ऋग्वेद का पुरुष-सूक्त है ! पाणिनीय कालीन पुष्य-मित्र सुंग के अनुयायी पुरोहितों द्वारा रचित -- देखें प्रमाण- युक्त विश्लेषण " यादव योगेश कुमार "रोहि"
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इतिहासकारों ने पाणिनीय का समय ई०पू० 500 भले ही निर्धारित किया हो।
परन्तु पतञ्जलि पुष्य-मित्र सुंग के पुरोहित थे ।
जिन्होने पाणिनीय अष्टाध्यायी पर महाभाष्य की रचना की यद्यपि ऋग्वेद के नवम मण्डल में एक ही परिवार में
व्यवसाय चुनाव की स्वतन्त्रता है ।
"कारूरहम ततो भिषग् उपल प्रक्षिणी नना"
ऋग्वेद 9/112//3)
अर्थात् मैं कारीगर हूँ पिता वैद्य हैं और माता पीसने वाली है ।
उपर्युक्त ऋचा में सामज में वर्ग-व्यवस्था का विधान ही प्रतिध्वनित होता है ।
इस लिए वर्ण-व्यवस्था कभी भी भारत की पूर्व काल की व्यवस्था नहीं थी ।
वर्ण-व्यवस्था की प्रक्रिया का वर्णन करने वाले ऋग्वेद के पुरुष सूक्त की वास्तविकताओं पर कुछ प्रकाशन:---
वैदिक भाषा (छान्दस्) और लौकिक भाषा (संस्कृत) को तुलनानात्मक रूप में सन्दर्भित करते हुए --
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ऋग्वेद को आप्तग्रन्थ एवं अपौरुषेय भारतीय रूढि वादी ब्राह्मण समाज सदीयों से मानता आ रहा है ।
इसी कारण वेदों के सूक्तों को ईश्वरीय विधान के रूप में भारतीय समाज पर आरोपित भी किया गया ।
परन्तु ऋग्वेद के अनेक सूक्त अर्वाचीन अथवा परवर्ती काल के हैं ।
यद्यपि ऋग्वेद के अनेक सूक्त प्राचीनत्तम हैं ---जो सुमेरियन , बैबीलॉनियन संस्कृतियों की पृष्ठ-भूमि को आलेखित करते हैं ।
मैसॉपोटमिया की संस्कृतियाँ आधुनिक ईरान तथा ईराक की प्राचीनत्तम व पूर्व इस्लामिक संस्कृतियाँ थीं ।
वस्तुत: भारत और ईरानी समाज में वर्ग -व्यवस्था तो थी ।
परन्तु वर्ण -व्यवस्था कभी नहीं रही ।
दौनों देशों की भाषाओं में साम्य होते हुए भी सांस्कृतिक भेद पूर्ण रूपेण है।
क्योंकि ईरानी आर्य असुर संस्कृति के अनुयायी तथा भारतीय आर्य देव संस्कृति के अनुयायी थे ।
इन दौनों समाजों में समाज में चार व्यावसायिक वर्ग भले ही रहे हों परन्तु वर्ण-व्यवस्था भारतीय समाज में ही थी।
हम्बूरावी कि विधि संहिता में भी समाज का व्यवसाय परक -तीन वर्गों में विभाजन था ।
इधर भारतीय धरातल पर आगत देव संस्कृति के अनुयायी ब्राह्मणों ने वेदों का प्रणयन किया जिसमें स्केण्डिनेवियन संस्कृतियों स्वीडन , नार्वे तथा अजरवेज़ान (आर्यन-आवास )की संस्कृतियाँ की धूमिल स्मृतियाँ अवशिष्ट थी।
ऋग्वेद के दशम् मण्डल के 90 वें सूक्त का 12 वीं ऋचा में शूद्रों की उत्पत्ति ईश्वर (विराट् पुरुष)के पैरों से करा कर ; उनके लिए आजीवन ब्राह्मण के पैरों - तले पड़े रहने का कर्तव्य नियत कर दिया गया ।
जो वस्तुत ब्राह्मण समाज की स्वार्थ-प्रेरित परियोजना थी ।
पठन-पाठन का अधिकार ब्राह्मणों ने शूद्रों से छीन लिया -
और धार्मिक क्रियाऐं इनको लिए निषिद्ध घोषित कर दी गयीं परिणामत: ये संस्कार हीन , अशिक्षित, अन्ध-विश्वास से ओत-प्रोत एवं पतित होते चले गये ।
यह ब्राह्मण समाज का मानवीय अपराध था ।
निश्चित रूप से इससे बड़ा संसार का कोई जघन्य पाप- कर्म मानवता के प्रति नहीं था ।
शूद्रों के लिए ब्राह्मणों द्वारा कुछ धार्मिक मान्यताओं की मौहर लगाकर पद-प्रणति परक दासता पूर्ण विधान पारित किये गये थे।
जिससे कि शूद्र आजीवन ब्राह्मण तथा उनके अंग रक्षक क्षत्रियों के पैरों की सेवा करते रहें ।
... उनके पैरों के लिए जूते ,चप्पल बनाते रहें ... यह निश्चित रूप से ब्राह्मणों की बुद्धि -महत्ता नहीं थी!
