वेद की अधिष्ठात्री देवी गायत्री अहीर ( गोप ) की कन्या और ज्ञान के अधिष्ठाता कृष्ण भी अहीर( गोप) वसुदेव के पुत्र देखें प्रमाणों के दायरे में ---
पुराणों के आधार पर ---
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पद्म पुराण के सृष्टि खण्ड के अध्याय १६ में गायत्री को नरेन्द्र सेन आभीर (अहीर)की कन्या के रूप में वर्णित किया गया है ।
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" स्त्रियो दृष्टास्तु यास्त्व ,
सर्वास्ता: सपरिग्रहा : |
आभीरः कन्या रूपाद्या
शुभास्यां चारू लोचना ।७।
न देवी न च गन्धर्वीं ,
नासुरी न च पन्नगी ।
वन चास्ति तादृशी कन्या ,
यादृशी सा वराँगना ।८।
अर्थात् जब इन्द्र ने पृथ्वी पर जाकर देखा
तो वे पृथ्वी पर कोई सुन्दर और शुद्ध कन्या न पा सके
परन्तु एक नरेन्द्र सेन आभीर की कन्या गायत्री को सर्वांग सुन्दर और शुद्ध
देखकर आश्चर्य चकित रह गये ।७।
उसके समान सुन्दर कोई देवी न कोई गन्धर्वी न सुर और न असुर की स्त्री ही थी और नाहीं कोई पन्नगी (नाग कन्या ) ही थी।
इन्द्र ने तब उस कन्या गायत्री से पूछा कि तुम कौन हो ? और कहाँ से आयी हो ?
और किस की पुत्री हो ८।
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गोप कन्यां च तां दृष्टवा , गौरवर्ण महाद्युति:।
एवं चिन्ता पराधीन ,यावत् सा गोप कन्यका ।।९ ।।
पद्म पुराण सृष्टि खण्ड अध्याय १६ १८२ श्लोक में
इन्द्र ने कहा कि तुम बड़ी रूप वती हो , गौरवर्ण वाली महाद्युति से युक्त हो इस प्रकार की गौर वर्ण महातेजस्वी कन्या को देखकर इन्द्र भी चकित रह गया कि यह गोप कन्या इतनी सुन्दर है !
यहाँ विचारणीय तथ्य यह भी है कि पहले आभीर-कन्या शब्द गायत्री के लिए आया है फिर गोप कन्या शब्द । अत: अहीर और गोप शब्द परस्पर पर्याय हैं ।
जो कि यदुवंश का वृत्ति ( व्यवहार मूलक ) विशेषण है ।
क्योंकि यादव प्रारम्भिक काल से ही गोपालन वृत्ति ( कार्य) से सम्बद्ध रहे है ।
आगे के अध्याय १७ के ४८३ में इन्द्र ने कहा कि यह
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गोप कन्या पराधीन चिन्ता से व्याकुल है ।९।
देवी चैव महाभागा , गायत्री नामत: प्रभु ।
गान्धर्वेण विवाहेन ,विकल्प मा कथाश्चिरम्।१०।
१८४ श्लोक में विष्णु ने ब्रह्मा जी से कहा कि हे प्रभो इस कन्या का नाम गायत्री है ।
अब यहाँ भी देखें---
भागवत पुराण :--१०/१/२२ में भी स्पष्टत: गायत्री आभीर अथवा गोपों की कन्या है ।
और गोपों को भागवतपुराण तथा महाभारत हरिवंश पुराण आदि मे देवताओं का अवतार बताया गया है ।
" अंशेन त्वं पृथिव्या वै ,प्राप्य जन्म यदो:कुले ।
भार्याभ्याँश संयुतस्तत्र ,गोपालत्वं करिष्यसि ।१४।
वस्तुत आभीर और गोप शब्द परस्पर पर्याय वाची हैं
पद्म पुराण में पहले आभीर- कन्या शब्द आया है फिर गोप -कन्या भी गायत्री के लिए ..
तथा अग्नि पुराण मे भी आभीरों (गोपों) की कन्या गायत्री को कहा है ।
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आभीरा स्तच्च कुर्वन्ति तत् किमेतत्त्वया कृतम्
अवश्यं यदि ते कार्यं भार्यया परया मखे ४०
एतत्पुनर्महादुःखं यद् आभीरा विगर्दिता
वंशे वनचराणां च स्ववोडा बहुभर्तृका ५४
आभीर इति सपत्नीति प्रोक्तवंत्यः हर्षिताः
(इति श्रीवह्निपुराणे (अग्नि पुराणे )ना नान्दीमुखोत्पत्तौ ब्रह्मयज्ञ समारंभे प्रथमोदिवसो नाम षोडशोऽध्यायः संपूर्णः)
ऋग्वेद भारतीय संस्कृति में ही नहीं अपितु विश्व- संस्कृतियों में प्राचीनत्तम है ।
हरिवंश पुराण यादवों का गोप (अहीर) अथवा आभीर
रूप में ही वर्णन करता है ।
यदुवंशीयों का गोप अथवा आभीर विशेषण ही वास्तविक है ; क्योंकि गोपालन ही इनकी शाश्वत् वृत्ति (कार्य) वंश परम्परागत रूप से विख्यात है ।।
हरिवंश पुराण में आभीर और गोप शब्द परस्पर पर्याय
वाची हैं ।
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वसुदेवदेवक्यौ च कश्यपादिती।
तौच वरुणस्य गोहरणात् ब्रह्मणः शापेन गोपालत्वमापतुः।
यथाह (हरिवंश पुराण :- ५६ अध्याय )
“इत्यम्बुपतिना प्रोक्तो वरुणेनाहमच्युत!। गवां का-रणतत्त्वज्ञः कश्यपे शापमुत्सृजम्। येनांशेन हृता गावःकश्यपेन महात्मना। स तेनांशेन जगतीं गत्वा गोपत्व-मेष्यति। या च सा सुरभिर्नाम अदितिश्च सुरारणी। उभे ते तस्य वै भार्य्ये सह तेनैव (यास्यतः। ताभ्यांसह स गोपत्वे कश्यपो भुवि रंस्यते। तदस्य कश्यपस्यां-शस्तेजसा कश्यपोपमः वसुदेव इति ख्यातो गोषु ति-ष्ठति भूतले।
गिरिर्गोवर्द्धनो नाम मथुरायास्त्वदूरतः।
तत्रासौ गोष्वभिरतः कंसस्य करदायकः। तस्यभार्य्या-द्वयञ्चैव अदितिः सुरभिस्तथा।
देवकी रोहिणी चैववसुदेवस्य धीमतः। तत्रावतर लोकानां भवाय मधुसूदन !।
जयाशीर्वचनैस्त्वेते वर्द्धयन्ति दिवौकसः। आत्मानमात्मना हि त्वमवतार्य्य महीतले।
देवकीं रो-हिणीञ्चैव गर्भाभ्यां परितोषय।
तत्रत्वं शिशुरेवादौगोपालकृतलक्षणः।
वर्द्धयस्व महाबाहो! पुरा त्रैविक्रमेयथा॥ छादयित्वात्मनात्मानं मायया गोपरूपया।
गोपकन्यासहस्राणि रमयंश्चर मेदिनीम्।
गाश्च ते र-क्षिता विष्णो! वनानि परिधावतः। वनमालापरिक्षिप्तंधन्या द्रक्ष्यन्ति ते वपुः।
विष्णो! पद्मपलाशाक्ष!
गोपाल-वसतिङ्गते। बाले त्वयि महाबाहो।
लोको बालत्व-मेष्यति। त्वद्भक्ताः पुण्डरीकाक्ष!
तव चित्तवशानुगाः।
गोषु गोपा भविष्यन्ति सहायाः सततन्तव। वने चार-यतो गास्तु गोष्ठेषु परिधावतः।
मज्जतो यमुनायान्तुरतिमाप्स्यन्ति ते भृशम्। जीवितं वसुदेवस्य भविष्यतिसुजीवितम्।
यस्त्वया तात इत्युक्तः स पुत्र इति वक्ष्यति।
अथ वा कस्यं पुत्रत्वं गच्छेथाः कश्यपादृते।
का वा धारयितुं शक्ता विष्णो! त्वामदितिं विना।
योगेनात्मसमुत्थेन गच्छत्व विजयाय वै” इति विष्णुं प्रतिब्रह्मोक्तिः।
ताभ्यां तस्योत्पत्तिकथा च तत्र .........
