सोमवार, 1 अक्टूबर 2018

रोमन देवता जैनस -भाग ( 1)

यजुर्वेद में गणेश का वर्णन ऋग्वेद के सादृश्य पर
गणपति रूप में  प्राप्त होता है । देखें👇

ओ३म् गणानांत्वां गणपतिगूँ हवामहे प्रियाणां त्वा प्रियपति गूँ हवामहे !
निधीनां त्वा निधिपति गूँ हवामहे वसो मम। आहमजानि गर्भधमात्वमजासि गर्भधम्।।”

उपर्युक्त ऋचा यजुर्वेद (23/19) में  है।
यहाँ देव गणेश वर्णित हैं।
यद्यपि आर्य समाजीयों ने वेदों की व्याख्या योगमूलक अर्थ में की परन्तु पुरातत्व एवम् पौराणिक परम्पराओं के अनुयायी रूढ अर्थ में करते हैं ।
परन्तु हम्हें व्याख्या की दौनों पद्धति से अनुमोदित योग-रूढ़ पद्धति का प्रयोग कर  वेद मीमांसा करनी चाहिए

प्रथम मंडल के 16 से 25 सूक्तों का समावेश किया हैं। इन सूक्तो  की अनेक ऋचाओं में में विष्णु का भी स्तुति मिली। जो कि सुमेरियन देवता

संख्या 82 वीं इंडो-सुमेरियन मुद्रा(सील )में प्राचीन सुमेरियन और हिट्टो -फॉनिशियन पवित्र मुद्राओं पर उत्कीर्ण है जो ( और प्राचीन ब्रिटान स्मारकों पर हस्ताक्षर किए गए हैं । जिनमें से मौहर संख्या (1) में से परिणाम घोषित किए गया हैं । कि
अब इन इंडो-सुमेरियन सीलों  के प्रमाण के आधार पर पुष्टि की गई है कि इस सुमेरियन "मछली देव" पर सूर्य-देवता का आरोपण है । और अन्य ताबीज मुद्राओं के लिए शीर्षक, "स्थापित सूर्य (सु-ख़ाह) की मछली" के रूप में इंडो-आर्यों की सुमेरियन मूल की स्थापना के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण साम्य है ।
और सुमेरियन भाषा के आर्यन चरित्र के रूप में, यह सूर्य-देवता "विष्णु" के लिए वैदिक नाम की उत्पत्ति और अब तक अज्ञात मछली अर्थ के रूप में प्रकट करता है और मछली-आदमी के रूप में उनकी प्रतिनिधि की समान साथ ही अंग्रेजी शब्द "फिश" के सुमेरियन मूल, गॉथिक "फिसक" और लैटिन "पिसिस।"
भारतीय पौराणिक कथाओं में सूर्य-देव विष्णु का पहला "अवतार" मत्स्य नर के रूप में दर्शाया गया है।
, और अत्यधिक सीमा तक उसी तरह के रूप में सुमेरियन मछली-व्यक्ति के रूप में सूर्य का देवता के रूप में चित्रण सुमेरियन मुद्राओं पर अब मेसोपोटामिया के सुमेरियन मुद्राओं पर उत्कीर्ण है।
और सूर्य के लिए "मछली" के इस सुमेरियन शीर्षक को द्विभाषी सुमेरो-अक्कादियन शब्दावलियों में वास्तविक शब्द और अर्थ इस प्रकार के अन्य इंडो-सुमेरियन ताबीज पर व्याख्यायित है।
"मत्स्य मानव "पंखधारी मछली मानव " आदि अर्थों के रूप पढ़ते हैं।
इस प्रकार पंखों या बढ़ते सूर्य को "पृथ्वी के नीचे के पानी में" लौटने या पुनर्जीवित करने वाले सूरज के मछली के संलयन के साथ सह-संबंधित कथाओं का सृजन सुमेरियन संस्कृति में हो गया था ।।
"द विंगेड फिश" के इस सौर शीर्षक को ,(biis )बिस को  फिश" का समानार्थ दिया गया है। सूर्य और विष्णु भारतीय मिथकों में समानार्थक अथवा पर्याय वाची रहे हैं।
("विष्-नु )" में प्रत्यय शब्द नूह स्पष्ट रूप से सूर्य-देवता के जलीय रूप और उनके पिता-देवता  (इ-न-दु-रु ) (इन्द्र) के "देवता  के रूप में सुमेरियन आदिम सत्ता का शीर्षक है।
यह इस प्रकार विष्णु के सामान्य भारतीय प्रतिनिधित्व को जल के बीच दीप के नाम पर पुन: और यह भी लगता है कि "दीप के देवता" के लिए प्राचीन मिस्र के नाम आत्म के सुमेरियन मूल का खुलासा किया गया है।
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इस प्रकार "विष्णु" नाम सुमेरियन पिस्क-नु के बराबर माना जाता है।
और " जल की बड़ी फिश ( मत्स्य) को रीलिंग करना; और यह निश्चित रूप से सुमेरियन में उस पूर्ण रूप में पाए जाने पर खोजा जाएगा।
और ऐसा प्रतीत होता है कि "अवतार" के लिए विष्णु के इस बड़ी "मछली" का उपदेश भारतीय ब्राह्मणों ने अपने बाद के "अवतारों" में भी सूर्य-देवता को स्वर्ग में सूर्य-देवता के रूप में लागू किया है।
। वास्तव में "महान मछली" के लिए सुमेरियन मूल पीश या पीस अभी भी संस्कृत में एफ्स-ऐरा "मछली" के रूप में जीवित है।
जो वैदिक विसार से साम्य
"यह नाम इस प्रकार कई उदाहरणों में से एक है जिसे मैं  दीप, पीश, पीश या पीस (वाश-नु) के जल के सुमेरियन सूर्य-देवता का यह़ तादात्म्य मयी रूप है ।
MISHARU - The Sumerian god of law and justice, brother of Kittu.
भारतीय पुराणों में मधु और कैटव
मत्स्यः से लिए वैदिक सन्दर्भों में एक शब्द पिसर
भारोपीयमूल की धातु से प्रोटो-जर्मनिक  फिस्कज़ (पुरानी सैक्सोन, पुरानी फ्रिसिज़, पुरानी उच्च जर्मन फ़िश, पुरानी नोर्स फिस्कर,
मध्य डच विस्सी, डच, जर्मनी, फ़िश्च, गॉथिक फिसक का स्रोत) से पुरानी अंग्रेजी मछलियाँ "मछली" pisk- "एक मछली। स् सादृश्य दर्शनीय है
pisk-
Proto-Indo-European root meaning
"a fish."

It forms all or part of: fish; fishnet; grampus; piscatory; Pisces; piscine; porpoise.
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It is the hypothetical source of/evidence for its existence is provided by: Latin piscis (source of Italian pesce, French poisson, Spanish pez, Welsh pysgodyn, Breton pesk); Old Irish iasc; Old English fisc, Old Norse fiskr, Gothic fisks.

Latin piscis,
Irish íasc/iasc,
Gothic fisks,
Old Norse fiskr,
English fisc/fish,
German fisc/Fisch,
Russian пескарь (peskarʹ),
Polish piskorz,
Welsh pysgodyn,
Sankrit visar
Albanian peshk
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This important reference is researched by Yadav Yogesh Kumar 'Rohi'. Thus, no gentleman should not add to its break !

