शनिवार, 28 सितंबर 2024

अध्याय 6 अध्याय-(७) भगवान श्री कृष्ण का सदैव गोप होना तथा गोपकुल में उनका अवतरण"


अध्याय- (६)

"वैष्णव वर्ण" के गोपों की पौराणिक ग्रंथों में प्रशंसा।

                     
पौराणिक ग्रंथों में वैष्णव वर्ण के गोपों की समय-समय पर भूरी-भूरी प्रशंसा की गई है। जैसे-
१- ब्रह्मा जी के पुष्कर यज्ञ के समय जब अहीर कन्या देवीगायत्री का विवाह ब्रह्मा जी से होने को निश्चित हुआ तो वहीं पर सभी देवताओं और ऋषि- मुनियों की उपस्थिति में भगवान विष्णु गोपों से पद्मपुराण के सृष्टि खंड के अध्याय- १७ के श्लोक संख्या १७ में कहते हैं कि-

"धर्मवन्तं सदाचारं भवन्तं धर्मवत्सलम्।
मया ज्ञात्वा तत:कन्यादत्ताचैषा विरञ्चयते।।१७।

       
अनुवाद-  तुम लोगों को मैंने धार्मिक, सदाचारी एवं धर्मवत्सल जानकर ही तुम्हारी इस कन्या को ब्रह्मा के लिए प्रदान किया है।१७।
     
अतः उपरोक्त श्लोकों के आधार पर सिद्ध होता है कि गोपों जैसा धर्मवत्सल, सदाचारी और धर्मज्ञ भूतल पर ही नहीं बल्कि संपूर्ण ब्रह्मांड में और कोई दूसरा नहीं है।

२-इसी तरह से गोपकुल की गोपियों के लिए गर्गसंहिता के गोलक खंड के अध्याय- १० के श्लोक संख्या-८ में नारद जी कंस से कहते हैं कि -
नन्दाद्या वसव: सर्वे बृषभान्वादय: सरा:।
गोप्यो वेदऋचाद्याश्च सन्ति भूमौ नृपेश्वर।। ८।
अनुवाद
-  नन्द आदि गोप वसु के अवतार हैं और वृषभानु आदि देवताओं के हे नृपेश्वर कंस ! इस "ब्रजभूमि में जो गोपियां है, उनके रूप में वेदों की ऋचाएं यहां निवास करती हैं"। अर्थात गोपियाँ साक्षात् आध्यात्मिक विभूतियाँ हैं।
 
अब इससे बड़ी बात और क्या हो सकती है कि गोपियों को वेदों की ऋचाओं का रूप दिया जाता है। अर्थात उपमेय और उपमान का
 अभेद आरोपण किया जाता है।

३-गोपिया कोई साधारण स्त्रियां नहीं है। तभी तो चातुर्वर्ण्य के नियामक व रचयिता ब्रह्मा जी- श्रीमद्भभागवत पुराण के दशम स्कंध के अध्याय - (४७) के श्लोक (६१) में गोपियों की चरण धूलि को पाने के लिए तरह-तरह की कल्पना करते हुए मन में विचार करते हैं कि-
"
आसामहो चरणरेणुजुषामहं स्यां वृन्दावने किमपि गुल्मलतौषधीनाम्।
या दुस्त्यजं स्वजनमार्यपथमं च हित्वा भेजुर्मुकुन्दपदवीं श्रुतिभिर्विमृग्याम्।।६१।

           
अनुवाद - मेरे लिए तो सबसे अच्छी बात यही होगी कि मैं इस वृंदावन धाम में कोई झाड़ी, लता अथवा औषधि बन जाऊं। अहा ! यदि मैं ऐसा बन जाऊंगा, तो मुझे इन व्रजांगनाओं (गोपियों ) की चरण धूलि निरन्तर सेवन करने के लिए मिलती रहेगी।
अब इन गोपकुल की गोपियों के लिए इससे बड़ी बात और क्या हो सकती है कि ब्रह्मा जी भी इनके चरणों की धूलि पाने के लिए झाड़ी और लता तक बन जाने की इच्छा करते हैं।
४- इसी तरह से गोपों के बारे में श्री राधा जी, गोपी रूप धारण किए भगवान श्री कृष्ण से- गर्गसंहिता के वृंदावन खंड के अध्याय-१८ के श्लोक संख्या २२ में कहती हैं कि-
"गा: पालयन्ति सततं रजसो गवां च गङ्गां स्पृशन्ति च जपन्ति गवां सुनाम्नाम।
प्रेक्षन्त्यहर्निशमलं सुमुखं गवां च जाति: परा न विदिता भुवि गोपजाते:।।२२।

अनुवाद - ग्वाले सदा गौओं का पालन करते हैं। गोरज की गंगा में नहाते हैं, उनका स्पर्श करते हैं तथा गौओं के उत्तम नाम का जाप करते हैं। इतना ही नहीं उन्हें दिन रात गौओं के सुंदर मुख का दर्शन होता है। मेरी समझ में तो इस भूतल पर गोप जाति से बढ़कर दूसरी कोई जाति ही नहीं है।
५- इसी तरह से परम
ज्ञानयोगी उद्धव जी ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्ण जन्म खंड के अध्याय-९४ के कुछ प्रमुख श्लोकों में गोपियों  की भूरी-भूरी प्रशंसा करते हुए कहते हैं कि-
"धन्यं भारतवर्षं तु पुण्यदं शुभदं वरम् ।
गोपीपादाब्जरजसा पूतं परमनिर्मलम् ।। ७७।


ततोऽपि गोपिका धन्या सान्या योषित्सु भारते।
नित्यं पश्यन्ति राधायाः पादपद्मं सुपुण्यदम् ।। ७८।
        
अनुवाद - इस भारतवर्ष में नारियों के मध्य गोपीकाएं सबसे बढ़कर धन्या और मान्या हैं, क्योंकि वे उत्तम पुण्य प्रदान करने वाले श्री राधा के चरणकमलों का नित्य दर्शन करती
 रहती है।७७-७८।
  
षष्टिवर्षसहस्राणि तपस्तप्तं च ब्रह्मणा ।
राधिकापादपद्मस्य रेणूनामुपलब्धये ।। ७९ ।।

गोलोकवासिनी राधा कृष्णप्राणाधिका परा ।
तत्र श्रीदामशापेन वृषभानसुताऽधुना ।।८०।

ये ये भक्ताश्च कृष्णस्य देवा ब्रह्मादयस्तथा ।

राधायाश्चापि गोपीनांकरां नार्हन्ति षोडशीम् ।८१।

कृष्णभक्तिं विजानाति योगीन्द्रश्च महेश्वरः ।
राधा गोप्यश्च गोपाश्च गोलोकवासिनश्च ये ।८२।

किञ्चित्सनत्कुमारश्च ब्रह्मा चेद्विषयी तथा ।
किञ्चिदेव विजानन्ति सिद्धा भक्ताश्च निश्चितम् ।। ८३।

धन्योऽहं कृतकृत्योऽहमागतो गोकुलं यतः ।
गोपिकाभयो गुरुभ्यश्च हरिभक्तिं लभेऽचलाम् ।। ८४।

मथुरां च न यास्यामि तीर्थकीर्तेश्च कीर्तनम् ।
श्रोष्यामि किंकरो भूत्वा गोपीनां जन्मजन्मनि ।। ८५।

न गोपीभ्यः परो भक्तो हरेश्च परमात्मनः ।
यादृशीं लेभिरेगोप्यो भक्तिं नान्ये च तादृशीम् ।८६।       
अनुवाद - इन्हीं राधिका के चरण कमल की रज को प्राप्त करने के लिए ब्रह्मा ने साठ हजार वर्षों तक तप किया था।७९।

गोलोक-वासिनी राधा जी, जो परा प्रकृति हैं। वहीं भगवान कृष्ण को प्राणों से भी अधिक प्रिय हैं। वे गोलोक में श्री-दामा के शाप से आज-कल  भूलोक में वृषभानु की पुत्री राधा के नाम से उपस्थित हैं। और जो-जो श्री कृष्ण के भक्त हैं, वे सभी राधा के भी भक्त हैं। ब्रह्मा आदि देवता गोपियों की (16) वीं कला की भी समानता नहीं कर सकते।। ८०-८१।।

श्री कृष्ण की भक्ति का मर्म पूर्णरूप
से तो योगीराज महेश्वर, राधा तथा गोलोकवासी गोप और गोपियां ही जानती हैं। ब्रह्मा और सनत्कुमारों को कुछ ही ज्ञात है। सिद्ध और भक्त भी स्वल्प ही जानते हैं।८२-८३।

इस गोकुल में आने से मैं धन्य हो गया। यहां गुरुस्वरूपा गोपिकाओं से मुझे अचल हरिभक्ति प्राप्त हुई है, जिससे मैं कृतार्थ हो गया। ८४।

फिर इसके अगले श्लोक- ८५ और ८६ में उद्धव जी कहते हैं कि-
मथुरां च न यास्यामि तीर्थकीर्तेश्च कीर्तनम् ।
श्रोष्यामि किंकरो भूत्वा गोपीनां जन्मजन्मनि ।। ८५ ।।

न गोपिभ्यः परो भक्तों हरेश्च परमात्मनः।
यादृशीं लेभिरे गोप्यो भक्तिं नान्ये च तादृशीम्। ८६।

अनुवाद - अब मैं मथुरा नहीं जाउंगा, और प्रत्येक जन्म में यहीं गोपियों का किंकर (दास,सेवक) होकर तीर्थश्रवा श्रीकृष्ण का कीर्तन सुनता रहूंगा, क्योंकि गोपियों से बढ़कर परमात्मा श्रीहरि का कोई अन्य भक्त नहीं है। गोपियों ने जैसी भक्ति प्राप्त की है वैसी भक्ति दूसरों को नसीब नहीं हुई। ८६।
                  
और यहीं कारण है कि शास्त्रों में सभी मनुष्यों को गोप और गोपियों की पूजा करने का भी विधान किया गया है। इस बात की पुष्टि- श्रीमद्भेवीभागवत पुराण के नवम् स्कंध के अध्याय -३० के श्लोक संख्या - ८५ से ८९ से होती है जिसमें लिखा गया है कि -

"कार्तिकीपूर्णिमायां च कृत्वा तु रासमण्डलम्।
गोपानां शतकं कृत्वा गोपीनां शतकं तथा।। ८५।
शिलायां प्रतिमायां च श्रीकृष्णं राधाया सह।
भारते पूजयेभ्दवत्या चोपचाराणि षोडश।। ८६।

गोलोक वसते सोऽपि यावद्वै ब्राह्मणो वय।
भारतं पुनरागत्य कृत्यो भक्तिं लभेद् दृढाम।। ८७।

क्रमेण सुदृढां भक्तिं लब्ध्वा मन्त्रं हरेरहो।
देवं त्यक्त्वा च गोलोकं पुनरेव प्रयाति सः।। ८८।

ततः कृष्णस्य सारुपयं पार्षदप्रवरो भवेत्।
पुनस्तत्पतनं नास्ति जरामृत्युहरो भवेत।। ८९।

अनुवाद - जो भारतवर्ष में कार्तिक पूर्णिमा को सैकड़ो गोपों तथा गोपियों को साथ लेकर रास मण्डल संबंधी उत्सव मनाकर शीला पर या प्रतिमा में सोलहों प्रकार के पुजनोपचारों से भक्ति पूर्वक साधन सहित श्री कृष्ण की पूजा संपन्न करता है, वह ब्रह्मा जी के स्थित पर्यंत गोलोक में निवास करता है। 
पुनः भारतवर्ष में जन्म पाकर वह श्री कृष्ण की स्थिर भक्ति प्राप्त करता है। 
फिर भगवान श्रीहरि की क्रमशः सुदृढ़ भक्ति तथा उनका मंत्र प्राप्त करके देह त्याग के अनन्तर वह पुनः गोलोक चला जाता है। वहां श्री कृष्ण के समान रूप प्राप्त करके वह उनका प्रमुख पार्षद बन जाता है। तब पुनः वहां से उसका पतन नहीं होता, वह जरा तथा मृत्यु से सर्वथा रहित हो जाता है। अर्थात व मोक्ष को प्राप्त हो जाता है। ८५-८९।
         
                 
 गोपों के इन्हीं सब आध्यत्मिक विशेषताओं के कारण- गोप, यादवों को पाप से मुक्ति दिलाने वाला भी कहा जाता है। इस बात की पुष्टि-  गर्गसंहिता के अश्वमेधखण्ड खंड के अध्याय- ६० के श्लोक संख्या- ४० से होती है। जिसमें लिखा गया है कि-
"य: श्रृणोति चरित्रं वै गोलोकारोहणं हरेः।
मुक्तिं यदुनां गोपानां सर्वपापै: प्रमुच्यते।। ४०।

                    
अनुवाद -जो लोग श्री हरि के गोलोक धाम पधारने का चरित्र सुनते हैं तथा यादव गोपों के मुक्ति का वृतांत( कथा)सुनते हैं, वे निश्चय ही सब पापों से मुक्त हो जाते हैं।४०।

कुछ इसी तरह की बात श्रीविष्णुपुराण के चतुर्थ अंश के अध्याय- ११ के श्लोक संख्या- ४ में भी लिखी गई है जिसमें गोपकुल के यादव वंश को पाप मुक्ति का सहायक बताया गया है-

"यदोर्वंशं नरः श्रुत्वा सर्वपापै: प्रमुच्यतते।
यत्रावतीर्णं कृष्णाख्यं परं ब्रह्म निराकृति।। ४
     
 अनुवाद - जिसमें श्री कृष्णा नमक निराकार परब्रह्म ने अवतार लिया था, उस यदुवंश का श्रवण करने से मनुष्य संपूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है। भागवत पुराण में भी वर्ण

वर्णयामि महापुण्यं सर्वपापहरं नृणाम् ।
यदोर्वंशं नरः श्रुत्वा सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥१९॥

 यत्रावतीर्णो भगवान् परमात्मा नराकृतिः।
 यदोः सहस्रजित्क्रोष्टा नलो रिपुरिति श्रुताः ॥२०॥
  
इस प्रकार से यह अध्याय-६ वैष्णव वर्ण के गोपकुल  के गोप और गोपियों की पुराणों में की गई भूरी-भूरी प्रसंशाओ और उनकी आध्यात्मिक महत्ता की जानकारी के साथ समाप्त हुआ।
  
इसी क्रम में इसके अगले अध्याय- ७ में भगवान श्री कृष्ण का सदैव गोप होना तथा गोपकुल में उनके अवतरित होने के प्रमुख कारणों को जानेंगे।



अध्याय-(७) 
भगवान श्री कृष्ण का सदैव गोप होना तथा गोपकुल में उनका अवतरण"

"यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।। ७।          
स्रोत-(गीता अध्याय- ४)
अनुवाद - भगवान श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि- जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने आप को साकार रूप से प्रकट करता हूं अर्थात् भूतल पर शरीर रूप धारण करता हूं।
       
इसी को चरितार्थ करने के लिए परम प्रभु गोपेश्वर श्री कृष्ण अपने गोलोक से धराधाम पर गोपकुल के यादव वंश में अवतरित होते हैं।
       
इस बात की पुष्टि- श्रीमद्भागवत पुराण के ग्यारहवें स्कंध के अध्याय -४ के श्लोक संख्या- (२२) से भी होती है जिसमें लिखा गया है कि-
भूमेर्भारावतरणाय यदुष्वजन्मा
     जातः करिष्यति सुरैरपि दुष्कराणि ।
 वादैर्विमोहयति यज्ञकृतोऽतदर्हान्
     शूद्रान् कलौ क्षितिभुजो न्यहनिष्यदन्ते ॥२२॥



अनुवाद - अजन्मा होने पर भी पृथ्वी का भार उतारने के लिए वे ही भगवान यदुवंश में जन्म लेंगे और ऐसे-ऐसे कर्म करेंगे, जिन्हें बड़े-बड़े देवता भी नहीं कर सकते।
                  
इसी तरह से श्रीमद् भागवत पुराण के ग्यारहवें  स्कंध के अध्याय-६ के श्लोक संख्या -(२३) और (२५) में ब्रह्मा जी श्री कृष्ण से कहते हैं कि-
अवततीर्य यदोर्वंशे बिभ्रद् रुपमनुत्तमम्।
कर्माण्युद्दामवृत्तानि हिताय जगतोऽकृथाः।।२३।

श्रीमद्भागवतपुराणम्/स्कन्धः ११/अध्यायः ६
यदुवंशेऽवतीर्णस्य भवतः पुरूषोत्तम।
शरच्छतं व्यतीताय पञ्चविञ्शाधिजगतोऽकृथाः।।२५।

अनुवाद - आपने यह सर्वोत्तम रूप धारण करके यदुवंश में अवतार लिया और जगत के हित के लिए उदारता और पराक्रम से भरी अनेक लीलाएं कीं । २३।
• पुरुषोत्तम सर्वशक्तिमान प्रभु ! आपको यदुवंश में अवतार ग्रहण किये एक सौ पच्चीस वर्ष बीत गए हैं।२५।
           
इसी तरह से हरिवंश पुराण के हरिवंश पर्व के अध्याय- ५५ के श्लोक - १७ में गोपेश्वर श्री कृष्ण ने ब्रह्मा जी से पूछा कि- आप मुझे यह बताएं कि मैं किस प्रदेश में कैसे प्रकट होकर अथवा किस वेष में रहकर उन सब असुरों का समर भूमि में संहार करूंगा ? इस पर ब्रह्मा जी श्लोक संख्या- १८ से २० में कहा -
नारायणेमं सिद्धार्थमुपायं श्रृणु में विभो।
भुवि यस्ते जनयिता जननी च भविष्यति।। १८।

यत्र त्वं च महाबाहो जात: कुलकरो भुवि।
यादवानां महद वंशमखिलं धारयिष्यसि।। १९।

ताश्चासुरान् समुत्पाट्य वंशं कृत्वाऽऽत्मननो  महत्।
स्थापयिष्यसि मर्यादां नृणां तन्मे निशामय।। २०।
             
अनुवाद - सर्वव्यापी नारायण ! आप मुझे इस उपाय को सुनिए, जिसके द्वारा सारा प्रयोजन सिद्ध हो जाएगा। हे महाबाहो! भूतल पर जो आपके पिता होंगे,जो माता होगीं और जहां जन्म लेकर आप अपने कुल की वृद्धि करते हुए यादवों के संपूर्ण विशाल वंश को धारण करेंगे तथा उन समस्त असुरों का संहार करके अपने वंश का महान विस्तार करते हुए जिस प्रकार मनुष्यों के लिए धर्म की मर्यादा स्थापित करेंगे, वह सब बताता हूं सुनिए। १८-१९-२०।
         
इसी तरह से गोपेश्वर श्री कृष्ण को यदुवंश में जन्म लेने की  पुष्टि- गर्ग संहिता के विश्वजीत खंड के अध्याय- १४ के श्लोक संख्या- ४१ से होती है। जिसमें त्रेता युग के रावण के भाई विभीषण जो अमर होकर लंका का राजा द्वापर युग तक था। उसी समय यादव अपनी विशाल सेना के साथ विश्वजीत युद्ध के लिए निकले थे। उसी दरम्यान
दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य ने विभीषण को बताया कि-
असंख्यब्राह्मण्डपतिर्गोलोकेश: परात्पर:।
जातस्तयोर्वधाथार्य यदुवंशे हरि: स्वयंम्।। ४१।

यादवेन्द्रो भूरिलीलो द्वारकायां विराजते। ४२/२
        
अनुवाद - असंख्य ब्रह्माण्डपति परात्पर गोलोकनाथ श्रीकृष्ण यदुवंश में अवतीर्ण हुए हैं। वे यादवेंद्र बहुत सी लीलाएं करते हुए इस समय द्वारिका में विराजमान है। ४१, ४२/२
        
यादवों के उसी विश्वजीत युद्ध के दरम्यान मुनि वामदेव ने राजा गुणाकर  को भी भगवान श्री कृष्ण के यादवकुल में उत्पन्न होने की बात बहुत ही अच्छे ढंग से बतायी है। जिसका वर्णन गर्ग संहिता के विश्वजीत खंड के अध्याय- २८ के श्लोक संख्या- ४५ व ४६ में कुछ इस प्रकार लिखा गया है-
राजंस्त्वं हि न जानसि परिपूर्णतमं हरिम्।
सुराणां महदर्थाय जातं यदुकुले स्वयंम्।
भुवो भारावताराय भक्तानां रक्षणाय च।।४५।

भूत्वा यदुकुले साक्षाद् द्वारकायां विराजते।
तेन कृष्णेन पुत्रोऽयं प्रदुम्नो यादवेश्वरः ।
उग्रसेनमखार्थाय जगज्नेतुं प्रणोदित:।। ४६।
      
अनुवाद - राजन ! तुम नहीं जानते कि परिपूर्णतम परमात्मा श्री हरि, देवताओं का महान कार्य सिद्ध करने के लिए यदुकुल में उत्तीर्ण हुए हैं। पृथ्वी का भार उतरने और भक्तों की रक्षा करने के लिए यदुकुल में अवतीर्ण हो वे साक्षात भगवान द्वारिकापुरी में विराजते हैं। उन्हीं श्री कृष्ण ने अग्रसेन के यज्ञ की सिद्धि के लिए संपूर्ण जगत को जीतने के निमित्त अपने पुत्र यादवेश्वर प्रद्युम्न को भेजा है।४५-४६।
             
यादवों के उसी विश्वजीत युद्ध के दरम्यान जब श्रीकृष्ण के द्वारा महान बलशाली दैत्यराज शकुनी मारा गया तब उसकी पत्नी मदालसा हाथ जोड़कर श्री कृष्ण से जो कुछ बोली उससे भी सिद्ध होता है कि भगवान श्री कृष्ण यदुकुल में अवतीर्ण हुए थे। जिसका वर्णन गर्गसंगीता के विश्वजीत खंड के अध्याय- ४२ के श्लोक संख्या- ६ और ७ में कुछ इस प्रकार लिखा गया है-

"भारावताराय भुवि प्रभो त्वं जातो यदूनां कुल आदिदेव।
ग्रसिष्यसे पासि भवं निधाय गुणैर्न लिप्तोऽसि नमामि तुभ्यम्।।६।

मदात्मजं पालय भीतभीत ममुष्य हस्तं कुरु शीर्षि्ण देव।
भर्त्रा कृते में किल तेऽपराधं क्षमस्व देवेश जगन्निवास।। ७।
            
अनुवाद - प्रभो! आदि देव! आप भूतल का भार उतारने के लिए यदुकुल में अवतरित हुए हैं। आप ही संसार के स्रष्टा एवं पालक है, और प्रलय काल आने पर आप ही इसका संहार भी करते हैं। किंतु आप कभी भी गुणों से लिप्त नहीं होते। मैं आपकी अनुकूलता प्राप्त करने के लिए आपके चरणों को प्रणाम करती हूं। मेरा बेटा बहुत डरा हुआ है। आप इसकी रक्षा कीजिए। देव ! इसके मस्तक पर अपना वरद हस्त रखिए। देवेश ! जगन्निवास ! मेरे पति ने  जो अपराध किया है उसे क्षमा कीजिए।
           
इसी तरह से जब सभी देवता मिलकर ब्रह्मा जी का विवाह अहीर कन्या गायत्री से कराते हैं। तब ब्रह्मा जी की पत्नी सावित्री क्रोध से तिलमिलाकर अहीर कन्या गायत्री सहित देवताओं को शापित करने लगती है। उसी समय वहां उपस्थित विष्णु को भी सावित्री श्राप दे देती हैं। उसी शाप के विधान से ही गोपेश्वर श्रीकृष्ण को यदुकुल में जन्म लेना पड़ा। इस बात की पुष्टि- पद्मपुराण के सृष्टि खंड के अध्याय- १७ के श्लोक संख्या-१६१ से होती है। जिसमें सावित्री विष्णु को शाप देते हुए कहती हैं कि-

"यदा यदुकुले जातः कृष्णसंज्ञो भविष्यसि।
पशूनां दासतां प्राप्य चिरकालं गोप रूपेण भ्रमिष्यसि ।।१५४।
                    
अनुवाद - हे विष्णु! जब तुम यदुवंश में जन्म लोगे, तो तुम कृष्ण के नाम से जाने जाओगे। उस समय तुम पशुओं (गायों) के सेवक बन कर  लम्बे समय तक इधर-उधर भटकते रहोगे। १५४
           
इसी तरह से बलराम जी को भी यदुकुल में उत्पन्न होने की पुष्टि गर्गसंहिता के बलभद्र खंड के श्लोक संख्या -१३और १४ से होती है। जिसमें बलराम जी स्वयं अपने पार्षदों से कहते हैं कि -

हे हलमुसले यदा-यदा युवयोः स्मरणंं करिष्यमि।
तदा तदा मत्युर आविर्भूते भवतम्।। १३।

भो वर्म त्वमपि चाविर्भव। हे मुनयः पाणिन्यादयो हे व्यासादयो हे कुमुदादयो हे कोटिशो रुद्रा हे भवानीनाथ
हे एकादश रुद्रा हे गन्धर्वा ! हे वासुक्यादिनागेन्द्रा हे निवातकवचा हे वरुण हे कामधेनो मूम्यां भारतखण्डे यदुकुलेऽवतरन्तं  मां यूयं सर्वे सर्वदा एत्य मम दर्शनं कुरुत।।१४।
           
अनुवाद - हे हल और मुसल ! मैं जब-जब तुम्हारा स्मरण करूं, तब-तब तुम मेरे सामने प्रकट हो जाना। हे कवच! तुम भी वैसे ही प्रकट हो जाना। हे पाणिनि आदि, व्यास आदि तथा कुमुद आदि मुनियों! हे कोटि-कोटि रूद्रों! गिरिजा पति शंकर जी! ग्यारह रुद्रों! गन्धर्वों ! वासुकि आदि नागराजों ! निवातकवच आदि दैत्यों! हे वरूण और कामधेनु ! मैं भूमण्डल पर भारतवर्ष में यदुकुल में अवतार लूँगा। तुम सब वहां आकर सदा सर्वदा मेरा दर्शन करना। १३,१४।

             
इन सभी उपरोक्त श्लोकों से यह सिद्ध होता है कि भगवान श्रीकृष्ण का अवतरण यदुकुल या यदुवंश में हुआ है।
                 
किंतु इस संबंध में ज्ञात हो कि- यदुवंश या यदुकुल- वैष्णव वर्ण के गोपकुल का ही प्रमुख वंश एवं कुल है।  इसीलिए भगवान श्री कृष्ण को जब वंश में जन्म लेने की बात कही जाती है, तब उनके लिए यदुवंश का नाम लिया जाता है। किंतु जब भगवान श्री कृष्ण को किसी कुल में जन्म लेने की बात कही जाती है तो उनके लिए गोपकुल या यदुकुल नाम लिया जाता है। इसमें दोनों तरह से बात एक ही है।
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क्योंकि भगवान श्री कृष्ण को अनेकों बार यदुवंश के साथ-साथ गोपकुल में भी जन्म लेने की बात कही गई है। जैसे-
गोपेश्वर श्रीकृष्ण को गोपकुल में जन्म लेने की बात हरिवंश पुराण के विष्णु पर्व के ग्यारहवें अध्याय के श्लोक संख्या -५८ में कही गई है जिसमें भगवान श्रीकृष्ण स्वयं कहते हैं कि-

एतदर्थं च वासोऽयंव्रजेऽस्मिन् गोपजन्म च।
अमीषामुत्पथस्थानां निग्रहार्थं दुरात्मनाम्।५८।

           
अनुवाद - इसीलिए ब्रज में मेरा यह निवास हुआ है और इसीलिए मैंने गोपों में अवतार ग्रहण किया है।
           
भगवान श्री कृष्ण को गोपकुल में अवतीर्ण होने की बात गायत्री संग ब्रह्मा जी के विवाह के समय तब होती है जब इन्द्र गोप कन्या गायत्री को बलात् उठाकर ब्रह्मा जी से विवाह हेतु यज्ञ स्थल पर ले गए। तब सभी गोप अपना मुख्य शस्त्र लाठी- डंडा के साथ अपनी कन्या गायत्री को खोजते हुए ब्रह्मा जी के यज्ञ स्थल पर पहुंचे। वहां पहुँच कर गायत्री के माता-पिता ने पूछा कि- मेरी कन्या को कौन यहां लाया है ? तब उनकी यह बात सुनकर तथा उनके क्रोध का अंदाजा लगाकर वहां उपस्थित सभी देवता और ऋषि मुनि भयभीत हो गए। तभी वहां उपस्थित विष्णु जी बीच बचाव करते हुए गोपों के सामने खड़े हो गए और उस मौके पर जो कुछ गोपों से कहा उसका वर्णन पद्मपुराण के सृष्टि खंड के अध्याय- १७ के श्लोक संख्या -१६ से २० में मिलता है। जिसमें विष्णु जी गोपों से कहते हैं कि -

"अनया आभीरकन्याया तारितो गच्छ! दिव्यान्लोकान्महोदयान्।
युष्माकं च कुले चापि देवकार्यार्थसिद्धये।। १६ ।            
अवतारं करिष्येहं सा क्रीडा तु भविष्यति।
यदा नन्दप्रभृतयो ह्यवतारं धरातले।१७।           

करिष्यन्ति तदा चाहं वसिष्ये तेषु मध्यतः।
युष्माकं कन्यकाः सर्वा वसिष्यन्ति मया सह।१८।     
तत्र दोषो न भविता न द्वेषो न च मत्सरः ।
करिष्यन्ति तदा गोपा भयं च न मनुष्यकाः।१९ ।    
न चास्याभविता  दोषः कर्मणानेन कर्हिचित्।
श्रुत्वा वाक्यं  तदा विष्णोः प्रणिपत्य  ययुस्तदा। २०।

अनुवाद:-  हे अहीरों (गोपों)इस गायत्री के द्वारा उद्धार किये गये तुम सब दिव्यलोक को जाओ तुम्हारी अहीर जाति के यदुवंश के अन्तर्गत वृष्णिकुल में देवों के कार्य  सिद्धि के लिए मैं अवतरण करुँगा।१६।

• और वहीं मेरी लीला(क्रीडा) होगी। उसी समय धरातल पर नन्द आदि का भी अवतरण होगा।१७।

• तब मैं उनके बीच रहूंगा। तुम्हारी सभी पुत्रियाँ मेरे साथ रहेंगी।१८।

• तब वहां कोई पाप, द्वेष और ईर्ष्या नहीं होगी। ग्वाले और मनुष्य भी किसी को भय नहीं देंगे। १९।  
 
