यो बन्धुश्चेत्स च पिता हरिवर्त्मप्रदर्शकः ।
सा गर्भधारिणी या च गर्भावासविमोचनी॥६५ ॥
दयारूपा च भगिनी यमभीतिविमोचनी ।
विष्णुमन्त्रप्रदाता च स गुरुर्विष्णुभक्तिदः ॥ ६६ ॥
गुरुश्च ज्ञानदो यो हि यज्ज्ञानं कृष्णभावनम् ।
आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं ततो विश्वं चराचरम् ॥ ६७ ॥
आविर्भूतं तिरोभूतं किं वा ज्ञानं तदन्यतः ।
वेदजं यज्ञजं यद्यत्तत्सारं हरिसेवनम् ॥ ६८ ॥
तत्त्वानां सारभूतं च हरेरन्यद्विडम्बनम् ।
दत्तं ज्ञानं मया तुभ्यं स स्वामी ज्ञानदो हि यः ॥६९।
ज्ञानात्प्रमुच्यते बन्धात्स रिपुर्यो हि बन्धदः ।
विष्णुभक्तियुतं ज्ञानं नो ददाति च यो गुरुः ॥ ७० ॥
स रिपुः शिष्यघाती च यतो बन्धान्न मोचयेत् ।
जननीं गर्भजक्लेशाद्यमयातनया तथा ॥ ७१ ॥
न मोचयेद्यः स कथं गुरुस्तातो हि बान्धवः ।
परमानन्दरूपं च कृष्णमार्गमनश्वरम् ॥७२॥
न दर्शयेद्यः सततं कीदृशो बान्धवो नृणाम् ।
भज साध्वि परं ब्रह्माच्युतं कृष्णं च निर्गुणम् ॥ ७३ ॥
तत्त्वानां सारभूतं च हरेरन्यद्विडम्बनम् ।
दत्तं ज्ञानं मया तुभ्यं स स्वामी ज्ञानदो हि यः॥६९।
ज्ञानात्प्रमुच्यते बन्धात्स रिपुर्यो हि बन्धदः।
विष्णुभक्तियुतं ज्ञानं नो ददाति च यो गुरुः॥ ७०।
न दर्शयेद्यः सततं कीदृशो बान्धवो नृणाम् ।
भज साध्वि परं ब्रह्माच्युतं कृष्णं च निर्गुणम्॥७३॥
भज साध्वि परं ब्रह्माच्युतं कृष्णं च निर्गुणम्॥७३॥
निर्मूलं च भवेत्पुंसां कर्म वै तस्य सेवया ।
मया छलेन त्वं त्यक्ता क्षमस्वैतन्मम प्रिये ॥ ७४ ॥
क्षमायुतानां साध्वीनां सत्त्वात्क्रोधो न विद्यते ।
पुष्करे तपसे यामि गच्छ देवि यथासुखम् ॥ ७५ ॥
श्रीकृष्णचरणाम्भोजे निःस्पृहाणां मनोरथाः ।
जरत्कारुवचः श्रुत्वा मनसा शोककातरा ॥ ७६।
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अनुवाद-"भगवत्प्राप्ति का मार्ग दिखाने वाला बन्धु ही सच्चा पिता है। जो आवागमन ( गर्भवास ) से मुक्त कर देनेवाली है, वही सच्ची माता है।६५।
"अनुवाद-"वही बहन दयास्वरूपिणी है, जो यम के त्रास (भय) से छुटकारा दिला दे। गुरु वही है, जो विष्णु का मन्त्र प्रदान करनेवाला तथा भगवान् विष्णु के प्रति भक्ति उत्पन्न करने वाला हो ।६६ ॥
"अनुवाद-:" ज्ञानदाता गुरु वही है, जो भगवान् श्रीकृष्णका चिन्तन कराने वाला ज्ञान प्रदान करे; क्योंकि तृण से लेकर ब्रह्मपर्यन्त चराचर सम्पूर्ण विश्व ।६७।
"अनुवाद- "आविर्भूत( उत्पन्न) होकर पुनः विनष्ट होने वाला है, तो फिर अन्य वस्तु से ज्ञान कैसे हो सकता है ? वेद अथवा यज्ञ से जो भी सारतत्त्व निकलता है, वह भगवान् श्रीहरि की सेवा ही है।६८।
अनुवाद-:" यही हरिसेवा समस्त तत्त्वों का सारस्वरूप है, भगवान् श्रीहरि की सेवा के अतिरिक्त अन्य सब कुछ विडम्बना ( जग हँसाई) मात्र है। मेरे द्वार जो ज्ञान तुमको दिया गया है। ज्ञानदाता स्वामी वही है जो ॥६९॥
अनुवाद:- ज्ञान के द्वारा बन्धन से मुक्त कर देता है वही बन्धु है ! और जो बन्धन में डालता है, वह शत्रु है। जो भगवान् विष्णु में भक्ति उत्पन्न करनेवाला ज्ञान नही देता वह गुरु भी शत्रु ही है।।७०॥
अनुवाद" वह गुरु शत्रु और शिष्यघाती ही है जो बन्धन से मुक्त नहीं करता है। जो जननी के गर्भजनित कष्ट तथा यमयातना से मुक्त न कर सके; उसे गुरु, तात तथा बान्धव कैसे कहा जाय ?।७१।
अनुवाद" जो बन्धन से मुक्त नहीं करे। और जो भगवान् श्रीकृष्ण के परमानन्दस्वरूप सनातन मार्गका निरन्तर दर्शन नहीं कराता हो।।
।७२ ।
"अनुवाद" -वह मनुष्यों के लिये कैसा बान्धव है ? अतः हे साध्वि ! तुम निर्गुण तथा अच्युत परब्रह्म श्रीकृष्ण की आराधना करो ।७३।
अनुवाद"
उनकी उपासना से मनुष्यों का सारा कर्म निर्मूल( वासना रहित) हो जाता है। हे प्रिये! मैंने छलपूर्वक तुम्हारा परित्याग किया है, अतः मेरे इस अपराधको क्षमा करो। ७४।
अनुवाद"
सत्त्वगुणके प्रभावसे क्षमाशील साध्वी नारियों में क्रोध नहीं रहता। हे देवि ! मैं तप करने के लिये पुष्करक्षेत्र जा रहा हूँ। तुम भी यहाँसे सुखपूर्वक चली जाओ। ७५।
अनुवाद"
भगवान् श्रीकृष्णके चरणकमलमें अनुराग ही निःस्पृह प्राणियोंका एकमात्र मनोरथ होता है। जरत्कारु के वचन सुनकर मनसा शोक से कातर(अधीर) हो गयी।७६।
"देवीभागवतपुराण-
स्कन्धः 9- अध्याय 48-
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