Pisk-पिष्क  आद्य-यूरोपीय मूल रूप जिसका अर्थ है "एक मछली।" पिष्क शब्द व्यापक अर्थों में रूढ़ है ।
लैटिन पिसीस (इतालवी पेस, फ्रेंच पॉिसन का स्रोत, स्पैनिश पेज़, वेल्श पेस्डोगोन, ब्रेटन पेस्क); पुरानी आयरिश आईसकैस; पुरानी अंग्रेज़ी फिस, पुरानी नोर्स फाइस्कर, गॉथिक फिस्क।
विष्णु
वैष्णव परमेश्वर
वैदिक समय से ही विष्णु शब्द प्रचलन में रहा है ।
शब्द-व्युत्पत्ति और अर्थ की दृष्टि से भी विष्णु की समानताऐं सुमेरियन देवता (पिस्क-नु ) से स्पष्ट हैं ।
जिसे कालान्ततरण में देवनागरी अथवा डेगन के रूप में कनानी तथा हिब्रू संस्कृतियों में समायोजित किया गया है ।
संस्कृत भाषा में 'विष्णु' शब्द की व्युत्पत्ति मुख्यतः 'विष्' धातु से ही मानी गयी है।  जो केवल  आर्य समाजीयों की  है । महर्षि दयानन्द सरस्वती ने सत्यार्थ-प्रकाश के प्रथम समुल्लास में है ।
यह व्युपत्ति केवल आध्यात्मिकता परक है ।
('विष्' या 'विश्' धातु लैटिन में - vicus और सालविक में vas -ves का सजातीय हो सकता है)
निरुक्त (12.18) में यास्काचार्य ने मुख्य रूप से 'विष्' धातु को ही 'व्याप्ति' के अर्थ में लेते हुए उससे 'विष्णु' शब्द को निष्पन्न बताया है।
वैकल्पिक रूप से 'विश्' धातु को भी 'प्रवेश' के अर्थ में लिया गया है, 'क्योंकि वह विभु होने से सर्वत्र प्रवेश किया हुआ होता है।
आदि शंकराचार्य ने भी अपने विष्णुसहस्रनाम-भाष्य में 'विष्णु' शब्द का अर्थ मुख्यतः व्यापक (व्यापनशील) ही माना है तथा उसकी व्युत्पत्ति के रूप में स्पष्टतः लिखा है कि "व्याप्ति अर्थ के वाचक नुक् प्रत्ययान्त 'विष्' धातु का रूप 'विष्णु' बनता है"।
'विश्' धातु को उन्होंने भी विकल्प से ही लिया है और लिखा है कि "अथवा नुक् प्रत्ययान्त 'विश्' धातु का रूप विष्णु है; जैसा कि विष्णुपुराण में कहा है-- 'उस महात्मा की शक्ति इस सम्पूर्ण विश्व में प्रवेश किये हुए हैं; इसलिए वह विष्णु कहलाता है, क्योंकि 'विश्' धातु का अर्थ प्रवेश करना है"।
ऋग्वेद के प्रमुख भाष्यकारों ने भी प्रायः एक स्वर से 'विष्णु' शब्द का अर्थ व्यापक (व्यापनशील) ही किया है। विष्णुसूक्त (ऋग्वेद-1.154.1 एवं 3) की व्याख्या में आचार्य सायण 'विष्णु' का अर्थ व्यापनशील (देव) तथा सर्वव्यापक करते हैं; तो श्रीपाद दामोदर सातवलेकर भी इसका अर्थ व्यापकता से सम्बद्ध ही लेते हैं।
महर्षि दयानन्द सरस्वती ने भी 'विष्णु' का अर्थ अनेकत्र सर्वव्यापी परमात्मा किया है और कई जगह परम विद्वान् के अर्थ में भी लिया है।
इस प्रकार सुस्पष्ट परिलक्षित होता है कि 'विष्णु' शब्द 'विष्' धातु से निष्पन्न है और उसका अर्थ व्यापनयुक्त (सर्वव्यापक) है। परन्तु ये विद्वान् विष्णु की सर्व व्यापी ईश्वर को रूप में  व्याख्याऐं करने लगे ।
ऋग्वेद में विष्णु--
वैदिक देव-परम्परा में सूक्तों की सांख्यिक दृष्टि से विष्णु का स्थान गौण है क्योंकि उनका स्तवन मात्र 5 सूक्तों में किया गया है; लेकिन यदि सांख्यिक दृष्टि से न देखकर उनपर और पहलुओं से विचार किया जाय तो उनका महत्त्व बहुत बढ़कर सामने आता है।
ऋग्वेद में उन्हें 'बृहच्छरीर' (विशाल शरीर वाला), युवाकुमार आदि विशेषणों से ख्यापित किया गया है।
ऋग्वेद में उल्लिखित विष्णु के स्वरूप एवं वैशिष्ट्यों का अवलोकन निम्नांकि बिन्दुओं में किया जा सकता है :-
लोकत्रय के शास्ता : तीन पाद-प्रक्षेप-:
विष्णु की अनुपम विशेषता उनके तीन पाद-प्रक्षेप हैं, जिनका ऋग्वेद में बारह बार उल्लेख मिलता है। सम्भवतः यह उनकी सबसे बड़ी विशेषता है। उनके तीन पद-क्रम मधु से परिपूर्ण कहे गये हैं, जो कभी भी क्षीण नहीं होते। उनके तीन पद-क्रम इतने विस्तृत हैं कि उनमें सम्पूर्ण लोक विद्यमान रहते हैं।
(अथवा तदाश्रित रहते हैं)। ‘त्रेधा विचक्रमाणः’ भी प्रकारान्तर से उनके तीन पाद-प्रक्षेपों को ध्वनित करता है।
सम्भवत वह जल में मत्स्य रूप में रहकर फिर थल पर से होकर अाकाश में सूर्य रूप में दृष्टि गोचर होते हैं। ‘उरुगाय’ और ‘उरुक्रम’ आदि पद भी उक्त तथ्य के परिचायक हैं।

संस्कृत भाषा में विसार: शब्द मूल भारोपीय तथा सुमेरियन  पिस्क-नु मूलक है । वेदों की ऋचाओं में विसार शब्द मछली का वाचक है ।
विसरति सर्पति (वि + सृ+अण् ) विसरण मत्स्ये अमरःकोश
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(विशेषेण सरति गच्छति इति विसार। 
सृ गतौ +“ व्याधि मत्स्य बलेष्विति वक्तव्यम् ।
३ । ३ । १७ । इत्यस्य वार्त्तिकोक्त्या घञ् )
मत्स्यः ।  इत्यमरःकोश ॥ (भावे घञ् ।  निर्गमः ।
  यथा ऋग्वेदे (। १।७९। १। )
“ हिरण्यकेशो रजसो विसारे ऽर्हिर्धुनिर्वात इव ध्रजीमान् ॥ रजस उदकस्य विसारे विसरणे मेघार्न्निर्गमने । “
इति तद्भाष्ये सायणः )☸☸☸☸☸

क्योंकि इसमें संस्कृत में भी स्पष्ट शब्दों में विष्णु की स्तुति हैं।

अतो देवा अवन्तु नो यतो विष्णुर्विचक्रमे। पृथिव्याः सप्त धामभिः।।”
“जहाँ से (यज्ञ स्थल या पृथ्वी से) विष्णुदेव ने (पोषण परक) पराक्रम दिखाया, वहाँ (उस यज्ञीय क्रम से) पृथ्वी से सप्तधामो से देवतागण हमारी रक्षा करें।”
इदं विष्णुर्वि चक्रमे त्रेधा नि दधे पदम्। समूळ्हमस्य पांगूँसुरे स्वाहा।।”

“यह सब विष्णुदेव का पराक्रम है,तीन प्रकार के (त्रिविध-त्रियामी) उनके चरण है।
इसका मर्म धूलि भरे प्रदेश मे निहित है।”

त्रीणि पदा वि चक्रमे विष्णुर्गोपा अदाभ्यः।
अतो धर्माणि धारयन्।।

“विश्वरक्षक, अविनाशी, विष्णुदेव तीनो लोको मे यज्ञादि कर्मो को पोषित करते हुये तीन चरणो से जग मे व्याप्त है अर्थात तीन शक्ति धाराओ (सृजन, पोषण और परिवर्तन) द्वाराविश्व का संचालन करते है।”

विष्णोः कर्माणि पश्यत यतो व्रतानि पस्पशे।
इन्द्रस्य युज्यः सखा।।”

“हे याजको! सर्वव्यापक भगवान विष्णु के सृष्टि संचालन संबंधी कार्यो(सृजन, पोषण और परिवर्तन) ध्यान से देखो। इसमे अनेकोनेक व्रतो(नियमो,अनुशासनो) का दर्शनकिया जा सकता है। इन्द्र(आत्मा) के योग्य मित्र उस परम सत्ता के अनुकूल बनकर रहे।(ईश्वरीय अनुशासनो का पालन करें)।”

तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः। दिवीव चक्षुराततम्।।”

“जिस प्रकार सामान्य नेत्रो से आकाश मे स्थित सूर्यदेव को सहजता से देखा जाता है, उसी प्रकार विद्वज्जन अपने ज्ञान चक्षुओ से विष्णुदेव(देवत्व के परमपद) के श्रेष्ठ स्थान को देखते हैं।”

“तद्विप्रासो विपन्यवो जागृवांसः समिन्धते। विष्णोर्यत्परमं पदम्।।

“जागरूक विद्वान स्तोतागण विष्णूदेव के उस परमपद को प्रकाशित करते हैं,अर्थात जन सामान्य के लिये प्रकट करते है।”

प्रथम मंडल के सूक्त 24 के इस मन्त्र को देखे।

शुनःशेपो ह्यह्वद्गृभीतस्त्रिष्वादित्यं द्रुपदेषु बद्धः। अवैनं राजा वरुणः ससृज्याद्विद्वाँ अदब्धो
विमुमोक्तु पाशान्।”

“तीन स्तम्भो मे बधेँ हुये शुनःशेप ने अदिति पुत्र वरुणदेव का आवाहन करके उनसे निवेदन किया कि वे ज्ञानी और अटल वरुण -देव हमारे पाशो को काटकर हमे मुक्त करें।”

यहाँ पर तो स्पष्ट शब्दों में वरुण देव को अदिति पुत्र कहा गया हैं।

प्रथम मंडल के 25 वें सूक्त में तो साफ साफ वरुण देव के हृष्ट पुष्ट शरीर का वर्णन हैं और वो भी कवच धारण करने वाले।

