रविवार, 15 सितंबर 2024

सारंगिणी -आत्मानन्द-१

आत्मानन्द जी:
                  "प्राक्कथन"
     
इस पॉकेट पुस्तिका "श्रीकृष्ण-साराङ्गिणी" को लिखने का एक मात्र उद्देश्य श्रीकृष्ण के जीवन एवं चरित्र-विषयक वार्तालाप के उपरान्त हुए कुछ प्रश्नों तथा कुछ भ्रान्ति मूलक टिप्पणीयों का सम्यक शास्त्रीय उत्तरों को त्वरित खोजकर  समाधान करना ही है।
इस उद्देश्य हेतु यह पुस्तिका एक सफल प्रयास है।
               
इस पुस्तिका का पॉकेट साइज आकार इस लिए भी निर्धारित किया गया है। ताकि इसे पॉकेट में रखकर आसानी से पाठक कहीं भी समाज में ले जाकर जनसाधारण को कृष्ण तथा उनके पारिवारिक सदस्य गोपों की उत्पत्ति तथा चरित्रों का बोध करा सके।
यह "श्रीकृष्ण-साराङ्गिणी" पुस्तिका वास्तव में भगवान श्रीकृष्ण का शास्त्रीय कलेवर (शरीर ) ही है। अत: इस भाव को मन में रखकर भक्त- गण इसे भगवान् श्रीकृष्ण के पूजा- स्थल पर रखकर श्रीकृष्ण की उपस्थिति का आभास भी कर सकते हैं। क्योंकि इसमे श्रीकृष्ण के जीवन के अद्भुत पहलुओं का शास्त्रोचित वर्णन किया गया है।
                  
 श्रीकृष्ण के जीवन के सार- गर्भित चरित्रों के चित्रों का शब्दांकन करने में इस पुस्तिका के प्रेरणा श्रोत बनकर परम श्रद्धेय,सन्त हृदय गोपाचार्य हंस- आत्मानन्द- जी सदैव मुख्य भूमिका में उपस्थित रहें हैं।
जिनके आध्यात्मिक मार्गदर्शन में यह पुस्तिका अतीव सार-गर्भित होकर अपने नाम को सार्थक करती है।

                                          
 अनुनीत- विनीत-
                       लेखक गण-
                       गोपाचार्यहंस- योगेशरोहि एवं माता प्रसाद
                               
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            अध्याय- एक (१)

श्रीकृष्ण का स्वरूप और उनका गोलोक धाम
              

गोपेश्वर भगवान श्रीकृष्ण का वास्तविक स्वरूप और उनके गोलोक का वर्णन मुख्यतः ब्रह्मवैवर्तपुराण और गर्गसंहिता में मिलता है। जिसमें ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्म-खण्ड के अध्याय २- के क्रमशः श्लोक संख्या-४ से २१ में श्रीकृष्ण के वास्तविक स्वरूपों के बारे में लिखा गया है कि -
ज्योतिः समूहं प्रलये पुराऽऽसीत्केवलं द्विज। सूर्य्यकोटिप्रभं नित्यमसंख्यं विश्वकारणम् ।। ४

स्वेच्छामयस्य च विभोस्तज्ज्योतिरुज्ज्वलं महत् ।ज्योतिरभ्यन्तरे लोकत्रयमेव मनोहरम् ।। ५

तेषामुपरि गोलोकं नित्यमीश्वरवद् द्विज । त्रिकोटियोजनायामविस्तीर्णं मण्डलाकृति ।। ६

तेजःस्वरूपं सुमहद्रत्नभूमिमयं परम्।
अदृश्यं योगिभिः स्वप्ने दृश्यं गम्यं च वैष्णवैः।। ७

आधिव्याधिजरामृत्युशोकभीतिविवर्जितम्।। ८
(द्वितीय अध्याय के आठवें श्लोक का उत्तरार्द्ध)

सद्रत्नरचितासंख्यमन्दिरैः परिशोभितम् ।
लये कृष्णयुतं सृष्टौ गोपगोपीभिरावृतम् ।। ९

तदधो दक्षिणे सव्ये पञ्चाशत्कोटियोजनान् । 
वैकुण्ठं शिवलोकं तु तत्समं सुमनोहरम् ।। 10

गोलोकाभ्यन्तरे ज्योतिरतीव सुमनोहरम् ।। १३

परमाह्लादकं शश्वत्परमानन्दकारकम् ।।
ध्यायन्ते योगिनः शश्वद्योगेन ज्ञानचक्षुषा ।। १४

तदेवानन्दजनकं निराकारं परात्परम् ।
तज्ज्योतिरन्तरे रूपमतीव सुमनोहरम् ।। १५

नवीननीरदश्यामं रक्तपङ्कजलोचनम् ।शारदीयपार्वणेन्दुशोभितं चामलाननम् ।। १६

कोटिकन्दर्पलावण्यं लीलाधाम मनोरमम् ।
द्विभुजं मुरलीहस्तं सस्मितं पीतवाससम् । १७

श्लोक -रत्नसिंहासनस्थं च वनमालाविभूषितम् ।
तदेव परमं ब्रह्म भगवन्तं सनातनम् ।। २०

स्वेच्छामयं सर्वबीजं सर्वाधारं परात्परम्।
 किशोरवयसं शश्वद्गोपवेषविधायकम् ।। २१
अनुवाद-
• पुरातन प्रलय काल में केवल ज्योति-पुञ्ज प्रकाशित था। जिसकी प्रभा करोड़ो सूर्यों के समान थी। वही नित्य व शाश्वत  ज्योतिर्मण्डल असंख्य विश्वों का कारण बनता है।

• वह स्वेच्छामयी,सर्वव्यापी परमात्मा का महान सर्वोज्ज्वल तेज है। उस तेज के आभ्यन्तर (भीतर) मनोहर रूप में तीनों ही लोक विद्यमान हैं। ५
• और उन तीनों लोकों के ऊपर गोलोक धाम है जो परमेश्वर के समान ही नित्य है। उसकी लम्बाई- चौड़ाई तीन करोड़ योजन तक विस्तारित है। उसका आयतन सभी और से मण्डलाकार है। ६
• और उसकी परम- तेज युक्त सुन्दर महान भूमि रत्नों से मड़ी हुई है। वह लोक योगियों के लिए स्वप्न ने भी दिखाई देने योग्य नहीं है। वह केवल वैष्णवों के लिए ही दृश्य और गम्यं( (पहुँचने योग्य) है। ७
• वहाँ आधि (मानसिक पीड़ा) व्याधि (शारीरिक पीड़ा) जरा (बुड़़ापा) मृत्यु तथा शोक और भय का प्रवेश नहीं। ८
• रत्न से निर्मित असंख्य मन्दिरों से सुशोभित उस लोक में प्रलय काल में केवल श्री कृष्ण मूल रूप से विद्यमान रहते हैं। और सृष्टि काल में वही गोप-गोपियों से परिपूर्ण रहता है। ९
• और इस गोलोक के नीचे दक्षिण भाग में पचास करोड़ योजन दूर वैकुण्ठ धाम है। और वाम भाग में इसी के समानान्तर शिवलोक विद्यमान है। १०
• गोलोक से भीतर अत्यन्त मनोहर ज्योति है। १३
• जो परम आह्लाद जनक तथा नित्य परमानन्द की प्राप्ति का कारण है। वह ज्योति ही परमानन्द दायक है जिसका ध्यान सदैव योगीजन योग के द्वारा ज्ञान नेत्रों से करते हैं।१४
• ज्योति के भीतर जो अत्यन्त परम मनोहर रूप है। वही  निराकार व परात्पर ब्रह्म है; उसका रुप उस ज्योति के भीतर अत्यन्त सुशोभित होता है । १५
• जो नूतन जलधर (मेघ) के समान श्याम (साँवला) है  जिसके नेत्र लाल कमल के समान प्रफुल्लित हैं। जिनका निर्मल मुख शरद पूर्णिमा के चन्द्रमा की शोभा को तिरस्कृत करता है। १६
• यह मनोहर रूप विविध लीलाओं का धाम है। उनकी दो भुजाएँ हैं। एक हाथ में मुरली सुशोभित होती है,और उपरोष्ठ एवं अधरोष्ठों पर मुस्कान खेलती रहती है जो पीले वस्त्र धारण किए हुए हैं। १७
• वह श्याम सुन्दर पुरुष रत्नमय सिंहासन पर आसीन है और आजानुलम्बिनी (घुटनों तक लटकने वाली) वन माला उसकी शोभा बढ़ाती है। उसी को परम्-ब्रह्म परमात्मा और सनातन ईश्वर कहते हैं। २०
• वे ही प्रभु स्वेच्छामयी सभी के मूल- (आदि-कारण) सर्वाधार तथा परात्पर- परमात्मा हैं। उनकी  नित्य किशोरावस्था रहती है और वे प्रभु गायों के लोक (गोलोक) में सदा गोप (आभीर) वेष में रहते हैं। २१
           