अपितु चालाकी , पूर्ण कपट और दोखा अथवा प्रवञ्चना थी ।
इस कृत्य के लिए ईश्वर भी इन्हें कभी क्षमा नहीं करेगा !
और कदाचित वो दिन अब आ भी चुके हैं ।
अब इन व्यभिचारीयों के वंशजों की दुर्गति हो रही है ।
भारत में आगत आर्यों का प्रथम समागम द्रविड परिवार की एक शाखा कोलों से हुआ था ।
जो भारतीय धरातल पर उत्तर-पूर्वीय पहाड़ी क्षेत्रों में बसे हुए थे ।
जो वस्त्रों का निर्माण कर लेते थे ; उन्हें ही आर्यों ने शूद्र शब्द से सम्बोधित किया था ।
ईरानी आर्यों ने इन्हीं वस्त्र निर्माण - कर्ता शूद्रों को वास्तर्योशान अथवा वास्त्रोपश्या के रूप में अपनी वर्ग - व्यवस्था में वर्गीकृत किया था न कि हुत्ती रूप में !
फारसी धर्म की अर्वाचीन पुस्तकों में इन चार वर्गों का वर्णन कुछ नाम परिवर्तन के साथ है ---जैसे :-
देखें:---
नामामिहाबाद पुस्तक के अनुसार
१ --- होरिस्तान. जिसका पहलवी रूप है अथर्वण जिसे वेदों मैं अथर्वा कहा है ..
२---नूरिस्तान ..जिसका पहलवी रूप रथेस्तारान ...जिसका वैदिक रूप रथेष्ठा तथा
३---रोजिस्तारान् जिसका पहलवी रूप होथथायन था तथा
४---चतुर्थ वर्ण पोरिस्तारान को ही
वास्तर्योशान कहा गया है !!!!
19 वीं शताब्दी में कुछ यूरोपीय भाषा विश्लेषकों ने अवस्ताई फ़ारसी और ऋग्वैदिक भाषा दोनों पर तुलनानात्मक अध्ययन किया और इन दौनों के गहरे सम्बन्ध का तथ्य उनके सामने जल्दी ही आ गया।
उन्होंने देखा के अवस्ताई फ़ारसी और ऋग्वैदिक भाषा के शब्दों में कुछ सरल नियमों के साथ एक से दुसरे को अनुवादित किया जा सकता था ।
और व्याकरण की दृष्टि से यह दोनों बहुत नज़दीक थे। अपनी सन् 1892 में प्रकाशित किताब "अवस्ताई व्याकरण की संस्कृत से तुलना और अवस्ताई वर्णमाला और उसका लिप्यान्तरण" में भाषावैज्ञानिक और विद्वान एब्राहम जैक्सन ने उदहारण के लिए एक अवस्ताई धार्मिक श्लोक का ऋग्वैदिक भाषा में सीधा अनुवाद किया।
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मूल अवस्ताई अनुवाद
तम अमवन्तम यज़तम
सूरम दामोहु सविश्तम
मिथ़्रम यज़ाइ ज़ओथ़्राब्यो।
वैदिक भाषा का अनुवाद रूप -
तम आमवन्तम यजताम
शूरम् धामेषु शाविष्ठम
मित्राम यजाइ होत्राभ्यः
अवस्ताई एक पूर्वी ईरानी भाषा है; जिसका ज्ञान आधुनिक युग में केवल पारसी धर्म के ग्रन्थों,
विशेष: अवेस्ता ए जैन्द के द्वारा प्राप्त हो पाया है।
इतिहासकारों का मानना है के मध्य एशिया के बॅक्ट्रिया और मार्गु क्षेत्रों में स्थित याज़िदी संस्कृति में यह भाषा या इसकी उपभाषाएँ (1500-1100) ईसा पूर्व के काल में बोली जाती थीं।
क्योंकि यह एक धार्मिक भाषा बन गई, इसलिए इस भाषा के साधारण जीवन से लुप्त होने के पश्चात भी इसका प्रयोग नए -ग्रन्थों को लिखने के लिए होता रहा।
श्रोत:---
सन् 1500 ईसा पूर्व के युग की केवल दो ईरानी भाषाओँ की लिखित रचनाएँ मिली हैं।
एक "प्राचीन अवस्ताई" है जो उत्तरपूर्व में बोली जाती थी और एक "प्राचीन फ़ारसी" है जो दक्षिण-पश्चिम में बोली जाती थी।
ईरानी भाषाओँ में यह पूर्वी ईरानी भाषाओँ और पश्चिमी ईरानी भाषाओँ का एक बहुत बड़ा विभाजन है।
