शनिवार, 7 सितंबर 2024

लोक- आचरण के सूत्र•★


















 
१५-एक आवेश हो मन में और चंचलता क्षण क्षण 
समझो तूफानों का दौर है , होगी जरूर गड़बड़।। 

१६-ये उमंग और रंगत , लगें मोहक नजारे,
सयंम की राह हे मन पकड़ ! इधर उधर 'न जारे

१७–सच बयान करने वाले मुख नहीं ,
दुनियाँ में अब महज चहरे होते हैं । 
केवल शब्दों की ही भाषा सुनने वाले  
लोग तो अक्सर बहरे होते हैं।।

१८- अरे तेरी आँखें जो कहती हैं पगले । 
वो भाव ही असली तेरे होते हैं। 
उमड़ आते हैं वे एकदम चहरे पर
बर्षों से दिल में जो कहीं ठहरे होते हैं
 
१९- दर्द देते हमको वीरानी राहों में "रोहि"
 अक्सर तन्हाई में  जब कहीं बसेरे होते हैं ।
 अपमान हेयता की चोटों के जख़्म , 
जो न भरने वालेे और बड़े गहरे होते हैं ।। 

२०–दान दीन को दीजिए भिक्षा जो मोहताज ।
 और दक्षिणा दक्ष को जिसका श्रममूलक काज।
 परन्तु रीति विपरीत है सब जगह देख लो आज ।
 श्रृंँगार बनाकर असुन्दरी जैसे नैन - मटका वाज।
 जैसे डिग्रीयों में अब नहीं, रही योग्यता की आवाज ।।

२१-ये परिस्थियाँ ये अनिवार्यताऐं जीवन की एक सम्पादिका !
 जिनकी वजह से खरीदा और बेका भी बहुत परन्तु अपना कभी चरित्र नहीं बिका ।। 

२२-प्रवृत्तियाँ जन्म सिद्ध होती जिनसे निर्धारित जातियाँ।
आदतें व्यवहार सिद्ध ज्योति सुलगती जीवन बातियाँ ।।

२३-ये कर्म अस्तित्व है जीवन का धड़कने श्वाँस के साँचे।
समय और परिवर्तन मिलकर जगत् के गीत सब बाँचे ।।

२४–क्योंकि जिन्दे पर पूछा नहीं न किया कभी उन्हें याद ! 
तैरहीं खाने आते हैं वे उसके मरने के वाद ।
 कर्ज लेकर कर इलाज कराया जैसे खुजली में दाद ।
 खेती बाड़ी सभी बिक गयी हो गया गरीब बर्वाद 
पण्डा , पण्डित गिद्द पाँत में फिर भी ले रहे स्वाद 
 घर की हालत खश्ता इतनी छाया है शोक विषाद 

 किस मूरख ने यह कह डाला ? 
तैरहीं ब्राह्मणों को प्रसाद !
 आज तुमने धन्यवाद वाद क्या दिया !
 मुझे तुमने धन्य कर दिया साध! 

धुल गया वो पाप सारा सब क्षमा जघन्य अपराध!
 तभी मुसाफिर आगे बढ़ता ले उन बातों की याद। 
२५–अज्ञानता के अँधेरों में हकीकत ग़ुम थी ।
 उजाले इल्म के होंगे ! उन्हें न ये मालुम थी ।।

 २६–धड़कने थम जाने पर श्वाँसें कब चलती हैं ? 
–बहारे गुजर जाती जहाँ वहाँ खामोशियाँ मचलती हैं !

 २७–हम इच्छाओं की खातिर जिन्द़ा ये इच्छा वैशाखी है। 
दर्द तो दिल में बहुत है लोगों , बस अब सिसकना बाकी है । 

२८–वासना लोभ मूलक पास रहने की इच्छा है ।
 जबकि उपासना स्वत्व मूलक पास रहने की इच्छा है ।

२९- काम अथवा वासना में क्रूरता का समावेश उसी प्रकार सन्निहित है ! –जैसे रति में करुणा- मिश्रित मोह सन्निहित है। 
जैसे शरद और वसन्त ऋतु दौनों का जन्म समान कुल और पिता से हुआ है । 
परन्तु जहाँ वसन्त कामोत्पादक है ।
वहीं शरद वैराग्य व आध्यात्मिक भावों की उत्पादिका ऋतु है ।

 ३०–एक अनजान और अजीव देखा मैंने वह जीव ।
जीवन की एक किताब पढ़ न पाया तरतीब ।।

३१ -साहित्य गूँगे इतिहास का वक्ता है ।
 परन्तु इसे नादान कोई नहीं समझता है ।।
 
३२-साहित्य किसी समय विशेष का प्रतिबिम्ब 
तथा तात्कालिक परिस्थितियों का खाका है । 
ये पूर्ण चन्द्र की धवल चाँदनी है जैसे 
अतीत कोई तमस पूर्ण राका है ।। 

३३-इतिहास है भूत का एक दर्पण। 
गुजरा हुआ कल, गुजरा हुआ क्षण -क्षण ।। 

३४- कोई नहीं किसी का मददगार होता है । 
आदमी भी मतलब का बस यार होता है ।।
 छोड़ देते हैं सगे भी अक्सर मुसीबत में ।
 मुफ़लिसी में जब कोई लाचार होता है ।। 

३५-बात ये अबकी नहीं सदीयों पुरानी है । 
स्वार्थ से लिखी हर जीवन कहानी है ।।
स्वार्थ है जीवन का वाहक । 
और अहं जीवन की सत्ता है ।। 
अहंकार और स्वार्थ ही है । 
हर प्राणी की गुणवत्ता है ।। 