बिभ्रद्द्रापिं हिरण्ययं वरुणो वस्त निर्णिजम्।
परि स्पशो नि षेदिरे।।

“सुवर्णमय कवच धारण करके वरुणदेव अपने हृष्ट-पुष्ट शरीर को सुसज्जित करते है। शुभ्र प्रकाश किरणें उनके चारो ओर विस्तीर्ण होती है।
इसी प्रकार गणेश भी अन्य संस्कृतियों में विद्यमान है जैसे रोमन संस्कृति में जेनस को रूप में !
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प्राचीन रोमन धर्म और मिथकों में , जेनस
( dʒeɪnəs) नाम का एक देवता है । जो भूत और भविष्यत् काल का ज्ञाता एवं प्रतिनिधि है । ; लैटिन :  ( ja:nus) शब्द ही जेनस शब्द का मूल है ।
जिसका, उच्चारण है :--  ( ja:nus ) इस शब्द प्रारम्भिक अर्थ है:- 1- द्वार,2- संक्रमण,3- समय, 4-द्वंद्व, आदि और जेनस भी रोमन संस्कृति में द्वार का रक्षक देवता है !
जेनस के तीन भावार्थ हैं द्वार, मार्ग, और अन्त।
इसे आम तौर पर मिथकों में दो चेहरों के रूप में भी चित्रित किया जाता है । क्योंकि वह भविष्य और अतीत को समान रूप से देखता है।
यह पारम्परिक रूप से विचार किया जाता है कि जनवरी का महीना जेनस ( इयानुअरीस ) के लिए नामित किया गया है ।
लेकिन प्राचीन रोमन किसानों के अल्मनैक जूनो के मुताबिक जून  ट्यूटलरी (निगरानी) का देवता था।

कदाचित् भारतीय पुराणों में भी इस अवधारणा की परिकल्पना की गयी की गणेन ( यानिस) - ज्ञानेश को बुद्धि का और सिद्धि - सिद्धि का देवता बना दिया गया ।
और जन्म भी गणेश का अद्भुत तरीके से कल्पित कर लिया । देखें👇🌷🐘
__________________________________________.    शिवपुराण के अनुसार स्नान करते समय पार्वती ने अपने शरीर के उबटन से गणेश जी को जन्म दिया। इसके अलावा  उनके सिर कटने की कथा भी शिव पुराण में अलग और ब्रह्मवैवर्त पुराण में अलग -अलग है। शिवपुरण के अनुसार जब शिव ने द्वार के अन्दर प्रवेश करना चाहा तो गणेश ने शिव को रोका !
तो शिव ने क्रोध में आकर गणेश जी का सिर काट दिया था, और ब्रह्मवैवर्त पुराण में गणेश के बारे में बताया गया है कि शनि की टेढ़ी नजर गणेश जी के सिर पर पड़ने से उनका सिर कट गया था।
अब कथाऐं कितनी काल्पनिक हैं जानिए !
शिव पुराण के अनुसार, देवी पार्वती ने एक बार शिवजी के गण नन्दी के द्वारा उनकी आज्ञा पालन  में त्रुटि के कारण अपने शरीर के उबटन से एक बालक का निर्माण कर उसमें प्राण डाल दिए और कहा कि तुम मेरे पुत्र हो। तुम मेरी ही आज्ञा का पालन करना और किसी की नहीं। देवी पार्वती ने यह भी कहा कि मैं स्नान के लिए जा रही हूं। कोई भी अंदर न आने पाए। थोड़ी देर बाद वहां भगवान शंकर आए और देवी पार्वती के भवन में जाने लगे।
यह देखकर उस बालक ने उन्हें रोकने का प्रयास किया। बालक का हठ देखकर भगवान शंकर क्रोधित हो गए और उन्होंने अपने त्रिशूल से उस बालक का सिर काट दिया। देवी पार्वती ने जब यह देखा तो वे बहुत क्रोधित हो गईं। उनकी क्रोध की अग्नि से सृष्टि में हाहाकार मच गया। तब सभी देवताओं ने मिलकर उनकी स्तुति की और बालक को पुनर्जीवित करने के लिए कहा।
तब भगवान शंकर के कहने पर विष्णु एक हाथी का सिर काटकर लाए और वह सिर उन्होंने उस बालक के धड़ पर रखकर उसे जीवित कर दिया।
तब भगवान शंकर व अन्य देवताओं ने उस गजमुख बालक को अनेक आशीर्वाद दिए। देवताओं ने गणेश, गणपति, विनायक, विघ्नहर्ता, प्रथम पूज्य आदि कई नामों से उस बालक की स्तुति की।
इस प्रकार भगवान गणेश का प्राकट्य हुआ।
ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार, गणेश के जन्म के बाद जब सभी देवी-देवता उनके दर्शन के लिए कैलाश पहुंचे। तब शनिदेव भी वहां पहुंचे, लेकिन उन्होंने बालक गणेश की ओर देखा तक नहीं। माता पार्वती ने इसका कारण पूछा तो शनिदेव ने बताया कि मुझे मेरी पत्नी ने श्राप दिया है कि मैं जिस पर भी दृष्टि डालूंगा, उसका अनिष्ट हो जाएगा।
इसलिए मैं इस बालक की ओर नहीं देख रहा हूं। तब पार्वती ने शनिदेव से कहा कि यह संपूर्ण सृष्टि तो ईश्वर के अधीन है।
बिना उनकी इच्छा से कुछ नहीं होता। अत: तुम भयमुक्त होकर मेरे बालक को देखो और आशीर्वाद दो। माता पार्वती के ऐसा कहने पर जैसे ही शनिदेव ने बालक गणेश को देखा तो उसी समय उस बालक का सिर धड़ से अलग हो गया।
बालक गणेश की यह अवस्था देखकर माता पार्वती विलाप करने लगी।
माता पार्वती की यह अवस्था देखकर भगवान विष्णु ने एक हाथी के बच्चे का सिर लाकर बालक गणेश के धड़ से जोड़ दिया और उसे पुनर्जीवित कर दिया।
ये हैं भारतीय पुराणों की मनगढ़न्त कथाऐं जो रोमन देवता जेनस के आधार पर सृजित हुई हैं ।आइए जाने जेनस के विषय में भी 👇🐞
रोमन भाषा में जेनस का मूल अर्थ द्वार (Door)है । और यानम्,  गतिं अथवा गर्तिं जैसे शब्द  वैदिक भाषा में द्वार के लिए प्रचलित थे ।
यानम् मार्ग या द्वार के अर्थ में था ।
संस्कृत भाषा में द्वारम् शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार है ।(द्वरति निर्गच्छति गृहाभ्यन्तरादनेनेति ।
( द्वृ + घञ् ) अर्थात्  घर के भीतर से जिसके द्वारा बाहर निकला जाय वह द्वार: है । --- पर्य्यायः वाची रूप में 1-निर्गमनम् । 2-अभ्युपायः ।
इति मेदिनी कोश ।  ४८
पर्य्यायः ।१ द्वाःप्रतीहारः ३ । इत्यमरः कोश
। २ । ३ । १६ ॥ तथा  वारकम् ४ । इति शब्दरत्नावली
ब्रह्मवैवर्त्त पुराणों में देखें👇
गृहिणां शुभदं द्वारं प्राकारस्य गृहस्य च ।
न मध्यदेशे कर्त्तव्यं किञ्चिन्न्यूनाधिकं शुभम् ॥
इति ब्रह्मवैवर्त्ते श्रीकृष्णजन्मखण्डम् ॥
अमरकोशः में द्वार के पर्य्यायः वाची निम्न हैं ।

द्वार नपुं। 
द्वारम् 
समानार्थक:द्वा, द्वारम्,प्रतीहार,निर्यूह , (निर्गमनम्,) (यानम् )।
2।2।16।1।2 

स्त्री द्वार्द्वारं प्रतीहारः स्याद्वितर्दिस्तु वेदिका।
तोरणोऽस्त्री बहिर्द्वारम्पुरद्वारं तु गोपुरम्.। 

