बुधवार, 23 अक्तूबर 2024

अध्याय-(१०/४) दस [भाग-१-२] आत्मा का आनन्द-****

आत्मानन्द जी:
अध्याय-१० [भाग-१]✓

गोपकुल के श्रीकृष्ण सहित कुछ महान   पौराणिक व्यक्तियों का परिचय।

आत्मानन्द जी:
योगेश कुमार रोहि-

           
यादववंश, गोपजाति का एक ऐसा रक्त समूह है जिनकी उत्पत्ति गोलोक में परमेश्वर श्रीकृष्ण और श्रीराधा के क्लोन (समरूपण विधि) से उस समय हुई जब गोलोक में श्रीकृष्ण से नारायण, शिव, ब्रह्मा इत्यादि प्रमुख देवताओं की उत्पत्ति हुई थी।

इस वजह से गोप जाति उतनी ही प्राचीनतम है जितना नारायण, शिव एवं ब्रह्मा हैं। (इस बात को अध्याय- (४) में विस्तार पूर्वक बताया जा चुका है।)  इसलिए गोपकुल के प्रमुख सदस्यपति भी अति प्राचीनतम हैं। उन सभी का वर्णन इस अध्याय के भाग- १,२,३ और ४ में क्रमशः किया गया है।
              
                       -:  श्रीकृष्ण :-
                         ________
श्री कृष्ण ही गोप-कुल के प्रथम सदस्यपति हैं। उन्हें ही परम परमेश्वर कहा जाता हैं। वे प्रभु अपने गोलोक में गोप और गोपियों के साथ सदैव गोपवेष में रहते हैं। और वहीं पर समय-समय पर सृष्टि रचना भी  किया करते हैं, और समय आने पर वे ही प्रभु समस्त सृष्टि को अपने में समाहित कर लेते हैं। यही उनका शाश्वत सनातन नियम और क्रिया है, और जब-जब प्रभु की सृष्टि रचना में पाप और भय अधिक बढ़ जाता है तब उसको दूर करने के लिए वे प्रभु अपने समस्त गोप-गोपियों के साथ धरा-धाम पर अपनें ही वर्ण के- गोपकुल( अहीर-जाति) में अवतीर्ण होते हैं।

भगवान श्री कृष्ण को गोपकुल में अवतरित होने की बात हरिवंश पुराण के विष्णु पर्व के ग्यारहवें अध्याय के श्लोक संख्या -५८ में कही गई है।
 जिसमें भगवान श्रीकृष्ण स्वयं कहें हैं कि-
एतदर्थं च वासोऽयंव्रजेऽस्मिन् गोपजन्म च।
अमीषामुत्पथस्थानां निग्रहार्थं दुरात्मनाम्।।५८।

अनुवाद - इसीलिए ब्रज में मेरा यह निवास हुआ है और इसीलिए मैंने गोपों में अवतार ग्रहण किया है।
{भगवान श्री कृष्ण का सदैव गोप होना तथा गोपकुल में उनके अवतरण इत्यादि के बारे में अध्याय-(८) में विस्तार पूर्वक बताया गया है।}

भगवान श्री कृष्णा जब भू-तल पर अवतरित होते हैं तो उनकी सारी विशेषताएं वही रहती हैं जो गोलोक में होती हैं। उनकी सभी विशेषताओं का एक-एक करके यहां वर्णन किया गया है। किंतु ध्यान रहे गोपेश्वर श्रीकृष्ण के अनंत गुण और विशेषताएं हैं। जिनका वर्णन करना किसी के लिए सम्भव नही है। पौराणिक ग्रंथों एवं शास्त्रों में उनकी विशेषताओं का जो भी, जैसे भी वर्णन किया गया है। उसी के आधार पर हम भी श्रीकृष्ण की कुछ व्यक्तिगत और कुछ सामाजिक विशेषताओं को बताने का प्रयास किया है। किंतु ध्यान रहे यहां केवल श्रीकृष्ण की लौकिक विशेषताओं का ही वर्णन किया गया है। यदि श्रीकृष्ण की आध्यात्मिक और पारलौकिक विशेषताओं को जानना है तो इस पुस्तक के अध्याय - (दो) और (तीन) को देखें, और यदि सम्पूर्ण विशेषताओं को जानना है तो  "श्रीमद्भागवत गीता" का अध्ययन करें निश्चित रूप से संतुष्टि मिलेगी।
अब हम गोपेश्वर श्रीकृष्ण की कुछ खास विशेषताओं का वर्णन कर रहे हैं।

