शिक्षा मनुष्य के व्यक्तित्व विकास का माध्यम है ।
उसकी चेतना की जाग्रत का सशक्त साधन और जीवन का अमूल्य धन ।
महिलाओं को पुरूष प्रधान समाज में सदीयों से शैक्षिक अधिकारों से वञ्चित रखा गया ।
परन्तु ये केवल भारतीय समाज में ही हुआ यूरोपीय समाज में नहीं
भारतीय संस्कृति में पुरुष की अहंवादी प्रवृति इस अन्यायके लिए उत्तर दायी है ।
अब प्रश्न ये भी उठ सकता है कि महिलाओं में इतनी सामर्थ्य क्यों नहीं थी ? कि वे विना किसी पुरुष के सहयोग के अपना जीवन यापन कर लेती?वे स्वयं क्यों नही जी सकती हैं ?
तो इसका सहज उत्तर है !
कि अपूर्णत्व का अनुभव तो स्त्रीयाँ और पुरुष दौनों ही करते हैं ।
जहाँ पुरुष में विचार , बल तथा कठोरता का भाव है ।
वहीं स्त्रीयों में भावना , सौम्यता (कोमलता ) निर्मातृत्व एवम् -सृष्टि सृजन की अद्भुत शक्ति विद्यमान है ।
पुरुष का पराक्रम स्त्रीयों के सौन्दर्य का अभिलाषी है ।
पुरुष के जीवन के सारे उपक्रम सौन्दर्य अनुभूति केेेे निमित्त हैं ।
यूरोपीय मिथकों में स्त्री को ही काव्य की देवी इस लिए माना गया है ;
कि पुरुष स्त्री सौन्दर्य से प्रेरित होकर ही काव्य सृजन के लिए तत्पर होता है ।
यह स्त्रीयों का सौन्दर्य ही पुरुषों की दृष्टि में स्त्रीयों की सबसे बड़ी शक्ति है ।
और सम्पदा भी जिसके लिए प्राय: हर पुरुष लालायित होकर लुटेरा बन जाता है
ध्यान हो कि ज्ञान का पूर्णत्व विचार और भावनओं का सम्यक् सन्तुलन में ही है ।
स्त्रीयों को पुरूष प्रधान समाज की मानसिकता में भोग्या वस्तु के रूप में स्वीकार किया गया है।
इसका कारण महिलाओं के भावनात्मक स्तर का प्राबल्य अर्थात् भावनाओं की प्रबलता ही स्त्रीयों को विचार शून्य बना देती है । और इसके परिणाम स्वरूप
अन्ध-विश्वास और रूढ़ि वैदिकी में वृद्धि ।रूढ़िवादिताओं को महिलाऐं प्राय: समाज में सदीयों से परम्परागत रूप से संवहन करती चली आ रही हैं।
इसी रुढ़ि वादिता में इनका शारीरिक और मानसिक शोषण हुआ और आज भी हो रहा है ।
यही इनके दुखों का सबसे बडा़ कारण भी ..
भावनात्मक स्तर का अधिक प्रवाह इन्हें नास्तिक नहीं बनने देता , और विचारों की अल्पता दार्शिनिक तथा चिन्तक नहीं बनने देती ।
इधर पुरुष भावना शून्य होकर केवल विचार प्रबलता के कारण नास्तिक बन गया । और परिणाम यह हुआ कि अहंवादिता तथा क्रूरता उसके स्वभाव में समायोजित हो गयी ।
भारतीय समाज में पुरुष ने स्त्रीयों को अपने अधीन बने रहने के लिए धर्म-मर्यादा के नाम पर कुछ ऐसे विधान बनाऐ जिससे स्त्रीयाँ सदैव के लिए अबला बना रहें ।
वह था स्त्रीयों का शिक्षित न होना ।
ज्ञान या शिक्षा संसार की सबसे बड़ी शक्ति है ।
इनके विना कोई भी शक्ति शाली नहीं बन सकता है ।
पुष्य-मित्र सुंग के शासन काल में शूद्रों (द्रविडों) के साथ स्त्रीयों के लिए भी ज्ञान प्राप्त न करने के लिए
धर्म संहिता के रूप में विधान बनाऐ गये ।
स्त्रीशूद्रौ ना आधीयताम्
अर्थात् स्त्रीयों और शूद्रों को ज्ञान न दिया जाए ।
यह सूत्र बौद्ध काल के दर्शन भाष्य ग्रन्थ संस्कार दर्पण में वर्णित है ।
बुद्ध ने इसके विरुद्ध आवा़ज ऊठाई।