वाचस्पत्यम् कोश में तारानाथ वाचस्पत्यम् व्युत्पत्ति करते हैं ।

'''द्वार''  नपुंसकलिंग-( द्वृ+णिच्+ अच् ) 
१ गृहनिर्गमस्थाने।

गर्त पुल्लिंग शब्द जो वैदिक सन्दर्भों में द्वार का ही वाचक है । ---- 💐
भूमि में (किया गया) गड्ढा, श्रौत सूत्र और कोषितकी (संहिता) में II 514 ।।
गर्त भी प्रारम्भिक रूप में द्वार वाचक था । जैसा कि यूरोपीय भाषाओं में आज भी प्राप्त है ।
देखें निम्न रूपों में 👇
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From Middle English (M.E.)gate, gat, ȝate, ȝeat , from Old English (O.E.)gæt, gat, ġeat (“a gate, door”), from Proto-Germanic *gatą (“hole, opening”)  (compare Old Norse gat, Swedish and Dutch gat, Low German Gaat, Gööt), from Proto-Indo-European { ǵʰed} -( गर्त )(to defecate)
(compare Albanian dhjes, Ancient Greek χέζω (khézō), Old Armenian ձետ (jet, “tail”), Avestan  (zadah, “  back part of body ”)🌸🌸
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अर्थात् मध्य अंग्रेजी भाषा में गेट, गीट शब्द, (ȝate, ȝeat) तो पुरानी अंग्रेज़ी में gæt, gat, ġeat ("गेट, दरवाजा के अर्थ में ") आद्य-जर्मनिक भाषा में  gatą का अर्थ("छिद्र अथवा खोलने की क्रिया") के रूप में  (पुरानी  नॉर्स भाषा में गेट रूप, स्वीडिश और डच की तुलना करें तो वहाँ भी यही रूप गेट है ।
निम्न-जर्मन में गैट, गौट दौनों रूप प्रोटो-इंडो-यूरोपीय आद्य-भारोपीय रूप  ǵʰed- गर्त या घात ("टूटा") है ।
(अल्बेनियन भाषा में धजे, प्राचीन यूनानी χέζω (खेज़ो), पुरानी अर्मेनियाई ձետ (जेट, "पूंछ"), अवेस्ता ए जन्द़ में तुलना करें (ज़दाह, शरीर का पश्चभाग शब्द से ))।
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संस्कृत भाषा में यानम् , गतिं जैसे शब्द  द्वार वाचक थे
जैसे (यान्त्यनेनेति यानम् )अर्थात् जिसके माध्यम से अन्दर जाया जाता है वह यानम् निर्गमनम् है ।।
  या धातु + ल्युट् (अन ) संज्ञात्मक प्रत्यय के योगेश से नपुंसकलिंग रूप यानम् :- अर्थात् हाथी ,घोड़ा रथ , डोला द्वार आदि इसके पर्याय हैं । हस्त्यश्वरथदोलाद्वारादि
तत्पर्य्यायः । 
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१ वाहनम् २ युग्यम् ३ पत्रम् ४ तोरणम् (द्वार)५ ।
इति अमर कोश । २ ।८ ।५८॥
  विमानम् ६ चङ्कुरम् ७ यापनम् ८ गतिमित्रकम् ९। इति शब्दरत्नावली ॥
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और यही शब्द लैटिन में इयानस् हुआ है ग्रीक भाव से
जेनस अथवा इयानवस( IANVS) शुरुआती दौर में , द्वार, संक्रमण (निर्गमन), समय, द्वंद्व,  मार्ग, और समापन के देव रूप में प्रतिष्ठित हैं।
रोमन सास्कृतिक चयनकर्ता के सदस्य वैटिकन संग्रहालयों में जेनस बिफ्रॉन का प्रतिनिधित्व करने वाली मूर्ति जिसके दुसरे नाम इयानुस्पेटर ("जेनस फादर"), इयानस क्वाड्रिफ्रॉन ("जेनस चतुर फ्रॉन"), इयानस बिफ्रॉन ("जेनस ट्विफस्ड") आदि हैं ।

संक्रमण के देवता के रूप में, उनके पास जन्म और यात्रा और विनिमय से संबंधित कार्यों का कलाप (समूह) थे, और पोर्टनस के साथ उनके सहयोग में, एक समान बंदरगाह और द्वार - पथ  देवता,
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जेनस वह यात्रा, व्यापार और शिपिंग से चिंतित था। जेनस के पास कोई फ्लामेन जर्मन रूप ब्रामिन या ईरानी रूप बरहमन और वैदिक रूप ब्राह्मण अर्थात् विशेष पुजारी ( sacerdos ) नहीं था, लेकिन पवित्र संस्कार के राजा ( रेक्स) बलिदान  ने अपने समारोहों को स्वयं किया।
पूरे साल धार्मिक समारोहों में जेनस की सर्वव्यापी उपस्थिति दर्ज रही ।
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इस प्रकार, किसी भी विशेष अवसर पर सम्मानित मुख्य देवता के बावजूद, प्रत्येक समारोह की शुरुआत में जेनस को गंभीर रूप से बुलाया गया था।
जैसे भारतीयों में गणेश की प्रथम वन्दना अनिवार्य है ।

  प्राचीन यूनानियों के पास जेनस के बराबर का कोई देवता नहीं था, जिन्हें रोमन वालों  ने अपने आप के रूप में स्पष्ट रूप से घोषित किया था।
व्युत्पत्ति के दृष्टि -कोण से  प्राचीन 🐞 शिक्षाओं के  द्वारा तीन जेनस की व्युत्पत्तियाँ प्रस्तावित की गयी थी
उनमें से प्रत्येक से द्वार देवता की प्रकृति के बारे में प्रकाश पड़ता है।  जिनमें पहले व्यक्ति पॉल द डेकॉन द्वारा दिए गए कैओस ( सृष्टि की निराकार अवस्था) की परिभाषा पर आधारित है: हाइटेम , हाइरे , खुले रहें , जिसमें से शब्द इयानस की प्रारंभिक आकांक्षा के अभाव से प्राप्त होगा।
इस व्युत्पत्ति विज्ञान में, कैओस की धारणा देव की मूलभूत प्रकृति को परिभाषित करेगी।
निगिडियस फिगुलस द्वारा प्रस्तावित एक अन्य व्युत्पत्ति के अनुसार यह मैक्रोबियस से संबंधित है।
ईनस यूफनी के लिए डी के अतिरिक्त अपोलो और डायना इना होगा।
यह स्पष्टीकरण एबी कुक और जेजी फ्रैज़र द्वारा स्वीकार किया गया है। कि  यह जैनस के सभी आकस्मिकताओं को उज्ज्वल आकाश, सूर्य और चंद्रमा का समर्थन प्राप्त होता है।
यह एक पूर्व  डियानस का अनुमान लगाता है।
द्वार शब्द यूरोपीय भाषाओं में भी प्रकाशित है ।
प्रोटो-इंडो-यूरोपीय * दवर- ("द्वार, दरवाजा ) से  साम्य दर्शनीय है । प्रोटो-जर्मनिक भाषा में  दुर्ज़ से साम्य तो पुरानी अंग्रेज़ी में डॉर (door) ("दरवाजा"), से साम्य मध्य अंग्रेजी मे भी डोर, है । सजातीय रूप  में सेटरलैंड फ़्रिसियाई  दोर ("दरवाजा"), पश्चिमी फ़्रिसियाई  दोर ("दरवाजा"), और डच दीर ("दरवाजा"), निम्न जर्मन दरवाजा, डोर ("दरवाजा"), जर्मन तुर ("दरवाजा"), तोर (" गेट "), डेनिश और नॉर्वेजियन दोर (" दरवाजा "), आइसलैंडिक डायर (" दरवाजा "), लैटिन फोरिस, (पुरस्) यूनानी θύρα (thúra), अल्बेनियन derë बहुवचन रूप ।
डायर, कुर्द دررگە (derge), derî, फारसी در (Dar), रूसी дверь (dver'),
संस्कृत भाषा में द्वार  / دوار (द्वार), अर्मेनियाई դուռ (duṙ), आयरिश दोरास, लिथुआनियाई (durys) दुरिस
आदि रूपों द्वार शब्द ही विद्यमान हैं ।
हिन्दुस्तान की व्रज उप भाषाओं में देहरी शब्द में द्वार का रूप है ।
यूरोपीय भाषाओं में
आर्टिक्यूलेशन इयानस-इनिटोरस का अर्थ गेट्स ऑफ़ हेवन (स्वर्ग का द्वार )  यह शब्द सिनलप्लेड्स
के धर्मशास्त्र से जुड़ा हुआ हो सकता है जो स्वर्ग पर एक तरफ और पृथ्वी पर या अंडरवर्ल्ड पर खुलता है।

अन्य पुरातात्विक दस्तावेजों से  यद्यपि यह स्पष्ट हो गया है कि एट्रस्कैन संस्कृति के पास जनसांख्यिकीय रूप से जेनस से संबंधित एक और देवता था: कुल्शांश, जिनमें से कॉर्टोना का विकास हुआ ।
(अब कॉर्टोना संग्रहालय में) का कांस्य प्रतिमा के रूप में  है ।
जबकि जेनस दाढ़ी वाले वयस्क हैं, कुल्शन एक अनजान युवा हो सकते हैं, जिससे हर्मीस के साथ उनकी पहचान संभव हो सकती है।
उसका नाम दरवाजे और द्वारों के लिए एट्रस्कैन शब्द से भी जुड़ा हुआ है।

गैर-रोमन देवताओं के साथ एसोसिएशन
विरासत ----
मध्य युग में, जेनस को जेनोआ के प्रतीक के रूप में भी लिया गया था , जिसका मध्ययुगीन लैटिन नाम इयानुआ था ।

