धर्म के नाम पर कुछ चालाक और कामुक प्रवृत्ति के कथित पौराणिक पुरोहितों ने देवी देवता को आधार बनाकर काल्पपनिक रूप से ऐसी कथाओं का निर्माण किया जो समाज के अशिक्षित धर्म भीरू जनता पर अपनी धाक जमाकर स्वयं के लिए वासनापूर्ति के रास्ते बना सकें जिसे दूसरे शब्दों में धर्ममूलक व्यभिचार
पुरोहितों के मनगड़न्त धर्त से ही सिंचित होकर समाज में व्ययभिचार की जड़े फैलती रहीं हैं !
भारत देश में सदियों से धर्म की आढ़ में व्यभिचार मूलक क्रियाऐं होती रहीं हैं
देश में आई बलात्कारों की बाढ़ से चिन्तित माननीय उच्चतम न्यायालय को स्वयं संज्ञान लेना पड़ा है।
धर्म और राजनीति से जुड़े बड़े-बड़े चेहरे भी बेनक़ाब हो रहे हैं।
इसका कारण कहीं धर्मशास्त्रों में वर्णित व्यभिचार ही तो नहीं?
जिसे धर्मकथाओं के नाम पर धार्मिक मंचों से अनवरत चटखारे ले-ले कर सुनाया जा रहा है।
यद्यपि धर्म का उज्जवल पक्ष उपनिषदों में है
जहाँ पर तो वर्ण आश्रम सबको ही नकार दिया गया है
जैसे
वर्णाश्रमाचारयुता विमूढाः
कर्मानुसारेण फलं लभन्ते॥
वर्णादिधर्मं हि परित्यजन्तः
स्वानन्दतृप्ताः पुरुषा भवन्ति॥१७॥
(मैत्रेय्युपनिषत् )
सरलार्थ:-वर्ण एवं आश्रम धर्म का पालन करने वाले अज्ञानी जन ही अपने कर्मों का फल भोगते हैं;
लेकिन वर्ण आदि के धर्मों को त्यागकर आत्मा में ही स्थिर रहने वाले मनुष्य अन्तः के आनन्द से ही पूर्ण सन्तुष्ट रहते हैं।।
सतयुग त्रेता द्वापर और कलियुग की आयु और कल्पना ही मनगड़न्त है -
आओ इस पर भी विचार करें 🙋
जरा सोचिए! कथित सतयुग में आम आदमी का आचरण कैसा रहा होगा ?
जबकि भगवानों, देवराजों व देवगुरुओं तक का तो यह हाल था...👇
वाचं दुहितरं तन्वीं स्वयंभूर्हतीं मन:।
अकामां चकमे क्षत्त्: सकाम् इति न: श्रुतम् ॥
(श्रीमदभागवत् 3/12/28)
भावार्थ- भगवान ब्रह्मा की कन्या सरस्वती बड़ी ही सुकुमारी और मनोहर थी।
हमने सुना है- एक बार उसे देखकर ब्रह्माजी काम मोहित हो गए थे, यद्यपि वह स्वयं वासनाहीन थी।
पुराण लेखकों ने बहुत से प्रसंगों को वेदों से लेकर ही उन्हें विस्तृत करके लिखा है।
भागवतकार ने भी उपर्युक्त प्रसंग को कदाचित ऋग्वेद के दशवें मण्डल के सूक्त-की इकसठवीं ऋचा से लिया है।
जिनमें प्रजापति ब्रह्मा द्वारा अपनी ही पुत्री के साथ मैथुन का बड़ी बेशर्मी के साथ उल्लेख किया गया है।
डॉ गंगासहाय शर्मा एम.ए. (हिन्दी, सँस्कृत) पी.एच.डी. व्याकरणाचार्य के अनुवाद सहित उन ऋचाओं को देखें!👇
प्रथि॑ष्ट॒ यस्य॑ वी॒रक॑र्ममि॒ष्णदनु॑ष्ठितं॒ नु नर्यो॒ अपौ॑हत् ।
पुन॒स्तदा वृ॑हति॒ यत्क॒नाया॑ दुहि॒तुरा अनु॑भृतमन॒र्वा ॥५||
भावार्थ- प्रजापति का पुत्र उत्पन्न करने में समर्थ वीर्य सर्वोत्तम है।
प्रजापति ने अपने उस मानव हितकारी वीर्य का त्याग किया, जिसे उन्होंने अपनी सुंदर कन्या के शरीर में सिंचित किया था।
म॒ध्या यत्कर्त्व॒मभ॑वद॒भीके॒ कामं॑ कृण्वा॒ने पि॒तरि॑ युव॒त्याम्
म॒ना॒नग्रेतो॑ जहतुर्वि॒यन्ता॒ सानौ॒ निषि॑क्तं सुकृ॒तस्य॒ योनौ॑॥६||
भावार्थ- जिस समय पिता ने अपनी युवती कन्या के साथ यथेच्छ कर्म किया, उस समय उनके संभोग कर्म के समीप ही थोड़ा वीर्य गिरा, परस्पर अभिगमन करते हुए उन दोनों ने यह वीर्य यज्ञ के ऊंचे स्थान कुण्ड में छोड़ा था।
