राधा का वेदों में वर्णन --
राधा तत्वामृत
राधा ---व्युत्पत्ति व उदभव---- ------
राधा एक कल्पना है या वास्तविक चरित्र, यह सदियों से तर्कशील व्यक्तियों विज्ञजनों के मन में प्रश्न बनकर उठता रहा है|
अधिकाँशतः जन राधा के चरित्र को काल्पनिक एवं पौराणिक काल में रचा गया मानते हैं |
कुछ विद्वानों के अनुसार कृष्ण की आराधिका का ही रुप राधा हैं।
आराधिका शब्द में से अा उपसर्ग हटा देने से राधिका बनता है।
कुछ भी सही परम्परागत रूप से कृष्ण चरित्र का सहचरी रूप है राधा ।
राधाजी का जन्म यमुना के निकट स्थित रावल ग्राम में हुआ था।
यहाँ राधा का मंदिर भी है।
राधारानी का विश्व प्रसिद्ध मंदिर बरसाना ग्राम की पहाड़ी पर स्थित है।
------- यह आश्चर्य की बात हे कि राधा-कृष्ण की इतनी अभिन्नता होते हुए भी महाभारत या भागवत पुराण में राधा का नामोल्लेख नहीं मिलता, यद्यपि कृष्ण की एक प्रिय सखी का संकेत अवश्य मिलता है।
राधा ने श्रीकृष्ण के प्रेम के लिए सामाजिक बंधनों का उल्लंघन किया।
कृष्ण की अनुपस्थिति में उसके प्रेम-भाव में और भी वृद्धि हुई।
'परन्तु यह प्रेम लौकिक प्रेम नहीं था ।
जो वासना समन्वित है ।
दोनों का पुनर्मिलन कुरूक्षेत्र में बताया जाता है जहां सूर्यग्रहण के अवसर पर द्वारिका से कृष्ण और वृन्दावन से नंद, राधा आदि गए थे।
'परन्तु भारतीय पुरोहितों'ने भी कृष्ण चरित्र को जन किंवदंतियों से ग्रहण कर अपने अपने भाव प्रवृत्तियों के अनुरूप वर्णित किया ।
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यहाँ पर हम वस्तुतः राधा शब्द व चरित्र कहाँ से आया इस प्रश्न पर कुछ प्रकाशन डालने का प्रयत्न करेंगे |
प्रयत्न ही कर सकते हैं, यद्यपि यह भी एक धृष्टता ही है क्योंकि भक्ति प्रधान इस देश में श्रीकृष्ण (श्री राधाजी व श्री कृष्ण ) स्वयं ही ब्रह्म व आदि-शक्ति रूप माने जाते हैं अतः सत्य तो वे ही जानते हैं |
राधा का चरित्र-वर्णन, श्रीमदभागवत में स्पष्ट नहीं मिलता ....
वेद-उपनिषद में भी राधा का उल्लेख नहीं है।
ऐसा आर्य्य समाजी मानते हैं ।
आर्य्य समाजी तो वेदों की व्याख्या अपने धातुज या योगज शब्दों के अर्थ रूप में करते हैं ।
जो अनर्थ मूलक और पूर्व दुराग्रह से ग्रस्त ही हैं ।
राधा-कृष्ण का सांगोपांग वर्णन ‘गीत-गोविन्द’ से मिलता है|
'परन्तु वहाँ भक्ति में श्रृंँगार प्रवाहित है ।
'परन्तु राधा भागवत धर्म में भक्ति की अधिष्ठात्री देवी हैं और स्वयं भगवान् भक्ति के अधीन है ।
वेदों में राधा शब्द सर्व-प्रथम ऋग्वेद के भाग-१ /मंडल १,२ ...में ...राधस शब्द का प्रयोग हुआ है ।
....जिसे वैभव के अर्थ में प्रयोग किया गया है।
ऋग्वेद के २/मण्डल ३-४-५ में ..सुराधा ...शब्द का प्रयोग श्रेष्ठ धनों से युक्त के अर्थ में प्रयुक्त होता रहा है ।
...सभी देवों से उनकी अपनी संरक्षक शक्ति का उपयोग करके धनों की प्राप्ति व प्राकृतिक साधनों के उचित प्रयोग की प्रार्थना की गयी है|
ऋग्वेद-५/५२/..में -- राधो व आराधना शब्द ..शोधकार्यों के लिए प्रयुक्त किये गए हैं...यथा.. “ यमुनामयादि श्रुतमुद्राधो गव्यं म्रजे निराधो अश्वं म्रजे |”
अर्थात यमुना के किनारे गाय ..घोड़ों आदि धनों का वर्धन, वृद्धि, संशोधन व उत्पादन आराधना सहित करें या किया जाता है |
एवं..... “गवामप ब्रजं वृधि कृणुश्व राधो अद्रिव: नहि त्वा रोदसी उभे ऋघायमाणमिन्वतः |”
------कृष्ण = कृ = कार्य = कर्म -----राधो = अराधना, राधन ( गूंथना ), शोध, शोधन, नियमितता, साधना ...अर्थात ब्रज में गौ – ज्ञान, सभ्यता उन्नति की वृद्धि ...कृष्ण-राधा द्वारा हुई = कर्म व साधना द्वारा की गयी शोधों से हुई |
इदं ह्यन्वोजसा सुतं राधानां पते पिवा त्वस्य गिर्वण (ऋग्वेद ३. ५ १. १ ०) ---ओ राधापति ( इंद्र – बाद में विष्णु ) वेद मन्त्र भी तुम्हें जपते हैं।
उनके द्वारा सोमरस पान करो।
-------विभक्तारं हवामहे वसोश्चित्रस्य राधस : सवितारं नृचक्षसं (ऋग्वेद १ २ २. ७).