 जैसे -
(१)- वंशीधारी - भगवान श्री कृष्ण सदैव एक हाथ में वंशी और सिर पर मोर मुकुट धारण करते हैं। वंशी धारण करने की वजह से ही उनको को वंशीधारी कहा गया। उनकी वंशी का नाम- ‘भुवनमोहिनी’ है। यह ‘महानन्दा’ नाम से भी विख्यात है।

(२)- मुरलीधारी — कोकिलाओं के हृदयाकर्षक कूजन (पक्षियों के कलरव ) को भी फीका करनेवाली इनकी मधुर मुरली का नाम ‘सरला’ है इसका बचपन में (धन्व:) नामक बाँसुरी विक्रेता से कृष्ण ने प्राप्त किया था। मुरली धारण करने की वजह से श्रीकृष्ण को मुरलीधारी (मुरलीधर) भी कहा गया।

(३)- शारंगधारी— श्रीकृष्ण के धनुष का नाम 'शारंग' है।जिसे सींग से बनाया गया था। तथा इनके मनोहर बाण का नाम ‘शिञ्जिनी’ है, जिसके दोनों ओर मणियाँ बँधी हुई हैं। सारंग धनुष के धारण करने से ही भगवान श्री कृष्ण को  सारंगधारी भी कहा जाता है।

(४)- चक्रधारी— भगवान श्री कृष्णा जब भूमि का भार उतारने के लिए रणभूमि में जब अपनी नारायणी सेना के साथ उतरते हैं, तब वे अपने एक हाथ में सुदर्शन चक्र धारण करते हैं। उसके धारण करने की वजह से ही उनको  चक्रधारी और सुदर्शनधारी कहा गया।

(५)- गिरिधारी— इन्द्र के प्रकोप से अपने समस्त गोप और गोधन की रक्षा के लिए भगवान श्री कृष्ण ने अपनी छोटी उंगली से गोवर्धन (गिरि) पर्वत को उठा लिया था। उसके धारण करने से ही श्री कृष्ण को गिरिधारी कहा गया।

(६)- गोपवेषधारी— भगवान श्रीकृष्ण गोलोक में हों या भू-लोक में, दोनों जगहों पर वह सदैव गोपों के साथ गोपवेष में ही रहते हैं। इस लिए उनको गोपवेषधारी अथवा गोप भी कहा जाता है। इस बात की पुष्टि ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्म-खण्ड के अध्याय २- के क्रमशः श्लोक संख्या- २१ से होती है जिसमें श्रीकृष्ण के वास्तविक स्वरूपों के बारे में लिखा गया है कि -
स्वेच्छामयं सर्वबीजं सर्वाधारं परात्परम्।
किशोरवयसं शश्वद्गोपवेषविधायकम्

।। २१।
अनुवाद - वे ही प्रभु स्वेच्छामयी सभी के मूल- (आदि-कारण) सर्वाधार तथा परात्पर- परमात्मा हैं। उनकी  नित्य किशोरावस्था रहती है और वे प्रभु गायों के उस लोक (गोलोक) में सदा गोप (आभीर)- वेष में रहते हैं।२१।
           
ये तो रही श्रीकृष्ण की कुछ खास व्यक्तिगत विशेषताएं। उनकी कुछ सामुहिक व सामाजिक विशेषताएं भी हैं जिनके जानें बगैर श्रीकृष्ण की विशेषताएं अधुरी ही मानी जाएगी।
जिसका वर्णन नीचे कुछ इस प्रकार से किया गया है।-

(७)- श्रीकृष्ण के नित्य-सखा —"श्रीकृष्ण के चार प्रकार के सखा हैं—(A) सुहृद् सखा (B)  सखा (C) प्रिय सखा (D) प्रिय नर्मसखा।

(A) - सुहृद् वर्ग के सखा— इस वर्ग में जो गोपसखा हैं, वे आयु में श्रीकृष्ण की अपेक्षा बड़े हैं। वे सदा श्रीकृष्ण के साथ रहकर उनकी रक्षा करते हैं ।
जिनके नाम हैं - विजयाक्ष, सुभद्र, भद्रवर्धन, मण्डलीभद्र, कुलवीर, महाभीम, दिव्यशक्ति, गोभट, सुरप्रभ, रणस्थिर आदि हैं ।
जिसमें श्रीकृष्ण के इस रक्षक टीम (वर्ग) के अध्यक्ष- अम्बिकापुत्र विजयाक्ष हैं। जो श्रीकृष्ण की सुरक्षा को लेकर सतत् चौकन्ना रहते हैं।