जन्मजात विकार के साथ बिल्लियों डिप्रोसोपस , जो चेहरे को आंशिक रूप से या सिर पर पूरी तरह से डुप्लिकेट (द्वतिकरण )करने का कारण बनता है, उसको ही जेनस बिल्लियों के नाम से जाना जाता है

जेनस का साहित्य में विवरण---

रोमन और ग्रीक लेखकों ने जेनस को एक विशेष रूप वर्णन किया है । यह रोमन ने निगरानी का अधिष्ठात्री देवता बनाए रक्खा  था।  शिलिंग के अनुसार यह दावा अत्यधिक महत्पूर्ण है ।  कि कम से कम जहां तक ​​प्रतीकात्मकता का संबंध है।
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सुमेरियन और बेबीलोनियन कला में दो चेहरों वाला एक देवता बार-बार प्रकट होता है।

एक सिलेंडर सील देवताओं का चित्रण Ishtar (स्त्री ) Shamash (शम्स) , Enki (एनकी), और Isimud इस्मुद जो (लगभग 2300 ई.पू.) में दो चेहरे के साथ दिखाया गया है
प्राचीन सुमेरियन देवता इस्मुद को आम तौर पर विपरीत दिशाओं में सामना करने वाले दो चेहरों के साथ चित्रित किया गया था।
इस्मुद के सुमेरियन चित्रण अक्सर प्राचीन रोमन कला में जेनस के विशिष्ट चित्रण के समान ही होते हैं ।

जेनस के विपरीत, हालांकि, इस्मुद द्वार का देवता नहीं है। इसके बजाय, वह पानी और सभ्यता के प्राचीन सुमेरियन देवता, एनकी का संदेशवाहक है।

इस्मुद की छवि का पुनरुत्पादन, जिसका बेबीलोनियन नाम उसिमु था, सुमेरो-एक्काडिक कला में सिलेंडरों पर यह  एच. फ्रैंकफोर्ट के काम के रूप में  सिलेंडर मुहरों में पाया जा सकता है । देखें 👇
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(लंदन सन् 19 3 9) विशेष रूप से पृष्ठ संख्या  प्लेटों में। 106, 123, 132, 133, 137, 165, 245, 247, 254. प्लेट XXI पर, सी, Usmu एक संतृप्त भगवान को पूजा करने के दौरान देखा जाता है।

हर्मेस से संबंधित देवताओं के जेनस जैसे सिर ग्रीस में पाए गए हैं, शायद एक यौगिक भगवान का सुझाव देते हैं।

विलियम बेथम ने तर्क दिया कि पंथ मध्य पूर्व से आया था और वह जेनस बालदीस के बाल-इयनियस या बेलिनस से मेल खाता है, जो बेरोसस के ओन्स के साथ एक आम उत्पत्ति साझा करता है ।

पी.ग्रिमल ने जेनस को द्वार के रोमन देवता और एक प्राचीन सिरो-हिट्टाइट यूरेनिक ब्रह्माण्ड भगवान के बारे में माना।

पारम्परिक रूप से नुमा के रूप में वर्णित Argiletum के जनस की रोमन मूर्ति, शायद 8 वीं शताब्दी ईसा पूर्व ग्रीक लोगों की तरह, एक प्राचीन तरह का xoanon था।
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स्कैंडिनेवियाई देवता हेमडलर से भी साम्य दर्शनीय है।
हेमडलर की धार्मिक विशेषताएं जेनस के समान दिखती हैं: अन्तरिक्ष और समय दोनों की वह सीमाओं पर खड़ा है।
उसका निवास स्वर्ग की चोटी पर, पृथ्वी की सीमाओं पर है; वह देवताओं का संरक्षक है; उसका जन्म समय की शुरुआत में है; वह मानव जाति का पूर्वज है, वर्गों का जनयितृ और सामाजिक आदेश का संस्थापक है। फिर भी वह प्रभु देवत्व से हीन है Oðinn :
माइनर Völuspá Oðinn को अपने रिश्ते को परिभाषित करता है लगभग उन लोगों के रूप में एक ही शर्तों से जिसमें Varro परिभाषित करता है ; कि जानूस, के देवता की प्रथम बृहस्पति, के देवता को सुम्मा : Heimdallr के रूप में पैदा होता है जेठा ( primigenius , वर einn borinn í árdaga), ओडिन्न सबसे महान ( maximus , var einn borinn öllum meiri ) के रूप में पैदा हुआ है ।

  इसके अनुरूप ईरानी सूत्रों एक में पाया जा सकता है। अवेस्ता ए जन्द़ में (गाथा )
प्राचीन Latium के अन्य शहरों शुरुआत की अध्यक्षता के समारोह में शायद संज्ञा सेक्स के अन्य देवताओं, विशेष रूप से द्वारा किया गया था
विरासत -----
मध्य युग में, जेनस को जेनोआ के प्रतीक के रूप में भी लिया गया था , जिसका मध्ययुगीन लैटिन नाम इयानुआ था , साथ ही साथ अन्य यूरोपीय समुदाय भी थे।

साहित्य में शेक्सपियर के ओथेलो के अधिनियम I
दृश्य 2 में , इगो ने अपने प्रीमियर प्लॉट की विफलता के बाद शीर्षक के चरित्र को पूर्ववत् करने के बाद जेनस के नाम का आह्वान किया।

में 1987 थ्रिलर उपन्यास जानूस मैन ब्रिटिश उपन्यासकार द्वारा रेमंड हेरोल्ड सॉकिन्स "जानूस आदमी जो पूर्व और पश्चिम दोनों का सामना कर रहा" -, जानूस शब्द  ब्रिटिश सीक्रेट इंटेलिजेंस सर्विस में घुसपैठ की एक सोवियत एजेंट के लिए एक रूपक के रूप में प्रयोग किया जाता है।
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उपर्युक्त उद्धरणों का प्रस्तुति करण से हमारा मन्तव्य भारतीय पुराणों में गणेश की परिकल्पना के समीकरण पर ही है ।
भारतीयों के मिथकों में गणेश एक पौराणिक  देव हैं, जो निश्चित-रूप से भारत में आगत देव -संस्कृति की  रोमन जेनस के सादृश्य पर कल्पना मात्र है।
गणेश काल्पनिक ही हैं.. यह पुष्टि करने के लिये किसी प्रमाण की आवश्यकता नही है ।
अपितु  उनका विवादित-रूप से जन्म होना और हस्तिमुख  होना ही काफी है।
क्यों कि ये जैविक सृष्टियाँ वैज्ञानिक व प्राकृतिक सिद्धान्तों की धज्जीयाँ उड़ा देती हैं ।

वैसे गणेश गजमुख कैसे हुये यह भी बड़ी अवैज्ञानिक कथा है, और संयोग से इस कथा पर समग्र पौराणिक प्रसंग एकमत एवं संगत नही है।
जन साधारण अशिक्षित व निम्न- मध्य आर्धिक स्तर पर जीवन यापन करने वाले कहते में ये धारणाऐं व्याप्त हैं ।
सभी पुराणों में गणेश की पृथक -पृथक व्युत्पत्ति है
जो कि इनकी मिथ्या वादिता को सूचित करती है ।
क्यों कि असत्य बहुरूपिया व क्षणिक ही है ।
जबकि  सत्य केवल एक रूप में है ।
जिसका कोई विकल्प नहीं होता है । वह केवल एक रूप होता है।
जो कथा लगभग सभी जानते हैं और बहुचर्चित भी है, वह शिवपुराण में इस प्रकार से है।
जिसे हम पूर्व में वता चुके हैं ।
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एक बार भगवान शिव कैलाश छोड़कर कहीं गये थे, और इसी अवधि मे पार्वती ने नहाते हुये अपने बदन पर लगे उबटन से एक बालक की मूर्ति बना दी, तथा उसमे प्राण डालकर अपना पुत्र बना लिया!
पार्वती ने उसे अपनी पहरेदारी के लिये अपने स्नान-कक्ष के बाहर खड़ा कर दिया, और जब शिव वापस आये तो उस बालक ने उन्हे कक्ष मे प्रवेश करने से रोक दिया! अतः क्रोधित शिव ने अपने त्रिशूल से बालक का सिर काट दिया, और फिर पार्वती का शोक मिटाने के लिये एक हाथी के बच्चे का सिर लाकर बालक के धड़ से जोड़ दिया! इस तरह बालक (गणेश) गजमुख हो गये।

अब इस आख्यान में भी कई प्रश्न आशंकित व सनेदेह का सर्जन करते हैं ।
जैसे कि-
त्रिकाल दृष्टा शिव  पार्वती के पुत्र को क्यों नहीं पहचान पाते हैं ?
और गणेश का मस्तक काट कर हाथी का क्यों लगाया और कैसे ?

