महानुभावों !
षड्यन्त्र सदीयों से प्रत्यक्ष प्रशंसात्मक उपक्रियाओं के रूप में अपना विस्तार करते रहे हैं ।
जिसे जन साधारण भी सदा ही निष्ठामूलक अनुष्ठान समझ कर भ्रमित होता रहा है ।
यही कृष्ण के साथ पुष्य-मित्र सुँग कालीन ब्राह्मणों ने किया
इसी लिए कृष्ण चरित्र को पतित करने के लिए श्रृँगार में डुबो दिया गया ।
श्रृँगार वैराग्य का सनातन प्रतिद्वन्द्वी भाव रहा है.
इसी लिए कृष्ण जैसे आध्यात्मिकता के शिखर पर आरूढ महामानव को श्रृँगार के पंक में डुबाने की रूढ़िवादी पुरोहितों ने कुछ सीमा तक सफल चेष्टा की है ।
क्योंकि कृष्ण दुनियाँ के सबसे बड़े योगदृष्टा, योगेश्वर युग- पुरुष और आध्यात्मिकता की पराकाष्ठा पर प्रतिष्ठित तत्ववेत्ता थे ।
यह भी सर्वविदित है कि कृष्ण ने देवों के राजा इन्द्र से युद्ध किया और देव संस्कृति को कभी उन्नत नहीं समझा !
इसके प्रमाण के लिए ऋग्वेद के अष्टम मण्डल को आप देख सकते हैं
यहाँं तक कि पुराणों में भी वैदिक प्रतिध्वनि निनादित होती रही है ।
परन्तु कुछ मतान्तरण के साथ
क्यों कि वेदों में जो प्रतिष्ठा देव संस्कृति और देवों के नेता इन्द्र को मिली वह पुराणों में नहीं
पुराणों का सृजन किंवदन्तियों पर हुआ है और ये अठारहवीं सदी तक लिखें जाते रहे हैं।
देख लो भविष्य पुराण का प्रतिसर्ग पर्व ...
यदि आप ब्राह्मण वाद की दासता के पैरोकार हैं ;
तो आप कहाँ समझदार हैं ?
आप केवल अन्ध- भक्त हैं
ब्राह्मण दो प्रकार हुए एक रूढ़ि वादी तो दूसरे उदारवादी
उदारवादी ब्राह्मणों ने ही आध्यात्मिकता का उत्थान किया !
तो आप कृष्ण को केवल पुराणों तक ही सीमित न समझें ! ____________________________________________
और सत्य पूछा जाय तो कृष्ण पुराणों के पात्र नहीं हैं अपितु वेदों ,उपनिषदों और पुराणों से भी पूर्व कौषीतकी ब्राह्मण आदि के पात्र हैं ।
ऋग्वेद के प्रथम मण्डल में एक स्थान पर स्पष्ट वासुदेव कृष्ण "शब्द के द्वारा कृष्ण का ही वर्णन है ।
परन्तु प्रक्षिप्त रूप से "वसुदेवाय कृष्व" शब्द वैदिक ऋचाओं में सम्पादित किया जाता रहा है ।
ताकि कृष्ण के अनुयायी कृष्ण को वैदिक न माने
वेदों में कृष्ण नामक चरावाह इन्द्र का परम शत्रु है ।
पुराणों में इन्द्र को बलात्कारी तो कृष्ण को व्ययभिचार का समर्थक बनाने की कुचेष्टा की गयी ...
परन्तु अधिकतर पुराणों में कृष्ण का चरित्र एक कामुक के रूप में प्रस्तुत किया गया हैं ।
और श्री मद् भगवद् गीता को देखने से तो कृष्ण बहुत बड़े अध्यात्म वेत्ता हैं ...