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हे अच्यत् ! वरुण ने कश्यप को पृथ्वी पर वसुदेव के रूप में गोप (अहीर)होकर जन्म लेने का शाप दे दिया ।
महाभारत के खिल-भाग हरिवंश पुराण में वसुदेव को गोप ही कहा गया है।
और कृष्ण का जन्म भी गोप (आभीर) जन-जाति में हुआ था; एेसा वर्णन है ।
प्रथम दृष्ट्या तो ये देखें-- कि वसुदेव को गोप कहा है।
यहाँ हिन्दी अनुवाद भी प्रस्तुत किया जाता है ।
"इति अम्बुपतिना प्रोक्तो वरुणेनाहमच्युत ।
गावां कारणत्वज्ञ:कश्यपे शापमुत्सृजन् ।२१
येनांशेन हृता गाव: कश्यपेन महर्षिणा ।
स तेन अंशेन जगतीं गत्वा गोपत्वमेष्यति।२२
द्या च सा सुरभिर्नाम अदितिश्च सुरारिण:
ते८प्यमे तस्य भार्ये वै तेनैव सह यास्यत:।।२३
ताभ्यां च सह गोपत्वे कश्यपो भुवि संस्यते।
स तस्य कश्यस्यांशस्तेजसा कश्यपोपम: ।२४
वसुदेव इति ख्यातो गोषु तिष्ठति भूतले ।
गिरिगोवर्धनो नाम मथुरायास्त्वदूरत: ।२५।
तत्रासौ गौषु निरत: कंसस्य कर दायक:।
तस्य भार्याद्वयं जातमदिति सुरभिश्च ते ।२६।
देवकी रोहिणी देवी चादितिर्देवकी त्यभृत् ।२७।
सतेनांशेन जगतीं गत्वा गोपत्वं एष्यति।
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गीता प्रेस गोरखपुर की हरिवंश पुराण 'की कृति में
श्लोक संख्या क्रमश: 32,33,34,35,36,37,तथा 38 पर देखें--- अनुवादक पं० श्री राम नारायण दत्त शास्त्री पाण्डेय "राम" "ब्रह्मा जी का वचन " नामक 55 वाँ अध्याय।
अनुवादित रूप :-हे विष्णु ! महात्मा वरुण के ऐसे वचनों को सुनकर तथा इस सन्दर्भ में समस्त ज्ञान प्राप्त करके भगवान ब्रह्मा ने कश्यप को शाप दे दिया और कहा
।२१। कि हे कश्यप अापने अपने जिस तेज से प्रभावित होकर उन गायों का अपहरण किया ।
उसी पाप के प्रभाव-वश होकर भूमण्डल पर तुम अहीरों (गोपों)का जन्म धारण करें ।२२।
तथा दौनों देव माता अदिति और सुरभि तुम्हारी पत्नीयाें के रूप में पृथ्वी पर तुम्हरे साथ जन्म धारण करेंगी।२३।
इस पृथ्वी पर अहीरों ( ग्वालों ) का जन्म धारण कर महर्षि कश्यप दौनों पत्नीयाें अदिति और सुरभि सहित आनन्द पूर्वक जीवन यापन करते रहेंगे ।
हे राजन् वही कश्यप वर्तमान समय में वसुदेव गोप के नाम से प्रसिद्ध होकर पृथ्वी पर गायों की सेवा करते हुए जीवन यापन करते हैं।
मथुरा के ही समीप गोवर्धन पर्वत है; उसी पर पापी कंस के अधीन होकर वसुदेव गोकुल पर राज्य कर रहे हैं।
कश्यप की दौनों पत्नीयाें अदिति और सुरभि ही क्रमश: देवकी और रोहिणी के नाम से अवतीर्ण हुई हैं
२४-२७।(उद्धृत सन्दर्भ --)
पितामह ब्रह्मा की योजना नामक ३२वाँ अध्याय पृष्ठ संख्या २३० अनुवादक -- पं० श्रीराम शर्मा आचार्य " ख्वाजा कुतुब संस्कृति संस्थान वेद नगर बरेली संस्करण)
अब कृष्ण को भी गोपों के घर में जन्म लेने वाला बताया है ।
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गोप अयनं य: कुरुते जगत: सार्वलौकिकम् ।
स कथं गां गतो देशे विष्णुर्गोपर्त्वमागत: ।।९।
अर्थात्:-जो प्रभु भूतल के सब जीवों की
रक्षा करनें में समर्थ है ।
वे ही प्रभु विष्णु इस भूतल पर आकर गोप (आभीर) क्यों हुए ? ।९।
हरिवंश पुराण "वराह ,नृसिंह आदि अवतार नामक १९ वाँ अध्याय पृष्ठ संख्या १४४ (ख्वाजा कुतुब वेद नगर बरेली संस्करण)
सम्पादक पण्डित श्री राम शर्मा आचार्य .
गीता प्रेस गोरखपुर की हरिवंश पुराण की कृति में वराहोत्पत्ति वर्णन " नामक पाठ चालीसवाँ अध्याय
इतना कुुछ शास्त्रीय प्रमाण होने को बावजूद भी
रूढ़ि वादी लोग चिल्ला चिल्ला कर कहते रहते हैं कि
अहीरों को बुद्धि 12 बजे आती है ।
इतना ही नहीं अहीरों के सीधेपन को मूर्खता सहन शीलता को कमजोरी समझ कर इनका उपहास उड़ाने वाले भी समाज में चौराहे चौराहे पर खड़े मिल- जाते हैं
नि:सन्देह जिस यदु वंश में गायत्री सदृश्या ज्ञान की अधिष्ठात्री देवी का जन्म नरेन्द्र सेन अहीर के घर में हुआ हो । और उन्हीं अहीरों के समाज में कृष्ण का जन्म हुआ हो ।
फिर अहीरों को मूर्खों की उपाधियाँ क्यों दी गयी ?
अहीरों को पृथ्वी पर ईश्वरीय शक्तियाँ का रूप माना गया है ।
समस्त ब्राह्मणों की साधनाऐं गायत्री अहीरों की कन्या को प्रसन्न करने के लिए हैं ।
परन्तु अहीरों को द्वेष की दृष्टि से ब्राह्मण समाज द्वारा शूद्र अथवा दस्यु कहना कहाँ तक संगत है ?
पृष्ठ संख्या (182) श्लोक संख्या (12)अब निश्चित रूप से आभीर और गोप परस्पर पर्याय वाची रूप हैं। यह शास्त्रीय पद्धति से प्रमाणित भी है ।
गो-पालन यदु वंश की परम्परागत वृत्ति ( कार्य ) होने से ही भारतीय इतिहास में यादवों को गोप ( गो- पालन करने वाला ) कहा गया है ।
वैदिक काल में ही यदु को दास सम्बोधन के द्वारा असुर संस्कृति से सम्बद्ध मानकर ब्राह्मणों की अवैध वर्ण-व्यवस्था ने शूद्र श्रेणि में परिगणित किया गया था ।
यदु की गोप वृत्ति को प्रमाणित करने के लिए ऋग्वेद की ये ऋचा सम्यक् रूप से प्रमाण है ।
" उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।
(ऋ०10/62/10)
अर्थात् यदु और तुर्वसु नामक दौनों दास गायों से घिरे हुए हैं ; गो-पालन शक्ति के द्वारा सौभाग्य शाली हैं हम उनका वर्णन करते हैं । (ऋ०10/62/10/)
विशेष:- व्याकरणीय विश्लेषण - उपर्युक्त ऋचा में दासा शब्द प्रथमा विभक्ति के अन्य पुरुष का द्विवचन रूप है ।
क्योंकि वैदिक भाषा ( छान्दस् ) में प्राप्त दासा द्विवचन का रूप पाणिनीय द्वारा संस्कारित भाषा लौकिक संस्कृत में दासौ रूप में है ।
परिविषे:-परित: चारौ तरफ से व्याप्त ( घिरे हुए)
स्मद्दिष्टी स्मत् + दिष्टी सौभाग्य शाली अथवा अच्छे समय वाले द्विवचन रूप ।
गोपर् +ईनसा सन्धि संक्रमण रूप गोपरीणसा :- गो पालन की शक्ति के द्वारा ।
गोप: ईनसा का सन्धि संक्रमण रूप हुआ गोपरीणसा
जिसका अर्थ है शक्ति को द्वारा गायों का पालन करने वाला । अथवा गो परिणसा गायों से घिरा हुआ
यदु: तुर्वसु: च :- यदु और तुर्वसु दौनो द्वन्द्व सामासिक रूप ।
मामहे :- मह् धातु का उत्तम पुरुष आत्मने पदीय बहुवचन रूप अर्थात् हम सब वर्णन करते हैं ।
अब हम इस तथ्य की विस्तृत व्याख्या करते हैं ।
देव संस्कृति के विरोधी दास अथवा असुरों की प्रशंसा असंगत बात है ;
ऋग्वेद के प्राय: ऋचाओं में यदु और तुर्वसु का वर्णन नकारात्मक रूप में ही हुआ है !
दास शब्द ईरानी भाषाओं में दाहे शब्द के रूप में विकसित है । ---जो एक ईरानी असुर संस्कृति से सम्बद्ध जन-जाति का वाचक है । ---जो वर्तमान में दाहिस्तान Dagestan को आबाद करने वाले हैं ।
दाहिस्तान Dagestan वर्तमान रूस तथा तुर्कमेनिस्तान की भौगोलिक सीमाओं में है ।
दास अथवा दाहे जन-जाति सेमेटिक शाखा की असीरियन (असुर) जन जातियों से निकली हुईं हैं ।
यहूदी और असीरियन दौनों सेमेटिक शाखा से सम्बद्ध हैं ।
दास जन-जाति के विषय में ऐतिहासिक विवरण निम्न है ।
The Dahae (दाहे) , also known as the Daae, Dahas(दहास) or Dahaeans
(Latin: Dahae; Ancient Greek: Δάοι, Δάαι, Δαι, Δάσαι Dáoi, Dáai, Dai, Dasai; Sanskrit: Dasa; Chinese Dayi 大益)
were a people of ancient Central Asia.
