श्रीमद्भगवत गीता में महाभारत के भीष्म पर्व के अनुसार श्लोक संख्या 745 है परन्तु वर्तमान में श्रीमद्भगवद् गीता में श्लोक संख्या 700 है ...महाभारत के अनेक संस्करणों में श्रीमद् भगवद्गीता के वक्ता इस प्रकार हैं षट्शतानि विंशानि श्लोकानि प्राह स्वयं कृष्ण: |अर्जुन: प्राह सप्तपञ्चाशत् सप्तषष्टिं तु सञ्जय :।धृतराष्ट्र: श्लोकमेकं भगवद्गीतायाम् मानमुच्यते ( भीष्मपर्व महाभारत अध्याय 43 के श्लोक संख्या 4-5 अर्थात् श्रीमद्भगवद्गीता में 620 श्लोक थे 57 का वक्ता अर्जुन और सञ्जय के श्लोक 67 और धृतराष्ट्र का श्लोक एक था गीता प्रेस गोरखपुर के श्रीमद्भगवद् गीता के ग्यारहवें अध्याय में भी यह बात लिखी है ..वर्तमान में गीता में कृष्ण के 574 श्लोक मिलते हैं ..46 श्लोक विलुप्त हैं जबकि अर्जुन बढ़कर 84 श्लोक होगये जो भीष्म पर्व के श्लोक मान के अनुसार 57 श्लोक थे ये 27श्लोक कहाँ से आगये और कब आगये ? सञ्जय के श्लोक आज 41 ही है़ जो महाभारत के भीष्म पर्व के अनुसार 67थे 26 श्लोक कहाँ चले गये ..जोड़- तोड़ गड़बड़ झाला क्रम मेंगीता से 45 श्लोक लुप्त भी हुए परन्तु अनेक फर्जी श्लोक समावेशित भी हुए जो ब्राह्मण वाद के पोषक और वर्ण व्यवस्था के उद्घोषक भी हैं ...श्रीमद्भगवद्गीता में यह जोड़- तोड़ पञ्चम सदी से लेकर एक हजार वी ईसवी तक होती रही श्रीमद भगवद् गीता में वर्णन है कि ⬇"ऋषिभिर्बहुधा गीतं छन्दोभिर्विविधै: पृथक |ब्रह्मसूत्र पदेश्चैव हेतुमद्भिर् विनिश्चितै: || ( गीता 13/4)श्रीमदभगवद्गीता अध्याय तैरह का चतुर्थ श्लोक 13/4इसी ब्रह्मसूत्र का गीता मे यह स्पष्ट वर्णन है बौद्ध दर्शन के चार सम्प्रदायों 1- वैभाषिक 2-सत्रान्तिक 3- योगाचार और 4- माध्यमिक का खण्डन भी है जर्मन विद्वान जैकोबी के अनुसार ब्रह्मसूत्र 200 ईसा पूर्व से पञ्चम सदी बीच तक लिखे गये बौद्ध सम्प्रदाय योगाचार का विकास असंग और वसुबन्धु नमक दो भाईयों ने किया 350 ईस्वी के समकक्ष इसके पाँच दशक वाद योगाचार की प्रसिद्धि हुई और ब्राह्मणों द्वारा इसका खण्डन किया गया यद्यपि भागवत शब्द भक्ति मूलक है ...और यह शब्द वैदिक है जो पालि पल्लि- ग्राम की भाषा में और संस्कृत में दो रूपों मे विभाजित हो गया सम्राट अशोक ने इसे पालि भाषा में शिलालेखों पर बुद्घ के लिए है परन्तु ये मूलत: कृष्ण के िए ही आया था वसुबन्धु बौद्ध नैयायिक थे। वे असंग के कनिष्ठ भ्राता थे।वसुबन्धु पहले हीनयानी वैभाषिकवेत्ता थे, बाद में असंग की प्रेरणा से इन्होंने महायान मत स्वीकार किया था। योगाचार के सिद्धांतों पर इनके अनेक महत्वपूर्ण ग्रंथ प्रसिद्ध हैं। ये उच्चकोटि की प्रतिभा से संपन्न महान नैयायिक थे। "तर्कशास्त्र" नामक इनका ग्रंथ बौद्ध न्याय का बेजोड़ ग्रंथ माना जाता है। अपने जीवन का लंबा भाग इन्होंने शाकल, कौशांबी और अयोध्या में बिताया था। ये कुमारगुप्त, स्कंदगुप्त और बालादित्य के समकालिक थे। 490 ई. के लगभग 80 वर्ष की अवस्था में इनका देहांत हुआ था।बौद्ध आचार्य असंग, योगाचार परंपरा के आदिप्रवर्तक माने जाते हैं। महायान सूत्रालंकार जैसा प्रौढ़ ग्रंथ लिखकर इन्होंने महायान संप्रदाय की नींव डाली और यह पुराने हीनयान संप्रदाय से किस प्रकार उच्च कोटि का है, इसपर जोर दिया।