३६- विश्वास को भ्रम , और दुष्कर्म को श्रम कह रहे 
आज लूट के व्यवसाय को , अब कुछ लोग उपक्रम कह रहे।।

३७-व्यभिचार है,पाखण्ड है , ईमान भी खण्ड खण्ड है 
संसार जल रहा है हर तरफ से ये वासनाओं की ज्वाला प्रचण्ड है ।

३८-साधना से हीन साधु सन्त शान्ति से विहीन ।
दान भी उनको नहीं मिलता जो वास्तव में बने हैं दीन।।

३९- व्यभिचार में डूबा हुआ । 
भक्त उसको परम कह रहे । 
रूढ़ियों जो सड़ गयीं लोग उनके धर्म कह रहे ।।

४० - इन्तहा जिसकी नहीं, उसका कहाँ आग़ाज है 
 ना जान पाया तू अभी तक जिन्द़गी क्या राज है 

४१- धड़कनों की ताल पर , श्वाँसों की लय में ढ़ाल कर ।
 स्वर बनाकर प्रीति को तब गाओ जीवन गीत को। 

साज़ लेकर संवेदनाओं का । 
दु:ख सुख की ये सरग़में ।
 आहों के आलाप में । ये कुछ सुनाती हैं हम्हें ।। 

सुने पथ के ओ पथिक ! 
तुम सीखो जीवन रीति को ।। 
स्वर बनाकर प्रीति को तब गाओ जीवन गीत को।

सिसकियों की तान जिसमें एक राग है अरमान का ।।
प्राणों के झँकृत तार पर । उस चिर- निनादित गान का ।। 

विस्तृत मत कर देना तुम , इस दायित पुनीत को  
स्वर बनाकर प्रीति को तब गाओ जीवन गीत को  

ताप न तड़पन रहेगी। जब श्वाँस से धड़कन कहेगी 
हो जोश में तनकर खड़ा। विद्युत - प्रवाह सी प्रेरणा ।

 बनती हैं सम्बल बड़ा ।। 
तुम्हेें जीना है अपने ही बल पर ।
 तुम लक्ष्य बनाओं जीत को ।। 
स्वर बनाकर प्रीति को तब गाओ जीवन गीत को 

४२-खो गये कहीं बेख़ुदी में । हम ख़ुद को ही तलाशते ।।
 लापता हैं मञ्जिलें । 
अब मिट गये सब रास्ते ।। 
न तो होश है न ही जोश है ।। 

ये जिन्द़गी बड़ी खामोश है ।। 
बिखर गये हैं अरमान मेरे सब बदनशीं के वास्ते । 
ये दूरियाँ ये फासिले , बेतावीयों के सिलसिले !! 
एक साद़गी की तलाश में , हम परछाँयियों से आमिले ।। 

दूर से भी काँच हमको। मणियों जैसे भासते ।।
सज़दा किया मज्दा किया ।। कुर्बान जिसके वास्ते।। 
हम मानते उनको ख़ुदा ।। 
जो कभी न हमारे ख़ास थे ।। 

किश्ती किनारा पाएगी कहाँ मिल पाया ना ख़ुदा।
 वो खुद होकर हमसे ज़ुदा । 
ओझल हो गया फिर आस्ते ।। 
खो गये कहीं बेख़ुदी में । 
हम ख़ुद को ही तलाशते ।। 

४३- जिन्द़गी की किश्ती ! 
आशाओं के सागर ।। 
बीच में ही डूब गये ; 
कुछ लोग तो घबराकर ।।
 किसी आश़िक को पूछ लो । 
अरे तुम द़िल का हाल जाकर ।।
दुपहरी सा जल रहा है ; बैचारा तमतमाकर ।। 
 
असीमित आशाओं के डोर में । 
बँधी पतंग है जिन्द़गी कोई ।। 
मञ्जिलों से पहले ही यहाँं , 
भटक जातों हैं अक्सर बटोही क्यों कि ! बख़्त की राहों पर ! जिन्द़गी वो मुसाफिर है ।। 

जिसकी मञ्जिल नहीं "रोहि" कहीं । 
और न कोई सफ़र ही आखिर है ।। 
आशाओं के कुछ पढ़ाब जरूर हैं 
वह भी अभी हमसे बहुत दूर हैं ।। 

बस ! चलते रो चलते रहो " चरैवेति चरैवेति ! 

४४- अपनों ने कहा पागल हमको । ग़ैरों ने कहा आवारा है । 
जिसने भी देखा पास हम्हें । उसने ही हम्हें फटकारा है ।। 

४५- कोई तथ्य असित्व में होते हुए भी उसी मूल-रूप में नहीं होता ; जिस रूप में कालान्तरण में उसके अस्तित्व को लोगों द्वारा दर्शाया जाता है । 
क्यों कि इस परिवर्तित -भिन्नता का कारण लोगों की भ्रान्ति पूर्ण जानकारी, श्रृद्धा प्रवणता तथा अतिरञ्जना कारण है । 
और परम्पराओं के प्रवाह में यह अस्त-व्यस्त होने की क्रिया स्वाभाविक ही है । 
देखो ! आप नवीन वस्त्र और उसी का अन्तिम जीर्ण-शीर्ण रूप ! अतः उसके मूल स्वरूप को जानने के लिए केवल अन्त:करण की स्वच्छता व सदाचरण व्रत आवश्यक है क्यों कि दर्पण के स्वच्छ होने पर ज्ञान रूप प्रकाश स्वत: ही परावर्तित होता है ।
 और यह ज्ञान वही प्रकाश है । 