आरम्भ में केवल एक "आदिम हिन्द-ईरानी भाषा" थी - इसी से हिन्द-ईरानी भाषा परिवार की सभी भाषाएँ जन्मी हैं, जिनमें संस्कृत, हिंदी, कश्मीरी, फ़ारसी, पश्तो सभी शामिल हैं।
प्राचीन अवस्ताई उस युग की भाषा है जब पूर्वी ईरानी भाषाएँ और वैदिक संस्कृत बहुत मिलती-जुलती थीं।
पश्चिमी ईरानी भाषाओं में कुछ बदलाव आ रहे थे ; जिस से वह वैदिक संस्कृत से थोड़ी भिन्न हो चुकी थी। कहा जा सकता है के प्राचीन अवस्ताई इन दोनों के बीच थी ।
यह वैदिक संस्कृत से बहुत मिलती-जुलती है और यह प्राचीन (पश्चिमी) फ़ारसी से भी मिलती जुलती है। अवस्ताई भाषा में रचनाएँ कम हैं इसलिए अवस्ताई शब्द-व्याकरण समझने के लिए भाषा वैज्ञानिक वैदिक संस्कृत का पहले अध्ययन कर उसकी सहायता लेते हैं ।
क्योंकि अवस्ताई और वैदिक संस्कृत में इस क्षेत्र में निकट का सम्बन्ध है।
वस्त्र शब्द फारसी और संस्कृत में समान रूप से प्रचलित रहा है ।
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वास्तर्योशान यह ईरानी समाज में वे लोग थे ---जो द्रुज शाखा के थे !
जिन्हे कालान्तरण में दर्जी या दारेजी भी कहा गया है ।
ये कैल्ट जन जाति के पुरोहितों ड्रयूडों (Druids) की ही एक शाखा थी ।
वर्तमान सीरिया , जॉर्डन पैलेस्टाइन अथवा इज़राएल, कनान तथा लेबनान में द्रुज लोग यहूदीयों के सहवर्ती थे
यहीं से ये लोग बलूचिस्तान होते हुए भारत में भी आये विदित हो कि बलूचिस्तान की ब्राहुई भाषा शूद्रों की भाषा मानी जाती है ।
अत: इतिहास कार शूद्रों को प्रथम आगत द्रविड स्कन्ध आभीरों अथवा यादवों के सहवर्ती मानते हैं ।
ये आभीर अथवा यादव इज़राएल में अबीर कहलाए जो यहूदीयों का एक यौद्धा कब़ीला है
इसके लिए देखें--- हिब्रू बाइबिल का -सृष्टि खण्ड (जेनेसिस)-
शूद्रों को ही युद्ध कला में महारत हासिल थी ।
यह तथ्य भी आधुनिक अन्वेषणों से उद् घाटित हुआ है
पुरानी फ्रेंच भाषा में सैनिक अथवा यौद्धा को सॉडर (Souder ) तथा(Soldier )कहा जाता था ।
और सम्पूर्ण यूरोपीय भाषाओं में यह शब्द प्रचलित था ।
व्युत्पत्ति-मूलक दृष्टि से शूद्र शब्द का अर्थ-
--Celtic genus or tribe of a Scotis origin --- which was related to pictus; And waged in war, it was called Shudra (Shooter ) in Europe...
एक स्कॉट्स मूल की कैल्टिक जन-जाति --जो पिक्टों से सम्बद्ध थी ; तथा युद्ध में वेतन लेकर युद्ध करती थी , वह यूरोप में शूद्र कहलाती थी ।
वास्तव में रोमन संस्कृति में सोने के सिक्के को सॉलिडस् (Solidus) कहा जाता था ।
इस कारण ये सॉल्जर कह लाए .. ये लोग पिक्टस (pictis) कहलाते थे।
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Shudras only mastered martial arts. Soldier or warrior in old French was called Soder Souder (Soldier). Originally-derived - One tribe who serves in the army for pay is called Souder .. In fact, gold coins in the Roman culture were called Solidus. Because of this, they called the Soldier. These people were called paintings...