अब भक्तों ने इस कथा को शिव की लीला  और दैवीय-चमत्कार मानकर ऊहा-पोह  उचित नही समझा,

वराहपुराण के अध्याय-२३  मे वर्णित  है--
कि एक बार ब्रह्मा समेत समस्त देवता किसी विषय पर मन्त्रणा लेने के लिये शिव के पास आये;
उन देवताओं की किसी बात पर शिव को हास्य हुआ और उसी हास्य से एक सुन्दर बालक का जन्म  हुआ । वह बालक अत्यधिक सुन्दर था कि उस बालक की सुन्दरता देखकर पार्वती उस पर मोहित हो गयी !
उनका रति भावना जाग्रत हो गयी
शिव को लगा कि मुझसे ही प्रादुर्भूत बालक इतना आकर्षक है कि मेरी पत्नी उस पर आशक्त हो गयी है। शिव ने विचार किया "स्त्री स्वाभाव चञ्चल होता ही है, और मेरी पत्नी भी लोकलाज त्याग कर इस पर मुग्ध हो गयी है"
तभी .. शंकर  को बड़ा क्रोध आया और उन्होने उस बालक को श्राप दिया कि- "हे कुमार! तुम्हारा मुख हाथी के मुख जैसा हो जाये और पेट भी लम्बा हो जाये"
शिव के श्राप से बालक गजमुख हो गया, और बाद मे यही बालक गणेश हुये।
अब इस कथा की काल्पनिकताऐं सार हीन व कार्य-कारण के सिद्धान्तों की धज्जीयाँ उड़ा देती हैं
पार्वती स्वयं जगदम्बा है, फिर वो इतनी लज्जाहीन कैसे हो सकती हैं ? कि अपने पति के सामने ही किसी बालक पर आशक्त हो कर उससे रति क्रिया करनी चाहें ?
क्या इससे उनका पतिव्रत धर्म नष्ट नही हुआ?
और यदि बालक पर पार्वती मोहित हुई थी तो शिवजी को उन्हे ही दण्ड देना चाहिये था। निर्दोष बालक को शिव ने श्राप दिया, जो न्याय नही था।
वस्तुत वाल्मीकि रामायण के उत्तर काण्ड में भी राम को सम्बूक का बध करते हुए ऐसे ही कार्य-कारण के सिद्धान्तों से हीन कथाओं के रूप में वर्णित किया गया है।
गणेश जन्म की इन दोनों कथाओं के अतिरिक्त एक कथा ब्रह्मवैवर्तपुराण गणेशखण्ड-12 वें अध्याय में आती है, जो निम्न है-👇
शनिदेव को प्राय:अन्य देवता बहुत चिढ़ाते थे कि आपकी दृष्टि जहाँ पड़ती है, वहाँ सब अमंगल ही होता है! शनिदेव इससे बहुत उदास-मना थे और इसी उदासी के साथ एक दिन वे कैलाश पर्वत पर आये! उस समय शिव वहाँ नही थे और पार्वती अपने पुत्र गणेश के साथ बैठी  थीं ।
पार्वती ने शनिदेव की वेदना को  सुना और उनसे निवेदन किया कि वे मेरी  और मेरे पुत्र गणेश की तरफ देखें...
शनिदेव ने जैसे ही गणेश को देखा, उनकी तीक्ष्ण दृष्टि से से गणेश का सिर विछिन्न होकर गोलोक (कृष्ण के लोक) मे जा गिरा, और स्कन्ध (धड़) रक्तरञ्जित होकर वहीं तड़पने लगा!
यह देखकर पार्वती सिर  पीटकर रुदन करने लगी।
तभ विष्णु ने वह रुदन सुना ! औल वह वहाँ प्रकट हुए
विष्णु ने सोचा कि कहीं कुछ अनिष्ट न हो जाये अतः वे गरुण पर सवार होकर एक वन में गये और वहाँ से एक हथिनी के बच्चे का सिर सुदर्शन से काट लाये! विष्णु ने उसी सिर को गणेश के धड़ से जोड़ दिया, और उन्हे जीवित कर दिया।

तात्पर्य   यह कि शिवपुराण जहाँ कहता है कि यह असम्भव सर्जरी शिव ने किया था वहीं ब्रह्मवैवर्तपुराण इसमे विष्णु का योगदान मानता है।
ये विरोधी विवरण ही पुराणों की काल्पनिकताऐं सिद्ध करने में सक्षम हैं ।
अब हम संस्कृत भाषा में भी मूल उद्धरणों को प्रस्तुत करते हैं ।👇

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गणानामीशः अर्थात् गणना करने वालों में स्वामी। १ स्वनामख्याते देवे २ शिवे च । गणेशोत्पत्तिः इभाननशब्दे ९८१ पृष्ठ संख्या बम्बई संस्करण स्कन्धपुराण गणेश-जन्मखण्ड उक्ता । ।
उक्ता तस्य वक्रतुण्डकपि- लचिन्तामणिविनायकादिरूपेण प्रादुर्भावकथा
तत एवावसेया विस्तरभयान्नोक्ता ।
गणेशस्य परब्रह्मरूपत्वं नामभेदात् तद्भेदाश्च गणपति तत्त्वग्रन्थे विस्तरेणोक्ता दिग्मात्रमुदाह्रियते ।
“एष सर्वेश्वरः एष सर्वज्ञः एष भूतपतिरेष भूतलय एष सेतुर्विधरणः प्रधानक्षत्रज्ञपतिर्गणेशः इति”
श्रुतिप्रसिद्धसर्वेश्वरादिपदवद्गणेशपदस्य नित्यसिद्धेश्वरपरत्वम् दृश्यते इत्युपकम्य “तस्मात् प्रधानक्षेत्रज्ञपतिर्गणेशः” इति श्रुतेः ।
“गुणत्रयस्येश्वरोऽसि न नाम्रा त्वं गणेश्वरः”
इति विनायामसंहितावचनाच्च गणशब्दाभिहितस्य सत्वादिगुणसं- वातस्य पतिर्गणेश इति सिद्धमित्युक्तम्”  अन्ते च नमः सहमानायेत्याद्यनुवाकैस्तस्य सर्व्वेर्षां नाम्नां सङ्कलनेन एकोननवत्यधिकशतद्वयम् इत्युक्तम् । गणपतिभेदाश्च आगममन्त्रैर्व्वेदमन्त्रैर्बाराधनीया इत्यप्युक्तम् ।
तन्त्रे तु अन्यथा संख्योक्ता यथा शारदतिलकराघवटीका- याम् “विघ्नेशो विघ्नराजश्च विनायकशिवोत्तमौ । विघ्नकृत् विघ्नहर्त्ता च गणैकदददन्तकाः ।
गजवक्त्र- निरञ्जनौ कपर्द्दी दीर्घजिह्वकः । शङ्कुकर्णश्च वृषभध्वजश्च गणनायकः ।
गजेन्द्रः सूर्पकर्णश्च स्यात्त्रि- लोचनसंज्ञकः । लम्बोदरमहानन्दौ चतुर्म्मूर्त्तिसदा- शिवौ ।
आमाददुर्मुखौ चैव सुमुखश्च प्रमोदकः ।
एकपादो द्विजिह्वश्च सुरवीरः सषण्मुखः ।
वरदो वामदेवश्च वक्रतुण्डो द्विरण्डकः । सेनानीर्ग्रामणीर्म्मत्तो विमत्तो मत्तवाहनः ।
जटी मुण्डी तथा खङ्गी वरेण्यो वृषकेतनः । भक्ष्यप्रियो गणेशश्च मेघनादकसंज्ञकः ।
व्यापी गणेश्वरः प्रोक्ताः पञ्चाशद्गणपा इमे ।
तरुणारुणसङ्काशा गजवक्त्रास्त्रिलोचनाः । पाशाङ्कुशवराभीतिहस्ताः शक्तिसमन्विताः” ।
तेषाञ्च पञ्चाशच्छक्तयस्तत्रोक्ता यथा “ह्रीः श्रीश्च पुष्टिः शान्तिश्च स्वस्तिश्चैव सरस्वती ।
स्वाहा मेधा कान्तिकामिन्यौ मोहिन्यपि वैनटी ।
पार्वती ज्वालिनी नन्दा सुयशाः कामरूपिणी ।
उमा तेजीवती सत्य विघ्नेशानी सुरूपिणी ।
कामदा मदजिह्वा च भूतिः स्याद्भौतिकासिता ।
रमा च महिषी प्रोक्ता मञ्जुला च विकर्णपा ।
भ्रुकुटिः स्यात्तथा लज्जा दीर्घघोणा धनुर्द्वरा ।
यामिनी रात्रिसंज्ञा च कामान्धा च शशिप्रभा ।
लोलाक्षी चञ्चला दीप्तिः सुभगा दुर्भगा शिवा ।
भर्गा च भगिनी चैव भोगिनी शुभदा मता ।
कालरात्रिः कालिका च पञ्चाशच्छक्तयः स्मृताः । सर्वालङ्करणोद्दीप्ताः प्रियाङ्कस्थाः सुशोभनाः ।
रक्तोत् लकरा ध्येया रक्तगाल्याम्बरारुणाः” ।
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गजाननः, पुं० (गजस्य हस्तिन आननं मुखमेव आननं यस्य स: इति गजाननः बहुव्रीहि समास) गणेशः । इत्यमरः कोश। १ । १ । ४१ ॥
(यथा, ब्रह्मवैवर्त्ते गणेशखण्डे ६ अध्याये ।
“शनिदृष्ट्या शिरश्छेदात् गजवक्त्रेण योजितः । गजाननः शिशुस्तेन नियतिः केन बाध्यते ॥
पुराणान्तरे मतभेदोऽपि दृश्यते यथा, स्कन्दे पुराणे गणेशखण्डे ११ अध्याये ।
गुरुरुवाच । “अवतारो यदि धृतः साधुत्राणाय भो विभो ! प्रकाशयाशु वदनं सर्व्वेषां शोकनाशनम् ॥
नयस्व सर्व्वदेवानामानन्दं हृदये प्रभो ।
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शिव उवाच:- । प्रत्युवाच गुरुं पुत्त्रः पार्व्वत्या हीनमस्तकः ॥ शिशुरुवाच । महेशाख्येन राज्ञा ते प्रणतौ चरणौ यदा । तदाशीर्या त्वया दत्ता तस्मै राज्ञे गुरो मुदा ॥ गजयोनौ जनिर्मुक्तिः शिवहस्तादुदीरिता ।
तत् सर्व्वमभवत् तस्य विद्यते चारुमस्तकः ॥
पूज्यमानः शिवेनास्ते शुण्डादण्डः सुशोभनः । अवतारकरोऽसौ मे गुरोऽस्ति भविता मुखम् ॥
शिव उवाच :- आश्चर्य्यपूर्णहृदयो गुरुरूचे पुनः शिशुम् ॥ गुरुरुवाच । भगवत ! विश्वरूपोऽसि त्रिकालज्ञोऽखिलेश्वरः ।
मया यदुदितं तस्मै त्वया ज्ञातं यतः प्रभो ! ॥ अहमीशस्वरूपं ते परिच्छेत्तुं न च क्षमः ।
श्रुत्वैव ब्रह्मणः पुत्त्रो नारदस्तत्र चाब्रवीत् ॥
नारद उवाच :-। एवमेवावतीर्णोऽसि हीनमूर्द्धा कथं प्रभो ! । अथवा बालरूपस्य छिन्नं ते केन तच्छिरः ॥ एतन्मे संशयं छिन्धि कृपया परमेश्वर !
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शिव उवाच :-। निपीय नारदीं वाणीमुवाच शिशुरुच्चकैः ॥ शिशुरुवाच । सिन्दूरः कोऽपि दैत्यो मे वायुरूपधरोऽच्छिनत् ।
अष्टमे मासि सम्पूर्णे प्रविश्योमोदरं शिरः ॥ तमिदानीं हनिष्येऽहं गजास्यं साम्प्रतं द्बिज  । 
शिव उवाच । श्रुत्वैव नारदः प्राह शिशुरूपिणमीश्वरम् ॥ नारद उवाच । अकिञ्चिज्ज्ञा वयं देव ! योजनेऽस्य मुखस्य ते । त्वमेव च स्वभावेन मखमेतन्नियोजय ॥ शिव उवाच । वदतीत्थं मुनिर्यावत् तावत् स ददृशेऽखिलैः । सर्व्वावयवसम्पूर्णो गजानन उमासुतः ॥ किरीटकुण्डलधरो युगबाहुः सुलोचनः ।
वामदक्षिणभागे च सिद्धिवृद्धिविराजितः ॥ दृष्ट्वा विनायकं स्कन्द ! तथाभूतं निजेच्छया । हर्षेणोत्फुल्लनयना देवाः सर्व्वे तदाब्रुवन् ॥
गजानन इति ख्यातो भविताऽयं जगत्त्रये ।
एवं भाद्रचतुर्थ्यां स अवतीर्णो गजाननः ”)