४६-जिससे वस्तु अथवा तथ्यों का मूल वास्तविक रूप दृष्टि गोचर होता है । और ज्ञान की सिद्धि के लिए अन्त:करण चतुष्टय की शुद्धता परमावश्यक है ।
४७-फिर आपसे बड़ा कोई ज्ञानी नहीं । 
समझे ! अभी नहीं समझे !
अनुभव उम्र की कषौटी है । 
ज्ञान की मर्यादा उससे कुछ छोटी है । 

क्योंकि अनुभव प्रयोगों के आधार पर अपने आप में सिद्ध होता है और ज्ञान केवल एक सैद्धान्तिक स्थति है भक्तों आप ही बताइए कि प्रयोग बड़ा होता है या सिद्धांत ! 

४८-परिस्थितियों के साँचे में । 'रोहि' व्यक्तित्व ढलता है ।
बदलती है दुनियाँ उनकी , जिनका केवल मन बदलता है। 

४९-मेरे विचार मेरे भाव यही मेरे ठिकाने हैं ।
हर कर्म है इनकी व्याख्या ये लोगो को समझाने हैं। 

५०-जन्म जन्मान्तरण के अहंकारों का सञ्चित रूप ही तो नास्तिकता है । 
आत्मा को छोड़कर दुनियाँ में बस सब-कुछ बिकता है ।

५१-जो जीवन को निराशाओं के अन्धेरों से आच्छादित कर देती है । और ये आस्तिकता जीने का एक सम्बल देती है ।
 समझने की आवश्यकता है कि क्या नास्तिकता है ? 

५२-अपने उस अस्तित्व को न मानना जिससे अपनी पता है ।
 क्यों कि लोग अहं में जीते है । 

जिसमें फजीते ही फजीते हैं । 
परन्तु यदि वे स्वयं में जी कर देखें तो वे परम आस्तिक हैं और बड़े सुभीते हैं।। 

५३-बुद्ध ने भी स्व को महत्ता दी अहं को नहीं !
 दर्शन (Philosophy) से विज्ञान का जन्म हुआ।
 दर्शन वस्तुत सैद्धान्तिक ज्ञान है । 

और जबकि विज्ञान प्रायौगिक है , --जो किसी वस्तु अथवा तथ्य के विश्लेषण पर आधारित है ।

५४-ताउम्र बुझती नहीं "रोहि " जिन्द़गी 'वह प्यास है 
आनन्द की एक बूँद के लिए भी , आदमी इच्छाओं का दास है ।।

परन्तु दु:ख सुख की मृग मरीचि का में 
उसका ये सारा प्रयास है।। 

आस जब तलक छोड़ी नहीं थीं धड़कने और श्वाँस।
जीवन किसी पहाड़ सा दुर्गम और स्वप्न जैसे झरना कोई खा़स.. 

५५-ये नींद सरिता की अविरल धारा. 
जहाँ मिलता नहीं कभी कोई किनारा। 

५६-हर श्वाँस में है अभी जीने की चाह ... 
क्योंकि जीवन है अनन्त जन्मों का प्रवाह ....
 शिक्षा का व्यवसायी करण दु:खद व पतनकारी हे भगवन् ! 

५७-शिक्षा अन्धेरे में दिया इसके विना सूना जीवन । 
आज के अधिकतर शिक्षा संस्थान (एकेडमी) एक ब्यूटी-पार्लर से अधिक कुछ नहीं हैं । 

जिनमें केवल डिग्रीयों का श्रृँगार करके विद्या - अरथी नकलते हैं । ये योग्यता या विद्या का अरथी ले जा रहे हों ऐसा लगता है । 

जिनमें योग्यता रूपी सुन्दरता का प्राय: अभाव ही रहता है केवल आँखों में सबको चूसने का भाव रहता है। इन्हें -जब समझ में आये कि सुन्दरता कोई श्रृँगार नहीं ! -
जैसे साक्षरता शिक्षाकार नहीं । 
योग्यता एक तपश्चर्या है । 

५८--जो नियम- और संयम के पहरे दारी में रहती है 
 वैसे भी योग्य व्यक्ति दुनियाँ का सबसे शक्ति शाली व्यक्ति है । 
यदि स्त्रीयाँ सुन्दर न हों केवल श्रृँगार सर्जरी कराई कर रुतबा बिखेरती हों तो विद्वानों की दृष्टि में कभी भी सम्माननीया नहीं रहती । 

५९-जिन्हें अपने संसारी पद का ,"रोहि" हद से ज्यादा मद है । 
सन्त और विद्वान समागम , उनका छोटा क़द है ।

उनके पास कुछ टुकड़े हैं । क्षण-भङ्गुर चन्द कनक के , 
उन्मुक्त कर रहे स्वर उनको , बड़ते पैसों की खनक के ।।

उनकी उपलब्धियों की भी , संसार में यही सरहद है ।
 ये लौकिक यात्रा का साधन धन !
 जिसकी टिकट भी अब तो रद है ।।
 जीवात्मा की अनन्त यात्रा ।
 जिसका पाथेय उपनिषद् है । 
पढ़ाबों से वही बढ़ पाता है रोहि ।

 --जो राहों का गहन विशारद है .