शूद्रों की एक शाखा को पिक्टस कहा गया।
जो ऋग्वेद में पृक्त कहे गये ।
जो वर्तमान पठान शब्द का पूर्व रूप है ।
---जो बाद में पख़्तो हो गया है ।
फ़ारसी रूप पुख़्ता ---या पख़्तून भी इसी शब्द से सम्बद्ध हैं ।क्योंकि अपने शरीर को सुरक्षात्मक दृष्टि से अनेक लेपो से टेटू बना कर ये लोग सजात भीे भी थे ।
ताकि युद्ध काल में व्रण- संक्रमण (सैप्टिक )न हो सके ।
ये पूर्वोत्तरीय स्कॉटलेण्ड में रहते थे ।
ये शुट्र ही थे जो स्कॉटलेण्ड में बहुत पहले से बसे हुए थे
" The pictis were a tribal Confederadration of peoples who lived in what is today Eastern and northern Scotland... "
ये लोग यहाँ पर ड्रयूडों की शाखा से सम्बद्ध थे ।
भारतीय द्रविड अथवा इज़राएल के द्रुज़ तथा बाल्टिक सागर के तटवर्ती ड्रयूड (Druids) एक ही जन जाति के लोग थे ।
मैसॉपोटामिया की धरा पर एक संस्कृति केल्डियनों (Chaldean) सेमेटिक जन-जाति की भी है।
जो ई०पू० छठी सदी में विद्यमान रहे हैं ।
बैवीलॉनियन संस्कृतियों में इनका अतीव योगदान है ।
यूनानीयों ने इन्हें कालाडी (khaldaia ) कहा है।
ये सेमेटिक जन-जाति के थे ; अत: भारतीय पुराणों में इन्हें सोम वंशी कहा ।
जो कालान्तरण में चन्द्र का विशेषण बनकर चन्द्र वंशी के रूप में रूढ़ हो गया ।
पुराणों में भी प्राय: सोम शब्द ही है ।
चन्द्र शब्द नहीं ...
वस्तुत ये कैल्ट लोग ही थे ; जिससे द्रुज़ जन-जाति का विकास पैलेस्टाइन अथवा इज़राएल के क्षेत्र में हुआ ।
मैसॉपोटामिया की असीरियन (असुर) अक्काडियन, हिब्रू तथा बैवीलॉनियन संस्कृतियों की श्रृंखला में केल्डियन संस्कृति भी एक कणिका थी।
भारतीय समाज की सदीयों से यही विडम्बना रही की यहाँ ब्राह्मण समाज ने ( उपनिषद कालीन ब्राह्मण समाज को छोड़कर)
अशिक्षित जनमानस को दिग्भ्रमित करने वाली प्रमाण रूप बातों को बहुत ही सफाई से समाज के सम्मुख प्रस्तुत किया है!
और अनेक काल्पनिक मनगढ़न्त कथाऐं सृजित की जिनका ऐैतिहासिक रूप से कहीं अस्तित्व नहीं था ।
लेकिन कहीं भी ऐसे वर्णन करने वाले ग्रन्थ हों सम्भव नहीं ! सब के सब जनता को पथ-भ्रमित करने के लिए एक अतिशयोक्ति और चाटूकारिता पूर्ण कल्पना मात्र हैं, जो लोगों को मानवता के पथ से विचलित कर रूढ़िगत मार्ग पर ढ़केल ले जाती हैं।
जैसे ऋग्वेद जो अपौरुषेय वाणी बना हुआ भारतीय जनमानस के मस्तिष्क पटल पर दौड़ लगा रहा है ! वह भी पारसीयों ( ईरानीयों) के सर्वमान्य ग्रन्थ जींद ए अवेस्ता का परिष्कृत संस्कृत रूपान्तरण है।
दौनों में काफी साम्य देखने को मिलता है,।
सम्भवत दौनों -ग्रन्थों का श्रोत समान रहा हो !
दौनों के पात्र एवं शब्द- समूह समान है ।
-जैसे यम विवस्वत् का पुत्र है ।
वृत्रघ्न , त्रित ,त्रितान अहिदास ,सोम ,वशिष्ठ ,अथर्वा, मित्र आदि को क्रमश यिम, विबनघत ,वेरेतघन ,सित, सिहतान ,अजिदाह ,हॉम वहिश्त ,अथरवा ,मिथ्र आदि
दौनों की घटनाओं का भी समायोजन है ।
ऋग्वेद की प्रारम्भिक ऋचाओं का प्रणयन अजरवेज़ान ( आर्यन-आवास ) रूस तथा तुर्की के समीप वर्ती क्षेत्रों में हुआ ।
और दौनों -ग्रन्थों में जो विषमताएं देखने को मिलती हैं स्पष्टत: वे बहुत बाद की है ।
और तो और ऋग्वेद के दसवें मण्डल के 90 वें सूक्त में जो ऋचाऐं हैं वे सम्पूर्ण सृष्टि प्रक्रिया का वर्णन करती हैं 12 वें मंत्र (ऋचा) जो चारो वर्णों के प्रादुर्भाव का उल्लेख है वही ऋचा यजुर्वेद ,सामवेद तथा अथर्ववेद में भी है.
