुन्दर तट पर मधु असुर का बसाया हुआ मधुवन नाम का एक वन था; वहां लवणासुर नाम से प्रसिद्ध प्रतापी एक दानव रहता था।
द्विजानां दुःखदः पापो वरदानेन गर्वितः ।
निहतोऽसौ महाभाग लक्ष्मणस्यानुजेन वै।५५।
शत्रुघ्नेनाथ संग्रामे तं निहत्य मदोत्कटम्। वासिता (मथुरा) नाम पुरी परमशोभना।५६।अर्थ•(उसके पिता का नाम मधु था ) वह वरदान पाकर पापी और घमंडी हो गया था और सब प्रकार से ब्राह्मणों को सताया करता था ; हे महाभाग ! उसे लक्ष्मण के छोटे भाई शत्रुघ्न ने युद्ध में मारकर वहाँ मथुरा नाम की एक सुंदर नगरी बसाई।
स तत्र पुष्कराक्षौद्वौ पुत्रौ शत्रुनिषूदनः। निवेश्यराज्येमतिमान्काले प्राप्ते दिवंगतः।५७।
सूर्यवंशक्षये तां तु यादवाः प्रतिपेदिरे ।
मथुरां मुक्तिदा राजन् ययातितनयः पुरा ।५८ ॥ अर्थ•उस समय मेधावी शत्रुघ्न (सुबाहु और श्रुतसेन) इन अपने दोनों पुत्रों को राज्य देकर स्वर्गवासी हो गए ।५७।
कालान्तरण में सूर्यवंश के नष्ट हो जाने पर मुक्तिदायिनी मथुरा नगरी ययाति पुत्र यदु के वंशज यादवों के हाथ में आ गई ।५८।
शूरसेनाभिधः शूरस्तत्राभून्मेदिनीपतिः ।
माथुराञ्छूरसेनांश्च बुभुजे विषयान्नृप॥ ५९ ॥_______
तत्रोत्पन्नः कश्यपांशः शापाच्च वरुणस्य वै ।वसुदेवोऽतिविख्यातः शूरसेनसुतस्तदा।६०॥___ वैश्यवृत्तिरतः सोऽभून्मृते पितरि माधवः । उग्रसेनो बभूवाथ कंसस्तस्यात्मजो महान्।६१।
अर्थ-•तब वहाँ मथुरा के शूर पराक्रमी राजा शूरसेन नाम से हुए। और वहां की सारी संपत्ति भोगने का शुभ अवसर उन्हें प्राप्त हुआ ।५९।
अर्थ-•तब वहाँ वरुण के शाप के कारण कश्यप अपने अंश रूप में शूरसेन के पुत्र वसुदेव के रूप में उत्पन्न हुए।६०।
अर्थ •और कालान्तरण में पिता के स्वर्गवासी हो जाने पर वासुदेव ने वैश्य-वृत्ति (कृषि और गोपालन आदि ) से अपना जीवन निर्वाह करने वाले हुए ।६१।
अर्थ-•उन दिनों उग्रसेन भी जो मथुरा के एक भू-भाग पर राज्य करते थे ! वास्तव में (शूरसेन और उग्रसेन दोनों ही बड़े प्रतापी राजा हुए) कुछ दिनों बाद उग्रसेन का पुत्र कंस हुआ जो उस समय के अत्याचारी राजाओं में बड़ा पराक्रमी कहा जाता था।
"अदितिर्देवकी जाता देवकस्य सुता तदा। शापाद्वे वरुणस्याथ कश्यपानुगता किल ।६२।
अर्थ-•अदिति ही देवक की पुत्री देवकी के रूप में उत्पन्न हुई !और तभी कश्यप भी वरुण के कहने पर ब्रह्मा के शाप से शूरसेन के पुत्र वसुदेव रुप में हुए।
दत्ता सा वसुदेवाय देवकेन महात्मना ।
विवाहे रचिते तत्र वागभूद् गगने तदा ॥६३॥
अर्थ-•वह देवकी देवक महात्मा के द्वारा वसुदेव से को विवाही गयीं तब उस समय आकाशवाणी हुई ।
कंस कंस ! महाभाग देवकीगर्भसम्भवः ।
अष्टमस्तुसुतःश्रीमांस्तव हन्ताभविष्यति।६४॥
अर्थ-•कंस कंस हे महाभाग ! देवकी के गर्भ से उत्पन्न आठवाँ पुत्र श्रीमान तेरा हनन करने वाला होगा।
इति श्रमिद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे कृष्णावतारकथोपक्रमवर्णनं नाम विंशोऽध्यायः॥२०॥
यह सर्वविदित है कि वसुदेव को बहुतायत पुराणों में "गोप रूप में महर्षि कश्यप का अँश रूप में वरुण के कहने पर ब्रह्मा के शाप वश जन्म लेनेवाला होने का वर्णन किया गया है ।
गोप लोग कृषि, गोपालन आदि के कारण से वैश्य वर्ण में समायोजित किये गये हैं । जो कि असंगत व पूर्व दुराग्रह वश ही है ।
क्योंकि गोपालन और कृषि स्वभाव से क्षत्रिय वृत्ति है। पालन में रक्षण का भाव होने से यह क्षत्रिय वृत्ति ही है । न कि वैश्य वृत्ति वैश्य -वृत्ति तो केवल कुसीद , व्यापार तथा अन्य वाणिज्यिक क्रियाएँ ही हैं ।कृषक और वैश्य कि वृत्ति और प्रवृत्ति ही पूर्ण रूपेण भिन्न ही नहीं अपितु विपरीत भी हैं ।
फिर दौनों का सजातीय अथवा सहवर्णी होने का क्या तात्पर्य ? आर्य शब्द मूलतः योद्धा अथवा वीर का विशेषण है; ये आर्य अथवा पशुपालक गोपालक चरावाहों के रूप में विश्व इतिहास में वर्णित हैं ।
परन्तु कालान्तरण में जब आर्य शब्द कृषक के अर्थ में प्रचलित हुआ तो ग्राम और कृषि संस्कृति के प्रतिष्ठापक रूप में कृषकों ने श्रेष्ठता के प्रतिमान निर्धारित किये ! अत: आर्य शब्द वीर से धर्मवीर कर्मवीर ,न्यायवीर रूपों में दृढ़ और संकल्प करने वालों का वाचक होकर सभ्याचारीयों का सम्बोधन हो गया !
गोप अथवा आभीर जो वृत्ति और प्रवृत्ति मूलक विशेषण ही थे परन्तु आभीर प्रवृत्ति मूलक होते हुए भी एक जनजाति मूलक विशेषण भी था जो वीर शब्द से प्रादुर्भूत हुआ था। और वीर का सम्प्रसारण ही आर्य शब्द होता है। और जातियों का निर्धारण जीवविज्ञान में प्रवृतियों से ही होता आर्य शब्द परम्परागत रूप से कृषि और गोपालन करने वालों के लिए रूढ़ था । आख्यानकों मे इन्हें यदु के वंशज कहा गया ।
भागवत पुराण पर भाष्य और टीका करने वाले बहुत से संस्कृत विद्वान भी वसुदेव की कृषि -वृत्ति से अनभिज्ञ ही थे; इसी लिए जो दोनों नन्द और वसुदेव के गोपालन वृत्ति को लेकर ही गोप और यादवों होने के वंश मूलक भाष्य ही करते रहे देवीभागवत पुराण के चतुर्थ स्कन्ध के बीसवें अध्याय में वसुदेव के वैश्य वर्ण में आने का वर्णन किया है जो वास्तव में वर्ग मूलक या व्यवसाय मूलक परम्परा के अवशेष हैं ।
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तत्रोत्पन्नः कश्यपांशः शापाच्च वरुणस्य वै ।
वसुदेवोऽतिविख्यातः शूरसेनसुतस्तदा ॥६०॥
वैश्यवृत्तिरतः सोऽभून्मृते पितरि माधवः।
उग्रसेनो बभूवाथ कंसस्तस्यात्मजो महान् ॥ ६१ ॥
अर्थ•- तब वहाँ वरुण के शाप के कारण कश्यप अपने अंश रूप में शूरसेन के पुत्र वसुदेव के रूप में उत्पन्न हुए ।६०।
अर्थ • और कालान्तरण में पिता के मृत्यु हो जाने पर वासुदेव ने वेश्य-वृति (कृषि गोपालन आदि ) से अपना जीवन निर्वाह करने लगे । और उसी समय उग्रसेन हुए जिनका कंस नाम से एक महा पराक्रमी पुत्र हुआ ।६१।
"
-(अध्याय-6 📒)-
गोप( आभीर) जाति के अन्तर्गत पुरुरवा से लेकर यदु पर्यन्त सभी की सन्तानें (वंशज) वैष्णव वर्ण के अन्तर्गत हैं।
यह वैष्णव वर्ण ब्रह्मा जी वर्ण व्यवस्था से अलग पाँचवाँ वर्ण है।
वैष्णव वर्ण की उत्पति और उसकी ब्रह्मा के चारों वर्णों से पृथकता तथा अत्रि ऋषि का शिव के अग्नि स्वरूप से उत्पन्न होने के पौराणिक साक्ष्य-
📚: ब्रह्मवैवर्त पुराण एकादश -अध्याय श्लोक संख्या (४१) में वैष्णव वर्ण का उल्लेख है। जिसका विवरण
निम्नलिखित श्लोक में है।
ब्राह्मण" क्षत्रिय" वैश्य" और शूद्र इन चार वर्णों के अतिरिक्त एक स्वतन्त्र जाति अथवा वर्ण इस संसार में प्रसिद्ध है। जिसे वैष्णव नाम दिया गया है। जो विष्णु से सम्बन्धित अथवा उनके रोमकूपों से उत्पन्न होने वैष्णव संज्ञा से नामित है।
ब्रह्मक्षत्रियविट्शूद्राश्चतस्रो जातयो यथा। स्वतन्त्रा जातिरेका च विश्वेष्वस्मिन्वैष्णवाभिधा ।४३।
अनुवाद:-ब्राह्मण' क्षत्रिय 'वैश्य और शूद्र जो चार जातियाँ जैसे इस विश्व में हैं वैसे ही वैष्णव नाम कि एक स्वतन्त्र जाति अथवा वर्ण भी इस संसार में है ।४३।
(ब्रह्म वैवर्तपुराण ब्रह्मखण्ड अध्याय (११) श्लोक संख्या ४३-)
विष्णुर्देवताऽस्य तस्येदं वा अण्- वैष्णव - तथा विष्णु-उपासके विष्णोर्जातो इति वैष्णव विष्णुसम्बन्धिनि च स्त्रियां ङीप् वैष्णवी- दुर्गा गायत्री आदि।
अनुवाद:- विष्णु देवता से सम्बन्धित वैष्णव स्त्रीलिंग में( ङीप्) प्रत्यय होने पर वैष्णवी - दुर्गा गायत्री आदि का वाचक ।
_______
"उपर्युक्त श्लोक में पञ्चम जाति अथवा वर्ण के रूप में भागवत धर्म के प्रर्वतक आभीर / यादव लोगो को स्वीकार किया गया है। क्योंकि वैष्णव शब्द भागवत शब्द का ही पर्याय है।
तेषां कुलं धन्यतमं तेषां वै यश उच्यते।
ते वै लोके धन्यतमा जाता भागवता नराः।९।
एक एव कुले यस्य जातो भागवतो नरः।
तत्कुलं तारितं तेन भूयोभूयश्च वाडव।१०।
अनुवाद:-
ऐसे वैष्णव का वंश अत्यन्त धन्य है। उन्ही का यश बढ़ता है। जो भागवत हो जाते हैं। वे मनुष्य अत्यंत धन्य हैं।९।
जिसके वंश में एक भी भागवत हो जाता है हे नारद ! उस वंश को बार- बार तार देता है।१०।
उपर्युक्त श्लोक में परोक्ष रूप से आभीर जाति का ही संकेत है। जो कि स्वयं स्वराट् विष्णु ( कृष्ण) के रोम कूपों से प्रादुर्भूत होने से वैष्णव वर्ण में हैं।
अहीरों का गोपालन वृत्ति मूलक विशेषण गोप है। अहीरों का वर्ण ब्रह्मा के चातुर्यवर्ण से पृथक पञ्चम् वर्ण वैष्णव है।
शास्त्रों में प्रमाण प्राप्त हुए हैं कि यादव,गोप अथवा अहीर लोग ब्रह्मा की सृष्टि न होने से ही ब्रह्मा के द्वारा बनायी गयी वर्णव्यवस्था में शामिल नहीं माने जाते हैं। विष्णु से उत्पन्न होने से इनका पृथक वर्ण वैष्णव है।
इसी बात सी पुष्टि अन्यत्र भी पद्मपुराण के उत्तर खण्ड अध्याय (68) में होती है।
महेश्वर उवाच-
शृणु नारद वक्ष्यामि वैष्णवानां च लक्षणम्
यच्छ्रुत्वा मुच्यते लोको ब्रह्महत्यादिपातकात् ।१।
तेषां वै लक्षणं यादृक्स्वरूपं यादृशं भवेत् ।
तादृशं मुनिशार्दूल शृणु त्वं वच्मि साम्प्रतम् ।२।
विष्णोरयं यतो ह्यासीत्तस्माद्वैष्णव उच्यते।
सर्वेषां चैव वर्णानां वैष्णवः श्रेष्ठ उच्यते ।३।
अनुवाद:-
वैष्णव का लक्षण और महात्म्य -
महेश्वर ने कहा :
1-9. हे नारद , सुनो, मैं तुम्हें वैष्णव का लक्षण बतलाता हूँ। जिन्हें सुनने से लोग ब्रह्म- हत्या जैसे पाप से मुक्त हो जाते हैं ।१।
वैष्णवों के जैसे लक्षण और स्वरूप होते हैं। उसे मैं बतला रहा हूँ। हे मुनि श्रेष्ठ ! उसे तुम सुनो ।२।
चूँकि वह विष्णु से उत्पन्न विष्णु का ही है। इस लिए वह वैष्णव कहलाता है ; सभी वर्णों मे वैष्णव को श्रेष्ठ कहा जाता है।३।
*****
येषां पुण्यतमाहारस्तेषां वंशे तु वैष्णवः।
क्षमा दया तपः सत्यं येषां वै तिष्ठति द्विज।४।
तेषां दर्शनमात्रेण पापं नश्यति तूलवत्।
हिंसाधर्माद्विनिर्मुक्ता यस्य विष्णौ स्थितामति:।५।
शंखचक्रगदापद्मं नित्यं वै धारयेत्तु यः।
तुलसीकाष्ठजां मालां कंठे वै धारयेद्यतः।६।
तिलकानि द्वादशधा नित्यं वै धारयेद्बुध:।
धर्माधर्मं तु जानाति यः स वैष्णव उच्यते।७।
वेदशास्त्ररतो नित्यं नित्यं वै यज्ञयाजकः।
उत्सवांश्च चतुर्विंशत्कुर्वंति च पुनः पुनः।८।
तेषां कुलं धन्यतमं तेषां वै यश उच्यते।
ते वै लोके धन्यतमा जाता भागवता नराः।९।
एक एव कुले यस्य जातो भागवतो नरः।
तत्कुलं तारितं तेन भूयोभूयश्च वाडव ।१०।
अनुवाद:-
जिनका आहार (भोजन )( दूध ,दधि, मट्ठा, और घृत आदि से युक्त होने से) अत्यन्त पवित्र होता है। उन्हीं के वंश में वैष्णव उत्पन्न होते हैं। वैष्णव में क्षमा, दया ,तप एवं सत्य ये गुण रहते हैं।४।
उन वैष्णवों के दर्शन मात्र से पाप रुई के समान नष्ट हो जाता है। जो हिंसा और अधर्म से रहित तथा भगवान विष्णु में मन लगाता रहता है।५।
जो सदा संख "गदा" चक्र एवं पद्म को धारण किए रहता है गले में तुलसी काष्ठ धारण करता है।६।
प्रत्येक दिन द्वादश (बारह) तिलक लगाता है। वह लक्षण से वैष्णव कहलाता है।७।
जो सदा वेदशास्त्र में लगा रहता है। और सदा यज्ञ करता है। बार- बार चौबीस उत्सवों को करता है।८।
ऐसे वैष्णव का वंश अत्यन्त धन्य है। उन्ही का यश बढ़ता है। जो भागवत हो जाते हैं। वे मनुष्य अत्यंत धन्य हैं।९।
जिसके वंश में एक भी भागवत हो जाता है हे नारद ! उस वंश को बार- बार तार देता है।१०।
सन्दर्भ:-(पद्मपुराण खण्ड ६ (उत्तरखण्डः) अध्यायः -(६८)
"विशेष:- ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र जातियाँ नहीं हैं ये वर्ण हैं जातियाँ वर्णों के अन्तर्गत ही होती है।
"उपर्युक्त श्लोकों में गोपों के वैष्णव वर्ण तथा भागवत धर्म का संकेत है जिसे अन्य जाति के पुरुष गोपों के प्रति श्रृद्धा और कृष्ण भक्ति से प्राप्त कर लेते हैं।।
"विशेष:-वैष्णव= विष्णोरस्य रोमकूपैर्भवति अण्सन्तति वाची- विष्णु+ अण् = वैष्णव= विष्णु से उत्पन्न अथवा विष्णु से सम्बन्धित- जन वैष्णव हैं।
अर्थ-वैष्णव= विष्णु के रोमकूपों से उत्पन्न अण्- प्रत्यय सन्तान वाची भी है विष्णु पद में तद्धित अण् प्रत्यय करने पर वैष्णव शब्द निष्पन्न होता है। अत: गोप वैष्णव वर्ण के हैं।
उपर्युक्त श्लोकों में पञ्चम जाति के रूप में भागवत धर्म के प्रर्वतक आभीर / यादव लोगो को स्वीकार किया गया है ।
क्योंकि वैष्णव शब्द भागवत शब्द का ही पर्याय है।
हिंदू धर्म में अत्रि एक प्रसिद्ध भाट और विद्वान थे। और नौ- प्रजापतियों में से एक थे, और ब्रह्मा के पुत्र थे, उन्हें कुछ ब्राह्मण, प्रजापति, क्षत्रिय और वैश्य समुदायों का पूर्वज कहा जाता है, जिन्होंने अत्रि को अपने गोत्र के रूप में अपनाया था।
अत्रि सातवें अर्थात् वर्तमान मन्वंतर में सप्तऋषि (सात महान ऋषीयों में से ) हैं। ब्रह्मर्षि अत्रि ऋग्वेद के पांचवें मंडल (अध्याय) के द्रष्टा हैं।
ईरानी धर्म ग्रन्थ- अवेस्ता में "अतर" अग्नि का वाचक है
अत्रि शब्द का प्रयोग शिव के विशेषण के रूप में भी किया गया है।
सन्दर्भ:-(महाभारत, अनुशासन पर्व, अध्याय (17), श्लोक 38)।
अत्रि अग्नि की लपटों से वारुणी
यज्ञ में जन्मे एक ऋषि हैं। उसकी दस सुंदर और पवित्र पत्नियाँ थीं, सभी भद्राश्व और घृतची की बेटियाँ थीं।
उनके दस पुत्र आत्रेय के नाम से जाने जाते थे,।
अत्रि वंश में अनेक पावकों का जन्म हुआ था । (महाभारत, वन पर्व, अध्याय 222, श्लोक 27-29)। पर देखें
अत: चन्द्रमा के अत्रि से उत्पन्न होने का प्रकरण प्रक्षेप है।
चन्द्रमा की वास्तविक और प्राचीन उत्पत्ति का सन्दर्भ- ऋग्वेद के दशम मण्डल के (90) वें पुरुष सूक्त की (13) वीं ऋचा में है। जिसको हम उद्धृत कर रहे हैं ।
📚: चन्द्रमा विराट् पुरुष विष्णु के मन से उत्पन है मन ही हृदय अथवा प्राण के तुल्य है। चन्द्रमा भी विराट पुरुष के मन से उत्पन्न होने से भी वैष्णव है। चन्द्रमा के वैष्णव होने के भी अनेक शास्त्रीय सन्दर्भ हैं।
ऋग्वेद के दशम मण्डल के (90) वें सूक्त में विराट पुरुष से विश्व का सृजन होते हुए दर्शाया है। और इसी विराट स्वरूप के दर्शन का कृष्ण द्वारा अर्जुन को दिखाया जाना श्रीमद्भगवद्गीता के ग्यारहवें अध्याय में वर्णन किया गया है।
नीचे 'विराट पुरुष' के स्वरूप का वर्णन पहले ऋग्वेद तत्पश्चात श्रीमद्भगवद्गीता में देखें
"तस्माद्विराळजायत विराजो अधि पूरुषः।
स जातो अत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुरः॥5॥
(ऋग्वेद-10/90/5 )
अनुवाद:- उस विराट पुरुष से यह सम्पूर्ण विश्व उत्पन्न हुआ। उसी विराट से जीव समुदाय उत्पन्न हुआ। वही देहधारी रूप में सबसे श्रेष्ठ हुआ, जिसने सबसे पहले पृथ्वी को फिर शरीर धारियों को उत्पन्न किया।5।
'चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत ।
मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च प्राणाद्वायुरजायत ॥13॥
( ऋग्वेद-10/90/13)
अनुवाद:-विराट पुरुष के मन से चन्द्रमा नेत्रों से सूर्य ज्योति , मुख से तेज और अग्नि का प्राकट्य हुआ।13।
'नाभ्या आसीदन्तरिक्षं शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत ।
पद्भ्यां भूमिर्दिशः श्रोत्रात्तथा लोकाँ अकल्पयन् ॥14॥
( ऋग्वेद-10/90/14
अनुवाद:- विराट् पुरुष की नाभि से अन्तरिक्ष शिर से द्युलोक, पैरों से भूमि तथा कानों से दिशाऐं प्रकट हुईं। इस विराट पुरुष के द्वारा इसी प्रकार अनेक लोकों को रचा गया ।14।
श्रीमद्भगवद्-गीता अध्याय (11) श्लोक ( 19)
अनादिमध्यान्तमनन्तवीर्य
मनन्तबाहुं शशिसूर्यनेत्रम्।
पश्यामि त्वां दीप्तहुताशवक्त्रम्
स्वतेजसा विश्वमिदं तपन्तम्।।11/19।।
हिंदी अनुवाद -
आपको मैं अर्जुन आदि ? मध्य और अन्तसे रहित ? अनन्त प्रभावशाली ? अनन्त भुजाओंवाले? चन्द्र और सूर्यरूप नेत्रोंवाले? प्रज्वलित अग्नि के समान मुखों वाले और अपने तेजसे संसारको जलाते हुए देख रहा हूँ।11/19.