और सत्य तो यही है कि कुछ पुराणों का सृजन ही कृष्ण के चरित्र का हनन करने के लिए ही उन पुरोहितों ने किया जो देव संस्कृति के अनुयायी और इन्द्र के आराधक थे।
क्योंकि कृष्ण इन्द्र के चिर प्रति द्वन्द्वी हैं।
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वेदों से लेकर पुराणों तक में यही कृष्ण और इन्द्र की शत्रुता परिलक्षित है ।
ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल के सूक्त संख्या 96 की कुछ ऋचाओं (13,14,15,) में असुर अथवा अदेव कृष्ण का युद्ध इन्द्र से हुआ ऐसा वर्णित है ।
आप दुनियाँ की ऋग्वेद की किसी भी प्रति में ये ऋचा देख सकते हैं ।
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" आवत् तमिन्द्र: शच्या धमन्तमप स्नेहितीर्नृमणा अधत्त ।
द्रप्सम पश्यं विषुणे (चरन्तम् उपह्वरे नद्यो अंशुमत्या: न भो न कृष्णं अवतस्थि वांसम् इष्यामि )
वो वृषणो युध्य ताजौ ।14।
अध द्रप्सम अंशुमत्या उपस्थे८धारयत् तन्वं तित्विषाण: विशो अदेवीरभ्या चरन्तीर्बृहस्पतिना युज इन्द्र: ससाहे ।।15।।
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ऋग्वेद में वर्णित है ---" कि कृष्ण नामक असुर (अदेव) देव संस्कृति को न मानने वाला अंशुमती अर्थात् यमुना नदी के तटों पर दश हजार सैनिको (ग्वालो)के साथ गाय चराते हुए रहता है ।
उस गाय चराते हुए को (चरन्तम्) इन्द्र ने अपने बुद्धि -बल से खोज लिया , और उसकी सम्पूर्ण सेना तथा गोओं का हरण कर लिया ।
इन्द्र कहता है कि कृष्ण नामक असुर को मैंने देख लिया है ।
जो यमुना के एकान्त स्थानों पर गाय चराते हुए रहता है ।
वास्तव में यहाँ "चरन्तम् " क्रिया पद
विचारणीय तथ्य है ।
इस ऋचा में "चरन्तम् " क्रिया पद दो बार आया है ;
जो चरावाहे का वाचक है ।
फिर अब आप ही बताऐंगे ! की इन्द्र के भक्तों द्वारा इन्द्र के शत्रु कृष्ण का किस प्रकार प्रतिष्ठा स्थापन हो सकता है?
ये बात कैसे संगत कही जा सकती है कि इन्द्र ने कृष्ण की गर्भवती स्त्रीयों को मार डाला
स्त्रीयाँ तो किसी की भी हो अवध्या ही हैं
प्र। म॒न्दिने॑। पि॒तु॒ऽमत्। अ॒र्च॒त॒। वचः॑। यः। कृ॒ष्णऽग॑र्भाः। निः॒ऽअह॑न्। ऋ॒जिश्व॑ना। अ॒व॒स्यवः॑। वृष॑णम्। वज्र॑ऽदक्षिणम्। म॒रुत्व॑न्तम्। स॒ख्याय॑। ह॒वा॒म॒हे॒ ॥ १.१०१.१
ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:101» ऋचा 1 |
परन्तु कृष्ण की गर्भिणी पत्नियों को मारने वाला इन्द्र महापापी ही माना जाएगा
ऋगवेद और मनुस्मृति दौनों की ये बाते विरुद्ध सी ही है
कौन सी बात सत्य है यह निर्णय करना कठिन है
कि जहाँ मनुस्मृति लिखने वाला कहता है कि