                और उनके साथ भूरिश्रृंगा गायें भी रहती है। इसी लिए उनके परमधाम को गोलोक अर्थात्  गायों का लोक कहा जाता है । इस बात की पुष्टि -ऋग्वेद मंडल (१) के सूक्त- 154 की रिचा (6)से होती है जो इस प्रकार है -

"ता वां वास्तून्युश्मसि गमध्यै यत्र गावो भूरिशृङ्गा अयास:। अत्राह तदुरुगायस्य वृष्ण: परमं पदमव भाति भूरि ॥६

जिसमें "पदों का अर्थ है:-(यत्र) जहाँ (अयासः) प्राप्त हुए अथवा गये (भूरिशृङ्गाः) स्वर्ण युक्त सींगों वाली  (गावः) गायें हैं (ता) उन ।(वास्तूनि) स्थानों को (वाम्) तुम को  (गमध्यै)

जाने को लिए   (उश्मसि)तुम चाहते हो।  (उरुगायस्य) बहुत प्रकारों से प्रशंसित (वृष्णः) सुख वर्षानेवाले परमेश्वर का (परमम्) उत्कृष्ट (पदम्) स्थान   (भूरिः) अत्यन्त (अव भाति) उत्कृष्टता से प्रकाशमान होता है (तत्) उसको (अत्राह) यहाँ ही हम लोग चाहते हैं ॥ ६
              अर्थात् उपर्युक्त ऋचाओं का सार यही है कि विष्णु का परम धाम वहीं है, जहाँ स्वर्ण युक्त  सींगों वाली गायें रहती हैं, और वे विष्णु  वहाँ गोप रूप में अहिंस्य (अवध्य) हैं, और यही स्वराट-विष्णु ही श्रीकृष्ण, वासुदेव, नारायण आदि  नामों से परवर्ती युग में लोकप्रिय हुए हैं। क्योंकि इस सम्बन्ध में ऐसा ही लिखा गया है कि -
"त्रीणि पदा वि चक्रमे विष्णुर्गोपा अदाभ्यः ।
अतो धर्माणि धारयन् ॥१८॥ (ऋग्वेद १/२२/१८)
              
 इस ऋचा के पदाभेद से स्पष्ट होता है कि -
(अदाभ्यः) =सोमरस रखने के लिए गूलर की लकड़ी का बना हुआ पात्र को  (धारयन्) धारण करता हुआ ।  (गोपाः) गोपालक रूप, (विष्णुः) संसार का अन्तर्यामी परमेश्वर (त्रीणि) =तीन (पदानि) क़दमो से (विचक्रमे)= गमन करता है । और ये ही  (धर्माणि)= धर्मों को धारण करता है ॥18॥
अर्थात् यह निश्चित हुआ कि -
"वह परमेश्वर गोप-वेष में ही संसार में धर्म की पुन: स्थापना करता है।
      
इस प्रकार से यह अध्याय समाप्त हुआ।-
जिसमें आप लोगों ने भगवान श्रीकृष्ण का सनातन स्वरूप और उनके गोलोक धाम के बारे में जाना। अब इसके अगले अध्याय में जानेंगे कि श्रीकृष्ण के अतिरिक्त और कोई परम शक्ति या परमेश्वर नहीं है।
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अध्याय- दो (२)

श्रीकृष्ण के अतिरिक्त और कोई दूसरा परमेश्वर या परमशक्ति नही है।
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भगवान श्री कृष्णा ही एकमात्र परम प्रभु या परमेश्वर है। इस बात की पुष्टि सर्वप्रथम ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के  अध्याय-२१ के श्लोक संख्या-४३ से होती है जो इस प्रकार है-

"निर्लिप्तं साक्षिरूपं च निर्गुणं प्रकृतेः परम् ।
ध्यायेत्सर्वेश्वरं तं च परमात्मानमीश्वरम् "।। ४३
अनुवाद -
• वह परमेश्वर  सांसारिक विकारों से परे निर्लिप्त तथा केवल साक्षी रूप दृष्टा हैं। भगवान कृष्ण ही उस परम- सत्ता के प्रतिनिधि हैं। भगवान श्रीकृष्ण मूलत: निर्गुण तथा प्रकृति के तीनों गुणों से परे हैं। वे सर्वेश्वर एवं सर्व ऐश्वर्यशाली हैं। उनका ही ध्यान करना चाहिए ।४३।
       
और ऐसा ही वर्णन ब्रह्मवैवर्तपुराण के प्रकृति खण्ड अध्याय -१० के श्लोक संख्या १७,१८,और १९ में भी मिलता है -

"द्विभुजं मुरलीहस्तं किशोरं गोपवेषकम्।।
परमात्मानमीशं च भक्तानुग्रहविग्रहम् ।।१७।।

स्वेच्छामयं परं ब्रह्म परिपूर्णतमं विभुम् ।।
ब्रह्मविष्णुशिवाद्यैश्च स्तुतं मुनिगणैर्युतम् ।।१८।।

निर्लिप्तं साक्षिरूपं च निर्गुणं प्रकृतेः परम्।।
ईषद्धास्यं प्रसन्नास्यं भक्तानुग्रहकारकम् ।।१९।।

अनुवाद:-
• द्विभुजधारी, किशोर वय, गोपवेष धारी, और जिनके हाथ में मुरली है;  वे श्रीकृष्ण ही परमात्मा हैं। जो भक्तों पर कृपा करने के लिए ही शरीर धारण करते हैं।१७।
परम्- ब्रह्म परमात्मा श्रीकृष्ण परिपूर्णतम व सर्वव्यापी हैं। ब्रह्मा, विष्णु और शिव भी जिनकी स्तुति मुनि गणों के साथ करते हैं।१८।
• वह परमेश्वर निर्लिप्त केवल साक्षीरूप में निर्गुण और प्रकृति के तीनों गुणों से परे है। जिसके मुख मण्डल पर हमेशा हंसी और प्रसन्नता रहती है जो भक्तों पर अनुग्रह करने वाले हैं।१९।

          
इन श्लोकों के अतिरिक्त ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्ण जन्मखण्ड के अध्याय-67 के श्लोक संख्या - ४९ से भी कृष्ण की सर्वोपरिता स्वत: सिद्ध होती है जिसमें भगवान श्री कृष्ण स्वयं राधा से कहते हैं कि-

"आधारश्चाहमाधेयं कार्य च कारणं विना ।
अये सर्वाणि द्रव्याणि नश्वराणि च सुन्दरि"।४९
अनुवाद- ✍️
• हे राधे !  मैं आधार और आधेय ,कारण और कार्य दोंनो ही रूपों में हूँ । सभी द्रव्य परिवर्तन शील होने से नाशवान है। श्री कृष्ण संपूर्ण ब्रह्मांड की एकमात्र सर्वोच्च शक्ति हैं।"  
            
          
इसी प्रकार ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय- ११ के श्लोक संख्या- १६ में भगवान श्री कृष्ण की सर्वोच्चता का तुलनात्मक वर्णन मिलता है जो "शौनक और सूत  संवाद के रूप में है। जिसमें सूत जी शौनक जी कहते है कि-
नास्ति गङ्गासमं तीर्थं न च कृष्णात्परः सुरः।
न शङ्कराद्वैष्णवश्च न सहिष्णुर्धरा परा।। १६
अनुवाद:-
• गंगा के समान कोई तीर्थ नहीं है। कृष्ण से बड़ा कोई देव अथवा ईश्वर नहीं, और शंकर (शिव) से बड़ा कोई सहनशील  वैष्णव इस भू-मंडल में नहीं है।१६।                         
             इसी तरह से ब्रह्मवैवर्तपुराण -श्रीकृष्णजन्मखण्ड के अध्याय-6 के श्लोक संख्या-४२, ४३, ४४ ,४५,४६ ,४७ और ४८ में अपनी विभूतियों के विषय में स्वयं गोपेश्वर श्रीकृष्ण गोलोक में पधारे देवताओं से कहते हैं कि-
देवाः कालस्य कालोऽहं विधाता धातुरेव च।
संहारकर्तुः संहर्ता पातुः पाता परात्परः ।। ४२

ब्रह्मादितृणपर्यन्तं सर्वेषामहमीश्वरः।
त्वं विश्वसृट् सृष्टिहेतोः पाता धर्मस्य रक्षणात्।। ४३