६०-. सच कहने में संकोच खौंच दीवार की आँसे ! 
व्यक्ति की छोटी शोच , मोच पैरों की नाँसे !!

बातचीत करके और व्यवहार परख कर चलने वाले कभी नहीं पाते झांसे ! 

६१-सभी दूध के धुले भी कहाँ निर्विवाद होते हैं । 
नियमों में भी अक्सर यहाँं अपवाद होते हैं ।। 

कार्य कारण की बन्दिशें , उसके भी निश्चित दायरे। 
नियम भी सिद्धान्तों का तभी, अनुवाद होते हैं ।। 

महानताऐं घूमती हैं "रोहि" गुमनाम अँधेरों में । 
चमत्कारी तो लोग प्रसिद्धियों के बाद होते हैं ।। 

६२-भव सागर है कठिन डगर है । 
हम कर बैठे खुद से समझौते ! 
डूब न जाए जीवन की किश्ती । 
यहाँ मोह के भंवर लोभ के गोते ।
 मन का पतवार बीच की धार। 
रोही उम्र बीत गई रोते-रोते। 
प्रवृत्तियों के वेग प्रबल हैं । 
लहरों के भी कितने छल हैं । 

बस बच गए हैं हम खोते खोते। 
सद्बुद्धि केवटिया बन जा । 
इन लहरों पर सीधा तंजा । 

प्रायश्चित के फेनिल से चमकेगा। 
रोही अन्तर घट ये धोते-धोते।। 

६३-तन्हाईयों के सागर में खयालों की बाड़ हैं । 
जिन्दगी की किश्ती लहरें प्रगाढ़ हैं ।

पतवार छूट गये मेरे ज्ञान और कर्म के ।
हर तरफ मेरे मालिक ! 
घोर स्वार्थो की दहाड़ है । 
जिसकी दृष्टि में भय मिश्रित छल है। 

६४-रोही वह निश्चित ही कोई अपराध कर रहा है और उसे अपराध बोध भी है। परन्तु वह दुर्भावनाओं से प्रेरित है । 

६५-यह मेरा निश्चित मत है और जो व्यक्ति हमसे भयभीत है हम्हें उनसे भी भयभीत रहें।
क्योंकि यह अपने भय निवारण के लिए हमारा अवसर के अनुकूल अनिष्ट कर सकते हैं।
 
६६-व्यक्तित्व तो रोहि परिस्थितियों के साँचे में ढलते हैं।
अभावों की आग में तप कर भत्त भी फौलाद में बदलते हैं ।

६७- अनजान और अजीव , ऐसा था एक जीव । 
वक्त की राहों पर चल पड़ा बेतरतीव ।। 

६८-शरद और वसन्त ऋतु क्रमश वैराग्य और काम भावों की उत्प्रेरक हैं । वैराग्य और काम एक ही वेग की दो विपरीत धाराऐं हैं ।
 ये हुश़्न भी "कोई " ख़ूबसूरत ब़ला है ! _______________________________

६८- बड़े बड़े आलिमों को , इसने छला है !!
 इसके आगे ज़ोर किसी चलता नहीं भाई! 

ना इससे पहले किसी का चला है ! 
ये आँधी है ,तूफान है ये हर ब़ला है 
परछाँयियों का खेल ये सदीयों का सिलस़िला है ! 

आश़िकों को जलाने के लिए इसकी एक च़िगारी काफी है , 
जलाकर राख कर देना । 

फिर इसमें ना कोई माफी है । 
सबको जलाया है इसने , ये बड़ा ज़लज़ला है !!
इश्क है दुनियाँ की लीला, तो ये हुश़्न उसकी कला है ।।

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छोटे या बड़े होने का प्रतिमान यथार्थों की सन्निकटता ही है ।
 क्यों कि ज्ञान सत्य का परावर्तन और सर्वोच्च शक्तियों का विवर्तन ( प्रतिरूप ) है । 
-वह व्यक्ति दुनियाँ का सबसे शक्तिशाली व्यक्ति है ; 
जो सत्य के समकक्ष उपस्थित है ।
 ज्ञान जान है यह सत्य का प्रतिमान ( पैमाना )है 
संसार में प्रत्येक व्यक्ति की एक सोच होती है ; 

जो समानान्तरण उसकी प्रवृत्ति और स्वभाव को प्रतिबिम्बित करती रहती है । 
उसी के अनुरूप वह जीवन में व्यवसाय क्षेत्रों का चयन करता है। और सत्य पूछा जाय तो इसका मूल कारण उसकी प्रारब्ध है जो जन्म- जमान्तरण के संचित 'कर्म'- संस्कारों से संग्रहीत है जीव संचित' क्रियमाण और प्रारब्ध का प्रतिफलन हैं । 

प्रारम्भ में सृष्टि में एक अवसर सबको मिलता है ।
फिर समय उपरान्त वह अपने कर्मों से अपने जीवन की यात्रा निर्धारित करता है । 
लव तलब मतलब इन हयातों का सबब !