(B)- सखा वर्ग के सदस्य—इस वर्ग के कुछ सखा तो श्रीकृष्णचन्द्र के समान आयु के हैं तथा कुछ श्रीकृष्ण से छोटे हैं। ये सखा भाँति-भाँति से श्रीकृष्ण की आग्रहपूर्वक सेवा करते हैं और सदा सावधान रहते हैं कि कोई शत्रु- नन्द नन्दन पर आक्रमण न कर दे।
• जिसमें समान आयु के सखा हैं—
 विशाल, वृषभ, ओजस्वी, जम्बि, देवप्रस्थ, वरूथप,मन्दार, कुसुमापीड, मणिबन्ध आदि।

• श्रीकृष्ण से छोटी आयु के सखा हैं—
   मन्दार, चन्दन, कुन्द, कलिन्द, कुलिक आदि।

(C)- प्रियसखा वर्ग के सदस्य—इस वर्ग में श्रीदाम, दाम, सुदामा, वसुदाम, किंकिणी, भद्रसेन, अंशुमान्, स्तोककृष्ण, पुण्डरीकाक्ष, विटंगाक्ष, विलासी, कलविंक, प्रियंकर आदि हैं। जिसमें भद्रसेन समस्त सखाओं के सेनापति हैं। ये सभी प्रिय सखा विविध क्रीड़ाओं से परस्पर कुश्ती लड़कर, लाठी के खेल खेलकर, युद्ध-अभिनय की रचना करना, अनेकों प्रकार से श्रीकृष्णचन्द्र का आनन्दवर्द्धन करते हैं। ये सब शान्त प्रकृति के हैं। तथा श्रीकृष्ण के परम प्राणरूप ये सब समान वय और रूपवाले हैं।

इन सखाओं में "स्तोककृष्ण" श्रीकृष्ण के चाचा नन्दन के पुत्र हैं, जो देखने में श्रीकृष्ण की प्रतिमूर्ति हैं। इसीलिए  स्तोककृष्ण को छोटा कन्हैया भी कहा जाता है। ये श्रीकृष्ण को बहुत प्रिय हैं। प्राय: देखा जाता है कि श्रीकृष्ण जो भी भोजन करते हैं, उसमें से प्रथम ग्रास का आधा भाग स्तोककृष्ण के मुख में पहले देते हैं इसके बाद शेष अपने मुँह में डाल लेते हैं।

(D)-  प्रिय नर्मवर्ग के सखा — इस वर्ग में सुबल,
         (श्रीकृष्ण के चाचा सन्नन्द के पुत्र), अर्जुन, गन्धर्व, वसन्त, उज्ज्वल, कोकिल, सनन्दन, विदग्ध आदि सखा हैं।
ये सभी सखा ऐसे हैं- जिनसे श्रीकृष्ण का ऐसा कोई रहस्य नहीं है, जो इनसे छिपा हो।

राग— संगीत की दुनिया में कुछ प्रमुख राग गोपों (अहिरों) की ही देन (खोज) है। जैसे- गौड़ी, गुर्जरी राग, आभीर भैरव इत्यादि। जिसे भगवान श्रीकृष्ण सहित- गोप (आभीर) लोग समय-समय पर गाते हैं। आभीर भैरव नाम की राग- रागिनियाँ श्रीकृष्ण को अतिशय प्रिय हैं।

•  अब हमलोग जानेगें श्रीकृष्ण के पारिवारिक सम्बन्धों को। जिसमें कृष्ण के पारिवारिक चाचा ताऊ के भाई बहिनों की संख्या सैकड़ों हजारों में हैं। उनमें से कुछ के नाम नीचें विवरण रूप में उद्धृत करते हैं।

• श्रीकृष्ण के बड़े भ्राता— बलराम जी।
• श्रीकृष्ण के चचेरे बड़े भाई—सुभद्र, मण्डल, दण्डी, कुण्डली भद्रकृष्ण, स्तोककृष्ण, सुबल, सुबाहु आदि।
  
