स्वर्ग की खोज और देवों का रहस्य....
· 🌓⚡⛅..स्वर्ग की खोज और देवों का रहस्य .....यथार्थ के धरा तल पर प्रतिष्ठित एक आधुनिक शोध है | ...🌓⚡⛅
___________________________________________
आज से दश सहस्र ( दस हज़ार )वर्ष पूर्व मानव सभ्यता की व्यवस्थित संस्था देवजाति का प्रस्थान स्वर्ग से भू- मध्य रेखीय स्थल अर्थात् आधुनिक भारत में हुआ था |
यद्यपि अपनी यात्रा काल में अनेक पढ़ावों का आश्रय भी लिया |
यद्यपि अवान्तर यात्रा काल में सुमेरियन तथा बैवीलॉनियन संस्कृतियों से भी साक्षात्कार हुया ।
परन्तु फिर अपनी प्रारम्भिक स्मृतियों को सँजोए रखा ।
स्वर्ग और नरक की धारणाऐं सुमेरियन संस्कृति में शियोल और नरगल के रूप में अवशिष्ट रहीं ,
सुमेरियन लोगों ने शियॉल नाम से एक काल्पनिक लोग की कल्पना की थी ।
जहाँ मृत्यु के बाद आत्माऐं प्ररस्थान करती हैं ।
हमारा वर्ण्य- विषय भी स्वर्ग और नरक ही है ।
स्वर्ग नरक की मान्यताओं का विस्तार पौराणिक काल में भारत में अधिक हुआ !
हमारा यह तथ्य अपने आप में यथार्थ होते हुए भी रूढ़िवादी जन समुदाय की चेतनाओं में समायोजित होना कठिन है !
फिर भी प्रमाणों के द्वारा इस तथ्य को सिद्ध किया गया है ! यह नवीन शोध
यादव योगेश कुमार "रोहि "की दीर्घ कालिक आध्यात्मिक और सांस्कृतिक साधनाओं का परिणाम है .विश्व इतिहास में यह अब तक का सबसे नवीनत्तम और अद्भुत शोध है !
निश्चित रूप से रूढ़िवादी जगत् के लिए यह शोध एक बबण्डर सिद्ध होगा बुद्धि जीवियों तक यह सन्देश न पहँच पाए इस हेतु के लिए अनिष्ट कारी शक्तियों ने अनेक विघ्न उत्पन्न किए हैं तीन वार यह विघ्न उत्पन्न हुआ है !
पूरा सन्देश डिलीट कर दिया गया है परन्तु वह कारक अज्ञात ही था जिसके द्वारा यह संदेश नष्ट किया गया था फिर ईश्वर की कृपा निरन्तर बनी रही
आर्य संस्कृति का प्रादुर्भाव देवों अथवा स्वरों { सुरों} से हुआ है |
यह भारतीय संस्कृति की दृढ़ मान्यता है , सुर { स्वर } जिस स्थान { रज} पर पर रहते थे उसे ही स्वर्ग कहा गया है ---
"स्वरा: सुरा:वा राजन्ते यस्मिन् देशे तद् स्वर्गम् कथ्यते "....जहाँ छःमहीने का दिन और छःमहीने की रातें होती हैं वास्तव में आधुनिक समय में यह स्थान स्वीडन
{ Sweden} है जो उत्तरी ध्रुव पर हैमर पाष्ट के समीप है प्राचीन नॉर्स भाषाओं में स्वीडन को ही स्वरगे
{ Svirge } कहा है!
भारतीय देव संस्कृतियों के अनुयायीयों को इतना स्मरण था कि उनके पूर्वज सुर { देव} उत्तरी ध्रुव के समीप स्वेरिगी में रहते थे इस तथ्य के भारतीय सन्दर्भ भी विद्यमान् हैं |
बुद्ध के परवर्ती काल खण्ड में लिपि बद्ध ग्रन्थ मनु स्मृति में वर्णित है|
दैवे रात्र्यहनी वर्षं प्रविभागस्तयोः पुनः ।
अहस्तत्रोदगयनं रात्रिः स्याद्दक्षिणायनम् । ।1/67
अर्थ:-
वर्षम्) मनुष्यों का एक वर्ष (दैवे रात्र्यहनी) देवताओं के एक दिन - रात होते हैं (तयोः पुनः प्रविभागः) उनका भी फिर विभाग है (तत्र उदगयनम् अहः) उनमें ‘उत्तरायण’ देवों का दिन है, और (दक्षिणायनम् रात्रिः स्यात्) ‘दक्षिणा-यन’ देवों की रात है ।
ब्राह्मस्य तु क्षपाहस्य यत्प्रमाणं समासतः ।
एकैकशो युगानां तु क्रमशस्तन्निबोधत । ।1/68
(ब्राह्मस्य तु क्षपा - अहस्य) परमात्मा के दिन - रात का तु तथा एकैकशः युगानाम् एक - एक युगों का यत् प्रमाणम् जो कालपरिमाण है तत् उसे क्रमशः क्रमानुसार और समासतः संक्षेप से निबोधत सुनो ।
चत्वार्याहुः सहस्राणि वर्साणां तत्कृतं युगम् ।
तस्य तावच्छती संध्या संध्यांशश्च तथाविधः । ।1/69
तत् चत्वारि सहस्त्राणि वर्षाणां कृतं युगम् आहुः उन देवताओं ६७ वें में जिनके दिन - रातों का वर्णन है के चार हजार दिव्य वर्षों का एक ‘सतयुग’ कहा है (तस्य) इस सतयुग की यावत् शती सन्ध्या उतने ही सौ वर्ष की अर्थात् ४०० वर्ष की संध्या होती है और तथाविधः उतने ही वर्षों का अर्थात् संध्यांशः संध्याशं का समय होता है ।
इतरेषु ससंध्येषु ससंध्यांशेषु च त्रिषु ।
एकापायेन वर्तन्ते सहस्राणि शतानि च । ।1/70
च और इतरेषु त्रिषु शेष अन्य तीन - त्रेता, द्वापर, कलियुगों में ससंध्येषु संसध्यांशेषु ‘संध्या’ नामक कालों में तथा ‘संध्यांश’ नामक कालों में सहस्त्राणि च शतानि एक - अपायेन क्रमशः एक हजार और एक - एक सौ घटा देने से वर्तन्ते उनका अपना - अपना कालपरिमाण निकल आता है अर्थात् ४८०० दिव्यवर्षों का सतयुग होता है, उसकी संख्याओं मं एक सहस्त्र और संध्या व संध्यांश में एक - एक सौ घटाने से ३००० दिव्यवर्ष + ३०० संध्यावर्ष + ३०० संध्यांशवर्ष - ३६०० दिव्यवर्षों का त्रेतायुग होता है । इसी प्रकार - २०००+२००+२००- २४०० दिव्यवर्षों का द्वापर और १०००+१००+१०० - १२०० दिव्यवर्षों का कलियुग होता है ।
अहो रात्रे विभजते सूर्यो मानुष देैविके !!
देवे रात्र्यहनी वर्ष प्र वि भागस्तयोःपुनः ||
अहस्तत्रोदगयनं रात्रिः स्यात् दक्षिणायनं
मनु स्मृति १/६७ ...अर्थात् देवों और मनुष्यों के दिन रात का विभाग सूर्य करता है मनुष्य का एक वर्ष देवताओं का एक दिन रात होता है अर्थात् छः मास का दिन .जब सूर्य उत्तारायण होता है !