• इस कार्य (ब्रह्मा से विवाह करने) के फलस्वरूप इस (तुम्हारी पुत्री को) कोई पाप नहीं लगेगा। विष्णु के ये वचन सुनकर वे सभी उन्हें प्रणाम करके वहां से चले गए।२०।   
              
किंतु जाते समय गोपगण विष्णु से यह वादा करवाया कि आप निश्चित रूप से गोपकुल में ही जन्म लेंगे। जिसका वर्णन इसी अध्याय के श्लोक -२१ में है जिसमें गोपगण विष्णु जी से कहते हैं कि -
एवमेष वरो देव यो दत्तो भविता हि मे।
अवतारः कुलेऽस्माकंं  कर्तव्योधर्मसाधनः।। २१
                
अनुवाद - हे देव! यही हो। आपने जो वर दिया, वैसा ही हो। आप हमारे कुल में धर्मसाधन कर्तव्य हेतु अवश्य अवतार लेंगे। २१।

तब विष्णु ने भी गोपों को ऐसा ही आश्वासन दिया। तब सभी गोप खुशी-खुशी से अपने-अपने घर चले गए।
         
तब अहीर कन्या गायत्री ने ब्रह्मा जी की प्रथम पत्नी सावित्री जो विष्णु को यह शाप दे चुकी थी कि - हे विष्णु ! जब तुम यदुवंश में जन्म लोगे, तो तुम कृष्ण के नाम से जाने जाओगे। उस समय तुम पशुओं (गायों) के सेवक बन कर  लंबे समय तक इधर-उधर भटकते रहोगे। उस शाप को गायत्री ने वरदान में बदलते हुए विष्णु से जो कहा उसका वर्णन- स्कंद पुराण खण्ड- ६ के नागर खंड के अध्याय-१९३ के श्लोक - १४ और १५ में मिलता है। जिसमें गायत्री विष्णु से कहतीं हैं कि -

तेनाकृत्येऽपि  रक्तास्ते  गोपा यास्यंति श्लाघ्यताम् सर्वेषामेव लोकानां देवानां च विशेषतः ॥१४॥

यत्रयत्र  च वत्स्यन्न्ति  मद्वंशप्रभवानराः॥
तत्रतत्र श्रियो वासो वनेऽपि प्रभविष्यति ॥१५॥


अनुवाद - गायत्री विष्णु से कहती हैं-  तुम्हारे  इस प्रकार  रक्त सम्बन्धी ( blood relation ) वाले गोप (अहीर) तुम्हारी प्राप्ति कर  विना कुछ कर्म  के भी प्रशंसनीय पद प्राप्त कर जायेंगे। और सभी लोग विशेष रूप से देवता भी उनकी प्रशंसा करेंगे। १४।

•  और पुन: गायत्री विष्णु से  कहती हैं- मेरे गोप वंश के लोग जहां भी रहेंगे, वहां श्री (सौभाग्य और समृद्धि) विद्यमान रहेगी, चाहे वह स्थान जंगल ही क्यों नन हो।
           
इन उपरोक्त महत्वपूर्ण श्लोकों के आधार पर निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि-  धर्म स्थापना हेतु गोपेश्वर श्रीकृष्ण का जन्म या अवतरण, वैष्णव वर्ण के अंतर्गत गोप जाति (अहीर जाति ) के यादव वंश में ही होता है अन्य किसी जाति या वंश में नहीं।
                
यही कारण है कि भगवान श्री कृष्ण, चाहे गोलोक में हो या भूलोक में हो, वे सदैव गोप भेष में गोपों के ही साथ ही रहते हैं, और सभी लीलाएं उन्हीं के साथ ही करते हैं। इसीलिए गोपों को श्रीकृष्ण का सहचर (सहगामी) अर्थात् साथ-साथ चलने वाला और गोपेश्वर भी  कहा जाता है।
                
भगवान श्री कृष्ण को सदैव गोप भेष में गोपों के साथ रहने की पुष्टि - हरिवंश पुराण के विष्णु पर्व के अध्याय -३ के श्लोक -३४ से होती है। जिसमें भगवान श्री कृष्ण जन्म लेने से पूर्व योग माया से कहते हैं कि- 
मोहहित्वा च तं कंसमेका त्वं भोक्ष्यसे जगत्।
अहमप्यात्मनो वृत्तिं विधास्ये गोषु गोपवतः।। ३४।

             
अनुवाद - तुम उस कंस को मोह में डालकर अकेली ही संपूर्ण जगत का उपभोग करोगी। और मैं भी व्रज में गौओं के बीच में रहकर गोप के समान ही अपना व्यवहार बनाऊंगा।
            
ये तो रही बात भूलोक की। किंतु गोपेश्वर श्री कृष्ण गोलोक में भी अपने गोपों के साथ सदैव गोप भेष में ही रहते हैं। इस बात की पुष्टि -ब्रह्मवैवर्तपुराण के ब्रह्म-खण्ड के अध्याय २- के श्लोक - २१ से भी होती है। जिसमें लिखा गया है कि -
स्वेच्छामयं सर्वबीजं सर्वाधारं परात्परम्।
किशोरवयसं शश्वद्गोपवेषविधायकम् ।। २१
                
अनुवाद - वे ही प्रभु स्वेच्छामयी सभी के मूल- (आदि-कारण) सर्वाधार तथा परात्पर- परमात्मा हैं। उनकी  नित्य किशोरावस्था रहती है और वे प्रभु गायों के उस लोक (गोलोक) में सदा गोप (आभीर ) -वेष में रहते हैं।२१।
       
अतः इस उपर्युक्त श्लोक से सिद्ध होता है कि भगवान श्री कृष्ण चाहे गोलोक हो या भूलोक दोनों स्थानों पर वे सदैव गोप भेष में गोपों के साथ ही रहते हैं।
        
 इसी तरह से हरिवंश पुराण के भविष्य पर्व के अध्याय- १०० के श्लोक - २६ और ४१ में भगवान श्री कृष्ण को गोप और यादव दोनों होने की पुष्टि होती है। जो पौण्ड्रक, श्री कृष्ण युद्ध का प्रसंग है। उस युद्ध के दरम्यान पौण्ड्रक भगवान श्री कृष्ण से कहा कि-

"स ततः पौण्ड्रको राजा वासुदेवमुवाच ह।
भो भो यादव
गोपाल इदानिं क्व गतो भवात।। २६।
गोपोऽहं सर्वदा राजन् प्राणिनां प्राणदः सदा।
गोप्ता सर्वेषु लोकेषु शास्ता दुष्टस्य सर्वदा।। ४१
            
अनुवाद - ओ यादव ! ओ गोपाल! इस समय तुम कहां चले गए थे ? आजकल मैं ही वासुदेव नाम से विख्यात हूं।२६।
                
तब भगवान श्री कृष्ण पौण्ड्रक से कहा-
• राजन मैं सर्वदा गोप हूं अर्थात प्राणियों का सदा प्राण दान करने वाला हूं, तथा संपूर्ण लोकों का रक्षक तथा सर्वदा दुष्टों का शासक हूं।४१।
               
इसी तरह से एक बार श्री कृष्ण की तरह-तरह की अद्भुत लीलाओं को देखकर गोपों को संशय होने लगा कि कृष्ण कोई साधारण मनुष्य नहीं हैं। ये या तो कोई देवता है या कोई ईश्वरीय शक्ति। और इस रहस्य को  श्रीकृष्ण अपने गोपों के लिए गुप्त रखना चाहते थे, ताकि मेरी बाल लीला बाधित न हो।  इसीलिए भगवान श्रीकृष्ण उनके संशय को दूर करने के लिए हरिवंश पुराण के विष्णु पर्व के अध्याय- २० के श्लोक- ११ में अपने सजातीय गोपों से कहते हैं कि-
मन्यते मां यथा सर्वे भवन्तो भीमविक्रमम्।
तथाहं नावमन्तव्यः स्वजातीयोऽस्मि बान्धवः।। ११।
अनुवाद - आप सब लोग मुझे जैसा भयानक पराक्रमी समझ रहे हैं, वैसा मानकर मेरा अनादर न करें। मैं तो आप लोगों का सजातीय (गोप जाति का) भाई बंधु ही हूं।
      
इस प्रकार से यह अध्याय- इस जानकारी के साथ समाप्त हुआ कि- गोपेश्वर श्री कृष्ण गोलोक और भू-लोक  दोनों स्थानों पर सदैव गोप भेष में अपने गोकुल के गोपों के साथ ही रहते हैं।
अब इसके अगले अध्याय- ८ में जानकारी दी गई है कि- गोप, अहीर और यादव कैसे एक ही जाति,वंश और कुल के सदस्य हैं।

भगवान श्री कृष्ण की श्रद्धा में सदैव लीन रहने वाले कवि इशरदास रोहडिया (चारण), जिनका जन्म विक्रम संवत- (1515) में राजस्थान के भादरेस गांव में हुआ था।

जिन्होंने मुख्यतः 2 ग्रंथ लिखे हैं "हरिरस" और "देवयान"। 

आज से (500) साल पहले ईशरदासजी द्वारा लिखे गए हरिरस काव्य ग्रन्थ के एक दोहे में स्पष्ट किया गया है कि कृष्ण भगवान का जन्म अहीर (यादव) कुल में हुआ था। 
दोहा-...........✍️

 और श्रीकृष्ण भक्ति शाखा के प्रमुख कवि सूरदास जी ने भी श्री कृष्ण को अहीर कहते हुए सूरसागर में लिखा है-
"सखी री, काके मीत अहीर" .......✍️नाम से एक राग गाया!!

"नारायण नारायणा! तारण तरण अहीर।
हूं चारण हरिगुण चवां, सागर भरियो क्षीर।।५८।

अनुवाद:-
अहीर जाति में अवतार लेने वाले हे नारायण(श्री कृष्ण)! आप जगत रूपी सागर पार करने और कराने वाले हो जो मोह लोभ आदि भँवर गीतों वाले वासनामयी जल से भरा हुआ है। मैं चारण (आप श्री हरि के) गुणों का वर्णन करता हूँ,।५८।

सन्दर्भ- हरिरस काव्यग्रन्थ (भक्त कवि ईसरदास द्वारा - प्रणीत)
 


 आसां पिबन्ति सलिलं वसन्ति सहिताः सदा ।
समीपतो महाभाग हृष्टपुष्टजनाकुलाः॥ २,३.१८ ॥
ये नदियों का जल पीते हैं और उन नदी यों के समीप है। वसते हैं ये हष्टपुष्ट और सम्पन्न हैं
[10/1, 4:23 PM] yogeshrohi📚: 

विप्रैर्भागवती वार्ता गेहे गेहे जने जने ।
कारिता कणलोभेन कथासारस्ततो गतः ॥७१॥

अनुवाद:-
अनुवाद:-ब्राह्मणों के द्वारा केवल अन्न-धनादिके लोभवश घर-घर एवं जन-जन में भागवत की कथा सी जाएगी , इसलिये कथा का सार चला जाएगा गया ॥ ७१॥ 

अत्युग्रभूरिकर्माणो नास्तिका रौरवा जनाः ।
तेऽपि तिष्ठन्ति तीर्थेषु तीर्थसारस्ततो गतः ॥७२॥

अनुवाद:-
तीर्थों में नाना प्रकार के अत्यन्त घोर कर्म करनेवाले, नास्तिक और नारकी पुरुष भी रहने लगे हैं; इसलिये तीर्थों का भी प्रभाव जाता रहा रहेगा ॥ ७२ ॥

कामक्रोध महालोभ तृष्णाव्याकुलचेतसः ।
तेऽपि तिष्ठन्ति तपसि तपःसारस्ततो गतः ॥७३॥

अनुवाद:-
जिनका चित्त निरन्तर काम, क्रोध, मोह-लोभ और तृष्णा से तपता रहता है, वे भी तपस्या का ढोंग करने लगेंगे, इसलिये तप का भी सार निकल गया ॥ ७३॥

मनसश्चाजयात् लोभाद् दम्भात् पाखण्डसंश्रयात् ।
शास्त्रान् अभ्यसनाच्चैव ध्यानयोगफलं गतम् ॥७४॥

अनुवाद:-
मन पर काबू न होने के कारण तथा लोभ, दम्भ और पाखण्ड का आश्रय लेने के कारण एवं शास्त्र का अभ्यास न करने से ध्यानयोग का फल मिट गया ॥ ७४ ॥ 

पण्डितास्तु कलत्रेण रमन्ते महिषा इव ।
पुत्रस्योत्पादने दक्षा अदक्षा मुक्तिसाधने ॥ ७५ ॥

अनुवाद:-
पण्डितों  की यह दशा होजाएगी  कि वे अपनी स्त्रियोंके साथ भैंसों की तरह हैवानियत  मैथुन करेंगे ; उनमें संतान पैदा करने की ही कुशलता पायी जाती है, मुक्तिसाधन में वे सर्वथा अकुशल हैं॥ ७५॥

पद्मपुराण उत्तर- खण्ड अध्यायः (१९३)भागवत माहात्म्य -




बुधवार, 25 सितंबर 2024

गोपकन्या नित्यं या शुद्धात्मा वैष्णव जातिका।।६२।। सही अनुवाद:-


"ब्रह्मणं यज्ञमिमं ज्ञात्वा शुद्धः स्नात्वा समागतः।
गोपकन्या नित्यं या शुद्धात्मा वैष्णव जातिका।।६२।।
"अनुवाद:-"इस ब्रह्मा के यज्ञसत्र को जानकर शुद्ध स्नान करके आयी हुई गोप कन्या नित्य जो शुद्धात्मा और वैष्णव जाति की है।६२।

श्री विष्णो वै तमुवाच प्रत्युत्तरं शृणु प्रिये ।
जाल्म एषाऽस्ति वीराण्याभीराणी जातितोऽस्ति वै ।।६४।।

"अनुवाद:-श्रीकृष्ण ने उत्तर देते हुए  उस गोप-कन्या को कहा ! सुन प्रिये ! ये बात छिपी हुई नही है कि ये वीराणी  जाति से निश्चय ही अहीराणी है।६४।

शृणु जानामि तद्वृत्तं नान्ये जानन्त्येतद्विदः।
पुरा सृष्टे समारम्भे गोलोके श्रीकृष्णेन परात्मना सुघटिता ।।६५।।
"अनुवाद:-सुनो ! मैं  जानाता हूँ वह वृत कोई अन्य विद्वान नहीं जानता यह सत्य पूर्वकाल में सृष्टि के प्रारम्भ में श्रीकृष्ण परमात्मा के द्वारा गोलोक में सुघटित हुआ।६५।

अमुना स्वांशरूपा हि सावित्री स्वमूर्तेः प्रकटीकृता ।
अथ द्वितीया रूपा कन्या च गायत्र्याभिधा कृता ।।६६।।
"अनुवाद:- उस परमात्मा ने अपने ही अंश से सावित्री और दूसरी कन्या के  गायत्री नाम से प्रकट किया गया।६६।
________

सावित्री श्रीहरिणैव गोलोके एव सन्निधौ ।
अथ भूलोके यज्ञप्रवाहार्थं  ब्रह्माणं ववल्हे  ।।६८।।
"अनुवाद:-सावित्री श्री हरि के द्वारा ही गोलोक में प्रभु के सानिन्ध्य में भूलोक में यज्ञ प्रवाहन के लिए ब्रह्मा जी को प्रदान की गयीं ।६८।

पृथिव्यां मर्त्यरूपेण तत्र मानुषविग्रहा ।
पत्नी यज्ञस्य कार्यार्थमपेक्षिता बभूव।।६९।।
"अनुवाद:-पृथ्वी पर मनुष्य रूप में वहाँ मानव शरीर में ब्रह्मा की पत्नी रूप में यज्ञ कार्य के लिए अपेक्षित हुईं।६९।

हेतुनाऽनेन कृष्णेन सावित्र्याज्ञापिता तदा ।
द्वितीयेन स्वरूपेण त्वया गन्तव्यमेव ह  गायत्री नाम्ना ।।1.509.७०।।
"अनुवाद:-उस कारण से कृष्ण के द्वारा सावित्री को आज्ञा दी गयी। तब द्वित्तीय स्वरूप में तुमको जाना चाहिए गायत्री नाम से ।७०।
_________________________________

प्रागेव भूतले कन्यारूपेण ब्रह्मणः कृते ।
सावित्री श्रीकृष्णमाह कौ तत्र पितरौ मम ।।७१।।
"अनुवाद:-पहले ही भूलोक पर कन्या रूप में ब्रह्मा के द्वारा किये गये संगति में सावित्री ने गोलोक में भगवान श्रीकृष्ण से स्वयं पूछा था कि वहाँ  मेरे माता- पिता कौन होंगे ?-।७१। 

श्रीकृष्णस्तां भविष्य दृष्ट्या तदा सन्दर्शयामास शुभौ तु तौ।
इमौ पत्नीव्रतो गोपागोपे च पतिव्रता यौ तस्या पितरौ भवितारौ ।।७२।।
"अनुवाद:-श्रीकृष्ण ने तब उसे भविष्य दृष्टि के द्वारा वे दोनों शुभ व्रतधारी पति-पत्नी गोप- गोपी दिखाए जो उसके माता -पिता होंगे-।७२।

मदंशौ मत्स्वरूपौ चाऽयोनिजौ दिव्यविग्रहौ।
पृथ्व्यां कुङ्कुमवाप्यां वै क्षेत्रेऽश्वपट्टसारसे वस्तारौ ।।७३।।
"अनुवाद:-स्वराज विष्णु रूप कृष्ण ने कहा -  कि ये दोनों मेरे अंश से मेरे स्वरूप अयौनिज-(मनुष्य रूप में दिव्य शरीर धारी पृथ्वी पर कंकुम प्राप्त करके अश्वपट्टसारस क्षेत्र में निवास करेंगे।७३।।

सृष्ट्यारम्भे गोपारूपौ वर्तिष्येतेऽतिपावनौ ।
विष्णुदेवादियज्ञादिहव्याद्यर्थं गवान्वितौ ।।७४।।
"अनुवाद:-सृष्टि उत्पत्ति के प्रारम्भ में गोप रूप अति पावन रूप में उपस्थित होंगे विष्णु के यज्ञ में हव्यादि के लिए  गायों से युक्त हेंगे।७४।

सौराष्ट्रे च यदा ब्रह्मा यज्ञार्थं संगमिष्यति ।
तत्पूर्वं तौ दम्पतौ स्थातारौ गोभिलश्च गोभिला चेति संज्ञिता।।७२।।
"अनुवाद:-गुजरात के सूरत (सौराष्ट्र) में जब ब्रह्मा यज्ञ के लिये जायेंगे। उससे पूर्व  वे दोनों पत्नी और पति रूप में गोभिला और गोभिल नाम से स्थित रहेंगे ।७२।

गवा प्रपालकौ भूत्वाऽऽनर्तदेशे गमिष्यतः ।
सजातयो यत्राऽऽभीरा निवसन्ति तत्समौ वेषकर्मभिः ।।७६।।
"अनुवाद:-गायों के पालने वाले गोप होकर वे दोनों आनर्त देश में जाऐंगे। वहाँ उन्ही के समान वेष भूषा से उनके सजातीय आभीर लोग निवास करते हैं। ७६।
श्रीहरेराज्ञयाऽऽनर्ते जातावाभीररूपिणौ ।
गवां वै पालकौ भवित्वा गोपौ  पितरौ च त्वया हि तौ ।।७८।। 
"अनुवाद:-
श्री हरि की आज्ञा से आनर्त देश (गुजरात) में आभीर जाति में आभीर रूप में गायों के पालक होकर  तुम्हारे माता पिता गोप होंगे।७८।

कर्तव्यौ गोपवेषौ वै वस्तुतो वैष्णवौभौ ।
मदंशौ तत्र सावित्रि ! त्वया द्वितीयरूपतो भविता गायत्री ।।७९।।
"अनुवाद:-गोप वेष में कर्म करते हुए भी वे दोनों वैष्णव ही होंगे। मेरे अंश से वहाँ सावित्री तुम्हारा दूसरा रूप गायत्री होगा।७९।

अयोनिजया पुत्र्या त्वया गोपया रूपया।
दधिदुग्धादिविक्रेत्र्या गन्तव्यं यज्ञ-स्थले तदा ।।1.509.८०।।
"अनुवाद:- अयोनिजा पुत्री के रूप में तुम दधि दूध आदि बैचने वाली के द्वारा तब उस स्थान पर पहुँचा जायेगा- ।८०।

यदा यज्ञो भवेत् तत्र तदा स्मृत्वा सुयोगतः ।
मानुष्या तु त्वया नूत्नवध्वा क्रतुं करिष्यति ।।८१।।
"अनुवाद:-जब ब्रह्मा वहाँ यज्ञ करेंगे
 तब तुम उस यज्ञ में मानवीया नयी बधू के रूप में उपस्थित होगीं।८१।

 यज्ञहेतुना सहभावं गतो ब्रह्मा गायत्री त्वं भविष्यसि ।
तयोः सुता गूढा वैष्णवौ गोपमध्ये वस्तासि।।८२।।
"अनुवाद:- यज्ञ के लिए ब्रह्मा के साथ तुम गायत्री नाम से होंगी उन दोनों की पुत्री तुम वैष्णव गोपों के मध्य निवास करोगी ।८२।
इत्येवं मूलरूपया गायत्री आभीरणी सुता ।
वर्तते गोपवेषीया नाऽशुद्धा जातितो हि सा ।।८४।।
"अनुवाद:- इस प्रकार गायत्री मूलत: आभीर कन्या हैं। जो गोप वेष में अशुद्ध जाति से नहीं है।८४।
_______________

एवं प्रत्युत्तरितः स जाल्मः कृष्णेन वै तदा ।
तावत् तत्र समायातौ गोभिलागोभिलौ मुदा ।।८५।।
इस प्रकार गुप्त रूप से उन कृष्ण के द्वारा उसे उत्तर दिया गया। तब तक वहाँ गोभिला और गोभिल प्रसन्नता की अवस्था में आये।८५।
अस्मत्पुत्र्या महद्भाग्यं ब्रह्मणा या विवाहिता ।
आवयोस्तु महद्भाग्यं दैत्यकष्टं निवार्यते ।।८६।।
हमारी पुत्री के द्वारा ब्रह्मा के साथ विवाह किया जाएगा ,हमारे तो बड़े अहो भाग्य हैं।  अब दैत्यों के द्वारा दिया गया कष्ट दूर हो जाएगा।८६।
_________________________

एवं प्रत्युत्तरितः स जाल्मः कृष्णेन वै तदा ।
तावत् तत्र समायातौ गायत्री पितरौ
 गोभिलागोभिलौ अति प्रसन्ना ।।८५।।
"अनुवाद:-इस प्रकार गुप्त रूप से उन भगवान श्री कृष्ण द्वारा उसे उत्तर दिया गया। तब तक वहाँ गोभिला और गोभिल गायत्री के माता-पिता अति प्रसन्न होकर आये।८५।

अस्मत्पुत्र्या रूपया  साक्षात् वैष्णवी आगता ।
आवयोस्तु महद्भाग्यं यया दैत्यकष्टं निवार्यते ।।८६।।
"अनुवाद:- हमारी पुत्री के रूप में साक्षात वैष्णवी शक्ति का आगमन हुआ है। हम दोनों के बड़े भाग्य हैं। इसके द्वारा दैत्यों द्वारा किये गये कष्टों से निवारण होगा।८६।
 __________________________
श्रीलक्ष्मीनारायणीयसंहितायां
 प्रथमे कृतयुगसन्ताने ब्रह्मणा यज्ञार्थं हाटकेश्वरक्षेत्रे नागवत्यास्तीरे देवादिद्वारा ससामग्रीमण्डपादिरचना कारिता, जाल्मरूपेण शंकरागमनम्, गायत्र्या गोपजातीया वृत्तान्तः, 
_____________________________________

लक्ष्मीनारायणसंहिता - खण़्डः १ (कृतयुगसन्तानः)अध्यायः (५०९) गायत्री के माता -पिता का नाम- नकली पाठ

ब्रह्मयज्ञमिमं ज्ञात्वा शुद्धः स्नात्वा समागतः ।
गोपालकन्या नित्यं या शूद्री त्वशुद्धजातिका।।६२।।
इस ब्रह्मा की यज्ञ को जानकर शुद्ध स्नान करके आयी हुई गोप कन्या नित्य जो शूद्र और अशुद्ध जाति की है।६२।


स्थापिताऽत्र नु सा शुद्धा विप्रोऽहं पावनो न किम् ।
तावत् तत्र समायातो ब्राह्मणो वृद्धरूपवान्।।६३।।
स्थापित यहाँ वह शुद्धा है और हम विप्र पवित्र क्यों नहीं हैं। तब तक वहाँ एक बृद्ध रूपवान् ब्राह्मण आ गया ६३।

श्रीकृष्णो वै तमुवाच प्रत्युत्तरं शृणु प्रिये ।
जाल्म नैषाऽस्ति शूद्राणी ब्राह्मणी जातितोऽस्ति वै ।।६४।।
श्रीकृष्ण ने उसको कहा ! उत्तर देते हुए सुन प्रिये छिपी हुई नही है ये शूद्राणी ये जाति से निश्चय ही ब्राह्मणी है।६४।

शृणु जानामि तद्वृत्तं नान्ये जानन्त्यतद्विदः।
पुरा सृष्टे समारम्भे श्रीकृष्णेन परात्मना ।।६५।।
सुन जानाता हूँ वह वृत कोई अन्य नहीं जानता यह सत्य पूर्वकाल में सृष्टि के प्रारम्भ में श्रीकृष्ण परमात्मा के द्वारा।

स्वांशरूपा हि सावित्री स्वमूर्तेः प्रकटीकृता ।
अथ द्वितीया कन्या च पतिव्रताऽभिधा कृता ।।६६।।
अपने ही अंश से सावित्री को प्रकट किया गया
और दूसरी कन्या गायत्री नाम से भी पतिव्रता हुई।

कुमारश्च कृतः पत्नीव्रताख्यो ब्राह्मणस्ततः ।
ब्रह्मा वैराजदेहाच्च कृतस्तस्मै समर्पिता ।।६७।।
सनत्कुर द्वारा उनके पत्नी व्रत का व्याख्या ब्राह्मण को वह थी । ब्रह्मा विराट विष्णु के शरीर से उत्पन्न हए जे उनको समर्पित हो गये।६७।
 
सावित्री श्रीहरिणैव गोलोके एव सन्निधौ ।
अथ यज्ञप्रवाहार्थं ब्रह्मा यज्ञं करिष्यति ।।६८।।
सावित्री श्री हरि के द्वारा गोलोक में प्रभु के सानिन्ध्य में रहीं।६८।


पृथिव्यां मर्त्यरूपेण तत्र मानुषविग्रहा ।
पत्नी यज्ञस्य कार्यार्थमपेक्षिता भविष्यति ।।६९।।
पृथ्वी पर मनुष्य रूप में हाँ मानव शरीर में यज्ञ की पत्नी यज्ञ कार्य के लिए अपेक्षित होगी।६९।

हेतुनाऽनेन कृष्णेन सावित्र्याज्ञापिता तदा ।
द्वितीयेन स्वरूपेण त्वया गन्तव्यमेव ह ।।1.509.७०।।
उस कारण से कृष्ण के द्वारा सावित्री के द्वारा आज्ञापिता तब दे वित्तीय स्वरूप में तुम्हें जाना चाहिए है गायत्री!७०।
_________________________________

प्रागेव भूतले कन्यारूपेण ब्रह्मणः कृते ।
सावित्री श्रीकृष्णमाह कौ तत्र पितरौ मम ।।७१।।

पहले ही भूलोक पर कन्या रूप में ब्रह्मा के द्वारा किये गये संगति में मेरे माता- पिता कौन होंगे? सावित्री ने यह बात कृष्ण से कही-।७१। 

श्रीकृष्णस्तां तदा सन्दर्शयामास शुभौ तु तौ ।
इमौ पत्नीव्रतो विप्रो विप्राणी च पतिव्रता ।।७२।।
श्रीकृष्ण ने तब वे दोनों शुभ पत्नी और पतिव्रता ब्राह्मण ब्राह्मणी दिखाए-।७१।

मदंशौ मत्स्वरूपौ चाऽयोनिजौ दिव्यविग्रहौ।
पृथ्व्यां कुंकुमवाप्यां वै क्षेत्रेऽश्वपट्टसारसे ।।७३ ।।
कृष्ण ने कहा - मेरे अंश से मेरे स्वरूप अयौनिज-( मनुष्य रूप में दिव्य शरीर धारी पृथ्वी पर कंकुम प्राप्त करके अश्वपट्टसारस में ।

सृष्ट्यारम्भे विप्ररूपौ वर्तिष्येतेऽतिपावनौ ।
वैश्वदेवादियज्ञादिहव्याद्यर्थं गवान्वितौ ।।७४।।
सृष्टि के प्रारम्भ में विप्र रूप अति पावन रूप में उपस्थित होंगे वैश्वदेव की यज्ञ आदि के लिए गायों से युक्त।

सौराष्ट्रे च यदा ब्रह्मा यज्ञार्थं संगमिष्यति ।
तत्पूर्वं तौ गोभिलश्च गोभिला चेति संज्ञिता ।।७२।।
गुजरात के सूरत ( सौराष्ट्र) में जब ब्रह्मा यज्ञ के लिये जायेंगे। उससे पूर्व  वे दोनों गोभिल और गोभिला नाम से । 
गवा प्रपालकौ भूत्वाऽऽनर्तदेशे गमिष्यतः ।
यत्राऽऽभीरा निवसन्ति तत्समौ वेषकर्मभिः ।।७६।।
गायों के पालने वाले गोप होकर आवर्त देश में जाऐंगे। वहाँ आभीर लोग निवास करते हैं। उन्ही के समान वेष भूषा से ।

दैत्यकृतार्दनं तेन प्रच्छन्नयोर्न वै भवेत् ।
इतिःहेतोर्यज्ञपूर्वं दैत्यक्लेशभिया तु तौ ।।७७।।
दैत्यों द्वारा किए गये जो प्रच्छन्न नहीं होंगे इससे पूर्व दैत्यों के क्लेश भय के द्वारा वे दोनों


श्रीहरेराज्ञयाऽऽनर्ते जातावाभीररूपिणौ ।
गवां वै पालकौ विप्रौ पितरौ च त्वया हि तौ ।।७८।।
श्री हरि की आज्ञा से आवर्त देश आभीर जाति मेंआभीर रूप में गायों के पालक रूप में तुम्हारे माता पिता ब्राह्मण होंगे।७८।