A confederation of three tribes – the Parni पणि , Xanthii जन्थी and Pissuri पिसूरी
– the Dahae lived in an area now comprising much of modern Turkmenistan तुर्कमेनिस्तान .
The area has consequently been known as Dahestan, Dahistan and Dihistan.
दाहेस्तान ,दाहिस्तान , दिहिस्तान ।
present-day Turkmenistan
Branches
Parni, Xanthii and Pissuri
Relatively little is known about their way of life. For example, according to the Iranologist
A. D. H. Bivar, the capital of "the ancient Dahae (if indeed they possessed one) is quite unknown."
The Dahae dissolved, apparently, some time before the beginning of the 1st millennium. One of the three tribes of the Dahae confederation, the Parni, emigrated to Parthia (पार्थियन ---जो आधुनिक समय में उत्तर पूर्वीईरान है ।)
(present-day north-eastern Iran),
where they founded the Arsacid dynasty.
Origins---
The Dahae may be connected to the Dasas ( Sanskrit दास Dāsa),
mentioned in ancient Hindu texts such as the Rigveda as enemies of the follower of dev Culture .
The proper noun Dasa appears to share the same root as the Sanskrit dasyu (दस्यु ), meaning "hostile people" or "demons
" The person --- who revolts against the stoic plaintiffs and the injustice of complete social mischief. He was called a Dacoit दस्यु ( bandit) .
अर्थात् वह व्यक्ति जो रूढ़ि वादी तथा अन्याय पूर्ण सामाजिक दुर्व्यवस्थाओं के विरुद्ध विद्रोह करता हो । वह दस्यु कहा जाता था
(as well as the Avestan dax́iiu and Old Persian dahyu or dahạyu, meaning "province" or "mass of people").
Because of these pejorative implications, a tribe called the Dāhī
– mentioned in Avestan sources
यश्त (Yašt 13.144) as adhering to Zoroastrianism is not generally identified with the Dahae.
Conversely the Khotanese word daha- meaning "man" or "male" was linked to the Dahae by the Indologist Sten Konow (1912). This appears to be cognate with nouns in other Eastern Iranian languages, such as a Persian word for
"servant", dāh and the Sogdian dʾyh or dʾy, meaning "slave woman".
Some scholars also maintain that there were etymological links between the Dahae and Dacians (Dacii), a people of ancient Eastern Europe.
Both were nomadic Indo-European peoples who shared variant names such as Daoi. David Gordon White, an Indologist and historian of religion,
has reiterated a point made by previous scholars – that the names of both peoples resemble the Proto-Indo-European root: *
dhau meaning "strangle" and/or a euphemism for "wolf". (Similarly, the Massagetae, the northern neighbors of the Dahae, have been linked to the जेटिया Getae, a people related to the Dacians)
The country neighbouring the Dahae to the south, Verkāna often known by its Greek name, Hyrcania (Ὑρκανία) has sometimes been conflated with Dahistan. Like Dahae and Dacia,
Verkâna appears to have a root in an Indo-European word for "wolf", the Proto-Iranian: *vrka वृक .
The name of Sadrakarta (later Zadracarta), the capital of Verkâna, apparently has the same etymological roots, and may be synonymous with one of two modern cities in Iran:
Sari or Gorgan.
(The modern name Gorgan is also derived ultimately from the Proto-Iranian *vrka for "wolf" and is cognate with the New Persian gorgān (i.e. v > g).
History---
Berossus's biography of Cyrus the Great (c. 589–530 BCE) claims that he was killed by the Dahae near the Syr Darya (सरयू नदी ) (Jaxartes)
river (modern Uzbekistan/Kazakhstan) Later sources, such as Alexander the Great and Strabo also claimed that some of the Dahae were located near the Jaxartes.
The Encyclopedia Iranica considers that the Dahae "were said to have lived in ... wastes northeast of Bactria and east of Sogdiana.
At least some of the Dahae must thus be placed along the eastern fringes of the Karakum desert, near ancient Margiana..."
This suggests that elements of the Dahae were near neighbours of a now-obscure Bronze Age civilisation known to archaeologists as the Bactria-Margiana Archaeological Complex (BMAC).
It is possible that the Dahae were confused in secondary accounts with a contemporaneous, possibly related people from Balkh (Bactria), who were known in ancient China as( Daxia) 大夏 (also Ta-Hsia, or Ta-Hia).
Whereas the Dahae were known in Chi...
दाहे, जिसे दाई, दाहस या दाहेन्स भी कहा जाता है (लैटिन: दाहे; प्राचीन ग्रीक: Δάοι, Δάαι, Δαι, Δάσαι दाओई, दाई, दाई, दासाई; संस्कृत: दासा; चीनी दयाई 大 益)ये प्राचीन मध्य एशिया में भी कुछ सुरों रहते थे।
तीन जनजातियों का एक संघ - पारनी, झांतिही और पिसुरी - दाहे एक ऐसेे क्षेत्र में रहते थे ; जिसमें आधुनिक तुर्कमेनिस्तान शामिल था।
इस क्षेत्र को फलस्वरूप डेस्टेन, दाहिस्तान और दहिस्तान के रूप में जाना जाता है ।
स्थान-
वर्तमान समय में तुर्कमेनिस्तान
शाखाओं के रूप में
पारनी, ज़ातिही (जाट )और पिसुरी
अपेक्षाकृत कम जीवन के अपने तरीके के बारे में जाना जाता है। उदाहरण के लिए, ईरानोलॉजिस्ट ईरानी धर्म-ग्रन्थ के विद्वान्- ए डी एच बिवार के अनुसार, "प्राचीन दाहे (यदि वास्तव में वे एक हैं) की राजधानी काफी अज्ञात है।"
दाह समुदाय स्पष्टत: 1 सहस्राब्दी की शुरुआत से कुछ समय पहले भंग हुआ था।
दहा संप्रदाय के तीन जनजातियों में से एक, पारनी, पार्थिया (वर्तमान-उत्तरी-पूर्वी ईरान) में आकर, जहां उन्होंने आरसैसिड राजवंश की स्थापना की।
मूल-
दाहे दास शब्द से जुड़ा हो सकता है।
(संस्कृत दास), प्राचीन हिंदू ग्रंथों में वर्णित है जैसे ऋग्वेद आर्य देव संस्कृति के अनुयायीयों के शत्रु के रूप में।
उचित संज्ञा दास संस्कृत दस्यु (dasyu), "शत्रुतापूर्ण लोगों का समुदाय " या "असुर " (साथ ही अवेस्तान daxiiu और पुरानी फारसी dahyu या dahạyu, अर्थात् "प्रान्त" या "लोगों के भीड़ " के रूप में एक ही जड़ साझा करने के लिए प्रतीत होता है)।
इन अपमानजनक प्रभावों के कारण, एक जनजाति जिसे दाह कहा जाता है - जो अवेस्तान स्रोतों (यश्त 13.144) में वर्णित है,
जो ज़ोरोस्ट्रियनवाद का पालन करते हैं - आमतौर पर दहे के साथ पहचाना नहीं जाता है।
अर्थात् ये असुर संस्कृति के अनुयायी ईरानी आर्यो से सम्बद्ध हैं ।
इसके विपरीत खोतानी (क्रोष्टा यदु का पुत्र )
उससे विकसित शब्द खोतान ।
दहा- जिसका अर्थ "मनुष्य" " को इंडियोलॉजिस्ट स्टेन कोनो (19 12) द्वारा दहे से जोड़ा गया था।
ऐसा लगता है कि यह अन्य पूर्वी ईरानी भाषाओं में संज्ञाओं के साथ संज्ञेय प्रतीत होता है, जैसे "नौकर सेवक ", दाह और सोग्डियन डीह या डी, जिसका अर्थ है "दास महिला"।
परन्तु यह परिवर्ती अर्थ व्यञ्जनाऐं हैं ।
कुछ विद्वान यह भी मानते हैं कि पूर्वी यूरोप के लोग दहे और दासियान (Dacian) (दासी) के बीच व्युत्पत्तियाँ साम्य रखता है।
दोनों भटकाने वाले इंडो-यूरोपीय लोग थे, जिन्होंने दाओई (दस्यु ) जैसे भिन्न नाम साझा किए थे धर्मविज्ञानी और धर्म के इतिहासकार डेविड गॉर्डन व्हाइट ने पिछले विद्वानों द्वारा किए गए एक बिंदु को दोहराया है !
