चीन संस्कृति में प्रेम की उदात्त अभिव्यक्ति होती थी। कृष्ण की रासलीला इसका प्रतीक है।
भक्तिकाव्य में रासलीला शब्द का खूब प्रयोग हुआ है। दरअसल रास एक कलाविधा है।
प्रेम और आनंद की उत्कट अभिव्यक्ति के लिए कृष्ण की उदात्त प्रेमलीलाओं का भावाभिनय ही रासलीला कहलाता है।
मूलतः यह एक नृत्य है जिसमें कृष्ण को केंद्र में रख गोपियां उनकी परिधि में मुरली की धुन पर थिरकती हैं। अष्टछाप के भक्तकवियों नें प्रेमाभिव्यक्ति करनेवाले अनेक रासगीतों की रचना की है।
रास में आध्यात्मिकता भी है जिसमें गोपियों का कृष्ण के प्रति अनुराग व्यक्त होता है।
वे वृत्ताकार मंडल में प्रेमाभिव्यक्ति करती हैं।
जिसे पुराण कारों ने हल्लीषम्
(हल-क्विप् लघ--अच् पृषो० कर्म० ।
स्त्रीणां मण्डलिकाकारनृत्ये ।
ततः स्वार्थे क । तत्रैव । “मण्डलेन तु यन्नृत्यं स्त्रीणां हल्लीषकन्तु तत्” हेमचन्द्र २
रासक्रीड़ायाञ्च तल्लक्षणं यथा “पृथुं सुवृत्तं मसृणं वितस्तिमात्रोन्नतं कौ विनिखन्य शङ्कुकम् ।
आक्रम्य पद्भ्यामितरेतरन्तु हस्तैर्भ्रमोऽयं खलु रासगोष्ठी” हरिवंश पुराण टी० नीलकण्ठः शास्त्री ।
शब्दः :: हल्लीषं
लिङ्गम् प्रकारश्च :: क्ली
अर्थः सन्दर्भश्च ::
स्त्रीणां सह नर्त्तनम् ।
इति त्रिकाण्डशेषः ॥
(पुं ० उपरूपकविशेषः ।
तल्लक्षणं यथा साहित्यदर्पणे । ६ । ५५५ । “ हल्लीष एव एकाङ्कः सप्ताष्टौ दश वा स्त्रियः । वागुदात्तैकपुरुषः कैशिकीवृत्तसङ्कुलः ।
मुखान्तिमौ तथा सन्धी बहुताललयस्थितिः ॥ )
पुरानी फ्रांसीसी भाष से , लैटिन illuso से , illūdere से , में ( पर " ) + lūdere ( " खेलने के लिए, नकली, चाल " )
मृगतृष्णा
डेनिश संपादित करें
एटिमोलॉजी संपादित करें
लैटिन illusio से फ्रांसीसी भ्रम से।
नाम संपादित करें
भ्रम सी ( एकवचन निश्चित भ्रम , बहुवचन अनिश्चित भ्रम )
मोह माया
Homophone: भ्रम
नाम संपादित करें
भ्रम एफ ( बहुवचन भ्रम )
मोह माया
संबंधित शब्दों का विकास
illusoire
illusoirement
आगे पढ़ना संपादित करें
ली ट्रसेर डी ला लैंगु फ्रैंकाइज सूचना ( फ्रांसीसी भाषा का डिजिटाइज्ड ट्रेजरी ) में " भ्रम "।
भ्रम सी
एक भ्रम
अस्वीकरण संपादित करें
भ्रम का विघटन
विलक्षण बहुवचन
अनिश्चितकालीन निश्चित अनिश्चितकालीन निश्चित
नियुक्त मोह माया illusionen illusioner illusionerna
संबंधकारक भ्रम illusionens illusioners illusionernas
संबंधित शब्द संपादित करें
illusorisk
यह भी देखें देखें
चित्रण
illustrera
synvilla
छल
मध्यकाल में इसमें जो आध्यात्मिकता थी वह धीरे धीरे गायब होती गई और विशुद्ध मनोरंजन शैलियों वाली गिरावट इस भक्ति और अध्यात्म को अभिव्यक्त करनेवाली विशिष्ट विधा में भी समा गई।
वैसे आज भी बृज की रास मण्डलियां प्रसिद्ध हैं।
कथक से भी रास को जोड़ा जाता है किन्तु कथक की पहचान जहां एकल प्रस्तुति में मुखर होती है वहीं रास सामूहिक प्रस्तुति है।
अलबत्ता रास शैली का प्रयोग कथक और मणिपुरी जैसी शास्त्रीय नृत्यशैलियों में हुआ है। इसके अलावा गुजरात का जग प्रसिद्ध डांडिया नृत्य रास के नाम से ही जाना जाता है। रास का मुहावरेदार प्रयोग भी बोलचाल की भाषा में खूब होता है। रास रचाना यानी स्त्री-पुरुष में आपसी मेल-जोल बढ़ना। रास-रंग यानी ऐश्वर्य और आमोद-प्रमोद में लीन रहना। रास शब्द रास् धातु से आ रहा है जिसमें किलकना, किलोल, शोरगुल का भाव है।