दुनियाँ की उथल -पुथल दुनियाँ इनसे ये सारी
 है 
कर्म जीवन का अस्तित्व कर्म ये कर्म की फुलवारी है ।।

 _____________________________________ 
रोहि सुधरेगा नहीं , सदियों तक ये देश।।
अनपढ़ बैठे दे रहे ,  मंचों  पर  उपदेश।।

मंचों पर उपदेश  पंच बैठे हैं अन्यायी ।
वारदात के बाद पुलिस लपके से आयी।।

राजनीति का खेल , विपक्षी बना है द्रोही।
जुल्मों का ये ग्राफ  क्रम बनता आरोहि ।।
___________

पाखण्डी इस देश में , पाते हैं सम्मान ।
अन्ध भक्त बैठे हुए, लेते उनसे ज्ञान ।।

लेते उनसे ज्ञान  मति गयी उनकी मारी ।
दौलत के पीछे पड़े, उम्र बीत गयी सारी

स्वर" ईश्वर बिकते जहाँ ,दुनियाँ ऐसी मण्डी।
भाँग धतूरा ,कहीं चिलम फूँक रहे पाखण्डी।।
_______
रोहि सुधरेगा नहीं ,सदियों तक अपना देश।।
अनपढ़ बैठे दे रहे  पढने वालों को उपदेश।।

पढने वालों को उपदेश  राजनीति है गन्दी।
बेरोजगारी भी बड़ी  और पड़ी देश में मन्दी।।

अपराधी ज़ालिम बड़े और लड़े  देश में  द्रोही।
किसी की ना सुनता कोई , जुल्म  बना आरोहि।।


मजबूरियाँ हालातों के जब से  साथ हैं।
सफर में सैकड़ों  हजारों   फुटपाथ हैं।।

सम्हल रहा हूँ जिन्दगी की दौड़ में गिर कर !
किस्मतों को तराशने वाले भी कुछ हाथ हैं।

गुरुर्मातृसमो नास्ति नास्ति भार्यासमःसखा।
नीचावमाननाद्दुःखाद्दुःखं नास्ति यथा परम्।४०। 
(विष्णु धर्मोत्तर पुराण  अध्याय 305 -)

अनुवाद:-
माता को समान गुरु नहीं है और पत्नी को समान सखा नहीं । नीच व्यक्ति द्वारा किया गया अपमान इस दुनियाँ का सबसे बड़ा दु:ख है।

 जीवन की अनन्त विस्तारमयी श्रँखलाओं में से एक कड़ी है वर्तमान जीवन और इस वर्तमान जीवन में घटित पहलू प्रारब्ध द्वारा निर्धारित हो गये है। इस संसार में प्रत्येक प्राणी के जीवन में सभी घटित  घटनाओं और प्राप्त  वस्तुओं का अस्तित्व उद्देश्य पूर्ण और सार्थक ही है। वह नियत है ,निश्चित है। उसके

भले हीं उस समय  उनकी उपयोगिता हमारे जीवन के अनुकूल हो अथवा  न हो । क्योंकि उसकी घटित वास्तविकता का स्थूल रूप से हम्हें कभी बोध ही नहीं होता है।

और लोगों को कभी भी भविष्य में स्वयं के द्वारा करने वाले कर्मों के लिए दाबा - और भूल से किए गये गलत कर्मों  के लिए भी पछतावा नहीं करना चाहिए।  क्यों कि भूल से जो कर्म हुआ वह काल से प्रेरित प्रारब्ध का विधान था । 
बुद्धिमानी इसी में है कि अहंकार से रहित होकर उस परम सत्ता से मार्गदशन का निरन्तर आग्र क्या जाए।

हाँ भूत काल की घटनाओं से उनके सकारात्मक या नकारात्मक रूप में घटित  परिणामों से मनुष्य को  शिक्षा लेकर भविष्य की  सुधारात्मक परियोजना का अवश्य विचार करना चाहिए। वहाँ  कर्म का दावा तो कभी नहीं करना चाहिए-

यद्यपि कर्म तो वर्तमान के ही धरातल पर सम्पादित होता है। अत: वर्तमान को ही बहुत सजग तरीके जीना- जीवन है।

भविष्य की घटित घटनाओं का ज्ञान  स्थूल दृष्टि से तो कोई नहीं कर सकता है।

परन्तु रात्रि के अन्तिम पहर में देखे हुए स्वप्न भी जीवन में सन्निकट भविष्य में होने वाली कुछ घटनाओं का प्रकाशन अवश्य करते हैं। वास्तव में यह मन में स्फुटित प्रारब्ध का प्रकाशन है।

ये भविष्य की घटनाएँ कभी प्रतिकूल प्रतीत होते हुए भी अनुकूल स्थितियों का निर्माण करती हैं ।

और अनुकूल प्रतीत होते हुए भी वाली ये  घटनाएँ  प्रतिकूल परिस्थितियों का निर्माण भी कर देती हैं। साधारण लोग इनके गूढ सत्य को नहीं जानते हैं!  ये सब तो प्रारब्ध के विधान ही हैं। 
कभी कभी हम बचपन में केवल शोक अथवा सनक में ऐसी वस्तुओं का संग्रह कर लेते हैं जो उस समय तो निरर्थक और बेकार सी होती हैं परन्तु भविष्य में कभी उनकी उपयोगिता सार्थक हो जाती है। यही तो प्रारब्ध का विधान है।

दर-असल प्रारब्ध अनेक जन्मों के मन के  निर्देशन द्वारा शरीर के विभिन्न अंगों से किए गये कर्मों का सञ्चित रूप में से- एक जीवन के  निर्देशन के लिए विभाजित एक रूप है।

अर्थात्  ( एक जीवन में फलित परिस्थितियों और उपलब्धियों की सुलभता का नाम प्रारब्ध है । स्वभाव की रवानगी में यही प्रारब्ध ही व्याप्त है। 
यही प्रारब्ध भाग्य संज्ञा से भी अभिहित किया जाता है।