- कि दोनों लोगों के नाम प्रोटो-इंडो-यूरोपीय रूट जैसा दिखते हैं: * दौह् का अर्थ "झुकाव" और / या "भेड़िया" के लिए एक उदारता है ।
परन्तु ये आनुमानिक रूप है ।
(इसी तरह, दहे के उत्तरी पड़ोसियों मसागेटे को दासियों से संबंधित लोगों गेटे (जाट )से जोड़ा गया है।)
जाटों में दाहिया गोत्र इस तथ्य की ओर संकेताक्षर---- करता है ।
इतिहास
साइरस द ग्रेट (सी। 58 9-530 ईसा पूर्व) की बेरॉसस की जीवनी का दावा है कि वह सीर दारिया(जैक्सर्त) नदी (आधुनिक उज़्बेकिस्तान / कज़ाखस्तान) के पास दहे द्वारा मारा गया था।
बाद के सूत्रों जैसे सिकंदर द ग्रेट और स्ट्रैबो ने दावा किया कि कुछ दास जेक्सर्ट्स के निकट स्थित थे। विश्वकोष ईरानिका मानता है ; कि दहेई " में रहने के लिए कहा जाता था ... बैक्ट्रिया के पूर्वोत्तर और सोगडिआना के पूर्व में बर्बाद हो जाता है।
कम से कम दहेई को प्राचीन मार्गियाना के पास, कराकुम रेगिस्तान के पूर्वी हिस्सों के साथ रखा जाना चाहिए .. "
इससे पता चलता है कि दहे के तत्व अब-अस्पष्ट कांस्य युग सभ्यता के पड़ोसियों के पास थे, जो पुरातत्वविदों को बैक्ट्रिया-मार्जियाना पुरातात्विक परिसर (बीएमएसी) के रूप में जाना जाता था।
यह संभव है कि दहे को माध्यमिक खातों में बल्क (बैक्ट्रिया) के समकालीन, संभावित रूप से संबंधित लोगों के साथ भ्रमित कर दिया गया, जो प्राचीन चीन में डैक्सिया 大 夏 (ता तासिया, या दाहिया) के रूप में भी जाने जाते थे।
जबकि दाई को ची में जाना जाता था ।
यदु और तुर्वसु दौनों का वैदिक साहित्य में साथ साथ वर्णन मिलता है । परन्तु असुर (असीरियन) रूपों में ।
देखें--- ऋग्वेद को सप्तम मण्डल में नीचे -
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प्रियास इत् ते मघवन् अभीष्टौ
नरो मदेम शरणे सखाय:।
नि तुर्वशं नि यादवं शिशीहि
अतिथिग्वाय शंस्यं करिष्यन् ।।
(ऋग्वेद ७/१९/८ ) में भी यही ऋचा
अथर्ववेद में भी (काण्ड २० /अध्याय ५/ सूक्त ३७/ ऋचा ७) हे इन्द्र ! हम तुम्हारे मित्र रूप यजमान
अपने घर में प्रसन्नता से रहें; तथा
तुम अतिथिगु को सुख प्रदान करो ।
और तुम तुर्वसु और यादवों को क्षीण करने वाले बनो। अर्थात् उन्हें परास्त करने वाले बनो !
(ऋग्वेद ७/१९/८) ऋग्वेद में भी यथावत् यही ऋचा है ; इसका अर्थ भी देखें :- हे ! इन्द्र तुम अतिथि की सेवा करने वाले सुदास को सुखी करो ।
और तुर्वसु और यदु को हमारे अधीन करो ।
और भी देखें यदु और तुर्वसु के प्रति पुरोहितों की दुर्भावना अर्वाचीन नहीं अपितु प्राचीनत्तमभी है देखें---अया वीति परिस्रव यस्त इन्दो मदेष्वा ।
अवाहन् नवतीर्नव ।१। पुर: सद्य इत्थाधिये दिवोदासाय शम्बरं अध त्यं तुर्वशुं यदुम् ।२।
(ऋग्वेद ७/९/६१/ की ऋचा १-२)
हे सोम ! तुम्हारे किस रस ने दासों के निन्यानवे पुरों अर्थात् नगरों) को तोड़ा था।उसी रस से युक्त होकर तुम इन्द्र के पीने के लिए प्रवाहित हो जाओ। १।
शम्बर के नगरों को तोड़ने वाले ! सोम रस ने ही तुर्वसु की सन्तान तुर्को तथा यदु की सन्तान यादवों (यहूदीयों ) को शासन (वश) में किया ।
यदु को ही ईरानी पुरातन कथाओं में यहुदह् कहा
जो ईरानी तथा बैबीलॉनियन संस्कृतियों से सम्बद्ध साम के वंशज-असीरियन जन-जाति के सहवर्ती यहूदी थे।
असुर तथा यहूदी दौनो साम के वंशज हैं
भारतीय पुराणों में साम के स्थान पर सोम हो गया ।
क्योंकि सूर्य और चन्द्र के सन्तानें होना मूर्खों की कल्पनाऐं हैं। यादव सेमेटिक जन-जाति से सम्बद्ध हैं ।
ये असीरियन (असुर) जन-जाति के सहवर्ती तथा उनकी शाखा के लोग हैं ।
असुरों का वर्णन भारतीय पुराणों में केवल पूर्व-दुराग्रहों से ग्रसित होकर नकारात्मक रूप में किया है । परन्तु वेदों में तथा पारसीयों के धर्म-ग्रन्थ अवेस्ता ए जैन्द में असुर का अर्थ उच्चत्तम प्राण शक्ति से सम्पन्न अहुर मज्दा ( असुर महत्) के लिए है ।
और अवेस्ता ए जैन्द में देव शब्द दएव के रूप में है जिसका अर्थ है दुष्ट अथवा धूर्त ।
daeva (daēuua, daāua, daēva) एक विशेष प्रकार की अलौकिक इकाई के लिए नामित अविवेकी विशेषताओं से युक्त दुष्ट आत्माऐं ।
दएव एक अवेस्तन भाषा का शब्द है ।
अवेस्ता पारसी सिद्धांत का सबसे पुराना ग्रंथ, देव "गलत शक्ति", "झूँठी ईश्वरीय शक्तियाँ " या "देवता जो खारिज किए गए हैं" यह अर्थ है - व्याख्या के अधीन - शायद 5 वीं शताब्दी ईसा पूर्व के पुराने फारसी " दाइवा से साम्य शिलालेख " में भी स्पष्ट है।
नवीन अवेस्ता में, देवस् हानिकारक जीव हैं जो अराजकता और विकार को बढ़ावा देते हैं।
बाद की परम्पराओं और लोककथाओं में, देव (जोरोस्ट्रीय मध्य फारसी, तथा नयी फारसी में दिविस्) हर कल्पनीय बुराई के व्यक्तित्व हैं।
ईरानी भाषा के शब्द देव, को भारतीय धर्मों के देवों के साथ भ्रमित नहीं होना चाहिए। जबकि वैदिक आत्माओं के लिए शब्द और पारसी संस्थाओं के लिए शब्द व्युत्पत्ति सम्बन्ध है उनके कार्य और विषयगत विकास एकदम अलग है।
सायद ईरानी असुर संस्कृति से सम्बद्ध हुए और भारतीय देव संस्कृति से सम्बद्ध हुए ।
एक बार व्यापक विचार है कि ईरानियाई देवता और भारतीय देवता (और अहुर बनाम असुर ) के सामरिक विभिन्न कार्यों ने भूमिकाओं के प्रागैतिहासिक उलट का प्रतिनिधित्व किया है, निश्चित रूप से यह सांस्कृतिक युद्ध था ।
अब 21 वीं सदी के शैक्षणिक व्याख्यान (विवरण के लिए वैदिक उपयोग की तुलना में) में इसका पालन नहीं किया गया है।
ईरानी भाषाओं में अवेस्तन देव के समकक्षों में पश्तो, बलूची, कुर्दिश दैव, फारसी दीव / देवव शामिल हैं, जो सभी और अन्य खलनायकों पर लागू होते हैं।
ईरानी शब्द ओल्ड आर्मेनियन में ओस के रूप में उधार लिया गया था, जॉर्जियाई देवसी के रूप में, और उर्दू के रूप में देव, उन भाषाओं में उसी नकारात्मक संगठनों के साथ इनका प्रयोग है ।
अंग्रेजी में, शब्द डेव, डिव, देवव के रूप में प्रकट होता है, और विलियम थॉमस बेकफोर्ड के 18 वीं शताब्दी के फन्तासी उपन्यासों में गोता लगाना होता है।
अत: यहीं से देव संस्कृति और असुर संस्कृति परस्पर विरोधी रूप में उदय हुईं ।
यादवों का सम्बन्ध असुर संस्कृति से है । देव संस्कृति से नहीं ।
यास्ना 32.8 ने नोट किया कि ज़ोरोस्टर के कुछ अनुयायियों ने पहले देव के अनुयायी थे; हालांकि, डेव स्पष्ट रूप से बुरे के साथ पहचाने गए हैं
(उदा।, Yasna 32.5)
गठ्ठों में, दोषों को समझदार सत्य (आशा) के झूठ से (डरजेस) असमर्थ होने का आरोप लगाया गया है।
वे परिणामस्वरूप "त्रुटि" (aēnah-) में हैं, लेकिन उन्हें कभी-कभी "झूठ के लोगों" के रूप में पहचाना नहीं गया है। इस अस्पष्टता से निकाला गया निष्कर्ष यह है कि, उस समय गठों को लिखा गया था, "इन देवताओं के अस्वीकृति, अस्वीकृति या विध्वंस की प्रक्रिया केवल शुरुआत थी, लेकिन, क्योंकि सबूत अंतराल और अस्पष्टताओं से भरे हुए हैं, यह इंप्रेशन हो सकता है गलत हो "।
यसन्ना 32.4 में, दीववास का उपयोग विशीद द्वारा सम्मानित किया जाता है, जिसे "झूठे पुजारियों" के एक वर्ग के रूप में वर्णित किया गया है, जो मन और हृदय की भलाई से रहित है, और पशुओं और पशुपालन (यस्ना 32.10-11, 44.20) के प्रति शत्रुतापूर्ण है। उन्होंने जो डेवस का पालन किया है, वह कहते हैं, "यूसिज को पृथ्वी के सातवें क्षेत्र में उर्फ मेन्यू, ड्रूज और अहंकार के वंश के रूप में जाना जाता है।"
(यस्ना 32.3) " ।
यसन्ना 30.6 बताता है कि देव-पूजा करने वाले पुजारियों ने जोरोस्टर के साथ अक्सर बहस की,
लेकिन उसे मनाने में वे सभी असफल रहे ।
In the Gathas, the oldest texts of Zoroastrianism and credited to Zoroaster himself, the daevas are not yet the demons that they would become in later Zoroastrianism; though their rejection is notable in the Gathas themselves. The Gathas speak of the daevas as a group, and do not mention individual daevas by name.