__
अब एक प्रश्न उत्पन्न होता है कि चातुर्यवर्ण व्यवस्था विराट पुरुष से उत्पन्न है।
अथवा उस विराट पुरुष के नाभि कमल से उत्पन्न ब्रह्मा से उत्पन्न है।
समाधान:- वास्तव में चातुर्य-वर्ण की उत्पत्ति ब्रह्मा से ही हुई है। जिसमें ब्रह्मा की प्रथम और प्रमुख सन्तान ब्राह्मण हैं। इस बात स
पुष्टि भी अनेक ग्रन्थों में होती है।
पहले सभी ब्राह्मण थे, बाद में गुण और कर्मों के अनुसार विभिन्न वर्ण विभाग हुए-
"न विशेषोऽस्ति वर्णानां सर्व ब्राह्ममिदं जगत्।ब्रह्मणा पूर्वसृष्टं हि कर्मभिर्वर्णतां गतम् ॥२२॥(महाभारत-शल्यपर्व १८८/१०)
अनुवाद:-
भृगु ने कहा-ब्राह्मणादिभृगु ने कहा-ब्राह्मणादि वर्गों में किसी प्रकार का अन्तर नहीं है। पहले ब्रह्मा द्वारा सृष्ट सारा जगत् ब्राह्मणमय था, बादमें कर्मों द्वारा विभिन्न वर्ण हुए॥२२॥
सन्दर्भ:-(श्रीमद्भागवत पुराण ११/१७/१९--)
ब्राह्मणो विप्रस्य प्रजापतेर्वा अपत्यम् - ब्रह्म वेदस्तमधीते वा सः- (इति भरतः नाट्यशास्त्र) ॥ (ब्रह्मन् + अण् “ ब्राह्मोऽजातौ । “६ । ४ । १७१ । इति नटिलोपः । )
ब्राह्मणः शब्द पुल्लिंग ब्रह्मन् शब्द से सन्तान के अर्थ में (अण्) प्रत्यय लगने पर बनता है।
जबकि नपुसंसक लिंग ब्रह्मन् से ब्राह्मणम्,शब्द बनता है। (ब्रह्मन् + अण् न टिलोपः।) ब्रह्म- संघातः । वेदभागः । इति मेदिनी ।
ब्राह्मणः शब्द पुल्लिंग ब्रह्मन् शब्द से सन्तान के अर्थ में (अण्) प्रत्यय लगने पर बनता है।
"ब्राह्मणो विप्रस्य प्रजापतेर्वा अपत्यम् ।
ब्रह्म वेदस्तमधीते वा सः । इति भरतः ॥ (ब्रह्मन् + अण् “ब्राह्मोऽजातौ ।” ६।४ ।१७१। इति नटिलोपः । तत्पर्य्यायः । द्विजातिः २ अग्रजन्मा ३ भूदेवः ४ बाडवः ५ विप्रः ६ । इत्यमरः ॥ २ । ७ । ४ ॥ द्बिजः ७ सूत्र- कण्ठः ८ ज्येष्ठवर्णः ९ अग्रजातकः १० द्विजन्मा ११ वक्त्रजः १२ मैत्रः १३ वेदवासः १४ नयः १५ गुरुः १६ । इति शब्दरत्नाबली ॥
"आ ब्राह्मण ब्राह्मणों ब्रह्मवर्चसी जायतामाराष्ट्रे राजन्यः सुरऽईषव्योऽतिव्याधि महारथो जायतां दोग्धरी धेनुर्वोदऽनद्वानाशुः सप्तिः पुरन्धिर्योषा जिष्णु रथेष्ठाः सभेयो युवास्य यजमानस्य वीरो जायतां निकामे-निकामे नः पर्जन्यो वर्षतु फलवत्यो नऽओषधयः पच्यन्तां योग क्षेमो नः कल्पताम् ॥
(--यजुर्वेद 22, मन्त्र 22:-)
अर्थ :- हमारे राष्ट्र में ब्रह्मवर्चसी ब्राह्मण उत्पन्न हों । हमारे राष्ट्र में शूर, बाणवेधन में कुशल, महारथी क्षत्रिय उत्पन्न हों । यजमान की गायें दूध देने वाली हों, बैल भार ढोने में सक्षम हों, घोड़े शीघ्रगामी हों । स्त्रियाँ सुशील और सर्वगुण सम्पन्न हों । रथवाले, जयशील, पराक्रमी और यजमान पुत्रवान् हों । हमारे राष्ट्र में आवश्यकतानुसार समय-समय पर मेघ वर्षा करें । फ़सलें और औषधियाँ फल-फूल से युक्त होकर परिपक्वता प्राप्त करें । और हमारा योगक्षेम उत्तम रीति से होता रहे ।
व्याख्या :- यहाँ ब्राह्मण के लिए ब्रह्मवर्चसी एवं राजाओं के लिए शूरत्व आदि की प्रार्थना आयी है यदि वेदों में वर्णव्यवस्था कथित गुण कर्मानुरूप होती तो ब्राह्मण के लिए ब्रह्मवर्चसी की प्रार्थना उसमें नहीं होती तब वेद में ब्रह्मवर्चस युक्त को ही नाम ब्राह्मण होता एव ब्राह्मण के लिए ब्रह्मवर्चसी प्रार्थना एवं आशिर्वाद ही व्यर्थ होता।
यह प्रार्थना ही यहाँ जन्मना वर्ण व्यवस्था को सिद्धि करती है,
पद्म पुराण के निम्नांकित श्लोक से भी सिद्ध होता है कि ब्राह्मण ब्रह्मा की सन्तान हैं।
"ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्राश्च नृपसत्तम।
पादोरुवक्षस्थलतो मुखतश्च समुद्गताः ।१३०।
यज्ञनिष्पत्तये सर्वमेतद्ब्रह्मा चकार ह।
चातुर्वर्ण्यं महाराज यज्ञसाधनमुत्तमम् ।१३१।
(पद्मपुराणम् | खण्डः १
(सृष्टिखण्डम् अध्याय ३)
पुलस्त्यजी बोले- कुरुश्रेष्ठ! सृष्टि की इच्छा रखने वाले ब्रह्माजी ने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्णों को उत्पन्न किया। इनमें ब्राह्मण मुख से, क्षत्रिय वक्षःस्थल से, वैश्य जाँघों से और शूद्र ब्रह्माजी के पैरों से उत्पन्न हुए।
महाराज ! ये चारों वर्ण यज्ञ के उत्तम साधन हैं; अतः ब्रह्माजी ने यज्ञानुष्ठान की सिद्धि के लिये ही इन सबकी सृष्टि की।
अन्यत्र विष्णु पुराण में भी
"समुद्भूता मुखतो ब्रह्मणो द्विजः ॥३३-।
श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेंशो! पञ्चमोऽध्यायः (5)
ब्राह्मण= ब्राह्मोऽजातौ (ब्रह्मन्+ अण्) (अष्टाध्यायी- ६।४।१७१- इस पाणिनि सूत्र से अपत्य एवं जाति में ब्राह्मण शब्द होता है अब अर्थ हुआ कि हे ब्रह्मन् ! ब्राह्मण ब्रह्मवर्चसी होवें अथवा ब्रह्मन्–ब्राह्मण में (सप्तम्या लुक्) ब्रह्मवर्चसी ब्राह्मण उत्पन्न होवें।
विशेष—ऋग्वेद के पुरूषसूक्त में ब्राह्मणों की उत्पत्ति विराट् या ब्रह्म के मुख से कही गई है।
यह पूर्णत: प्रक्षेप है। क्यों ब्राह्मण ब्रह्मा की सन्तान हैं। परम् ब्रह्म की सन्तान नहीं है।
दूसरी बात वर्ण व्यवस्था की यह है कि ब्राह्मण शब्द ब्रह्म+ अण्= ब्राह्मण ब्रह्मा की सन्तान हैं जबकि क्षत्रिय ,वैश्य और शूद्र ये किसकी सन्तान हैं। वास्तव में ये बाद के तीन नाम केवल अभिधामूलक हैं। सम्भवत: पहले ब्रह्मा का एक ही वर्ण था ब्राह्मण परन्तु उसके वही अन्य वृत्ति मूलक रूप क्रमशः क्षत्रिय , वैश्य और शूद्र हैं। वैदिक काल में शूद्र थे नहीं ऋग्वेद में केवल एक बार शूद्र शब्द आया है ऋग्वेद 10/90/12 पर उद्धृत है। कृष्ण ने स्वयं को गोप और क्षत्रिय रूपों में प्रस्तुत किया।
दो पिशाच जो कृष्ण के वर्चस्व से प्रभावित कृष्ण के भक्त बन गये थे । उन्होंने जब साक्षात् रूप में उपस्थित कृष्ण का परिचय पूछा तो उन्होंने (कृष्ण ने) अपना परिचय शत्रुओं का क्षरण या क्षति करके पीडित का त्राण करने वाला क्षत्रिय बताया।
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"ब्रूहि मर्त्य यथातत्त्वं ज्ञातुमिच्छामि मानद ।
एवं पृष्टः पिशाचाभ्यामाह विष्णुरुरुक्रमः।3/80/ 9 ।•–दूसरों को मान देने वाले मानव आप ठीक ठीक बताइए मैं पिशाच यथार्थ रूप से आपका परिचय जानना चाहता हूँ । उन दौनों पिशाचों के इस प्रकार पूछने पर महान डग वाले भगवान विष्णु के रूप में कृष्ण बोले !
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'क्षत्रियोऽस्मीति मामाहुर्मानुष्याः प्रकृतिस्थिताः । यदुवंशे समुत्पन्नः क्षात्रं वृत्तमनुष्ठितः। 3/80/10 ।
•-मैं क्षत्रिय हूँ प्राकृत मनुष्य मुझे ऐसा ही कहते हैं ; और जानते हैं यदुकुल में उत्पन्न हुआ हूँ । इस लिए क्षत्रियोचित कर्म का अनुष्ठान करता हूँ। 10।।
'लोकानामथ पातास्मि शास्ता दुष्टस्य सर्वदा । कैलासं गन्तुकामोऽस्मि द्रष्टुं देवमुमापतिम्।।3/80/11।।
•-मैं तीनों लोगों का पालक तथा सदा ही दुष्टों पर शासन करने वाला हूँ। इस समय उमापति भगवान् शंकर का दर्शन करने कैलास पर्वत पर जाना चाहता हूँ 3/80/11
इसी पुराण में एक स्थान पर कृष्ण 'ने स्वयं उद्घोषणा की कि मैं गोप हमेशा सब प्रकार से प्राणियों की रक्षा करने वाला हूँ।
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"गोपोऽहं सर्वदा राजन् प्राणिनां प्राणद: सदा । गोप्ता सर्वेषु लोकेषु शास्ता दुष्टस्य सर्वदा।।४१।
_______
•– राजन् ! मैं गोप हूँ , और प्राणियों का सब ओर से प्राण दान करने वाला हूँ। सम्पूर्ण लोकों का रक्षक( गोप्ता) और सब ओर से दुष्टों का शासन करने वाला हूँ । हरिवशं पुराण भविष्यपर्व के सौंवें अध्याय का यह इकतालीस वाँ श्लोक (पृष्ठ संख्या 1298 गीताप्रेस गोरखपुर संस्करण) गोप शब्द की वीरता मूलक व्युत्पत्ति का प्रतिपादन करता है।
अतएव गोप ही यादव और यादव अपनी वीरता प्रवृत्ति से आभीर थे और क्षत्रिय वीर ही हो सकता है जो वीरता से रहित है वह क्षत्रिय नहीं हो सकता है भले ही उसका जन्म किसी क्षत्रिय पुरुष से हुआ हो । इसमें ब्राह्मण की सन्तान ब्राह्मण होन की वाध्यता नहीं है। हरिवशं पुराण में ही भविष्य पर्व के सौंवे अध्याय में पौंड्रक जब कृष्ण से युद्ध करता है तो कभी उन्हें गोपाल या गोप कह कर सम्बोधित करता है तो कभी यादव कह कर ! देखें उस सन्दर्भ को
कृष्ण गोपों को क्षत्रियोचित रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। परन्तु रूढ़ि वादी पुरोहित गोपों के गोपालन और कृषि करने वाले होने से वैश्य वर्ण में समायोजित करते है।
"कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम्"।
अब यदि कृष्ण ब्रह्मा की वर्णव्यवस्था के समर्थक होते तो उनके गोपालक गोप कभी भी नारायणी सेना के यौद्धा नहीं होते क्योंकि गोप गोपालन और कृषि कार्य ही मुख्य रूप से करते हैं ।
परन्तु गोप व्यापार नहीं करते यह व्यापार कार्य तो बनिया( वणिक) लोगों का ही व्यवसाय है।
अब कृष्ण स्वयं को क्षत्रिय भी कह रहे हैं और गोप भी कह रहे हैं।
ब्राह्मण प्रधान वर्णव्यवस्था में तो यह गोपों का युद्ध सम्बन्धित विधान सम्भव नहीं है। गोप ब्राह्मण वर्णव्यवस्था से पृथक वैष्णव वर्ण के अन्तर्गत हैं। जिसमें गोपालन ही श्रेष्ठ वृत्ति है।
परन्तु गोप पशुपालन, युद्ध ईश्वरीय ज्ञानार्जन और कृषि कार्य भी करते हैं।
गोप जो विष्णु के शरीर के रोमकूपों से उनके हृदय से ही उत्पन्न होते हैं। वह तो वैष्णव हैं ही। क्योंकि वे स्वराट- विष्णु के तनु से उत्पन्न उनकी सन्तान हैं।
वेदों में चन्द्रमा को भी विराट पुरुष के मन से उत्पन्न दर्शाया है। और वेदों का साक्ष्य पुराणों की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ व प्रबल है।
चन्द्रमा यादवों का आदि वंश द्योतक है।
नीचे पुरुष सूक्त से दो ऋचाऐं उद्धृत हैं। जो चन्द्रमा की उत्पत्ति का निर्देशन करती हैं।
ऋग्वेद पुरुष सूक्त में जोड़ी गयी (12) वीं ऋचा ब्रह्मा से सम्बन्धित है।
"चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत।
मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च प्राणाद्वायुरजायत॥१३॥
"नाभ्या आसीदन्तरिक्षं शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत ।
पद्भ्यां भूमिर्दिशः श्रोत्रात्तथा लोकाँ अकल्पयन्॥१४॥
ऋग्वेद मण्डल १० सूक्त ९० ऋचा- १३-१४
📚: उधर ऋग्वेद के दशम मण्डल ते 95 वें सूक्त की सम्पूर्ण (18) ऋचाऐं " पुरूरवा और उर्वशी के संवाद रूप में है।
जिसमें पुरूरवा के विशेषण गोष ( घोष- गोप) तथा गोपीथ- हैं । अत: पुरुरवा एक गो- पालक राजा ही सम्राट् भी है।
पुरुरवा बुध ग्रह और पृथ्वी ग्रह (इला) ग्रह से सम्बन्धित होने से इनकी सन्तान माना गया है।
यही व्युत्पत्ति सैद्धान्तिक है।
यदि आध्यात्मिक अथवा काव्यात्मक रूप से इला-वाणी अथवा बुद्धिमती स्त्री और बुध बुद्धिमान पुरुष का भी वाचक है । और पुरुरवा एक शब्द और उसकी अर्थवत्ता के विशेषज्ञ कवि का वाचक है। और उर्वशी उसकी काव्य शक्ति है।
यदि पुरुरवा को बुध ग्रह और इला स्त्री से उत्पन्न भी माना जाय तो इला की ऐतिहासिकता सन्दिग्ध है। परन्तु पुरुरवा की ऐतिहासिकता प्रमाणित है। उसका वर्णन वेद, पुराण और अन्य लौकिक आख्यानों में है।पुरुरवा के गोष (घोष-अथवा गो पालक होने का सन्दर्भ भी वैदिक है।
"ततः परिणते काले प्रतिष्ठानपतिः प्रभुः ।
पुरूरवस उत्सृज्य गां पुत्राय गतो वनम्॥४२ ॥
अनुवाद:- उसके बाद समय बीतने पर प्रतिष्ठान पुर का अधिपति अपने पुत्र पुरुरवा को गायें देकर वन को चला गया।४२।
श्रीमद्भागवत महापुराण
नवमस्कन्ध प्रथमोध्याऽयः॥१॥
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वेदों में भी पुरुरवा के गाय पालने का सन्दर्भ पूर्व- वितित ही हैं । पुरुरवा ,बुध ,और इला की सन्तान था।
ऋग्वेद के दशम मण्डल में उर्वशी के पति और नायक पुरुरवा का भी गोष(घोष)अथवा गोप रूप में वर्णन मिलता है।
इन्हीं तथ्यों का हम शास्त्रीय प्रमाणों द्वारा यहाँ सिद्ध करने का उपक्रम करते हैं।
चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत।
मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च प्राणाद्वायुरजायत ॥१३॥
"नाभ्या आसीदन्तरिक्षं शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत ।
पद्भ्यां भूमिर्दिशः श्रोत्रात्तथा लोकाँ अकल्पयन्॥१४॥
यूरोपीय भाषाओं में चन्द्रमा का नामान्तरण मून है। जिसका सीधा सम्बन्ध भारोपीय(मूल वैदिक शब्द मान=(मन+अण्- मनसो जात: चन्द्रमा) अर्थात मन से उत्पन्न- इस प्रकरण पर हम विस्तृत विश्लेषण आगे क्रमश करते हैं।
मन से मनन( विचार) उत्पन्न होकर निर्णीत होने पर बुध:( ज्ञान) बनता है और इसी ज्ञान(बुध:) के साथ इला ( वाणी) मिलकर परुरवा(कवि) कविः पुल्लिंग-(कवते सर्व्वं जानाति सर्व्वं वर्णयति सर्व्वं सर्व्वतो गच्छति वा । (कव् +इन्) । यद्वा कुशब्दे + “अचः इः” । उणादि सूत्र ४ । १३८ । इति इः ।
कवि शब्द शब्दार्थ के विशेषज्ञ का वाचक है। जो कि एक कवि की मौलिक विशेषता होती है।
"मन से मनन उत्पन्न होने से चन्द्रमा( मान ) कहलाया चन्द्र विराट पुरुष के मन से उत्पन्न होने से, यह विचारो का प्रेरक व प्रतिनिधि है। परवर्ती नाम मात्र कवियों की कल्पना में भी चन्द्रमा का होना परम्परा के अवशेष मात्र हैं।
और इस मान -मन्यु:( विचार ) से ज्ञान (बुध: ) उत्पन्न हुआ और इसी बुध: और इला (वाणी ) के संयोग से कवि का गुण काव्य उत्पन्न हुआ पुरुरवा दुनिया का प्रथम पौराणिक कवि है और वह भी संयोग श्रृँगार के प्रथम कवि के रूप में ।
स्वयं पुरुरवा शब्द का अभिधा मूलक अर्थ है। पुरु- प्रचुरं रौति कौति इति पुरुरवस्-