और छःमास की ही रात्रि होती है जब सूर्य दक्षिणायनहोता है !
प्रकृति का यह दृश्य केवल ध्रुव देशों में ही होता है ! वेदों का उद्धरण भी है |
."अस्माकं वीरा: उत्तरे भवन्ति " हमारे वीर उत्तर में हुए इतना ही नहीं भारतीय पुराणों मे वर्णन है कि कि स्वर्ग उत्तर दिशा में है !!
वेदों में भी इस प्रकार के अनेक संकेत हैं |
अदि॑ते॒ मित्र॒ वरु॑णो॒त मृ॑ळ॒ यद्वो॑ व॒यं च॑कृ॒मा कच्चि॒दागः॑। उ॒र्व॑श्या॒मभ॑यं॒ ज्योति॑रिन्द्र॒ मा नो॑ दी॒र्घा अ॒भि न॑श॒न्तमि॑स्राः॥ (ऋग्वेद 2/27/14)
हे सूर्य शक्ति सम्पन्न इन्द्र मित्र और वरुण !
हमको सुखी करो जो तुम्हारा कुछ भी बड़ा हम अपराध करें तो उसो क्षमा करो और हम भय रहित होकर ज्योतिर्मयी दिनों को देखें और ये लम्बी राते हम्हारी कटें अर्थात् ये दीर्घ रातें हम्हें कष्टदायी हैं
-हे (अदिते) अखण्डित स्वरूप और विज्ञानवाली न्यायकर्त्री राज्ञी तथा हे (इन्द्र) परमैश्वर्ययुक्त (मित्र) सबके सखा (उत) और (वरुण) सबसे उत्तम राजन् आप हमको (मृळ) सुखी करो (यत्) जो (वः) तुम्हारा (कश्चित्) कुछ (उरु) बड़ा (आगः) अपराध (वयम्) हम (चकृम) करें उसको क्षमा करो जिससे (अभयम्) भयरहित (ज्योतिः) प्रकाशयुक्त दिन को (अश्याम्) प्राप्त होऊँ और (नः) हमारी (दीर्घाः) बड़ी (तमिस्राः) रात्री (मा) (न) (नशन्) काटें ॥१४॥
(मा नो दीर्घा अभिनशन् तमिस्राः ) ऋग्वेद २/२७/१४ वैदिक काल के ऋषि उत्तरीय ध्रुव से निम्मनतर प्रदेश बाल्टिक सागर के तटों पर अधिवास कर रहे थे ,
उस समय का यह वर्णन है !
बाल्टिक भाषा में आज भी वैदिक भाषा के समान द्विवचन रूप होतें अर्थात् संस्कृत वैदिक और लिथुऑनियन भाषा मे तीन व्कयाकरणीय वचन होते हैं
बाल्टिक का को लेट्टटिक भी कहते हैं इसकी तीन साखाऐं हैं १- प्राचीन प्राशन यद्यपि 17वीं सदी में यह समाप्त हो गयी इसका क्षेत्र बाल्टिक तट पर विश्चुला और नीमेन नदियों के बीच में स्थित प्रशा प्रदेश था 15वीं सदी के आरम्भ तक सौलहवीं सदी में लिखी कुछ पुस्तकें
मिली हैं बाल्टिक की दूसरी भाषा लिथुआनियन है
यह भाषा वैदिक भाषा के समान बड़ी वैज्ञानिक है
यह मूल भारोपीय भाषा के सन्निकट है
संस्कृत का अस्ति इसमें इसमें एष्टि है जीवा: रूप भी है
वैदिक भाषा के समान संगीतात्ममकता और व्याकरणिक रूप समान हैं
अब यह रूसी परिवार की भाषा है अर्थात यह अब रूसी क्षेत्र है तीसरी लेटविया रूस के पश्चिमी भाग लेटविया राज्य की भाषा है ! यह "स्लाव" से मिलती भाषा है
लम्बी रातें हम्हें अभिभूत न करें ....वैदिक पुरोहित भय भीत रहते थे, कि प्रातः काल होगा भी अथवा नहीं , क्यों कि रात्रियाँ छः मास तक लम्बी रहती थीं !
🌓⚡🌓⚡..
रात्रि र्वै चित्र वसुख्युष्ट़इ्यै वा एतस्यै पुरा ब्राह्मणा अभैषुः --- तैत्तीरीय (संहित्ता १ ,५, ७, ५ )
अर्थात् चित्र वसु रात्रि है अतः ब्राह्मण भयभीत है कि सुबह ( व्युष्टि ) न होगी !!! आशंका है
ध्यातव्य है कि ध्रुव बिन्दुओं पर ही दिन रात क्रमशःछः छः महीने के होते है |
परन्तु उत्तरीय ध्रुव से नीचे क्रमशः चलने पर भू - मध्य रेखा पर्यन्त स्थान भेद से दिन रात की अवधि में भी भेद हो जाता है . और यह अन्तर चौबीस घण्टे से लेकर छः छः महीने का हो जाता है |
अग्नि और सूर्य की महिमा आर्यों को उत्तरीय ध्रुव के शीत प्रदेशों में ही हो गयी थी !
अतः अग्नि - अनुष्ठान वैदिक सांस्कृतिक परम्पराओं का अनिवार्यतः अंग
था .जो परम्पराओं के रूप में यज्ञ के रूप में रूढ़ हो गया अग्निम् ईडे पुरोहितम् यज्ञस्य देवम् ऋतुज्यं होतारं रत्नधातव ...ऋग्वेद १/१/१ ........
अग्नि के लिए २००सूक्त हैं ।
अग्नि और वस्त्र शीत प्रदेश में रहने वाले देव जातियों की अनिवार्य आवश्यकताऐं थी |
वास्तव में तीन लोकों का तात्पर्य पृथ्वी के तीन रूपों से ही था |
उत्तरीय ध्रुव उच्चत्तम स्थान होने से स्वर्ग है !
जैसा कि जर्मन सुर जनजाति की मान्यता थी
उन्होंने स्वेरिकी या स्वेरिगी को अपने पूर्वजों का प्रस्थान बिन्दु माना ; यह स्थान आधुनिक स्वीडन { Sweden} ही था |
प्राचीन नॉर्स भाषाओं में स्वीडन का ही प्राचीन नाम स्वेरिगे { Sverige } है !
यह स्वेरिगे Sverige } देव संस्कृति का आदिम स्थल था, वास्तव में स्वेरिगे (Sverige )शब्द के नाम करण का कारण भी उत्तर पश्चिम जर्मनी आर्यों की स्वीअर
{ Sviar } नामकी जन जाति थी .अतः स्वेरिगे शब्द की व्युत्पत्ति भी सटीक है Sverige is The region of sviar This is still the formal Names for Sweden in old Swedish Language..Etymological form Svea ( स्वः + Rike - Region रीजन अर्थात् रज = स्थान तथा शासन क्षेत्र |
संस्कृत तथा ग्रीक /लैटिन शब्द लोक के समानार्थक है "रज् प्रकाशने अनुशासने च"पुरानी नॉर्स (Risa) गौथ भाषा में (Reisan) अंग्रेजी (Rise) पाणिनीय धातु पाठ देखें लैटिन फ्रेंच तथा जर्मन वर्ग की भाषाओं में लैटिन ...Regere = To rule अनुशासन करना इसी का present perfect रूप Regens ,तथ regentis आदि हैं Regence = goverment राज प्रणाली .. जर्मनी भाषा में Rice तथा reich रूप हैं !!