In these ancient texts, the term daevas (also spelled 'daēuuas') occurs 19 times; wherein daevas are a distinct category of "quite genuine gods, who had, however, been rejected". In Yasna 32.3 and 46.1, the daevas are still worshipped by the Iranian peoples.
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Yasna 32.8 notes that some of the followers of Zoroaster had previously been followers of the daevas; though, the daevas are clearly identified with evil (e.g., Yasna 32.5).
In the Gathas, daevas are censured as being incapable of discerning truth (asha-) from falsehood (druj-). They are consequently in "error" (aēnah-), but are never identified as drəguuaṇt- "people of the lie". The conclusion drawn from such ambiguity is that, at the time the Gathas were composed, "the process of rejection, negation, or daemonization of these gods was only just beginning, but, as the evidence is full of gaps and ambiguities, this impression may be erroneous".
In Yasna 32.4, the daevas are revered by the Usij, described as a class of "false priests", devoid of goodness of mind and heart, and hostile to cattle and husbandry (Yasna 32.10-11, 44.20). Like the daevas that they follow, "the Usij are known throughout the seventh region of the earth as the offspring of aka mainyu, druj, and arrogance. (Yasna 32.3)".
Yasna 30.6 suggests the daeva-worshipping priests debated frequently with Zoroaster, but failed to persuade him.
In the Younger Avesta
In the Younger Avesta, the daevas are unambiguously hostile entities. In contrast, the word daevayasna- (literally, "one who sacrifices to daevas") denotes adherents of other religions and thus still preserves some semblance of the original meaning in that the daeva- prefix still denotes "other" gods. In Yasht 5.94 however, the daevayasna- are those who sacrifice to Anahita during the hours of darkness,
i.e., the hours when the daevas lurk about, and daevayasna- appears then to be an epithet applied to those who deviate from accepted practice and/or harvested religious disapproval.
The Vendidad, a contraction of vi-daevo-dāta, "given against the daevas", is a collection of late Avestan texts that deals almost exclusively with the daevas, or rather, their various manifestations and with ways to confound them. Vi.daeva- "rejecting the daevas" qualifies the faithful Zoroastrian with the same force as mazdayasna- ('Mazda worshiper').
In Vendidad 10.9 and 19.43, three divinities of the Vedic pantheon follow Angra Mainyu in a list of demons: Completely adapted to Iranian phonology, these are Indra (Vedic Indra), Sarva (Vedic Sarva, i.e. Rudra), and Nanghaithya (Vedic Nasatya). The process by which these three came to appear in the Avesta is uncertain. Together with three other daevas, Tauru, Zairi and Nasu, that do not have Vedic equivalents, the six oppose the six Amesha Spentas.
Vendidad 19.1 and 19.44 have Angra Mainyu dwelling in the region of the daevas which the Vendidad sets in the north and/or the nether world (Vendidad 19.47, Yasht 15.43), a world of darkness. In Vendidad 19.1 and 19.43-44, Angra Mainyu is the daevanam daevo, "daeva of daevas" or chief of the daevas. The superlative daevo.taema is however assigned to the demon Paitisha ("opponent"). In an enumeration of the daevas in Vendidad 1.43, Angra Mainyu appears first and Paitisha appears last. "Nowhere is Angra Mainyu said to be the creator of the daevas or their father."
The Vendidad is usually recited after nightfall since the last part of the day is considered to be the time of the demons. Because the Vendidad is the means to disable them, this text is said to be effective only when recited between sunset and sunrise.
गाथाओं में, पारसी धर्म के सबसे पुराना ग्रंथों और खुद को सर्वोच्च रूप में श्रेय दिया जाता है, देव अभी तक असुर नहीं हैं कि वे बाद के झरोस्तीवाद में शामिल होंगे; यद्यपि उनकी अस्वीकृति गाथा में स्वयं उल्लेखनीय है गत एक समूह के रूप में देवस की बात करते हैं, और नाम से व्यक्तिगत देव का उल्लेख नहीं करते हैं।
इन प्राचीन ग्रंथों में, देवस शब्द (भी वर्तनी 'दायसूस') 1 9 बार होता है; जिसमें देवस "काफी वास्तविक देवताओं की एक विशिष्ट श्रेणी है, जिन्हें, हालांकि, अस्वीकार कर दिया गया था"।
यसन्ना 32.3 और 46.1 में, देव अभी भी ईरान के लोगों द्वारा पूजा की जाती है।
Yasna 32.8 नोट्स कि जोरोस्टर के कुछ अनुयायी पहले से ही देव के अनुयायी थे; हालांकि, देव स्पष्ट रूप से बुरे के साथ पहचाने गए हैं
(उदा।, Yasna 32.5)
भारतीय पुराणों में देवताओं का नायक इन्द्र केवल कामी और व्यभिचारी के रूप में उपस्थित होता है ।
गठ्ठों में, दोषों को समझदार सत्य (आशा) के झूठ से (डरजेस) असमर्थ होने का आरोप लगाया गया है।
वे परिणामस्वरूप "त्रुटि" (aēnah-) में हैं, लेकिन उन्हें कभी-कभी "झूठ के लोगों" के रूप में पहचाना नहीं गया है। इस तरह की अस्पष्टता से निकाले गए निष्कर्ष यह है कि, जब गठ्ठ लिखा गया था, "इन देवताओं की अस्वीकृति, अस्वीकृति या दमनकारी प्रक्रिया सिर्फ शुरुआत थी, लेकिन, साक्ष्यों के अन्तराल और अस्पष्टता से भरा है, इस धारणा गलत हो "।
यसन्ना 32.4 में, दीववास का उपयोग विशीद द्वारा सम्मानित किया जाता है, जिसे "झूठे पुजारियों" के एक वर्ग के रूप में वर्णित किया गया है, जो मन और हृदय की भलाई से रहित है, और पशुओं और पशुपालन (यसना 32.10-11, 44.20) के प्रति शत्रुतापूर्ण है। उन्होंने जो डेवस का पालन किया है, वह कहते हैं, "यूसिज को पृथ्वी के सातवें क्षेत्र में उर्फ मेन्यू, ड्रूज और अहंकार के वंश के रूप में जाना जाता है।" (यसाना 32.3)
। यसन्ना 30.6 बताता है कि देव-पूजा करने वाले पुजारियों ने जोरोस्टर के साथ अक्सर बहस की, लेकिन उसे मनाने में असफल रहा।
नवीन अवेस्ता में, देवस निर्विवाद रूप से शत्रुतापूर्ण संस्थाएं हैं।
इसके विपरीत, देवयसन- (शब्दशः, "जो कि देवस के लिए बलिदान करता है")
दूसरे धर्मों के अनुयायियों को दर्शाता है और इस प्रकार अब भी मूल अर्थ के कुछ झलक को संरक्षित करता है जिसमें डेव-उपसर्ग अब भी "अन्य" देवताओं को दर्शाता है यश 5.94 में हालांकि, दैवस्य - वे हैं जो अंधेरे के समय अनहता से बलिदान करते हैं, यानी, जब घंटों के बारे में पता चलता है, और दैवसेन-तब प्रकट होता है, जो उन लोगों के लिए लागू होते हैं जो स्वीकार किए जाते हैं और / या कटा हुआ धार्मिक अस्वीकृति।
वेन्दीद 10.9 और 1 9 .3 3 में, वेदिक सर्वधर्मियों की तीन दैवीयताएं आंगरा मेन्यू के राक्षसों की सूची में हैं: पूरी तरह से ईरानी ध्वन्यात्मकता के लिए अनुकूल है, इन्हें इन्द्र (वैदिक इन्द्र), सर्व (वैदिक सर्व, अर्थात रूद्रा) और नन्घैथ्या (वैदिक नस्य्य) ।
प्रक्रिया जिसके द्वारा इन तीनों को अवेस्ता में उपस्थित किया गया था अनिश्चित है। तीन अन्य देवुस, टौरू, ज़ैरी और नसु के साथ मिलकर वेदिक समकक्ष नहीं होते, छह छः अम्मा स्पेन्टास का विरोध करते हैं
वेंडिडाड 1 9 .1 और 1 9 .44 में एन्ग्रा मैन्यु का निवास है जो डेव्स के क्षेत्र में स्थित है, जो उत्तर में और / या नीचे की दुनिया में स्थित है (वेंदीद 1 9 .47, यश 15.43), अंधेरे की दुनिया। वेंडिडाड में 1 9 .1 और 1 9 .43-44 में, अंगरा मेन्य ही देवयाम देवु है, "डेव ऑफ डेवस" या दाइव के प्रमुख हैं। हालांकि अतिमृत डीएओवो.टामा को दानव पातीषा ("प्रतिद्वंद्वी") को सौंपा गया है। वेंदीद 1.43 में डेवस के एक गणण में, आंगरा मेन्यु पहले दिखाई देता है और पतिषा का अंत अंतिम रूप है।
"कहीं भी अंगरा मेनु ने अपने पिता या देवता के निर्माता नहीं कहा है।"
वेंडिडाद आमतौर पर रात के बाद पढ़ा जाता है क्योंकि दिन के अंतिम भाग को राक्षसों का समय माना जाता है। क्योंकि वेन्दीदाद उन्हें निष्क्रिय करने का साधन है, यह पाठ केवल तब ही प्रभावी हो जाता है जब सूर्यास्त और सूर्योदय के बीच में पढ़ा जाता है
यादवों से घृणा रूढ़ि वादी ब्राह्मण समाज की अर्वाचीन (आजकल की ) ही नहीं अपितु चिर-प्रचीन है देखें- ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल में ये ऋचाऐं..