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः ।
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः ।।५६|
मनुस्मृति ३/५६ ।।
जहाँ स्त्रियों की पूजा होती है वहाँ देवता निवास करते हैं और जहाँ स्त्रियों की पूजा नही होती है, उनका सम्मान नही होता है वहाँ किये गये समस्त अच्छे कर्म निष्फल हो जाते हैं।
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कृष्ण ने देवों की पूजा बन्द करवा के गो-पूजा प्रारम्भ करायी और
गो-वर्द्धन :- गायों की वृद्धि का कारण पर्वत वैदिक काल से आज तक व्रज की प्रतिष्ठा के रूप में विद्यमान है ।
देव संस्कृति की विवेचना हम "स्वर्ग की खोज और देवों का रहस्य" पोष्ट में कर चुके हैं ।
देव संस्कृति का अपर नामान्तरण सुर संस्कृति भी है ।
और सुर संस्कृति सुरा पान की प्रधानता से युक्त संस्कृति रही है ।
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और मदिरा पान करके कोई नैतिक मूल्यों को आत्मसात् करले यह असम्भव सी बात है ।
सुरा-सुन्दरी में डूबी देव संस्कृति अपनी विलासिता के लिए विख्यात थी।
सुराप्रेम के कारण ही देवताओं का उपनाम 'सुर' पड़ चुका था, और जो सुरा पसन्द नहीं करते थे उन्हें 'असुर' कहा जाने लगा था।👇
वाल्मीकि रामायण-बालकाण्ड सर्ग 45 के 38 वें छन्द में )
सुर-असुर की परिभाषा करते हुये लिखा है-
“सुरा पीने वाले सुर और सुरा नहीं पीने वाले असुर कहे गये l”
सुराप्रतिग्रहाद् देवा: सुरा इत्याभिविश्रुता:. अप्रतिग्रहणात्तस्या दैतेयाश्चासुरा: स्मृता:॥
उक्त श्लोक के अनुसार सुरा का अर्थ ‘मादक द्रव्य-शराब’ है. चूंकि आर्य लोग मादक तत्व सुरा का प्रारम्भ से पान (सेवन) करते थे।
वाल्मीकि रामायण
बालकाण्ड का पैतालीसवां सर्ग श्लोक संख्या ३६ से ३८ ,
प्रसंग
( समुद्र मंथन.)
विश्वामित्र राम और लक्ष्मण को कुछ वेद पुराण सुना रहे हैं और उसी के तहत समुद्र मंथन से निकले चौदह रत्नों के बारे में बताते हुए कहते हैं ....
असुरास्तेंन दैतेयाः सुरास्तेनादितेह सुताः
हृष्टा: प्रमुदिताश्चासन वारुणीग्रह्नात सुराः (३८)
('सुरा से रहित होने के कारण ही दैत्य 'असुर ' कहलाये
और सुरा-सेवन के कारण ही अदिति के पुत्रों की 'सुर' संज्ञा हुई.
वारुणी को ग्रहण करने से देवता लोग हर्ष से उत्फुल्ल एवं आनंदमग्न हो गए )
इसके पहले और बाद के दो श्लोकों में समुद्रमंथन से वरुण की कन्या वारुणी "जो सुरा की अभिमानिनी देवी थी"
के प्रकट होने और दैत्यों द्वारा उसे ग्रहण न करने और देवों द्वारा इन अनिन्द्य सुन्दरी को ग्रहण करने का उल्लेख है....
