i📚: पूज्या लालयितव्याश्च स्त्रियो नित्यं जनाधिप।
स्त्रियो यत्र च पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः।।
13-81-5
अपूजिताश्च यत्रैताः सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः।
तदा चैतत्कुलं नास्ति यदा शोचन्ति जामयः।।
13-81-6
पिता रक्षति कौमारे भर्ता रक्षति यौवने।
पुत्राश्च स्थाविरे भावे न स्त्री स्वातन्त्र्यमर्हति।। 13-81-14
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श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि
दानधर्मपर्वणि एकाशीतितमोऽध्यायः।। 81 ।।
[10/9, 2:37 PM] yogeshrohi📚: पूज्या लालयितव्याश्च स्त्रियो नित्यं जनाधिप।
स्त्रियो यत्र च पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः।।
13-81-5
अपूजिताश्च यत्रैताः सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः।
तदा चैतत्कुलं नास्ति यदा शोचन्ति जामयः।।
13-81-6
पिता रक्षति कौमारे भर्ता रक्षति यौवने।
पुत्राश्च स्थाविरे भावे न स्त्री स्वातन्त्र्यमर्हति।। 13-81-14
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श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि
दानधर्मपर्वणि एकाशीतितमोऽध्यायः।।
81 ।।
पूज्या लालयितव्याश्च स्त्रियो नित्यं जनाधिप ।
अपूजिताश्च यत्रैताः सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः ।
तदैव तत्कुलं नास्ति यदा शोचन्ति जामयः ॥ ५ ॥
गीताप्रेस गोरखपुर संस्करण महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय -46. श्लोक संख्या- 5
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भीष्म उवाच। 13-81-1x
प्राचेतसस्य वचनं कीर्तयन्ति पुराविदः।
यस्याः किञ्चिन्नाददते ज्ञातयो न स विक्रयः।। 13-81-1a
13-81-1b
अर्हणं तत्कुमारीणामानृशंस्यं व्रतं च तत्।
सर्वं च प्रतिदेयं स्यात्कन्यायै तदशेषतः।। 13-81-2a
13-81-2b
पितृभिर्भ्रातृभिश्चापि श्वशुरैरथ देवरैः।
पूज्या लालयितव्याश्च बहुकल्याणमीप्सुभिः।। 13-81-3a
13-81-3b
यदि वै स्त्री न रोचेत पुमांसं न प्रमोदयेत्।
अप्रमोदात्पुनः पुंसः प्रजनो न प्रवर्धते।। 13-81-4a
13-81-4b
पूज्या लालयितव्याश्च स्त्रियो नित्यं जनाधिप।
स्त्रियो यत्र च पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः।। 13-81-5a
13-81-5b
अपूजिताश्च यत्रैताः सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः।
तदा चैतत्कुलं नास्ति यदा शोचन्ति जामयः।। 13-81-6a
13-81-6b
जामीशप्तानि गेहानि निकृत्तानीव कृत्यया।
नैव भान्ति न वर्धन्ते श्रिया हीनानि पार्थिव।। 13-81-7a
13-81-7b
स्त्रियः पुंसां परिददौ मनुर्जिगमिषुर्दिवम्।
अबलाः स्वल्पकौपीनाः सुहृद सत्यजिष्णवः।। 13-81-8a
13-81-8b
ईर्षवो मानकामाश्च चण्डाश्च सुहृदोऽबुधाः।
स्त्रियस्तु मानमर्हन्ति ता मानयत मानवाः।। 13-81-9a
