शनिवार, 28 सितंबर 2024

अध्याय 6 अध्याय-(७) भगवान श्री कृष्ण का सदैव गोप होना तथा गोपकुल में उनका अवतरण"


अध्याय- (६)

"वैष्णव वर्ण" के गोपों की पौराणिक ग्रंथों में प्रशंसा।

                     
पौराणिक ग्रंथों में वैष्णव वर्ण के गोपों की समय-समय पर भूरी-भूरी प्रशंसा की गई है। जैसे-
१- ब्रह्मा जी के पुष्कर यज्ञ के समय जब अहीर कन्या देवीगायत्री का विवाह ब्रह्मा जी से होने को निश्चित हुआ तो वहीं पर सभी देवताओं और ऋषि- मुनियों की उपस्थिति में भगवान विष्णु गोपों से पद्मपुराण के सृष्टि खंड के अध्याय- १७ के श्लोक संख्या १७ में कहते हैं कि-

"धर्मवन्तं सदाचारं भवन्तं धर्मवत्सलम्।
मया ज्ञात्वा तत:कन्यादत्ताचैषा विरञ्चयते।।१७।

       
अनुवाद-  तुम लोगों को मैंने धार्मिक, सदाचारी एवं धर्मवत्सल जानकर ही तुम्हारी इस कन्या को ब्रह्मा के लिए प्रदान किया है।१७।
     
अतः उपरोक्त श्लोकों के आधार पर सिद्ध होता है कि गोपों जैसा धर्मवत्सल, सदाचारी और धर्मज्ञ भूतल पर ही नहीं बल्कि संपूर्ण ब्रह्मांड में और कोई दूसरा नहीं है।

२-इसी तरह से गोपकुल की गोपियों के लिए गर्गसंहिता के गोलक खंड के अध्याय- १० के श्लोक संख्या-८ में नारद जी कंस से कहते हैं कि -
नन्दाद्या वसव: सर्वे बृषभान्वादय: सरा:।
गोप्यो वेदऋचाद्याश्च सन्ति भूमौ नृपेश्वर।। ८।
अनुवाद
-  नन्द आदि गोप वसु के अवतार हैं और वृषभानु आदि देवताओं के हे नृपेश्वर कंस ! इस "ब्रजभूमि में जो गोपियां है, उनके रूप में वेदों की ऋचाएं यहां निवास करती हैं"। अर्थात गोपियाँ साक्षात् आध्यात्मिक विभूतियाँ हैं।
 
अब इससे बड़ी बात और क्या हो सकती है कि गोपियों को वेदों की ऋचाओं का रूप दिया जाता है। अर्थात उपमेय और उपमान का
 अभेद आरोपण किया जाता है।

३-गोपिया कोई साधारण स्त्रियां नहीं है। तभी तो चातुर्वर्ण्य के नियामक व रचयिता ब्रह्मा जी- श्रीमद्भभागवत पुराण के दशम स्कंध के अध्याय - (४७) के श्लोक (६१) में गोपियों की चरण धूलि को पाने के लिए तरह-तरह की कल्पना करते हुए मन में विचार करते हैं कि-
"
आसामहो चरणरेणुजुषामहं स्यां वृन्दावने किमपि गुल्मलतौषधीनाम्।
या दुस्त्यजं स्वजनमार्यपथमं च हित्वा भेजुर्मुकुन्दपदवीं श्रुतिभिर्विमृग्याम्।।६१।

           
अनुवाद - मेरे लिए तो सबसे अच्छी बात यही होगी कि मैं इस वृंदावन धाम में कोई झाड़ी, लता अथवा औषधि बन जाऊं। अहा ! यदि मैं ऐसा बन जाऊंगा, तो मुझे इन व्रजांगनाओं (गोपियों ) की चरण धूलि निरन्तर सेवन करने के लिए मिलती रहेगी।
अब इन गोपकुल की गोपियों के लिए इससे बड़ी बात और क्या हो सकती है कि ब्रह्मा जी भी इनके चरणों की धूलि पाने के लिए झाड़ी और लता तक बन जाने की इच्छा करते हैं।
४- इसी तरह से गोपों के बारे में श्री राधा जी, गोपी रूप धारण किए भगवान श्री कृष्ण से- गर्गसंहिता के वृंदावन खंड के अध्याय-१८ के श्लोक संख्या २२ में कहती हैं कि-
"गा: पालयन्ति सततं रजसो गवां च गङ्गां स्पृशन्ति च जपन्ति गवां सुनाम्नाम।
प्रेक्षन्त्यहर्निशमलं सुमुखं गवां च जाति: परा न विदिता भुवि गोपजाते:।।२२।

अनुवाद - ग्वाले सदा गौओं का पालन करते हैं। गोरज की गंगा में नहाते हैं, उनका स्पर्श करते हैं तथा गौओं के उत्तम नाम का जाप करते हैं। इतना ही नहीं उन्हें दिन रात गौओं के सुंदर मुख का दर्शन होता है। मेरी समझ में तो इस भूतल पर गोप जाति से बढ़कर दूसरी कोई जाति ही नहीं है।
५- इसी तरह से परम
ज्ञानयोगी उद्धव जी ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्ण जन्म खंड के अध्याय-९४ के कुछ प्रमुख श्लोकों में गोपियों  की भूरी-भूरी प्रशंसा करते हुए कहते हैं कि-
"धन्यं भारतवर्षं तु पुण्यदं शुभदं वरम् ।
गोपीपादाब्जरजसा पूतं परमनिर्मलम् ।। ७७।