-------ओ सब के हृदय में विराजमान सर्वज्ञाता दृष्टा जो हमारी आराधना सुनें हमारी रक्षा करो।
त्वं नृचक्सम वृषभानुपूर्वी : कृष्नास्वग्ने अरुषोविभाही ...(ऋग्वेद )
--------इस मन्त्र में श्री राधा के पिता वृषभानु का उल्लेख किया गया है जो अन्य किसी भी प्रकार के संदेह को मिटा देता है ,क्योंकि वही तो राधा के पिता हैं।
------यस्या रेणुं पादयोर्विश्वभर्ता धरते मूर्धिन प्रेमयुक्त : ---(अथर्ववेदीय राधिकोपनिषद )
----राधा वह शख्शियत है जिसके कमलवत चरणों की रज श्रीकृष्ण प्रेमपूर्वक अपने माथे पे लगाते हैं।
राधा को दक्षिणी भारतीय आख्यानकों में
भक्ति की अधिष्ठात्री देवी रूप में स्वीकार किया गया है।
तमिलनाडू की गाथा के अनुसार --दक्षिण भारत का अय्यर जाति समूह, उत्तर के यादव के समकक्ष हैं |
एक कथा के अनुसार गोप व ग्वाले ही कंस के अत्याचारों से डर कर दक्षिण तमिलनाडू चले गए थे |
उनके नायक की पुत्री नप्पिंनई से कृष्ण ने विवाह किया --- श्रीकृष्ण ने नप्पिंनई को ७ बैलों को हराकर जीता था | तमिल गाथाओं के अनुसार नप्पिनयी नीला देवी का अवतार है जो ऋग्वेद की तैत्रीय संहिता के अनुसार ---विष्णु पत्नी सूक्त या अदिति सूक्त या नीला देवी सूक्त में राधा ही हैं जिन्हें अदिति –दिशाओं की देवी भी कहते हैं |
नीला देवी या राधा परमशक्ति की मूल आदि-शक्ति हैं –अदिति ...|
---------श्री कृष्ण की एक पत्नी कौशल देश की राजकुमारी---नीला भी थी, जो यही नाप्पिनायी ही है जो दक्षिण की राधा है |
नामान्तरण से ये पात्र. राधा हैं ।
एक कथा के अनुसार राधाके कुटुंब के लोग ही दक्षिण चले गए अतः नप्पिंनई राधा ही थी |
-----पुराणों में श्री राध का वर्णन अतिरञ्जना पूर्ण शैली में हुआ है ।
वेदव्यास जी ने श्रीमदभागवत के अलावा १७ और पुराण रचे हैं अथवा उनके अनुयायी सूतों ने रचना की इनमें से छ :में श्री राधारानी का उल्लेख है।
यथा राधा प्रिया विष्णो : (पद्मपुराण )
राधा वामांश संभूता महालक्ष्मीर्प्रकीर्तिता (नारद पुराण )
तत्रापि राधिका शश्वत (आदि पुराण )
रुक्मणी द्वारवत्याम तु राधा वृन्दावन वने (मत्स्य पुराण १३. ३७ )
राध्नोति सकलान कामान तेन राधा प्रकीर्तित :(देवी भागवत पुराण )
-----यां गोपीमनयत कृष्णो (श्रीमद भागवतम १०.३०.३५ )
---श्री कृष्ण एक गोपी को साथ लेकर अगोचर हो गए। महारास से विलग हो गए।
गोपी, राधा का एक नाम है|
----अन्या अाराधितो नूनं भगवान् हरिरीश्वर : -(श्रीमद भागवतम )
----इस गोपी ने कृष्ण की अनन्य भक्ति( आराधना) की है।
इसीलिए कृष्ण उन्हें अपने (संग रखे हैं ) संग ले गए, इसीलिये वह आराधिका ...राधिका है |