अमरकोशः में गणेश के पर्य्यायः वाची रूप निम्न प्रकार हैं ।

गजानन पुं। गणेशः 
समानार्थक:विनायक,विघ्नराज,द्वैमातुर,गणाधिप,एकदन्त,हेरम्ब,लम्बोदर,गजानन 
1।1।38।2।4 
विनायको विघ्नराजद्वैमातुरगणाधिपाः। अप्येकदन्तहेरम्बलम्बोदरगजाननाः॥ 

वाचस्पत्यम्

'''गजानन'''¦ पु० गजस्याननमाननं यस्य। 

१ गणेशे अमरः। इभानन

१ पृ॰ दृश्यम्। स्कन्दपुराण गणेशखण्ड  

तस्य गजाननता वर्णिता तत्र गणेशस्य मस्तक-शून्यतयोत्पत्तौ पुरा शिवच्छिन्नेन कैलासे स्थापितेन
गजासुरमस्तकेन मुखयोजनं तेन कृतमित्युक्तं यथा 
“गुरुरुवाचअबतारो यदि धृतः साधुत्राणाय भो विभो!
प्रकाशयाशु वदनं सर्वेषां शोकनाशनम्।
नयस्व सर्वदेवानामानन्दं हृदयं प्रभो!
शिव उवाच। प्रत्युवाच गुरुंपुत्रः पार्वत्या हीनमस्तकः। शिशुरुवाच। महेशाख्येनराज्ञा ते प्रणतौ चरणौ यदा। तदाशीर्या त्वया दत्तातस्मै राज्ञे गुरो! मुदा।
गजयोनौ जनिर्मुक्तिः शिव-हस्तादुदीरिता।
तत्सर्वमभवत् तस्य विद्यते चारुम-स्तकः।
पूज्यमानं शिवेनास्ते शुण्डादण्डः शुशोभनः। अवतारकरोऽसौ मे गुरोऽस्ति भविता मुखम्। शिवौवाचआश्चर्यपूर्णहृदयो गुरुरूचे पुनः शिशुम्। गुरुरुवाच। भगवन्! विश्वरूपोऽसि त्रिकालज्ञोऽखिलेश्वरः। मया यदुदितं तस्मै त्वया ज्ञातं यतः प्रभो!। अहमीशस्वरू-पन्ते परिच्छेत्तुं न च क्षमः। श्रुत्वैवं ब्रह्मणः पुत्रोनारदस्तव्र चाव्रवीत्।
नारद उवाच। 
“एवमेवावतीर्णोऽसि हीनमूर्द्धा कथं प्रभो!। अथवाबालरूपम्य छिन्नन्ते केन तच्छिरः।
एतन्मे संशयं छिन्धिकृषया परमेश्वर!
शिव उवाच। निपीय नारदींवाणीमुवाच शिशुरुच्चकैः। शिशुरुवाच।

(यथा  महाभारते।१।१।७३। “काव्यस्यलेखनार्थायगणेशःस्मर्य्यतांमुने ! ) तत्पर्य्यायः।विनायकः२विघ्नराजः७द्वैमातुरः४गणाधिपः५एकदन्तः६हेरम्बः७लम्बोदरः८गजाननः९।इत्यमरः।१।१।४०॥विघ्नेशः१०पर्शुपाणिः११गजास्यः१२आखुगः१३।इतिहेमचन्द्रः।२।१२१॥शूर्पकर्णः१४।इतिब्रह्मवैवर्त्तपुराणम्॥
तस्योत्पत्तिः।तत्रपार्व्वतींप्रतिवृद्धब्राह्मणरूपश्रीकृष्णवाक्यम्।यथा  -- “नभवेद्विष्णुभक्तिश्चविष्णुमाये त्वयाविना।त्वद्व्रतंलोकशिक्षार्थंत्वत्तपस्तवपूजनम्॥सर्व्वेज्याफलदात्रीत्वंनित्यरूपासनातनी।गणेशरूपःश्रीकृष्णःकल्पेकल्पेतवात्मजः॥त्वत्क्रोडमागतःक्षिप्रमित्युक्त्वान्तरधीयत।कृत्वान्तर्द्धानमीशश्चबालरूपंविधायसः॥जगामपार्व्वतीतल्पंमन्दिराभ्यन्तरस्थितम्।तल्पस्थेशिवबीर्य्येचमिश्रितःसबभूवह॥ददर्शगेहशिखरंप्रसूतबालकोयथा।शुद्धचम्पकवर्णाभःकोटिचन्द्रसमप्रभः॥सुखदृश्यःसर्व्वजनैश्चक्षूरश्मिविवर्द्धकः।अतीवसुन्दरतनुःकामदेवविमोहनः॥मुखंनिरुपमंबिभ्रत्शारदेन्दुविनिन्दकम्।सुन्दरेलोचनेबिभ्रत्चारुपद्मविनिन्दके॥ओष्ठाधरपुटंबिभ्रत्पक्वविम्बविनिन्दकम्।कपालञ्चकपोलन्तदतीवसुमनोहरम्॥नासाग्रंरुचिरंबिभ्रत्खगेन्द्रचञ्चुनिन्दकम्।त्रैलोक्येषुनिरुपमंसर्व्वाङ्गंविभ्रदुत्तमम्॥शयानःशयनेरम्येप्रेरयन्हस्तपादकम्॥” तस्यशनैश्चरदर्शनात्मस्तकविनाशःविष्णुकर्त्तृकगजमस्तकसंयोगश्चयथा  -- “साचदेववशीभूताशनिंप्रोवाचकौतुकात्।पश्यमांमत्शिशुमितिनियतिःकेनवार्य्यते॥पार्व्वतीवचनंश्रुत्वासोऽनुमेनेहृदास्वयम्।पश्यामिकिंनपश्यामिपार्व्वतीसुतमित्यहो॥बालंद्रष्टुंमनश्चक्रेनबालमातरंशानि।विषण्णमानसःपूर्ब्बंशुष्ककण्ठौष्ठतालुकः॥सव्यलोचनकोणेनददर्शचशिशोर्मुखम्।शनिश्चदृष्टिमात्रेणचिच्छेदमस्तकंमुने ! ॥विस्मितास्तेसुराःसर्व्वेचित्रपुत्तलिकायथा।देव्यश्चशैलागन्धर्व्वाःशिवःकैलासवासिनः॥तान्सर्व्वान्मूर्च्छितान्दृष्ट्वाचारुह्यगरुडंहरिः।जगामपुष्पभद्रांसउत्तरस्यांदिशिस्थिताम्॥पुष्पभद्रानदीतीरेददर्शकाननस्थितम्।गजेन्द्रंनिद्रितंतत्रशयानंहस्तिनीयुतम्॥शीघ्रंसुदर्शनेनैवचिच्छेदतच्छिरोमुदा।स्थापयामासगरुडेरुधिराक्तंमनोहरम्॥आगत्यपार्व्वतीस्थानंबालंकृत्वास्ववक्षसि।रुचिरंतच्छिरःकृत्वायोजयामासबालके॥ब्रह्मस्वरूपोभगवान्ब्रह्मज्ञानेनलीलया।जीवनंजीवयामासहूंकारोच्चारणेनच॥” इतिब्रह्मवैवर्त्तपुराणम्॥