ततोऽपि गोपिका धन्या सान्या योषित्सु भारते।
नित्यं पश्यन्ति राधायाः पादपद्मं सुपुण्यदम् ।। ७८।
        
अनुवाद - इस भारतवर्ष में नारियों के मध्य गोपीकाएं सबसे बढ़कर धन्या और मान्या हैं, क्योंकि वे उत्तम पुण्य प्रदान करने वाले श्री राधा के चरणकमलों का नित्य दर्शन करती
 रहती है।७७-७८।
  
षष्टिवर्षसहस्राणि तपस्तप्तं च ब्रह्मणा ।
राधिकापादपद्मस्य रेणूनामुपलब्धये ।। ७९ ।।

गोलोकवासिनी राधा कृष्णप्राणाधिका परा ।
तत्र श्रीदामशापेन वृषभानसुताऽधुना ।।८०।

ये ये भक्ताश्च कृष्णस्य देवा ब्रह्मादयस्तथा ।

राधायाश्चापि गोपीनांकरां नार्हन्ति षोडशीम् ।८१।

कृष्णभक्तिं विजानाति योगीन्द्रश्च महेश्वरः ।
राधा गोप्यश्च गोपाश्च गोलोकवासिनश्च ये ।८२।

किञ्चित्सनत्कुमारश्च ब्रह्मा चेद्विषयी तथा ।
किञ्चिदेव विजानन्ति सिद्धा भक्ताश्च निश्चितम् ।। ८३।

धन्योऽहं कृतकृत्योऽहमागतो गोकुलं यतः ।
गोपिकाभयो गुरुभ्यश्च हरिभक्तिं लभेऽचलाम् ।। ८४।

मथुरां च न यास्यामि तीर्थकीर्तेश्च कीर्तनम् ।
श्रोष्यामि किंकरो भूत्वा गोपीनां जन्मजन्मनि ।। ८५।

न गोपीभ्यः परो भक्तो हरेश्च परमात्मनः ।
यादृशीं लेभिरेगोप्यो भक्तिं नान्ये च तादृशीम् ।८६।       
अनुवाद - इन्हीं राधिका के चरण कमल की रज को प्राप्त करने के लिए ब्रह्मा ने साठ हजार वर्षों तक तप किया था।७९।

गोलोक-वासिनी राधा जी, जो परा प्रकृति हैं। वहीं भगवान कृष्ण को प्राणों से भी अधिक प्रिय हैं। वे गोलोक में श्री-दामा के शाप से आज-कल  भूलोक में वृषभानु की पुत्री राधा के नाम से उपस्थित हैं। और जो-जो श्री कृष्ण के भक्त हैं, वे सभी राधा के भी भक्त हैं। ब्रह्मा आदि देवता गोपियों की (16) वीं कला की भी समानता नहीं कर सकते।। ८०-८१।।

श्री कृष्ण की भक्ति का मर्म पूर्णरूप
से तो योगीराज महेश्वर, राधा तथा गोलोकवासी गोप और गोपियां ही जानती हैं। ब्रह्मा और सनत्कुमारों को कुछ ही ज्ञात है। सिद्ध और भक्त भी स्वल्प ही जानते हैं।८२-८३।

इस गोकुल में आने से मैं धन्य हो गया। यहां गुरुस्वरूपा गोपिकाओं से मुझे अचल हरिभक्ति प्राप्त हुई है, जिससे मैं कृतार्थ हो गया। ८४।

फिर इसके अगले श्लोक- ८५ और ८६ में उद्धव जी कहते हैं कि-
मथुरां च न यास्यामि तीर्थकीर्तेश्च कीर्तनम् ।
श्रोष्यामि किंकरो भूत्वा गोपीनां जन्मजन्मनि ।। ८५ ।।

न गोपिभ्यः परो भक्तों हरेश्च परमात्मनः।
यादृशीं लेभिरे गोप्यो भक्तिं नान्ये च तादृशीम्। ८६।

अनुवाद - अब मैं मथुरा नहीं जाउंगा, और प्रत्येक जन्म में यहीं गोपियों का किंकर (दास,सेवक) होकर तीर्थश्रवा श्रीकृष्ण का कीर्तन सुनता रहूंगा, क्योंकि गोपियों से बढ़कर परमात्मा श्रीहरि का कोई अन्य भक्त नहीं है। गोपियों ने जैसी भक्ति प्राप्त की है वैसी भक्ति दूसरों को नसीब नहीं हुई। ८६।
                  
और यहीं कारण है कि शास्त्रों में सभी मनुष्यों को गोप और गोपियों की पूजा करने का भी विधान किया गया है। इस बात की पुष्टि- श्रीमद्भेवीभागवत पुराण के नवम् स्कंध के अध्याय -३० के श्लोक संख्या - ८५ से ८९ से होती है जिसमें लिखा गया है कि -

"कार्तिकीपूर्णिमायां च कृत्वा तु रासमण्डलम्।
गोपानां शतकं कृत्वा गोपीनां शतकं तथा।। ८५।
शिलायां प्रतिमायां च श्रीकृष्णं राधाया सह।
भारते पूजयेभ्दवत्या चोपचाराणि षोडश।। ८६।

गोलोक वसते सोऽपि यावद्वै ब्राह्मणो वय।
भारतं पुनरागत्य कृत्यो भक्तिं लभेद् दृढाम।। ८७।

क्रमेण सुदृढां भक्तिं लब्ध्वा मन्त्रं हरेरहो।
देवं त्यक्त्वा च गोलोकं पुनरेव प्रयाति सः।। ८८।

ततः कृष्णस्य सारुपयं पार्षदप्रवरो भवेत्।
पुनस्तत्पतनं नास्ति जरामृत्युहरो भवेत।। ८९।

