नवरात्रि के त्योहार आ रहे हैं, अब जगह-जगह भव्य पंडाल सजाये जायेंगे, और वहाँ जोर-जोर से "जय महिषासुर मर्दिनी" के जयकारे लगाये जायेंगे!
इन पंडालों मे एक प्रतिमा लगायी जायेगी, जिसमे शेर पर आरूढ़ एक गोरी-चिट्टी सुन्दर आर्य महिला (दुर्गा) एक काले-कलूटे विकृत आदिवासी (महिषासुर) के सीने मे त्रिशूल भोंपकर उसका वध करती हुई दिखाई देगी।
नवरात्रि इसीलिये मनायी जाती है क्योंकि मान्यता है कि दुर्गा ने इसी नौ दिनों मे युद्ध करके महिषासुर का वध किया था!
विचारणीय बात यह है कि आखिर इस बात के क्या ऐतिहासिक प्रमाण है कि कोई दुर्गा थी, या कोई महिषासुर था!
मुझे तो ये पूरी कहानी काल्पनिक सी लगती है! दुर्गा का कोई अता-पता नही कि किसकी पुत्री थी, कहाँ से आयी और कहाँ चली गयी?
महिषासुर के बारे मे भी जो जानकारी है, वह मिथक ही प्रतीत होती है!
चलिये आज पहले महिषासुर के बारे मे जानते हैं-
देवीपुराण के पाँचवें स्कन्द मे एक कथा आती है कि असुरों के राजा रम्भ को अग्निदेव ने वर दिया कि तुम्हे एक पराक्रमी पुत्र पैदा होगा!
एक दिन रम्भ विचरण कर रहा था तो उसने एक जवान मदमस्त भैंस देखी, रम्भ का मन उस भैंस पर आ गया और उसने उससे सहवास किया! कालान्तर मे रम्भ के वीर्य से गर्भित होकर उसी भैंस ने महिषासुर को जन्म दिया!
कुछ दिनों बाद जब वह भैंस घास चर रही थी तो अचानक एक भयंकर भैसा कही आ गया, और वह उस भैंस से मैथुन करने के लिये उसकी ओर दौड़ा...
रम्भ भी वहीं था, उसने देखा कि एक भैसा मेरी भैंस से 'मुँह पीला' (चूँकि भैस का मुँह पहले ही काला होता है) करने का प्रयास कर रहा था! उसकी गैरत जाग गयी और वह भैंसे से भिड़ गया।
फिर क्या था, उस भैसे की नुकीली सींगों से रम्भ मारा गया, और जब रम्भ के सेवकों ने उसके शव को चिता पर लेटाया तो उसकी बीवी पतिव्रता भैंस भी चिता पर चढ़कर रम्भ के साथ सती हो गयी।
मुझे तो यह सोचकर भी आश्चर्य होता है कि किसी जमाने मे भारत मे इतनी पतिव्रता भैंस भी हुआ करती थी जो अपने पति के साथ आत्मदाह कर लेती थी।
खैर... ऐसे ही पैदा हुआ पंडों का कल्पित चरित्र महिषासुर। (चित्र-1-4)
महिषासुर से सम्बन्धित एक दूसरी कथा वराहपुराण अध्याय-95 मे भी मिलती है, जो निम्न है-
विप्रचित नामक दैत्य की एक सुन्दर कन्या थी माहिष्मती! माहिष्मती मायावी-शक्ति से वेष बदलना जानती थी! एक दिन वह अपनी सखियों के साथ घूमती हुई एक पर्वत की तराई मे आ गयी, जहाँ एक सुन्दर उपवन था और एक ऋषि (सुपार्श्व) वहीं तप कर रहे थे।
माहिष्मती उस मनोहर उपवन मे रहना चाहती थी, उसने सोचा कि इस ऋषि को डराकर भगा दूँ और अपनी सखियों के साथ यहाँ कुछ दिन विहार करूँ!