इनका जन्म गांधार प्रदेश के पुष्पपुर नगर, वर्तमान पेशावर, में दूसरी शताब्दी के आसपास हुआ था।आचार्य असंग धार्मिक प्रवर्तक होते हुए बौद्ध न्याय के भी आदि गुरु माने जाते हैं। इन्होंने न्याय के अध्यापन की एक मौलिक परंपरा चलाई जिसमें प्रसिद्ध बौद्ध नैयायिक दिङ्नाग की दीक्षा हुई। प्रसिद्ध है कि आचार्य असंग के भाई वसुबन्धु पहले सर्वास्तिवाद के पोषक थे, किन्तु बाद में असंग के प्रभाव में आकर वे योगाचार विज्ञानवादी हो गए। दोनों भाइयों ने मिलकर इसके पक्ष को बड़ा प्रबल बनाया।सिद्धांतभेद के अनुसार बौद्ध परंपरा में चार दर्शन प्रसिद्ध हैं। इनमें वैभाषिक और सौत्रांतिक मत हीनयान परंपरा में हैं। यह दक्षिणी बौद्धमत हैं। इसका प्रचार भी लंका में है। योगाचार और माध्यमिक मत महायान परंपरा में हैं। यह उत्तरी बौद्धमत है। इन चारों दर्शनों का उदय ईसा की आरंभिक शब्ताब्दियों में हुआ। इसी समय वैदिक परंपरा में षड्दर्शनों का उदय हुआ। इस प्रकार भारतीय पंरपरा में दर्शन संप्रदायों का आविर्भाव लगभग एक ही साथ हुआ है तथा उनका विकास परस्पर विरोध के द्वारा हुआ है। वैभाषिक सम्प्रदाय (बाह्यार्थ प्रत्यक्षवाद) संपादित करेंये अर्थ को ज्ञान से युक्त अर्थात् प्रत्यक्षगम्य मानते हैं।सौत्रान्तिक सम्प्रदाय (बाह्यार्थानुमेयवाद) संपादित करेंये बाह्यार्थ को अनुमेय मानते हैं। यद्यपि बाह्यजगत की सत्ता दोनों स्वीकार करते हैं, किन्तु दृष्टि के भेद से एक के लिए चित्त निरपेक्ष तथा दूसरे के लिए चित्त सापेक्ष अर्थात् अनुमेय सत्ता है। सौत्रान्तिक मत में सत्ता की स्थिति बाह्य से अन्तर्मुखी है।योगाचार सम्प्रदाय (विज्ञानवाद) संपादित करेंइनके अनुसार बुद्धि ही आकार के साथ है अर्थात् बुद्धि में ही बाह्यार्थ चले आते हैं। चित्त अर्थात् आलयविज्ञान में अनन्त विज्ञानों का उदय होता रहता है। क्षणभंगिनी चित्त सन्तति की सत्ता से सभी वस्तुओं का ज्ञान होता है। वस्तुतः ये बाह्य सत्ता का सर्वथा निराकरण करते हैं। इनके यहाँ माध्यमिक मत के समान सत्ता दो प्रकार की मानी गई है-व्यावहारिक में पुनश्च परिकल्पित और परतन्त्र दो रूप ग्राह्य हैं। यहाँ चित्त की ही प्रवृत्ति तथा निवृत्ति (निरोध, मुक्ति) होती है। सभी वस्तुऐं चित्त का ही विकल्प है। इसे ही आलयविज्ञान कहते हैं। यह आलयविज्ञान क्षणिक विज्ञानों की सन्तति मात्र है।माध्यमिक सम्प्रदाय (शून्यवाद) संपादित करेंयहाँ बाह्य एवम् अन्तः दोनों सत्ताओं का शून्य मेंं विलयन हुआ है, जो कि अनिर्वचनीय है। ये केवल ज्ञान को ही अपने में स्थित मानते हैं और दो प्रकार का सत्य स्वीकार करते हैं-अ) सांवृत्तिक सत्य :- अविद्याजनित व्यावहारिक सत्ता।ब) पारमार्थिक सत्य :- प्रज्ञाजनित सत्यबौद्धों के इन चारों सम्प्रदायों में से प्रथम दो का सम्बन्ध हीनयान से तथा अन्तिम दोनों का सम्बन्ध महायान से है। हीनयानी सम्प्रदाय यथार्थवादी तथा सर्वास्तिवादी है, जबकि महायानी सम्प्रदायों में से योगाचारी विचार को ही परम तत्त्व तथा परम रूप में स्वीकार करते हैं। माध्यमिक दर्शन एक निषेधात्मक एवं विवेचनात्मक पद्धति है। यही कारण है कि माध्यमिक शून्यवाद को 'सर्ववैनाशिकवाद' के नाम से भी जाना जाता है।