पुरानी फ्रेंच में Regne (reign) लैटिन रूप Regnum = to rule संस्कृत लोक शब्द लैटिन फ्रेंच आदि में Locus के रूप में है जिसका अर्थ होता है प्रकाश और स्थान ..तात्पर्य स्वर अथवा सुरों ( आर्यों ) का राज ( अनुशासन क्षेत्र ) ही स्वर्ग स्वः रज ..समाक्षर लोप से सान्धिक रूप हुआ स्वर्ग
स्वर्ग उत्तरीय ध्रुव पर स्थित पृथ्वी का वह उच्चत्तम भू - भाग है जहाँ छःमास का दिन और छःमास की दीर्घ रात्रियाँ होती हैं भौगोलिक तथ्यों से यह प्रमाणित हो गया है दिन रात की एसी दीर्घ आवृत्तियाँ केवल ध्रुवों पर ही होती हैं इसका कारण पृथ्वी अपने अक्ष ( धुरी ) पर २३ १/२ ° अर्थात् तैईस सही एक बट्टे दो डिग्री अंश दक्षिणी शिरे पर झुकी हुई है |
अतः उत्तरीय शिरे पर उतनी ही उठी हुई है !
और भू- मध्य स्थल दौनो शिरों के मध्य में है पृथ्वी अण्डाकार रूप में सूर्य का परिक्रमण करती है जो ऋतुओं के परिवर्तन का कारण है अस्तु स्वर्ग को ही संस्कृत के श्रेण्य साहित्य में पुरुः
और ध्रुवम् भी कहा है पुरुः शब्द प्राचीनत्तम भारोपीय शब्द है |
जिसका ग्रीक / तथा लैटिन भाषाओं में Pole रूप प्रस्तावित है पॉल का अर्थ हीवेन (Heaven) या (Sky) है Heaven = to heave उत्थान करना उपर चढ़ना ।
संस्कृत भाषा में भी उत्तर शब्द यथावत है जिसका मूल अर्थ है अधिक ऊपर।
Utter-- Extreme = अन्तिम उच्चत्तम विन्दु ।
अपने प्रारम्भिक प्रवास में स्वीडन ग्रीन लेण्ड ( स्वेरिगे ) आदि स्थलों परआर्य लोग बसे हुए थे ।
यूरोपीय भाषा में भी इसी अर्थ को ध्वनित करता है ।
हम बताऐं की नरक भी यहीं स्वीलेण्ड ( स्वर्ग) के दक्षिण में स्थित था ।
Narke ( Swedish pronunciation) is a swedish traditional province or landskap situated in Sviar-land in south central ...sweden
नरक शब्द नॉर्स के पुराने शब्द नार( Nar )
से निकला है, जिसका अर्थ होता है - संकीर्ण अथवा तंग narrow
ग्रीक भाषा में नारके Narke तथा narcotic जैसे शब्दों का विकास हुआ ।
ग्रीक भाषा में नारके Narke शब्द का अर्थ जड़ ,सुन्न ( Numbness, deadness है ।
संस्कृत भाषा में नड् नल् तथा नर् जैसे शब्दों का मूल अर्थ बाँधना या जकड़ना है ।
इन्हीं से संस्कृत का नार शब्द जल के अर्थ में विकसित हुआ ।
संस्कृत धातु- पाठ में नी तथा नृ धातुऐं हैं आगे ले जाने के अर्थ में - नये ( आगे ले जाना ) नरयति / नीयते वा इस रूप में है ।
अर्थात् गतिशीलता जल का गुण है ।
उत्तर दिशा के वाचक नॉर्थ शब्द नार मूलक ही है
क्योंकि यह दिशा हिम और जल से युक्त है ।
भारोपीय धातु स्नर्ग *(s)nerg- To turn, twist
अर्थात् बाँधना या लपेटना से भी सम्बद्ध माना जाता है
परन्तु जकड़ना बाँधना ये सब शीत की गुण क्रियाऐं हैं ।
अत: संस्कृत में नरक शब्द यहाँ से आया और इसका अर्थ है --- वह स्थान जहाँ जीवन की चेतनाऐं जड़ता को प्राप्त करती हैं ।
वही स्थान नरक है ।
निश्चित रूप से नरक स्वर्ग ( स्वीलेण्ड)या स्वीडन के दक्षिण में स्थित था !
स्वर्ग का और नरक का वर्णन तो हमने कर दिया
परन्तु भारतीय संस्कृति में जिसे स्वर्ग का अधिपति
माना गया उस इन्द्र का वर्णन न किया जाए तो
पाठक- गण हमारे शोध को कल्पनाओं की उड़ान
और निर् धार ही मानेंगे ----
अत: हम आपको ऐसी अवसर ही प्रदान नहीं करें
यूरोपीय पुरातन कथाओं में इन्द्र को एण्ड्रीज (Andreas) के रूप में वर्णन किया गया है ।
जिसका अर्थ होता है शक्ति सम्पन्न व्यक्ति ।
🌅
Andreas - son of the river god peneus and founder of orchomenos in Boeotia-----
-------
Andreas Ancient Greek - German was the son of river god peneus in Thessaly
from whom the district About orchomenos in Boeotia was called Andreas in Another passage pousanias speaks of Andreas( it is , however uncertain whether he means the same man as the former) as The person who colonized the island of Andros ....
अर्थात् इन्द्र थेसिली में एक नदी देव पेनियस का पुत्र था
जिससे एण्ड्रस नामक द्वीप नामित हुआ ..
_____________________________
"डायोडॉरस के अनुसार .."
ग्रीक पुरातन कथाओं के अनुसार एण्ड्रीज (Andreas)
रॉधामेण्टिस (Rhadamanthys) से सम्बद्ध था ।
रॉधमेण्टिस ज्यूस तथा यूरोपा का पुत्र और मिनॉस (मनु) का भाई था ।
ग्रीक पुरातन कथाओं में किन्हीं विद्वानों के अनुसार एनियस (Anius) का पुत्र एण्ड्रस( Andrus)
के नाम से एण्ड्रीज प्रायद्वीप का नामकरण हुआ ..जो अपॉलो का पुजारी था ।
परन्तु पूर्व कथन सत्य है ।
ग्रीक भाषा में इन्द्र शब्द का अर्थ
शक्ति-शाली पुरुष है ।
जिसकी व्युत्पत्ति- ग्रीक भाषा के ए-नर (Aner)
शब्द से हुई है ।
जिससे एनर्जी (energy) शब्द विकसित हुआ है।
संस्कृत भाषा में अन् श्वसने प्राणेषु च
के रूप में धातु विद्यमान है ।जिससे प्राण तथा अणु जैसे शब्दों का विकास हुआ...
कालान्तरण में संस्कृत भाषा में नर शब्द भी इसी रूप से व्युत्पन्न हुआ....
वेल्स भाषा में भी नर व्यक्ति का वाचक है ।
फ़ारसी मे नर शब्द तो है ।
परन्तु इन्द्र शब्द नहीं है ।
वेदों में इन्द्र को वृत्र का शत्रु बताया है ।
जिसे केल्टिक माइथॉलॉजी मे ए-बरटा ( Abarta )
कहा है ।
जो दनु और त्वष्टा परिवार का सदस्य है ।
इन्द्रस् आर्यों का नायक अथवा वीर यौद्धा था ।
भारतीय पुरातन कथाओं में त्वष्टा को इन्द्र का पिता बताया है ।
शम्बर को ऋग्वेद के द्वित्तीय मण्डल के
सूक्त १४ / १९ में कोलितर कहा है पुराणों में इसे दनु
का पुत्र कहा है ।
जिसे इन्द्र मारता है ।
ऋग्वेद में इन्द्र पर आधारित २५० सूक्त हैं ।
यद्यपि कालान्तरण मे आर्यों अथवा सुरों के नायक को ही इन्द्र उपाधि प्राप्त हुई ...