सत्यं तत् तुर्वशे यदौ विदानो अह्नवाय्यम् ।
व्यानट् तुर्वशे शमि । (ऋग्वेद ८/४६/२७
हे इन्द्र! तुमने यादवों के प्रचण्ड कर्मों को सत्य (अस्तित्व) में मान कर संग्राम में अह्नवाय्यम् को प्राप्त कर डाला ;अर्थात् उनका हनन कर डाला ।
अह्नवाय्य :- ह्नु--बा० आय्य न० त० ।
निह्नवाकर्त्तरि ।
“सत्यं तत्तुर्वशे यदौ विदानो अह्नवाय्यम्” ऋ० ८, ४५, २७ अथर्ववेद तथा ऋग्वेद में यही ऋचांश बहुतायत से है
किम् अंगत्वा मघवन् भोजं आहु: शिशीहि मा शिशयं त्वां श्रृणोमि ।।
अथर्ववेद का० २०/७/ ८९/३/
हे इन्द्र तुम भोग करने वाले हो ।
तुम शत्रु को क्षीण करने वाले हो ।
तुम मुझे क्षीण न करो
यदु को दास अथवा असुर कहना सिद्ध करता है कि ये असीरियन जन-जाति से सम्बद्ध सेमेटिक यहूदी यों के पूर्वज यहुदह् ही थे ।
यद्यपि यदु और यहुदह् शब्द की व्युत्पत्तियाँ समान है ।
अर्थात् यज्ञ अथवा स्तुति से सम्बद्ध व्यक्ति ।
यहूदीयों का सम्बन्ध ईरान तथा बेबीलोन से भी रहा है ।
ईरानी असुर संस्कृति में दाहे शब्द दाहिस्तान के सेमेटिक मूल के व्यक्तियों का वाचक है।
यदु एेसे स्थान पर रहते थे;जहाँ ऊँटो का बाहुल्य था
ऊँट उष्ण स्थान पर रहने वाला पशु है ।
यह स्था (उष + ष्ट्रन् किच्च )
ऊषरे तिष्ठति इति उष्ट्र (ऊषर अर्थात् मरुस्थल मे रहने से ऊँट संज्ञा )।
(ऊँट) प्रसिद्धे पशुभेदे स्त्रियां जातित्त्वात् ङीष् । “हस्तिगोऽश्वोष्ट्रदमकोनक्षत्रैर्यश्च जीवति” “नाधीयीताश्वमारूढ़ो न रथं न च हस्तिनम्
देखें-ऋग्वेद में शतमहं तिरिन्दरे सहस्रं वर्शावा ददे
राधांसि यादवानाम्
त्रीणि शतान्यर्वतां सहस्रा दश गोनाम् ददुष्पज्राय साम्ने ४६।
उदानट् ककुहो दिवम् उष्ट्रञ्चतुर्युजो ददत् ।
श्रवसा यादवं जनम् ।४८।१७।
यदु वंशीयों में परशु के पुत्र तिरिन्दर से सहस्र संख्यक धन मैने प्राप्त किया !
ऋग्वेद ८/६/४६
इन वर्णों मे यदु को क्षत्रिय नहीं कहा गया
तो फिर यदुवंशी कब से क्षत्रिय हो गये ।
ऋग्वेद के 7,8,तथा 10 वें मण्डलों में यदु को क्षत्रिय रूप में तो वर्णित किया नहीं अपितु शूद्र , असुर , तथा दस्यु प्रवृत्तियों वाला वर्णित किया है ।
कहीं भी सम्मान सहित वर्णित नहीं किया है ।
इतना ही नहीं कृष्ण को भी ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल में असुर अर्थात् अदेव रूप में वर्णन है ।
यह तथ्य भी प्रमाणित ही है ; कि ऋग्वेद का रचना काल ई०पू० १५०० के समकक्ष है ।
ऋग्वेद में कृष्ण को इन्द्र से युद्ध करने वाला एक अदेव ( असुर) के रूप में वर्णन किया गया है।
जो यमुना नदी ( अंशुमती नदी) के तट पर गोवर्धन पर्वत की उपत्यका में रह कर गायें चराता है ।
अर्थात् ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल के सूक्त संख्या 96 के श्लोक
13, 14,15, पर असुर अथवा दास कृष्ण का युद्ध इन्द्र से हुआ है ।
देखें--- प्रमाण:-
_______________________
" आवत् तमिन्द्र शच्या धमन्तमप स्नेहितीर्नृमणा अधत्त।
द्रप्सम पश्यं विषुणे चरन्तम् उपह्वरे नद्यो अंशुमत्या: न भो न कृष्णं अवतस्थि वांसम् इष्यामि।।
वो वृषणो युध्य ताजौ ।।१४।।
अध द्रप्सो अंशुमत्या उपस्थे८धारयत् तन्वं तित्विषाण: विशो अदेवीरभ्या (अदेव ईरभ्यां) चरन्तीर्बृहस्पतिना
युज इन्द्र: ससाहे ।। १५।।
अर्थात् कृष्ण नामक असुर अंशुमती अर्थात् यमुना नदी के तटों पर दश हजार गोपों के साथ निवास करता है ,उसे अपनी बुद्धि-बल से इन्द्र ने खोज लिया है !