॥अस्यध्यानम्।
“खर्व्वंस्थूलतनुंगजेन्द्रवदनंलम्बोदरंसुन्दरंप्रस्यन्दन्मदगन्धलुब्धमधुपव्यालोलगण्डस्थलम्।दन्ताघातविदारितारिरुधिरैःसिन्दूरशोभाकरंबन्देशैलसुतासुतंगणपतिंसिद्धिप्रदंकामदम्॥” इतिपुराणम्॥

॥ध्यानान्तरंयथा  --
“सिन्दूराभंत्रिनेत्रंपृथतरजठरंहस्तपद्मैर्दधानंदन्तंपाशाङ्कुशेष्टान्युरुकरविलसद्बीजपूराभिरामम्।बालेन्दुद्योतमौलिंकरिपतिवदनंदानपूरार्द्रगण्डंभोगीन्द्राबद्धभूषंभजतगणपतिंरक्तवस्त्राङ्गरागम्॥” इतितन्त्रसारः॥
(तस्यनमस्कारमन्त्रोयथा  --     “देवेन्द्रमौलिमन्दारमकरन्दकणारुणाः।विघ्नंहरन्तुहेरम्बचरणाम्बुजरेणवः॥
इतिपूजापद्धतिः॥)
एकपञ्चाशद्गणेशाः।
यथा  -- “विघ्नेशोविघ्नराजश्चविनायकशिवोत्तमौ।विघ्नकृत्विघ्नहर्त्ताचगणैकद्बिसुदन्तकाः॥गजवक्त्रनिरञ्जनौकपर्द्दीदीर्घजिह्वकः।शङ्ककर्णश्चवृषभध्वजश्चगणनायकः॥गजेन्द्रःसूर्पकर्णश्चस्यात्त्रिलोचनसंज्ञकः।लम्बोदरमहानन्दौचतुर्म्मूर्त्तिसदाशिवौ॥आमोददुर्म्मुखौचैवसुमुखश्चप्रमोदकः।एकपादोद्विजिह्वश्चसुरवीरःसषण्मुखः॥वरदोवामदेवश्चवक्रतुण्डोद्विरण्डकः।सेनानीर्ग्रामणीर्म्मत्तोविमत्तोमत्तवाहनः॥जटौमुण्डीतथाखड्गीवरेण्योवृषकेतनः।भक्षप्रियोगणेशश्चमेघनादकसंज्ञकः॥व्यापीगणेश्वरःप्रोक्ताःपञ्चाशद्गणपाइमे।तरुणारुणसङ्काशागजवक्त्रास्त्रिलोचनाः॥पाशाङ्कुशवराभीतिहस्ताःशक्तिसमन्विताः॥” * ॥तेषामेकपञ्चाशच्छक्तयश्चयथा  -- “ह्रीःश्रीश्चपुष्टिःशान्तिश्चस्वस्तिश्चैवसरस्वती।स्वाहामेधाकान्तिकामिन्योमोहिन्यपिवैनटी॥पार्व्वतीज्वलिनीनन्दासुयशाःकामरूपिणी।उमातेजोवतीसत्याविघ्नेशानीसुरूपिणी॥कामदामदजिह्वाचभूतिःस्याद्भौतिकासिता।रमाचमहिषीप्रोक्ताशृङ्गिणीचविकर्णपा॥भ्रुकुटिःस्यात्तथालज्जादीर्घघोणाधनुर्द्धरा।यामिनीरात्रिसंज्ञाचकामान्धाचशशिप्रभा॥लोलाक्षीचञ्चलादीप्तिःसुभगादुर्भगाशिवा।भर्गाचभगिनीचैवभोगिनीसुभगामता॥कालरात्रिःकालिकाचपञ्चाशच्छक्तयःस्मृताः।सर्व्वालङ्करणोद्दीप्ताःप्रियाङ्कस्थाःसुशोभनाः॥रक्तोत्पलकराध्येयारक्तमाल्याम्बरारुणाः॥
इति शारदातिलक टीकायां राघवभट्टः॥
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भारतीयों  के एक प्रधान देवता जिनका सारा शरीर मनुष्य का है, पर सिर हाथी का सा है ।
विशेष—इनके चार हाथ और एक दाँत है ।
तोंद निकली हुई है ।
सिर में तीन आँखें और ललाट पर अर्धचंद्र है ।
ये महादेव के पुत्र माने जाते हैं ।
इनकी सवारी चूहा है ।
पुराणों में लिखा है कि पहले इनका सिर मनुष्य का सा था; पर शनैश्चर की दृष्टि पड़ने से इनका सिर कट गया । इसपर विष्णु ने एक हाथी के सिर काटकर धड़ पर जोड़ दिया ।
इसके पीछे ये एक बार परशुराम जी से भिड़े, जिसपर परशुराम जी ने एक दाँत परशु से तोड़ डाला ।
किसी किसी पुराण में लिखा है कि दाँत रावण ने उखाड़ा था ।
किसी के मत से वीरभद्र या कार्तिकेय ने दाँत तोड़ा था । इसी प्रकार सिर सटने के विषय में भी मतभेद है । गणेश महादेव के गणों के अधिपति हैं ।
पुराणों का कथन है कि जो शुभ कार्यों के आरंभ में इनकी पूजा नहीं करता, उसके कामों में ये विघ्न कर देते हैं ।
इसी लिये समस्त मंगल कामों में इनकी पूजा होती है । यह बड़ें लेखक भी हैं ।
ऐसा प्रसिद्ध है कि व्यास के महाभारत को सर्व-प्रथम  इन्हीं ने लिखा था ।
इनके हाथों में पाश, अंकुश, पदम और परशु है ।
ये हिंदुओं के पञ्चदेवों अर्थात् पाँच प्रधान देवताओं में हैं ।
पर्य्यायः वाची रूप हैं—विनायक । विघ्नराज । द्वैमातुर । गणाधिप । एकदन्त । हेरम्ब । लम्बोदर । गजानन । विघ्नेश । परशुपाणि । गजास्य । आखुग । शूर्पकर्ण । गजानन ।

वैदिक ऋचाओं में गणपति को भी विष्णु-इन्द्र रूप माना जा रहा है।
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निषुसीद गणपते गणेषु
त्वामाहुर्वि प्रतमं कवीनाम्।

        न ऋते त्वत् क्रियते किंचनारे
        महामर्क मघवन चित्रम च।।
ऋग्वेद 10/112/9
आप अपने समूह में विराजें।
कवि आपको अग्रगण्य  कहते हैं।
नाना प्रकार के दिव्य प्रकाश (ज्ञान) को प्रकाशित कीजिए।
आपके बिना कोई भी काम, कहीं भी नहीं किया जाता है।
गणपति को गणों का ईश कहते हैं।

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प्रस्तुति करण:- यादव योगेश कुमार 'रोहि'

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