तो अब हमें कोई रोके टोके न..... हम सुर हैं,देवता है और धरती के सुर -भूसुर अर्थात ब्राह्मण तो बेरोक टोक सुरापान करे -हमारा शास्त्र इसकी खुली अनुमति देता है
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वेदों में असुर शब्द का अर्थ :---
उरुं यज्ञाय चक्रथुरु लोकं जनयन्ता सूर्यमुषासमग्निम् ।
दासस्य चिद्वृषशिप्रस्य माया जघ्नथुर्नरा पृतनाज्येषु ॥४॥
इन्द्राविष्णू दृंहिताः शम्बरस्य नव पुरो नवतिं च श्नथिष्टम् ।
शतं वर्चिनः सहस्रं च साकं हथो अप्रत्यसुरस्य वीरान् ॥५॥
संस्कृत भाषा में सुरा शब्द का केवल एक ही रूढ़ अर्थ प्राप्त है शराब ! ।
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जैसे
(सु अभिषवे + क्रन् ।
स्त्रियां टाप् :- सुरा
इत्युणादिवृत्तौ उज्ज्वलः । २ । २४ । यद्वा सुष्ठु रायन्त्यनयेति ।
सु + रै शब्दे + “ आतश्चोप- सर्गे । ३। ३ । ११६ । इत्यङ् । टाप् । )
चषकम् । मद्यम् । इति मेदिनी ॥
अस्याः पर्य्यायगुणादि मदिराशब्दे मद्यशब्द च द्रष्टव्यम् । सुराया विशेषगुणा यथा --
“ कृशानां सक्तमूत्राणां ग्रहण्यर्शोविकारिणाम् सुरा प्रशस्ता वातघ्नी स्तन्यरक्तक्षयेषु च ॥
“ इति राजवल्लभः ॥
तत्पानप्रायश्चित्तं यथा --
“ ब्रह्मघ्रश्च सुरापश्च स्तेयी च गुरुतल्पगः ।
सेतु दृष्ट्वा विशुध्यन्ते तत्संयोगी च पञ्चमः ।
ततो धेनुशतं दद्यात् ब्राह्यणानान्तु भोजनम् ॥
“ इति गारुडे २२६ अध्यायः ॥
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आज से दश सहस्र ( दस हज़ार )वर्ष पूर्व मानव सभ्यता की व्यवस्थित संस्था देव संस्कृति के प्रवर्तक सुर अथवा देव जनजाति का प्रस्थान स्वर्ग से भू- मध्य रेखीय स्थलों पर हुआ था काकेशस पर्वत कैस्पीयन सागर के तटवर्ती क्षेत्र इनके निवास थे
परन्तु देव संस्कृति के अनुयायीयों का भारत आगमन का समय ई०पू० १५०० से १२०० तक निर्धारित है ।
यद्यपि अवान्तर - यात्रा काल में सुमेरियन तथा बैवीलॉनियन संस्कृतियों से भी देव संस्कृति के अनुयायीयों ने साक्षात्कार किया ।
जहाँ से इनकी देव सूची--- में विष्णु का का समायोजन हुआ ।
सुमेरियन मिथको में विष्णु पिक्स-नु के रूप में मत्स्य नर देवता है ..
दैखे सुमेरियन उद्धरण 👇
SUMER ORIGIN OF VISHNU IN NAME AND FORM 83 is evidently a variant spelling of the Sumerian Pi-es' or Pish for " Great Fish " with the pictograph word-sign of Fig, 19. — Sumerian Sun-Fish as Indian Sun-god Vishnu.
सत्य पूछा जाए तो आर्य शब्द जन-जाति सूचक विशेषण नहीं है।
केवल सुर जन-जाति का अस्तित्व जर्मनिक जन-जातियाें की पूर्व शाखा के रूप में नॉर्स कथाओं में वर्णित हैं ।
यह भारतीय संस्कृति की दृढ़ मान्यता है कि
सुर { स्वर } जिस स्थान { रज} पर पर रहते थे उसे ही स्वर्ग कहा गया है ---
"स्वरा: सुरा:वा राजन्ते यस्मिन् देशे तद् स्वर्गम् कथ्यते "
".... स्वर्ग जहाँ छःमहीने का दिन और छःमहीने की रातें होती हैं वास्तव में आधुनिक समय में यह स्थान स्वीडन { Sweden} है जो उत्तरी ध्रुव पर हैमर पाष्ट के समीप है प्राचीन नॉर्स भाषाओं में स्वीडन को ही स्वरगे { Svirge } कहा है ..