पुरूरवसे - पुरु रौतीति पुरूरवाः । ‘रुशब्दे '। अस्मात् औणादिके असुनि ‘पुरसि च पुरूरवाः' (उणादि. सू. ४. ६७१) इति पूर्वपदस्य दीर्घो निपात्यते
सुकृते । ‘सुकर्मपापमन्त्रपुण्येषु कृञः ' (पा. सू. ३. २. ८९) इति क्विप् । ततः तुक् ।
पुराकाले पुरुरवसेव सदैव गायत्रीयम् प्रति पुरं रौति । तस्मादमुष्य पुरुरवस्संज्ञा सार्थकवती।।१।अनुवाद:-
प्राचीन काल में पुरुरवस् ( पुरुरवा) ही गायत्री का नित्य अधिक गान करता थे । इसी लिए उसकी पुरुरवा संज्ञा सार्थक हुई।१।
(पुरु प्रचुरं रौति कौति इति। “ पर्व्वतश्च पुरुर्नाम यत्र यज्ञे पुरूरवाः (महाभारत- ।“३।९०।२२ ।
निम्नलिखित श्लोक में ब्राह्मण" क्षत्रिय" वैश्य" और शूद्र वर्ण के अतिरिक्त एक स्वतन्त्र जाति और वर्ण भी माना गया है। जिसे वैष्णव नाम दिया गया है।
जो विष्णु से सम्बन्धित अथवा उनके रोमकूपों से उत्पन्न होने ही वैष्णव है।।
विष्णुर्देवताऽस्य तस्येदं वा अण् वैष्णव विष्णू पासके विष्णोर्जातो इति वैष्णव विष्णुसम्बन्धिनि च स्त्रियां ङीप् वैष्णवी- दुर्गा गायत्री आदि।
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"ब्रह्मक्षत्रियविट्शूद्राश्चतस्रो जातयो यथा। स्वतन्त्रा जातिरेका च विश्वेष्वस्मिन्वैष्णवाभिधा ।४३।।
अनुवाद:-ब्राह्मण' क्षत्रिय 'वैश्य और शूद्र जो चार जातियाँ जैसे इस विश्व में हैं वैसे ही वैष्णव नाम कि एक स्वतन्त्र जाति व वर्ण भी इस संसार में है ।४३।
उपर्युक्त श्लोक में पञ्चम जाति व वर्ण के रूप में भागवत धर्म के प्रर्वतक आभीर / यादव लोगो को स्वीकार किया गया है।
क्योंकि वैष्णव शब्द भागवत शब्द का ही पर्याय है।
विष्णु का परम पद, परम धाम दिव्य- आकाश में स्थित एवं सूर्य के समान देदीप्यमान माना गया है
तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः । दिवीव चक्षुराततम् ॥२०॥
देवता — विष्णुः ; छन्द — गायत्री;
स्वर — षड्जः; ऋषि — मेधातिथिः काण्वः
(सूरयः) बहुत से सूर्य (दिवि) आकाश में (आततम्) फैले हुए (चक्षुरिव) नेत्रों के समान जो (विष्णोः) विष्णु भगवान् ! (परमम्) उत्तम से उत्तम (पदम्) स्थान को ! (तत्) उसको (पश्यन्ति) देखते हैं॥20॥(ऋग्वेद १/२२/२०)।
इसी प्रकार का वर्णन भविष्य पुराण में भी ऋग्वेद का उपर्युक्त श्लोक है।
तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यंति सूरयः ।।
दिवीव चक्षुराततम् ।।१९।।
पीतवस्त्रेण कृष्णाय श्वेतवस्त्रेण शूलिने।।
कौसुंभवस्त्रेणाढ्येन गौरीमुद्दिश्य दापयेत्।।4.130.२०।।
इति श्रीभविष्ये महापुराण उत्तरपर्वणि श्रीकृष्णयुधिष्ठिरसंवादे दीपदानविधिवर्णनं नाम त्रिंशदुत्तरशततमोऽध्यायः।।१३०।।
उरुक्रमस्य स हि बन्धुरित्था विष्णोः पदे परमे मध्व उत्सः ॥५॥
अर्थानुवाद:-
(यत्र) जिसमें (देवयवः) देवों का अन्न( जौ) (नरः) जन (मदन्ति) आनन्दित होते हैं (तत्) उस (अस्य) इस (उरुक्रमस्य) अनन्त पराक्रमयुक्त (विष्णोः) के (प्रियम्) प्रिय (पाथः) मार्ग को (अभ्यश्याम्) सब ओर से प्राप्त होऊँ, जिस परमात्मा के (परमे) अत्युत्तम (पदे) प्राप्त होने योग्य पद में (मधवः) मधुरादि गुणयुक्त पदार्थ का (उत्सः) श्रोत- वर्तमान है (सः, हि) वही (इत्था) इस प्रकार से हमारा (बन्धुः) भाई के समान है ॥५॥
ता वां वास्तून्युश्मसि गमध्यै यत्र गावो भूरिशृङ्गा अयासः।
अत्राह तदुरुगायस्य वृष्णः परमं पदमवभाति भूरि ॥६॥
(यत्र) जहाँ (अयासः) स्थित हुईं (भूरिशृङ्गाः) बहुत सींगों वाली (गावः)गायें हैं (ता) उन (वास्तूनि)
तृतीय क्रम में वही शक्ति सतयुग के प्रथम चरण में नन्दसेन / नरेन्द्र सेन अथवा गोविल आभीर की पुत्री के रूप में जन्म लेती हैं और बचपन से ही गायत्री गोपालन और गो दुग्ध का दोहन भी करती हैं।
अत: पद्मपुराण सृष्टि खण्ड में गायत्री का दुहिता सम्बोधन प्राप्त है।
भारतीय सांस्कृतिक परम्परा में आज तक ग्रामीण क्षेत्र में लड़की ही गाय-भैंस का दूध दुहती है। यह उसी परम्परा अवशेष हैं।
गोपालक (पुरुरवा) की पत्नी आभीर कन्या उर्वशी का प्रचीन प्रसंग का विवरण-
गायत्री अहीरों की सबसे विदुषी और कठिन व्रतों का पालन करने वाली प्रथम कन्या सिद्ध होती हैं। इसी लिए स्वयं विष्णु भगवान ने ब्रह्मा के यज्ञ-सत्र में गायत्री की भूरि -भूरि प्रशंसा की है। गायत्री को ही ज्ञान की अधिष्ठात्री देवता पद पर नियुक्त किया गया। संसार का सम्पूर्ण ज्ञान गायत्री से नि:सृत होता है।
गायत्री की माता का नाम "गोविला" और पिता का नाम नन्दसेन/अथवा नरेन्द्र सेन आभीर था। जो आनर्त (गुजरात) में निवास करते थे
मत्कृते येऽत्र शापिता शावित्र्या ब्राह्मणा सुरा:। तेषां अहं करिष्यामि शक्त्या साधारणां स्वयम्।।७।।
"अनुवाद:-मेरे कारण ये ब्राह्मण और देवगण सावित्री के द्वारा शापित हुए हैं। उन सबको मैं (गायत्री) अपनी शक्ति से साधारणत: पूर्ववत् कर दुँगी।।७।।
किसी के द्वारा दिए गये शाप को
समाप्त कर समान्य करना और समान्य
को फिर वरदान में बदल देना
अर्थात जो शापित थे उनको वरदान देना
यह कार्य आभीर कन्या गायत्री के द्वारा
ही सम्भव हो सका ।
अन्यथा कोई देवता किसी अन्य के द्वारा दिए गये शाप का शमन नहीं कर सकता है।
अपूज्योऽयं विधिः प्रोक्तस्तया मन्त्रपुरःसरः॥ सर्वेषामेव वर्णानां विप्रादीनां सुरोत्तमाः॥८।
"अनुवाद:-यह ब्रह्मा (विधि) अपूज्य हो यह उस सावित्री के द्वारा कहा गया था परन्तु विपरीत है।
गायत्री के माता-पिता गोविल और गोविला गोलोक से सम्बन्धित हैं।
क्योंकि ब्रह्मा ने अपने यज्ञ सत्र नें अपनी सृष्टि को ही आमन्त्रित किया था चातुर्यवर्ण, सप्तर्षि देवतागण आदि सभी यज्ञ में उपस्थित थे।
गायत्री की उत्पत्ति भी गोपों में हुयी है।
गोविल-गोविला- गायत्री -गोप गोविन्द गोपाल आदि शब्द गोपालन वृत्ति को सूचित करते हैं। -
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गर्ग संहिता-
गोलोक खण्ड : अध्याय- (3) इस अध्याय में विष्णु के सभी अवतारों का विलय भगवान श्री कृष्ण में अपनी शक्ति के अनुरूप शरीर के विशेष
स्थानों में होता है।
[8/1, 1:47 PM] yogeshrohi📚: ब्रह्मा जी के द्वारा निर्मित चार वर्णों में तथा स्वराट्- विष्णु के द्वारा निर्मित पाँचवें वैष्णव वर्ण में प्रमुख अन्तर -
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ब्रह्मा की वर्ण - व्यवस्था -
१-इसके सदस्यों का विभाजन व्यवसाय ( कार्यों) के आधार पर चार मानव समूहों ( ब्राह्मण क्षत्रिय ,वैश्य और शूद्र में हुआ है।
२- इसमें सभी वर्ण अपने ही वंशानुगत कार्यों को अनिवार्य रूप से करते हैं ।
भले ही उनमें इसकी पूर्ण प्रवृत्ति तथा योग्यता हो या नो
३- सभी वर्णों के अलग अलग कार्य हैं जो वे पीढ़ी दर पीढ़ी करते हैं।
४- ब्रह्मा की चातुर्य वर्ण व्यवस्था के अन्तर्गत ऊँच- नीच का बड़ा भेद विभेद पाया जाता है।
मार्कण्डेय पुराण में एक स्थान अध्याय 130/ के श्लोक 30 पर वर्णव्यवस्था के शास्त्रीय विधानों का निर्देशन करते हुए कहा गया है अथवा
वर्णित है।
जो परिव्राटमुनि और राजा दिष्ट के संवाद के प्रसंग में है।
( परिव्राट् मुनि ने राजा दिष्ट से कहा कि ) हे राजन् ! आपका पुत्र नाभाग धर्म से पतित होकर वैश्य हो गया है;
और वैश्य के साथ आपका युद्ध करना वर्ण गत नीति के विरुद्ध व अनुचित ही है ।।30।।
"तवत्पुत्रस् महाभागविधर्मोऽयं महातमन्।।
तवापि वैश्येन सह न युद्धं धर्मवन्नृप ||30||
उपर्युक्त श्लोक जो मार्कण्डेय पुराण से उद्धृत है उसमें स्पष्ट विधान है कि वैश्य कभी युद्ध नहीं कर सकता अथवा वैश्य के साथ किसी क्षत्रिय के द्वारा युद्ध नही किया जा सकता है ।
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स्वराट्- विष्णु द्वारा उत्पन्न वैष्णव वर्ण-
(१) वैष्णव वर्ण के अन्तर्गत एक ही जन जाति आती है।
जो सभी वर्णों के कार्यों को करती है। इसमें कार्यों के आधार पर कोई वर्ग- भेद नहीं है। इस वर्ण के सभी सदस्य गोप हैं ।
और वे विना वर्ग समूह में बचे हुए स्वतन्त्र रूप से ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य और शूद्र का काम करते हुए वैष्णव वर्ण का पालन करते हैं। वैष्णव वर्ण के लोग ब्रह्मा के चार वर्णों के - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र आदि के कर्मो( व्यवसायों) को बिना वर्ग - विभाजन के अपने गुण -स्वभाव और योग्यता के अनुसार करते हैं।
१-गोपों द्वारा ब्राह्मण वर्ण का कर्म करना- गोप जाति में जन्म लेकर श्रीकृष्ण द्वारा श्रीमद्भगवद्गीता के द्वारा ज्ञान कर्म और भक्ति योग का स्थापन किया गया।
सत्युग में ज्ञान का प्रकाशिका वेदों की अधिष्ठात्री गायत्री का आभीर जाति में उत्पन्न होकर ब्रह्मा की सहायिका होकर संसार में ज्ञान प्रकाशन करना।
"धर्मवन्तं सदाचारं भवन्तं धर्मवत्सलम् मया ज्ञात्वा ततः कन्या दत्ता चैषा विरञ्चये।१५।
(भगवान विष्णु अहीरों से बोले ! हे गोपों) मेरे द्वारा यह जानकर कि आप धार्मिक' सदाचरण करने वाले और धर्मवत्सल के पात्र हो आपकी यह कन्या तब मेरे द्वारा ही ब्रह्मा को दान (कन्यादान) की गयी है ।१५।
_____________ऊं________________
"अनया तारितो गच्छ दिव्यान्लोकान्महोदयान्-
युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थ सिद्धये अवतारं करिष्ये अहं ।१६।
(द्विव्य लोकों को गये हुए महोदयों को इसके द्वारा तार दिया गया है तम्हारे कुल में और भी देव कार्य की सिद्धि के लिए मैं अवतरण करुँगा ।।१६। -
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इस कन्या के द्वारा तुम्हारी जाति- कुल के दिवंगत पितरों का भी उद्धार कर दिया गया और भी देवों के कार्य की सिद्धि के लिए मेैं भी तुम्हारे कुल में ही अवतरण करुँगा ।१६।
_______________ऊं________________
सा क्रीडा तु भविष्यति यदा नन्दप्रभृतयो ह्यवतारं धरातले।१७।
और वे तब मेरे साथ भविष्य में क्रीडा (रास नृत्य करेंगीं।१७।
_______________ऊं________________
करिष्यंति तदा चाहं वसिष्ये तेषु मध्यतः
युष्माकं कन्यकाः सर्वा वसिष्यंति मया सह।१८।
मैं भी उस समय गोप रूप में तुम्हारी कन्याओं के साथ( रास अथवा हल्लीसम्) खेल करुँगा और वे सब कन्या मेरे साथ रहेंगीं।१८।
वेदों में विष्णु को गोप नाम से सम्बोधित किया गया है।
"गाःपालयन्ति सततं रजसो गवां चगंगां स्पृशन्ति च जपन्ति गवां सुनाम्नाम् ।प्रेक्षन्त्यहर्निशमलं सुमुखं गवां च जातिःपरा न विदिता भुवि गोपजातेः॥२२॥)
अर्थ • गोप सदा गौओं का पालन करते हैं,
और गोरज की गंगा में नहाते तथा, उसका स्पर्श
करते हैं तथा गौओं का उत्तम नामों का जप करते हैं।
इतना ही नहीं, उन्हें दिन-रात गौओं के सुन्दर
मुख को देखते हैं।
इस भूतल पर गोप-जाति से बढ़कर दूसरी कोई जाति ही नहीं है।।२२।।
श्रीगर्गसंहितायां वृन्दावनखण्डे श्रीकृष्णचंद्रदर्शनम् नाम अष्टादशोऽध्यायः।१८॥
ब्रह्म आदि कल्पों का परिचय, गोलोक में श्रीकृष्ण का नारायण. आदि के साथ रास मण्डल में निवास, श्रीकृष्ण के वामपार्श्व से श्रीराधा का प्रादुर्भाव; राधा के रोमकूपों से गोपांगनाओं का प्राकट्य तथा श्रीकृष्ण से गोपों, गौओं, बलीवर्दों, हंसों, श्वेत घोड़ों और सिंहों की उत्पत्ति; श्रीकृष्ण द्वारा पाँच रथों का निर्माण तथा पार्षदों का प्राकट्य; भैरव, ईशान और डाकिनी आदि की उत्पत्ति
महर्षि शौनक के पूछने पर सौति कहते हैं – ब्रह्मन! मैंने सबसे पहले ब्रह्म कल्प के चरित्र का वर्णन किया है। अब वाराह कल्प और पाद्म कल्प – इन दोनों का वर्णन करूँगा, सुनिये। मुने! ब्राह्म, वाराह और पाद्म – ये तीन प्रकार के कल्प हैं; जो क्रमशः प्रकट होते हैं। जैसे सत्य युग, त्रेता, द्वापर और कलियुग– ये चारों युग क्रम से कहे गये हैं, वैसे ही वे कल्प भी हैं। तीन सौ साठ युगों का एक दिव्य युग माना गया है। इकहत्तर दिव्य युगों का एक मन्वन्तर होता है। चौदह मनुओं के व्यतीत हो जाने पर ब्रह्मा जी का एक दिन होता है। ऐसे तीन सौ साठ दिनों के बीतने पर ब्रह्मा जी का एक वर्ष पूरा होता है। इस तरह के एक सौ आठ वर्षों की विधाता की आयु बतायी गयी है।
यह परमात्मा श्रीकृष्ण का एक निमेषकाल है। कालवेत्ता विद्वानों ने ब्रह्मा जी की आयु के बराबर कल्प का मान निश्चित किया है। छोटे-छोटे कल्प बहुत-से हैं, जो संवर्त आदि के नाम से विख्यात हैं। महर्षि मार्कण्डेय सात कल्पों तक जीने वाले बताये गये हैं; परंतु वह कल्प ब्रह्माजी के एक दिन के बराबर ही बताया गया है। तात्पर्य यह है मार्कण्डेय मुनि की आयु ब्रह्मा जी के सात दिन में ही पूरी हो जाती है,ऐसा निश्चय किया गया है।
ब्रह्म, वाराह और पाद्म –ये तीन महाकल्प कहे गये हैं।
इनमें जिस प्रकार सृष्टि होती है, वह बताता हूँ। सुनिये।
ब्राह्म कल्प में मधु-कैटभ के मेद से मेदिनी की सृष्टि करके स्रष्टा ने भगवान श्रीकृष्ण की आज्ञा ले सृष्टि-रचना की थी। फिर वाराह कल्प में जब पृथ्वी एकार्णव के जल में डूब गयी थी, वाराह रूपधारी भगवान विष्णु के द्वारा अत्यन्त प्रयत्नपूर्वक रसातल से उसका उद्धार करवाया और सृष्टि-रचना की; तत्पश्चात् पाद्म कल्प में सृष्टिकर्ता ब्रह्मा ने विष्णु के नाभि कमल पर
सृष्टि का निर्माण किया। ब्रह्मलोक पर्यन्त जो त्रिलोकी है, उसी की रचना की, ऊपर के जो नित्य तीन लोक हैं, उनकी नहीं।
सृष्टि-निरूपण के प्रसंग में मैंने यह काल-गणना बतायी है और किंचिन मात्र सृष्टि का निरूपण. किया है। अब फिर आप क्या सुनना चाहते हैं?