हीनयान तथा महायान की अन्यान्य अनेक शाखाएँ हैं, जो कि प्रख्यात नहीं हैं-बौद्धों के अनुसार वस्तु का निरन्तर परिवर्तन होता रहता है और कोई भी पदार्थ एक क्षण से अधिक स्थायी नहीं रहता है। कोई भी मनुष्य किसी भी दो क्षणों में एक सा नहीं रह सकता, इसिलिये आत्मा भी क्षणिक है और यह सिद्धान्त क्षणिकवाद कहलाता है । इसके लिए बौद्ध मतानुयायी प्रायः दीपशिखा की उपमा देते हैं। जब तक दीपक जलता है, तब तक उसकी लौ एक ही शिखा प्रतीत होती है, जबकि यह शिखा अनेकों शिखाओं की एक श्रृंखला है। एक बूँद से उत्पन्न शिखा दूसरी बूंद से उत्पन्न शिखा से भिन्न है; किन्तु शिखाओं के निरन्तर प्रवाह से एकता का भान होता है। इसी प्रकार सांसारिक पदार्थ क्षणिक है, किन्तु उनमें एकता की प्रतीति होती है। इस प्रकार यह सिद्धान्त ‘नित्यवाद’ और ‘अभाववाद’ के बीच का मध्यम मार्ग है।‘प्रतीत्यसमुत्पाद’ से तात्पर्य एक वस्तु के प्राप्त होने पर दूसरी वस्तु की उत्पत्ति अथवा एक कारण के आधार पर एक कार्य की उत्पत्ति से है। प्रतीत्यसमुत्पाद सापेक्ष भी है और निरपेक्ष भी। सापेक्ष दृष्टि से वह संसार है और निरपेक्ष दृष्टि से निर्वाण। यह क्षणिकवाद की भाँति शाश्वतवाद और उच्छेदवाद के मध्य का मार्ग है; इसीलिए इसे मध्यममार्ग कहा जाता है और इसको मानने वाले माध्यमिक।इस चक्र के बारह क्रम हैं,जो एक दूसरे को उत्पन्न करने के कारण है; ये हैं-भागवत धर्म के अधिष्ठात्री देवता के रूप में बलदाऊ का वर्णन हरिवंशपुराण में है । एक प्रसंग के अनुसार जब एक यादव भक्त यमुना जी के इस कुण्ड के जल में प्रवेश करके दिव्य भागवत मन्त्रों द्वारा सम्पूर्ण जगत के स्वामी नागराज अनन्त की स्तुति करता है ।👇 यमुनाया ह्रदे ह्यस्मिन् स्तोष्यामि भुजगेश्वरं । दिव्यैर् भागवतैर्मन्त्रै: सर्व लोक प्रभु यत: ।।४२। तब तक 'मैं यमुना जी के इस कुण्ड के जल में प्रवेश करके दिव्य भागवत मन्त्रों द्वारा सम्पूर्ण जगत के स्वामी नागराज अनन्त की स्तुति कर लूँ ।४२। गुह्यं भागवतं देवं सर्वलोकस्य भावनम् । श्रीमत्स्वस्तिकमूर्द्धानं प्रणमिष्यामि भोगिनम् । सहस्रशिरसं देवमनन्तं नीलवाससम् ।।४३। वे गुह्य स्वरूप भागवत देवता हैं । सम्पूर्ण लोकों के उत्पादक और उन्नायक हैं । उनका मस्तक कान्ति वान स्वास्तिक चिन्ह से अलंकृत है वे सर्प-विग्रहधारी अनन्त देवसहस्र शिरों से सुशोभित तथा नील वस्त्रधारण करने वाले हैं । 'मैं उन्हें परिणाम करुँगा ।४३। हरिवंशपुराण विष्णुपर्व छब्बीस वें अध्याय में भागवत धर्म के अधिष्ठात्री देवता के रूप में बलराम की स्तुति की गयी है । कृष्ण को परामर्श देने वाले बलराम ही थे । ब्राह्मण धर्म के विरुद्ध वर्ण व्यवस्था रहित लोकतन्त्र मूलक भक्तियोग समन्वित भागवत धर्म स्थापन का श्रेय कृष्ण 'ने बलराम को ही दिया । 