अत: कालान्तरण में भी जब ईरान होते हुए ये भारत आये तो इन्होंने आर्हय विशेषण वीरता सूचक विशेषण के रूप में ग्रहण किया भू-मध्य रेखीय भारत भूमि में आये जहाँ भरत अथवा वृत्र की अनुयायी व्रात्य ( वारत्र )नामक जन जाति पूर्वोत्तरीय स्थलों पर निवास कर रही थी
जो भारत नाम का कारण बना ...
इन से आर्यों को युद्ध करना पड़ा ...
भारत में भी यूरोप से आगत आर्यों की सांस्कृतिक मान्यताओं में भी स्वर्ग उत्तर में है ।
और नरक दक्षिण में है ।
स्मृति रूप में अवशिष्ट रहीं ...
और विशेष तथ्य यहाँ यह है कि नरक के स्वामी यम हैं
यह मान्यता भी यहीं से मिथकीय रूप में स्थापित हुई ..
नॉर्स माइथॉलॉजी प्रॉज-एड्डा में नारके का अधिपति यमीर को बताया गया है ।
यमीर यम ही है ।
हिम शब्द संस्कृत में यहीं से विकसित है
यूरोपीय लैटिन आदि भाषाओं में हीम( Heim)
शब्द हिम के लिए यथावत है।
नॉर्स माइथॉलॉजी प्रॉज-एड्डा में यमीर (Ymir)
Ymir is a primeval being , who was born from venom that dripped from the icy - river ......
earth from his flesh and from his blood the ocean , from his bones the hills from his hair the trees from his brains the clouds from his skull the heavens from his eyebrows middle realm in which mankind lives"
_________________________________________
(Norse mythology prose adda)
अर्थात् यमीर ही सृष्टि का प्रारम्भिक रूप है।
यह हिम नद से उत्पन्न , नदी और समुद्र का अधिपति हो गया ।
पृथ्वी इसके माँस से उत्पन्न हुई ,इसके रक्त से समुद्र और इसकी अस्थियाँ पर्वत रूप में परिवर्तित हो गयीं इसके वाल वृक्ष रूप में परिवर्तित हो गये ,मस्तिष्क से बादल और कपाल से स्वर्ग और भ्रुकुटियों से मध्य भाग जहाँ मनुष्य रहने लगा उत्पन्न हुए ...
ऐसी ही धारणाऐं कनान देश की संस्कृति में थी ।
वहाँ यम को यम रूप में ही ..नदी और समुद्र का अधिपति माना गया है।
जो हिब्रू परम्पराओं में या: वे अथवा यहोवा हो गया
उत्तरी ध्रुव प्रदेशों में ...
जब शीत का प्रभाव अधिक हुआ तब नीचे दक्षिण की ओर ये लोग आये जहाँ आज बाल्टिक सागर है,
यहाँ भी धूमिल स्मृति उनके ज़ेहन ( ज्ञान ) में विद्यमान् थी ।
बाल्टिक सागर के तट वर्ती प्रदेशों पर दीर्घ काल तक क्रीडाएें करते रहे .पश्चिमी बाल्टिक सागर के तटों पर इन्हीं आर्यों ने मध्य जर्मन स्केण्डिनेवीया द्वीपों से उतर कर बोल्गा नदी के द्वारा दक्षिणी रूस .त्रिपोल्जे आदि स्थानों पर प्रवास किया आर्यों के प्रवास का सीमा क्षेत्र बहुत विस्तृत था ।
देव संस्आकृति के अनुयायीयों की बौद्धिक सम्पदा यहाँ आकर विस्तृत हो गयी थी ..🐌🌠🌚🌝मनुः जिसे जर्मन आर्यों ने मेनुस् (Mannus) कहा आर्यों के पूर्व - पिता के रूप में प्रतिष्ठित थे !
मेन्नुस mannus थौथा (त्वष्टा)---
(Thautha ) की प्रथम सन्तान थे !
मनु के विषय में रोमन लेखक टेकिटस
यूरोपीय इतिहास कार (tacitus) के अनुसार----
Tacitus wrote that mannus was the son of tuisto and
The progenitor of the three germanic tribes ---ingeavones--Herminones and istvaeones ....
________________________________________
in ancient lays, their only type of historical tradition they celebrate tuisto , a god brought forth from the earth they attribute to him a son mannus, the source and founder of their people and to mannus three sons from whose names those nearest the ocean are called ingva eones , those in the middle Herminones, and the rest istvaeones some people inasmuch as anti quality gives free rein to speculation , maintain that there were more tribal designations-
Marzi, Gambrivii, suebi and vandilii-__and that those names are genuine and Ancient Germania
_________________________
Chapter 2
ग्रीक पुरातन कथाओं में मनु को मिनॉस (Minos)कहा गया है ।
जो ज्यूस तथा यूरोपा का पुत्र तथा क्रीट का प्रथम राजा था
जर्मन जाति का मूल विशेषण डच (Dutch)
था ।
जो त्वष्टा नामक इण्डो- जर्मनिक देव पर आधारित है ।
टेकिटिस लिखता है , कि
Tuisto ( or tuisto) is the divine encestor of German peoples......
ट्वष्टो tuisto---tuisto--- शब्द की व्युत्पत्ति- भी जर्मन भाषाओं में
*Tvai----" two and derivative *tvis --"twice " double" thus giving tuisto---
The Core meaning -- double
अर्थात् द्वन्द्व -- अंगेजी में कालान्तरण में एक अर्थ
द्वन्द्व- युद्ध (dispute / Conflict )भी होगया
यम और त्वष्टा दौनों शब्दों का मूलत: एक समान अर्थ था
इण्डो-जर्मनिक संस्कृतियों में ..
मिश्र की पुरातन कथाओं में त्वष्टा को (Thoth) अथवा tehoti ,Djeheuty कहा गया
जो ज्ञान और बुद्धि का अधिपति देव था ।
_________________________________________
आर्यों में यहाँ परस्पर सांस्कृतिक भेद भी उत्पन्न हुए विशेषतः जर्मन आर्यों तथा फ्राँस के मूल निवासी गॉल ( Goal ) के प्रति जो पश्चिमी यूरोप में आवासित ड्रूयूडों की ही एक शाखा थी l
जो देवता जर्मनिक जन-जातियाँ के थे लगभग वही देवता ड्रयूड पुरोहितों के भी थे ।
यही ड्रयूड( druid ) भारत में द्रविड कहलाए इन्हीं की उपशाखाऐं वेल्स wels केल्ट celt तथा ब्रिटॉन Briton के रूप थीं जिनका तादात्म्य (एकरूपता ) भारतीय जन जाति क्रमशः भिल्लस् ( भील ) किरात तथा भरतों से प्रस्तावित है ये भरत ही व्रात्य ( वृत्र के अनुयायी ) कहलाए आयरिश अथवा केल्टिक संस्कृति में वृत्र का रूप अवर्टा ( Abarta ) के रूप में है यह एक देव है जो थौथा (thuatha) (जिसे वेदों में त्वष्टा कहा है !)