गर्गसंहिता में भी गोपों की उत्पत्ति विष्णु के रोमकूपों से हुई है।
"नन्दद्रोणो वसु: साक्षाज्जातोगोपकुलेऽपिस:
गोपाला ये च गोलोके कृष्णरोमसमुद्भवा:।।२१।।राधारोमोद्भवा गोप्यस्ताश्च सर्वा इहागताःकाश्चित्पुण्यैः कृतैः पूर्वैः प्राप्ताः कृष्णं वरैः परैः॥२२।।
इति श्रीगर्गसंहितायां श्रीविश्वजित्खण्डे श्रीनारदबहुलाश्वसंवादे दंतवक्त्रयुद्धे करुषदेशविजयो नामैकादशोऽध्यायः॥११॥
इस प्रकार गोप अथवा आभीर जाति का जन्म वैष्णवी शक्तियों के रूप में होता है।
ये ब्रह्मा की वर्णव्यवस्था से परे हैं । महाभारत काल में भी गोपों ने कभी वर्ण-व्यवस्था मूलक विधानों का पालन नहीं किया यदि गोप वैश्य होते तो नाराणी सेना के यौद्धा बन कर कभी युद्ध नहीं करते क्यों कि वैश्यों का युद्ध करना शास्त्र विरुद्ध है। जैसा कि मार्कण्डेय पुराण में वर्णन है।
मार्कण्डेय पुराण में एक स्थान अध्याय 130/ के श्लोक 30 पर शास्त्रीय. विधानों का निर्देशन करते हुए ।
वर्णित है अर्थात् (परिव्राट् मुनि ने राजा दिष्ट से कहा कि ) हे राजन् आपका पुत्र नाभाग धर्म से पतित होकर वैश्य हो गया है; और वैश्य के साथ आपका युद्ध करना नीति के विरुद्ध अनुचित ही है ।।30।।
"तवत्पुत्रस् महाभागविधर्मोऽयं महातमन्।।
तवापि वैश्येन सह न युद्धं धर्म वन्नृप ।30।
उपर्युक्त श्लोक जो मार्कण्डेय पुराण से उद्धृत है उसमें स्पष्ट विधान है कि वैश्य युद्ध नहीं कर सकता अथवा वैश्य के साथ युद्ध नहीं किया जा सकता है
तो फिर यह भी विचारणीय है कि गोप जो नारायणी सेना के योद्धा थे वे वैश्य कहाँ हुए ? क्योंकि वे तो नित्य युद्ध करते थे।
"मत्संहननतुल्यानां गोपानां अर्बुदं महत् ।
नारायणा इतिहास ख्याता : सर्वे संग्रामयोधिन:।18।
ते वा युधि दुराधर्षा भवन्त्वेकस्य सैनिका:।
अयुध्यमान: संग्रामे न्यस्तशस्त्रोऽहमेकत:।19।
आभ्यान्यतरं पार्थ यत् ते हृद्यतरं मतम्।
तद् वृणीतां भवानग्रे प्रवार्यस्त्वं धर्मत:।।20।
जब दुर्योधन और अर्जुन कृष्ण के पास युद्ध में सहायता के लिए जाते हैं तो कृष्ण स्वयं को अर्जुन के लिए और अपने नारायणी सेना जिसकी संख्या 10 करोड़ थी ! उसे दुर्योधन को युद्ध सहायता के लिए देते हैं ।
👇कृष्ण दुर्योधन से कहते हैं कि नारायणी सेना के गोप (आभीर)सबके सब मेरे जैसे ही बलिष्ठ शरीर वाले हैं। कृष्ण ने ऐसा दुर्योधन से कहा उन सब की नारायणी संज्ञा है वह सभी युद्ध. में बैठकर लोहा लेने वाले हैं ।17.एक और तो वे 10 करोड़ सैनिक युद्ध के लिए उद्धत रहेंगे और दूसरी ओर से मैं अकेला रहूंगा । परंतु मैं ना तो युद्ध करूंगा और ना कोई शस्त्र ही धारण करूंगा ।18 हे अर्जुन इन दोनों में से कोई एक वस्तु जो तुम्हारे मन को अधिक रुचिकर लगे ! तुम पहले उसे चुनो क्योंकि धर्म के अनुसार पहले तुम ही अपनी मनचाही वस्तु चुनने के अधिकारी हो ।19👇
और दूसरी और ---मैं स्वयं नि:शस्त्र रहुँगा ! दौनों विकल्पों में जो आपको अच्छा लगे उसका चयन कर लो ! " तब स्थूल बुद्धि दुर्योधन ने कृष्ण की नारायणी गोप - सेना को चयन किया ! और अर्जुन ने स्वयं कृष्ण को ! गोप अर्थात् अहीर निर्भीक यदुवंशी यौद्धा तो थे ही इसमें कोई सन्देह नहीं ! गोप निर्भाक होने से ही अभीर कहलाते थे । अ = नहीं +भीर: = भीरु अथवा कायर अर्थात् अहीर. या अभीर वह है --- जो कायर न हो इसी का अण् प्रत्यय करने पर आभीर इसी लिए दुर्योधन ने उनका ही चुनाव किया
यादवों ने वर्णवियवस्था का कभी पालन नहीं किया स्वयं कृष्ण का चरित्र इसका प्रमाण है।
महाभारत काल में गोपालन ( वैश्यवृत्ति ) गीता का उपदेश( ब्राह्मणवृत्ति) दुष्टों का संहार ( क्षत्रिय वृत्ति) और युधिष्ठर के राजसूय यज्ञ में उछिष्ट ( झूँठें) भोजनपात्र उठाना शूद्रवृत्ति हैं। कृष्ण ने यादव होकर ये सब किया।
यदि कृष्ण इनमें से एक होते तो ये परस्पर विरोधी सभी कार्य न करते - कृष्ण ने भागवत धर्म की स्थापना ब्राह्मणवाद और देववाद के खण्डन हेतु की थी ।
कृष्ण ने वैदिक प्रधान देव इन्द्र की पूजा का विधान ही समाप्त कर गो" प्रकृति और एक अद्वित्तीय ब्रह्म की सत्ता का प्रतिपादन किया अत: समस्त आभीर जाति वैष्णव वर्ण के अन्तर्गत है।
सनातन काल से विष्णु का अवतरण गोपों के मध्य ही होता है । स्वयं पद्म पुराण और स्कन्द पुराण इसका साक्ष्य हैं ।
पद्मपुराणम्- सृष्टि खण्डम्-
पद्मपुराणम्-खण्डः(१)
(सृष्टिखण्डम्)अध्यायः(१७)
(पदान्वय अर्थसमन्विता सुमन्तनी टीका)
पद्मपुराणम् | खण्डः १ (सृष्टिखण्डम्)
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(अनुवाद-यादव योगेश कुमार "रोहि"(पद्मपुराणम्-प्रथम सृष्टि खण्डम् अध्याय:१७. -तस्मिन्यज्ञे किमाश्चर्यं तदासीद्द्विजसत्तम ।
कथं रुद्रः स्थितस्तत्र विष्णुश्चापि सुरोत्तमः।१
।भीष्म उवाच।
"शब्दार्थ- ★
१-तस्मिन्यज्ञे= उस यज्ञ में । २-किमाश्चर्यम तदासीत् द्विजसत्तम = क्या आश्चर्य तब हुआ द्विजों मे श्रेष्ठ पुलस्त्य जी ३- कथंरूद्र: स्थितस्तत्र विष्णुश्चापि सुरोत्तम: = कैसे रूद्र. और विष्णु भी जो देवों में उत्तम हैं वहाँ स्थित रहे ।
हे द्विज श्रेष्ठ ! उस यज्ञ में कौन सा आश्चर्य हुआ? और वहाँ रूद्र और विष्णु जो देवों में उत्तम हैं कैसे बने रहे ? ।१।
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गायत्र्या किंकृतंतत्रपत्नीत्वे स्थितया तया
आभीरैः किं सुवृत्तज्ञैर्ज्ञात्वा तैश्च कृतं मुने।२।
ब्रह्मा की पत्नी रूप में स्थित होकर गायत्री देवी द्वारा वहाँ क्या किया गया ? और सुवृत्तज्ञ अहीरों द्वारा जानकारी करके वहाँ क्या किया गया हे मुनि !।२।
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एतद्वृत्तं समाचक्ष्व यथावृत्तं यथाकृतम्।आभीरैर्ब्रह्मणा चापि ममैतत्कौतुकं महत्।३।
आप मुझे इस वृत्तान्त को बताइए ! तथा वहाँ पर और जो घटना जैसे हुई उसे भी बताइए मुझे यह. भी जानने का महा कौतूहल है कि अहीरों और ब्राह्मणों ने भी उसके बाद जो किया । ३।
_______________ऊं________________
★पुलस्त्य उवाच★
तस्मिन्यज्ञे यदाश्चर्यं वृत्तमासीन्नराधिप।★
कथयिष्यामि तत्सर्वं शृणुष्वैकमना नृप।४।
(पुलस्त्य ऋषि बोले-)
हे राजन् उस यज्ञ में जो आश्चर्यमयी घटना घटित है । उसे मैं पूर्ण रूप से कहुँगा । उस सब को आप एकमन होकर श्रवण करो ।४।
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(रुद्रस्तु महदाश्चर्यं कृतवान्वै सदो गत:।निंद्यरूपधरो देवस्तत्रायाद्द्विजसन्निधौ।५।
उस सभा में जाकर रूद्र ने तो निश्चय ही आश्चर्य मयी कार्य किया वहाँ वे महादेव निन्दित (घृणित) रूप धारण करके ब्राह्मणों के सन्निकट आये ।५।
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"विष्णुना न कृतं किंचित्प्राधान्ये स यतः स्थितः। "नाशं तु गोपकन्याया ज्ञात्वा गोपकुमारकाः।६।।
इस पर विष्णु ने वहाँ रूद्र का वेष देकर भी कोई प्रतिक्रिया नहीं की वह वहीं स्थित रहे क्योंकि वहाँ वे विष्णु ही प्रधान व्यवस्थापक थे गोपकुमारों ने यह जानकर कि गोपकन्या गायब अथवा अदृश्य हो गयी ।६।
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गोप्यश्च तास्तथा सर्वा आगता ब्रह्मणोंतिकम्
दृष्ट्वा तां मेखलाबद्धां यज्ञसीमव्यस्थिताम्।७।
और अन्य गोपियों ने भी यह बात जानी तो तो वे सब के सब अहीरगण ( आभीर) ब्रह्मा जी के पास आये वहाँ उन सब अहीरों ने देखा कि यह गोपकन्या कमर में मेखला ( करधनी) बाँधे यज्ञ भूमि की सीमा में स्थित है।७।
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हा पुत्रीति तदा माता पिता हा पुत्रिकेति चस्वसेति बान्धवाः सर्वे सख्यः सख्येन हा सखि।८।
यह देखकर उसके माता-पिता हाय पुत्री ! कहकर चिल्लाने लगे उसके भाई ( बान्धव) स्वसा (बहिन) कहकर तथा सभी सखियाँ सखी कहकर चिल्ला रह थी ।८।
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केन त्वमिह चानीता अलक्तांका तु सुन्दरी
शाटीं निवृत्तां कृत्वा तु केन युक्ता च कम्बली।९।
और किस के द्वारा तुम यहाँ लायी गयीं महावर( अलक्तक) से अंकित तुम सुन्दर साड़ी उतारकर किस के द्वारा तुम कम्बल से युक्त कर दी गयीं ?
।९।
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केन चेयं जटा पुत्रि रक्तसूत्रावकल्पिता।एवंविधानि वाक्यानि श्रुत्वोवाच स्वयं हरिः।१०।
हे पुत्री ! किसके द्वारा तुम्हारे केशों की जटा (जूड़ा) बनाकर लालसूत्र से बाँध दिया गया ? (अहीरों की) इस प्रकार की बातें सुनकर श्रीहरि भगवान विष्णु ने स्वयं कहा ! ।१०।
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इह चास्माभिरानीता पत्न्यर्थं विनियोजिता
ब्रह्मणालंबिता बाला प्रलापं मा कृथास्त्विह।११।
यहाँ यह हमारे द्वारा लायी गयी हैं और इसे पत्नी के रूप के लिए नियुक्त किया गया है । अर्थात ् ब्रह्मा जी ने इसे अपनी पत्नी रूप में अधिग्रहीत किया है । अर्थात् यह बाला ब्रह्मा पर आश्रिता है
अत: यहाँ प्रलाप अथवा दु:खपूर्ण रुदन मत करो! ।११।
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पुण्या चैषा सुभाग्या च सर्वेषां कुलनंदिनीपुण्या चेन्न भवत्येषा कथमागच्छते सदः।१२।
यह अत्यंत पुण्य शालिनी सौभाग्यवती तथा तुम्हारे सबके जाति - कुल को आनन्दित करने वाली है यदि यह पुण्यशालिनी नहीं होती तो यह इस ब्रह्मा की सभा में कैसे आ सकती थी ?।१२।
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एवं ज्ञात्वा महाभाग न त्वं शोचितुमर्हसि
कन्यैषा ते महाभागा प्राप्ता देवं विरिंचनम्।१३।
इसलिए हे महाभाग अहीरों ! इस बात को जानकर आप लोगों शोक करने के योग्य नहीं होते हो !
यह कन्या परम सौभाग्यवती है इसने स्वयं ब्रह्मा जी को( पति के रूप में) प्राप्त किया है ।१३
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योगिनो योगयुक्ता ये ब्राह्मणा वेदपारगाः
न लभंते प्रार्थयन्तस्तां गतिं दुहिता गता।१४।
तुम्हारी इस कन्या ने जिस गति को प्राप्त किया है उस गति को योगकरने वाले योगी और प्रार्थना करने वाले वेद पारंगत ब्राह्मण भी प्राप्त नहीं कर पाते हैं ।१४।
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"धर्मवन्तं सदाचारं भवन्तं धर्मवत्सलम् मया ज्ञात्वा ततः कन्या दत्ता चैषा विरञ्चये।१५।
(भगवान विष्णु अहीरों से बोले ! हे गोपों) मेरे द्वारा यह जानकर कि आप धार्मिक' सदाचरण करने वाले और धर्मवत्सल के पात्र हो आपकी यह कन्या तब मेरे द्वारा ही ब्रह्मा को दान (कन्यादान) की गयी है ।१५।
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"अनया तारितो गच्छ दिव्यान्लोकान्महोदयान्-
युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थ सिद्धये अवतारं करिष्ये अहं ।१६।
(द्विव्य लोकों को गये हुए महोदयों को इसके द्वारा तार दिया गया है तम्हारे कुल में और भी देव कार्य की सिद्धि के लिए मैं अवतरण करुँगा ।।१६। -
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इस कन्या के द्वारा तुम्हारी जाति- कुल के दिवंगत पितरों का भी उद्धार कर दिया गया और भी देवों के कार्य की सिद्धि के लिए मेैं भी तुम्हारे कुल में ही अवतरण करुँगा ।१६।
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सा क्रीडा तु भविष्यति यदा नन्दप्रभृतयो ह्यवतारं धरातले।१७।
और वे तब मेरे साथ भविष्य में क्रीडा (रास नृत्य करेंगीं।१७।
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करिष्यंति तदा चाहं वसिष्ये तेषु मध्यतः
युष्माकं कन्यकाः सर्वा वसिष्यंति मया सह।१८।
मैं भी उस समय गोप रूप में तुम्हारी कन्याओं के साथ( रास अथवा हल्लीसम्) खेल करुँगा और वे सब कन्या मेरे साथ रहेंगीं।१८।
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तत्र दोषो न भविता न द्वेषो न च मत्सर:करिष्यंति तदा गोपा भयं च न मनुष्यकाः।१९।
उस समय न तो कोई दोष होगा और न किसी को इसका द्वेष होगा और न कोई किसी से क्रोध करेगा उस समय आभीर लोग भी किसी प्रकार का भय नहीं करेंगे अर्थात् निर्भीक रहेंगे।१९।
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न चास्या भविता दोषःकर्मणानेन कर्हिचित्
श्रुत्वा वाक्यं तदा विष्णोःप्रणिपत्य ययुस्तदा।२०।
इस कार्य से इनको भी कोई पाप नहीं लगेगा
भगवान विष्णु की ये आश्वासन पूर्ण बातें सुनकर सभी अहीर उन विष्णु को प्रणाम कर तब सभी अपने घरों को चले गये ।२०।
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एवमेष वरो देव यो दत्तो भविता हि मे
अवतारः कुलेस्माकं कर्तव्यो धर्मसाधनः।२१।
उन सभी अहीरों ने जाने से पहले भगवान विष्णु से कहा कि हे देव ! आपने जो वरदान हम्हें दिया है वह निश्चय ही हमारा होकर रहे ! आपको हमारे जाति वंश और कुल ( परिवार )में धर्म के सिद्धिकरण के लिए अवतार करने योग्य ही है ।२१।
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भवतो दर्शनादेव भवामः स्वर्गवासिनः
शुभदा कन्यका चैषा तारिणी मे कुलैः सह।२२।
आपका दर्शन करके ही हम सब लोग दिव्य होकर स्वर्ग के निवासी बन गये हैं । शुभ देने वाली ये कन्या भी हम लोगों के जाति कुल का तारण करने वाली बन गयी है ।२२।
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पद्मपुराण सृष्टिखण्ड अध्याय १७ में विष्णु स्वयं अहीर जाति के यदुवंश के वृष्णि कुल में अवतार लेने की घोषणा करते हैं ।
(भगवान विष्णु अहीरों से बोले ! हे गोपों) मेरे द्वारा यह जानकर धार्मिक' सदाचरण करने वाली और धर्मवत्सला के रूप पात्र है यह कन्या तब मेरे द्वारा ही ब्रह्मा को दान (कन्यादान) की गयी है ।१५।
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अनया तारितो गच्छ दिव्यान्लोकान्महोदयान्युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थ सिद्धये अवतारं करिष्ये अहं ।१६।
(द्विव्य लोकों को गये हुए महोदयों को इसके द्वारा तारदिया गया है तम्हारे कुल में और भी देव कार्य की सिद्धि के लिए में मैं अव तरण करुँगा ।।१६। -
वेदों में विष्णु को गोप नाम से सम्बोधित किया गया है।
"गाःपालयन्ति सततं रजसो गवां चगंगां स्पृशन्ति च जपन्ति गवां सुनाम्नाम् ।प्रेक्षन्त्यहर्निशमलं सुमुखं गवां च जातिःपरा न विदिता भुवि गोपजातेः॥२२॥)
अर्थ • गोप सदा गौओं का पालन करते हैं,
और गोरज की गंगा में नहाते तथा, उसका स्पर्श
करते हैं तथा गौओं का उत्तम नामों का जप करते हैं।
इतना ही नहीं, उन्हें दिन-रात गौओं के सुन्दर
मुख को देखते हैं।
इस भूतल पर गोप-जाति से बढ़कर दूसरी कोई जाति ही नहीं है।।२२।।
श्रीगर्गसंहितायां वृन्दावनखण्डे श्रीकृष्णचंद्रदर्शनम् नाम अष्टादशोऽध्यायः।१८॥
परन्तु कालान्तरण में इस आभीर जाति के आध्यात्मिक वर्चस्व से अभिभूत होकर तत्कालिक पुरोहितों नें अहीरों को वर्णसंकर
शूद्र और म्लेच्छ तक घोषित करने के लिए स्मृतियों में विधान बनाये-
"पाराशर संहिता- में लिखा कि“मणिवन्द्यां तन्तुवायात् गोपजातेश्च सम्भवः”
पराशरः -संहिता ( मण वन्द्य जाति की स्त्री में तन्तुवाय पुरुष से गोप जाति उत्पन्न होती है । ।
अब स्मृति-ग्रन्थों में गोपों को शूद्र कह कर वर्णित किया गया है। यह भी देखें---
व्यास -स्मृति )तथा सम्वर्त -स्मृति में एक स्थान पर लिखा है
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" क्षत्रियात् शूद्र कन्यानाम् समुत्पन्नस्तु य: सुत:। स गोपाल इति ज्ञेयो भोज्यो विप्रैर्न संशय: --------------------------------------------------------
अर्थात् क्षत्रिय से शूद्र की कन्या में उत्पन्न होने वाला पुत्र गोपाल अथवा गोप होता है ।
और विप्रों के द्वारा उनके यहाँ भोजान्न होता है इसमे संशय नहीं ....
पाराशर स्मृति में वर्णित है कि.._
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वर्द्धकी नापितो गोप: आशाप: कुम्भकारक:। वणिक् किरात: कायस्थ: मालाकार: कुटुम्बिन: एते चान्ये च बहव शूद्र:भिन्न स्व कर्मभि: चर्मकारो भटो भिल्लो रजक: पुष्करो नट: वरटो मेद। चाण्डालदास श्वपचकोलका: ।।११।।
एतेsन्त्यजा समाख्याता ये चान्ये च गवार्शना: एषां सम्भाषणाद् स्नानंदर्शनादर्क वीक्षणम् ।।१२।।
-------------------------------------------------------- वर्द्धकी (बढ़ई) , नाई , गोप , आशाप , कुम्हार ,वणिक् ,किरात , कायस्थ, माली , कुटुम्बिन, ये सब अपने कर्मों से भिन्न बहुत से शूद्र हैं ।
चमार ,भट, भील ,धोवी, पुष्कर, नट, वरट, मेद , चाण्डाल ,दाश,श्वपच , तथा कोल (कोरिया) ये सब अन्त्यज कहे जाते हैं ।
और अन्य जो गोभक्षक हैं वे भी अन्त्यज होते हैं। इनके साथ सम्भाषण करने पर स्नान कर सूर्य दर्शन करना चाहिए तब शुद्धि होती है।
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अभोज्यान्ना:स्युरन्नादो यस्य य: स्यात्स तत्सम: नापितान्वयपित्रार्द्ध सीरणो दास गोपका:।।४९।। शूद्राणामप्योषान्तु भुक्त्वाsन्न नैव दुष्यति ।धर्मेणान्योन्य भोज्यान्ना द्विजास्तु विदितान्वया:।५०।। (व्यास-स्मृति)
नाई वंश परम्परा व मित्र ,अर्धसीरी ,दास ,तथा गोप ,ये सब शूद्र हैं ।
तो भी इन शूद्रों के अन्न को खाकर दूषित नहीं होते।
जिनके वंश का ज्ञान है ; द्विज धर्म से परस्पर में भोजन के योग्य अन्न वाले होते हैं ।५०। ______________________________________ व्यास- स्मृति प्रथम अध्याय श्लोक ११-१२)
स्मृतियों की रचना काशी में हुई , वर्ण-व्यवस्था का पुन: दृढ़ता से विधान पारित करने के लिए काशी के इन ब्राह्मणों ने रूढ़ि वादी पृथाओं के पुन: संचालन हेतु स्मृति -ग्रन्थों की रचना की जो पुष्यमित्र सुंग की परम्पराओं के अनुगामी थे।
देखें---निम्न श्लोक दृष्टव्य है इस सन्दर्भ में..