'परन्तु बलराम 'ने स्वयं वासुदेव कृष्ण को ही भागवत धर्म के सैद्धान्तिक प्रतिपादन का श्रेय दिया ! वस्तुतः यह श्लोक गुप्त काल की भागवत धर्म के प्रादुर्भाव होकर विकासोन्मुख अवधारणा को प्रतिध्वनित करता है । श्रीमद्भगवदगीता उपनिषत् भागवत धर्म का सैद्धान्तिक प्रतिपादन करने वाला ग्रन्थ था 'परन्तु उसमें भी उत्तरार्द्ध अध्याय ब्राह्मण धर्म के वर्ण वादी संक्रमण से ग्रस्त हैं । जहांँ स्मृति ग्रन्थों ने वर्ण व्यवस्था और ब्राह्मण वाद को मण्डन किया वहीं श्रीमद्भगवदगीता 'ने वैदिक राजतंत्र मूलक और वर्ण व्यवस्था मूलक सामाजिक व्यवस्थाओं का खण्डन किया है । कर्म और ज्ञान के समन्वय भक्तियोग का उद्घोष श्रीमद्भगवदगीता में हुआ है। प्राय: स्मृति ग्रन्थों और श्रीमद्भगवद् गीता में परस्पर विरोधाभासी स्थिति हैं ।👇 _______ सामवेद की महत्ता को लेकर श्रीमद्भगवद् गीता और मनुःस्मृति का पारस्परिक विरोध सिद्ध करता है कि; या तो मनुःस्मृति ही मनु की रचना नहीं है । या फिर श्रीमद्भगवद् गीता कृ़ष्ण का पूर्ण उपदेश नहीं । इसमें भी ब्राह्मण वाद की बू ( गन्ध) कर दी है परन्तु इस बात के -परोक्षत: संकेत प्राप्त होते हैं कि कृष्ण देव संस्कृति के विद्रोही पुरुष थे । संगीत के अन्तर्गत हल्लीशम नृत्य जो आभीर समाज का सांस्कृतिक अवयव था ।
__________________________________________भागवत धर्म के अधिष्ठात्री देवता के रूप में बलदाऊ का वर्णन हरिवंशपुराण में है । एक प्रसंग के अनुसार जब एक यादव भक्त यमुना जी के इस कुण्ड के जल में प्रवेश करके दिव्य भागवत मन्त्रों द्वारा सम्पूर्ण जगत के स्वामी नागराज अनन्त की स्तुति करता है ।👇 यमुनाया ह्रदे ह्यस्मिन् स्तोष्यामि भुजगेश्वरं । दिव्यैर् भागवतैर्मन्त्रै: सर्व लोक प्रभु यत: ।।४२। तब तक 'मैं यमुना जी के इस कुण्ड के जल में प्रवेश करके दिव्य भागवत मन्त्रों द्वारा सम्पूर्ण जगत के स्वामी नागराज अनन्त की स्तुति कर लूँ ।४२। गुह्यं भागवतं देवं सर्वलोकस्य भावनम् । श्रीमत्स्वस्तिकमूर्द्धानं प्रणमिष्यामि भोगिनम् । सहस्रशिरसं देवमनन्तं नीलवाससम् ।।४३। वे गुह्य स्वरूप भागवत देवता हैं । सम्पूर्ण लोकों के उत्पादक और उन्नायक हैं । उनका मस्तक कान्ति वान स्वास्तिक चिन्ह से अलंकृत है वे सर्प-विग्रहधारी अनन्त देवसहस्र शिरों से सुशोभित तथा नील वस्त्रधारण करने वाले हैं । 'मैं उन्हें परिणाम करुँगा ।४३। हरिवंशपुराण विष्णुपर्व छब्बीस वें अध्याय में भागवत धर्म के अधिष्ठात्री देवता के रूप में बलराम की स्तुति की गयी है । कृष्ण को परामर्श देने वाले बलराम ही थे । ब्राह्मण धर्म के विरुद्ध वर्ण व्यवस्था रहित लोकतन्त्र मूलक भक्तियोग समन्वित भागवत धर्म स्थापन का श्रेय कृष्ण 'ने बलराम को ही दिया । 'परन्तु बलराम 'ने स्वयं वासुदेव कृष्ण को ही भागवत धर्म के सैद्धान्तिक प्रतिपादन का श्रेय दिया ! वस्तुतः यह श्लोक गुप्त काल की भागवत धर्म के प्रादुर्भाव होकर विकासोन्मुख अवधारणा को प्रतिध्वनित करता है । श्रीमद्भगवदगीता उपनिषत् भागवत धर्म का सैद्धान्तिक प्रतिपादन करने वाला ग्रन्थ था 'परन्तु उसमें भी उत्तरार्द्ध अध्याय ब्राह्मण धर्म के वर्ण वादी संक्रमण से ग्रस्त हैं । जहांँ स्मृति ग्रन्थों ने वर्ण व्यवस्था और ब्राह्मण वाद को मण्डन किया वहीं श्रीमद्भगवदगीता 'ने वैदिक राजतंत्र मूलक और वर्ण व्यवस्था मूलक सामाजिक व्यवस्थाओं का खण्डन किया है । कर्म और ज्ञान के समन्वय भक्तियोग का उद्घोष श्रीमद्भगवदगीता में हुआ है। प्राय: स्मृति ग्रन्थों और श्रीमद्भगवद् गीता में परस्पर विरोधाभासी स्थिति हैं ।