परन्तु जब लोग स्वभाव के विपरीत संयम से कुछ नया करते हैं तब  वह साधना नवीन कर्म संस्कार का निर्माण करती है। यही तपस्या अथवा साधना नवीन सृजन की भी क्रिया या शक्ति है। 
यह क्रियमाण कर्म है - जिससे आगामी जीवन के प्रारब्ध का निर्माण होता है।

यही जीवन का सत्य है। हमने जीवन की प्रयोगशाला में यह अनुभव रूपी प्रयोग भी किया है। यह प्रयोगशाला और प्रयोग सबका मौलिक ही होता है। सार्वजनिक कदापि नहीं सबका जीवन अपनी एक निजी प्रयोगशाला है। -

दुनियाँ के सभी प्राणियों की क्रियाविधि काल के तन्तुओं से निर्मित‌ प्रारब्ध की डोर से नियन्त्रित है।

परिस्थितियों के वस्त्रों में है डोर या धागा  सबका प्रारब्ध का ही लगा है   इसी वस्त्र से  जीवन आवृत  है।
 
इसी लिए अहंकार रहित होकर कर्तव्य करने में ही जीवन की सार्थकता है। निष्काम भक्त इस संसार में सबसे बड़ा साधक है।

धर्म का अधिष्ठाता यम हैं ।

और यम की दार्शनिक व्याख्या की जाए तो 
यम स्वाभाविकताऐं जो मन और सम्पूर्ण जीवन का अन्तत: पतन कर देती हैं। 
उनके  नियमन अथवा ( निरोध) की विधि है।
योगशास्त्र में प्रथम सूत्र है।

 योग की परिभाषा निरूपित करते हुए ।
योगश्चितवृत्तिनिरोध:” चित्तवृत्ति के निरोध का नाम योग है | 
चित्त अर्थात मन वृत्ति ( स्वाभाविक तरंगे) उनका निरोध( यमन - नियन्त्रण) करने के लिए ही जीवन में धर्माचरण आवश्यक है।
इसी धर्माचरण के ही अन्य नाम व्रत- तपस्या -सदा चरण आदि हैं योग भी मन की वृत्तियों के नियन्त्रण की  क्रिया -विधि है।

 मन की इन्हीं वृत्तियों ( तरंगो) के नियन्त्रण हेतु कतिपय उपाय  आवश्यक होते हैं  जो संख्या में आठ माने जाते हैं। अष्टांग योग के अंतर्गत प्रथम पांच अंगों में  (यम, नियम, आसन, प्राणायाम तथा प्रत्याहार) ‘बहिरंग’ हैं।

 और शेष तीन अंग (धारणा, ध्यान, समाधि) ‘अंतरंग’ नाम से प्रसिद्ध हैं।
अत: यम बाह्य सदाचरण मूलक साधना है।
यही धर्म है।

बहिरंग साधना के यथार्थ रूप से अनुष्ठित या क्रियान्वित होने पर ही साधक को अंतरंग साधना का अधिकार प्राप्त होता है।

 यम’ और ‘नियम’ वस्तुत: शील और तपस्या के द्योतक हैं। 

यम का अर्थ है संयम जो पांच प्रकार का माना जाता है : (क) अहिंसा, (ख) सत्य, (ग) अस्तेय (चोरी न करना अर्थात्‌ दूसरे के द्रव्य के लिए स्पृहा न रखना) अथवा बिना उनकी अनुमति के उसकी इच्छा न करना।

सत्य यही है कि व्यक्ति जब सदाचरण और यम की इन प्रक्रियाओं को करता है तो उसका अन्त:करण शुद्ध और मन बुद्ध ( बोध युक्त)हो जाता है बुद्धि चित् या मन की ही बोध शक्ति है।
यहीं से ईश्वरीय ज्ञान का स्वत: स्फुरण होने लगता है। 
इसी लिए तो साधक सन्त तपस्वी सबके मन की बात जान लेते हैं और अनेक भविष्य वाणीयाँ भी सटीक करते हैं।

नास्तिक व्यक्ति आत्म चिन्तन से विमुख तथा मन की स्वाभाविक वासनामूलक वृत्तियों की लहरों में उछलता -डूबता हुआ  कभी भी शान्ति को प्राप्त नहीं होता और जो शान्ति से रहित व्यक्ति   सुखी अथवा आनन्दित कैसे रह सकता है ? आनन्द रहित व्यक्ति नीरस और निराशाओं में जीवन में सदैव अतृप्त ही रह जीवन बिता देता है।

दर-असल नास्तिकता जन्म - जन्मान्तरों के सञ्चित अहंकार का घनीभूत रूप है। 

जिसकी गिरफ्त हुआ व्यक्ति कभी भी सत्य का दर्शन नहीं कर सकता यही अहंकार अन्त:करण की मलीनता( गन्दिगी) के लिए उत्तरदायी है।

अन्त:करण (मन ,बुद्धि, चित्त ,और स्वत्वबोधकसत्ता का समष्टि रूप ) के शुद्ध होने पर ही सत्य का दर्शन होता है।

और इस  अहंकार का निरोध ही तो भक्ति है।
अहंकार व्यक्ति को सीमित और संकुचित दायरे में कैद कर देता है ।

वह भक्ति जिसमें सत्य को जानकर उसके अनुरूप सम्पूर्ण जीवन के कर्म उस परम शक्ति के प्रति समर्पित करना होता है। जो जन्म और मृत्यु के द्वन्द्व से परे होते हुए भी इन रूपों को अपने लीला हेतु अवलम्बित करता है। वह अनन्त और सनातन है।