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"वाराणस्यां सुखासीनं वेद व्यास तपोनिधिम्। पप्रच्छुमुर्नयोSभ्येत्य धर्मान् वर्णव्यवस्थितान् १-।।
अर्थात् वाराणसी में सुख-पूर्वक बैठे हुए तप की खान वेद व्यास से ऋषियों ने वर्ण-व्यवस्था के धर्मों को पूछा ।
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निश्चित रूप इन विरोधाभासी तथ्यों से ब्राह्मणों के विद्वत्व की पोल खुल गयी है ।
शास्त्रों में अहीरों की सात्विक प्रवृत्ति सर्व विदित है नारायण विष्णु का ही रूपान्तरण है।
सत्यनारायण की कथाओं के पात्र भी गोपगण ही रहे हैं ।
पञ्चमोध्याय: -
सूत उवाच-
अथान्यत् संप्रवक्ष्यामि श्रृणध्वं मुनिसत्तमा:। आसीत् तुङ्गध्वजो राजा प्रजापालनतत्पर:॥1॥
प्रसादं सत्यदेवस्य त्यक्त्त्वा दु:खमवाप स:। एकदा स वनं गत्वा हत्वा बहुविधान् पशून्॥2॥
आगत्य वटमूलं च दृष्ट्वा सत्यस्य पूजनम् । आभीरा:कुर्वन्ति सन्तुष्टाभक्तियुक्ता:सबन्धवा:।3॥
राजा दृष्ट्वा तु दर्पेण न गतो न ननाम स: । ततो गोपगणा: सर्वे प्रसादं नृपसन्निधौ ॥4॥
सूतजी बोले हे ऋषियों ! मैं और भी एक कथा सुनाता हूँ, उसे भी ध्यानपूर्वक सुनो ! प्रजापालन. में लीन तुंगध्वज नाम का एक राजा था। उसने भी भगवान का प्रसाद त्याग कर बहुत ही दु:ख प्राप्त किया। एक बार वन में जाकर वन्य पशुओं को मारकर वह बड़ के पेड़ के नीचे आया। वहाँ उसने अहीरों को भक्ति-भाव से अपने बंधुओं सहित सत्यनारायण भगवान. का पूजन करते देखा।
अभिमानवश राजा ने उन्हें देखकर भी पूजा स्थान. में नहीं गया और ना ही उसने भगवान को नमस्कार ही किया। ग्वालों ने राजा को प्रसाद दिया।
संस्थाप्य पुनरागत्य भुक्त्वा सर्वे यथेप्सितम् । तत: प्रसादं संत्यज्य राजा दु:खमवाप स: ॥5॥
तस्य पुत्राशतं नष्टं धनधान्यादिकं च यत् । सत्यदेवेन तत्सर्वं नाशितं मम निश्चितम् ॥6॥
अतस्तत्रैव गच्छामि यत्र देवस्य पूजनन् । मनसा तु विनिश्चित्य ययौ गोपालसन्निधौ॥7॥
ततोऽसौ सत्यदेवस्य पूजां गोपगणै: सह । भक्तिश्रद्धान्वितो भूत्वा चकार विधिना नृप: ॥8॥
लेकिन उसने वह प्रसाद नहीं खाया और प्रसाद को वहीं छोड़ वह अपने नगर को चला गया। जब वह नगर में पहुंचा तो वहाँ सबकुछ. तहस-नहस हुआ पाया तो वह शीघ्र ही समझ गया कि यह सब भगवान ने ही किया है। वह दुबारा ग्वालों के पास पहुंचा और विधि पूर्वक पूजा कर के प्रसाद खाया ।
सत्यदेवप्रसादेन धनपुत्राऽन्वितोऽभवत् । इह लोके सुखं भुक्त्वा पश्चात् सत्यपुरं ययौ ॥9॥
य इदं कुरुते सत्यव्रतं परम दुर्लभम् । श्रृणोति च कथां पुण्यां भक्तियुक्तां फलप्रदाम्।10॥
धनधान्यादिकं तस्य भवेत् सत्यप्रसादत: । दरिद्रो लभते वित्तं बद्धो मुच्येत बन्धनात् ॥11॥
भीतो भयात् प्रमुच्येत सत्यमेव न संशय: । ईप्सितं च फलं भुक्त्वा चान्ते सत्यपुरं ब्रजेत् ॥12॥
इति व: कथितं विप्रा: सत्यनारायणव्रतम् । यत्कृत्वा सर्वदु:खेभ्यो मुक्तो भवति मानव: ॥13॥
विशेषत: कलियुगे सत्यपूजा फलप्रदा । केचित्कालं वदिष्यन्ति सत्यमीशं तमेव च ॥14॥
सत्यनारायणं केचित् सत्यदेवं तथापरे । नाना रूपधरो भूत्वा सर्वेषामीप्सितप्रद:॥15॥
भविष्यति कलौ सत्यव्रतरूपी सनातन:। श्रीविष्णुना धृतं रूपं सर्वेषामीप्सितप्रदम् ॥16॥
तो श्रीसत्यनारायण भगवान की कृपा से सब कुछ पहले जैसा हो गया। दीर्घकाल तक सुख भोगने के बाद मरणोपरांत उसे स्वर्गलोक की प्राप्ति हुई। जो मनुष्य परम दुर्लभ इस व्रत को करेगा तो भगवान सत्यनारायण की अनुकंपा से उसे धन-धान्य की प्राप्ति होगी। निर्धन धनी होकर भयमुक्त हो जीवन जीता है। संतान हीन मनुष्य को संतान सुख मिलता है और सारे मनोरथ पूर्ण होने पर मानव अंतकाल में बैकुंठधाम को जाता है।
श्रृणोति य इमां नित्यं कथा परमदुर्लभाम् । तस्य नश्यन्ति पापानि सत्यदेव- प्रसादत:॥17॥
व्रतं यैस्तु कृतं पूर्वं सत्यनारायणस्य च । तेषां त्वपरजन्मानि कथयामि मुनीश्वरा: ॥18॥
शतानन्दो महा-प्राज्ञ: सुदामा ब्राह्मणोऽभवत् । तस्मिन् जन्मनि श्रीकृष्णं ध्यात्वा मोक्षमवाप ह ।19
काष्ठभारवहो भिल्लो गुहराजो बभूव ह । तस्मिन् जन्मनि श्रीरामसेवया मोक्षमाप्तवान् ॥20॥
उल्कामुखो महाराजो नृपो दशरथोऽभवत् । श्रीरङ्नाथं सम्पूज्य श्रीवैकुण्ठं तदाऽगमत्॥21॥
धार्मिक:सत्यसन्धश्च साधुर्मोरध्वजोऽभवत् । देहार्ध क्रकचेश्छित्वा मोक्षमवापह ॥२२॥
तुङ्गध्वजो महाराजो स्वायम्भरभवत्किल । सर्वान् धर्मान् कृत्वा श्री वकुण्ठतदागमत् ॥२३॥
सूतजी बोले–जिन्होंने पहले इस व्रत को किया है अब उनके दूसरे जन्म की कथा कहता हूँ। वृद्ध शतानन्द ब्राह्मण ने सुदामा का जन्म लेकर. मोक्ष की प्राप्ति की।लकड़हारे ने अगले जन्म में निषाद बनकर मोक्ष प्राप्त किया।
उल्कामुख नाम का राजा दशरथ होकर बैकुंठ को गए। साधु नाम के वैश्य ने मोरध्वज बनकर अपने पुत्र को आरे से चीरकर मोक्ष पाया। महाराज तुंगध्वज ने स्वयंभू होकर भगवान में भक्तियुक्त हो कर्म कर मोक्ष पाया।
"इति श्री स्कन्द पुराणे रेवाखंडे सत्यनारायण व्रत कथायां पञ्चमोध्यायःसमाप्तः॥
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भुक्त्वा तृणानि शुष्कानि पीत्वा तोयंजलाशयात् ।दुग्धं ददति लोकेभ्यो गावो विश्वस्य मातरः॥
भारतीय ग्रन्थों में भी कुछ मिलाबटें और जोड़ तोड़ की प्रक्रिया की गयी परिणाम स्वरूप शास्त्रीय सिद्धान्तों की तौहीन हुई ।
संसार का सबसे पवित्र पशु गाय और भैंस हैं ।
इनका मल मूत्र भी पवित्र करने लिए भारतीय संस्कृति में उपयोग में लिया जाता है ।जिस चौक में भगवान की लीलामयी कथाऐं कही जाती है अथवा को धार्मिक अनुष्ठान होता है उस चौक को भी गाय या भैंस के गोबर से ही लीपा जाता है।
दोनों ही सजातीय और बहिने बहिने हैं ।
ब्रह्मवैवर्त पुराण में दोनों को कश्यप की पत्नी सुरभि की सन्तान बताया गया है।
गाय पालने वाले गोप अथवा आभीर जाति से सम्बन्धित लोग रहे हैं ।
शास्त्रों में गाय के विषय में बताया गया है। कि
भुक्त्वा तृणानि शुष्कानि पीत्वा तोयं
जलाशयात् ।
दुग्धं ददति लोकेभ्यो गावो विश्वस्य मातरः॥
अर्थ:- रूखे सूखे घास के तिनके खाकर और जलाशय से जल पीकर संसार को दूध पिलाने वाली गाय विश्व की माता है। जिसके दूध से हम शरीर का पोषण करते हैं।
गोप लोग उस गाय का पालन करते हैं जो गाय सारे संसार को अपने दूध दही मट्ठा और घृत( घी) से पालतू है।
उन गोपों की महानता को भुलाकर उनको वैश्य अथवा शूद्र वर्ण में पुरोहितों द्वारा निर्धारित करना
केवल द्वेष जलन और झूँठ का प्रसारण है।
यदि गोप गाय या भैंस पालने से वैश्य या शूद्र हैं।
तो वैश्य अथवा शूद्र के वर्णगत कर्म विधान होते हैं।
परन्तु गोपों ने वर्णव्यवस्था से परे होकर सभी संसार के कर्म या व्यवसाय किए हैं।
नारायणी सेना के सभी योद्धा गोप अथवा अहीर जाति के थे।
कृष्ण ने गोप रूप में ही गायें भी चराईं युद्ध भी किया गीता का ज्ञान भी दिया और युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में लोगों द्वारा भोजन पश्चात उनके उच्छिष्ठ पात्र( पत्तलें) भी उठाईं।
इसी सन्दर्भ में हम एक शास्त्रीय विधान का वर्णन करते हैं जो मार्कण्डेय पुराण से उद्धृत है।
मार्कण्डेय पुराण में एक स्थान अध्याय 130/ के श्लोक 30 पर वर्णव्यवस्था के शास्त्रीय विधानों का निर्देशन करते हुए कहा गया है अथवा
वर्णित है।
जो परिव्राटमुनि और राजा दिष्ट के संवाद के प्रसंग में है।
( परिव्राट् मुनि ने राजा दिष्ट से कहा कि ) हे राजन् ! आपका पुत्र नाभाग धर्म से पतित होकर वैश्य हो गया है;
और वैश्य के साथ आपका युद्ध करना वर्ण गत नीति के विरुद्ध व अनुचित ही है ।।30।।
"तवत्पुत्रस् महाभागविधर्मोऽयं महातमन्।।
तवापि वैश्येन सह न युद्धं धर्मवन्नृप ||30||
उपर्युक्त श्लोक जो मार्कण्डेय पुराण से उद्धृत है उसमें स्पष्ट विधान है कि वैश्य कभी युद्ध नहीं कर सकता अथवा वैश्य के साथ किसी क्षत्रिय के द्वारा युद्ध नही किया जा सकता है ।
तो फिर यह यहाँ यह भी विचारणीय है कि गोप जो नारायणी सेना के योद्धा थे यदि वैश्य वर्ण में मान लिए जाऐं तो नारायणी सेना के रूप में वे युद्ध जो क्षत्रियोचित कर्म है उसको क्यों करते इस लिए वे वैश्य कहाँ हुए ?
क्योंकि वे तो नित्य युद्ध करते थे।
इस लिए गोपों को वैश्य अथवा शूद्र मानने वाले स्वयं ही वर्णसंकर प्रजाति के हैं।
[8/1, 1:50 PM] yogeshrohi📚: आभीर-कन्या देवी स्वाहा और दक्षिणा - वृतान्त हम पूर्व नें ही वर्णित कर चुके हैं।
[8/1, 3:06 PM] yogeshrohi📚: नारायणी सेना, यादव (अहीर) सेना थी , जिसे द्वारका के गणतान्त्रिक साम्राज्य में भगवान कृष्ण की सर्वोच्च सेना कहा जाता है।
महाभारत में इस पूरी सेना को आभीर जाति का बताया गया है। वे प्रतिद्वंद्वी राज्यों के लिए बुनियादी खतरा थे।
नारायणी सेना के डर से, कई राजाओं ने द्वारका के खिलाफ लड़ने की कोशिश नहीं की। क्योंकि द्वारका ने कृष्ण की राजनीति और यादवों की प्रतिभा के माध्यम से अधिकांश खतरों को हल किया।
नारायणी सेना का उपयोग करते हुए, यादवों ने अपने साम्राज्य को अधिकांश भारत में विस्तारित किया।
कृष्ण ने अर्जुन को दुर्योधन के खिलाफ स्वयं का या नारायणी सेना की पूरी सेना के बीच चयन का विकल्प दिया था।
उनके पास 10 करोड़ गोप योद्धा थे जो बहादुर सेनानी थे और नारायण के नाम से प्रसिद्ध थे।
अहीर आप को ज्ञात होना चाहिए कि नारायणी सेना आभीर या गोप यौद्धाओं की सेना थी ।
और जिसका प्रत्येक गोप यौद्धा बल में कृष्ण के समान था।
इसी बात की पुष्टि महाभारत उद्योग पर्व में वर्णित है ।👇
मत्सहननं तुल्यानां,गोपानामर्बुद महत् ।
नारायण इति ख्याता सर्वे संग्राम यौधिन: ।107।
सेन रूप में मेरे समान अरबों की संख्या में महान संग्राम में युद्ध करने वाले गोप यौद्धा नारायणी सेना से अभिहित हैं ।
नारायणेय: मित्रघ्नं कामाज्जातभजं नृषु ।
सर्व क्षत्रियस्य पुरतो देवदानव योरपि 108।।
जिनके सम्मुख देव दानव या कोई क्षत्रिय नहीं ठहरता है ।
महाभारत के उद्योग पर्व अध्याय 7/18-22,में
पुराणों में कहा गया है कि गोप या यादव एक ही वंश के हैं।
यादवों को गाो पालक होनो से ही गोप कहा गया |
भागवत पुराण के दशम स्कन्ध के अध्याय प्रथम के श्लोक संख्या बासठ ( 10/1/62) पर वर्णित है|
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नन्दाद्या ये व्रजे गोपा याश्चामीषां च योषितः ।
वृष्णयो वसुदेवाद्या देवक्याद्या यदुस्त्रियः ॥ ६२ ॥
●☆• नन्द आदि यदुवंशी की वृष्णि की शाखा के व्रज में रहने वाले गोप और उनकी देवकी आदि स्त्रीयाँ |62|
सर्वे वै देवताप्राया उभयोरपि भारत |
ज्ञातयो बन्धुसुहृदो ये च कंसमनुव्ररता:।63||
हे भरत के वंशज जनमेजय ! सब यदुवंशी नन्द आदि गोप दौनों ही नन्द और वसुदेव सजातीय (सगे-सम्बन्धी)भाई और परस्पर सुहृदय (मित्र) हैं ! जो तुम्हारे सेवा में हैं| 63||
(गीताप्रेस संस्करण पृष्ठ संख्या 109)..
____________________
गर्गसंहिता में भी नीचे देखेें
तं द्वारकेशं पश्यन्ति मनुजा ये कलौ युगे ।
सर्वे कृतार्थतां यान्ति तत्र गत्वा नृपेश्वर:| 40||
य: श्रृणोति चरित्रं वै गोलोक आरोहणं हरे: |
मुक्तिं यदुनां गोपानां सर्व पापै: प्रमुच्यते |
अन्वयार्थ ● हे राजन् (नृपेश्वर)जो (ये) मनुष्य (मनुजा) कलियुग में (कलौयुगे ) वहाँ जाकर ( गत्वा)
उन द्वारकेश को (तं द्वारकेशं) कृष्ण को देखते हैं (पश्यन्ति) वे सभी कृतार्थों को प्राप्त होते हैं (सर्वे कृतार्थतां यान्ति)।40।।
य: श्रृणोति चरित्रं वै गोलोक आरोहणं हरे: |
मुक्तिं यदुनां गोपानां सर्व पापै: प्रमुच्यते | 41||
अन्वयार्थ ● जो (य:) हरि के (हरे: ) 🍒● यादव गोपों के (यदुनां गोपानां )गोलोक गमन (गोलोकारोहणं ) चरित्र को (चरित्रं ) निश्चय ही (वै )
सुनता है (श्रृणोति )
वह मुक्ति को पाकर (मुक्तिं गत्वा) सभी पापों से (सर्व पापै: ) मुक्त होता है ( प्रमुच्यते )
इति श्रीगर्गसंहितायाम् अश्वमेधखण्डे राधाकृष्णयोर्गोलोकरोहणं नाम षष्टितमो८ध्याय |
( इस प्रकार गर्गसंहिता में अश्वमेधखण्ड का
राधाकृष्णगोलोक आरोहणं नामक साठवाँ अध्याय |
श्रीश्री राधाकृष्ण गणोद्देश्य दीपिका " रचियता श्रीश्रीलरूपगोस्वामी 👇
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आभीरसुतां (सुभ्रुवां) श्रेष्ठा राधा वृन्दावनेश्वरी |
अस्या : शख्यश्च ललिता विशाखाद्या:
सुविश्रुता: |83 |।
_____________________________________
अहीरों की कन्यायों में राधा श्रेष्ठा है ;
जो वृन्दावन की स्वामिनी है और ललिता , विशाखा आदि जिसकी सखीयाँ हैं |83||
उद्धरण ग्रन्थ "श्रीश्री राधाकृष्ण गणोद्देश्य दीपिका " रचियता श्रीश्रीलरूप गोस्वामी
___________________________________
आभीरस्यापि नन्दस्य पूर्वपुत्र: प्रकीर्तित:।
वसुदेवो मन्यते तं मत्पुत्रोऽयं गतत्रप: ।१४।
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कृष्ण वास्तव में नन्द अहीर का पुत्र है ।
उसे वसुदेव ने वरबस अपना पुत्र माने लिया है उसे इस बात पर तनिक भी लाज ( त्रप) नहीं आती है ।१४।।
(गर्ग संहिता उद्धव शिशुपालसंवाद )
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त्वत्समं वैभवं नास्ति नन्दराजगृहे क्वचित् ।
कृषीवलो नन्दराजो गोपतिर्दीनमानसः ॥ ७ ॥
महावीर ! तुम कान्यकुब्ज देशके स्वामी साक्षात् राजा भलन्दनके जामाता हो तथा कुबेरके समान कोषाधिपति। तुम्हारे समान वैभव नन्दराजके घरमें कहीं नहीं है। नन्दराज तो किसान, गोयूथके अधिपति और दीन हृदयवाले हैं। प्रभो! यदि नन्दके पुत्र साक्षात् परिपूर्णतम श्रीहरि हैं तो हम सबके सामने नन्दके वैभवकी परीक्षा कराइये ॥२-८॥
त्वत् – तुम्हारे ; समम् – समान; वैभवम् – महिमा; न – नहीं; अस्ति – है; नन्द – राजा – गृहे – राजा नन्द के घर में ; क्वचित् – कहीं भी; कृष्यवलः – किसान; नन्द – राजा नन्द; गो-पतिः – गौओं का पालक; दीन – मानसः – हृदय से दुखी।
श्लोक 3.6.7 का अनुवाद:
यहाँ तक कि राजा नन्द के घर में भी तुम्हारे समान धन और ऐश्वर्य नहीं है।
अनेक गायों के स्वामी कृषक राजा नन्द तुम्हारी तुलना में दीन-हीन हैं।
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! उन गोपोंकी बात सुनकर महान् वृषभानुवरने नन्दराजके वैभवकी परीक्षा की। मैथिलेश्वर! उन्होंने स्थूल मोतियोंके एक करोड़ हार लिये, जिनमें पिरोया हुआ एक-एक मोती एक-एक करोड़ स्वर्णमुद्राके मोलपर मिलनेवाला था और उन सबकी प्रभा दूरतक फैल रही थी। नरेश्वर ! उन सबको पात्रोंमें रखकर बड़े कुशल वर-वरणकारी लोगोंद्वारा सब गोपोंके देखते-देखते वृषभानुवरने नन्दराजजीके यहाँ भेजा। नन्दराजको सभामें जाकर अत्यन्त कुशल वर-वरणकर्ता लोगोंने मौक्तिक-हारोंके पात्र उनके सामने रख दिये और प्रणाम करके उनसे कहा ॥ ९-१२
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Garga Samhita Girirajkhand Chapter 6 to 11
March 11, 2024
Garga Samhita Girirajkhand Chapter 6 to 11
॥ श्रीहरिः ॥
ॐ दामोदर हृषीकेश वासुदेव नमोऽस्तु ते
श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः
Table of Contents
श्री गर्ग संहिता के गिरिराजखण्ड अध्याय 6 से 11 Garga Samhita Girirajkhand Chapter 6 to 11