• श्रीकृष्ण की चचेरी बहनें –नन्दिरा, मन्दिरा, नन्दी, नन्दा,श्यामादेवी आदि।श्री कृष्ण के साथ यदि श्रीराधा जी की चर्चा नहीं हो तो बात अधुरी ही रहती है। अतः श्रीराधा जी के बारे में विस्तार पूर्वक जानकारी इस अध्याय के भाग- 2 में दी गई है।

अध्याय-१० [भाग-२]✓
गोपकुल के श्रीकृष्ण सहित कुछ महान   पौराणिक व्यक्तियों का परिचय।

Yogesh Rohi:
आत्मानन्द जी:




                  -: श्रीराधा जी :-
                        ____

श्रीकृष्ण परमेश्वर हैं, तो राधा पराशक्ति (परमेश्वरी) हैं। ये एक दूसरे से अलग नहीं है। इसकी पुष्टि- ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्ण जन्मखंड के अध्याय -१५ के श्लोक -५८ से ६० में होती है। जिसमें भगवान श्रीकृष्ण राधा से कहते हैं कि -

त्वं मे  प्राणाधिका  राधे   प्रेयसी   च   वरानने।
यथा त्वं च तथाऽहं च भेदो हि नाऽऽवयोर्ध्रुवम॥ ५८।।

यथा पृथिव्यां गन्धश्च तथाऽहं त्वयि संततम्।
विना मृदा घटं कर्तुं विना स्वर्णेन कुण्डलम्।। ५९।।

कुलालः स्वर्णकारश्च नहि शक्तः कदाचन।
तथा त्वया विना सृष्टिमहं कर्तुं न च क्षमः।।६०।।

अनुवाद- तुम मुझे मेरे स्वयं के प्राणों से भी प्रिय हो, तुम में और मुझ में कोई भेद नहीं है। जैसे पृथ्वी में गंध होती है, उसी प्रकार तुममें मैं नित्य व्याप्त हूँ। जैसे बिना मिट्टी के घड़ा तैयार करने और विना सोने के कुण्डल बनाने में जैसे कुम्हार और सुनार सक्षम नहीं हो सकता उसी प्रकार मैं तुम्हारे बिना सृष्टिरचना में समर्थ नहीं हो सकता। ५८-६०।
               
अतः  श्रीराधा के बिना श्रीकृष्ण अधूरे हैं और श्री कृष्ण के बिना श्रीराधा अधूरी हैं। इन दोनों से बड़ा ना कोई देवता है ना ही कोई देवी। श्रीराधा की सर्वोच्चता का वर्णन श्रीमद् देवी भागवत पुराण के नवम् स्कन्ध के अध्याय- (एक) के प्रमुख श्लोकों में वर्णन मिलता है। जिसमें बताया गया है कि -

पञ्चप्राणाधिदेवी या पञ्चप्राणस्वरूपिणी।
प्राणाधिकप्रियतमा  सर्वाभ्यः  सुन्दरी  परा।। ४४।

सर्वयुक्ता च सौभाग्यमानिनी गौरवान्विता।
वामाङ्‌गार्धस्वरूपा च गुणेन तेजसासमा॥४५।

परावरा   सारभूता   परमाद्या   सनातनी।
परमानन्दरूपा च धन्या मान्या च पूजिता॥४६।
      
अनुवाद- जो पंचप्राणों की अधिष्ठात्री, पंच प्राणस्वरूपा, सभी शक्तियों में परम सुंदरी, परमात्मा के लिए प्राणों से भी अधिक प्रियतम, सर्वगुणसंपन्न, सौभाग्यमानिनी, गौरवमयी, श्री कृष्ण की वामांगार्धस्वरुपा और गुण- तेज में परमात्मा के समान ही हैं।  वह परावरा, परमा, आदिस्वरूपा, सनातनी, परमानन्दमयी धन्य, मान्य, और पूज्य हैं। ४४-४६।