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ब्राह्मणो अस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः।
ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत।।
(ऋग्वेद 10/90/12)
इसमें प्रयुक्त क्रिया (अजायत) में लौकिक संस्कृत की जन् धातु लङ् लकार आत्मने पदीय एक वचन रूप है ।
नीचे जन् धातु के आत्मनेपदीय लड्. लकार के क्रिया रूप हैं ।
तथा आसीत् अस् धातु का लड्. लकार का प्रथम पुरुष एक वचन का परस्मैपदीय रूप है ।
तथा अजायत क्रिया जन् धातु का आत्मनेपदीय रूप
एकवचनम्
द्विवचनम्
बहुवचनम् क्रमश: नीचे देखें👇
प्रथमपुरुषःअजायत अजायेताम् अजायन्त
मध्यमपुरुषःअजायथाः अजायेथाम् अजायध्वम्
उत्तमपुरुषः अजाये अजायावहि अजायामहि
लड्.( अनद्यतन प्रत्यक्ष भूत काल ) लकार का प्रयोग हुआ है ---जो असंगत तथा व्याकरण नियम के पूर्णत: विरुद्ध भी है ।
क्योंकि इस लकार का प्रयोग आज के बाद कभी भी घटित भूत काल को दर्शाने के लिए होता है ---जो आँखों के सामने घटित हुआ हो।
और अनद्यतन परोक्ष भूत काल में लिट् लकार का प्रयोग -युक्ति युक्त है क्योंकि इसका अर्थ है ऐसा भूत काल ---जो आज के बाद कभी हुआ हो परन्तु आँखों के सामने घटित न हुआ हो ---जो ऐैतिहासिक विवरण प्रस्तुत करने में प्रयुक्त होता है।
और लड् लकार का प्रयोग इस सूक्त के लगभग पूरी ऋचाओं में है, तो इससे यह बात स्वयं ही प्रमाणित होती है कि यह लौकिक सूक्त है
वह भी व्याकरण नियम के विरुद्ध ।
अब लिट् लकार के क्रिया रूपों का वर्णन करते हैं :-
लिट् लकार का क्रिया रूप---
प्रथमपुरुषः जज्ञे जज्ञाते जज्ञिरे
मध्यमपुरुषः जज्ञिषे जज्ञाथे जज्ञिध्वे
उत्तमपुरुषः. जज्ञे जज्ञिवहे जज्ञिमहे
लिट् लकार तथा लड्. लकार दौनों के अन्तर को स्पष्ट कर दिया गया है ।
इनका कुछ और स्पष्टीकरण:-
2. लङ् -- Past tense - imperfect
(लङ् लकार = अनद्यतन भूत काल )
आज का दिन छोड़ कर किसी अन्य दिन जो हुआ हो ।
जैसे :- आपने उस दिन भोजन पकाया था ।
भूतकाल का एक और लकार :--
3. लुङ् -- Past tense - aorist
लुङ् लकार = सामान्य (अनिश्चित )भूत काल ; जो कभी भी बीत चुका हो ।
जैसे :- मैंने गाना खाया ।
व्याकरण शास्त्रीय ग्रीक में और कुछ अन्य उपेक्षित भाषाओं में क्रिया का एक काल है, जो कि बिना कार्रवाई के क्षणिक कार्रवाई को क्षणिक या निरन्तर दर्शाता था, इस सन्दर्भ के बिना पिछली कार्रवाई का संकेत देता है।
शास्त्रीय यूनानी के रूप में एक क्रिया काल, कार्रवाई व्यक्त, ।
अतीत में, पूरा होने, अवधि, या पुनरावृत्ति के रूप में आगे के निहितार्थ के बिना।
समायोजन को दर्शाता है ।
अर्थात् एक साधारण भूतकाल, विशेष रूप से प्राचीन ग्रीक में, जो निरंतरता या क्षणिकता का संकेत नहीं देता है।
अब संस्कृत के लिट् लकार को देखें---
4. लिट् -- Past tense - perfect( पूर्ण )
लिट् =अनद्यतन परोक्ष भूतकाल । जो अपने साथ न घटित होकर किसी इतिहास का विषय हो
जैसे :- राम ने रावण को मारा था ।
संस्कृत भाषा में दश लकार क्रिया के दश कालों को दर्शाते हैं
5. लुट् -- Future tense - likely
6. लृट् -- Future tense - certain