अनुवाद - जो भारतवर्ष में कार्तिक पूर्णिमा को सैकड़ो गोपों तथा गोपियों को साथ लेकर रास मण्डल संबंधी उत्सव मनाकर शीला पर या प्रतिमा में सोलहों प्रकार के पुजनोपचारों से भक्ति पूर्वक साधन सहित श्री कृष्ण की पूजा संपन्न करता है, वह ब्रह्मा जी के स्थित पर्यंत गोलोक में निवास करता है। 
पुनः भारतवर्ष में जन्म पाकर वह श्री कृष्ण की स्थिर भक्ति प्राप्त करता है। 
फिर भगवान श्रीहरि की क्रमशः सुदृढ़ भक्ति तथा उनका मंत्र प्राप्त करके देह त्याग के अनन्तर वह पुनः गोलोक चला जाता है। वहां श्री कृष्ण के समान रूप प्राप्त करके वह उनका प्रमुख पार्षद बन जाता है। तब पुनः वहां से उसका पतन नहीं होता, वह जरा तथा मृत्यु से सर्वथा रहित हो जाता है। अर्थात व मोक्ष को प्राप्त हो जाता है। ८५-८९।
         
                 
 गोपों के इन्हीं सब आध्यत्मिक विशेषताओं के कारण- गोप, यादवों को पाप से मुक्ति दिलाने वाला भी कहा जाता है। इस बात की पुष्टि-  गर्गसंहिता के अश्वमेधखण्ड खंड के अध्याय- ६० के श्लोक संख्या- ४० से होती है। जिसमें लिखा गया है कि-
"य: श्रृणोति चरित्रं वै गोलोकारोहणं हरेः।
मुक्तिं यदुनां गोपानां सर्वपापै: प्रमुच्यते।। ४०।

                    
अनुवाद -जो लोग श्री हरि के गोलोक धाम पधारने का चरित्र सुनते हैं तथा यादव गोपों के मुक्ति का वृतांत( कथा)सुनते हैं, वे निश्चय ही सब पापों से मुक्त हो जाते हैं।४०।

कुछ इसी तरह की बात श्रीविष्णुपुराण के चतुर्थ अंश के अध्याय- ११ के श्लोक संख्या- ४ में भी लिखी गई है जिसमें गोपकुल के यादव वंश को पाप मुक्ति का सहायक बताया गया है-

"यदोर्वंशं नरः श्रुत्वा सर्वपापै: प्रमुच्यतते।
यत्रावतीर्णं कृष्णाख्यं परं ब्रह्म निराकृति।। ४
     
 अनुवाद - जिसमें श्री कृष्णा नमक निराकार परब्रह्म ने अवतार लिया था, उस यदुवंश का श्रवण करने से मनुष्य संपूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है। भागवत पुराण में भी वर्ण

वर्णयामि महापुण्यं सर्वपापहरं नृणाम् ।
यदोर्वंशं नरः श्रुत्वा सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥१९॥

 यत्रावतीर्णो भगवान् परमात्मा नराकृतिः।
 यदोः सहस्रजित्क्रोष्टा नलो रिपुरिति श्रुताः ॥२०॥
  
इस प्रकार से यह अध्याय-६ वैष्णव वर्ण के गोपकुल  के गोप और गोपियों की पुराणों में की गई भूरी-भूरी प्रसंशाओ और उनकी आध्यात्मिक महत्ता की जानकारी के साथ समाप्त हुआ।
  
इसी क्रम में इसके अगले अध्याय- ७ में भगवान श्री कृष्ण का सदैव गोप होना तथा गोपकुल में उनके अवतरित होने के प्रमुख कारणों को जानेंगे।



अध्याय-(७) 
भगवान श्री कृष्ण का सदैव गोप होना तथा गोपकुल में उनका अवतरण"

"यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।। ७।          
स्रोत-(गीता अध्याय- ४)
अनुवाद - भगवान श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि- जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने आप को साकार रूप से प्रकट करता हूं अर्थात् भूतल पर शरीर रूप धारण करता हूं।
       
इसी को चरितार्थ करने के लिए परम प्रभु गोपेश्वर श्री कृष्ण अपने गोलोक से धराधाम पर गोपकुल के यादव वंश में अवतरित होते हैं।
       
इस बात की पुष्टि- श्रीमद्भागवत पुराण के ग्यारहवें स्कंध के अध्याय -४ के श्लोक संख्या- (२२) से भी होती है जिसमें लिखा गया है कि-
भूमेर्भारावतरणाय यदुष्वजन्मा
     जातः करिष्यति सुरैरपि दुष्कराणि ।
 वादैर्विमोहयति यज्ञकृतोऽतदर्हान्
     शूद्रान् कलौ क्षितिभुजो न्यहनिष्यदन्ते ॥२२॥



अनुवाद - अजन्मा होने पर भी पृथ्वी का भार उतारने के लिए वे ही भगवान यदुवंश में जन्म लेंगे और ऐसे-ऐसे कर्म करेंगे, जिन्हें बड़े-बड़े देवता भी नहीं कर सकते।
                  
इसी तरह से श्रीमद् भागवत पुराण के ग्यारहवें  स्कंध के अध्याय-६ के श्लोक संख्या -(२३) और (२५) में ब्रह्मा जी श्री कृष्ण से कहते हैं कि-
अवततीर्य यदोर्वंशे बिभ्रद् रुपमनुत्तमम्।
कर्माण्युद्दामवृत्तानि हिताय जगतोऽकृथाः।।२३।