श्री गर्ग संहिता गिरिराजखण्ड
छठा अध्याय
सातवाँ अध्याय
आठवाँ अध्याय
नवाँ अध्याय
दसवाँ अध्याय
ग्यारहवाँ अध्याय
यह भी पढ़े
श्री गर्ग संहिता के गिरिराजखण्ड अध्याय 6 से 11
Garga Samhita Girirajkhand Chapter 6 to 11
श्री गर्ग संहिता के गिरिराजखण्ड (Girirajkhand Chapter 6 to 11) छठे अध्याय से ग्यारहवाँ अध्याय में गोपोंका वृषभानुवरके वैभवकी प्रशंसा करके नन्दनन्दनकी भगवत्ताका परीक्षण करनेके लिये उन्हें प्रेरित करना और वृषभानुवरका कन्याके विवाहके लिये वरको देनेके निमित्त बहुमूल्य एवं बहुसंख्यक मौक्तिक-हार भेजना तथा श्रीकृष्णकी कृपासे नन्दराज का वधूके लिये उनसे भी अधिक मौक्तिकराशि भेजना, गिरिराज गोवर्धन सम्बन्धी तीर्थों का वर्णन, विभिन्न तीर्थोंमें गिरिराजके विभिन्न अङ्गोंकी स्थितिका वर्णन, गिरिराज गोवर्धन की उत्पत्ति का वर्णन, गोवर्द्धन-शिलाके स्पर्शसे एक राक्षसका उद्धार तथा दिव्यरूपधारी उस सिद्धके मुखसे गोवर्द्धनकी महिमाका वर्णन और सिद्धके द्वारा अपने पूर्वजन्मके वृत्तान्तका वर्णन तथा गोलोकसे उतरे हुए विशाल रथपर आरूढ़ हो उसका श्रीकृष्ण-लोकमें गमन कहा गया है।
यहां पढ़ें ~ गर्ग संहिता गोलोक खंड पहले अध्याय से पांचवा अध्याय तक
श्री गर्ग संहिता गिरिराजखण्ड
छठा अध्याय
गोपोंका वृषभानुवरके वैभवकी प्रशंसा करके नन्दनन्दनकी भगवत्ताका परीक्षण करनेके लिये उन्हें प्रेरित करना और वृषभानुवरका कन्याके विवाहके लिये वरको देनेके निमित्त बहुमूल्य एवं बहुसंख्यक मौक्तिक-हार भेजना तथा श्रीकृष्णकी कृपासे नन्दराज का वधूके लिये उनसे भी अधिक मौक्तिकराशि भेजना
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! वृषभानुवरकी यह बात सुनकर समस्त व्रजवासी शान्त हो गये। उनका सारा संशय दूर हो गया तथा उनके मनमें बड़ा विस्मय हुआ ॥ १ ॥
गोप बोले- राजन् ! तुम्हारा कथन सत्य है। निश्चय ही यह राधा श्रीहरिकी प्रिया है। इसीके प्रभावसे भूतलपर तुम्हारा वैभव अधिक दिखायी देता है। हजारों मतवाले हाथी, चञ्चल घोड़े तथा देवताओंके विमान- सदृश करोड़ों सुन्दर रथ और शिबिकाएँ तुम्हारे यहाँ सुशोभित होती हैं। इतना ही नहीं, सुवर्ण तथा रत्नोंके आभूषणोंसे विभूषित कोटि-कोटि मनोहर गौएँ, विचित्र भवन, नाना प्रकारके मणिरत्न, भोजन-पान आदिका सर्वविध सौख्य-यह सब इस समय तुम्हारे घरमें प्रत्यक्ष देखा जाता है। तुम्हारा अद्भुत बल देखकर कंस भी पराभूत हो गया है।(Girirajkhand Chapter 6 to 11)
महावीर ! तुम कान्यकुब्ज देशके स्वामी साक्षात् राजा भलन्दनके जामाता हो तथा कुबेरके समान कोषाधिपति। तुम्हारे समान वैभव नन्दराजके घरमें कहीं नहीं है। नन्दराज तो किसान, गोयूथके अधिपति और दीन हृदयवाले हैं। प्रभो! यदि नन्दके पुत्र साक्षात् परिपूर्णतम श्रीहरि हैं तो हम सबके सामने नन्दके वैभवकी परीक्षा कराइये ॥२-८॥
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! उन गोपोंकी बात सुनकर महान् वृषभानुवरने नन्दराजके वैभवकी परीक्षा की। मैथिलेश्वर! उन्होंने स्थूल मोतियोंके एक करोड़ हार लिये, जिनमें पिरोया हुआ एक-एक मोती एक-एक करोड़ स्वर्णमुद्राके मोलपर मिलनेवाला था और उन सबकी प्रभा दूरतक फैल रही थी। नरेश्वर ! उन सबको पात्रोंमें रखकर बड़े कुशल वर-वरणकारी लोगोंद्वारा सब गोपोंके देखते-देखते वृषभानुवरने नन्दराजजीके यहाँ भेजा। नन्दराजको सभामें जाकर अत्यन्त कुशल वर-वरणकर्ता लोगोंने मौक्तिक-हारोंके पात्र उनके सामने रख दिये और प्रणाम करके उनसे कहा ॥ ९-१२॥
वर-वरणकर्ता बोले- नन्दराज ! जिसके नेत्र नूतन विकसित कमलके समान शोभा पाते हैं तथा जो मुखमें करोड़ों चन्द्रमण्डलोंकी-सी कान्ति धारण करती है, उस अपनी पुत्री श्रीराधाको विवाहके योग्य जानकर वृषभानुवरने सुन्दर वरकी खोज करते हुए यह विचार किया है कि तुम्हारे पुत्र मदनमोहन श्रीकृष्ण दिव्य वर हैं। गोवर्धन पर्वतको उठाने में समर्थ, दिव्य भुजाओंसे सम्पन्न तथा उद्भट वीर हैं। प्रभो ! वैश्य- प्रवर !! यह सब देख और सोच-विचारकर वृषभानुवन्दित वृषभानुवरने हम सबको यहाँ भेजा है। आप वरकी गोद भरनेके लिये पहले कन्या- पक्षकी ओरसे यह मौक्तिकराशि ग्रहण कीजिये। फिर इधरसे भी कन्याकी गोद भरनेके लिये पर्याप्त मौक्तिकराशि प्रदान कीजिये। यही हमारे कुलकी प्रसिद्ध रीति है ॥ १३-१५॥
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Garga Samhita Girirajkhand Chapter 6 to 11
March 11, 2024
Garga Samhita Girirajkhand Chapter 6 to 11
॥ श्रीहरिः ॥
ॐ दामोदर हृषीकेश वासुदेव नमोऽस्तु ते
श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः
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श्री गर्ग संहिता के गिरिराजखण्ड अध्याय 6 से 11 Garga Samhita Girirajkhand Chapter 6 to 11
श्री गर्ग संहिता गिरिराजखण्ड
छठा अध्याय
सातवाँ अध्याय
आठवाँ अध्याय
नवाँ अध्याय
दसवाँ अध्याय
ग्यारहवाँ अध्याय
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Garga Samhita Girirajkhand Chapter 6 to 11
श्री गर्ग संहिता के गिरिराजखण्ड (Girirajkhand Chapter 6 to 11) छठे अध्याय से ग्यारहवाँ अध्याय में गोपोंका वृषभानुवरके वैभवकी प्रशंसा करके नन्दनन्दनकी भगवत्ताका परीक्षण करनेके लिये उन्हें प्रेरित करना और वृषभानुवरका कन्याके विवाहके लिये वरको देनेके निमित्त बहुमूल्य एवं बहुसंख्यक मौक्तिक-हार भेजना तथा श्रीकृष्णकी कृपासे नन्दराज का वधूके लिये उनसे भी अधिक मौक्तिकराशि भेजना, गिरिराज गोवर्धन सम्बन्धी तीर्थों का वर्णन, विभिन्न तीर्थोंमें गिरिराजके विभिन्न अङ्गोंकी स्थितिका वर्णन, गिरिराज गोवर्धन की उत्पत्ति का वर्णन, गोवर्द्धन-शिलाके स्पर्शसे एक राक्षसका उद्धार तथा दिव्यरूपधारी उस सिद्धके मुखसे गोवर्द्धनकी महिमाका वर्णन और सिद्धके द्वारा अपने पूर्वजन्मके वृत्तान्तका वर्णन तथा गोलोकसे उतरे हुए विशाल रथपर आरूढ़ हो उसका श्रीकृष्ण-लोकमें गमन कहा गया है।
यहां पढ़ें ~ गर्ग संहिता गोलोक खंड पहले अध्याय से पांचवा अध्याय तक
श्री गर्ग संहिता गिरिराजखण्ड
छठा अध्याय
गोपोंका वृषभानुवरके वैभवकी प्रशंसा करके नन्दनन्दनकी भगवत्ताका परीक्षण करनेके लिये उन्हें प्रेरित करना और वृषभानुवरका कन्याके विवाहके लिये वरको देनेके निमित्त बहुमूल्य एवं बहुसंख्यक मौक्तिक-हार भेजना तथा श्रीकृष्णकी कृपासे नन्दराज का वधूके लिये उनसे भी अधिक मौक्तिकराशि भेजना
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! वृषभानुवरकी यह बात सुनकर समस्त व्रजवासी शान्त हो गये। उनका सारा संशय दूर हो गया तथा उनके मनमें बड़ा विस्मय हुआ ॥ १ ॥
गोप बोले- राजन् ! तुम्हारा कथन सत्य है। निश्चय ही यह राधा श्रीहरिकी प्रिया है। इसीके प्रभावसे भूतलपर तुम्हारा वैभव अधिक दिखायी देता है। हजारों मतवाले हाथी, चञ्चल घोड़े तथा देवताओंके विमान- सदृश करोड़ों सुन्दर रथ और शिबिकाएँ तुम्हारे यहाँ सुशोभित होती हैं। इतना ही नहीं, सुवर्ण तथा रत्नोंके आभूषणोंसे विभूषित कोटि-कोटि मनोहर गौएँ, विचित्र भवन, नाना प्रकारके मणिरत्न, भोजन-पान आदिका सर्वविध सौख्य-यह सब इस समय तुम्हारे घरमें प्रत्यक्ष देखा जाता है। तुम्हारा अद्भुत बल देखकर कंस भी पराभूत हो गया है।(Girirajkhand Chapter 6 to 11)
महावीर ! तुम कान्यकुब्ज देशके स्वामी साक्षात् राजा भलन्दनके जामाता हो तथा कुबेरके समान कोषाधिपति। तुम्हारे समान वैभव नन्दराजके घरमें कहीं नहीं है। नन्दराज तो किसान, गोयूथके अधिपति और दीन हृदयवाले हैं। प्रभो! यदि नन्दके पुत्र साक्षात् परिपूर्णतम श्रीहरि हैं तो हम सबके सामने नन्दके वैभवकी परीक्षा कराइये ॥२-८॥
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! उन गोपोंकी बात सुनकर महान् वृषभानुवरने नन्दराजके वैभवकी परीक्षा की। मैथिलेश्वर! उन्होंने स्थूल मोतियोंके एक करोड़ हार लिये, जिनमें पिरोया हुआ एक-एक मोती एक-एक करोड़ स्वर्णमुद्राके मोलपर मिलनेवाला था और उन सबकी प्रभा दूरतक फैल रही थी। नरेश्वर ! उन सबको पात्रोंमें रखकर बड़े कुशल वर-वरणकारी लोगोंद्वारा सब गोपोंके देखते-देखते वृषभानुवरने नन्दराजजीके यहाँ भेजा। नन्दराजको सभामें जाकर अत्यन्त कुशल वर-वरणकर्ता लोगोंने मौक्तिक-हारोंके पात्र उनके सामने रख दिये और प्रणाम करके उनसे कहा ॥ ९-१२॥
वर-वरणकर्ता बोले- नन्दराज ! जिसके नेत्र नूतन विकसित कमलके समान शोभा पाते हैं तथा जो मुखमें करोड़ों चन्द्रमण्डलोंकी-सी कान्ति धारण करती है, उस अपनी पुत्री श्रीराधाको विवाहके योग्य जानकर वृषभानुवरने सुन्दर वरकी खोज करते हुए यह विचार किया है कि तुम्हारे पुत्र मदनमोहन श्रीकृष्ण दिव्य वर हैं। गोवर्धन पर्वतको उठाने में समर्थ, दिव्य भुजाओंसे सम्पन्न तथा उद्भट वीर हैं। प्रभो ! वैश्य- प्रवर !! यह सब देख और सोच-विचारकर वृषभानुवन्दित वृषभानुवरने हम सबको यहाँ भेजा है। आप वरकी गोद भरनेके लिये पहले कन्या- पक्षकी ओरसे यह मौक्तिकराशि ग्रहण कीजिये। फिर इधरसे भी कन्याकी गोद भरनेके लिये पर्याप्त मौक्तिकराशि प्रदान कीजिये। यही हमारे कुलकी प्रसिद्ध रीति है ॥ १३-१५॥
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! उस उत्कृष्ट द्रव्यराशिको देखकर नन्दराज बड़े विस्मित हुए; तो भी वे कुछ विचारकर यशोदाजीसे ‘उसके तुल्य रत्न- राशि है या नहीं’ इस बातको पूछनेके लिये वह सब सामान लेकर अन्तःपुरमें गये। वहाँ उस समय नन्द और यशस्विनी यशोदाने चिरकालतक विचार किया, किंतु (अन्ततोगत्वा) इसी निष्कर्षपर पहुँचे कि ‘इस मौक्तिकराशिके बराबर दूसरी कोई द्रव्यराशि मेरे घरमें नहीं है। आज लोगोंमें हमारी सारी लाज गयी। हम- लोगोंकी सब ओर हँसी उड़ायी जायगी। इस धनके बदलेमें हम दूसरा कौन-सा धन दें? क्या करें ? श्रीकृष्णके इस विवाहके निमित्त हमारे द्वारा क्या किया जाना चाहिये? पहले तो जो कुछ वरके लिये आया है, उसे ग्रहण कर लेना चाहिये। पीछे अपने पास धन आनेपर वधूके लिये उपहार भेजा जायगा। ऐसा विचार करते हुए नन्द और यशोदाजीके पास भगवान् अघमर्दन श्रीकृष्ण अलक्षितभावसे ही वहाँ आ गये। उन मौक्तिक हारोंमेंसे सौ हार उन्होंने घरसे बाहर खेतोंमें ले जाकर, अपने हाथसे मोतीका एक-एक दाना लेकर, उन्होंने उसी भाँति सारे खेतमें छींट दिया, जैसे किसान अपने खेतोंमें अनाजके दाने बिखेर देता है। तदनन्तर नन्द भी जब उन मुक्तामालाओंकी गणना करने लगे, तब उनमें सौ मालाओंकी कमी देखकर उनके मनमें संदेह हुआ ॥ १६-२२ ॥(Girirajkhand Chapter 6 to 11)
नन्दजी बोले- हाय! पहले तो मेरे घरमै जिस रत्नराशिके समान दूसरी कोई रनराशि थी ही नहीं, उसमें भी अब सौकी कमी हो गयी। अहो! चारों ओरसे भाई-बन्धुओंके बीच मुझपर बड़ा भारी कलङ्क पोता जायगा। अथवा यदि श्रीकृष्ण या बलरामने खेलनेके लिये उसमेंसे कुछ मोती निकाल लिये हों तो अब दीनचित्त होकर मैं उन्हीं दोनों बालकोंसे पूहूँगा ॥ २३-२४ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! इस प्रकार विचारकर नन्दने भी श्रीकृष्णसे उन मोतियोंके विषयमें आदरपूर्वक पूछा। तब जोरसे हँसते हुए गोवर्धनधारी भगवान् नन्दसे बोले ॥ २५ ॥
श्रीभगवान्ने कहा- बाबा! हम सारे गोष किसान हैं, जो खेतोंमें सब प्रकारके बीज बोया करते हैं; अतः हमने खेतमें मोतीके बीज बिखेर दिये हैं॥ २६ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन्। बेटेके मुँहसे यह बात सुनकर व्रजेश्वर नन्दने उसे डाँट बतायी और उन सबको चुन-बीनकर लानेके लिये उसके साथ खेतोंमें गये। वहाँ मुक्ताफलके सैकड़ों सुन्दर वृक्ष दिखायी देने लगे, जो हरे-हरे पल्लवोंसे सुशोभित और विशालकाय थे। नरेश्वर! जैसे आकाशमें झुंड-के-झुंड तारे शोभा पाते हैं, उसी प्रकार उन वृक्षोंमें कोटि-कोटि मुक्ताफलोंके गुच्छे समूह-के-समूह लटके हुए सुशोभित हो रहे थे। तब हर्षसे भरे हुए ब्रजेश्वर नन्दराजने श्रीकृष्णको परमेश्वर जानकर पहलेके समान ही मोटे-मोटे दिव्य मुक्ताफल उन वृक्षोंसे तोड़ लिये और उनके एक कोटि भार गाड़ियोंपर लदवाकर उन वर-वरणकर्ताओंको दे दिये। नरेश्वर। वह सब लेकर वे वरदर्शी लोग वृष- भानुवरके पास गये और सबके सुनते हुए नन्दराजके अनुपम वैभवका वर्णन करने लगे ॥ २७-३२ ॥(Girirajkhand Chapter 6 to 11)
उस समय सब गोप बड़े विस्मित हुए। नन्द- नन्दनको साक्षात् श्रीहरि जानकर समस्त व्रज- वासियोंका संशय दूर हो गया और उन्होंने वृषभानुवरको प्रणाम किया। मिथिलेश्वर! उसी दिनसे व्रजके सब लोगोंने यह जान लिया कि श्रीराधा श्रीहरिकी प्रियतमा हैं और श्रीहरि श्रीराधाके प्राणवल्लभ हैं। मिथिलापते। जहाँ नन्दनन्दन श्रीहरिने मोती बिखेरे थे, वहाँ ‘मुक्ता-सरोवर’ प्रकट हो गया, जो तीर्थोंका राजा है।
श्रीभगवानुवाच -
कृषीवला वयं गोपाः सर्वबीजप्ररोहकाः ।
क्षेत्रे मुक्ताप्रबीजानि विकीर्णीकृतवाहनम् ॥26।
श्री भगवान उवाच = भगवान ने कहा; कृषिवाला = किसान; वयम् = हम; गोपाः – गोप लोग ; सर्व-बीज - सभी बीज; प्ररोहकाः= रोपण करने वाले; क्षेत्रे = खेतों में; मुक्ता -प्रबीजानि = मोती के बीज; विकीर्णि- कृत -वाहनम्= बिखराव किए गये।
श्लोक 3.6.26 का अनुवाद:
भगवान ने कहा: हम गोप किसान हैं। हम सभी प्रकार के बीज बोते हैं। मैंने खेतों में कुछ मोती बोए हैं।२६।
गर्गसंहिता गिरिराज खण्ड अध्याय ६-
शूरसेनाभिधः शूरस्तत्राभून्मेदिनीपतिः।
माथुराञ्छूरसेनांश्च बुभुजे विषयान्नृप ॥५९॥___________________________________तत्रोत्पन्नः कश्यपांशः शापाच्च वरुणस्य वै ।वसुदेवोऽतिविख्यातः शूरसेनसुतस्तदा ॥६०॥
_________
वैश्यवृत्तिरतः सोऽभून्मृते पितरि माधवः।
उग्रसेनो बभूवाथ कंसस्तस्यात्मजो महान्॥ ६१॥
तब वहाँ के शूर पराक्रमी राजा शूरसेन नाम से हुए। और वहां की सारी संपत्ति भोगने का शुभ अवसर उन्हें प्राप्त हुआ !
तब वहाँ वरुण के शाप के कारण कश्यप अपने अंश रूप में शूरसेन के पुत्र वसुदेव के रूप में उत्पन्न हुए और कालान्तरण में पिता के स्वर्गवासी हो जाने पर वासुदेव ने वेैश्य-वृति (कृषि व गोपालन आदि कार्यों ) से गोप (आभीर रूप में ) अपना जीवन निर्वहन किया।
उन दिनों उग्रसेन भी जो मथुरा के एक भाग पर राज्य करते थे ! वास्तव में (शूरसेन और उग्रसेन दोनों ही बड़े प्रतापी राजा हुए) कुछ दिनों बाद उग्रसेन का पुत्र कंस हुआ जो उस समय के अत्याचारी राजाओं में बड़ा पराक्रमी कहा जाता था।
उग्रसेन के पुरोहित काशी में रहने वाले "काश्य" नाम से थे। और शूरसेन के पुरोहित उसी काल में एक बार सभी शूर के सभासदों द्वारा ज्योतिष् के जानकार गर्गाचार्य नियुक्त किए गये थे ।
अदितिर्देवकी जाता देवकस्य सुता तदा ।
शापाद्वै वरुणस्याथ कश्यपानुगता किल।६२॥
अदिति ही देवक की पुत्री देवकी के रूप में उत्पन्न हुई !और तभी कश्यप भी वरुण के कहने पर ब्रह्मा के शाप से शूरसेन के पुत्र वसुदेव रुप में हुए।
____
रूप गोस्वामी ने अपने मित्र श्री सनातन गोस्वामी के आग्रह पर कृष्ण और श्री राधा जी के भाव मयी आख्यानकों का संग्रह किया
श्री श्री राधा कृष्ण गणोद्देश्य दीपिका के नाम से ...
परन्तु लेखक ने एक स्थान पर लिखा .