--------- वस्तुतः ऋग्वेदिक व यजुर्वेद व अथर्व वेदिक साहित्य में ’ राधा’ शब्द की व्युत्पत्ति = रयि (संसार, ऐश्वर्य, श्री, वैभव) +धा (धारक, धारण करने वाली शक्ति) से हुई है;
अतः जब उपनिषद व संहिताओं के ज्ञान मार्गीकाल में सृष्टि के कर्ता का ब्रह्म व पुरुष, परमात्मा रूप में वर्णन हुआ तो समस्त संसार की धारक चितशक्ति, ह्लादिनी शक्ति, परमेश्वरी राधा का आविर्भाव हुआ|
----भविष्य पुराण में--जब वेद को स्वयं साक्षात नारायण कहा गया तो उनकी मूल कृतित्व - काल, कर्म, धर्म व काम के अधिष्ठाता हुए—कालरूप- कृष्ण व उनकी सहोदरी (साथ-साथ उदभूत) राधा-परमेश्वरी......कर्म रूप - ब्रह्मा व नियति (सहोदरी).... धर्म रूप-महादेव व श्रद्धा (सहोदरी) .....एवम कामरूप-अनिरुद्ध व उषा ( सहोदरी )---- इस प्रकार राधा परमात्व तत्व कृष्ण की चिर सहचरी, चिच्छित-शक्ति (ब्रह्मसंहिता) है।
------वही परवर्ती साहित्य में.... श्रीकृष्ण का लीला-रमण व लौकिक रूप के आविर्भाव के साथ उनकी साथी, प्रेमिका, पत्नी हुई व ब्रजबासिनी रूप में जन-नेत्री। ------भागवत-पुराण ...मैं जो आराधिता नाम की गोपी का उल्लेख है
...... किसी एक प्रिय गोपी को भगवान श्री कृष्ण महारास के मध्य में लोप होते समय साथ ले गये थे जिसे ’मान ’ होने पर छोडकर अन्तर्ध्यान हुए थे; संभवतः यह वही गोपी रही होगी जिसे गीत-गोविन्द के रचयिता विद्यापति व सूरदास आदि परवर्ती कवियों, भक्तों ने श्रंगारभूति श्रीकृष्ण (पुरुष) की रसेश्वरी (प्रक्रति) राधा....के रूप मेंकल्पित व प्रतिष्ठित किया।
-------महाभारत में राधा ----
उल्लेख उस समय आ सकता था जब शिशुपाल श्रीकृष्ण की लम्पटता का बखान कर रहा था|
परन्तु भागवतकार निश्चय ही राधा जैसे पावन चरित्र को इसमें घसीटना नहीं चाहता होगा, अतः शिशुपाल से केवल सांकेतिक भाषा में कहलवाया गया, अनर्गल बात नहीं कहलवाई गयी|
-------- कुछ विद्वानों के अनुसार महाभारत में तत्व रूप में राधा का नाम सर्वत्र है क्योंकि उसमें कृष्ण को सदैव श्री कृष्ण कहा गया है |
श्री का अर्थ राधा ही है जो आत्मतत्व की भांति सर्वत्र अंतर्गुन्थित है, श्रीकृष्ण = राधाकृष्ण |
श्री कृष्ण की विख्यात प्राणसखी और उपासिका राधा वृषभानु नामक गोप अथवा अहीर की पुत्री थीं।
राधा कृष्ण शाश्वत प्रेम का प्रतीक हैं।
राधा की माता कीर्ति के लिए 'वृषभानु पत्नी 'शब्द का प्रयोग किया जाता है।
राधा को कृष्ण की प्रेमिका और कहीं-कहीं पत्नी के रुप में माना जाता हैं।
राधा वृषभानु की पुत्री थी।
पद्म पुराण ने इसे वृषभानु राजा की कन्या बताया है।