पुरुष मानसिकता ने महिलाओं के लिए शिक्षा निषेध का विधान इस लिए बनाया ।
ताकि शिक्षा द्वारा महिलाऐं शक्ति सम्पन्न न हो जाऐं ।
यदि महिलाऐं शक्ति सम्पन्न हो गयीं तो फिर पुरुष उन पर शासन नहीं कर सकते हैं।
उन्हें केवल भोग्या नहीं बना सकते हैं ।
यूरोपीय मध्ययुग में सामाजिक विन्यास की प्रणाली में एजुकेशन (Education )शब्द का प्रयोग बालकों के शारीरिक और मानसिक गुणों के विकास करने वाले नेतृत्व के अर्थ सन्दर्भों में रूढ़ हुआ।
वस्तुतः एजुकेशन शब्द भारोपीय भाषा परिवार के मूल दसर् (ducere) से सम्बद्ध है ।
संस्कृत भाषा में दक्ष शब्द का तादात्म्य अर्थात् एकरूपता एजुकेशन शब्द से प्रस्तावित है ।
दक्षता शिक्षा का पर्यायवाची रूप है
दक्ष शब्द का मूल वस्तुतः संस्कृत की दस् धातु से है ; दस् धातु के चार प्राचीन अर्थ सन्दर्भित हैं :-
1- गमन करना
2 हिंसा करना
3 प्रक्षेपण करना
4 दान करना
दान करना अर्थ वेदों में रूढ़ है ।
दस् धातु का प्राचीन अर्थ दृश् धातु के सादृश्य पर देखना भी प्रचलन में रहा है।
दस् धातु की अर्थ व्यापकता एवम् बलाघात से कालान्तरण में दक्ष् धातु का विकास नामधातु के रूप में हुआ।
संस्कृत धातु पाठ में दक्ष् शासन हिंसा गति शीघ्रार्थेषु भ्वादिगणीय रूप - दक्ष धातु में हिंसा की अर्थ वत्ता समाप्तम् होकर शासन और गति की अर्थ वत्ता विद्यमान रही ।
दक्ष शब्द के सहोदर दास और दस्यु शब्द प्राचीनत्तम भारोपीय सन्दर्भित रूपों में मार्ग-दर्शक अथवा नेता की अर्थ वत्ता से पूर्ण थे ।
वेदों की प्राचीनत्तम ऋचाओं में दास शब्द पूज्य अर्थ को ध्वनित करती है ।
ऋग्वेद 10/ 62 /10
" उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।।
यहाँ यदु और तुर्वसु नामक दौनों दासों की स्तुति की गयी है ।
स्तुति करना सेवक के अर्थ में असंगत बात है।
अत: शब्द का अर्थ उच्चता को प्राप्त है यहाँ ;
ईरानी धर्म-ग्रन्थ अवेस्ता में दास का रूप दाहे तथा दस्यु का रूप दह्यु :- पूज्य तथा श्रेष्ठ अर्थों को ध्वनित करता है ।
दास शब्द असुर (असीरियन) जन जातियों से सम्बद्ध दाहिस्तान (Dagestan) के निवासीयों के लिए प्रचलित हो गया । ---जो रूस और ईरानी के मध्य एक पर्वतीय प्रदेश है ।
भारोपीय भाषा परिवार में दक्ष शब्द की अर्थ वत्ता मानसिक शक्ति के लिए भी प्रचलित है ।
रोम की सांस्कृतिक भाषा एट्रस्कन तथा लैटिन में
Ducere क्रिया का साम्य संस्कृत दसर् दस् /दक्ष् धातु से प्रस्तावित है ।
अंग्रेज़ी भाषा में प्रचलित (Education) E =ex+ ducere = To lead मूल भारोपीय धातु Druk= To lead संस्कृत भाषा में दस् के रूप में है ।
यूरोपीय समाज में आधिकारिक रूप से सन् 1880 में व्यक्तित्व विकास के साधन के लिए एजूकेशन शब्द का प्रयोग हुआ ।
Educere =bring out = बाहर लाना , निकालना ।
अर्थात् व्यक्ति के मानसिक और शारीरिक गुणों का प्रकाशन करने वाला साधन शिक्षा कहलाती है ।
मन की शक्ति को बाहर निकालना या प्रकाशन करना।
That is, the means of publishing the mental and physical properties of a person is called education.