इससे बना है रासः जिसमें होहल्ला, किलोल सहित एक ऐसे मण्डलाकार नृत्य का भाव है जिसे कृष्ण और गोपियां करते थे। इससे ही बना है रासकम् शब्द जिसका अर्थ नृत्यनाटिका है। कुछ कोशों में इसका अर्थ हास्यनाटक भी कहा गया है। दरअसल रासलीला जब कला विधा में विकसित हो गई तो वह सिर्फ नृत्य न रहकर नृत्यनाटिका के रूप में सामने आई। नाटक के तत्वों में हास्य भी प्रमुख है।
रासलीला में हंसोड़पात्र भी आते हैं जो प्रायः रासधारी गोप होते हैं। इसलिए रासकम् को सिर्फ हास्यनाटक कहना उचित नहीं है। मूलतः रास् से बने रासकम् का ही रूप मध्यकालीन साहित्य की एक विधा रासक के रूप में सामने आया। रासक को एकतरह से जीवन चरित कहना उचित होगा जैसे पृथ्वीराज रासो या बीसलदेवरासो आदि जो वीरगाथा साहित्य के प्रमुख ग्रन्थ हैं।
विद्वानों का मानना है कि रास शब्द का रिश्ता संस्कृत के लास्य से भी है जिसमें भी नृत्याभिनय और क्रीड़ा का भाव है। र औ ल एक ही वर्णक्रम में आते हैं। लास्य का ही प्राकृत रूप रास्स होता है। वसंत ऋतु में बुंदेलखण्ड में एक प्रसिद्ध मेला रहस लगता है जिसका संबंध भी रास से जोड़ा जाता है। कुछ विद्वानों ने रासो की व्युत्पत्ति रहस्' शब्द के रहस से जोड़ी है। रामनारायण दूगड लिखते हैं- रास या रासो शब्द रहस या रहस्य का प्राकृत रुप मालूम पड़ता है।
इसका अर्थ गुप्त बात या भेद है। जैसे कि शिव रहस्य, देवी रहस्य आदि ग्रन्थों के नाम हैं, वैसे शुद्ध नाम पृथ्वीराज रहस्य है जोकि प्राकृत में पृथ्वीराज रास, रासा या रासो हो गया। डॉ. काशी प्रसाद जायसवाल और कविराज श्यामदास के अनुसार रहस्य पद का प्राकृत रुप रहस्सो बनता है, जिसका कालान्तर में उच्चारण भेद से बिगड़ता हुआ रुपान्तर रासो बन गया है। रहस्य> रहस्सो> रअस्सो >रासो इसका विकास क्रम है। बुंदेलखण्ड में सागर के पास गढ़ाकोटा के प्रसिद्ध रहस मेला के संदर्भ में भी इसी रहस्य शब्द का हवाला दिया जाता है। बताते हैं कि अंग्रेजो के खिलाफ बुदेलों की क्रांति की योजनाएं इसी मेले में बनती थीं यानी मेले की आड़ में यह काम किया जाता था। मान्यता है कि मेला लगना ही इसलिए शुरू हुआ था। गोपनीयता के अर्थ में इस आयोजन से रहस शब्द जुड़ा और फिर इसका तद्भव रूप रहस् सामने आया। मगर यह बात प्रामाणिक नहीं लगती।
मेले में गोपनीय सूचनाओं का आदान-प्रदान संभव है किन्तु इसी उद्धेश्य से यह आयोजन शुरू हुआ है यह बात अविश्सनीय और अव्यावहारिक लगती है। संस्कृत का रहस शब्द बना है रहस् धातु से। इसकी अर्थवत्ता व्यापक है। मूलतः इसमें एकान्त, निर्जनता, एकाकीपन, एकान्तवास, सूनसान स्थान, गुप्तवार्ता, भेद की बात जैसे अर्थ समाहित हैं। इसका एक अन्य अर्थ केलि, किलोल, क्रीड़ा, कामक्रिया भी है। समझा जा सकता है कि प्राचीनकाल की जनपदीय संस्कृति में युवक-युवतियों के मिलने-जुलने से जुड़े ऐसे आयोजन आम थे। ये आयोजन स्वतःस्फूर्त होते थे। कुलीनों के वसंतोत्सव से हटकर इनकी सामाजिक संरचना बस्तर के घोटुल के जरिये समझी जा सकती है।