कर्तव्यौ गोपवेषौ वै वस्तुतो ब्राह्मणावुभौ ।
मदंशौ तत्र सावित्रि ! त्वया द्वितीयरूपतः।।७९।।

गोप वेष में कर्म करते हुए भी वे दोनों ब्राह्मण ही रहेंगे। मेरे अंश से वहाँ सावित्री तुम्हारा दूसरा रूप होगा।७९।

अयोनिजतया पुत्र्या भाव्यं वै दिव्ययोषिता ।
दधिदुग्धादिविक्रेत्र्या गन्तव्यं तत्स्थले तदा ।।1.509.८०।।
अयोनिज पुत्री के द्वारा वे दिव्य नारी दधि दूध आदि विक्री द्वारा  वहाँ तब पहुँचने योग्य होगी।८०।

यदा यज्ञो भवेत् तत्र तदा स्मृत्वा सुयोगतः ।
मानुष्या तु त्वया नूत्नवध्वा क्रतुं करिष्यति ।।८१।।
जब यज्ञ ब्रह्मा वहाँ करेंगे
 तब तुम उस यज्ञ में नयी बधू के रूप में उपस्थित होगीं।

सहभावं गतो ब्रह्मा गायत्री त्वं भविष्यसि ।
ब्राह्मणयोः सुता गूढा गोपमध्यनिवासिनोः।।८२।।

ब्रह्मा के साथ सह भाव में गायत्री तुम हीं होंगी।
ब्राह्मण माता पिता की पुत्री गोपों के मध्य गुप्त रूप में निवास करोगीं।८२।


ब्रह्माणी च ततो भूत्वा सत्यलोकं गमिष्यसि ।
ब्राह्मणास्त्वां जपिष्यन्ति मर्त्यलोकगतास्ततः ।।८३।।
ब्राह्मणी होकर ब्रह्मा के साथ सत्य लोक को पहुँच हगी।
 सभी ब्राह्मण जो मृत्यु लोग में स्थित हैं तुम्हारा जाप करते रहेंगे ।८३।

इत्येवं जायमानैषा गायत्री ब्राह्मणी सुता ।
वर्तते गोपवेषीया नाऽशुद्धा जातितो हि सा ।।८४।।
इस प्रकार गायत्री ब्राह्मण सुता है।
( ब्रह्मा की सन्तान ब्राह्मण और गायत्री यदि ब्राह्मणी होती है तो ब्रह्मा अपनी ही सृष्टि के साथ विवाह कैसे कर सकते हैं।
गायत्री गोपवेष से ही गोप है जाति से नहीं अत: यह अशुद्धा नहीं है।
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एवं प्रत्युत्तरितः स जाल्मः कृष्णेन वै तदा ।
तावत् तत्र समायातौ गोभिलागोभिलौ मुदा ।।८५।।
इस प्रकार गुप्त रूप से उन कृष्ण के द्वारा उसे उत्तर दिया गया। तब तक वहाँ गोभिला और गोभिल प्रसन्नता की अवस्था में आये।८५।
अस्मत्पुत्र्या महद्भाग्यं ब्रह्मणा या विवाहिता ।
आवयोस्तु महद्भाग्यं दैत्यकष्टं निवार्यते ।।८६।।
हमारी पुत्री के द्वारा ब्रह्मा के साथ विवाह किया जाएगा ,हमारे तो बड़े अहो भाग्य हैं।  अब दैत्यों के द्वारा दिया गया कष्ट दूर हो जाएगा।८६।

यज्ञद्वारेण देवानां ब्राह्मणानां सतां तथा ।
इत्युक्त्वा तौ गोपवेषौ त्यक्त्वा ब्राह्मणरूपिणौ ।।८७।।
यज्ञ द्वार पर सत देवों के और ब्राह्मणों के मध्य इस प्रकार कहकर उन दोनों ने गोप वेष त्यागकर ब्राह्मण रूप में।

पितामहौ हि विप्राणां परिचितौ महात्मनाम् ।
सर्वेषां पूर्वजौ तत्र जातौ दिव्यौ च भूसुरौ ।।८८।।
पितामहों वि प्रेम का परिचितों महात्‍माओं काो तथा सभी पूर्वजों को वहाँ दिव्य वि प्रेम को 

ब्रह्माद्याश्च तदा नेमुश्चक्रुः सत्कारमादरात् ।
यज्ञे च स्थापयामासुः सर्वं हृष्टाः सुरादयः ।।८९।।
ब्रह्मा आदि को वहाँ नमस्कार किया। सत्कार और आदर से यज्ञ में सभी देवता हर्षित होकर उपस्थित हुए।८९।

ब्रह्माणं मालया कुङ्कुमाक्षतैः कुसुमादिभिः ।
वर्धयित्वा सुतां तत्र ददतुर्यज्ञमण्डपे ।। 1.509.९०।।
ब्रह्मा को माला के द्वारा कुंकुम अक्षत के द्वारा फूल आदि के द्वारा वर्धन करके पुत्री को उस यज्ञ मण्डप में दे दिया।
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वृद्धो वै ब्राह्मणस्तत्र कृष्णरूपं दधार ह ।
सर्वैश्च वन्दितः साधु साध्वित्याहुः सुरादयः।।९१ ।।
वृद्ध ब्राह्मण का वहाँ  कृष्ण ने रूप धारण कर निश्चय ही सर्वे वन्दित सभी देवताओं ने साधु साधु कह कर सराहना की।९१।

जाल्मः कृष्णं हरिं दृष्ट्वा गायत्रीपितरौ तथा ।
दृष्ट्वा ननाम भावेन प्राह भिक्षां प्रदेहि मे ।।९२।।
गुप्त रूप में ब्राह्मण वेष धारी कृष्ण को देखकर गायत्री के माता- पिता दोनों ने उन्हे नमन किया और भावुक होकर कृष्ण ने कहा मुझे हे विप्र  भिक्षा दो!

बुभुक्षितोऽस्मि विप्रेन्द्रा गर्हयन्तु न मां द्विजाः ।
दीनान्धैः कृपणैः सर्वैस्तर्पितैरिष्टिरुच्यते ।। ९३ ।।
हे ब्राह्मणश्रेष्ठ, मैं बहुत भूखा हूँ, कृपया मेरी निन्दा न करें।
इससे गरीब, अंधे और दुखी सभी संतुष्ट हो जाते हैं और इसे यज्ञ कहा जाता है। 93॥


 

याज्ञिकं दक्षिणाहीनो नास्ति यज्ञसमो रिपुः ।
श्रीकृष्णश्च तदा प्राह जाल्मे ददतु भोजनम् ।।९५।।

दान के बिना यज्ञ के समान कोई शत्रु नहीं है
तब भगवान कृष्ण ने जलमा से कहा, "कृपया मुझे खाने के लिए कुछ दो।" 95।


विप्राः प्राहुः खप्परं ते त्वशुद्धं विद्यते ततः ।
बहिर्निःसर दास्यामो भिक्षां पार्श्वमहानसे ।।९६।।
ब्राह्मणों ने कहा कि तलवार इसलिए अशुद्ध है।
चलो बाहर चलें और किनारे के महान व्यक्ति को भिक्षा दें। 96॥

एतस्यामन्नशालायां भुञ्जन्ति यत्र तापसाः ।
दीनान्धाः कृपणाश्चैव तथा क्षुत्क्षामका द्विजाः ।।९७।।

अशुद्धं ते कपालं वै यज्ञभूमेर्बहिर्नय ।
गृहाणाऽन्यच्छुद्धपात्रं दूरं प्रक्षिप्य खप्परम् ।।९८।।

एवमुक्तश्च जाल्मः स रोषाच्चिक्षेप खप्परम् ।
यज्ञमण्डपमध्ये च स्वयं त्वदृश्यतां गतः ।।९९।।

सर्वेप्याश्चर्यमापन्ना विप्रा दण्डेन खप्परम् ।
चिक्षिपुस्तद्बहिस्तावद् द्वितीयं समपद्यत।। 1.509.१००।।

तस्मिन्नपि परिक्षिप्ते तृतीयं समपद्यत ।
एवं शतसहस्राणि समपद्यन्त वै तदा ।। १०१ ।।

परिश्रान्ता ब्राह्मणाश्च यज्ञवाटः सखप्परः ।
समन्ततस्तदा जातो हाहाकरो हि सर्वतः ।। १ ०२।।

ब्रह्मा वै प्रार्थयामास सन्नत्वा तां दिशं मुहुः ।
किमिदं युज्यते देव यज्ञेऽस्मिन् कर्मणः क्षतिः।। १०३ ।।
तस्मात् संहर सर्वाणि कपालानि महेश्वर ।
यज्ञकर्मविलोपोऽयं मा भूत् त्वयि समागते।।१ ०४।।

ततः शब्दोऽभवद् व्योम्नः पात्रं मे मेध्यमस्ति वै ।
भुक्तिपात्रं मम त्वेते कथं निन्दन्ति भूसुराः ।।१ ०५।।

तथा न मां समुद्दिश्य जुहुवुर्जातवेदसि ।
यथाऽन्या देवतास्तद्वन्मन्त्रपूतं हविर्विधे ।। १ ०६।।

अतोऽत्र मां समुद्दिश्य विशेषाज्जातवेदसि ।
होतव्यं हविरेवात्र समाप्तिं यास्यति क्रतुः ।। १०७।।

ब्रह्मा प्राह तदा प्रत्युत्तरं व्योम्नि च तं प्रति ।
तव रूपाणि वै योगिन्नसंख्यानि भवन्ति हि ।। १ ०८।।

कपालं मण्डपे यावद् वर्तते तावदेव च ।
नात्र चमसकर्म स्यात् खप्परं पात्रमेव न ।।१०९।।

यज्ञपात्रं न तत्प्रोक्तं यतोऽशुद्धं सदा हि तत् ।
यद्रूपं यादृशं पात्रं यादृशं कर्मणः स्थलम् ।। 1.509.११०।।

तादृशं तत्र योक्तव्यं नैतत्पात्रस्य योजनम् ।
मृन्मयेषु कपालेषु हविः पाच्यं क्रतौ मतम् ।।१११।।

तस्मात् कपालं दूरं वै नीयतां यत् क्रतुर्भवेत् ।
त्वया रूपं कपालिन् वै यादृशं चात्र दर्शितम् ।। १ १२।।

तस्य रूपस्य यज्ञेऽस्मिन् पुरोडाशेऽधिकारिता ।
भवत्वेव च भिक्षां संगृहाण तृप्तिमाप्नुहि ।। ११ ३।।

अद्यप्रभृति यज्ञेषु पुरोडाशात्मकं द्विजैः ।
तवोद्देशेन देवेश होतव्यं शतरुद्रिकम् ।। ११४।।

विशेषात् सर्वयज्ञेषु जप्यं चैव विशेषतः ।
अत्र यज्ञं समारभ्य यस्त्वा प्राक् पूजयिष्यति।।१ १५।।

अविघ्नेन क्रतुस्तस्य समाप्तिं प्रव्रजिष्यति ।
एवमुक्ते तदाश्चर्यं जातं शृणु तु पद्मजे ।।११६।।

यान्यासँश्च कपालानि तानि सर्वाणि तत्क्षणम् ।
रुद्राण्यश्चान्नपूर्णा वै देव्यो जाताः सहस्रशः ।।१ १७।।

सर्वास्ताः पार्वतीरूपा अन्नपूर्णात्मिकाः स्त्रियः ।
भिक्षादात्र्यो विना याभिर्भिक्षा नैवोपपद्यते ।। १ १८।।

तावच्छ्रीशंकरश्चापि प्रहृष्टः पञ्चमस्तकः ।
यज्ञमण्डपमासाद्य संस्थितो वेदिसन्निधौ ।।११९।।

ब्राह्मणा मुनयो देवा नमश्चक्रुर्हरं तथा ।
रुद्राणीः पूजयामासुरारेभिरे क्रतुक्रियाम् ।। 1.509.१२०।।

सहस्रशः क्रतौ देव्यो निषेदुः शिवयोषितः ।
शिवेन सहिताश्चान्याः कोटिशो देवयोषितः ।। १२१ ।।

एवं शंभुः क्रतौ भागं स्थापयामास सर्वदा ।
पठनाच्छ्रवणाच्चास्य यज्ञस्य फलमाप्नुयात् ।। १२२।।

इति श्रीलक्ष्मीनारायणीयसंहितायां प्रथमे कृतयुगसन्ताने ब्रह्मणा यज्ञार्थं हाटकेश्वरक्षेत्रे नागवत्यास्तीरे देवादिद्वारा ससामग्रीमण्डपादिरचना कारिता, जाल्मरूपेण शंकरागमनम्, गायत्र्या ब्राह्मणीजातीयतावृत्तान्तः, कपालानां अन्नपूर्णादेव्यात्मकत्वं, शंकरस्य यज्ञे स्थानं, चेत्यादिनिरूपणनामा नवाऽधिकपञ्चशततमोऽध्यायः।।५०९।।
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मंगलवार, 24 सितंबर 2024

लक्ष्मीनारायणसंहिता‎ | खण्डः १ (कृतयुगसन्तानः)


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श्रीनारायण उवाच--
शृणु लक्ष्मि! कलावत्या वृषभानोस्तु योषितः ।
पतिव्रतायाः सामर्थ्यं प्रवदामि महोत्तमम् ।। १ ।।
पितॄणां मानसी कन्या कमलांशा कलावती ।
सुन्दरी वृषभानस्य पतिव्रतपरायणा ।। २ ।।
यस्यास्तु तनया राधा कृष्णप्राणाधिका प्रिया ।
श्रीकृष्णार्धांशसम्भूता तेन तुल्या च तेजसा ।। ३ ।।
बभूवुः कन्यकास्तिस्रः पितॄणां मानसात्पुरा ।
कलावती रत्नधन्या मेनका च दिनान्तरे ।। ४ ।।
रत्नधन्या तु जनकं वरयामास भूभृतम् ।
हिमाचलं हरेरंशं वरयामास मेनका ।। ५ ।।
रत्नधन्यासुता सीता रामपत्नी पतिव्रता ।
मेनापुत्री सती शंभुपत्नी च पार्वती तथा ।। ६ ।।
अयोनिसंभवे चोभे पतिव्रते रमे शुभे ।
कलावती सुचन्द्रं तु वरयामास सत्पतिम् ।। ७ ।।
मनुवंशीयनृपतिं प्राप्य वर्षसहस्रकम् ।
रेमे राज्ये ततो राजा संविरक्तो बभूव ह ।। ८ ।।
जगाम तपसे विन्ध्यशैलं सह स्वयोषिता ।
पुलहाश्रममासाद्य तपस्तेपेऽतिदारुणम् ।। ९ ।।
मोक्षाकांक्षी निराहारो दिव्यवर्षसहस्रकम् ।
समाधिमाप नृपतिर्ध्यात्वा कृष्णपदाम्बुजम् ।। 1.467.१ ०।।
तद्गात्रव्याप्तवल्मीकं पत्नी दूरं चकार सा ।
निश्चेष्टितं पतिं दृष्ट्वा प्राणाऽसञ्चारविग्रहम् ।। ११ ।।
मांसशोणितशून्यं तमस्थिसंसक्तविग्रहम् ।
शोकं चकार सा राज्ञी सा रुरोद कलावती ।। १२।।
हे नाथनाथेत्युच्चार्य पातिव्रत्यपरायणा ।
श्रुत्वा तु रोदनं तस्याः कृपया स कृपालयः ।। १३।।
आविर्बभूव जगतां पितामहो ह्यजः स्वयम् ।
ब्रह्मा तां च नृपं चापि विलोक्य शोकमाप ह ।। १४।।
ततः कमण्डलुजलेनासिच्य नृपविग्रहम् ।
जीवं संचारयामास ब्रह्मशक्त्या स विश्वसृट् ।। १५।।
राजा तु पुरतो दृष्ट्वा जगद्धातारमेव तम् ।
प्रणनाम प्रतुष्टाव प्रसन्नवदनेक्षणम् ।। १६।।
ब्रह्मा नृपं समुवाच वरं वृणु यथेप्सितम् ।
राजा वव्रे तु निर्वाणं नित्यमोक्षं परं पदम् ।। १७।।
श्रुत्वा ब्रह्मा वरं दातुमुद्यतस्त्वभवद् यदा ।
कलावती महासाध्वी ब्रह्माणमाह सादरम् ।। १८।।
यदि मुक्तिं नृपेन्द्राय ददासि कमलोद्भव ।
ततोऽबलाया हे ब्रह्मन् का गतिर्मे विना धवम् ।। १ ९।।
विना कान्तं तु कान्तानां का शोभा विधवात्मनि ।
व्रतं त पतिव्रतायाश्च पतिरेव श्रुतौ मतम् ।।1.467.२० ।।
गुरुश्चाभीष्टदेवो हि तपोधर्ममयः पतिः ।
सर्वे वै बान्धवाः श्रेष्ठाः पतितुल्या न योषिताम् ।।२१ ।।
सर्वेषां तु प्रियतमो बन्धुर्न स्वामिनः परः ।
सर्वधर्मात् परा ब्रह्मन् पतिसेवा सुदुर्लभा ।।२२।।
व्रतं दानं तपः पूजा जपहोमादिकं तु यत् ।
स्वामिसेवाविहीनायाः सर्वं तन्निष्फलं भवेत् ।। २३।।
सर्वतीर्थेषु च स्नानं तथा पृथ्च्याः प्रदक्षिणा ।
सर्वयज्ञेषु दीक्षा च महादानव्रतानि वै ।।२४।।
वेदानां पठनं चापि यावन्त्यपि तपांसि च ।
सतामर्थे भोजनं च विप्रार्चा देवसेवनम् ।।२५।।।
चातुर्मास्यतपकृच्छ्रचान्द्रायणादिकं तथा ।
एतानि स्वामिसेवायाः कलां नार्हन्ति षोडशीम् ।।२६।।
स्वामिसेवाविहीना या वदन्ति स्वामिने कटु ।
पतन्ति कालसूत्रे ता यावच्चन्द्रदिवाकरौ ।।२७।।
सर्पाश्च कृमयस्तत्र दशन्ति ता दिवानिशम् ।
मूत्रश्लेष्मपुरीषाणां भक्षणं कारयन्ति ताः ।।२८।।
तासां मुखे ददत्येवमुल्कास्तु यमकिंकराः ।
एवं वै यातना भुक्त्वा कृमियोनिं प्रयान्ति ताः ।।२९।।
भक्षन्ति तत्र मलिनं यान्ति मानुषतां ततः ।
इतिश्रुतं मया सद्भ्यो वेदवाक्येभ्य इत्यतः ।।1.467.३ ० ।।
किं वदामि जगद्धातर्न जानाम्यबला यतः ।
त्वं पिता जगतां धाता योगी गुरुः सतां सदा ।।३ १ ।।
सर्वज्ञं किं बोधयामि मा वियोजय मां पितः ।
प्राणाऽधिकोऽयं कान्तो मे यदि मुक्तो बभूव ह ।।३२।।।
मम को रक्षिता ब्रह्मन् धर्मस्य यौवनस्य च ।
कौमारे रक्षिता तातो दत्वा पात्राय मुच्यते ।।३३।।
लग्नेन रक्षिता कान्तो यावज्जीवति वै पतिः ।
तदभावे सुतो रक्षेत् त्रातारस्ते त्रयः स्मृताः ।।३४।।
अरक्षके सती साध्वी त्वन्याश्रयमुपाव्रजेत् ।
तदधीना भवेत् तत्र पातिव्रत्यं लयं व्रजेत् ।।३५।।
बहुजन्मार्जितं पुण्यं तदा नार्या विनश्यति ।
बाल्ये च यौवने कान्ते वार्धक्येऽपि सतीस्त्रियाः ।।३६।।
पतिव्रतायाः कान्ते स्वे सर्वकाले समा स्पृहा ।
पुत्रे स्नेहो हि मातॄणां भवेत्सर्वाधिकोऽपि च ।।३७।।
पतिस्नेहस्य साध्वीनां कलां नार्हति षोडशीम् ।
पुत्रस्य स्तन्यलाभान्तो मिष्टान्ने भोजनावधि ।।३८।।।
स्वार्थिनां स्वार्थलाभान्तः स्नेहो भवति न ध्रुवः ।
कान्ते स्नेहः सतीनां तु स्वप्ने जाग्रति सन्ततः ।।३९।।
स्मृत्यन्तो बन्धुविच्छेदः पुत्राणां तु ततोऽधिकः ।
सुदारुणः स्वामिनस्तु दुःखं नातः परं स्त्रियाः ।।1.467.४० ।।
अविदग्धा यथा दग्धा ज्वलदग्नौ विषादने ।
तथाऽविदग्धा दग्धा स्यात् स्वामिनो विरहानले ।।४१ ।।
नाऽन्ने तृष्णा जले तृष्णाऽम्बरे भोग्ये न तृष्णिका ।
गृहे यशसि सौन्दर्ये साध्वीनां स्वामिनं विना ।।४२।।
विरहाग्नौ मनो दग्धं रक्तं दग्धं तथाऽऽननम् ।
भुक्तं दग्धं धनं दग्धं भवेदग्नौ तृणं यथा ।।४३।।
नहि कान्तात्परो बन्धुर्नहि कान्तात्परः प्रियः ।
नहि कान्तात् परो देवो नहि कान्तात्परो गुरुः ।।४४।।
नहि कान्तात्परे प्राणा नहि कान्तात् परः स्त्रियाः ।
नहि कान्तात्परो धर्मो नहि कान्तात् परं धनम् ।।४५।।
निमग्नं श्रीकृष्णनारायणे यथा सतां मनः ।
यथैकपुत्रे मातुश्च कृपणानां धने यथा ।।४६।।
यथा भयेषुभीतानां शास्त्रेषु विदुषां यथा ।
स्तन्यपाने शिशूनां च शिल्पेषु शिल्पिनां यथा ।।४७।।
यथा कान्ते कामिनीनां तथा प्रिये मनो मम ।
तं विना जीवितुं ब्रह्मन् क्षणमेकं न वै क्षमम् ।।४८।।
मरणं तु वरं तासां जीवनं मरणायते ।
तद्भर्तृरहितानां च सतीनां शोकचेतसाम् ।।४९।।
अन्यशोको भवेद् दूरः पानभोजनखेलनैः ।
कान्तशोको वर्धते वै पानभोजनखेलने ।।1.467.५०।।
सती नारी पतिच्छाया वियोक्तुं नार्हति क्वचित् ।
पतिपुण्यकृता मूर्तिः पत्यावेव सुसज्जते ।।५१ ।।
स्वामिना कृतपुण्यस्य फलं नारी पतिव्रता ।
फलभोगः स्वामिनोऽस्ति कथं साध्वी वियुज्यते ।।५२।।
वियोगे फलभोगो न कृतं पत्युर्निरर्थकम् ।
तस्मान्नारी सती नित्यं युयुजे स्वामिना शुभा ।।५३।।
इतरे खलु नश्यन्ति देहनाशे स्वभावतः ।
नारी कर्मफला मूर्तिः सार्था जन्मनि जन्मनि ।।५४।।
ततो ब्रह्मन् पतिं मुक्तं चेत् करोषि मया विना ।
त्वां शप्त्वा त्वां प्रदास्यामि प्रसह्य स्त्रीवधं ह्यघम् ।।५५।।
श्रुत्वा कलावतीवाक्यं विस्मितश्च प्रजापतिः ।
हितं स्यात्तु यथा सत्यास्तथोवाच भयान्वितः ।।५६ ।।
वत्से मुक्तिं न दास्यामि स्वामिनं ते त्वया विना ।
तव पुण्यं तथा त्वास्ते स्वर्गभोगेन नश्यति ।। ५७।।
मुक्तं कर्तुं त्वया सार्धं साम्प्रतं नाहमीश्वरः ।
सुते मुक्तिः पुण्यभोगं विना सर्वस्य दुर्लभा ।।५८।।
निर्वाणतां समाप्नोति धर्मी भोगेन नाशने ।
बहुकालं स्वर्गभोगं कुरुष्व स्वामिना सह ।।५ ९।।
ततश्च युवयोर्जन्म भविता यमुनातटे ।
यदा भविष्यति सती कन्या ते राधिका स्वयम् ।।1.467.६०।।
जीवन्मुक्तौ तया सार्धं गोलोकं संगमिष्यथः ।
साध्वी वै सत्त्वयुक्तेयं मा मां शप्तुं समर्हसि ।।६१ ।।
जीवन्मुक्ताः समाः सन्तः कृष्णनारायणे रताः ।
इत्यक्त्वा प्रययौ ब्रह्मा स्वालयं ययतुश्च तौ ।।६२।।
स्वर्गं भुक्त्वा सुचन्द्रश्च वृषभानुर्बभूव ह ।
पद्मावत्या हि जठरे सुरभानस्य रेतसा ।।६३।।
जातिस्मरो हरेरंशो हरिपादाब्जमानसः ।
नन्दबन्धुर्महायोगी वैष्णवः परमो महान् ।।६४।।
कलावती कान्यकुब्जे बभूवाऽयोनिसंभवा ।
जातिस्मरा महासाध्वी भनन्दस्य सुपुत्रिका ।।६५।।
यज्ञकुण्डोत्थितां तां च लब्ध्वा सुकनकप्रभाम् ।
मालावत्यै ददौ पत्न्यै सा पुपोष प्रहर्षिता ।।६६।।
चक्रे कलावतीनाम चकार सुमहोत्सवम् ।
भवन्दनो नृपतिस्तां प्रददौ वृषभानवे ।।६७।।
जातिस्मरो हरेरंशो वृषभानुरुपाददे ।
तस्यां कन्याऽभवद् राधा कृष्णनारायणप्रिया ।।६८।।
तस्या विवाहो भाण्डीरे वटे ब्रह्मा व्यधापयत् ।
कृष्णेन सह राधायाः सुखं प्रापातिराधिका ।।६९ ।।
राधैकदा सती कृष्णं वृन्दावने रहस्थले ।
कृष्णजन्मदिने कृष्णं स्नपयामास सुन्दरी ।।1.467.७०।।
यमीजलेन तत्रैव सस्मार स्वकगोधनम् ।
गोलोकादागता गावस्तस्याः स्मरणमात्रतः ।। ७ १ ।।
सुनन्दा सुमनाश्चापि सुशीला सुरभिस्तथा ।
कपिला पंचमी चेति स्ववंशविस्तरैर्युता ।।७२।।
वात्सल्यदृष्ट्या कृष्णस्य तासामूधांसि सुस्रुवुः ।
ववृषुः पयसां पूरैस्तदूधांसि पयोधराः ।।७३।।
कृष्णः संस्नापितस्ताभिः शृंगारितश्च राधया ।
कृष्णेन कृतसत्कारा वाराणसीं ययुस्तु ताः ।।७४।।
राधा संभोजयामास रमयामास तं पतिम् ।
जन्मोत्सवं सुखं कृत्वा ययौ कृष्णो गृहं निजम् ।।।७५।।
वाराणस्यां तु ता गावः शंकरं परमीश्वरम् ।
धारासारैरविच्छिन्नर्दुग्धानां पापनाशिनाम् ।।७६ ।।
स्नपयामासुरत्यर्थं तावद्यावद्ध्रदोऽभवत् ।
शंभुर्यत्राऽभवत् पूर्वं स्थितः स्नातश्च दुग्धकैः ।।७७।।
आगतानां गवां स्नेहात् प्रतिजगाम यत्स्थले ।
तत्स्थलं त्वभत् ख्यातं कपिलाह्रद एव यत्। ।।७८।।
कपिलधारा तत्तीर्थे तत्र श्राद्धेन पायसैः ।
अग्निष्वात्ता बर्हिषद आज्यपाः सामपास्तथा ।।७९।।
पितरस्त्वन्यजातीया अपि तृप्यन्ति शाश्वतम् ।
पठनाच्छ्रवणाल्लक्ष्मि मोक्षदं कथितं तव ।।1.467.८०।।
इति श्रीलक्ष्मीनारायणीयसंहितायां प्रथमे कृतयुगसन्ताने राधिकामातुः कलावत्या वृषभानोः पत्न्या प्राग्भवे सुचन्द्रपत्न्याः कलावत्यास्तस्याः पातिव्रत्येन पत्युस्तपसा च दम्पत्योर्वृषभानुकलावतीरूपेण यमुनातटे जन्म, तयोः पुत्री राधिका कृष्णजन्मोत्सवे गोदुग्धैः कृष्णं स्नपयामा-
सेत्यादिनिरूपणनामा सप्तषष्ट्यधिक चतुश्शततमोऽध्यायः ।। ४६७ ।।