श्रीमद्भागवतपुराणम्/स्कन्धः ११/अध्यायः ६
यदुवंशेऽवतीर्णस्य भवतः पुरूषोत्तम।
शरच्छतं व्यतीताय पञ्चविञ्शाधिजगतोऽकृथाः।।२५।

अनुवाद - आपने यह सर्वोत्तम रूप धारण करके यदुवंश में अवतार लिया और जगत के हित के लिए उदारता और पराक्रम से भरी अनेक लीलाएं कीं । २३।
• पुरुषोत्तम सर्वशक्तिमान प्रभु ! आपको यदुवंश में अवतार ग्रहण किये एक सौ पच्चीस वर्ष बीत गए हैं।२५।
           
इसी तरह से हरिवंश पुराण के हरिवंश पर्व के अध्याय- ५५ के श्लोक - १७ में गोपेश्वर श्री कृष्ण ने ब्रह्मा जी से पूछा कि- आप मुझे यह बताएं कि मैं किस प्रदेश में कैसे प्रकट होकर अथवा किस वेष में रहकर उन सब असुरों का समर भूमि में संहार करूंगा ? इस पर ब्रह्मा जी श्लोक संख्या- १८ से २० में कहा -
नारायणेमं सिद्धार्थमुपायं श्रृणु में विभो।
भुवि यस्ते जनयिता जननी च भविष्यति।। १८।

यत्र त्वं च महाबाहो जात: कुलकरो भुवि।
यादवानां महद वंशमखिलं धारयिष्यसि।। १९।

ताश्चासुरान् समुत्पाट्य वंशं कृत्वाऽऽत्मननो  महत्।
स्थापयिष्यसि मर्यादां नृणां तन्मे निशामय।। २०।
             
अनुवाद - सर्वव्यापी नारायण ! आप मुझे इस उपाय को सुनिए, जिसके द्वारा सारा प्रयोजन सिद्ध हो जाएगा। हे महाबाहो! भूतल पर जो आपके पिता होंगे,जो माता होगीं और जहां जन्म लेकर आप अपने कुल की वृद्धि करते हुए यादवों के संपूर्ण विशाल वंश को धारण करेंगे तथा उन समस्त असुरों का संहार करके अपने वंश का महान विस्तार करते हुए जिस प्रकार मनुष्यों के लिए धर्म की मर्यादा स्थापित करेंगे, वह सब बताता हूं सुनिए। १८-१९-२०।
         
इसी तरह से गोपेश्वर श्री कृष्ण को यदुवंश में जन्म लेने की  पुष्टि- गर्ग संहिता के विश्वजीत खंड के अध्याय- १४ के श्लोक संख्या- ४१ से होती है। जिसमें त्रेता युग के रावण के भाई विभीषण जो अमर होकर लंका का राजा द्वापर युग तक था। उसी समय यादव अपनी विशाल सेना के साथ विश्वजीत युद्ध के लिए निकले थे। उसी दरम्यान
दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य ने विभीषण को बताया कि-
असंख्यब्राह्मण्डपतिर्गोलोकेश: परात्पर:।
जातस्तयोर्वधाथार्य यदुवंशे हरि: स्वयंम्।। ४१।

यादवेन्द्रो भूरिलीलो द्वारकायां विराजते। ४२/२
        
अनुवाद - असंख्य ब्रह्माण्डपति परात्पर गोलोकनाथ श्रीकृष्ण यदुवंश में अवतीर्ण हुए हैं। वे यादवेंद्र बहुत सी लीलाएं करते हुए इस समय द्वारिका में विराजमान है। ४१, ४२/२
        
यादवों के उसी विश्वजीत युद्ध के दरम्यान मुनि वामदेव ने राजा गुणाकर  को भी भगवान श्री कृष्ण के यादवकुल में उत्पन्न होने की बात बहुत ही अच्छे ढंग से बतायी है। जिसका वर्णन गर्ग संहिता के विश्वजीत खंड के अध्याय- २८ के श्लोक संख्या- ४५ व ४६ में कुछ इस प्रकार लिखा गया है-
राजंस्त्वं हि न जानसि परिपूर्णतमं हरिम्।
सुराणां महदर्थाय जातं यदुकुले स्वयंम्।
भुवो भारावताराय भक्तानां रक्षणाय च।।४५।

भूत्वा यदुकुले साक्षाद् द्वारकायां विराजते।
तेन कृष्णेन पुत्रोऽयं प्रदुम्नो यादवेश्वरः ।
उग्रसेनमखार्थाय जगज्नेतुं प्रणोदित:।। ४६।
      
अनुवाद - राजन ! तुम नहीं जानते कि परिपूर्णतम परमात्मा श्री हरि, देवताओं का महान कार्य सिद्ध करने के लिए यदुकुल में उत्तीर्ण हुए हैं। पृथ्वी का भार उतरने और भक्तों की रक्षा करने के लिए यदुकुल में अवतीर्ण हो वे साक्षात भगवान द्वारिकापुरी में विराजते हैं। उन्हीं श्री कृष्ण ने अग्रसेन के यज्ञ की सिद्धि के लिए संपूर्ण जगत को जीतने के निमित्त अपने पुत्र यादवेश्वर प्रद्युम्न को भेजा है।४५-४६।
             
यादवों के उसी विश्वजीत युद्ध के दरम्यान जब श्रीकृष्ण के द्वारा महान बलशाली दैत्यराज शकुनी मारा गया तब उसकी पत्नी मदालसा हाथ जोड़कर श्री कृष्ण से जो कुछ बोली उससे भी सिद्ध होता है कि भगवान श्री कृष्ण यदुकुल में अवतीर्ण हुए थे। जिसका वर्णन गर्गसंगीता के विश्वजीत खंड के अध्याय- ४२ के श्लोक संख्या- ६ और ७ में कुछ इस प्रकार लिखा गया है-