7. लृङ् -- Conditional mood
8. विधिलिङ् -- Potential mood
9. आशीर्लिङ् -- Benedictive mood
10. लोट् -- Imperative mood
लौकिक संस्कृत तथा वैदिक भाषा में अन्तर रेखाऐं --
लौकिक साहित्य की भाषा तथा वैदिक साहित्य की भाषा में भी अन्तर पाया जाता है।
दोनों के शब्दरूप तथा धातुरूप अनेक प्रकार से भिन्न हैं। वैदिक संस्कृत के रूप केवल भिन्न ही नहीं हैं अपितु अनेक भी हैं, विशिष्टतया वे रूप जो क्रिया रूपों तथा धातुओं के स्वरूप से सम्बन्धित हैं।
इस सम्बन्ध में दोनों साहित्यों की कुछ महत्त्वपूर्ण भिन्नताएँ निम्नलिखित हैं :-
(1) शब्दरूप की दृष्टि से उदाहरणार्थ, लौकिक संस्कृत में केवल ऐसे रूप बनते हैं जैसे - देवाः, जनाः (प्रथम विभक्ति बहुवचन)।
जबकि वैदिक संस्कृत में इनमें रूप देवासः, जनासः भी बनते हैं।
इसी प्रकार, प्रथमा तथा द्वितीया विभक्ति बहुवचन में ‘विश्वानि’ रूप वैदिक साहित्य में ‘विश्वा’ भी बन जाता है।
तृतीया विभक्ति बहुवचन में वैदिक संस्कृत में ‘देवैः’ के साथ-साथ ‘देवेभिः’ भी मिलता है।
इसी प्रकार सप्तमी विभक्ति एकवचन में 'व्योम्नि' अथवा 'व्योमनि' रूपों के साथ-साथ वैदिक संस्कृत में ‘व्योमन्’ भी प्राप्त होता है।
तथा दासा वैदिक द्विवचन रूप तो लौकिक दासौ रूप मिलता है.
(2) वैदिक तथा लौकिक संस्कृत में क्रियारूपों और धातुरूपों में भी विशेष अन्तर है।
वैदिक संस्कृत इस विषय में कुछ अधिक समृद्ध है; तथा उसमें कुछ अन्य रूपों की उपलब्धि होती है।
जबकि लौकिक संस्कृत में क्रिया पदों की अवस्था बतलाने वाले ऐसे केवल दो ही लकार हैं- लोट् और विधिलिड्. जोकि लट् प्रकृति अर्थात् वर्तमान काल की धातु से बनते हैं। उदाहरणार्थ पठ् से पठतु और पठेत् ये दोनों बनते हैं।
वैदिक संस्कृत में क्रियापदों की अवस्था को द्योतित करने वाले दो अन्य लकार हैं- लेट् लकार एवं निषेधात्मक लुंलकार (Injunctive)
(जो कि लौकिक संस्कृत में केवल निषेधार्थक ‘मा’ निपात से प्रदर्शित होता है ;और जो लौकिक संस्कृत में पूर्णतः अप्राप्य है)।
इन चारों अवस्थाओं के द्योतक लकार वैदिक संस्कृत में केवल लट् प्रकृति से ही नहीं बनते हैं किन्तु लिट् प्रकृति और लुड्. प्रकृति से भी बनते हैं।
इस प्रकार वैदिक संस्कृत में धातुरूप अत्यधिक मात्रा में हैं। वैदिक भाषा में 'मिनीमसि भी' (लट्, उत्तम पुरुष, बहुवचन में) प्रयुक्त होता है परन्तु लौकिक संस्कृत में 'मिनीमही' प्रयुक्त होता है।
जहाँ तक धातु से बने हुए अन्य रूपों का प्रश्न है, लौकिक संस्कृत में केवल एक ही ‘तुमुन्’ (जैसे गन्तुम्) मिलता है जबकि वैदिक संस्कृत में इसके लगभग एक दर्जन रूप मिलते हैं जैसे गन्तवै, गमध्यै, जीवसै, दातवै इत्यादि।
निश्चित रूप से पुरुष सूक्त पुष्यमित्र सुंग कालीन रूढि वादी ब्राह्मणों के द्वारा रचित हुआ है ।
कालान्तरण में ब्राह्मणों के द्वारा यह सूक्त वेद में प्रमाण स्वरूप रखा गया है ।
क्योंकि वैदिक शब्दों का प्रयोग पाणिनि के बनाये नियमों,सूत्रों पर नहीं चलता है।
और वेद में केवल लिट् लकार व लेट् लकार का प्रयोग होता है ।
विशेषत: लेट् लकार का ..