👇 _______ सामवेद की महत्ता को लेकर श्रीमद्भगवद् गीता और मनुःस्मृति का पारस्परिक विरोध सिद्ध करता है कि; या तो मनुःस्मृति ही मनु की रचना नहीं है । या फिर श्रीमद्भगवद् गीता कृ़ष्ण का पूर्ण उपदेश नहीं । इसमें भी ब्राह्मण वाद की बू ( गन्ध) कर दी है परन्तु इस बात के -परोक्षत: संकेत प्राप्त होते हैं कि कृष्ण देव संस्कृति के विद्रोही पुरुष थे । संगीत के अन्तर्गत हल्लीशम नृत्य जो भीर समाज का सांस्कृतिक अवयव था ।
भागवत धर्म के अधिष्ठात्री देवता के रूप में बलदाऊ का वर्णन हरिवंशपुराण में है । एक प्रसंग के अनुसार जब एक यादव भक्त यमुना जी के इस कुण्ड के जल में प्रवेश करके दिव्य भागवत मन्त्रों द्वारा सम्पूर्ण जगत के स्वामी नागराज अनन्त की स्तुति करता है ।👇 यमुनाया ह्रदे ह्यस्मिन् स्तोष्यामि भुजगेश्वरं । दिव्यैर् भागवतैर्मन्त्रै: सर्व लोक प्रभु यत: ।।४२। तब तक 'मैं यमुना जी के इस कुण्ड के जल में प्रवेश करके दिव्य भागवत मन्त्रों द्वारा सम्पूर्ण जगत के स्वामी नागराज अनन्त की स्तुति कर लूँ ।४२। गुह्यं भागवतं देवं सर्वलोकस्य भावनम् । श्रीमत्स्वस्तिकमूर्द्धानं प्रणमिष्यामि भोगिनम् । सहस्रशिरसं देवमनन्तं नीलवाससम् ।।४३। वे गुह्य स्वरूप भागवत देवता हैं । सम्पूर्ण लोकों के उत्पादक और उन्नायक हैं । उनका मस्तक कान्ति वान स्वास्तिक चिन्ह से अलंकृत है वे सर्प-विग्रहधारी अनन्त देवसहस्र शिरों से सुशोभित तथा नील वस्त्रधारण करने वाले हैं । 'मैं उन्हें परिणाम करुँगा ।४३। हरिवंशपुराण विष्णुपर्व छब्बीस वें अध्याय में भागवत धर्म के अधिष्ठात्री देवता के रूप में बलराम की स्तुति की गयी है । कृष्ण को परामर्श देने वाले बलराम ही थे । ब्राह्मण धर्म के विरुद्ध वर्ण व्यवस्था रहित लोकतन्त्र मूलक भक्तियोग समन्वित भागवत धर्म स्थापन का श्रेय कृष्ण 'ने बलराम को ही दिया । 'परन्तु बलराम 'ने स्वयं वासुदेव कृष्ण को ही भागवत धर्म के सैद्धान्तिक प्रतिपादन का श्रेय दिया ! वस्तुतः यह श्लोक गुप्त काल की भागवत धर्म के प्रादुर्भाव होकर विकासोन्मुख अवधारणा को प्रतिध्वनित करता है । श्रीमद्भगवदगीता उपनिषत् भागवत धर्म का सैद्धान्तिक प्रतिपादन करने वाला ग्रन्थ था 'परन्तु उसमें भी उत्तरार्द्ध अध्याय ब्राह्मण धर्म के वर्ण वादी संक्रमण से ग्रस्त हैं । जहांँ स्मृति ग्रन्थों ने वर्ण व्यवस्था और ब्राह्मण वाद को मण्डन किया वहीं श्रीमद्भगवदगीता 'ने वैदिक राजतंत्र मूलक और वर्ण व्यवस्था मूलक सामाजिक व्यवस्थाओं का खण्डन किया है । कर्म और ज्ञान के समन्वय भक्तियोग का उद्घोष श्रीमद्भगवदगीता में हुआ है। प्राय: स्मृति ग्रन्थों और श्रीमद्भगवद् गीता में परस्पर विरोधाभासी स्थिति हैं ।