ब्रह्मादितृणपर्यन्तं सर्वेषामहमीश्वरः।
स्वकर्मफलदाताऽहं कर्मनिर्मूलकारकः ।।४४

अहं यान्संहरिष्यामि कस्तेषामपि रक्षिता ।
यानहं पालयिष्यामि तेषां हन्ता न कोऽपि वा। ४५

सर्वेषामपि संहर्ता स्रष्टा पाताऽहमेव च ।
नाहं शक्तश्च भक्तानां संहारे नित्यदेहिनाम् ।। ४६

भक्ता ममानुगा नित्यं मत्पादार्चनतत्पराः।
अहं भक्तान्तिके शाश्वत्तेषां रक्षणहेतव ।४७

सर्वे नश्यन्ति ब्रह्माण्डानां प्रभवन्ति पुनःपुनः।
न मे भक्ताः प्रणश्यन्ति निःशंकाश्च निरापदः।४८

अनुवाद:-
    • हैं देवों ! में काल का भी काल हूँ। विधाता का भी विधाता हूँ। संहारकारी का भी संहारक तथा पालक का भी पालक मैं ही परात्पर परमेश्वर हूँ। ४२
• और मेरी आज्ञा से ही शिव रूद्र रूप धारण कर संसार का संहार करते हैं इसलिए उनका नाम "हर" सार्थक है। और मेरी आज्ञा से ब्रह्मा सृष्टि सर्जन के लिए उद्यत रहते हैं। इस लिए वे विश्व- सृष्टा कहलाते हैं। और धर्म के रक्षक देव विष्णु सृष्टि की रक्षा के कारण पालक कहलाते हैं। ४३
• ब्रह्मा से लेकर तृण पर्यन्त सबका ईश्वर मैं ही हूँ। मैं ही कर्म फल का दाता और कर्मों का निर्मूलन करने वाला हूँ। ४४
• और मैं जिसका संहार करना चाहता हूँ; उनकी रक्षा कौन कर सकता है ? तथा मैं जिसका पालन करने वाला हूँ; उसका विनाश करने वाला कोई नहीं है ।४५।
• मूलत: मैं ही सबका सर्जक ,पालक और
संहारक हूँ। परन्तु मेरे भक्त नित्यदेही हैं उनका संहार करने में मैं भी समर्थ नहीं हूँ। ४६।
• भक्त मेरे अनुयायी ( मेरे पीछे-पीछे चलने वाले) हैं; वे सदैव मेरे चरणों की उपासना में तत्पर रहते हैं। इसलिए मैं भी सदा भक्तों के निकट उनकी रक्षा के लिए समर्पित रहता हूँ। ४७।
• सभी ब्रह्माण्ड नष्ट होते और पुन: पुन: बनते हैं। परन्तु मेरे भक्त कभी नष्ट नहीं होते वे सदैव नि:शंक और सभी आपत्तियों से परे रहते हैं। और मैं सदा भक्तों के अधीन रहता हूँ क्योंकि भक्त मेरे अनुयायी हैं। ४८।                         
          ब्रह्मवैवर्तपुराण के समान ही भगवान श्रीकृष्ण के सम्बन्ध में कुछ इसी प्रकार की बातें श्रीमद्भागवत पुराण के नवम- स्कन्ध के चतुर्थ- अध्याय-श्लोक संख्या-६३-६४ में भी लिखी गई हैं कि- सम्पूर्ण विश्व को अपने अधीन करने वाला परमेश्वर केवल अपने भक्तों के अधीन रहते है। इस सम्बन्ध में भगवान श्री कृष्ण स्वयं कहे कि-
अहं भक्तपराधीनो हि अस्वतन्त्र इव द्विज।    साधुभिर्ग्रस्तहृदयो भक्तैर्भक्तजनप्रिय:।।६३।
                         
"नाहं आत्मानमाशासे मद्भक्तै: साधुभिर्विना। श्रियंचात्यन्तिकीं ब्रह्मन् ! येषां गति: अहं परा।।- ६४

अनुवाद-
• मैं सब प्रकार से भक्तों के अधीन रहता हूँ। मुझ में तनिक भी स्वतन्त्रता नहीं है। मेरे साधक भक्तों ने  मेरे हृदय को अपने वश में कर लिया है। भक्त मुझको प्रिय हैं और मैं उन भक्तों को प्रिय हूँ।६३।

•ब्राह्मण ! मैं अपने भक्तों का एक मात्र आश्रय हूँ। इसलिए मैं अपने साधक भक्तों को छोड़कर न मैं अपने को चाहता हूँ और न ही अपनी अर्धांगिनी लक्ष्मी को।६४।
                     
इसी प्रकार गोपेश्वर श्रीकृष्ण के विषय में ब्रह्म वैवर्तपुराण के ब्रह्म-खण्ड के अध्याय -२१ के श्लोक संख्या -४१और ४२ में लिखा गया है कि -

स्थिरयौवनयुक्ताभिर्वेष्टिताभिश्च सन्ततम् ।। भूषणैर्भूषिताभिश्च राधावक्षःस्थलस्थितम् ।। ४१

ब्रह्मविष्णुशिवाद्यैश्च पूजितं वन्दितं स्तुतम् ।
किशोरं राधिकाकान्तं शान्तरूपं परात्परम् । ४२

अनुवाद-
• स्थिर यौवन युक्त चारों तरफ आभूषणों से सुसज्जित वे श्रीकृष्ण श्री राधा जी के वक्ष:स्थल पर स्थित रहते हैं। ४१।
• ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव आदि देवों द्वारा निरन्तर पूजित, वन्दित और जिनकी स्तुति कि गयी हो; वे राधा जी के प्रिय श्रीकष्ण जिनकी अवस्था किशोर है। जो शान्त स्वरूप और परात्पर ब्रह्म हैं।४२
               
फिर भगवान श्री कृष्ण की सर्वोच्चता उस समय देखने को मिलती है, जब भगवान श्री कृष्ण एक समय राधा जी को अपने बारे में कुछ महत्वपूर्ण बातें बताए थे। जिसका वर्णन ब्रह्मवैत- पुराण के श्री कृष्ण जन्म खंड के अध्याय -६६ के श्लोक संख्या -५० से ५९ तक के श्लोको में मिलता है जिसमें भगवान श्री कृष्ण राधा जी से कहते हैं कि -
आविर्भावाधिकाः कुत्र कुत्रचिन्न्यूनमेव च ।
ममांशाः केऽपि देवाश्च केचिद्देवाःकलास्तथा ।। ५०

केचित्कलाः कलांशांशास्तदंशांशाश्च केचन ।
मदंशा प्रकृतिः सूक्ष्मा साच मूर्त्याच पञ्चधा ।५१

सरस्वती च कमला दुर्गा त्वं चापि वेदसूः।
सर्वे देवाः प्राकृतिका यावन्तो मूर्तिधारिणः ।५२

अहमात्मा नित्यदेही भक्तध्यानानुरोधतः ।
 ये ये प्रकृतिका राधे ते नष्टाः प्राकृते लये ।५३ ।

अहमेवाऽऽसमेवाग्रे पश्चादप्यहमेव च।
यथाऽहं च तथा त्वं च यथा धावल्यदुग्धयोः ।५४

भेदः कदाऽपि न भवेन्निश्चितं च तथाऽऽवयोः।
अहं महान्विराट् सृष्टौ विश्वानि यस्य लोमसु ।। ५५

अंशस्त्वं तत्र महती स्वांशेन तस्य कामिनी।
अहं क्षुद्रविराट् सृष्टौ विश्वं यन्नाभिपद्मतः।। ५६

अयं विष्णोर्लोमकूपे वासो मे चांशतः सति ।
तस्य स्त्री त्वं च बृहती स्वांशेन सुभगा तथा ।। ५७

तस्य विश्वे च प्रत्येकं ब्रह्मविष्णुशिवादयः ।
ब्रह्मविष्णुशिवा अंशाश्चान्ये चापि च मत्कलाः ।। ५८

मत्कलांशांशकलया सर्वे देवि चराचराः।
वैकुण्ठे त्वं महालक्ष्मीरहं तत्र चतुर्भुजः।। ५९