और दि - दानन्न ( वैदिक रूप दनु ) की सन्तान है .Abarta an lrish / celtic god amember of the thuatha त्वष्टाः and De- danann his name means = performer of feats अर्थात् एक कैल्टिक देव त्वष्टा और दनु परिवार का सदस्य वृत्र या Abarta जिसका अर्थ है कला या करतब दिखाने बाला देव यह अबर्टा ही ब्रिटेन के मूल निवासी ब्रिटों Briton का पूर्वज और देव था इन्हीं ब्रिटों की स्कोट लेण्ड ( आयर लेण्ड ) में शुट्र---
(shouter )नाम की एक शाखा थी , जो पारम्परिक रूप से वस्त्रों का निर्माण करती थी । वस्तुतःशुट्र फ्राँस के मूल निवासी गॉलों का ही वर्ग था , जिनका तादात्म्य भारत में शूद्रों से प्रस्तावित है , ये कोल( कोरी) और शूद्रों के रूप में है ।
जो मूलत: एक ही जन जाति के विशेषण हैं
एक तथ्य यहाँ ज्ञातव्य है कि प्रारम्भ में जर्मन आर्यों
और गॉलों में केवल सांस्कृतिक भेद ही था जातीय भेद कदापि नहीं ।
क्योंकि आर्य शब्द का अर्थ यौद्धा अथवा वीर होता है ।
यूरोपीय लैटिन आदि भाषाओं में इसका यही अर्थ है ।
.......
बाल्टिक सागर से दक्षिणी रूस के पॉलेण्ड त्रिपोल्जे आदि स्थानों पर बॉल्गा नदी के द्वारा कैस्पियन सागर होते हुए भारत ईरान आदि स्थानों पर इनका आगमन हुआ ।
आर्यों देव संस्केकृति के अनुयायीयों के कुछ क़बीले इसी समय हंगरी में दानव नदी के तट पर परस्पर सांस्कृतिक युद्धों में रत थे ;
भरत जन जाति यहाँ की पूर्व अधिवासी थी संस्कृत साहित्य में भरत का अर्थ जंगली या असभ्य किया है ।
और भारत देश के नाम करण कारण यही भरत जन जाति थी ।
भारतीय प्रमाणतः जर्मन आर्यों की ही शाखा थे जैसे यूरोप में पाँचवीं सदी में जर्मन के एेंजीलस कबीले के आर्यों ने ब्रिटिश के मूल निवासी ब्रिटों को परास्त कर ब्रिटेन को एञ्जीलस - लेण्ड अर्थात् इंग्लेण्ड कर दिया था
और ब्रिटिश नाम भी रहा जो पुरातन है ।
इसी प्रकार भारत नाम भी आगत आर्यों से पुरातन है
दुष्यन्त और शकुन्तला पुत्र भरत की कथा बाद में जोड़ दी गयी
जैन साहित्य में एक भरत ऋषभ देव परम्परा में थे।
जिसके नाम से भारत शब्द बना।
विशेष :- भारत तथा यूरोप की लगभग सभी मुख्य भाषाओं में आर्य शब्द यौद्धा अथवा वीर के अर्थ में प्राचीनत्तम काल से व्यवहृत है । नि: सन्देह यह जन-जाति विशेष का सूचक नहीं था ।
क्योंकि असीरियन संस्कृति में में भी आर्य शब्द आल्ल (आला)रूप में प्राप्त है ।
पारसीयों के पवित्र धर्म ग्रन्थ अवेस्ता में अनेक स्थलों पर आर्य शब्द आया है जैसे: –सिरोज़ह प्रथम- के यश्त संख्या 9 पर, तथा सिरोज़ह प्रथम के यश्त संख्या 25 पर है ।
अवेस्ता में आर्य शब्द का अर्थ है ।
…तीव्र वाण (Arrow ) चलाने वाला यौद्धा से है ।—यश्त 9 में स्वयं ईरान शब्द आर्यन् शब्द का तद्भव रूप है ..
ईरानी असुर संस्कृति के उपासक असीरियननों से सम्बन्धित लोग थे ।
परन्तु भारतीय देव संस्कृति के लोग ---जो अपने युद्ध निपुणता के कारण स्वयं को वीर: अथवा आर्य: कहते थे ये ईरानियों के चिर सांस्कृतिक प्रतिद्वन्द्वी थे !!
ये असुर संस्कृति के उपासक आर्य थे।
देव शब्द का अर्थ भी ईरानियों की भाषाओं में निम्न व दुष्ट अर्थों में व्यवहृत है ।
…परन्तु अग्नि के अखण्ड उपासक आर्य तो ईरानी भी थे । स्वयं ऋग्वेद में असुर शब्द उच्च और पूज्य अर्थों में है :-जैसे वृहद् श्रुभा असुरो वर्हणा कृतः ऋग्वेद १/५४/३. तथा और भी महान देवता वरुण के रूप में …त्वम् राजेन्द्र ये च देवा रक्षा नृन पाहि .असुर त्वं अस्मान् —ऋ० १/१/७४ तथा प्रसाक्षितः असुर यामहि –ऋ० १/१५/४. ऋग्वेद में और भी बहुत से स्थल हैं जहाँ पर असुर शब्द सर्वोपरि शक्तिवान् ईश्वर का वाचक है |
पारसीयों ने असुर शब्द का उच्चारण अहुर के रूप में किया है |
अतः आर्य विशेषण असुर और देव दौनो ही संस्कृतियों के उपासकों का था ।
…और उधर यूरोप में द्वित्तीय महा -युद्ध का महानायक ऐडोल्फ हिटलर( Adolf-Hitler )स्वयं को शुद्ध नारादिक (nordic )आर्य कहता था;
और स्वास्तिक का चिन्ह अपनी युद्ध ध्वजा पर अंकित करता था ; विदित हो कि जर्मन भाषा में स्वास्तिक को हैकैन- क्रूज. (Haken- cruez) कहते थे !
जर्मन वर्ग की भाषाओं में आर्य शब्द के बहुत से रूप हैं । ..ऐरे Ehere जो कि जर्मन लोगों की एक सम्माननीय उपाधि है। ..जर्मन भाषाओं में ऐह्रे (Ahere) तथा (Herr) शब्द स्वामी अथवा उच्च व्यक्तिों के वाचक थे ।
आयर लेण्ड की भाषा में आयर ire शब्द का अर्थ स्वतन्त्र (आवारा) भी है । तमिल शब्द अय्यर और संस्कृत शब्द आभीर शब्दों स्वातन्त्र्तय वीरत्व व घुमक्कड़ता का भाव निहित है ।
और इसी हर्र Herr शब्द से यूरोपीय भाषाओं में प्रचलित सर (Sir )…..शब्द का विकास हुआ ।
---जो पुल्लिंग में मैडम (madam) शब्द के समानान्तर प्रयुक्त होता है ।
और आरिश (Arisch) शब्द तथा आरिर् (Arier) स्वीडिश ,डच आदि जर्मन भाषाओं में श्रेष्ठ और वीरों का विशेषण है ।
इधर एशिया माइनर के पार्श्व वर्ती यूरोप के प्रवेश -द्वार ग्रीक अथवा आयोनियन भाषाओं में भी आर्य शब्द आर्च (Arch (तथा आर्क Arck तथा eirean के रूप मे है |
हिब्रू बाइबिल में अबीर Abeer शब्द वीर अथवा यौद्धा अथवा सामन्त का वाचक है- जिसका सम्बन्ध हिब्रू क्रिया अ- बिर( ए-बिर )से है । संस्कृत भाषा आगात अभीर शब्द का विकास भी वीर का हिब्रू करण है
क्योंकि ए (e) उपसर्ग (Prifix) का सेमेटिक भाषाओं स्वत: आगम है । जैसे संस्कृत भाषा का ब्रह्मा हिब्रू ए-ब्राह्म संस्कृत बल: हिब्रू ए-विल संस्कृत लघु ग्रीक ए-लखुस आदि रूप ..