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भारतीय आर्यों को इतना स्मरण था कि उनके पूर्वज सुर { देव} उत्तरी ध्रुव के समीप स्वेरिगी में रहते थे इस तथ्य के भारतीय सन्दर्भ भी विद्यमान् हैं बुद्ध के परवर्ती काल खण्ड में लिपि बद्ध ग्रन्थ मनु स्मृति में वर्णित है ।
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वास्तव में आर्य शब्द का प्रयोग जाति गत विशेषण षणके रूप में करना असंगत ही है
ईरानी असुर रसंस्कृति के अनुयायीयों को अवेस्ता में आर्य और वीर कहा गया है
परन्तु पाश्चात्य विद्वानों ने देव सस्कृति के अनुयायीयों को आर्य कह दिया ...
मनु स्मृति में काल विभाजन प्रकरण देखें
..अहो रात्रे विभजते सूर्यो मानुष देैविके !!
देवे रात्र्यहनी वर्ष प्र वि भागस्तयोःपुनः ||
अहस्तत्रोदगयनं रात्रिः स्यात् दक्षिणायनं ------
मनु स्मृति १/६७ ...
अर्थात् देवों और मनुष्यों के दिन रात का विभाग सूर्य करता है मनुष्य का एक वर्ष देवताओं का एक दिन रात होता है अर्थात् छः मास का दिन .जब सूर्य उत्तारायण होता है !
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और छःमास की ही रात्रि होती है जब सूर्य दक्षिणायनहोता है ! प्रकृति का यह दृश्य केवल ध्रुव देशों में ही होता है ! वेदों का उद्धरण भी है
.......📖📝...
"अस्माकं वीरा: उत्तरे भवन्ति " हमारे वीर { आर्य } उत्तर में हुए ..इतना ही नहीं भारतीय पुराणों मे वर्णन है कि ...कि स्वर्ग उत्तर दिशा में है !!
वेदों में भी इस प्रकार के अनेक संकेत हैं .....
मा नो दीर्घा अभिनशन् तमिस्राः ऋग्वेद २/२७/१४ वैदिक काल के ऋषि उत्तरीय ध्रुव से निम्मनतर प्रदेश बाल्टिक सागर के तटों पर अधिवास कर रहे थे , उस समय का यह वर्णन है .
.....कि लम्बी रातें हम्हें अभिभूत न करें ....
वैदिक पुरोहित भय भीत रहते थे, कि प्रातः काल होगा भी अथवा नहीं , क्यों कि रात्रियाँ छः मास तक लम्बी रहती थीं
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..रात्रि र्वै चित्र वसुख्युष्ट़इ्यै वा एतस्यै पुरा ब्राह्मणा अभैषुः --- तैत्तीरीय संहित्ता १ ,५, ७, ५ अर्थात् चित्र वसु रात्रि है अतः ब्राह्मण भयभीत है कि सुबह ( व्युष्टि ) न होगी !!! आशंका है
........
ध्यातव्य है कि ध्रुव बिन्दुओं पर ही दिन रात क्रमशःछः छः महीने के होते है |
परन्तु उत्तरीय ध्रुव से नीचे क्रमशः चलने पर भू - मध्य रेखा पर्यन्त स्थान भेद से दिन रात की अवधि में भी भेद हो जाता है .
और यह अन्तर चौबीस घण्टे से लेकर छः छः महीने का हो जाता है |
...... अग्नि और सूर्य की महिमा आर्यों को उत्तरीय ध्रुव के शीत प्रदेशों में ही हो गयी थी !!!!! .
अतः अग्नि - अनुष्ठान वैदिक सांस्कृतिक परम्पराओं का अनिवार्यतः अंग
था .जो परम्पराओं के रूप में यज्ञ के रूप में रूढ़ हो गया ...
....... .........
अग्निम् ईडे पुरोहितम् यज्ञस्य देवम् ऋतुज्यं होतारं रत्नधातव ...ऋग्वेद १/१/१ ........