अनुवाद -
• कहीं किन्हीं पदार्थों का आविष्कार अधिक होता है और कहीं कम मात्रा में कुछ देवता मेरे अंश हैं, कुछ कला हैं और कुछ अंश के भी अंश हैं। मेरी अंश स्वरूपा प्रकृति सूक्ष्मरूपिणी है। उसकी पाँच मूर्तियां है । ५०,५१
• प्रधान मूर्ति तुम राधा,वेदमाता गायत्री,दुर्गा,लक्ष्मी आदि और जितने भी मूर्ति धारी देवता हैं वे सब प्राकृतिक हैं। और मैं उन सबका आत्मा हूँ। ५२
• और भक्तों के द्वारा ध्यान करने के लिए मैं नित्य देह धारण करके स्थित रहता हूँ। हे राधे ! जो जो प्राकृतिक देह धारी हैं। वे सब प्राकृतिक प्रलय के समय नष्ट हो जाते हैं।
• सबसे पहले मैं वही था और सबके अन्त में भी मैं ही रहुँगा। हे राधे ! जिस प्रकार मैं हूँ ; उसी प्रकार तुम भी हो ! जिस प्रकार दुग्ध और उसका धवलता ( सफेदी) में भेद नहीं हैं। ५४।
• प्राकृतिक सृष्टि में मैं ही वह महान विराट हूँ। जिसकी रोमावलियों में असंख्य ब्रह्माण्ड विद्यमान है। ५५
• वह महा विराट् मेरा ही अँश है और तुम अपने अंश से उसकी पत्नी भी हो। जो समिष्टी (समूह)में है वही व्यष्टि  (इकाई) में भी है। बाद की सृष्टि में मैं ही वह क्षुद्र विराट् विष्णु भी हूँ जिसकी नाभि कमल से ब्रह्मा की उत्पत्ति होती है। ५६
• विष्णु के रोम कूपों में मेरा आंशिक निवास है। तुम्ही अपने अंश रूप से उसकी पत्नी हो। ५७
• उस विराट विष्णु के रोम कूपों को प्रत्येक ब्रह्माण्ड में ब्रह्माा, विष्णु तथा महेश( शिव) आदि देवता मेरे अंश और कला से ही विद्यमान हैं। ५६
• हे देवि ! मेरे कला और अंश के द्वारा सम्पूर्ण स्थावर- जंगम (चराचर) जगत में विद्यमान है। वैकुण्ठ में तुम अपने अंश से महालक्ष्मी और मैं चतुर्भुज विष्णु रूप में हूँ। ५९      
                
अतः उपरोक्त श्लोक के आधार पर सिद्ध होता है कि परमात्मा श्री कृष्ण ही परम परमेश्वर हैं। इन सबके अतिरिक्त गोपेश्वर श्री कृष्ण की सर्वोच्चता का पता उस समय भी चलता है, जब भगवान श्री कृष्ण गोलोक में सृष्टि-सृजन  का कार्य करते हैं। उस समय जो-जो देवता या श्रीकृष्ण की अंशभूत शक्तियां, उनके  जिस-जिस भाग व अंश से उत्पन्न होते हैं, वे सभी प्रलय काल में उसी क्रम से श्रीकृष्ण के उसी  भाग और अंश में विलीन हो जाते हैं।
       
 इस बात की पुष्टि- ब्रह्मवैवर्त पुराण के प्रकृति खण्ड के अध्याय- ३४ (✍️✍️ के श्लोक संख्या- ५७, ५८, ५९ और ६० से होती है।

 जो राधा-कृष्ण संवाद के रूप में है। जिसमें भगवान श्रीकृष्ण राधा जी से कहते हैं -
चक्षुर्निमीलने तस्य लयं प्राकृतिकं विदुः ।।
प्रलये प्राकृताः सर्वे देवाद्याश्च चराचराः ।। ५७ ।।

लीना धातरि धाता च श्रीकृष्णे नाभिपङ्कजे ।।
विष्णुः क्षीरोदशायी च वैकुण्ठे यश्चतुर्भुजः ।। ५८। 

विलीना वामपार्श्वे च कृष्णस्य परमात्मनः ।।
रुद्राद्या भैरवाद्याश्च यावन्तश्च शिवानुगाः ।। ५९ ।।

शिवाधारे शिवे लीना ज्ञानानन्दे सनातने ।।
ज्ञानाधिदेवः कृष्णस्य महादेवस्य चात्मनः ।। 2.34.६० ।।

अनुवाद -
• उस परम्- ब्रह्म परमात्मा के नेत्र - निमीलन (आँखें बन्द करने पर)  प्राकृतिक प्रलय हो जाती है। इसके परिणाम स्वरूप सम्पूर्ण चराचर  जगत के प्राणी तथा देवादि गण पहले  ब्रह्मा में विलय होते या समा जाते हैं।५७।  
• और ब्रह्मा श्रीकृष्ण के अंश रूप क्षुद्रविष्णु के नाभि- कमल में विलय हो जाते हैं। और क्षुद्र-विष्णु  भी विराट-विष्णु में और विराट-विष्णु सर्वोच्चत्तम व परिपूर्णत्तम सत्ता स्वराट्- विष्णु में विलय हो जाते हैं।  इसी क्रम में क्षीरोदशायी विष्णु- नारायण और वैकुण्ठ निवासी चतुर्भुज विष्णु  गोपेश्वर  श्रीकृष्ण के वामपार्श्व (बाई बगल) में समा जाते हैं। ५८।
•  रूद्र और भैरव आदि जितने भी शिव के अनुचर हैं। वे मंगलाधार सनातन ज्ञान नन्दन स्वरूप शिव में लीन हो जाते हैं।५९।                    
• और ज्ञान के अधिष्ठात्री देव परमात्मा शिव उन श्री कृष्ण के ज्ञान में विलीन हो जाते हैं।६०।   
  
              
 और इन सबका "भावानुवाद" कुछ इस प्रकार है- प्राकृतिक प्रलय के समय सम्पूर्ण देवता आदि चराचर प्राणी ब्रह्मा में विलीन हो जाते हैं। और ब्रह्मा क्षुद्र विष्णु के नाभि कमल में लीन हो जाते हैं। और क्षुद्र-विष्णु विराट-विष्णु में और विराटविष्णु स्वराट्- विष्णु में लीन हो जाता है। ये स्वराट्- विष्णु ही गोपेश्वर श्रीकृष्ण हैं"।

देवी भागवत पुराण में भी कुछ इसी प्रकार का वर्णन है। नवम स्कन्ध के 38 वें अध्याय में है। देखें नीचें-

ब्रह्मणश्च निपाते च चक्षुरुन्मीलनं हरेः ।
चक्षुरुन्मीलने तस्य लयं प्राकृतिकं विदुः ॥ ५२ ॥

प्रलये प्राकृते सर्वे देवाद्याश्च चराचराः ।
लीना धाता विधाता च श्रीकृष्णनाभिपङ्‌कजे ॥ ५३ ॥

विष्णुः क्षीरोदशायी च वैकुण्ठे यश्चतुर्भुजः ।
विलीना वामपार्श्वे च कृष्णस्य परमात्मनः ॥ ५४ ॥

यस्य ज्ञाने शिवो लीनो ज्ञानाधीशः सनातनः ।
दुर्गायां विष्णुमायायां विलीनाः सर्वशक्तयः ॥ ५५।
सा च कृष्णस्य बुद्धौ च बुद्ध्यधिष्ठातृदेवता ।
नारायणांशः स्कन्दश्च लीनो वक्षसि तस्य च ॥ ५६॥
श्रीकृष्णांशश्च तद्‌बाहौ देवाधीशो गणेश्वरः ।
पद्मांशाश्चैव पद्मायां सा राधायां च सुव्रते ॥ ५७ ॥

गोप्यश्चापि च तस्यां च सर्वाश्च देवयोषितः ।
कृष्णप्राणाधिदेवी सा तस्य प्राणेषु संस्थिता ॥५८।

देवीभागवतपुराण स्कन्ध- ९अध्यायः (३८)


                   
              
 ठीक इसी तरह से श्री कृष्ण के विग्रह में विलीन होने का वर्णन - ब्रह्मवैवर्त- पुराण के प्रकृति खण्ड के अध्याय 34 के कुछ प्रमुख श्लोको  (----✍️----)और (---✍️)  मिलता है जो इस प्रकार है -
श्लोक------
श्लोक------
श्लोक------
अनुवाद-
•  उन्हीं परम-ब्रह्म गोपेश्वर श्रीकृष्ण में क्षीर सागर में निवास करने वाले श्री विष्णु (नारायण) तथा वैकुण्ठ में निवास करने वाले चतुर्भुज धारी (विष्णु) भी प्रलय काल में  वाम पार्श्व ( वाँये बगल) में विलीन हो जाते हैं।
• तथा रूद्र और भैरव आदि जितने भी शिव के अनुचर हैं। वे मंगलाधार सनातन ज्ञान नन्दन स्वरूप शिव में लीन हो जाते हैं। और ज्ञान के अधिष्ठात्री देव परमात्मा शिव उन श्री कृष्ण के ज्ञान में विलीन हो जाते हैं।
• इसी तरह से सम्पूर्ण शक्तियाँ विष्णु- माया दुर्गा में समाहित हो जाती हैं। और दुर्गा स्वयं श्री कृष्ण की बुद्धि में समाहित होती है।
• इसी प्रकार लक्ष्मी की अँशभूता शक्तियाँ लक्ष्मी में तथा लक्ष्मी स्वयं श्री राधा जी में लीन हो जाती हैं। तत्पश्चात गोपियाँ और देव पत्नीयाँ श्री राधा जी में लीन हो जाती हैं।
• और श्रीकृष्ण के प्राणों की अधीश्वरी देवी राधा स्वयं श्रीकृष्ण के प्राणों में प्रतिष्ठित हो जाती हैं।
• और गोलोक के सम्पूर्ण गोप श्रीकृष्ण के रोम कूपों में विलीन हो जाते हैं। ।‌               
                