__________________________________________
ग्रीक मूल का शब्द हीरों (Hero) भी वेरोस् अथवा वीरः शब्द का ही विकसित रूप है; और वीरः शब्द स्वयं आर्य शब्द का प्रतिरूप है | वीर शब्द का विकास पहले हुआ फिर उसी से आर्य शब्द का विकास
जर्मन वर्ग की भाषा ऐंग्लो -सेक्शन में वीर शब्द वर( Wer) के रूप में है |
तथा रोम की सांस्कृतिक भाषा लैटिन में यह वीर शब्द (Vir) के रूप में है |
आर्य शब्द का अपेक्षा वीर शब्द प्राचीनत्तम है ।
ईरानी आर्यों की संस्कृति में भी वीर शब्द आर्य शब्द का विशेषण है यूरोपीय भाषाओं में भी आर्य और वीर शब्द समानार्थक रहे हैं ! हम यह स्पष्ट करदे कि आर्य शब्द किन किन संस्कृतियों में प्रचीन काल से आज तक विद्यमान है |
लैटिन वर्ग की भाषा आधुनिक फ्रान्च में…(Arien) तथा (Aryen )दौनों रूपों में …इधर दक्षिणी अमेरिक की ओर पुर्तगाली तथा स्पेन भाषाओं में यह शब्द आरियो (Ario) के रूप में है पुर्तगाली में इसका एक रूप ऐरिऐनॉ (Ariano) भी है और फिन्नो-उग्रियन शाखा की फिनिश भाषा में Arialainen ऐरियल-ऐनन के रूप में है | रूस की उप शाखा पॉलिस भाषा में (Aryika) के रूप में है।
कैटालन भाषा में (Ari )तथा (Arica) दौनो रूपों में है स्वयं रूसी भाषा में आरिजक (Arijec )अथवा आर्यक के रूप में है इधर पश्चिमीय एशिया की सेमेटिक शाखा आरमेनियन तथा हिब्रू और अरबी भाषा में क्रमशः (Ariacoi )तथा(Ari )तथा अरबी भाषा मे हिब्रू प्रभाव से म-अारि. M(ariyy तथा अरि दौनो रूपों में.. तथा ताज़िक भाषा में ऑरियॉयी (Oriyoyi )रूप. …इधर बॉल्गा नदी के मुहाने वुल्गारियन संस्कृति में आर्य शब्द ऐराइस् (Arice) के रूप में है |
वेलारूस की भाषा में (Aryeic )तथा (Aryika) दौनों रूप में..पूरबी एशिया की जापानी कॉरीयन और चीनी भाषाओं में बौद्ध धर्म के प्रभाव से आर्य शब्द .(Aria–iin)के रूप में है ।
अनुभावास्तु तत्र स्युः सहायान्वेषणादयः ।
सञ्चारिणस्तु धृतिमति- गर्वस्मृतितर्करोमञ्चाः ।
स च दानधर्मयुद्धैर्दयथा च समन्वितश्चतुर्द्धा स्यात्” ।
स च वीरः ।
दानवीरो धर्म- वीरा दयावीरो भुद्धवीरश्चेति चतुर्विधः” साहित्य दर्पण३ पृ० ।
मूल भारोपीय शब्द (wihros) विहिरॉस: - जिसके दो रूप विकसित हुए हिरॉस् तथा विर संस्कृत: - वीरा, अवेस्तान: - वीरा, लैटिन: - vir,
Umbrian: - viru, लिथुआनियाई: - वेरस, लातवियाई: - वीर, टोचिरियन: - wir, जर्मन: - wer / Werwolf, गॉथिक: - वायर, पुराना नॉर्स: -वर, अंग्रेजी: -वेर / वेयरवोल्फ, ओल्ड फ्रुशियन: -विर आयरिश: - fer / fear, वेल्श: -ग्राऊर, गोलियाँ: -इइरो-, अल्बेनियाई: - बुरे, कुर्द: -मिरो...
वीरम्, क्ली, (अज् + “स्फायितञ्चिवञ्चीति ।” उणा० १ । १३ । इत्यादिना रक् । अजे- र्वीभावः । वीर + अच् वा ।) शृङ्गी । नडः । इति मेदिनी । रे, ६७ ॥
मरिचम् । पुष्कर- मूलम् । काञ्जिकम् । उशीरम् । आरूकम् । इति राजनिर्घण्टः ॥ वीर शब्दो मेदिन्यां पव- र्गीयवकारादौ दृष्टोऽपि वीरधातोरन्तःस्थवका- रादौ दर्शनादत्र लिखितः ॥
वीरः, पुं, (वीरयतीति ।
वीर विक्रान्तौ + पचा- द्यच् । यौद्वा, विशेषेण ईरयति दूरीकरोति शत्रून् ।
वि + ईर + इगुपधात् कः ।
यद्वा, अजति क्षिपति शत्रून् ।
अज + स्फायितञ्चीत्यादिना रक् ।
अजेर्व्वीः शौर्य्यविशिष्टः । तत्पर्य्यायः । शूरः २ विक्रान्तः ३ । इत्यमरः कोश । २ । ८ । ७७ ॥ गण्डीरः ४ तरस्वी ५ । इति जटाधरः ॥ (यथा, महाभारते । १ । १४१ । ४५ । “मृगराजो वृकश्चैव बुद्धिमानपि मूषिकः ।
निर्ज्जिता यत्त्वया वीरास्तस्माद्वीरतरो भवान् ॥
” यथा च ऋग्वेदे । १ । ११४ । ८ । “वीरान्मानो रुद्रभामितो वधीर्हविष्यन्तः सद्मि त्वा हवामहे ॥
” “वीरान् वीक्रान्तान् ।” इति सायणः ॥ पुत्त्रः । यथा, ऋग्वेदे । ५ । २० । ४ । “वीरैः स्याम सधमादः ॥” “वीरैः पुत्त्रैश्च सधमादः सहमाद्यन्तः स्याम तथा कुरु ।” इति तद्भाष्ये सायणः ॥ *
__________________________________________
परन्तु सुमेरियन हुर्रीयन (हुर्री) हुर्रियन शब्द का विकास अवेस्ता में लिखित (हुर) शब्द से है जो संस्कृत (सुर) शब्द का प्रतिरूप है।
आर्य से इसका कौई सम्बन्ध नहीं
अरब़ी मूल में आज़र भी इसी से सम्बन्धित है