अग्नि के लिए २००सूक्त हैं ।
अग्नि और वस्त्र आर्यों की अनिवार्य आवश्यकताऐं थी |
वास्तव में तीन लोकों का तात्पर्य पृथ्वी के तीन रूपों से ही था |
उत्तरीय ध्रुव उच्चत्तम स्थान होने से स्वर्ग है !
जैसा कि जर्मन आर्यों की मान्यता थी .....
उन्होंने स्वेरिकी या स्वेरिगी को अपने पूर्वजों का प्रस्थान बिन्दु माना यह स्थान आधुनिक स्वीडन { Sweden} ही था |
प्राचीन नॉर्स भाषाओं में स्वीडन का ही प्राचीन नाम स्वेरिगे { Sverige } है !
यह स्वेरिगे Sverige .} देव संस्कृति का आदिम स्थल था, वास्तव में स्वेरिगे Sverige ..शब्द के नाम करण का कारण भी उत्तर पश्चिम जर्मनी आर्यों की स्वीअर { Sviar } नामकी जन जाति थी .
अतः स्वेरिगे शब्द की व्युत्पत्ति भी सटीक है।
Sverige is The region of sviar ....This is still the formal Names for Sweden in old Swedish Language..Etymological form ....Svea ( स्वः + Rike - Region रीजन अर्थात् रज = स्थान .. तथा शासन क्षेत्र |
संस्कृत तथा ग्रीक /लैटिन शब्द लोक के समानार्थक है .......
"रज् प्रकाशने अनुशासने च"पुरानी नॉर्स Risa गौथ भाषा में Reisan अंग्रेजी Rise .. पाणिनीय धातु पाठ .देखें ...लैटिन फ्रेंच तथा जर्मन वर्ग की भाषाओं में लैटिन ...Regere = To rule अनुशासन करना ..इसी का present perfect रूप Regens ,तथ regentis आदि हैं Regence = goverment राज प्रणाली .. जर्मनी भाषा में Rice तथा reich रूप हैं !!
पुरानी फ्रेंच में Regne .,reign लैटिन रूप Regnum = to rule .
.... संस्कृत लोक शब्द लैटिन फ्रेंच आदि में Locus के रूप में है जिसका अर्थ होता है प्रकाश और स्थान ..तात्पर्य स्वर अथवा सुरों ( आर्यों ) का राज
Sverige is The region of sviar ....This is still the formal Names for Sweden in old Swedish Language..Etymological form ....Svea ( स्वः + Rike - Region रीजन अर्थात् रज = स्थान .. तथा शासन क्षेत्र |
संस्कृत तथा ग्रीक /लैटिन शब्द लोक के समानार्थक है ....... "रज् प्रकाशने अनुशासने च"पुरानी नॉर्स Risa गौथ भाषा में Reisan अंग्रेजी Rise .. पाणिनीय धातु पाठ .देखें ...लैटिन फ्रेंच तथा जर्मन वर्ग की भाषाओं में लैटिन ...Regere = To rule अनुशासन करना ..इसी का present perfect रूप Regens ,तथ regentis आदि हैं Regence = goverment राज प्रणाली .. जर्मनी भाषा में Rice तथा reich रूप हैं !! पुरानी फ्रेंच में Regne .,reign लैटिन रूप Regnum = to rule .....
संस्कृत लोक शब्द लैटिन फ्रेंच आदि में Locus के रूप में है जिसका अर्थ होता है प्रकाश और स्थान ..तात्पर्य स्वर अथवा सुरों ( आर्यों ) का राज ( अनुशासन क्षेत्र ) ही स्वर्ग स्वः रज ..समाक्षर लोप से सान्धिक रूप हुआ स्वर्ग .