👇 _______ सामवेद की महत्ता को लेकर श्रीमद्भगवद् गीता और मनुःस्मृति का पारस्परिक विरोध सिद्ध करता है कि; या तो मनुःस्मृति ही मनु की रचना नहीं है । या फिर श्रीमद्भगवद् गीता कृ़ष्ण का पूर्ण उपदेश नहीं । इसमें भी ब्राह्मण वाद की बू ( गन्ध) कर दी है परन्तु इस बात के -परोक्षत: संकेत प्राप्त होते हैं कि कृष्ण देव संस्कृति के विद्रोही पुरुष थे । संगीत के अन्तर्गत हल्लीशम नृत्य जो भीर समाज का सांस्कृतिक अवयव था ।
भगवतः भगवत्या वा इदम् सोऽस्य देवता वा अण् । भगवतः भगवत्या वा १ भक्ते, २ तयोः सम्बन्धिनि च “भग्नाः कृषेर्भागवता भवन्ति” उद्भटः भज् + क्त =भक्त अहंकार रहित होकर भगवान के प्रति समर्पण करने वाला ..भज् +क्तनि =भक्ति अहंकार रहित होकर भगवान के प्रति समर्पण करने की भावना ...भगम् “ऐश्वर्य्यस्य समग्रस्य वीर्य्यस्य यशसः श्रियः । ज्ञानवैराग्ययोश्चैव षण्णां भग इतीङ्गनेत्युक्तम् अस्त्यस्य मतुप् मस्य वः इति भगवद् ऐश्वर्य्यादियुक्ते परमेश्वरे अर्थे ----अर्थात् भग शब्द संस्कृत की भज् -सेवायाम् धातु से निष्पन्न है जिसका अर्थ १- सम्पूर्ण ऐश्वर्य (प्रभुता) २- पराक्रम ( वीरता)३- यश ४- श्री ५- ज्ञान ६- वैराग्य इन छ: गुणों से सम्पन्न मानवेतर प्राणी को भगवत् कहते हैं और भगवान इसी का प्रथमा विभक्ति एक वचन का रूप है बुद्ध से भी पूर्व भगवत् +अण् प्रत्यय करने पर भागवत् शब्द बनता है और भागवत् कृष्ण का भक्ति मूलक धर्म पथ है जिसकी विस्तृत जानकारी आगामी पोष्ट में देखेंश्रीकृष्णः । यथा, -- “भगवानपि ता रात्रीः शारदोत्फुल्लमल्लिकाः । वीक्ष्य रन्तुं मनश्चक्रे योगमायामुपाश्रितः ॥” इति श्रीभागवते १० स्कन्धे २९ अध्यायः कृष्ण को भगवत् सम्बोधन पुराणों में हैcf. Zd. bagha = Old Pers. baga ; Gk. ? ; Slav. bogu8 , bogatu8 ; Lith. bago4tas , na-.] ,अर्थात वेदों में तथा अवेस्ता में क्रमश: भग और बग शब्द ईश्वर के वाचक हैं बाल्टिक की स्लेव भाषा में बोगु तथा लिथु़आनियन भाषा में बोगू है तो तुर्की में बेग और यूरोपीय भाषाओं वेजिना शबद भग मूलक हैंभगवतः भगवत्या वा इदम् सोऽस्य देवता वा अण् । भगवतः भगवत्या वा १ भक्ते, २ तयोः सम्बन्धिनि च “भग्नाः कृषेर्भागवता भवन्ति” उद्भटः भज् + क्त =भक्त अहंकार रहित होकर भगवान के प्रति समर्पण करने वाला ..भज् +क्तनि =भक्ति अहंकार रहित होकर भगवान के प्रति समर्पण करने की भावना ...भगम् “ऐश्वर्य्यस्य समग्रस्य वीर्य्यस्य यशसः श्रियः । ज्ञानवैराग्ययोश्चैव षण्णां भग इतीङ्गनेत्युक्तम् अस्त्यस्य मतुप् मस्य वः इति भगवद् ऐश्वर्य्यादियुक्ते परमेश्वरे अर्थे ----अर्थात् भग शब्द संस्कृत की भज् -सेवायाम् धातु से निष्पन्न है जिसका अर्थ १- सम्पूर्ण ऐश्वर्य (प्रभुता) २- पराक्रम ( वीरता)३- यश ४- श्री ५- ज्ञान ६- वैराग्य इन छ: गुणों से सम्पन्न मानवेतर प्राणी को भगवत् कहते हैं और भगवान इसी का प्रथमा विभक्ति एक वचन का रूप है बुद्ध से भी पूर्व भगवत् +अण् प्रत्यय करने पर भागवत् शब्द बनता है और भागवत् कृष्ण का भक्ति मूलक धर्म पथ है जिसकी विस्तृत जानकारी आगामी पोष्ट में देखेंश्रीकृष्णः । यथा, -- “भगवानपि