जबकि लौकिक संस्कृत भाषा में इसका प्रयोग वर्जित है
इससे स्पष्टतः यह बात स्वयं सिद्ध है; कि चारों वर्णों के उत्पत्ति के सम्बन्ध में वेद का प्रमाण देना भी ब्राह्मणों की पूर्व चातुर्य पूर्ण गहन षड्यन्त्र है ।
जिसके लिए इस सूक्त को वेद में महत्वपूर्ण स्थान सरल शब्दों में दिया गया।
ईरानी समाज में वर्ग-व्यवस्था थी ।
जो वस्तुत: असुर-महत् (अहुर-मज्दा) के उपासक थे ।
वर्ग-व्यवस्था का विधान व्यक्ति के स्वैच्छिक वरण अथवा चयन प्रक्रिया पर आश्रित था।
और इरानी स्वयं को आर्य अथवा वीर कहते थे।
परन्तु इन्हीं ईरानीयों की वर्ग-व्यवस्था को ब्राह्मणों ने वर्ण-व्यवस्था बना दिया ।
यही वर्ण-व्यवस्था जाति व्यवस्था की शैशवावस्था थी।
ब्राह्मण जो स्वयं को आर्य मानते हैं
वस्तुत: आर्य कदापि नहीं हैं ।
क्यों कि आर्य शब्द का मूल भारोपीय अर्थ है :- वीर अथवा यौद्धा और ब्राह्मण कब से वीर अथवा यौद्धा होने लगे ? ये तो केवल आर्यों के चारण अथवा भाट होते थे ।
शोध के अनुसार ये केवल आर्यो के कबिलों के भाट थे ।जो अपने मालिकों का गुणगान करते थे ।
और उनकी वंशावली का इतिहास लिखते थे ।
उनसे ही इनकी जीविका चलती थी ।
वस्तुत: ये इनका धन्धा था , व्यवसाय था आज भी वही है बस !
धन्धे को इन्होंने धर्म बता दिया है ।
आधुनिक इतिहास भी कहता है आर्य वीर थे !
उनकी अर्थ-व्यवस्था और व्यवसाय कृषि गो - पालन था
जबकि ब्राह्मण कहता है हल पकड़ने मात्र से ब्राह्मणत्व खत्म हो जाता है ।
वास्तव में ये सब गोलमाल है ।
कथित ब्राह्मणों में आर्य होने का कोई प्रमाण नही है ।
न तो ये वैदिक ऋचाओं के अनुसार आर्य हैं और न वैज्ञानिक शोधों के अनुसार ...
क्यों ऋग्वेद के दशम् मण्डल का पुरुष-सूक्त भी प्रक्षिप्त है काल्पनिक है जिसकी भाषा लौकिक संस्कृत है ।
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ब्राह्मणो८स्य मुखमासीत् बाहू राजन्यकृत: !
उरू तदस्य यद् वैश्य पद्भ्याम् शूद्रो८जायत !!
(ऋग्वेद 10/90/12)
इससे पहले की ऋचा
"कारूरहं ततोभिषग् उपल प्रक्षिणी नना ।।
(ऋग्वेद 9/112//3)
अर्थात् मैं कारीगर हूँ पिता वैद्य हैं और माता पीसने वाली है ।
उपर्युक्त ऋचा में सामज में वर्ग-व्यवस्था का विधान ही प्रतिध्वनित होता है ।
इस लिए वर्ण-व्यवस्था कभी भी आर्यों की व्यवस्था नहीं थी ।
ब्राह्मण ने स्वयं को ब्रह्म के मुख से उत्पन्न माना और
इन्हें गाय के गोबर से ब्राह्मणों की काल्पनिक व्युत्पत्तियाँ👇
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कृष्णस्य लोमकूपेभ्य: सद्यो गोपगणो मुने: ।
आविर्बभूव रूपेण वेशेनैव -च तत्सम: ।।41।
(ब्रह्म- वैवर्त पुराण अध्याय 5)
कृष्ण के लोम- रूपों से गोपों की उत्पत्ति हुई , --जो रूप और वेश में कृष्ण के समान थे ।
ब्रह्म-वैवर्त पुराण कार लिखता है कि "
प्रभु-उवाच
"हे वैश्येन्द्र सति कलौ न नश्यति वसुन्धरा "
( ब्रह्म-वैवर्त पुराण 128/33)
हे वैश्येन्द्र ! कलि युग प्रारम्भ होने से कलिधर्म प्रचलित होगें पर वसुन्धरा नष्ट नहीं होगी ।
योगेनामृतदृष्ट्या च कृपया च कृपानिधि: ।
गोपीभिश्च तथा गोपै: परिपूर्णे चकार स: ।।
(ब्रह्म-वैवर्त पुराण)
भगवान् जब गोलोेक को गये तो अपने साथ गोप - गोपियाँ को ले जाने लगे तब अमृत दृष्टि द्वारा दूसरे गोपों से गोकुल पूर्ण किया ।।
जाति-भाष्कर का ब्राह्मण लेखक ज्वालाप्रसाद मिश्र