आनर्तीयाऽऽभीरवर्यगृहे जाता हि कन्यका ।


श्रीनारायण उवाच-
शृणु लक्ष्मि! मर्त्यलोके सर्वपातकनाशनम् ।
क्षेत्रत्रयं तथाऽरण्यत्रयं पुरीत्रयं तथा ।। १ ।।
वनत्रयं तथा ग्रामत्रयं तीर्थत्रयं परम् ।
शैलत्रयं तथा नदीत्रयं सर्वफलप्रदम् ।। २ ।।
कुरुक्षेत्रं हाटकेशक्षेत्रं प्रभासक्षेत्रकम् ।
यथोक्तविधिना कृत्वा जनः पापात् प्रमुच्यते ।। ३ ।।
प्रथमं पुष्करारण्यं नैमिषारण्यमित्यपि ।
धर्मारण्यं तृतीयं च सर्वेष्टफलदायकम् ।। ४ ।।
वाराणसीपुरी त्वेका द्वितीया द्वारकापुरी ।
तृतीयाऽवन्तिकापूश्च यथेष्टफलदायिनी ।। ५ ।।
वृन्दावनं द्वैतवनं तथा च खाण्डवं वनम् ।
स्नानाद्वासात् स्वर्गमोक्षप्रदं पापविनाशकम् ।। ६ ।।
कालग्रामः शालग्रामो नन्दिग्रामस्तृतीयकः ।
इन्द्रियग्रामतृष्णानां ध्वंसको मोक्षदस्तथा ।। ७ ।।
अग्नीतीर्थं शुक्लतीर्थं पितृतीर्थं तृतीयकम् ।
तत्र स्नानाद् भुक्तिमुक्ती लभते मानवो ध्रुवम् ।। ८ ।।
श्रीपर्वतश्चाऽर्बुदाद्रिः रैवताचल इत्यपि ।
यात्राकर्ता स्वर्गभोक्ता पश्चान्मुक्तिप्रगो भवेत् ।। ९ ।।
गंगानदी नर्मदाख्यानदी सरस्वतीनदी ।
स्नानाद् भुक्तिस्तथा मुक्तिस्तथेष्टं सर्वदा ददेत् ।। 1.514.१ ०।।
ज्ञानवापी च कुंकुमवापी रोहणवापिका ।
जलपानाद् भवेन्मुक्तिर्वापीत्रयं हि पावनम् ।।१ १ ।।
नारायणसर इन्द्रसरो मानसकं सरः ।
सरस्त्रयं भुक्तिमुक्तिप्रदं स्नानाद्भवत्यपि ।। १ २।।
पार्वती च प्रभा लक्ष्मीर्माणिकी च जया रमा ।
राधा पद्माऽष्टनामानि तारयेद् भवसागरात् ।। १ ३।।
वस्त्रापथश्चोत्तरपथो दक्षिणापथ इत्यमी ।
मुक्तिदास्त्रय एवाऽत्र यात्रया नात्र संशयः ।। १४।।
ब्रह्महत्यादिकं पापं जात्यन्तरादिभोजनम् ।
चाण्डालगृहवासित्वं सुरामांसाशनाद्किम् ।। १६।।
नागनद्यां कृतस्नानात् सर्वं शुद्ध्यति सर्वथा ।
नागलीलानामतो वै श्रीकृष्णस्य तु दासिका ।। १६।।
राधिकाकबरीग्रन्थिं नर्मणा कृष्णसन्निधौ ।
निर्बन्धनां विकीर्णां च चकार स्वकरेण वै ।। १७।।
पुनः केशान् वलयित्वा धम्मिलं राधिकाऽकरोत् ।
नागलीला पुनर्ग्रन्थिं विकीर्णां चाऽकरोद् धिया ।। १८।।
गोलोके च मुहुर्ग्रन्थिर्मुहुर्वियोजनं तयोः ।
नर्मणाऽन्योन्यसाहचर्याज्जातं तेन तु राधिका ।। १ ९।।
क्रुद्धा प्रोवाच गच्छ त्वं नागलीले भुवस्तलम् ।
आभीरस्य गृहे याहि त्वाभीरेण धृता भव ।।1.514.२० ।।
इत्युक्त्वा सा सखी राधां तुष्टाव शापमोचने ।
राधा प्राह यदा त्वाभीरेण धृता भविष्यसि ।।२१ ।।
तदा जलस्वरूपेण पावनी विचरिष्यसि ।
अग्राह्या त्वं विना कृष्णं भविष्यसि न संशयः ।।२२।।
कृष्णनारायणः स्वामी यदा तत्राऽऽगमिष्यति ।
तदा त्वं कन्यका भूत्वा गोलोकं त्वागमिष्यसि ।।२३ ।।
तावन्मुक्तिप्रदा पापक्षालिनी शुद्धिदा सदा ।
श्वपचादिजातिभ्रष्टमानवानां च पावनी ।। २४।।
स्नानमात्रेण तु शुद्धिप्रदा त्वं वै भविष्यसि ।
इत्युक्ता राधया नत्वा ययौ सा भूतलं तदा ।।२५।।
आनर्तीयाऽऽभीरवर्यगृहे जाता हि कन्यका ।
श्यामसुरः पिता तस्या नागलीलेतिनामतः ।।२६।।
जातिस्मरा त्वाजुहाव माता च राणिका तथा ।
मुमोद कन्यकां लब्ध्वोज्ज्वला दिव्यस्वरूपिणीम् ।।२७।।
सरस्तीरे गवां शकृद्गृह्णाना तु दिवा सदा ।
गोमण्डले भ्रमत्येव तां दृष्ट्वाऽऽभीरबालकः ।।२८।।।
युवा तां धर्षयामास युवतीं रूपशालिनीम् ।
सा स्मृत्वा राधिकाशापं जलरूपा बभूव ह ।।२९।।
नागनदी तु सा जाता कृष्णस्यैव प्रिया सखी ।
यस्यां स्नानेन चाण्डालगृहिणी ब्राह्मणी भवेत् ।। 1.514.३ ०।।
शृणु लक्ष्मि वर्धमानपुरे त्वन्त्यजजातिजः ।
चण्डालः कुंभको नाम तस्याऽभूत्त्वात्मजः सुतः ।।३ १ ।।
घूककर्ण इतिख्यातः सुरूपस्तीर्थयात्रया ।
चमत्कारपुरं प्राप्तो द्विजरूपं समाश्रितः ।।३२।।
स स्नाति सर्वतीर्थेषु भिक्षान्नकृतभोजनः ।
द्विजवद्वर्तते नित्यं सहवासाद्द्विजक्रियः ।।३३ ।।
चमत्कारपुरे तत्र सुभद्रब्राह्मणस्य वै ।
सन्ताने कन्यका त्वेका द्विगुणैश्च रदैर्युता ।।३४।।
आसीत् त्रिस्तनयुक्ता च महोदरी भयंकरा ।
यस्याः पतिर्भवेच्चेद् यः षण्मासे निधनं व्रजेत्। ।।३५।।
नाऽतो जग्राह तां कश्चिदष्टादशाऽधिवत्सराम् ।
तावत् तस्या गृहे भिक्षां कर्तुं सोऽन्त्यजजातिकः ।।।३६ ।।
घूककर्णः समायातस्तं दृष्ट्वा सा मुमोह च ।
तस्याः पिता सुरूपं च द्विजवेषं विलोक्य च ।।३७।।
पप्रच्छ गोत्रजात्यादि कुलं नामादिकं ततः ।
घूककर्णो द्विजं प्राह स्थानं मे गोडदेशके ।। ३८।।
ग्रामे भोजकटे मेऽस्ति पिता माधवभूसुरः ।
वसिष्ठगोत्री तस्याऽहं चन्द्रप्रभाऽभिधः सुतः ।।३९।।।
अष्टमे वत्सरे मे तु पिता वै निधनं गतः ।
वाराणस्यामधीत्यैव किञ्चिन्मात्रं शुभक्रियम् ।।1.514.४०।।
तीर्थानि भ्रममाणोऽत्राऽऽयातो यास्यामि गोमतीम् ।
प्रभासं च ततः शुक्लं तीर्थ ततः पुनर्गृहम् ।।४१ ।।
इति श्रुत्वा तथा पुत्र्या वृत्तिं ज्ञात्वा सुतापिता ।
प्राह चेन्मे सुतां त्वत्र गृह्णासि ते ददाम्यहम् ।।४१।।
तथेत्युक्त्वा स जग्राह चाण्डालो विधिना ततः ।
विवाहोत्तरकाले स विलासानकरोद् बहून् ।।।०ऽ३।।
खाद्यैः पानैः सुवस्त्रैश्च द्विजयोग्यैः समुत्सवैः ।
परं स व्रजति प्रायो येन मार्गेण केनचित् ।।४४।।
सारमेया भषन्त्येनं पृष्ठतोऽनुव्रजन्ति च ।
विप्रयोगे वेदवाक्यं यदि चोच्चरति क्वचित् ।।४५।।
रक्तं पतति वक्त्राच्च तत्क्षणात् तस्य दुर्मतेः ।
स्वप्ने च जल्पनां चक्रे मलनिष्कासनक्रियाम् ।।४६ ।।
एवं चिह्नैरयं किश्चिच्चाण्डालेति विशंकितः ।
जनैः शंकाविनाशाय दैवी शुद्धिरपेक्षिता ।।४७।।
तप्तायसं करे धृत्वा शुद्धिशंका निवर्तते ।
तथा कार्यं त्वया प्रातर्न चेद् दग्धोऽसि वै द्विजः ।।४८।।
दग्धश्चेदन्यजातीय इति वै निश्चयो भवेत् ।
अथ रात्रौ निजां भार्यां प्रोवाचाऽहं न वै द्विजः ।।४९।।
अस्मि त्वन्त्यजजातीयो ज्ञातश्च शंकितो जनैः ।
देशान्तरं गमिष्यामि त्वमागच्छ मया सह ।।1.514.५०।।
पत्नी प्राह मम भाग्ये दुष्टं वह्न्यर्थमेव ह ।
पापसन्दूषितं सर्वं कुटुम्बं मम वर्ष्म च ।।५१ ।।
गच्छ रात्रौ बहिर्नो चेत् संप्राप्स्यसि महापदम् ।
इत्युक्तः स ययौ देशान्तरं रात्रौ भयात् खलु ।।५२।।
प्रभाते दुहिता बाष्पनेत्रा प्रोवाच मातरम् ।
मातः पूर्वं मम पापं दत्ताऽहमन्त्यजस्य यत् ।।५३।।
स प्रयातो मध्यरात्रौ समावेद्य निजं कुलम् ।
ममाऽग्निस्नानमेवाऽस्ति शुद्धिर्नान्या भुवस्तले ।।५४।।
पिता ज्ञात्वा शुशोचाति त्वन्येऽपि शोकमाव्रजन् ।
विप्राः सर्वे मिलित्वा च प्रायश्चित्तं प्रशोधकम् ।।५५ ।।
कन्यायाश्च तदा प्राहुर्वह्निप्रवेशनं ततः ।
अन्येषां तस्य संसर्गे गतानां तु व्रतानि वै ।।५६ ।।
अथ काष्ठानि चादाय वह्निं दत्वा तु कन्यका ।
नत्वा पितॄन् सुरान् स्मृत्वा समारोहति यावता ।।५७।।
'ओं नमः श्रीकृष्णनारायणाय पतये नमः' ।
जपमेवं प्रकुर्वाणा ददौ पादं हुताशने ।।५८।।
तावद्वह्निः शीतलश्च नाऽदह्यत् तां दयावशः ।
नाऽस्या दोषोऽस्ति तस्मात् सा राजस्वल्येन शुद्ध्यति ।।५९।।
अथ तावत् समायातः कृष्णनारायणः प्रभुः ।
साधुवेषो वैष्णवश्च धर्मशास्त्रादिपण्डितः ।।1.514.६ ०।।
त्रिकालज्ञः स्वयं लक्ष्मीपतिः श्रीपुरुषोत्तमः ।
प्राह किं जायते चेयं कथं दह्यति चानले ।।६१ ।।
लोका निवेदयामासुर्वृत्तान्तं संगजं ततः ।
प्राह तान् श्रीकृष्णनारायणः स्वामी दयापरः ।।६२।।
मया पूर्वं श्रुतं स्वर्गे चमत्कारपुरे नदी ।
नागलीलाऽभिधा कृष्णपत्नी गोलोकधामतः ।।६ ३ ।।
पावनार्थं श्वपचादिसंगमाद्यघकारिणाम् ।
वर्तते तज्जले स्नात्वा शुद्ध्यन्ति श्वपचादयः ।।६४।।
तस्माद् गच्छत तत्रैव स्नानं कुरुत सर्वथा ।
वह्निः श्रुत्वा तथेत्याह ततः सर्वे ययुर्नदीम् ।।६५ ।।
कन्यैका श्रीकृष्णनारायणं दृष्ट्वाऽभिसंययौ ।
नत्वा त्वं स्वामिनं प्राह गृहीत्वा तत्करं मुदा ।।६६।।
तीर्थं त्वन्त्यजपापघ्नं नातिदूरेऽस्ति वै ह्रदः ।
समायात च कुरुत स्नानं तत्र द्विजेश्वराः ।।६७।।
तयोक्तास्ते तया साकं गत्वा सस्नुश्च साम्बराः ।
विप्रकन्या यदा स्नाता तदा तस्याः शरीरतः ।।६८।।
श्वपची कृष्णवर्णा तु निर्गता स्नानमात्रतः ।
अन्येषामपि देहेभ्यः काका घूकाः पीपिलिकाः ।।६९।।
कृष्णवर्णा निर्गताश्च ययुर्देशं तु पश्चिमम् ।
सहस्रयोजनात्पारं अब्रिक्ते भूतले तदा ।।1.514.७०।।
एते विप्रा पावनाश्च ब्राह्मणी शुद्धतां गता ।
एवं सर्वे समायाता नगरं स्वस्वकाश्रमम् ।।७१ ।।
कन्यका ब्राह्मणी पश्चाद् ब्रह्मचर्यपरायणा ।
ह्यवर्तत सती साध्वी कृष्णस्वामिपतिव्रता ।।७२।।
नागवतीं सदा याति स्नानार्थं तु तदा नदी ।
नित्यं वै कन्यका भूत्वा ब्राह्मण्या सह मन्दिरे ।।७३।।
कृष्णनारायणस्वामिदर्शनार्थं प्रयाति च ।
प्राप्ते तु ब्राह्मणपुत्र्या आयुषस्तु क्षये हरिः ।।७४।।
नदीं च तां ब्राह्मणीं च दिव्यरूपां विधाय च ।
गोलोकं श्रीकृष्णनारायणो निनाय ते ह्युभे ।।७५।।
दिव्यरत्नसुनद्धेन कोटिसूर्यप्रभावता ।
विमानेन पतिं कृष्णं प्राप्य ते ययतुर्मुदा ।।७६।।
गोलोकं धाम नित्यं यद् राधारमादिशोभितम् ।
अथ ब्रह्मापि कुलटाशापादत्र सुतीर्थके ।।७७।।
पुरा वै कुलटाशापात् प्रमुक्तः संबभूव ह ।
इत्येवं कथितं लक्ष्मि! पावनं तीर्थमुत्तमम् ।।७८।।
यत्र स्नानेन वै शुद्धिः सर्वा निर्वाहमेति हि ।
पठनाच्छ्रवणाच्चास्य सदा शुद्ध्यति मानवः ।।७९।।
मन्त्रं प्राप्य गुरुं नत्वा नागवत्यां समाहितः ।
स्नायाद् यः स भवेच्छुद्धः कृष्णवन्नात्र संशयः ।।1.514.८०।।
इति श्रीलक्ष्मीनाराणीयसंहितायां प्रथमे कृतयुगसन्ताने गोलोके राधिकायाः शापाद् नागलीलासख्या नागवतीनदीत्वं, यस्यां स्नानेन घूककर्णचाण्डालेन विवाहिताया ब्राह्मणकन्यया ब्राह्मणानां च शुद्धिर्जाता, ततो ब्राह्मणकन्या नागवतीनदी च दिव्यकन्यके भूत्वा श्रीकृष्णनारायणेन सह गोलोकं
ययतुरित्यादिनिरूपणनामा चतुर्दशाधिकपञ्चशततमोऽध्यायः ।।५१४।।।




स्नानमात्रेण तु शुद्धिप्रदा त्वं वै भविष्यसि ।
इत्युक्ता राधया नत्वा ययौ सा भूतलं तदा ।।२५।।

आनर्तीयाऽऽभीरवर्यगृहे जाता हि कन्यका ।
श्यामसुरः पिता तस्या नागलीलेतिनामतः ।।२६।।

जातिस्मरा त्वाजुहाव माता च राणिका तथा ।
मुमोद कन्यकां लब्ध्वोज्ज्वला दिव्यस्वरूपिणीम् ।।२७।।

सरस्तीरे गवां शकृद्गृह्णाना तु दिवा सदा ।
गोमण्डले भ्रमत्येव तां दृष्ट्वाऽऽभीरबालकः ।।२८।।

युवा तां धर्षयामास युवतीं रूपशालिनीम् ।
सा स्मृत्वा राधिकाशापं जलरूपा बभूव ह ।।२९।।

नागनदी तु सा जाता कृष्णस्यैव प्रिया सखी ।
यस्यां स्नानेन चाण्डालगृहिणी ब्राह्मणी भवेत् ।। 1.514.३ ०।।

पाताल खण्ड पद्मपुराण कृष्ण चरित्र-


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ऋषय ऊचुः -
सम्यक्छ्रुतो महाभाग त्वत्तो रामाश्वमेधकः ।
इदानीं वद माहात्म्यं श्रीकृष्णस्य महात्मनः १।
सूत उवाच-।
शृण्वंतु मुनिशार्दूलाः श्रीकृष्णचरितामृतम् ।
शिवा पप्रच्छ भूतेशं यत्तद्वः कीर्तयाम्यहम् २।
एकदा पार्वती देवी शिवं संस्निग्धमानसा ।
प्रणयेन नमस्कृत्य प्रोवाच वचनं त्विदम् ३।
पार्वत्युवाच-।
अनंतकोटिब्रह्मांड तद्बाह्याभ्यंतरस्थितेः ।
विष्णोः स्थानं परं तेषां प्रधानं वरमुत्तमम् ४।
यत्परं नास्ति कृष्णस्य प्रियं स्थानं मनोरमम् ।
तत्सर्वं श्रोतुमिच्छामि कथयस्व महाप्रभो ५।
ईश्वर उवाच-।
गुह्याद्गुह्यतरं गुह्यं परमानंदकारकम् ।
अत्यद्भुतं रहःस्थानमानंदं परमं परम् ६।
दुर्लभानां च परमं दुर्लभं मोहनं परम् ।
सर्वशक्तिमयं देवि सर्वस्थानेषु गोपितम् ७।
सात्वतां स्थानमूर्द्धन्यं विष्णोरत्यंतदुर्लभम् ।
नित्यं वृंदावनं नाम ब्रह्मांडोपरि संस्थितम् ८।
पूर्णब्रह्मसुखैश्वर्यं नित्यमानंदमव्ययम् ।
वैकुंठादि तदंशांशं स्वयं वृंदावनं भुवि ९।
गोलोकैश्वर्यं यत्किंचिद्गोकुले तत्प्रतिष्ठितम् ।
वैकुंठवैभवं यद्वै द्वारिकायां प्रतिष्ठितम् १०।
यद्ब्रह्मपरमैश्वर्यं नित्यं वृंदावनाश्रयम् ।
कृष्णधामपरं तेषां वनमध्ये विशेषतः ११।
तस्मात्त्रैलोक्यमध्ये तु पृथ्वी धन्येति विश्रुता ।
यस्मान्माथुरकं नाम विष्णोरेकांतवल्लभम् १२।
स्वस्थानमधिकं नामधेयं माथुरमंडलम् ।
निगूढं विविधं स्थानं पुर्यभ्यंतरसंस्थितम् १३।
सहस्रपत्रकमलाकारं माथुरमंडलम् ।
विष्णुचक्रपरिभ्रामाद्धाम वैष्णवमद्भुतम् १४।
कर्णिकापर्णविस्तारं रहस्यद्रुममीरितम् ।
प्रधानं द्वादशारण्यं माहात्म्यं कथितं क्रमात् १५।
भद्र श्री लोह भांडीर महाताल खदीरकाः ।
बकुलं कुमुदं काम्यं मधु वृंदावनं तथा १६।
द्वादशैतावती संख्या कालिंद्याः सप्त पश्चिमे ।
पूर्वे पंचवनं प्रोक्तं तत्रास्ति गुह्यमुत्तमम् १७।
महारण्यं गोकुलाख्यं मधु वृंदावनं तथा ।
अन्यच्चोपवनं प्रोक्तं कृष्णक्रीडारसस्थलम् १८।
कदंबखंडनं नंदवनं नंदीश्वरं तथा ।
नंदनंदनखंडं च पलाशाशोककेतकी १९।
सुगंधमानसं कैलममृतं भोजनस्थलम् ।
सुखप्रसाधनं वत्सहरणं शेषशायिकम् २०।
श्यामपूर्वो दधिग्रामश्चक्रभानुपुरं तथा ।
संकेतं द्विपदं चैव बालक्रीडनधूसरम् २१।
कामद्रुमं सुललितमुत्सुकं चापि काननम् ।
नानाविधरसक्रीडा नानालीलारसस्थलम् २२।
नागविस्तारविष्टंभं रहस्यद्रुममीरितम् ।
सहस्रपत्रकमलं गोकुलाख्यं महत्पदम् २३।
कर्णिकातन्महद्धाम गोविंदस्थानमुत्तमम् ।
तत्रोपरि स्वर्णपीठे मणिमंडपमंडितम् २४।
कर्णिकायां क्रमाद्दिक्षु विदिक्षु दलमीरितम् ।
यद्दलं दक्षिणे प्रोक्तं परं गुह्योत्तमोत्तमम् २५।
तस्मिन्दले महापीठं निगमागमदुर्गमम् ।
योगींद्रैरपि दुष्प्रापं सर्वात्मा यच्च गोकुलम् २६।
द्वितीयं दलमाग्नेय्यां तद्रहस्यदलं तथा ।
संकेतं द्विपदं चैव कुटीद्वौ तत्कुले स्थितौ २७।
पूर्वं दलं तृतीयं च प्रधानस्थानमुत्तमम् ।
गंगादिसर्वतीर्थानां स्पर्शाच्छतगुणं स्मृतम् २८।
चतुर्थं दलमैशान्यां सिद्धपीठेऽपि तत्पदम् ।
व्यायामनूतनागोपी तत्र कृष्णं पतिं लभेत् २९।
वस्त्रालंकारहरणं तद्दले समुदाहृतम् ।
उत्तरे पंचमं प्रोक्तं दलं सर्वदलोत्तमम् ३०।
द्वादशादित्यमत्रैव दलं च कर्णिकासमम् ।
वायव्यां तु दलं षष्ठं तत्र कालीह्रदः स्मृतः ३१।
दलोत्तमोत्तमं चैव प्रधानं स्थानमुच्यते ।
सर्वोत्तमदलं चैव पश्चिमे सप्तमं स्मृतम् ३२।
यज्ञपत्नीगणानां च तदीप्सितवरप्रदम् ।
अत्रासुरोऽपि निर्वाणं प्राप त्रिदशदुर्लभम् ३३।
ब्रह्ममोहनमत्रैव दलं ब्रह्मह्रदावहम् ।
नैर्ऋत्यां तु दलं प्रोक्तमष्टमं व्योमघातनम् ३४।
शंखचूडवधस्तत्र नानाकेलिरसस्थलम् ।
श्रुतमष्टदलं प्रोक्तं वृंदारण्यांतरस्थितम् ३५।
श्रीमद्वृंदावनं रम्यं यमुनायाः प्रदक्षिणम् ।
शिवलिंगमधिष्ठानं दृष्टं गोपीश्वराभिधम् ३६।
तद्बाह्ये षोडशदलं श्रियापूर्णं तमीश्वरम् ।
सर्वासु दिक्षु यत्प्रोक्तं प्रादक्षिण्याद्यथाक्रमम् ३७।
महत्पदं महद्धाम स्वधामाधावसंज्ञकम् ।
प्रथमैकदलं श्रेष्ठं माहात्म्यं कर्णिकासमम् ३८।
तत्र गोवर्द्धनगिरौ रम्ये नित्यरसाश्रये ।
कर्णिकायां महालीला तल्लीला रसगह्वरौ ३९।
यत्र कृष्णो नित्यवृंदाकाननस्य पतिर्भवेत् ।
कृष्णो गोविंदतां प्राप्तः किमन्यैर्बहुभाषितैः ४०।
दलं तृतीयमाख्यातं सर्वश्रेष्ठोत्तमोत्तमम् ।
चतुर्थं दलमाख्यातं महाद्भुतरसस्थलम् ४१।
नंदीश्वरवनं रम्यं तत्र नंदालयः स्मृतः ।
कर्णिकादलमाहात्म्यं पंचमं दलमुच्यते ४२।
अधिष्ठाताऽत्र गोपालो धेनुपालनतत्परः ।
षष्ठं दलं यदाख्यातं तत्र नंदवनं स्मृतम् ४३।
सप्तमं बकुलारण्यं दलं रम्यं प्रकीर्तितम् ।
तत्राष्टमं तालवनं तत्र धेनुवधः स्मृतः ४४।
नवमं कुमुदारण्यं दलं रम्यं प्रकीर्तितम् ।
कामारण्यं च दशमं प्रधानं सर्वकारणम् ४५।
ब्रह्मप्रसाधनं तत्र विष्णुच्छद्मप्रदर्शनम् ।
कृष्णक्रीडारसस्थानं प्रधानं दलमुच्यते ४६।
दलमेकादशं प्रोक्तं भक्तानुग्रहकारणम् ।
निर्माणं सेतुबंधस्य नानावनमयस्थलम् ४७।
भांडीरं द्वादशदलं वनं रम्यं मनोहरम् ।
कृष्णः क्रीडारतस्तत्र श्रीदामादिभिरावृतः ४८।
त्रयोदशं दलं श्रेष्ठं तत्र भद्रवनं(रं) स्मृतम् ।
चतुर्दशदलं प्रोक्तं सर्वसिद्धिप्रदस्थलम् ४९।
श्रीवनं तत्र रुचिरं सर्वैश्वर्यस्य कारणम् ।
कृष्णक्रीडादलमयं श्रीकांतिकीर्तिवर्द्धनम् ५०।
दलं पंचदशं श्रेष्ठं तत्र लोहवनं स्मृतम् ।
कथितं षोडशदलं माहात्म्यं कर्णिकासमम् ५१।
महावनं तत्र गीतं तत्रास्ति गुह्यमुत्तमम् ।
बालक्रीडारतस्तत्र वत्सपालैः समावृतः ५२।
पूतनादिवधस्तत्र यमलार्जुनभंजनम् ।
अधिष्ठाता तत्र बालगोपालः पंचमाब्दिकः ५३।
नाम्ना दामोदरः प्रोक्तः प्रेमानंदरसार्णवः ।
दलं प्रसिद्धमाख्यातं सर्वश्रेष्ठदलोत्तमम् ५४।
कृष्णक्रीडा च किंजल्की विहारदलमुच्यते ।
सिद्धप्रधानकिंजल्क दलं च समुदाहृतम् ५५।
पार्वत्युवाच-।
वृंदारण्यस्य माहात्म्यं रहस्यं वा किमद्भुतम् ।
तदहं श्रोतुमिच्छामि कथयस्व महाप्रभो ५६।
ईश्वर उवाच-।
कथितं ते प्रियतमे गुह्याद्गुह्योत्तमोत्तमम् ।
रहस्यानां रहस्यं यद्दुर्लभानां च दुर्लभम् ५७।
त्रैलोक्यगोपितं देवि देवेश्वरसुपूजितम् ।
ब्रह्मादिवांछितं स्थानं सुरसिद्धादिसेवितम् ५८।
योगींद्रा हि सदा भक्त्या तस्य ध्यानैकतत्पराः ।
अप्सरोभिश्च गंधर्वैर्नृत्यगीतनिरंतरम् ५९।
श्रीमद्वृंदावनं रम्यं पूर्णानंदरसाश्रयम् ।
भूरिचिंतामणिस्तोयममृतं रसपूरितम् ६०।
वृक्षं गुरुद्रुमं तत्र सुरभीवृंदसेवितम् ।
स्त्रीं लक्ष्मीं पुरुषं विष्णुं तद्दशांशसमुद्भवम् ६१।
तत्र कैशोरवयसं नित्यमानंदविग्रहम् ।
गतिनाट्यं कलालापस्मितवक्त्रं निरंतरम् ६२।
शुद्धसत्वैः प्रेमपूर्णैर्वैष्णवैस्तद्वनाश्रितम् ।
पूर्णब्रह्मसुखेमग्नं स्फुरत्तन्मूर्तितन्मयम् ६३।
मत्तकोकिलभृंगाद्यैः कूजत्कलमनोहरम् ।
कपोलशुकसंगीतमुन्मत्तालि सहस्रकम् ६४।
भुजंगशत्रुनृत्याढ्यं सकलामोदविभ्रमम् ।
नानावर्णैश्च कुसुमैस्तद्रेणुपरिपूरितम् ६५।
पूर्णेंदुनित्याभ्युदयं सूर्यमंदांशुसेवितम् ।
अदुःखं दुःखविच्छेदं जरामरणवर्जितम् ६६।
अक्रोधं गतमात्सर्यमभिन्नमनहंकृतम् ।
पूर्णानंदामृतरसं पूर्णप्रेमसुखार्णवम् ६७।
गुणातीतं महद्धाम पूर्णप्रेमस्वरूपकम् ।
वृक्षादिपुलकैर्यत्र प्रेमानंदाश्रुवर्षितम् ६८।
किं पुनश्चेतनायुक्तैर्विष्णुभक्तैः किमुच्यते ।
गोविंदांघ्रिरजः स्पर्शान्नित्यं वृंदावनं भुवि ६९।
सहस्रदलपद्मस्य वृंदारण्यं वराटकम् ।
यस्य स्पर्शनमात्रेण पृथ्वी धन्या जगत्त्रये ७०।
गुह्याद्गुह्यतरं रम्यं मध्ये वृंदावनं भुवि ।
अक्षरं परमानंदं गोविंदस्थानमव्ययम् ७१।
गोविंददेहतोऽभिन्नं पूर्णब्रह्मसुखाश्रयम् ।
मुक्तिस्तत्र रजःस्पर्शात्तन्माहात्म्यं किमुच्यते ७२।
तस्मात्सर्वात्मना देवि हृदिस्थं तद्वनं कुरु ।
वृंदावनविहारेषु कृष्णं कैशोरविग्रहम् ७३।
कालिंदी चाकरोद्यस्य कर्णिकायां प्रदक्षिणाम् ।
लीलानिर्वाणगंभीरं जलं सौरभमोहनम् ७४।
आनंदामृत तन्मिश्रमकरंदघनालयम् ।
पद्मोत्पलाद्यैः कुसुमैर्नानावर्णसमुज्जवलम् ७५।
चक्रवाकादिविहगैर्मंजुनानाकलस्वनैः ।
शोभमानं जलं रम्यं तरंगातिमनोरमम् ७६।
तस्योभयतटी रम्या शुद्धकांचननिर्मिता ।
गंगाकोटिगुणा प्रोक्ता यत्र स्पर्शवराटकः ७७।
कर्णिकायां कोटिगुणो यत्र क्रीडारतो हरिः ।
कालिंदीकर्णिका कृष्णमभिन्नमेकविग्रहम् ७८।
पार्वत्युवाच।
गोविंदस्य किमाश्चर्यं सौंदर्याकृतविग्रह ।
तदहं श्रोतुमिच्छामि कथयस्व दयानिधे ७९।
ईश्वर उवाच।
मध्ये वृंदावने रम्ये मंजुमंजीरशोभिते ।
योजनाश्रितसद्वृक्ष शाखापल्लवमंडिते ८०।
तन्मध्ये मंजुभवने योगपीठं समुज्जवलम् ।
तदष्टकोणनिर्माणं नानादीप्तिमनोहरम् ८१।
तस्योपरि च माणिक्यरत्नसिंहासनं शुभम् ।
तस्मिन्नष्टदलं पद्मं कर्णिकायां सुखाश्रयम् ८२।
गोविंदस्य परं स्थानं किमस्य महिमोच्यते ।
श्रीमद्गोविंदमंत्रस्थ बल्लवीवृंदसेवितम् ८३।
दिव्यव्रजवयोरूपं कृष्णं वृंदावनेश्वरम् ।
व्रजेंद्रं संततैश्वर्यं व्रजबालैकवल्लभम् ८४।
यौवनोद्भिन्नकैशोरं वयसाद्भुतविग्रहम् ।
अनादिमादिं सर्वेषां नंदगोपप्रियात्मजम् ८५।
श्रुतिमृग्यमजं नित्यं गोपीजनमनोहरम् ।
परंधाम परं रूपं द्विभुजं गोकुलेश्वरम् ८६।
बल्लवीनंदनं ध्यायेन्निर्गुणस्यैककारणम् ।
सुश्रीमंतं नवं स्वच्छं श्यामधाममनोहरम् ८७।
नवीननीरदश्रेणी सुस्निग्धं मंजुकुंडलम् ।
फुल्लेंदीवरसत्कांति सुखस्पर्शं सुखावहम् ८८।
दलितांजनपुंजाभ चिक्कणं श्याममोहनम् ।
सुस्निग्धनीलकुटिलाशेषसौरभकुंतलम् ८९।
तदूर्ध्वं दक्षिणे काले श्यामचूडामनोहरम् ।
नानावर्णोज्ज्वलं राजच्छिखंडिदलमंडितम् ९०।
मंदारमंजुगोपुच्छाचूडं चारुविभूषणम् ।
क्वचिद्बृहद्दलश्रेणी मुकुटेनाभिमंडितम् ९१।
अनेकमणिमाणिक्यकिरीटभूषणं क्वचित् ।
लोलालकवृतं राजत्कोटिचंद्रसमाननम् ९२।
कस्तूरीतिलकं भ्राजन्मंजुगोरोचनान्वितम् ।
नीलेंदीवरसुस्निग्ध सुदीर्घदललोचनम् ९३।
आनृत्यद्भ्रूलताश्लेषस्मितं साचि निरीक्षणम् ।
सुचारून्नतसौंदर्य नासाग्राति मनोहरम् ९४।
नासाग्रगजमुक्तांशु मुग्धीकृत जगत्त्रयम् ।
सिंदूरारुणसुस्निग्धाधरौष्ठसुमनोहरम् ९५।
नानावर्णोल्लसत्स्वर्णमकराकृतिकुंडलम् ।
तद्रश्मिपुंजसद्गंड मुकुराभलसद्द्युतिम् ९६।
कर्णोत्पलसुमंदारमकरोत्तंस भूषितम् ।
श्रीवत्सकौस्तुभोरस्कं मुक्ताहारस्फुरद्गलम् ९७।
विलसद्दिव्यमाणिक्यं मंजुकांचन मिश्रितम् ।
करे कंकणकेयूरं किंकिणीकटिशोभितम् ९८।
मंजुमंजीरसौंदर्य्यश्रीमदंघ्रि विराजितम् ।
कर्पूरागुरुकस्तूरीविलसच्चंदनादिकम् ९९।
गोरोचनादिसंमिश्र दिव्यांगरागचित्रितम् ।
स्निग्धपीतपटी राजत्प्रपदांदोलितांजनम् १००।
गंभीरनाभिकमलं रोमराजीनतस्रजम् ।
सुवृत्तजानुयुगलं पादपद्ममनोहरम् १०१।
ध्वजवज्रांकुशांभोज करांघ्रि तलशोभितम् ।
नखेंदु किरणश्रेणी पूर्णब्रह्मैककारणम् १०२।
केचिद्वदंति तस्यांशं ब्रह्मचिद्रूपमद्वयम् ।
तद्दशांशं महाविष्णुं प्रवदंति मनीषिणः १०३।
योगींद्रैः सनकाद्यैश्च तदेव हृदि चिंत्यते ।
त्रिभंगं ललिताशेष निर्माणसारनिर्मितम् १०४।
तिर्यग्ग्रीवजितानंतकोटिकंदर्पसुंदरम् ।
वामांसार्पित सद्गण्डस्फुरत्कांचनकुंडलम् १०५।
सहापांगेक्षणस्मेरं कोटिमन्मथसुंदरम् ।
कुंचिताधरविन्यस्त वंशीमंजुकलस्वनैः १०६।
जगत्त्रयं मोहयंतं मग्नं प्रेमसुधार्णवे ।
श्रीपार्वत्युवाच-।
परमं कारणं कृष्णं गोविंदाख्यं महत्पदम् १०७।
वृंदावनेश्वरं नित्यं निर्गुणस्यैककारणम् ।
तत्तद्रहस्यमाहात्म्यं किमाश्चर्यं च सुंदरम् १०८।
तद्ब्रूहि देवदेवेश श्रोतुमिच्छाम्यहं प्रभो ।
ईश्वर उवाच-।
यदंघ्रिनखचंद्रांशु महिमांतो न गम्यते १०९।
तन्माहात्म्यं कियद्देवि प्रोच्यते त्वं मुदा शृणु ।
अनंतकोटिब्रह्मांडे अनंतत्रिगुणोच्छ्रये ११०।
तत्कलाकोटिकोट्यंशा ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः ।
सृष्टिस्थित्यादिना युक्तास्तिष्ठंति तस्य वैभवाः १११।
तद्रूपकोटिकोट्यंशाः कलाः कंदर्पविग्रहाः ।
जगन्मोहं प्रकुर्वंति तदंडांतरसंस्थिताः ११२।
तद्देहविलसत्कांतिकोटिकोट्यंशको विभुः ।
तत्प्रकाशस्य कोट्यंश रश्मयो रविविग्रहाः ११३।
तस्य स्वदेहकिरणैः परानंद रसामृतैः ।
परमामोदचिद्रूपैर्निर्गुणस्यैककारणैः ११४।
तदंशकोटिकोट्यंशा जीवंति किरणात्मकाः ।
तदंघ्रिपंकजद्वंद्व नखचंद्र मणिप्रभाः ११५।
आहुः पूर्णब्रह्मणोऽपि कारणं वेददुर्गमम् ।
तदंशसौरभानंतकोट्यंशो विश्वमोहनः ११६।
तत्स्पर्शपुष्पगंधादि नानासौरभसंभवः ।
तत्प्रिया प्रकृतिस्त्वाद्या राधिका कृष्णवल्लभा ११७।
तत्कलाकोटिकोट्यंशा दुर्गाद्यास्त्रिगुणात्मिकाः ।
तस्या अंघ्रिरजः स्पर्शात्कोटिविष्णुः प्रजायते ११८।
इति श्रीपद्मपुराणे पातालखंडे वृंदावनमाहात्म्ये कृष्णचरित्रे।
एकोनसप्ततितमोऽध्यायः ६९।