यद्यपि ये भी देव संस्कृति से सम्बद्ध थे ।
आर्य शब्द के विषय में इतने तथ्य अब तक हमने दूसरी संस्कृतियों से उद्धृत किए हैं परन्तु जिस भारतीय संस्कृति का प्रादुर्भाव देव संस्कृति से हुआ |
आधुनिक इतिहास कारों ने आर्य शब्द जन-जाति विशेष के अर्थ मे रूढ़ कर दिया है ।
_________________________________________ उस के विषय में हम कुछ कहते हैं ।
विदित हो कि यह समग्र तथ्य" 📖
"यादव योगेश- कुमार 'रोहि' " के शोधों पर आधारित हैं | भारोपीय आर्यों के सभी सांस्कृतिक शब्द समान ही हैं ।
जैसा कि निम्न तथ्यों में दिग्दर्शन किया गया है। स्वयं आर्य शब्द का धात्विक-अर्थ :- Rootnal-Mean .."आरम् धारण करने वाला वीर ।
संस्कृत तथा यूरोपीय भाषाओं में आरम् (Arrown) =अस्त्र तथा शस्त्र धारण करने वाला यौद्धा अथवा वीरः । आर्य शब्द की व्युत्पत्ति Etymology संस्कृत की अर् (ऋृ) धातु मूलक है—अर् धातु के तीन प्राचीनत्तम हैं .. १–गमन करना To go २– मारना to kill ३– हल (अरम्) चलाना (Harrow ) मध्य इंग्लिश—रूप Harwe कृषि कार्य करना |
प्राचीन विश्व में सुसंगठित रूप से कृषि कार्य करने वाले प्रथम मानव आर्य ही थे ।
इस तथ्य के प्रबल प्रमाण भी हमारे पास हैं ! पाणिनि तथा इनसे भी पूर्व ..कात्स्न्र्यम् धातु पाठ में :-ऋृ (अर्) धातु कृषिकर्मे गतौ हिंसायाम् च..परस्मैपदीय रूप :-ऋणोति अरोति वा अन्यत्र ऋृ गतौ धातु पाठ .३/१६ प० इयर्ति -जाता है वास्तव में संस्कृत की अर् धातु का तादात्म्य (identity.) यूरोप की सांस्कृतिक भाषा लैटिन की क्रिया -रूप इर्रेयर Errare =to go से प्रस्तावित है जर्मन भाषा में यह शब्द आइरे irre =togo के रूप में है पुरानी अंग्रेजी में जिसका प्रचलित रूप एर Err है।
इसी अर् धातु से विकसित शब्द लैटिन तथा ग्रीक भाषाओं में क्रमशःAraval तथा Aravalis हैं ;अर्थात् कृषि कार्य.सम्बन्धी देवों की संस्कृति ग्रामीण जीवन मूलक है और कृषि विद्या के जनक देव संस्कृति के आर्य ही थे सर्व-प्रथम अपने द्वित्तीय पढ़ाव में मध्य -एशिया में ही कृषि कार्य आरम्भ कर दिया था ।
आर्य स्वभाव से ही युद्ध-प्रिय व घुमक्कड़ थे कुशल चरावाहों के रूप में यूरोप तथा सम्पूर्ण एशिया की धरा पर अपनी महान सम्पत्ति गौओं के साथ कबीलों के रूप में यायावर जीवन व्यतीत करते थे ।
यहीं से इनकी ग्राम - सभ्यता का विकास हुआ था । अपनी गौओं के साथ साथ विचरण करते हुए .जहाँ जहाँ भी ये विशाल ग्रास-मेदिनी(घास के मैदान ) देखते और उसी स्थान पर अपना पढ़ाव डाल देते थे । संस्कृत तथा यूरोप की सभी भाषाओं में ग्राम शब्द का मूल अर्थ ग्रास-भूमि तथा घास है ।
सुर शब्द की भारतीय व्युतपत्तियाँ
वाल्मीकि-रामायण में असुर की उत्पत्ति का उल्लेख :-
वाल्मीकि रामायण कार ने वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड सर्ग 45 के 38 वें छन्द में )
सुर-असुर की परिभाषा करते हुये लिखा है-
“सुरा पीने वाले सुर और सुरा नहीं पीने वाले असुर कहे गये l”
सुराप्रतिग्रहाद् देवा: सुरा इत्याभिविश्रुता:. अप्रतिग्रहणात्तस्या दैतेयाश्चासुरा: स्मृता:॥
उक्त श्लोक के अनुसार सुरा का अर्थ ‘मादक द्रव्य-शराब’ है. चूंकि आर्य लोग मादक तत्व सुरा का प्रारम्भ से पान (सेवन) करते थे
वाल्मीकि रामायण
बालकाण्ड का पैतालीसवां सर्ग श्लोक संख्या ३६ से ३८ ,प्रसंग
( समुद्र मंथन.)
विश्वामित्र राम लक्ष्मण को कुछ वेद पुराण सुना रहे हैं और उसी के तहत समुद्र मंथन से निकले चौदह रत्नों के बारे बताते हुए कहते हैं ....
असुरास्तेंन दैतेयाः सुरास्तेनादितेह सुताः
हृष्टा: प्रमुदिताश्चासन वारुणीग्रह्नात सुराः (३८)
('सुरा से रहित होने के कारण ही दैत्य 'असुर ' कहलाये
और सुरा-सेवन के कारण ही अदिति के पुत्रों की 'सुर' संज्ञा हुई.
वारुणी को ग्रहण करने से देवतालोग हर्ष से उत्फुल्ल एवं आनंदमग्न हो गए )
इसके पहले और बाद के दो श्लोकों में समुद्रमंथन से वरुण की कन्या वारुणी "जो सुरा की अभिमानिनी देवी थी"
के प्रकट होने और दैत्यों द्वारा उसे ग्रहण न करने और देवों द्वारा इन अनिनद्य सुन्दरी को ग्रहण करने का उल्लेख है....