13-81-9b
स्त्रीप्रत्ययो हि वै धर्मो रतिभोगाश्च केवलाः।
परिचर्या नमस्कारास्तदायत्ता भवन्तु वः।। 13-81-10a
13-81-10b
उत्पादनमपत्यस्य जातस्य परिपालनम्।
प्रीत्यर्थं लोकयात्रायाः पश्यत स्त्रीनिबन्धनम्।। 13-81-11a
13-81-11b
सम्मान्यमानाश्चैता हि सर्वकार्याष्यवाप्स्यथ।
विदेहराजदुहिता चात्र श्लोकमगायत।। 13-81-12a
13-81-12b
नास्ति यज्ञः स्त्रियाः कश्चिन्न श्राद्धं नोप्रवासकम्।
धर्मः स्वभर्तृशुश्रूषा तया स्वर्गं जयन्त्युत।। 13-81-13a
13-81-13b
पिता रक्षति कौमारे भर्ता रक्षति यौवने।
पुत्राश्च स्थाविरे भावे न स्त्री स्वातन्त्र्यमर्हति।। 13-81-14a
13-81-14b
श्रिय एताः स्त्रियो नाम सत्कार्या भूतिमिच्छता।
लालिताऽनुगृहीता च श्रीः स्त्री भवति भारतः।। 13-81-15a
13-81-15b
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि
दानधर्मपर्वणि एकाशीतितमोऽध्यायः।। 81 ।।
षट्चत्वारिंश (46) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासन पर्व: षट्चत्वारिंश अध्याय: श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद
स्त्रियों के आभूषणों से सत्कार करनेकी आवश्यकताका प्रतिपादन भीष्म जी कहते हैं- युधिष्ठिर! प्राचीन इतिहास के जानने वाले विद्वान दक्ष प्रजापति के वचनों को इस प्रकार उदधृत करते हैं। कन्या के भाई-बन्धु यदि उसके वस्त्र-आभूषण लिये धन ग्रहण करते हैं और स्वयं उसमें से कुछ भी नहीं लेते हैं तो वह कन्या का विक्रय नहीं है। वह तो उन कन्याओं सत्कार मात्र है। वह परम दयालुतापूर्ण कार्य है। वह सारा धन जो कन्या के लिये ही प्राप्त हुआ हो, सब-का-सब कन्या को ही अर्पित कर देना चाहिये। बहुविध कल्याण की इच्छा रखनेवाले पिता, भाई, श्वशुर और देवरों को उचित है कि वे नववधू का पूजन-वस्त्राभूषणों द्वारा सत्कार करें। नरेश्वर! यदि स्त्री की रुचि पूर्ण न की जाये तो वह अपने पति को प्रसन्न नही कर सकती और उस अवस्था में उस पुरुष की संतान वृद्धि नहीं हो सकती। इसलिये सदा ही स्त्रियों का सत्कार और दुलार करना चाहिये। जहाँ स्त्रियों का आदर-सत्कार होता है वहाँ देवता लोग प्रसन्नतापर्वूक निवास करते हैं तथा जहाँ इनका अनादर किया जाता है वहाँ की सारी क्रियाएँ निष्फल हो जाती हैं। जब कुल की बहू-बेटियाँ दु:ख मिलने के कारण शोकमग्न होती हैं तब उस कुल का नाश हो जाता है। वे खिन्न होकर जिन घरों को शाप दे देती हैं, वे कृत्या के द्वारा नष्ट हुए के समान उजाड़ हो जाते हैं। पृथ्वीनाथ! वे श्रीहीन गृह न तो शोभा पाते हैं और न उनकी वृध्दि ही होती है। महाराज मनु जब स्वर्ग को जाने लगे तब उन्होंने स्त्रियों को पुरुषों के हाथ में सौंप दिया और कहा- ‘मनुष्यों! स्त्रियाँ अबला, थोड़े से वस्त्रों से काम चलाने वाली, अकारण हितसाधन करने वाली, सत्यलोक को जीतने की इच्छा वाली (सत्यपरायण), ईष्यालु, मान चाहने वाली, अत्यन्त कोप करने वाली,पुरुष के प्रति मैत्रीभाव रखनेवाली और भोली-भाली होती हैं। स्त्रियाँ सम्मान पाने के योग्य हैं, अत: तुम सब लोग उनका सम्मान करो; क्योंकि स्त्री-जाति ही धर्म की सिद्धि का मूल कारण है। तुम्हारे रतिभोग,परिचर्या और नमस्कार स्त्रियों के ही अधीन होंगे। ‘संतान की उत्पति, उत्पन्न हुए बालक का लालन-पालन तथा लोकयात्रा का प्रसन्नतापूर्वक निर्वाह-इन सबको स्त्रियों के ही अधीन समझो। यदि तुम लोग स्त्रियों का सम्मान करोगे तो तुम्हारे सब कार्य सिद्ध होंगे। ‘(स्त्रियों के कर्तव्य के विषय में) विदेहराज जनक की पुत्री ने एक श्लोक का गान किया है, जिसका सारांश इस प्रकार है- स्त्रीके लिये कोई यज्ञ आदि कर्म, श्राद्ध और उपवास करना आवश्यक नही है। उसका धर्म है अपने पति की सेवा। उसी से स्त्रियाँ स्वर्गलोक पर विजय पा लेती हैं। कुमारावस्था में स्त्री की रक्षा उसका पिता करता है, जवानी में पति उसका रक्षक है और वृद्धावस्था में पुत्रगण उसकी रक्षा करते हैं। अत: स्त्री को कभी स्वतन्त्र नहीं करना चाहिये। भरतनन्दन! स्त्रियाँ ही घर की लक्ष्मी होती हैं। उन्नति चाहने वाले पुरुष को उनका भलीभाँती सत्कार करना चाहिये। अपने वश में रखकर उनका पालन करने से स्त्री भी (लक्ष्मी) का स्वरूप बन जाती है।
इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्व के अन्तगर्त दानधर्मपर्व में विवाहधर्म के प्रसंग में स्त्री की प्रशंसा नामक छियालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।
युधिष्ठिर उवाच। 13-82-1x
सर्वशास्त्रविधानज्ञ राजधर्मविदुत्तम।
अतीव संशयच्छेत्ता भवान्वै प्रथितः क्षितौ।। 13-82-1a
13-82-1b
कश्चित्तु संशयो मेऽस्ति तन्मे ब्रूहि पितामह।
`अस्यामापदि कष्टायामन्यं पृच्छाम कं वयम्'।।
जातेऽस्मिन्संशये राजन्नान्यं पृच्छेम कञ्चन।। 13-82-2a
13-82-2b
13-82-2c
यथा नरेण कर्तव्यं धर्ममार्गानुवर्तिना।
एतत्सर्वं महाबाहो भवान्व्याख्यातुमर्हति।। 13-82-3a
13-82-3b
चतस्रो विहिता भार्या ब्राह्मणस्य पितामह।
ब्राह्मणी क्षत्रिया वैश्या शूद्रा च रतिमिच्छतः।। 13-82-4a
13-82-4b
तत्र जातेषु पुत्रेषु सर्वासां कुरुसत्तम।
आनुपूर्व्येण कस्तेषां पित्र्यं दायाद्यमर्हति।। 13-82-5a
13-82-5b
केन वा किं ततो हार्यं पितृवित्तात्पितामह।
एतदिच्छामि कथितं विभागस्तेषु कः स्मृतः।। 13-82-6a
13-82-6b
भीष्म उवाच। 13-82-7x
ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यस्त्रयो वर्णा द्विजातयः।
एतेषु विहितो धर्मो ब्राह्मणस्य युधिष्ठिर।। 13-82-7a
13-82-7b
वैषम्यादथवा लोभात्कामाद्वाऽपि परन्तप।
ब्राह्मणस्य भवेच्छूद्रा न तु दृष्टा न तु स्मृता।। 13-82-8a
13-82-8b
शूद्रां शयनमारोप्य ब्राह्मणि यात्यधोगतिम्।
प्रायश्चित्तीयते चापि विधिदृष्टेन कर्मणा।। 13-82-9a
13-82-9b
तत्र जातेष्वपत्येषु द्विगुणं स्वाद्युधिष्ठिर।
अतस्ते नियमं वित्ते सम्प्रवक्ष्यामि भारत।। 13-82-10a
13-82-10b
लक्षण्यं गोवृषो यानं यत्प्रधानतमं भवेत्।
ब्राह्मण्यास्तद्धरेत्पुत्र एकांशं वै पितुर्धनात्।। 13-82-11a
13-82-11b
एषं तु दशधा कार्यं ब्राह्मणस्वं युधिष्ठिर।
तत्र तेनैव हर्तव्याश्चत्वारोंशाः पितुर्धनात्।। 13-82-12a
13-82-12b
त्रियायास्तु यः पुत्रो ब्राह्मणः सोप्यसंशयः।
स तु मातुर्विशेषेण त्रीनंशान्हर्तुमर्हति।। 13-82-13a
13-82-13b
वर्णे तृतीये जातस्तु वैश्यायां ब्राह्मणादपि।
द्विरंशस्तेन हर्तव्यो ब्राह्मणस्वाद्युधिष्ठिर।। 13-82-14a
13-82-14b
शूद्रायां ब्राह्मणाज्जातो नित्यादेयधनः स्मृतः।
अल्पं चापि प्रदातव्यं शूद्रापुत्राय भारत।। 13-82-15a
13-82-15b
दशधा प्रविभक्तस्य धनस्यैव भवेत्क्रमः।
सवर्णासु तु जातानां समान्भागान्प्रकल्पयेत्।। 13-82-16a
13-82-16b
अब्राह्मणं तु मन्यन्ते शूद्रापुत्रमनैपुणात्।
त्रिषु वर्णेषु जातो हि ब्राह्मणाद्ब्राह्मणो भवेत्।। 13-82-17a
13-82-17b
स्मृताश्च वर्णाश्चत्वारः पञ्चमो नाधिगम्यते।
हरेच्च दशमं भागं शूद्रापुत्रः पितुर्धनात्।। 13-82-18a
13-82-18b
तत्तु दत्तं हरेत्पित्रा नादत्तं हर्तुमर्हति।
अवश्यं हि धनं देयं शूद्रापुत्राय भारत।। 13-82-19a
13-82-19b
आनृशंस्यं परो धर्म इति तस्मै प्रदीयते।
यत्रतत्र समुत्पन्नं गुणायैवोपपद्यते।। 13-82-20a
13-82-20b
यद्यप्येष सुपुत्रः स्यादपुत्रो यदि वा भवेत्।
नाधिकं दशमाद्दद्याच्छूद्रापुत्राय भारत।। 13-82-21a
13-82-21b
`स्मृत एकश्चतुर्भागः कन्याभागस्तु धर्मतः।
अभ्रातृका समग्राहा चार्धास्येत्यपरे विदुः।।' 13-82-22a
13-82-22b
त्रैवार्विकाद्यदा भक्तादधिकं स्याद्द्विजस्य तु।
यजेत तेन द्रव्येण न वृथा साधयेद्धनम्।। 13-82-23a
13-82-23b
त्रिसहस्रपरो दायः स्त्रियै देयो धनस्य वै।
भर्त्रा तच्च धनं दत्तं यथार्हं भोक्तुमर्हति।। 13-82-24a
13-82-24b
स्त्रीणां तु पतिदायाद्यमुपभोगफलं स्मृतम्।
नापहारं स्त्रियः कुर्युः पितृवित्तात्कथञ्चन।। 13-82-25a
13-82-25b
स्त्रियास्तु यद्भवेद्वित्तं पित्रा दत्तं युधिष्ठिर।
ब्राह्मण्यास्तद्धरेत्कन्या यथा पुत्रस्तथाऽस्य सा।। 13-82-26a
13-82-26b
सा हि पुत्रसमा राजन्विहिता कुरुनन्दन।
एवमेव समुद्दिष्टो धर्मो वै भरतर्षभ।
एवं धर्ममनुस्मृत्य न वृथा साधयेद्धनम्।। 13-82-27a
13-82-27b
13-82-27c
युधिष्ठिर उवाच। 13-82-28x
शूद्रायां ब्राह्मणाज्जातो यद्यदेयधनः स्मृतः।
केन प्रतिविशेषेण दशमोऽप्यस्य दीयते।। 13-82-28a
13-82-28b
ब्राह्मण्यां ब्राह्मणाज्जातो ब्राह्मणः स्यान्न संशयः।
क्षत्रियायां तथैव स्याद्वैश्यायामपि चैव हि।। 13-82-29a
13-82-29b
कस्मात्तु विषमं भागं भजेरन्नृपसत्तम।
यदा सर्वे त्रयो वर्णास्त्वयोक्ता ब्राह्मणा इति।। 13-82-30a
13-82-30b
भीष्म उवाच। 13-82-31x