और इस संबंध में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि - श्रीराम और उनके भाईयों सहित सीता जी को भी श्री कृष्ण के विग्रह में विलीन होने की बात

गर्गसंहिता के गोलोकखण्ड के अध्याय -३ के श्लोक संख्या ६ से ८  में लिखी गयी है जो इस प्रकार है -
तदैव चागतः साक्षाद्‌रामो राजीवलोचनः।
धनुर्बाणधरः सीताशोभितो भ्रातृभिर्वृतः॥६॥

दशकोट्यर्कसंकाशे चामरैर्दोलिते रथे।
असंख्यवानरेंद्राढ्ये लक्षचक्रघनस्वने॥७॥

लक्षध्वजे लक्षहये शातकौम्भे स्थितस्ततः।
श्रीकृष्णविग्रहे पूर्णः सम्प्रलीनो बभूव ह॥८॥

अनुवाद:-
•तत्पश्चात वह पूर्ण स्वरूप कमल लोचन भगवान श्रीराम वहाँ पधारे उनके हाथ में धनुषवाण थे, और साथ में सीता सहित भरत आदि तीनों भाई भी थे।(६)
• उनका दिव्य धनुष दश-करोड़ सूर्यों के समान प्रकाशमान था। उसपर निरन्तर चम्बर डुलाये जा रहे थे। और असंख्य वानर यूथपति उनकी रक्षा के कार्य में संलग्न थे । उस रथ के एक लाख चक्कों में मेघों की गर्जना निकल रही थी । और उसी पर बैठकर भगवान श्रीराम वहाँ (गोलोक) में पधारे और वे भी श्रीकृष्ण के विग्रह में शीघ्र विलीन हो गये। ७, ८                    
                     
इन उपरोक्त श्लोकों के आधार पर देखा जाय तो भगवान श्रीकृष्ण ही सम्पूर्ण ब्रह्माण्डों के आदि (प्रारम्भ) और अन्त भी हैं। और यहीं श्रीकृष्ण अपने परात्पर स्वरूप में अनन्त भी हैं। क्योंकि सृष्टि काल में वे ही प्रभु अपने विग्रह ( शरीर) से जिस क्रम में सृष्टि का निर्माण करते हैं, और समय के अनुरूप वे ही प्रभु पुन: प्रलय काल में सम्पूर्ण सृष्टि का अपने विग्रह ( शरीर) में विलय उसी प्रकार कर लेते हैं। जैसे "मकड़ी अपने शरीर से लार के द्वारा जाला बनाकर उसमे स्थित हो जाती है । और फिर कुछ समय पश्चात वही मकड़ी उस जाले को निगल कर अपने शरीर में समेट लेती है। यही परमात्मा श्री कृष्ण का शाश्वत स्वरूप है जो साकार और निराकार के साथ- साथ आदि, अनंत और सनातन भी है। वे ही सनातन भगवान श्री कृष्ण- सृष्टि कर्ता, पालन कर्ता, और संघार कर्ता भी है।
यह सृष्टि जगत परमात्मा श्री कृष्ण का ही शाश्वत स्वरूप है।
       
और इन सभी बातों की पुष्टि भगवान शिव ने ब्रह्मवैवर्त पुराण के प्रकृति खंड के अध्याय- ४८ के श्लोक संख्या-४८ और ४९ में स्वयं किये है- जो शिव पार्वती संवाद के रूप में है। जिसमें शिव जी पार्वती से कहते हैं-
आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं सर्वं मिथ्यैव पार्वति ।
भज सत्यं परं ब्रह्म राधेशं त्रिगुणात्परम् । ४८

परं प्रधानं परमं परमात्मानमीश्वरम्।
सर्वाद्यं सर्वपूज्यं व निरीहं प्रकृतेः परम् । ४९।
अनुवाद:-
• हे पार्वती ! ब्रह्मा से लेकर तृण अथवा कीट पर्यन्त सम्पूर्ण जगत मिथ्या ही है। ४८
• केवल त्रिगुणातीत परम- ब्रह्म परमात्मा श्री कृष्ण ही परम सत्य हैं अत: हे पार्वती तुम उन्ही की आराधना करो। ४९
          फिर भगवान शिव- ब्रह्मवैवर्तपुराण के प्रकृतिखण्डः अध्याय-१७ के श्लोक संख्या -६३ में कहते हैं -
भज सत्यं परं ब्रह्म राधेशं त्रिगुणात्परम् ।
सर्वेशं सर्वरूपं च सर्वात्मानन्तमीश्वरम"।। ६३                                           
 अनुवाद:-
•  केवल त्रिगुणातीत परब्रह्म परमात्मा श्रीराधावल्लभ श्रीकृष्ण ही परम सत्य हैं; अतः तुम उन्हीं की आराधना करो। ६३
           
 इस प्रकार से भगवान शिव और पार्वती संवाद से भी सिद्ध होता है कि श्रीकृष्ण ही परम प्रभु है, और उनकी ही आराधना करने से मनुष्य का कल्याण सम्भव हो सकता है। क्योंकि वास्तव में यदि देखा जाए तो परमेश्वर अर्थात् श्रीकृष्ण अपने आप में सबकुछ है। उसमें परस्पर सभी विरोधी रूप सम भाव में स्थापित है। उनकी परस्पर प्रतिक्रिया स्वरूप विषमता होने पर ही सृष्टि रचना प्रारम्भ करते हैं। इसलिए वे ही  प्रथम सृजन कर्ता, हर्ता और भर्ता भी है। इस बात को ब्रह्मवैवर्त पुराण के अध्याय-३ का यह महत्वपूर्ण श्लोक बारहवां इस भाव को दर्शाता हैं कि-
"निष्कामं कामरूपं च कामघ्नं कामकारणम्।
सर्वं सर्वेश्वरं सर्वं बीजरूपमनुत्तमम् तस्मै प्रभवे नम:।१२
अनुवाद -
जो परमात्मा श्रीकृष्ण कामनाओं से रहित अर्थात(निष्काम) और कामदेव के रूप भी हैं  और जो काम भाव के कारक उसके जन्म दाता भी हैं। सबके ईश्वर  सबके बीज (मूल) और सब-कुछ हैं और वे उत्तम से भी उत्तम हैं उस प्रभु के लिए हम नमस्कार करते हैं।

ध्यान रहे  उपरोक्त श्लोक में "अनुत्तमम्"- विशेषण पद से सामान्य जन भ्रमित न हों क्योंकि उसकी व्याकरण सम्मत. विवेचना इस प्रकार से की गई है -
     अनुत्तमम्= न उत्तमोयस्मात् अत्युत्कृष्टे = जिससे उत्तम नहीं है कोई अर्थात् अत्युकृष्ट ( वाचस्पत्यम्कोश ) इसके अलावा अमर कोश में भी अनुत्तमम् शब्द का अर्थ है - "नहीं है उत्तम  जिससे कुछ भी" अर्थात अत्युत्तम।
नास्ति उत्तमः उत्कृष्टो यस्मात् सः - यह बहुव्रीहि समास के द्वारा अर्थ है।
ऐसे ही मनुस्मृति कारों ने भी अनुत्तमम् पद  का एक अर्थ यही किया है।- नहीं है उत्तम जिससे कुछ भी-
‘"इह कीर्तिमवाप्नोति प्रेत्य चानुत्तमं सुखम्।’
(स्रोत - मनुस्मृति अध्याय २ श्लोक संख्या-९)
     अनुवाद:- दान करने वाला मनुष्य इस ल

ोक में कीर्ति और परलोक में उत्तम से भी उत्तम सुख  प्राप्त करता है       इस प्रकार से तमाम पौराणिक साक्ष्यों से सिद्ध होता है कि भगवान श्री कृष्ण ही परम प्रभु है, उनके अतिरिक्त और कोई दूसरा परमेश्वर या परमशक्ति नही है।
         इस प्रकार से भगवान श्रीकृष्ण की सर्वोच्चता का वर्णन करते हुए यह अध्याय- समाप्त हुआ। अब इसके अगले अध्याय तीन में जानेंगे कि - गोलोक में भगवान श्रीकृष्ण के गोप-गोपियों की उत्पत्ति तथा सृष्टि का विस्तार  कैसे हुआ ?