यह राजा जब यज्ञ की भूमि साफ कर रहा था, इसे भूमि में कन्या के रूप में राधा मिली।
राजा ने अपनी कन्या मानकर इसका पालन-पोषण किया।
यह भी कथा मिलती है कि विष्णु ने कृष्ण अवतार लेते समय अपने परिवार के सभी देवताओं से पृथ्वी पर अवतार लेने के लिए कहा।
तभी राधा भी जो चतुर्भुज विष्णु की अर्धांगिनी और लक्ष्मी के रूप में वैकुंठ लोक में निवास करती थीं, राधा बनकर पृथ्वी पर आई।
ब्रह्म वैवर्त पुराण के अनुसार राधा कृष्ण की सखी थी और उसका विवाह रापाण अथवा रायाण नामक व्यक्ति के साथ हुआ था।
अन्यत्र जैसे गर्गसंहिता अष्टम अध्याय में भाण्डीर वन में राधा और कृष्ण के विवाह का भी उल्लेख मिलता है।
कहते हैं, राधा अपने जन्म के समय ही वयस्क हो गई थी।
---------यह भी किंवदन्ती है कि जन्म के समय राधा अन्धी थी और यमुना में नहाते समय जाते हुए राजा वृषभानु को सरोवर में कमल के पुष्प पर खेलती हुई मिली।
शिशु अवस्था में ही श्री कृष्ण की माता यशोदा के साथ बरसाना में प्रथम मुलाक़ात हुई, पालने में सोते हुए राधा को कृष्ण द्वारा झांक कर देखते ही जन्मांध राधा की आँखें खुल गईं |
महान कवियों- लेखकों ने राधा के पक्ष में कान्हा को निर्मोही जैसी उपाधि दी।
दे भी क्यूँ न ? राधा का प्रेम ही ऐसा अलौकिक था...उसकी साक्षी थी यमुना जी की लहरें, वृन्दावन की वे कुंज वेल गलियाँ वो कदम्ब का पेड़, वो गोधुली बेला जब श्याम गायें चरा कर वापिस आते .....
वो मुरली की स्वर लहरी जो सदैव वहाँ की हवाओं में विद्यमान रहती थी ।
------राधा जो वनों में भटकती, कृष्ण कृष्ण पुकारती, अपने प्रेम को अमर बनाती, उसकी पुकार सुन कर भी ,कृष्ण ने एक बार भी पलट कर पीछे नही देखा।
...तो क्यूँ न वो निर्मोही एवं कठोर हृदय कहलाए ।
किन्तु कृष्ण के हृदय का स्पंदन किसी ने नहीं सुना।
स्वयं कृष्ण को कहाँ कभी समय मिला कि वो अपने हृदय की बात..मन की बात सुन सकें।
जब अपने ही कुटुंब से व्यथित हो कर वे प्रभास -क्षेत्र में लेट कर चिंतन कर रहे थे तब 'जरा'के छोडे तीर की चुभन महसूस हुई।
उन्होंने देहोत्सर्ग करते हुए 'राधा'शब्द का उच्चारण किया।
जिसे 'जरा' ननेमक बसुेलिए न सुना और 'उद्धव' को जो उसी समय वह पहुँचे उन्हें सुनाया।
उद्धव की आँखों से आँसू लगतार बहने लगे।
सभी लोगों को कृष्ण का संदेश देने के बाद जब उद्धव राधा के पास पहुँचे तो वे केवल इतना कह सके ---
"राधा, कान्हा तो सारे संसार के थे ।
राधिके ! कृष्ण सर्वस्य जगते:
-----किन्तु राधा तो केवल कृष्ण के हृदय में थी…....कान्हा के हृदय में तो केवल राधा थीं ....