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पार्वत्युवाच-
यदाकर्णनमेतस्य ये वा पारिषदाः प्रभोः ।
तदहं श्रोतुमिच्छामि कथयस्व दयानिधे १।
ईश्वर उवाच।
राधया सह गोविंदं स्वर्णसिंहासनेस्थितम् ।
पूर्वोक्तरूपलावण्यं दिव्यभूषांबरस्रजम् २।
त्रिभंगी मंजु सुस्निग्धं गोपीलोचनतारकम् ।
तद्बाह्ये योगपीठे च स्वर्णसिंहासनावृते ३।
प्रत्यंगरभसावेशाः प्रधानाः कृष्णवल्लभाः ।
ललिताद्याः प्रकृत्यंशा मूलप्रकृतिराधिका ४।
संमुखे ललिता देवी श्यामला वायुकोणके ।
उत्तरे श्रीमती धन्या ऐशान्यां श्रीहरिप्रिया ५।
विशाखा च तथा पूर्वे शैब्या चाग्नौ ततः परम् ।
पद्मा च दक्षिणे पश्चान्नैर्ऋते क्रमशः स्थिताः ६।
योगपीठे केसराग्रे चारु चंद्रावती प्रिया ।
अष्टौ प्रकृतयः पुण्याः प्रधानाः कृष्णवल्लभाः ७।
प्रधानप्रकृतिस्त्वाद्या राधा चंद्रावती समा ।
चंद्रावली चित्ररेखा चंद्रा मदनसुंदरी ८।
प्रिया च श्रीमधुमती चंद्ररेखा हरिप्रिया ।
षोडशाद्याः प्रकृतयः प्रधानाः कृष्णवल्लभाः ९।
वृंदावनेश्वरी राधा तथा चंद्रावली प्रिया ।
अभिन्नगुणलावण्य सौंदर्याश्चारुलोचनाः १०।
मनोहरा मुग्धवेषाः किशोरीवयसोज्ज्वलाः ।
अग्रेतनास्तथा चान्या गोपकन्याः सहस्रशः ११।
शुद्धकांचनपुंजाभाः सुप्रसन्नाः सुलोचनाः ।
तद्रूपहृदयारूढास्तदाश्लेष समुत्सुकाः १२।
श्यामामृतरसे मग्नाः स्फुरत्तद्भावमानसाः ।
नेत्रोत्पलार्चिते कृष्णपादाब्जेऽपितचेतसः १३।
श्रुतिकन्यास्ततो दक्षे सहस्रायुतसंयुताः ।
जगन्मुग्धीकृताकारा हृद्वर्तिकृष्णलालसाः १४।
नानासत्वस्वरालापमुग्धीकृतजगत्त्रयाः ।
तत्र गूढरहस्यानि गायंत्यः प्रेमविह्वलाः १५।
देवकन्यास्ततः सव्ये दिव्यवेषारसोज्ज्वलाः ।
नानावैदिग्ध्यनिपुणा दिव्यभावभरान्विताः १६।
सौंदर्यातिशयेनाढ्याः कटाक्षातिमनोहराः ।
निर्लज्जास्तत्र गोविंदे तदंगस्पर्शनोद्यताः १७।
तद्भावमग्नमनसः स्मितसाचि निरीक्षणाः ।
मंदिरस्य ततो बाह्ये प्रियया विशदावृते १८।
समानवेषवयसः समानबलपौरुषाः ।
समानगुणकर्माणः समानाभरणप्रियाः १९।
समानस्वरसंगीत वेणुवादनतत्पराः ।
श्रीदामा पश्चिमे द्वारे वसुदामा तथोत्तरे २०।
सुदामा च तथा पूर्वे किंकिणी चापि दक्षिणे ।
तद्बाह्ये स्वर्णपीठे च सुवर्णमंदिरावृते २१।
स्वर्णवेद्यंतरस्थे तु स्वर्णाभरणभूषिते ।
स्तोककृष्णं सुभद्राद्यैर्गोपालैरयुतायुतैः २२।
शृंगवीणावेणुवेत्रवयोवेषाकृतिस्वरैः ।
तद्गुणध्यानसंयुक्तैर्गायद्भिरपि विह्वलैः २३।
चित्रार्पितैश्चित्ररूपैः सदानंदाश्रुवर्षिभिः ।
पुलकाकुलसर्वांगैर्योगींद्रैरिव विस्मितैः २४।
क्षरत्ययोभिर्गोविंदैरसंख्यातैरुपावृतम् ।
तद्बाह्ये स्वर्णप्राकारे कोटिसूर्यसमुज्जवले २५।
चतुर्दिक्षुमहोद्यानं मंजुसौरभमोहिते ।
पश्चिमे संमुखे श्रीमत्पारिजातद्रुमाश्रये २६।
तदधस्तु स्वर्णपीठे स्वर्णमंडनमंडिते ।
तन्मध्ये मणिमाणिक्य दिव्यसिंहासनोज्ज्वले २७।
तत्रोपरि परानंदं वासुदेवं जगत्प्रभुम् ।
त्रिगुणातीतचिद्रूपं सर्वकारणकारणम् २८।
इंद्रनीलघनश्यामं नीलकुंचितकुंतलम् ।
पद्मपत्रविशालाक्षं मकराकृतिकुंडलम् २९।
चतुर्भुजं तु चक्रासिगदाशंखांबुजायुधम् ।
आद्यंतरहितं नित्यं प्रधानं पुरुषोत्तमम् ३०।
ज्योतीरूपं महद्धाम पुराणं वनमालिनम् ।
पीतांबरधरं स्निग्धं दिव्यभूषणभूषितम् ३१।
दिव्यानुलेपनं राजच्चित्रितांग मनोहरम् ।
रुक्मिणी सत्यभामा च नाग्नजिती सुलक्षणा ३२।
मित्रविंदानुविंदा सुनंदा जांबवती प्रिया ।
सुशीला चाष्टमहिला वासुदेवप्रियास्ततः ३३।
उद्भ्राजिताः पारिषदा वृतयोर्भक्तितत्पराः ।
उत्तरे सुमहोद्याने हरिचंदनसंश्रये ३४।
तत्राधस्तु स्वर्णपीठे मणिमंडपमंडिते ।
तन्मध्ये हेमनिर्माणदले सिंहासनोज्जवले ३५।
तत्रैव सह रेवत्या संकर्षण हलायुधम् ।
ईश्वरस्य प्रियानंतमभिन्नगुणरूपिणम् ३६।
शुद्धस्फटिकसंकाशं रक्तांबुज दलेक्षणम् ।
नीलपट्टधरं स्निग्धं दिव्यभूषास्रगंबरम् ३७।
मधुपाने सदासक्तं मधुघूर्णितलोचनम् ।
प्रवीरदक्षिणेभागे मंजुनाभ्यंतरस्थिते ३८।
संतानवृक्षमूले तु मणिमंदिरमंडितम् ।
तन्मध्ये मणिमाणिक्य दिव्यसिंहासनोज्ज्वले ३९।
प्रद्युम्नं च रती देवं तत्रोपरिसुखस्थितम् ।
जगन्मोहनसौंदर्य्यसारश्रेणीरसात्मकम् ४०।
असितांभोजपुंजाभमरविंददलेक्षणम् ।
दिव्यालंकारभूषाभिर्दिव्यगंधानुलेपनम् ४१।
जगन्मुग्धीकृताशेष सौंदर्याश्चर्यविग्रहम् ।
पूर्वोद्याने महारण्ये सुरद्रुम समाश्रये ४२।
तत्राधस्तु स्वर्णपीठे हेममंडपमंडिते ।
तस्य मध्ये स्थिरे राजद्दिव्यसिंहासनोज्ज्वले ४३।
दिव्योषयासमं श्रीमदनिरुद्धं जगत्पतिम् ।
सांद्रानंदघनश्यामं सुस्निग्धं नीलकुंतलम् ४४।
सुभ्रून्नतलताभंगीं सुकपोलं सुनासिकम् ।
सुग्रीवं सुंदरं वक्षो मनोहर मनोहरम् ४५।
किरीटिनं कुंडलिनं कंठभूषाविभूषितम् ।
मंजुमंजीरमाधुर्यादतिसौंदर्य विग्रहम् ४६।
प्रियभृत्यगणाराध्यं यत्र संगीतकप्रियम् ।
पूर्णब्रह्मसदानंदं शुद्धसत्वस्वरूपकम् ४७।
तस्योर्द्ध्वे चांतरिक्षे च विष्णुं सर्वेश्वरेश्वरम् ।
अनादिमादिचिद्रूपं चिदानंदं परं विभुम् ४८।
त्रिगुणातीतमव्यक्तं नित्यमक्षयमव्ययम् ।
समेघपुंजमाधुर्यसौंदर्यश्यामविग्रहम् ४९।
नीलकुंचितसुस्निग्ध केशपाशातिसुंदरम् ।
अरविंददलस्निग्ध सुदीर्घचारुलोचनम् ५०।
किरीटकुंडलोद्गंड शुद्धसत्वात्मभिर्वृतम् ।
आत्मारामैश्च चिद्रूपैस्तन्मूर्तिध्यानतत्परैः ५१।
हृदयारूढ तद्ध्य्नौर्नासाग्रन्यस्तलोचनैः ।
क्रियतेऽहैतुकीभक्तिः कायहृद्वृत्तिभाषितैः ५२।
तत्सव्ये यक्षगंधर्वसिद्धविद्याधरादिभिः ।
सुकांतैरप्सरःसंघैर्नृत्यसंगीततत्परैः ५३।
तदंगभजनं कामं वांछद्भिः कृष्णलालसैः ।
तदग्रे वैष्णवैः सर्वैश्चांतरिक्षे सुखासने ५४।
प्रह्लादनारदाद्यैश्च कुमारशुकवैष्णवैः ।
जनकाद्यैर्लसद्भावैर्हृद्बाह्य स्फूर्तितत्परैः ५५।
पुलकाकुलसर्वांगैः स्फुरत्प्रेमसमाकुलैः ।
रहस्यामृतसंसिक्तैरर्द्धयुग्माक्षरो मनुः ५६।
मंत्रचूडामणिः प्रोक्तः सर्वमंत्रैककारणम् ।
सर्वदेवस्य मंत्राणां कैशोरं मंत्रहेतुकम् ५७।
सर्वकैशोरमंत्राणां हेतुश्चूडामणिर्मनुः ।
जपं कुर्वंति मनसा पूर्णप्रेमसुखाश्रयाः ५८।
वांछंति तत्पदांभोजे निश्चलं प्रेमसाधनम् ।
तद्बाह्ये स्फटिकाद्युच्च प्रावारे सुमनोहरे ५९।
कुंकुमैः सितरक्ताद्यैश्चतुर्दिक्षु समाकुलैः ।
शुक्लं चतुर्भुजं विष्णुं पश्चिमे द्वारपालकम् ६०।
शंखचक्रगदापद्मकिरीटादि विभूषितम् ।
रक्तं चतुर्भुजं पद्मशंखचक्रगदायुधम् ६१।
किरीटकुंडलोद्दीप्त द्वारपालकमुत्तरे ।
गौरं चतुर्भुजं विष्णुं शुखचक्रगदायुधम् ६२।
किरीटकुंडलाद्यैश्च शोभितं वनमालिनम् ।
पूर्वद्वारे द्वारपालं गौरं विष्णुं प्रकीर्तितम् ६३।
कृष्णवर्णं चतुर्बाहुं शंखचक्रादिभूषणम् ।
दक्षिणद्वारपालं तु श्रीविष्णुंकृष्णवर्णकम् ६४।
श्रीकृष्णचरितं ह्येतद्यः पठेत्प्रयतः शुचिः ।
शृणुयाद्वापि यो भक्त्या गोविंदे लभते रतिम् ६५।
इति श्रीपद्मपुराणे पातालखंडे कृष्णचरिते सप्ततितमोऽध्यायः ७०।






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श्रीदेव्युवाच-
भगवन्सर्वभूतेश सर्वात्मन्सर्वसंभव ।
देवेश्वर महादेव सर्वज्ञ करुणाकर १।
त्वयानुकंपितैवाहं भूयोऽप्याहानुकंपया ।
त्रैलोक्यमोहना मंत्रास्त्वया मे कथिताः प्रभो २।
तेन देवेन गोपीभिर्महामोहनरूपिणा ।
केन केन विशेषण चिक्रीडे तद्वदस्व मे ३।
महादेव उवाच।
एकदा वादयन्वीणां नारदो मुनिपुंगवः ।
कृष्णावतारमाज्ञाय प्रययौ नंदगोकुलम् ४।
गत्वा तत्र महायोगमयेशं विभुमच्युतम् ।
बालनाट्यधरं देवदर्शनं नंदवेश्मनि ५।
सुकोमलपटास्तीर्णहेमपर्यंकिकोपरि ।
शयानं गोपकन्याभिः प्रेक्षमाणं सदा मुदम् ६।
अतीव सुकुमारांगं मुग्धं मुग्धविलोकनम् ।
विस्रस्तनीलकुटिलकुंतलावनिमंडलम् ७।
किंचित्स्मितांकुरव्यंजदेकद्विरदकुड्मलम् ।
स्वप्रभाभिर्भासयंतं समंताद्भवनोदरम् ८।
दिग्वाससं समालोक्य सोऽतिहर्षमवाप ह ।
संभाष्य गोपतिं नंदमाह सर्वप्रभुप्रियः ९।
नारायणपराणां तु जीवनं ह्यतिदुर्लभम् ।
अस्य प्रभावमतुलं न जानंतीह केचन १०।
भव ब्रह्मादयोऽप्यस्मिन्रतिं वांच्छन्ति शाश्वतीम् ।
चरितं चास्य बालस्य सर्वेषामेव हर्षणम् ११।
मुदा गायंति शृण्वंति चाभिनंदंति तादृशाः ।
अस्मिंस्तव सुतेऽचिंत्यप्रभावे स्निग्धमानसाः १२।
नराः संति न तेषां वै भवबाधा भविष्यति ।
मुंचेह परलोकेच्छाः सर्वा बल्लवसत्तम १३।
एकांतेनैकभावेन बालेऽस्मिन्प्रीतिमाचर ।
इत्युक्त्वा नंदभवनान्निष्क्रांतो मुनिपुंगवः १४।
तेनार्चितो विष्णुबुद्ध्या प्रणम्य च विसर्जितः ।
अथासौ चिंतयामास महाभागवतो मुनिः १५।
अस्य कांता भगवती लक्ष्मीर्नारायणे हरौ ।
विधाय गोपिकारूपं क्रीडार्थं शार्ङ्गधन्वनः १६।
अवश्यमवतीर्णा सा भविष्यति न संशयः ।
तामहं विचिनोम्यद्य गेहेगेहे व्रजौकसाम् १७।
विमृश्यैवं मुनिवरो गेहानि व्रजवासिनाम् ।
प्रविवेशातिथिर्भूत्वा विष्णुबुद्ध्या सुपूजितः १८।
सर्वेषां बल्लवादीनां रतिं नंदसुते पराम् ।
दृष्ट्वा मुनिवरः सर्वान्मनसा प्रणनाम ह १९।
गोपालानां गृहे बालां ददर्श श्वेतरूपिणीम् ।
स दृष्ट्वा तर्कयामास रमा ह्येषा न संशयः २०।
प्रविवेश ततो धीमान्नंदसख्युर्महात्मनः ।
कस्यचिद्गोपवर्य्यस्य भानुनाम्नो गृहं महत् २१।
अर्चितो विधिवत्तेन सोऽप्यपृच्छन्महामनाः ।
साधो त्वमसि विख्यातो धर्मनिष्ठतया भुवि २२।
तवाहं धनधान्यादि समृद्धिं संविभावये ।
कच्चित्ते योग्यः पुत्रोऽस्ति कन्या वा शुभलक्षणा २३।
यतस्ते कीर्तिरखिलं लोकं व्याप्य भविष्यति ।
इत्युक्तो मुनिवर्य्येण भानुरानीय पुत्रकम् २४।
महातेजस्विनं दृप्तं नारदायाभ्यवादयत् ।
दृष्ट्वा मुनिवरस्तं तु रूपेणाप्रतिमं भुवि २५।
पद्मपत्रविशालाक्षं सुग्रीवं सुंदरभ्रुवम् ।
चारुदंतं चारुकर्णं सर्वावयवसुंदरम् २६।
तं समाश्लिष्य बाहुभ्यां स्नेहाश्रूणि विमुच्य च ।
ततः स गद्गद प्राह प्रणयेन महामुनिः २७।
नारद उवाच-।
अयं शिशुस्ते भविता सुसखा रामकृष्णयोः ।
विहरिष्यति ताभ्यां च रात्रिंदिवमतंद्रितः २८।
तत आभाष्य तं गोपप्रवरं मुनिपुंगवः ।
यदा गंतुं मनश्चक्रे तत्रैवं भानुरब्रवीत् २९।
एकास्ति पुत्रिका देव देवपत्न्युपमा मम ।
कनीयसी शिशोरस्य जडांधबधिराकृतिः ३०।
उत्साहाद्वृद्धये याचे त्वां वरं भगवत्तम ।
प्रसन्नदृष्टिमात्रेण सुस्थिरां कुरु बालिकाम् ३१।
श्रुत्वैवं नारदो वाक्यं कौतुकाकृष्टमानसः ।
अथ प्रविश्य भवनं लुठंतीं भूतले सुताम् ३२।
उत्थाप्यांके निधायातिस्नेहविह्वलमानसः ।
भानुरप्याययौ भक्तिनम्रो मुनिवरांतिकम् ३३।
अथ भागवतश्रेष्ठः कृष्णस्यातिप्रियो मुनिः ।
दृष्ट्वा तस्याः परं रूपमदृष्टाश्रुतमद्भुतम् ३४।
अभूत्पूर्वसमं मुग्धो हरिप्रेमा महामुनिः ।
विगाह्य परमानंदसिंधुमेकरसायनम् ३५।
मुहूर्त्तद्वितयं तत्र मुनिरासीच्छिलोपमः ।
मुनींद्रः प्रतिबुद्धस्तु शनैरुन्मील्य लोचने ३६।
महाविस्मयमापन्नस्तूष्णीमेव स्थितोऽभवत् ।
अंतर्हृदि महाबुद्धिरेवमेवं व्यचिंतयत् ३७।
भ्रांतं सर्वेषु लोकेषु मया स्वच्छंदचारिणा ।
अस्या रूपेण सदृशी दृष्ट्वा नैव च कुत्रचित् ३८।
ब्रह्मलोके रुद्रलोक इंद्रलोके च मे गतिः ।
न कोपि शोभाकोट्यंशः कुत्राप्यस्या विलोकितः ३९।
महामाया भगवती दृष्टा शैलेंद्रनंदिनी ।
यस्या रूपेण सकलं मुह्यते सचराचरम् ४०।
साप्यस्याः सुकुमारांगी लक्ष्मीं नाप्नोति कर्हिचित् ।
लक्ष्मीः सरस्वती कांति विद्याद्याश्च वरस्त्रियः ४१।
छायामपि स्पृशंत्यस्याः कदाचिन्नैव दृश्यते ।
विष्णोर्यन्मोहिनीरूपं हरो येन विमोहितः ४२।
मया दृष्टं च तदपि कुतोऽस्यासदृशं भवेत् ।
ततोऽस्यास्तत्त्वमाज्ञातुं न मे शक्तिः कथंचन ४३।
अन्ये चापि न जानंति प्रायेणैनां हरेः प्रियाम् ।
अस्याः संदर्शनादेव गोविंदचरणांबुजे ४४।
या प्रेमर्द्धिरभूत्सा मे भूतपूर्वा न कर्हिचित् ।
एकांते नौमि भवतीं दर्शयित्वातिवैभवम् ४५।
कृष्णस्य संभवत्यस्या रूपं परमतुष्टये ।
विमृश्यैवं मुनिर्गोपप्रवरं प्रेष्य कुत्रचित् ४६।
निभृते परितुष्टाव बालिकां दिव्यरूपिणीम् ।
अपि देवि महायोगमायेश्वरि महाप्रभे ४७।
महामोहनदिव्यांगि महामाधुर्यवर्षिणि ।
महाद्भुतरसानंदशिथिलीकृतमानसे ४८।
महाभाग्येन केनापि गतासि मम दृक्पथम् ।
नित्यमंतर्मुखादृष्टिस्तव देवि विभाव्यते ४९।
अंतरेव महानंदपरितृप्तैव लक्ष्यसे ।
प्रसन्नं मधुरं सौम्यमिदं सुमुखमंडनम् ५०।
व्यनक्तिपरमाश्चर्यं कमप्यंतः सुखोदयम् ।
रजः संबंधिकलिका शक्तिस्तत्वातिशोभने ५१।
सृष्टिस्थितिसमाहाररूपिणी त्वमधिष्ठिता ।
तत्त्वं विशुद्धसत्वाशु शक्तिर्विद्यात्मिका परा ५२।
परमानंदसंदोहं दधती वैष्णवं परम् ।
का त्वयाश्चर्यविभवे ब्रह्मरुद्रादिदुर्गमे ५३।
योगींद्राणां ध्यानपथं न त्वं स्पृशसि कर्हिचित् ।
इच्छाशक्तिर्ज्ञानशक्तिः क्रियाशक्तिस्तवेशितुः ५४।
तवांशमात्रमित्येवं मनीषा मे प्रवर्त्तते ।
मायाविभूतयोऽचिंत्यास्तन्मायार्भकमायिनः ५५।
परेशस्य महाविष्णोस्ताः सर्वास्ते कलाकलाः ।
आनंदरूपिणी शक्तिस्त्वमीश्वरि न संशयः ५६।
त्वया च क्रीडते कृष्णो नूनं वृंदावने वने ।
कौमारेणैव रूपेण त्वं विश्वस्य च मोहिनी ५७।
तारुण्यवयसा स्पृष्टं कीदृक्ते रूपमद्भुतम् ।
कीदृशं तव लावण्यं लीलाहासेक्षणान्वितम् ५८।
हरि मानुषलोभेन वपुराश्चर्यमंडितम् ।
द्रष्टुं तदहमिच्छामि रूपं ते हरिवल्लभे ५९।
येन नंदसुतः कृष्णो मोहं समुपयास्यति ।
इदानीं मम कारुण्यान्निजं रूपं महेश्वरि ६०।
प्रणताय प्रपन्नाय प्रकाशयितुमर्हसि ।
इत्युक्ता मुनिवर्य्येण तदनुव्रतचेतसा ६१।
महामाहेश्वरीं नत्वा महानंदमयीं पराम् ।
महाप्रेमतरोत्कंठा व्याकुलांगीं शुभेक्षणाम् ६२।
ईक्षमाणेन गोविंदमेवं वर्णयतास्थितम् ।
जयकृष्ण मनोहारिञ्जय वृंदावनप्रिय ६३।
जयभ्रूभंगललित जयवेणुरवाकुल ।
जय बर्हकृतोत्तंस जयगोपीविमोहन ६४।
जय कुंकुमलिप्तांग जय रत्नविभूषण ।
कदाहं त्वत्प्रसादेन अनया दिव्यरूपया ६५।
सहितं नवतारुण्य मनोहारि वपुःश्रिया ।
विलोकयिष्ये कैशोरे मोहनं त्वां जगत्पते ६६।
एवं कीर्त्तयतस्तस्य तत्क्षणादेव सा पुनः ।
बभूव दधती दिव्यं रूपमत्यंतमोहनम् ६७।
चतुर्दशाब्दवयसा संमितं ललितं परम् ।
समानवयसश्चान्यास्तदैव व्रजबालिकाः ६८।
आगत्य वेष्टयामासुर्दिव्यभूषांबरस्रजः ।
मुनींद्रः स तु निश्चेष्टो बभूवाश्चर्यमोहितः ६९।
बालायास्तास्तदा सख्यश्चरणांबुकणैर्मुनिम् ।
निषिच्य बोधयामासुरूचुश्च कृपयान्विताः ७०।
मुनिवर्य महाभाग महायोगेश्वरेश्वर ।
त्वयैव परया भक्त्या भगवान्हरिरीश्वरः ७१।
नूनमाराधितो देवो भक्तानां कामपूरकः ।
यदियंब्रह्मरुद्राद्यैर्देवैः सिद्धमुनीश्वरैः ७२।
महाभागवतैश्चान्यैर्दुर्दर्शा दुर्गमापि च ।
अत्यद्भुतवयोरूपमोहिनी हरिवल्लभा ७३।
केनाप्यचिंत्य भाग्येन तवदृष्टिपथं गता ।
उत्तिष्ठोत्तिष्ठ विप्रर्षे धैर्यमालंब्य सत्वरम् ७४।
एनां प्रदक्षिणीकृत्य नमस्कुरु पुनःपुनः ।
किं न पश्यसि चार्वंगीमत्यंतव्याकुलामिव ७५।
अस्मिन्नेव क्षणे नूनमंतर्धानं गमिष्यति ।
नानया सह संलापः कथंचित्ते भविष्यति ७६।
दर्शनं च पुनर्नास्याः प्राप्स्यसि ब्रह्मवित्तम ।
किंतु वृंदावने कापि भात्यशोकलता शुभा ७७।
सर्वकालेऽपि पुष्पाढ्या सर्वदिग्व्यापि सौरभा ।
गोवर्द्धनाददूरेण कुसुमाख्यसरस्तटे ७८।
तन्मूले ह्यर्द्धरात्रे च द्रक्ष्यस्यस्मानशेषतः ।
श्रुत्वैवं वचनं तासां स्नेहविह्वलचेतसाम् ७९।
यावत्प्रदक्षिणीकृत्य प्रणमेद्दंडवन्मुनिः ।
मुहूर्त्तद्वितयं बालां नानानिर्माणशोभनाम् ८०।
आहूय भानुं प्रोवाच नारदः सर्वशोभनाम् ।
एवं प्रभावा बालेयं न साध्या दैवतैरपि ८१।
किंतु यद्गृहमेतस्याः पदचिह्नविभूषितम् ।
तत्र नारायणो देवः स्वयं वसति माधवः ८२।
लक्ष्मीश्च वसते नित्यं सर्वाभिः सर्वसिद्धिभिः ।
अद्य एनां वरारोहां सर्वाभरणभूषणाम् ८३।
देवीमिव परां गेहे रक्ष यत्नेन सत्तम ।
इत्युक्त्वा मनसैवैनां महाभागवतोत्तमः ८४।
तद्रूपमेव संस्मृत्य प्रविष्टो गहनं वनम् ।
अशोकलतिकामूलमासाद्य मुनिसत्तमः ८५।
प्रतीक्षमाणो देवीं तां तत्रैवागमनं निशि ।
स्थितोऽत्र प्रेमविकलश्चिंतयन्कृष्णवल्लभाम् ८६।
अथ मध्यनिशाभागे युवत्यः परमाद्भुताः ।
पूर्वं दृष्ट्वास्तथान्याश्च विचित्राभरणस्रजः ८७।
दृष्ट्वा मनसि संभ्रांतो दंडवत्पतितो भुवि ।
परिवार्य मुनिं सर्वास्ताः प्रविविशुः शुभाः ८८।
प्रष्टुकामोऽपि स मुनिः किंचित्स्वाभिमतं प्रियम् ।
नाशकत्प्रेमलावण्यप्रियभाषाप्रधर्षितः ८९।
अथागता मुनिश्रेष्ठं कृतांजलिमवस्थितम् ।
भक्तिभारानतग्रीवं सविस्मयं ससंभ्रमम् ९०।
सुविनीततमं प्राह तत्रैव करुणान्विता ।
अशोकमालिनी नाम्ना अशोकवनदेवता ९१।
अशोकमालिन्युवाच।
अशोककलिकायां तु वसाम्यस्यां महामुने ।
रक्तांबरधरा नित्यं रक्तमालानुलेपना ९२।
रक्तसिंदूरकलिका रक्तोत्पलवतंसिनी ।
रक्तमाणिक्यकेयूर मुकुटादिविभूषिता ९३।
एकदा प्रियया सार्द्धं विहरंत्यो मधूत्सवे ।
तत्रैव मिलिता गोपबालिकाश्चित्रवाससः ९४।
अहं चाशोकमालाभिर्गोपवेषधरं हरिम् ।
रमारूपाश्च ताः सर्वा भक्त्या सम्यगपूजयम् ९५।
ततः प्रभृति चैतासां मध्ये तिष्ठामि सर्वदा ।
भूषाभिर्विविधाभिश्च तोषयित्वा रमापतिम् ९६।
परात्परमहं सर्वं विजानामीह सर्वतः ।
गोगोपगोपिकादीनां रहस्यं चापि वेद्म्यहम् ९७।
तव जिज्ञासितं सर्वं हृदि प्रत्यभिभाषितम् ।
तां देवीमद्भुताकारामद्भुतानंददायिनीम् ९८।
हरेः प्रियां हिरण्याभां हीरकोज्ज्वलमुद्रिकाम् ।
कथं पश्यामि लोलाक्षीं कथं वा तत्पदांबुजम् ९९।
आराध्यतेऽतिभक्त्येति त्वया ब्रह्मन्विमर्शितम् ।
तत्र ते कथयिष्यामि वृत्तांतं सुमहात्मनाम् १००।
मानसे सरसि स्थित्वा तपस्तीव्रमुपेयुषाम् ।
जपतां सिद्धमंत्रांश्च ध्यायतां हरिमीश्वरम् १०१।
मुनीनां कांक्षतां नित्यं तस्या एव पदांबुजम् ।
एकसप्ततिसाहस्रं संख्यातानां महौजसाम् १०२।
तत्तेऽहं कथयाम्यद्य तद्रहस्यं परं वने १०३।
इति श्रीपद्मपुराणे पातालखंडे श्रीराधाकृष्ण-।
माहात्म्ये एकसप्ततितमोऽध्यायः ७१।