और उसकी सम्पूर्ण सेना (गोप मण्डली) को इन्द्र ने नष्ट कर दिया है ।
आगे इन्द्र कहता है :--कृष्ण को मैंने देख लिया है ,जो यमुना नदी के एकान्त स्थानों पर घूमता रहता है ।
यहाँ कृष्ण के लिए अदेव विशेषण है अर्थात् जो देव नहीं है ! वेदों तथा पुराणों में यादवों को असुर (असीरियन) जन जातियों से सम्बद्ध माना गया है ।
"कृष्ण के पूर्वज यदु को वेदों में पहले ही शूद्र घोषित कर दिया " तो कृष्ण भी शूद्र हुए ऋग्वेद में तो कृष्ण को असुर कहा ही है ।
क्योंकि वैदिक सन्दर्भों में जो दास अथवा असुर कहे गये हैं लौकिक संस्कृत में उन्हें शूद्र कहा गया है।
मनु-स्मृति का यह श्लोक इस तथ्य को प्रमाणित करता है ।
शर्मा देवश्च विप्रस्य वर्मा त्राता भूभुज:
भूतिर्दत्तश्च वैश्यस्य दास शूद्रस्य कारयेत् ।।
अर्थात् विप्र (ब्राह्मण) के वाचक शब्द शर्मा तथा देव हों, तथा क्षत्रिय के वाचक वर्मा तथा त्राता हों ।
और वैश्य के वाचक भूति अथवा दत्त हों तथा दास शब्द शूद्र का वाचक हो।
स्पष्टत: ऋग्वेद के 10/62/10 में यदु और तुर्वसु को दास और गायों से घिरा हुए गोप के रूप में वर्णित किया है।
गोपों को ब्राह्मणों की अवैध वर्ण -व्यवस्था के अन्तर्गत शूद्रों को रूप में वर्णन किया गया है ।
क्योंकि यदु को ऋग्वेद में दास और गोप दौनों भाव सम्पूरक विशेषणों से सम्बोधित किया गया है ।
स्मृति-ग्रन्थों में गोप शूद्र श्रेणि में वर्णित हैं ।
अब महाभारत के खिल-भाग हरिवंश पुराण में नन्द को ही नहीं अपितु वसुदेव को भी गोप ही कहा गया है।
और कृष्ण का जन्म भी गोप (आभीर) जन-जाति के घर (अयन)में हुआ था; एेसा वर्णन है ।
प्रथम दृष्ट्या तो ये देखें-- कि वसुदेव को गोप कहाँ कहा है
"इति अम्बुपतिना प्रोक्तो वरुणेनाहमच्युत ।
गावां कारणत्वज्ञ:कश्यपे शापमुत्सृजन् ।२१
येनांशेन हृता गाव: कश्यपेन महर्षिणा ।
स तेन अंशेन जगतीं गत्वा गोपत्वमेष्यति।२२
द्या च सा सुरभिर्नाम अदितिश्च सुरारिण:
ते८प्यमे तस्य भार्ये वै तेनैव सह यास्यत:।।२३
ताभ्यां च सह गोपत्वे कश्यपो भुवि संस्यते।
स तस्य कश्यस्यांशस्तेजसा कश्यपोपम: ।२४
वसुदेव इति ख्यातो गोषु तिष्ठति भूतले ।
गिरिगोवर्धनो नाम मथुरायास्त्वदूरत: ।२५।
तत्रासौ गौषु निरत: कंसस्य कर दायक:।
तस्य भार्याद्वयं जातमदिति सुरभिश्च ते ।२६।
देवकी रोहिणी देवी चादितिर्देवकी त्यभृत् ।२७।
सतेनांशेन जगतीं गत्वा गोपत्वं एष्यति।
गीता प्रेस गोरखपुर की हरिवंश पुराण 'की कृति में
श्लोक संख्या क्रमश: 32, 33, 34, 35, 36, 37,तथा 38, पर देखें--- अनुवादक पं० श्री राम नारायण दत्त शास्त्री पाण्डेय "राम" "ब्रह्मा जी का वचन " नामक 55 वाँ अध्याय।
अनुवादित रूप :-हे विष्णु ! महात्मा वरुण के ऐसे वचनों को सुनकर तथा इस सन्दर्भ में समस्त ज्ञान प्राप्त करके भगवान ब्रह्मा ने कश्यप को शाप दे दिया और कहा
।२१। कि हे कश्यप अापने अपने जिस तेज से प्रभावित होकर उन गायों का अपहरण किया ।
उसी पाप के प्रभाव-वश होकर भूमण्डल पर तुम अहीरों (गोपों)का जन्म धारण करें ।२२।
तथा दौनों देव माता अदिति और सुरभि तुम्हारी पत्नीयाें के रूप में पृथ्वी पर तुम्हरे साथ जन्म धारण करेंगी।२३।
इस पृथ्वी पर अहीरों ( ग्वालों ) का जन्म धारण कर महर्षि कश्यप दौनों पत्नीयाें अदिति और सुरभि सहित आनन्द पूर्वक जीवन यापन करते रहेंगे ।
हे राजन् वही कश्यप वर्तमान समय में वसुदेव गोप के नाम से प्रसिद्ध होकर पृथ्वी पर गायों की सेवा करते हुए जीवन यापन करते हैं।
मथुरा के ही समीप गोवर्धन पर्वत है; उसी पर पापी कंस के अधीन होकर वसुदेव गोकुल पर राज्य कर रहे हैं।
कश्यप की दौनों पत्नीयाें अदिति और सुरभि ही क्रमश: देवकी और रोहिणी के नाम से अवतीर्ण हुई हैं
२४-२७।(उद्धृत सन्दर्भ --)
पितामह ब्रह्मा की योजना नामक ३२वाँ अध्याय पृष्ठ संख्या २३० अनुवादक -- पं० श्रीराम शर्मा आचार्य " ख्वाजा कुतुब संस्कृति संस्थान वेद नगर बरेली संस्करण)
अब कृष्ण को भी गोपों के घर में जन्म लेने वाला बताया है ।
गोप अयनं य: कुरुते जगत: सार्वलौकिकम् ।
स कथं गां गतो देशे विष्णुर्गोपर्त्वमागत: ।।9।
अर्थात्:-जो प्रभु भूतल के सब जीवों की
रक्षा करनें में समर्थ है ।
वे ही प्रभु विष्णु इस भूतल पर आकर गोप (आभीर) क्यों हुए ? ।9।
हरिवंश पुराण "वराह ,नृसिंह आदि अवतार नामक १९ वाँ अध्याय पृष्ठ संख्या १४४ (ख्वाजा कुतुब वेद नगर बरेली संस्करण)
सम्पादक पण्डित श्री राम शर्मा आचार्य .गीता प्रेस गोरखपुर की हरिवंश पुराण की कृति में वराहोत्पत्ति वर्णन " नामक पाठ चालीसवाँ अध्याय
पृष्ठ संख्या (182) श्लोक संख्या (12)अब निश्चित रूप से आभीर और गोप परस्पर पर्याय वाची रूप हैं। यह शास्त्रीय पद्धति से प्रमाणित भी है ।
परन्तु रूढ़ि वादी और अन्ध विश्वासी नीति- ग्रन्थों के रचना कारों ने अब स्मृति-ग्रन्थों में गोपों को शूद्र कह कर वर्णित किया गया है।
यह भी देखें-व्यास -स्मृति )तथा सम्वर्त -स्मृति में एक स्थान पर लिखा है :-
" क्षत्रियात् शूद्र कन्यानाम् समुत्पन्नस्तु य: सुत: ।
स गोपाल इति ज्ञेयो भोज्यो विप्रैर्न संशय: ।।
अर्थात् क्षत्रिय से शूद्र की कन्या में उत्पन्न होने वाला पुत्र गोपाल अथवा गोप होता है ।
और विप्रों के द्वारा उनके यहाँ भोजान्न होता है इसमे संशय नहीं ....
पाराशर स्मृति में स्पष्टत: वर्णित है कि..
वर्द्धकी नापितो गोप: आशाप: कुम्भकारक: ।
वणिक् किरात: कायस्थ: मालाकार: कुटुम्बिन: एते चान्ये च बहव शूद्र:भिन्न स्व कर्मभि: चर्मकारो भटो भिल्लो रजक: पुष्करो नट: वरटो मेद। चाण्डालदास श्वपचकोलका: ।।११।।
एतेsन्त्यजा समाख्याता ये चान्ये च गवार्शना:
एषां सम्भाषणाद् स्नानंदर्शनादर्क वीक्षणम् ।।१२।।
वर्द्धकी (बढ़ई) , नाई , गोप , आशाप , कुम्हार ,वणिक् ,किरात , कायस्थ, माली , कुटुम्बिन, ये सब अपने कर्मों से भिन्न बहुत से शूद्र हैं ।
चमार ,भट, भील ,धोवी, पुष्कर, नट, वरट, मेद , चाण्डाल ,दाश,श्वपच , तथा कोल (कोरिया)ये सब अन्त्यज कहे जाते हैं ।
और अन्य जो गोभक्षक हैं;
वे भी अन्त्यज होते हैं ।
इनके साथ सम्भाषण करने पर स्नान कर सूर्य दर्शन करना चाहिए तब शुद्धि होती है ।
अभोज्यान्ना:स्युरन्नादो यस्य य: स्यात्स तत्सम: नापितान्वयपित्रार्द्ध सीरणो दास गोपका:।।४९।। शूद्राणामप्योषान्तु भुक्त्वाsन्न नैव दुष्यति ।
धर्मेणान्योन्य भोज्यान्ना
द्विजास्तु विदितान्वया:।५०।। (व्यास-स्मृति)
कुछ रूढ़ि वादी तथा मूढ़ वृत्तियों वाले कहते हैं की
यादव गोप ही होते हैं यह मान भी लें तो अहीर गोप नहीं होते है ।
उनको लिए मेरा निर्देशन कि वे यह प्रमाण भी देखें---
कि संस्कृत पुराणों में आभीर शब्द गोप के लिए है ।
वेद की अधिष्ठात्री देवी गायत्री नरेन्द्र सेन अहीर की कन्या और ज्ञान के अधिष्ठाता कृष्ण भी अहीर( गोप) हैं अर्थात् वसुदेव गोप के पुत्र देखें प्रमाणों के दायरे में -
पुराणों के आधार पर ---
सम्पादन कर्ता - यादव योगेश कुमार 'रोहि' --
__________________________________________
पद्म पुराण के सृष्टि खण्ड के अध्याय १६ में गायत्री को नरेन्द्र सेन आभीर (अहीर)की कन्या के रूप में वर्णित किया गया है ।
" स्त्रियो दृष्टास्तु यास्त्व ,
सर्वास्ता: सपरिग्रहा : |
आभीरः कन्या रूपाद्या
शुभास्यां चारू लोचना ।७।
न देवी न च गन्धर्वीं ,
नासुरी न च पन्नगी ।
वन चास्ति तादृशी कन्या ,
यादृशी सा वराँगना ।८।
अर्थात् जब इन्द्र ने पृथ्वी पर जाकर देखा
तो वे पृथ्वी पर कोई सुन्दर और शुद्ध कन्या न पा सके
परन्तु एक नरेन्द्र सेन आभीर की कन्या गायत्री को सर्वांग सुन्दर और शुद्ध
देखकर आश्चर्य चकित रह गये ।७।
उसके समान सुन्दर कोई देवी न कोई गन्धर्वी न सुर और न असुर की स्त्री ही थी और नाहीं कोई पन्नगी (नाग कन्या ) ही थी।
इन्द्र ने तब उस कन्या गायत्री से पूछा कि तुम कौन हो ?
और कहाँ से आयी हो ?