रासक्रीडाधिदेवी श्रीकृष्णस्य परमात्मनः।
रासमण्डलसम्भूता रासमण्डलमण्डिता॥ ४७।

रासेश्वरी  सुरसिका  रासावासनिवासिनी।
गोलोकवासिनी देवी गोपीवेषविधायिका॥ ४८।

परमाह्लादरूपा  च  सन्तोषहर्षरूपिणी।
निर्गुणा च निराकारा निर्लिप्ताऽऽत्मस्वरूपिणी॥ ४९।
अनुवाद - वे परमात्मा श्री कृष्ण के रासक्रिडा की अधिष्ठात्री देवी है, रासमण्डल में उनका आविर्भाव हुआ है, वे रासमण्डल से सुशोभित है, वे देवी राजेश्वरी सुरसिका, रासरूपी आवास में निवास करने वाली, गोलोक में निवास करने वाली, गोपीवेष धारण करने वाली, परम आह्लाद स्वरूपा, संतोष तथा हर हर्षरूपा आत्मस्वरूपा, निर्गुण, निराकार और सर्वथा निर्लिप्त हैं। ४७-४९।
         
यदि उपरोक्त श्लोक संख्या-(४८) पर विचार किया जाय तो उसमें श्रीराधा और श्रीकृष्ण की समानता देखने को मिलती है। वह समानता यह है कि जिस तरह से श्रीकृष्ण सदैव गोपवेष में रहते हैं उसी तरह से श्रीराधा भी सदैव गोपी वेष में रहती हैं।
'रासेश्वरी  सुरसिका  रासावासनिवासिनी।
गोलोकवासिनी देवी गोपीवेषविधायिका॥ ४८।
           
अनुवाद -वे देवी राजेश्वरी सुरसिका, रासरूपी आवास में निवास करने वाली, गोलोक में निवास करने वाली, गोपीवेष धारण करने वाली हैं। ४८।
          
और ऐसी ही वर्णन श्रीकृष्ण के लिए ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्म-खण्ड के अध्याय २- के श्लोक- २१ में मिलता है। जिसमें लिखा गया है कि -
'स्वेच्छामयं सर्वबीजं सर्वाधारं परात्परम्।
 किशोरवयसं शश्वद्गोपवेषविधायकम् ।। २१।
        
 अनुवाद - वे ही प्रभु स्वेच्छामयी सभी के मूल- (आदि-कारण) सर्वाधार तथा परात्पर- परमात्मा हैं। उनकी  नित्य किशोरावस्था रहती है और वे प्रभु गायों के उस लोक (गोलोक) में सदा गोप (अहीर)- वेष में रहते हैं।२१।   
       
अतः दोनों ही परात्पर शक्तियां- गोप (अहीर) और गोपी (अहिराणी) भेष में रहते हैं।
श्रीराधा जी को भू-तल पर अहिर कन्या होने की पुष्टि -
श्रीराधाकृष्ण गणोद्देश्य दीपिका से होती है। जिसमें बताया गया है कि -
आभीरसुभ्रुवां  श्रेष्ठा   राधा  वृन्दावनेश्वरी।
अस्या: सख्यश्च ललिताविशाखाद्या: सुविश्रुता:।८३।
           
अनुवाद- आभीर कन्याओं में श्रेष्ठा वृन्दावन की अधिष्ठात्री व स्वामिनी राधा हैं। ललिता और विशाखा आदि श्री राधा जी प्रधान सखियों के रूप में विख्यात हैं।८३।

अब हमलोग श्रीराधा के कुल एवं पारिवारिक सम्बन्धों के बारे में जानेंगे-

• पिता- वृषभानु, माता- कीर्तिदा
• पितामह- महिभानु गोप (आभीर)

• पितामही — सुखदा गोपी (अन्यत्र ‘सुषमा’ नाम का भी उल्लेख मिलता है।
• पितृव्य (चाचा)—भानु, रत्नभानु

एवं सुभानु।
• भ्राता — श्रीदामा, कनिष्ठा भगिनी — अनंगमंजरी।
• फूफा — काश, बुआ — भानुमुद्रा,
• मातामह — इन्दु, मातामही — मुखरा।
• मामा — भद्रकीर्ति, महाकीर्ति, चन्द्रकीर्ति।
• मामी — क्रमश: मेनका, षष्ठी, गौरी।
• मौसा — कुश, मौसी — कीर्तिमती।
• धात्री — धातकी।
• राधा जी की छाया (प्रतिरूपा) वृन्दा।

• सखियाँ — श्रीराधाजी की आठ प्रकार की सखियाँ हैं।
 इन सभी की विशेषताएं को नीचे ( ABCD ) क्रम में बताया गया हैं -