Draw out or Unfold The power of the mind
जो महिलाऐं भावनओं के प्रवाह को पार कर गयीं विचारों के किनारे उनको मिले हैं ।
संस्कृत भाषा में शिक्षा का पर्याय वाची शब्द दक्षता है ।
शिक्षा शब्द भी शक् धातु के आख्यात (क्रिया) रूप में सन् इच्छार्थक प्रत्यय करने पर प्रथम विभक्ति एक वचन में :-- शिक्षति अर्थात् सक्षम होने की इच्छा करता है जिसने साधन से वह शिक्षा है ।
शक् शक्तौ " शक्नोति शकुन्वन्ति अन्यद् दिवादौ उक्तम् सन् इमीमा इति शिक्षति इति विद्यासु शिक्षते " शिक्षेर्जिज्ञासायाम्'' इति तड्. विद्या विषये ज्ञाने शक्तो भवितुं इच्छति इति अर्थ शिक्षा ।
उपनिषद काल में शिक्षा का उद्देश्य मानवीय व्यक्तित्व विकास कर पुरुषार्थ चतुष्टय की प्राप्ति कराना था ।
अर्थात् जीविका उपार्जन के साथ जीवन के परम लक्ष्य के लिए मार्ग दर्शन करना भी शिक्षा का उद्देश्य था ।
वैसे भी शक्ति सम्पन्न होनी की इच्छा से प्रेरित होकर हम शिक्षा प्राप्त करते हैं ।
शिक्षा के समानान्तर ज्ञान को भी शक्ति माना गया है ।
परन्तु दौनों में अन्तर है ।
जहाँ शिक्षा में क्रियात्मकता अथवा व्यावाहिरिकता है ।तो ज्ञान में वैचारिकता का प्राधान्य है ।
ज्ञान का सम्बन्ध आध्यात्मिकता से अधिक है ।
और शिक्षा का भौतिकता से अधिक है ।
ज्ञान वह प्रकाश है जो व्यक्ति को सत्य से जुड़ने का अनुभव कराता है ।
आध्यात्मिक दृष्टि से ज्ञान द्वारा व्यक्ति सत्य एवम् परमात्मा से जुड़ता है ।
और शिक्षा अभ्यास द्वारा ग्रहण की जाती है।
एक उपमा के माध्यम से हम ज्ञान को ऐसे समझ सकते हैं । कि हमारा अन्त: करण चतुष्टय का शुद्धिकरण ( मन बुद्धि चित अहंकार) या स्वच्छ होने पर अन्त:करण पर जो वासनाओं की मलिनता जमीं हुई है ।
वह तप अथवा संयम रूपी अग्नि से जल जाती है ।
और स्वत: ही सत्य से ज्ञान परावर्तन होने लगता है ।
ज्ञान मूलक ज्ञा धातु का मूल भी जन् धातु रूप ही है
क्योंकि ज् न का सम्प्रसारित रूप जन् है । यद्यपि
जन् धातु प्राचीनत्तम है
ज्ञा योगे धातु से ल्यट् (अन्) प्रत्यय करने पर ज्ञान शब्द बनता है ।
मूल भारोपीय भाषा परिवार में Zno ज्नो = योग्य होना शक्ति प्राप्त करना। have have power to be able |
Ken( Can )रूप = सकना , संस्कृत जानाति, अवेस्ता में जैन्ती लैटिन ग्नॉसेयर gnocere =जानना अत:
अतः शिक्षा ज्ञान आज के द्वारा व्यक्ति शक्ति अर्जित करता है।
अध्यात्म विद्या के विषय में अधिकांश भौतिक विद्वान शिक्षा को ही विद्या मान बैठते हैं।
वे विद्या और शिक्षा के अंतर को भी समझने में असमर्थ हैं ; जबकि विद्या और शिक्षा ज्योति और ज्वाला सदृश्य भेद है ।
शिक्षा नि: सन्देह एक व्यक्तित्व विकास की प्रक्रिया है । जिसके अन्तर्गत व्यक्ति के बाह्य (शारीरिक) तथा आन्तरिक(मानसिक) गुणों एवम् शक्तियों का विकास होता है ।
अर्थात् शिक्षा उभयात्मक रूप से शक्ति सम्पन्न होने की इच्छा है ; इसमें अनुकरण, अभ्यास तथा स्मरण प्रक्रिया का भाव है ।
भौतिक शिक्षा अनुकरण के द्वारा सीखी जाती है जिसका सम्बन्ध ज्ञानेन्द्रियों, कर्मेद्रिंयों व मन बुद्धि तक सीमित है ।
अत: यह प्राकृतिक रूप है ; इसके अतिरिक्त विद्या शब्द विद् धातु से बना है जिसका अर्थ है 'जानना' अर्थात् 'वास्तविक ज्ञान।'
ज्ञान शब्द का मौलिक रूप से सम्बन्ध जन् धातु से है ।
जिसका अर्थ है सचेत करना ।
और जिसके अन्दर चेतना अथवा ज़ान है , वह अज्ञानी कभी नहीं हो सकता वह अज्ञ न होकर अल्पज्ञ और बहुज्ञ तो हो सकता है ।
वह न अज्ञ हो सकता है और ना ही सर्वज्ञ प्रत्येक जीव को खाने का ज्ञान होता है ।
चेतना के बड़ते हुए क्रम से जीव का ज्ञान भी बड़ता जाता है । यह ज्ञान स्वयं अन्दर से प्रकट होता है, इसे ही अध्यात्म ज्ञान कहा जाता है।
इसे आत्मा की गहराई में पहुंचने पर ही जाना जाता है। जब अन्त:करण रूपी दर्पण स्वच्छ हो जाता है तभी स्वत: ईश्वरीय ज्ञान दर्पण पर परावर्तित होने लगता है । शिक्षा के विद्वान अहंकार से ग्रसित होते हैं, उनमें विनम्रता का अभाव होता है;
जबकि विद्या का प्रथम गुण विनम्रता है।
विद्या वास्तव में मानव की मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करती है। ( विद्या ददाति विनयं) इस अध्यात्म विद्या से मानव 'निष्काम कर्म योगी' बनता है ।
जो सभी को समान भाव से देखता है।
मध्य युग में यूरोपीय सामाजिक विन्यास की प्रणाली में एजूकेशन (education )शब्द का प्रयोग बालकों के शारीरिक और मानसिक विकास के नैतृत्व के सन्दर्भों में रूढ़ था , एजूकेशन शब्द के मूल में लैटिन क्रिया दसर् (ducere)है ।जो संस्कृत भाषा में दक्ष् :--'मानसिक रूप से योग्य-होना " के अर्थ में अधिक रूढ़ रहा है । संस्कृत भाषा का दक्ष लैटिन में (Dux )रूप में है
इस लिए विना ज्ञान के संसार सागर पार नहीं होता है ।
"भव सागर है कठिन डगर है।
हम कर बैठे खुद से समझौते।।
डूब न जाय जीवन की किश्ती।
मोह के भँवर लोभ के गोते ।।
प्रवृत्तियों के वेग प्रबल हैं ।
लहरों के भी कितने छल हैं ।।
बच गये हैं हम खोते खोते ।
मन का पतवार बीच की धार।
रोहि उम्र बीत गयी रोते रोते ।
सद् बुद्धि केवटिया बन जा ।
इन लहरों पर सीधा तनजा ।।
प्रायश्चित के फेनिल से चमकेगा ।
अन्तर पट ये धोते धोते ।
इच्छा स्वरूप ही संसार और जीवन का कारक है ।
वस्तुत: प्रेरणा भी एक इच्छात्मक रूप ही है ।
जो आत्मा का स्वभाव है ।
संसार ब्रह्म रूपी जल पर इच्छा रूपी लहरें हैं ।
अन्त में ----------------------
ये शरीर केवल एक रथ है ।
और रोहि आत्मा जिसमें रथी है ।
इन्द्रियाँ ये बेसलहे घोड़े ।
बुद्धि भटका हुआ सारथी है ।
मन की लगाम बड़ी ढ़ीली ।
घोड़ों की मौहरी कहाँ नथी है ?
लुभावने पथ भोग - लिप्सा के ।
यहाँ मञ्जिलों से पहले दुर्गति है ।।
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अर्थात् आध्यात्म बुद्धि के द्वारा ही मन पर नियन्त्रण किया जा सकता है !
मन फिर इन्द्रीयों को नियन्त्रित करेगा ,
केवल ज्ञान और योग अभ्यास के द्वारा मन नियन्त्रण में होता है !
अन्यथा इसके नियन्त्रण का कोई उपाय नहीं है !!
अध्यात्म वह पुष्प है ,जिनमें ज्ञान और योग के रूप में सुगन्ध और पराग के सदृश्य परस्पर सम्पूरक तत्व हैं ।
जो जीवन को सुवासित और व्यक्ति को एकाग्र-चित करते हैं ।
अन्तः करण चतुष्टय के चारों भागों को, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार को, जब सात्विकता के शान्तिमय पथ पर अग्रसर किया जाता है ; तो हमारी चेतना शक्ति का दिन-दिन विकास होता है। यह मानसिक विकास अनेक सफलताओं और सम्पत्तियों का कारक है। मनोबल से बड़ी और कोई सम्पत्ति इस संसार में नहीं है।
मनैव मनुष्या: मन ही मनुष्य है ।मन ही अनन्त प्राकृतिक शक्तियों का केन्द्र है ।
मानसिक दृष्टि से जो जितना बड़ा है उसी अनुपात से संसार में उसका गौरव होता है ;
अन्यथा शरीर की दृष्टि से तो प्रायः सभी मनुष्य लगभग समान होते हैं। उन्नति के इच्छुकों को अपने अन्तः करण चतुष्टय का विकास करने का पूरा प्रयत्न करना चाहिए। क्योंकि इस विकास में ही साँसारिक और आत्मिक कल्याण सन्निहित है।
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यादव योगेश कुमार'रोहि'
ग्राम-आज़ादपुर पत्रालय पहाड़ीपुर
जनपद अलीगढ़---के सौजन्य से यह विचार विश्लेषण -महिला दिवस के उरपलक्ष्य में ।
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