मानवीय बुद्धि उसका एक अनुमान तो कर सकती है परन्तु अन्य पात्रता हीन व्यक्तियों के सामने व्याख्यान नहीं कर सकती हैं।

संसार में कर्म इच्छओं से कभी रहित नहीं होता है। 

कर्म में इच्छा और इच्छाओं के मूल में संकल्प और संकल्प अहंकार का विकार -है।

भक्ति में कर्म फल को भक्त ईश्वर के प्रति समर्पित कर देता है अत: ईश्वर स्वयं प्रेरणात्मक रूप से उसका मार्गदर्शन करता है ।

जब एक बार किसी के प्रति श्रद्धा उत्पन्न हो जाय तो जनसाधारण उनकी गलत बातों को भी सही मानते हैं। धर्म के क्षेत्र में यही सिद्धान्त लागू है।
क्योंकि श्रद्धा तर्क विचार और विश्लेषण के द्वार बन्द कर देती है।

जब जब व्यक्ति अपनी प्राप्तव्य वस्तु के अनुरूप योग्यता अर्जित कर लेता है वह वस्तु उसे प्राप्त हो के ही रहती है।
देर भले ही हो जाय !

वासना " तृष्णा " लोभ " मोह " और  लालसा" एक ही परिवार के सदस्य नहीं है। अपितु यह एक भाव ही  सभी अवान्तर भूमिकाओं में भिन्न भिन्न नाम धारण किए हुए है। 
और "आवश्यकता" (जरूरत) नामक जो भाव है वह  इन सबसे पृथक  जीवन के अस्तित्व का अवधारक है। जरूरतें जैविक अवधान हैं सृष्टा द्वारा निर्धारित जीवन का विधान हैं।

और जो वस्तु जीवन के लिए आवश्यक है वहीउसी रूप और अनुपात में उतनी ही सुन्दर भी  है।

यद्यपि प्रत्येक इन्सान में  गुण- दोष होते ही हैं व्यक्ति स्वयं अपने दोषों पर गौर नहीं करता  परन्तु हम्हें तो उसके गुण ही ग्रहण करने चाहिए सायद वे हमारे लिए गुण न हों क्योंकि हम जिसे एक बार शत्रु मान लेते हैं उस व्यक्ति में चाहें कितने भी गुण हों वह हम्हें  दोष ही दिखाई देते हैं। क्यों कि उस शत्रु भाव से हमारे दृष्टि के लेन्स का कलर ही बदल जाता है।

शत्रुता "ईर्ष्या" घृणा अथवा विरोध सभी भाव मूलत: उस व्यक्ति के हमारी प्रति वैचारिक प्रतिकूलता के प्रतिबिम्बित रूप हैं।
यहीं से हमारे मस्तिष्क में पूर्वदुराग्रह का जन्म होता है। 
ऐसी स्थिति में हमारा निर्णय कभी भी निष्पक्ष नहीं होता है।

व्यक्ति को अपने लम्बे समय से चाहे हुए (आकाँक्षित) अभियान की शुरुआत स्थान को बदलकर ही करनी चाहिए।
 क्योंकि वह जिस स्थान पर दीर्घकाल से रह रहा है। वहाँ के लोगों की दृष्टि में  वह प्रभाव हीन और गुणों से हीन हो गया है। और वे लोग उसको लगातार हतोत्साहित और हीन बनाने के लिए मौके की तलाश में बैठे हैं।
अच्छा है उस स्थान को बदल ही दिया जाए -

जैसे कोई वाहन भार से युक्त होने पर आगे गति करते हुए यदि  सिलप होने लगे तो फिर लीख काटकर ही आगे बढ़ पाता है।

क्योंकि उस वाहन की गति के अवरोधक  तत्व निरन्तर उसकी गति को अवरोधित  अथवा क्षीण करते हुए अपनी अवरोधन क्रिया का विस्तार ही करते ही रहते हैं।

अन्य  गाँव का जोगिया 
और गाँव का सिद्ध ।

बराबर से दिखने लगे 
लोगों को हंस और गिद्ध ।

प्रेम धोखा पाई हुई स्त्री उस नागिन के समान  आक्रामक होती है जिसकी खोंटी कर दी गयी हो। और प्रेम में धोखा खाया हुआ पुरुष पागल हो जाता है जैसे उसकी बुद्धि को लकवा मार गया हो ! इस प्रकार का विश्लेषण प्राय हम करते रहते हैं।

परन्तु ये वास्तव में प्रेम के नाम पर यह केवल सांसारिक स्वार्थ परक वासना मूलक आकर्षण ही है। इसे आप प्रेम नही कह सकते हैं।

क्योंकि प्रेम कभी आक्रामक हो ही  नहीं सकता  प्रेम तो बलिदान और त्याग  का दूसरा नाम है। 

स्त्रीयाँ में दर -असल व्यक्तियों के  गुण - वैभव और साहस की आकाँक्षी होती हैं।
 विशेषत: उन चीजों की जो उनके अन्दर नहीं हैं।
जैसे तर्क " विश्लेषण की शक्ति " विचार अथवा चिन्तन और साहस या कठोरता प्राय: स्त्रियों में कम ही होता है पुरुष के मुकाबले स्त्रियाँ 
पुरुष के  महज सौन्दर्य की आकाँक्षी कभी नहीं होती हैं।  
स्त्रियों तथा पुरुषों  की दृष्टि में सौन्दर्य आवश्यकता मूलक दृष्टिकोण या नजरिया है। पुरुष की दृष्टि में स्त्रीयों की कोमलता ही सौन्दर्य है। पुरुष में कोमलता होती नहीं हैं  पुरुष तो परुषता या कठोरता का पुतला है। 