"ते कृष्णस्य परीवारा ये जना: व्रजवासिन: ।
पशुपालस्तथा विप्रा बहिष्ठाश्चेति ते त्रिथा। ६।।
भाषानुवाद– व्रजवासी जन ही कृष्ण का परिवार हैं ; उनका यह परिवार पशुपाल, विप्र, तथा बहिष्ठ ( शिल्पकार) रूप से तीन प्रकार का है ।६।।
पशुपालस्त्रिधा वैश्या आभीरा गुर्जरास्तथा ।
गोप वल्लभ पर्याया यदुवंश समुद्भवा : ।।७।।
भषानुवाद – पशुपाल भी वणिक , अहीर और गुर्जर भेद से तीन प्रकार के हैं ।
इन तीनों का उत्पत्ति यदुवंश से हुई है ।
तथा ये सभी गोप और वल्लभ जैसे समानार्थक नामों से जाने जाते हैं ।७।।
प्रायो गोवृत्तयो मुख्या वैश्या इति समारिता: ।
अन्येऽनुलोमजा: केचिद् आभीरा इति विश्रुता:।।८।
भषानुवाद– वैश्य प्राय: गोपालन के द्वारा अपना जीवन निर्वाह करते है ।
और आभीर तथा गुर्जरों से श्रेष्ठ माने जाते हैं ।
अनुलोम जात ( उच्च वर्ण के पिता और निम्न वर्ण की माता द्वारा उत्पन्न ) वैश्यों को आभीर नाम से जाना जाता है ।८।।
आचाराधेन तत्साम्यादाभीराश्च स्मृता इमे ।।
आभीरा: शूद्रजातीया गोमहिषादि वृत्तय: ।।
घोषादि शब्द पर्याया: पूर्वतो न्यूनतां गता: ।।९।।
भाषानुवाद–आचरण में आभीर भी वैश्यों के समान जाने जाते हैं । ये शूद्रजातीया हैं ।
तथा गाय भैस के पालन द्वारा अपना जीवन निर्वाह करते हैं ।
इन्हें घोष भी कहा जाता है ये पूर्व कथित वैश्यों से कुछ हीन माने जाते हैं ।९।।
किञ्चिदाभीरतो न्यूनाश्च छागादि पशुवृत्तय:।
गोष्ठप्रान्त कृतावासा: पुष्टांगा गुर्जरा: स्मृता :।।१०।
भाषानुवाद – अहीरों से कुछ हीन बकरी आदि पशुओं को पालन करने वाले तथा गोष्ठ की सीमा पर वास करने वाले गोप ही गुर्जर कहलाते हैं ये प्राय हृष्ट-पुष्टांग वाले होते हैं ।१०।
मत्संहननतुल्यानां गोपानामर्बुदं महत् ।
नारायणा इति ख्याता सर्वे संग्रामयोधिन: ||18।।
(महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 7)
[8/1, 5:13 PM] yogeshrohi📚: गोपों का शूद्र कर्म- ब्रह्मा के चार वर्णों में एक वर्ण शूद्र भी है। शास्त्रों में शूद्रों का कार्य सेवा करना बताया गया है।
ब्रह्मा की वर्ण व्यवस्था में शूद्रवृत्ति सेवा करना निम्न व हीन माना जाता है।
जबकि वैष्णव वर्ण के अन्तर्गत दीन दु:खीयों के सेवा कार्य को परम पवित्र माना जाता है।
भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं जब के राजसूय यज्ञ में आगन्तुक अतिथियों( ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्रों) के भी पैर धोने का तथा उनकी आवभगत ( महमान-नबाजी) का कार्य किया।
"श्रीबादरायणिरुवाच -
पितामहस्य ते यज्ञे राजसूये महात्मनः।
बान्धवाः परिचर्यायां तस्यासन् प्रेमबन्धनाः ॥३॥
भीमो महानसाध्यक्षो धनाध्यक्षः सुयोधनः ।
सहदेवस्तु पूजायां नकुलो द्रव्यसाधने ॥४॥
गुरुशुश्रूषणे जिष्णुः *कृष्णः पादावनेजने ।*
परिवेषणे द्रुपदजा कर्णो दाने महामनाः ॥ ५
इस बात की पुष्टि भागवत पुराण के दशम स्कन्ध अध्याय -75 के श्लोक संख्या- 4-5-और 6 से होती है।
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित् ! तुम्हरे दादा युधिष्ठिर बड़े महात्मा थे। उनके प्रेमबन्धन से बँधकर सभी बन्धु-बन्धावों ने राजसूय यज्ञ में विभिन्न सेवाकार्य स्वीकार किये थे।
"भीमसेन भोजनालय की देख-रेख करते थे।
दुर्योधन कोषाध्यक्ष थे। सहदेव अभ्यागतों के स्वागत-सत्कार में नियुक्त थे और नकुल विविध प्रकार की सामग्री एकत्र करने का काम देखते थे ।अर्जुन गुरुजनों की सेवा-शुश्रूषा करते थे
और यादवेन्द्र गोपेश्वर भगवान श्रीकृष्ण स्वयं आये हुए अतिथियों के पाँव पखारने अथवा धोने का काम करते थे।"
उपर्युक्त कथा प्रसंग में गोपेश्वर श्रीकृष्ण ने वह कार्य किया जो सबसे निम्न और छोटा काम माना जाता है। सभी अतिथियों के पैर धोने का काम -
भगवान कृष्ण ने गोप रूप में वैष्णव वर्ण के अन्तर्गत होने से अतिथियों के पैर धोने का सेवा कार्य किया।
[8/1, 5:30 PM] yogeshrohi📚: उन दौनों पिशाचों के इस प्रकार पूछने पर महान डग वाले भगवान विष्णु के रूप में कृष्ण बोले ! ________ क्षत्रियोऽस्मीति मामाहुर्मानुष्याः प्रकृतिस्थिताः । यदुवंशे समुत्पन्नः क्षात्रं वृत्तमनुष्ठितः ।। 3/80/10 ।। •-मैं क्षत्रिय हूँ प्राकृत मनुष्य मुझे एेसा ही कहते हैं ; और जानते हैं यदुकुल में उत्पन्न हुआ हूँ । इस लिए क्षत्रियोचित कर्म का अनुष्ठान करता हूँ। 10।। लोकानामथ पातास्मि शास्ता दुष्टस्य सर्वदा । कैलासं गन्तुकामोऽस्मि द्रष्टुं देवमुमापतिम्।।3/80/11।। •-मैं तीनों लोगों का पालक तथा सदी ही दुष्टों पर शासन करने वाला हूँ। इस समय उमापति भगवान् शंकर का दर्शन करने कैलास पर्वत पर जाना चाहता हूँ 3/80/11 इसी पुराण में एक स्थान कृष्ण 'ने स्वयं उद्घोषणा की कि मैं गोप हमेशा सब प्रकार से प्राणियों की रक्षा करने वाला हूँ।⬇ ______ गोपोऽहं सर्वदा राजन् प्राणिनां प्राणद: सदा । गोप्ता सर्वेषु लोकेषु शास्ता दुष्टस्य सर्वदा।।४१। ___________________________ •– राजन् ! मैं गोप हूँ , और प्राणियों का सब ओर से प्राण दान करने वाला हूँ। सम्पूर्ण लोकों का रक्षक और सब ओर से दुष्टों का शासन करने वाला हूँ । हरिवशं पुराण भविष्य पर्व सौंवें अध्याय का इकतालीस वाँ श्लोक (पृष्ठ संख्या 1298 गीताप्रेस गोरखपुर संस्करण
[8/1, 10:33 PM] yogeshrohi📚: श्री कृष्ण का मुख्य गोपों के साथ गोलोक गमन कुछ गोपों का भूलोक पर ही रहना-
______________________
कुछ कम जानकारी रखने वाले अक्सर समाज में कहते सुने जाते हैं। कि गान्धारी और दुर्वासा आदि ऋषियों के शाप से श्रीकृष्ण के साथ सभी यादवों का पृथ्वी से अन्त हो गया। कुछ पुराणों में वर्णन मिलता है। कि कृष्ण एक बहेलिए के द्वारा मारे गये और सभी यादव प्रभास क्षेत्र में मदिरा पीकर आपस लड़कर मर गये।
परन्तु उपर्युक्त सारी बातें सत्य नहीं हैं।
जहाँ तक कुछ कम और भ्रमित जानकारी रखने वाले लोगों की बात है।
तो वे नहीं जानते कि कृष्ण परिवार के कुछ ही यादव आपस में कलह करके लडकर एक दूसरे के द्वारा मारे गये ।
अध्याय 31 - भगवान कृष्ण का वैकुंठ लौटना
< पिछला
मूल: पुस्तक 11 - ग्यारहवाँ स्कंध
अगला >
[ इस अध्याय का संस्कृत पाठ उपलब्ध है ]
श्री शुक ने कहा :
51.. ( दारुक के चले जाने के बाद ) भगवान ब्रह्मा , भगवान शिव अपनी पत्नी पार्वती के साथ , महान इंद्र के नेतृत्व में देवता , दुनिया के पूर्वजों के साथ ऋषि, पितरों, सिद्धों , गंधर्वों (दिव्य गायक), विद्याधरों , महान नागों, चारणों , यक्षों और राक्षसों , किन्नरों , अप्सराओं (दिव्य अप्सराओं), मैत्रेय जैसे ब्राह्मण और अन्य (या गरुड़ के क्षेत्र में रहने वाले पक्षी ) वहाँ आये।
52.. वे सभी भगवान के अपने लोक में गौरवशाली आरोहण को देखने के लिए बहुत उत्सुक और आतुर थे। अपने गीतों में सूतवंशी भगवान कृष्ण के पराक्रम और अवतार का गुणगान करते हुए, उन्होंने पंक्तियों या विमानों से आकाश को भर दिया और अत्यन्त भक्ति के साथ उन पर पुष्पों की वर्षा की , हे राजन ।
5. ब्रह्माण्ड के पितामह तथा अपने ही महिमामय स्वरूप अन्य देवों को देखकर उन सर्वव्यापी भगवान ने अपना मन परमात्मा पर केन्द्रित किया तथा देवताओं के अपने-अपने लोकों में जाने के अपेक्षित आग्रह से बचने के लिए समाधिस्थ होकर अपने कमल-नेत्र बंद कर लिए।
6. अग्नि नामक तकनीकी योगिक प्रक्रिया के द्वारा, जिसके द्वारा योगी अपने मन को अग्नि पर केंद्रित करता है और अपने शरीर को जला देता है , भगवान ने अपने विश्व-मोहक रूप को अग्नि से नहीं जलाया, जो एकाग्रता और ध्यान के लिए बहुत शुभ था (और दुनिया का आधार था), बल्कि अपने शरीर के साथ अपने स्वयं के क्षेत्र में प्रवेश किया। [1]
7. आकाश में नगाड़े बजने लगे, आकाश से पुष्प वर्षा होने लगी, और सत्य, धर्म, धैर्य, यश और समृद्धि पृथ्वी छोड़कर उसके पीछे-पीछे वैकुंठ चले गए ।
8. देवता तथा अन्य लोग (जो वहाँ एकत्रित हुए थे), जिनमें ब्रह्मा जी प्रमुख थे, भगवान कृष्ण को रहस्यमय मार्गों से अपने वैकुण्ठलोक में प्रवेश करते हुए नहीं देख पाए (यहाँ तक कि पहचान भी नहीं पाए) और वे अत्यन्त विस्मय में स्तब्ध रह गए।
9. भगवान कृष्ण के शरीर त्याग को देवता नहीं देख सके, जैसे कि बादलों के बीच से गुजरने के बाद आकाश में चमकने वाली बिजली का निशान मनुष्य नहीं देख सकता।
10. भगवान श्रीहरि के अदृश्य होने का (अकल्पनीय) योग-मार्ग देखकर ब्रह्मा, रुद्र आदि देवताओं को बड़ा आश्चर्य हुआ और वे उसकी स्तुति करते हुए अपने-अपने लोकों को लौट गए।
11. हे राजन, कृपया ध्यान दें कि दिव्य भगवान का अवतार, तिरोभाव तथा मनुष्यों ( यादवों ) के बीच क्रीड़ा करना, उनकी माया शक्ति के प्रभाव से नाटक करने वाले कलाकार की तरह की नाटकीयता के अलावा और कुछ नहीं है। अपनी महान इच्छा शक्ति से (बिना किसी बाहरी पदार्थ या माध्यम के) इस ब्रह्माण्ड की रचना करके, अन्तर्यामी के रूप में इसमें प्रवेश करके तथा इसमें क्रीड़ा करके, अन्त में इसे अपने भीतर समेट लेते हैं, तथा अपने (महिमामय) पद में स्थित रहते हैं।
12. क्या वह भगवान् अपनी रक्षा करने में असमर्थ थे, जिन्होंने अपने नश्वर शरीर में रहते हुए भी अपने पुत्र को, जो मृत्युलोक ( यम ) में छीन लिया गया था, अपने गुरु सान्दिपनी के पास वापस ला दिया, जिन्होंने महान् बाण ( अश्वत्थामा द्वारा छोड़ा गया ब्रह्मास्त्र ) द्वारा भस्म किये जाने पर भी आपको जीवित किया, जिन्होंने यमराज रुद्र को परास्त किया तथा शिकारी को सशरीर स्वर्गलोक पहुँचाया?
13. यद्यपि वे ही समस्त ब्रह्माण्ड के उत्पत्ति, विकास और विनाश के एकमात्र कारण थे, क्योंकि वे समस्त शक्तियों के एकमात्र नियंत्रक थे, तथापि वे इस नश्वर लोक में अपना शरीर नहीं छोड़ना चाहते थे, क्योंकि इस लोक में नश्वर शरीर रखना उचित नहीं था, तथा वे आत्मस्थित लोगों की महिमामयी स्थिति को प्रदर्शित करना चाहते थे। (यदि वे इस लोक में अपना शरीर छोड़ देते, तो योगीजन इसी लोक में रहना पसंद करते।)
14. जो व्यक्ति प्रातःकाल उठकर भगवान कृष्ण द्वारा परमपद प्राप्ति के मार्ग का भक्तिपूर्वक गुणगान करता है, वह उस सर्वोच्च पद को प्राप्त करेगा, जिससे श्रेष्ठ कोई नहीं है।
15. दारुक (कृष्ण का सारथी) कृष्ण के वियोग में द्वारका पहुंचा। वह वसुदेव और उग्रसेन के चरणों में गिर पड़ा और उन्हें आँसुओं से नहलाया।
16 हे राजन! उन्होंने यादव कुलों के सम्पूर्ण नाश का समाचार उन्हें सुनाया। यह हृदय विदारक कथा सुनकर द्वारकावासी शोक से अभिभूत हो गये और मूर्छित हो गये।
17. कृष्ण से वियोग में अत्यन्त व्याकुल होकर तथा असह्य शोक से अपना मुख और सिर पीटते हुए वे शीघ्रता से उस स्थान पर पहुंचे, जहां उनके स्वजन मृत पड़े थे।
18. जब देवकी , रोहिणी और वसुदेव अपने पुत्रों बलराम और कृष्ण को नहीं देख सके, तो वे इतने दुःख से पीड़ित हो गये कि वे अपनी चेतना खो बैठे।
19. भगवान कृष्ण के वियोग में वे इतने दुःखी हो गए कि उन्होंने वहीं अपने प्राण त्याग दिए [2] । यादव स्त्रियाँ अपने पतियों से लिपट गईं और चिता पर चढ़ गईं (स्वयं को अग्नि में जला डाला)।
20. बलराम की पत्नियाँ भी उनके शरीर से लिपटकर अग्नि में प्रवेश कर गईं। वसुदेव की रानियों ने उनके शरीर को लिपटा लिया और कृष्ण की पुत्रवधुओं ने प्रद्युम्न आदि अपने-अपने पतियों के शरीर को लिपटा लिया तथा कृष्ण की पत्नियाँ जैसे शुक्मिणी आदि भी उन पर अपना हृदय केन्द्रित करके अग्नि में प्रवेश कर गईं। [3]
21. अपने प्रियतम मित्र कृष्ण से वियोग के दुःख से अत्यधिक पीड़ित अर्जुन ने कृष्ण द्वारा कहे गए आध्यात्मिक ज्ञान के वचनों ( भगवद्गीता और अनुगीता में ) पर विचार करके स्वयं को सांत्वना दी।
22. युद्ध में मारे गए और अपनी जाति का नाश कर चुके अपने संबंधियों के वरिष्ठता क्रम के अनुसार अर्जुन ने उनके अंतिम संस्कार की उचित व्यवस्था की (ताकि अगले लोक में उनका कल्याण हो सके।)
23 हे राजन! समुद्र ने तुरन्त ही हरि द्वारा त्यागी गई द्वारका नगरी को जलमग्न कर दिया, केवल भगवान का महल ही बचा।
यह अत्यन्त मंगलमय है, तथा इसके स्मरण मात्र से ही समस्त बुराइयाँ (पाप सहित) दूर हो जाती हैं, क्योंकि मधु नामक राक्षस का वध करने वाले यशस्वी भगवान् कृष्ण सदैव यहीं निवास करते हैं।
25. अर्जुन ने नरसंहार में बचे हुए महिलाओं, बच्चों और बूढ़ों को अपने साथ ले जाकर इंद्रप्रस्थ ( पांडवों की पूर्व राजधानी ) में पुनर्वासित किया और वहां वज्र ( शाही यादव परिवार के वंशज अनिरुद्ध के पुत्र ) को उनके राजा के रूप में राज्याभिषेक किया।
26 अर्जुन से अपने (यादव) मित्रों के विनाश का समाचार सुनकर आपके पितामहों ने आपको अपने वंश का उत्तराधिकारी बनाकर हस्तिनापुर की गद्दी पर बिठाया और वे सभी महान् मार्ग (परलोक) की ओर चले गये।
27. जो नीतिवान मनुष्य भक्तिपूर्वक देवों के देव भगवान विष्णु (कृष्ण) के अवतारों तथा लीलाओं का गुणगान करता है, वह समस्त पापों से मुक्त हो जाता है।
28. जो मनुष्य भगवान श्रीहरि के बाल्यकाल के उपर्युक्त मंगलमय-अतिशय लीलाओं, उनके रमणीय अवतार तथा उनमें सम्पन्न महान कार्यों का गान करता है, जो उसने यहाँ (भागवत पुराण में या अन्यत्र) सुना है, उसमें परम भक्ति उत्पन्न होती है और वह उस गति को प्राप्त करता है, जो केवल परमहंसों (अर्थात् सर्वोच्च कोटि के संन्यासियों) को ही प्राप्त होती है।
फ़ुटनोट और संदर्भ:
[1] :
महाभारत मौसल 7.31 से तुलना करें ।
ततः शरीरे रामस्य वासुदेवस्य सहऽभयोः /
अन्विष्य दहयामास पुरुषैर आप्तकारिभिः //
[2] :
महाभारत में इस बारे में अलग राय है। अर्जुन के द्वारका पहुंचने के बाद, उसने वासुदेव से यादव पुरुषों और महिलाओं को उनके साथ ले जाने के बारे में विचार-विमर्श किया। वासुदेव ने योगिक प्रक्रिया द्वारा अपनी प्रेतात्मा को दूर किया, और उनकी चार प्रमुख रानियों ने वासुदेव की चिता में खुद को जला लिया - मौसला 7.15-25।
[3] :
महाभारत में कहा गया है कि केवल रुक्मिणी , गांधारी , शैव्या , हैमयती और जाम्बवती ने ही अग्नि में आत्मदाह किया, जबकि सत्यभामा और कृष्ण की अन्य प्रिय पत्नियाँ तपस्या करने के लिए वन में चली गईं।— मौसल ७७३-७४..