ता रात्रीः शारदोत्फुल्लमल्लिकाः । वीक्ष्य रन्तुं मनश्चक्रे योगमायामुपाश्रितः ॥” इति श्रीभागवते १० स्कन्धे २९ अध्यायः कृष्ण को भगवत् सम्बोधन पुराणों में हैcf. Zd. bagha = Old Pers. baga ; Gk. ? ; Slav. bogu8 , bogatu8 ; Lith. bago4tas , na-.] ,अर्थात वेदों में तथा अवेस्ता में क्रमश: भग और बग शब्द ईश्वर के वाचक हैं बाल्टिक की स्लेव भाषा में बोगु तथा लिथु़आनियन भाषा में बोगू है तो तुर्की में बेग और यूरोपीय भाषाओं वेजिना शबद भग मूलक हैंVedic Index of Names and Subjects'''Bhaga''' denotes a part of the chariot in one passage of the Rigveda[ ii. 34, 8.] according to Hillebrandt.[ ''Vedische ]Mythologie,'' 3, 95.
भागवत धर्म के अधिष्ठात्री देवता के रूप में बलदाऊ का वर्णन हरिवंशपुराण में है । एक प्रसंग के अनुसार जब एक यादव भक्त यमुना जी के इस कुण्ड के जल में प्रवेश करके दिव्य भागवत मन्त्रों द्वारा सम्पूर्ण जगत के स्वामी नागराज अनन्त की स्तुति करता है ।👇 यमुनाया ह्रदे ह्यस्मिन् स्तोष्यामि भुजगेश्वरं । दिव्यैर् भागवतैर्मन्त्रै: सर्व लोक प्रभु यत: ।।४२। तब तक 'मैं यमुना जी के इस कुण्ड के जल में प्रवेश करके दिव्य भागवत मन्त्रों द्वारा सम्पूर्ण जगत के स्वामी नागराज अनन्त की स्तुति कर लूँ ।४२। गुह्यं भागवतं देवं सर्वलोकस्य भावनम् । श्रीमत्स्वस्तिकमूर्द्धानं प्रणमिष्यामि भोगिनम् । सहस्रशिरसं देवमनन्तं नीलवाससम् ।।४३। वे गुह्य स्वरूप भागवत देवता हैं । सम्पूर्ण लोकों के उत्पादक और उन्नायक हैं । उनका मस्तक कान्ति वान स्वास्तिक चिन्ह से अलंकृत है वे सर्प-विग्रहधारी अनन्त देवसहस्र शिरों से सुशोभित तथा नील वस्त्रधारण करने वाले हैं । 'मैं उन्हें परिणाम करुँगा ।४३। हरिवंशपुराण विष्णुपर्व छब्बीस वें अध्याय में भागवत धर्म के अधिष्ठात्री देवता के रूप में बलराम की स्तुति की गयी है । कृष्ण को परामर्श देने वाले बलराम ही थे । ब्राह्मण धर्म के विरुद्ध वर्ण व्यवस्था रहित लोकतन्त्र मूलक भक्तियोग समन्वित भागवत धर्म स्थापन का श्रेय कृष्ण 'ने बलराम को ही दिया । 'परन्तु बलराम 'ने स्वयं वासुदेव कृष्ण को ही भागवत धर्म के सैद्धान्तिक प्रतिपादन का श्रेय दिया ! वस्तुतः यह श्लोक गुप्त काल की भागवत धर्म के प्रादुर्भाव होकर विकासोन्मुख अवधारणा को प्रतिध्वनित करता है । श्रीमद्भगवदगीता उपनिषत् भागवत धर्म का सैद्धान्तिक प्रतिपादन करने वाला ग्रन्थ था 'परन्तु उसमें भी उत्तरार्द्ध अध्याय ब्राह्मण धर्म के वर्ण वादी संक्रमण से ग्रस्त हैं । जहांँ स्मृति ग्रन्थों ने वर्ण व्यवस्था और ब्राह्मण वाद को मण्डन किया वहीं श्रीमद्भगवदगीता 'ने वैदिक राजतंत्र मूलक और वर्ण व्यवस्था मूलक सामाजिक व्यवस्थाओं का खण्डन किया है । कर्म और ज्ञान के समन्वय भक्तियोग का उद्घोष श्रीमद्भगवदगीता में हुआ है। प्राय: स्मृति ग्रन्थों और श्रीमद्भगवद् गीता में परस्पर विरोधाभासी स्थिति हैं ।👇 _______ सामवेद की महत्ता को लेकर श्रीमद्भगवद् गीता और मनुःस्मृति का पारस्परिक विरोध सिद्ध करता है कि; या तो मनुःस्मृति ही मनु की रचना नहीं है । या फिर श्रीमद्भगवद् गीता कृ़ष्ण का पूर्ण उपदेश नहीं । इसमें भी ब्राह्मण वाद की बू ( गन्ध) कर दी है परन्तु इस बात के -परोक्षत: संकेत प्राप्त होते हैं कि कृष्ण देव संस्कृति के विद्रोही पुरुष थे । संगीत के अन्तर्गत हल्लीशम नृत्य जो भीर समाज का सांस्कृतिक अवयव था ।