समस्त भारतीय साहित्य के अध्यन से प्रकट होता है कि राधा प्रेम और भक्ति का प्रतीक थीं और कृष्ण और राधा के बीच दैहिक संबंधों की कोई भी अवधारणा शास्त्रों में नहीं है।
यदि है तो वह प्रक्षिप्त ही है ।
इसलिए इस प्रेम को शाश्वत प्रेम की श्रेणी में रखते हैं।
इसलिए कृष्ण के साथ सदा राधाजी को ही प्रतिष्ठा मिली।
-------बरसाना के श्री जी के मंदिर में ठाकुर जी भी रहते हैं |
ठाकुर शब्द का प्रयोग तेरहवीं सदी में हुआ तुर्की आर्मेनियन और ईरानी भाषाओं से
सोलहवीं सदी में पुष्टिमार्ग सम्प्रदाय के वैष्णव सन्त बल्लभाचार्य'ने इसका प्रयोग किया ।
सामले खुद ही चूनर ओढ़ा देते हैं सखी वेष में रहते हैं ताकि कोई जान न पाये |
महात्माओं से सुनते हैं कि ऐसा संसार में कहीं नहीं है जहाँ कृष्ण सखी वेश में रहते हैं |
जो पूर्ण पुरुषोत्तम पुरुष सखी बने ऐसा केवल बरसाने में है |
अति सरस्यौ बरसानो जू |
राजत रमणीक रवानों जू ||
जहाँ मनिमय मंदिर सोहै जू |
****श्रीकृष्ण तत्वामृत***** -
----वो कृष्णा है ----वो गाय चराता है, गोमृत दुहता है...दधि खाता है...उसे माखन बहुत सुहाता है ...वह गोपाल है।
.....गोविन्द है.....वो कृष्ण है.......
-------गौ अर्थात गाय, ज्ञान, बुद्धि, इन्द्रियां, धरतीमाता ....अतः वह बुद्धि, ज्ञान , इन्द्रियों का, समस्त धरती का (कृषक ) पालक है –गोपाल, वह गौ को प्रसन्नता देता है (विन्दते) गोविन्द है ..... दधि...अर्थात स्थिर बुद्धि, प्रज्ञा ...को पहचानता है...उसके अनुरूप कार्य करता है वह दधि खाता है ... ------माखन उसको सबसे प्रिय है
.....माखन अर्थात गौदुग्ध को बिलो कर आलोड़ित करके प्राप्त उसका तत्व ज्ञान पर आचरण करना व संसार को देना उसे सबसे प्रिय है ..
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“सर्वोपनिषद गावो दोग्धा नन्द नन्दनं “ ...
सभी उपनिषद् गायें हैं जिन्हें नन्द नंदन श्री कृष्ण ने दुहा !
....गीतामृत रूपी माखन स्वयं खाया, प्रयोग किया ....संसार को प्रदान करने हेतु.....
वह बाल लीलाएं करता हुआ कंस जैसे महान अत्याचारी सम्राट का अंत करता है ...।
वो प्रेम गीत गाता है वह गोपिकाओं के साथ रमण करता है, नाचता है , प्रेम करता है , राधा का प्रेमी है, कुब्जा का प्रेमी है ...मोहन है ...परन्तु उसे किसी से भी प्रेम नहीं है...निर्मोही है ...वह किसी का नहीं .. वह सभी से सामान रूप से प्रेम करता है ..वह सबका है और सब उसके ...
वो आठ पटरानियों का एवं १६०० पत्नियों का पति है, पुत्र-पुत्रियों में, संसार में लिप्त है ...परन्तु योगीराज है, योगेश्वर है |
वो कर्म के गीत गाता है एवं युद्ध क्षेत्र में भी भक्ति व ज्ञान का मार्ग, धर्म की राह दिखाता है ,,,गीता रचता है ....
---- वो रणछोड़ है ...वो स्वयं युद्ध नहीं करता, अस्त्र नहीं उठाता, परन्तु विश्व के सबसे भीषण युद्ध का प्रणेता, संचालक व कारक है |
---अपने सम्मुख ही अपनी नारायणी सेना का विनाश कराता है, कुलनाश कराता है... ---काल के महान विद्वान् उसके आगे शीश झुकाते हैं ...
------------वो कृष्णा, कृष्ण है श्री कृष्ण है ............
वह कोइ विशेषज्ञ नहीं अपितु शेषज्ञ है उसके आगे काल व ज्ञान स्वयं शेष होजाते हैं |
---------- वह कृष्ण है ........