श्री कृष्ण के बच्चे (कुल 80)
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कृष्ण और रुक्मिणी के बच्चे (कुल 10): प्रद्युम्न (थोराला), चारुदेष्ण, सुदेष्णा, चारुदेह, सुचारु, चारुगुप्त, भद्रचारु, चारुचंद्र, विचु और चारु।
श्रीकृष्ण और सत्यभामा के बच्चे (कुल 10): भानु, सुभानु, स्वभानु, प्रभानु, भानुमान, चंद्रभानु, बृहद भानु, अतिभानु, श्रीभानु और प्रतिभानु
कृष्ण और जाम्बवती के बच्चे (कुल 10): साम्ब, सुमित्रा, पुरुजित, शतजित, सहस्रजित, विजया, चित्रकेतु, वसुमान, द्रविण और कृतु
श्रीकृष्ण और नागजिति उर्फ सत्या की संतान (कुल 10) : वीर, चंद्र, अश्वसेन, चित्रगु, वेलेसा, वृष, आम, शंकु, वसु और कुंती
श्रीकृष्ण और कालिंदी की संतानें (कुल 10): श्रुत, कवि, वृष-2, वीर-2, सुबाहु, भद्र, शांति, दर्श, पूर्णमास और सोमक
कृष्ण और लक्ष्मण के बच्चे (कुल 10): प्रबोध, गत्रवन, सिंह, बाला, प्रबल, उर्ध्वग, महाशक्ति, सा, ओज और अपराजित
श्रीकृष्ण और मित्रविंदा की संतानें (कुल 10): वृक, हर्ष, अनिल, गिध्र, वर्धन, अन्नदा, महशा, पवन, वन्ही और क्षुधि
श्रीकृष्ण और भद्रा उर्फ शैब्या के बच्चे (कुल 10): संग्रामजीत, बृहत् सेन, शूर, प्रहारन, अरिजीत, जया, सुभद्रा, वामा, आयु और सत्यका।
श्रीकृष्ण और उनके वंशजों का करियर
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कृष्ण (2582 ईसा पूर्व से 2457 ईसा पूर्व)
प्रद्युम्न - रुक्मिणी का पुत्र, (2457 ईसा पूर्व से 2442 ईसा पूर्व)
अनिरुद्ध - बाणासुर का दामाद, (2442 ईसा पूर्व से 2414 ईसा पूर्व)
वज्रनाभ (2414 ईसा पूर्व से 2339 ईसा पूर्व)
प्रतिबाहु (2339 ईसा पूर्व से 2268 ईसा पूर्व)
सुबाहु (2268 ईसा पूर्व से 2221 ईसा पूर्व)
शांतसेन (2221 ईसा पूर्व से 2169 ईसा पूर्व)
सत्यसेन (2169 ईसा पूर्व से 2092 ईसा पूर्व)
श्रुतसेन (2092 ईसा पूर्व से 2071 ईसा पूर्व)
गोविंदभद्र (2071 ईसा पूर्व से 2009 ईसा पूर्व)
सूर्यभद्र (2009 ईसा पूर्व से 1951 ईसा पूर्व)
शांतिवाहन (1951 ईसा पूर्व से 1882 ईसा पूर्व)
सद्विजय (1882 ईसा पूर्व से 1837 ईसा पूर्व)
विश्वराह (1837 ईसा पूर्व से 1777 ईसा पूर्व)
क्षेमराह/खेंगर (1777 ईसा पूर्व से 1732 ईसा पूर्व)
हरिराजा (1732 ईसा पूर्व से 1672 ईसा पूर्व)
सोम (1672 ईसा पूर्व से 1628 ईसा पूर्व)
[8/1, 11:00 PM] yogeshrohi📚: भगवतः परमधामगमनम् -
श्रीशुक उवाच -
( अनुष्टुप् )
अथ तत्रागमद् ब्रह्मा भवान्या च समं भवः ।
महेंद्रप्रमुखा देवा मुनयः सप्रजेश्वराः ॥ १ ॥
पितरः सिद्धगंधर्वा विद्याधरमहोरगाः ।
चारणा यक्षरक्षांसि किन्नराप्सरसो द्विजाः ॥ २ ॥
द्रष्टुकामा भगवतो निर्याणं परमोत्सुकाः ।
गायंतश्च गृणंतश्च शौरेः कर्माणि जन्म च ॥ ३ ॥
ववृषुः पुष्पवर्षाणि विमानावलिभिर्नभः ।
कुर्वंतः सङ्कुलं राजन् भक्त्या परमया युताः ॥ ४ ॥
भगवान् पितामहं वीक्ष्य विभूतीरात्मनो विभुः ।
संयोज्यात्मनि चात्मानं पद्मनेत्रे न्यमीलयत् ॥ ५ ॥
लोकाभिरामां स्वतनुं धारणा ध्यान मङ्गलम् ।
योगधारणयाऽऽग्नेय्या दग्ध्वा धामाविशत्स्वकम् ॥ ६ ॥
दिवि दुंदुभयो नेदुः पेतुः सुमनसश्च खात् ।
सत्यं धर्मो धृतिर्भूमेः कीर्तिः श्रीश्चानु तं ययुः ॥ ७ ॥
देवादयो ब्रह्ममुख्या न विशंतं स्वधामनि ।
अविज्ञातगतिं कृष्णं ददृशुश्चातिविस्मिताः ॥ ८ ॥
सौदामन्या यथाऽऽकाशे यांत्या हित्वाभ्रमण्डलम् ।
गतिर्न लक्ष्यते मर्त्यैः तथा कृष्णस्य दैवतैः ॥ ९ ॥
ब्रह्मरुद्रादयस्ते तु दृष्ट्वा योगगतिं हरेः ।
विस्मितास्तां प्रशंसंतः स्वं स्वं लोकं ययुस्तदा ॥ १० ॥
( वसंततिलका )
राजन् परस्य तनुभृज्जननाप्ययेहा
मायाविडम्बनमवेहि यथा नटस्य ।
सृष्ट्वात्मनेदमनुविश्य विहृत्य चांते
संहृत्य चात्ममहिनोपरतः स आस्ते ॥ ११ ॥
मर्त्येन यो गुरुसुतं यमलोकनीतं
त्वां चानयच्छरणदः परमास्त्रदग्धम् ।
जिग्येंऽतकांतकमपीशमसावनीशः
किं स्वावने स्वरनयन् मृगयुं सदेहम् ॥ १२ ॥
( मिश्र )
तथाप्यशेषस्थितिसम्भवाप्ययेषु
अनन्यहेतुर्यदशेषशक्तिधृक् ।
नैच्छत् प्रणेतुं वपुरत्र शेषितं
मर्त्येन किं स्वस्थगतिं प्रदर्शयन् ॥ १३ ॥
श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: एकत्रिंशोऽध्यायः श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! दारुक के चले जाने पर ब्रह्मा जी, शिव-पार्वती, इन्द्रादि लोकपाल, मरीचि आदि प्रजापति, बड़े-बड़े ऋषि-मुनि, पितर-सिद्ध, गन्धर्व-विद्याधर, नाग-चारण, यक्ष-राक्षस, किन्नर अप्सराएँ तथा गरुड़लोक के विभिन्न पक्षी अथवा मैत्रेय आदि ब्राह्मण भगवान श्रीकृष्ण के परमधाम-प्रस्थान को देखने के लिये बड़ी उत्सुकता से वहाँ आये।
वे सभी भगवान श्रीकृष्ण के जन्म और लीलाओं का गान अथवा वर्णन कर रहे थे। उनके विमानों से सारा आकाश भर-सा गया था। वे बड़ी भक्ति से भगवान पर पुष्पों की वर्षा कर रहे थे । सर्वव्यापक भगवान श्रीकृष्ण ने ब्रह्मा और अपने विभूतिस्वरूप देवताओं को देखकर अपने आत्मा को स्वरूप में स्थित किया और कमल के सामन नेत्र बंद कर लिये ।
***********************
भगवान का श्रीविग्रह उपासकों के ध्यान और धारणा का मंगलमय आधार और समस्त लोकों के लिये परम रमणीय आश्रय है;
इसलिये उन्होंने (योगियों के समान) अग्निदेवता सम्बन्धी योग धारणा के द्वारा उसको जलाया नहीं, सशरीर अपने धाम में चले गये ।
*********************
उस समय स्वर्ग में नगारे बजने लगे और आकाश से पुष्पों की वर्षा होने लगी। परीक्षित्! भगवान श्रीकृष्ण के पीछे-पीछे इस लोक से सत्य, धर्म, धैर्य, कीर्ति और श्रीदेवी भी चली गयीं । भगवान श्रीकृष्ण की गति मन और वाणी के परे है; तभी तो भगवान अपने धाम में प्रवेश करने लगे, तब ब्रम्हादि देवता भी उन्हें न देख सके। इस घटना से उन्हें बड़ा ही विस्मय हुआ । जैसे बिजली मेघमण्डल को छोड़कर जब आकाश में प्रवेश करती है, तब मनुष्य उसकी चाल नहीं देख पाते, वैसे ही बड़े-बड़े देवता भी श्रीकृष्ण की गति के सम्बन्ध में कुछ न जान सके । ब्रम्हाजी और भगवान शंकर आदि देवता भगवान की यह परमयोग मयी गति देखकर बड़े विस्मय के साथ उसकी प्रशंसा करते अपने-अपने लोक में चले गये । परीक्षित्! जैसे नट अनेकों प्रकार के स्वाँग बनाता है, परन्तु रहता है उन सबसे निर्लेप; वैसे ही भगवान का मनुष्यों के समान जन्म लेना, लीला करना और फिर उसे संवरण कर लेना उनकी माया का विलास मात्र है—अभिनय मात्र है। वे स्वयं ही इस जगत् की सृष्टि करके इसमें प्रवेश करके विहार करते हैं और अन्त में संहार-लीला करके अपने अनन्त महिमामय स्वरूप में ही स्थित हो जाते हैं । सान्दीपनि गुरु का पुत्र यमपुरी चला गया था, परन्तु उसे वे मनुष्य-शरीर के साथ लौटा लाये। तुम्हारा ही शरीर ब्रम्हास्त्र से जल चुका था; परन्तु उन्होंने तुम्हें जीवित कर दिया। वास्तव में उनकी शरणागतवत्सलता ऐसी ही है। और तो क्या कहूँ, उन्होंने कालों के महाकाल भगवान शंकर को भी युद्ध में जीत लिया और अत्यन्त अपराधी—अपने शरीर पर ही प्रहार करने वाले व्याध को भी सदेह स्वर्ग भेद दिया। प्रिय परीक्षित्! ऐसी स्थिति में क्या वे अपने शरीर को सदा के लिये यहाँ नहीं रख सकते थे ? अवश्य ही रख सकते थे । यद्यपि भगवान श्रीकृष्ण सम्पूर्ण जगत् की स्थिति, उत्पत्ति और संहार के निरपेक्ष कारण है और सम्पूर्ण शक्तियों के धारण करने वाले हैं तथापि उन्होंने अपने शरीर को इस संसार में बचा रखने की इच्छा नहीं की। इससे उन्होंने यह दिखाया कि इस मनुष्य-शरीर से मुझे क्या प्रयोजन है ? आत्मनिष्ठ पुरुषों के लिये यही आदर्श है कि वे शरीर रखने की चेष्टा न करें ।
( अनुष्टुप् )
य एतां प्रातरुत्थाय कृष्णस्य पदवीं पराम् ।
प्रयतः कीर्तयेद् भक्त्या तामेवाप्नोत्यनुत्तमाम् ॥ १४ ॥
दारुको द्वारकामेत्य वसुदेवोग्रसेनयोः ।
पतित्वा चरणावस्रैः न्यषिञ्चत् कृष्णविच्युतः ॥ १५ ॥
कथयामास निधनं वृष्णीनां कृत्स्नशो नृप ।
तच्छ्रुत्वोद्विग्नहृदया जनाः शोकविर्मूर्च्छिताः ॥ १६ ॥
तत्र स्म त्वरिता जग्मुः कृष्णविश्लेषविह्वलाः ।
व्यसवः शेरते यत्र ज्ञातयो घ्नंत आननम् ॥ १७ ॥
देवकी रोहिणी चैव वसुदेवस्तथा सुतौ ।
कृष्णरामावपश्यंतः शोकार्ता विजहुः स्मृतिम् ॥ १८ ॥
प्राणांश्च विजहुस्तत्र भगवद् विरहातुराः ।
उपगुह्य पतींस्तात चितां आरुरुहुः स्त्रियः ॥ १९ ॥
रामपत्न्यश्च तद्देहं उपगुह्याग्निमाविशन् ।
वसुदेवपत्न्यस्तद्गात्रं प्रद्युम्नादीन् हरेः स्नुषाः ।
कृष्णपत्न्योऽविशन्नग्निं रुक्मिण्याद्याः तदात्मिकाः ॥ २० ॥
अर्जुनः प्रेयसः सख्युः कृष्णस्य विरहातुरः ।
आत्मानं सांत्वयामास कृष्णगीतैः सदुक्तिभिः ॥ २१ ॥
बंधूनां नष्टगोत्राणां अर्जुनः सांपरायिकम् ।
हतानां कारयामास यथावद् अनुपूर्वशः ॥ २२ ॥
द्वारकां हरिणा त्यक्तां समुद्रोऽप्लावयत् क्षणात् ।
वर्जयित्वा महाराज श्रीमद् भगवदालयम् ॥ २३ ॥
नित्यं सन्निहितस्तत्र भगवान् मधुसूदनः ।
स्मृत्याशेषाशुभहरं सर्वमङ्गलमङ्गलम् ॥ २४ ॥
स्त्रीबालवृद्धानादाय हतशेषान् धनञ्जयः ।
इंद्रप्रस्थं समावेश्य वज्रं तत्राभ्यषेचयत् ॥ २५ ॥
श्रुत्वा सुहृद् वधं राजन् अर्जुनात्ते पितामहाः ।
त्वां तु वंशधरं कृत्वा जग्मुः सर्वे महापथम् ॥ २६ ॥
य एतद् देवदेवस्य विष्णोः कर्माणि जन्म च ।
कीर्तयेत् श्रद्धया मर्त्यः सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ २७ ॥
( वसंततिलका )
इत्थं हरेर्भगवतो रुचिरावतार
वीर्याणि बालचरितानि च शंतमानि ।
अन्यत्र चेह च श्रुतानि गृणन्
भक्तिं परां परमहंसगतौ लभेत ॥ २८ ॥
एकादश स्कन्ध: एकत्रिंशोऽध्यायः (31)
श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: एकत्रिंशोऽध्यायः श्लोक 14-28 का हिन्दी अनुवाद
इधर दारुक भगवान श्रीकृष्ण के विरह से व्याकुल होकर द्वारका आया और वसुदेवजी तथा उग्रसेन के चरणों पर गिर-गिरकर उन्हें आँसुओं से भिगोने लगा । परीक्षित्! उसने अपने को सँभालकर यदुवंशियों के विनाश का पूरा-पूरा विवरण कह सुनाया। उसे सुनकर लोग बहुत ही दुःखी हुए और मारे शोक के मुर्च्छित हो गये । भगवान श्रीकृष्ण के वियोग के विह्वल होकर वे लोग सिर पीटते हुए वहाँ तुरंत पहुँचे, जहाँ उनके भाई-बन्धु निष्प्राण होकर पड़े हुए थे । देवकी, रोहिणी और वसुदेवजी अपने प्यारे पुत्र श्रीकृष्ण और बलराम को न देखकर शोक की पीड़ा से बेहोश हो गये । उन्होंने भगवदविरह से व्याकुल होकर वहीं अपने प्राण छोड़ दिये। स्त्रियों ने अपने-अपने पतियों के शव पहचानकर उन्हें हृदय से लगा लिया और उसके साथ चिता पर बैठकर भस्म हो गयीं । बलरामजी की पत्नियाँ उनके शरीर को, वसुदेवजी की पत्नियाँ उनके शव को और भगवान की पुत्र वधुएँ अपने पतियों की लाशों को लेकर अग्नि में प्रवेश कर गयीं। भगवान श्रीकृष्ण की रुक्मिणी आदि पटरानियाँ उनके ध्यान में मग्न होकर अग्नि में प्रविष्ट हो गयीं । परीक्षित्! अर्जुन अपने प्रियतम और सखा भगवान श्रीकृष्ण के विरह से पहले तो अत्यन्त व्याकुल हो गये; फिर उन्होंने उन्हीं की गीतोक्त सदुपदेशों का स्मरण करके अपने मन को सँभाला । यदुवंश के मृत व्यक्तियों में जिनको कोई पिण्ड देने वाला न था, उनका श्राद्ध अर्जुन ने क्रमशः विधिपूर्वक करवाया । महाराज! भगवान के न रहने पर समुद्र ने एकमात्र भगवान श्रीकृष्ण का निवासस्थान छोड़कर एक ही क्षण में सारी द्वारका डुबो दी । भगवान श्रीकृष्ण वहाँ वाब भी सदा-सर्वदा निवास करते हैं। वह स्थान स्मरण मात्र से ही सारे पाप-तापों का नाश करने वाला और सर्वमंगलों को भी मंगल बनाने वाला है । प्रिय परीक्षित्! पिण्डदान के अनन्तर बची-खुची स्त्रियों, बच्चों और बूढ़ों को लेकर अर्जुन इन्द्रप्रस्थ आये। वहाँ सबको यथायोग्य बसाकर अनिरुद्ध के पुत्र वज्र का राज्याभिषेक कर दिया । राजन्! तुम्हारे दादा युधिष्ठिर आदि पाण्डवों को अर्जुन से ही यह बात मालूम हुई कि यदुवंशियों का संहार हो गया है। तब उन्होंने अपने वंश धर तुम्हें राज्यपद अभिषिक्त करके हिमालय की वीर यात्रा की । मैंने तुम्हें देवताओं के भी आराध्यदेव भगवान श्रीकृष्ण की जन्म लीला और कर्म लीला सुनायी। जो मनुष्य श्रद्धा के साथ इसका कीर्तन करता है, वह समस्त पापों से मुक्त हो जाता है । परीक्षित्! जो मनुष्य इस प्रकार भक्तभयहारी निखिल सौन्दर्य—माधुर्यनिधि श्रीकृष्णचन्द्र के अवतार-सम्बन्धी रुचिर पराक्रम और इस श्रीमद्भागवत महापुराण में तथा दूसरे पुराणों में वर्णित परमानन्दमयी बाल लीला, कैशोर लीला आदि का संकीर्तन करता है, वह परमहंस मुनीन्द्रों के अन्तिम प्राप्तव्य श्रीकृष्ण के चरणों में पराभक्ति प्राप्त करता है ।
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां एकादशस्कन्धे एकत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३१ ॥
"""""
गोलोकं गच्छ शीघ्रं त्वं सार्धं गोकुलवासिभिः।
आरात्कलेरागमनं कर्ममूलनिकृन्तनम् ।।११।।
हे गोपेन्द्र प्रतिकलौ न नश्यति वसुन्धरा ।
पुनःसृष्टौ भवेत्सत्यं सत्यबीजं निरन्तरम्।।३६।।
एतस्मिन्नन्तरे विप्र रथमेव मनोहरम् ।
चतुर्योजनविस्तीर्णमूर्ध्वे च पञ्चयोजनम् ।।३७।।
सूक्ष्मवस्त्राच्छादितं च गोपीकोटीभिरावृतम् ।
गोलोकादागतं तूर्णं ददृशुः सहसा व्रजे ।।४१।।
कृष्णाज्ञया तमारुह्य ययुर्गोलोकमुत्तमम् ।
राधा कलावती देवीधन्या चायोनिसम्भवा।।४२।।
गोलोकादगता गोप्यश्चायोनिसम्भवाश्च ताः
श्रुतिपत्न्यश्च ताः सर्वाः स्वशरीरेण नारद।।४३।।
*******************
सर्वे त्यक्त्वा शरीराणि नश्वराणि सुनिश्चितम् ।
गोलोकं च ययौ राधा सार्घं गोकुलवासिभिः ।। ४४ ।।
ददर्श विरजातीर्र नानारत्नविभूषितम् ।
तदुत्तीर्य ययौ विप्र शतशृङ्गं च पर्वतम् ।।४५।।
नानामणिगणाकीर्णं रासमण्डलमण्डितम् ।
ततो ययौ कियद्दूरं पुण्यं वृन्दावनं वनम्।।४६ ।।
सा ददर्शाक्षयवटमूर्ध्वे त्रिशतयोजनम् ।
शतयोजनविस्तीर्णं शाखाकोटिसमावृतम् ।।४७ ।।
अथ तेषां च गोपाला ययुर्गोलोकमुत्तमम् ।
पृथिवी कम्पिता भीता चलन्तः सप्तसागराः।३०।
हतश्रियं द्वारकां च त्यक्त्वा च ब्रह्मशापतः ।
मूर्तिं कदम्बमूलस्थां विवेश राधिकेश्वरः ।। ३१ ।।
ते सर्वे चैरकायुद्धे निपेतुर्यादवास्तथा ।
चितामारुह्य देव्यश्च प्रययुः स्वामिभिः सह ।। ३२ ।।
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अर्जुनः स्वपुरं गत्वा समुवाच युधिष्ठिरम् ।
स राजा भ्रातृभिः सार्धं ययौ स्वर्गं च भार्यया ।। ३३ ।।
दृष्ट्वा कदम्बमूलस्थं तिष्ठन्तं परमेश्वरम् ।
देवा ब्रह्मादयस्ते च प्रणेमुर्भक्तिपूर्वकम् ।३४।
तुष्टुवुः परमात्मानं देवं नारायणं प्रभुम् ।
श्यामं किशोरवयसं भूषितं रत्नभूषणैः ।। ३५ ।।
वह्निशुद्धांशुकाधानं शोभितं वनमालया ।
अतीव सुन्दरं शान्तं लक्ष्मीकान्तं मनोहरम् । ३६।
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व्याधास्त्रसंयुतं पादपद्मं पद्मादिवन्दितम् ।
दृष्ट्वा ब्रह्मादिदेवांस्तानभयं सस्मितं ददौ ।। ३७ ।।
पृथिवीं तां समाश्वास्य रुदतीं प्रेमविह्वलाम् ।
व्याधं प्रस्थापयामास परं स्वपदमुत्तमम् ।३८।
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बलस्य तेजः शेषे च विवेश परमाद्भुतम् ।
प्रद्युम्नस्य च कामे वै वाऽनिरुद्धस्य ब्रह्मणि । ३९।
अयोनिसम्भवा देवी महालक्ष्मीश्च रुक्मिणी ।
वैकुण्ठं प्रययौ साक्षात्स्वशरीरेण नारद। ४०।
सत्यभामा पृथिव्यां च विवेश कमलालया ।
स्वयं जाम्बवती देवी पार्वत्यां विश्वमातरि ।४१।
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या या देव्यश्च यासां चाप्यंशरुपाश्च भूतले ।
तस्यां तस्यां प्रविविशुस्ता एव च पृथक्पृथक् ।४२।
साम्बस्य तेजः स्कन्दे च विवेश परमाद्भुतम्।
कश्यपे वसुदेवश्चाप्यदित्यां देवकी तथा ।४३।
रुक्मिणीमन्दिरं त्यक्त्वा समस्तां द्वारकां पुरीम् ।
स जग्राह समुद्रश्च प्रफुल्लवदनेक्षणः । ४४ ।
लवणोदः समागत्य तुष्टाव पुरुषोत्तमम् ।
रुरोद तद्वियोगेन साश्रुनेत्रश्च विह्वलः ।। ४५ ।।
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इति श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराण श्रीकृष्णजन्मखण्ड उत्तरार्द्ध-अष्टाविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः।।१२८।।
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