तो अब हमें कोई रोके टोके न हम सुर हैं,देवता है और धरती के सुर -भूसुर अर्थात ब्राह्मण तो बेरोक टोक सुरापान करे -हमारा शास्त्र इसकी खुली अनुमति देता है ।
सुरा पान यूरोपीय सांस्कृतिक परम्परा उनकी शीत प्रधान जलवायु के अनुरूप थी
वीर और आर्य शब्द असुरों का ही विशेषण है ⬇
इन्द्रा॑विष्णू दृंहि॒ताः शम्ब॑रस्य॒ नव॒ पुरो॑ नव॒तिं च॑ श्नथिष्टम् । श॒तं व॒र्चिन॑: स॒हस्रं॑ च सा॒कं ह॒थो अ॑प्र॒त्यसु॑रस्य वी॒रान् ॥
पद पाठइन्द्रा॑विष्णू॒ इति॑ । दृं॒हि॒ताः । शम्ब॑रस्य । नव॑ । पुरः॑ । न॒व॒तिम् । च॒ । श्न॒थि॒ष्ट॒म् । श॒तम् । व॒र्चिनः॑ । स॒हस्र॑म् । च॒ । सा॒कम् । ह॒थः । अ॒प्र॒ति । असु॑रस्य । वी॒रान् ॥ ७.९९.५
ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:99» मन्त्र:5 |
पदार्थान्वयभाषाः -(इन्द्राविष्णू) हे इन्द्र और विष्णु आप (दृंहिताः) दृढ़ से दृढ़ (शम्बरस्य) शम्बर के (नवनवतिं) निन्यानवे (च) और उस (वर्चिनः) मायावी पुरुष के (शतं) सैकड़ों (च) और (सहस्रं) हजारों (पुरीः) दुर्गों को (श्नथिष्टं) नाश करें तथा (साकं) शीघ्र ही (अप्रत्यसुरस्य) उस असुर के (वीरान्) को (हथः) हनन करो ॥५॥
विदित हो कि ईसा पूर्व अष्टम सदी ईरानी अहुरमज्दा असुर महत्) के उपासकों का देव संस्स्कृति के अनुयायीयों से सांस्कृतिक युद्ध हुआ
ईरानीयों देव का अर्थ दएव के रूप में दुष्ट और व्यभिचारी किया तो देव-संस्कृति के अनुयायीयों असुर ता अर्थ ही विकृत कर दिया
ऋग्वेद में असुर का अर्थ प्रतिभावान् और बलवान है
स्वयं वैदिक शब्द कोश निघण्टु में असुर के पूर्ववर्ती अर्थे है ⬇
असुर: सोमे वरुणे च मेघा: ६२
असुर -दात्रारिव्याप्त्याम् ७४६
असुर: बले ४२२
असुर :प्रज्ञायाम्
असुर :ऋत्विजि
परवर्ती अर्थ दैत्ये
(माधवीय पदानुक्रमणिका वैदिक निघण्टु )
वेदों में कृष्ण को असुर कहा ⬇
देवता: इन्द्र: ऋषि: कुत्स आङ्गिरसः छन्द: निचृज्जगती स्वर: निषादःℹ
प्र म॒न्दिने॑ पितु॒मद॑र्चता॒ वचो॒ यः कृ॒ष्णग॑र्भा नि॒रह॑न्नृ॒जिश्व॑ना।
अ॒व॒स्यवो॒ वृष॑णं॒ वज्र॑दक्षिणं म॒रुत्व॑न्तं स॒ख्याय॑ हवामहे ॥
ऋग्वेद मण्डल:1 सूक्त:101 मन्त्र:1 |
संस्कृत भाषा में सुरा शब्द का केवल एक ही रूढ़ अर्थ प्राप्त है ।
_________________________________________
(सु अभिषवे + क्रन् ।
स्त्रियां टाप् । इत्युणादिवृत्तौ उज्ज्वलः । २ । २४ । यद्वा सुष्ठु रायन्त्यनयेति ।
सु + रै शब्दे + “ आतश्चोप- सर्गे । ३ । ३ । ११६ । इत्यङ् । टाप् । )
चषकम् । मद्यम् । इति मेदिनी ॥
अस्याः पर्य्यायगुणादि मदिराशब्दे मद्यशब्द च द्रष्टव्यम् । सुराया विशेषगुणा यथा --
“ कृशानां सक्तमूत्राणां ग्रहण्यर्शोविकारिणाम् सुरा प्रशस्ता वातघ्नी स्तन्यरक्तक्षयेषु च ॥
“ इति राजवल्लभः ॥
तत्पानप्रायश्चित्तं यथा “ ब्रह्मघ्रश्च सुरापश्च स्तेयी च गुरुतल्पगः ।
सेतु दृष्ट्वा विशुध्यन्ते तत्संयोगी च पञ्चमः ।
ततो धेनुशतं दद्यात् ब्राह्यणानान्तु भोजनम् ॥
“ इति गारुडे २२६ अध्यायः ॥
तत्पाने शुक्राचार्य्यशापो यथा --
“ सुरापानाद्वञ्चनां प्रापयित्वा संज्ञानाशं
चैनमस्यातिघोरम् ।
दृष्ट्वा कचञ्चापि तथापि रूपं पीत तथा
सुरया मोहितेन ॥
समन्युरुत्थाय महानुभाव स्तदोशना विप्रहितं चिकीर्षुः । काव्यः स्वयं वाक्यमिदं जगाद सुरापानं प्रति वै जातशङ्कः ॥
यो ब्राह्मणोऽद्यप्रभृतीह कश्चित् मोहात् सुरां पास्यति मन्दबुद्धिः ।
अपेतधर्म्मा ब्रह्महा चैव स स्यात् अस्मिन् लोके गर्हितः स्यात् परे च ॥
मया चेमां विप्रधर्म्मोक्तसीमां मर्य्यादां वै स्थापितां सर्व्वलोके ।
सन्तो विप्राः शुश्रुवांसो गुरूणां देवा दैत्याश्चोपशृण्वन्तु सर्व्वे ॥
“ इति महाभारते । १ । ७६ । ५९ -- ६२ ॥
ब्राह्मणक्षत्त्रियवैश्यानां त्रिविधसुरापानप्राय- श्चित्तादि यथा --
“ सुरां पीत्वा द्विजो मोहादग्निवर्णां सुरां पिबेत् ।
तथा स्वकाये निर्दग्धे मुच्यते किल्विषात्ततः ॥
गोमूत्रमग्निवर्णं वा पिबेदुदकमेव वा ।
पयो घृतं वा मरणाद्गोसकृद्रसमेव वा ॥
कणान् वा भक्षयेदब्दं पिण्याकं वा सकृन्निशि ।
सुरापानापनुत्त्यर्थं बालवासा जटी ध्वजी ॥
सुरा वै मलमन्नानां पाप्मा च मलमुच्यते । तस्माद्ब्राह्मणराजन्यौ वैश्यश्च न सुरां पिबेत् ॥
गौडी पैष्टी च माध्वी च विज्ञेया त्रिविधा सुरा ।
यथैवैका तथा सर्व्वा न पातव्या द्विजोत्तमैः ॥ यक्षरक्षःपिशाचान्नं मद्यं मांसं सुरासवम् ।
तद्ब्राह्मणेन नात्तव्यं देवानामश्नता हविः ॥
अमेध्ये वा पतेन्मत्तो वैदिकं वाप्युदाहरेत् ।
अकार्य्यमन्यत् कुर्य्याद्वा ब्राह्मणो मदमोहितः ॥
यस्य कायगतं ब्रह्म मद्येनाप्लाव्यते सकृत् ।
तस्य व्यपैति ब्राह्मण्यं शूद्रत्वञ्च स गच्छति ॥
एषा विचित्राभिहिता सुरापानस्य निष्कृतिः ॥
इति मानवे ११ । ९१ -- ९९ ॥
सौत्रामणियज्ञेऽपि तत्पाननिषेधो यथा “ यद्घ्राणमक्षो विहितः सुरायास्तथा पशोरालभनं न हिंसा ।
एवं व्यवायः प्रजया न रत्यै इमं विशुद्धं न विदुः स्वधर्म्मम् ॥
“ इति श्रीभागवते । ११ । ५ । १३ ॥“ यस्मात् सुराया घ्राणभक्षः अवघ्राणं स एव विहितः न पानं तथा पशोरपि आलभनमेव विहितं न तु हिंसा ।
अतो न यथेष्टभक्षणाभ्यनुज्ञेत्यर्थः ।
व्यवायोऽपि प्रजया निमित्तभूतया न रत्यै ।
अतो मनोरथवादिन इमं विशुद्धं स्वधर्म्मं न विदुरिति । “ इति तट्टीकायां श्रीधरस्वामी ॥
अन्यत् प्रायश्चित्तशब्दे द्रष्टव्यम् ॥
सुरापाने वर्णनीयानि यथा --सुरापाने विकलता स्खलनं वचने गतौ ।
लज्जा मानच्यु तिः प्रेमाधिक्यं रक्ताक्षता भ्रमः ॥ “ इति कविकल्पतायां
______________________________
प्रस्तुत शोध ---
योगेश कुमार रोहि के द्वारा
प्रमाणित श्रृंखलाओं पर आधारित है !
अत: इनसे सम्पर्क करने के लिए ...
सम्पर्क - सूत्र ----8077160219 ...
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें