शुक्रवार, 25 अक्तूबर 2024

यदु और यज्ञवती-

📚: यदु शब्द की उत्पत्ति वैदिक कालीन है। लौकिक संस्कृत  में यदु शब्द मूलक यद् धातु प्राप्त नहीं होती है। इसी लिए संस्कृत भाषा के  कोशकारों और व्याकरण विदों ने यदु शब्द की व्युत्पत्ति यज्-धातु से निर्धारित करते हैं।  जिससे यदु शब्द  पुल्लिंग रूप में व्युत्पन्न होता है। 

जैसे  [संस्कृत भाषा में √यज् धातु (अर्थात् क्रिया का मूल +  उणादि  प्रत्यय (उ) को जोड़ने -पृषोदर प्रकरण के नियम से  "जस्य दत्वं"  अर्थात् "ज वर्ण का "द वर्ण में रूपान्तरण होने से  होती है।

पाणिनीय व्याकरण में  पृषोदरादीनि  एक पारिभाषिक शब्द है।
पृषोदरादीनि यथोपदिष्टम्' (६.३.१०८)  इस पाणिनीय सूत्र  से  यज्- धातु के अन्तिम वर्ण  "जकार को दकार" आदेश हो जाने से यदु शब्द बनता है। इसकी पुष्टि पाणिनीय व्याकरण से होती है।

यदु का अर्थ है  - यजन करने वाला।
यज् = देवपूजा,सङ्गतिकरण,दानेषु यज् धातु के तीन अर्थ प्रसिद्ध हैं।

यज् = १-यजन करना- २-न्याय (संगतिकरण) करना और ३-दान करना ।

विदित हो की यादवों के आदि पुरुष यदु में तीनों ही प्रवृत्तियों का मौलिक समावेश था। 
वे हिंसा से रहित वैष्णव यज्ञ भी करते थे । सबका यथोचित न्याय भी करते थे। और दान के क्षेत्र में वे निर्धन तथा भिक्षुओं को बहुत सी गायें भी दान करते थे। इन तीनों गुणकारी कार्यों से उनकी मेधा प्रखर थी । तभी तो भगवान श्रीकृष्ण-
भागवत पुराण के एकादश स्कन्ध के सप्तम अध्याय में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण उद्धव जी से  कहते हैं - 

               'श्रीभगवानुवाच।
यदुनैवं महाभागो ब्रह्मण्येन सुमेधसा।
पृष्टः सभाजितः प्राह प्रश्रयावनतं द्विजः ।३१।
अनुवाद:-
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—उद्धव! हमारे पूर्वज महाराज यदु की बुद्धि शुद्ध थी और उनके हृदय में ब्राह्मज्ञानीयों के प्रति-भक्ति थी। उन्होंने परमभाग्यवान् दत्तात्रेयजी का अत्यन्त सत्कार करके यह प्रश्न पूछा और बड़े विनम्रभाव से सिर झुकाकर वे उनके सामने खड़े हो गये थे।३१।

श्रीमद्भागवत पुराण स्कन्ध (11) अध्याय (7) श्लोक संख्या-(31)

ऋग्वेद की एक ऋचा में इनके दान कर्म के लिए इन्हें वैदिक सन्दर्भ के प्राचीनत्तम अर्थ में दास  कह कर भी यदु और तुर्वसु की ऋषि ने  स्तुति और प्रशंसा भी की है।
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उत दासा परिविषे स्मद्दिष्टी गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च मामहे ॥१०॥

" -भाष्य"
(स्मद्दिष्टी) =प्रशस्त कल्याण वा दर्शनौ दृष्टौ “स्मद्दिष्टीन्= प्रशस्तदर्शनान्” [ऋ० ६।६३।९] (गोपरीणसा)= गवां परीणसा बहुभावो यमो बहुगोमन्तौ  “परीणसा= बहुनाम” [निघ० ३।१] (दासा)= दातारौ “दासृ= दाने” [भ्वादि०] “दासं= दातारम्” [ऋ० ७।१९।२ ] 
(उत)= अपि तस्य =ज्ञानदातुः (परिविषे) =स्नान-सेवायै योग्यौ भवतः “विष सेचने सेवायाम् च ” [भ्वादि०] (यदुः-तुर्वः-च एतयो: नाम्नो: गोपभ्याम् (मामहे)= स्तुमहे। ॥१०॥

दासा शब्द द्विवचन में "यदु और "तुर्वसु के लिए आया है। और वैदिक निघण्टु में दास का अर्थ दानी, और रक्षक ( त्राता) है।

अत: इस शब्द का अर्थ भी निघण्टु को अधिगत करके ही करना चाहिए- न कि दास के आधुनिक सन्दर्भ में क्यों वैदिक काल में घृणा दया का वाचक थी तो आज घृणा का अर्थ नफरत है।
 उपर्युक्त ऋचा पर सम्यग्भाष्य- निम्नलिखित है।
( १-“उत = अत्यर्थेच  अपि च।
२-"स्मद्दिष्टी कल्याणादेशिनौ ।
३-“गोपरीणसा गोपरीणसौ गोभिः परिवृतौ बहुगवादियुक्तौ 
४-(“दासा =दासतः दानकुरुत: =जो दौनों दान करते हैं। 
पाणिनीय धातुपाठ में दास्=दान करना। अर्थ में है ।दास्= दाने सम्प्रदाने + अच् । दास:= दाता।अच्' प्रत्यय का 'अ' लगाकर कर्तृबोधक शब्द बनाये जाते हैं।

 महामहे का ही (वेैदिक रूप "मामहे" है।)
अत: दास शब्द भी वैदिक काल में दाता ( दानी ) के अर्थ नें चरितार्थ था।
परन्तु कई उतार चढ़ा वें के बाद यह  आज वैष्णव का वाचक हो गया ।
पद्मपुराण के भूमि खण्ड में दास वैष्णव का वाचक है।

            ' विष्णूवाच!
वरं वरय राजेन्द्र यत्ते मनसि वर्तते।
तत्ते ददाम्यसन्देहं मद्भक्तोसि महामते ।७९।

अनुवाद:- हे राजाओं के स्वामी ! वर माँगो जो तुम्हारे मन नें स्थित है।
वह सब तुमको दुँगा 
तुम मेरे भक्त हो!।७९।

              "राजोवाच
यदि त्वं देवदेवेश तुष्टोसि मधुसूदन ।
दासत्वं देहि सततमात्मनश्च जगत्पते।८०।
अनुवाद:-
राजा ने कहा ! हे देवों के स्वामी हे जगत के स्वामी! यदि तुम प्रसन्न हो तो मुझे अपना शाश्वत दासत्व( वैष्णव- भक्ति) दो। ८०।

            'विष्णुरुवाच-
एवमस्तु महाभाग मम भक्तो न संशयः ।
लोके मम महाराज स्थातव्यमनया सह ।८१।

अनुवाद:- विष्णु ने कहा 
! ऐसा ही हो !  तू मेरा भक्त है इसमें सन्देह नहीं!  अपनी पत्नी के साथ  तुम  मेरे लोक में  निवास करो !।८१।

एवमुक्तो महाराजो ययातिः पृथिवीपतिः।
प्रसादात्तस्य देवस्य विष्णुलोकं प्रसाधितम्।८२।
अनुवाद:-
इस प्रकार कहकर महाराज ययाति! पृथ्वी पति ने विष्णु भगवान की कृपा से विष्णु लोक को प्राप्त किया।८२।


निवसत्येष भूपालो वैष्णवं लोकमुत्तमम् ।८३

और इस प्रकार ययाति पत्नी सहित लोकों में उत्तम वैष्णव लोक में निवास करने लगे।८४।
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पद्मपुराण /खण्डः (२) (भूमिखण्डः)
अध्यायः(B3)

यदु की सन्तानों ने भी अपने पूर्वजों की परम्परा का पालन किया- यदु से यादव शब्द सन्तान वाचक अण्- प्रत्यय लगने पर बनता है।

"यदोरपत्यम् " इति यादव- अर्थात् यदु शब्द के अन्त में सन्तान वाचक संस्कृत अण्- प्रत्यय लगाने से यादव शब्द बनता है।
यदु + अण् । यादव:) जिसका अर्थ है यदु की सन्तानें अथवा वंशज- यादव लोग न्यायप्रिय, युद्धप्रिय और सबसे मेलजोल( संगतिकरण) करने वाले होते हैं।

वैदिक काल में यदुवंश में उत्पन्न राजा आसंग का प्रसंग उल्लेखनीय है।

अध प्लायोगिरति दासदन्यानासङ्गो अग्ने दशभिः सहस्रैः ।
अधोक्षणो दश मह्यं रुशन्तो नळा इव सरसो निरतिष्ठन् ॥३३॥ (ऋग्वेद-8/1/33)

पदपाठ-अध॑ । प्लायो॑गिः । अति॑ ।( दा॒स॒त् )। अ॒न्यान् । आ॒ऽस॒ङ्गः । अ॒ग्ने॒ । द॒शऽभिः॑ । स॒हस्रैः॑ ।अध॑ । उ॒क्षणः॑ । दश॑ । मह्य॑म् । रुश॑न्तः । न॒ळाःऽइ॑व । सर॑सः । निः । अ॒ति॒ष्ठ॒न् ॥३३। 
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(१-“अध =अपि च 
२"प्लायोगिः= प्रयोगनाम्नः पुत्रः “आसङ्गः नाम राजा 
३“दशभिः =दशगुणितैः “सहस्रैः सहस्रसंख्याकैर्गवादिभिः 
४“अन्यान् =दातॄन् “
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५-अति “दासत्= अतिक्रम्य ददाति । 
६-“अध= अनन्तरम् 
७-“उक्षणः = वृषभा: सेचनसमर्थाः “मह्यम् आसङ्गेन दत्ताः 
८-“रुशन्तः= दीप्यमानाः “दश दशगुणितसहस्रसंख्याकास्ते गवादयः “नळाइव । नळास्तटाकोद्भवास्तृणविशेषाः । ते यथा “सरसः तटाकात् {संघशो} निर्गच्छन्ति तथैव मह्यं दत्ता गवादयोऽस्मादासङ्गात् "निरतिष्ठन् निर्गत्यावास्थिषत । एवमेवंप्रकारेण मां स्तुहीति मेध्यातिथिं प्रत्युक्तत्वादेतासां चतसृणामृचां {प्रायोगिरासङ्ग ऋषिः स एव देवतेत्येतदुपपन्नं भवति} ॥
अनुवाद-
आसङ्ग यदुवंशी राजा सूक्त-दृष्टा मेधातिथि ऋषि को बहुत सारा धन देकर उन ऋषि को अपने द्वारा दिए गये दान के स्तुति करने के लिए प्रेरित करता है।
बहुव्रीहि समास-मेधा से युक्त हैं अतिथि जिनके वह मेधातिथि इस प्रकार-मेधातिथि ऋषि ।
आप हमारी ही प्रशंसा करो , प्रसन्न रहो उदासीनता मत करो।
 निश्चित रूप से हम सब परिवारी जन और प्रयोग नाम वाले राजा के पुत्र आसङ्ग राजा दश हजार गायों के दान द्वारा अन्य दानदाताओं का उल्लंघन कर गायों का दान करता है। 

दासा शब्द द्विवचन में "यदु और "तुर्वसु के लिए आया है। और वैदिक निघण्टु में दास का अर्थ दानी, और रक्षक ( त्राता)  होता है।

अत: इस शब्द का अर्थ भी निघण्टु को अधिगत करके ही करना चाहिए- नकि 'दास' के आधुनिक सन्दर्भ में ! क्यों वैदिक काल में घृणा शब्द  दया भाव का वाचक था तो आज घृणा का अर्थ नफ़रत है।
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यदु शब्द व्युत्पत्ति की दृष्टि से यदु शब्द हिब्रू भाषा में यथावत् मिलता है।

जो कि हिब्रू क्रिया ( ידה) = यदा ) से सम्बन्धित है । जिसका अर्थ है - प्रशंसा करना -स्तुति करना।

इसी यदा क्रिया से संबंधित नाम हैं।

•यादा ( यादा ) : अबीहुद , अबीहूद , अहिहूद , अम्मीहूद , बाले- यहूदा , एहूद , एलियुद , होद , होदवियाह ,  होदिय्याह , ईशहोद , जद्दै , यदायाह , यदूतून , येहूदी , यहूदी , यहूदा , यहूदा , यहूदा , यहूदिया , जूडिथ आदि 

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(भारतीय पुराणों में यदु का अर्थ) )
यदु और यज्ञवती का विष्णु और दक्षिणा के अंश से उत्पन्न होना का प्रकरण"

(भगवती दक्षिणा का विवाह यज्ञ-पुरुष के साथ-)

"श्रीनारायण बोले- हे नारद! मैंने भगवती स्वाहा तथा स्वधाका अत्यन्त मधुर तथा कल्याणकारी उपाख्यान बता दिया। अब मैं भगवती दक्षिणाका आख्यान कह रहा हूँ, सावधान होकर सुनिये ॥1॥

प्राचीनकालमें गोलोक में भगवान् श्रीकृष्ण की प्रेयसी सुशीला नामक एक गोपी थी। परम धन्य, मान्य तथा मनोहर वह गोपी भगवती राधा की प्रधान सखी थी। वह अत्यन्त सुन्दर, लक्ष्मी के लक्षणों से सम्पन्न, सौभाग्यवती, उज्ज्वल दाँतोंवाली, परम पतिव्रता साध्वी, विद्या गुण तथा रूपसे अत्यधिक सम्पन्न थी।

वह विविध कलाओं में निपुण, कोमल अंगोंवाली, आकर्षक, कमलनयनी, श्यामा, सुन्दर नितम्ब तथा वक्षःस्थल से सुशोभित होती हुई वट वृक्षों से घिरी रहती थी।

उसका मुखमण्डल मन्द मुसकान तथा प्रसन्नता से युक्त था, वह रत्नमय अलंकारों से सुशोभित थी, उसके शरीर की कान्ति श्वेत चम्पा के समान थी, उसके ओष्ठ बिम्बाफल के समान रक्तवर्णके थे, मृगके सदृश उसके नेत्र थे, कामिनी तथा हंसके समान गतिवाली वह कामशास्त्र में निपुण थी।

भगवान् श्रीकृष्ण की प्रियभामिनी वह सुशीला उनके भावोंको भलीभाँति जानती थी।

तथा उनके भावों से सदा अनुरक्त रहती थी। रसज्ञान से परिपूर्ण, रासक्रीडा की रसिक तथा रासेश्वर श्रीकृष्णके प्रेमरस हेतु लालायित रहनेवाली वह गोपी सुशीला एक बार राधा के सामने ही भगवान् श्रीकृष्णके वाम अंक में बैठ गयी ॥ 2-7॥

तब मधुसूदन श्रीकृष्णने गोपिकाओं में परम श्रेष्ठ राधा की ओर देखकर भयभीत हो अपना मुख नीचे कर लिया।

उस समय कामिनी राधा का मुख लाल हो गया और उनके नेत्र रक्तकमल के समान हो गये। क्रोध से उनके अंग काँप रहे थे तथा ओठ प्रस्फुरित हो रहे थे।

तब उन राधा को बड़े वेग से जाती देखकर उनके विरोध से अत्यन्त डरे हुए भगवान् श्रीकृष्ण अन्तर्धान हो गये ॥ 8-10 ॥

कान्तिमान् शान्त स्वभाववाले, सत्त्वगुणसम्पन्न | तथा सुन्दर विग्रहवाले भगवान् श्रीकृष्ण को अन्तर्हित हुआ देखकर सुशीला आदि गोपियाँ भयसे काँपने लगीं।

श्रीकृष्ण को अन्तर्धान हुआ देखकर वे भयभीत लाखों-करोड़ों गोपियाँ भक्तिपूर्वक कन्धा झुकाकर और दोनों हाथ जोड़कर 'रक्षा कीजिये- रक्षा कीजिये' ऐसा भगवती राधासे बार-बार कहने लगीं और उन राधा के चरणकमलमें भयपूर्वक शरणागत हो गर्यो।

हे नारद ! वहाँके तीन लाख करोड़ सुदामा आदि गोप भी भयभीत होकर उन राधाके चरण कमलकी शरण में गये ॥ 11 - 14 ॥

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परमेश्वरी राधा ने अपने कान्त श्रीकृष्ण को अन्तर्धान तथा सहचरी सुशीलाको पलायन करते देखकर उन्हें शाप दे दिया कि यदि गोपिका सुशीला आज से गोलोक में आयेगी, तो वह आते ही भस्मसात् हो जायगी ।। 15-16

ऐसा कहकर श्रीराधा भक्तिपूर्वक श्रीकृष्णका ध्यान करने लगीं। विरहसे दुःखित तथा दीन वे राधिका प्रेमके कारण रो रही थीं और 'हे नाथ ! हे रमण ! मुझे दर्शन दीजिये'- ऐसा कह रही थीं ॥ 34॥

हे मुने ! इसके बाद राधा के द्वारा गोलोक से भूलोक पर शापित सुशीला नामक वह गोपी दक्षिणा नाम से प्रसिद्ध हुई।

दीर्घकाल तक उस दक्षिणा ने तपस्या करके भगवती लक्ष्मी के शरीर में स्थान प्राप्त कर लिया। अत्यन्त दुष्कर यज्ञ करने पर भी जब देवताओं को यज्ञफल नहीं प्राप्त हुआ, तब वे उदास होकर ब्रह्माजी के पास गये ॥ 35-36 ॥

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देवताओं की प्रार्थना सुनकर ब्रह्माजी ने बहुत समयतक भक्तिपूर्वक जगत्पति भगवान् श्रीहरिका ध्यान किया। अन्त में उन्हें प्रत्यादेश प्राप्त हुआ।

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भगवान नारायण ने महालक्ष्मी के विग्रह से मर्त्यलक्ष्मीको प्रकट करके और उसका नाम दक्षिणा रखकर ब्रह्माजी को सौंप दिया। ब्रह्माजी ने भी यज्ञकार्यों की सम्पन्नता के लिये उन देवी दक्षिणा को यज्ञपुरुष हरि को पुन: समर्पित कर दिया।

तब यज्ञपुरुष ने प्रसन्नतापूर्वक उन देवी दक्षिणा की विधिवत् पूजा करके उनकी स्तुति की ।37-39॥

उन भगवती दक्षिणा का वर्ण तपाये हुए सोने के समान था; उनके विग्रह की कान्ति करोड़ों चन्द्रोंके तुल्य थी; वे अत्यन्त कमनीय, सुन्दर तथा मनोहर थीं; उनका मुख कमल के समान था; उनके अंग अत्यन्त कोमल थे; कमल के समान उनके विशाल नेत्र थे कमल के आसनपर पूजित होनेवाली वे भगवती कमला के शरीर से प्रकट हुई थीं, उन्होंने अग्निके समान शुद्ध वस्त्र धारण कर रखे थे; उन साध्वी के ओष्ठ बिम्बाफल के समान थे; उनके दाँत अत्यन्त सुन्दर थे; उन्होंने अपने

केशपाश में मालती के पुष्पों की माला धारण कर रखी थी; उनके प्रसन्नतायुक्त मुखमण्डल पर मन्द मुसकान व्याप्त थी; वे रत्नमय आभूषणों से अलंकृत थीं; उनका वेष अत्यन्त सुन्दर था वे विधिवत् स्नान किये हुए थीं वे मुनियों के भी मन को मोह लेती थीं कस्तूरीमिश्रित सुगन्धित चन्दन से बिन्दी के रूप में अर्धचन्द्राकार तिलक उनके ललाट पर सुशोभित हो रहा था;

केशों के नीचे का भाग (सीमन्त) सिन्दूर की छोटी-छोटी बिन्दियों से अत्यन्त प्रकाशमान था। सुन्दर नितम्ब, बृहत् श्रोणी तथा विशाल वक्षःस्थल से वे शोभित हो रही थीं; उनका विग्रह कामदेव का आधार-स्वरूप था और वे कामदेव के बाण से अत्यन्त व्यथित थीं ऐसी उन रमणीया दक्षिणा को देखकर यज्ञपुरुष मूर्च्छित हो गये।

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पुनः ब्रह्माजीके कथनानुसार उन्होंने भगवती दक्षिणा को पत्नीरूप में स्वीकार कर लिया ॥ 40-46 ॥

तत्पश्चात् यज्ञपुरुष उन रमेश ने रमारूपिणी भगवती दक्षिणा को निर्जन स्थान में ले जाकर उनके साथ दिव्य सौ वर्षों तक आनन्दपूर्वक रमण किया।

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अतीव गोपनीयं यदुपयुक्तं च सर्वतः ।अप्रकाश्यं पुराणेषु वेदोक्तं धर्मसंयुतम् ॥४॥

              "श्रीनारायण उवाच

नानाप्रकारमाख्यानमप्रकाश्यं पुराणतः ।श्रुतं कतिविधं गूढमास्ते ब्रह्मन् सुदुर्लभम्॥५॥

जो रहस्यमय, अत्यन्त गोपनीय, सबके लिये उपयोगी, पुराणों में अप्रकाशित, धर्मयुक्त तथा वेद प्रतिपादित हो ।2-4।

श्रीनारायण बोले- हे ब्रह्मन् ! ऐसे साहित्य-विध आख्यान हैं, जो पुराणों में वर्णित नहीं हैं। कई प्रकार के आख्यान सुने भी गये हैं, जो अत्यन्त दुर्लभ तथा गूढ़ हैं।

सन्दर्भ:- श्रीमद्देवी भागवत महापुराण- -9/43/4-5

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यदु यादवों के पूर्वज थे जिनका ऋग्वेद के दशम मण्डल में गोप रूप में वर्णन प्राप्त होता है। यदु विष्णु के यज्ञ पुरूष रूप का अंश थे। यदु शब्द का ही वैदिक अर्थ होता - यजनशील-अथवा यज्ञ करने वाला- ऋग्वेद में यदु को गायों से घिरा हुआ गोप रूप में निम्न ऋचा में देखें-

"उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी ।" गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।। (ऋग्वेद १०/६२/१०) अर्थात् यदु और तुर्वसु नामक दास( दाता) हैं जो गायों से घिरे हुए हैं हम उन सौभाग्य शाली दाताओं की प्रशंसा करते हैं । यहाँ पर गोप शब्द स्पष्टत: है; गो-पालक ही गोप होते हैं

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लक्ष्मी नारायणी संहिता में भी पद्मपुराण के समान ययाति की तृतीय पत्नी अश्रुबिन्दुमती को बिन्दुमती कह कर वर्णन किया गया है।

श्रुत्वा राजा शशापैनं राज्यहीनः सवंशजः।तेजोहीनः क्षत्रधर्मवर्जितः पशुपालकः ।७५।

"अनुवाद:-यह सुनकर राजा ने उसे श्राप दे दिया और उसने अपने वंशजो सहित राज्य को छोड़ दिया वह यदु राजकीय तेज से हीन और राजकीय क्षत्र धर्म से रहित पशुपालन से जीवन निर्वाह करने लगा।७५।

भविष्यसि न सन्देहो याहि राज्याद् बहिर्मम।इत्युक्त्वा च पुरुं प्राह शर्मिष्ठाबालकं  नृपः।७६।
"अनुवाद:-तुम्हारे वंशज कभी राजतन्त्र की प्रणाली से राजा नहीं होंगे इसमें सन्देह नहीं हेै यदु ! मेरे राज्य से बाहर चले जाओ। इस प्रकार कहकर और राजा ने फिर पुरू से कहा शर्मिष्ठा के बालक पुरु तुम राजा बनोगे।७६।

  "लक्ष्मीनारायणसंहिता/खण्डः ३ (द्वापरयुगसन्तानः अध्याय 73-)

यदु से पूर्व भी उनके आदि पूर्वज पुरूरवा से लेकर आयुष ,नहुष और ययाति भी सफल गोपालक ही थे । परन्तु यदु ने उस प्राचीन गोपालन की परम्परा को पूर्ण निष्ठा और समर्पण के साथ निर्वहन किया।

यदु प्रारम्भ से स्वराट्- विष्णु का यजन करने वाले थे। ये परम वैष्णव थे।

यदु शब्द का व्याकरण परक अर्थ- यज्ञ करने वाला होता है।

यदु की पत्नी यज्ञवती थी जो गोलोक में जो  दक्षिणा और सुशीला नाम से प्रसिद्ध थीं। वही अपने अंश से भूलोक पर यज्ञवती हुई। कालान्तर में यदु से यज्ञवती के सहस्रजित , क्रोष्ठा ,नल ,और रिपु आदि पुत्र हुए ।

📚: "यादवों के पूर्वज यदु यज्ञतत्व के पूर्ण ज्ञाता थे। इसी लिए लोक में उन्हें यदु भी कहा गया। यदु वैष्णव यज्ञों के प्रवर्तक थे। इसके विपरीत जो देवयज्ञ होते थे वे पशु हिंसा से सने हुए और भौतिक कामनाओं की पूर्ति के लिए इन्द्र आदि देवों के निमित्त किये जाते थे।
[10/26, 6:17 AM] yogeshrohi📚: अध प्लायोगिरति दासदन्यानासङ्गो अग्ने दशभिः सहस्रैः ।
अधोक्षणो दश मह्यं रुशन्तो नळा इव सरसो निरतिष्ठन् ॥३३॥ (ऋग्वेद-8/1/33)

पदपाठ-अध॑ । प्लायो॑गिः । अति॑ ।( दा॒स॒त् )। अ॒न्यान् । आ॒ऽस॒ङ्गः । अ॒ग्ने॒ । द॒शऽभिः॑ । स॒हस्रैः॑ ।अध॑ । उ॒क्षणः॑ । दश॑ । मह्य॑म् । रुश॑न्तः । न॒ळाःऽइ॑व । सर॑सः । निः । अ॒ति॒ष्ठ॒न् ॥३३। 
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(१-“अध =अपि च 
२"प्लायोगिः= प्रयोगनाम्नः पुत्रः “आसङ्गः नाम राजा 
३“दशभिः =दशगुणितैः “सहस्रैः सहस्रसंख्याकैर्गवादिभिः 
४“अन्यान् =दातॄन् “
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५-अति “दासत्= अतिक्रम्य ददाति । 
६-“अध= अनन्तरम् 
७-“उक्षणः = वृषभा: सेचनसमर्थाः “मह्यम् आसङ्गेन दत्ताः 
८-“रुशन्तः= दीप्यमानाः “दश दशगुणितसहस्रसंख्याकास्ते गवादयः “नळाइव । नळास्तटाकोद्भवास्तृणविशेषाः । ते यथा “सरसः तटाकात् {संघशो} निर्गच्छन्ति तथैव मह्यं दत्ता गवादयोऽस्मादासङ्गात् "निरतिष्ठन् निर्गत्यावास्थिषत । एवमेवंप्रकारेण मां स्तुहीति मेध्यातिथिं प्रत्युक्तत्वादेतासां चतसृणामृचां {प्रायोगिरासङ्ग ऋषिः स एव देवतेत्येतदुपपन्नं भवति} ॥

अनुवाद-
आसङ्ग यदुवंशी राजा सूक्त-दृष्टा मेधातिथि ऋषि को बहुत सारा धन देकर उन ऋषि को अपने द्वारा दिए गये दान के स्तुति करने के लिए प्रेरित करते है।

मेधातिथि शब्द बहुव्रीहि समास-मेधा से युक्त हैं अतिथि जिनके वह व्यक्ति ही मेधातिथि है  इस प्रकार के एक-मेधातिथि ऋषि ।

आप हमारी ही प्रशंसा करो , प्रसन्न रहो उदासीनता मत करो।
 निश्चित रूप से हम सब परिवारी जन और प्रयोग नाम वाले राजा के पुत्र आसङ्ग यदुवंश के राजा  दश हजार गायों के दान द्वारा अन्य दानदाताओं का उल्लंघन कर गायों का दान करता है। 



दासा शब्द द्विवचन में "यदु और "तुर्वसु के लिए भी आया है। और वैदिक निघण्टु में दास का अर्थ दानी, और रक्षक ( त्राता)  होता है।

अत: इस शब्द का अर्थ भी निघण्टु को अधिगत करके ही करना चाहिए- नकि 'दास' के आधुनिक सन्दर्भ में ! क्यों वैदिक काल में घृणा शब्द  दया भाव का वाचक था तो आज घृणा का अर्थ नफ़रत है।


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यदु शब्द व्युत्पत्ति की दृष्टि से यदु शब्द हिब्रू भाषा में यथावत् मिलता है।

जो कि हिब्रू क्रिया ( ידה) = यदा ) से सम्बन्धित है । जिसका अर्थ है - प्रशंसा करना -स्तुति करना।

इसी यदा क्रिया से संबंधित नाम हिब्रू भाषा में निम्नलिखित हैं।

•यादा ( यादा ) : अबीहुद , अबीहूद , अहिहूद , अम्मीहूद , बाले- यहूदा , एहूद , एलियुद , होद , होदवियाह ,  होदिय्याह , ईशहोद , जद्दै , यदायाह , यदूतून , येहूदी , यहूदी , यहूदा , यहूदा , यहूदा , यहूदिया , जूडिथ , आदि -

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(भारतीय पुराणों में यदु का अर्थ- यज्ञ तत्व को जानने वाले से है।)

यदु और यज्ञवती का विष्णु और दक्षिणा के अंश से उत्पन्न होना का प्रकरण" पौराणिक है।

(भगवती दक्षिणा का विवाह यज्ञ-पुरुष के साथ- होता है।)

"श्रीनारायण बोले- हे नारद! मैंने भगवती स्वाहा तथा स्वधाका अत्यन्त मधुर तथा कल्याणकारी उपाख्यान बता दिया। अब मैं भगवती दक्षिणाका आख्यान कह रहा हूँ, सावधान होकर सुनिये ॥1॥

प्राचीनकालमें गोलोक में भगवान् श्रीकृष्ण की प्रेयसी सुशीला नामक एक गोपी थी। परम धन्य, मान्य तथा मनोहर वह गोपी भगवती राधा की प्रधान सखी थी। वह अत्यन्त सुन्दर, लक्ष्मी के लक्षणों से सम्पन्न, सौभाग्यवती, उज्ज्वल दाँतोंवाली, परम पतिव्रता साध्वी, विद्या गुण तथा रूपसे अत्यधिक सम्पन्न थी।

वह विविध कलाओं में निपुण, कोमल अंगोंवाली, आकर्षक, कमलनयनी, श्यामा, सुन्दर नितम्ब तथा वक्षःस्थल से सुशोभित होती हुई वट वृक्षों से घिरी रहती थी।

उसका मुखमण्डल मन्द मुसकान तथा प्रसन्नता से युक्त था, वह रत्नमय अलंकारों से सुशोभित थी, उसके शरीर की कान्ति श्वेत चम्पा के समान थी, उसके ओष्ठ बिम्बाफल के समान रक्तवर्णके थे, मृगके सदृश उसके नेत्र थे, कामिनी तथा हंसके समान गतिवाली वह कामशास्त्र में निपुण थी।

भगवान् श्रीकृष्ण की प्रियभामिनी वह सुशीला उनके भावोंको भलीभाँति जानती थी।

तथा उनके भावों से सदा अनुरक्त रहती थी। रसज्ञान से परिपूर्ण, रासक्रीडा की रसिक तथा रासेश्वर श्रीकृष्णके प्रेमरस हेतु लालायित रहनेवाली वह गोपी सुशीला एक बार राधा के सामने ही भगवान् श्रीकृष्णके वाम अंक में बैठ गयी ॥ 2-7॥

तब मधुसूदन श्रीकृष्णने गोपिकाओं में परम श्रेष्ठ राधा की ओर देखकर भयभीत हो अपना मुख नीचे कर लिया।

उस समय कामिनी राधा का मुख लाल हो गया और उनके नेत्र रक्तकमल के समान हो गये। क्रोध से उनके अंग काँप रहे थे तथा ओठ प्रस्फुरित हो रहे थे।

तब उन राधा को बड़े वेग से जाती देखकर उनके विरोध से अत्यन्त डरे हुए भगवान् श्रीकृष्ण अन्तर्धान हो गये ॥ 8-10 ॥

कान्तिमान् शान्त स्वभाववाले, सत्त्वगुणसम्पन्न | तथा सुन्दर विग्रहवाले भगवान् श्रीकृष्ण को अन्तर्हित हुआ देखकर सुशीला आदि गोपियाँ भयसे काँपने लगीं।
[10/26, 6:57 AM] yogeshrohi📚: श्रीकृष्ण को अन्तर्धान हुआ देखकर वे भयभीत लाखों-करोड़ों गोपियाँ भक्तिपूर्वक कन्धा झुकाकर और दोनों हाथ जोड़कर 'रक्षा कीजिये- रक्षा कीजिये' ऐसा भगवती राधा से बार-बार कहने लगीं और उन राधा के चरण-कमल में भयपूर्वक शरणागत हो गर्यो।

हे नारद ! वहाँ के तीन लाख करोड़ सुदामा आदि गोप भी भयभीत होकर उन राधाके चरण कमल की शरण में गये ॥ 11 - 14 ॥

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परमेश्वरी राधा ने अपने कान्त श्रीकृष्ण को अन्तर्धान तथा सहचरी सुशीला को पलायन करते देखकर उन्हें शाप दे दिया कि यदि गोपिका सुशीला आज से गोलोक में आयेगी, तो वह आते ही भस्मसात् हो जायगी ।। 15-16।।


ऐसा कहकर श्रीराधा भक्तिपूर्वक श्रीकृष्णका ध्यान करने लगीं। विरहसे दुःखित तथा दीन वे राधिका प्रेम के कारण रो रही थीं और 'हे नाथ ! हे रमण ! मुझे दर्शन दीजिये'- ऐसा कह रही थीं ॥ 34॥

हे मुने ! इसके बाद राधा के द्वारा गोलोक से भूलोक पर शापित सुशीला नामक वह गोपी दक्षिणा नाम से प्रसिद्ध हुई।

दीर्घकाल तक उस दक्षिणा ने तपस्या करके भगवती लक्ष्मी के शरीर में स्थान प्राप्त कर लिया। अत्यन्त दुष्कर यज्ञ करने पर भी जब देवताओं को यज्ञफल नहीं प्राप्त हुआ, तब वे उदास होकर ब्रह्माजी के पास गये ॥ 35-36 ॥

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देवताओं की प्रार्थना सुनकर ब्रह्माजी ने बहुत समय तक भक्तिपूर्वक जगत्पति भगवान् श्रीहरि का ध्यान किया। अन्त में उन्हें प्रत्यादेश प्राप्त हुआ।

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भगवान नारायण ने महालक्ष्मी के विग्रह से मर्त्यलक्ष्मी को प्रकट करके और उसका नाम दक्षिणा रखकर ब्रह्माजी को सौंप दिया।
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 ब्रह्माजी ने भी यज्ञकार्यों की सम्पन्नता के लिये उन देवी दक्षिणा को यज्ञपुरुष हरि को पुन: समर्पित कर दिया।

तब यज्ञपुरुष ने प्रसन्नतापूर्वक उन देवी दक्षिणा की विधिवत् पूजा करके उनकी स्तुति की ।37-39॥

उन भगवती दक्षिणा का वर्ण तपाये हुए सोने के समान था; उनके विग्रह की कान्ति करोड़ों चन्द्रोंके तुल्य थी; वे अत्यन्त कमनीय, सुन्दर तथा मनोहर थीं; उनका मुख कमल के समान था; उनके अंग अत्यन्त कोमल थे; कमल के समान उनके विशाल नेत्र थे कमल के आसनपर पूजित होनेवाली वे भगवती कमला के शरीर से प्रकट हुई थीं, उन्होंने अग्निके समान शुद्ध वस्त्र धारण कर रखे थे; उन साध्वी के ओष्ठ बिम्बाफल के समान थे; उनके दाँत अत्यन्त सुन्दर थे; उन्होंने अपने

केशपाश में मालती के पुष्पों की माला धारण कर रखी थी; उनके प्रसन्नतायुक्त मुखमण्डल पर मन्द मुसकान व्याप्त थी; वे रत्नमय आभूषणों से अलंकृत थीं; उनका वेष अत्यन्त सुन्दर था वे विधिवत् स्नान किये हुए थीं वे मुनियों के भी मन को मोह लेती थीं कस्तूरीमिश्रित सुगन्धित चन्दन से बिन्दी के रूप में अर्धचन्द्राकार तिलक उनके ललाट पर सुशोभित हो रहा था;

केशों के नीचे का भाग (सीमन्त) सिन्दूर की छोटी-छोटी बिन्दियों से अत्यन्त प्रकाशमान था। सुन्दर नितम्ब, बृहत् श्रोणी तथा विशाल वक्षःस्थल से वे शोभित हो रही थीं; उनका विग्रह कामदेव का आधार-स्वरूप था और वे कामदेव के बाण से अत्यन्त व्यथित थीं ऐसी उन रमणीया दक्षिणा को देखकर यज्ञपुरुष मूर्च्छित हो गये।

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पुनः ब्रह्माजीके कथनानुसार उन्होंने भगवती दक्षिणा को पत्नीरूप में स्वीकार कर लिया ॥40-46 ॥

तत्पश्चात् यज्ञपुरुष उन रमेश ने रमारूपिणी भगवती दक्षिणा को निर्जन स्थान में ले जाकर उनके साथ दिव्य सौ वर्षों तक आनन्दपूर्वक विहार किया।

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अतीव गोपनीयं यदुपयुक्तं च सर्वतः ।अप्रकाश्यं पुराणेषु वेदोक्तं धर्मसंयुतम् ॥४॥

              "श्रीनारायण उवाच

नानाप्रकारमाख्यानमप्रकाश्यं पुराणतः ।श्रुतं कतिविधं गूढमास्ते ब्रह्मन् सुदुर्लभम्॥५॥

जो रहस्यमय, अत्यन्त गोपनीय, सबके लिये उपयोगी, पुराणों में अप्रकाशित, धर्मयुक्त तथा वेद प्रतिपादित हो ।2-4।

श्रीनारायण बोले- हे ब्रह्मन् ! ऐसे साहित्य-विध आख्यान हैं, जो पुराणों में वर्णित नहीं हैं। कई प्रकार के आख्यान सुने भी गये हैं, जो अत्यन्त दुर्लभ तथा गूढ़ हैं।

सन्दर्भ:- श्रीमद्देवी भागवत महापुराण- -9/43/4-5

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यदु यादवों के पूर्वज थे जिनका ऋग्वेद के दशम मण्डल में गोप रूप में वर्णन प्राप्त होता है।

यही यदु विष्णु के यज्ञ पुरूष रूप का अंश थे। यदु शब्द का ही वैदिक अर्थ होता - यजनशील-अथवा यज्ञ करने वाला- ऋग्वेद में यदु को गायों से घिरा हुआ गोप रूप में निम्न ऋचा में देखें-

"उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी ।" गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।। (ऋग्वेद १०/६२/१०) अर्थात् यदु और तुर्वसु नामक दास( दाता) हैं जो गायों से घिरे हुए हैं हम उन सौभाग्य शाली दाताओं की प्रशंसा करते हैं । यहाँ पर गोप शब्द स्पष्टत: है; गो-पालक ही गोप होते हैं

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"यदुः प्राह न शक्नोमि दातुं ते यौवनं नृप ।
जराया हेतवः पञ्च चिन्ता वृद्धस्त्रियस्तथा ।।७३।।

कदन्नं नित्यमध्वा च शीतजाठरपीडनम् ।
सा जरा रोचते मे न भोगकालो ह्ययं मम ।।७४।।

श्रुत्वा राजा शशापैनं राज्यहीनः सवंशजः ।
तेजोहीनः क्षत्रधर्मवर्जितः पशुपालकः ।।७५।।

यदु पशुपालन करने वाले राजा थे ।यह बात लक्ष्मी नारायणीय संहिता के उपर्युक्त श्लोकों से भी स्पष्ट होती है।

लक्ष्मीनारायणसंहिता - (द्वापरयुगसन्तानः)
अध्यायः(73)

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