अध्याय-तीन (३)

गोलोक में गोप-गोपियों सहित नारायण, शिव, ब्रह्मा आदि देवताओं की उत्पत्ति तथा सृष्टि का विस्तार।

सृष्टि सृजन के संबंध में सर्वविदित है कि ब्रह्मा जी सृष्टि की रचना करते हैं। इसलिए उन्हें सृजन कर्ता भी कहा जाता है। किंतु सवाल यह है कि-  सृष्टि की रचना करने वाले ब्रह्मा जी को किसने उत्पन्न किया ? क्या ब्रह्मा- जी की सृष्टि रचना से पहले भी कोई सृष्टि रचना हुई थी ? क्या ब्रह्मा जी की सृष्टि रचना के भाग गोप और गोपियां भी हैं ? क्या  ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण के अलावा कोई दूसरा वर्ण भी इस भू-मंडल पर है ? इन तमाम प्रश्नों का उत्तर जाने बिना सृष्टि रचना के गूढ़ रहस्यों को जान पाना सम्भव नहीं है।
            तो इन सारे प्रश्नों का वास्तविक समाधान करने वाला एकमात्र पुराण है "ब्रह्मवैवर्तपुराण"। क्योंकि यही एक ऐसा प्राचीनतम पुराण है, जो परमात्मा के विवर्त -
अर्थात् विस्तार का वर्णन करता है। इसी विशेषण के कारण इसे ब्रह्मवैवर्तपुराण कहा जाता है। और यही एकमात्र ऐसा पुराण है जो परमात्मा की प्रथम सृष्टि रचना का भी वर्णन  करता है। बाकी अन्य पुराण इसके बाद की सृष्टि रचना- जो  ब्रह्मा जी द्वारा की गई है उसका वर्णन करते हैं। यहीं कारण  है कि ब्रह्मवैवर्तपुराण को प्रथम पुराण माना जाता है।
               सृष्टि सृजन के प्रारंभिक काल का वर्णन ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय-३ के श्लोक संख्या (..✍️.) से (..✍️.) में मिलता है। जिसमें प्रलय काल के उपरांत भगवान ने देखा की संपूर्ण विश्व शून्यमय है। कहीं कोई जीव जंतु नहीं है।

श्लोक-   (सम्बंधित श्लोकों को दर्शाना है)✍️

श्लोक-

श्लोक-

श्लोक-


अनुवाद-
•तब जगत को इस शून्य अवस्था में देख मन ही मन सब बातों की आलोचना करके दूसरे किसी सहायक से रहित एक मात्र स्वेच्छामय प्रभु ने स्वेच्छा से ही सृष्टि रचना आरंभ की।
• सबसे पहले उन परम पुरुष श्री कृष्ण के दक्षिणपार्श्व से जगत के कारण रूप तीन मूर्तिमान गुण प्रकट हुए। उन गुणों से महत्तत्तव, अहंकार, पांच तमन्नाएं तथा रूप, रस, गंध, स्पर्श, और शब्द-ये पांच विषय क्रमशः प्रकट हुए।
• तदनन्तर श्री कृष्ण से साक्षात भगवान नारायण का प्रादुर्भाव हुआ जिनकी अंककांति श्याम थी वे नित्य तरुण पीतांबर धारी तथा वनमाला से विभूषित थे। उनकी चार भुजाएं थीं, उन्होंने अपने हाथ में क्रमशः संख, चक्र, गदा, और पद्म धारण कर रखे थे।
• तत्पश्चात परमात्मा श्री कृष्ण के वामपार्श्व से भगवान शिव प्रकट हुए। उनकी अंककांति शुद्ध स्फटिकमणि के समान निर्मल एवं उज्जवल थी। उनके पांच मुख थे और दिशाएं ही उनके लिए वस्त्र थी अर्थात् वे निर्वस्त्र थे।
•तत्पश्चात श्री कृष्ण के नाभि कमल से बड़े- बूढ़े महा तपस्वी ब्रह्मा जी प्रकट हुए। उन्होंने अपने हाथ में कमण्डलु ले रखा था। उनके वस्त्र, दांत और केश सभी सफेद थे। और उनके चार मुख थे।
   इन उपरोक्त श्लोकों से स्पष्ट हुआ है कि सृष्टि उत्पत्ति के प्रारंभिक चरण में भगवान श्री कृष्ण के लोक - गोलोक में परम- प्रभु श्री कृष्ण  द्वारा नारायण, शिव और ब्रह्मा जी की भी उत्पत्ति हुई है। जिसमें ब्रह्मा जी, श्री कृष्णा के आदेश पर अन्य लोकों में अपने हिसाब से सृष्टि करते हैं। इसलिए ब्रह्मा जी को द्वितीयक सृष्टि कर्ता कहा जाता है। किंतु मूल सृष्टि परमात्मा श्री कृष्ण के द्वारा ही होती है।इसीलिए श्रीकृष्ण को प्रथम सृष्टि कर्ता कहा जाता है। क्योंकि सब कुछ उन्हीं से उत्पन्न होता है और अंत में उन्हीं में विलीन हो जाता है।
                  फिर इसके आगे ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय-5 के श्लोक संख्या- २५, ४० और ४२ में गोपों की उत्पत्ति के बारे में लिखा गया है कि-

आविर्बभूव कन्यैका कृष्णस्य वामपार्श्वतः।
धावित्वा पुष्पमानीय ददावर्घ्यं प्रभोः पदे ।२५।

तस्या राधायाश्च लोमकूपेभ्यः सद्योगोपाङ्गनागणः। आविर्बभूव रूपेण वेशेनैव च तत्समः।। ४०

कृष्णस्य लोमकूपेभ्यः सद्यो गोपगणो मुने।
आविर्बभूव रूपेण वेषेणैव च तत्समः। ४२
अनुवाद -
गोलोक में भगवान श्रीकृष्ण के वाम पार्श्व से वामा के रूप में एक कामनाओं की प्रतिमूर्ति- प्रकृति रूपा कन्या उत्पन्न हुई जो कृष्ण के ही समान किशोर वय थी। २५
• फिर तो उस किशोरी अर्थात् श्री राधा के रोमकूपों से तत्काल ही अनेक गोपांगनाओं की उत्पत्ति हुई; जो रूप और वेष में राधा के ही समान थीं। ४०
• उसी क्षण श्रीकृष्ण के रोमकूपों से भी अनेक गोप- गणों का आविर्भाव हुआ जो रूप और वेष रचना में श्रीकृष्ण के ही समान थे। ४२
     इस प्रकार से उपरोक्त श्लोकों के आधार पर सिद्ध होता है कि गोपों की उत्पत्ति भगवान श्रीकृष्ण से तथा गोपियों की उत्पत्ति श्री राधा से हुई है। इस बात को प्रमुख देवताओं  सहित परमात्मा श्री कृष्ण ने भी स्वीकार किया है।
              जैसे- गोप और गोपियों की उत्पत्ति के बारे में भगवान शिव ने पूर्व काल में पार्वती को भी ऐसा ही बता