भागवत धर्म के अधिष्ठात्री देवता के रूप में बलदाऊ का वर्णन हरिवंशपुराण में है । एक प्रसंग के अनुसार जब एक यादव भक्त यमुना जी के इस कुण्ड के जल में प्रवेश करके दिव्य भागवत मन्त्रों द्वारा सम्पूर्ण जगत के स्वामी नागराज अनन्त की स्तुति करता है ।👇 यमुनाया ह्रदे ह्यस्मिन् स्तोष्यामि भुजगेश्वरं । दिव्यैर् भागवतैर्मन्त्रै: सर्व लोक प्रभु यत: ।।४२। तब तक 'मैं यमुना जी के इस कुण्ड के जल में प्रवेश करके दिव्य भागवत मन्त्रों द्वारा सम्पूर्ण जगत के स्वामी नागराज अनन्त की स्तुति कर लूँ ।४२। गुह्यं भागवतं देवं सर्वलोकस्य भावनम् । श्रीमत्स्वस्तिकमूर्द्धानं प्रणमिष्यामि भोगिनम् । सहस्रशिरसं देवमनन्तं नीलवाससम् ।।४३। वे गुह्य स्वरूप भागवत देवता हैं । सम्पूर्ण लोकों के उत्पादक और उन्नायक हैं । उनका मस्तक कान्ति वान स्वास्तिक चिन्ह से अलंकृत है वे सर्प-विग्रहधारी अनन्त देवसहस्र शिरों से सुशोभित तथा नील वस्त्रधारण करने वाले हैं । 'मैं उन्हें परिणाम करुँगा ।४३। हरिवंशपुराण विष्णुपर्व छब्बीस वें अध्याय में भागवत धर्म के अधिष्ठात्री देवता के रूप में बलराम की स्तुति की गयी है । कृष्ण को परामर्श देने वाले बलराम ही थे । ब्राह्मण धर्म के विरुद्ध वर्ण व्यवस्था रहित लोकतन्त्र मूलक भक्तियोग समन्वित भागवत धर्म स्थापन का श्रेय कृष्ण 'ने बलराम को ही दिया । 'परन्तु बलराम 'ने स्वयं वासुदेव कृष्ण को ही भागवत धर्म के सैद्धान्तिक प्रतिपादन का श्रेय दिया ! वस्तुतः यह श्लोक गुप्त काल की भागवत धर्म के प्रादुर्भाव होकर विकासोन्मुख अवधारणा को प्रतिध्वनित करता है । श्रीमद्भगवदगीता उपनिषत् भागवत धर्म का सैद्धान्तिक प्रतिपादन करने वाला ग्रन्थ था 'परन्तु उसमें भी उत्तरार्द्ध अध्याय ब्राह्मण धर्म के वर्ण वादी संक्रमण से ग्रस्त हैं । जहांँ स्मृति ग्रन्थों ने वर्ण व्यवस्था और ब्राह्मण वाद को मण्डन किया वहीं श्रीमद्भगवदगीता 'ने वैदिक राजतंत्र मूलक और वर्ण व्यवस्था मूलक सामाजिक व्यवस्थाओं का खण्डन किया है । कर्म और ज्ञान के समन्वय भक्तियोग का उद्घोष श्रीमद्भगवदगीता में हुआ है। प्राय: स्मृति ग्रन्थों और श्रीमद्भगवद् गीता में परस्पर विरोधाभासी स्थिति हैं ।👇 _______ सामवेद की महत्ता को लेकर श्रीमद्भगवद् गीता और मनुःस्मृति का पारस्परिक विरोध सिद्ध करता है कि; या तो मनुःस्मृति ही मनु की रचना नहीं है । या फिर श्रीमद्भगवद् गीता कृ़ष्ण का पूर्ण उपदेश नहीं । इसमें भी ब्राह्मण वाद की बू ( गन्ध) कर दी है परन्तु इस बात के -परोक्षत: संकेत प्राप्त होते हैं कि कृष्ण देव संस्कृति के विद्रोही पुरुष थे । संगीत के अन्तर्गत हल्लीशम नृत्य जो भीर समाज का सांस्कृतिक अवयव था ।
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