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ईश्वर उवाच-।
तदेकाग्रमना भूत्वा शृणु देवि वरानने ।
आसीदुग्रतपा नाम मुनिरेको दृढव्रतः १।
साग्निको ह्यग्निभक्षश्च चचारात्यद्भुतं तपः ।
जजाप परमं जाप्यं मंत्रं पंचदशाक्षरम् २।
काममंत्रेण पुटितं कामं कामवरप्रदात् ।
कृष्णायेति पदं स्वाहा सहितं सिद्धिदं परम् ३।
दध्यौ च श्यामलं कृष्णं रासोन्मत्तं वरोत्सुकम् ।
पीतपट्टधरं वेणुं करेणाधरमर्पितम् ४।
नवयौवनसंपन्नं कर्षंतं पाणिना प्रियाम् ।
एवं ध्यानपरः कल्पशतांते देहमुत्सृजन् ५।
सुनंद नाम गोपस्य कन्याभूत्स महामुनिः ।
सुनंदेति समाख्याता या वीणां बिभ्रती करे ६।
मुनिरन्यः सत्यतपा इति ख्यातो महाव्रतः ।
सशुष्कपत्रं भुंक्ते यः प्रजजाप परं मनुम् ७।
रत्यंतं कामबीजेन पुटितं च दशाक्षरम् ।
स प्रदध्यौ मुनिवरश्चित्रवेषधरं हरिम् ८।
धृत्वा रमाया दोर्वल्लीद्वितयं कंकणोज्ज्वलम् ।
नृत्यंतमुन्मदंतं च संश्लिष्यं तं मुहुर्मुहुः ९।
हसंतमुच्चैरानंदतरंगं जठरांबरे ।
दधतं वेणुमाजानु वैजयंत्या विराजितम् १०।
स्वेदांभः कणसंसिक्त ललाटवलिताननम् ।
त्यक्त्वा त्यक्त्वा स वै देहं तपसा च महामुनिः ११।
दशकल्पांतरे जातो ह्ययं नंदवनादिह ।
सुभद्र नाम्नो गोपस्य कन्या भद्रेति विश्रुता १२।
यस्याः पृष्ठतले दिव्यं व्यजनं परिदृश्यते ।
हरिधामाभिधानस्तु कश्चिदासीन्महामुनिः १३।
सोऽप्यतप्यत्तपः कृच्छ्रं नित्यं पत्रैकभोजनम् ।
आशुसिद्धिकरं मंत्रं विंशत्यर्णं प्रजप्तवान् १४।
अनंतरं कामबीजादध्यारूढं तदेव तु ।
माया तत्पुरतो व्योम हंसासृग्द्युतिचंद्रकम् १५।
ततो दशाक्षरं पश्चान्नमोयुक्तं स्मरादिकम् ।
दध्यौ वृंदावने रम्ये माधवीमंडपे प्रभुम् १६।
उत्तानशायिनं चारुपल्लवास्तरणोपरि ।
कयाचिदतिकामार्त्त बल्लव्या रक्तनेत्रया १७।
वक्षोजयुगमाच्छाद्य विपुलोरः स्थलं मुहुः ।
संचुंब्यमानगंडांतं तृप्यमानरदच्छदम् १८।
कलयंतं प्रियां दोर्भ्यां सहासं समुदाद्भुतम् ।
स मुनिश्च बहून्देहां स्त्यक्त्वा कल्पत्रयांतरे १९।
सारंगनाम्नो गोपस्य कन्याभूच्छुभलक्षणा ।
रंगवेणीति विख्याता निपुणा चित्रकर्मणि २०।
यस्या दंतेषु दृश्यंते चित्रिताः शोणबिंदवः ।
ब्रह्मवादी मुनिः कश्चिज्जाबालिरिति विश्रुतः २१।
सतपः सुरतो योगी विचरन्पृथिवीमिमाम् ।
स एकस्मिन्महारण्ये योजनायुतविस्तृते २२।
यदृच्छयागतोऽपश्यदेकां वापीं सुशोभनाम् ।
सर्वतः स्फाटिकाबंधतटां स्वादुजलान्विताम् २३।
विकासिकमलामोदवायुना परिशीलिताम् ।
तस्याः पश्चिमदिग्भागे मूले वटमहीरुहः २४।
अपश्यत्तापसीं कांचित्कुर्वंतीं दारुणं तपः ।
तारुण्यवयसायुक्तां रूपेणाति मनोहराम् २५।
चंद्रांशुं सदृशाभासां सर्वावयवशोभनाम् ।
कृत्वा कटितटे वामपाणिं दक्षिणतस्तदा २६।
ज्ञानमुद्रां च बिभ्राणामनिमेषविलोचनाम् ।
त्यक्ताहारविहारां च सुनिश्चलतयास्थिताम् २७।
जिज्ञासुस्तां मुनिवरस्तस्थौ तत्र शतं समाः ।
तदंते तां समुत्थाप्य चलितां विनयान्मुनिः २८।
अपृच्छत्का त्वमाश्चर्यरूपे किं वा चरिष्यसि ।
यदि योग्यं भवेत्तर्हि कृपया वक्तुमर्हसि २९।
अथाब्रवीच्छनैर्बाला तपसातीव कर्शिता ।
ब्रह्मविद्याहमतुला योगींद्रैर्या विमृग्यते ३०।
साहं हरिपदाम्भोजकाम्यया सुचिरं तपः ।
चराम्यस्मिन्वने घोरे ध्यायंती पुरुषोत्तमम् ३१।
ब्रह्मानंदेन पूर्णाहं तेनानंदेन तृप्तधीः ।
तथापि शून्यमात्मानं मन्ये कृष्णरतिं विना ३२।
इदानीमतिनिर्विण्णा देहस्यास्य विसर्ज्जनम् ।
कर्त्तुमिच्छामि पुण्यायां वापिकायामिहैव तु ३३।
तच्छ्रुत्वा वचनं तस्या मुनिरत्यंतविस्मितः ।
पतित्वा चरणे तस्याः कृष्णोपासाविधिं शुभम् ३४।
पप्रच्छ परमप्रीतस्त्यक्त्वाध्यात्मविरोचनम् ।
तयोक्तं मंत्रमाज्ञाय जगाम मानसं सरः ३५।
ततोऽतिदुश्चरं चक्रे तपो विस्मयकारकम् ।
एकपादस्थितः सूर्यं निर्निमेषं विलोकयन् ३६।
मंत्रं जजाप परमं पंचविंशतिवर्णकम् ।
दध्यौ परमभावेन कृष्णमानंदरूपिणम् ३७।
चरंतं व्रजवीथीषु विचित्रगतिलीलया ।
ललितैः पादविन्यासैः क्वणयंतं च नूपुरम् ३८।
चित्रकंदर्पचेष्टाभिः सस्मितापांगवीक्षितैः ।
संमोहनाख्यया वंश्या पंचमारुणचित्रया ३९।
बिंबौष्ठपुटचुंबिन्या कलालापैर्मनोज्ञया ।
हरंतं व्रजरामाणां मनांसि च वपूंषि च ४०।
श्लथन्नीवीभिरागत्य सहसालिंगितांगकम् ।
दिव्यमाल्यांबरधरं दिव्यगंधानुलेपनम् ४१।
श्यामलांगप्रभापूर्णैर्मोहयंतं जगत्त्रयम् ।
स एवं बहुदेवेन समुपास्य जगत्पतिम् ४२।
नवकल्पांतरे जाता गोकुले दिव्यरूपिणी ।
कन्या प्रचंडनाम्नस्तु गोपस्याति यशस्विनः ४३।
चित्रगंधेति विख्याता कुमारी च शुभानना ।
निजांगगंधैर्विविधैर्मोदयंती दिशो दश ४४।
तामेनां पश्य कल्याणीं वृंदशो मधुपायिनीम् ।
अंगेषु स्वपतिं कृत्वा रसावेशसमाकुलाम् ४५।
अस्याः स्तनपरिष्वंगे हारैः सर्वैर्विहन्यते ।
वक्षःस्थलात्प्रच्यवद्भिश्चित्रगंधादिसौरभैः ४६।
अपरे मुनिवर्यास्तु सततं पूतमानसाः ।
वायुभक्षास्तपस्तेपुर्जपंतः परमं मनुम् ४७।
स्मरः कृष्णाय कामार्ति कलादिवृत्तिशालिने ।
आग्नेयीसहितं कृत्वा मंत्रं पंचदशाक्षरम् ४८।
दध्युर्मुनिवराः कष्णमूर्तिं दिव्यविभूषणाम् ।
दिव्यचित्रदुकूलेन पूर्णपीनकटिस्थलाम् ४९।
मयूरपिच्छकैः कॢप्तचूडामुज्ज्वलकुंडलाम् ।
सव्यजंघांत आदाय दक्षिणं चरणांबुजम् ५०।
भ्रमंतीं संपुटीकृत्य चारुहस्तांबुजद्वयम् ।
कक्षदेशविनिक्षिप्तवेणुं परिचलत्पुटीम् ५१।
आनंदयंतीं गोपीनां नयनानि मनांसि च ।
परमाश्चर्यरूपेण प्रविष्टां रंगमंडपे ५२।
प्रसूनवर्षर्गोपीभिः पूर्यमाणां च सर्वतः ।
अथ कल्पांतरे देहं त्यक्त्वा जाता इहाधुना ५३।
यासां कर्णेषु दृश्यंते ताटंका रश्मिदीपिताः ।
रत्नमाल्यानि कंठेषु रत्नपुष्पाणि वेणिषु ५४।
मुनिः शुचिश्रवा नाम सुवर्णो नाम चापरः ।
कुशध्वजस्य ब्रह्मर्षेः पुत्रौ तौ वेदपारगौ ५५।
ऊर्ध्वपादौ तपो घोरं तेपतुस्त्र्यक्षरं मनुम् ।
ह्रीं हंस इति कृत्वैव जपंतौ यतमानसौ ५६।
ध्यायंतौ गोकुले कृष्णं बालकं दशवार्षिकम् ।
कंदर्पसमरूपेण तारुण्यललितेन च ५७।
पश्यंतीर्व्रजबिंबोष्ठीर्मोहयंतमनारतम् ।
तौ कल्पांते तनूं त्यक्त्वा लब्धवंतौ जनिं व्रजे ५८।
सुवीरनाम गोपस्य सुते परमशोभने ।
ययोर्हस्ते प्रदृश्येते सारिके शुभराविणी ५९।
जटिलो जंघपूतश्च घृताशी कर्बुरेव च ।
चत्वारो मुनयो धन्या इहामुत्र च निःस्पृहाः ६०।
केवलेनैकभावेन प्रपन्ना बल्लवीपतिम् ।
तेपुस्ते सलिले मग्ना जपंतो मनुमेव च ६१।
रमात्रयेण पुटितं स्मराद्यं तदशाक्षरम् ।
दध्युश्च गाढभावेन बल्लवीभिर्वने वने ६२।
भ्रमंतं नृत्यगीताद्यैर्मानयंतं मनोहरम् ।
चंदनालिप्तसर्वांगं जपापुष्पावतंसकम् ६३।
कल्हारमालयावीतं नीलपीतपटावृतम् ।
कल्पत्रयांते जातास्ते गोकुले शुभलक्षणाः ६४।
इमास्ताः पुरतो रम्या उपविष्टा नतभ्रुवः ।
यासां धर्मकृतान्येव वलयानि प्रकोष्ठके ६५।
विचित्राणि च रत्नाद्यैर्दिव्यमुक्ताफलादिभिः ।
मुनिर्दीर्घतपा नाम व्यासोऽभूत्पूर्वकल्पके ६६।
तत्पुत्रः शुक इत्येव मुनिः ख्यातो वरः सुधीः ।
सोऽपि बालो महाप्राज्ञः सदैवानुस्मरन्पदम् ६७।
विहाय पितृमात्रादि कृष्णं ध्यात्वा वनं गतः ।
स तत्र मानसैर्दिव्यैरुपचारैरहर्निशम् ६८।
अनाहारोऽर्चयद्विष्णुं गोपरूपिणमीश्वरम् ।
रमया पुटितं मंत्रं जपन्नष्टादशाक्षरम् ६९।
दध्यौ परमभावेन हरिं हैमतरोरधः ।
हैममंडपिकायां च हेमसिंहासनोपरि ७०।
आसीनं हेमहस्ताग्रैर्दधानं हेमवंशिकाम् ।
दक्षिणेन भ्रामयंतं पाणिना हेमपंकजम् ७१।
हेमवर्णेष्टप्रियया परिकॢप्तांगचित्रकम् ।
हसंतमतिहर्षेण पश्यंतं निजमाश्रमम् ७२।
हर्षाश्रुपूर्णः पुलकाचितांगः प्रसीदनाथेति वदन्नथोच्चैः ।
दंडप्रणामाय पपात भूमौ संवेपमानस्त्रिजगद्विधातुः ७३।
तं भक्तिकामं पतितं धरण्यामायासितोस्मीति वदंतमुच्चैः ।
दंडप्रणामस्य भुजौ गृहीत्वा पस्पर्श हर्षोपचितेक्षणेन ७४।
उवाच च प्रियारूपं लब्धवंतं शुकं हरिः ।
त्वं मे प्रियतमा भद्रे सदा तिष्ठ ममांतिके ७५।
मद्रूपं चिंतयंती च प्रेमास्पदमुपागता ।
द्वे च मुख्यतमे गोप्यौ समानवयसी शुभे ७६।
एकव्रते एकनिष्ठे एकनक्षत्रनामनी ।
तप्तजांबूनदप्रख्या तत्रैवान्या तडित्प्रभा ७७।
एकानिद्रा यमाणाक्षी परा सौम्यायतेक्षणा ।
सोऽर्चयत्परया भक्त्या ते हरेः सव्यदक्षिणे ७८।
स कल्पांते तनुं त्यक्त्वा गोकुलेऽभून्महात्मनः ।
उपनंदस्य दुहिता नीलोत्पलदलच्छविः ७९।
सेयं श्रीकृष्णवनिता पीतशाटीपरिच्छदा ।
रक्तचोलिकया पूर्णा शातकुंभघटस्तनी ८०।
दधाना रक्तसिंदूरं सर्वांगस्यावगुंठनम् ।
स्वर्णकुंडलविभ्राजद्गंडदेशां सुशोभनाम् ८१।
स्वर्णपंकजमालाढ्या कुंकुमालिप्तसुस्तनी ।
यस्या हस्ते चर्वणीयं दृश्यते हरिणार्पितम् ८२।
वेणुवाद्यातिनिपुणा केशवस्य निषेवणी ।
कृष्णेन परितुष्टेन कदाचिद्गीतकर्मणि ८३।
विन्यस्ता कंबुकंठेऽस्या भाति गुंजावलि शुभा ।
परोक्षेपि च कृष्णस्य कांतिभिश्च स्मरार्दिता ८४।
सखीभिर्वादयंतीभिर्गायंती सुस्वरं परम् ।
नर्त्तयेत्प्रियवेषेण वेषयित्वा वधूमिमाम् ८५।
वारंवारं च गोविंदं भावेनालिंग्य चुंबति ।
प्रियासौ सर्वगोपीनां कृष्णस्याप्यतिवल्लभा ८६।
श्वेतकेतोः सुतः कश्चिद्वेदवेदांगपारगः ।
सर्वमेव परित्यज्य प्रचंडं तप आस्थितः ८७।
मुरारेः सेवितपदां सुधामधुरनादिनीम् ।
गोविंदस्य प्रियां शक्तिं ब्रह्मरुद्रादिदुर्गमाम् ८८।
भजंतीमेकभावेन श्रियमेव मनोहराम् ।
ध्यायञ्जजाप सततं मंत्रमेकादशाक्षरम् ८९।
हसितं सकलं कृत्वा बतमायेषु योजयन् ।
कांत्यादिभिर्हसंतीभिर्वासयंत्यभितो जगत् ९०।
वसंते वसतेत्येवं मंत्रार्थं चिंतयन्सदा ।
सोऽपि कल्पद्वयेनैव सिद्धोऽत्र जनिमाप्तवान् ९१।
सेयं बालायते पुत्री कृशांगी कुड्मलस्तनी ।
मुक्तावलिलसत्कंठी शुद्धकौशेयवासिनी ९२।
मुक्ताच्छुरितमंजीरकंकणांगदमुद्रिका ।
बिभ्रती कुंडले दिव्ये अमृतस्राविणी शुभे ९३।
वृत्तकस्तूरिकावेणी मध्ये सिंदूरबिंदुवत् ।
दधाना चित्रकं भाले सार्द्धं चंदनचित्रकैः ९४।
या सैव दृश्यते शांता जपंती परमं पदम् ।
आसीच्चंद्रप्रभो नाम राजर्षिः प्रियदर्शनः ९५।
तस्य कृष्णप्रसादेन पुत्रोऽभून्मधुराकृतिः ।
चित्रध्वज इति ख्यातः कौमारावधि वैष्णवः ९६।
स राजा सुसुतं सौम्यं सुस्थिरं द्वादशाब्दिकम् ।
आदेशयद्द्विजान्मंत्रं परमष्टादशाक्षरम् ९७।
अभिषिच्यमानः स शिशुर्मंत्रामृतमयैर्जलैः ।
तत्क्षणे भूपतिं प्रेम्णा नत्वोदश्रुप्रकल्पितः ९८।
तस्मिन्दिने स वै बालः शुचिवस्त्रधरः शुचिः ।
हारनूपुरसूत्राद्यैर्ग्रैवेयांगदकंकणैः ९९।
विभूषितो हरेर्भक्तिमुपस्पृश्यामलाशयः ।
विष्णोरायतनं गत्वा स्थित्वैकाकी व्यचिंतयत् १००।
कथं भजामि तं भक्तं मोहनं गोपयोषिताम् ।
विक्रीडंतं सदा ताभिः कालिंदीपुलिने वने १०१।
इत्थमत्याकुलमतिश्चिंतयन्नेव बालकः ।
अथापपरमां विद्यां स्वप्नं च समवाप्यत १०२।
आसीत्कृष्णप्रतिकृतिः पुरतस्तस्य शोभना ।
शिलामयी स्वर्णपीठे सर्वलक्षणलक्षिता १०३।
साभूदिंदीवरश्यामा स्निग्धलावण्यशालिनी ।
त्रिभंगललिताकार शिखंडी पिच्छभूषणा १०४।
कूजयंती मुदा वेणुं कांचनीमधरेऽर्पिताम् ।
दक्षसव्यगताभ्यां च सुंदरीभ्यां निषेविताम् १०५।
वर्द्धयंतीं तयोः कामं चुंबनाश्लेषणादिभिः ।
दृष्ट्वा चित्रध्वजः कृष्णं तादृग्वेषविलासिनम् १०६।
अवनम्य शिरस्तस्मै पुरो लज्जितमानसः ।
अथोवाच हरिर्दक्षपार्श्वगां प्रेयसीं हसन् १०७।
सलज्जं परमं चैनं स्वशरीरासनागतम् ।
निर्मायात्मसमं दिव्यं युवतीरूपमद्भुतम् १०८।
चिंतयस्व शरीरेण ह्यभेदं मृगलोचने ।
अथो त्वदंगतेजोभिः स्पृष्टस्त्वद्रूपमाप्स्यति १०९।
ततः सा पद्मपत्राक्षी गत्वा चित्रध्वजांतिकम् ।
निजांगकैस्तदंगानामभेदं ध्यायती स्थिता ११०।
अथास्यास्त्वंगतेजांसि तदंगं पर्यपूरयन् ।
स्तनयोर्ज्योतिषा जातौ पीनौ चारुपयोधरौ १११।
नितंबज्योतिषा जातं श्रोणिबिंबं मनोहरम् ।
कुंतलज्योतिषा केशपाशोऽभूत्करयोः करौ ११२।
सर्वमेवं सुसंपन्नं भूषावासः स्रगादिकम् ।
कलासु कुशला जाता सौरभेनांतरात्मनि ११३।
दीपाद्दीपमिवालोक्य सुभगां भुवि कन्यकाम् ।
चित्रध्वजां त्रपाभंगि स्मितशोभां मनोहराम् ११४।
प्रेम्णा गृहीत्वा करयोः सा तामपहरन्मुदा ।
गोविंदवामपार्श्वस्थां प्रेयसीं परिरभ्य च ११५।
उवाच तव दासीयं नाम चास्याश्चकार य ।
सेवां चास्यै वद प्रीत्या यथाभिरुचितां प्रियाम् ११६।
अथ चित्रकलेत्येतन्नाम चात्ममतेन सा ।
चकार चाह सेवार्थं धृत्वा चापि विपंचिकाम् ११७।
सदा त्वं निकटे तिष्ठ गायस्व विविधैः स्वरैः ।
गुणात्मन्प्राणनाथस्य तवायं विहितो विधिः ११८।
अथ चित्रकला त्वाज्ञां गृहीत्वानम्य माधवम् ।
तत्प्रेयस्याश्च चरणं गृहीत्वा पादयो रजः ११९।
जगौ सुमधुरं गीतं तयोरानंदकारणम् ।
अथ प्रीत्योपगूढा सा कृष्णेनानंदमूर्तिना १२०।
यावत्सुखांबुधौ पूर्णा तावदेवाप्यबुध्यत ।
चित्रध्वजो महाप्रेमविह्वलः स्मरतत्परः १२१।
तमेव परमानंदं मुक्तकंठो रुरोद ह ।
तदारभ्य रुदन्नेव मुक्त्वा हरिविचारकम् १२२।
आभाषितोऽपि पित्राद्यैर्नैवावोचद्वचः क्वचित् ।
मासमात्रं गृहे स्थित्वा निशीथे कृष्णसंश्रयः १२३।
निर्गत्यारण्यमचरत्तपो वै मुनिदुष्करम् ।
कल्पांते देहमुत्सृज्य तपसैव महामुनिः १२४।
वीरगुप्ताभिधानस्य गोपस्य दुहिता शुभा ।
जाता चित्रकलेत्येव यस्याः स्कंधे मनोहरा १२५।
विपंची दृश्यते नित्यं सप्तस्वरविभूषिता ।
उपतिष्ठति वै वामे रत्नभृंगारमद्भुतम् १२६।
दधाना दक्षिणे हस्ते सा वै रत्नपतद्ग्रहम् ।
अयमासीत्पुरा सर्वं तापसैरभिवंदितः १२७।
मुनिः पुण्यश्रवा नाम काश्यपः सर्वधर्मवित् ।
पिता तस्याभवच्छैवः शतरुद्रीयमन्वहम् १२८।
प्रस्तुवन्देवदेवेशं विश्वेशं भक्तवत्सलम् ।
प्रसन्नो भगवांस्तस्य पार्वत्या सह शंकरः १२९।
चतुर्दश्यामर्द्धरात्रेः प्रत्यक्षः प्रददौ वरम् ।
त्वत्पुत्रो भविता कृष्णे भक्तिमान्बाल एव हि १३०।
उपनीयाष्टमे वर्षे तस्मै सिद्धमनुस्त्वयम् ।
उपदिशैकविंशत्या यो मया ते निगद्यते १३१।
गोपालविद्यानामायं मंत्रो वाक्सिद्धिदायकः ।
एतत्साधकजिह्वाग्रे लीलाचरितमद्भुतम् १३२।
अनंतमूर्तिरायाति स्वयमेव वरप्रदः ।
काममाया रमाकंठ सेंद्रा दामोदरोज्ज्वलाः १३३।
मध्ये दशाक्षरीं प्रोच्य पुनस्ता एव निर्दिशेत् ।
दशाक्षरोक्तऋष्यादिध्यानं चास्य ब्रवीम्यहम् १३४।
पूर्णामृतनिधेर्मध्ये द्वीपं ज्योतिर्मयं स्मरेत् ।
कालिंद्या वेष्टितं तत्र ध्यायेद्वृंदावने वने १३५।
सर्वर्तुकुसुमस्रावि द्रुमवल्लीभिरावृतम् ।
नटन्मत्तशिखिस्वानं गायत्कोकिलषट्पदम् १३६।
तस्य मध्ये वसत्येकः पारिजाततरुर्महान् ।
शाखोपशाखाविस्तारैः शतयोजनमुच्छ्रितः १३७।
तले तस्याथ विमले परितो धेनुमंडलम् ।
तदंतर्मंडलं गोपबालानां वेणुशृंगिणाम् १३८।
तदंतरे तु रुचिरं मंडलं व्रज सुभ्रुवाम् ।
नानोपायनपाणीनां मदविह्वलचेतसाम् १३९।
कृतांजलिपुटानां च मंडलं शुक्लवाससाम् ।
शुक्लाभरणभूषाणां प्रेमविह्वलितात्मनाम् १४०।
चिंतयेच्छ्रुतिकन्यानां गृह्णतीनां वचः प्रियम् ।
रत्नवेद्यां ततो ध्यायेद्दुकूलावरणं हरिम् १४१।
ऊरौ शयानं राधायाः कदलीकांडकोपरि ।
तद्वक्त्रं चंद्र सुस्मेरं वीक्षमाणं मनोहरम् १४२।
किंचित्कुंचितवामांघ्रिं वेणुयुक्तेन पाणिना ।
वामेनालिंग्य दयितां दक्षेण चिबुकं स्पृशन् १४३।
महामारकताभासं मौक्तिकच्छायमेव च ।
पुंडरीकविशालाक्षं पीतनिर्मलवाससम् १४४।
बर्हभारलसच्छीर्षं मुक्ताहारमनोहरम् ।
गंडप्रांतलसच्चारु मकराकृतिकुंडलम् १४५।
आपादतुलसीमालं कंकणांगदभूषणम् ।
नूपुरैर्मुद्रिकाभिश्च कांच्या च परिमंडितम् १४६।
सुकुमारतरं ध्यायेत्किशोरवयसान्वितम् ।
पूजा दशाक्षरोक्तैव वेदलक्षं पुरस्क्रिया १४७।
इत्युक्त्वांतर्दधे देवो देवी च गिरिजा सती ।
मुनिरागत्य पुत्राय तथैवोपदिदेश ह १४८।
पुण्यश्रवास्तु तन्मंत्र ग्रहणादेव केशवम् ।
वर्णयामास विविधैर्जित्वा सर्वान्मुनीन्स्वयम् १४९।
रूपलावण्यवैदग्ध्य सौंदर्याश्चर्यलक्षणम् ।
तदा हृष्टमना बालो निर्गत्य स्वगृहात्ततः १५०।
वायुभक्षस्तपस्तेपे कल्पानामयुतत्रयम् ।
तदंते गोकुले जाता नंदभ्रातुर्गृहे स्वयम् १५१।
लवंगा इति तन्नाम कृष्णेंगित निरीक्षणा ।
यस्या हस्ते प्रदृश्येत मुखमार्जनयंत्रकम् १५२।
इति ते कथिताः काश्चित्प्रधानाः कृष्णवल्लभाः १५३।
हरिविविधरसाद्यैर्युक्तमध्यायमेतद्व्रजवरतनयाभिश्चारुहासेक्षणाभिः ।
पठति य इह भक्त्या पाठयेद्वा मनुष्यो व्रजति भगवतः श्रीवासुदेवस्य धाम १५४।