कर्म शब्द कृ धातु से निकला है कृ धातु का अर्थ है करना। इस शब्द का पारिभाषिक अर्थ कर्मफल भी होता है।
-----कृ से उत्पन्न कृष का अर्थ है ।
विलेखण......आचार्यगण कहते हैं..... ‘संसिद्धि: फल संपत्ति:’ अर्थात फल के रूप में परिणत होना ही संसिद्धि है और ‘विलेखनं हलोत्कीर्णं ” अर्थात विलेखन शब्द का अर्थ है हल-जोतना |
..जो तत्पश्चात अन्नोत्पत्ति के कारण ..मानव जीवन के सुख-आनंद का कारण ...अतः कृष्ण का अर्थ.. कृष्णन, कर्षण, आकर्षक, आकर्षण व आनंद स्वरूप हुआ... | -
---वो कृष्ण है ------ 'संस्कृति' शब्द भी
….'कृष्टि'शब्द से बना है, जिसकी व्युत्पत्ति संस्कृत की 'कृष'धातु से मानी जाती है, जिसका अर्थ है- 'खेती करना', संवर्धन करना, बोना आदि होता है।सांकेतिक अथवा लाक्षणिक अर्थ होगा- जीवन की मिट्टी को जोतना और बोना।
…..‘संस्कृति’ शब्द का अंग्रेजी पर्याय "कल्चर"शब्द ( ( कृष्टि -कल्ट कल्चर ) भी वही अर्थ देता है।
कृषि के लिए जिस प्रकार भूमि शोधन और निर्माण की प्रक्रिया आवश्यक है, उसी प्रकार संस्कृति के लिए भी मन के संस्कार–परिष्कार की अपेक्षा होती है।
____अत: जो कर्म द्वारा मन के, समाज के परिष्करण का मार्ग प्रशस्त करता है वह कृष्ण है... |
'कृष'धातु में 'ण'प्रत्यय जोड़ कर 'कृष्ण'बना है जिसका अर्थ आकर्षक व आनंद स्वरूप कृष्ण है.. ---वो कृष्ना है...कृष्ण है ..... शिव–नारद संवाद में शिव का कथन ---‘कृष्ण शब्द में कृष शब्द का अर्थ समस्त और 'न'का अर्थ मैं...आत्मा है .इसीलिये वह सर्वआत्मा परमब्रह्म कृष्ण नाम से कहे जाते हैं|
कृष का अर्थ आड़े’.. और न.. का अर्थ आत्मा होने से वे सबके आदि पुरुष हैं |
-----..अर्थात कृष का अर्थ आड़े-तिरछा और न: (न:=मैं, हम...नाम ) का अर्थ आत्मा ( आत्म ) होने से वे सबके आदि पुरुष हैं...कृष्ण हैं|
क्रिष्ट..क्लिष्ट ...टेड़े..त्रिभंगी...कृष्ण की त्रिभंगी मुद्रा का यही तत्व-अर्थ है... **** कृष्ण = क्र या कृ = करना, कार्य=कर्म …..राधो = आराधना, राधन, रांधना, गूंथना, शोध, नियमितता , साधना....राधा.... गवामप ब्रजं वृधि कृणुश्व राधो अद्रिव: नहि त्वा रोदसी उभे ऋघायमाणमिन्वतः |..
अस्तु यह सब भाव व्याख्या है।
ऋग्वेद ---ब्रज में गौ – ज्ञान, सभ्यता उन्नति की वृद्धि ...कृष्ण-राधा द्वारा हुई = कर्म व साधना द्वारा की गयी शोधों से हुई ....साधना के बिना कर्म सफल कब होता है ... वो राधा है ।
राध धातु से राधा और कृष् धातु से कृष्ण नाम व्युत्पन्न हुये|
राध्धातु का अर्थ है संसिद्धि ( वैदिक रयि= संसार..धन, समृद्धि एवं धा = धारक )... ----ऋग्वेद-५/५२/४०९४-- में राधो व आराधना शब्द ..शोधकार्यों के लिए प्रयुक्त किये गए हैं...यथा.. “ यमुनामयादि श्रुतमुद्राधो गव्यं म्रजे निराधो अश्वं म्रजे |”
....अर्थात यमुना के किनारे गाय ..घोड़ों आदि धनों का वर्धन, वृद्धि, संशोधन व उत्पादन आराधना सहित करें या किया जाता है |
नारद पंचरात्र में राधा का एक नाम हरा या हारा भी वर्णित है...वर्णित है |
जो गौडीय वैष्णव सम्प्रदाय में प्रचलित है|
अतः महामंत्र की उत्पत्ति.... हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे//
----सामवेद की छान्दोग्य उपनिषद् में कथन है... ”स्यामक केवलं प्रपध्यये, स्वालक च्यमं प्रपध्यये स्यामक”.... ----श्यामक अर्थात काले की सहायता से श्वेत का ज्ञान होता है (सेवा प्राप्त होती है).. तथा श्वेत की सहायता से हमें स्याम का ज्ञान होता है ( सेवा का अवसर मिलता है)....यहाँ श्याम ..कृष्ण का एवं श्वेत राधा का प्रतीक है |
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