"भारावताराय भुवि प्रभो त्वं जातो यदूनां कुल आदिदेव।
ग्रसिष्यसे पासि भवं निधाय गुणैर्न लिप्तोऽसि नमामि तुभ्यम्।।६।

मदात्मजं पालय भीतभीत ममुष्य हस्तं कुरु शीर्षि्ण देव।
भर्त्रा कृते में किल तेऽपराधं क्षमस्व देवेश जगन्निवास।। ७।
            
अनुवाद - प्रभो! आदि देव! आप भूतल का भार उतारने के लिए यदुकुल में अवतरित हुए हैं। आप ही संसार के स्रष्टा एवं पालक है, और प्रलय काल आने पर आप ही इसका संहार भी करते हैं। किंतु आप कभी भी गुणों से लिप्त नहीं होते। मैं आपकी अनुकूलता प्राप्त करने के लिए आपके चरणों को प्रणाम करती हूं। मेरा बेटा बहुत डरा हुआ है। आप इसकी रक्षा कीजिए। देव ! इसके मस्तक पर अपना वरद हस्त रखिए। देवेश ! जगन्निवास ! मेरे पति ने  जो अपराध किया है उसे क्षमा कीजिए।
           
इसी तरह से जब सभी देवता मिलकर ब्रह्मा जी का विवाह अहीर कन्या गायत्री से कराते हैं। तब ब्रह्मा जी की पत्नी सावित्री क्रोध से तिलमिलाकर अहीर कन्या गायत्री सहित देवताओं को शापित करने लगती है। उसी समय वहां उपस्थित विष्णु को भी सावित्री श्राप दे देती हैं। उसी शाप के विधान से ही गोपेश्वर श्रीकृष्ण को यदुकुल में जन्म लेना पड़ा। इस बात की पुष्टि- पद्मपुराण के सृष्टि खंड के अध्याय- १७ के श्लोक संख्या-१६१ से होती है। जिसमें सावित्री विष्णु को शाप देते हुए कहती हैं कि-

"यदा यदुकुले जातः कृष्णसंज्ञो भविष्यसि।
पशूनां दासतां प्राप्य चिरकालं गोप रूपेण भ्रमिष्यसि ।।१५४।
                    
अनुवाद - हे विष्णु! जब तुम यदुवंश में जन्म लोगे, तो तुम कृष्ण के नाम से जाने जाओगे। उस समय तुम पशुओं (गायों) के सेवक बन कर  लम्बे समय तक इधर-उधर भटकते रहोगे। १५४
           
इसी तरह से बलराम जी को भी यदुकुल में उत्पन्न होने की पुष्टि गर्गसंहिता के बलभद्र खंड के श्लोक संख्या -१३और १४ से होती है। जिसमें बलराम जी स्वयं अपने पार्षदों से कहते हैं कि -

हे हलमुसले यदा-यदा युवयोः स्मरणंं करिष्यमि।
तदा तदा मत्युर आविर्भूते भवतम्।। १३।

भो वर्म त्वमपि चाविर्भव। हे मुनयः पाणिन्यादयो हे व्यासादयो हे कुमुदादयो हे कोटिशो रुद्रा हे भवानीनाथ
हे एकादश रुद्रा हे गन्धर्वा ! हे वासुक्यादिनागेन्द्रा हे निवातकवचा हे वरुण हे कामधेनो मूम्यां भारतखण्डे यदुकुलेऽवतरन्तं  मां यूयं सर्वे सर्वदा एत्य मम दर्शनं कुरुत।।१४।
           
अनुवाद - हे हल और मुसल ! मैं जब-जब तुम्हारा स्मरण करूं, तब-तब तुम मेरे सामने प्रकट हो जाना। हे कवच! तुम भी वैसे ही प्रकट हो जाना। हे पाणिनि आदि, व्यास आदि तथा कुमुद आदि मुनियों! हे कोटि-कोटि रूद्रों! गिरिजा पति शंकर जी! ग्यारह रुद्रों! गन्धर्वों ! वासुकि आदि नागराजों ! निवातकवच आदि दैत्यों! हे वरूण और कामधेनु ! मैं भूमण्डल पर भारतवर्ष में यदुकुल में अवतार लूँगा। तुम सब वहां आकर सदा सर्वदा मेरा दर्शन करना। १३,१४।

             
इन सभी उपरोक्त श्लोकों से यह सिद्ध होता है कि भगवान श्रीकृष्ण का अवतरण यदुकुल या यदुवंश में हुआ है।
                 
किंतु इस संबंध में ज्ञात हो कि- यदुवंश या यदुकुल- वैष्णव वर्ण के गोपकुल का ही प्रमुख वंश एवं कुल है।  इसीलिए भगवान श्री कृष्ण को जब वंश में जन्म लेने की बात कही जाती है, तब उनके लिए यदुवंश का नाम लिया जाता है। किंतु जब भगवान श्री कृष्ण को किसी कुल में जन्म लेने की बात कही जाती है तो उनके लिए गोपकुल या यदुकुल नाम लिया जाता है। इसमें दोनों तरह से बात एक ही है।
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क्योंकि भगवान श्री कृष्ण को अनेकों बार यदुवंश के साथ-साथ गोपकुल में भी जन्म लेने की बात कही गई है। जैसे-
गोपेश्वर श्रीकृष्ण को गोपकुल में जन्म लेने की बात हरिवंश पुराण के विष्णु पर्व के ग्यारहवें अध्याय के श्लोक संख्या -५८ में कही गई है जिसमें भगवान श्रीकृष्ण स्वयं कहते हैं कि-