दारा इत्युच्यते लोके नाम्नैकेन परन्तप।
प्रोक्तेनि चैव नाम्नाऽयं विशेषः सुमहान्भवेत्।। 13-82-31a
13-82-31b
तिस्रः कृत्वा पुरो भार्याः पश्चाद्विन्देत ब्राह्मणीम्।
सा ज्येष्ठा सा च पूज्या स्यात्सा च ताभ्यो गरीयसी 13-82-32a
13-82-32b
स्नानं प्रसाधनं भर्तुर्दन्तधावनमुञ्जनम्।
हव्यं कव्यं च यच्चान्यद्धर्मयुक्तं गृहे भवेत्।। 13-82-33a
13-82-33b
न तस्यां जातु तिष्ठन्त्यामन्या तत्कर्तुमर्हति।
ब्राह्मणीत्वेव कुर्याद्वा ब्राह्मणस्य युधिष्ठिर।। 13-82-34a
13-82-34b
अन्नं पानं च माल्यं च वासांस्याभरणानि च।
ब्राह्मण्यैतानि देयानि भर्तुः सा हि गरीयसी।। 13-82-35a
13-82-35b
मनुनाऽभिहितं शास्त्रं यच्चापि कुरुनन्दन।
तत्राप्येष महाराज दृष्टो धर्मः सनातनः।। 13-82-36a
13-82-36b
अथ चेदन्यथा कुर्याद्यदि कामाद्युधिष्ठिर।
यथा ब्राह्मणचाण्डालः पूर्वदृष्टस्तथैव सः।। 13-82-37a
13-82-37b
ब्राह्मण्याः सदृशः पुत्रः क्षत्रियायाश्च यो भवेत्।
राजन्विशेषो यस्त्वत्र वर्णयोरुभयोरपि।। 13-82-38a
13-82-38b
न तु जात्या समा लोके ब्राह्मण्याः क्षत्रिया भवेत्।
ब्राह्मण्याः प्रथमः पुत्रो भूयान्स्याद्राजसत्तम।। 13-82-39a
13-82-39b
भूयोभूयोपि संहार्यः पितृवित्ताद्युधिष्ठिर।
यथा न सदृशी जातु ब्राह्मण्याः क्षत्रिया भवेत्।। 13-82-40a
13-82-40b
क्षत्रियायास्तथा वैश्या न जातु सदृशी भवेत्।
श्रीश्च राज्यं च कोशश्च क्षत्रियाणां युधिष्ठिर।। 13-82-41a
13-82-41b
विहितं दृश्यते राजन्सागरान्तां च मेदिनीम्।
क्षत्रियो हि स्वधर्मेण श्रियं प्राप्नोति भूयसीम्।
राजा दण्डधरो राजन्रक्षा नान्यत्र क्षत्रियात्।। 13-82-42a
13-82-42b
13-82-42c
ब्राह्मणा हि महाभाग देवानामपि देवताः।
तेषु राजा प्रवर्तेत पूजया विधिपूर्वकम्।। 13-82-43a
13-82-43b
प्रणीतमृषिभिर्ज्ञात्वा धर्मं शाश्वतमव्ययम्।
लुप्यमानं स्वधर्मेण क्षत्रियो रक्षति प्रजाः।। 13-82-44a
13-82-44b
दस्युभिर्ह्रियमाणं च धनं दारांश्च सर्वशः।
सर्वेषामेव वर्णानां त्राता भवति पार्थिवः।। 13-82-45a
13-82-45b
भूयान्स्यात्क्षत्रियापुत्रो वैश्यापुत्रान्न संशयः।
भूयस्तेनापि हर्तव्यं पितृवित्ताद्युधिष्ठिर।। 13-82-46a
13-82-46b
युधिष्ठिर उवाच। 13-82-47x
उक्तं ते विधिवद्राजन्ब्राह्मणस्य पितामह।
इतरेषां तु वर्णानां कथं वै नियमो भवेत्।। 13-82-47a
13-82-47b
भीष्म उवाच। 13-82-48x
क्षत्रियस्यापि भार्ये द्वे विहिते कुरुनन्दन।
तृतीया च भवेच्छूद्रा न तु दृष्टा न तु स्मूता।। 13-82-48a
13-82-48b
एष एव क्रमो हि स्यात्क्षत्रियाणां युधिष्ठिर।
अष्टधा तु भवेत्कार्यं क्षत्रियस्वं जनाधिप।। 13-82-49a
13-82-49b
क्षत्रियाया हरेत्पुत्रश्चतुरोंशान्पितुर्धनात्।
युद्धावहारिकं यच्च पितुः स्वात्स हरेत्तु तत्।। 13-82-50a
13-82-50b
वैश्यापुत्रस्तु भागांस्त्रीञ्शूद्रापुत्रस्तथाष्टमम्।