या था। जिसे शिव-वाणी समझ कर इस घटना को पुराणों में सार्वकालिक और सार्वभौमिक रूप से स्वीकार किया जाता है। जिसका वर्णन  ब्रह्मवैवर्त पुराण के प्रकृतिखण्ड के अध्याय-48 के श्लोक संख्या- 43 में शिव जी पार्वती से कहते हैं कि-
"बभूव गोपीसंघश्च राधाया लोमकूपतः।श्रीकृष्णलोमकूपेभ्यो बभूवुः सर्वबल्लवाः।। ४३
अनुवाद -
• श्री राधा के रोमकूपों से गोपियों का समुदाय प्रकट हुआ है, तथा श्री कृष्ण के रोम कूपों संपूर्ण गोपों का प्रादुर्भाव हुआ है।
इस प्रकार से देखा जाए तो शिव जी के कथन से भी यह सिद्ध होता है कि गोप और गोपियों की उत्पत्ति भगवान श्री कृष्णा और श्री राधा के रोम कूपों से ही हुई है।    
                       इसी तरह से गोप-गोपियों की उत्पत्ति के को लेकर परम प्रभु परमात्मा श्री कृष्ण की वे सभी बातें और प्रमाणित कर  देती है, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण अपने अँश से उत्पन्न गोपों की उत्पत्ति के विषय में स्वयं ब्रह्मवैवर्तपुराण के प्रकृति खण्ड के अध्याय -36 के श्लोक संख्या -62 में राधा जी से कहते हैं-
"गोपाङ्गनास्तव कला अत एव मम प्रियाः।
मल्लोमकूपजा गोपाः सर्वे गोलोकवासिनः। ६२
अनुवाद:- 
हे राधे! समस्त गोपियाँ तुम्हारी कलाऐं हैं। और सभी गोलोक वासी गोप मेरे रोमकूपों से उत्पन्न मेरी ही कलाऐं तथा अंश हैं। 62
और ऐसी ही बात भगवान श्री कृष्ण उस समय भी कहें हैं
जब भूतल पर वे गोप जाति के यदुवंश के अन्तर्गत वृष्णि कुल में अवतरित हुए, और कुछ समय पश्चात कंस का वध करके मथुरा के सिंहासन पर पुन: कंस के पिता उग्रसेन को अभिषिक्त किया। तब उग्रसेन, श्रीकृष्ण से राजसूय यज्ञ के आयोजन का परामर्श लेते हैं। उसी  प्रसंग के क्रम में स्वयं श्रीकृष्ण उग्रसेन से कहते हैं कि- "सभी यादव मेरे अंश हैं"। इस बात की पुष्टि गर्गसंहिता के  (विश्वजित्खण्डः) के अध्यायः (२) के श्लोक संख्या- ५ ,६ और-७ से होती है, जिसमें भगवान श्री कृष्ण उग्रसेन से कहते हैं-

सम्यग्व्यवसितं राजन् भवता यादवेश्वर।
यज्ञेन ते जगत्कीर्तिस्त्रिलोक्यां सम्भविष्यति ।। ५

आहूय यादवान्साक्षात्सभां कृत्वथ सर्वतः।
ताम्बूलबीटिकां धृत्वा प्रतिज्ञां कारय प्रभो ॥ ६

"*ममांशा यादवाः सर्वे लोकद्वयजिगीषवः॥ जित्वारीनागमिष्यन्ति हरिष्यन्ति बलिं दिशाम्॥७।
अनुवाद:- 
•  तब श्री कृष्ण ने कहा- राजन् ! यादवेश्‍वर ! आपने बड़ा उत्तम निश्‍चय किया है। उस यज्ञ से आपकी कीर्ति तीनों लोकों में फैल जायगी। ५
•  प्रभो ! सभा में समस्‍त यादवों को सब ओर से बुलाकर पान का बीड़ा रख दीजिये और प्रतिज्ञा करवाइये। ६
•  कि समस्‍त यादव मेरे ही अंश से प्रकट हुए हैं, और वे लोक,परलोक दोनों को जीतने की इच्‍छा रखने वाले हैं। वे दिग्विजय के लिये यात्रा करके, शत्रुओं को जीतकर लौट आयेंगे और सम्‍पूर्ण दिशाओं से आपके लिये भेंट और उपहार लायेंगे। ७
           गोपों की उत्पत्ति के बारे में कुछ ऐसा ही वर्णन उस समय भी मिलता है, जब  समस्त यादव विश्वजीत युद्ध के लिए भूमंडल पर चारों दिशाओं में निकल पड़े तब उस समय दंतवक्र नाम के दैत्य से यादवों का भयानक युद्ध हुआ।
उसी समय श्री कृष्ण पुत्र प्रद्युम्न ने गर्ग संहिता के विश्वजीत खंड के अध्याय- 11 के श्लोक संख्या-२१और २२ में दंतवक्र को यादवों का परिचय देते हुए कहते हैं-

नन्दो द्रोणो वसुःसाक्षाज्जातो गोपकुलेऽपि सः।
गोपाला ये च गोलोके कृष्णरोम समुद्‌भवाः। २१

"राधारोमोद्‌भवा गोप्यस्ताश्च सर्वा इहागताः।
काश्चित्पुण्यैः कृतैः पूर्वैःप्राप्ताः कृष्णं वरैः परैः॥ २२
अनुवाद-
नंदराज साक्षात् द्रोण नामक वासु है, जो गोकुल में अवतीर्ण हुए हैं। और गोलोक में जो गोपालगण है, वे साक्षात श्री कृष्ण के रोम से प्रकट हुए हैं, और गोपियों श्री राधा के रोम से उद्भूत हुई है। वे सब की सब यहां ब्रज में उतर आई है। उनमें से कुछ ऐसी भी गोपांगनाएं हैं जो पूर्व-काल में पूण्यकर्मों तथा उत्तम वारों के प्रभाव से श्री कृष्ण को प्राप्त हुई है। २१,२२
                 इस प्रकार से इन तमाम पौराणिक साक्ष्यों से स्पष्ट होता है प्रथम सृष्टि कर्ता परमेश्वर श्री कृष्ण ही है। उन्होंने अपनी  प्रथम सृष्टि रचना में नारायण, शिव, ब्रह्मा आदि देवताओं की उत्पत्ति के साथ ही गोप और गोपियों की भी उत्पत्ति किये हैं। जिसमें से भगवान श्रीकृष्ण गोप और गोपियों को तो अपनी लीला का सहचर बनाकर अपने साथ ही रख लिए, और जब भी भूमि का भार हरण करने के लिए भूतल पर आते हैं तो वे अपने गोपों को साथ में लेकर ही आते हैं, और भूमि का भार हरण कर पुनः गोप-गोपियों सहित अपने धाम- गोलोक को चले जाते हैं।
               किंतु भगवान श्री कृष्णा जब ब्रह्मा, नारायण, शिव तथा देवताओं की उत्पत्ति कर लेते हैं तब उसके बाद भगवान श्रीकृष्ण ब्रह्मा जी को बुलाकर उनके कर्म- दायित्व को निश्चित करते हुए ब्रह्मवैवर्त पुराण के ब्रह्म खंड के अध्याय-६ के श्लोक संख्या-(.✍️..) में कहते हैं-



अनुवाद-
• महाभाग विधे !

अर्थात ब्रह्मा जी ! तुम सहस्त्र दिव्य वर्षों तक मेरी प्रसन्नता के लिए तप करके नाना प्रकार की उत्तम सृष्टि करो।
• ऐसा कह कर श्री कृष्ण ने ब्रह्मा जी को एक मनोरम माला दी। फिर गोप- गोपियों के साथ वे नित्य नूतन दिव्य वृंदावन में चले गए।
(ध्यान रहे गोलोक में भी वृंदावन है)
इसके बाद भगवान श्री कृष्ण का आदेश पाकर ब्रह्मा जी विविध प्रकार की उत्तम सृष्टि रचना का कार्य प्रारंभ किए
इसलिए ब्रह्मा जी को द्वितीयक सृष्टि रचनाकार भी कहा जाता है, जिसमें ब्रह्मा जी अपनी मर्यादा में रहकर ही सृष्टि की रचना करते हैं। जिसमें वे संपूर्ण ब्रह्मांड में अनंत लोकों रचना करते हुए उनमें जड़, जीव, जगत इत्यादि की सुन्दर रचना किये हैं। उसी क्रम में उन्होंने मानवीय जीवन के चार्तुवर्ण की भी रचना किये जिसमे- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र की स्थितियां बनी है।
       किंतु ब्रह्मा जी सबसे उपर गोलक और उससे क्रमशः नीचे - दाएं और बाएं भाग में स्थित शिव लोक और वैकुंठ लोक तथा श्री कृष्ण से उत्पन्न- गोप और गोपियों की  रचना नहीं करते। इस बात की पुष्टि ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखंड के अध्याय-५ के श्लोक संख्या (...✍️) से होती है
जो इस प्रकार है-

श्लोक।     (संबंधित सभी श्लोकों को लिखना है, ✍️)