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स्वर्ग उत्तरीय ध्रुव पर स्थित पृथ्वी का वह उच्चत्तम भू - भाग है जहाँ छःमास का दिन और छःमास की दीर्घ रात्रियाँ होती हैं भौगोलिक तथ्यों से यह प्रमाणित हो गया है दिन रात की एसी दीर्घ आवृत्तियाँ केवल ध्रुवों पर ही होती हैं इसका कारण पृथ्वी अपने अक्ष ( धुरी ) पर २३ १/२ ° अर्थात् तैईस सही एक बट्टे दो डिग्री अंश दक्षिणी शिरे पर झुकी हुई है |
अतः उत्तरीय शिरे पर उतनी ही उठी हुई है ! और भू- मध्य स्थल दौनो शिरों के मध्य में है ..पृथ्वी अण्डाकार रूप में सूर्य का परिक्रमण करती है जो ऋतुओं के परिवर्तन का कारण है अस्तु ..स्वर्ग को ही संस्कृत के श्रेण्य साहित्य में पुरुः और ध्रुवम् भी कहा है पुरुः शब्द प्राचीनत्तम भारोपीय शब्द है
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जिसका ग्रीक / तथा लैटिन भाषाओं में Pole रूप प्रस्तावित है ** पॉल का अर्थ हीवेन Heaven या Sky है Heaven = to heave उत्थान करना उपर चढ़ना ।
संस्कृत भाषा में भी उत्तर शब्द यथावत है जिसका मूल अर्थ है अधिक ऊपर।
Utter-- Extreme = अन्तिम उच्चत्तम विन्दु ।
अपने प्रारम्भिक प्रवास में स्वीडन ग्रीन लेण्ड ( स्वेरिगे ) आदि स्थलों परआर्य लोग बसे हुए थे । , यूरोपीय भाषा में भी इसी अर्थ को ध्वनित करता है ।
हम बताऐं की नरक भी यहीं स्वीलेण्ड ( स्वर्ग) के दक्षिण में स्थित था ।----------
Narke ( Swedish pronunciation) is a swedish traditional province or landskap situated in Sviar-land in south central ...sweden
नरक शब्द नॉर्स के पुराने शब्द नार( Nar )
से निकला है, जिसका अर्थ होता है - संकीर्ण अथवा तंग (narrow )
ग्रीक भाषा में नारके Narke तथा narcotic जैसे शब्दों का विकास हुआ ।
ग्रीक भाषा में नारके Narke शब्द का अर्थ जड़ ,सुन्न ( Numbness, deadness
है ।
संस्कृत भाषा में नड् नल् तथा नर् जैसे शब्दों का मूल अर्थ बाँधना या जकड़ना है ।
इन्हीं से संस्कृत का नार शब्द जल के अर्थ में विकसित हुआ ।
संस्कृत धातु- पाठ में नी तथा नृ धातुऐं हैं आगे ले जाने के अर्थ में - नये ( आगे ले जाना ) नरयति / नीयते वा इस रूप में है ।
अर्थात् गतिशीलता जल का गुण है ।
उत्तर दिशा के वाचक नॉर्थ शब्द नार मूलक ही है
क्योंकि यह दिशा हिम और जल से युक्त है ।
भारोपीय धातु स्नर्ग *(s)nerg- To turn, twist
अर्थात् बाँधना या लपेटना से भी सम्बद्ध माना जाता है
परन्तु जकड़ना बाँधना ये सब शीत की गुण क्रियाऐं हैं ।
अत: संस्कृत में नरक शब्द यहाँ से आया और इसका अर्थ है --- वह स्थान जहाँ जीवन की चेतनाऐं जड़ता को प्राप्त करती हैं ।
वही स्थान नरक है ।
निश्चित रूप से नरक स्वर्ग ( स्वीलेण्ड)या स्वीडन के दक्षिण में स्थित था !
स्वर्ग का और नरक का वर्णन तो हमने कर दिया
परन्तु भारतीय संस्कृति में जिसे स्वर्ग का अधिपति
माना गया उस इन्द्र का वर्णन न किया जाए तो
पाठक- गण हमारे शोध को कल्पनाओं की उड़ान
और निर् धार ही मानेंगे ----
प्रस्तुतिकरण:- यादव योगेश कुमार'रोहि'
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