स्मृतियों के हबाले से आभीर जनजाति की उत्पत्ति वर्णन करते हैं ।👇
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महिष्यस्त्री ब्राह्मणेन संगता जनयेत् सुतम् ।।
आभीर पत्न्यमाभीरमिति ते विधिरब्रवीत् ।।128।।
तेषां संघो वसेद् घोषे बहुशस्यजलाशये।।
आविकं गोमहिष्यादि पोषयेत् तृण वारिणा ।।129।
दुग्धं दधि घृतं तक्रं विक्रयीत धनाय च ।
विशूद्रेभ्यो न्यूनतो धर्मे तस्य सर्वस्य विश्रुता ।।130।
अनुवादित रूप:- महिष्य की स्त्री में ब्राह्मण द्वारा जो उत्पन्न होता है 'वह अाभीर है ।
और ब्राह्मण द्वारा आभीर की स्त्री में आभीर ही उत्पन्न होता है ।
इनका समूह घोष( गो -आवास) में
रहता है ।
जहाँ 'बहुत सी घास तृण हो तथा समीप में जल हो वहाँ निवास होता है भेड़ ,बकरी , गो ,भैंस आदि को चराना इनका काम है।
तथा दूध, दही मट्ठा ये धन के लिए बैचें यह धर्म में शूद्रों से कुछ हीन हैं ।
मनु-स्मृति कार इसके विपरीत लिखता है कि अम्बष्ठ की स्त्री में ब्राह्मण से आभीर की उत्पत्ति मानते हैं ।👇
ब्राह्मणादुग्रकन्यायां आवृतो नाम जायते ।आभीरोऽम्बष्ठकन्यायां आयोगव्यां तु धिग्वणः ।।10/15
शैलीगत-आधार द्वारा प्रमाण -👇
मनुस्मृति में मनु की शैली विधानात्मक होनी चाहिए! परन्तु इन श्लोकों की शैली ऐतिहासिक है विधानात्मक नहीं।
इस विषय में निम्नलिखित कुछ उद्धरण देखिए—
कैवर्त्तमिति यं प्राहुरार्यावर्त्तनिवासिनः ।। (10/34)
शनकैस्तु क्रियालोपादिमाः क्षत्रियजातयः ।
वृषलत्वं गता लोके ।। (10/43)
पौण्ड्रकाश्चौड़द्रविडाः काम्बोजाः यवनाः शकाः ।। (10/44)
द्विजैरुत्पादितान् सुतान सदृशान् एव तानाहुः ।। (10/6)
अतः इस ऐतिहासिक शैली से स्पष्ट है कि वर्णव्यवस्था में दोष आने पर जन्म-मूलक बन गयी ।
जब भिन्न भिन्न उपजातियाँ प्रसिद्ध हो गईं, उस समय इन श्लोकों का प्रक्षेप होने से से बहुत परवर्ती काल के ये श्लोक हैं ।
पहली बात मनुस्मृति मनु की रचना है ही नहीं
ध्यान रखना चाहिए कि मनु भारत में तो कभी हुए ही नहीं ।
मनुःस्मृति का यह अवान्तरविरोध- ही इनके प्रक्षिप्त होने को प्रमाणित करता है 👇
(1) 12 वें श्लोक में वर्णसंकरों की उत्पत्ति का जो कारण लिखा है, 24 वें श्लोक में उससे भिन्न कारण ही लिखे हैं ।
(2) 32 वें श्लोक में सैरिन्ध्र की आजीविका केश-प्रसाधन लिखी है तो
33 वें में मैत्रेय की आजीविका का घण्टा बजाना या चाटुकारुता लिखी है और 34 वें मार्गव की आजीविका नाव चलाना लिखी है ।
किन्तु 35 वें में इन तीनों की आजीविका मुर्दों के वस्त्र पहनने वाली और जूठन खाने वाली लिखी है
(3) 36, 49 श्लोकों के करावर जाति का और धिग्वण जाति का चर्मकार्य बताया है ।
जबकि कारावार निषाद की सन्तान है और धिग्वण ब्राह्मण की ।
(4) 43 वें में क्रियोलोप=कर्मो के त्याग से क्षत्रिय-जातियों के भेद लिखे है और 24 वें में भी स्ववर्ण के कर्मों के त्याग को ही कारण माना है परन्तु 12 वें में एक वर्ण के दूसरे वर्ण की स्त्री के साथ अथवा पुरुष के साथ सम्पूर्क से वर्णसंकर उत्पत्ति लिखी है ।
यह परस्पर विरुद्ध कथन होने से मनुप्रोक्त कदापि नही हो सकता ।
अतः दौनों परस्पर विरोधाभासी होने से काल्पनिक व मनगड़न्त हैं''
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यादव योगेश कुमार 'रोहि'
'ग्राम-आज़ादपुर
पत्रालय -पहाड़ीपुर जनपद :- अलीगढ़ उ०प्र०
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