   अनुवाद -         पृष्ठ संख्या 34-
ब्रह्मकल्प में मधु-कैटभ के मेद से मेदिनी की सृष्टि करके स्रष्टा ने भगवान श्री कृष्ण की आज्ञा ले सृष्टि रचना की थी। फिर बाराह कल्प में जब पृथ्वी एकार्णव के जल में डूब गई थी, तब वाराहरूपधारी भगवान विष्णु के द्वारा अत्यंत प्रयत्न पूर्वक रसातल से उसका उद्धार करवाया और सृष्टि रचना की।
तत्पश्चात पाद्मकल्प में सृष्टि करता ब्रह्मा ने विष्णु के नाभि- कमल पर सृष्टि का निर्माण किया। ब्रह्मलोक पर्यन्त जो त्रिलोकी ( तीन लोक) है, उसकी  रचना किए। किंतु उसके ऊपर जो नित्य तीन लोक (शिवलोक, वैकुंठलोक, और उससे भी ऊपर गोलोक है)  उसकी रचना नहीं किये।
        कुल मिलाकर ब्रह्मा जी सभी की सृष्टि करते हैं किंतु
उनकी भी कुछ मर्यादाएं हैं- जैसे वे सत्य सनातन एवं चिरस्थाई- बैकुंठ लोक, शिवलोक, और सबसे ऊपर गोलोक और उसमें रहने वाले गोप और गोपियों की सृष्टि नहीं करते। क्योंकि गोप और गोपियों की उत्पत्ति तो भगवान श्री कृष्णा और श्री राधा के रोम कूपों से उसी समय हो जाती है जिस समय नारायण, शिव और ब्रह्मा की उत्पत्ति होती है। तो ऐसे में ब्रह्मा जी गोपों की उत्पत्ति दुबारा (पुनः) कैसे कर सकते हैं। इन सभी बातों को प्रमाण सहित इस अध्याय में लिखा जा चुका है।
   तब ऐसे में प्रश्न उठता स्वाभाविक हो जाता है कि- जब गोप, ब्रह्मा जी की सृष्टि रचना के भाग नहीं है तो जाहिर सी बात है कि वे ब्रह्मा जी की चातुर्वर्ण्य से भी अलग हुए। तब ऐसे में पुनः प्रश्न उठ सकता है कि ये गोप- ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण्य के अतिरिक्त किस वर्ण के सदस्यपति हैं और ये ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य,और शूद्र  इत्यादि में से ये क्या हैं ? तो इन सभी प्रश्नों का समाधान इसके अगले अध्याय- 4 में  प्रमाण सहित विस्तार पूर्वक किया गया है। उसे इस अध्याय के साथ जोड़ कर ही पढ़ना चाहिये।
      
               इस प्रकार से यह अध्याय समाप्त

अध्याय- चार (४)

गोपों का पञ्चम वर्ण- ( वैष्णव वर्ण )

                 भारतीय वर्ण व्यवस्था में ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण से अलग एक ऐसा वर्णन भी है जो समाज में बैदिक एवं पौराणिक अज्ञानता के कारण लुप्तप्राय सा हो गया। जिसका नाम है- पञ्चम वर्ण ( वैष्णव वर्ण )। जो ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण से परे एक स्वतंत्र वर्ण है। जिसके सदस्यपति केवल गोप हैं। जिन्हें आभीर (अहीर) और यादव भी कहा जाता है, वे ही इसमें आते हैं बाकी इनके अतिरिक्त दूसरा और कोई नहीं इसमें आता है। जिनकी उत्पत्ति गोलोक में गोपेश्वर श्री कृष्ण से उसी समय होती है, जिस समय परमात्मा श्रीकृष्ण से नारायण, शिव और ब्रह्मा जी की उत्पन्न होती है। इस महत्वपूर्ण बात को इसके पिछले अध्याय-तीन में प्रमाण सहित बताया जा चुका है कि गोलोक में- गोप और गोपियों  की उत्पत्ति श्रीकृष्ण और श्री राधा के रोम- कूपों यानी उनकी सूक्ष्मतम इकाइयों अर्थात् उनके क्लोन से हुई हैं। यही कारण है कि श्री कृष्ण के ही समान गोप, और श्री राधा के समान गोपियां हुई। इस बात की पुष्टि- ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्मखण्ड के अध्याय-5 के श्लोक संख्या- ४० और ४२ से होती है। जिसमें लिखा गया है कि-

तस्या राधायाश्च लोमकूपेभ्यः सद्योगोपाङ्गनागणः। आविर्बभूव रूपेण वेशेनैव च तत्समः।। ४०

कृष्णस्य लोमकूपेभ्यः सद्यो गोपगणो मुने।
आविर्बभूव रूपेण वेषेणैव च तत्समः। ४२
अनुवाद -
• फिर तो उस किशोरी अर्थात् श्री राधा के रोमकूपों से तत्काल ही अनेक गोपांगनाओं की उत्पत्ति हुई; जो रूप और वेष में राधा के ही समान थीं। ४०
• उसी क्षण श्रीकृष्ण के रोमकूपों से भी अनेक गोप- गणों का आविर्भाव हुआ जो रूप और वेष रचना में श्रीकृष्ण के ही समान थे। ४२
  अब इसमें किसी को संशय नहीं होना चाहिए। क्योंकि  गोप और गोपियां श्रीकृष्ण और श्री राधा की सूक्ष्म इकाइयों अर्थात उनके क्लोन से उत्पन्न हुए हैं। इसलिए - सभी गोप श्री कृष्ण के समरुप तथा सभी गोपियों श्री राधा के समरूप उत्पन्न हुई हैं।
इस बात को आज विज्ञान भी स्वीकारता है कि-  समरूपण अर्थात क्लोनिंग विधि से उत्पन्न जीव उसी के समरूप होता है, जिससे उसकी क्लोनिंग की गई होती है।
और विज्ञान के इस समरूप सिद्धांत को परमेश्वर श्री कृष्ण और श्रीराधा, पूर्व काल में ही अपनी सूक्ष्मतम इकाइयों से समरूप विधि द्वारा गोलोक में गोप- गोपियों की उत्पत्ति  कर चुके हैं। किंतु विज्ञान परमात्मा श्रीकृष्ण के उस सिद्धांत को आज अपनी उपलब्धियां मानकर फूले नहीं समा रहा है।
        अब मैं उम्मीद करता हूं कि पाठकगढ़ इस बात को अवश्य समझ गए होंगे कि- गोप और गोपियां ब्रह्मा जी की सृष्टि रचना के भाग नहीं हैं। इसलिए ये ब्रह्मा जी के चतुर्वर्ण से अलग श्रीकृष्ण (स्वराट विष्णु ) से उत्पन्न वैष्णव वर्ण के हुए। क्योंकि यदि इस वैष्णव वर्ण को शब्द की ब्युत्पत्ति के हिसाब से देखा जाए- तो जिस प्रकार से ब्रह्मा में अण- प्रत्यय लगाने से ब्राह्मण शब्द की उत्पत्ति होती है। ठीक उसी प्रकार से विष्णु में अण- प्रत्यय लगाने से वैष्णव शब्द की उत्पत्ति होती है, जो दोनों ही संतति यानी संतान वाचक हैं।
    चुंकि ये गोप श्रीकृष्ण अर्थात् स्वराट विष्णु से उत्पन्न है इसलिए इनका सम्बन्ध वैष्णव वर्ण से ही है न कि ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण से। इसलिए इनकी पहचान इस भू-मंडल पर एक स्वतंत्र जाति के रूप में विख्यात है।
इस बात की पुष्टि- ब्रह्मवैवर्तपुराण के (..✍️ खण्ड ) के अध्याय 11 के श्लोक संख्या- 43 से होती है, जिसमें लिखा गया है कि-

ब्रह्मक्षत्रियविट्शूद्राश्चतस्रो जातयो यथा ।
स्वतन्त्रा जातिरेका च विश्वेष्वस्मिन्वैष्णवाभिधा ।। ४३
अनुवाद:-
ब्राह्मण' क्षत्रिय 'वैश्य और शूद्र जो चार जातियाँ जैसे इस विश्व में हैं वैसे ही वैष्णव नाम कि एक स्वतन्त्र जाति व वर्ण भी इस संसार में है। ४३   
             उपर्युक्त श्लोक में पञ्चम जाति व वर्ण के रूप में भागवत धर्म के प्रर्वतक आभीर / यादव लोगो को स्वीकार किया गया है। क्योंकि वैष्णव शब्द भागवत शब्द का ही पर्याय है।
                इस प्रकार से यह अध्याय-(चार) इस जानकारी के साथ समाप्त हुआ कि- गोप- ब्रह्मा जी की सृष्टि रचना के भाग नहीं है, इसलिए ये ब्रह्मा जी के चातुर्वर्ण से अलग एक स्वतंत्र वर्ण के हैं, जिसे वैष्णव वर्ण (पञ्चम वर्ण ) के नाम से भी जाना जाता है।
अब इसके अगले अध्याय- पांच में पाठकगढ़ गोपों की प्रमुख विशेषताएं एवं उनकी पौराणिक ग्रंथों में की गई भूरी भूरी- प्रशंसाओं के बारे में जानेंगे इस भूमंडल पर गोप जाती से बड़ा ना ही कोई वैष्णव है और ना ही उनके समान  कोई धर्म वत्सल है।

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