एकैव हि भवेद्भार्या वैश्यस्य कुरुनन्दन। 13-82-51a
13-82-51b
द्वितीया तु भवेच्छूद्रा न तु दृष्टा न तु स्मृता।।
वैश्यस्य वर्तमानस्य वैश्यायां भरतर्षभ। 13-82-52a
13-82-52b
शूद्रायां चापि कौन्तेय तयोर्विनियमः स्मृतः।।
पञ्चधा तु भवेत्कार्यं वैश्यस्वं भरतर्षभ। 13-82-53a
13-82-53b
तयोरपत्ये वक्ष्यामि विभागं च जनाधिप।।
वैश्यापुत्रेण हर्तव्याश्चत्वारोंशाः पितुर्धनात्। 13-82-54a
13-82-54b
पञ्चमस्तु स्मृतोः भागः शूद्रापुत्राय भारत।।
सोपि दत्तं हरेत्पित्रा नादत्तं हर्तुमर्हति। 13-82-55a
13-82-55b
त्रिमिर्वर्णैः सदा जातः शूद्रो देयधनो भवेत्।।
0 13-82-56a
13-82-56b
शूद्रस्य स्यात्सवर्णैव भार्या नान्या कथञ्चन।
समभागाश्च पुत्राः स्युर्यदि पुत्रशतं भवेत्।। 13-82-57a
13-82-57b
जातानां समवर्णायाः पुत्राणामविशेषतः।
सर्वेषामेव वर्णानां समभागो धनात्स्मृतः।। 13-82-58a
13-82-58b
ज्येष्ठस्य भागो ज्येष्ठः स्यादेकांशो यः प्रधानतः।
एष दायविधिः पार्थ पूर्वमुक्तः स्वयंभुवा।। 13-82-59a
13-82-59b
समवर्णासु जातानां विशेषोऽस्त्यपरो नृप।
विवाहवैशिष्ट्यकृतः पूर्वपूर्वो विशिष्यते।। 13-82-60a
13-82-60b
हरेज्ज्येष्ठः प्रधानांशमेकभार्यासुतेष्वपि।
मध्यमो मध्यमं चैव कनीयांस्तु कनीयसम्।। 13-82-61a
13-82-61b
एवं जातिषु सर्वासु सवर्णः श्रेष्ठतां गतः।
महर्षिरपि चैतद्वै मारीचः काश्यपोऽब्रवीत्।। 13-82-62a
13-82-62b
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि
दानधर्मपर्वणि द्व्यशीतितमोऽध्यायः।।। 82 ।।
सप्तचत्वारिंश (47) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासन पर्व: सप्तचत्वारिंश अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद
ब्राहामण आदि वर्णों की दया भाग-विधि का वर्णन।
युधिष्ठिर ने पूछा- संपूर्ण शास्त्रों के विधान के ज्ञाता तथा राजधर्म के विद्वानों में श्रेष्ठ पितामह। आप इस भूमण्डल में सम्पूर्ण संशयों का सर्वथा निवारण करने के लिये प्रसिद्ध हैं। मेरे हदय में एक संशय और है, उसका मेरे लिये समाधान कीजिये। राजन! इस उत्पन्न हुए संशय के विषय में मैं दूसरे किसी से नहीं पूछूँगा। महाबाहो! धर्म मार्ग का अनुसरण करने वाले मनुष्य का इस विषय में जैसा कर्तव्य हो, इस सबकी आप स्पष्टरूप से व्याख्या करें। पितामह! ब्राहामण के लिये चार स्त्रियाँ शास्त्र–विहित हैं- ब्राहाणी, क्षत्रिया, वैश्या और शुद्रा। इनमें से शुद्रा केवल रति की इच्छा वाले कामी पुरुष के लिये विहित है। कुरुश्रेष्ठ! किस पुत्र को पिता के धन में से कौन-सा भाग मिलना चाहिये? उनके लिये जो भाग नियत किया गया है, उसका वर्णन मैं आपके मुँह से सुनना चाहता हूँ। भीष्म जी ने कहा- युधिष्ठिर! ब्राहामण, क्षत्रिय और वैश्य-ये तीनों वर्ण द्विजाति कहलाते हैं, अत: इन तीन वर्णों में ही ब्राहामण का विवाह धर्मत: विहित है। परंतप नरेश! अन्याय