इति श्रीपद्मपुराणे पातालखंडे श्रीकृष्णमाहात्म्ये द्विसप्ततितमोऽध्यायः ७२।




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अध्यायः ०७३
वेदव्यासः
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ईश्वर उवाच-।
यत्त्वया पृष्टमाश्चर्यं तन्मया भाषितं क्रमात् ।
यत्र मुह्यंति ब्रह्माद्यास्तत्र को वा न मुह्यति १।
तथापि ते प्रवक्ष्यामि यदुक्तं परमर्षिणा ।
महाराजमंबरीषं विष्णुभक्तं शिवान्वितम् २।
बदर्याश्रममासाद्य समासीनं जितेंद्रियम् ।
राजा प्रणम्य तुष्टाव विष्णुधर्मविवित्सया ३।
वेदव्यासं महाभागं सर्वज्ञं पुरुषोत्तमम् ।
मां त्वं संसारदुष्पारे परित्रातुमिहार्हसि ४।
विषयेषु विरक्तोऽस्मि नमस्तेभ्यो नमोखिलम् ।
यत्तत्पदमनुद्विग्नं सच्चिदानंदविग्रहम् ५।
परं ब्रह्म पराकाशमनाकाशमनामयम् ।
यत्साक्षात्कृत्य मुनयो भवांभोधिं तरंति हि ६।
तत्राहं मनसो नित्यं कथं गतिमवाप्नुयाम् ।
व्यास उवाच-।
अतिगोप्यं त्वया पृष्टं यन्मया न शुकं प्रति ७।
गदितं स्वसुतं किंतु त्वां वक्ष्यामि हरिप्रियम् ।
आसीदिदं परं विश्वं यद्रूपं यत्प्रतिष्ठितम् ८।
अव्याकृतमव्यथितं तदीश्वरमयं शृणु ।
मया कृतं तपः पूर्वं बहुवर्षसहस्रकम् ९।
फलमूलपलाशांबु वाय्वाहारनिषेविणा ।
ततो मामाहभगवान्स्वध्याननिरतं हरिः १०।
कस्मिन्नर्थे चिकीर्षाते विवित्सा वा महामते ।
प्रसन्नोऽस्मि वृणुष्व त्वं वरं च वरदर्षभात् ११।
मद्दर्शनांतः संसार इति सत्यं ब्रवीमि ते ।
ततोऽहमब्रुवं कृष्णं पुलकोत्फुल्लविग्रहः १२।
त्वामहं द्रष्टुमिच्छामि चक्षुर्भ्यां मधुसूदन ।
यत्तत्सत्यं परं ब्रह्म जगज्ज्योतिं जगत्पतिम् १३।
वदंति वेदशिरसश्चाक्षुषं नाथमद्भुतम् ।
श्रीभगवानुवाच-।
ब्रह्मणैवं पुरा पृष्टः प्रार्थितश्च यथा पुरा १४।
यदवोचमहं तस्मै तत्तुभ्यमपि कथ्यते ।
मामेके प्रकृतिं प्राहुः पुरुषं च तथेश्वरम् १५।
धर्ममेके धनं चैके मोक्षमेकेऽकुतोभयम् ।
शून्यमेके भावमेके शिवमेके सदाशिवम् १६।
अपरे वेदशिरसि स्थितमेकं सनातनम् ।
सद्भावं विक्रियाहीनं सच्चिदानंदविग्रहम् १७।
पश्याद्य दर्शयिष्यामि स्वरूपं वेदगोपितम् ।
ततोऽपश्यं भूपबालमहं कालांबुदप्रभम् १८।
गोपकन्यावृतं गोपं हसंतं गोपबालकैः ।
कदंबमूलआसीनं पीतवाससमद्भुतम् १९।
वनं वृंदावनं नाम नवपल्लवमंडितम् ।
कोकिलभ्रमरारावं मनोभव मनोहरम् २०।
नदीमपश्यं कालिंदीमिंदीवरदलप्रभाम् ।
गोवर्द्धनमथापश्यं कृष्णरामकरोद्धृतम् २१।
महेंद्रदर्पनाशाय गोगोपालसुखावहम् ।
गोपालमबलासंगमुदितं वेणुवादिनम् २२।
दृष्ट्वातिहृष्टो ह्यभवं सर्वभूषणभूषणम् ।
ततो मामाह भगवान्वृंदावनचरः स्वयम् २३।
यदिदं मे त्वया दृष्टं रूपं दिव्यं सनातनम् ।
निष्कलं निष्क्रियं शांतं सच्चिदानंदविग्रहम् २४।
पूर्णं पद्मपलाशाक्षं नातः परतरं मम ।
इदमेववदंत्येतेवेदाःकारणकारणम् २५।
सत्यंनित्यंपरानंदंचिद्घनंशाश्वतंशिवम् ।
नित्यां मे मथुरां विद्धि वनं वृंदावनं तथा २६।
यमुनां गोपकन्याश्च तथा गोपालबालकाः ।
ममावतारो नित्योऽयमत्र मा संशयं कृथाः २७।
ममेष्टा हि सदा राधा सर्वज्ञोऽहं परात्परः ।
सर्वकामश्च सर्वेशः सर्वानंदः परात्परः २८।
मयि सर्वमिदं विश्वं भाति मायाविजृंभितम् ।
ततोऽहमब्रुवं देवं जगत्कारणकारणम् २९।
काश्च गोप्यस्तु के गोपा वृक्षोऽयं कीदृशो मतः ।
वनं किं कोकिलाद्याश्च नदी केयं गिरिश्च कः ३०।
कोऽसौ वेणुर्महाभागो लोकानंदैकभाजनम् ।
भगवानाह मां प्रीतः प्रसन्नवदनांबुजः ३१।
गोप्यस्तु श्रुतयो ज्ञेया ऋचो वै गोपकन्यकाः ।
देवकन्याश्च राजेंद्र तपोयुक्ता मुमुक्षवः ३२।
गोपाला मुनयः सर्वे वैकुंठानंदमूर्त्तयः ।
कल्पवृक्षः कदंबोऽयं परानंदैकभाजनम् ३३।
वनमानंदकाख्यं हि महापातकनाशनम् ।
सिद्धाश्च साध्या गंधर्वाः कोकिलाद्या न संशयः ३४।
केचिदानंदहृदयं साक्षाद्यमुनया तनुम् ।
अनादिर्हरिदासोऽयं भूधरो नात्र संशयः ३५।
वेणुर्यः शृणुतं विप्रं तवापि विदितं तथा ।
द्विज आसीच्छांतमनास्तपः शांतिपरायणः ३६।
नाम्ना देवव्रतोदांतः कर्मकांडविशारदः ।
स वैष्णवजनव्रातमध्यवर्त्ती क्रियापरः ३७।
स कदाचन शुश्राव यज्ञेशोऽस्तीति भूपते ।
तस्य गेहमथाभ्यागाद्द्विजो मद्गतनिश्चयः ३८।
स मद्भक्तः क्वचित्पूजां तुलसीदलवारिणा ।
कृतवांस्तद्गृहे किंचित्फलं मूलं न्यवेदयत् ३९।
स्नानवारिफलं किंचित्तस्मै मत्या ददौ सुधीः ।
अश्रद्धया स्मितं कृत्वा सोऽप्यगृह्णाद्द्विजन्मनः ४०।
तेन पापेन संजातं वेणुत्वमतिदारुणम् ।
तेन पुण्येन तस्याथ मदीय प्रियतां गतः ४१।
अमुना सोपि राजेंद्र केतुमानिव राजते ।
युगांते तद्विष्णुपरो भूत्वा ब्रह्म समाप्स्यति ४२।
अहो न जानंति नरा दुराशयाः पुरीं मदीयां परमां सनातनीम् ।
सुरेंद्र नागेंद्र मुनींद्र संस्तुतां मनोरमां तां मथुरां पुरातनीम् ४३।
काश्यादयो यद्यपि संति पुर्यस्तासां तु मध्ये मथुरैव धन्या ।
यज्जन्ममौंजीव्रतमृत्युदाहैर्नृणां चतुर्द्धा विदधाति मुक्तिम् ४४।
यदा विशुद्धास्तपआदिना जनाः शुभाशया ध्यानधना निरंतरम् ।
तदैव पश्यंति ममोत्तमां पुरीं न चान्यथा कल्पशतैर्द्विजोत्तमाः ४५।
मथुरावासिनो धन्या मान्या अपि दिवौकसाम् ।
अगण्यमहिमानस्ते सर्व एव चतुर्भुजाः ४६।
मथुरावासिनो ये तु दोषान्पश्यंति मानवाः ।
तेषु दोषं न पश्यंति जन्ममृत्युसहस्रजम् ४७।
अधना अपि ते धन्या मथुरां ये स्मरंति ते ।
यत्र भूतेश्वरो देवो मोक्षदः पापिनामपि ४८।
मम प्रियतमो नित्यं देवो भूतेश्वरः परः ।
यः कदापि मम प्रीत्यै न संत्यजति तां पुरीम् ४९।
भूतेश्वरं यो न नमेन्न पूजयेन्न वास्मरेद्दुश्चरितो मनुष्यः ।
नैनां स पश्येन्मथुरां मदीयां स्वयंप्रकाशां परदेवताख्याम् ५०।
न कथं मयि भक्तिं स लभते पापपूरुषः ।
यो मदीयं परं भक्तं शिवं संपूजयेन्नहि ५१।
मन्मायामोहितधियः प्रायस्ते मानवाधमाः ।
भूतेश्वरं न नमंति न स्मरंति स्तुवंति ये ५२।
बालकोऽपि ध्रुवो यत्र ममाराधनतत्परः ।
प्राप स्थानं परं शुद्धं यत्नयुक्तं पितामहैः ५३।
तां पुरीं प्राप्य मथुरां मदीयां सुरदुर्लभाम् ।
खंजो भूत्वांधको वापि प्राणानेव परित्यजेत् ५४।
वेदव्यासमहाभाग मा कृथाः संशयं क्वचित् ।
रहस्यं वेदशिरसां यन्मया ते प्रकाशितम् ५५।
इमं भगवता प्रोक्तमध्यायं यः पठेच्छुचिः ।
शृणुयाद्वापि यो भक्त्या मुक्तिस्तस्यापि शाश्वती ५६।
इति श्रीपद्मपुराणे पातालखंडे वृंदावनादिमथुरामाहात्म्यकथनंनाम त्रिसप्ततितमोऽध्यायः ७३।

अंतिम बार २ 


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ईश्वर उवाच-।
एकदा रहसि श्रीमानुद्धवो भगवित्प्रियः ।
सनत्कुमारमेकांते ह्यपृच्छत्पार्षदः प्रभो १।
यत्र क्रीडति गोविंदो नित्यं नित्यसुरास्पदे ।
गोपांगनाभिर्यत्स्थानं कुत्र वा कीदृशं परम् २।
तत्तत्क्रीडनवृत्तांतमन्यद्यद्यत्तदद्भुतम् ।
ज्ञातं चेत्तव तत्कथ्यं स्नेहो मे यदि वर्त्तते ३।
सनत्कुमार उवाच-।
कदाचिद्यमुनाकूले कस्यापि च तरोस्तले ।
सुवृत्तेनोपविष्टेन भगवत्पार्षदेन वै ४।
यद्रहोऽनुभवस्तस्य पार्थेनापि महात्मना ।
दृष्टं कृतं च यद्यत्तत्प्रसंगात्कथितं मयि ५।
तत्तेऽहं कथयाम्येतच्छृणुष्वावहितः परम् ।
किंत्वेतद्यत्र कुत्रापि न प्रकाश्यं कदाचन ६।
अर्जुन उवाच-।
शंकराद्यैर्विरिंच्याद्यैरदृष्टमश्रुतं च यत् ।
सर्वमेतत्कृपांभोधे कृपया कथय प्रभो ७।
किं त्वया कथितं पूर्वमाभीर्यस्तव वल्लभाः ।
तास्ताः कतिविधा देव कति वा संख्यया पुनः ८।
नामानि कति वा तासां का वा कुत्र व्यवस्थिताः ।
तासां वा कति कर्माणि वयोवेषश्च कः प्रभो ९।
काभिः सार्द्धं क्व वा देव विहरिष्यसि भो रहः ।
नित्ये नित्यसुखे नित्यविभवे च वने वने १०।
तत्स्थानं कीदृशं कुत्र शाश्वतं परमं महत् ।
कृपा चेत्तादृशी तन्मे सर्वं वक्तुमिहार्हसि ११।
यदपृष्टं मयाप्येवमज्ञातं यद्रहस्तव ।
आर्तार्तिघ्न महाभाग सर्वं तत्कथयिष्यसि १२।
श्रीभगवानुवाच-।
तत्स्थानं वल्लभास्ता मे विहारस्तादृशो मम ।
अपि प्राणसमानानां सत्यं पुंसामगोचरः १३।
कथिते दृष्टुमुत्कंठा तव वत्स भविष्यति ।
ब्रह्मादीनामदृश्यं यत्किं तदन्य जनस्य वै १४।
तस्माद्विरम वत्सैतत्किं नु तेन विना तव ।
एवं भगवतस्तस्य श्रुत्वा वाक्यं सुदारुणम् १५।
दीनः पादांबुजद्वंद्वे दंडवत्पतितोऽर्जुनः ।
ततो विहस्य भगवान्दोर्भ्यामुत्थाप्य तं विभुः १६।
उवाच परमप्रेम्णा भक्ताय भक्तवत्सलः ।
तत्किं तत्कथनेनात्र द्रष्टव्यं चेत्त्वया हि यत् १७।
यस्यां सर्वं समुत्पन्नं यस्यामद्यापि तिष्ठति ।
लयमेष्यति तां देवीं श्रीमत्त्रिपुरसुंदरीम् १८।
आराध्य परया भक्त्या तस्यै स्वं च निवेदय ।
तां विनैतत्पदं दातुं न शक्नोमि कदाचन १९।
श्रुत्वैतद्भगवद्वाक्यं पार्थो हर्षाकुलेक्षणः ।
श्रीमत्यास्त्रिपुरादेव्या ययौ श्रीपादुकातलम् २०।
तत्र गत्वा ददर्शैनां श्रीचिंतामणिवेदिकाम् ।
नानारत्नैर्विरचितैः सोपानैरतिशोभिताम् २१।
तत्र कल्पतरुं नाना पुष्पैः फलभवैर्नतम् ।
सर्वर्त्तुकोमलदलैः स्नवन्माध्वीकशीकरैः २२।
वर्षद्भिर्वायुनालोलैः पल्लवैरुज्ज्वलीकृतम् ।
शुकैश्च कोकिलगणैः सारिकाभिः कपोतकैः २३।
लीलाचकोरकै रम्यैः पक्षिभिश्च निनादितम् ।
यत्र गुंजद्भृंगराज कोलाहलसमाकुलम् २४।
मणिभिर्भास्वरैरुद्यद्दावानल मनोहरम् ।
श्रीरत्नमंदिरं दिव्यं तले तस्य महाद्भुतम् २५।
रत्नसिंहासनं तत्र महाहैमाभिमोहनम् ।
तत्र बालार्कसंकाशां नानालंकारभूषिताम् २६।
नवयौवनसंपन्नां सृणिपाशधनुः शरैः ।
राजच्चतुर्भुजलतां सुप्रसन्नां मनोहराम् २७।
ब्रह्मविष्णुमहेशादि किरीटमणिरश्मिभिः ।
विराजितपदांभोजामणिमादिभिरावृताम् २८।
प्रसन्नवदनां देवीं वरदां भक्तवत्सलाम् ।
अर्जुनोऽहमिति ज्ञातः प्रणम्य च पुनःपुनः २९।
विहितांजलिरेकांते स्थितो भक्तिभरान्वितः ।
सा तस्योपासितं ज्ञात्वा प्रसादं च कृपानिधिः ३०।
उवाच कृपया देवी तस्य स्मरणविह्वला ।
भगवत्युवाच-।
किं वा दानं त्वया वत्स कृतं पात्राय दुर्लभम् ३१।
इष्टं यज्ञेन केनात्र तपो वा किमनुष्ठितम् ।
भगवत्यमला भक्तिः का वा प्राक्समुपार्ज्जिता ३२।
किं वास्मिन्दुर्लभं लोके किं वा कर्म शुभं महत् ।
प्रसादस्त्वयि येनायं प्रपन्ने च मुदा किल ३३।
गूढातिगूढश्चानन्य लभ्यो भगवता कृतः ।
नैतादृङ्मर्त्यलोकानां न च भूतलवासिनाम् ३४।
स्वर्गिणां देवतादीनां तपस्वीश्वरयोगिनाम् ।
भक्तानां नैव सर्वेषां नैव नैव च नैव च ३५।
प्रसादस्तु कृतो वत्स तव विश्वात्मना यथा ।
तदेहि भज बुद्ध्वैव कुलकुंडं सरो मम ३६।
सर्वकामप्रदा देवी त्वनया सह गम्यताम् ।
तत्रैव विधिवत्स्नात्वा द्रुतमागम्यतामिह ३७।
तदैव तत्र गत्वा स स्नात्वा पार्थस्तथागतः ।
आगतं तं कृतस्नानं न्यासमुद्रार्पणादिकम् ३८।
कारयित्वा ततो देव्या तस्य वै दक्षिणश्रुतौ ।
सद्यः सिद्धिकरी बाला विद्यानिगदिता परा ३९।
हकारार्द्धपरा द्वीपा द्वितीया विश्वभूषिता ।
अनुष्ठानं च पूजां च जपं च लक्षसंख्यकम् ४०।
कोरकैः करवीराणां प्रयोगं च यथातथम् ।
निर्वर्त्य तमुवाचेदं कृपया परमेश्वरी ४१।
अनेनैव विधानेन क्रियतां मदुपासनम् ।
ततो मयि प्रसन्नायां तवानुग्रहकारणात् ४२।
ततस्तु तत्र पर्य्यंतेष्वधिकारो भविष्यति ।
इत्ययं नियमः पूर्वं स्वयं भगवता कृतः ४३।
श्रुत्वैवमर्जुनस्तेन वर्मणा तां समर्चयत् ।
ततः पूजां जपं चैव कृत्वा देवी प्रसादिता ४४।
कृत्वा ततः शुभं होमं स्नानं च विधिना ततः ।
कृतकृत्यमिवात्मानं प्राप्तप्रायमनोरथम् ४५।
करस्थां सर्वसिद्धिं च स पार्थः सममन्यत ।
अस्मिन्नवसरे देवी तमागत्य स्मितानना ४६।
उवाच गच्छ वत्स त्वमधुना तद्गृहांतरे ।
ततः ससंभ्रमः पार्थः समुत्थाय मुदान्वितः ४७।
असंख्यहर्षपूर्णात्मा दंडवत्तां ननाम ह ।
आज्ञप्तस्तु तया सार्द्धं देवी वयस्ययार्जुनः ४८।
गतो राधापतिस्थानं यत्सिद्धैरप्यगोचरम् ।
ततश्च स उपादिष्टो गोलोकादुपरिस्थितम् ४९।
स्थिरं वायुधृतं नित्यं सत्यं सर्वसुखास्पदम् ।
नित्यं वृंदावनं नाम नित्यरासमहोत्सवम् ५०।
अपश्यत्परमं गुह्यं पूर्णप्रेमरसात्मकम् ।
तस्या हि वचनादेव लोचनैर्वीक्ष्य तद्रहः ५१।
विवशः पतितस्तत्र विवृद्धप्रेमविह्वलः ।
ततः कृच्छ्राल्लब्धसंज्ञो दोर्भ्यामुत्थापितस्तया ५२।
सांत्वनावचनैस्तस्याः कथंचित्स्थैर्यमागतः ।
ततस्तपः किमन्यन्मे कर्त्तव्यं विद्यते वद ५३।
इति तद्दर्शनोत्कंठाभरेण तरलोऽभवत् ।
ततस्तया करे तस्य धृत्वा तत्पददक्षिणे ५४।
प्रतिपेदे सुदेशेन गत्वा चोक्तमिदं वचः ।
स्नानायैतच्छुभं पार्थ विश त्वं जलविस्तरम् ५५।
सहस्रदलपद्मस्थ संस्थानं मध्यकोरकम् ।
चतुःसरश्चतुर्धारमाश्चर्यकुलसंकुलम् ५६।
अस्यांतरे प्रविश्याथ विशेषमिह पश्यसि ।
एतस्य दक्षिणे देश एष चात्र सरोवरः ५७।
मधुमाध्वीकपानं यन्नाम्ना मलयनिर्झरः ।
एतच्च फुल्लमुद्यानं वसंते मदनोत्सवम् ५८।
कुरुते यत्र गोविंदो वसंतकुसुमोचितम् ।
यत्रावतारं कृष्णस्य स्तुवंत्येव दिवानिशम् ५९।
भवेद्यत्स्मरणादेव मुनेः स्वांते स्मरांकुरः ।
ततोऽस्मिन्सरसि स्नात्वा गत्वा पूर्वसरस्तटम् ६०।
उपस्पृश्य जलं तस्य साधयस्व मनोरथम् ।
ततस्तद्वचनं श्रुत्वा तस्मिन्सरसि तज्जले ६१।
कल्हारकुमुदांभोजरक्तनीलोत्पलच्युतैः ।
परागैरंजिते मंजुवासिते मधुबिंदुभिः ६२।
तुंदिले कलहंसादि नादैरांदोलिते ततः ।
रत्नाबद्धचतुस्तीरे मंदानिलतरंगिते ६३।
मग्ने जलांतः पार्थे तु तत्रैवांतर्दधेऽथ सा ।
उत्थाय परितो वीक्ष्य संभ्रांता चारुहासिनी ६४।
सद्यः शुद्धस्वर्णरश्मिगौरकांततनूलताम् ।
स्फुरत्किशोरवर्षीयां शारदेंदुनिभाननाम् ६५।
सुनीलकुटिलस्निग्धविलसद्रत्नकुंतलाम् ।
सिंदूरबिंदुकिरणप्रोज्ज्वलालकपट्टिकाम् ६६।
उन्मीलद्भ्रूलताभंगि जितस्मरशरासनाम् ।
घनश्यामलसल्लोल खेलल्लोचनखंजनाम् ६७।
मणिं कुंडलतेजोंशु विस्फुरद्गंडमण्डलाम् ।
मृणालकोमलभ्राजदाश्चर्यभुजवल्लरीम् ६८।
शरदंबुरुहां सर्वश्रीचौरपाणिपल्लवाम् ।
विदग्धरचितस्वर्णकटिसूत्रकृतांतराम् ६९।
कूजत्कांचीकलापांत विभ्राजज्जघनस्थलाम् ।
भ्राजद्दुकूलसंवीतनितंबोरुसुमंदिराम् ७०।
शिंजानमणिमंजीरसुचारुपदपंकजाम् ।
स्फुरद्विविधकंदर्पकलाकौशलशालिनीम् ७१।
सर्वलक्षणसंपन्नां सर्वाभरणभूषिताम् ।
आश्चर्यललनाश्रेष्ठामात्मानं सव्यलोकयत् ७२।
विसस्मार च यत्किंचित्पौर्वदेहिकमेव च ।
मायया गोपिकाप्राणनाथस्य तदनंतरम् ७३।
इति कर्त्तव्यतामूढा तस्थौ तत्र सुविस्मिता ।
अत्रांतरेंऽबरे धीर ध्वनिराकस्मिकोऽभवत् ७४।
अनेनैव पथा सुभ्रु गच्छ पूर्वसरोवरम् ।
उपस्पृश्य जलं तस्य साधयस्व मनोरथम् ७५।
तत्र संति हि सख्यस्ते मा सीद वरवर्णिनि ।
ता हि संपादयिष्यंति तत्रैव वरमीप्सितम् ७६।
इति दैवीं गिरं श्रुत्वा गत्वा पूर्वसरोऽथ सा ।
नानापूर्वप्रवाहं च नानापक्षिसमाकुलम् ७७।
स्फुरत्कैरवकह्लारकमलेंदीवरादिभिः ।
भ्राजितं पद्मरागैश्च पद्मसोपानसत्तटम् ७८।
विविधैः कुसुमोद्दामैर्मंजुकुंजलताद्रुमैः ।
विराजितचतुस्तीरमुपस्पृश्य स्थिता क्षणम् ७९।
तत्रांतरे क्वणत्कांची मंजुमंजीररंजितम् ।
किंकिणीनां झणत्कारं शुश्रावोत्कर्णसंपुटे ८०।
ततश्च प्रमदावृंदमाश्चर्ययुतयौवनम् ।
आश्चर्यालंकृतिन्यासमाश्चर्याकृतिभाषितम् ८१।
अद्भुतांगमपूर्वं सा पृथगाश्चर्यविभ्रमम् ।
चित्रसंभाषणं चित्रहसितालोकनादिकम् ८२।
मधुराद्भुतलावण्यं सर्वमाधुर्यसेवितम् ।
चिल्लावण्यगतानंतमाश्चर्याकुलसुंदरम् ८३।
आश्चर्यस्निग्धसौंदर्यमाश्चर्यानुग्रहादिकम् ।
सर्वाश्चर्यसमुदयमाश्चर्यालोकनादिकम् ८४।
दृष्ट्वा तत्परमाश्चर्यं चिंतयंती हृदा कियत् ।
पादांगुष्ठेना लिखंती भुवं नम्रानना स्थिता ८५।
ततस्तासां संभ्रमोऽभूद्दृष्टीनां च परस्परम् ।
केयं मदीयजातीया चिरेणानस्तकौतुका ८६।
इति सर्वाः समालोक्य ज्ञातव्येयमिति क्षणम् ।
आमंत्र्य मंत्रणाभिज्ञाः कौतुकाद्द्रष्टुमागताः ८७।
आगत्य तासामेकाथ नाम्ना प्रियमुदा मता ।
गिरा मधुरया प्रीत्या तामुवाच मनस्विनी ८८।
प्रियमुदोवाच-।
कासि त्वं कस्य कन्यासि कस्य त्वं प्राणवल्लभा ।
जाता कुत्रासि केनास्मिन्नानीता वा गता स्वयम् ८९।
एतच्च सर्वमस्माकं कथ्यतां चिंतया किमु ।
स्थानेऽस्मिन्परमानंदे कस्यापि दुःखमस्ति किम् ९०।
इति पृष्टा तया सा तु विनयावनतिं गता ।
उवाच सुस्वरं तासां मोहयंती मनांसि च ९१।
अर्जुन उवाच- ।
का वास्मि कस्य कन्या वा प्रजाता कस्य वल्लभा ।
आनीता केन वा चात्र किं वाथ स्वयमागता ९२।
एतत्किंचिन्न जानामि देवी जानातु तत्पुनः ।
कथितं श्रूयतां तन्मे मद्वाक्ये प्रत्ययो यदि ९३।
अस्यैव दक्षिणे पार्श्वे एकमस्ति सरोवरम् ।
तत्राहं स्नातुमायाता जाता तत्रैव संस्थिता ९४।
विषमोत्कंठिता पश्चात्पश्यंती परितो दिशम् ।
एकमाकाशसंभूतं ध्वनिमश्रौषमद्भुतम् ९५।
अनेनैव पथा सुभ्रु गच्छ पूर्वसरोवरम् ।
उपस्पृश्य जलं तस्य साधयस्व मनोरथम् ९६।
तत्र संति हि सख्यस्ते मा सीद वरवार्णिनि ।
ताहि संपादयिष्यंति तत्र ते वरमीप्सितम् ९७।
इत्याकर्ण्य वचस्तस्य तस्मादत्र समागता ।
विषादहर्षपूर्णात्मा चिंताकुलसमाकुला ९८।
आगतास्य जलं स्पृष्ट्वा नानाविधशुभध्वनिम् ।
अश्रौषं च ततः पश्चादपश्यं भवतीः पराः ९९।
एतन्मात्रं विजानामि कायेन मनसा गिरा ।
एतदेव मया देव्यः कथितं यदि रोचते १००।
का यूयं तनुजाः केषां क्व जाताः कस्य वल्लभाः ।
तच्छ्रुत्वा वचनं तस्याः सा वै प्रियमुदाब्रवीत् १०१।
अस्त्वेवं प्राणसख्यः स्म तस्यैव च वयं शुभे ।
वृंदावनकलानाथ विहारदारिकाः सुखम् १०२।
ता आत्ममुदितास्तेन व्रजबाला इहागताः ।
एताः श्रुतिगणाः ख्याता एताश्च मुनयस्तथा १०३।
वयं बल्लवबाला हि कथितास्ते स्वरूपतः ।
अत्र राधापतेरंगात्पूर्वायाः प्रेयसीतमाः १०४।
नित्या नित्यविहारिण्यो नित्यकेलि भुवश्चराः ।
एषा पूर्णरसा देवी एषा च रसमंथरा १०५।
एषा रसालया नाम एषा च रसवल्लरी ।
रसपीयूषधारेयमेषा रसतरंगिणी १०६।
रसकल्लोलिनी चैषा इयं च रसवापिका ।
अनंगसेना एषैव इयं चानंगमालिनी १०७।
मदयंती इयं बाला एषा च रसविह्वला ।
इयं च ललिता नाम इयं ललितयौवना १०८।
अनंगकुसुमा चैषा इयं मदनमंजरी ।
एषा कलावती नाम इयं रतिकला स्मृता १०९।
इयं कामकला नाम इयं हि कामदायिनी ।
रतिलोला इयं बाला इयं बाला रतोत्सुका ११०।
एषा चरति सर्वस्व रतिचिंतामणिस्त्वसौ ।
नित्यानंदाः काश्चिदेता नित्यप्रेमरसप्रदाः १११।
अतःपरं श्रुतिगणास्तासां काश्चिदिमाः शृणु ।
उद्गीतैषा सुगीतेयं कलगीता त्वियं प्रिया ११२।
एषा कलसुराख्याता बालेयं कलकंठिका ।
विपंचीयं क्रमपदा एषा बहुहुता मता ११३।
एषा बहुप्रयोगेयं ख्याता बहुकला बला ।
इयं कलावती ख्याता मता चैषा क्रियावती ११४।
अतःपरं मुनिगणास्तासां कतिपया इह ।
इयमुग्रतपा नाम एषा बहुगुणा स्मृता ११५।
एषा प्रियव्रता नाम सुव्रता च इयं मता ।
सुरेखेयं मता बाला सुपर्वेयं बहुप्रदा ११६।
रत्नरेखा त्वियं ख्याता मणिग्रीवा त्वसौ मता ।
सुपर्णा चेयमाकल्पा सुकल्पा रत्नमालिका ११७।
इयं सौदामिनी सुभ्रूरियं च कामदायिनी ।
एषा च भोगदाख्या ता इयं विश्वमता सती ११८।
एषा च धारिणी धात्री सुमेधा कांतिरप्यसौ ।
अपर्णेयं सुपर्णैषा मतैषा च सुलक्षणा ११९।
सुदतीयं गुणवती चैषासौ कलिनी मता ।
एषा सुलोचना ख्याता इयं च सुमनाः स्मृता १२०।
अश्रुता च सुशीला च रतिसुखप्रदायिनी ।
अतः परं गोपबाला वयमत्रागतास्तु याः १२१।
तासां च परिचीयंतां काश्चिदंबुरुहानने ।
असौ चंद्रावली चैषा चंद्रिकेयं शुभा मता १२२।
एषा चंद्रावली चंद्ररेखेयं चंद्रिकाप्यसौ ।
एषा ख्याता चंद्रमाला मता चंद्रालिकात्वियम् १२३।
एषा चंद्रप्रभा चंद्रकलेयमबला स्मृता ।
एषा वर्णावली वर्णमालेयं मणिमालिका १२४।
वर्णप्रभा समाख्याता सुप्रभेयं मणिप्रभा ।
इयं हारावली तारा मालिनीयं शुभा मता १२५।
मालतीयमियं यूथी वासंती नवमल्लिका ।
मल्लीयं नवमल्लीयमसौ शेफालिका मता १२६।
सौगंधिकेयं कस्तूरी पद्मिनीयं कुमुद्वती ।
एषैव हि रसोल्लासा चित्रवृंदा समा त्वियम् १२७।
रंभेयमुर्वशी चैषा सुरेखा स्वर्णरेखिका ।
एषा कांचनमालेयं सत्यसंततिका परा १२८।
एताः परिकृताः सर्वाः परिचेयाः परा अपि ।
सहितास्माभिरेताभिर्विहरिष्यसि भामिनि १२९।
एहि पूर्वसरस्तीरे तत्र त्वां विधिवत्सखि ।
स्नापयित्वाथ दास्यामि मंत्रं सिद्धिप्रदायकम् १३०।
इति तां सहसा नीत्वा स्नापयित्वा विधानतः ।
वृंदावनकलानाथ प्रेयस्या मंत्रमुत्तमम् १३१।
ग्राहयामास संक्षेपाद्दीक्षाविधिपुरस्सरम् ।
परं वरुणबीजस्य वह्निबीजपुरस्कृतम् १३२।
चतुर्थस्वरसंयुक्तं नादबिंदुविभूषितम् ।
पुटितं प्रणवाभ्यां च त्रैलोक्ये चातिदुर्ल्लभम् १३३।
मंत्रग्रहणमात्रेण सिद्धिः सर्वा प्रजायते ।
पुरश्चर्याविधिर्ध्यानं होमसंख्याजपस्य च १३४।
तप्तकांचनगौरांगीं नानालंकारभूषिताम् ।
आश्चर्यरूपलावण्यां सुप्रसन्नां वरप्रदाम् १३५।
कल्हारैः करवीराद्यैश्चंपकैः सरसीरुहैः ।
सुगंधकुसुमैरन्यैः सौगंधिकसमन्वितैः १३६।
पाद्यार्घ्याचमनीयैश्च धूपदीपैर्मनोहरैः ।
नैवेद्यैर्विविधैर्दिव्यैः सखीवृंदाहृतैर्मुदा १३७।
संपूज्य विधिवद्देवीं जप्त्वा लक्षमनुं ततः ।
हुत्वा च विधिना स्तुत्वा प्रणम्य दंडवद्भुवि १३८।
ततः सा संस्तुता देवी निमेषरहितांतरा ।
परिकल्प्य निजां छायां माययात्मसमीहया १३९।
पार्श्वेऽथ प्रेयसीं तत्र स्थापयित्वा बलादिव ।
सखीभिरावृता हृष्टा शुद्धैः पूजाजपादिभिः १४०।
स्तवैर्भक्त्या प्रणामैश्च कृपयाविरभूत्तदा ।
हेमचंपकवर्णाभा विचित्राभरणोज्ज्वला १४१।
अंगप्रत्यंगलावण्य लालित्य मधुराकृतिः ।
निष्कलंक शरत्पूर्णकलानाथ शुभानना १४२।
स्निग्धमुग्धस्मितालोक जगत्त्रयमनोहरा ।
निजया प्रभयात्यंतं द्योतयंती दिशो दश १४३।
अब्रवीदथ सा देवी वरदा भक्तवत्सला ।
देव्युवाच-।
मत्सखीनां वचः सत्यं तेन त्वं मे प्रिया सखी १४४।
समुत्तिष्ठ समागच्छ कामं ते साधयाम्यहम् ।
अर्जुनी सा वचो देव्याः श्रुत्वा चात्ममनीषितम् १४५।
पुलकांकुरमुग्धांगी बाष्पाकुलविलोचना ।
पपात चरणे देव्याः पुनश्च प्रेमविह्वला १४६।
ततः प्रियंवदां देवीं समुवाच सखीमिमाम् ।
पाणौ गृहीत्वा मत्संगे समाश्वास्य समानय १४७।
ततः प्रियंवदा देव्या आज्ञया जातसंभ्रमा ।
तां तथैव समादाय संगे देव्या जगाम ह १४८।
गत्वोत्तरसरस्तीरे स्नापयित्वा विधानतः ।
संकल्पादिकपूर्वं तु पूजयित्वा यथाविधि १४९।
श्रीगोकुलकलानाथमंत्रं तच्च सुसिद्धिदम् ।
ग्राहयामास तां देवी कृपया हरिवल्लभा १५०।
व्रतं गोकुलनाथाख्यं पूर्वं मोहनभूषितम् ।
सर्वसिद्धिप्रदं मंत्रं सर्वतंत्रेषु गोपितम् १५१।
गोविंदेरितविज्ञासौ ददौ भक्तिमचंचलाम् ।
ध्यानं च कथितं तस्यै मंत्रराजं च मोहनम् १५२।
उक्तं च मोहने तंत्रे स्मृतिरप्यस्य सिद्धिदा ।
नीलोत्पलदलश्यामं नानालंकारभूषितम् १५३।
कोटिकंदर्पलावण्यं ध्यायेद्रासरसाकुलम् ।
प्रियंवदामुवाचेदं रहस्यं पावनेच्छया १५४।
श्रीराधिकोवाच-।
अस्या यावद्भवेत्पूर्णं पुरश्चरणमुत्तमम् ।
तावद्धि पालयैनां त्वं सावधाना सहालिभिः १५५।
इत्युक्त्वा सा ययौ कृष्णपादांबुरुहसन्निधिम् ।
छायामात्मभवामात्मप्रेयसीनां निधाय च १५६।
तस्थौ तत्र यथापूर्वं राधिका कृष्णवल्लभा ।
अत्र प्रियंवदादेशात्पद्ममष्टदलं शुभम् १५७।
गोरोचनाभिर्निर्माय कुंकुमेनापि चंदनैः ।
एभिर्नानाविधैर्द्रव्यैः संमिश्रैः सिद्धिदायकम् १५८।
लिखित्वा यंत्रराजं च शुद्धं मंत्रं तमद्भुतम् ।
कृत्वा न्यासादिकं पाद्यमर्घ्यं चापि यथाविधि १५९।
नानर्तुसंभवैः पुष्पैः कुंकुमैरपि चंदनैः ।
धूपदीपैश्च नैवेद्यैस्तांबूलैर्मुखवासनैः १६०।
वासोलंकारमाल्यैश्च संपूज्य नंदनंदनम् ।
परिवारैः समं सर्वैः सायुधं च सवाहनम् १६१।
स्तुत्वा प्रणम्य विधिवच्चेतसा स्मरणं ययौ ।
ततो भक्तिवशो देवो यशोदानंदनः प्रभुः १६२।
स्मितावलोकितापांग तरंगिततरेंगितम् ।
उवाच राधिकां देवीं तामानय इहाशु च १६३।
आज्ञप्ता चैव सा देवी प्रस्थाप्य शारदां सखीम् ।
तामानिनाय सहसा पुरोवासुरसात्मनः १६४।
श्रीकृष्णस्य पुरस्तात्सा समेत्य प्रेमविह्वला ।
पपात कांचनीभूमौ पश्यंती सर्वमद्भुतम् १६५।
कृच्छ्रात्कथंचिदुत्थाय शनैरुन्मील्य लोचने ।
स्वेदांभः पुलकोत्कंप भावभाराकुलासती १६६।
ददर्श प्रथमं तत्र स्थलं चित्रं मनोरमम् ।
ततः कल्पतरुस्तत्र लसन्मरकतच्छदः १६७।
प्रवालपल्लवैर्युक्तः कोमलो हेमदंडकः ।
स्फटिकप्रवालमूलश्च कामदः कामसंपदाम् १६८।
प्रार्थकाभीष्टफलदस्तस्याधो रत्नमंदिरम् ।
रत्नसिंहासनं तत्र तत्राष्टदलपद्मकम् १६९।
शंखपद्मनिधी तत्र स व्यापसव्यसंस्थितौ ।
चतुर्दिक्षु यथा स्थानं सहिताः कामधेनवः १७०।
परितो नंदनोद्यानं मलयानिलसेवितम् ।
ऋतूनां चैव सर्वेषां कुसुमानां मनोहरैः १७१।
आमोदैर्वासितं सर्वं कालागुरुपराजितम् ।
मकरंदकणावृष्टिशीतलं सुमनोहरम् १७२।
मकरंदरसास्वाद मत्तानां भृंगयोषिताम् ।
वृंदशो झंकृतैः शश्वच्चैवं मुखरितांतरम् १७३।
कलकंठी कपोतानां सारिकाशुकयोषिताम् ।
अन्यासां पत्रिकांतानां कलनादैर्निनादितम् १७४।
नृत्यैर्मत्तमयूराणामाकुलं स्मरवर्द्धनम् ।
रसांबुसेकसंसृष्ट तमांजनतनुद्युतिम् १७५।
सुस्निग्धनीलकुटिल कषायावासिकुंतलम् ।
मदमत्तमयूराद्य शिखंडाबद्धचूडकम् १७६।
भृंगसेवितसव्योपक्रमपुष्पावतंसकम् ।
लोलालकालिविलसत्कपोलादर्शकाशितम् १७७।
विचित्रतिलकोद्दाम भालशोभाविराजितम् ।
तिलपुष्पपतंगेश चंचुमंजुलनासिकम् १७८।
चारुबिंबाधरं मंदस्मितदीपितमन्मथम् ।
वन्यप्रसूनसंकाश ग्रैवेयकमनोहरम् १७९।
मदोन्मत्तभ्रमद्भृंगी सहस्रकृतसेवया ।
सुरद्रुमस्रजाराजन्मुग्धपीनांसकद्वयम् १८०।
मुक्ताहारस्फुरद्वक्षः स्थलकौस्तुभभूषितम् ।
श्रीवत्सलक्षणं जानुलंबिबाहुमनोहरम् १८१।
गंभीरनाभिपंचास्य मध्यमध्यातिसुंदरम् ।
सुजातद्रुमसद्वृत्त मदूरजानुमंजुलम् १८२।
कंकणांगदमञ्जीरैर्भूषितं भूषणैः परैः ।
पीतांशुकलयाविष्ट नितंबघटनायकम् १८३।
लावण्यैरपि सौंदर्यजितकोटिमनोभवम् ।
वेणुप्रवर्त्तितैर्गीतरागैरपि मनोहरैः १८४।
मोहयंतं सुखांभोधौ मज्जयंतं जगत्त्रयम् ।
प्रत्यंगमदनावेशधरं रासरसालसम् १८५।
चामरं व्यजनं माल्यं गंधंचंदनमेव च ।
तांबूलं दर्पणं पानपात्रं चर्वितपात्रकम् १८६।
अन्यत्क्रीडाभवं यद्यत्तत्सर्वं च पृथक्पृथक् ।
रसालं विविधं यंत्रं कलयंतीभिरादरात् १८७।
यथास्थाननियुक्ताभिः पश्यंतीभिस्तदिंगितम् ।
तन्मुखांभोजदत्ताक्षि चंचलाभिरनुक्रमात् १८८।
श्रीमत्या राधिका देव्या वामभागे ससंभ्रमम् ।
आराधयंत्या तांबूलमर्पयंत्या शुचिस्मितम् १८९।
समालोक्यार्जुनी यासौ मदनावेशविह्वला ।
ततस्तां च तथा ज्ञात्वा हृषीकेशोऽपि सर्ववित् १९०।
तस्याः पाणिं गृहीत्वैव सर्वक्रीडावनांतरे ।
यथाकामं रहो रेमे महायोगेश्वरो विभुः १९१।
ततस्तस्याः स्कंधदेशे प्रदत्तभुजपल्लवः ।
आगत्य शारदां प्राह पश्चिमेऽस्मिन्सरोवरे १९२।
शीघ्रं स्नापय तन्वंगीं क्रीडाश्रांतां मृदुस्मिताम् ।
ततस्तां शारदा देवी तस्मिन्क्रीडासरोवरे १९३।
स्नानं कुर्वित्युवाचैनां सा च श्रांता तथाकरोत् ।
जलाभ्यंतरमाप्तासौ पुनरर्जुनतां गतः १९४।
उत्तस्थौ यत्र देवेशः श्रीमद्वैकुंठनायकः ।
दृष्ट्वा तमर्जुनं कृष्णो विषण्णं भग्नमानसम् १९५।
मायया पाणिना स्पृष्ट्वा प्रकृतं विदधे पुनः ।
श्रीकृष्ण उवाच-।
धनंजय त्वामाशंसे भवान्प्रियसखो मम १९६।
त्वत्समो नास्ति मे कोपि रहोवेत्ता जगत्त्रये ।
यद्रहस्यं त्वया पृष्टमनुभूतं च तत्पुनः १९७।
कथ्यते यदि तत्कस्मै शपसे मां तदार्जुन ।
सनत्कुमार उवाच-।
इति प्रसादमासाद्य शपथैर्जातनिर्णयः १९८।
ययौ हृष्टमनास्तस्मात्स्वधामाद्भुतसंस्मृतिः ।
इति ते कथितं सर्वं रहो यद्गोचरं मम १९९।
गोविंदस्य तथा चास्मै कथने शपथस्तव ।
ईश्वर उवाच-।
इति श्रुत्वा वचस्तस्य सिद्धिमौपगविर्गतः २००।
नरनारायणावासं वृंदारण्यमुपाव्रजत् ।
तत्रास्तेऽद्यापि कृष्णस्य नित्यलीलाविहारवित् २०१।
नारदेनापिपृष्टोऽहं नाब्रवं तद्रहस्यकम् ।
प्राप्तं तथापि तेनेदं प्रकृतित्वमुपेत्यच २०२।
तुभ्यं यत्तु मया प्रोक्तं रहस्यं स्नेहकारणात् ।
तन्नकस्मैचिदाख्येयं त्वया भद्रे स्वयोनिवत् २०३।
इमं श्रीभगवद्भक्तमहिमाध्यायमद्भुतम् ।
यः पठेच्छृणुयाद्वापि स रतिं विंदते हरौ २०४।
इति श्रीपद्मपुराणे पातालखंडे अर्जुन्यनुनयोनाम चतुःसप्ततितमोऽध्यायः ७४।