पि॒ता यत्स्वां दु॑हि॒तर॑मधि॒ष्कन्क्ष्म॒या रेतः॑ संजग्मा॒नो नि षि॑ञ्चत् ।
स्वा॒ध्यो॑ऽजनय॒न्ब्रह्म॑ दे॒वा वास्तो॒ष्पतिं॑ व्रत॒पां निर॑तक्षन्॥७||
भावार्थ- जिस समय पिता ने अपनी पुत्री के साथ संभोग किया, उस समय धरती से मिल कर वीर्य त्याग किया। शोभन कर्म वाले देवो ने उसी वीर्य से व्रत रक्षक देव वास्तोष्पति का उत्पादन किया।
(रूद्रसंहिता युद्धखंड अध्याय 24 )
विष्णुर्जलन्धरं गत्वा दैत्यस्य पुटभेदनम्।|
अर्थात : विष्णु ने जलन्धर दैत्य की राजधानी जाकर उसकी स्त्री वृन्दा का सतीव्रत्य नष्ट करने का विचार किया।
इधर शिव जी जलन्धर के साथ युद्ध कर रहे थे और उधर विष्णु जलन्धर का वेष धारण कर उसकी स्त्री के पास पहुँचे जिससे उसे लगा कि मेरे ही पति हैं।
किसी और को अपना पति मान लेने से उसका सतीत्व नष्ट हो गया, जिससे वह दैत्य मारा गया।
जब वृन्दा को विष्णु का यह छल मालूम हुआ तो उसने विष्णु से कहा-
धिक् तदेवं हरे शीलं परदाराभिगामिनः।
ज्ञातोऽसि त्वं मयासम्यङ्मायी प्रत्यक्ष तपसः।।
अर्थात् : पराई स्त्री का शील हरण करने वाले हे विष्णु! तुम्हारे ऐसे आचरण पर धिक्कार है।
मैं, अब तुमको भलीभांति जान गई।
तुम देखने में तो महासाधु जान पड़ते हो, किन्तु तुम हो मायावी, अर्थात महाछली।
एवं संगम्य तु तदा निश्चक्रामोटजात् ततः।।
स सम्भ्रमात त्वरन् राम शंकितो गौतमं प्रति।
(वाल्मीकि रामायण बालकांड- 48/22)
भावार्थ- इस प्रकार अहिल्या से समागम करके इंद्र जब उस कुटी से बाहर निकले तब गौतम के आ जाने की आशंका से बड़ी उतावली के साथ वेग पूर्वक भागने का प्रयत्न करने लगे।
दृष्ट्वा सुरपतिस्त्रस्तो विषण्णवदनोऽभवत्।।
(वाल्मीकी रामायण 48/25)
अथ दृष्ट्वा सहस्त्राक्षं मुनिवेषधरं मुनिः।
दुर्वृत्तं वृत्तसम्पन्नो रोषाद् वचनमब्रवीत्।।
(वाल्मीकी रामायण 48/26)
भावार्थ- उन पर दृष्टि पढ़ते ही देवराज इंद्र भय से थर्रा उठे। उनके मुख पर विषाद छा गया। दुराचारी इंद्र को मुनि का वेष धारण किए देख सदाचार संपन्न मुनिवर गौतम जी ने रोष में भरकर कहा-
मम रूपं समास्थाय कृतवानसि दुर्मते।
अकर्तव्यमिदं यस्माद् विफलस्त्वं भविष्यसि।।
(वाल्मीकी रामाय48/27)
भावार्थ- दुर्मते! तूने मेरा रूप धारण करके यह न करने योग्य पापकर्म किया है इसलिए तू विफल (अंडकोषों से रहित) हो जाएगा।
अन्तर्वत्न्यां भार्तृपत्न्यां मैथुनाय बृहस्पतिः।
प्रवृत्तो वारितो गर्भ शप्त्वा वीर्यमवासृजत्।।
(श्रीमद्भागवत पुराण9/20/36)
भावार्थ- एक बार बृहस्पति जी ने अपने भाई उतथ्य की गर्भवती पत्नी से मैथुन करना चाहा। उस समय गर्भ में जो बालक (दीर्घतमा) था उसने मना किया। किन्तु बृहस्पति जी ने उसकी बात पर ध्यान न दिया और उसे 'तू अंधा हो जा' यह शाप देकर बलपूर्वक गर्भाधान कर दिया।
आज देश के प्रत्येक प्रबुद्ध नागरिक को भारत के माननीय मुख्य न्यायाधीश की चिन्ता के प्रति संवेदनशील होने की जरुरत है।
यदि हम अपने समाज को चरित्रवान बनाना चाहते हैं तो हमें कथित धर्मशास्त्रों को सच्चाई के आधार पर पुन: परिभाषित करना ही होगा।
जिनकी दुहाई देकर कथित सतयुग से वर्तमान तक, धर्म और राजनीति के बड़े झंडाबरदार भी अपनी इन्द्रियलिप्सा जनित वासनाओं की बलात पूर्ति करते आ रहे हैं.
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