से, लोभ से अथवा कामना से शूद्र जाति की कन्या भी ब्राहामण की भार्या हेाती है, परंतु शास्त्रों में इसका कहीं विधान नहीं मिलता है। शूद्र जाति की स्त्री को अपनी शय्या पर सुलाकर ब्राहामण अधोगति को प्राप्त होता है। साथ ही शास्त्रीय विधि के अनुसार वह प्रायश्चित का भागी होता है। युधिष्ठिर! शूद्रा के गर्भ से संतान उत्पन्न करने पर ब्राहामण को दूना पाप लगता है और उसे दूने प्रायश्चित का भागी होना पड़ता है। भरतनन्दन! अब मैं ब्राहामण आदि वर्णों की कन्याओं के गर्भ से उत्पन्न होने वाले पुत्रों को पैतृक धन का जो भाग प्राप्त होता है, उसका वर्णन करूँगा। ब्राहामण की ब्राहाणी पत्नी से जो पुत्र उत्पन्न होता है,वह उतम लक्षणोंसे सम्पन्न गृह आदि, बैल, सवारी तथा अन्य जो-जो श्रेष्ठतम पदार्थ हों, उन सबको अर्थात पैतृक धन के प्रधान अंश को पहले ही अपने अधिकार में कर ले। युधिष्ठिर! फिर ब्राहामण का जो शेष धन हो,उसके दस भाग करने चाहिये। पिता के उस धन में से पुन: चार भाग ब्राहामणी के पुत्र को ही ले लेने चाहिये। क्षत्रिया का जो पुत्र है, वह भी ब्राहामण ही होता है- इसमें संशय नही है। वह माता की विशिष्टता के कारण पैतृक धन के तीन भाग ले लेने का अधिकारी है। युधिष्ठिर! तीसरे वर्ण की कन्या वैश्या में जो ब्राहामण से पुत्र उत्पन्न होता है,उसे ब्राहामण के धन में से दो भाग लेने चाहिये। भारत! ब्राहामण में शूद्रा में जो पुत्र उत्पन्न होता है, उसे तो धन न देने का ही विधान है तो भी शूद्र के पुत्र को पैतृक धन का स्वल्पतम भाग –एक अंश दे देना चाहिये। भारत ! ब्राहामण से शूद्रा में जो पुत्र उत्पन्न होता है, उसे तो धन न देने का ही विधान है तो भी शूद्र के पुत्र को पैतृक धन का स्वल्पतम भाग-एक अंश दे देना चाहिये। दस भागों में विभक्त हुए बँटवारे का यही क्रम होता है। परंतु जो समान वर्ण की स्त्रियों से उत्पन्न हुए पुत्र हैं, उन सबके लिये बराबर भागों की कल्पना करनी चाहिये।
सप्तचत्वारिंश (47) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
महाभारत: अनुशासन पर्व: सप्तचत्वारिंश अध्याय: श्लोक 17-31 का हिन्दी अनुवाद
ब्राहामण से शूद्रा के गर्भ से जो पुत्र उत्पन्न होता है, उसे ब्राहामण नहीं मानते हैं; क्योंकि उसमें ब्राहामणों- चित निपुणता नहीं पायी जाती। शेष तीन वर्ण की स्त्रियों से ब्राहामण द्वारा जो पुत्र उत्पन्न होता है, वह ब्राहामण होता है। चार ही वर्ण बताये हैं, पॉंचवाँ वर्ण नहीं मिलता। शुद्रा का पुत्र ब्राहामण पिता के धन से उसका दसवाँ भाग ले सकता है। वह भी पिता के देने पर ही उसे लेना चाहिये, बिना दिये उसे लेने का कोई अधिकार नहीं है। भरतनन्दन! किंतु शूद्रा के पुत्र को भी धन का भाग अवश्य दे देना चाहिये। दया सबसे बड़ा धर्म है। यह समझकर उसे धन का भाग दिया जाता है। दया जहाँ भी उत्पन्न