अंतिम बार २ 


विकिस्रोतः
← अध्यायः ०७४पद्मपुराणम्
अध्यायः ०७५
वेदव्यासः
अध्यायः ०७६ →

पार्वत्युवाच-।
वृंदावनरहस्यं च बहुधा कथितं विभो ।
केन पुण्यविशेषेण नारदः प्रकृतिं गतः १।
ईश्वर उवाच-
एकदाश्चर्यवृत्तांतं मया जिज्ञासितं पुरा ।
ब्रह्मणा कथितं गुह्यं श्रुतं कृष्णमुखांबुजात् २।
नारदः पृष्टवान्मह्यं तदाहं प्राप्तवानिदम् ।
अहं वक्तुं न शक्नोमि तन्माहात्म्यं कथंचन ३।
किं कुर्वे शपनं तस्य स्मृत्वा सीदामि मानसे ।
इति श्रुत्वा मम वचो दुर्मनाः सोऽभवद्यदा ४।
तदा ब्रह्माणमाहूय अहमादिष्टवान्प्रिये ।
त्वया यत्कथितं मह्यं नारदाय वदस्व तत् ५।
ब्रह्मा तदा ममवचो निशम्य सह नारदः ।
जगाम कृष्णसविधं नत्वा पृच्छत्तदेव तु ६।
ब्रह्मोवाच-
किमिदं द्वात्रिंशद्वनं वृंदारण्यं विशांपते ।
श्रोतुमिच्छामि भगवन्यदियोग्योऽस्मि मे वद ७।
श्रीभगवानुवाच-
इदं वृंदावनं रम्यं मम धामैव केवलम् ।
यत्रेमे पशवः साक्षाद्वृक्षाः कीटा नरामराः ८।
ये वसंति ममांत्ये ते मृता यांति ममांतिकम् ।
अत्र या गोपपत्न्यश्च निवसंति ममालये ९।
योगिन्यस्तास्तु एवं हि मम देवाः परायणाः ।
पंचयोजनमेवं हि वनं मे देवरूपकम् १०।
कालिंदीयं सुषुम्नाख्या परमामृतवाहिनी ।
यत्र देवाश्च भूतानि वर्त्तंते सूक्ष्मरूपतः ११।
सर्वतो व्यापकश्चाहं न त्यक्ष्यामि वनं क्वचित् ।
आविर्भावस्तिरोभावो भवेदत्र युगेयुगे १२।
तेजोमयमिदं स्थानमदृश्यं चर्मचक्षुषाम् ।
रहस्यं मे प्रभावं च पश्य वृंदावनं युगे १३।
ब्रह्मादीनां देवतानां न दृश्यं तत्कथंचन ।
ईश्वर उवाच-
तच्छ्रुत्वा नारदो नत्वा कृष्णं ब्रह्माणमेव च १४।
आजगाम ह भूर्लोके मिश्रकं नैमिषं वनम् ।
तत्रासौ सत्कृतश्चापि शौनकाद्यैर्मुनीश्वरैः १५।
पृष्टश्चाप्यागतो ब्रह्मन्कुतस्त्वमधुना वद ।
तच्छ्रुत्वा नारदः प्राह गोलोकादागतोऽस्म्यहम् १६।
श्रुत्वा कृष्णमुखांभोजाद्वृंदावनरहस्यकम् ।
नारद उवाच-
तत्र नानाविधाः प्रश्नाः कृताश्चैव पुनः पुनः १७।
समस्ता मनवस्तत्र योगाश्चैव मया श्रुताः ।
तानेव कथयिष्यामि यथाप्रश्नं च तत्त्वतः १८।
शौनकादय ऊचुः -
वृंदारण्यरहस्यं हि यदुक्तं ब्रह्मणा त्वयि ।
तदस्माकं समाचक्ष्व यद्यस्मासु कृपा तव १९।
नारद उवाच-
कदाचित्सरयूतीरे दृष्टोऽस्माभिश्च गौतमः ।
मनस्वी च महादुःखी चिंताकुलितचेतनः २०।
मां दृष्ट्वा गौतमो देवः पपात धरणीतले ।
उत्तिष्ठ वत्सवत्सेति तमुवाचाहमेव हि २१।
कथं भवान्मनस्वीति प्रोच्य तां यदि रोचते ।
गौतम उवाच-
श्रुतं तव मुखादेव कृष्णतत्त्वं च तादृशम् २२।
द्वारकाख्यं माथुराख्यं रहस्यं बहुशो मया ।
वृंदावनरहस्यं तु न श्रुतं त्वन्मुखांबुजात् २३।
यतो मे मनसः स्थैर्य्यं भविष्यति च सद्गुरो ।
नारद उवाच-
इदं तु परमं गुह्यं रहस्यातिरहस्यकम् २४।
पुरा मे ब्रह्मणा प्रोक्तं तादृग्वृंदावनोद्भवम् ।
रहस्यं वद देवेश वृंदारण्यस्य मे पितः २५।
इतिजिज्ञासितं श्रुत्वा क्षणं मौनी स चाभवत् ।
ततो माऽह महाविष्णुं गच्छ वत्स प्रभुं मम २६।
मयापि तत्र गंतव्यं त्वया सह न संशयः ।
इत्युक्त्वा मां गृहीत्वा च गतो विष्णोश्च धामनि २७।
महाविष्णौ च कथितं मयोक्तं यत्तदेव हि ।
तच्छ्रुत्वा च महाविष्णुः स्वयं भुवमथादिशत् २८।
त्वमेवादेशतो मह्यं नीत्वा वै नारदं मुनिम् ।
स्नानाय विनियुंक्ष्वामुं सरस्यमृतसंज्ञके २९।
महाविष्णुसमादिष्टः स्वयंभूर्मां तथाकरोत् ।
तत्रामृतसरश्चाहं प्रविश्य स्नानमाचरम् ३०।
तत्क्षणात्तत्सरः पारे योषितां सविधेऽभवम् ।
सर्वलक्षणसपन्ना योषिद्रूपातिविस्मिता ३१।
मां दृष्ट्वा ताः समायांतीमपृच्छंश्च मुहुर्मुहुः ।
स्त्रिय ऊचुः -
का त्वं कुतः समायाता कथयात्मविचेष्टितम् ३२।
तासां प्रियकथां श्रुत्वा मयोक्तं तन्निशामय ।
कुतः कोऽहं समायातः कथं वा योषिदाकृतिः ३३।
स्वप्नवद्दृश्यते सर्वं किं वा मुग्धोऽस्मि भूतले ।
तच्छ्रुत्वा मद्वचो देवी प्रोवाच मधुरस्वनैः ३४।
वृंदानाम्नी पुरी चेयं कृष्णचंद्रप्रिया सदा ।
अहं च ललितादेवी तुर्यातीता च निष्कला ३५।
इत्युक्त्वा च महादेवी करुणा सांद्रमानसा ।
मां प्रत्याह पुनर्देवी समागच्छ मया सह ३६।
अन्याश्च योषितः सर्वाः कृष्णपादपरायणाः ।
ताश्च मां प्रवदंत्येवं समागच्छानया सह ३७।
ततोनुकृष्णचंद्रस्य चतुर्दशाक्षरो मनुः ।
कृपया कथितस्तस्या देव्याश्चापि महात्मनः ३८।
तत्क्षणादेव तत्साम्यमलभं विविधोपमा ।
ताभिः सह गतास्तत्र यत्र कृष्णः सनातनः ३९।
केवलं सच्चिदानंदः स्वयंयोषिन्मयः प्रभुः ।
योषिदानंदहृदयो दृष्ट्वा मां प्राब्रवीन्मुहुः ४०।
समागच्छ प्रिये कांते भक्त्या मां परिरंभय ।
रेमे वर्षप्रमाणेन तत्र चैव द्विजोत्तम ४१।
तदोक्तं रमणेशेन तां देवीं राधिकां प्रति ।
इयं मे प्रकृतिस्तत्र चासीन्नारदरूपधृक् ४२।
नीत्वामृतसरो रम्यं स्नानार्थं संनियोजय ।
तया मे रमणस्यांते गदितं प्रियभाषितम् ४३।
अहं च ललितादेवी राधिकाया च गीयते ।
अहं च वासुदेवाख्यो नित्यं कामकलात्मकः ४४।
सत्यं योषित्स्वरूपोऽहं योषिच्चाहं सनातनी ।
अहं च ललितादेवी पुंरूपा कृष्णविग्रहा ४५।
आवयोरंतरं नास्ति सत्यंसत्यं हि नारद ।
एवं यो वेत्ति मे तत्त्वं समयं च तथा मनुम् ४६।
स समाचारसंकेतं ललिता वत्स मे प्रियः ।
इदं वृंदावनं नाम रहस्यं मम वै गृहम् ४७।
न प्रकाश्यं कदा कुत्र वक्तव्यं न पशौ क्वचित् ।
ततोऽनुराधिकादेवी मां नीत्वा तत्सरोवरे ४८।
स्थित्वा सा कृष्णचंद्रस्य चरणांते गता पुनः ।
ततो निमज्जनादेव नारदोऽहमुपागतः ४९।
वीणाहस्तो गानपरस्तद्रहस्यं मुहुर्मुदा ।
स्वयंभुवं नमस्कृत्य तत्रागां विष्णुपार्षदम् ५०।
स्वयंभुवा तथा दृष्टं नोक्तं किंचित्तदा पुनः ।
इति ते कथितं वत्स सुगोप्यं च मया त्वयि ५१।
त्वयापि कृष्णचंद्रस्य केवलं धामचित्कलम् ।
गोपनीयं प्रयत्नेन मातुर्जारइव प्रियम् ५२।
यथा प्रोक्तं मया शिष्ये गौतमे सरहस्यकम् ।
तथा भवत्सु कार्त्स्न्येन कथितं चातिगोपितम् ५३।
यत्र कुत्र कदाचित्तु प्रकाश्यं मुनिपुंगवाः ।
तदा शापो भवेद्विप्राः कृष्णचंद्रस्य निश्चितम् ५४।
इमं कृष्णस्य लीलाभिर्युतमध्यायमुत्तमम् ।
यः पठेच्छृणुयाद्वापि स याति परमं पदम् ५५।
इति श्रीपद्मपुराणे पातालखंडे वृंदावनमाहात्म्ये नारदीयानुनये पंचसप्ततितमोऽध्यायः ७५।

अंतिम बार २ 



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ईश्वर उवाच-।
अत्र शिशुपालं निहतं श्रुत्वा दंतवक्त्रः कृष्णेन योद्धुं मथुरामाजगाम १।
कृष्णस्तु तच्छ्रुत्वा रथमारुह्य तेन सह मथुरामाययौ २।
अथ तं हत्वा यमुनामुत्तीर्य नंदव्रजं गत्वा पितरावभिवाद्याश्वास्य ताभ्यामालिंगितः सकल गोपवृद्धान्परिष्वज्य तानाश्वास्य बहुवस्त्राभरणादिभिस्तत्रस्थान्सर्वान्संतर्पयामास ३।
कालिंद्याः पुलिने रम्ये पुण्यवृक्षसमाकीर्णे गोपस्त्रीभिरहर्निशं क्रीडासुखेन त्रिरात्रं तत्र समुवास ४।
तत्र स्थले नंदगोपादयः सर्वे जनाः पुत्रदारसहिताः पशुपक्षिमृगादयोऽपि वासुदेवप्रसादेन दिव्यरूपधरा विमानसमारूढाः परमं लोकं वैकुंठमवापुः ५।
श्रीकृष्णस्तु नंदगोपव्रजौकसां सर्वेषां निरामयं स्वपदं दत्वा देवगणैः स्तूयमानः।
श्रीमतीं द्वारावतीं विवेश ६।
तत्र वसुदेवोग्रसेनसंकर्षणप्रद्युम्नानिरुद्धाक्रूरादिभिः प्रत्यहं संपूजितः षोडशसहस्राष्टाधिकमहिषीभिश्च विश्वरूपधरो दिव्यरत्नमय लतागृहांतरे-।
षु सुरतरुकुसुमार्चितश्लक्ष्णतरपर्यंकेषु रमयामास ७।
एवं हितार्थाय सर्वदेवानां समस्तभूभारविनाशाय यदुवंशेऽवतीर्य सकलराक्षसविनाशं कृतमहांतमुर्वीभारं नाशयित्वा नंदव्रजद्वारिकावासिनः स्थावरजंगमान्भवबंधनान्मोचयित्वा परमे शाश्वते योगिध्येये रम्ये धाम्नि संस्थाप्य नित्यं दिव्यमहिष्यादिभिः संसेव्यमानो वासुदेवोऽखिलेषूवाच ८।
असीदव्याकृतं ब्रह्मकरकाघृतयोरिव ।
प्रकृतिस्थो गुणान्मुक्तो द्रवीभूत्वा दिवं गतः ९।
इति श्रीपद्मपुराणे पातालखंडे वृंदावनमहात्म्ये पार्वती-शिवसंवादे षट्सप्ततितमोऽध्यायः ७६।

अंतिम बार २ 


अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा ।
यः स्मरेत्पुंडीकाक्षं स बाह्याभ्यंतरः शुचिः १२।
नामसंस्मरणादेव तथा तस्यार्थचिंतनात् ।
सौवर्णीं राजतीं वापि तथा पैष्टीं स्रगाकृतिम् १३।

श्रीपद्मपुराणे पातालखंडे उमामहेश्वरसंवादे वृंदावनमाहात्म्ये अशीतितमोऽध्यायः ८०।



वामपार्श्वे स्थितां तस्य राधिकां च स्मरेत्ततः ।
नीलचोलकसंवीतां तप्तहेमसमप्रभाम् ४४।