(A)- सखीवर्ग की सखियाँ — कुसुमिका, विन्ध्या, धनिष्ठा आदि हैं।

(B)- नित्यसखीवर्ग की सखियाँ — कस्तूरी, मनोज्ञा, मणिमंजरी, सिन्दूरा, चन्दनवती, कौमुदी, मदिरा आदि हैं।

(C)- प्राणसखीवर्ग की सखियाँ — शशिमुखी, चन्द्ररेखा, प्रियंवदा, मदोन्मदा, मधुमती, वासन्ती, लासिका, कलभाषिणी, रत्नवर्णा, केलिकन्दली, कादम्बरी, मणिमती, कर्पूरतिलका आदि हैं।
       
इस वर्ग की सभी सखियाँ प्रेम, सौन्दर्य एवं सद्गुणों में प्रायः श्रीराधारानी के समान ही हैं।

(D)- प्रियसखीवर्ग की सखियाँ — कुरंगाक्षी, मण्डली, मणिकुण्डला, मालती, चन्द्रतिलका, माधवी, मदनालसा, मंजुकेशी, मंजुमेघा, शशिकला, सुमध्या, मधुरेक्षणा, कमला, कामलतिका, चन्द्रलतिका, गुणचूड़ा, वरांगदा, माधुरी, चन्द्रिका, प्रेममंजरी, तनुमध्यमा, कन्दर्पसुन्दरी आदि कोटि-कोटि प्रिय सखियाँ श्रीराधारानी की हैं।

(E)- परमप्रेष्ठसखी वर्ग की सखियाँ –इस वर्ग की सखियाँ हैं —
(१) ललिता, (२) विशाखा, (३) चित्रा, (४) इन्दुलेखा, (५)   चम्पकलता, (६) रंगदेवी, (७) तुंगविद्या, (८) सुदेवी।

(F)- सुहृद्वर्ग की सखियाँ — श्यामला, मंगला आदि।

(G)- प्रतिपक्षवर्ग की सखियाँ — चन्द्रावली आदि। वाद्य

(H)- संगीत में निपुणा सखियाँ — कलाकण्ठी, सुकण्ठी एवं प्रियपिक, कण्ठिका, विशाखा और नाम्नी इत्यादि सखियाँ था जो वाद्य एवं कण्ठसंगीत की कला में अत्यधिक निपुणा हैं। जिसमें विशाखा सखी अत्यन्त मधुर कोमल पदों की रचना करती हैं तथा ये तीनों सखियाँ गा-गाकर- प्रिया-प्रियतम को सुख प्रदान करती हैं। ये सब शुषिर, तत, आनद्ध, घन तथा अन्य वाद्ययन्त्रों को बजाती हैं।

(I)- मानलीला में सन्धि करानेवाली सखियाँ — नान्दीमुखी एवं बिन्दुमुखी।

वाटिका — कंदर्प—कुहली (यह प्रत्येक समय सुगन्धित पुष्पों से सुसज्जित रहती है)। कुण्ड — श्रीराधाकुण्ड (इसके नीपवेदीतट में रहस्य—कथनस्थली है)।

राग — मल्हार (वलहार) और धनाश्री' श्रीराधारानी की अत्यन्त प्रिय-रागिनियाँ हैं।
वीणा — श्रीराधारानी की रुद्रवीणा का नाम मधुमती है।

नृत्य —श्रीराधारानी के प्रिय नृत्य का नाम छालिक्य है।

• श्रीराधा जी का विवाह -
श्रीराधा का विवाह श्रीकृष्ण से भू-तल पर ब्रह्मा जी के मन्त्रोंचारण से भाण्डीर वन में सम्पन्न हुआ था। जिसकी पुष्टि- ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्ण जन्म खंड के अध्याय- (१५) के प्रमुख श्लोक से होती है।

'राधे  स्मरसि  गोलोकवृत्तान्तं   सुरसंसदि।
अद्य पूर्णं करिष्यामि स्वीकृतं यत्पुरा प्रिये। ५७

अनुवाद -हे प्राणप्यारी राधे ! तुम गोलोक का वृत्तान्त याद करों। जो वहाँ पर देवसभा में घटित हुआ था, मैनें तुम को वचन दिया था, और आज वह वचन पूरा करने का समय अब आ पहुँचा है। ५७।
                  