हो, वह गुणकारक ही होती है। भारत! ब्राहामण के अन्य वर्ण की स्त्रियों से पुत्र हो या न हो, वह शूद्रा के पुत्र को दसवें भाग से अधिक धन न दें। जब ब्राहामण के पास तीन वर्ष तक निर्वाह होने से अधिक धन एकत्र हो जाये तब वह धन से यज्ञ करे। धन का व्यर्थ संग्रह न करे। स्त्री को पति के धन से जो हिस्सा मिलता है, उसका उपभोग ही (उसके लिये) फल माना गया है। पति के द्वारा दिये हुए स्त्री धन से पुत्र आदि को कुछ नहीं लेना चाहिये। युधिष्ठिर! ब्राहामणी को पिता की ओर से जो धन मिला हो, उस धन को उसकी पुत्री ले सकती है; क्योंकि जैसा पुत्र है, वैसी ही पुत्री भी है। कुरुनन्दन! भरतकुलभूषण नरेश! पुत्री पुत्र के समान ही है-ऐसा शास्त्र का विधान है। इस प्रकार वही धन के विभाजन की धर्मयुक्त प्रणाली बतायी गयी है। इस तरह धर्म का चिन्तन एवं अनुस्मरण करते हुए ही धन का उपार्जन एवं संग्रह करें। परंतु उसे व्यर्थ न होने दें-यज्ञ-यागादि के द्वारा सफल कर लें। युधिष्ठिर ने पूछा-दादाजी! यदि ब्राहामण से शूद्रा में उत्पन्न हुए पुत्र को धन न देने योग्य बताया गया है तो किस विशेषता के कारण उसको पैतृक धन का दसवाँ भाग भी दिया जाता है? ब्राहामण से ब्राहामणी में उत्पन्न हुआ पुत्र ब्राहामण हो-इसमें कोई संशय ही नहीं, वैसे ही क्षत्रिया और वैश्या के गर्भ से उत्पन्न हुए पुत्र भी ब्राहामण ही होते हैं। नृपश्रेष्ठ! जब आपने ब्राहामण आदि तीनों वर्णों वाली स्त्रियों से उत्पन्न हुए पुत्रों को ब्राहामण ही बताया है, तब वे पैतृक धन का समान भाग क्यों नही पाते हैं? क्यों वे विषम भाग ग्रहण करें? भीष्म जी ने कहा-शत्रुओं को संताप देने वाले नरेश! लोक में सब स्त्रियों का ‘दारा’ इस एक नाम से ही परिचय दिया जाता है। इस तथाकथित नाम से ही चारों वर्णों की स्त्रियों से उत्पन्न हुए पुत्रों में महान अन्तर हो जाता है[१] ब्राहामण पहले अन्य तीनों वर्णों की स्त्रियों को ब्याह लाने के पश्चात भी यदि ब्राहामण कन्या से विवाह करे तो वही अन्य स्त्रियों की अपेक्षा ज्येष्ठ, अधिक आदर-सत्कार के योग्य तथा विशेष गौरव की अधिकारिणी होगी।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
*’दार’ शब्द की व्युत्पति इस प्रकार है-‘आद्रियन्ते त्रिवर्गार्थिभि: इति दारा’।धर्म, अर्थ और काम की इच्छा रखने वाले पुरुषों द्वारा आदर किया जाता है, वे दारा हैं, वे दारा हैं। जहाँ तक भोग विषयक आदर है,वह तो सभी स्त्रियों के साथ समान है, परंतु व्यवहारिक जगत में जो पति के द्वारा आदर प्राप्त होता है,वह वर्णक्रम से यथायोग्य न्यूनाधिक मात्रा में ही उपलब्ध होता है। यही बात उनके पुत्रों के सम्बन्ध में भी लागू होती है।इसीलिये उनके पुत्रों को पैतृक धन के विषय में कम और अधिक भाग ग्रहण करने का अधिकार है।
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