ब्राह्मण स्वयं को जन्म से ही ब्राह्मण मानते हैं और दूसरी अन्य जातियों को व्यवसाय परक भावना से सम्बोधित करते रहे ।
इन्होंने ही वर्ग-व्यवस्था को वर्ण-व्यवस्था बनाकर अन्त में जन्म-जात व्यवस्थाओं में परिवर्तित कर दिया।
ऋग्वेद के नवम मण्डल में कहा " कारूरहम ततो भिषग् उपल प्रक्षिणी नना" ऋ० 9/112/3
अर्थात् 'मैं कारीगर हूँ पिता आयुर्वेद के ज्ञाता वैद्य हैं और माता अनाज पीसने वाली हैं।
परन्तु दशम मण्डल में
"ब्राह्मणो८स्य मुखं आसीत् बाहू राजन्यकृत । उरु तदस्य यद् वैश्य पद्भ्याम शूद्रो अजायत।।
ऋ०10/90/12/
अर्थात् विराट पुरुष के मुख से ब्राह्मण उत्पन्न हुए , भुजाओं से क्षत्रिय जीँघ से वे़ैश्य और शूद्र पैरो से पैंदा हुए
कृष्ण की गीता को मानने वाले ब्राहमणों ने
"चातुर्वर्णयं मया सृष्टं गुण कर्म स्वभावत: "
इसे बात को कभी नहीं माना ।
उन्होनें माना " चातुर्वर्णयं ब्रह्मणा सृष्टं जन्मत: "
अर्थात् ब्रह्मां ने ब्राह्मण जन्म से ही बनाये है ।
ब्राह्मण चाहें व्यभिचारी ही क्यों न हो 'वह पूज्य ही है।
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दु:शीलो८पि द्विज: पूजयेत् न शूद्रो विजितेन्द्रिय: क:परीतख्य दुष्टांगा दोहिष्यति शीलवतीं खरीम् पाराशर-स्मृति (१९२)
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... मन्दिर इनकी आरक्षित पीढ़ी दर पीढ़ी चलने वाली नियमित दुकाने हैं । ... परन्तु ब्राह्मणों के स्वार्थ परक धर्म ने ही वर्ण-व्यवस्था के विधानो की श्रृंखला में समाज को बाँधने की कुत्सित चेष्टा की ।
और ज्ञान के ठेकेदार बन गये ।
परिणाम हुआ कि अज्ञानता वश यादव ही कहीं स्वयं को घोष (घोषी) मध्यप्रदेश तो कहीं राव साहब ( हरियाणा)
कहने लगे इतना ही नहीं जाट और गुजर भी अहीरों से स्वयं को अलग मानने लगे ।
यह फूट और टूट की नीति कपटीयों की कामयाब हो गयी ।क्यों की अज्ञानता के अन्धेरे थे ।
.... यादव योगेश कुमार "रोहि".
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