भाव यही है कि युवक-युवतियों का आपसे में मिलना गोपनीय व्यवहार है। इस संदर्भ में गुप्त बात, भेद, गूढ़ता, आचरण की विचित्रता जैसे लक्षणों को ही रहस्य के अंतर्गत समझना चाहिए न की जासूसी या गुप्तचरी वाले भाव इसमें जोड़ने चाहिए। हालाँकि इसका विकास फ़ारसी के राज़ में नज़र आता है जहाँ इन्हीं अर्थों में इसका प्रयोग होता है । निश्चित ऋतु और निश्चित स्थान पर तरुण-तरुणियों का ऐसा आचरण जब आम हो गया तब इस स्वतः स्फूर्त आयोजन ने रहस् मेले का रूप लिया। यहां समझें कि समूह में भी कोई जोड़ा अपनी निजता और गोपनीयता के साथ ही खुद में लीन होता है। विद्वानों और आलोचकों में रास शब्द पर बड़ा विवाद है। अवध, बुंदेलखण्ड और छत्तीसगढ़ की लोककला विधा रहस से भी इस रास का रिश्ता जोड़ा जाता है। वैसे रास के छह रूपांतर हिन्दी की शैलियों में देखने को मिलते हैं जैसे- रास, रासा, रासो, रासौ, रायसा, रायसौ। इसी तरह इसकी व्युत्पत्ति के आधार स्वरूप भी छह शब्दों को वक्तन फ वक्तन सामने रखा जाता रहा है मसलन-रहस्य, रसायण, राजादेश, राजयश, रास और रासक। यह तय है कि रास शब्द की व्युत्पत्ति न तो रहस से हुई है और न ही रहस शब्द का जन्म रास से हुआ है।
इसी तरह फिरंगियों के विरुद्ध गोपनीय सूचनाओं के आदान प्रदान के लिए ये आयोजन शुरू हुए यह कहना भी गलत है। अलबत्ता रहस का रहस्य से रिश्ता है और दो प्रेमी हृदयों के आपसी मिलन के भेद में ही रहस का रहस्य निहित है। अब मेलों-ठेलों की गहमा-गहमी में चोर पुलिस का खेल भी होता है और षड्यंत्रों को अंजाम भी दिया जाता है। यह उसके उद्धेश्य नहीं बल्कि लाभ हैं।
इस सम्बन्ध में मुझे उस गजराज...घड़ियाल ...और ईश्वर का प्रसंग याद आता है ! भक्त और ईश्वर का समदेह होना आवश्यक नहीं है ! शाब्दिक रूप से रास उर्फ़ लगाम का रास उर्फ़ रहस से कोई लेना देना नहीं है किन्तु प्रतीकात्मकता में ऐसा संभव है ! Reply मीनाक्षीApril 27, 2010 at 9:01 PM This comment has been removed by a blog administrator. Reply DR. ANWER JAMALApril 27, 2010 at 10:36 PM श्री कृष्ण जी का रास लीला से कोई सम्बन्ध नहीं था . यह पंडों ने चलाया . क्यों चलाया ? इस पर आप रौशनी डालें . Reply अजित वडनेरकरApril 27, 2010 at 11:06 PM @डॉ अनवर जमाल आपके पास संभवतः अधूरी जानकारी है और इसका आधार क्या है, यह आप बताएं। श्रीकृष्ण का चरित्र जिस रूप में रचा गया है, उनके इर्द-गिर्द गोप-गोपियां हैं ऐसे में यह संभव नहीं कि वे आपस में लोकानुरंजन न करते हों। बात रास शब्द के कृष्णकाल में प्रचलित होने की है। गोपियों के साथ कृष्ण की नृत्यलीला को उस दौर में रास कहा जाता था या नहीं, मामला यह है और यह विशुद्ध ऐतिहासिक भाषाविज्ञान से जुड़ा प्रश्न है। कतिपय विद्वानों का मानना है कि श्रीकृष्ण के समय रास शब्द प्रचलित नहीं था। वे नृत्य की परिपाटी और श्रीकृष्ण के कलाप्रेम को खारिज नहीं करते हैं। कृष्णचरित से कलाओं को अलग किया ही नहीं जा सकता। मुरलीमनोहर और गोप-गोपियों के मेल ने भारतीय संस्कृति को विविध कलाएं दी हैं। गुप्तकालीन रचना रास पंचाध्यायी से मण्डलाकार नृत्य के लिए रास शब्द का प्रचलन बढ़ा है। निश्चित ही रास ब्रज क्षेत्र का पारम्परिक लोकनृत्य रहा है। कृष्ण चरित से इस शब्द के जुड़ा होने के पीछे की भ्रम की गुंजाइश नहीं है। पण्डा शब्द का संदर्भ पोथी-जंत्री तक ही सीमित है। इस वर्ग का नृत्य या कलाकर्म में कोई दखल नहीं था इसलिए रास शब्द से इन्हें जोड़ना भी ठीक नहीं।
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