एतदर्थं च वासोऽयंव्रजेऽस्मिन् गोपजन्म च।
अमीषामुत्पथस्थानां निग्रहार्थं दुरात्मनाम्।५८।

           
अनुवाद - इसीलिए ब्रज में मेरा यह निवास हुआ है और इसीलिए मैंने गोपों में अवतार ग्रहण किया है।
           
भगवान श्री कृष्ण को गोपकुल में अवतीर्ण होने की बात गायत्री संग ब्रह्मा जी के विवाह के समय तब होती है जब इन्द्र गोप कन्या गायत्री को बलात् उठाकर ब्रह्मा जी से विवाह हेतु यज्ञ स्थल पर ले गए। तब सभी गोप अपना मुख्य शस्त्र लाठी- डंडा के साथ अपनी कन्या गायत्री को खोजते हुए ब्रह्मा जी के यज्ञ स्थल पर पहुंचे। वहां पहुँच कर गायत्री के माता-पिता ने पूछा कि- मेरी कन्या को कौन यहां लाया है ? तब उनकी यह बात सुनकर तथा उनके क्रोध का अंदाजा लगाकर वहां उपस्थित सभी देवता और ऋषि मुनि भयभीत हो गए। तभी वहां उपस्थित विष्णु जी बीच बचाव करते हुए गोपों के सामने खड़े हो गए और उस मौके पर जो कुछ गोपों से कहा उसका वर्णन पद्मपुराण के सृष्टि खंड के अध्याय- १७ के श्लोक संख्या -१६ से २० में मिलता है। जिसमें विष्णु जी गोपों से कहते हैं कि -

"अनया आभीरकन्याया तारितो गच्छ! दिव्यान्लोकान्महोदयान्।
युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये।। १६ ।            
अवतारं करिष्येहं सा क्रीडा तु भविष्यति।
यदा नन्दप्रभृतयो ह्यवतारं धरातले।१७।           

करिष्यन्ति तदा चाहं वसिष्ये तेषु मध्यतः।
युष्माकं कन्यकाः सर्वा वसिष्यन्ति मया सह।१८।     
तत्र दोषो न भविता न द्वेषो न च मत्सरः ।
करिष्यन्ति तदा गोपा भयं च न मनुष्यकाः।१९ ।    
न चास्याभविता  दोषः कर्मणानेन कर्हिचित्।
श्रुत्वा वाक्यं  तदा विष्णोः प्रणिपत्य  ययुस्तदा। २०।

अनुवाद:-  हे अहीरों (गोपों)इस गायत्री के द्वारा उद्धार किये गये तुम सब दिव्यलोक को जाओ तुम्हारी अहीर जाति के यदुवंश के अन्तर्गत वृष्णिकुल में देवों के कार्य  सिद्धि के लिए मैं अवतरण करुँगा।१६।

• और वहीं मेरी लीला(क्रीडा) होगी। उसी समय धरातल पर नन्द आदि का भी अवतरण होगा।१७।

• तब मैं उनके बीच रहूंगा। तुम्हारी सभी पुत्रियाँ मेरे साथ रहेंगी।१८।

• तब वहां कोई पाप, द्वेष और ईर्ष्या नहीं होगी। ग्वाले और मनुष्य भी किसी को भय नहीं देंगे। १९।  
 
• इस कार्य (ब्रह्मा से विवाह करने) के फलस्वरूप इस (तुम्हारी पुत्री को) कोई पाप नहीं लगेगा। विष्णु के ये वचन सुनकर वे सभी उन्हें प्रणाम करके वहां से चले गए।२०।   
              
किंतु जाते समय गोपगण विष्णु से यह वादा करवाया कि आप निश्चित रूप से गोपकुल में ही जन्म लेंगे। जिसका वर्णन इसी अध्याय के श्लोक -२१ में है जिसमें गोपगण विष्णु जी से कहते हैं कि -
एवमेष वरो देव यो दत्तो भविता हि मे।
अवतारः कुलेऽस्माकंं  कर्तव्योधर्मसाधनः।। २१
                
अनुवाद - हे देव! यही हो। आपने जो वर दिया, वैसा ही हो। आप हमारे कुल में धर्मसाधन कर्तव्य हेतु अवश्य अवतार लेंगे। २१।

तब विष्णु ने भी गोपों को ऐसा ही आश्वासन दिया। तब सभी गोप खुशी-खुशी से अपने-अपने घर चले गए।
         
तब अहीर कन्या गायत्री ने ब्रह्मा जी की प्रथम पत्नी सावित्री जो विष्णु को यह शाप दे चुकी थी कि - हे विष्णु ! जब तुम यदुवंश में जन्म लोगे, तो तुम कृष्ण के नाम से जाने जाओगे। उस समय तुम पशुओं (गायों) के सेवक बन कर  लंबे समय तक इधर-उधर भटकते रहोगे। उस शाप को गायत्री ने वरदान में बदलते हुए विष्णु से जो कहा उसका वर्णन- स्कंद पुराण खण्ड- ६ के नागर खंड के अध्याय-१९३ के श्लोक - १४ और १५ में मिलता है। जिसमें गायत्री विष्णु से कहतीं हैं कि -

तेनाकृत्येऽपि  रक्तास्ते  गोपा यास्यंति श्लाघ्यताम् सर्वेषामेव लोकानां देवानां च विशेषतः ॥१४॥