और स्त्री रबड़ की गुड़िया-
जैनों एक दूसरे के भावों के तलबदार हैं यही उनके परस्पर आकर्षण और मिलन का कारण भी है।
यदि पुरुष इश्क कि शहंशाह है तो स्त्री हुश्न की मलिका है दोनों को एक दूसरे की चाह ( इच्छा) है।

यह उनका एक बहुत महान दृष्टिकोण है। अधिकतर स्त्रीयाँ प्राय: समर्पित" सहनशील और निष्ठावान प्रवृत्ति की  होती हैं।

आपने स्त्रियों को नास्तिक होते नहीं पाया होगा वे भावनाओं से आप्लावित होती हुई श्रद्धा भावनाओं का घनीभूत रूप है। 

 श्रद्धा भक्ति का ही समर्पण युक्त रूपांतरण है।
 जबकि अहंकार इसके विपरीत  भाव है। अहंकार के  जन्म जन्मातरों का घनीभूत रूप ही नास्तिकता है।

 स्त्रीया" भावनाओं से आप्लावित एक नाव को समान होती हैं।

महिलाएँ पुरुषों की अपेक्षा अधिक जितेन्द्रिया और व्यवस्थापिका होती हैं।
यह उनके गुण अनुकरणीय हैं।

परन्तु दु:ख की बात की धर्म शास्त्र लिखने वाले पुरुषों ने स्त्रीयों के दोषों को ही देखा है गुणों को नहीं यही उनका पूर्वदुराग्रह उनकी विद्वत्ता पर कलंक है।


दर्द जान की पहिचान है।

मन एक समुद्र जिसमें विचारों की लहरें तब आन्दोलित होती हैं। जब विचारों का परस्पर आघात -प्रत्याघात ही ज्ञान के बुलबुले उत्पन्न करता है। जिसमें सिद्धान्त की ऑक्सीजन (प्राण वायु) समाहित होती है।
बाल बढ़ाए तीनगुण लोग कहें महाराज ।
 साधक सा जीवन बने  सिद्धों में सरताज।।

 सिद्धों में सरताज  साधना जब हो  सच्ची।
भोगों - रोगों से रहित ज़िन्दगी सबसे अच्छी ।

साधना के पथ पर चलें, फाँसे जगत के जाल ।
सबको सुलझाते रहो , यह याद दिलाते बाल!

व्यक्ति का कर्म ही उसके उच्च और निम्न स्तर के मानक को सुनिश्चित करता है।
 न कि उसका जन्म ! अभावों और विकटताओं में जन्म लेने वाले भी महान बन जाते हैं और सम्पन्नता और भोग विलास में जीवन यापन करने वाले भी पतित और चरित्रहीन हो जाते हैं।

"सराफत की दुहाई देने वाले अधिकर दोषी निकले।
परिवार का जिनको हम समझ रहे वे पड़ोसी निकले।।

भौतिक उपलब्धियाँ व्यक्ति की हैसियत का मापन तो कर सकती हैं परन्तु उसकी शख्सियत का मापन तो उसके आचरण और विचारों की महानता ही करती है।
अत: सस्ती लोकप्रियता के बदले अपने विचारों की महानता का समझौता मत करो!

अनुमान का सत्य के इर्दगिर्द विश्लेषण होता है सत्य केन्द्र है तो अनुमान परिधि !

ज़िन्दगी के सफर में 
आशंकाओं के जब ब्रेकर बहुत हो।
ज़िन्दगी  रेंग रेंग चलती है।
मंजिल कैसे फतह हो।।

आशंकाऐ सम्भावी अनहोनीयों के द्वार भी बन्द कर देती हैं। ये इन आशंकओं का सकारात्मक पक्ष है कि ये अनिष्टों के प्रति सदैव सावधान करती हैं। इस प्रकार विधाता ने इनको भी सार्थकता दी है

संसार में सामाजिक सारोकारों के तीन कारण दिखाई देते हैं। कर्तव्य - मोह और स्वार्थ 
कर्तव्य निर्देश करता है कि मनुष्य को क्या करना चाहिए ताकि उसका जीवन सफल हो सार्थक हो।

"भगवद् गीता अध्याय 5 श्लोक 11

"कायेन मनसा बुद्ध्या केवलैरिन्द्रियैरपि।
योगिनः कर्म कुर्वन्ति सङ्गं त्यक्त्वाऽऽत्मशुद्धये।।5.11।।

हिंदी अनुवाद - कर्मयोगी आसक्तिका त्याग करके केवल (ममतारहित) इन्द्रियाँशरीरमनबुद्धिके द्वारा अन्तःकरणकी शुद्धिके लिये ही कर्म करते हैं।
मूल श्लोकः

"निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः।


 अनुवाद:-जो आशा रहित है तथा जिसने चित्त और आत्मा (शरीर) को संयमित किया है,  जिसने सब परिग्रहों का त्याग किया है,  ऐसा पुरुष शारीरिक कर्म करते हुए भी पाप को नहीं प्राप्त होता है।।



अनुवाद:-  मन का आग्रह ही स्मरण है ।   
किन्ही भावों के आवेश से युक्त मन निर्णय उसी के उसी से सम्बन्धित वस्तु के पक्ष में लेता है।





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