ये कथोपकथन(  संवाद) अभी हो ही रहा था कि वहाँ पर मुस्कराते हुए ब्रह्माजी सभी देवताओं के संग आ गये।
तब ब्रह्मा ने  श्रीकृष्ण को प्रणाम कर कहा--
'कमण्डलुजलेनैव शीघ्रं प्रक्षालितं मुदा।
यथागमं प्रतुष्टाव पुटाञ्जलियुतः पुनः। ९६।।
 अनुवाद - उन्होंने श्रीकृष्णजी को प्रणाम किया और राधिका जी के चरणद्वय को अपने कमण्डल से जल लेकर धोया और फिर जल अपनी जटायों पर लगाया।९५।
                              
इसके बाद ब्रह्मा जी विवाह कार्य सम्पन्न कराने हेतु - तत्पर हुए-

'पुनर्ननाम तां भक्त्या विधाता जगतां पतिः ।
तदा ब्रह्मा तयोर्मध्ये प्रज्वाल्य च हुताशनम्।१२०।

हरिं संस्मृत्य हवनं चकार विधिना विधिः।।
उत्थाय शयनात्कृष्ण उवास वह्निसन्निधौ ।१२१।

ब्रह्मणोक्तेन विधिना चकार हवनं स्वयम् ।।
प्रणमय्य पुनः कृष्णं राधां तां जनकःस्वयम्।१२२।

कौतुकं कारयामास सप्तधा च प्रदक्षिणाम् ।।
पुनः प्रदक्षिणां राधां कारयित्वा हुताशनम् ।१२३।

प्रणमय्य ततः कृष्णं वासयामास तं विधिः ।।
तस्या हस्तं च श्रीकृष्णं ग्राहयामास तं विधि:।१२४।

वेदोक्तसप्तमन्त्रांश्च पाठयामास माधवम् ।।
संस्थाप्य राधिकाहस्तं हरेर्वक्षसि वेदवित् ।१२५।

श्रीकृष्णहस्तं राधायाः पृष्ठदेशे प्रजापतिः।
स्थापयामास मन्त्रांस्त्रीन्पाठयामास राधिकाम् ।१२६।

पारिजातप्रसूनानां मालां जानुविलम्बिताम् ।
श्रीकृष्णस्य गले ब्रह्मा राधाद्वारा ददौ मुदा ।१२७।

प्रणमय्य पुनः कृष्णं राधां च कमलोद्भवः ।।
राधागले हरिद्वारा ददौ मालां मनोहराम्।।
पुनश्च वासयामास श्रीकृष्णं कमलोद्भवः।१२८।

तद्वामपार्श्वे राधां च सस्मितां कृष्णचेतसम् ।।
पुटाञ्जलिं कारयित्वा माधवं राधिकां विधिः।१२९।

पाठयामास वेदो

क्तान्पञ्च मन्त्रांश्च नारद ।।
प्रणमय्य पुनः कृष्णं समर्प्य राधिकां विधिः। 4.15.१३०।

अनुवाद -फिर ब्रह्माजी ने अग्नि प्रज्वलित करके संविधि हवन पूर्ण किया। तब उन्होंने पिता का कर्त्तव्य पालन करते हुए राधाकृष्ण जी को अग्नि की सात परिक्रमा कराई। तब उन्हें वहाँ पर बिठा कर राधा का हाथ कृष्णजी के हाथ में पकड़वाया और वैदिक मंत्रों का पाठ किया। उसके पश्चात ब्रह्मा जी ने श्रीकृष्ण का हाथ राधा की पीठ पर और राधा का हाथ कृष्णजी के वक्षस्थल पर रख कर मन्त्रों का पाठ किया और राधाकृष्ण दोनों से एक दूसरे के गले में पारिजात के फूलों से बनी हुई माला पहनवा कर विवाह को सम्पूर्ण किया।         
अतः उपरोक्त साक्ष्यों से स्पष्ट हुआ कि भू-तल पर श्रीराधा जी का विवाह श्रीकृष्ण से ही हुआ था अन्य किसी से नहीं।
इस प्रकार से अध्याय- १० का भाग- (दो) श्रीराधा जी की जानकारी के साथ समाप्त हुआ।

अब इसी क्रम में इस अध्याय के भाग -(तीन) में आपलोग जानेंगे कि भू-तल पर गोपकुल का प्रथम ऐतिहासिक पुरुष और सम्राट पुरूरवा कौन था ? तथा उनकी पत्नी गोपी- उर्वशी कौन थी ?

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