और किस की पुत्री हो ८।
गोप कन्यां च तां दृष्टवा , गौरवर्ण महाद्युति:।
एवं चिन्ता पराधीन ,यावत् सा गोप कन्यका ।।९ ।।
पद्म पुराण सृष्टि खण्ड अध्याय १६ १८२ श्लोक में
इन्द्र ने कहा कि तुम बड़ी रूप वती हो , गौरवर्ण वाली महाद्युति से युक्त हो इस प्रकार की गौर वर्ण महातेजस्वी कन्या को देखकर इन्द्र भी चकित रह गया कि यह गोप कन्या इतनी सुन्दर है !
यहाँ विचारणीय तथ्य यह भी है कि पहले आभीर-कन्या शब्द गायत्री के लिए आया है फिर गोप कन्या शब्द ।
जो कि यदुवंश का वृत्ति ( व्यवहार मूलक ) विशेषण है ।
क्योंकि यादव प्रारम्भिक काल से ही गोपालन वृत्ति ( कार्य) से सम्बद्ध रहे है ।
आगे के अध्याय १७ के ४८३ में इन्द्र ने कहा कि यह गोप कन्या पराधीन चिन्ता से व्याकुल है ।९।
देवी चैव महाभागा , गायत्री नामत: प्रभु ।
गान्धर्वेण विवाहेन ,विकल्प मा कथाश्चिरम्।१०।
१८४ श्लोक में विष्णु ने ब्रह्मा जी से कहा कि हे प्रभो इस कन्या का नाम गायत्री है ।
अब यहाँ भी देखें---
भागवत पुराण :--१०/१/२२ में स्पष्टत: गायत्री आभीर अथवा गोपों की कन्या है ।
और गोपों को भागवतपुराण तथा महाभारत हरिवंश पुराण आदि मे देवताओं का अवतार बताया गया है ।
उपर्युक्त श्लोकों में पहले आभीर शब्द है फिर गोप शब्द एक ही कन्या गायत्री के वर्णन में ।
" अंशेन त्वं पृथिव्या वै , प्राप्य जन्म यदो:कुले ।
भार्याभ्याँश संयुतस्तत्र ,गोपालत्वं करिष्यसि ।१४।
वस्तुत आभीर और गोप शब्द परस्पर पर्याय वाची हैं
पद्म पुराण में पहले आभीर- कन्या शब्द आया है फिर गोप -कन्या भी गायत्री के लिए ..
तथा अग्नि पुराण मे भी आभीरों (गोपों) की कन्या गायत्री को कहा है ।
आभीरा स्तच्च कुर्वन्ति तत् किमेतत्त्वया कृतम्
अवश्यं यदि ते कार्यं भार्यया परया मखे ४०
एतत्पुनर्महादुःखं यद् आभीरा विगर्दिता
वंशे वनचराणां च स्ववोडा बहुभर्तृका ५४
आभीर इति सपत्नीति प्रोक्तवंत्यः हर्षिताः
(इति श्रीवह्निपुराणे (अग्नि पुराणे )ना नान्दीमुखोत्पत्तौ ब्रह्मयज्ञ समारंभे प्रथमोदिवसो नाम षोडशोऽध्यायः संपूर्णः)
ऋग्वेद भारतीय संस्कृति में ही नहीं अपितु विश्व- संस्कृतियों में प्राचीनत्तम है ।
हरिवंश पुराण यादवों का गोप (अहीर) अथवा आभीर
रूप में ही वर्णन करता है ।
यदुवंशीयों का गोप अथवा आभीर विशेषण ही वास्तविक है क्योंकि गोपालन ही इनकी शाश्वत् वृत्ति (कार्य) वंश परम्परागत रूप से विख्यात है ।।
हरिवंश पुराण में आभीर और गोप शब्द परस्पर पर्याय
वाची हैं ।
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वसुदेवदेवक्यौ च कश्यपादिती। तौच वरुणस्य गोहरणात् ब्रह्मणः शापेन गोपालत्वमापतुः।
यथाह (हरिवंश पुराण :- ५६ अध्याय )
“इत्यम्बुपतिना प्रोक्तो वरुणेनाहमच्युत!। गवां का-रणतत्त्वज्ञः कश्यपे शापमुत्सृजम्। येनांशेन हृता गावःकश्यपेन महात्मना। स तेनांशेन जगतीं गत्वा गोपत्व-मेष्यति। या च सा सुरभिर्नाम अदितिश्च सुरारणी। उभे ते तस्य वै भार्य्ये सह तेनैव (यास्यतः। ताभ्यांसह स गोपत्वे कश्यपो भुवि रंस्यते। तदस्य कश्यपस्यां-शस्तेजसा कश्यपोपमः वसुदेव इति ख्यातो गोषु ति-ष्ठति भूतले।
गिरिर्गोवर्द्धनो नाम मथुरायास्त्वदूरतः।
तत्रासौ गोष्वभिरतः कंसस्य करदायकः। तस्यभार्य्या-द्वयञ्चैव अदितिः सुरभिस्तथा।
देवकी रोहिणी चैववसुदेवस्य धीमतः। तत्रावतर लोकानां भवाय मधुसू-दन!।
जयाशीर्वचनैस्त्वेते वर्द्धयन्ति दिवौकसः। आत्मानमात्मना हि त्वमवतार्य्य महीतले। देवकीं रो-हिणीञ्चैव गर्भाभ्यां परितोषय।
तत्रत्वं शिशुरेवादौगोपालकृतलक्षणः। वर्द्धयस्व महाबाहो! पुरा त्रैविक्रमेयथा॥ छादयित्वात्मनात्मानं मायया गोपरूपया।
गोपकन्यासहस्राणि रमयंश्चर मेदिनीम्। गाश्च ते र-क्षिता विष्णो! वनानि परिधावतः। वनमालापरिक्षिप्तंधन्या द्रक्ष्यन्ति ते वपुः।
विष्णो! पद्मपलाशाक्ष!
गोपाल-वसतिङ्गते। बाले त्वयि महाबाहो। लोको बालत्व-मे
कुछ पुराणों ने गोपों (यादवों ) को क्षत्रिय भी स्वीकार किया है । ब्रह्म पुराण में वर्णन है कि " नन्द क्षत्रियो गोपालनाद् गोप : ( इति ब्रह्म पुराण) और भागवतपुराण में भी यही संकेत मिलता है
वसुदेव उपश्रुत्वा,भ्रातरं नन्दमागतम् ।
पूज्य:सुखमाशीन: पृष्टवद् अनामयम् आदृत:।47। भा०10/5/20/22
यहाँ स्मृतियों के विधान के अनुसार अनामयं शब्द से कुशलक्षेम क्षत्रिय जाति से पूछी जाती है ।
ब्राह्मणं कुशलं पृच्छेत् बाहु जात: अनामयं ।
वैश्य सुख समारोग्यं , शूद्र सन्तोष म् इव च।63।
ब्राह्मण: कुशलं पृच्छेत् क्षात्र बन्धु: अनामयं ।
वैश्य क्षेमं समागम्यं, शूद्रम् आरोग्यम् इव च।64।
संस्कृत ग्रन्थ नन्द वंश प्रदीप में वर्णित है कि नन्द का जन्म यदुवंशी देवमीढ़ के वंश में हुई
" नन्दोत्पत्तिरस्ति तस्युत, यदुवंशी नृपवरं देवमीढ़ वंशजात्वात ।65।
भागवतपुराण के दशम् स्कन्ध अध्याय 5 में नन्द के विषय में वर्णन है ।
यदुकुलावतंस्य वरीयान् गोप: पञ्च प्राणतुल्येषु ।
पञ्चसुतेषु मुख्यमस्य नन्द राज:। 67।
प्रसिद्ध पर्जन्य गोप के प्रणों के सामान -प्रिय पाँच पुत्र थे । जिसमें नन्द राय मुख्य थे ।
अब ब्रह्माण्डपुराण के उत्तरखण्ड राधा हृदय अध्याय 6 में वर्णित है कि " जज्ञिरे वृष्णि कुलस्थ, महात्मनो महोजस: नन्दाद्या वेशाद्या: श्री दामाश्च सबालक: ।68।
अर्थात् यदुवंश की वृष्णि शाखा में उत्पन्न नन्द आदि गोप तथा श्री दामा गोप आदि बालक सहित थे ।
ब्रह्म वैवर्त पुराण श्री कृष्ण जन्म खण्ड अ०13,38,39,में
सर्वेषां गोप पद्मानां गिरिभानुश्च भाष्कर:
पत्नी पद्मावते समा तस्य नाम्ना पद्मावती सती ।।
तस्या: कन्या यशोदात्वं लब्धो नन्दश्च वल्लभा: ।94।
जब गर्गाचार्य नन्द जी के घर गोकुल में राम और श्याम का नामकरण संस्कार करने गए थे ; तब गर्ग ने कहा कि नंद जी और यशोदा तुम दोनों उत्तम कुल में उत्पन्न हुए हो; यशोदा तुम्हारे पिता का नाम गिरिभानु गोप है
और माता का नाम पद्मावती सती है तुम नन्द जी को पति रूप में पाकर कृतकृत्य हो गईं हो!
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विकीपीडिया के लिए अालेखित तथ्य
विचार-विश्लेषण -- यादव योगेश कुमार 'रोहि'
ग्राम-आज़ादपुर पत्रालय-पहाड़ीपुर जनपद अलीगढ़---उ०प्र० सम्पर्क 8077160219..
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