यही सोचकर माहिष्मती ने एक भैंस का रूप धारण किया और सुपार्श्व ऋषि को पास आकर उन्हे डराने लगी! ऋषि ने अपनी योगशक्ति से सत्य को जान लिया और माहिष्मती को श्राप दिया कि तू भैंस का रूप धारण करके मुझे डरा रही है तो जाऽऽ... मै तुझे श्राप देता हूँ कि तू सौ वर्षों तक इसी भैंस-रूप मे रहेगी!
अब माहिष्मती भैंस बनकर नर्मदा तट पर रहने लगी! वहीं नजदीक सिन्धुद्वीप नामक एक ऋषि तप करते थे। एक दिन जब ऋषि स्नान करने के लिये नर्मदा नदी के तट पर गये तो उन्होने देखा कि वहाँ एक सुन्दर दैत्यकन्या इन्दुमती नंगी होकर स्नान कर रही थी! उसे नग्नावस्था मे देखकर ऋषि का जल मे ही वीर्यपात हो गया! माहिष्मती ने उसी जल को पी लिया, जिससे वह गर्भवती हो गयी और कुछ महीनों बाद इसी माहिष्मती भैंस ने महिषासुर को जन्म दिया! (चित्र-5-7)
महिषासुर की कथा केवल इन्ही दो पुराणों मे मिलती है, और दोनो के अनुसार वह भैंस के पेट से पैदा हुआ।
अब कम से कम मेरी साधारण बुद्धि तो यह मानने को तैयार नही कि एक भैंस किस इंसान के भ्रूण को जन्म दे सकती है! अतः इससे स्पष्ट है कि पौराणिक कहानी तो पूरी तरह से काल्पनिक है।
अब बड़ा सवाल यह होता है कि क्या महिषासुर काल्पनिक है!
इतिहासकारों ने भी महिषासुर पर अलग-अलग राय दी है!
कोसम्बी कहते थे कि वह म्हसोबा (महोबा) का था, तो मैसूर के निवासी कहते हैं कि मैसूर का पुराना नाम ही महिष-असुर ही था! मैसूर मे महिषासुर की एक विशालकाय प्रतिमा भी है।
रही बात दुर्गा की तो उनके बारें मे भी पढ़े तो कुछ अता-पता नही चलता!
एक पुराण कहता है कि दुर्गा कात्यायन ऋषि की पुत्री थी।
दूसरा कहता है कि दुर्गा मणिद्वीप मे रहने वाली जगदम्बा ही थी।
यही नही.. कुछ लोग तो यह भी कहते हैं कि वह चोलवंश की राजकुमारी थी।
अगर दुर्गा को जानने के लिये देवीपुराण पढ़ो तो पूरी पौराणिक-मान्यताऐं ही पलट जाती है!
देवीपुराण मे लिखा है कि अब तक राम-कृष्ण समेत जितने भी अवतार हुये हैं, वह सब दुर्गा के थे, विष्णु के नही! बल्कि यह पुराण तो कहता है कि विष्णु भी दुर्गा की प्रेरणा से ही जन्मे! दुर्गा चालीसा मे भी नरसिंह अवतार दुर्गा का कहा गया है। ये निम्न चौपाई देखें-
"धरा रूप नरसिंह को अम्बा।
प्रकट भई फाड़ कर खम्बा।।
रक्षा करि प्रहलाद बचायो।
हिरनाकुश को स्वर्ग पठायो।।"
जहाँ तक मेरा मानना है तो यह कथा पाखण्ड ही हैं और दुर्गा को प्रतिष्ठित करना या पूजना बेकार मे समय की बर्बादी के अलावा और कुछ नही है!
वैसे भी जो गलती हमारे पूर्वजों ने अज्ञानतावश की है, उसे हम परम्परा मानकर आखिर कब तक दोहरा रहेंगे।
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