यत्रयत्र  च वत्स्यन्न्ति  मद्वंशप्रभवानराः॥
तत्रतत्र श्रियो वासो वनेऽपि प्रभविष्यति ॥१५॥


अनुवाद - गायत्री विष्णु से कहती हैं-  तुम्हारे  इस प्रकार  रक्त सम्बन्धी ( blood relation ) वाले गोप (अहीर) तुम्हारी प्राप्ति कर  विना कुछ कर्म  के भी प्रशंसनीय पद प्राप्त कर जायेंगे। और सभी लोग विशेष रूप से देवता भी उनकी प्रशंसा करेंगे। १४।

•  और पुन: गायत्री विष्णु से  कहती हैं- मेरे गोप वंश के लोग जहां भी रहेंगे, वहां श्री (सौभाग्य और समृद्धि) विद्यमान रहेगी, चाहे वह स्थान जंगल ही क्यों नन हो।
           
इन उपरोक्त महत्वपूर्ण श्लोकों के आधार पर निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि-  धर्म स्थापना हेतु गोपेश्वर श्रीकृष्ण का जन्म या अवतरण, वैष्णव वर्ण के अंतर्गत गोप जाति (अहीर जाति ) के यादव वंश में ही होता है अन्य किसी जाति या वंश में नहीं।
                
यही कारण है कि भगवान श्री कृष्ण, चाहे गोलोक में हो या भूलोक में हो, वे सदैव गोप भेष में गोपों के ही साथ ही रहते हैं, और सभी लीलाएं उन्हीं के साथ ही करते हैं। इसीलिए गोपों को श्रीकृष्ण का सहचर (सहगामी) अर्थात् साथ-साथ चलने वाला और गोपेश्वर भी  कहा जाता है।
                
भगवान श्री कृष्ण को सदैव गोप भेष में गोपों के साथ रहने की पुष्टि - हरिवंश पुराण के विष्णु पर्व के अध्याय -३ के श्लोक -३४ से होती है। जिसमें भगवान श्री कृष्ण जन्म लेने से पूर्व योग माया से कहते हैं कि- 
मोहहित्वा च तं कंसमेका त्वं भोक्ष्यसे जगत्।
अहमप्यात्मनो वृत्तिं विधास्ये गोषु गोपवतः।। ३४।

             
अनुवाद - तुम उस कंस को मोह में डालकर अकेली ही संपूर्ण जगत का उपभोग करोगी। और मैं भी व्रज में गौओं के बीच में रहकर गोप के समान ही अपना व्यवहार बनाऊंगा।
            
ये तो रही बात भूलोक की। किंतु गोपेश्वर श्री कृष्ण गोलोक में भी अपने गोपों के साथ सदैव गोप भेष में ही रहते हैं। इस बात की पुष्टि -ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्म-खण्ड के अध्याय २- के श्लोक - २१ से भी होती है। जिसमें लिखा गया है कि -
स्वेच्छामयं सर्वबीजं सर्वाधारं परात्परम्।
किशोरवयसं शश्वद्गोपवेषविधायकम् ।। २१
                
अनुवाद - वे ही प्रभु स्वेच्छामयी सभी के मूल- (आदि-कारण) सर्वाधार तथा परात्पर- परमात्मा हैं। उनकी  नित्य किशोरावस्था रहती है और वे प्रभु गायों के उस लोक (गोलोक) में सदा गोप (आभीर ) -वेष में रहते हैं।२१।
       
अतः इस उपर्युक्त श्लोक से सिद्ध होता है कि भगवान श्री कृष्ण चाहे गोलोक हो या भूलोक दोनों स्थानों पर वे सदैव गोप भेष में गोपों के साथ ही रहते हैं।
        
 इसी तरह से हरिवंश पुराण के भविष्य पर्व के अध्याय- १०० के श्लोक - २६ और ४१ में भगवान श्री कृष्ण को गोप और यादव दोनों होने की पुष्टि होती है। जो पौण्ड्रक, श्री कृष्ण युद्ध का प्रसंग है। उस युद्ध के दरम्यान पौण्ड्रक भगवान श्री कृष्ण से कहा कि-

"स ततः पौण्ड्रको राजा वासुदेवमुवाच ह।
भो भो यादव
गोपाल इदानिं क्व गतो भवात।। २६।
गोपोऽहं सर्वदा राजन् प्राणिनां प्राणदः सदा।
गोप्ता सर्वेषु लोकेषु शास्ता दुष्टस्य सर्वदा।। ४१
            
अनुवाद - ओ यादव ! ओ गोपाल! इस समय तुम कहां चले गए थे ? आजकल मैं ही वासुदेव नाम से विख्यात हूं।२६।
                
तब भगवान श्री कृष्ण पौण्ड्रक से कहा-
• राजन मैं सर्वदा गोप हूं अर्थात प्राणियों का सदा प्राण दान करने वाला हूं, तथा संपूर्ण लोकों का रक्षक तथा सर्वदा दुष्टों का शासक हूं।४१।
               
इसी तरह से एक बार श्री कृष्ण की तरह-तरह की अद्भुत लीलाओं को देखकर गोपों को संशय होने लगा कि कृष्ण कोई साधारण मनुष्य नहीं हैं। ये या तो कोई देवता है या कोई ईश्वरीय शक्ति। और इस रहस्य को  श्रीकृष्ण अपने गोपों के लिए गुप्त रखना चाहते थे, ताकि मेरी बाल लीला बाधित न हो।  इसीलिए भगवान श्रीकृष्ण उनके संशय को दूर करने के लिए हरिवंश पुराण के विष्णु पर्व के अध्याय- २० के श्लोक- ११ में अपने सजातीय गोपों से कहते हैं कि-
मन्यते मां यथा सर्वे भवन्तो भीमविक्रमम्।
तथाहं नावमन्तव्यः स्वजातीयोऽस्मि बान्धवः।। ११।
अनुवाद - आप सब लोग मुझे जैसा भयानक पराक्रमी समझ रहे हैं, वैसा मानकर मेरा अनादर न करें। मैं तो आप लोगों का सजातीय (गोप जाति का) भाई बंधु ही हूं।
      
इस प्रकार से यह अध्याय- इस जानकारी के साथ समाप्त हुआ कि- गोपेश्वर श्री कृष्ण गोलोक और भू-लोक  दोनों स्थानों पर सदैव गोप भेष में अपने गोकुल के गोपों के साथ ही रहते हैं।
अब इसके अगले अध्याय- ८ में जानकारी दी गई है कि- गोप, अहीर और यादव कैसे एक ही जाति,वंश और कुल के सदस्य हैं।

भगवान श्री कृष्ण की श्रद्धा में सदैव लीन रहने वाले कवि इशरदास रोहडिया (चारण), जिनका जन्म विक्रम संवत- (1515) में राजस्थान के भादरेस गांव में हुआ था।

जिन्होंने मुख्यतः 2 ग्रंथ लिखे हैं "हरिरस" और "देवयान"। 

आज से (500) साल पहले ईशरदासजी द्वारा लिखे गए हरिरस काव्य ग्रन्थ के एक दोहे में स्पष्ट किया गया है कि कृष्ण भगवान का जन्म अहीर (यादव) कुल में हुआ था। 
दोहा-...........✍️

 और श्रीकृष्ण भक्ति शाखा के प्रमुख कवि सूरदास जी ने भी श्री कृष्ण को अहीर कहते हुए सूरसागर में लिखा है-
"सखी री, काके मीत अहीर" .......✍️नाम से एक राग गाया!!

"नारायण नारायणा! तारण तरण अहीर।
हूं चारण हरिगुण चवां, सागर भरियो क्षीर।।५८।

अनुवाद:-
अहीर जाति में अवतार लेने वाले हे नारायण(श्री कृष्ण)! आप जगत रूपी सागर पार करने और कराने वाले हो जो मोह लोभ आदि भँवर गीतों वाले वासनामयी जल से भरा हुआ है। मैं चारण (आप श्री हरि के) गुणों का वर्णन करता हूँ,।५८।

सन्दर्भ- हरिरस काव्यग्रन्थ (भक्त कवि ईसरदास द्वारा - प्रणीत)
 


 आसां पिबन्ति सलिलं वसन्ति सहिताः सदा ।
समीपतो महाभाग हृष्टपुष्टजनाकुलाः॥ २,३.१८ ॥
ये नदियों का जल पीते हैं और उन नदी यों के समीप है। वसते हैं ये हष्टपुष्ट और सम्पन्न हैं
[10/1, 4:23 PM] yogeshrohi📚: 

विप्रैर्भागवती वार्ता गेहे गेहे जने जने ।
कारिता कणलोभेन कथासारस्ततो गतः ॥७१॥

अनुवाद:-
अनुवाद:-ब्राह्मणों के द्वारा केवल अन्न-धनादिके लोभवश घर-घर एवं जन-जन में भागवत की कथा सी जाएगी , इसलिये कथा का सार चला जाएगा गया ॥ ७१॥ 

अत्युग्रभूरिकर्माणो नास्तिका रौरवा जनाः ।
तेऽपि तिष्ठन्ति तीर्थेषु तीर्थसारस्ततो गतः ॥७२॥

अनुवाद:-
तीर्थों में नाना प्रकार के अत्यन्त घोर कर्म करनेवाले, नास्तिक और नारकी पुरुष भी रहने लगे हैं; इसलिये तीर्थों का भी प्रभाव जाता रहा रहेगा ॥ ७२ ॥

कामक्रोध महालोभ तृष्णाव्याकुलचेतसः ।
तेऽपि तिष्ठन्ति तपसि तपःसारस्ततो गतः ॥७३॥

अनुवाद:-
जिनका चित्त निरन्तर काम, क्रोध, मोह-लोभ और तृष्णा से तपता रहता है, वे भी तपस्या का ढोंग करने लगेंगे, इसलिये तप का भी सार निकल गया ॥ ७३॥

मनसश्चाजयात् लोभाद् दम्भात् पाखण्डसंश्रयात् ।
शास्त्रान् अभ्यसनाच्चैव ध्यानयोगफलं गतम् ॥७४॥

अनुवाद:-
मन पर काबू न होने के कारण तथा लोभ, दम्भ और पाखण्ड का आश्रय लेने के कारण एवं शास्त्र का अभ्यास न करने से ध्यानयोग का फल मिट गया ॥ ७४ ॥ 

पण्डितास्तु कलत्रेण रमन्ते महिषा इव ।
पुत्रस्योत्पादने दक्षा अदक्षा मुक्तिसाधने ॥ ७५ ॥

अनुवाद:-
पण्डितों  की यह दशा होजाएगी  कि वे अपनी स्त्रियोंके साथ भैंसों की तरह हैवानियत  मैथुन करेंगे ; उनमें संतान पैदा करने की ही कुशलता पायी जाती है, मुक्तिसाधन में वे सर्वथा अकुशल हैं॥ ७५॥

पद्मपुराण उत्तर- खण्ड अध्यायः (१९३)भागवत माहात्म्य -




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